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अलहदा जायदाद
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दफा ४४१ ]
तो ऐसी सूरत में जानता दीवानी सन् १९०८ ई० का आर्डर ३२ रूल ७ लागू पड़ेगा अर्थात् वह अदालतकी मंजूरी के बिना उस मुक़द्दमेंमें कोई तसफ़ीया ( समझौता) नहीं कर सकता । अगर उसने बिना अदालतकी मंजूरी प्राप्त किये समझौता ( Concent decree ) कर लिया हो या कोई एकतरफा अपने ऊपर डिकरी करवाली हो तो उसका नाबालिग पाबन्द नहीं माना जायगा, ऐसा समझौता रद्द कर दिया जायगा, देखो - गनेशा बनाम तुलजाराम 36 Mad. 295; 40 I. A. 132.
उक्त जाबता दीवानी के रूल ७ का मतलब यह है कि "कोई रिश्तेदार या वली दौरान मुक़द्दमा, इस बातका अधिकारी नहीं होगा कि बिला मंजूरी अदालत के नाबालिग की तरफ़से कोई इक़रार करे या सुलहनामा, या समझौता उस मुक़द्दमें में करे जिसमें कि वह बहैसियत वली या हितैषीके नियुक्त हो"
नाबालिग साझीदारपर भी, तामील तलब मुआहिदोंके सम्बन्धमें वही पाबन्दी होती है, जो तामील शुदा मुआहिदों के सम्बन्धमें है । इसलिये नाबालिग उस मुआहिदेको कार्यमें परिणित कर सकता है जिसके लिये वह बाध्यं हो, लक्ष्मीचन्द बनाम खुशालदास 18S. L. R. 2303A. I.R 1925Sind.330.
घरू समझौता - ( १ ) यह आवश्यक नहीं है कि किसी पारिवारिक प्रबन्धके जायज़ और लाज़िमी होनेके लिये, परिवार के सभी सदस्य उसके फ़रीक हों । यदि परिवारके कुछ सदस्य श्रापसमें मिल जांय और अपने झगड़े का कोई समझौता करलें, तो कोई कारण नहीं है कि वह समझौता पारिवा रिक प्रबन्ध न समझा जाय, तेजबहादुर खां बनाम नक्कू खां A. I. R. 1927 Oudh. 97.
( २ ) जब किसी अन्तिम पुरुष अधिकारीके परिवारके सभी सदस्य, विधवाकी मृत्यु पश्चात् दाखिल खारिज कराने के लिये मिल गये और अदालत मालमें यह दरख्वास्त की, कि उन सभी के नाम बिना किसी रिश्ते या दर्जेके लिहाज़ के मोहकमा मालके कागज़ातो में चढ़ा दिये जांय, तो उनके संम्बन्धमें यह कल्पनाकी जायगी; कि वे पारिवारिक प्रबन्धके अन्तर्गत हैं और अपने समस्त भावी झगड़ों को, जिनकी तहरीर या रजिस्ट्रीकी आवश्यकता नहीं है निश्चित कर चुके हैं, तेजबहादुर खां बनाम नक्कू खां 35 All. 502, 37 All. 105; 17 O. C. 108, 19 O. C. 75 & 22 O. C. 300 full. A I. R. 1927 Oudh. 97.
( ३ ) इस अभिप्रायके लिये कि किसी परिवारका प्रबन्ध अच्छा प्रबन्ध समझा जाय, यह आवश्यक नहीं है कि कोई अदालती कार्यवाही होती हो या किसी प्रकारकी अदालती कार्यवाही, जिसका परिणाम परिवारके पक्ष में विदित होता हो चल रही हो । पारिवारिक प्रबन्धके सिद्धान्तका विस्तार