Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 703
________________ स्त्रीपुत्रकामावाप्तिनत-स्थाणुतीर्थ ६८९ स्त्रीधन के उपयोग में अधिकार नहीं होता। विपत्ति आदि में उपयोग हो सकता है : न भर्ता नैव च सुतो न पिता भ्रातरो न च । आदाने वा विसर्ग वा स्त्रीधनं प्रभविष्णवः ॥ कात्यायन दुर्भिक्षे धर्मकायें वा व्याधौ संप्रतिरोधके । गहीतं स्त्रीधनं भर्ता नाकामी दातुमर्हति ।। याज्ञवल्क्य मत स्त्री के स्त्रीधन पर किसका अधिकार होगा, इस पर भी धर्मशास्त्र में विचार हुआ है : सामान्यं पुत्रकन्यानां मृतायां स्त्रीधनं विदुः । अप्रजायां हरेद्भर्ता माता भ्राता पितापि वा ।।-देवल पुत्र के अभाव में दुहिता और दुहिता के अभाव में दौहित्र को स्त्रीधन प्राप्त होता है : पुत्राभावे तु दुहिता तुल्यसन्तानदर्शनात् । -नारद दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रनं संतारयति पौत्रवत् । -मनु गौतम के अनुसार स्त्रीधन अदत्ता (जिसका वाग्दान न हुआ हो), अप्रतिष्ठिता (जिसका वाग्दान हुआ हो परन्तु विवाह न हुआ हो) अथवा विवाहिता कन्या को मिलना चाहिए। माता का यौतुक (विवाह के समय प्राप्त धन) तो निश्चित रूप से कुमारी (कन्या) को मिलना चाहिए (मनु) । निःसन्तान स्त्री के मरने पर उसके स्त्रीधन का उत्तराधिकार उसके विवाह के प्रकार के आधार पर निश्चित होता था । प्रथम चार प्रकार के प्रशस्त विवाहोंब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य--में स्त्रीधन पति अथवा पतिकुल को प्राप्त होता था। अन्तिम चार अप्रशस्तआसुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पेशाच में पिता अथवा पितकुल को स्त्रीधन लौट जाता था। स्त्रीपुत्रकामावाप्तिवत-यह मास व्रत है। सूर्य इसके देवता हैं। जो स्त्रियाँ कार्तिक मास में एकभक्त पद्धति से आहार करती हुई अहिंसा आदि नियमों का पालन करती हैं तथा गुड़मिश्रित उबले हुए चावलों का नैवेद्य अर्पण करती हैं एवं षष्ठी या सप्तमी को मास के दोनों पक्षों में उपवास करती हैं वे सीधी सूर्यलोक सिधारती हैं। जब ॥ण हान पर मृत्युलोक में लोटती है तो राजा अथवा अभीष्ट पुरुष को पति रूप में प्राप्त करती हैं। स्त्रीपुंधर्म-स्त्री और पुरुष के पारस्परिक व्यवहार को स्त्रीपुंधर्म कहते हैं। अष्टादश विवादों (मुकदमों) में से एक विवाद का नाम भी स्त्रीपुंधर्म है (मनु अध्याय ८)। इसका पूरा विवरण मनुस्मृति के नवम अध्याय में पाया जाता है। स्थण्डिल-यज्ञ के लिए परिष्कृत भूमि पर बना हुआ ऊँचा चबूतरा। जहाँ बिना किसी बाधा के बैठा जा सके वह स्थान स्थण्डिल है। इसके बनाने का तिथ्यादितत्त्व में निम्नांकित विधान है : नित्यं नैमित्तिके काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत् । हस्तमात्रं तु तत्कुर्यात् चतुरत्नं समन्ततः ।। | नित्य, नैमित्तिक अथवा काम्य कोई भी कर्म हो स्थण्डिल पर ही करना चाहिए। इसका परिमाण चौकोर एक हस्तमात्र है। ] स्थपति-यज्ञमंडप, भवन, देवागार, राजप्रासाद, सभा, सेतु आदि का निर्माता । इसको बृहस्पतिसव नामक यज्ञ करने का अधिकार होता है। मत्स्यपुराण (२१५. ३९) में इसका लक्षण निम्नांकित है : वास्तुविद्याविधानज्ञो लघुहस्तो जितश्रमः । दीर्घदर्शी च शूरश्च स्थपतिः परिकीर्तितः ।। [वास्तुविद्याविधान का ज्ञाता, हस्तकला में कुशल, कभी न थकने वाला, दीर्घदर्शी तथा शूर को स्थपति कहा जाता है। ] स्थाणु-शिव का एक पर्याय । इसका अर्थ है जो स्थिर रूप से वर्तमान है। वामनपुराण (अध्याय ४६) में पुराकथा के रूप में इसका कारण बतलाया गया है : समुत्तिष्ठन् जलात्तस्मात् प्रजास्ताः सृष्टवानहम् । ततोऽहं ताः प्रजा दृष्ट्वा रहिता एव तेजसा ।। क्रोधेन महता युक्तो लिङ्गमुत्पाद्य चाक्षिपम् । उत्क्षिप्तं सरसो मध्ये ऊर्ध्वमेव यदा स्थितम् । तदा प्रभृति लोकेषु स्थाणुरित्येव विश्रुतम् ॥ [ मैंने जल से उठकर उन प्रजाओं की उत्पत्ति की । इसके पश्चात् देखा कि वे तेज से रहित हैं। तब महान् क्रोध से युक्त होकर मैंने शिवलिङ्ग की सृष्टि की और उसे जल में फेंक दिया। वह उत्क्षिप्त लिङ्ग जल के बीच में ऊर्ध्व (ऊपर उठा हुआ) स्थित हो गया तब से लोक में वह स्थाणु नाम से प्रसिद्ध है।] स्थाणु तीर्थ-कुरुक्षेत्र के समीप अम्बाला से २७ मील पर स्थित एक शैव तीर्थ । अब यह थानेश्वर कहलाता है। इसके निकट सान्निहत्य सरोवर था। इसका माहात्म्य वामनपुराण (अध्याय ४३) में दिया हुआ है : ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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