Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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तरा०
भाषा,
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मानना विफल हैं' यह दोष आता सो तो माना नहीं किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र | जिस समय विशुद्धरूपसे आत्मामें प्रकट होंगे उसी समय मोक्ष होगी यह माना है इसलिये काललब्धि से मोक्षकी प्राप्ति स्वीकार कर आधिगमज सम्यग्दर्शन विफल नहीं कहा जा सक्ता । अथवा
कुरुक्षेत्रमें कहीं कहीं पर पुरुषके प्रयत्नरूप बाह्य कारणके विना भी स्वभावसे ही सोना उत्पन्न है हो जाता है इसलिये जिसतरह वह निसर्गज कहा जाता है उसीप्रकार पुरुषके उपदेशसे उत्पन्न होनेवाले | जीव आदि पदार्थों के ज्ञानरूप बाह्य कारणके विना ही जहां स्वभावसे ही सम्यग्दर्शन हो वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है और जहाँपर सोनेके उत्पन्न करनेकी तरकीबको जाननेवाले पुरुषके प्रयत्नसे सुवर्णपाषाण से सोना निकाला जाता है और वह प्रयत्नजानित कहा जाता है उसीप्रकार जीव आदि पदार्थोंके स्व
रूपके जानकार पुरुषके उपदेशसे उनका स्वरूप जान लेने पर जहां श्रद्धान होता है वह अधिगमज सम्यहूँ ग्दर्शन कहा जाता है । इस गीतसे सम्यग्दर्शनके निसर्गज और अधिगमज दोनों भेद स्वाभाविक हैं हूँ
एकका भी अभाव नहीं कहा जा सकता इसलिये 'जो कहना इष्ट था उसे न समझकर शंकाकारकी जो यह शंका थी कि काललब्धिसे ही सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जायगा अधिगमज सम्यग्दर्शन मानना विफल है वह व्यर्थ थी। तथा यह भी वात है कि
- कालानियमाञ्च निर्जरायाः ॥९॥ ___समस्त कर्मोंकी निर्जरा हो जानेपर जिस मोक्षकी प्राप्ति होती है उस मोक्षके कालका कोई नियम नहीं क्योंकि बहुतसे जीव संख्यातकालमें ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं बहुतसे असंख्यात काल तो बहुतसे अनन्तकालमें जाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं तथा बहुतसे जीव ऐसे भी हैं जिन्हें अनन्तानन्तकाल बीत
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