Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou

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Page 714
________________ ७०० हरिनाम-हरिव्यासदेव थी। हरिद्वार मुख्यतः वैष्णवतीर्थ है, परन्तु सभी सम्प्रदाय के लोग इसका आदर करते हैं। हरिनाम-हरि का नाम अथवा भगवन्नाम । धर्म में नामजप का माहात्म्य बराबर रहा है। किन्तु कलि में तो इसका अत्यधिक माहात्म्य है। कारण यह है कि नाम और नामी में भेद नहीं है और नामी की पूजा-अर्चा से नाम-स्मरण सदा सर्वत्र सुलभ और सरल है । पद्मपुराण ( उत्तर खण्ड, अध्याय ९८ ) में नाम की महिमा इस प्रकार दी हुई है : न कालनियमस्तत्र न देशनियमस्तथा । नोच्छिन्ठादौ निषेधोऽस्ति हरेर्नामनि लुब्धक ।। ज्ञानं देवार्चनं ध्यानं धारणा नियमो यमः । प्रत्याहारः समाधिश्च हरिनामसमं न च । बृहन्नारदीय पुराण (श्री हरिभक्ति विलास, विलास ११ में उद्धृत ) में तो हरिनाम कलियुग में एकमात्र गति है । वैष्णवों के नित्य जप के हरिनाम निम्नांकित हैं : "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥" इस मन्त्र के ऋषि, वासुदेव छन्द गायत्री और देवता त्रिपुरा है। इसका विनियोग महाविद्यासिद्धि में किया जाता है। दे० वासुदेव माहात्म्य; राधातन्त्र के वासुदेवत्रिपुरा संवाद में द्वितीय पटल ।। हरिवंश-हरि अथवा कृष्ण का वंश । इसी नाम के ग्रन्थ में हरिवंश की कथा विस्तार से कही गयी है। यह ग्रन्थ महाभारत का परिशिष्ट या खिलपर्व कहलाता है । इसकी कथा सुनने से संतान प्राप्त होती है। गरुड पुराण (अध्याय १४८.१.६-८,११) में हरिवंश की कथा मिलती है। हरिवासर-(१) 'तिथ्यादितत्त्व' में एकादशी और द्वादशी तिथियों को हरिवासर (हरि का दिन) कहा गया है। एकादशी द्वादशी च प्रोक्ता श्रीचक्रपाणिनः । एकादशीमुपोष्यैव द्वादशी समुपोजयेत् ॥ न चात्र विधिलोपः स्यादुभयोदेवता हरिः । द्वादश्याः प्रथमः पादो हरिवासरसंज्ञकः ॥ समतिक्रम्य कुर्वीत पारणं विष्णुतत्परः । एकादशीतत्त्व में इस दिन अन्न भोजन का घोर निषेध है। हरिवासर में जागरण का विशेष माहात्म्य है (दे० स्कन्द पुराण में ब्रह्म-नारद-संवाद तथा श्रीप्रह्लाद-संहिता)। हरिवासर के सम्बन्ध में विचार वैभिन्न्य है। 'वर्षकृत्य कौमुदी' के अनुसार एकादशी ही हरि का दिन है न कि द्वादशी । गरुड पुराण (१.१३७.१२) तथा नारद पुराण (२.२४.६ तथा ९) एकादशी को ही हरि का दिन मानते है, किन्तु 'कृत्यसारसमुच्चय' मत्स्य पुराण को उद्धृत करते हुए कहता है : आषाढ़ शुक्ल द्वादशी बुधवार को हो तथा उस दिन अनुराधा नक्षत्र हो एवं भाद्र शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो और कार्तिक शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन रेवती नक्षत्र हो तो उपर्युक्त तीनों दिन 'हरिवासर' कहलाते हैं। 'स्मृति कौस्तुभ' के अनुसार भी द्वादशी ही हरि तिथि है । अतएवः आ-भा-कासितपक्षेष हस्त-श्रवण-रेवती। द्वादशी बुधवारश्चेद् हरिवासर इष्यते ॥' हरिवाहन-हरि (विष्णु) का वाहन गरुड । हरिव्यासदेव-निम्बार्क सम्प्रदाय के मध्यकालीन वैष्णवाचार्य और ग्रन्थकार । कृष्ण भगवान् की मधुर लीलाओं के चिन्तन के साथ ये तीर्थ यात्रा, धर्म प्रचार और ग्रन्थ रचना में दन्तचित रहते थे। धार्मिक संगठन की भावना इनमें अधिक देखी जाती है, जिसके लिए समग्र देश को व्यापक केन्द्र बनाकर इन्होंने संघबद्ध धर्मयात्राएँ प्रचलित की। इनकी उपासना का प्रिय स्थल वृन्दावन और गुरुस्थान मथुरा की एकान्त भूमि ध्रुवघाट पर नारद टीला थी। प्रसिद्ध भक्तिसंगीतकार संत श्रीभट्ट के ये शिष्य थे। राधा-कृष्ण के सरस चिन्तन स्वरूप हरिव्यास जी को पदावली 'महावाणी' कही जाती है और इन का अन्तरङ्ग नाम 'हरिप्रिया' । इसके साथ ही धार्मिक जनों को शक्तिसम्पन्न करने के लिए ये उग्र देवता नृसिंह की पूजा का प्रचार भी करते थे। इसका संकेत 'नसिंह परिचर्या' नामक लिखित पुस्तक से मिलता है जो काशीस्थ सरस्वती भवन पुस्तकालय में है। इन्होंने हिमाचल स्थित देवी मन्दिर में अपने तपोबल और साधु मण्डली के उपवास के सहारे पशुबलि प्रथा को बन्द करा दिया था। तबसे उन देवीजी को वैष्णवी देवी कहा जाने लगा है। प्राचीन निम्बार्कीय विद्वान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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