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दान और मृत्युपत्र
मृत्युपत्र - वसीयत
[ सोलहवां प्रकरण
दफा ८०१ वसीयतकी व्याख्या
कोई आदमी अपने मरनेके समय अपनी जायदाद के विषय में अपने जो इरादे प्रकट करे और यह कहे कि मेरे मरनेके बाद मेरे यह इरादे इस तरह पर पूरे किये जाये उसके इस कथनका नाम वसीयत है । इन्डियन् सक्सेशन एक्ट नं० ३६ सन् १६२५ ई० की दफा २ में वसीयत शब्दकी व्याख्या इस प्रकार कीगई है 'वसीयत वह है जिसमें वसीयत करने वालेका वह इरादा उचित रीति से जाहिर किया गया हो कि वह अपने मरनेके पश्चात् अपनी जायदाद के सम्बन्धमें क्या चाहता है, और देखो - रामकृष्ण हिन्दूलॉ Vol. 2 P. 239. तथा 36 Cal. 149; 1 Ind. Cas. 791; 13 C. W. N. 291. दीन तारिणी देवी बनाम कृष्णगोपाल वागची 18 W. B. 359-356 द्विवेलियन हिन्दूलॉ P. 500.
दान और वसीयत में बड़ा भेद है दानकी बाबत हम ऊपर कह चुके हैं देखो इस किताब की दफा ७८६. वसीयत में वसीयत करने वालेको हर समय अधिकार रहता है कि, जब उसने कोई वसीयतनामा लिख दिया हो चाहे उसकी रजिस्ट्री हुई हो या नहीं, या किसी सरकारी आफ़िस या अफ़सरके पास रख दिया हो, मंसूख करदे, रद्द कर दे, वापिस लेकर फाड़ डाले, नष्ट करदे, या जो जी में आये करे और दूसरा वसीयतनामा लिखे या पूर्वके लिखे हुये वसीयत में कोई इवारत घटा दे या बढ़ा दे या किसीका हक़ मिटा दे या बढ़ा दे और अपने मरने के समय तक जितने दफा चाहे लिखे । अकसर लोग वसीयतमें यह शर्त लिखते हैं कि 'मुझे इसके परिवर्तन या मंसूख करने आदिका अधिकार रहेगा' इस लिखने में कोई ज़ोर नहीं होता यदि न भी लिखा हो तो उसे ऐसा अधिकार क़ानूनन् प्राप्त रहता है। वसीयत करने वालेके चलन और उसके इर्द गिर्द के हालातका ख्याल करने से ही बाज़ दफे यह निश्चित करना पड़ता है कि कोई लिखत दानपत्र है या वसीयतनामा, देखो - 17Bom.482; क्योंकि दान और वसीयत में बहुत कम फ़रक है ।
वसीयतनामा और किसी जीवित व्यक्ति द्वारा किया हुआ इन्तक़ाल, दोनों एकही श्रेणी में नहीं आ सकते -प्रमथनाथ राय बनाम राजा विजयसिंह A. I, R. 1927 Cal. 234.
वसीयतका ज़िकर हिन्दू धर्म शास्त्रों में नहीं पाया जाता। प्राचीन समय में हिन्दुस्थान में और अन्य बहुत से देशोंमें दो जीवित मनुष्योंके परस्पर दान का देना और लेना हुआ करता था । परन्तु अब मरनेके बाद भी दान दिया जा