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भारतीतीर्थ-भावना उपनिषद्
(२) शङ्कर के दसनामी संन्यासियों की एक शाखा होता है कि उन्होंने विष्णुकृत 'धर्मसूत्र' के ऊपर एक 'भारती' है। भारती उपनाम के संन्यासी कुछ उच्च टीका लिखी थी । श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में प्रसिद्ध भारुचि श्रेणी में गिने जाते हैं । दसनामियों की तीर्थ, आश्रम एवं और धर्मशास्त्रकार भारुचि एक माने जाय, तो इनका सरस्वती शाखाओं में केवल ब्राह्मण ही दीक्षित होते हैं, समय नवीं शताब्दी के प्रथमार्ध में माना जा सकता है। अतएव ये पवित्र उपनाम हैं। भारती शाखा में ब्राह्मणों भार्गव-भग के वंशज या गोत्रोत्पन्न । यह अनेक ऋषियों के साथ ही अन्य वर्ण भी दीक्षित होते हैं, इसलिए यह का पितबोधक नाम है. जिनमें च्यवन ( शतपथ ब्राह्मण, उपनाम आधा ही पविः माना जाता है।
४ १,५,१; ऐतरेय ब्राह्मण, ८.२१ ) तथा गृत्स्मद भारतीतीर्थ-चौदहवीं शताब्दी के मध्य में महात्मा भारती- (कौषीतकि ब्राह्मण, २२.४) उल्लेखनीय हैं । अन्य भार्गवों तीर्थ के शिष्य विद्यारण्य स्वामी ने 'पञ्चदशी' नामक का भी उनके व्यक्तिगत नामों के बिना ही उल्लेख हुआ वेदान्त विषयक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ प्रस्तुत किया । है (तैत्तिरीय संहिता, १.८,१८,१; शाङ्खायन आरण्यक यह प्रसादगुणपूर्ण अनुष्टुप् छन्दों के पंद्रह प्रकरणों में ६.१५; ऐतरेय ब्राह्मण, ८.२, १, ५; प्रश्नोपनिषद्, १.१; रचा गया है।
पञ्चविंशब्राह्मण, १२.२, २३, ९, १९, ३९ आदि)। भारतो यति-पांख्य दर्शन के आचार्य, जो चौदहवीं शती के
शुक्राचार्य, मार्कण्डेय, परशुराम आदि ऋषि भार्गव ( भृगुप्रारंभ में हुए । इन्होंने वाचस्पतिमिश्रविरचित 'सांख्यतत्व
वंशज ) हैं। ( मृत्पात्र पकाने के कारण कुम्भकार भी कौमुदी' पर 'तत्त्वकोमुदी व्याख्या' नामक टीका रची।
भार्गव कहलाता है । वनवासकाल में पाण्डव इसके घर में भारती शिष्यपरम्परा-भारती, सरस्वती एवं पुरी उप
टिके थे।) नामों की शिष्यपरम्परा शंकराचार्य के शृंगेरी मठ के अन्तर्गत है । दे० 'भारती' ।।
भार्गव उपपुराण-यह उन्तीस उपपुराणों में से एक है । भारद्वाज-भरद्वाज कुल में उत्पन्न ऋषि । ये यजुर्वेद की
भार्या-परवर्ती काल में इसका पत्नी अर्थ प्रचलित हुआ है। एक श्रौत एवं गृह्य शाखा के सूत्रकार थे । तैत्तिरीय प्राति
'सेंटपीटर्सवर्ग' के शब्दकोश के अनुसार सर्वप्रथम यह शाख्य में इनका उल्लेख आचार्य के रूप में तथा पाणिनि
शब्द ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त हुआ है ( ७.९.८ ) जहाँ के अष्टाध्यायीसूत्रों में वैयाकरण के रूप में हुआ है।
इसका अर्थ गृहस्थी की एक सदस्या है, जिसका भरण
करना आवश्यक है। शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य की इससे विदित होता है कि ऋषि भारद्वाज शिक्षाशास्त्री,
दो स्त्रियों को इसी शब्द से अभिहित किया गया है वैयाकरण, श्रौत एवं गृह्य सूत्रकार भी थे।
(बृहदारण्यकोपनिषद्, ३.४, १; ४.५, १)। आगे चलभारद्वाजगृह्यसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र ।
कर पत्नी के अर्थ में ही इसका प्रयोग होने लगा। भारद्वाजश्रौतसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र, जो भारद्वाज द्वारा रचित है।
भावत्रय-शक्ति की आराधना करने वाले तान्त्रिक लोग तीन भारभूतेश्वरवत-आश्विन पूर्णिमा के दिन काशी में भारत
भावों (अवस्थाओं) का आश्रय लेते हैं; 'दिव्य भाव' से देवता भूतेश्वर शंकरजी की पूजा का विधान है।
का साक्षात्कार होता है । 'वीर भाव' से क्रिया सिद्धि होती भारुचि-आचार्य रामानुज कृत वेदार्थसंग्रह में (पृ० १५४)
है । 'पशु भाव' से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें कम से दिव्याप्राचीन काल के छ: वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है,
चार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशुभाव जिनमें भारुचि भी हैं। श्रीनिवासदास ने 'यतोन्द्रमत
से ज्ञान प्राप्त करके वीरभाव द्वारा रुद्रत्व पद प्राप्त किया दीपिका' में भी इनका उल्लेख किया है। भारुचि के
___ जाता है। दिव्याचार द्वारा साधक के अन्दर देवता की विषय में विशेष परिज्ञान नहीं है । विज्ञानेश्वर की मिता
तरह क्रियाशीलता हो जाती है। इन भावों का मूल
निःसन्देह शक्ति है। क्षरा ( याज्ञ० १.१८ और २.१२४ ), माधवाचार्य कृत पराशरस्मृति की टीका ( २.३, पृ० ५१०) एवं सर- भावना उपनिषद्-यह शाक्त उपनिषद् है। इसका स्वतीविलास (प्रस्तर १३३ ) प्रभृति ग्रन्थों में धर्म- रचना काल ९०० तथा १३५० ई० के बीच रखा जा शास्त्रकार भारुचि का नाम उपलब्ध होता है। प्रतीत सकता है।
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