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हिन्दूलॉ के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
दोनों ग्रन्थोंके अनुसार अर्थ करना चाहिये 30 B. 431 (P.C.); 10 C. W. N. 802 ( P. C.); 16 M. L.J. 446; 8 B. L. R. 446.
बम्बई हाईकोर्टका यह पुराना नियम है कि जहां मिताक्षरा चुप हो या स्पष्ट आशा न हो वहांपर व्यवहार मयूखकी सहायतासे ही अर्थ किया जायगा 32 B. 300; 10 B. L. R. 389. वालंभट्टकृत मिताक्षराका टीका बम्बईके हिन्दूगण नहीं मानते । नन्दपण्डितके सम्बंधमें भी ऐसाही समझना चाहिये 32 B. 300; 10 B. L. R. 389. (ख ) व्यवहारमयूख--इस ग्रन्थके कर्ता नीलकंठ थे जो सन् १६०० ई०
में पैदा हुए इनके ग्रन्थका व्यवहार सन् १७०० से आरंभ हुआ। गुजरात और बम्बई द्वीपमें यह सर्वमान्य ग्रन्थ है, तथा उत्तर कोकणमें भी माना जाता है, अहमदनगर, पूना और खानदेशमें मिताक्षराके तुल्य माना जाता है पर मिताक्षराकी श्राशाको खण्डन नहीं करसकता इस ग्रन्थका अङ्गरेज़ी अनुवाद बोरोडेल और मिस्टर मण्डलीकने किया है 3 B. 353; 14 B. 624; 11 B. 285, 29 4. नीलकण्ठने स्मृतियोंके श्लोकोंके अर्थका जिस प्रकार व्यवहार किया है उसमें दोबातें ध्यान देनेयोग्य हैं एक तो यह कि जिन श्लोकोंमें मनुष्यों या बस्तुओंका क्रम या उनमेसे किलीका पहिले होने की बात कही गयी है वहांपर नीलकण्ठने वह क्रम साफ तौरसे कह दिया है परंतु ऐसे किसी श्लोकको, बिना किसी दूसरे श्लोकके प्रमाणके अर्थ नहीं करना चाहिये 7
B. L. R. 622, (ग) निर्णयसिंधु--इस ग्रन्थके कर्ता कमलाकर थे इनका ग्रन्थ दक्षिण
पश्चिम और उत्तरके स्कूलों में सर्व प्रधान मान्य है। (घ) दत्तकमीमांसा--( देखो दफा ६ ) दत्तक विधानमें यह ग्रन्थ अव
श्य मान्य है परंतु जहांपर नन्दपण्डित स्मृतियोंसे भिन्न होते हैं या उनमें कुछ बढ़ाते हैं या उनकी वात, अदालतके माने हुए किसी पुरानी रवाजके विरुद्ध हो तो वहांपर वह मान्य नहीं
हैं 10 B. L. R.948. (ङ) कौस्तुभ ठीक समयका पता नहीं लगा। (४) द्रविडस्कूल--दक्षिण भारतमें देवानन्द भट्टने तेरहवीं शताब्दीमें जारी किया। (क ) मिताक्षरा--दक्षिण भारतमें मिताक्षरा सर्वोपरि ग्रन्थ माना जाता
है यदि स्मृति चन्द्रिकासे भिन्न होनेका कोई साफ प्रमाण न हो तो स्मृतिचन्द्रिकाके ऊपर मिताक्षरा ही माना जायगा 29M.358