________________
धार्मिक और राती धर्मादे
[सत्रहवां प्रकरण
2983 6 Bom. H. C. 250; 13 C.W. N. 642, 36 Cal..975; 13C.W. N. 1084; 15 Mad. 183.
इस प्रकारका इन्तकाल ऐसा होता है कि मानो मठाधीश या मुख्याधिष्ठाताने अपने अधिकारको छोड़ दिया इससे ज्यादा इसका और कुछ मतलब नहीं है। यही राय मिस्टर मेनकी है, देखो - मेन हिन्दूला 7 ed. P.581.
महन्त दशरथ भारती अजोध्यामें परेला स्थानके महन्त थे उन्होंने एक मकान हरस्वरूपके पूर्वजोंके पास रेहन किया था। हरस्वरूपने रेहनकी डिकरी प्राप्तकी और मकान नीलाममें चढ़वाया तब विश्वनाथ भारतीने दावा किया कि मैं दुर्गाभारतीका चेला हूं और दुर्गाभारती दशरथ भारतीके चेले थे। मकान परेलाके मन्दिर में लगा है अदालत मातहतने फैसला किया कि यह मकान मन्दिरकी आमदनीसे खरीदा गया था, और रेहन किसी जायज़ ज़रूरतके लिये नहीं किया गया, भारती उन साधुओं में हैं जो विवाह नहीं करते वे नाबालिगोंको चेला बनाते हैं। तय हुआ कि जब कोई जायदाद जो सार्व. जनिक काममें लगी हो रेहन की जाय तो रेहन रखने वाले (मुरतहिन ) को साबित करना चाहिये कि रेहन जायज़ ज़रूरतके लिये किया गया था। दावा डिकरी हुआ यानी रेहन नाजायज़ करार पाया, देखो-66 I. C. 41b.
ठाकुर मुकुन्दसिंह वगैरा बनाम महन्त प्रेमदास 1922 A. I. R. 122 Nag. वाले मुकदमे में यह बात थी कि एक मौज़ा सन् १८४४ ई. में महन्त जानकीसेवकका था, सन् १८५५ ई० में महन्त जानकीसेवकके मरनेपर महन्त मोहनदास उसके मालिक हुए सन् १८६० ई० में वे मर गये और महन्त रघु. बरसरन मालिक हुये। सन् १८६१ ई० के बन्दोबस्तमें इस मौजेके मालिक महन्त रखुबरसरन लिखे गये । सन् १८६३ ई० में महन्त रघुबरसरनके मरने पर महन्त वृन्दाबनदास मालिक हुए, महन्त बृन्दावनदास ने ३६६६) रु० पर उस मौजेको रेहन कर दिया और मर गये उनके बाद महन्त प्रेमदास मालिक हुये उन्होंने दावा किया कि जायदाद मन्दिरकी है महन्त वृन्दावन दासको रेहन करनेका अधिकार न था। उस मौजकी आमदनी मन्दिरको दी जाती थी। तय हुआ कि किसी जायदादकी आमदनी अगर मन्दिरको दी जाती हो तो महज़ उस वजहसे यह नहीं माना जा सकता कि वह जायदाद मन्दिरकी है (2 Cal.341 ). किसी महन्तकी निजकी जायदाद हो सकती है और वह महन्त या साधू अपनी इच्छासे अपनी निजकी जायदादका मुनाफा जव मन्दिरको देता रहे तो वह मुनाफाका रुपया ऐसा माना जा सकता है कि मन्दिरको कर्जा दिया गया है।