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________________ २०० दत्तक या गोद [चौथा प्रकरण कुमारी अपनी विडवाको छोड़ा। गोपालचन्द्र अपना लड़का गोपीचन्द्रको छोड़कर सन् १८६८ ई० में मर गया; उसके बाद गोपीचन्द्र भी बिना व्याहा तथा बिना औलादके मर गया । गोपीचन्द्रके मरनेके बाद उसकी वारिस प्राणकुमारी हुई तब उसने अपने पतिके लिये एकलड़के जीवनमलको गोद लिया। गोपीचन्द्रके एक दूरके कुटुम्बी रिश्तेदारने प्राणकुमारीपर दावा किया । अदालतसे वादीने प्रार्थना की कि क़रार दिया जाय कि प्राणकुमारी के मरने के बाद मैं जायदाद का वारिस हूँ और जो गोद प्राणकुमारीने लिया है नाजायज़ है, हाईकोर्टसे तय हुआ कि अगर जगतसेठने गोदलेने के लिये अपनी विधवा प्राणकुमारी को अधिकार दिया होता तो गोद नाजायज़ न होता मगर इस मुकद्दमेके पक्षकार जैन मज़हब के हैं और उनके क़ानूनके अनुसार विधवा बिना आझापतिके गोद ले सकती है, इस लिये प्राणकुमारीका गोद लेना जायज़ है। देखो-नानकचन्द बनाम जगतसेठानी 17 Cal 51 8-536 हाईकोर्टने इस मुकद्दमेमै लार्ड किंग्सडौनके मतानुसार फैसला किया । यह सन्देह होता है कि यद्यपि जैन कौमकी विधवाको बिना श्राशा पतिके गोद लेनेका अधिकार है ताहम यह कयास करना मुश्किल है कि विधवा वह काम भी कर सकती थी, जिसके लिये उसके पतिने उसको मजाज़ नहीं किया था, तय नहीं हुआ बाकी अन्य बातोमे साधारण नियम लागू होंगे। जैन-किसी आम रिवाजके प्रमाणित करने वाला फैसला, किसी वैसे ही रवाज को प्रमाणित करने में पेश किया जा सकता है । गाहेप्पा बनाम इरम्मा A. I. R. 1927 Mad. 228. दफा १५० पञ्जाबमें गोद लेनेके लिये पतिकी आज्ञा ज़रूरी नहीं है __ पञ्जाब प्रांतमें इसी तरहपर रवाज प्रचलित है । पाबमें दत्तक पुत्रको धार्मिक कृत्योंके पूरा करने की दृष्टिसे नहीं देखते, बक्लि उसे जायदादका उत्तराधिकारी नियत होनेकी निगाहसे देखते हैं । वहांपर दत्तक लेनेका उद्देश यह है कि किसी को जायदादका हक़ पानेके लिये नियत कर देना । पञ्जाब में विधवा, पतिकी श्राशासे या आज्ञा न होनेपर सपिण्डों की रजामन्दी से गोद ले सकती है। मगर जब पतिने दत्तक लेने की मनाही कर दी हो, तो वह किसी हालतमे गोद नहीं ले सकती है। देखो--पञ्जाब कस्टमरी लॉ P. 83. . पञ्जाब में दत्तक की रसम कई प्रकारसे प्रचलित है। गुरगांवमें विधवा बिना मञ्जूरी पतिके कुटुम्बियोंके गोद नहीं ले सकती और जो गोद लेगी तो वह पतिके कुटुम्बका होगा। दूसरे जिलोंमें पतिकी आशा आवश्यक मानी गयी है। देखो--पञ्जाव कस्टमरी लॉ II 145, 178, 2053 III 87, 89, 90, 16 Mad. 182.
SR No.032127
Book TitleHindu Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shukla
PublisherChandrashekhar Shukla
Publication Year
Total Pages1182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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