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विवाह
दूसरा-प्रकरण
यह प्रकरण तीन भागों में विभक्त है (.) विवाह के भेद आदि दफा ३८-४५ _ ( २ ) विवाहमें वर्णित सपिंड दफा ४६-५६ ( ३ ) वैवादिक संबंध दफा ५७-८०
(१) विवाहके भेद आदि
दफा ३८ विवाह प्राचीन धर्म है
विवाह अर्थात् पति-पत्नीका संयोग प्राकृतिक नियम है। प्रत्येक जगह पर एवं प्रत्येक जीवों में पाया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा जड़ वस्तुओं में भी यह सिद्ध करके दिखा दिया गया है कि. उनके परस्पर भी यह नियम लागू है । विधिका भेद शरीरकी बनावट और परिस्थितिके अनुसारअवश्य है किन्तु स्त्री-पुरुष का संयोग प्राकृतिक नियम है । समाजके विचारानुसार समय समय पर बदलता रहता है । नामोंमें भी भेद पड़ता रहता है। वर्तमान समाज में वह विवाह के नामसे व्यापक है।
__ सारे संसारमें सभ्य असभ्य प्राचीन अर्वाचीन सब समाजोंमें विवाहकी रसम मानी जाती है। अति प्राचीन कालमें विवाहकी रसम ऐसी नहीं थी जैसी कि इस समय प्रचलित है । विवाहकी रसम जारी होनेपर भी वह भिन्न मिन्न समयमे मित्र मिन्न रूपकी थी, उदाहरणके लिये जैसे महाभारतके समयमें द्रौपदीके पांच पतियोंका होना या अन्य किसी समयमें एक पतिकी कई पत्नियोंका होना । सारांश यह है कि विवाहकी रसम संसार भरमें हर जगहपर प्राचीन है। दफा ३९ हिन्दुला के अनुसार विवाह
हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार विवाह एक धार्मिक कर्तव्य कर्म माना गया है याज्ञवल्क्य ने कहा है कि