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अविघ्नविनायक अथवा अविध्नव्रत-अविनीत
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लिया गया। यह सिद्धान्त रामानुजाचार्य को मान्य नहीं था। अतः उन्होंने जीव और जगत् ( चित् और अचित् ) को ब्रह्म के अन्तर्गत उसका विशेषण ( गुणभूत ) माना। मध्वाचार्य ने ब्रह्म को केवल निमित्त माना और प्रकृति को जगत् का उपादान कारण माना। ___ इस द्वैत दोष से बचने के लिए निम्बार्क ने प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति माना, जिससे जगत् का प्रादुर्भाव होता है । इस मान्यता से ब्रह्म में विकार नहीं होता, परन्तु जगत् प्रक्षेप मात्र अथवा मिथ्या ही बन जाता है।
वल्लभाचार्य ने उपर्युक्त मतों की अपूर्णता स्वीकार करते हुए कहा कि जीव-जगत् ब्रह्म का परिणाम है, किन्तु एक विचित्र परिणाम है। इससे ब्रह्म में विकार नहीं उत्पन्न होता। उनके अनुसार जीव और जगत् ब्रह्म के वैसे ही परिणाम हैं, जैसे अनेक प्रकार के आभूषण सोने के, अथवा अनेक प्रकार के भाण्ड मृत्तिका के । अपने मत के समर्थन में इन्होंने उपनिषदों से बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। इस मत में ब्रह्म सच्चिदानन्द ( सत् + चित् + आनन्द ) है जिससे जीव-जगत् प्रादुर्भूत होता है। सत् से जगत्; सत् और चित् से जीव और सत्, । चित् और आनन्द से ईश्वर का आविर्भाव होता है। इस प्रकार अविकृत ब्रह्म से यह सम्पूर्ण जगत् उद्भूत होता है। अविघ्नविनायक अथवा अविध्नवत--(१), फाल्गुन, चतुर्थी तिथि से चार मासपर्यन्त गणेशपूजन। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द १, ५२४-५२५ ।
(२) मास के दोनों पक्षों की चतुर्थी, तीन वर्षपर्यन्त व्रत-अवधि और गणेश देवता । दे० निर्णयामत, ४३, भविष्योत्तर पुराण । अविज्ञ य-जानने योग्य नहीं, दुर्जेय । मनु का कथन है :
आसीदिदं तमोभतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतक्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ [ यह ब्रह्माण्ड अन्धकारपूर्ण, अप्रज्ञात, लक्षणहीन, अतर्कनीय, न जानने योग्य, सर्वत्र सोये हुए के समान था ।]
मूल तत्त्व ( ब्रह्म) भी अविज्ञेय कहा गया है। वह ज्ञान का विषय नहीं, अनु भति का विषय है । वास्तव में वह विषय मात्र नहीं है; अनिर्वचनीय है। अविद्या-अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य
है। आत्मा एवं विश्व, आत्मा एवं पदार्थ में द्वैत की स्थापना माया अथवा अविद्या का कार्य है। अविद्या का अर्थ है मानवबुद्धि की सीमा, जिसके कारण वह देश और काल के भीतर देखती और सोचती है । अविद्या वह शक्ति है जो मानव के लिए सम्पूर्ण दृश्य जगत् का सर्जन या भान कराती है। सम्पूर्ण दश्यमान जगत् अविद्या का साम्राज्य है। जब मनुष्य इससे ऊपर उठकर अन्तर्दृष्टि और अनुभव में प्रवेश करता है तव अविद्या का आवरण हट जाता है और अद्वैत सत्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।
अविद्या के पर्याय अज्ञान, माया, अहङ्कारहेतुक अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, विद्याविरोधिनी अयथार्थ बुद्धि आदि है। कथन है :
अविद्याया अविद्यात्वमिदमेव तु लक्षणम् ।
यत्प्रमाणासहिष्णुत्वमन्यथा वस्तु सा भवेत् ॥ [अविद्या का लक्षण अविद्यात्व ही है। वह प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अन्यथा वह वस्तु सत्ता हो जायगी।] अविधि-अविधान, अथवा शास्त्र के विरुद्ध आचरण । गीता ( ९।२३ ) में कथन है :
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।
[हे अर्जुन ! जो लोग अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वे भी अविधि पूर्वक मेरा ही यजन करते हैं। ] याज्ञवल्कय ने भी कहा है :
वसेत् स नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः ।
अमितानि दुराचारो यो हन्त्यविधिना पशून् । [जो दुष्ट मनुष्य विना विधि के पशुओं का वध करता है वह पशु के रोम के बराबर असंख्य दिनों तक घोर नरक में वास करता है। ] अविनय-विनय का अभाव अथवा दुःशीलता। मनु (७.४०-४१) का कथन है :
बहवोऽविनयान्नष्टा राजानः सपरिच्छदाः । वनस्था अपि राज्यानि विनयात प्रतिपेदिरे ।।
[विनय से रहित बहुत से राजा परिवार सहित नष्ट हो गये । विनय युक्त राजाओं ने वन में रहते हुए भी राज्य को प्राप्त किया।] अविनीत-विनयरहित (व्यक्ति), समुद्धत । रामायण में कहा है :
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