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रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
गया है तो उस समय काफी शहादत मिल सकती है, देखो-अविनाशचन्द्र मजूमदार बनाम हरीनाथ शाह 32 Cal. 62; 9 C. W. N. 25; 6 Cal.1983 6 C. 1. R. 588; 29 Mad. 390; 13 B. L. R. 222. दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा अधिकार रिवर्जनरको न दिया जाता, तो सम्भव था कि जायदाद इतनी खराब हो जाती कि पीछे रिवर्जनरके कामकी ही न रहती, देखो7 W. R. C. R. 119. दफा ६६६ रिवर्ज़नरके दावा करनेपर अदालत कब डिकरी देगी
सीमावद्ध स्त्री मालिककी जायदादके सम्बन्धमें रिवर्जनरके किसी प्रकारका दावा करनेपर अदालत जैसा मुनासिब समझेगी वैसा हुक्म या डिकरी देगी, देखो--स्पेसिफिक रिलीफ ऐक्ट 1 of 1877 S. S. 42; 11B. L. R. 171; 19 1. A. 133.
जब कोई रिवर्जनर यह दावा करे कि विधवाने जो जायदादका इन्तकाल किया है वह विधवाकी मौतके बाद खारिज कर दिया जाय, तो ऐसी सूरतमें, जब तक विधवा इन्तकालकी जायज़ और खास ज़रूरत सावित न करे, अदालत रिवर्जनरके दावेको मंजूर कर लेगी, देखो-ईश्वरीदत्त कुंवर बनाम हंसवती कुंवर 10 I. A 150; 10 Cal. 324.
जब विधवाने थोड़ी रकमके लिये जायदादका कोई हिस्सा रेहन किया हो, जिसे वह अपनी जिन्दगीमें अदा कर सकती हो, तो ऐसी सूरत में अगर रिवर्जनर उस रेहनके इन्तकालको खारिज करा देनेका दावा करे, तो मुमकिनहै कि अदालत उसे न माने, देखो-5 C. W. N. 446. कल्याणसिंह बनाम सांवलसिंह 7 All. 163. के मुक़दमे में विधवा एक वसीयतनामे के अनुसार जायदाद अपने काममें लाई थी। रिवर्जनरने उस इन्तकालको मंसूख करा पाने का दावा किया । अदालतने दावा मंजूर करके डिकरी दी। माना गया कि इन्तकाल नाजायज़ है । लेकिन "बिहारीलाल मोहरवार बनाम माधो. लाल शिरगयाबाल 13 BL. R. 222; 21 W.R.C. R. 430." वाले मुकदमे में विधवाने जायदादका जो इन्तकाल किया था उसका असर विधवाकी मौत के बाद होने वाला था. इस लिये अदालतने डिकरी नहीं दी। इसका सबब यह मालूम होताहै कि जब विधवाके इन्तकालका असर उसके मरनेपर होगा
और विधवाके मरते ही वह सच जायदाद उत्तराधिकारके अनुसार रिवर्जनरोंके पास चली जायगी, तब उस वक्त विधवाके इन्तकालमें ज़ोर बाकी न रहेगा, और दूसली बात यह भी हो सकती है कि वह आदमी जिसके हक़ में दन्तकाल किया गया है, विधवाके मरनेपर रिवर्जनरके मुताबिलेमें उसके अमल करा पानेका दावा करे, तो वह दावा महज़ इस वजह से भी खारिज हो जायेगा कि मुद्दई अपना दावा सावित नहीं करसका। ऐसा दावा रिक