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रिवर्जनर
[ दसवां प्रकरण
विधवा द्वारा रेहननामा-भावी वारिसकी नालिश रेहननामे को उस पर लागू न होना करार देनेके लिये-कर्जकी आवश्यकता प्रमाणितहुई किन्तु कर्जकी शौकी सख्तीकी आवश्यकता नहीं प्रमाणित हुई। यह हुक्म होना चाहिये, कि मुद्दई उन शौका पाचन्द नहीं है, मोहनलाल मु० धनकुंवर, 27 O. C. 362; 86 1. C. 426; A. I. R 1925 Oudh 509.
दत्तक पुत्र और भावी वारिसकी अवस्था, विधया द्वारा किये हुये इन्तकाल के सम्बन्ध में समान है, केवल इतना अन्तर है कि दत्तक पुत्रका अधिकार उस समयसे आरम्भ होता है जबसे वह गोद लिया जाता है और भावी वारिसका विधवाकी म्रत्यके पश्चात हनमगोडवा शिवगोडवा बनाम इरगोडवा शिवगोडवा 84 I. C. 374; A. I. R. 1925 Bom. 9.
किसी हिन्दू विधवाके सबसे नजदीकी भावी वारिसोंने नालिश दायर की कि उसके द्वारा जायदादके एक भागका इन्तलाल जो कई व्यक्तियों के हकमें किया गया, उनपर लाज़िम नहीं है। तय हुआ कि नालिश चलाये जाने के योग्य है, क्योंकि तमाम इन्तकालोंका सिलसिला इन्तकालोंके एक ही सिलसिलेमें है अतएव यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक इन्तकालके लिये पृथक नालिश कीजाय-शंकर बनाम विट्ठलदास 9 N. L. J. 17; A. I. R. 1926 Nag. 316.
विधवाके जीवनकालमें भावी वारिस द्वारा इस्तकरार हनकी नालिश प्रतिनिधिके बतौर होतीहै और इसमें नाकामयाब होनेसे असली भावी वारिस विधवाकी मृत्युके बाद कब्जे की नालिशसे महरूम रहता है-हुसेन रेड्डी बनाम वेंकटरेड्डी 83 I. C. 140; A. 1. R. 1925 Mad. 86; 47 M. L. J. 54b.जब मुद्दय्यानका यह दावाहो कि वे बंशगत वारिस हैं, तो उनपर यह जिम्मेदारीहै कि वह एकही पूर्वजको जिसकी वे सन्तान हों होना साबित करें शङ्कर राव बनाम पाण्डुरंग A. I. R. 1927 Nag. 65.
विधवाके इन्तकालपर भावी वारिस द्वारा इस्तक़रारकी नालिश-महाराज केशवप्रसादसिंह बनाम प्रद्याश ओझा 23 A. L. J. 168; 46 All. 831; L. R. 6P.C.1; 27 Bom. L. R. 13032L. W.2953290. W. N. 606; A. I. R. 1924 P.C. 247.
विधवाके जीवनकालमें ही भावी वारिस उसके पतिद्वारा किये हुये रेहननामेका इनफिनाक करसकते हैं -बसावन बनाम नाथा A. I. R. 1925 Oudh 30. जब किसी हिन्दू विधवा द्वारा किये हुये रेहननामेको जो गैरपढ़ी थी, उसकी तरफसे, उसके भावी वारिसने (पुत्रीके पुत्रने) तस्दीक किया हो । तय हुआ कि केवल इस विनापर ही पुत्रीके पुत्रकी रजामन्दी नहीं सावित होती--रामबुझावनसिंह बनाम सूरजप्रसाद ( 1925 ) P.H. C. C. 137; 88 I. C. 502; 6 Pat. L. I. 826; A. I. R. 1925 Pat. 467.