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दफा २८२]
द्वामुष्यायन दत्तक
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साथ गमन करे । काम अथवा भोगके लोभसे नियोग न करे । एक आचार्य कहते हैं कि लोभसे नियोग करने वालेको प्रायश्चित्त करना चाहिये।
(४) बौधायनके मतका भावार्थ-मरे हुये मनुष्यकी स्त्री एक वर्षतक, मधु, मांस, मद्य, और नमकको त्यागदेवे, भूमिपर नित्य सोवे । मौद्गल्य ऋषि का मत है कि ऊपर कहा हुआ नियम ६ मास तक करे । जिस स्त्रीके पुत्र नहीं वह ऐसा नियम धारण करनेके पश्चात् श्वसुर आदिबड़े लोगोंकी आज्ञानुसार देवर द्वारा पुत्र उत्पन्न करे। दूसरा उदाहरण देखो बन्ध्या, पुत्रवती, ऋतुहीन, मरेहुए पुत्रकी माता, और कामभोगसे रहित स्त्रीका नियोग करानेसे कुछ फल नहीं होता इस लिये नियोग न करे।
(५) याज्ञवल्क्य के मतका भावार्थ-जिस स्त्रीके पुत्र न पैदा हुआ हो उसके साथ पिता आदिकी आज्ञासे पुत्रकी कामनाके लिये अपने देहमें घृत लगाकर ऋतुके समयमें देवर सपिण्ड वा गोत्रका पुरुष गमन करे जब तक गर्भाधान नहो । गर्भाधानके पश्चात् पुत्र उत्पन्न होनेपर यदि गमन करेगा तो पतित हो जायगा; इस नियोगकी विधिसे जो पुत्र पैदा होता है वह प्रथमपति का क्षेत्रज पुत्र है। आचार्यने कहा है कि यह वचन उसी कन्याके विषयमें है जो वाग्दत्ता हो, क्योंकि मनुने कहा है कि जिस कन्याका वाग्दान किये पीछे पति मरजाय उस कन्याको इस विधिसे, सगा देवर विवाह करलेपरन्तु इस मनुके श्लोकमें 'श्रपुत्रा' पदसे वाग्दानके अनन्तर विवाहसे प्रथम, पुत्र न होने का निश्चय यद्यपि कठिन है, तथापि वरमें जो ऐसे दोष पहलेही मालूम होजायें कि जिनले पुत्र नहो, तो उस वाग्दत्ता कन्याको, देवर विवाहले।
(६) विज्ञानेश्वर कृत मिताक्षराके मतका भावार्थ-पुत्रहीन मनुष्य, दूसरेकी स्त्रीमें नियोगसे जो पुत्र उत्पन्न करेगा वह पुत्र दोनों पिताओंका धार्मिक कृत्य श्राद्ध आदि करेगा और दोनों पिताओंकी जायदादका वारिस होगा। इस श्लोकका भाष्य विज्ञानेश्वरने यों किया है
पहिले कही हुई विधिसे पुत्ररहित देवरआदिके सम्बन्धसे दूसरेकी स्त्री में गुरुकी श्राक्षासे जो पुत्र पैदा किया जाता है वह पुत्र बीज, और क्षेत्रवाले दोनों पिताओंकी जायदादके पानेका भागी होता है; और धर्मसे दोनों पिताओं को पिण्डका देनेवाला होता है। जहां पर गुरुकी आज्ञा लीगई हो, और नियुक्त होनेवाला पुरुष यानी देवर आदि स्वयं भी पुत्ररहितहों, तथा वह स्त्री जिसमें नियोग किया जानेवाला हो पुत्र रहितहो, ऐसी दशामें अपने या दूसरेके पुत्र के लिये नियोगमें दोनों (स्त्री और पुरुष ) प्रवृत्त होकर जो पुत्र उत्पन्न करेंगे वह 'द्वामुष्यायन' पुत्र कहलाता है यानी दो पितावाला पुत्र कहा जाता है, वह दोनों पिताओंके धनका पानेवाला और दोनों पिताओंको पिण्ड देनेवाला होता है। और जब देवर पुत्रवान् हो और केवल अपुत्रा स्त्रीमें पुत्र उत्पन्न करने के लिये नियोग करे तो उस दशामें वह पुत्र क्षेत्रके स्वामी यानी स्त्रीके पतिका
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