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महीधर-मागरि
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महीधर-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार । (२) यदि कोई 'दक्षिणामूर्ति' को प्रति दिन पायस तथा इस संहिता पर सायणाचार्य का भाष्य नहीं मिलता। घी वर्ष भर अर्पित करे, व्रत के अन्त में उपवास करे, उन्वट-महीधर भाष्य ही अधिक प्रचलित है। महीधर ने जागरण करे तथा दान में भूमि, गौ तथा वस्त्र दे तो उसे १६४९ वि० में मन्त्रमहोदधि नामक दक्षिणमार्गी शाक्त नन्दी (शिवजी का गण) पद प्राप्त होता है। दक्षिणामूर्ति शाखा सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ भी लिखा। इसका उपयोग शिवजी का ही एक रूप है । शङ्कराचार्य का रचित एक सारे भारत में शाक्त एवं शैव समान रूप से करते हैं। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र भी प्रसिद्ध है। स्वयं ग्रन्थकार की रची इस पर टोका भी है।
महेश्वराष्टमी-मार्गशीर्ष शुक्लाण्टमी को इस व्रत का महीपति-अठारहवीं शताब्दी के एक महाराष्ट्रीय भक्त,
प्रारम्भ होता है । लिङ्गरूप शिव का अथवा शिवजी की जिन्होंने अपनी शक्ति भक्तों व सन्तों की जोवनी लिखने
मूर्ति का अथवा कमल पर शिवजी का पूजन तथा दुग्ध में लगायी। इनके लिखे ग्रन्थ हैं---सन्तलीलामृत,
और घृत से मूर्ति को स्नान कराना चाहिए। व्रत के अन्त (१७३२ ), भक्तविजय (१७७९ ), कथासारामृत में गौ का दान विहित है। एक वर्ष तक यह क्रम चल ( १७३२ ), भक्तलीलामृत ( १७३४ ) तथा सन्तविजय ।
मके तो अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है तथा व्रती आदि।
शिवलोक को जाता है। महीम्नस्तव-विशेष शैव साहित्य में इसकी गणना होती
महोत्सव व्रत-प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को शिवजी
की मति को दूध-दही आदि से स्नान कराकर पूजन है। ग्रन्थ का सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद आर्थर
करना चाहिए तथा सुगन्धित द्रव्यों का प्रलेप करना एवलॉन ने किया है।
चाहिए। इस अवसर पर शिवमूर्ति के समक्ष दमनक पत्रों महेन्द्रकृच्छ-कार्तिक शुक्ल षष्ठी से केवल दुग्धाहार करते
का समर्पण विहित है । चावल के आटे के दीपक बनाकर हुए दामोदर भगवान् का पूजन करना चाहिए। दे०
शिवजी के सम्मुख प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। भाँति-भांति हेमाद्रि, २.७६९-७७० ।
के खाद्य पदार्थों को नैवेद्य के रूप में समर्पण कर शंख. महेश-(१) शिव का एक पर्याय । इसका शाब्दिक अर्थ है घंटा. घडियाल, नगाड़े बजाये जाते हैं और अन्त में महान् ईश्वर ।
शिवजी की रथयात्रा निकाली जाती है। (२) लिङ्गायत लोग आध्यात्मिक उन्नति की कई महोदधि अमावस्या-चतुर्दशी युक्त मार्गशीर्ष मास की अवस्थाएँ मानते हैं । महेश इनमें तीसरी अवस्था है। उनका क्रम इस प्रकार है।
यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । __ शिव, भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं
महोपनिषद-एक परवर्ती उपनिषद् । श्वेतदीप में नारद को ऐक्य ।
भगवान् के दर्शन होने और दोनों के संभाषण का वर्णन महेश्वर-तमिल तथा वीरशैव गण आजकल अपने को
इसमें किया गया है। इसके अन्तर्गत कहा गया है कि 'महेश्वर' कहते हैं, पाशुपत नहीं; यद्यपि उनका सम्पूर्ण नारद का बनाया हुआ पाञ्ज रात्र शास्त्र है और उन्होंने धर्म महाभारत के पाशुपत सिद्धान्त पर आधारित है। ही भागवत भक्ति की अवतारणा की। महेश्वर नाम शिव का है।
माकरी सप्तमी-माघ कृष्ण सप्तमी को, जब सूर्य मकर महेश्वरव्रत-(१) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का राशिपर हो, माकरी सप्तमी कहते है। इस दिन व्रत का प्रारम्भ होता है । उस दिन उपवास रखकर शिव जी की विधान है। प्रातःकाल गंगा आदि नदियों में स्नान कर पूजा करनी चाहिए । व्रत के अन्त में गौ का दान विहित सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। है । यदि इस व्रत को वर्ष भर किया जाय तो पौण्डरीक मागरि-यजुर्वेद ( वाजसनेयी संहिता ३०.१६; तैत्तिरीय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है । यदि व्रती प्रति मास की ब्राह्मण ३.४,१२१ ) में उद्धृत पुरुषमेध का एक बलिपशु । दोनों चतुर्दशियों को इस व्रत का आचरण करे तो उसके इसका अर्थ स्पष्टतः शिकारी या सम्भवतः मछुवा प्रतीत सब संकल्प पूरे होते हैं ।
होता है। यह शब्द मुगारि (पशुओं का शत्रु) का विद्रूप है।
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