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हिन्दूलों के स्कूलोंका वर्णन
[प्रथम प्रकरण
मुसलमानोंकी लड़ाई सिन्ध नदी पर हुई तो वे सिन्ध समीप वासियों को 'हिन्दू' कहने लगे इस तरह पर 'हिन्दू' शब्दकी उत्पत्ति कही जाती है।
त्रिहि हिसि--हिंसायाम् । इस धातु से 'हिन्' शब्द क्विप् प्रत्यय से बनता है और दूङ्---परिताये धातुम क्विप् प्रत्यय द्वारा 'हिन्दू' शब्द सिद्ध होता है जिसका अर्थ यह है कि 'हिंसां दूयते यः स हिन्दू' अर्थात् हिंसा (दुःख ) को दूर करने वाला या दुःख से छुटाने वाला 'हिन्दू' कहलाता है।
'हिन्दुलॉ' इस वाक्यका अर्थ पाश्चात्य नैय्यायिकोंके मतमें यह माना जाता है कि हिन्दुओंके वे सब धर्म, रवाज, सामाजिक नियम, जो ब्रिटिश राज्यके प्रारम्भ कालमें प्रचलित थे हिन्दू समाजमें क़ानूनका प्रभाव रखते हैं । ब्रिटिश शासकोंने उनमें आवश्यक कानूनों द्वारा समयानुसार कुछ सुधार किया है । 'हिन्दू-लॉ' हिन्दुओंके उन नियमोंका संग्रह है जिनका धर्म के साथ बहुत कुछ सम्बन्ध है। प्रारम्भमें इसकी व्यवस्था अधिकतर भागोंमें अदालतों द्वारा की जाती थी। देशकी शासन व्यवस्था ब्रिटिश सरकारके हाथ आनेपर प्राचीन हिन्दू धार्मिक, सामाजिक और रसम-रवाजों के नियमोंपर, ब्रिटिश व्यवस्थापक सभाओं द्वारा निर्मित क़ानूनोंका बहुत कुछ प्रभाव पड़ा और अगरेज़ी कानूनके प्रधानत्वके साथ साथ हिन्दू-लों का प्रयोग होने लगा।
हिन्दू जाति-हिन्दू' जाति चार बड़े भागों में विभक्त है। १ ब्राह्मण २ क्षत्रिय ३ वैश्य ४ शूद्र । इन्हें 'वर्ण' कहते हैं । इन चारों वर्णों अर्थात् जातियों के अन्तर्गत अनेक उप-जातियां हैं । पूर्व की तीन जातियां (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) 'द्विज' कहलाती हैं । 'द्विज' शब्दका अर्थ है कि "द्वाभ्यां जन्म संस्काराभ्यां जायतेऽति द्विजः" अर्थात् जो जाति जन्म और संस्कार दोनों से उत्पन्न हो वह 'द्विज' कहलाती है । जन्मसे मतलब सवर्ण माता-पिता एवं संस्कारसे मतलय उस जाति की धार्मिक कृत्ये हैं । 'हिन्दूला' के मतलबके लिये हिन्दू जाति वर्गीका जानना बहुत ज़रूरी है। उदाहरणार्थ--जैसे दत्तक सम्बन्धमें यह सिद्धांत माना गया है कि दत्तक पुत्र उसी जातिका होना चाहिये जिस जातिका दत्तक पिता है । विवाहमें बर और कन्या पक्षोंका एकही जातिका होना ज़रूरी बताया गया है, इत्यादि ।
वृन्दावन धनाम राधामनी (1889) 12 Mad. 72, 78, 79; ज्वालार्सह का मामला देखो (1919) 41 All. 629; 51 I. C. 216 में हिन्दू जाति तथा उप-जातियोंका विवेचन किया गया है। हिन्दू धर्म शास्त्रोंमें सजातीय और विजातीय स्त्री-पुरुषसे उत्पन्न संतानका विचार करनेके लिये कुछ विशेष पचन हैं। ऐसी उप-जातियां दो भागोंमें विभक्त हैं, अनुलोमज और प्रतिलोमज ।