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दफा १४५-१४६]
बिना आज्ञा पतिके विधवाका दत्तक लेना
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वही विधवा की खबरदारी रखनेका पूरा अधिकार रखताहै । इसलिये उसकी रज़ामन्दी निहायत ज़रूरी इस मुक़द्दमे में है जो नहीं ली गयी, और जो इस योग्य था कि विधवाके लिये हुए दत्तक पुत्र की शादी आदि कामों में मदद दे और खर्व करे। अगर खानदान बटा हुआ होता तो इस मुक़द्दमे की शकल दूसरी होती, क्योंकि ज़ाहिरा फिर विधवापर निगरानी करनेका अधिकारी कोई खास आदमी नहीं हो सकता था और न उसको गुज़ारा देनेपर मजबूर हो सकता था। इसलिये हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार अविभक्त परिवार में भाईकी ज़िन्दगी में वही अफसर खानदान है और जहां पर ऐसे ज्यादा भाई हो वहां पर बड़ा भाई अफ़सर खानदान होगा। आगे चीफ जज ने फ़रमाया कि मुझे यह ठीक नहीं मालूम होता, कि सबसे नज़दीकी और जो वास्तव में अफ़सर खानदान तथा विधवाका रक्षक था उसकी रजामन्दी न लेकर एक दूर के अजनबी आदमीकी मजूरी से जायदादका वारिस बनाया जाय इसलिये मैं दत्तक नाजायज़ करता हूं। इस मुक़द्दमेका अपील प्रिवी कौंसिल में हुआ और फैसला बहाल रहा; देखो--रामासामी बनाम भगाती अम्मल 8 Mad. Jur 58.
(२) ब्रह्मपुर केस--ब्रह्मपुरका मुक़द्दमा बिल्कुल त्रावन्कोर के मुकद्दमे की तरह था। वाकियात यह थे-मुश्तरका खानदान में चीना कमडीका रहने वाला एक ज़मीदार, अपने भाई और विधवाको छोड़कर मर गया, और एक बटे हुए खानदानके सपिण्ड को जो पिदाकमडीका ज़मीदार था छोड़ा सिवाय इसके दूसरे सपिण्ड न थे। मृतपुरुष और उसका भाई शामिल शरीकथे और वही भाई वारिस भी था । विधवा ने पिदाकमड़ी के ज़मीदार के बेटेको बिला रज़ामन्दी पतिके भाईके गोद लिया और दावा किया कि उसे पतिके लिये गोद लेने का अधिकार है और सपिण्डोंकी तरफ से काफी मञ्जरी भी है। अदालतने फैसला विधवा के विरुद्ध किया; रघुनाधा बनाम प्रजाकिशोर 3 I. A. 154:S. C.1 Mad. 69S. C. 25 Suth. 291. अदालत के इस फैसले अपील हाईकोर्ट में किया गया, अपीलमें फैसला मन्सून हो गया। अपीलमें कहा गया कि एक सपिण्डकी मजूरी गोद के लिये काफ़ी है और नज़दीकी वारिस के हकके सम्बन्धमें ख्याल न होना चाहिये। जब यह फैसला जडीशल कमेटी के सामने गया तो उसने हाईकोर्ट की राय रद करदी, कहा गया कि हाईकोर्ट ने गलत राय कायम की है। करीब करीब वही कारण दिखाये जो त्रावन्कोरके केसमें दिखलाये गयेथे; यानी गैरशरीक दूरके सपिण्डकी रजामन्दी काफी नहीं होगी। अर्थात् जब खानदान शामिल शरीक हो तो रज़ामन्दी उसी खानदानके प्रधान मेम्वर से ली जाना चाहिये, न कि दूरके सपिण्डोंकी, जो जुदा रहता है । क्योंकि हिन्दू सोसाइटी में मुश्तरका खानदानकी यह एक रसम है और वह सब बातोंमें शरीक रहता है। मज़हबी रसमों में और खान पान आदि में; हिन्दू स्त्री शादी होने के बाद उसी मुश्तरका खानदानकी मेम्बर