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धार्मिक और खैराती धर्मादे
[सत्रहयो प्रकरण
का खर्च चलाया जाता था और जायदादका बाकी हिस्सा जायदादके मालिक और उसके वारिसोंके गुज़ाराके लिये छोड़ा हुआ था अदालतने फैसला किया कि मालिककी जिन्दगी तक ही गुज़ारेका खर्च दिया जा सकता है मालिकके मरनेके पीछे उसके वारिस कुछ नहीं पायेंगे। दफा ८२५ धर्मादेका निश्चित होना अत्यावश्यक है
धर्मादा किस उद्देशसे है या किस उद्देशके लिये स्थापित किया गया है और ठीक ठीक कौनसी तथा कितनी जायदाद और किस किस्मकी जायदाद उसके लिये नियत कीगई है यह सब बाते निश्चित रूपसे धर्मादा कायम करने पालेको सरल और साफ़ साफ़ शब्दोंमें ज़रूरही बता देना चाहिये, देखोइन्डियन् सक्सेशन एक्ट 29 of 1925. S. 88. तथा हिन्दू विल्स एक्ट 21 of 1870. ठीक कितनी रकम उस धर्मादेमें खर्चकी जाय अगर यह बात न बताई गयी हो तो कोई हर्ज नहीं होगा, रकमके बारेमें अदालत यह बात स्वयं निश्चित करेगी कि छोड़ी हुई जायदादका कितना भाग धर्मादेमें लगाया जाय, तथा उसके लिये एक व्यवस्था बनायेगी, देखो--कृष्णरामानी दासी बनाम आनन्दकृष्ण बोस 4 B. L. R. O. C. 231.
यदि धर्मादेकी लिखत या सुबूतसे उपरोक्त बातें निश्चित नहीं होती होंगी तो अनिश्चित होनेके कारण अदालत उस धर्मादेको नाजायज़ कर देगी नीचे हम निश्चित और अनिश्चित दोनों बातोंके कुछ उदाहरण समझनेके लिये देते हैं। दफा ८२६ निम्न हालतों के दान 'निश्चित' होने से जायज
माने गये (१) खैरात एक आदमीने वसीयतकी कि ५००) रु० महीना हमारी धर्मशालामें 'खैरातके तौरपर' खर्च किया जाय अदालतने निश्चित उद्देश मान कर जायज़ करार दिया-गोबरधनदास बनाम चुन्नीलाल 30 All. 111;
(२) खैरातके कामके लिये दान मुश्तरका मेम्बरोंका-बम्बई में एक आदमीने अपने भतीजेकी मंजूरीसे मुश्तरका जायदाद खैरातके कामोंके लिये वसीयत कर दी तथा भतीजेको दृस्टी भी बनाया माना गया कि वसीयत जायज़ है। देखो-7 Bom. 19; 12 C. L. R. 9279 I. A. 86; 14 Cal. 222.
(३) शिक्षाकी संस्था-एक वलीयतमें यह शर्त थी कि 'मेरे मरने के बाद एक लाख रुपयेके गवर्नमेन्ट प्रामेसरी नोट लखनऊके कलक्टरको देदिये जायं, कलक्टर साहब उनका हमेशा सूद लेते रहें और एक विद्यालय