Book Title: Hindu Dharm Kosh
Author(s): Rajbali Pandey
Publisher: Utter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - डॉ०बली पाण्डेय हिन्दू धर्मकोश Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान : हिन्दी समिति प्रभाग के धर्म, दर्शन तथा संस्कृति विषयक प्रकाशन २१-०० १५-०० २०-०० १८-०० १८-०० २-५० ५-०० ६-५० धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १ धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग २ धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग ३ धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग ४ * धर्मशास्र का इतिहास, भाग ५ धर्मशास्र का इतिहास (शब्दानुक्रमणिका) वेदत्रयी परिचय प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन तांत्रिक साहित्य वेदों में भारतीय संस्कृति भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास योग दर्शन विश्व मानवता की ओर चार्वाक दर्शन भारतीय स्थापत्य बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास * भारतीय इतिहास कोश * हलायुध कोश ३०-०० १०-०० २०-०० ७-०० ७-०० १२-०० १६-०० १२-०० १८-०० २५-०० COVER PRINTED BY GW. LAWRIE & CO LUCKNOW. Jal Education International Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्मकोश Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी समिति प्रभाग ग्रंथमाला-२४८ हिन्दू धर्मकोश डॉ० राजबली पाण्डेय एम० ए०, डी० लिट्०, विद्यारत्न भूतपूर्व कुलपति, जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ( हिन्दी समिति प्रभाग) राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिन्दी भवन महात्मा गांधी मार्ग, लखनऊ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्मकोश प्रथम संस्करण १९७८ मूल्य पैंतालीस रुपये मुद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय नीति, सदाचार, शील तथा अध्यात्म सम्बन्धी मान्यताओं के समुदाय को धर्म की संज्ञा प्रदान की गयी है। हिन्दू धर्म का क्षेत्र बहत ही विस्तत है। इसमें व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक, सभी जीवन-व्यवहारों को केंद्रित किया गया है । विचार अथवा चिंतन की व्यापकता और स्वतंत्रता का समग्ररूपेण समावेश हिन्दू धर्म में पाया जाता है। विभिन्न दर्शनों तथा उनके अनेक भेदों-विभेदों, शाखाओं, उपशाखाओं तथा इनसे अनुप्राणित स्वतन्त्र मत-मतान्तरों की व्यापकता भी इस धर्म में परिलक्षित होती है। बौद्धिक उदारता हिन्दू धर्म की अपनी अलग विशिष्टता है। जीवन के आचार की सुदीर्घ आस्थाओं और मान्यताओं से देश अथवा जाति की संस्कृति और ज्ञानचेतना के विविध आयामों का मापन किया जा सकता है। इस दृष्टि से भारत की धर्मपरम्परा का आभास प्रागैतिहासिक काल से ही होने लगता है। फिर क्रमशः वेद, वेदोत्तर ग्रन्थ, वेदांग, रामायण-महाभारत, स्मृति, पुराण, तन्त्र, आगम, त्रिपिटक स्याद्वाद कृतियाँ, सन्तवाणी, आदिग्रन्थ, वचनामृत, साखी, दोहरा आदि के माध्यम से भी धार्मिक वर्गीकरण की स्पष्ट झलक मिलती है। इस प्रकार पूर्वोक्त वाङमय की अथाह रचना और विपुल अनुष्ठानपद्धति का समुदाय इसमें दृष्टिगत होता है । इन सबमें पारंगत होना तो दूर, किसी एक पद्धति को समझना भी आज के व्यस्त जीवन में अशक्य प्रतीत होता है । सम्मान्य आचार्य तथा भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं कला के सफल प्राध्यापक डॉ० राजबली पाण्डेय ने प्रस्तुत हिन्दू धर्मकोश के माध्यम से धर्म की इसी विशालता से परिचित कराने का उत्तम प्रयास किया है । उन्होंने हिन्दू धर्म के सभी अंगों, सम्प्रदायों, शाखाओं, मत-मतान्तरों का परिचयात्मक विवरण तो इसमें दिया हो है, इसकी पुष्टि और प्रामाणिकता के लिए सभी प्रवर्तक आचार्यों, ग्रन्थकारों, व्याख्याताओं, सिद्धांतनिरूपकों, अनुष्ठाताओं, अनुयायी शिष्यों और भक्तों का समीक्षात्मक परिचय भी सन्निहित किया है। साथ ही समस्त आधारभूत ग्रन्थरचनाओं, पुण्यस्थलों, तीर्थों, पूजाविधियों, भजन-ध्यान, जप, तप, व्रत, दान, उपासना आदि के सांगोपांग विवेचनात्मक संदर्भ भी प्रस्तुत किये हैं। संस्थान के हिन्दी समिति प्रभाग द्वारा इस अनन्यतम ग्रन्थ को प्रकाशित कर हिन्दी जगत् के समक्ष प्रस्तुत करने में हमें अत्यधिक प्रसन्नता और गौरव का अनुभव हो रहा है। डॉ० राजबली पाण्डेय आज हमारे बीच नहीं रहे, अन्यथा इस कोश का स्वरूप उनके सान्निध्य में और अधिक परिष्कृत एवं संस्कृत होता, ऐसा हमारा विश्वास है। कोश के सम्पादन और मद्रण में काशी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यापक डॉ. विशुद्धानन्द पाठक और हिन्दी समिति के भूतपूर्व सहायक सम्पादक श्री चिरंजीवलाल शर्मा ने पूर्ण निष्ठा के साथ अथक श्रम किया है। उनके इस योगदान का ही प्रतिफल है कि इस कृति के माध्यम से, जिसमें हिन्दू धर्म की सुविस्तृत जानकारी सन्निहित है, स्वर्गीय डॉ० राजबली पाण्डेय की पवित्र स्मृति को उजागर करने में हम सफल हो सके हैं । विश्वास है, प्रस्तुत ग्रन्थ का सर्वत्र स्वागत और समादर होगा तथा हिन्दू धर्म के अध्येता, जिज्ञासू एवं अन्य सम्मान्य जन इसके माध्यम में अपेक्षित रूप से लाभान्वित हो सकेंगे। . . . हजारीप्रसाद द्विवेदी कार्यकारी उपाध्यक्ष Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना शास्त्रीय वाङ्मय का विस्तार जितनी मात्रा में होता है उतनी ही मात्रा में ज्ञान की परिधि बढ़ती जाती है । विषयों के वर्गीकरण तथा विशेष वर्गों में पुनः आन्तरिक अध्ययन से ज्ञान और अगाध होता जाता है । कुछ बहुश्रुत विशेषज्ञ तो इस ज्ञानसागर का आंशिक अवगाहन कर पाते हैं, परन्तु अधिकांश शिक्षित समुदाय के लिए उसमें उतरना संभव नहीं हो पाता । उसके लिए किसी और प्रकार का सोपान चाहिए जिससे वह ज्ञानसमुद्र में उतर सके । अतः सामान्य शिक्षित लोगों की सहायता के लिए सन्दर्भ और कोश ग्रंथों की आवश्यकता होती है । इनके द्वारा सामान्य शिक्षित व्यक्ति अपने संकीर्ण अध्ययनक्षेत्र के बाहर से भी संक्षिप्त ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रायः सभी विकसित भाषाओं में कोश और विश्वकोश निर्मित करने के प्रयास होते रहे हैं । सम्पूर्ण वाङ्मय के कोश और शब्दकोश बनते आये है। अंग्रेजी तथा अन्य समृद्ध भाषाओं में इस प्रकार का प्रचुर साहित्य निर्मित हो चुका है। भारतीय वाङ्मय में भी शब्दकोश तथा विश्वकोश बनाने की परम्परा रही है। संस्कृत में अनेक प्रकार तथा आकार के शब्दकोश एवं पर्यायकोश पाये जाते हैं । संग्रह, निबंध, सार आदि विषयगत कोश भी संस्कृत में मिलते हैं । महाभारत, पुराणादि विश्वकोश शैली के आकर ग्रन्थ हैं । इनमें विविध विषयों पर प्रचुर सामग्री का संकलन पाया जाता हैं। अमरकोश वर्गीकृत पर्यायकोश है। लक्ष्मीधर का कृत्यकल्पतरु, मित्रमित्र का वीरमित्रोदय, हेमाद्रि पन्त का चतुर्वगं चिन्तामणि आदि निबन्ध ग्रंथ विश्वकोश शैली के ही हैं, यद्यपि ये अक्षरक्रम में न होकर विषयक्रम से लिखे गये हैं । माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह आदि मिलते-जुलते प्रयत्न हैं । इन सभी का उद्देश्य यही था कि किसी या किन्हीं विषयों के विस्तृत ज्ञान की सामग्री एकत्र उपलब्ध हो सके। 1 हिन्दी भाषा में भी कोश और विश्वकोश बनाने के प्रयत्न पहले से प्रारम्भ हो चुके हैं । कुछ छिटपुट शब्दकोशों के पश्चात् काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिन्दी शब्दसागर' तथा 'संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर' प्रसिद्ध कोश हैं । कलकत्ते से डॉ० नगेन्द्रनाथ वसु द्वारा छब्बीस भागों में रचित एवं प्रकाशित 'हिन्दी विश्वकोश' एक विराट् कृति है । मुख्यतः एक व्यक्ति का यह प्रयास वास्तव में आश्चर्यजनक और सराहनीय है। इस ग्रन्थ का प्रणयन १९१६ ई० में प्रारम्भ हुआ था। डॉ० बसु ने इस ग्रन्थ की भूमिका में कहा है कि यह किसी अन्य ग्रन्थका अनुवाद न होकर स्वतंत्र रचना है और हिन्दी में इसका प्रणयन इसलिए किया गया कि हिन्दी आगे चलकर राष्ट्रभाषा बनेगी । वास्तव में विश्वकोश किसी भी राष्ट्रभाषा के गौरवग्रन्थ हैं । इनसे ही राष्ट्र की ज्ञानगरिमा का परिचय एकत्र मिलता है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिन्दी विश्वकोश' इसी दिशा में एक दूसरा प्रशंसनीय प्रयास है। लखनऊ से प्रकाशित 'विश्व भारती' और जामिया मिल्लिया दिल्ली से प्रकाशित 'ज्ञानगंगा' उल्लेखनीय कृतियां हैं ज्ञानमण्डल, वाराणसी से प्रकाशित 'हिन्दी साहित्य कोश' विषयगत कोश की दिशा में पहला मूल्यवान् प्रयास है फिर भी हिन्दी में विषयगत कोशों का प्रायः अभाव ही है। हिन्दी में धर्मसाहित्य का भी कोई कोश अथवा विश्वकोश नहीं बन पाया है । ज्ञानमण्डल, वाराणसी से प्रकाशित 'हिन्दुत्व' हिन्दू धार्मिक साहित्य का संक्षिप्त विवरणात्मक परिचय है, कोश नहीं उसकी संग्रथन शैली भी अक्षरक्रमिक न होकर ऐतिहासिक तिथिक्रमिक है । अतः हिन्दी में 'हिन्दू धर्मकोश' की वांछनीयता बनी रही और इसके अभाव का अनुभव हो रहा था । प्रस्तुत प्रयास इसी दिशा में प्रथम चरण है। हेस्टिग्ज् द्वारा सम्पादित 'धर्म- नीति विश्वकोश' (इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन एण्ड ईथिक्स) के सम्मुख तो यह बाल प्रथम चरण है । यदि राष्ट्र का सामूहिक साहस जगा तो इस प्रकार का महाप्रयास भी संभव हो सकेगा। आज से दस वर्ष पूर्व मैंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के लिए 'धर्म- नीति विश्वकोश' की योजना प्रस्तुत की थी । परन्तु यह कार्य कई कारणों से आगे नहीं बढ़ा । अभी भविष्य उसकी प्रतीक्षा में है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्म के अन्तर्गत भारत में उदित सभी धर्मधाराओं की गणना है। परन्तु सुविधा के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्यतया वैदिक परम्परा से विकसित धार्मिक सम्प्रदायों का ही समावेश किया गया है। यदि संभव हुआ तो बौद्ध तथा जैन धर्मधाराओं पर भी इस ग्रन्थ के क्रम में दूसरा ग्रन्थ प्रस्तुत किया जायगा। इस ग्रन्थ में संस्कृत वर्णमाला के अक्षरक्रम से प्रमुख शब्दों के अन्तर्गत हिन्दू धर्म के विविध विषयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । दूसरे शब्दों में, संग्रथन शैली कोशात्मक रखी गयी है । इसमें हिन्दू धर्म के निम्नांकित विषय संग्रहीत हैं : १. धार्मिक वाङ्मय के प्रमुख ग्रन्थ, २. धर्मप्रवर्तक, आचार्य, सन्त, लेखक आदि, ३. पूजापद्धति : कर्मकाण्ड, उपासना एवं योग, व्रत, उत्सव आदि, ४. देवमण्डल तथा अर्द्ध देवयोनि, ५. धर्मविज्ञान, ६. धर्मशास्त्र, ७. धार्मिक तथा नैतिक आचार, ८. तीर्थ, पवित्र नदी, पर्वतादि, ९. धार्मिक सम्प्रदाय, १०. लोकविश्वास आदि । हिन्दू धर्म का वाङ्मय काल और देश की विशाल परिधि में बिखरा पड़ा है। ऋग्वेद से लेकर आधुनिक सन्तों के वचनों तक हिन्दू धर्म का महासागर बढ़ता जा रहा है । अतः विषयों और शब्दों के चुनाव का प्रश्न बड़ा विकट है। वास्तव में इस प्रकार के कोश का निर्माण शब्दों के संकलन में ही नहीं, शब्दों के छोड़ने के व्यायाम में भी है। फिर भी साहस बटोरकर शब्दों का संग्रह और त्याग करना पड़ता है । जिन स्रोतों से शब्दों का चुनाव और संकलन किया गया है, वे निम्नांकित हैं: १. वैदिक संहिताएँ २. ब्राह्मण ग्रन्थ ३. आरण्यक ४. उपनिषद् ५. वेदाङ्ग ६. सूत्र ग्रन्थ-श्रौत, धर्म और गृह्य ७. रामायण और महाभारत ८. पुराण तथा उपपुराण ९. स्मृति ग्रन्थ १०. दार्शनिक (धर्मवैज्ञानिक) साहित्य ११. भाष्य तथा निबन्ध ग्रन्थ १२. तन्त्र और आगम १३. प्रमुख प्रादेशिक भाषाओं का धार्मिक साहित्य १४. साम्प्रदायिक धार्मिक साहित्य १५. धार्मिक सुधारणाओं तथा आन्दोलनों के इतिहास ग्रन्थ १६. लोकधर्म का अलिखित अथवा मौखिक साहित्य आदि । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रयास में स्वभावतः त्रुटियाँ रह गयी हैं । कोश और विश्वकोश का क्रमशः विकास और परिष्कार होता है । उनका इतिहास उत्तरोत्तर निर्मित होता रहता है। समय-समय पर विज्ञ पाठकों के सुझाव और परामर्श से ग्रन्थ में संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन के लिए प्रेरणा मिलती है। आशा है, भविष्य में यह ग्रन्थ बड़े आकार तथा प्रकार में निकल सकेगा। सम्प्रति जिस रूप में यह प्रस्तुत हो सका है, जनदेवता को समर्पित है। सचमुच कोश एक सामयिक घड़ी है । सबसे अच्छी घड़ी भी बिल्कुल ठीक समय नहीं बताती । फिर भी 'नहीं घड़ी से कोई भी घड़ी अच्छी होती है । कणकण जोड़कर यह कोश निर्मित हुआ है। जिन अतीत तथा वर्तमान के कोशकारों तथा लेखकों से इसमें सहायता मिली है, उनके प्रति अत्यन्त अनुगृहीत हूँ। जिन मित्रों ने पाण्डुलिपि तैयार करने में सहयोग किया है, उनका भी हार्दिक आभार मानता हूँ। विजया दशमी, २०२७ वि० राजबली पाण्डेय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० का० घे० अ० स्मृ० अ० वे० अ० अ० परि० अन्त्य० प० आ० ० ० आ० ध० सू० आ० श्री० सू० आ० गु० मू० आ० धी० सू० ऋ० वे० ए० ई० ऐ० आ० ऐ० उप० ऐ० ब्रा० क० व० नि० का० धी० सू० का० स्मृ० कृ० क० त० कृ० र० कौ० ० अ० कौ० प्रा० उ० कौ० सू० खा० गु० सू० ग० पु० ग० प० गृ० सू० गो० ब्रा० गो० गृ० सू० गौ० ५० सू० चतु० त्रि० छा० उप० जीमूत० अहल्याकामधेनु (पत्रात्मक ) अत्रिस्मृति अथर्ववेद अध्याय अथर्ववेद परिशिष्ट अन्त्येष्टिपद्धति आपस्तम्बगृह्यसूत्र आपस्तम्ब धर्मसूत्र आपस्तम्बश्रौतसूत्र आश्वलायन गृह्यसूत्र आश्वलायन श्रौतसूत्र ऋग्वेद एपिग्राफिया इंडिका ऐतरेय आरण्यक ऐतरेय उपनिषद् ऐतरेय ब्राह्मण कलिवर्ज्यनिर्णय कात्यायन श्रौतसूत्र कात्यायनस्मृति कृत्यकल्पतरु कृत्यरत्नाकर कौटिल्य अर्थशास्त्र कौशीतकि ब्राह्मण उपनिषद् कौशिकसूत्र खादिर गृह्यसूत्र गरुडपुराण गदापरपद्धति संकेत-सारणी जै० गृह्यसूत्र गोपथ ब्राह्मण गोभिल गृह्मसू गौतम धर्मसूत्र चतुर्वर्गचितामणि छान्दोग्य उपनिषद् जीमूतवाहन ० उप० जै० गृ० ज० पू० मी० ता० ब्रा० तै० आ० तै० ब्रा० ० सं० त्रि० से० द० स्मृ० दे० स्मृ० दे० प०मि० ༥༠ ༥༠ ना० पु० ना० स्मृ० नि० सि० मी० पु० प० पु० प० मा० प० स्मृ० पा० ० ० पु०वि० पू० प्र० पृ० मी० मु० प्रा० त० प्रा० प्र० प्रा० म० प्रा० वि० बृ० उप० ० सं० बृ० स्मृ० बी० ० गृ० सू० ० ० ० बौ० धी० मु० जैमिनीय उपनिषद् जैमिनीय गृह्यसूत्र जैमिनीय पूर्वमीमांसा ताण्ड्य ब्राह्मण तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय ब्राह्मण तैत्तिरीय संहिता त्रिस्थली सेतु दक्षस्मृति देवलस्मृति देखिए धर्मसिन्धु धर्मसूत्र नारदपुराण नारदस्मृति निर्णयसिन्धु नीलमतपुराण पद्मपुराण पराशरमाधवीय पराशरस्मृति पारस्करगृह्यसूत्र पुरुषार्थचिन्तामणि पूजाप्रकाश पूर्वमीमांसासूत्र प्रायश्चित्ततत्त्व प्रायश्चित्तप्रकाश प्रायश्चित्तमयूख प्रायश्चित्तविवेक बृहदारण्यक उपनिषद् बृहत्संहिता बृहस्पतिस्मृति बौधायन गृह्यसूत्र दीपायन धर्मसूत्र बौधायन श्रौतसूत्र Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) ब्रह्म० पु० ब्रह्मा० पु. भ० गीता भ० पु० भा० पु० भा० गृ० सू० म० पु० म० पारि० म० स्मृ० म० भा० मा० गृ० सू० मा० पु० मिता० वि० धर्म वी० मि० वै० सू० श० ब्राह्मण शा० गृ० सू० शा० श्री० सू० शा०प० शु० क० शु० कौ० मी० कौ० मेधा मै० सं० य० वे० य० ध० सं० या० स्मृ० रा० ध० को० व० कृ० दी० व० पु० व० ध० सू० व० स्मृ० वाम० पु० वा० पु० वा० ग० सू० वा० सं० वि० पु. वि० ध० सू० ब्रह्मपुराण ब्रह्माण्डपुराण भगवद्गीता भविष्यपुराण श्रीमद्भागवतपुराण भारद्वाज गृह्यसूत्र मत्स्यपुराण मदनपारिजात मनुस्मृति महाभारत मानवगृह्यसूत्र मार्कण्डेयपुराण मिताक्षरा (विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्क्यस्मृति पर टीका) मीमांसाकौस्तुभ मेधातिथि (मनुस्मृति पर) मंत्रायणी संहिता यजुर्वेद यतिधर्मसंग्रह याज्ञवल्क्य स्मृति राजधर्मकौस्तुभ वर्षकृत्यदीपिका वराहपुराण वसिष्ठधर्मसूत्र वसिष्ठस्मृति वामनपुराण वायुपुराण वाराहगृह्यसूत्र वाजसनेयी संहिता विष्णुपुराण विष्णुधर्मसूत्र शु०प्र० शु० क्रि० शू० क० श्वे० उप० श्रा० क० था० क्रि० स० प्र० सं० कौ० सं० च० सं० प्र० सं० म० सा० वि० ब्रा० स० रत्न सा०व० स्क० पु. स्मृ० च. स्मृ० मु० हा० ध० म० हा० स्मृ० हि० गृ० सू० हि० ध० सू० हेमाद्रि० विष्णुधर्मोत्तरपुराण वीरमित्रोदय वेदान्तसूत्र शतपथ ब्राह्मण शाङ्खायन गृह्यसूत्र शाङ्खायन श्रौतसूत्र शान्तिपर्व (महा०) शुद्धिकल्पतरु शुद्धिकौमुदी शुद्धिप्रकाश शुद्धिक्रियाकौमुदी शूद्रकमलाकर श्वेताश्वतज्ञ उपनिषद् श्राद्धकल्पतरु श्राद्धक्रियाकौमुदी समयप्रदीप संस्कारकौस्तुभ संस्कारचन्द्रिका संस्कारप्रकाश संस्कारमयूख सामविधानब्राह्मण संस्काररत्नमाला सामवेद स्कन्दपुराण स्मृतिचन्द्रिका स्मृतिमुक्ताफल हारीतधर्मसूत्र हारीतस्मृति हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र हिरण्यकेशिधर्मसूत्र हेमाद्रि, चतुर्वर्गचिन्तामणि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्मकोश अ-स्वरवर्ण का प्रथम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके अंकारं बिन्दुसंयुक्तं पीतविद्युत्समप्रभम् । धार्मिक प्रतीकत्व का निम्नांकित वर्णन पाया जाता है : पञ्चप्राणात्मकं वर्णं ब्रह्मादिदेवतामयम् ॥ शृणु तत्त्वमकारस्य अतिगोप्यं वरानने । सर्वज्ञानमयं वर्ण बिन्दुत्रयसमन्वितम् । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम है : पञ्चदेवमयं वर्ण शक्तित्रयसमन्वितम् । अंकारश्चक्षुषो दन्तो घटिका समगुह्यकः । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमत् ।। प्रद्युम्नः श्रीमुखी प्रीति/जयोनिवृषध्वजः ।। बिन्दुतत्त्वमयं वर्ण स्वयं प्रकृतिरूपिणी ॥ परं शशी प्रमाणीशः सोमबिन्दुः कलानिधिः । [शिव पार्वती से कहते हैं, हे सुमुखी ! अकार के अति अक्रूरश्चेतना नादपूर्णा दुःखहरः शिवः । गोपनीय तत्त्व को सुनो। यह शरच्चन्द्र के समान प्रकाश शिवः शम्भुनरेशश्च सुखदुःखप्रवर्तकः । मान और सदा पञ्चकोणमय है । यह वर्ण पञ्चदेवमय तथा पूर्णिमा रेवती शुद्धः कन्याक्षरवियद् हविः ।। तीनों शक्तियों से समन्वित है। निर्गुण होते हुए भी तीनों अमृताकर्षिणी शून्यं विचित्रा व्योमरूपिणी । गुणों से संयुक्त तथा स्वयं मूर्तिमान् कैवल्य है । यह वर्ण केदारो रात्रिनाशश्च कुब्जिका चैव बुबुदः ।। बिन्दुतत्त्वमय और स्वयं प्रकृतिरूपिणी शक्ति है । ] (२) एकाक्षर कोश में इसका अर्थ परब्रह्म किया गया वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित अभिधान दिये। है। महाभारत (१२.१७.१२६) में महेश्वर के अर्थ में इसका प्रयोग है : अः श्रीकण्ठः सुरेशश्च ललाटश्चैकमात्रिकः । 'बिन्दुविसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ।' पूर्णोदरी सृष्टिमेधौ सारस्वतं प्रियंवदा ।। [बिन्दु, विसर्ग, सुमुख, शर, सर्वायुध और सह ये महाब्राह्मी वासुदेवो धनेशः केशवोऽमृतम् । महेश्वर के नाम हैं। ] कीर्तिनिवृत्तिर्वागीशो नरकारिहरो मरुत् ॥ अंश-(१) द्वादश आदित्यों में से एक । महाभारत में इनकी ब्रह्मा वामाद्यजो ह्रस्वः करसुः प्रणवाद्यकः ।। गणना इस प्रकार है: धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च । ब्रह्माणी कामरूपश्च कामेशी वासिनी वियत् । भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ।। विश्वेशः श्रीविष्णुकण्ठौ प्रतिपत्तिथिरंशिनी ।। एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरेव च । अर्कमण्डलवर्णाद्यो ब्राह्मण, कामकर्षिणी ।। जघन्यस्त्वेष सर्वेषामादित्यानां गणाधिकः ।। इस अक्षर के आकार-संयोजन में 'वर्णोद्धारतन्त्र' के (२) पुराणों के अनुसार यदुवंश के एक राजा का नाम अनुसार कई देवताओं का निवास बतलाया गया है : है : 'ततः कुरुवत्सः । ततश्च अनुरथः । ततः पुरुहोत्रो दक्षतः कुण्डलीभूत्वा कुञ्चिता वामतो गता। जज्ञे । ततश्च अंश इति ।' (श्रीमद्भागवत) ततोऽर्द्धसंगता रेखा दक्षोर्धा तासु शङ्करः ॥ (३) धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक रिक्थ का विभागाङ्क: विधिर्नारायणश्चैव सन्तिष्ठेत् क्रमशः सदा । 'द्वावंशौ प्रतिपद्यत विभजन्नात्मनः पिता।' अर्द्धमात्रा शक्तिरूपा ध्यानमस्य च कथ्यते ।। (४) भगवद्गीता में जीवात्मा को ईश्वर का अंश कहा अं-(१) स्वरवर्ण का पञ्चदश अक्षर (किन्हीं के मत में यह गया है : अनुस्वार मात्र है । महेश्वर के चतुर्दश सत्रों में इसका 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।' पाठ नहीं है)। कामधेनतन्त्र में उसका माहात्म्य अंशक ( अंशभाक् )-धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक सम्पत्ति इस प्रकार है: में अंश ( भाग ) पाने वाला दायाद : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंशी-अकाली स्रवन्तीष्वनिरुद्धासु त्रयो वर्णा द्विजातयः । द्विबिन्दुरसना सोमोऽनिरुद्धो दुःखसूचकः । प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवर्षिपितृतर्पणम् ।। द्विजिह्वः कुण्डलं वक्रं सर्गः शक्तिनिशाकरः।। निरुद्धासु न कुर्वी रन्नंशभाक् तत्र सेतुकृत् ।। सुन्दरी सुयशानन्ता गणनाथो महेश्वरः ॥ (प्रायश्चित्ततत्त्व) एकाक्षर कोशमें इसका अर्थ महेश्वर किया गया है। पारिवारिक, दैव तथा पितृकार्य करने का उसी को महाभारत (१३.१७.१२६) में कथन है : अधिकार होता है जिसे पैतृक सम्पत्ति में अंश मिलता है। 'बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ।' अंशी-पतक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद : अकल-अखण्ड, एक मात्र परब्रह्म, जिसकी कला (अंश) विभागञ्चेत् पिता कुर्यात् स्वेच्छया विभजेत् सुतान् । या कलना ( गणना, माप ) नहीं है। ज्येष्ठं वा श्रेष्ठभागेन सर्वे वा स्युः समांशिनः ॥ अकाली-सिक्खों में 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग (याज्ञवल्क्य स्मृति) हैं। सहिजधारी वे हैं जो विशेष रूप या बाना नहीं धारण [ पिता अपनी सम्पत्ति का विभाग करते हुए स्वेच्छा करते। इनकी नानकपंथी, उदासी, हन्दाली, मीन, से पुत्रों में विभाजन कर दे। ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग दे रामरंज और सेवापन्थी छ: शाखाएँ हैं। सिंह लोगों के अथवा सभी पुत्र समानांशी हों । ] तीन पंथ है-(१) खालसा, जिसे गुरु गोविन्दसिंह ने अशुमान्-सूर्य का एक पर्याय (अंशवो विद्यन्ते अस्य इति)। चलाया, (२) निर्मल, जिसे वीरसिंह ने चलाया और वंशावली के अनुसार सूर्यवंश के राजा असमञ्ज के पुत्र (३) अकाली, जिसे मानसिंह ने चलाया। अकाली का का नाम: अर्थ है 'अमरणशील' जो 'अकाल पुरुष' शब्द से लिया सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादथांशुमान् । गया है। अकाली सैनिक साधुओं का पंथ है, जिसकी दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः ।। स्थापना सन् १६९० में हुई । उपर्युक्त नवों सिक्ख सम्प्र(रामायण, बालकाण्ड) दाय नानकशाही 'पानग्रंथी' से प्रार्थना आदि करते हैं । [सगर का पुत्र असमञ्ज, असमञ्ज का अंशुमान्, अंशु 'जपजी', 'रहरास', 'सोहिला', 'सुखमनी' एवं 'आसा-दीमान् का दिलीप और दिलीप का पुत्र भगीरथ हुआ।] वार' का संग्रह ही 'पंजग्रंथी' है। ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृति खण्ड, अष्टम अध्याय) में गङ्गा __ अकाली सम्प्रदाय दूसरे सिक्ख सम्प्रदायों से भिन्न है, वतरण के सन्दर्भ में अंशुमान् की कथा मिलती है। क्योंकि नागा तथा गोसाँइयों की तरह इनका यह सैनिक अंशुमाली-सूर्य का पर्याय ( अंशूनां माला अस्ति यस्य संगठन है। इसके संस्थापक मूलतः स्वयं गुरु गोविन्दसिंह थे। इति ) । विष्णुपुराण में आदित्य और अंशुमाली की अकाली नीली धारीदार पोशाक पहनते हैं, कलाई पर लोहे अभिन्नता बतायी गयी है : 'आदित्य इवांशुमाली चचार ।' का कड़ा, ऊँची तिकोनी नीली पगड़ी में तेज धारवाला अ:-स्वर वर्ण का षोडश अक्षर (किन्हीं के मत में यह लोहचक्र, कटार, छुरी तथा लोहे की जंजीर धारण 'अयोगवाह' है। माहेश्वर सूत्रों में इसका योग (पाठ) नहीं करते हैं। है )। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है : सैनिक की हैसियत से अकाली 'निहंग' कहे जाते अकारं परमेशानि विसर्गसहितं सदा । हैं जिसका अर्थ है 'अनियंत्रित' । सिक्खों के इतिहास में अःकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम् ।। इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् १८१८ में मुट्ठीभर पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा । अकालियों ने मुलतान पर घेरा डाला तथा उस पर विजय सर्वज्ञानमयो वर्ण आत्मादि तत्त्वसंयुतः ॥ प्राप्त की । फूलसिंह का चरित्र अकालियों के पराक्रम पर बिन्दुत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा । प्रकाश डालता है। फूलसिंह ने पहले पहल अकालियों के किशोरवयसः सर्वे गीतवाद्यादितत्पराः ।। नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की जब उसने लार्ड मेटकॉफ शिवस्य युवती एषा स्वयं कुण्डलिनी मता ॥ के। अंगरक्षकों पर हमला बोल दिया था। फिर वह रणजीततन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं : सिंह की सेवा में आ गया । फलसिंह के नेतृत्व में अकालियों अः कण्ठको महासेनः कालापूर्णामृता हरिः । ने सन् १८२३ में यूसुफजइयों (पठानों) पर रणजीतसिंह इच्छा भद्रा गणेशश्च रतिविद्यामुखी सुखम् ।। को विजय दिलवायी । इस युद्ध में फूलसिंह को वीरगति Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्रूरघाट अक्षर प्राप्त हुई। उसका स्मारक नौशेरा में बना हुआ है, जो हिन्दू एवं मुसलमान तीर्थयात्रियों के लिए समान श्रद्धा का स्थान है । अकालियों का मुख्य कार्यालय अमृतसर में 'अकाल बुंगा' है जो सिक्खों के कई पूज्य सिंहासनों में से एक है । अकाली लोग धार्मिक कृत्यों का निर्देश वहीं से ग्रहण करते है। ये अपने को खालसों का नेता समझते हैं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में इनका मुख्य कार्यालय आनन्दपुर हो गया था, किन्तु अब इनका प्रभाव बहुत कम पड़ गया है । अकाली संघ के सदस्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । उनका कोई नियमित मुखिया या विष्य नहीं होता, किन्तु फिर भी वे अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं। गुरु की जूठन बेले (शिव) प्रसाद रूप में खाते हैं। वे दूसरे सिक्खों की तरह मांस एवं मदिरा का सेवन नहीं करते, किन्तु भाँग का सेवन अधिक मात्रा में करते हैं । दे० सिक्ख । अक्रूरघाट - वृन्दावन से मथुरा जाते समय श्री कृष्ण ने अक्रूर को यमुनाजल में दिव्य दर्शन कराया था। इसीलिए इसका महत्त्व है । इसको 'ब्रह्मद' भी कहते हैं । यह मथुरा-वृन्दावन के बीच कछार में स्थित है । समीप में गोपीनाथजी का मन्दिर है। वैशाख शुक्ल नवमी को यहाँ मेला होता है। अक्षमाला (१) अ (रुद्राक्ष आदि) की माला, सुमिरनी या जपमाला । इसको अक्षसूत्र भी कहते हैं । ( २ ) वसिष्ठ की पत्नी का एक नाम भी अक्षमाला है । मनु ने कहा है -- 'अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताधमयोनिजा ।' [ नीच योनि में उत्पन्न अक्षमाला का वसिष्ठ के साथ विवाह हो गया । ] अक्षयचतुर्थी मंगल के दिन पड़ने वाली चतुर्थी, जो विशेष पुण्यदायिनी होती है। इस दिन उपवास करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है । अक्षयफलावासि (अक्षयतृतीया ) - वैशाख शुक्ल तृतीया को विष्णुपूजा अक्षय फल प्राप्ति के लिए की जाती है । यदि कृत्तिका नक्षत्र इस तिथि को हो तब यह पूजा विशेष पुण्यप्रदायिनी होती है । दे० निर्णयसिन्धु, पृ० ९२-९४ । विष्णुमन्दिरों में इस पर्व पर विशेष समारोह होता है, जिसमें सर्वांग चन्दन की अर्चना और सत्तू का भोग लगाया जाता है । अक्षयनवमीकार्तिक शुक्ल नवमी इस दिन भगवान् विष्णु ने कूष्माण्ड नामक दैत्य का वध किया था। दे० व्रतराज, ३४ । अक्षयवट - प्रयाग में गङ्गा-यमुना संगम के पास किले के भीतर अक्षयवट है । यह सनातन विश्ववृक्ष माना जाता है । असंख्य यात्री इसकी पूजा करने जाते हैं । काशी और गया में भी अक्षयवट हैं जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है। अक्षयवट को जैन भी पवित्र मानते हैं। उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेवजी ने तप किया था । अक्षर - (१) जो सर्वत्र व्याप्त हो। यह शिव तथा विष्णु का पर्याय है 'अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रशोऽक्षर एवं च' (महाभारत) अज ( जन्मरहित ) जीव को भी अक्षर कहते हैं । (२) जो क्षीण नहीं हो 'येनाक्षरं पुरुषं पुरुषं वेद सत्यम् प्रोवाच तं तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् ।' ( वेदान्तसार में उद्धृत उपनिषद्) [ जिससे सत्य और अविनाशी पुरुष का ज्ञान होता है उस ब्रह्मविद्या को उसने यथार्थ रूप से कहा । ] और भी कहा है : द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरः सर्वाणि भूतानि क्षरश्चाक्षर एव च । कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता) [ संसार में क्षर और अक्षर नाम के दो पुरुष हैं। सभी भूतों को क्षर कहते हैं । कूटस्थ को अक्षर कहते हैं ।] ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक के शरीर को क्षर कहा गया है । अविवेकी लोग शरीर को ही पुरुष मानते हैं । भोक्ता को चेतन कहते हैं । उसे ही अक्षर पुरुष कहते हैं । वह सनातन और अविकारी है। (३) 'न क्षरति इति अक्षर:' इस व्युत्पत्ति से विनाशरहित, विशेषरहित, प्रणव नामक ब्रह्म को भी अक्षर कहते हैं । कूटस्थ, नित्य आत्मा को भी अक्षर कहते हैं : अराद्विरुद्धधर्मत्वादक्षरं ब्रह्म भण्यते । कार्यकारणरूपं तु नश्वरं क्षरमुच्यते ॥ यत्किञ्चिद्वस्तु लोकेस्मिन् वाचो गोचरतां गतम् । प्रमाणस्य च तत्सर्वमक्षरे प्रतिषिध्यते ॥ यदप्रवोधात् कार्पण्यं ब्राह्मण्यं यत्प्रबोधतः ॥ तदक्षर प्रवोद्धव्यं यथोक्तेश्वरवर्त्मना ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षसूत्र-अगम्या [क्षर के विरोधी धर्म से युक्त होने के कारण अक्षर को अखण्ड द्वादशी-(१) आश्विन शुक्ल एकादशी को यह व्रत ब्रह्म कहा गया है । कार्य-कारण रूप नश्वर को क्षर कहते प्रारम्भ होता है। उस दिन उपवास किया जाता है और हैं । इस विश्व में जो कुछ भी वस्तु वाणी से व्यवहृत द्वादशी को विष्णु-पूजा की जाती है । एक वर्ष के लिए होती है और जो प्रमेय है वह सब क्षर कहलाती है। तिथिव्रत होता है। जिसके अज्ञान से कृपणता और जिसके ज्ञान से ब्राह्मण्य है, (२) मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को भी अखण्ड द्वादशी उसे अक्षर जानना चाहिए।] कहते हैं । यह यज्ञों, उपवासों और व्रतों में वैकल्य दूर (४) अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त ५१ वर्ण होते हैं, करती है। दे० हेमाद्रि, व्रतकाण्ड, पृ० १११७-११२४ । ऐसा मेदिनीकोश में कहा गया है। उक्त वर्ण निम्नांकित हैं : अगम्या-समागम के अयोग्य स्त्री । गम्या और अगम्या का स्वर विवरण यम ने इस प्रकार किया है : अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ए ऐ ओ या अगम्या नृणामेव निबोध कथयामि ते । औ अं अः । (१५) स्वस्त्री गम्या च सर्वेषामिति वेदे निरूपिता ।। व्यञ्जन अगम्या च तदन्या या इति वेदविदो विदुः । क वर्ग से लेकर प वर्ग पर्यन्त । (२५) सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं शृणु सुन्दरि ।। अन्तःस्थ, ऊष्म तथा संयुक्त--- अगम्याश्चैव या याश्च निबोध कथयामि ताः । य र ल व श ष स ह क्ष त्र ज्ञ । (११) शूद्राणां विप्रपत्नी च विप्राणां शद्रकामिनी ।। षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः । अस्त्यगम्या च निन्द्या च लोके वेदे पतिव्रते। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्यतः पुरा ॥ शूद्रश्च ब्राह्मणी गच्छेद् ब्रह्महत्याशतं लभेत् ।। (बृहस्पति) तत्समं ब्राह्मणी चापि कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम् । [किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न यदि शूद्रां व्रजेद् विप्रो वृषलीपतिरेव सः ।। हो जाता है, इसीलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चाण्डालात सोऽधमः स्मृतः । निबद्ध कर दिया है। ] विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रं तस्य च तर्पणम् ।। लिपि पाँच प्रकार की है : तत् पितृणां सुराणाञ्च पूजने तत्समं सति । मुद्रालिपिः शिल्पलिपिलिपिर्लेखनीसम्भवा । कोटिजन्माजितं पुण्यं सन्ध्यया तपसाजितम् ।। गुण्डिका घूर्णसम्भूता लिपयः पञ्चधा स्मृताः ।। द्विजस्य वृषलीभोगान्नश्यत्येव न संशयः । [ मुद्रालिपि, शिल्पलिंपि, लेखनीसम्भव लिपि, गुण्डि ब्राह्मणश्च सुरापीतो विड्भोजी वृषलीपतिः ।। कालिपि, घूर्णसम्भूत लिपि, ये पाँच प्रकार की लिपियाँ हरिवासरभोजी च कुम्भीपाक वजेद् ध्रुवम् । कही गयी हैं। ] (वाराहीतन्त्र) दे० 'वर्ण' । गुरुपत्नी राजपत्नी सपत्नीमातरं प्रसुम् ।। अक्षसूत्र-तान्त्रिक भाषा में 'अ' से लेकर 'क्ष' पर्यन्त वर्ण सुतां पुत्रवधूं श्वधू सगर्भा भगिनीं सति । माला को अक्षसूत्र कहा गया है । यथा गौतमीय तन्त्र में : सोदरभ्रातृजायाश्च भगिनीं भ्रातृकन्यकाम् ।। पञ्चाशल्लिपिभिर्माला विहिता जपकर्मसु । शिष्याञ्च शिष्यपत्नीञ्च भागिनेयस्य कामिनीम् । अकारादिक्षकारान्ता अक्षमाला प्रकीर्तिता ।। भ्रातृपुत्रप्रियाश्चैवात्यगम्यामाह पद्मजः ।। क्षण मेरुमुखं तत्र कल्पयेन्मुनिसत्तम । एतास्वकामनेकां वा यो व्रजेन्मानवाधमः । अनया सर्वमन्त्राणां जपः सर्वसमृद्धिदः ।। स मातृगामी वेदेषु ब्रह्महत्याशतं लभेत् ॥ [ मुनिश्रेष्ठ ! जप कर्म में पचास लिपियों (अक्षरों) द्वारा अकर्मा)ऽपि सोऽस्पृश्यो लोके वेदेऽतिनिन्दितः । माला बनायी जाती है । अकार से लेकर क्षकार तक को स याति कुम्भीपाकं च महापापी सुदुष्करम् ।। अक्षमाला कहा गया है । अक्षमाला में 'क्ष' को मेरुमुख (ब्रह्म पु०, प्रकृतिखण्ड, अ० २७) बनाना चाहिए। इस माला से सब प्रकार की समद्धियाँ [ पुरुषों के लिए अगम्या स्त्री के सम्बन्ध में मैं कहता प्राप्त होती है । दे० 'माला' और 'वर्णमाला'। हूँ, सुनो। सबके लिए अपनी स्त्री गम्या है, ऐसा वेद Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगम्या-अगस्ति में कहा है। दूसरे की भार्या अगम्या है ऐसा वेदज्ञों ने कहा है । हे सुन्दरी ! सामान्य नियम कह दिया है, अब विशेष नियम सुनो। जो जो स्त्रियाँ समागम के योग्य नहीं हैं उनके विषय में कहता हूँ । सुनो-पतिव्रते ! शूद्रों का ब्राह्मणपत्नी के साथ और ब्राह्मण का शूद्र स्त्री के साथ संगम वजित है। ऐसा करने वाला लोक और वेद में निन्द्य कहा गया है। ब्राह्मणी के साथ समागम करनेवाला शूद्र सौ ब्रह्महत्याओं का फल पाता है। शूद्र के साथ समागम करने वाली ब्राह्मणी शीघ्र कुम्भीपाक नरक को । जाती है। शूद्रा के साथ संभोग करने वाला ब्राह्मण शूद्रापति कहलाता है। वह जातिभ्रष्ट हो जाता है। उसे चाण्डाल से भी अधम कहते हैं। उसके द्वारा किया गया पिण्डदान विष्ठा के समान और तर्पण मत्र के सदश होता है। पितरों और देवताओं के पूजन में भी यही होता है। सन्ध्या, पूजा और तप द्वारा करोड़ों जन्मों में सञ्चित ब्राह्मण का पुण्य शूद्रा स्त्री के साथ सम्भोग करने से नष्ट हो जाता है इसमें संशय नहीं है। मदिरा पीने वाला, वेश्यागामी के गृह में भोजन करने वाला, शूद्रा का पति तथा एकादशी के दिन भोजन करने वाला ब्राह्मण निश्चित ही कुम्भीपाक नरक प्राप्त करता है। गुरु-स्त्री, राजा की स्त्री, सौतेली माता तथा उसकी कन्या, पुत्री, पुत्र की स्त्री, गर्भवती स्त्री, सास, बहिन, भाई की पत्नी, शिष्या, भतीजी, शिष्य की पत्नी, भांजी, भतीजे की स्त्री, इन्हें ब्रह्मा ने सर्वथा समागम के अयोग्य कहा है । जो अधम पुरुष इनमें से किसी एक अथवा अनेक के साथ समागम करता है वह मातृगामी कहा गया है और उसे सौ ब्रह्महत्याओं का पाप होता है । वह किसी प्रकार धर्मकार्य नहीं कर सकता । वह अस्पृश्य है और लोक-वेद में निन्दित माना गया है । वह कुम्भीपाक नरक को जाता है और महापापी है।] अगस्ति (अगस्त्य)-कुछ वैदिक ऋचाओं के द्रष्टा ऋषि (ऋग्वेद १.१६५. १९१) । ऋग्वेद में कहीं-कहीं इनका उल्लेख है, विशेष कर इनके आश्चर्यजनक प्रादुर्भाव एवं पत्नी लोपामुद्रा के सम्बन्ध के बारे में चर्चा है। ये दक्षिण भारत के संरक्षक ऋषि थे, जहाँ आज भी इनसे सम्बन्धित अनेक पवित्र स्थान हैं । प्रयाग के समीप यमुना-तट पर इनकी कुटी का स्मृति-अवशेष है । इनकी उत्पत्ति मित्र एवं वरुण के द्वारा कुम्भ (कलश) से मानी जाती है। दो पिताओं के कारण इन्हें 'मैत्रावरुणि' कहते हैं एवं कलश से उत्पन्न होने के कारण ये 'कुम्भसम्भव' तथा 'घटयोनि' कहलाते हैं । अगस्त्य का एक वैदिक नाम 'मान्य' भी है क्योंकि कुम्भ से जन्म लेने के बाद वे 'मान' से 'मित' (मापे गये) हुए थे। संन्यासी के रूप में वृद्धावस्था में अपनी और पितरों की नरक से रक्षा करने के लिए अगस्त्य को एक पुत्र उत्पन्न करने की कामना हुई । अतएव उन्होंने तपोबल से एक स्त्री लोपामुद्रा की सृष्टि सभी जीवों के सर्वोत्तम भागों से की तथा उसे विदर्भ के राजा को कन्या के रूप में सौंप दिया। अलौकिक सौन्दर्य होते हए भी राजा के भय से किसी का साहस उसका पाणिग्रहण करने का नहीं हआ । अन्त में अगस्त्य ने उस कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव राजा से किया, मुनि के क्रोध के भय से राजा ने उसे मान लिया । लोपामुद्रा अगस्त्य मुनि की पत्नी बनी। गङ्गाद्वार में तपस्या करने के उपरान्त जब अगस्त्य ने अपनी पत्नी का आलिंगन करना चाहा तो उसने तब तक अस्वीकार किया जब तक उसे उसके पिता के घर के समान रत्नाभूषणों से न विभूषित किया जाय । लोपामुद्रा की इस इच्छापूर्ति के लिए अगस्त्य कई राजाओं के पास धन के लिए गये, किन्तु उनके कोषों में आय-व्यय समान था और वे सहायता न दे सके। तब वे मणिमती के दानव राजा इल्वल के यहाँ गये, जो अपने धन के लिए प्रसिद्ध था। इल्वल ब्राह्मणों का शत्रु था। उसका वातापी नामक भाई था। किसी ब्राह्मण के आगमन पर इल्वल अपने भाई वातापी को मारकर उसका मांस ब्राह्मण को खिलाता था। जब ब्राह्मण भोजन कर चुकता तो वह जादू की शक्ति से वातापी को पुकारता जो ब्राह्मण का पेट फाड़कर निकल आता । इस प्रकार अपने शत्रु ब्राह्मणों का वह नाश किया करता था । दानव ने अपना प्रयोग अगस्त्य पर भी किया किन्तु उसकी जादूशक्ति वातापी को जीवित न कर सकी । अगस्त्य उसको पहले ही पचा चुके थे। इल्वल ने क्रोधित होने के कारण अगस्त्य को धन देने से इनकार किया। ऋषि ने अपने नेत्रों से अग्नि उत्पन्न कर उसको भस्म कर दिया। अन्ततोगत्वा ऋषि को लोपामद्रा से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम 'दृधस्यु इध्मवाह' पड़ा । दे० 'इल्वल'। अगस्त्य का दूसरा प्रसिद्ध कार्य नहष को अभिशप्त कर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगस्त्यदर्शन-पूजन-अग्नि सर्प बनाना था । नहुष इन्द्र का पद प्राप्त करके शची को ग्रहण करना चाहता था। शची की शर्त पूरी करने के लिए वह सात ऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी पर बैठ शची के पास जा रहा था । उसने रास्ते में अगस्त्य के सिर पर पैर रख दिया और शीघ्रता से चलने के लिए 'सर्प-सर्प' कहा । इस पर ऋषियों ने उसे 'सर्प' हो जाने का उस समय तक के लिए शाप दिया, जब तक युधिष्ठिर उसका उद्धार न करें। महाभारत का नहुषोपा- ख्यान इसी पुराकथा के आधार पर लिखा गया है। के आधार पर लिखा गया है। संस्कृत ग्रन्थों में अगस्त्य का नाम विन्ध्य पर्वत-माला की असामान्य वृद्धि को रोकने एवं महासागर को पी जाने के सम्बन्ध में लिया जाता है। ये दक्षिणावर्त में आर्य संस्कृति के प्रथम प्रचारक थे । शरीर-त्याग के बाद अगस्त्य को आकाश के दक्षिणी भाग में एक अत्यन्त प्रकाशमान तारे के रूप में प्रतिष्ठित किया गया । इस नक्षत्र का उदय सूर्य के हस्त नक्षत्र में आने पर होता है, जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है । इस प्रकार अगस्त्य प्रकृति के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते है जो मानसून का अन्त करता है एवं विश्वास की भाषा में महासागर का जल पीता है (जो फिर से उस चमकीले सूर्य को लाता है, जो वर्षा काल में बादलों से छिप जाता है और पौराणिक भाषा में विन्ध्य को असामान्य वृद्धि को रोककर सूर्य को मार्ग प्रदान करता है)। दक्षिण भारत में अगस्त्य का सम्मान विज्ञान एवं साहित्य के सर्वप्रथम उपदेशक के रूप में होता है। वे । अनेक प्रसिद्ध तमिल ग्रन्थों के रचयिता कहे जाते हैं। प्रथम तमिल व्याकरण की रचना अगस्त्य ने ही की थी। वहाँ उन्हें अब भी जीवित माना जाता है जो साधारण आँखों से नहीं दीखते तथा त्रावनकोर की सुन्दर अगस्त्य पहाड़ी पर वास करते माने जाते है, जहाँ से तिन्नेवेली की पवित्र पोरुनेई अथवा ताम्रपर्णी नदी का उद्भव होता है। हेमचन्द्र के अनुसार उनके पर्याय है (१) कुम्भसम्भव, (२) मित्रावरुणि, (३) अगस्ति, (४) पीताब्धि, (५) वातापिद्वि ट्, (६) आग्नेय, (७) और्वशेय, (८) आग्निमारुते, (९) घटोद्भव। अगस्त्यदर्शन-पूजन-सूर्य जब राशि-चक्र के मध्य में अवस्थित होता है उस समय अगस्त्य. तारे को देखने के पश्चात् रात्रि में उसका पूजन होता है। (नीलमत पु०, श्लोक ९३४ से ९३९ ।) अगस्त्यायदान-इस व्रत में अगस्त्य को अर्घ्य प्रदान किया जाता है। दे० मत्स्य पु०, अ० ६१; अगस्त्योत्पत्ति के लिए दे० ग० पु०, भाग १; ११९, १-६। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में अगस्त्य तारा भिन्न-भिन्न कालों में उदय होता है। सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश करने से तीन दिन और बीस घटी पूर्व अर्ध्य प्रदान किया जाना चाहिए । दे० भोज का राजमार्तण्ड । अग्नायी-अग्नि की पत्नी का एक नाम, परन्तु यह प्रसिद्ध नहीं है। अग्नि--(१) हिन्द देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप है(१) व्योम में सूर्य, (२) अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत् और (३) पृथ्वी पर साधारण अग्नि । ऋग्वेद में सबसे अधिक सूक्त अग्नि की स्तुति में ही अर्पित किये गये हैं । अग्नि के आदिम रूप संसार के प्रायः सभी धर्मों में पाये जाते हैं । वह 'गृहपति' है और परिवार के सभी सदस्यों से उसका स्नेहपूर्ण धनिष्ठ सम्बन्ध है (ऋ०, २. १. ९; ७. १५. १२; १. १. ९; ४. १. ९; ३. १. ७)। वह अन्धकार, निशाचर, जादू-टोना, राक्षस और रोगों को दूर करने वाला है (ऋ०, ३. ५.१; १. ९४. ५, ८. ४३. ३२; १०. ८८.२)। अग्नि का यज्ञीय स्वरूप मानव सभ्यता के विकास का लम्बा चरण है। पाचन और शक्ति-निर्माण की कल्पना इसमें निहित है। यज्ञीय अग्नि वेदिका में निवास करता है (ऋ० १.१४०. १)। वह समिधा, घृत और सोम से शक्तिमान होता है (ऋ० ३. ५.१०; १. ९४. १४); वह मानवों और देवों के बीच मध्यस्थ और सन्देशवाहक है (ऋ० ०१. २६.९; १.९४. ३; १. ५९.३; १. ५९.१; ७. २. १; १. ५८. १; ७. २. ५; १. २७. ४; ३. १. १७; १०.२.१; १. १२. ४ आदि) । अग्नि की दिव्य उत्पत्ति का वर्णन भी वेदों में विस्तार से पाया जाता है (ऋ० ३. ९.५, ६. ८. ४)। अग्नि दिव्य पुरोहित है (ऋ० २. १. २; १. १. १; १. ९४. ६)। वह देवताओं का पौरोहित्य करता है। वह यज्ञों का राजा है (राजा त्वमध्वराणाम्; ऋ० वे० ३.१. १८; ७. ११.४, २.८. ३; ८. ४३. २४ आदि)। नैतिक तत्त्वों से भी अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि अग्नि सर्वदर्शी है । उसकी १०० अथवा १००० आँखें हैं प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहसः । जिनसे वह मनुष्य के सभी कर्मों को देखता है (ऋ० लक्षहोमे तु वह्निः स्यात् कोटिहोमे हुताशनः ।। १०. ७९. ५)। उसके गुप्तचर हैं। वह मनुष्य के गुप्त पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा। जीवन को भी जानता है। वह ऋत का संरक्षक है (ऋ० पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके ।। १०. ८. ५)। अग्नि पापों को देखता और पापियों वश्यर्थे शमनो नाम वरदानेऽभिदूषकः । को दण्ड देता है (ऋ० ४. ३. ५-८; ४. ५. ४-५) । कोष्ठे तु जठरो नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे ।। वह पाप को क्षमा भी करता है (ऋ० ७. ९३.७)। (गोभिलपुत्रकृत संग्रह) अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गर्भाधान में अग्नि को 'मारुत' कहते हैं। पुंसवन में गयी है । वह मन्त्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। 'चन्द्रमा', शङ्गाकर्म में 'शोभन', सीमन्त में 'मङ्गल', जातइस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। कर्म में 'प्रगल्भ', नामकरण में 'पार्थिव', अन्नप्राशन में वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है उससे 'शचि', चडाकर्म में 'सत्य', व्रतबन्ध (उपनयन) में विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफी प्रकाश 'समद्धव', गोदान में 'सूर्य', केशान्त (समावर्तन) में पड़ता है। 'अग्नि', विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में जैमिनि ने मीमांसासूत्र के 'हविःप्रक्षेपणाधिकरण' में 'वैश्वानर', विवाह में 'योजक', चतुर्थी में 'शिखी', धृति में अग्नि के छः प्रकार बताये हैं : (१) गार्हपत्य, (२) आह- 'अग्नि', प्रायश्चित्त (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिवनीय, (३) दक्षिणाग्नि, (४) सभ्य, (५) आवसथ्य और होम) में 'विधु', पाकयज्ञ (अर्थात् पाकाङ्ग होम, वृषोत्सर्ग, औपासन । गृहप्रतिष्ठा आदि में) 'साहस', लक्षहोम में 'वह्नि', कोटि'अग्नि' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो 'ऊपर होम में 'हुताशन', पूर्णाहुति में 'मृड', शान्ति में 'वरद', की ओर जाता है' (अगि गतौ, अंगेर्नलोपश्च, अंग् + नि पौष्टिक में 'बलद', आभिचारिक में 'क्रोधाग्नि', वशीकरण और नकार का लोप)। में 'शमन', वरदान में 'अभिदूषक', कोष्ठ में 'जठर' और ___ अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस मृत-भक्षण में 'क्रव्याद' कहा गया है।] प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है : उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र पिङ्गभ्रूश्मश्रुकेशाक्षः पीनाङ्गजठरोऽरुणः । हुए-(१) पावक, (२) पवमान और (३) शुचि । छठे छागस्थः साक्षसूत्रोऽग्निः सप्ताचिः शक्तिधारकः ।। मन्वन्तर में अग्नि की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक (आदित्यपुराण) आदि पुत्र हुए, जिनमें ४५ अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस [भौंह, दाढ़ी, केश और आँखें पीली है, अङ्ग स्थूल है प्रकार सब मिलकर ४९ अग्नि हैं । विभिन्न कर्मों में अग्नि और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ है, अक्षमाला के भिन्न-भिन्न नाम हैं । लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ है और शक्ति को धारण नाम 'पावक' है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम ___करता है । ] प्रसिद्ध है : होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं : अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते । अचिष्मान् पिण्डितशिखः सपिःकाञ्चनसन्निभः । पुंसवने चन्द्रनामा शङ्गाकर्मणि शोभनः ॥ स्निग्धः प्रदक्षिणश्चैव वह्निः स्यात् कार्यसिद्धये ॥ सीमन्ते मङ्गलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि । (वायुपुराण) नाम्नि स्यात्पार्थिवो ह्यग्निः प्राशने च शुचिस्तथा ।। [ज्वालायुक्त, पिण्डितशिख, घी एवं सुवर्ण के समान, सत्यनामाथ चुडायां व्रतादेशे समुद्भवः । चिकना और दाहिनी ओर गतिशील अग्नि सिद्धिदायक गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते ।। होता है ।] वैश्वानरो विसर्गे तु विवाह योजकः स्मृतः । देहजन्य अग्नि में शब्द-उत्पादन की शक्ति होती है, चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धतिरग्निस्तथा परे ।। जैसा कि 'सङ्गीतदर्पण' में कहा है : Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नितीर्थ-अग्निपुराण आत्मना प्रेरितं चित्तं वह्निमाहन्ति देहजम् । पक्षियों के भोज्यार्थ फेंक दिया जाता था तथा दूसरे के लिए ब्रह्मग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावकः ॥ उसका कथन है कि वृद्ध व्यक्ति असहाय होने पर वैसे ही पावकप्रेरितः सोऽथ क्रमादूर्ध्वपथे चरन् । छोड़ दिये जाते थे। किन्तु दूसरे के लिए ह्विटने का मत अतिसूक्ष्मध्वनि नाभौ हृदि सूक्ष्मं गले पुनः ॥ है कि मृतक को किसी प्रकार के चबूतरे पर छोड़ दिया पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टञ्च कृत्रिमं बदने तथा । जाता था। आविर्भावयतीत्येवं पञ्चधा कीर्त्यते बुधः ।। __ ऋग्वेद-काल में शव को भूगर्भ में गाड़ने की भी प्रथा नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः । थी । एक पूरे मन्त्र में इसकी विधि का वर्णन है। अग्नि जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ।। दाह का भी समान रूप से प्रचार था। यह प्रणाली दिनों[आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को दिन बढ़ती ही गयी। छान्दोग्य उपनिषद् में मृतक के आहत करता है । ब्रह्मग्रन्थि में स्थित प्राणवायु को वह शरीर की सजावट के उपादान आमिक्षा (दही), वस्त्र एवं अग्नि प्रेरित करता है। अग्नि के द्वारा प्रेरित वह प्राण आभूषण को, जो पूर्ववर्ती काल में स्वर्ग प्राप्ति के साधन क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि समझे जाते थे, व्यर्थ बतलाया गया है । वाजसनेयी संहिता करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता में दाह क्रिया के मन्त्रों में केवल अग्निदाह को प्रधानता दी है। सिर में पुष्ट और अपुष्ट तथा मुख में कृत्रिम गयी है एवं शव की राख को श्मशान भूमि में गाड़ने को प्रकाश करता है । विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि कहा गया है । ऋग्वेद में मृतक शरीर पर घी लेपने एवं बताया है । नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम मृतक के साथ एक छाग (बकरे) को जलाने का वर्णन है, है । प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति जो दूसरे लोक का पथप्रदर्शक समझा जाता था । अथर्वहोती है।] वेद में एक बोझ ढोने वाले बैल के जलाने का वर्णन है, जो सब देवताओं में इसका प्रथम आराध्यत्व ऋग्वेद के । दूसरे लोक में सवारी के काम आ सके। यह आशा की सर्वप्रथम मन्त्र “अग्निमीले पुरोहितम्" से प्रकट जाती थी कि मृतक अपने सम्पूर्ण शरीर, सभी अङ्गों से होता है। युक्त (सर्वतनुसङ्ग) पुनर्जन्म ग्रहण करेगा, यद्यपि यह भी (२) योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी 'अग्नि' कहा गया है कि आँख सूर्य में, श्वास पवन में चले जाते का प्रयोग होता है । गीता में कथन है : हैं । गाड़ने या जलाने के पूर्व शव को नहलाया जाता था 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।' तथा पैर में कूडी बाँध दी जाती थी ताकि मृतक फिर 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥' लौटकर पृथ्वी पर न आ जाय । अग्नितीर्थ-श्री बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से ४-५ अग्निपुराण--विष्णुपुराण में पुराणों की जो सूची पायी सीढ़ी उतरकर शङ्कराचार्य मन्दिर है। इसमें लिङ्गमति जाती है उसमें अग्निपुराण आठवाँ है । अग्नि की महिमा है। उससे ३-४ सीढ़ी नीचे आदि केदार का मन्दिर है। का इसमें विशेष रूप से वर्णन है, और अग्नि ही इसके केदारनाथ से नीचे तप्तकुण्ड है। उसे 'अग्नितीर्थ' कहा वक्ता हैं । अतः इसका नाम अग्निपुराण पड़ा। इसमें सब जाता है। मिलाकर ३८३ अध्याय हैं। अठारह विद्याओं का इसमें अग्निदग्ध-अग्नि से जला हुआ। यह संज्ञा उनकी है जो संक्षेप रूप से वर्णन है। रामायण, महाभारत, हरिवंश मृतक चिता पर जलाये जाते हैं। साधारणतः शव की आदि ग्रन्थों का सार इसमें संगृहीत है। इसमें वेदाङ्ग विसर्जन क्रिया में मृतकों के दो प्रकार थे, पहला अग्निदग्ध, (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष) दूसरा अनग्निदग्ध (जो अग्नि में न जलाया गया हो)। तथा उपवेदों (अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा आयुअथर्ववेद दो और प्रकार प्रस्तुत करता है, यथा (१) परोप्त र्वेद) का वर्णन भी पाया जाता है। दर्शनों के विषय भी (फेंका हुआ) तथा (२) उद्धृत (लटकाया हुआ)। इनका इसमें विवेचित हुए हैं। काव्यशास्त्र का भी समावेश है। ठीक अर्थ बोधगम्य नहीं है। जिमर प्रथम का अर्थ उस कौमार-व्याकरण, एकाक्षर कोश तथा नामलिङ्गानुशासन ईरानी प्रणाली के सदृश बतलाता है, जिसमें शव को पशु- भी इसमें समाविष्ट है । पुराण के पञ्चलक्षणों (सर्ग, प्रति Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निवेश्यायन-अग्निष्टोम सर्ग. वंश. मन्वन्तर तथा वंशानुचरित) के अतिरिक्त और (४) होता। उद्गातगण में (१) उद्गाता, (२) इसमें विविध सांस्कृतिक विषयों का भी वर्णन है । अतः प्रस्तोता, (३) प्रतिहर्ता और (४) सुब्रह्मण्य । यह यज्ञ पाँच यह पुराण एक प्रकार का विश्वकोश बन गया है। अन्य दिनों में समाप्त होता था । पुराणों में इसकी श्लोकसंख्या पन्द्रह सहस्र बतायी गयी प्रथम दिन दीक्षा, उसके दीक्षणीय आदि अङ्गों का है और वास्तव में है भी पन्द्रह सहस्र से कुछ अधिक । अनुष्ठान; दूसरे दिन प्रायणीय याग और सोमलता का क्रय इस पुराण का दावा है : 'आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन् सर्वा तीसरे एवं चौथे दिनों में प्रातः काल और सायं काल में विद्याः प्रदर्शिताः' अर्थात् इम अग्निपुराण में समस्त प्रवर्थ उपसन्न नामक यज्ञ का अनुष्ठान और चौथे दिन विद्याएँ प्रदर्शित हैं। में प्रवर्ग्य उद्वासन के अनन्तर अग्निषोमीय पशुयज्ञ का अग्निपुराण का एक दूसरा नाम 'वह्निपुराण' भी है। अनुष्ठान किया जाता था। जिस यजमान के घर में पिता, डॉ० हाजरा को इसकी एक प्रति मिली थी। निबन्ध । पितामह और प्रपितामह से किसी ने वेद का अध्ययन ग्रन्थों में अग्निपुराण के नाम से जो वचन उद्धृत किये नहीं किया अथवा अग्निष्टोम याग भी नहीं किया हो उसे गये हैं वे प्रायः सब इसमें पाये जाते हैं, जबकि 'अग्नि- इस यज्ञ में दुर्ब्राह्मण कहा जाता था। जिस यजमान के पुराण' के नाम से मुद्रित संस्करणों में वे नहीं मिलते। पिता, पितामह अथवा प्रपितामह में से किसी ने सोमपान इसलिए कतिपय विद्वान् 'वह्निपुराण' को ही मूल अग्नि- नहीं किया हो तो इस दोष के परिहारार्थ ऐन्द्राग्न्य पशुयज्ञ पुराण मानते हैं । वह्निपुराण नामक संस्करण में शिव की करना चाहिए । तीनों पशुओं को एक साथ मारने के लिए जितनी महिमा गायी गयी है उतनी अग्निपुराण नामक एक ही स्तम्भ में तीनों को बाँधना चाहिए। संस्करण में नहीं। इस कारण भी वह्निपुराण प्राचीन चौथे दिन अथवा तीसरी रात्रि के भोर में तीसरे पहर माना जाता है। उठकर प्रयोग का आरम्भ करना चाहिए । वहाँ पर पात्रों अग्निवश्यायन-एक आचार्य, जिनका उल्लेख यजर्वेद की को फैलाना चाहिए। यज्ञ में ग्रहपात्र वितस्तिमात्र उलखल तैत्तिरोय शाखा के तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में मिलता है। के आकार का होना चाहिए। ऊर्ध्वपात्र, चमस पात्र अग्निव्रत-इस व्रत में फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को उपवास परिमित मात्रा में एवं तिरछे आकार के होने चाहिए । ये करना चाहिए । इसमें एक वर्ष तक वासुदेव-पूजा नियमित चार कोणयुक्त एवं पकड़ने के लिए दण्ड युक्त होने चाहिये। रूप से करने का विधान है । दे० विष्णुधर्मोत्तर, जिल्द ३, थाली मिट्टी की बनी हुई होनी चाहिए। आरम्भ में पृ० १४३ । सोमलता के डंठलों से रस निकाल कर ग्रह और चमसों अग्निशाला-यज्ञमण्डप का एक भाग, जिसका अर्थ अथर्व- के द्वारा होम करना चाहिए । सूर्योदय के पश्चात् आग्नेय वेद में साधारण गृह का एक भाग, विशेष कर मध्य का पशुयाग करना चाहिए। इस प्रकार सामगान करने के बड़ा कक्ष किया गया है। यहाँ अग्निकुण्ड होता था। अनन्तर प्रातःसवन की समाप्ति होती है। इसके पश्चात् अग्निष्टोम-एक विशिष्ट यज्ञ । स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को मध्याह्न का सवन होता है, तब दक्षिणा दी जाती है। अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिए । ज्योतिष्टोम यज्ञ का दक्षिणा में एक सौ बारह गायें होती हैं। फिर तीसरा विस्तार अग्निष्टोम है। इसका समय वसन्त ऋतु है। सवन होता है । इस प्रकार प्रातः सवन, मध्यन्दिन सवन, नित्य अग्निहोत्रकर्ता इस यज्ञ के अधिकारी हैं। इसमें तृतीय (सायं) सवन रूप सवनत्रयात्मक अग्निष्टोम नामक सोम मुख्य द्रव्य और इन्द्र, वायु आदि देवता हैं। १६ प्रधान याग करना चाहिए। ऋत्विजों के चार गण होते हैं-(१) होतगण, (२) अध्वर्यु- दूसरे यज्ञ इसके अङ्ग है। तृतीय सवन की समाप्ति गण, (३) ब्रह्मगण और (४) उद्गातृगण । प्रत्येक गण के पश्चात् अवभृथ नामक याग होता है। जल में वरुण में चार-चार व्यक्ति होते हैं : होतगण में (१) होता, (२) देवता के लिए पुरोडाश का होम किया जाता है। इसके प्रशास्ता, (३) अच्छावाक् (४) ग्रावस्तोता । अध्वर्युगण में पश्चात् अनुबन्ध्य नामक पशुयज्ञ किया जाता है। वहाँ (१) अध्वर्यु, (२) प्रतिप्रस्थाता, (३) नेष्टा, (४) उन्नेता। गाय को ही पशु माना जाता है। किन्तु कलियुग में गोब्रह्मगण में (१) ब्रह्मा, (२) ब्राह्मणाच्छशी, (३) आग्नीध्र बलि का निषेध होने के कारण यज्ञ के नाम से गाय को Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० छोड़ दिया जाता है । इसके अनन्तर उदयनीय और उदवसनीय (४१) कार्य किये जाते हैं । इन्हें पाँचवें दिन पूरी रात्रि तक करना चाहिए। इनके समाप्त होने पर अग्निष्टोम याग की भी समाप्ति हो जाती है। अग्निस्वामी ( भाष्यकार ) -- मनु-रचित 'मानव श्रौतसूत्र' पर भाष्य के लेखक मानव श्रौतसूत्र के दूसरे भाग्यकार हैं। बालकृष्ण मिश्र एवं कुमारिल भट्ट । अग्निहोत्र - एक दैनिक यज्ञ । यह दो प्रकार का होता हैएक महीने की अवधि तक करने योग्य और दूसरा जीवन पर्यन्त साध्य दूसरे की यह विशेषता है कि अग्नि में जीवन पर्यन्त प्रतिदिन प्रातः सायं हवन करना चाहिए । यज्ञ करने वाले का इसी अग्नि से दाह संस्कार भी होता है । इसका क्रम स्मृति में इस प्रकार है : विवाहित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो काने, बहरे, अन्धे एवं पङ्गु नहीं हैं, उन्हें वर्णक्रम से वसन्त, ग्रीष्म और शरद ऋतु में अग्नि को आधान करना चाहिए। अग्नि संख्या में तीन हैं - (१) गार्हपत्य, (२) दक्षिणाग्नि और (३) आहवनीय, इनकी स्थापना निश्चित वेदी पर विभिन्न मन्त्रों द्वारा हो जाने पर सायं तथा प्रातः अग्निहोत्र करना चाहिए । अग्निहोत्र होम का ही नाम है । इसमें दस द्रव्य होते हैं(१) दूध, (२) दही, (३) लप्सी, (४) घी, (५) भात, (६) चावल, (७) सोमरस, (८) मांस, (९) तेल और (१०) उरद कलियुग में दूध, चावल, लप्सी के द्वारा एक ऋत्विज अथवा यजमान के माध्यम से प्रतिदिन होम का विधान है । अमावस की रात्रि में लप्सी द्वारा यजमान को होम करना चाहिए जिस दिन अग्नि की स्थापना की जाती है उसी दिन प्रथम होम प्रातः सायं आरम्भ करना चाहिए। उस दिन प्रातः सो आहुतियों के होम का देवता सूर्य एवं सायं काल अग्नि होता है। अग्न्याधान के पश्चात् प्रथम अमावस्या को दर्श और पूर्णमासी को पौर्णमास याग का आरम्भ करना चाहिए । इसमें छः प्रकार के याग होते हैं पूर्णमासी के दिन तीन और अमावस के दिन तीन । पूर्णमासी के (१) आग्नेय, (२) अग्निषोमीय और (३) उपांशु याग हैं। अमावस के (१) आग्नेय, ( २ ) ऐन्द्र और ( ३ ) दधिपय याग होते हैं । दर्श - पूर्णमास यज्ञ भी जीवनपर्यन्त करना चाहिए । इसमें भी यज्ञ के प्रतिबन्धक दोषों से रहित तीन वर्णों को सपत्नीक होकर यज्ञ करने का अधिकार है । सामान्यतः पर्व की प्रतिपदा को यज्ञ का आरम्भ करना चाहिए । अग्निस्वामी अम्वाधान जिस यजमान ने सोमयाग नहीं किया हो उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में पुरोडाश याग और ऐन्द्र याग करना चाहिए जो यजमान सोमयाग कर चुका है उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में घृतउपांशु याग और अग्निषोमीय पुरोडाश याग करना चाहिए। अमावस्या के दिन आग्नेय पुरोडाश याग, ऐन्द्र-पयो-याग, ऐन्द्र-दधि-याग ये तीन याग करने चाहिए। इसमें चार ऋत्विज होते हैं : (१) अध्वर्यु, (२) ब्रह्मा (३) होता और (४) आनी । यजुर्वेद-कर्म करने वाला 'अध्वर्यु', ऋक्, यजु साम इन तीनों का कर्म करनेवाला 'ब्रह्मा' और ऋग्वेद के कर्म करनेवाला 'होता' है । आग्नीध्र प्रायः अध्वर्यु का ही अनुयायी होता है, उसी की प्रेरणा से कार्य करता है । पुरोडाश चावल अपना यय का बनाना चाहिए। अग्निहोत्र के समान यहाँ भी जिस द्रव्य से यज्ञ का आरम्भ करे उसी द्रव्य से जीवनपर्यन्त करते रहना चाहिए । अग्निहोत्री - - ( १ ) नियमित रूप से अग्निहोत्र करनेवाला | ब्राह्मणों की एक शाखा की उपाधि भी अग्निहोत्री है। (२) कात्यायन सूत्र के एक भाष्यकार, जिनका पूरा नाम अग्निहोत्री मिश्र है। अग्न्याधान - ( अग्नि के लिए आधान ) । वेदविहित अग्निसंस्कार, अग्निरक्षण, अग्निहोत्र आदि इसके पर्याय हैं । प्राचीन भारत में जब देवताओं की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अग्निस्थान में करता था तब यह उसका पवित्र कर्त्तव्य होता था कि वेदी पर पवित्र अग्नि की स्थापना करें। यह कर्म 'अग्न्याधान' अर्थात् पवित्र अग्निस्थापना के दिन से प्रारम्भ होता था । अग्न्याधान करने वाला गृहस्थ चार पुरोहित चुनता था तथा गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि के लिए वैदिकाए बनवाता था । गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्त एवं आहवनीय के लिए वर्ग चिह्नित किया जाता था । दक्षिणाग्नि के लिए अर्द्धवृत्त खींचा जाता था, यदि उसकी आवश्यकता हुई तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से तात्कालिक अग्नि प्राप्त करता था। फिर पञ्च भूसंस्कारों से पवित्र स्थान पर गार्हपत्य अग्नि रखता था तथा सायंकाल 'अरणी' नामक लकड़ी के दो टुकड़े यश करनेवाले गृहस्थ एवं उसकी स्त्री को देता था, जिसके घर्षण से आगामी प्रातः वं आह्वनीय अग्नि उत्पन्न करते थे। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगोचरी-अघोरघण्ट अगोचरी--हठयोग की एक मद्रा । 'गोरखबानी' की अष्ट दक्षहस्ते च तन्मन्त्री पापरूपं विचिन्त्य च । मुद्राओं में इसकी गणना है : परतो बज्रपाषाणे निःक्षिपेद् अस्त्रमुच्चरन् ।। करण मध्ये अगोचरी मुद्रा सबद कुमबद ले उतपनी । (तन्त्रसार) सबद कुसबद ममा कृतवा मुद्रा तौ भई अगोचरी ।। | छः अङ्गन्याम करके बायें हाथ में जल लेकर दक्षिण इस मुद्रा का अधिष्ठान कान माना जाता है । इसके हाथ से सम्पट करे । शिव, वायु, जल, पृथ्वी और अग्निद्वारा बाहरी शब्दों से कान को हटाकर अन्तःकरण के बीजों के द्वारा तीन बार फिर से अभिमन्त्रित करके और शब्दों की ओर लगाने का अभ्यास किया जाता है। वास्तव सात वार तत्त्व मुद्रा से मूलमन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके में गोचर (इन्द्रिय-विषय) से प्रत्याहार करके आत्मनिष्ट उस जल को सिर पर छोड़े और शेष जल को दक्षिण हाथ होने का नाम ही अगोचरी मुद्रा है। में रखकर इडा नाड़ी के द्वारा संचित पाप को शरीर के अग्रदास स्वामी-रामोपासक वैष्णव सन्त कवि । नाभाजी भीतर धोकर काले वर्ण वाले उस जल को दक्षिण नाड़ी (नारायणदास), जो रामानन्दी वैष्णव थे, अग्रदास के ही से विरेचन करे । दक्षिण हाथ में उस पापरूप जल को शिष्य थे एवं इन्हीं के कहने से नाभाजी ने 'भक्तमाल' साधक विचार कर मन्त्ररूप अस्त्र का उच्चारण करते हए की रचना की। सामने के पत्थर पर गिरा दे।। गलता (जयपुर, राजस्थान) की प्रसिद्ध गद्दी के ये । __ अघमर्षणतीर्थ-मध्य प्रदेश, सतना की रघुराजनगर तहसील अधिष्ठाता थे। इनका जीवन-काल सं० १६३२ वि० के के अमुवा ग्राम में धार, कुण्डी तथा बेधक ये तीन स्थान लगभग है । स्वामी रामानन्द के शिष्य स्वामी अनन्तानन्द पास-पास हैं । तीनों मिलाकर 'अभरखन' (अघमर्षण) कहे और स्वामी अनन्तानन्द के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। जाते हैं । धार में सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर, कुण्डी में ये वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवि कृष्णदास तीर्थकुण्ड और बेधक में प्रजापति की यज्ञवेदी है। इन अधिकारी से भिन्न और उनके पूर्ववत्ती थे। इनके तीन स्थानों की यात्रा पापनाशक मानी जाती है । शिष्य स्वामी अग्रदास थे। ये धार्मिक कवि थे, इनकी अघोर---शिव का एक पर्याय । इसका शाब्दिक अर्थ है निम्नांकित रचनाएँ पायी जाती हैं : न+ घोर (भयानक नहीं सुन्दर)। श्वेताश्वतर उपनिषद् (१) हितोपदेश उपखाणां बाधनी, (२) ध्यानमञ्जरी, में शिव का 'अघोर' विशेषण मिलता है : (३) रामध्यानमञ्जरी और (४) कुंडलिया। या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी ।' । अघमर्षण-सन्ध्योपासन के मध्य एक विशेष प्रकार की परन्तु कालान्तर में शिव के इस रूप की उपासना के क्रिया। इसका अर्थ है 'सब पापों का नाश करनेवाला जाप ।' अन्तर्गत बीभत्स एवं धृणात्मक आचरण प्रचलित हो गया । उत्पन्न पाप को नाश करने के लिए, जैसे यज्ञों के अङ्गभूत इस रूप के उपासकों का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय अघोर पंथ अवभृथ-स्नानमन्त्र 'द्रुपदादिव' आदि है वैसे ही वैदिक कहलाता है। सन्ध्या के अन्तर्गत मन्त्र के द्वारा शाघ गय जल का फकना अघोरघण्ट-एक कापालिक संन्यासी । आठवीं शताब्दी के पापनाशक क्रिया अघमर्षण है। तान्त्रिक मन्ध्या में भी प्रथम चरण में भवभूति द्वारा रचित 'मालतीमाधव' इसका विधान है : नाटक का अघोरघण्ट एक मुख्य पात्र है और राजधानी में षडङ्गन्यासमाचर्य वामहस्ते जलं ततः । देवी चामुण्डा के पुजारी का काम करता है। वह आन्ध्र गृहीत्वा दक्षिणेनैव संपुटं कारयेद् बुधः ।। प्रदेश के एक बड़े शैव क्षेत्र श्रीशैल से सम्बन्धित है। शिव-वायु-जल-पृथ्वी-वह्नि-वीजैस्त्रिधा पुनः । कपालकुण्डला संन्यासिनी देवी चामुण्डा की उपासिका अभिमन्त्र्य च मूलेन सप्तधा तत्त्वमुद्र या ।। एवं अघोरघण्ट की शिष्या है। दोनों योग के अभ्यास निःक्षिपेत् तज्जलं मूनि शेष दक्षे निधाय च । द्वारा आश्चर्यजनक शक्ति अजित करते हैं । उनके विश्वास इडयाकृष्य देहान्तःक्षालितं पापसञ्चयम् । शाक्त विचारों से भरे हैं। नरमेध यज्ञ उनकी क्रियाओं में कृष्णवर्ण तदुदकं दक्षनाड्या विरेचयेत् ।। से एक है। अघोरघण्ट नाटक को नायिका मालती को Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ बलि देवी चामुण्डा को देने की योजना करता है, किन्तु अन्त में नायक के द्वारा मारा जाता है । अघोर पंथ-अघोर पंथ को कापालिक मत भी कहते हैं। इस पंथ को माननेवाले तन्त्रिक साधु होते हैं, जो मनुष्य की खोपड़ी लिये रहते हैं और मद्य, मांसादि का सेवन करते हैं । ये लोग भैरव या शक्ति को बलि चढ़ाते हैं । पहले ये नर बलि भी किया करते थे । गृहस्थों में इस मत का प्रचार प्रायः नहीं देखा जाता । ये स्पष्ट ही वाममार्गी शैव होते हैं और श्मशान में रहकर बीभत्स रीति से उपासना करते हैं। इनमें जाति-पांति का कोई विवेचन नहीं होता। इन्हें औपड़ भी कहते हैं। ये देवताओं की मूर्तिपूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि में गाड़ते हैं । इस पंथ को 'अवधूत' अथवा 'सरभंग' मत भी कहते हैं । आजकल इसका सम्बन्ध नाथ पंथ के हठयोग तथा तान्त्रिक वाममार्ग से है। इसका मूलस्थान आबू पर्वत माना जाता है । किसी समय में बड़ोदा में अघोरेश्वरमठ इसका बहुत बड़ा केन्द्र था काशी में कृमिकुंड भी इसका बहुत बड़ा संस्थान है । इस पंथ का सिद्धान्त निर्गुण अद्वैतवाद से मिलता-जुलता है। साधना में यह योग तथा लययोग को विशेष महत्त्व देता है । आचार में, जैसा कि लिखा जा चुका है, यह वाममार्गी है । समत्व साधना के लिए विहित-अविहित, उचित-अनुचित आदि के विचार का त्याग यह आवश्यक मानता है । अघोरियों की वेश-भूषा में विविधता है। किन्हीं का वेश श्वेत और किन्ही का रंगीन होता है। इनके दो वर्ग है - ( १ ) निर्वाणी (अवधूत) तथा (२) गृहस्थ परन्तु गृहस्थ प्रायः नहीं के बराबर हैं। अघोर पंथ के साहित्य का अभी पूरा संकलन नहीं हुआ है। किनाराम का 'विवेकसार', 'भिनक - दर्शनमाला' तथा टेकमनराम कृत 'रत्नमाला' आदि ग्रन्थ इस सम्प्रदाय में प्रचलित है। अघोर शिवाचार्य श्रीकण्ठ मत के अनुयायी । अनुयायी । उन्होंने 'मृग्रेन्द्रसंहिता' की व्याख्या लिखी है। विमत में इनका ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाता है। विद्यारण्य स्वामी ने सर्वदर्शनसंग्रह में शैव दर्शन के प्रसंग में अघोर शिवाचार्य के मत को उद्धृत किया है। श्रीकण्ठ ने पांचवीं शताब्दी में । जिस शैव मत को नव जीवन प्रदान किया था, उसी को पुष्ट करने की चेष्टा अघोर शिवाचार्य ने ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में की । 1 - अघोर पंच-अङ्गारकचतुर्थी अघोरा - जिसकी मूर्ति भवानक नहीं है। ('अति भयानक' ऐसा इस व्युत्पत्ति का व्यंग्यार्थ है ।) भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी अघोरा है भाद्रे मास्यसिते पक्षे अघोराख्या चतुर्दशी । तस्यामाराधितः स्थाणुर्नयेच्छिवपुरं ध्रुवम् ॥ [ भाद्रपद के कुष्णपक्ष की अघोरा नामक चतुर्दशी के दिन शंकर की आराधना करने पर उपासक अवश्य ही शिवपुरी को प्राप्त करता है ।] । अघोरी - अघोरपंथ का अनुयायी प्राचीन पाशुपत संप्रदाय का सम्प्रति लोप सा हो गया है । किन्तु कुछ अघोरी मिलते हैं, जो पुराने कापालिक है। अपोरी ही कबीर के प्रभाव से औघड़ साधु हुए। (विशेष विवरण के लिए दे० 'अघोर पंथ' ।) P अङ्गद - (१) सिक्ख संप्रदाय में गुरु नानक के पश्चात् नौ गुरु हुए, उनमें प्रथम गुरु अङ्गद थे । इन्होंने गुरुमुखी लिपि चलायी जो अब पंजाबी भाषा की लिपि समझी जाती है। इनके लिखे कुछ पद भी पाये जाते हैं । इनके बाद गुरु अमरदास व गुरु रामदास हुए । (२) रामायण का एक पात्र जो किष्किन्धा के राजा बाली का पुत्र था । राम का यह परम भक्त था । राम की ओर से रावण की सभा में इसका दौत्य कर्म प्रसिद्ध है। अङ्गमन्त्र - नरसिंह सम्प्रदाय की दो उपनिषदों में से प्रथम । 'नृसिंह पूर्वतापनीय' के प्रथम भाग में नृसिंह के मन्त्रराज का परिचय दिया गया है तथा उसकी आराधना विधि दी गयी है। साथ ही चार 'अङ्गमन्त्रों' का भी विवेचन एवं परिचय दिया गया है । , अङ्गारक चतुर्थी - (१) किसी भी मास के मङ्गलवार को आनेवाली चतुर्थी मत्स्यपुराण के अनुसार 'अङ्गारक चतुर्थी' है । इसे जीवन में आठ बार चार बार अथवा जीवन पर्यन्त करना चाहिए। इसमें मङ्गल की पूजा की जाती है। 'अग्नि' (ऋ० ० ८ ४४. १६) इसका मन्त्र है। शूद्रों को केवल मङ्गल का स्मरण करना चाहिए । कुछ पुराणों में इसको सुखव्रत भी कहा गया है। इसका ध्यानमन्त्र है : 'अवन्तीसमुत्त्वं सुमेषासनस्थं धरानन्दनं रक्तवस्त्रं समी दे० कृ० क० व्रतकाण्ड, ७७-७९ हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द १, ५०८-५०९ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अङ्गिरस्-अचिन्त्य भेदाभेद (२) यदि मंगलवार को चतुर्थों या चतुर्दशी पड़े तो वह मन्दिर है । मन्दिर तक जाने के लिए पुल बना है। उत्तर एकशत सूर्यग्रहणों की अपेक्षा अधिक पुण्य तथा फलप्रदा- भारत में यह कार्तिकेय का एक ही मन्दिर है। कहा यिनी होती है। दे० गदाधर प०, कालसार भाग, ६१०। जाता है कि एक बार परस्पर श्रेष्ठता के बारे में गणेशजी अङ्गिरस्-आङ्गिरसों का उद्भव ऋग्वेद में अर्द्ध पौराणिक तथा कार्तिकेय में विवाद हो गया। भगवान् शङ्कर ने कुल के रूप में दृष्टिगोचर होता है। उन परिच्छेदों को, पृथ्वी-प्रदक्षिणा करके निर्णय कर लेने को कहा। गणेशजी जो अङ्गिरस् को एक कुल का पूर्वज बतलाते हैं, ऐतिहासिक ने माता-पिता की परिक्रमा कर ली और वे विजयी मान मूल्य नहीं दिया जा सकता । परवर्ती काल में आङ्गिरसों के लिये गये । पृथ्वी-परिक्रमा को निकले कार्तिकेय को मार्ग में निश्चित ही परिवार थे, जिनका याज्ञिक क्रियाविधियों ही यह समाचार मिला। यात्रा स्थगित करके वे वहीं (अयन, द्विरात्र आदि) में उद्धरण प्राप्त होता है । अचल रूप से स्थित हो गये । यहाँ वसुओं तथा सिद्ध गणों अङ्गिरा-अथर्ववेद के रचयिता अथर्वा ऋषि अङ्गिरा एवं भृगु ने यज्ञ किया था। गुरु नानकदेव ने भी यहाँ कुछ काल तक के वंशज माने जाते हैं । अङ्गिरा के वंशवालों को जो मन्त्र साधना की थी। कार्तिक शुक्ला नवमी-दशमी को यहाँ मेला मिले उनके संग्रह का नाम 'अथर्वाङ्गिरस' पड़ा। भृगु के वंशवालों को जो मन्त्र मिले उनके संग्रह का नाम 'भग्वा- अचिन्त्य भेदाभेद-अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव ङ्गिरस' एवं दोनों संग्रहों की संहिता का संयुक्त नाम विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए ब्रह्मसूत्रों पर 'गोविन्दअथर्ववेद हुआ। पुराणों के अनुसार यह मुनिविशेष का भाष्य' लिखा, जिसमें 'अचिन्त्य भेदाभेद' मत (दर्शन) का नाम है जो ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए हैं। इनकी पत्नी दृष्टिकोण रखा गया है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि कर्दम मुनि की कन्या श्रद्धा और पुत्र (१) उतथ्य तथा । ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में अचिन्त्य (२) बृहस्पति; कन्याएँ (१) सिनीवाली, (२) कुहू, है। दोनों को भिन्न और अभिन्न दोनों कहा जा सकता है। (३) राका और (४) अनुमति हुई। इसके अनुसार ईश्वर शक्तिमान् तथा जीव-जगत् उसकी शक्ति अङ्गिरावत-कृष्ण पक्ष की दशमी को एक वर्षपर्यन्त दस हैं। दोनों में भेद अथवा अभेद मानना तर्क की दृष्टि से देवों का पूजन 'अङ्गिराव्रत' कहलाता है। दे० विष्णुधर्म० असंगत अथवा व्याघातक है। शक्तिमान और शक्ति दोनों पु०, ३. ११७.१-३। ही अचिन्त्य हैं । अतः उनका सम्बन्ध भी अचिन्त्य है। अचल-ईश्वर का एक विशेषण । ___ इस सिद्धान्त का दूसरा पर्याय चैतन्यमत है । इसे गौडीय न स्वरूपान् न सामर्थ्यान् नच ज्ञानादिकाद् गुणात् । वैष्णव दर्शन भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु इस सम्प्रदाय चलनं विद्यते यस्येत्यचल: कीर्तिताऽच्युतः ।। के प्रवर्तक होने के साथ सम्प्रदाय के उपास्य देव भी [ जिसका स्वरूप, सामर्थ्य और ज्ञानादि गण से चलन हैं । इस सम्प्रदाय का विश्वास है कि चैतन्य भगवान् नहीं होता उसे अचल अर्थात् अच्युत (विष्णु) कहा। श्री कृष्ण के प्रेमावतार हैं । चैतन्य वल्लभाचार्य के समसामगया है । ] यिक थे और उनसे मिले भी थे। इनका जन्म नवद्वीप . अचला सप्तमी--माघ शुक्ला सप्तमी । इस दिन सूर्यपूजन होता (वंगदेश) में सं० १५४२ विक्रम में और शरीरत्याग सं० है । इसकी विधि इस प्रकार है : व्रत करनेवाला षष्ठी को १५९० विक्रम में प्रायः ४८ वर्ष की अवस्था में हुआ था। एक समय भोजन करता है, सप्तमी को उपवास करता चैतन्य ने जिस मत का प्रचार किया उस पर कोई ग्रन्थ है और रात्रि के उपरान्त खड़े होकर सिर पर दीपक रखे स्वयं नहीं लिखा और न उनके सहकारी अद्वैत एवं नित्याहुए सूर्य को अर्घ्य देता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, नन्द ने ही कोई ग्रन्थ लिखा। उनके शिष्य रूप एवं ६४३-६४८। सनातन गोस्वामी के कुछ ग्रन्थ मिलते हैं। उनके बाद अचलेश्वर-अमृतसर-पठानकोट रेलमार्ग में बटाला स्टेशन जीव गोस्वामी दार्शनिक क्षेत्र में उतरे। इन्हीं तीन से चार मील पर यह स्थान है । मन्दिर के समीप सुविस्तृत आचार्यों ने अचिन्य भेदाभेद मत का वर्णन किया है । सरोवर है। यहाँ मुख्य मन्दिर में शिव तथा स्वामी कार्तिकेय परन्तु इन्होंने भी न तो वेदान्तसूत्र का कोई भाष्य लिखा एवं पार्वतीदेवी की मूर्तियाँ हैं । सरोवर के मध्य में भी शिव- और न वेदान्त के किसी प्रकरण ग्रन्थ की रचना की। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अच्चान दीक्षित-अच्युतशतक अठारहवीं शताब्दी में बलदेव विद्याभूषण ने पहले-पहल अच्चान दीक्षित-प्रसिद्ध आलंकारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक अचिन्त्य भेदाभेद वाद के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर गोविन्द- अप्पय्य दीक्षित के लघु भ्राता । इनके पितामह आचार्य भाग्य जयपुर (राजस्थान) में लिखा । रूप, सनातन आदि दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाब्वरी थे। आचार्यों के ग्रन्थों में भक्तिवाद की व्याख्या और वैष्णव अच्युत-(१) विभिण्डुकियों द्वारा परिचालित सत्र में इन्होंने साधना की पर्यालोचना की गयी है। फिर भी जीव गोस्वामी प्रतिहर्ता का काम किया था, जिसका वर्णन 'जैमिनीय ब्राह्मण' में है । (२) विष्णु। के ग्रन्थ में अचिन्त्य भेदाभेदवाद की स्थापना की चेष्टा अच्युत कृष्णानन्द तीर्थ-अप्पय्य दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' हई है। बलदेव विद्याभूषण के ग्रन्थ में ही चैतन्य का के टीकाकार। इन्होंने छायाबल निवासी स्वयंप्रकाशानन्द दार्शनिक मत स्पष्ट रूप में पाया जाता है। मरस्वती से विद्या प्राप्त की थी। ये काबेरी तीरवर्ती इस मत के अनुसार हरि अथवा भगवान् परम तत्व अथवा अन्तिम सत् है । वे ही ईश्वर हैं। हरि की अङ्ग नीलकण्ठेश्वर नामक स्थान में रहते थे और भगवान् कृष्ण के भक्त थे। इनके ग्रन्थों में कृष्णभक्ति की ओर इनकी कान्ति ही ब्रह्म है। उसका एक अंश मात्र परमात्मा है यथेष्ट अभिरुचि मिलती है । "सिद्धान्तलेश' की टीका का जो विश्व में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त है। हरि में षट् नाम 'कृष्णालङ्कार' है, जिसमें इन्हें अद्भत सफलता प्राप्त ऐश्वर्यों का ऐक्य है, वे हैं-(१) पूर्ण श्री, (२) पूर्ण ऐश्वर्य, हुई है। विद्वान् होने के साथ ही ये अत्यन्त विनयशील (३) पूर्ण वीर्य, (४) पूर्ण यश, (५) पूर्ण ज्ञान और (६) पूर्ण भी थे। कृष्णालङ्कार के आरम्भ में इन्होंने लिखा है : वैराग्य । इनमें पूर्ण श्री की प्रधानता है; शेष गौण हैं। आचार्यचरणद्वन्द्व-स्मृतिलेखकरूपिणम् । राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति में हरि का पूर्ण प्राकटय है। मां कृत्वा कुरुते व्याख्यां नाहमत्र प्रभुर्यतः ।। राधा-कृष्ण में प्रेम और भक्ति का अनिवार्य बन्धन है। | गुरुदेव के चरणों की स्मृति ही मुझे लेखक बनाकर यह हरि की अचिन्त्य शक्तियों में तीन प्रमुख हैं-(१) व्याख्या करा रही है, क्योंकि मुझमें यह कार्य करने की स्वरूप शक्ति, (२) तटस्थ शक्ति तथा (३) माया शक्ति । सामर्थ्य नहीं है। स्वरूप शक्ति को चित् शक्ति अथवा अन्तरङ्गा शक्ति भी इससे इनकी गुरुभक्ति और निरभिमानिता सुस्पष्ट है। कहते हैं। यह त्रिविध रूपों में व्यक्त होती है-(१) कृष्णालंकार के सिवा इन्होंने शाङ्करभाष्य के ऊपर संधिनी, (१) संवित तथा (३) हादिनी । संधिनी शक्ति 'वनमाला' नामक टीका भी लिखी है। इससे भी इनकी के आधार पर हरि स्वयं सत्ता ग्रहण करते हैं तथा दूसरों कृष्णभक्ति का परिचय मिलता है। को सत्ता प्रदान कर उनमें व्याप्त रहते हैं। संवित् शक्ति अच्युतपक्षाचार्य-ये अद्वैतमत के संन्यासी एवं मध्वाचार्य से हरि अपने को जानते तथा अन्य को ज्ञान प्रदान करते के दीक्षागुरु थे। मध्वाचार्य ने ग्यारह वर्ष की अवस्था में हैं । ह्लादिनी शक्ति से वे स्वयं आनन्दित होकर दूसरों को ही सनककुलोद्भव अच्युतपक्षाचार्य (नामान्तर शुद्धानन्द) आनन्दित करते हैं। तटस्थ शक्ति को जीवशक्ति भी से दीक्षा ली थी। संन्यास लेकर इन्होंने गुरु के पास कहते हैं। इसके द्वारा परिच्छिन्न स्वभाव वाले अणुरूप वेदान्त पढ़ना आरम्भ किया, किन्तु गुरु की व्याख्या से जीवों का प्रादुर्भाव होता है। हरि की माया शक्ति से इन्हें संतोष न होता था और उनके साथ ये प्रतिवाद करने दृश्य जगत् और प्रकृति का उद्भव होता है। इन तीन लगते थे । कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रभाव से इनके गुरु शक्तियों के समवाय को परा शक्ति कहते हैं। अच्यतपक्षाचार्य भी बाद में द्वैतवादी वैष्णव हो गये। जीवों के अज्ञान और अविद्या का कारण माया शक्ति अच्यतव्रत-पौष कृष्णा प्रतिपदा को यह व्रत किया जाता है। इसी के द्वारा जीव ईश्वर से अपना सम्बन्ध भूलकर है। तिल तथा धृत के होम द्वारा अच्युतपूजा होती है। संसार के बन्धन में पड़ जाता है । हरि से जीव का पुनः इस दिन 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र द्वारा तीस सम्बन्ध स्थापन ही मुक्ति है। मुक्ति का साधन हरिभक्ति सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। दे० अहल्याहै। भक्ति हरि की संवित् तथा ह्लादिनी शक्ति के मिश्रण का० धे० (पत्रात्मक), पृ० २३० । से उत्पन्न होती है। ये दोनों शक्तियाँ भगवद्पा है। अच्युतशतक-एक स्तोत्रग्रन्थ । इसके रचयिता वेदान्ताचार्य अतः भक्ति भी भगवत्स्वरूपिणी ही है । वेङ्कटनाथ थे। रचनाकाल लगभग सं० १३५० विक्रमीय है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्युतावास-अजपा अभ्युतावास 'अच्युत (विष्णु) का आवास (स्थान), ' अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष | अज - (१) ईश्वर का एक विशेषण इसका अर्थ है अजन्मा । नहि जातो न जायेऽहं न जनिष्ये कदाचन । क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानां तस्मादहमजः स्मृतः । महाभारत [ मैं न उत्पन्न हुआ, न होता हूँ और न होऊँगा । सर्व प्राणियों का क्षेत्रज्ञ हूँ । इसीलिए मुझे लोग अज कहते हैं ।] ब्रह्मा, विष्णु, शिव और कामदेव को भी अज कहते हैं । अज - (२) ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में यह साधारणतः बकरे का पर्याय है। इसके दूसरे नाम हैं-बस्त, छाग, छगल आदि । बकरे एवं भेड़ ( अजावयः ) का वर्णन प्रायः साथ- साथ हुआ है। शव क्रिया में अज का महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि वह पूषा का प्रतिनिधि और प्रेत का मार्गदर्शक माना जाता था । दे० अथर्ववेद का अन्त्येष्टि सूक्त । अजगर - यह नाम अथर्ववेद में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ के पशुओं को तालिका में आता है। पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पयज्ञ में इससे एक व्यक्ति का बोध होता है । अजपा- जिसका उच्चारण नहीं किया जाता अपितु जो श्वास-प्रश्वास के गमन और आगमन से सम्पादित किया (हंसः) जाता है, वह जप 'अजपा' कहलाता है। इसके देवता अर्धनारीश्वर है उद्यद्भानुस्फुरिततडिदाकारमर्द्धाम्बिकेशम् पाशाभीति त्रिनेत्रम् | वरदपरणं संदधानं कराः । दिव्याकल्पैर्नव मणिमयैः शोभितं विश्वमूलम् सौम्याग्नेयं वपुरवतु नश्चन्द्रचूडं [ उदित होते हुए सूर्य के समान तथा चमकती हुई बिजली के तुल्य जिनकी अंगशोभा है, जो चार भुजाओं में अभय मुद्रा, पाश, वरदान मुद्रा तथा परशु को धारण किये हुए हैं, जो नूतन मणिमय दिव्य वस्तुओं से सुशोभित और विश्व के मूल कारण हैं, ऐसे अम्बिका के अर्ध भाग से संयुक्त चन्द्रचूड़, त्रिनेत्र शंकरजी का सौभ्य और आग्नेय शरीर हमारी रक्षा करे। ] . स्वाभाविक निःश्वासप्रश्वास रूप से जीव के जपने के लिए हंस-मन्त्र निम्नांकित है : अथ वक्ष्ये महेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः । मोहवन्यं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते ॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा । उच्छ्वासनिःश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत् ॥ उच्छ्वासरेव निःश्वासैर्हस इत्यक्षरद्वयम् । तस्मात् प्राणश्च हंसारूप आत्माकारेण संस्थितः ॥ नाभेरुच्छ्वासनिःश्वासाद् हृदया व्यवस्थितः । षष्टिश्वासैर्भवेत् प्राणः षट् प्राणा नाडिका मता ॥ पष्टिनाया अहोरात्र जपसंख्याक्रमो मतः । एकविंशति साहस्रं षट्शताधिकमीश्वरि ॥ जपते प्रत्यहं प्राणी सान्द्रानन्दमयीं पराम् । उत्पत्तिर्जपमारम्भो मृत्युस्तत्र निवेदनम् ॥ विना जपेन देवेशि जपो भवति मन्त्रिणः । अजपेयं ततः प्रोक्ता भवपाशनिकृन्तनी ॥ १५ (दक्षिणामूर्तिसंहिता) मन्त्र कहता हूँ, [ हे पार्वती ! अब एक उत्तम जिसका मनुष्य नित्य जप करे इसका जप करने से मोह । का बन्धन नहीं लगता और मोक्ष की आवश्यकता नहीं पड़ती है । हे देवी, श्री गुरु की कृपा से जब ज्ञान हो जाता है तथा जब श्वास-प्रश्वास से मनुष्य जप करता है। उस समय बन्धन का नाश हो जाता है। श्वास लेने और छोड़ने में ही "हं स:" इन दो अक्षरों का उच्चारण होता है । इसीलिए प्राण को हंस कहते हैं और वह आत्मा के रूप में नाभि स्थान से उच्छ्वास निश्वास के रूप मे उठता हुआ हृदय के अग्रभाग में स्थित रहता है। साठ श्वासों का एक प्राण होता है, छः प्राणों की एक नाड़ी होती है, साठ नाड़ियों का एक अहोरात्र होता है। यह जपसंख्या का क्रम है । हे ईश्वरी, इस प्रकार इक्कीस हजार छः सौ श्वासों के रूप में आनन्द देने वाली पराशक्ति का प्राणी प्रतिदिन जप करता है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यह जप माना जाता है । हे देवी, मन्त्रज्ञ के बिना जप करने से भी श्वास के द्वारा जप हो जाता है । इसीलिए इसे अजपा कहते हैं और यह भव (संसार) के पास को दूर करने वाला है । ] और भी कहा है : षट्शतानि दिवा रात्रौ सहसाप्येकविंशतिः । एतत्संख्यान्वितं मन्त्र जीवो जपति सर्वदा || (महाभारत) [ रात-दिन इक्कीस हजार छः सौ संख्या तक मन्त्र को प्राणी सदा जप करता है । ] सिद्ध साहित्य में 'अजपा' को पर्याप्त चर्चा है। गोरसपंथ में भी एक दिन-रात में आने-जाने वाले २१६०० श्वास-प्रश्वासों को 'अजपा जप' कहा गया है : Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ इकबीस सहस षटसा आदू पवन पुरिष जप माली । इला प्यङ्गुला सुषमन नारी अहनिसि बसै प्रनाली ॥ गोरखपंथ का अनुसरण करते हुए कबीर ने श्वास को 'ओहं' तथा 'प्रश्वास' को 'सोहं' बतलाया है । इन्हीं का निरन्तर प्रवाह अजपाजप है । इसी को 'निःअक्षर' ध्यान भी कहा है निह अक्षर जाप तहँ जाएँ । उठत धुन सुन्न से आये || (गोरखबानी) अजा-अजा का अर्थ है 'जिसका जन्म न हो प्रकृति अथवा आदि शक्ति के अर्थ में इसका प्रयोग होता है । 'सांख्यतत्वकौमुदी' में कहा गया है 'रक्त, शुक्ल और कृष्ण वर्ण की एक अजा (प्रकृति) को नमस्कार करता हूँ।' पुराणों में माया के लिए इस शब्द प्रयोग हुआ है । उपनिपदों में अजा का निम्नांकित वर्णन है अजामेकां लोहितकृष्णशुल बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाम् । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्त भोगामजोऽन्यः ॥ ( श्वेताश्वतर ४.५ ) [ रन शुक्ल कृष्ण वर्ण वाली बहुत प्रजाओं का सर्जन करनेवाली सुन्दर स्वरूप युक्त अजा का एक पुरुष सेवन करता है तथा दूसरा अज पुरुष इसका उपभोग करके इसे छोड़ देता है । ] राजा, एक प्राचीन अजातशत्रु – काशी का जिसका बृहदारण्यक एवं कौषीतकि उपनिषद् में उल्लेख है । उसने आत्मा के सच्चे स्वरूप की शिक्षा अभिमानी ब्राह्मण बालाकि को दी थी । यह अग्निविद्या में भी परम प्रवीण था । अजा शक्ति एक ही अज पुरुष की अजा नामक महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बनती हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् की (४.५) पंक्तियों में उसी अजा शक्ति के तीन रूपों की चर्चा है। प्रकारान्तर से ऋषियों ने इस सृष्टिविद्या को तीन भागों में बाँटा है । वे महाशक्तियाँ महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली है इनसे ही क्रमशः सृष्टि, पालन एवं प्रलय की क्रियाएँ होती हैं । अजिर - पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्वोत्सव में अजिर सुब्रह्मण्य पुरोहित का उल्लेख पाया जाता है। अजैकपात् — एकादश रुद्रों के अन्तर्गत एक नाम । इसका अजा-अज्ञातवाद शाब्दिक अर्थ है 'अज के समान जिसका एक पाँव है ।' अज्ञात (पाप) - पाप दो प्रकार के होते हैं, पहला अज्ञात. दूसरा ज्ञात अज्ञात पाप का प्रायश्चित्त यज्ञादि से किया जा सकता है। प्रायश्चित्तकार्य यदि निष्काम भाव से किये गये हैं तो ये ईश्वर तक पहुँचते है तथा अक्षय फल प्रदान करते हैं। ज्ञात पाप के सम्बन्ध में कहा गया है। कि जब कोई भक्त निष्काम भक्ति में लगा हो तो वह ऐसा पाप करता ही नहीं, और यदि देवात् उससे पापकर्म हो भी जाय तो ईश्वर उसे बुरे कर्मों के पाप से क्षमा प्रदान करता है । अज्ञातवाद - जगत् और सृष्टि के सम्बन्ध में वेशन्तियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (अर्थात् ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांस्यों के 'परिणामवाद' (अर्थात् सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आप ही आप होता है) के स्थान पर 'विवर्त वाद' की स्थापना की हैं, जिसके अनुसार जगत् ब्रह्म का विवर्त या कल्पित रूप है । रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रान्तिजन्य प्रतीति है । इसी प्रकार ब्रह्म तो नित्य और वास्त विक सत्ता है और नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है। यह विवर्त अध्यास के द्वारा होता है जो नाम-रूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है, न कार्य या परिणाम ही है, क्योंकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है। अध्यास के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ अवश्य है, तभी तो उसका आरोप होता है। अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टिसृष्टिवाद' उपस्थित किया जाता है, जिसके अनुसार माया अथवा नाम-रूप मन की वृत्ति हैं। इनकी सृष्टि मन ही करता है और मन ही देखता है। ये नाम रूप उसी प्रकार मन या वृत्तियों के बाहर नहीं हैं, जिस प्रकार जड़-चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है । इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है । इन दोनों वादों में त्रुटि देखकर कुछ वेदान्ती 'अवच्छेदवाद' का आश्रय लेते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस अथवा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्ञान-अणु १७ या परिमिति के आरोप के कारण होती है। कुछ अन्य अणु-(१) सबसे प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थ उपनिषदों में वेदान्ती इन तीनों वादों के स्थान पर 'बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद' अणुवाद अथवा अणु का उल्लेख अप्राप्य है। इसी कारण उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म प्रकृति अथवा अणुवाद का उल्लेख वेदान्तसूत्रों में भी नहीं हुआ है, क्योंकि माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिम्बित होता है जिससे उनकी दार्शनिक उद्गम-भूमि उपनिषद् ही हैं । अणुवाद नाम-रूपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है। अन्तिम वाद का उल्लेख सांख्य एवं योग में भी नहीं मिलता । अणुवाद 'अज्ञातवाद' है, जिसे 'प्रौढिवाद' भी कहते हैं । यह सब वैशेषिक दर्शन का एक प्रमुख अङ्ग है एवं न्याय ने भी प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रूप में कही। इसे मान्यता प्रदान की है। जैनों ने भी इसे स्वीकार किया जाय चाहे दृष्टि-सृष्टि, अवच्छेद अथवा प्रतिबिम्ब है एवं अभिधर्मकोश-व्याख्या के अनुसार आजीवकों ने के रूप में: अस्वीकार करता है और कहता है कि जो भी। प्रारम्भिक बौद्धधर्म इससे परिचित नहीं है। पालि जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्म है । ब्रह्म अनिर्वच- बौद्ध ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु वैभाषिक नीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता, एवं सौत्रान्तिक इसको पूर्ण रूपेण मानने वाले थे। क्योंकि हमारे पास जो भाषा है वह द्वैत की ही है। न्याय-वैशेषिक शास्त्र के अनुसार प्रथम चार द्रव्य अर्थात् जो कुछ भी हम कहते हैं, वह भेद के आधार पर वस्तुओं का सबसे छोटा अन्तिम कण, जिसका आगे विभाजन ही । अतः मूल तत्त्व अज्ञात ही रहता है। नहीं हो सकता, अणु (परमाणु) कहलाता है । इसमें गन्ध, अज्ञान-ज्ञान का अभाव अथवा ज्ञान के विरुद्ध । अज्ञान के स्पर्श, परिमाण, संयोग, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग आदि विभिन्न पर्याय है अविद्या, अहंमति आदि । श्रीमद्भागवत के अनु- गुण समाये रहते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होने से इसका इन्द्रियसार जगत के उत्पत्तिकाल में ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के जन्य प्रत्यक्ष नहीं होता । इसकी सूक्ष्मता का आभास कराने अज्ञान को बनाया : (१) तम, (२) मोह, (३) महामोह, (४) के लिए कुछ स्थूल दृष्टान्त दिये जाते हैं, यथातामिस्र और (५) अन्धतामिस्र । वेदान्त के मत से अज्ञान जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । सत् और असत् से अनिर्वचनीय और त्रिगुणात्मक भावरूप तस्य षष्टितमो भागः परमाणः स उच्यते ।। है । जो कुछ भी ज्ञान का विरोधी है उसे अज्ञान कहते हैं। मनु ने कहा है : बालानशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च । अज्ञानाद् वारुणी पीत्वा संस्कारेणव शुद्धयति । | घर के भीतर छिद्रों से आते हए सूर्यप्रकाश के बीच [ जो अज्ञान से मदिरा पी लेता है वह संस्कार करने । में उड़ने वाले कण का साठवाँ भाग; अथवा रोयें के अन्तिम पर ही शुद्ध होता है।] सिरे का हजारवाँ भाग परमाणु कहा जाता है। व्यवहारतः अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितथमुच्यते । वैशेषिकों की शब्दावली में 'अण' सबसे छोटा आकार [अज्ञान अथवा बालभाव के कारण जो भी साक्षी दी कहलाता है। अणुसंयोग से द्वयणुक, त्रसरेणु आदि बड़े जाती है वह सब झूठ होती है। होते चले जाते हैं। अणिमा-अष्ट सिद्धियों में से एक । अष्ट सिद्धियों के नाम जैन मतानुसार आत्मा एवं देश को छोड़कर सभी वस्तुएँ ये है : अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति , प्राकाम्य, ईशित्व, पुद्गल से उत्पन्न होती हैं। सभी पुद्गलों के परमाणु वशित्व और कामावसायिता। अणिमा का अर्थ है अणु अथवा अणु होते हैं । प्रत्येक अणु एक प्रदेश अथवा स्थान (सूक्ष्म) का भाव, जिसके प्रभाव से देवता, सिद्ध आदि घेरता है । पुद्गल स्थूल या सूक्ष्म रूप में रह सकता है। जब सूक्ष्म रूप धारण करके सर्वत्र विचरण करते हैं और जिन्हें यह सूक्ष्म रूप में रहता है तो अगणित अणु एक स्थूल कोई भी नहीं देख सकता । आगमों में सिद्धियों की गणना अणु को घेरे रहते हैं। अणु शाश्वत हैं। प्रत्येक अणु में इस प्रकार है : एक प्रकार का रस, गन्ध, रूप और दो प्रकार का स्पर्श अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । होता है। ये विशेषताएँ स्थिर नहीं हैं और न बहुत से ईशित्वञ्च वशित्वञ्च तथा कामावसायिता ॥ अणुओं के लिए निश्चित है। दो अथवा अधिक अणु जो दे० 'सिद्धि' । चिकनाहट या खुरदरापन के गुण में भिन्न होते हैं आपस Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथि-अतिविजयैकादशी में मिलकर 'स्कन्ध' बनाते हैं । प्रत्येक वस्तु एक ही प्रकार के अणुसमूह से निर्मित होती है। अणु अपने अन्दर गति का विकास कर सकता है एवं यह गति इतनी तीव्र हो सकती है कि एक क्षण में वह विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सके। अणु-(२) काश्मीर शैव सम्प्रदाय के शैव आगमों और शिवसूत्रों का दार्शनिक दृष्टिकोण अद्वैतवादी है। 'प्रत्यभिज्ञा' (मनुष्य को शिव से अभिन्नता का अनवरत ज्ञान) मुक्ति का साधन बतायी गयी है। संसार को केवल माया नहीं समझा गया है। यह शिव का ही शक्ति के द्वारा प्रस्तुत स्वरूप है। सृष्टि के विकास की प्रणाली सांख्यमत के सदृश है, किन्तु इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । इस प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि यह तीन सिद्धान्तों को व्यक्त करती है। वे सिद्धान्त है-शिव, शक्ति एवं अणु, अथवा पति, पाश एवं पशु । अणु का ही नाम पशु है। अतिथि-हिन्दू धर्म में अतिथि पूजनीय व्यक्ति होता है। अथर्ववेद का एक मन्त्र आतिथ्य के गुणों का वर्णन करता है : 'आतिथेय को अतिथि के खा चुकने के बाद भोजन करना चाहिए। अतिथि को जल देना चाहिए' इत्यादि । तैत्तिरीय उपनिषद् भी आतिथ्य पर जोर देती हुई 'अतिथि देव' (अतिथि देवता) है की घोषणा करती है। ऐतरेय आरण्यक में कहा गया है कि केवल सज्जन ही आतिथ्य के पात्र है। अतिथियज्ञ दैनिक गृहस्थजीवन का नियमित अङ्ग था। इसकी गणना पञ्च महायज्ञों में की जाती है। पुराणों और स्मृतियों में अतिथि के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं : जो निरन्तर चलता है, ठहरता नहीं उसे अतिथि कहते हैं (अत् + इथिन्)। घर पर आया हुआ, पहले से अज्ञात व्यक्ति भी अतिथि कहलाता है । इसके पर्याय है आगन्तुक, आवेशिक, गृहागत आदि । इसका लक्षण निम्नांकित है : यस्य न ज्ञायते नाम नच गोत्रं नच स्थितिः । अकस्माद् गृहमायाति सोऽतिथिःप्रोच्यते बुधैः ।। [ जिसका नाम, गोत्र, स्थिति नहीं ज्ञात है और जो अकस्मात् घर में आता है, उसे अतिथि कहा जाता है। उसके विमुख लौट जाने पर गृहस्थ को दोष लगता है : अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते । स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पण्यमादाय गच्छति ।। [जिसके घर से अतिथि निराश होकर चला जाता है वह उस गृहस्थ को पाप देकर और उसके पुण्य लेकर चला जाता है। ] गौ के दुहने में जितना समय लगता है उतने समय तक घर के आँगन में अतिथि की प्रतीक्षा करनी चाहिए । अपनी इच्छा से वह कई दिन भी रुक सकता है (विष्णु पुराण)। मुहूर्त का अष्टम भाग गोदोहन काल कहलाता है, उस समय में देखा गया व्यक्ति अतिथि कहलाता है (मार्कण्डेय पुराण) । अतिथि मूर्ख है अथवा विद्वान् यह विचार नहीं करना चाहिए : प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मुर्खः पतित एव वा । सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्ते सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः ।। [चाहे प्रिय, विरोधी, मूर्ख, पतित कोई भी हो वैश्वदेव के अन्त में जो आता है वह अतिथि है और स्वर्ग को ले जाता है । ] अतिथि से वेदादि नहीं पूछना चाहिए : स्वाध्यायगोत्रचरणमपृष्ट्वापि तथा कुलम् । हिरण्यगर्भबुद्ध्या तं मन्येताभ्यागतं गृही । [स्वाध्याय, गोत्र, चरण, कुल बिना पूछे ही गृहस्थ अतिथि को विष्णु रूप माने । ] (विष्णुपुराण)। उससे देश आदि पूछने पर दोष लगता है : देशं नाम कुलं विद्यां पृष्ट्वा योऽन्नं प्रयच्छति । न स तत्फलमाप्नोति दत्त्वा स्वर्ग न गच्छति ।। [ देश, नाम, विद्या, कुल पूछकर जो अन्न देता है उसे पुण्यफल नहीं मिलता और फिर वह स्वर्ग को भी नहीं प्राप्त करता।] अतिथि को शक्ति के अनुसार देना चाहिए : भं जनं हन्तकारं वा अग्र भिक्षामथापि वा। अदत्त्वा नैव भोक्तव्यं यथा विभवमात्मनः ।। [भोजन, हन्तकार, अग्र ग्रास अथवा भिक्षा विना दिये भोजन नहीं करना चाहिए। यथाशक्ति पहले देकर खाना चाहिए ।] भिक्षा आदि का लक्षण इस प्रकार है : ग्रासप्रमाणा भिक्षा स्यादनं ग्रासचतुष्टयम् । अग्राच्चतुर्गणं प्रार्हन्तकारं द्विजोत्तमाः ।। (मार्कण्डेय पुराण) [ग्रास भर को भिक्षा, ग्रास से चौगुने को अग्र, अग्र से चौगुने को हन्तकार कहते हैं।] अतिविजय कादशी-पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्षीय एकादशी। इस तिथि को एक वर्षपर्यन्त तिलों के प्रस्थ का दान किया जाता है। इस दिन विष्णु का व्रत किया जाता है । दे० हेमाद्रि; व्रत खण्ड, ११४७ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीन्द्रिय-अथर्ववेद अतीन्द्रिय-नैयायिकों के मत से परमाण अतीन्द्रिय हैं: ऐन्द्रिय नहीं। उन्हें ज्ञानेन्द्रियों से नहीं देखा अथवा जाना जा सकता है। वे केवल अनुमेय हैं। आत्मा, परमात्मा अथवा परम तत्त्व भी अतीन्द्रिय हैं। अत्याधमी--प्रथम तीनों आश्रमों से श्रेष्ठ आश्रम में रहने वाला-संन्यासी।वह आत्मा को पूर्णतः जानता है तथा अपने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त है। परिवार, सम्पदा एवं संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर चुका है एवं वह उसे प्राप्त कर चुका है जिसकी केवल परिव्राजक योगी ही इच्छा रखते हैं। अत्रि--ऋग्वेद का पञ्चम मण्डल अत्रि-कुल द्वारा संगृहीत है। कदाचित् अत्रि-परिवार का प्रियमेध, कण्व, गोतम एवं काक्षीवत कूलों से निकट सम्बन्ध था। ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के एक मन्त्र में परुष्णी एवं यमुना के उल्लेख से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह परिवार विस्तृत क्षेत्र में फैला हआ था। अत्रि गोत्रप्रवर्तक ऋषि भी थे। मुख्य स्मृतिकारों की तालिका में भी अत्रि का नाम आता है। अत्रिस्मति-यह ग्रन्थ प्राचीन स्मृतियों में है। इसका उल्लेख मनुस्मृति (३.१३) में हआ है। 'आत्रेय धर्मशास्त्र', 'अत्रिसंहिता' तथा अविस्मति नाम के ग्रन्थ भी पाये जाते हैं। अथर्वा-वेदकालीन विभिन्न पुरोहितकुलों की तरह ही यह एक कुल था। एकवचन में अथर्वा नाम परिवार के अध्यक्ष का सूचक है, किन्तु बहुवचन में 'अथर्वाणः' शब्द से सम्पूर्ण परिवार का बोध होता है। कुछ स्थानों में एक निश्चित परिवार का उद्धरण प्राप्त होता है। दानस्तुति में इन्हें अश्वत्थ की दया का दान ग्रहण करने वाला कहा गया है एवं यज्ञ में इनके द्वारा मधुमिश्रित पय का प्रयोग करने का विवरण है। अथर्व-प्रातिशाख्य-भिन्न-भिन्न वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन ग्रन्थों द्वारा होता है, उन्हें 'प्राति- शाख्य' कहते हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदाध्ययन के स्वरादि का विशेषता से निश्चय करके अपनी अपनी गाखा की परम्परा चलायी थी। जिस व्यक्ति ने जिस शाखा से वेदपाठ सीखा वह उसी शाखा की वंशपरम्परा का सदस्य कहलाया। बाह्मणों की गोत्र-प्रवरशाखा आदि की परम्परा इसी तरह चल पड़ी। बहुत काल बीतने पर इस भेद को स्मरण रखने के लिए और अपनीअपनी रीति की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बनाये गये । इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं । 'अथर्व-प्रातिशाख्य' दो मिलते हैं, इनमें एक 'शौनकीय चतुरध्यायिका' है जिसमें (१) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय और वृत्ति, (२) स्वर और व्यञ्जन-संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिधान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम, (३) संहिताप्रकरण, (४) क्रम-निर्णय, (५) पदनिर्णय और (६) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश, ये छः विषय बताये जाते हैं । अथर्ववेद-चारों वेदों के क्रम में अथर्ववेद का नाम सबसे अन्त में आता है। यह प्रधानतः नौ संस्करणों में पाया जाता है-पप्पलाद, शौनकीय, दामोद, तोत्रायन, जामल, ब्रह्मपालाश, कुनखा, देवदर्शी और चरणविद्या। अन्य मत से उन संस्करणों के नाम ये हैं-पप्पलाद, आन्ध्र, प्रदात्त, स्नात, श्नौत, ब्रह्मदावन, शौनक, देवदर्शती और चरणविद्या। इनके अतिरिक्त तैत्तिरीयक नाम के दो प्रकार के भेद देख पड़ते हैं, यथा औरव्य और काण्डिकेय । काण्डिकेय भी पाँच भागों में विभक्त हैं-आपस्तम्ब, वौधायन, सत्यावाची, हिरण्यकेशी और औधेय । ___अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्रभाग में बीस काण्ड हैं । काण्डों को अड़तीस प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। इसमें ७६० सूक्त और ६००० मन्त्र हैं। किसी-किसी शाखा के ग्रन्थ में अनुवाक विभाग भी पाये जाते हैं। अनुवाकों की संख्या ८० है । यद्यपि अथर्ववेद का नाम सब वेदों के बाद आता है तथापि यह समझना भूल होगी कि यह वेद सबसे पीछे बना । वैदिक साहित्य में अन्यत्र भी 'आथर्वण' शब्द आया है और पुरुषसूक्त में छन्द शब्द से अथर्ववेद ही अभिप्रेत जान पड़ता है । कुछ लोगों का कहना है कि ऋक्, यजु और साम ये ही त्रयी कहलाते हैं और अथर्ववेद त्रयी से बाहर है। पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि अथर्ववेद अन्य वेदों से पीछे बना। परन्तु ऋक्, यजु और साम तीनों अलग ग्रन्थ नहीं मन्त्र-रचना की प्रणाली मात्र हैं। इनसे वेद के तीन संहिता विभागों की सूचना नहीं होती। यज्ञकार्य को अच्छे प्रकार से चलाने के लिए ही चार संहिताओं का विभाग किया गया है। ऋग्वेद होता के लिए है, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० यजुर्वेद अध्ययुं के लिए, सामवेद उद्गाता के लिए और अथर्ववेद ब्रह्म के लिए है। इस वेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया । इसीलिए इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। ब्रह्मा पुरोहित के लिए यह वेद काम में आता है इसलिए जैसे यजुर्वेद को आध्वर्यव कहते हैं, वैसे ही इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं । कहते हैं कि इस वेद में सब वेदों का सार तत्त्व निहित है, इसीलिए यह सब में श्रेष्ठ है गोपथ ब्राह्मण में लिखा है : श्रेष्ठो हि वेदस्तपसोऽधिजातो ब्रह्मज्ञानं हृदये संबभूव । ( १1९ ) एतद्वै भूयिष्ठं ब्रह्म यद् भृग्वंगिरसः । येsङ्गिरसः सरसः । येऽथर्वाणस्तद् भेषजम् । यद् भेषजम् तदमृतम् । यदमृतं तद्ब्रह्म ग्रिफिन ने अपने अंग्रेजी पद्यानुवाद की लिखा है कि अथर्वा अत्यन्त पुराने ऋषि का जिसके सम्बन्ध में ऋग्वेद में लिखा है कि इसी सङ्घर्षण द्वारा अग्नि को उत्पन्न किया और यज्ञों के द्वारा वह मार्ग तैयार किया जिससे मनुष्यों और देवताओं में सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसी ऋषि ने पारलौकिक तथा अलौकिक शक्तियों के द्वारा विरोधी असुरों को वश में कर लिया। इसी अचर्या ऋषि से अङ्गिरा और भृगु के वंश वालों को जो मन्त्र मिले उन्हीं की संहिता का नाम 'अथर्ववेद', 'भृग्वङ्गिरस वेद' अथवा 'अथर्वाङ्गिरस वेद' पड़ा इसका नाम, जैसा कि पहले कहा गया है, ब्रह्मवेद भी है। ग्रिफिथ ने इस नामकरण के तीन कारण बताये हैं, जिनमें से एक का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र हैं, टोटके हैं आशीर्वाद हैं, और प्रार्थनाएं हैं, जिनसे देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है, उनका संरक्षण प्राप्त किया जा सकता है, मनुष्य, भूत-प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता है और नष्ट किया जा सकता है । इन प्रार्थनात्मक स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा गया है। इनका ज्ञान समुच्चय होने से इसका नाम ब्रह्मवेद है । ब्रह्मवेद होने की तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बताते हैं और धर्मपालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ यह वेद ब्रह्मज्ञान भी सिखाता है और मोक्ष के उपाय बताता है। (३४) भूमिका में नाम है, ऋषि ने पहले-पहल अथर्ववेद अथर्ववेद के कम प्राचीन होने की युक्तियां देते हुए ग्रिफिथ यह मत प्रकट करते हैं कि जहाँ ऋग्वेद में जीवन के स्वाभाविक भाव हैं और प्रकृति के लिए प्रगाढ़ प्रेम है, वहाँ अथर्ववेद में प्रकृति के पिशाचों और उनकी अलौकिक शक्तियों का भय दिखाई पड़ता है। जहाँ ऋक् में स्वतन्त्र कर्मण्यता और स्वतन्त्रता की दशा है वहाँ अथर्ववेद में अन्धविश्वास दिखाई देता है। किन्तु उनकी यह युक्ति पाश्चात्य दृष्टि से उलटी जँचती है, क्योंकि अन्धविश्वास का युग पहले आता है, बुद्धि-विवेक का पीछे। अतः अथर्ववेद तीन गेंदों से अपेक्षाकृत अधिक पुराना होना चाहिए । अथर्ववेद में लगभग सात सौ साठ सूक्त हैं जिनमें छः हजार मन्त्र हैं । पहले काण्ड से लेकर सातवें तक किसी विषय के क्रम से मन्त्र नहीं दिये गये हैं। केवल मन्त्रों की संख्या के अनुसार सुक्तों का क्रम बाँधा गया है। पहले काण्ड में चार-चार मन्त्रों का क्रम है, दूसरे में पांच-पांच का तीसरे में छः-छः का, बीचे में सात-सात का, परन्तु पांचवें में आठ से अठारह मन्त्रों का क्रम है। छठे में तीनतीन का क्रम है। सातवें में बहुत से अकेले मन्त्र है और ग्यारह ग्यारह मन्त्रों तक का भी समावेश है। आठवें काण्ड से लेकर बीसवें तक लम्बे-लम्बे सूक्त हैं जो संख्या में पचास साठ सत्तर और अस्सी मन्वों तक चले गये है। तेरहवें काण्ड तक विषयों का कोई क्रम नहीं रखा गया है, विविध विषय मिले-जुले हैं । उनमें विशेष रूप से प्रार्थना है, मन्त्र है और प्रयोग तथा विधियाँ हैं, जिनसे सब तरह के भूत-प्रेत, पिशाच, असुर, राक्षस, डाकिनी, शाकिनी, वेताल आदि से रक्षा की जा सके। जादू-टोना करने वालों, सर्पों, नागों और हिंसक जन्तुओं से तथा रोगों से बचाव होता रहे, ऐसी विधियाँ हैं । सन्तान, सर्वसाधारण की रक्षा, विशेष प्रकार की ओषधियों में विशेष गुणों के आवाहन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि प्रयोगों, सौख्य, सम्पति, व्यापार और जुए आदि की सफलता के लिए प्रार्थनाएँ भी हैं और मन्त्र भी हैं । चौदहवें से अठारहवें तक पाँच काण्डों में विषयों का क्रम निश्चित है । चौदहवें काण्ड में विवाह की रीतियों का वर्णन है । पन्द्रहवें, सोलहवें और सत्रहवें काण्ड में कुछ विशेष मन्त्र हैं । अठारहवें में अन्त्येष्टि क्रिया की विधियाँ और पितरों के श्राद्ध की रीतियाँ हैं । उन्नीसवें में विविध Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथर्वसिरस्-उपनिषद्-अथर्वाङ्गिरसः मन्त्रों का संग्रह है। बीसवें में इन्द्र सम्बन्धी सूक्त है जो इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा । अथर्वा-ऋषि के सम्बन्ध ऋग्वेद में भी प्रायः आते हैं । अथर्ववेद के बहुत से सूक्त, में एक किंवदन्ती भी है कि पूर्व काल में स्वयंभू ब्रह्मा लगभग सप्तमांश, ऋग्वेद में भी मिलते हैं। कहीं-कहीं ने सृष्टि के लिए दारुण तपस्या की । अन्त में उनके रोमतो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और कहीं-कहीं महत्त्व के कुपों से पसीने की धारा बह चली। इसमें उनका रेतस् पाठांतर भी । सृष्टि और ब्रह्मविद्या के भी अनेक रहस्य भी था। यह जल दो धाराओं में विभक्त हो गया। उसकी इस वेद में जहाँ-तहाँ आये हैं जिनका विस्तार और विकास एक धारा से भृगु महर्षि उत्पन्न हुए । अपने उत्पन्न करने ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में आगे चलकर हआ है। वाले ऋषिप्रवर को देखने के लिए जब भृगु उत्सुक हुए, इस संहिता में अनेक स्थल दुरूह हैं। ऐसे शब्द समूह ___ तब एक देववाणी हुई जो गोपथब्राह्मण (११४) में दी हैं जिनके अर्थ का पता नहीं लगता। बीसवें काण्ड में, हुई है : 'अथर्ववाग्' एवं 'एतग स्वेदाय स्वन्नि च्छ' । इस एक सौ सत्ताईसवें से लेकर एक सौ छत्तीसवें सूक्त तक तरह उनका नाम अथर्वा पड़ा। दूसरी धारा से अङ्गिरा 'कून्ताप' नामक विभाग में, विचित्र तरह के सूक्त और नामक महर्षि का जन्म हुआ। उन्हीं से अथर्वाङ्गिरसों की मन्त्र हैं जो ब्राह्मणाच्छंसी के द्वारा गाये जाते हैं। इसमें उत्पत्ति हुई। कौरम, रुशम, राजि, रोहिण, ऐतश, प्रातिसूत्व, मण्डरिका अथर्वज्योतिष-संस्कारों और यज्ञों की क्रियाएं निश्चित आदि ऐसे नाम आये हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं लगता। मुहूर्तों पर निश्चित समयों में और निश्चित अवधियों के अथर्वशिरस-उपनिषद् (अ)-एक पाशुपत उपनिषद्। इसका भीतर होनी चाहिए । मुहूर्त, समय और अवधि का निर्णय रचनाकाल प्रायः महाभारत में उल्लिखित पाशुपत करने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ही एक अवलम्ब है । मत सम्बन्धी परिच्छेदों के रचनाकाल के लगभग है।। इसलिए प्रत्येक वेद के सम्बन्ध का ज्योतिषाङ्ग अध्यइसमें पशुपति रुद्र को सभी तत्त्वों में प्रथम तत्त्व माना यन का विषय होता है। ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन पुस्तकें गया है तथा इन्हें ही अन्तिम गन्तव्य अथवा लक्ष्य भी बहत प्राचीन काल की मिलती हैं। पहली ऋक्-ज्योतिष, बताया गया है। इसमें पति, पशु और पाश का भो दूसरी यजुः-ज्यौतिष और तीसरी अथर्व-ज्योतिष । अथर्वउल्लेख है। 'ओम्' के पवित्र उच्चारण के साथ ध्यान ज्यौतिष के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिर की लिखी करने की योगप्रणाली को इसमें मान्यता दी गयी है। पञ्चसिद्धान्तिका, जिसे पं० सुधाकर द्विवेदी और डा० शरीर पर भस्म लगाना पाशपत मत का आदेश बताया थोबो ने मिलकर सम्पादित करके प्रकाशित कराया था, गया है। 'पैतामह-सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। 'हिन्दुस्तान अथवंशिरस्-उपनिषद् (आ)-यह एक स्मार्त उपनिषद् है, रिव्यू' के १९०६ ई०, नवम्बर के अंक में पृष्ठ ४१८ पर जो पञ्चायतनपूजा के देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य, किसी अज्ञातनामा लेखक ने 'पितामह-ज्यौतिष' के १६२ गणेश) पर लिखे गये पाँच प्रकरणों का संग्रह है। पञ्चा- श्लोक बतलाये हैं। यतनपूजा कब प्रारम्भ हुई, इसकी तिथि निश्चित नहीं अथर्वशीर्ष-शाक्त मत का एक ग्रन्थ, जिसमें शक्ति के ही की जा सकती। किन्तु इस पूजा में ब्रह्मा के स्थान न पाने स्तवन हैं। से ज्ञात होता है कि उस समय तक ब्रह्मा का प्रभाव अथर्वाण:-अथर्ववेद के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 'अङ्गिसमाप्त हो चुका था तथा उनका स्थान गणेश ने ले लिया रसः' के समास के साथ होता है। इस प्रकार दोनों का था। कुछ विद्वानों का मत है कि पञ्चायतन पूजा का यौगिक रूप 'अथर्वाङ्गिरसः' भी अथर्ववेद के ही अर्थ में प्रारम्भ शङ्कराचार्य ने किया, कुछ लोग कुमारिल भट्ट व्यवहृत है। से इसका प्रारम्भ बताते हैं, जबकि अन्य विचारकों के अथर्वाङ्गिरसः-परवर्ती ब्राह्मणों के अनेक परिच्छेदों में अनुसार यह बहुत प्राचीन है। कुछ भी हो, अथवंशिरस् अथर्ववेद के इस सामूहिक नाम का उल्लेख है । एक स्थान उपनिषद् की रचना अवश्य पञ्चायतन पूजा के प्रचार के पर स्वयं अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख है, जबकि सूत्र पश्चात् हुई। काल के पहले 'अथर्ववेद' शब्द नहीं पाया जाता। ब्लूमअथर्वाऋषि-अथर्ववेद के द्रष्टा ऋषि । इन्हीं के नाम पर फील्ड के मत से यह समास दो तत्त्वों का निरूपण करता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अथर्वोपनिषद्-अदेश (आदेश) है, जो अथर्ववेद की विषयवस्तु के निर्माणकर्ता है । इसका वर हैं, जिनमें एक तो सूखा रहता है परन्तु दूसरे में जल प्रथम भाग प्राणियों के शुभ कायौं (भेषजानि) का निरू- भरा रहता है। इनमें पहला अदितिकुण्ड और दूसरा पण करता है, इसके विपरीत दूसरा जादू-टोना (यातु वा सूर्यकुण्ड कहलाता है। यहीं पर महर्षि कश्यप तथा उनकी अभिचार) का । इस मत की पुष्टि दो पौराणिक व्यक्तियों पत्नी अदिति का आश्रम था और माता अदिति ने वामन 'घोर-आङ्गिरस' एवं 'भिषक्-आङ्गिरस' के नाम से एवं भगवान् को पुत्र रूप में पाया था। पञ्चविंश ब्राह्मण में उद्धत 'अथर्वाणः' तथा 'आथर्वणानि' अदुःखनवमी-सबके लिए, विशेषतः स्त्रियों के लिए, भाद्र के भेषज के साथ सम्बन्ध निर्देश से होती है । अथर्ववेद में शुक्ला नवमो को इस व्रत का विधान है। इसमें पार्वती भेषज का तात्पर्य अथर्ववेद के अर्थ में एवं शतपथब्राह्मण का पूजन किया जाता है। दे० व्रतराज, ३३२, ३३७; में यातु का तात्पर्य अथर्ववेद लगाया गया है। स्क० पु० । बंगाली महिलाएं अवैधव्य के लिए इस व्रत अथर्वोपनिषद्-इसका बहुभाषित नाम 'याज्ञिकी' तथा का अनुष्ठान करती हैं। 'नारायणीयोपनिषद्' है । 'अथर्वोपनिषद्' नाम द्रविड देश, अदृष्ट-ईश्वर की इच्छा, जो प्रत्येक आत्मा में गुप्त रूप से आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक आदि में प्रचलित है। तैत्तिरीय- विराजमान है, अदृष्ट कहलाती है। भाग्य को भी अदष्ट आरण्यक का सातवाँ, आठवाँ, नदाँ एवं दसवाँ प्रपाठक कहते हैं । मीमांसा दर्शन को छोड़ अन्य सभी हिन्दू दर्शन ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से 'उपनिषद्' कहलाता है । यह प्रलय में आस्था रखते हैं। न्याय-वैशेषिक मतानुसार ईश्वर उपनिषद् दसवाँ प्रपाठक है। सायणाचार्य ने इस पर । प्राणियों को विश्राम देने के लिए प्रलय उपस्थित करता भाष्य लिखा है एवं विज्ञानात्मा ने एक स्वतन्त्र वृत्ति और है । आत्मा में, शरीर, ज्ञान एवं सभी तत्त्वों में विराज'वेद-शिरोभूषण' नाम की एक अलग व्याख्या लिखी है। मान अदृष्ट शक्ति उस काल में काम करना बन्द कर याज्ञिकी 'नारायणीय-उपनिषद्' में ब्रह्मतत्त्व का विवरण देती है (शक्ति-प्रतिबन्ध)। फलतः कोई नया शरीर, ज्ञान है। शङ्कराचार्य ने भी इसका भाष्य लिखा है। अथवा अन्य सृष्टि नहीं होती। फिर प्रलय करने के लिए अदारिद्रय षष्ठी-स्कन्द पुराण के अनुसार एक वर्ष तक अदृष्ट सभी परमाणुओं में पार्थक्य उत्पन्न करता है तथा प्रत्येक षष्ठी को यह व्रत करना चाहिए। इसमें भास्कर सभी स्थूल पदार्थ इस क्रिया से परमाणुओं के रूप में आ (सूर्य) की पूजा की जाती है। व्रती को तेल एवं लवण जाते हैं । इस प्रकार अलग हुए परमाणु तथा आत्मा अपने त्यागना चाहिए तथा ब्राह्मण को खीर (दूध और चीनी किये हुए धर्म, अधर्म तथा संस्कार के साथ निष्प्राण लटके में पका चावल) खिलाना चाहिए। इस व्रत से परिवार में न कोई दरिद्र उत्पन्न होता है और न दरिद्र बनता है। पुनः सृष्टि के समय ईश्वर की इच्छा से फिर अदष्ट अदिति-वरुण, मित्र एवं अर्यमा की माता अथवा देवमाता। लटके हए परमाणुओं एवं आत्माओं में आन्दोलन उत्पन्न इसको स्वाधीनता तथा निरपराधिता का स्वरूप कहा गया करता है। व फिर संगठित होकर अपने किये हुए धर्म, है । बारह आदित्य अदिति के पुत्र माने जाते हैं । अदिति अधर्म एवं संस्कारानुसार नया शरीर तथा रूप धारण का भौतिक आधार असीमित क्षितिज है जिसके और करते हैं। आकाश के बीच में बारहों आदित्य भ्रमण करते हैं। अदेश (आदेश)-इस शब्द का सम्बन्ध केशवचन्द्र सेन पुराणों में इस कल्पना का विस्तार से वर्णन है। कश्यप तथा ब्रह्मसमाज से है। केशवचन्द्र ब्रह्मसमाज के प्रमुख की दो पत्नियाँ थीं---अदिति और दिति । अदिति से देव नेता थे, किन्तु तीन कारणों से समाज ने उनका विरोध और दिति से दैत्य उत्पन्न हुए। ऋग्वेद (१.८९.१०) के । किया-उनकी अहम्मन्यता, आदेश का सिद्धान्त एवं अनुसार अदिति निस्सीम है । वही आकाश, वही वाय, वही स्त्रियों को पूर्ण स्वाधीनता देने की नीति । उनके आदेश माता, वही पिता, वही सर्वदेवता, वही सर्व मानव, वही का अर्थ था ईश्वर का सीधा आदेश, जो उन्हें जीवन की भूत, वर्तमान और भविष्य है। विभिन्न घड़ियों में ईश्वर से विशेष रूप में प्राप्त होता . अवितिकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड-कुरुक्षेत्र से पाँच मील दूर दिल्ली- था। अपने अनुयायियों द्वारा इन आदेशों का पालन वे अम्बाला रेलवे लाइन पर अमीनग्राम के पूर्व में दो सरो- आवश्यक समझते थे। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत-अद्वैतवाद mr अद्भुत-शुभाशुभ शकुन का एक प्रकार । वैदिक विचार- इसके रचयिता नृसिंहाश्रम सरस्वती अद्वैत सम्प्रदाय के प्रणाली में छः शुभाशुभ शकुन अथवा लक्षण उल्लिखित प्रमुख आचार्यों में गिने जाते हैं। इसका रचनाकाल है-(१) अशुभ रूप तथा पशुओं के कृत्य, (२) अद्भुत, सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए। अर्थात् प्रकृति के सामान्य रूप के साथ विभिन्न दूसरे उग्र अद्वैतब्रह्मसिद्धि-अद्वैत मत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ । रूप, (३) भौतिक चिह्न (लक्षण), (४) ज्योतिषिक प्रकृति इसके रचयिता काश्मीरक सदानन्द यति कश्मीरदेशीय सम्बन्धी, (५) यज्ञ की घटनाओं से सम्बन्ध रखने वाले । थे। रचनाकाल १७वीं शताब्दी है। इसमें प्रतिबिम्बवाद तथा (६) स्वप्न । एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष विवेचना अद्भुत गीता-एक संस्कृत ग्रन्थ का नाम, जो सिक्ख गुरु में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का मुख्य नानकदेव (१४६९-१५३८) द्वारा रचित माना जाता है। सिद्धान्त बतलाया गया है। जब तक प्रबल साधना के अद्भुत ब्राह्मण-अद्भत ब्राह्मण का सम्बन्ध सामवेद से है।। द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तब तक इसमें अपशकुन तथा उनके निवारण का वर्णन है। वह इस वाग्जाल में फंसा रहता है, अन्यथा 'जाते द्वैतं न अद्भुत रामायण-रामभक्ति शाखा का एक ग्रन्थ । इसकी। विद्यते । रचना अध्यात्मरामायण के पूर्व की मानी जाती है, अद्वैतरत्न-मल्लनाराध्य कृत सोलहवीं शताब्दी का एक क्योंकि अध्यात्मरामायण का रचयिता अद्भुत रामायण, प्रकरण ग्रन्थ । इसके ऊपर 'तत्त्वदीपन' नामक टीका स्वयं भुसुण्डिरामायण, योगवासिष्ठ आदि रामभक्ति विषयक ग्रन्थकार ने लिखी है। मल्लनाराध्य ने द्वैतवादियों के ग्रन्थों से परिचित था। अद्भत रामायण में अखिल विश्व मत का खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की जननी सीताजी के परात्परा शक्ति वाले रूप की बहत परा शक्ति वाल रूप की बहुत की थी। सुन्दर स्तुति की गयी है। अद्वैतरत्नलक्षण-मधुसूदन सरस्वती रचित यह ग्रन्थ द्वैतअद्वयवादी-भारतीय दार्शनिकों को मोटे तौर पर तीन बाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना करता श्रेणियों में रखा गया है : (१) आस्तिक, (२) नास्तिक और है । यह १७वीं शताब्दी में रचा गया था। (३) अद्वयवादी। अद्वयवादी वे दार्शनिक हैं जो अद्वैत अद्वैतरसमञ्जरी-सदाशिवेन्द्र सरस्वती द्वारा अठारहवीं वाद में विश्वास रखते हैं । दे० 'अद्वैतवाद' । शताब्दी में लिखी गयी, यह सरल एवं भावपूर्ण रचना अद्वैत-यह शब्द अ+द्वैत से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है है। यह प्रकाशित हो चुकी है। सदाशिवेन्द्र महान् द्वैत (दो के भाव) का अभाव । दर्शन में इसका प्रयोग योगी और अद्वैतनिष्ठ महात्मा थे। उनके उत्कृष्ट जीवन 'मूल सत्ता' के निर्देश के लिए हुआ है। इसके अनुसार की छाप इस ग्रन्थ में परिलक्षित होती है। वस्तुतः एक ही सत्ता 'ब्रह्म' है। आत्मा और जगत् अद्वैतवाद-विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता की खोज अथवा आत्मा और प्रकृति में जो द्वैत दिखाई पड़ता है दर्शन का प्रमुख विषय है। यह सत्ता है अथवा नहीं वह वास्तविक नहीं है; वह माया अथवा अविद्या का परि- अर्थात् यह सत् है या असत्, भावात्मक है या अभावात्मक, णाम है। सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च अपने बदलते हुए दृश्यों के एक है अथवा दो या अनेक ? ये सब प्रश्न दर्शन में उठाये साथ मिथ्या है, केवल ब्रह्म सत्य है। अंतिम विश्लेषण में गये हैं। इन समस्याओं के अन्वेषण तथा उत्तर के अनेक आत्मा और ब्रह्म भी एक ही हैं । इस सिद्धान्त का पोषण मार्ग और मत हैं, जिनसे अनेक दार्शनिक वादों का उदय जो दर्शन करता है वह अद्वैत है। दे० 'वेदान्त' और हुआ है । जो सम्प्रदाय मूल सत्ता को एक मानते हैं उनको 'शङ्कराचार्य' । एकत्ववादी कहते हैं । जो मूल सत्ता को अनेक मानते हैं अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ-अद्वैतवादी सिद्धान्त पर महादेव सर- वे अनेकत्ववादी, बहुत्ववादी, वैपुल्यवादी आदि नामों से स्वती द्वारा लिखित 'तत्त्वानुसन्धान' के ऊपर उन्हीं के अभिहित हैं। दर्शन का इनसे भिन्न एक सम्प्रदाय है द्वारा लिखी गयी टीका । इस ग्रन्थ का रचनाकाल अठार- जिसको 'अद्वैतवाद' कहा जाता है। इसके अनुसार 'सत्' हवीं शताब्दी है। न एक है और न अनेक । वह अगम, अगोचर, निर्गुण, अद्वैतदीपिका-अद्वैत वेदान्त का एक युक्तिप्रधान ग्रन्थ । अचिन्त्य तथा अनिर्वचनीय है। इसका नाम अद्वैतवाद Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अद्वैतविद्यामकुर-अधार्मिक इसलिए है कि यह एकत्ववाद और द्वैतवाद दोनों का भाष्य' अद्वैतवाद का सर्वप्रसिद्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है। अद्वैतप्रत्याख्यान करता है। इसका सिद्धान्त है कि सत् का वाद का जो निखरा हआ रूप है वास्तव में उसके प्रवर्तक निर्वचन संख्या-एक, दो, अनेक-से नहीं हो सकता। शङ्कराचार्य ही हैं। दे० 'शङ्कराचार्य'। इसलिए उपनिषदों में उसे 'नेति नेति' ('ऐमा नहीं', 'ऐसा अद्वैतविद्यामकुर-रङ्गराजाध्वरी लिखित 'अद्वैतविद्यानहीं) कहा गया है। मुकुर' न्याय-वैशेषिक एवं सांख्यादि मतों का खण्डन करके वह अद्वैत सत्ता क्या है ? इसके भी विभिन्न उत्तर अद्वैतमत की स्थापना करता है। इसका रचनाकाल हैं। माध्यमिक बौद्ध इसे 'शून्य'; विज्ञानवादी बौद्ध सोलहवों शती है। 'विज्ञान'; शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण 'स्फोट' अथवा 'शब्द'; अद्वैतविद्याविजय-दोदयाचार्य द्वारा, जिनका पूरा नाम शैव 'शिव'; शाक्त 'शक्ति' और अद्वैतवादी वेदान्ती 'अद्वैत' दोयमहाचार्य रामानुजदास है, यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी (आत्मतत्त्व) कहते हैं। इन सभी सम्प्रदायों में सबसे प्रसिद्ध आचार्य शङ्कर का आत्माद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत वाद अद्वैतविद्याविलास-सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित एक ग्रन्थ । है । इसके अनुसार 'ब्रह्म' अथवा 'आत्मा' एकमात्र सत्ता अद्वैतसिद्धि-मधुसूदन सरस्वती-विरचित सत्रहवीं शताब्दी है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं (सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह का एक अत्यन्त उच्च कोटि का दार्शनिक ग्रन्थ । इसमें दस नानास्ति किञ्चन ।) अविद्या के कारण दृश्य जगत् ब्रह्म में परिच्छेद हैं। ब्रह्मानन्द सरस्वती ने इसके ऊपर 'लघुआरोपित है । माया द्वारा वह ब्रह्म से विवर्तित होता है, चन्द्रिका' नाम की व्याख्या लिखी है। डॉ० गङ्गानाथ झा उसी में स्थित रहता है और पुनः उसी में लीन हो जाता द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है । यह ग्रन्थ है। शाङ्कर अद्वैतवाद रामानुज के विशिष्टाद्वैत और अद्वैत सम्प्रदाय का अमूल्य रत्न है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत से भिन्न है। अद्वैताचार्य-श्री चैतन्य देव के सहयोगी एक वैष्णव विद्वान् । अद्वैतवाद का उद्गम वेदों में ही प्राप्त होता है। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता किन्तु आदर के साथ इनका ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सत् और असत् से विलक्षण कतिपय रचनाओं में उल्लेख हआ है। इससे लगता है कि सत्ता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। उपनिषदों में तो ये अद्वैत तत्त्व के प्रमुख प्रवक्ता थे। विस्तार से अद्वैतवाद का निरूपण किया गया है। अद्वैतानन्द-'ब्रह्मविद्याभरण'-कार स्वामी अद्वैतानन्द का छान्दोग्य उपनिषद् में केवल आत्मा और ब्रह्म को ही उल्लेख सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित 'गुरुरत्नमालिका' नामक वास्तविक माना गया है और जगत् के समस्त प्रपञ्च को ग्रन्थ में हआ है। स्वामी अद्वैतानन्द काञ्चीपीठ के शंकरावाचारम्भण (निरर्थक शब्द मात्र) विकार कहा गया है। चार्यपदासीन अधीश्वर थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में नानात्व का खण्डन करके (नेति अधर्म-धर्म का अभाव' अथवा धर्मविरोधी तत्त्व । भागनेति) केवल एकमात्र आत्मा को ही सत्य सिद्ध किया गया वत पुराण के अनुसार यह ब्रह्मा के पृष्ठ से उत्पन्न हुआ है। माण्डूक्य उपनिषद् में भी आत्म-ब्रह्मद्वैत प्रतिपादित है। वेद और पुराण के विरुद्ध आचार को अधर्म कहते हैं। किया गया है । उपनिषदों के पश्चात् बादरायण के 'ब्रह्म- इससे कुछ समय तक उन्नति होती है, परन्तु अन्त में सूत्र' में प्रथम वार अद्वैतवाद का क्रमबद्ध एवं शास्त्रीय अधर्मी नष्ट हो जाता है : प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् अधर्मेणैधते राजन ततो भद्राणि पश्यति । कृष्ण ने आत्मानुभूति के आधार पर अद्वैत का सारगर्भित ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ।। विवेचन किया है । उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता ये ही हे राजन् ! मनुष्य अधर्म से बढ़ता है तब सम्पत्ति को तीन अद्वैतवाद के प्रस्थान हैं । इसके अतिरिक्त आचार्य पाता है । पश्चात् शत्रुओं को जीतता है । अन्त में समूल शङ्कर के दादागुरु गौडपादाचार्य ने अपने माण्डूक्योप- नष्ट हो जाता है। ] निषद् के भाष्य में अद्वैतमत का समर्थन किया है। स्वयं अधार्मिक-अधर्मी, अधर्मात्मा अथवा पापी : शङ्कराचार्य ने तीनों प्रस्थानों-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और यस्तु पञ्चमहायज्ञविहीनः स निराकृतः । गीता पर भाष्य लिखा । ब्रह्मसूत्र पर शङ्कर का 'शारीरक अधार्मिकः स्याद् वृषलः अवकीर्णी क्षतव्रती ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिमास-अन्यारोप [जो पञ्च महायज्ञ नहीं करता वह पतित हो जाता अनात्मवाद-आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना, अथवा है; अधार्मिक, वृषल, निन्दित और व्रत से क्षीण हो जाता शरीरान्त के साथ आत्मा का भी नाश मान लेना । जिस है। ] स्मृतियों के अनुसार अधार्मिक ग्राम में नहीं रहना दर्शन में 'आत्मा' के अस्तित्व का निषेध किया गया हो चाहिए। उसको अनात्मवादी दर्शन कहते हैं । चार्वाक दर्शन आत्मा अधिमास-दो रविसंक्रान्तियों के मध्य में होने वाला चन्द्र- के अस्तित्व का सर्वथा विरोध करता है । अतः वह पूरा मास । रविसंकान्ति से शून्य, शुक्ल प्रतिपदा से लेकर महीने उच्छेदवादी है। परन्तु गौतम बुद्ध का अनात्मवाद इससे की पूर्णिमा तक इसकी अवधि है । इसके पर्याय हैं अधिक- भिन्न है । वह वेदान्त के शाश्वत आत्मवाद और चार्वाकों मास, असंक्रान्तिमास, मलमास, मलिम्लुच और विनामक के उच्छेदवाद दोनों को नहीं मानता है । शाश्वत आत्मवाद (मलमासतत्त्व) । इसको पुरुषोत्तममास भी कहा जाता का अर्थ है कि आत्मा नित्य, कूटस्थ, चिरन्तन तथा एक है। इसमें कथा, वार्ता, धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं। रूप है। उच्छेदवाद के अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही अधिवास-अन्यत्र जाकर रहना । धूपदानादि संस्कार द्वारा नहीं है। यह एक प्रकार का भौतिक आत्मवाद है । बुद्ध ने भावित करना भी अधिवास कहलाता है। उसके द्रव्य हैं : इन दोनों के बीच एक मध्यम मार्ग चलाया । उनका अना(१)मिट्टी, (२) चन्दन, (३) शिला, (४) धान्य, (५) दूर्वा, त्मवाद अभौतिक अनात्मवाद है। उपनिषदों का 'नेति (६) पुष्प, (७) फल, (८) दही, (९) घी, (१०) स्वस्तिक, नेति' सूत्र पकड़ कर उन्होंने कहा, "रूप आत्मा नहीं है। (११) सिन्दुर, (१२) शङ्क, (१३) कज्जल, (१४) रोचना, वेदना आत्मा नहीं है । संज्ञा आत्मा नहीं है। संस्कार (१५) श्वेत सर्षप, (१६) स्वर्ण, (१७) चाँदी, (१८) ताँबा, आत्मा नहीं है । विज्ञान आत्मा नहीं है । ये पाँच स्कन्ध (१९) चमर, (२०) दर्पण, (२१) दीप और (२२) प्रशस्त हैं, आत्मा नहीं।" भगवान् बुद्ध ने आत्मा का आत्यन्तिक पादप । किन्ही ग्रन्थों में श्वेत सर्षप के स्थान पर तथा निषेध नहीं किया, किन्तु उसे अव्याकृत प्रश्न माना । कहीं चमर के स्थान पर पका हुआ अन्न कहा गया है। अध्यात्मरामायण-वाल्मीकिरामायण के अतिरिक्त एक अध्यग्नि-विवाह के अवसर पर अग्नि के समीप पत्नी के 'अध्यात्म रामायण' भी प्रसिद्ध है, जो शिवजी की रचना लिए दिया गया धन : कही जाती है । कुछ विद्वान् इसे वेदव्यास की रचना बतविवाहकाले यत् स्त्रीभ्यो दीयते ह्यग्निसन्निधौ । लाते हैं । अठारहों पुराणों में रामायण की कथा आयी है । तदध्यग्निकृतं सद्भिः स्त्रीधनन्तु प्रकीर्तितम् ।। कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड पुराण में जो रामायणी कथा (दायभाग में कात्यायन) है वही अलग करके 'अव्यात्मरामायण' के नाम से प्रका[विवाह के समय अग्नि के समीप स्त्री के लिए जो धन शित की गयी है। दिया जाता है उसे अध्यग्निकृत स्त्रीधन कहते हैं। अध्यात्मोपनिषद्-हेमचन्द्ररचित 'योगशास्त्र' अथवा 'अध्याअध्ययन-गुरु के मुख से यथाक्रम शास्त्रवचन सुनना। त्मोपनिषद्' ग्यारहवीं शताब्दी का दार्शनिक ग्रन्थ है। ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत अध्ययन आता है । अन्य अध्यापन-पाठन (विद्यादान या पढ़ाना)। यह ब्राह्मणों के वर्गों के लिए भी अध्ययन कर्तव्य है। छः कर्मों के अन्तर्गत एक है : अव्यात्मकल्पद्रुम-मुनिसुन्दरकृत 'अध्यात्मकल्पद्रुम' १३ अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । ८०-१४४७ ई० के मध्य की रचना है । इसमें दार्शनिक दानं प्रतिग्रहश्चैव षटकर्माण्यग्रजन्मनः ।। प्रश्नों का सुन्दर विवेचन किया गया है । (मनुस्मृति) अध्यात्म-यह शब्द अधि + आत्मन् दो शब्दों के योग से बना [अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, है। भगवद्गीता में इसका प्रयोग एकान्तिक सत्ता के लिए दान लेना ये छः ब्राह्मणों के कर्म हैं। यह ब्राह्मण का हुआ है (अ० ८ श्लोक ३) । अमेरिकी वेदान्ती इमर्सन ने विशिष्ट कर्म है । अन्य वों को इसका अधिकार नहीं है, इसका अर्थ अधीश्वर आत्मा (ओवर सोल) किया है। यद्यपि ब्राह्मणेतर सन्त-महात्माओं को उपदेश का वास्तव में जो पदार्थ क्षर अथवा नश्वर जगत् से ऊपर अर्थात् परे है उसको अध्यात्म कहते हैं । अध्यारोप-वस्तु में अवस्तु का आरोप । सच्चिदानन्द, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अध्यासवाद-अनङ्ग अनन्त, अखण्ड ब्रह्म में अज्ञान और उसके कार्य समस्त हो। श्रौत और स्मार्त कर्महीन पुरुष को अनग्नि कहते हैं । जड़ समूह का आरोप करना अध्यारोप कहलाता है। सर्प संन्यासी को भी अनग्नि कहा गया है, जो गृहस्थ के लिए न होते हुए भी रस्सी में सर्प का आरोप करने के समान । विहित कर्म को छोड़ देता है और केवल आत्मचिन्तन में यह प्रक्रिया है (वेदान्तसार)। रत रहता है: अध्यासवाद-आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते अग्नीनात्मनि वैतानान् समारोप्य यथाविधि । समय सबसे पहले आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया अनग्निरनिकेतः स्यान्मनिर्मलफलाशनः ।। है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो सम्पूर्ण प्रपञ्च को (मनुस्मृति) दो प्रधान भागों में विभक्त किया जा सकता है-द्रष्टा [वैतानादि अग्नियों को आत्मा में विधिपूर्वक स्थापित और दृश्य । एक वह तत्त्व जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करके अग्निरहित तथा घररहित होकर मुनि मूल-फल का करनेवाला है और दूसरा वह जो अनुभव का विषय है। सेवन करे। ] इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम 'आत्मा' अनघाष्टमीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का है और जो कुछ उसका विषय है वह सब 'अनात्मा' है। अनु ठान होता है । दर्भी के बने हए अनघ तथा अनघी आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असङ्ग, कूटस्थ, एक का पूजन, जो वासुदेव तथा लक्ष्मी के प्रतीक हैं, 'अतो और निविशेष है। बुद्धि से लेकर स्थलभूत पर्यन्त जितना देवा" .. '(ऋक् २२-१६) मन्त्र के साथ किया जाता है। भी प्रपञ्च है उसका आत्मा से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। शूद्रों के द्वारा नमस्कार मात्र किया जाता है । दे० भविष्योअज्ञान के कारण ही देह और इन्द्रियादि से अपना तादा- तर पुराण, ५८, १; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १. ८१३-१४ । त्म्य स्वीकार कर जीव अपने को अन्धा, काना, मूर्ख, अनङ्ग-अङ्गरहित, कामदेव का पर्याय है। काम का विद्वान्, सुखी-दुःखी तथा कर्ता-भोक्ता मानता है। इस जन्म चित्त या मन में माना जाता है। उसे आत्मभू एवं प्रकार बुद्धि आदि के साथ जो आत्मा का तादात्म्य हो चित्तजन्मा भी कहते हैं । साहित्य में काम को प्रेम का रहा है उसे आचार्य ने 'अध्यास' शब्द से निरूपित किया देवता कहा गया है । इसके मन्मथ, मदन, कन्दर्प, स्मर, है। आचार्य के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण प्रपञ्च की सत्यत्व अनङ्ग आदि पर्याय हैं। प्रारम्भ में काम का अर्थ 'इच्छा' प्रतीति अध्यास अथवा माया के कारण होती है । इसी से लिया जाता था, वह भी न केवल शारीरिक अपितु अवैतवाद को अध्यासवाद अथवा मायावाद भी कहते हैं। साधारणतया सभी अच्छी वस्तुओं की इच्छा। अथर्ववेद इसका तात्पर्य यही है कि जितना भी दृश्यवर्ग है वह सब (९.२) में काम को इच्छा के मानुषीकरण रूप में मानमाया के कारण ही सत्य-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः एक, कर जगाया गया है । किन्तु उसी वेद के दूसरे मन्त्र में अखण्ड, शुद्ध, चिन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है। (३.२५) उसे शारीरिक प्रेम का देवता माना गया है और अध्वर-अध्व - सन्मार्ग, र = देनेवाला, अर्थात् यज्ञकर्म । इसी क्रिया के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पुराणादि ग्रन्थों अथवा जहाँ हिंसा, क्रोध आदि कुटिल कर्म न हों (न+ में हुआ है । उसके माता-पिता का विविधता से वर्णन है, ध्वर = (अध्वर) सरल, स्वच्छ, शुभ कर्म : किन्तु प्रायः उसे धर्म एवं लक्ष्मी की सन्तान कहा गया 'तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशम्' (रघु०)। है। उसकी पत्नी का नाम 'रति' है जो शारीरिक भोग 'इमं यज्ञमवतादध्वरं नः' (यजुः) । का प्रतीक है । उसका मित्र 'मधु' है जो वसन्त का प्रथम अध्वर्यु-यज्ञों में देवताओं के स्तुतिमन्त्रों को जो पुरोहित मास है । काम के दो पुत्रों का भी उल्लेख आता है, वे हैं गाता था उसे 'उद्गाता' कहते थे। जो पुरोहित यज्ञ का हर्ष एवं यश । प्रधान होता था वह होता' कहलाता था। उसके सहाय- काम सम्बन्धी सामग्री की पुष्टि उसके अस्त्र-शस्त्रों से तार्थ एक तीसरा पुरोहित होता था जो हाथ से यज्ञों की भली-भाँति हो जाती है । वह पुष्पनिर्मित धनुष धारण क्रियाएं होता के निर्देशानुसार किया करता था। यही करता है (पुष्पधन्वा) । इस धनुष की डोरी भ्रमरों की सदस्य 'अध्वर्यु' कहलाता था। बनी होती है और बाण भी पुष्पों के ही होते हैं (कुसुमअनग्नि-जो श्रौत और स्मार्त अग्नियों में होम न करता शर)। ये बाण प्रेम के देवता के 'शोषण' एवं 'मोहन' Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनङ्गत्रयोदशी-अनन्तनाग आदि कर्मों के प्रतीक है। उसके ध्वज पर मत्स्य (मकर 'सर्वतोभद्र मण्डल' का निर्माण, उस पर कलश की अथवा मत्स्यकेतु) है, जो 'प्रजनन' का प्रतीक है। स्थापना, जिस पर एक नाग जिसके सात फण हों और अनङ्ग की एक दुसरी पौराणिक व्याख्या कालिदास के जो दर्भ का बना हो, रखा जाता है । इसके समक्ष १४ 'कुमारसंभव' काव्य में पायी जाती है। कामदेव पहले गाँठों से युक्त डोरक रखा जाता है। कलश के ऊपर अङ्गवान् (सशरीर) था । शिव को जीतने के लिए पार्वती डोरक की पौराणिक मन्त्रों एवं पुरुषसूक्त के पाठ के साथ के समक्ष जब वह अपना बाण उन पर छोड़ना चाहता था, १६ उपचारों से पूजा की जाती है। डोरक के चतुर्दश तब शिव के तीसरे नेत्र की क्रोधाग्नि से वह जलकर भस्म देवता, विष्णु से लेकर वसु तक, जगाये जाते हैं। फिर हो गया : अङ्गों की पूजा की जाती है, जो पाद से आरम्भ होकर क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति। ऊपर तक पहुँचती है । मन्त्र यह है : 'अनन्ताय नमः पादौ तावहि वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार ।। पूजयामि' । फिर एक अञ्जलि पुष्प विष्णु के मन्त्र के साथ इसके पश्चात् मदन (कामदेव) अनङ्ग (शरीररहित) हो । चढ़ाये जाते हैं। फिर अनन्त की प्रार्थना सहित 'डोरक' गया । परन्तु उसकी शक्ति पहले से अधिक हो गयी। वह को बाहु पर बाँधना, पुराने 'डोरक' को त्यागना आदि अब सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गया । क्रियाएं की जाती हैं। अनङ्गत्रयोदशी-(१) मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी से प्रारम्भ इस व्रत में नमक का परित्याग करना पड़ता है। कर एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। इसमें शम्भु विश्वास किया जाता है कि इस व्रत को १४ वर्ष करने से की पूजा होती है, उनको पञ्चामृत से स्नान कराया जाता 'विष्णुलोक' की प्राप्ति होती है। है । अनङ्ग को शिवजी का स्वरूप माना जाता है और अनन्तज्ञान-गौतमलिखित 'पितमेधसूत्र' पर अनन्तज्ञान भिन्न-भिन्न नामों से, भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा नैवेद्य से ने टीका लिखी है। कुछ विद्वानों के अनुसार ये गौतम उसका भी पूजन किया जाता है ।। न्यायसूत्र के रचने वाले महर्षि गौतम ही हैं। (२) किसी आचार्य के अनुसार चैत्र और भाद्र शुक्ल अनन्त तृतीया-भाद्रपद, वैशाख अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को यह व्रत होता है। एक बार अथवा वर्ष भर को तृतीया से प्रारम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इसका व्रत प्रत्येक मास बारह भिन्न-भिन्न नामों से चित्रफलक पर। किया जाता है। प्रत्येक मास में विभिन्न पुष्पों से गौरीपूजा होती है। दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड, २. ८-९; पूजन होता है। दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड, ४२२-४२६; पुरुषार्थचिन्तामणि, २२३; निर्णय सिन्धु, ८८। पद्मपुराण; कृत्यरत्नाकर, २६५-२७० । अनङ्गदानव्रत-वेश्या के लिए हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु अनन्त द्वादशी-इसके व्रत में भाद्र शुक्ल द्वादशी से प्रारम्भ नक्षत्र युक्त रविवासरीय व्रत । इसमें विष्णु तथा कामदेव कर एक वर्ष पर्यन्त हरिपूजा की जाती है। दे० विष्णुका पूजन होता है। दे० कामदेव की स्तुति के लिए धर्मोत्तर पुराण, ३-२१४-१-५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड १, आपस्तम्बस्मृति, श्लोक १३; मत्स्यपुराण, अध्याय ७० १२००-१२०१ (विष्णुरहस्य)। पद्मपुराण, २३, ७४. १४६ ।। अनन्तदेव-जीवनकाल १७वीं शताब्दी । इनके पिता अनन्त-जिसका विनाश और अन्त नहीं होता। इसका 'आपदेव' थे जिन्होंने 'मीमांसान्यायप्रकाश' (दूसरा नाम पर्याय शेष भी है । बलदेव को भी अनन्त कहा गया है। आपोदेवी) की रचना की थी। अनन्तदेव रचित 'स्मृतिअव्यक्त प्रकृति का नाम भी अनन्त है, जिस पर विष्णु कौस्तुभ' प्रकरण ग्रन्थ है, जो मीमांसा के सिद्धान्तों का भगवान शयन करते हैं । इसीलिए उनको 'अनन्तशायी' प्रयोग बतलाता है। देश के विभिन्न भागों में इस ग्रन्थ भी कहते हैं। का प्रचार है। अनन्तचतुर्दशी-भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी । भविष्य पुराण के अनन्तदेव (भाष्यकार)-'वाजसनेयी संहिता' के भाष्यकारों अनुसार इसका व्रत १४ वर्ष तक करना चाहिए । अग्नि- में अनन्तदेव भी एक हैं। पुराण, भविष्योत्तर पुराण एवं तिथितत्त्व आदि में अनन्त- अनन्तनाग-कश्मीर का एक तीर्थ, जो पहलगाँव से सात पूजा का विवरण है। पूजा में सर्वप्रथम संकल्प, फिर मील पर स्थित है। यहाँ डाकबंगला है किन्तु मेले के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जनन्तफला सप्तमी-अनशन दिनों में भीड़ अधिक होती है। उस समय तम्बू लगाकर दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २, पृष्ठ ६६७-६७१; विष्णुधर्मात्तर ठहरना पड़ता है। तम्बू पहलगांव से किराये पर ले पुराण १७३, १-३० । जाना होता है। आगे चन्दनवाड़ी से शेषनाग की तीन अनन्ताचार्य-ये यादवगिरि के समीप मेलकोट में रहते थे मील कड़ी चढ़ाई है । शेषनाग झील का सौन्दर्य अद्भुत है। तथा 'श्रुतप्रकाशिका' के रचयिता सुदर्शनसूरि के पश्चात् अनन्तफला सप्तमी-इस व्रत में भाद्र शुक्ल सप्तमी से लगभग सोलहवीं शताब्दी में हुए थे। इन्होंने अपने ग्रन्थ प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का पूजन किया जाता है। 'ब्रह्मलक्षण निरूपण' में 'श्रुतप्रकाशिका' का उल्लेख किया दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड १, ७४१; भविष्यपुराण; कृत्य है। इन्होंने रामानुज मत का समर्थन करने के लिए बहत कल्पतरु; व्रतकाण्ड १४८-१४९ । से ग्रन्थों की रचना कर अक्षय कीर्ति का अर्जन किया। इनके ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-ज्ञानयथार्थवाद, अनन्त मिश्र-उड़िया भाषा में महाभारत का भाषान्तर करने वाले लोकप्रिय विद्वान् । आज से एक हजार वर्ष प्रतिज्ञावादार्थ, ब्रह्मपदशक्तिवाद, ब्रह्मलक्षणनिरूपण, विषयतावाद, मोक्षकारणतावाद, शरीरवाद, शास्त्रारम्भपहले लोगों को यह आवश्यकता प्रतीत हो चुकी थी कि समर्थन, शास्त्रक्यवाद, संविदेकत्वानुमाननिरासवादार्थ, सद्धर्म एवं सदाचार तथा ज्ञान-विज्ञान की जो विधि संस्कृत समासवाद, समानाधिकरणवाद और सिद्धान्तसिद्धाञ्जन । में निहित है उसे उस काल की प्राकृत भाषाओं में जनता इन सब ग्रन्थों से आचार्य की दार्शनिकता एवं पाण्डित्य के लिए सुलभ बनाया जाय । यह काम भारत में सर्वत्र ___ का पूरा परिचय मिलता है। होने लगा। इस आन्दोलन के फलस्वरूप तमिल, तेलुगु, अनन्दानवमी व्रत-इस व्रत में फाल्गुन शुक्ल नवमी से कन्नड़, मलयालम, बँगला, मराठी आदि भाषाओं में प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त देवी-पूजा की जाती है । दे० संस्कृतग्रन्थों का अनुवाद हुआ। उड़िया प्राकृत में महा कृत्यकल्पतरु; व्रतकाण्ड, २९९-३०१; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, भारत का रूपान्तर कई लेखकों ने किया। इनमें अनन्त १, ९४८-९५० । मिश्र एक प्रसिद्ध भाषान्तरकार थे। अनन्य-(१) परमात्मा अथवा विश्वजनीन चेतना से व्यक्तिअनन्त व्रत- अनन्त देवता का व्रत । भाद्रपद की शुक्ल गत आत्मा के अभेद के सिद्धान्त को अनन्यता कहते हैं । चतुर्दशी को अनन्तदेव का व्रत करना चाहिए । माहात्म्य (२) यह भक्ति का भी एक प्रकार है, जिसके अनुसार निम्नाङ्कित है : भक्त एक भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी पर अवलम्बित अनन्तव्रतमेतद्धि सर्वपापहरं शुभम् । नहीं होता है। सर्वकामप्रदं नृणां स्त्रीणाञ्चैव युधिष्ठिर ।। अनन्यानुभव-एक सिद्ध संन्यासी महात्मा। इनका जीवनतथा शुक्लचतुर्दश्यां मासि भाद्रपदे भवेत । काल दसवीं शताब्दी के पश्चात् तथा तेरट वीं शताब्दी के तस्यानुष्ठानमात्रेण सर्वपापं प्रणश्यति । पहले माना जा सकता है। इनको ब्रह्म साक्षात्कार हुआ [ यह अनन्त व्रत सब पापों का विनाश करने वाला था-ऐसा इनके शिष्य प्रकाशात्मयति के अद्वैतवादी ग्रन्थ तथा शुभ है । हे युधिष्ठिर ! यह पुरुषों तथा स्त्रियों को ‘पञ्चपादिका-विवरण' से ज्ञात होता है। प्रकाशात्मयति सब कामों की सिद्धि देता है। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की ने लिखा है कि गुरु से ब्रह्मविद्या प्राप्त करके ग्रन्थचतुर्दशी को व्रत करने मात्र से सब पाप नष्ट हो रचना की है। जाते हैं । अनकं व्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को यह ऋतुव्रत एक अन्य मतानुसार यह मार्गशीर्ष मास में तब प्रारम्भ किया जाता है। इसका अनुष्ठान दो ऋतुओं (हेमन्त तथा किया जाता है , जिस दिन मृगशिरा नक्षत्र हो। एक वर्ष शिशिर) में होता है। इसमें केशवपूजा की जाती है । 'ओं पर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। प्रत्येक मास में भिन्न नमः केशवाय' मन्त्र का १०८ बार जप किया जाता है। भिन्न नक्षत्रानुसार पूजन होता है। यथा, पौष में पुष्य दे० हेमाद्रि, वतखण्ड, २, ८३९-४२; विष्णुरहस्य । नक्षत्र में तथा माघ में मघा नक्षत्र में । इसी तरह अन्य अनशन-(१) भोजन का अभाव, इसे उपवास भी कहते मासों में भी समझना चाहिए। यह व्रत पुत्रदायक है। हैं। यह एक धार्मिक क्रिया है जो शरीर और मन की Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनसूया-अनिरुद्ध २९ शुद्धि के लिए की जाती है। व्रत अथवा अनुष्ठान में अनशन किया जाता है। बहुत-से लोग मरने के कुछ दिन पूर्व से अनशन करते हैं। मरणान्त अनशन को 'प्रायोपवेशन' भी कहते हैं । यह जैन सम्प्रदाय में अधिक प्रचलित है। (२) पुरुषसूक्त के चौथे मन्त्र में (ततो विश्वङ् व्यक्रामत्, अर्थात् यह नाना प्रकार का जगत् उसी पुरुष के सामर्थ्य उत्पन्न हआ है) इस शब्द का उल्लेख है एवं इस जगत के दो विभाग किये गये हैं : 'साशन' (चेतन) जो भोजनादि के लिए चेष्टा करता है और जीव से युक्त है और दूसरा 'अनशन' (जड़) जो अपने भोजन के लिए चेष्टा नहीं सोना करता और स्वयं दूसरे का अशन (भोजन) है। (३) आजकल राजनीतिक अथवा सामाजिक साधन के रूप में भी इसका उपयोग होता है । अपनी बात अथवा आग्रह मनवाने के जब अन्य साधन असफल हो जाते हैं तब इसका प्रयोग किया जाता है। अनसूया-(१) एक धार्मिक गुण, असूया का अभाव । इसका लक्षण बृहस्पति ने दिया है : न गुणान् गुणिनो हन्ति स्तौति मन्दगुणानपि । नान्यदोषेषु रमते सानसूया प्रकीर्तिता ॥ (एकादशी तत्त्व) [ गुणियों के गुणों का विरोध न करना, अल्प गुण वालों की भी प्रशंसा करना, दूसरों के दोषों को न देखना अनसूया है।] (२) अत्रि मुनि की पत्नी का नाम भी अनसूया है। भागवत के अनुसार ये कर्दम मुनि की कन्या थीं। वाल्मीकिरामायण में सीता और अनसूया का अत्रि-आश्रम में संवाद पाया जाता है। अन्नकूटोत्सव-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा या द्वितीया को यह उत्सव मनाया जाता है। यह गोवर्धन पूजन का ही एक अङ्ग है । इस दिन मिष्ठान्न अथवा विविध पकवानों का कूट (पर्वत) प्रस्तुत कर उसका भगवान् को समर्पण किया जाता है। अनादि-आदिरहित (अन् + आदि) । प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि कहा गया है : प्रकृति पुरुषञ्चैव विद्धयनादी उभावपि । (गीता) अनामा (अनामिका)-ब्रह्मा का सिर छेदन कर देने पर भी जिसका नाम निन्दित नहीं है उसे अनामा कहते हैं। पुराणों के अनुसार इस अंगलि से शिव ने ब्रह्मा का शिरश्छेद किया था। यह पवित्र मानी जाती है, धार्मिक कृत्य करते समय इसी अंगुलि में पवित्री धारण की जाती है। अनाहत-(१) जिस वस्त्र का खण्ड, धुलना और भोग नहीं हुआ है, कोरा । धार्मिक कृत्यों में ऐसे ही वस्त्र को धारण करने का विधान है। (२) तन्त्रोक्त छः चक्रों के अन्तर्गत चतुर्थ चक्र, जो हृदय में स्थित, क से लेकर ठ तक के वर्षों से युक्त, उदित होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान, बारह पंखुड़ियों वाले कमल के आकार वाला, मध्य में हजारों सूर्यों के तुल्य प्रकाशमान और ब्रह्मध्वनि से शब्दायमान है : शब्दो ब्रह्ममयः शब्दोऽनाहतो यत्र दृश्यते । अनाहताख्यं तत्पद्मं मुनिभिः परिकीर्तितम् ।। [ जहाँ पर शब्द ब्रह्ममय है और अनाहत दिखाई देता है, उस पद्म को मुनियों ने अनाहत कहा है। ] हठयोग में जब साधक कुण्डलिनी को जागृत कर उसे ऊर्ध्वमुखी कर लेता है, उसके उद्गमन के समय जो विस्फोट होता है वह नाद कहलाता है । यह नाद अनाहत रूप से समस्त विश्व में व्याप्त है। यह पिण्ड में भी वर्तमान रहता है, किन्तु मूढ अज्ञानी पुरुष उसको सुन नहीं सकता । जब हठयोग की क्रिया से सुषुम्ना नाड़ी का मार्ग खुल जाता है तब यह नाद सुनाई पड़ने लगता है जो कई प्रकार से सुनाई देता है, जैसे समुद्रगर्जन, मेघगर्जन, शङ्खध्वनि, घण्टाध्वनि, किङ्किणी, वंशी, भ्रमरगुञ्जन आदि । उपाधि युक्त होने के कारण यह नाद सात स्वरों में विभक्त हो जाता है, जिनके द्वारा जगत् के विविध शब्द सुनाई पड़ते हैं । यह निरुपाधि होकर 'प्रणव' अथवा 'ओंकार' का रूप धारण करता है । इसी को शब्दब्रह्म भी कहते हैं । सन्तों ने इसको 'सोहं' कहा है। अनिरुद्ध-(१) प्रद्युम्न (कामदेव) का पुत्र । इसका पर्याय है उषापति । यह भगवान् के चार व्यूहों के अन्तर्गत एक व्यूह है । इससे सृष्टि होती है : तमसो ब्रह्मसम्भूतं तमोमूलामृतात्मकम् । तद् विश्वभावसंज्ञान्तं पौरुषों तनुमाश्रितम् ।। सोऽनिरुद्ध इति प्रोक्तस्तत् प्रधानं प्रचक्षते । तदव्यक्तमिति ज्ञेयं त्रिगुणं नृपसत्तम ।। विद्यासहायवान् देवो विष्वक्सेनो हरिः प्रभुः । अप्स्वेव शयनञ्चक्रे निद्रायोगमुपागतः ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिरुद्धवृत्ति-अनीश्वरवाद (सांख्य का) जगतश्चिन्तयन् सृष्टि महानात्मगुणः स्मृतः ।। के शून्यतासिद्धान्त से यह मिलता-जुलता है । इसीलिए (महाभारत, मोक्षधर्म०) आचार्य शङ्कर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाने लगा। [ तमोगुण के द्वारा ब्रह्म से उत्पन्न, तमोगुण मूलक, अनिर्वचनीयतासर्वस्व-नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता अमृत से युक्त, विश्व नामक वह पुरुष के शरीर में स्थित श्रीहर्ष द्वारा रचित 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही अन्य है। उसे अनिरुद्ध कहते हैं। उससे त्रिगुणात्मक अव्यक्त ___ नाम 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है । इसमें अद्वैत वेदान्तमत के की उत्पत्ति हुई । विद्याओं के बल से युक्त देव विष्वक्सेन सिवा न्याय, सांख्य आदि सभी दर्शनों का खण्डन हुआ है, प्रभु हरि ने संसार के सर्जन की चिन्ता करते हए जल में विशेष कर उदयनाचार्य के न्यायमत का । स्वामी शङ्कराशयन किया और वे योगनिद्रा को प्राप्त हए। यह चार्य का मायावाद अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही महत्तत्त्व (बुद्धितत्त्व) आत्मा का गुण है।] अवलम्बित है। उनके सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण (२) महाभारत, मोक्षधर्म पर्व के नारायणीय खण्ड में व्यूह भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न भी नहीं है, अपितु अनिर्व(प्रसार) सिद्धान्त का वर्णन है। इस सिद्धान्त के अनुसार चनीय हैं। श्रीहर्ष ने खण्डनखण्डखाद्य में इस मत के वासुदेव (विष्णु) से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न सभी विपक्षों का बड़ी सफलता के साथ खण्डन किया है। से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा का उद्भव हुआ है। साथ ही जिन प्रमाणों द्वारा वे लोग अपना पक्ष सिद्ध संकर्षण तथा अन्य तीन का सांख्य दर्शन के अनुसार करते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन करते हुए सष्टितत्त्व के रूप में निरूपण होता है। वासूदेव को अप्रमेय, अद्वितीय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना उन्होंने परम सत्य (परमात्मा), संकर्षण को प्रकृति, प्रद्युम्न को की है। मनस, अनिरुद्ध को अहंकार एवं ब्रह्मा को पंचभतों के अनीश्वरवाद (सांख्य का)-योगदर्शनकार पतञ्जलि ने रूप में ग्रहण किया गया है। आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों यह कहना कठिन है कि इस सिद्धान्त के पीछे क्या का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे अर्थ छिपा है। वासुदेव कृष्ण हैं, बलराम या सकर्षण ही पचीस तत्त्व माने हैं जो सांख्यकार ने माने हैं । इसलिए योग एवं सांख्य दोनों दर्शन मोटे तौर पर एक ही समझे उनके भाई हैं, प्रद्युम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके पौत्र जाते हैं, किन्तु योगदर्शनकार ने कपिल की अपेक्षा एक हैं । हो सकता है कि ये तीनों देवों के रूप में पूजे जाते रहे हों और पीछे इनका सम्बन्ध कृष्ण से स्थापित कर और छब्बीसवाँ तत्त्व 'पुरुष विशेष' अथवा ईश्वर भी माना है । इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच व्यूह-सिद्धान्त का निर्माण कर लिया गया हो । ऐतिहासिक गये है। सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। पुरुषों के दैवीकरण का यह एक उदाहरण है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो अनिरुद्धवृत्ति-अनिरुद्ध रचित 'सांख्यसूत्रवृत्ति' का ही पहले से अस्तित्व में न हो । कारण का अर्थ केवल फल अन्य नाम 'अनिरुद्धवृत्ति' है। इसका रचनाकाल १५०० को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के ई० के लगभग है। रूप को व्यक्त करना है। परिणाम की उत्पत्ति केवल अनिर्वचनीय-निर्वचन के अयोग्य, अनिर्वाच्य अथवा कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके परमाणुओं की नयी वाक्यागम्य । वेदान्तसार में कथन है : व्यवस्था के कारण होती है। केवल कारण एवं परिणाम 'सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मक भावरूपं ज्ञान के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोविरोधि यत् किञ्चिदिति वदन्ति ।' वांछित फल प्राप्त होता है । कार्य सत् है, वह कारण में [सत्-असत् के द्वारा अकथनीय, त्रिगुणात्मक भावरूप, पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी ज्ञान का विरोधी जो कुछ है उसे अनिर्वचनीय कहते हैं।] परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में वेदान्त दर्शन में परमतत्त्व ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय तेल, पत्थर में मूर्ति, दूध में दही एवं दही में मक्खन । कहा गया है, जिसका निरूपण नहीं हो सकता। इस 'कारक व्यापार' केवल फल को आविर्भत करता है, जो सिद्धान्त को अनिर्वचनीयतावाद कहते हैं। माध्यमिक बौद्धी पहले तिरोहित था। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका-अनुपदसूत्र सांख्यमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) का उल्लेख संहिता में नहीं है, परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों में है। होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते) । प्रकृति तो जड़ है। अनुक्रमणी-वैदिक साहित्य के अन्तर्गत एक तरह का ग्रन्थ । इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान इससे छन्द, देवता और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि का पर्यायक्रम नहीं है । तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें से पता लगता है। ऋक्संहिता की अनुक्रमणियाँ अनेक कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा है जिनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यातो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण यन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हीं दो रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता कैसे हो पर बहुत विस्तृत एवं सुलिखित टीकाए हैं। एक टीका सकता है ? इसलिए प्रकृति की प्रवृत्ति के लिए सर्वज्ञ कार का नाम षड्गुरुशिष्य है। यह पर अधिष्ठाता ईश्वर मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से वास्तविक नाम क्या था और इन्होंने कब यह ग्रन्थ लिखा। ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अनुगीता-महाभारत में श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर वह अपने वास्ते, या अनुगीता भी पायी जाती है। यह गीता का सीधा अनुदूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा ? बुद्धिमान् पुरुष की करण है। इसके परिच्छेदों में अध्यात्म सम्बन्धी विज्ञान प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए संभव है, अन्य के की कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होती, किन्तु शेष, लिए नहीं । यदि कहें कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी विष्णु, ब्रह्मा आदि के पौराणिक चित्रों के दर्शन यहाँ होते हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि सृष्टि से हैं। विष्णु के छः अवतारों-वराह, नसिंह, वामन, पहले कोई प्राणी नही था, फिर किसके दुःख को देखकर मत्स्य, राम एवं कृष्ण का भी वर्णन पाया जाता है। करुणा हुई होगी? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर अनग्रह-शिव की कृपा का नाम । पाशुपत सिद्धान्तानुसार सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दुःखी पशु (जीव) पाश (बन्धन) में बँधा हुआ है। यह पाश नहीं । पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की तीन प्रकार का है-आणव (अज्ञान), कर्म (कार्य के परिसृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें कि जीवों के __णाम) और माया (जो इस सृष्टि के स्वरूप का कारण कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म है) । शाङ्कर मत में जो माया वणित है उससे यह माया की प्रधानता हई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन भिन्न है। यहाँ दश्य जगत के यथार्थ प्रभाव को दर्शाने. की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं । इस सत्य को ढंकने एवं धोखा देने के अर्थ में यह प्रयुक्त हुई है । प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई इन बन्धनों में जकड़ा हुआ पशु सीमित है, अपने शरीर प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः उसकी सिद्धि नहीं हो (आवरण) से घिरा हुआ है । 'शक्ति' इन सभी बन्धनों में सकती (ईश्वरासिद्धेः)। व्याप्त है और इसी के माध्यम से पति का आत्मा को अनुक्रमणिका (कात्यायन की)-वेदों के विषयगत विभाजन अन्धकार में रखने का व्यापार चलता है। शक्ति का को अनुक्रमणिका कहा जाता है । ऋग्वेद का दस मण्डलों व्यापकत्व पति की दया अथवा अनुग्रह में भी है। इस में विभाजन ऐतरेय आरण्यक और आश्वलायन तथा अनुग्रह से ही क्रमशः बन्धन कटते हैं तथा आत्मा की मुक्ति शांखायन के गृह्यसूत्रों में सबसे पहले देखने में आता है। होती है। कात्यायन को अनुक्रमणिका में मण्डल विभाजन का उल्लेख अनुपदसूत्र (चतुर्थ साम)-इस ग्रन्थ में दस प्रपाठक हैं। नहीं है । कात्यायन ने दूसरे प्रकार के विभाजन का अनु- इन सूत्रों का संग्रहकार ज्ञात नहीं है। पञ्चविंश ब्राह्मण सरण करके अष्टकों और अध्यायों में ऋग्वेद को विभक्त के बहुत-से दुर्बोध वाक्यों की इसमे व्याख्या की गयी है। माना है। इसमें षड्विंश ब्राह्मण की भी चर्चा है। इस ग्रन्थ से अनुक्रमणिका और संहिता-अनुक्रमणिका में संहिता बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्री और प्राचीन ग्रन्थों के नाम और ब्राह्मणग्रन्थों में कोई भेद नहीं किया गया है । किसी- भी ज्ञात होते हैं। जान पड़ता है कि इसके अतिरिक्त किसी शाखा में जिन बातों का उल्लेख संहिता में नहीं है, स्वतन्त्र रूप से सामवेद के श्रौतसूत्रों के कई ग्रन्थ सगृहीत ब्राह्मणग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। जैसे, नरमेध यज्ञ हुए थे। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अनुपातक-अ(नु)णुभाष्य अनुपातक-जो कृत्य निम्न मार्ग की और प्रेरित करता है (२२) पुत्र की असवर्ण जाति वाली स्त्री के साथ गमन । वह पाप है । उसके समान कर्म अनुपातक हैं । वेदनिन्दा [ये छः विमातृ-गमन के समान हैं।] आदि से उत्पन्न पाप को भी अनुपातक कहते हैं । उन (२३) माता की बहिन के साथ गमन । पापों की गणना विष्णुस्मृति में की गयी है। यज्ञ में (२४) पिता की बहिन के साथ गमन । दीक्षित क्षत्रिय अथवा वैश्य, रजस्वला, गर्भवती, अवि- (२५) सास के साथ गमन । ज्ञातगर्भ एवं शरणागत का वध करना ब्रह्महत्या के अनु- (२६) मामी के साथ गमन । पातक माने गये हैं। इनके अतिरिक्त ३५ प्रकार के अनु- (२७) शिष्य की स्त्री के साथ गमन । पातक होते हैं, यथा (२८) बहिन के साथ गमन । (१) उत्कर्ष में मिथ्यावचन कहना । यह दो प्रकार का (२९) आचार्य की भार्या के साथ गमन । है, आत्मगामी और निन्दा (असूया) पूर्वक परगामी।। (३०) शरणागत स्त्री के साथ गमन । (२) राजगामी पैशुन्य (शासक से किसी की चुगली (३१) रानी के साथ गमन । करना)। (३२) संन्यासिनी के साथ गमन । (३) पिता के मिथ्या दोष कहना। (३३) धात्री के साथ गमन । [ये तीनों ब्रह्महत्या के समान हैं।] (३४) साध्वी के साथ गमन । (४) वेद का त्याग (पढ़े हए वेद को भूल जाना तथा (३५) उत्कृष्ट वर्ण की स्त्री के साथ गमन । वेदनिन्दा)। [ये तेरह गुरु-पत्नी-गमन के समान अनुपातक हैं।] (५) झूठा साक्ष्य देना। यह दो प्रकार का है, ज्ञात वस्तु अनुब्राह्मणग्रन्य-ऐतरेय ब्राह्मण के पूर्व भाग में श्रीत को न कहना और असत्य कहना । विधियाँ हैं । उत्तर भाग में अन्य विधियाँ हैं। तैत्तिरीय (६) मित्र का वध । ब्राह्मण में भी ऐसी ही व्यवस्था देखी जाती है। उस के (७) ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य जाति के मित्र का वध ।। पहले भाग में श्रौत विधियाँ हैं। दूसरे में गृहमन्त्र एवं (८) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्द्य अन्न भक्षण करना। उपनिषद् भाग है। इस श्रेणीविभाग की कल्पना करने (९) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्दित छत्राक आदि का वालों के मत में साम-विधि का 'अनुब्राह्मण' नाम है । वे भक्षण करना। लोग कहते हैं कि पाणिनिसूत्र में अनुब्राह्मण का उल्लेख [ये छः मदिरा पीने से उत्पन्न पातक के समान हैं ।। है (४।२।६२) । किन्तु सायण की विभाग-कल्पना में अनु(१०) किसी की धरोहर का हरण । ब्राह्मण का उल्लेख नहीं है। साथ ही अनुब्राह्मण नाम के (११) मनुष्य का हरण । और किसी ग्रन्थ की कहीं चर्चा भी नहीं है । 'विधान' (१२) घोड़े का हरण । ग्रन्थों को 'अनुब्राह्मण ग्रन्थ' कहना सङ्गत जान पड़ता है। (१३) चाँदी का हरण । अनुभवानन्द-अद्वैतमत के प्रतिपादक वेदान्तकल्पतरु, शास्त्र(१४) भूमि का हरण । दर्पण, पञ्चपादिकादर्पण आदि के रचयिता आचार्य (१५) हीरे का हरण । अमलानन्द के ये गुरु थे। इनका जीवनकाल तेरहवीं (१६) मणि का हरण । शताब्दी है। ये सात सोने की चोरी के समान हैं। अ(न)णुभाष्य-ब्रह्मसूत्रों पर वल्लभाचार्य का रचा हुआ (१७) परिवार की स्त्री के साथ गमन । भाष्य । वल्लभाचार्य का मत शङ्कराचार्य एवं रामानुज से (१८) कुमारी-गमन । वहत अंशों में भिन्न तथा मध्वाचार्य के मत से मिलता-जुलता (१९) नीच कुल की स्त्री के साथ गमन । है । आचार्य वल्लभ के मत में जीव अणु और परमात्मा (२०) मित्र की स्त्री के साथ गमन । का सेवक है । प्रपञ्चभेद (जगत्) सत्य है। ब्रह्म ही जगत् (२१) अन्य वर्ण की स्त्री से उत्पन्न पुत्र की स्त्री के का निमित्त और उपादान कारण है । गोलोकाधिपति साथ गमन । श्री कृष्ण ही परब्रह्म हैं, वही जीव के सेव्य हैं। जीवात्मा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतिप्रकाश-अनुमान ३३ और परमात्मा दोनों शुद्ध हैं। इसी से इस मत का नाम मुख्य विषय प्रमाण है। प्रमा यथार्थ ज्ञान को कहते हैं । शुद्धाद्वैत पड़ा है । वल्लभ के मतानुसार सेवा द्विविध है- यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ फलरूपा एवं साधनरूपा। सर्वदा श्री कृष्ण की श्रवण-चिन्तन ज्ञान प्राप्त हो उसे प्रमाण कहते हैं । गौतम ने चार प्रमाण रूप मानसी सेवा फलरूपा एवं द्रव्यार्पण तथा शारीरिक माने है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । वस्तु सेवा साधनरूपा है । गोलोकस्थ परमानन्दसन्दोह श्री कृष्ण के साथ इन्द्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है को गोपीभाव से प्राप्त करके उनकी सेवा करना ही मोक्ष वह प्रत्यक्ष है। लिङ्ग-लिङ्गी के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न है । ('अनुभाष्य' नाम के लिए द्रष्टव्य 'अनुव्याख्यान' ।) ज्ञान को अनुमिति तथा उसके करण को अनुमान कहते हैं । अनुभूतिप्रकाश-माधवाचार्य अथवा स्वामी विद्यारण्य रचित जैसे, हमने बराबर देखा कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ 'अनुभतिप्रकाश' में उपनिषदों की आख्यायिकाएं श्लोक- आग रहती है। इसी को व्याप्ति-ज्ञान कहते हैं लो अनुबद्ध कर संग्रह की गयी हैं। यह चौदहवीं शताब्दी का मान की पहली सीढ़ी है। कहीं धुआँ देखा गया, जो आग ग्रन्थ है। का लिङ्ग (चिह्न) है और मन में ध्यान आ गया कि 'जिस अनुभूतिस्वरूपाचार्य-एक लोकप्रिय व्याकरण ग्रन्थकार। धुएं के साथ सदा आग रहती है वह यहाँ है-इसी को सरस्वतीप्रक्रिया नामक इनका लिखा 'सारस्वत' उप- परामर्श ज्ञान या 'व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता' कहते हैं। नामक ग्रन्थ पुराने पाठकों में अधिक प्रचलित रहा है। इसके अनन्तर यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हआ कि 'यहाँ सिद्धान्तचन्द्रिका इसकी टीका है । इसमें सात सौ सूत्र है। आग है' । अपने समझने के लिए तो उपर्युक्त तीन खण्ड कहते हैं कि सरस्वती के प्रसाद से यह ग्रन्थ इन आचार्य पर्याप्त हैं, परन्तु नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में को प्राप्त हुआ था। . ज्ञान कराना । इससे वे अनुमान के पाँच खण्ड करते हैं जो अनुमरण-पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी का मरण । पति 'अवयव' कहलाते हैं : के मर जाने पर उसकी खड़ाऊँ आदि लेकर जलती हुई (१) प्रतिज्ञा-साध्य का निर्देश करने वाला, अर्थात चिता में बैठ पत्नी द्वारा प्राण त्याग करना अनुमरण कह अनुमान से जो बात सिद्ध करनी है उसका वर्णन करने लाता है: वाला वाक्य-जैसे, 'यहाँ पर आग है'। (२) हेतुदेशान्तरमते पत्यौ साध्वी तत्पादुकाद्वयम् । जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है-जैसे, निधायोरसि संशुद्धा प्रविशेत् जातवेदसम् ।। 'क्योंकि यहाँ धुआँ है ।' (३) उदाहरण-सिद्ध की जाने (ब्रह्मपुराण) वाली वस्तु अपने चिह्न के साथ जहाँ देखी गयी है उसे [देशान्तर में पति के मृत हो जाने पर स्त्री उसकी बतलाने वाला वाक्य-जैसे, 'जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है दोनों खड़ाऊँ हृदय पर रखकर पवित्र हो अग्नि में प्रवेश वहाँ-वहाँ आग रहती है', जैसे, 'रसोईघर में।' करे।] (४) उपनय-जो वाक्य बतलाये हुए चिह्न या लिङ्ग का ब्राह्मणी के लिए अनुमरण वजित है : होना प्रकट करे-जैसे, 'यहाँ पर धुआँ है ।' (५) निगमन'पृथचिति समारुह्य न विप्रा गन्तुमर्हति ।' सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गयी, यह कथन । अतः [ब्राह्मणी को अलग चिता बनाकर नहीं मरना चाहिए।] अनुमान का पूरा रूप यों हुआउसके लिए सहमरण (मृत पति के साथ जलती हुई चिता १. यहाँ पर अग्नि है (प्रतिज्ञा)। में बैठकर मरण) विहित है २. क्योंकि यहाँ धुआँ है (हेतु)। भर्तीनुसरणं काले याः कुर्वन्ति तथाविधाः । ३. जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ अग्नि रहती कामात्क्रोधाद् भयान्मोहात् सर्वाः पूता भवन्ति ताः ।। है-जैसे रसोई घर में (उदाहरण) । [ जो समय पर विधिपूर्वक काम, क्रोध, भय अथवा ४. यहाँ पर धुआँ है (उपनय)। लोभ से पति के साथ सती होती है वे सब पवित्र हो५. इसलिए यहाँ पर अग्नि है (निगमन)। जाती हैं । ] दे० 'सती'। साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को 'न्याय' .. अनुमान-ज्ञान-साधन प्रमाणों में से एक । न्याय (तक) का कहते हैं। नवीन नैयायिक इन पांचों अवयवों का मानना Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुराधा-अनृत आवश्यक नहीं समझते। वे अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, अनुशिख--पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित नागयज्ञ के एक हेतु और दृष्टान्त इन्हीं तीनों को पर्याप्त समझते हैं। पोता (पुरोहित) का नाम । अनुराधा-अश्विनी से सत्रहवाँ नक्षत्र, जो विशाखा के अनुस्तरणी-प्राचीन हिन्दू शवयात्रा की विविध सामग्रियों बाद आता है। उसका रूप सर्पाकार सात ताराओं से युक्त के अन्तर्गत एक गौ । अनुस्तरणी गो बूढ़ी, बिना सींग की और अधिदेवता मित्र है। इस नक्षत्र में उत्पन्न शिशु के तथा बुरी आदतों वाली होनी चाहिए। जब यह गाय लक्षण निम्नोक्त हैं मृतक के पास लायी जाय तो मृतक के अनुचरों को तीन सत्कीर्तिकान्तिश्च सदोत्सवः स्यात् मुट्ठो धूल अपने कन्धों पर डालनी चाहिए। शवयात्रा में जेता रिपूणाञ्च कलाप्रवीणः । सर्वप्रथम गृह्य अग्नि का पात्र, फिर यज्ञ-अग्नि, फिर जलाने स्यात्सम्भवे यस्य किलानुराधा की सामग्री तथा उसके पीछे अनुस्तरणी गौ रहनी चाहिए सम्पत्प्रमोदौ विविधौ भवेताम् ।। और ठीक उसके पीछे मृत व्यक्ति विमान पर हो। फिर [जिसके जन्मकाल में अनुराधा नक्षत्र हो वह यशस्वी, सम्बन्धियों का दल आयु के क्रम से हो । चिता तैयार कान्तिमान्, सदा उत्सव से युक्त, शत्रुओं का विजेता, हो जाने पर इस गौ को शव के आगे लाते तथा उसको कलाओं में प्रवीण, सम्पत्तिशाली और अनेक प्रकार से मृतक के सम्बन्धी इस प्रकार घेर लेते थे कि सबसे छोटा प्रमोद करने वाला होता है।] पीछे और वय के क्रम से दूसरे आगे हों। फिर इस गाय का अनुलोम विवाह-उच्च वर्ण के वर तथा निम्न वर्ण की वध किया जाता या छोड़ दिया जाता था। मृतक ने जीवन में पशु यज्ञ नहीं किया है तो उसे छोड़ना ही उचित कन्या का विवाह । आजकल की अपेक्षा प्राचीन समाज अधिक उदार था। जातिबन्धन इतना जटिल नहीं था। होता था। क्रमशः छोड़ने के पूर्व गौ को अग्नि, चिता एवं विवाह अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकार के होते थे। शव की परिक्रमा कराते थे तथा कुछ मनों के पाठ के अनुलोम के विपरीत निम्न वर्ण के पुरुष का उच्च वर्ण की। साथ उसे मुक्त कर देते थे। कन्या से विवाह करना प्रतिलोम विवाह कहलाता था। अनुस्तोत्र सूत्र-ऋग्वेद के मन्त्र को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ आगे चलकर उत्तरोत्तर समाज में इस प्रकार के विवाह बन्द होते गये। इस प्रकार के सम्बन्ध से उत्पन्न सन्तान हैं । अनुस्तोत्र सूत्र उनमें से एक है । की गणना वर्णसंकर (मिश्र वण) में होती थी और समाज अनूचान-जिसने वेद का अनुवचन किया हो । विनयसम्पन्न के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। अङ्गों सहित वेदों के में वह नीची दृष्टि से देखा जाता था। ज्ञाता को भी अनूचान कहते हैं : अनुवाकानुक्रमणी--ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणियों में 'अनूचानो विनीतः स्याद साङ्गवेदविचक्षणः ।' से एक । यह शौनक की रची हुई है तथा इस पर षड्गुरुशिष्य द्वारा विस्तृत टीका लिखी गयी है। इदमूचुरनूचानाः प्रीतिकण्टकितत्वचः । अनुव्याख्यान-वेदान्तसूत्र पर लिखी गयी आचार्य मध्व (कुमारसम्भव) की दो प्रमुख रचनाओं में से एक। यह तेरहवीं शताब्दी [प्रेम से पुलकित शरीर वाले अनूचान ऋषियों ने ऐसा में रची गयी छन्दोबद्ध रचना है। कहा । ] मनु ने ने भी कहा है : अनुवजन--शिष्ट अभ्यागतों के वापस जाने के समय कुछ ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनूचानः स नो महान् । दूर तक उनके पीछे पीछे जाने का शिष्टाचार : [ऋषियों ने यह धर्म बनाया कि वेदज्ञ व्यक्ति हमसे 'आयान्तमग्रतो गच्छेद् गच्छन्तं तमनुव्रजेत् ।' श्रेष्ठ है।] (निगमकल्पद्रुम) अनृत-इसका शाब्दिक अर्थ है 'मिथ्या' अथवा 'झूठ'। कोई शिष्ट घर में आता हो तो उसकी अगवानी के जिस कर्म में असत्य अथवा हिंसा हो उसे भी अनूत कहते लिए आगे चलना चाहिए। वह जब वापस जा रहा हो। हैं। विवाह आदि पाँच कार्यों में झुठ बोलना पाप नहीं तो विदाई के लिए उसके पीछे जाना चाहिए। ] माना जाता है : * Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तःकरणप्रबोध-अन्त्यज विवाहकाले रतिसंप्रयोगे प्राणात्यये सर्वधनापहारे। विप्रस्य चार्थे ह्यनृतं वदेत पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ।। ( महाभारत, कर्णपर्व) [ यदि विवाह, रति, प्राण संकट, सम्पूर्ण धनापहरण के समय और ब्राहाण के अर्थ के लिए असत्य बोलो तो ये पाँच अनृत पाप में नहीं गिने जाते । ] अन्त:कथासंग्रह-भक्तिविषयक कथाओं का संग्रह ग्रन्थ । इसके रचयिता 'प्रवन्धकोष' के लेखक राजशेखर हैं। रचनाकाल है चौदहवीं शताब्दी का मध्य । अन्तःकरण-भीतर की ज्ञानेन्द्रिय । इसका पर्याय मन । है। कार्यभेद से इसके चार नाम हैं : मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तं करणमान्तरम् । संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी ।। (वेदान्तसार) [मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चार अन्तःकरण हैं। संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण ये चार क्रमशः इनके विषय हैं। इन सबको मिलाकर एक अन्तःकरण कहलाता है। पाँच महाभूतों में स्थित सूक्ष्म तन्मात्राओं के अंशों से अन्तःकरण बनता है। अन्तःकरणप्रबोध-वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलहवीं शताब्दी का एक पुष्टिमार्गीय दार्शनिक ग्रन्थ । अन्तक-यम का पर्याय, अन्त (विनाश) करने वाला । अन्तरात्मा--सर्वप्रथम उपनिषदों में आभ्यन्तरिक चेतन (आत्मा) के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका समानार्थी शब्द है 'अन्तर्यामी'। यह अतिरेकी सत्ता का दूसरा छोर है जो घट-बट में व्याप्त है। अन्तर्यामी--(१) 'श्रीसम्प्रदाय' भागवत सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। शङ्कराचार्य के वेदान्तसिद्धान्त का तिरस्कार करता हुआ यह मत उपनिषदों के प्राचीन ब्रह्मवाद पर विश्वास रखता है । इसके अनुसार सगुण भगवान् को वैष्णव लोग उपनिषदों के ब्रह्मतुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी में है तथा वह सभी अच्छे गुणों से युक्त है। सभी पदार्थ तथा आत्मा उसी से उत्पन्न हए हैं तथा वह अन्तर्यामी रूप में सभी वस्तुओं में व्याप्त है। (२) यह ईश्वर का एक विशेषण है। हृदय में स्थित होकर जो इन्द्रियों को उनके कार्य में लगाता है वह अन्तकमी है। 'वेदान्तसार' के अनुसार विशुद्ध सत्त्वप्रधान ज्ञान से उपहित चैतन्य अन्तर्यामी कहलाता है : अन्तराविश्य भूतानि यो बिभात्मकेतुभिः । अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम् ॥ [प्राणियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर जो अपने ज्ञानरूपी केतु के द्वारा उनकी रक्षा करता है, वह साक्षात् ईश्वर अन्तर्यामी है । वह हम लोगों की रक्षा करे, जिसके वश में पूरा संसार है।] अन्तेवासी-वेदाध्ययनार्थ गुरु के समीप रहने वाला छात्र । अन्तेवासी ब्रह्मचारी गुरुगृह में रहकर विद्याभ्यास करता था और उसके योग-क्षेम की पूरी व्यवस्था गुरु अथवा आचार्य को करनी पड़ती थी। छान्दोग्य उपनिषद् (२.२३.१) के अनुसार ब्रह्मचारी को अन्तेवासी की तरह गुरुगृह में रहना पड़ता था। रुचिसाम्य एवं बुद्धिवैचित्र्य में आचार्य के तुल्य हो जाने पर बहुत से ब्रह्मचारी गुरुगृह में आजीवन रह जाते थे। उन्हें गुरुसेवा, गुरु-आज्ञाओं का पालन, समिधा जुटाना, गौओं को चराना आदि काम करने पड़ते थे । अन्त्यज-अन्त्य में उत्पन्न । संस्कृत (सभ्य) उपनिवेशों के बाहर जंगली और पर्वतीय प्रदेशों को अन्त्य कहते थे और वहाँ बसने वालों को अन्त्यज । धीरे-धीरे समाज को निम्नतम जातियों में ये लोग मिलते जाते थे। इनमें से कुछ की गणना इस प्रकार है : रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च । कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते अन्त्यजाः स्मृताः ।। [ धोबी, चर्मकार, नट, वरुड, कैवर्त, मेद, भिल्ल ये सात अन्त्यज कहे गये हैं। आचार-विचार की पवित्रता के कारण अन्त्यज अस्पश्य भी माने जाते थे । इनके समाजीकरण का एक क्रम था, जिसके अनुसार इनका उत्थान होता था । सम्पर्क द्वारा पहले ये समाज में शूद्रवर्ण में प्रवेश पाते थे। शूद्र से सच्छद्र, सच्छद्र से वैश्य, वैश्य से क्षत्रिय और क्षत्रिय से ब्राह्मण-इस प्रकार अनेक पीढ़ियों में ब्राह्मण होने की प्रक्रिया वर्णोत्कर्ष के सिद्धान्त के अनुसार प्राचीन काल में मान्य थी। मध्ययुग में संकीर्णता तथा वर्जनशीलता के कारण इस प्रक्रिया में जड़ता आ गयी। अब नये ढंग से समतावादी सिद्धान्तों के आधार पर अन्त्यजों का समाजीकरण हो रहा है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्येष्टि-संस्कार अन्त्येष्टिसंस्कार-हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अंतिम संस्कार है, जिसके द्वारा मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अन्त्येष्टि का अर्थ है 'अंतिम यज्ञ' । दूसरे शब्दों में जीवन-यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। प्रथम पन्द्रह संस्कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए हैं। बौधायनपितृमेधसूत्र (३.१.४) में कहा गया है : 'जातसंस्कारेणेमं लोकमभिजयति मत- संस्कारेणा लोकम् ।' [जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृतकसंस्कार (अन्त्येष्टि) से परलोक को।] यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है । इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन (पितृमेध सूत्र, ३३) ने पुनः कहा है : जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात् । तस्माज्जाते न प्रहृष्येन्मृते च न विषीदेत् । अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति । तस्माज्जातं मृतञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतसः । [उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए । इसलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिये। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् कहीं चला जाता है। इसलिए बुद्धिमान को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।] तस्मान्मातरं पितरमाचार्य पत्नी पुतं शियमन्तेवासिनं पितृव्यं मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कुर्वन्ति ॥ [ इसलिए यदि मृत्यु हो ही जाय तो माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्वक उसका दाह करना चाहिए।] अत्येष्टिक्रिया की विधियाँ कालक्रम से बदलती रही हैं। पहले शव को वैसा ही छोड़ दिया जाता था या जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। बाद में उसे किसी वृक्ष की डाल से लटका देते थे। आगे चलकर समाधि (गाड़ने) की प्रथा चली । वैदिक काल में जब यज्ञ की प्रधानता हुई तो मृत शरीर भी यज्ञाग्नि द्वारा ही दग्ध होने लगा और दाहसंस्कार की प्रधानता हो गयी ('ये निखाता ये परोप्ता ये दग्धा ये चोद्धिताः'-अथर्ववेद, १८.२.३४) । हिन्दुओं में शव का दाह संस्कार ही बहुप्रचलित है, यद्यपि किन्हींकिन्हीं अवस्थाओं में अपवाद रूप से जल-प्रवाह और समाधि की प्रथा भी अभी जीवित है। सम्पूर्ण अन्त्येष्टिसंस्कार को निम्नांकित खण्डों में बाँटा जा सकता है : १. मृत्यु के आगमन के पूर्व की क्रिया क. सम्बन्धियों से अंतिम विदाई ख. दान-पुण्य ग. वैतरणी (गाय का दान) घ. मृत्यु की तैयारी २. प्राग-दाह के विधि-विधान ३. अर्थी ४. शवोत्थान ५. शवयात्रा ६. अनुस्तरणी (राजगवी : श्मशान की गाय) ७. दाह की तैयारी ८. विधवा का चितारोहण (कलि में वजित) ९. दाहयज्ञ १०. प्रत्यावर्तन (श्मशान से लौटना) ११. उदककर्म १२. शोकाों को सान्त्वना १३. अशौच (सामयिक छूत : अस्पृश्यता) १४. अस्थिसञ्चयन १५. शान्तिकर्म १६. श्मशान (अवशेष पर समाधिनिर्माण)। आजकल अवशेष का जलप्रवाह और उसके कुछ अंश का गङ्गा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाह होता है। १७. पिण्डदान ( मृत के प्रेत जीवन में उसके लिए भोजन-दान) १८. सपिण्डीकरण (पितृलोक में पितरों के साथ प्रेत को मिलाना)। यह क्रिया बारहवें दिन, तीन पक्ष के अन्त में अथवा एक वर्ष के अन्त में होती है । ऐसा विश्वास है कि प्रेत को पितृलोक में पहुँचने में एक वर्ष लगता है। असामयिक अथवा असाधारण स्थिति में मृत व्यक्तियों Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धक-अन्नम्भट्ट के अन्त्येष्टिसंस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ काशी में अन्नपूर्णा का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐसा विश्वास होती है। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गभिणी, है कि अन्नपूर्णा के आवास के कारण काशी में कोई नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ,प्रवासी व्यक्ति भूखा नहीं रहता।। और पतित के संस्कार विभिन्न विधियों से होते हैं। अन्नप्राशन-एक संस्कार, जिसमें शिशु को प्रथम बार अन्न हिन्दुओं में जीवच्छ्राद्ध की प्रथा भी प्रचलित है। चटाया जाता है । छठे अथवा आठवें महीने में बालक का, धार्मिक हिन्दू का विश्वास है कि सद्गति (स्वर्ग अथवा पाँचवें अथवा सातवें महीने में बालिका का अन्नप्राशन मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अन्त्येष्टिसंस्कार होता है । प्रायः इसी समय शिशु को दाँत निकलते हैं, जो आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि इस बात के द्योतक हैं कि अब वह ठोस अन्न खाकर पचा उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् सकता है । सुश्रुत (शारीर स्थान, १०.६४) के अनुसार छठे उसकी सविधि अन्त्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते- महीने में शिशु को लघु (हलका) तथा हित (पोषणकारी) जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला अन्न खिलाना चाहिए। मार्कण्डेय पुराण (वीरमित्रोदय, बनाकर उसका दाह होता है । शेष क्रियाएँ सामान्य रूप संस्कार काण्ड में उद्धृत) के अनुसार प्रथम बार शिशु को से होती है। बहुत से लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व मधु-घी से युक्त खीर सोने के पात्र में खिलाना चाहिए अपना जीवच्छ्राद्ध कर लेते हैं । (मध्वाज्यकनकोपेतं प्राशयेत् पायसन्तु तम् ।) । संभवतः अन्धक-(१) एक यदुवंशी व्यक्ति का नाम । यादवों के एक श्रीमन्तों के लिए यह विधान है। राजनीतिक गण का भी नाम अन्धक था । वृष्णिएक गण अन्नप्राशन संस्कार के दिन सबसे पहले यज्ञीय पदार्थ संघ था : वैदिक मन्त्रों के साथ पकाये जाते हैं । उनके तैयार होने पर अग्नि में एक आहुति निम्नांकित मन्त्र से डाली सुदंष्ट्र' च सुचारुञ्च कृष्णमित्यन्धकास्त्रयः । (हरिवंश) जाती है : [सुदंष्ट्र, सुचारु और कृष्ण ये तीन अन्धक गण के "देवताओं ने वाग्देवी को उत्पन्न किया है। उससे सदस्य कहे गये हैं । ] बहुसंख्यक पशु बोलते हैं। यह मधुर ध्वनि वाली अति (२) एक असुर का नाम, जिसका वध शिव ने किया प्रशंसित वाणी हमारे पास आये । स्वाहा था। (पारस्कर गृह्यसूत्र, १.१९.२) अन्धकरिपु-अन्धक दैत्य के शत्रु अर्थात् शिव । श्लेष द्वितीय आहति ऊर्जा (शक्ति) को दी जाती है : आदि अलंकारों में अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य, “आज हम ऊर्जा प्राप्त करें।" अग्नि, चन्द्रमा को भी अन्धकरिपु कहा गया है। इन आहुतियों के पश्चात् शिशु का पिता चार आहुतियाँ अन्नकूट-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट और गोवर्धन निम्नलिखित मन्त्र से अग्नि में छोड़ता है : पूजा होती है । घरों और देवालयों में छप्पन प्रकार (अनेकों "मैं उत्प्राण द्वारा भोजन का उपभोग कर सकँ, भाँति) के व्यञ्जन बनते हैं और उनका कूट (शिखर या स्वाहा ! अपान द्वारा भोजन का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! ढेर) भगवान् को भोग लगता है । यह त्यौहार भारतव्यापी नेत्रों द्वारा दृश्य पदार्थों का उपभोग कर सकू, स्वाहा ! है । दूसरे दिन यमद्वितीया होती है । यमद्वितीया को सबेरे श्रवणों द्वारा यश का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा !" चित्रगुप्तादि चौदह यमों की पूजा होती है। इसके बाद ही (पारस्कर गृह्यसूत्र, १.१९.३) बहिनों के घर भाइयों के भोजन करने की प्रथा भी है जो इसके पश्चात् 'हन्त' शब्द के साथ शिशु को भोजन कराया बहुत प्राचीन काल से चली आती है। जाता है। अन्नपूर्णा-शिव की एक पत्नी अथवा शक्ति, जो अपने अन्नम् भट्ट-न्याय-वैशेषिक का मिश्रित बालबोध ग्रन्थ उपासकों को अन्न देकर पोषित करती है। इसका रचनेवालों में अन्नम् भट्ट का नाम सादर लिया जाता है। शाब्दिक अर्थ है 'अन्न अथवा खाद्यसामग्री से पूर्ण ।' इनके द्वारा रचित ग्रन्थ 'तर्कसंग्रह' बहुत प्रसिद्ध है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अन्नमयकोण-अपर्णा अन्नमय कोष-उपनिषदों के अनुसार शरीर में आत्मतत्त्व अपराजितासप्तमी.-भाद्र शुक्ल सप्तमी को इसका व्रत प्रारम्भ पाँच आवरणों से आच्छादित है, जिन्हें 'पञ्चकोष' कहते किया जाता है। इसमें एक वर्ष तक सूर्य-पूजन होता है। हैं । ये है अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, भाद्र शुक्ल की सप्तमी को अपराजिता कहा जाता है । चतुर्थी विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष । यहाँ 'मय' का को एक समय भोजन पञ्चमी को रात्रि में भोजन तथा प्रयोग विकार अर्थ में किया गया है । अन्न (भुक्त पदार्थ) षष्ठी को उपवास करके सप्तमी को पारण होता है। दे० के विकार अथवा संयोग से बना हुआ कोष 'अन्नमय' कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, १३२-१३५, हेमाद्रि का व्रतकहलाता है । यह आत्मा का सबसे बाहरी आवरण है। खण्ड, ६६७-६६८।। पशु और अविकसित मानव भी, जो शरीर को ही आत्मा अपराजिता--युद्ध में अपराजिता अर्थात् दुर्गा । दशमी (विशेष मानता है, इसी धरातल पर जीता है। दे० 'कोष' तथा कर आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी) को अपराजिता की 'पञ्चकोष'। पूजा का विधान है: अन्नाद्य-अथर्ववेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में उद्धृत 'वाजपेय दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीयापराजिता । यज्ञ' एक प्रकार के राज्यारोहण का ही अङ्ग बताया गया मोक्षार्थ विजयार्थञ्च पूर्वोक्त विधिना नरैः ।। है। किन्तु इसके उद्देश्य के बारे में विविध मत है। इसके नवमी शेष युक्तायां दशम्यामपराजिता । विविध उद्देश्यों में से एक 'अन्नाद्य' है, जैसा कि शाङ्खायन ददाति विजयं देवी पूजिता जयवद्धिनी ।। के मत से प्रकट है। अधिक भोजन (अन्न) की इच्छा वाला मोक्ष अथवा विजय के लिए मनुष्य पूर्वोक्त विधि से इस यज्ञ को करता है । 'वाजपेय' का अर्थ उन्होंने भोजन दशमी के दिन अपराजिता देवी की अच्छे प्रकार से पूजा करे । वह दशमी नवमी से युक्त होनी चाहिए। इस पान माना है। प्रकार करने पर जय को बढ़ाने वाली देवी विजय प्रदान अन्यपूर्वा-जिसके पूर्व में अन्य है वह कन्या। वचन आदि के करती है । ] द्वारा एक को विवाहार्थ निश्चित किये जाने के बाद किसी अपराजिता दशमी--आश्विन शुक्ल दशमी को यह व्रत होता अन्य के साथ विवाहित स्त्री को अन्यपूर्वा कहते हैं। ये है । विशेषतः राजा के लिए इसका विधान है । हेमाद्रि तथा सात प्रकार की होती हैं : स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार श्री राम ने उसी दिन लंका पर सप्तपौनर्भवाः कन्या वर्जनीयाः कुलाधमाः । आक्रमण किया था। उस दिन श्रवण नक्षत्र था। इसमें वाचा दत्ता मनोदत्ता कृतकौतुकमङ्गला ॥ देवीपूजा होती है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, पृष्ठ ९६८ से उदकस्पर्शिता या च या च पाणिग्रहीतिका । ९७३। अग्नि परिगता या तु पुनभू प्रसवा च या ।। अपराधशत व्रत-मार्गशीर्ष द्वादशी से इसका प्रारम्भ होता इत्येताः काश्यपेनोक्ता दहन्ति कुलमग्निवत् ।। है। इसमें विष्णु की पूजा होती है। सौ अपराधों की (उद्वाहतत्त्व) गणना भविष्योत्तर पुराण (१४६.६-२१) में पायी जाती सात पुनर्भवा कन्याएँ कुल में अधम मानी गयी हैं। है। उपर्युक्त अपराध इस व्रत से नष्ट हो जाते हैं। इनके साथ विवाह नहीं करना चाहिए । वचन से, मन से, अपरोक्षानभति--(१) बिना किसी बौद्धिक माध्यम के विवाह मङ्गल रचाकर, जलस्पर्श पूर्वक, हाथ पकड़ कर, साक्षात् ब्रह्मज्ञान हो जाने को ही अपरोक्षानुभूति कहते हैं। अग्नि की प्रदक्षिणा करके पहले किसी को दी गयी तथा (२) 'अपरोक्षानुभूति' शङ्कराचार्य के लिखे फुटकर एक पति को छोड़कर दुबारा विवाह करने वाली स्त्री से ग्रन्थों में से एक है। इस पर माधवाचार्य ने बहुत सुन्दर उत्पन्न कन्या-ये अग्नि के समान कूल को जला देती टीका लिखी है जिसका नाम अपरोक्षानुभूतिप्रकाश है। हैं । ऐसा काश्यप ने कहा है। अपर्णा-जिसने तपस्या के समय में पत्ते भी नहीं खाये, अन्वयार्थप्रकाशिका-यह 'संक्षेप शारीरक' के ऊपर स्वामी ___वह पार्वती अपर्णा कही गयी है । यह दुर्गा का ही पर्याय है : रामतीर्थ लिखित टीका है। इसका रचनाकाल सत्रहवीं स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता शताब्दी है। परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तः-कथासंग्रह - अन्त्यज तदप्यपाकीर्णमितः प्रियंवदाम् । वयस्थपर्णेति च तां पुराविदः ॥ ( कुमारसम्भव ) [स्वयं गिरे हुए पत्तों का भक्षण करना, यह तपस्वियों के लिए तपस्या की अन्तिम सीमा है। किन्तु पार्वती ने उन गिरे हुए पत्तों का भी भक्षण नहीं किया। अतः उसे विद्वान् लोग अपर्णा कहते हैं ।] अपवर्ग - ( १ ) संसार से मुक्ति मानवजीवन के चार पुरुषार्थी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से अन्तिम गोक्ष अपवर्ग कहलाता है । (२) इसका एक अर्थ फलप्राप्ति वा समाप्ति भी है: क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः । (किरातार्जुनीय) [क्रिया की सफल समाप्ति हो जाने पर पुरस्कार रूप में सेवकों को दी गयी सम्पत्ति दुर्योधन की कृतज्ञता को प्रकट करती है ।] अपविद्धधर्मशास्त्र में वर्णित वारह प्रकार के पुत्रों में एक स्मृतियों ने इसकी स्थिति एवं अधिकार के बारे में प्रकाश डाला है । मनु ( ९.१७१) कहते हैं कि अविपद्ध अपने माता-पिता द्वारा त्यागा हुआ पुत्र है। मनु के पुराने भाष्यकार मेधातिथि का कथन है कि इस पुत्रत्याग का कारण परिवार की अधिक गिरी दशा अथवा पुत्र के द्वारा किया हुआ कोई जघन्य अपराध होता था। ऐसे त्यागे हुए बालक पर द्रवित हो यदि कोई उसे पालता था तो उसका स्थान दूसरी श्रेणी के पुत्रों जैसा घटकर होता था। आजकल का पालित पुत्र उन्हीं प्राचीन प्रयोगों की स्मृति दिलाता है। अपात्र -- दान देने के लिए अयोग्य व्यक्ति । इसको कुपात्र अथवा असत्पात्र भी कहते हैं : 'अपात्रे पातयेद्दत्तं सुवर्णं नरकार्णवे' ( मलमास तत्त्व ) [ अपात्र को दिया गया सुवर्णदान दाता को नरकरूपी समुद्र में गिरा देता है ।] अपापसङ्क्रान्ति व्रत -- यह व्रत संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है । इसके देवता सूर्य हैं । इसमें श्वेत तिल का समर्पण किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.७२८-७४० । ३९ अपुनर्भव- पुनर्जन्म न होने की स्थिति इसको मुक्ति, कैवल्य अथवा पुनर्जन्म का अभाव भी कहते हैं । मानव के चार पुरुषार्थी - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यह अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । अपूर्व जो यज्ञादिक क्रियाएं की जाती है, शास्त्रों में उनके बहुत से फल भी बतलाये गये हैं। किन्तु ये फल क्रिया के अन्त के साथ ही दृष्टिगोचर नहीं होते कृत कर्म आत्मा में उस अदृश्य शक्ति को उत्पन्न करते हैं जो समय आने पर वेदविहित फल देती है । इस विचार की व्याख्या करते पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि धर्म आत्मा में अपूर्व नामक गुण उत्पन्न करता है जो स्वर्गीय सुख एवं मोक्ष का कारण है। कर्म और उसके फल के बीच में अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है। विशेष विवरण के लिए दे० 'मीमांसादर्शन' | अपवान वेद (यमप्नवानो भगवो विरुरुचुः ॥४.७.१) में अप्नवान का उल्लेख भृगुओं के साथ हुआ है। लुडविग अप्नवान के भृगुकुल में उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं। -- अप्पण्णाचार्य - एक प्रसिद्ध वेदान्ती टीकाकार। तैत्तिरीयो पनिषद् के बहुत से भाष्य एवं वृत्तियां हैं। इनमें शरा चार्य का भाष्य तो प्रसिद्ध है ही; आनन्दतीर्थ, रङ्गरामानुज, सायणाचार्य ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं । अप्पण्णाचार्य, व्यासतीर्थ और श्रीनिवासाचार्य ने आनन्दतीर्थकृत भाष्य की टीका की है। अप्पय दीक्षित - स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित अद्वैत सम्प्रदाय की परम्परा में जो उच्च कोटि के विद्वान् हुए हैं उनमें अप्पय दीक्षित भी बहुत प्रसिद्ध है। विद्वत्ता की दृष्टि से इन्हें वाचस्पति मिश्र, श्रीहर्ष एवं मधुसूदन सरस्वती के समकक्ष रखा जा सकता है । ये एक साथ ही आलङ्कारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक थे । इन्हें 'सर्वतन्त्र स्वतन्त्र' कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी । इनका जीवन काल सं० १६०८-१६८० वि० है । इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरि थे । ऐसे पण्डितों का वंशधर होने के कारण इनमें अजूत अद्भुत प्रतिभा का विकास होना स्वाभाविक ही था । पिता और पितामह के संस्कारानुसार इन्हें अद्वैतमत की शिक्षा मिली थी। तवापि ये परम शिवभक्त थे। अतः सिद्धान्त के लिए ग्रन्थ रचना करने में भी इनकी रुचि थी । तदनुसार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अथर्ववेद इन्होंने 'शिवतत्त्वविवेक' आदि पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की मत) १८. नियमयूथमालिका (श्रीकण्ठमत) १९. शिवार्करचना की। इसी समय नमर्दा तीरनिवासी नृसिंहाश्रम मणिदीपिका २०. रत्नत्रयपरीक्षा (शैवमत) २१. मणिस्वामीने इन्हें अपने पिता के सिद्धान्त का अनुसरण करने मालिका २२. शिखरिणीमाला २३. शिवतत्त्वविवेक के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने शिवतर्कस्तव २५. ब्रह्मतर्कस्तव २६. शिवार्चनचन्द्रिका परिमल, न्यायरक्षामणि एवं सिद्धान्तलेश नामक ग्रन्थों २७. शिवध्यानपद्धति २८. आदित्यस्तवरत्न २९. की रचना की। मध्वतन्त्रमुखमर्दन ३०. यादवाभ्युदय व्याख्या। इसके अप्पय दीक्षित अपने पितामह के समान ही विजयनगर अतिरिक्त शिवकर्णामृत, रामायणतात्पर्यसंग्रह, शिवाद्वैतके राजाओं के सभापण्डित थे। कुछ काल तक भट्टोजि विनिर्णय, पञ्चरत्नस्तव और उसकी व्याख्या, शिवानन्ददीक्षित के साथ इन्होंने काशी में निवास किया था । अप्पय लहरी, दुर्गाचन्द्रकलास्तुति और उसकी व्याख्या, कृष्णदीक्षित शिवभक्त थे एवं भट्रोजि वैण्णव, तो भी दोनों का ध्यानपद्धति और उसकी व्याख्या तथा आत्मार्पण आदि सम्बन्ध अतिमधुर था । दोनों ही शास्त्रज्ञ थे । अतः उनकी निबन्ध भी इनकी उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। दृष्टि में वस्तुतः शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं था। अप्पर-सातवीं, आठवीं तथा नवीं शताब्दियों में तमिल शिवभक्त होते हुए भी इनकी रचनाओं में विष्णुभक्ति का प्रदेश में शैव कवियों का अच्छा प्रचार था। सबसे पहले प्रमाण मिलता है। कई स्थानों पर इन्होंने भक्तिभाव से तीन के नाम आते हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से वैष्णव आलविष्णु की वन्दना की है। वारों के समानान्तर ही समझे जा सकते हैं। इन्हें इनके ग्रन्थों से सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता दूसरे धार्मिक नेताओं की तरह 'नयनार' कहते हैं, किन्तु है। मीमांसा के तो ये धुरन्धर पण्डित थे। इनकी अलग से उन्हें 'तीन' की संज्ञा से जाना जाता है। उनके 'शिवार्कमणिदीपिका' नाम की पुस्तक में इनका मीमांसा, नाम है-नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति । पहले न्याय, व्याकरण एवं अलङ्कार शास्त्र सम्बन्धी प्रगाढ़ दो का उद्भव सप्तम शताब्दी में तथा अन्तिम का आठवीं पाण्डित्य पाया जाता है। इन्होंने अद्वैतवादी होकर भी या नवीं शताब्दी में हुआ । आलवारों के समान ये भी श्रीकण्ठसम्प्रदायानुसार 'शिवार्कमणिदीपिका' में विशिष्टा गायक कवि थे जो शिव की भक्ति में पगे हुए थे । ये द्वैत के पक्ष का पूर्णतया समर्थन किया है। इसी प्रकार एक मन्दिर से दूसरे में घूमा करते थे, अपनी रची शांकर सम्प्रदाय के समर्थन में विरचित 'सिद्धान्तलेश' में स्तुतियों को गाते थे तथा नटराज व उनकी प्रिया उमा की मूर्ति के चारों ओर आत्मविभोर हो नाचते थे । इनके अद्वैत सिद्धान्त की पूर्णतया रक्षा की है तथा अद्वैतवादी, आचार्यों के मतभेदों का दिग्दर्शन कराया है। आचार्यों पीछे-पीछे लोगों का दल भी चला करता था। इन्होंने पुराणों के परम्परागत शैव सम्प्रदाय की भक्ति का अनुके एकजीववाद, नाना जीववाद, विम्ब प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद एवं साक्षित्व आदि विषयों में बहुत मतभेद सरण किया है। हैं। उन सबका स्पष्टतया अनुभव कर दीक्षितजी ने अप्रतिरथ-विपक्ष के महारथियों को हरानेवाला पराक्रमी अपना विचार प्रकट किया है। इनके लिखे हए ग्रन्थों के वीर, जिसके रथ के सामने दूसरे का रथ न ठहर सके नाम यहाँ दिये जाते हैं अर्थात् युद्ध में जिसका कोई जोड़ न हो। यह एक ऋषि १. कुवलयानन्द २. चित्रमीमांसा ३. वृत्तिवार्तिक का भी नाम है। ऐतरेय (८.१०) तथा शतपथब्राह्मण ४. नामसंग्रहमाला (व्याकरण) ५. नक्षत्रवादावली (९.२.३.१५) में इन्हें ऋग्वेद के एक सूक्त (१०.१०३) वा पाणिनितन्त्रवादनक्षत्रमाला ६. प्राकृतचन्द्रिका का द्रष्टा बतलाया गया है, जिसमें इन्द्र की स्तुति अजेय ( मीमांसा) ७. चित्रपुट ८. विधिरसायन ९. सुखोप- योद्धा के रूप में की गयी है। जीवनी १०. उपक्रमपराक्रम ११. वादनक्षत्रमाला अप्सरा-अप्सरस् शब्द का सम्बन्ध जल से है (अप्जल)। ( वेदान्त) १२. परिमल १३. न्यायरक्षामणि १४. किन्तु गन्धवों की स्त्रियों को अप्सरा कहते हैं, जो अपने सिद्धान्तलेश १५. मतसारार्थसंग्रह (शाङ्कर सिद्धान्त) १६. अलौकिक सौन्दर्य के कारण स्वर्ग की नृत्यांगना कहलाती न्यायमञ्जरी (माध्वमत) १७. न्यायमुक्तावली (रामानुज- हैं । वे इन्द्र की सभा से भी सम्बन्धित थीं। जो ऋषि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपान- अभङ्ग अपनी घोर तपस्या के कारण इन्द्र के सिंहासन के अधिकार की चेष्टा करते थे, उन्हें इन्द्र इन्हीं अप्सराओं के द्वारा पथभ्रष्ट किया करता था । स्वर्ग की प्रधान अप्स - राओं के कुछ नाम हैं तिलोत्तमा, रम्भा, उर्वशी, वृताची, मेनका आदि । अपान - श्वास से सम्बन्ध रखने वाले सभी शब्द 'अन्' धातु से बनते हैं जिनका अर्थ है श्वास लेना अथवा प्राणवायु का नासिकारन्धों से ग्रहण - विसर्जन करना । इसका लैटिन समानार्थक 'अनिमस' तथा गाय समानार्थक 'उस नन है। वास-क्रिया का प्रधान शब्द जो उपर्युक्त धातु से बना है, वह है 'प्राण' (प्रपूर्वक अन)। इसके अन्तर्गत पाँच शब्द आते हैं - प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान 'प्राण' दो प्रणालियों का द्योतक है, वायू का ग्रहण करना तथा निकालना । किन्तु प्रधानतया इसका अर्थ ग्रहण करना ही है, तथा 'अपान' का अर्थ वायु का छोड़ना 'निश्वास' है प्राण तथा अपान द्वन्द्वसमास के रूप में अधिकतर व्यवहृत होते हैं । कहीं-कहीं अपान का अर्थ श्वास लेना एवं प्राण का अर्थ निश्वास है। विश्व की किसी भी जाति ने श्वासप्रणाली की भौतिक एवं आध्यात्मिक उपादेयता पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना प्राचीन भारतवासियों ने दिया। उन्होंने इसे एक विज्ञान माना तथा इसका प्रयोग यौगिक एवं याज्ञिक कमों में किया। आज भी यह कला भारतभू पर प्राणवान् है । दे० 'प्राण' अपान्तरतमा - महाभारत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तत्त्वज्ञान के पहले आचार्य अपान्तरतमा थे । यथा - 'अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते ।' यहाँ वेद का अर्थ वेदान्त है । अपान्तरतमा की कथा इस प्रकार है : नारायण के आह्वान करने पर सरस्वती से उत्पन्न हुआ अपान्तरतमा नाम का पुत्र सामने आ खड़ा हुआ । नारायण ने उसे वेद की व्याख्या करने की आज्ञा दी । उसने आज्ञानुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदों का विभाग किया। तब भगवान् ने उसे वर दिया कि 'वैवस्वत मन्वसर में भी वेद के प्रवर्तक तुम ही होगे तुम्हारे वंश में कौरव उत्पन्न होंगे । उनकी आपस में कलह होगी और वे संहार के लिए तैयार होंगे। तब तुम अपने तपोबल से वेदों का विभाग करना । वसिष्ठ के कुल में पराशर ऋषि ४१ से तुम्हारा जन्म होगा।' इस कथा से स्पष्ट है कि इस ऋषि ने वेदों का विभाग किया। वेदान्तशास्त्र के आदि प्रवतक भी यही ऋषि हैं । वेदान्तशास्त्र पर इनका पहले कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा भी सम्भव है । भगवद्गीता में कहा हुआ 'ब्रह्मसूत्र' इन्हीं का हो सकता है, क्योंकि बादरायण के ब्रह्मसूत्र गीता के बहुत बाद के हैं। उनकी चर्चा तो गीता में हो ही नहीं सकती । अपांनपात् वेद के यूफों ( ७.४७, ४.९७ एवं १०.९, ३० ) में आपः अथवा आकाश के जल को स्तुति है | किन्तु कदाचित् पृथ्वी के जल को भी इसमें सम्मि लित समझा गया है | आप का स्थान सूर्य के पार्श्व में है । वरुण उसके बीच घूमते हैं । इन्द्र ने अपने वज्र से खोदकर उनकी नहर तैयार की है। 'अपांनपात्' जल का पुत्र है, जो अग्नि का विद्युत् रूप है, क्योंकि वह दिना ईंधन के चमकता है। अपूर्ण हवन सामग्री की एक वस्तु जिसका ब्राह्मणों और श्रौतसूत्रों में प्रायः उल्लेख हुआ है । प्राचीन काल में रोट, मिठाइयों, भुने व तले अन्नों का यज्ञों में हवन किया जाता था। वेदों में देवों को यज्ञ में अपूप (पूप) देने का निर्देश है। आज भी छोटे-छोटे ग्रामदेवालयों में रोट, दूध व फुल देवता पर चढ़ाये जाते हैं। शिव को रोट व पिण्ड दिया जाता है। प्राचीन हिन्दुओं के पाक्षिक यज्ञों में चावल को पकाकर उसका गोला बनाया जाता था, फिर उसे कई टुकड़ों में काटकर उस पर घी छिड़क कर अग्नि में हवन किया जाता था । ये पिण्ड के टुकड़े भिन्न-भिन्न देवों के नाम पर अग्नि में दिये जाते थे जिनमें अग्नि भी एक देवता होता था। यह सारी क्रिया परिवार का स्वामी करता था । अवशेष टुकड़ों को परिवार के सदस्य यापूर्वक (प्रसाद के रूप में) ग्रहण करते थे। अभङ्ग - महाराष्ट्र के प्रधान तीर्थ पण्ढरपुर में विष्णु की पूजा विठ्ठल अथवा विठोबा के नाम से की जाती है। वहाँ मन्दिर में जाने वाले यात्री एक प्रकार के पद गाते हैं जिन्हें अभङ्ग कहते हैं । ये अभङ्ग लोकभाषा में रचे गये हैं, संस्कृत में नहीं । मुक्ताबाई (१३०० ई०), तुकाराम तथा नामदेव (१४२५ ई०) के अभङ्ग प्रसिद्ध हैं । अभय --- भय का अभाव, अथवा जिसे भय नहीं है । राजा के लिए अभयदान सबसे बड़ा धर्म कहा गया है : Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ नातः परतरो धर्मों नृपाणां यद् रणाजितम् । विप्रेभ्यो दीयते द्रव्यं प्रजाभ्यश्चाभयं सदा ॥ (याज्ञवल्क्य) [ राजाओं के लिए इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है कि वे में प्राप्त धन ब्राह्मणों को दें तथा प्रजा को सदा के युद्ध लिए अभय दान दे दें ।] अभयतिलक— न्यायदर्शन के एक आचार्य। इन्होंने 'न्यायवृत्ति' की रचना की है । अभिक्रोशक-पुरुषमेध का एक वलि पुरुष कदाचित् इसका अर्थ 'दूत' है । भाष्यकार महीधर ने इसका अर्थ 'निन्दक' बताया है । अभिचार - शत्रु को मारने के लिए किया जानेवाला प्रयोग । अथर्ववेद में कहे गये मन्त्र यन्त्र आदि द्वारा किया गया मारण, उच्चाटन आदि हिंसात्मक कार्य अभिचार कहलाता है। वह छः प्रकार का है (१) मारण, (२) मोहन, (३) स्तम्भन (४) विद्वेषण, (५) उच्चाटन और (६) वशीकरण । यह एक उपपातक है। श्येन आदि यज्ञों से अनपराधी को मारना पाप है। अभिनवनारायण शङ्कराचार्य द्वारा ऐतरेय एवं कौषीतकि उपनिषदों पर लिखे गये भाष्यों पर अनेक पण्डितों ने टोकाएं लिखी हैं, जिनमें से एक अभिनवनारायण भी है। अभिनिवेश-मन का संयोग-विशेष । इसके कई अर्थ हैं-मनोनिवेश, आवेश, शास्त्र आदि में प्रवेश आदि । मरण की आशंका से उत्पन्न भय के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। इसकी गणना पञ्च क्लेशों में है अविद्यास्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । ( योगदर्शन) । आसक्ति, अनुराग और अभिलाष के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त होता है। 'बलीयान् सल मे अभिनिवेशः ।' ( अभिज्ञानशाकुन्तल) [मेरा अनुराग बहुत बलवान् है ] दे० 'पञ्चक्लेश' । अभिनीतैत्तिरीय ब्राह्मण एवं वाजसनेयी संहिता में वर्णित पुरुषमेध यज्ञ की बलिसूची में 'अभिप्रश्नी' का उल्लेख हुआ है। यह शब्द 'प्रश्नी' के बाद एवं 'प्राश्नविवेक' के पहले उद्धृत है । भाष्यकार सायण एवं महीधर ने इसे केवल जिज्ञासु के अर्थ में लिया है । किन्तु यहाँ इस शब्द से 'कुछ वैधानिकता का बोध होता है। न्यायालय में वाद अभयतिलक- अभिषेक उपस्थित करने वाले को प्रश्नी ( प्रश्निन्) प्रतिवादी को अभिप्रश्नी ( अभिप्रश्नन् ) और न्यायाधीश को प्राश्नविवेक कहा जाता था । अभिशाप - किसी अपराध के लिए क्रोम रूष्ट व्यक्ति द्वारा अनिष्ट कथन करना एवं सिद्धों के अनिष्टकारक वचनों को शाप कहा जाता है: यस्याभिशापाद् दुःखार्तो दुःखं विन्दति नेपधः । ( नलोपाख्यान ) उत्पन्न होने पर ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध [ जिसके शाप से दुःखपीडित नल कष्ट पा रहा है। ] अभिश्री - यह शब्द उस दूध का बोध कराता है जो यज्ञ में सोमरस के साथ आहूति देने के पूर्व मिलाया जाता था। अभिषेक मन्त्रपाठ के साथ पवित्र जल सिंचन या स्नान । यजुर्वेद, अनेक ब्राह्मणों एवं चारों वेदों की श्रौत क्रियाओं में हम अभिषेचनीय कृत्य को राजसूय के एक अंग के रूप में पाते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण में तो अभिषेक ही मुख्य विषय है। धार्मिक अभिषेक व्यक्ति अथवा वस्तुओं की शुद्धि के रूप में विश्व की अति प्राचीन पद्धति है। अन्य देशों में अनुमान लगाया जाता है कि अभिषेक रुधिर से होता था जो वीरता का सूचक समझा जाता था । शतपथ ब्राह्मण ( ५.४.२.२ ) के अनुसार इस क्रिया द्वारा तेजस्विता एवं शक्ति व्यक्ति विशेष में जागृत की जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण का मत है कि यह धार्मिक कृत्य साम्राज्य शक्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता था । महाभारत में युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था पहला सभापर्व की (३३.४५) दिग्विजयों के पश्चात् अधिकृत राजाओं की उपस्थिति में राजसूय के एक अंश के रूप में तथा दूसरा भारत युद्ध के पश्चात् । महाराज अशोक का अभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद एवं हर्ष शीलादित्य का अभिषेक भी ऐसे ही विलम्ब से हुआ था । प्रायः सम्राटों का ही अभिषेक होता था। इसके उल्लेख बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र (१७), सोमदेव ( १५.११०) तथा अभिलेखों में (एपिग्राफिया इंडिका, १.४.५.६) पाये जाते हैं । साधारण राजाओं के अभिषेक के उदाहरण कम ही प्राप्त हैं, किन्तु स्वतन्त्र होने की स्थिति में ये भी अपना अभिषेक कराते थे । महाभारत ( शा० प० ) राजा के अभिषेक को किसी भी देश के लिए आवश्यक बतलाता है। युवराजों के अभि पंक के उदाहरण भी पर्याप्त प्राप्त होते हैं, यथा राम के 'यौवराज्यभिषेक' का रामामण में विशद वर्णन है, यद्यपि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेचनीय-अ(भ्य)व्यङ्ग यह राम के अन्तिम राज्यारोहण के समय ही पूर्ण हुआ है। था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे । अग्निपुराण यह पुष्याभिषेक का उदाहरण है । अथर्ववेद परिशिष्ट (४), एवं मानसार के अनुसार राजा नगर की प्रदक्षिणा द्वारा वराहमिहिर की बृहत्संहिता (४८) एवं कालिकापुराग इस क्रिया को समाप्त करता था। अग्निपुराण इस अवसर (८९) में बताया गया है कि यह संस्कार चन्द्रमा तथा पर बन्दियों की मुक्ति का भी वर्णन करता है, जैसा कि पुष्य नक्षत्र के संयोग काल (पौषमास) में होना चाहिए। दूसरे शुभ अवसरों पर भी होता था। अभिषेक मन्त्रियों का भी होता था। हर्षचरित में अभिषेचनीय-दे० 'अभिषेक' । राजपरिवार के सभासदों के अभिषेक ( मर्धाभिषिक्ता अभीष्ट तृतीया-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ अमात्या राजानः) एवं पुरोहितों के लिए 'बृहस्पतिसव' का होता है । इसमें गौरीपूजन किया जाता है। दे० स्कन्द उल्लेख है। मूत्तियों का अभिषेक उनकी प्रतिष्ठा के समय पुराण, काशीखण्ड, ८३. १-१८ ।। होता था। इसके लिए दूध, जल (विविध प्रकार का). अभीष्ट सप्तमी-किसी भी मास की सप्तमी को यह व्रत गाय का गोबर आदि पदार्थों का प्रयोग होता था। किया जा सकता है। इसमें पाताल, पृथ्वी, द्वीपों तथा बौद्धों ने अपनी दस भमियों में से अन्तिम का नाम सागरों का पूजन होता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 'अभिषेकभमि' अथवा पूर्णता की अवस्था कहा है। अभेदरत्न-वेदान्त का एक प्रकरण-ग्रन्थ जिसकी रचना अभिषेक का अर्थ किसी भी धार्मिक स्नान के रूप में अग्नि सोलहवीं शताब्दी में दाक्षिणात्य विद्वान श्री मल्लनाराध्य पुराण में किया गया है। - अभिषेक की सामग्रियों का वर्णन रामायण, महाभारत, ने की थी। अग्निपुराण एवं मानसार में प्राप्त है। रामायण एवं महा- अभ्य व्यङ्गसप्तमी-श्रावण शुक्ल सप्तमी । इसका कृत्य प्रत्येक भारत से पता चलता है कि वैदिक अभिषेक संस्कार में वर्ष मनाया जाता है, जिसमें सूर्य को 'अव्यङ्ग' समर्पित तब यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था । अग्निपुराण का तो किया जाता है । कृत्यकल्पतरु के प्रतकाण्ड (पृ० १५०) में वैदिक क्रिया से एकदम मेल नहीं है । तब तक बहुत से अव्यङ्ग की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : “सफेद सूत नये विश्वास इसमें भर गये थे, जिनका शतपथब्राह्मण में के धागे से साँप की केंचुलो के समान पोला अव्यङ्ग बनाया नाम भी नहीं है। अभिषेक के एक दिन पूर्व राजा की जाय। इसकी लम्बाई अधिक से अधिक १२२ अंगुल, शुद्धि की जाती थी, जिसमें स्नान प्रधान था। यह निश्चय मध्यम रूप से १२० अथवा कम से कम १०८ अंगुल होनी ही वैदिकी दीक्षा के समान था, यथा (१) मन्त्रियों की चाहिए।" इसकी तुलना आधुनिक पारसियों द्वारा पहनी नियुक्ति, जो पहले अथवा अभिषेक के अवसर पर की जाती जाने वाली 'कुस्ती' से की जा सकती है। दे० भविष्यथी; (२) राज्य के रत्नों का चुनाव, इसमें एक रानी, एक पुराण (ब्राह्मपर्व), १११.१-८ (कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड हाथी, एक श्वेत अश्व, एक श्वेत वृषभ, एक अथवा दो; में उद्धृत); हेमाद्रि, व्रत-खण्ड, जिल्द प्रथम, ७४१-७४३; श्वेत छत्र, एक श्वेत चमर (३) एक आसन (भद्रासन, व्रतप्रकाश (पत्रात्मक ११६)। भविष्यपुराण' (ब्राह्म०) सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन) जो सोने का बना होता था १४२. १-२९ में हमें अव्यङ्गोत्पत्ति की कथा दृष्टिगोचर तथा व्याघ्रचर्म से आच्छादित रहता था; (४) एक या होती है । इसके अठारहवें पद्य में 'सारसनः' शब्द आता अनेक स्वर्णपात्र जो विभिन्न जलों, मधु, दुग्ध, घृत, उद है जो हमें 'सारचेन' (एक बाहरी जाति) की स्मृति दिलाता म्बरमल तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से परिपूर्ण होते है। 'अव्यङ्गाख्य व्रत' के लिए दे० नारदपुराण १. ११६, थे । मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य लगता है कि संस्कृत का अव्यङ्ग शब्द पारसी 'अवेस्ता' मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त के 'ऐव्यङ्घन' का परिवर्तित रूप है । अवेस्ता के शब्द का करते थे । संस्कार इन्द्र की प्रार्थना के साथ पूरा होता था अर्थ है 'कटिसूत्र', मेखला या करधनी। भविष्य पुराण जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता के १६३ श्लोक में जो 'जदि राना' के प्रसंग में अव्यङ्ग था । गज्यारोहण के पश्चात राजा उपहार वितरण करता शब्द आया है, वह लगता है, उन पारसी लोगों का कटि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सूत्र ही है जो स्थानान्तरित होकर भारत आये थे और अपनी कमर पर ऊनी 'कुश्ती' सद्र नाम के वस्त्र पर दधिते थे। पारसियों की 'कुश्ती के दोनों छोर सर्प की मुखाकृति के होते हैं जिसमें बराबर की दूरी रखते हुए गाँठें लगायी जाती है दे० एम० एम० मुरजबान की 'पारसीज इन इण्डिया' प्रथम जित्य पृष्ठ ९३ । प्रतीत होता है कि सूर्य की यह पूजा यहाँ पर ईरान से आयी अथवा पारसियों की दैनिक चर्या से गृहीत हुई । वराहमिहिर की बृहत्संहिता (५९ १९) में लिखा है कि सूर्य के पुजारी या तो मग लोग हों अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण दे० इण्डियन एण्टिविटी, जिल्द आठवीं ०३२८ तथा कृष्णदास मिश्र का 'मग व्यक्ति' । अभ्युत्थान- किसी अतिथि के आगमन पर संमानार्थ उठने की क्रिया अलमलमभ्युत्थानेन, ननु सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति भवानेवास्माकं पूज्यः । ( नागानन्द ) [आप न उठिए । अभ्यागत निश्चय ही सबका गुरु होता है, आप ही हम लोगों के पूज्य हैं ।] अमङ्गल -- जिससे शुभ नहीं होता । बहुत से अशुभसूचक पदार्थ माङ्गलिक माने जाते हैं। विवाह आदि उत्सव, यात्रा तथा किसी भी कार्यारम्भ के समय अमङ्गल को बचाया जाता है । अमरकण्टक- - मध्य प्रदेश का एक पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ स्थान इसका शाब्दिक अर्थ है (अमर + कण्टक) 'देवताओं का शिखर' । यह विलासपुर जिले में मेकल की श्रृंखला पर स्थित है। यहाँ पर नर्मदा का उद्गम है, जिसके कारण नर्मदा 'मेकलसुता' कहलाती है । प्रतिवर्ष सहस्रों तीर्थयात्री अमरकण्टक से चलकर नर्मदा के किनारे-किनारे संभात की खाड़ी तक परिक्रमा करने जाते हैं जहाँ नर्मदा समुद्र में मिलती है। अमरकण्टक मध्यभारत का जलविभाजक है । यहाँ से सोन उत्तरपूर्व की ओर, महानदी पूर्व की ओर और नर्मदा पश्चिम की ओर बहती है। आज भी अमरकण्टक जनाकीर्ण प्रदेशों से अलग एकान्त में स्थित है। अतः इसकी पवित्रता अधिक सुरक्षित है। कुछ विद्वानों के अनुसार मेघदूत (१. १७) का आम्रकूट यही है। मार्कण्डेय पुराण (अ० १७) में इसको सोम पर्वत अथवा सुरथाद्रि अमंगल अमरलोक खण्डधाम कहा गया है। मत्स्यपुराण (२२-२८) कुरुक्षेत्र से भी अधिक पवित्रता अमरकण्टक को प्रदान करता है । दे० 'नर्मदा' | अमरवास — सिक्खों के दस गुरुओं में इनका तीसरा क्रम है। ये गुरु अङ्गद के पश्चात् गद्दी पर बैठे इन्होंने बहुत से । भजन लिखे हैं जो 'गुरुग्रन्थ साहब' में संगृहीत है। अमरनाथ-कश्मीर का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जो हिमालय की भैरव घाटी श्रृंखला में स्थित है। समुद्रस्तर से १६००० फुट की ऊंचाई पर पर्वत में यहां लगभग १६ फुट लम्बी, २५ से ३० फुट चौड़ी और १५ फुट ऊँची प्राकृतिक गुफा है । उसमें हिम के प्राकृतिक पीठ पर हिमनिर्मित प्राकृतिक शिवलिङ्ग है। यह धारणा सच नहीं है कि यह शिवलिङ्ग अमावस्या को नहीं रहता और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से वनता हुआ पूर्णिमा को पूर्ण हो जाता है तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से क्रमशः घटता है। पूर्णिमा से भिन्न तिथियों में यात्रा करके इसे देख लिया गया है कि ऐसी कोई बात नहीं है । हिमनिर्मित शिवलिङ्ग जाड़ों में स्वतः बनता है और बहुत मन्दगति से घटता है परन्तु कभी पूर्ण लुप्त नहीं होता । अमरनाथ गुफा में एक गणेशपीठ तथा एक पार्वतीपीठ हिम से बनता है । अवश्य ही अमरनाथ की एक अद्भुत विशेषता है कि यह हिमलिङ्ग तथा पीठ ठोस पक्की बरफ का होता है, जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्व कच्ची बरफ मिलती है। अमरनाथ गुफा से नीचे सिन्धु की एक सहायक नदी अमरगंगा का प्रवाह है। यात्री इसमें स्नान करके गुफा में जाते हैं। सवारी के घोड़े अधिकतर एक या आध मील दूर ही रुक जाते हैं । अमरगङ्गा से लगभग दो फर्लांग ऊपर गुफा में जाना पड़ता है। गुफा में जहाँ-तहाँ बूंदबूंद करके जल टपकता है। कहा जाता है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर रामकुण्ड हैं और उसी का जल गुफा में टपकता है। गुफा के पास एक स्थान से सफेद भस्म-जैसी मिट्टी निकलती है, जिसे यात्री प्रसाद स्वरूप लाते हैं। गुफा में वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं। यदि वर्षान होती हो, बादल न हों, धूप निकली हो तो गुफा में शीत का कोई भी अनुभव नहीं होता । प्रत्येक दशा में इस गुफा में यात्री अनिर्वचनीय अद्भुत सात्विकता तथा शान्ति का अनुभव करता है। अमरलोक खण्डधाम - स्वामी चरणदास कृत 'अमरलोक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमलानन्द-अमृत ४५ खण्डधाम' अठारहवीं शताब्दी का एक वैष्णव योगमत राजाओं द्वारा निर्मित हुआ था। दे० जर्नल ऑफ रायल का ग्रन्थ है। एशियाटिक सोसायटी, जिल्द ३, पृ०, १३२ । अमलानन्द आचार्य अमलानन्द का प्रादुर्भाव दक्षिण भारत अमा-चन्द्रमण्डल की सोलहवीं कला : में हुआ। वे यादव राजा महादेव और रामचन्द्र के सम- अमा षोडशभागेन देवि प्रोक्ता महाकला। सामयिक थे ।देवगिरि के राजा महादेव ने वि० सं० १३१७- संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणी ।। १३२८ तक शासन किया। वि० सं० १३५४ में रामचन्द्र (स्कन्द पुराण, प्रभास खण्ड) पर अलाउद्दीन ने आक्रमण किया था। अमलानन्द ने अपने [हे देवी, चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त आधारग्रन्थ 'वेदान्तकल्पतरु' में ग्रन्थ रचना के काल के विषय शक्ति रूप, क्षय एवं उदय से रहित, नित्य फूलों की में जो कुछ लिखा है, उससे मालूम होता है कि दोनों माला के समान सबमें गुथी हई अमा नाम की महाकला राजाओं के समय में ग्रन्थ लिखा गया था। जान पड़ता है कही गयी है। ] कि अमलानन्द तेरहवीं शताब्दी के अन्त में हए और उनका अमावस्या-कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि । इस तिथि में ग्रन्थ वि० सं० १३५४ के पूर्व लिखा गया था, क्योंकि उसमें चन्द्रमा तथा सूर्य एक साथ रहते हैं । यह चन्द्रमण्डल की अलाउद्दीन के आक्रमण का उल्लेख नही मिलता । वे देव- पन्द्रहवीं कला रूप है अथवा उस क्रिया से उपलक्षित काल गिरि राज्य के अन्तर्गत किसी स्थान में रहते थे। उनके है। सूर्य और चन्द्रमा का जो परस्पर मिलन होता है उसे जन्मस्थान आदि के विषय में कुछ नहीं मालूम होता।- अमावस्या कहते हैं (गोभिल)। उसके पययि हैं : अमाउनके गुरु का नाम अनुभवानन्द था।। वास्या, दर्श, सूर्यचन्द्र-संगम, पञ्चदशी, अमावसी, अमावासी, अमलानन्द अद्वैतमत के समर्थक थे। उनके लिखे तोन अमामसी, अमामासी । जिस अमावस्या की चन्द्रकला दिखाई ग्रन्थ मिलते हैं : पहला 'वेदान्तकल्पतरु' है जिसमें वाचस्पति दे वह 'सिनीवाली' और जिसकी चन्द्रकला न दिखाई दे मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है। यह वह 'कुहू' कहलाती है । भी अद्वैत मत का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है और बाद अमावस्यापयोव्रत-यह व्रत प्रत्येक अमावस्या को केवल के आचार्यों ने इससे भी प्रमाण ग्रहण किया है। दूसरा है दुग्ध पान के साथ किया जाता है और एक वर्ष तक 'शास्त्रदर्पण' । इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या चलता है । इसमें विष्णु-पूजन होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतकी गयी है । तीसरा ग्रन्थ है 'पञ्चपादिका दर्पण'। यह खण्ड, २, २५४ ।। पद्मपादाचार्य की 'पञ्चपादिका' की व्याख्या है । इन तीनों - अमावस्यावत-कूर्मपुराण के अनुसार यह शिवजी का व्रत ग्रन्थों की भाषा प्राञ्जल और भाव गम्भीर हैं। है । पुराणों के अनुसार अमावस्या यदि सोम, मङ्गल या अमरावती--(१) जिस नगरी में देवता लोग रहते हैं । इसे गुरु को पड़े, साथ ही अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति इन्द्रपुरी भी कहते हैं । इसके पर्याय है-(१) पूषभासा, नक्षत्रों के साथ हो, तो विशेष पवित्र समझी जाती है। (२) देवपूः, (३) महेन्द्रनगरी, (४) अमरा और (५) अमावस्या एवं प्रतिपदा के योग से अमावस्या तथा चतुर्दशी सुरपुरी। का योग अच्छा समझा जाता है। (२) सीमान्त प्रदेश (पाकिस्तान ) में जलाला- अमृत-जिससे मरण नहीं होता। इसके पीने वालों की बाद से दो मील पश्चिम नगरहार । फाहियान इसको 'ने- मृत्यु नहीं होती, इसीलिए इसे अमृत कहते हैं। यह समुद्र किये-लोहो' कहता । पालि साहित्य की अमरावती यही । से निकला हआ, देवताओं के पीने योग्य तथा अमरत्व है। कोण्डण्ण बुद्ध के समय में यह नगर अठारह 'ली' प्रदान करने वाला द्रव्य विशेष है। महाभारत में अमृत विस्तृत था । यहीं पर उनका प्रथम उपदेश हुआ था। की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है : “जिस समय राजा (३) अमरावती नामक स्तूप, जो दक्षिण भारत के कृष्णा पृथु के भय से पृथ्वी गो बन गयी उस समय देवताओं ने 'जले में बेजवाड़ा से पश्चिम और धरणीकोट के दक्षिण इन्द्र को बछड़ा बनाकर सोने के पात्र में अमृत रूप दूध कृष्णा के दक्षिण तट पर स्थित है। हुयेनसांग का पूर्व शैल दुहा । वह दुर्वासा के शाप से समुद्र में चला गया। इसके संघाराम यही है । यह स्तुप ३७०-३८०ई० में आन्ध्रभृत्य अनन्तर ससुद्र के मन्थन द्वारा अ त से पूर्ण कलश को Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अमृतबिन्दूप निण्षद्-अम्बिका लेकर धन्वन्तरि बाहर आये।" उसके पर्याय है पीयूष, इस मंदिर को 'दरवार साहब' (गुरु का दरबार) भी कहते सुधा, निर्जर, समुद्रनवनीतक । जल, घृत, यज्ञशेष द्रव्य, हैं। दशम गुरु गोविंदसिंह ने गुरु का पद समाप्त कर अयाचित वस्तु, मुक्ति और आत्मा को भी अमृत कहते हैं। उसके स्थान पर 'ग्रन्थ साहब' की प्रतिष्ठा की। 'ग्रन्थ मध्ययुगीन तान्त्रिक साधनाओं में अमृत की पर्याप्त खोज साहब' ही इसमें पधराये जाते हैं । प्रतिदिन अकालबुंगा से हुई। वह रसरूप माना गया । पीछे उसके हठयोग- 'ग्रन्थ साहब' यहाँ विधिवत् लाये जाते और रात्रि को परक अर्थ किये गये। सिद्धों ने उसे महासुख अथवा वापस किये जाते हैं । इस तीर्थ में हरि की पौडी, अड़सठ सहजरस माना । तान्त्रिक क्रियाओं में वारुणी ( मदिरा) तीर्थ, दुखभंजन वेरी आदि अन्य पवित्र स्थान हैं। इसका प्रतीक है । चन्द्रमा से जो अमत झरता है उसे जलियान वाला बाग में जनरल ओडायर द्वारा किये गये हठयोग में सच्चा अमृत कहा गया है । सन्तों ने तान्त्रिकों नरमेध के कारण अमृतसर राष्ट्रीय तीर्थ भी बन गया है । की वारुणी का निषेध कर हठयोगियों के सोमरस को गुरु नानक विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् यह स्वीकार किया। वैष्णव भक्तों ने भक्ति को ही रसायन प्रसिद्ध शिक्षाकेन्द्र के रूप में भी विकसित हो रहा है। अथवा अमृत माना। अमृतानुभव-महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और नाथ सम्प्रदाय अमृतबिन्दु उपनिषद-परवर्ती छोटी उपनिषदें, जो प्रायः के आचार्य श्री ज्ञानेश्वर कृत त्रयोदश शताब्दी का दैनन्दिन जीवन की आचार नियमावली सदृश हैं, दो मराठी पद्य में रचित, यह अत शैव दर्शन का अनूठा समूहों में बाँटी जा सकती हैं-एक संन्यासपरक और ग्रन्थ है। दूसरा योगपरक । अमतबिंदु उपनिषद् दूसरी श्रेणी में अमृताहरण-गरुड । वे अपनी माता विनता को सपत्नी की में आती है तथा चूलिका का अनुसरण करती है। दासता से मुक्त करने के लिए सब देवताओं को जीतकर और अमृतसर-भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। अमृत की रक्षा करने वाले यन्त्रों को भी लाँधकर स्वर्ग सिक्ख संप्रदाय का तो यह प्रमुख तीर्थ और नगर है । यह से अमृत ले आये थे। पुराणों में यह कथा विस्तार से वर्तमान पंजाब के पश्चिमोत्तर में लाहौर से बत्तीस मील वणित है। पूर्व स्थित है। अमृतसर का अर्थ है 'अमृत का सरोवर।' यह अम्बरनाथ-कोकण प्रदेश स्थित शैव तीर्थ । यहाँ शिलाहार प्राचीन पवित्र स्थल था, परन्तु सिक्ख गुरुओं के संपर्क नरेश माम्बाणि का बनवाया, कोण प्रदेश का सबसे से इसका महत्त्व बहुत बढ़ा। यहाँ सरोवर के बीच में प्राचीन, मंदिर है। इस मन्दिर की कला उत्कृष्ट है। सिक्ख धर्म का स्वर्णमंदिर है। सिक्ख परम्परा के अनुसार अम्बरनाथ शिव का दर्शन करने दूर-दूर से वहत लोग सर्वप्रथम गुरु नानक (१४६९-१५३८ ई०) ने यहाँ यात्रा आते हैं। की। तृतीय गुरु अमरदास भी यहाँ पधारे। सरोवर का अम्बुवाची-वर्षा के सूचक लक्षणों से युक्त भूमि । पृथ्वी के विस्तार चतुर्थ गुरु रामदास के समय में हुआ। पंचम गुरु देवी रूप के दो पहलू है; एक उदार दूसरा विकराल । अर्जुन (१५८८ ई०) के समय देवालयों का निर्माण प्रारम्भ उदार पक्ष में देवी सभी जीवधारियों की माता और भोजन हुआ । परवर्ती गुरुओं का ध्यान इधर आकृष्ट नहीं हुआ। देने वाली कही जाती है। इस पक्ष में वह अनेकों नामों बीच-बीच में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इस स्थान को से पुकारी जाती है, यथा भूदेवी, धरतीमाता, वसुन्धरा, कई बार ध्वस्त और भ्रष्ट किया। किन्तु सिक्ख धर्माव- अम्बुवाची, वसुमती, ठकुरानी आदि। लम्बियों ने इसकी पवित्रता सुरक्षित रखी और इसका अम्बा भवानी-अम्बा भवानी की पूजा महाराष्ट्र में १७ वीं पुनरुद्धार किया । १७६६ ई० में वर्तमान मंदिर का पुनः शताब्दी में अधिक प्रचलित थी। गोन्धल नामक नृत्य निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर शृंगार और देवी के सम्मान में होता था तथा देवी सम्बन्धी गीत भी विस्तार होता गया। साथ साथ गाये जाते थे। नगर में पाँच सरोवर हैं-अमृतसर, संतोषसर, अम्बिका-शिवपत्नी पार्वती के अनेकों नाम तथा स्वरूप रायसर, विवेकसर तथा कमलसर ( कौलसर)। इनमें हैं। हिन्दू विश्वासों में उनका स्थान शिव से कुछ ही घटअमतसर प्रमुख है, जिसके बीच में स्वर्णमंदिर स्थित है। कर है, किन्तु अर्धनारीश्वर रूप में हम उन्हें शिव की Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बिकेय-अरण्य अथ समानता के पद पर पाते हैं। देवी, उमा, पार्वती, गौरी, अयोग-वाजसनेयी संहिता में उद्धृत शिल्पकारों के दुर्गा, भवानी, काली, कपालिनी, चामुण्डा आदि उनके साथ यह शब्द आया है, जिसका अर्थ संभवतः लोहार है । विविध गुणों के नाम हैं । इनका 'कुमारी' नाम कुमारियों यह मिश्रित जाति (शूद्र पिता व वैश्य माता से उत्पन्न) का का प्रतिनिधित्व करता है। वैसे ही इनका 'अम्बिका' सदस्य हो सकता है। वेबर ने इसका अर्थ दुश्चरित्र स्त्री ( छोटी माता ) नाम भी प्रतिनिधित्वसूचक ही है। लगाया है, जब कि जिमर इसे भ्रातहीन लड़की मानते हैं । अम्बिकेय-अम्बिका का अपत्य पुरुष । कातिकेय, गणेश, अयोध्या-सरयतट पर बसी अति प्राचीन नगरी । यह इक्ष्वाधृतराष्ट्र । (पाणिनि के अनुसार आम्बिकेय ।) कुवंशी राजाओं की राजधानी एवं भगवान् राम का जन्मअम्बुवाचीव्रत-सौर आषाढ़ में जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र के स्थान है। भारतवर्ष की सात पवित्र पुरियों में इसका प्रथम चरण में हो इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है । प्रथम स्थान है : दे० वर्षकृत्यकौमुदी, २८३; भोज का राजमार्तण्ड । अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । अयम् आत्मा ब्रह्म-'यह आत्मा ही ब्रह्म है'-सिद्धान्त पुरी द्वारावती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ।। वाक्य । यह बृहदारण्यकोपनिषद् (२.५.१९) का मन्त्र (ब्रह्मपुराण, ४.४०.९१; अग्निपुराण, १०९.२४) है और उन महावाक्यों में से एक है जो उपनिषदों के यह मुख्यतः वैष्णव तीर्थ है । तुलसीदास ने अपने रामकेन्द्रीय विषय आत्मा और परमात्मा के अभेद पर प्रकाश चरितमानस की रचना लोकभाषा अवधी में यहीं प्रारम्भ डालते हैं। की थी। यहाँ अनेक वैष्णव मन्दिर हैं, जिनमें रामजन्मअयन-काल-विभाजन में 'अवसर्पिणी' एवं 'उपसपिणी' अर्थ स्थान, कनकभवन, हनुमानगढ़ी आदि प्रसिद्ध है। दो अयनों का है । यह सूर्य के छः मास उत्तर रहने से (उत्त- स्कन्दपुराण (१.५४.६५) के अनुसार इसका आकार रायण) तथा छः मास दक्षिण रहने से (दक्षिणायन) बनता। मत्स्य के समान है । इसका विस्तार एक योजन पूर्व, एक है। प्रत्येक भाग के छः मासों का अर्थ एक अयन होता है। योजन पश्चिम, एक योजन सरयू के दक्षिण और एक योजन अयनव्रत-अयन सूर्य की गति पर निर्भर होते हैं। इनमें तमसा के उत्तर है । तीर्थकल्प (अ० ३४) के अनुसार यह अनेक व्रतों का विधान है । अयन दो हैं-उत्तरायण तथा बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है । योगिनीदक्षिणायन । ये क्रमशः शान्त तथा क्रूर धार्मिक पूजाओं के तन्त्र (२४ पृ०, १२८-२९) में भी इसका उल्लेख है। लिए उपयुक्त हैं। दक्षिणायन में मातृदेवताओं की प्रति- इसके अनुसार यह बारह योजन लम्बी और तीन योजन माओं के अतिरिक्त भैरव, वराह, नरसिंह, वामन तथा चौड़ी है। यह प्राचीन कोसल की राजधानी थी, जिसकी दुर्गादेवी की प्रतिमाओं की स्थापना होती है । दे० कृत्य- स्थापना मनु ने की थी। रत्नाकर, २१८; हेमाद्रि, चतूवर्गचिन्तामणि, १६; समय- जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म यहों हुआ था। मयूख, १७३। बौद्ध साहित्य का साकेत यही है। टालेमी ने 'सुगद' और अयास्य आङ्गिरस-इस ऋषि का नाम ऋग्वेद के दो परि- हुयेनसांग ने 'अयुते' नाम से इसका उल्लेख किया है च्छेदों में उल्लिखित है तथा इन्हें अनुक्रमणी में अनेक (वैटर्स : युवा-वांग्स् ट्रैवेल्स इन इण्डिया, पृ० ३५४)। मन्त्रों ( ९.४४.६; १०.६७-६८) का द्रष्टा कहा गया विस्तृत वर्णन के लिए दे० डॉ० विमलचरण लाहा का है। ब्राह्मण-परम्परा में ये उस राजसूय के उद्गाता थे, अयोध्या पर निबन्ध (जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च जिसमें शनःशेप की बलि दी जानेवाली थी। इनके इंस्टीट्यूट, जिल्द १, १०४२३-४४३)। उद्गीथ (सामगान) दुसरे स्थानों में उद्धृत हैं। कई अरणि-यज्ञाग्नि उत्पन्न करने के लिए मन्थन करने वाली ग्रन्थों में इन्हें यज्ञक्रियाविधान का मान्य अधिकारी लकड़ी । घर्षण से उत्पन्न अग्नि को यज्ञ के लिए पवित्र (पञ्चविंश ब्रा० १४.३, २२;१२, ४; ११.८, १०; बृ० माना जाता है । वास्तव में पार्थिव अग्नि भी मूल में वनों उ० १.३. ८, १९, २४; कौ० ब्रा० ३०.६) बतलाया। में घर्षण के द्वारा ही उत्पन्न हुई थी। यह मूल घटना गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् की वंशावली में अयास्य अब तक यज्ञों के रूपक में सुरक्षित है। आङ्गिरस को आभूति त्वाष्ट्र का शिष्य बताया गया है। अरण्य-आचार्य शङ्कर जैसे समर्थ दार्शनिक थे वैसे ही Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अरण्यद्वादशी-अरुन्धती वेदान्तमत के संन्यासियों के सम्प्रदाय के योग्य व्यवस्था- तथा स्कन्द भगवान की पूजा की जाती है । व्रती लोगों पक भी। उन्होंने संन्यासियों को दस श्रेणियों में बाँटा को अपनी संतति के स्वास्थ्य की आशा से कमलदण्डों था। इनमें से 'अरण्य' एक श्रेणी है। प्रत्येक श्रेणी का नाम अथवा कन्द-मूलों का आहार करना चाहिए। दे० कृत्यउसके नेता के नाम से उन्होंने रखा था। एक श्रेणी के रत्नाकर, १८४; वर्षकृत्यकौमुदी, २७९ । नेता अरण्य थे। अरण्यानी--अरण्यानी ( वनदेवी) का वर्णन ऋग्वेद (१०. अरण्यद्वादशी-मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी अथवा कार्तिक, १४६) में प्राप्त होता है । वहाँ वनदेवी या वनकुमारी को, माघ, चैत्र अथवा श्रावण शुक्ल एकादशी को प्रातःकाल जो वन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोस्नान-ध्यान से निवृत्त होकर यह व्रतारम्भ किया जाता है। धित किया गया है । वह लज्जालु एवं भयभीत है तथा वन यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता गोविन्द की भूलभुलैया में अपना पथ खो चुकी है। वह तबतक हानिहै। किन्हीं बारह सपत्नीक ब्राह्मणों, यतियों अथवा प्रद नहीं है, जब तक कि कोई वन के बोहड़ प्रदेशों में प्रवेश गृहस्थों को, जो सद्व्यवहारकुशल हों, उनकी पत्नियों करने तथा देवी के बच्चों (जंगली जन्तुओं) को छेड़ने का सहित, अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। दे० दुस्साहस न करे । वन में रात को जो एक हजार एक भयाहेमाद्रि १, १०९१-१०९४ । कुछ हस्तलिखित पोथियों में बनी ध्वनियाँ होती हैं उनका यहाँ विविधता से वर्णन है। इसे 'अपरा द्वादशी' कहा गया है। अरुण-सूर्य का सारथि । यह विनता का पुत्र और गरुड का अरण्य-शिष्यपरम्परा-आचार्य शङ्कर की शिष्य परम्परा में जेष्ठ भ्राता है। एक उपनाम अरण्य है। उनके चार प्रधान शिष्य थे-पद्म- पौराणिक कल्पना के अनुसार यह पंगु (पाँवरहित) पाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक । इनमें प्रथम है। प्रायः सूर्यमन्दिरों के सामने अरुण-स्तम्भ स्थापित के दो शिष्य थे; तीर्थ और आश्रम । हस्तामलक के दो किया जाता है। शिष्य थे; वन और अरण्य । सुरेश्वर के तीन शिष्य थे; इसका भौतिक आधार है सूर्योदय के पूर्व अरुणिमा गिरि, पर्वत और सागर । इसी प्रकार त्रोटक के तीन (लाली)। इसी का रूपक है अरुण । शिष्य थे; सरस्वती, भारती एवं पुरी । इस प्रकार चार अरुण औपवेशि गौतम-तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, मुख्य शिष्यों के सब मिलाकर दस शिष्य थे । इन्हीं दस काठक संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण और शिष्य संन्यासियों के कारण इनका सम्प्रदाय 'दसनामी' बृहदारण्यक उपनिषद् में अरुण औपवेशि गौतम को सर्वकहलाया । शङ्कराचार्य ने चार मुख्य शिष्यों के चार मठ गुण सम्पन्न अध्यापक (आचार्य) बतलाया गया है । इनका स्थापित किये, जिनमें उनके दस प्रशिष्यों की शिष्यपरम्परा पुत्र प्रसिद्ध उद्दालक आरुणि था। वह उपवेश का शिष्य चली आती है । चार मुख्य शिष्यों के प्रशिष्य क्रमशः तथा राजकुमार अश्वपति का समसामयिक था, जिसकी शृंगेरी, शारदा, गोवर्द्धन और ज्योतिर्मठ के अधिकारी संगति द्वारा उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ। हैं । प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं में से किसी न किसी अरुणोदय--रात्रि के अन्तिम प्रहर का अर्ध भाग । दे. हेमाद्रि, मठ से सम्बन्धित रहता है। यद्यपि दसनामी ब्रह्म या काल पर चतुर्वर्गचिन्ताणणि, २५९, २७२; कालनिर्णय, निर्गुण उपासक प्रसिद्ध हैं पर उनमें से बहुतेरे शव मत की २४१ । इस काल का उपयोग सन्ध्या, भजन, पूजन आदि दीक्षा लेते हैं । शङ्कर स्वामी के शिष्य संन्यासियों ने बौद्ध में करना चाहिए। संन्यासियों की तरह भ्रमण कर सनातन धर्म के जागरण अरुन्धती-वसिष्ठपत्नी, इसका पर्याय है अक्षमाला । भागमें बड़ी सहायता पहुँचायी। वत के अनुसार अरुन्धती कर्दममुनि की महासाध्वी कन्या अरण्यषष्ठी--जेष्ठ शुक्ल षष्ठी को इसका व्रत किया थी । आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वसिष्ठ के पास अरुन्धती जाता है । राजमार्तण्ड (श्लोक सं० १३३६) के अनुसार का तारा रहता है । जिसको आयु पूर्ण हो चुकी है, वह स्त्रियाँ हाथों में पंखे तथा तीर लेकर जंगलों में धूमती है। इसको नहीं देख पाता: गदाधरपद्धति, पृष्ठ ८३ के अनुसार यह व्रत ठीक वैसे दीपनिर्वाणगन्धञ्च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम् । ही है जैसे स्कन्दषष्ठी। इस तिथि पर विन्ध्यवसिनी देवी न जिघ्रन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीव्रत-अर्चन तारे को व्यतीत आयु वाले न देखते हैं ।] [ दीपक बुझने की गन्ध, मित्रों के वचन और अरुन्धती सूचते, न सुनते और न विवाह में सप्तपदी गमन के अनन्तर वर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ बधू को अरुन्धती का दर्शन कराता है | अरुन्धती स्थायी विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है । अरुन्धतीव्रत इसका विधान केवल महिलाओं के लिए है। वैधव्य से मुक्ति तथा सन्तान की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। इसमें वसन्त ऋतु प्रारम्भ होने के तीसरे दिन व्रतारम्भ और तीन रात्रि तक उपवास होता है । अरुन्धती देवी का पूजन इसमें मुख्य क्रिया है । दे० हेमाद्रि, व्रत काण्ड, २, ३१२- ३१५, व्रतराज, ८९-९३ । अर्कव्रत मास के दोनों पक्षों में पष्ठी तथा सप्तमी के दिन केवल रात्रि में भोजन किया जाता है। यह व्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसमें अर्क (सूर्य) का पूजन करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु, ३८७, हेमाद्रि, २.५०९ । अर्कसप्तमी - यह तिथिव्रत है। दो वर्ष पर्यन्त यह व्रत चलता है, सूर्य देवता है । केवल अर्क के पौधे के पत्तों के बने दोनों में जलपान करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, ७८८७८९; पद्मपुराण, ७५, ८६-१०६ । यह व्रत सूर्य के उत्त रायण होने पर शुक्ल पक्ष में किसी रविवार को किया जाना चाहिए। पंचमी को एक समय और षष्ठी को रात्रि में भोजन, सप्तमी को उपवास तथा अष्टमी को व्रत का पारण करना चाहिए । अर्कसम्पुट सप्तमी फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को प्रतारम्भ एक वर्ष पर्यन्त व्रत का पालन । इसमें सूर्य की पूजा का विधान है । दे० भविष्य पुराण, २१०, २-८१ । अष्टमी शुक्ल पक्ष की रविवासरीय अष्टमी को यह व्रत आचरणीय है। उमा तथा शिव की पूजा इसमें होनी चाहिए, जिनकी आँखों में सूर्य विश्राम करता है । दे० हेमाद्रि, ८३५-८३७ । ---- - अर्गलास्तोत्र - एक छोटा-सा दुर्गा स्तोत्र है । स्मार्ती की दक्षिणमार्गी शाखा के अनुयायी अपने घरों में साधारणतः यन्त्र के रूप में या कलश के रूप में देवी की स्थापना और पूजा करते हैं। पूजा में यन्त्र पर कुङ्कुम तथा पत्र- पुष्प चढ़ाते हैं । किन्तु देवी की पूजा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है 'चण्डीपाठ' करना तथा उसके पूर्व एवं पश्चात् दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पढ़ा जाना । ७ ४९ उनके नाम हैं कीलक, कवच तथा अर्गलास्तोत्र । 'अर्गला - स्तोत्र' मार्कण्डेय तथा वाराह पुराण से लिया गया है । अर्थ- वस्तुमूल्य और पूजाविधि। मनु के अनुसार कुर्युरचं यथापण्यं ततो विशं नृपो हरेत् । मणिमुक्ताप्रवलानां लौहानां तान्तवस्य च । गन्धानाञ्च रसानाञ्च विद्यादर्धबलाबलम् ।। [ क्रेय वस्तु के अनुसार मूल्य निश्चित करे । मूल्य का बीसवाँ भाग राजा ग्रहण कर ले। मणि, मोती, मूंगा, लोहे, तन्तु से निर्मित वस्तु, गन्ध एवं रसों के घटते-बढ़ते मूल्यों के अनुसार अपना भाग ले । ] इस शब्द को साम के उद्गाता सर्वत्र गान में यकार सहित नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग करें। अन्य वेदों के लोगों को यकाररहित पुंल्लिङ्ग में प्रयोग करना चाहिए ( धाढतत्व) दूर्वा, अक्षत, सपंप, पुष्प आदि से रचित, देव तथा ब्राह्मण आदि के सम्मानार्थ पूजा उपचार का यह एक भेद है। यथा उत्तररामचरित में 'अये वनदेवतेयं फलकुसुमपल्लवार्घेण मामुपतिष्ठते ।' [ यह वनदेवता फल, पुष्प, पत्तों के अर्ध से मेरी पूजा कर रही है । ] इसी प्रकार मेघदूत में : स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै । [ कुटज के ताजे फूलों से उसने उसे अर्ध दिया । ] अर्ध्य - पूजा के योग्य ( 'अर्ध मर्हति' इस अर्थ में यत् प्रत्यय ) इसका सामान्य अर्थ है पूजार्थ दूर्वा, अक्षत, चन्दन, पुष्प जल आदि ( अमरकोश ) । मध्यकाल के धर्मग्रन्थों में इसका बड़ा विशद वर्णन मिलता है। वर्षकृत्यकौमुदी ( पृ० १४२ ) के अनुसार समस्त देवी-देवताओं के लिए चन्दन लेप, पुष्प, अक्षत, कुशाओं के अग्रभाग, तिल, सरसों, दूर्वा का अर्घ्य में प्रयोग करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, १४८ कृत्यरत्नाकर, २९६ । अचंक - मन्दिरों में देवप्रतिमा की सेवा-पूजा करनेवाला पुजारी । अर्चन - पूजन | इसका माहात्म्य इस प्रकार कहा गया है : धनधान्यकरं नित्यं गुरुदेवद्विजार्चनम् । [ नित्यप्रति गुरु, देव, ब्राह्मण की पूजा धन-धान्य को देने वाली है । ] यह नवधा भक्तिप्रदर्शन का एक प्रकार है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चा-अर्थवाव अर्चा-देवता आदि की पूजा : अर्चा चेद् विधितश्च ते वद तदा किं मोक्षलाभक्लमैः । (शिवशतक) हे शिव ! यदि आपकी विधिवत् पूजा की जाय तो फिर मोक्षप्राप्ति के लिए कष्ट उठाने से क्या लाभ है।] अचिष्मान-अग्नि, सूर्य, प्रदीप्त, तेजविशिष्ट, प्रभावान्, स्वनामख्यात देवऋषिविशेष । अर्जन (गुरु)-सिक्खों के गुरु अर्जुन अकबर के समकालीन थे । ये कवि एवं व्यावहारिक भी थे। इन्होंने अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बनवाया और कबीर आदि अन्य भक्तों के भजनों का संग्रह कर ग्रन्थसाहब को पूरा किया। इसमें 'जपजी' का प्रथम स्थान है, तत्पश्चात् 'सोदरू' का । फिर रागों के अनुसार शेष रचना के विभाग किये गये हैं । इस प्रकार ग्रन्थसाहब ही नानकपंथियों का वेद बन गया है। दसवें गुरु गोविन्दसिंह ने “सब सिक्खन कूँ हुकुम है, गुरु मानियों ग्रन्थ' यह फरमान निकाल कर गुरु नानक से चली आ रही गुरुपरम्परा अपने बाद समाप्त कर दी । अकबर के बाद जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को बड़ी यातना दी, जिससे सिक्ख-मुसलमान संघर्ष की परम्परा प्रारम्भ हो गयी। अर्थ-विषय, याच्या, धन, कारण, वस्तु, शब्द से प्रतिपाद्य, निवृत्ति, प्रयोजन, प्रकार आदि । यह धन के अर्थ में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है और त्रिवर्ग के अन्तर्गत दूसरा पुरुषार्थ है : कस्यार्थधमौं वद पीडया मि सिन्धोस्तटावोघवतः प्रवृद्धः । (कुमारसम्भव) [ नदी का वेग जैसे अपने दोनों तटों को काट देता है वैसे ही कहो किसके धर्म-अर्थ को नष्ट कर दूं।] तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते । सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठमेषां यथोत्तरम् ॥ (मनुस्मृति) [तम का लक्षण काम है। रज का लक्षण अर्थ है। सत्त्व का लक्षण धर्म है । ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । ] __ अर्थ मानवजीवन का आवश्यक पुरुषार्थ है, किन्तु इसका अर्जन धर्मपूर्वक करना चाहिए। अर्थपञ्चक-पाँच निर्णयों का संग्रह, संक्षिप्त, संस्कृतगर्भ, तमिल में लिखा गया तेरहवीं शताब्दी के अन्त वा चौद- हवीं के प्रारम्भ का एक ग्रन्थ । इसे श्रीवैष्णवसिद्धान्त का संक्षिप्त सार कहा जा सकता है। इसके रचयिता श्रीरङ्गम् शाखा के प्रमुख पिल्लई लोकाचार्य थे । अर्थवाद-प्राचीन काल में वेद अध्ययन करते समय विद्यार्थी अपने आचार्य से और भी व्यावहारिक शिक्षाएँ लेता था। जैसे वेदी की रचना, हविनिर्माण, याज्ञिककर्म आदि । इन क्रियाओं के आदेशवचन विधि कहलाते थे तथा उनकी व्याख्या करना अर्थवाद । बाद में अर्थवाद शब्द का व्यवहार प्रशंसा अथवा अतिरञ्जना के अर्थ में होने लगा। तब इसका तात्पर्य हुआ-लक्षणा के द्वारा स्तुति तथा निन्दा के अर्थ का वाद। वह तीन प्रकार का है-१. गुणवाद, २. अनुवाद तथा ३. भूतार्थवाद । कहा गया है : विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते । भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः ।। [विरोध में गुणवाद, अवधारित में अनुवाद, उनके अभाव में भूतार्थवाद, इस प्रकार अर्थवाद तीन प्रकार का होता है । ] तत्त्वसम्बोधिनी के मत में यह सात प्रकार का है : १. स्तुति-अर्थवाद, २. फलार्थवाद, ३. सिद्धार्थवाद, ४. निन्दार्थवाद, ५. परकृति, ६. पुराकल्प तथा ७. मन्त्र । इनके उदाहरण वेद में पाये जाते है। . विशेष्य-विशेषण के विरोध में समानाधिकरण न होने पर गुणवाद होता है। अर्थात् इसमें अङ्गरूप कथन से विरोध का परिहार किया जाता है। जैसे 'यजमान प्रस्तर है', यहाँ प्रस्तर का अर्थ मुट्ठीभर कुश है। उसका यजमान के साथ अभेदान्वय नहीं हो सकता, अतः यहाँ यजमान का कुशमुष्टि धारणरूप अर्थवाद का प्रकार गुणवाद माना जाता है। अन्य प्रमाण द्वारा सिद्ध अर्थ का पुनः कथन अवधारित कहलाता है। जैसे 'अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं करना चाहिए', अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं हो सकता यह प्रत्यक्ष प्रमाग से सिद्ध है, तो भी यहाँ उसका पुनः अनुवाद कर दिया गया है। विरोध और अवधारण के अभाव में भूतार्थवाद होता है, जैसे 'इन्द्र वृत्र का घातक है।' भूतार्थवाद भी दो प्रकार का है-१. स्तुति-अर्थवाद और २. निन्दार्थवाद । जैसे, 'वह स्वर्ग को जाता है जो सन्ध्या-पूजन करता है' यह स्तुतिअर्थवाद है। 'पर्व के दिन मांस आदि का सेवन करने Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थशास्त्र-अर्धोदय व्रत ५१ वाला मल-मत्र से भरे हुए नरक में जाता है' यह निन्दार्थ- अर्धलक्ष्मीहरि-आधे लक्ष्मी के आकार में तथा आधे हरि वाद हुआ । दे० श्राद्धविवेक-टीका में श्रीकृष्ण तर्कालङ्कार। के आकार में जो हरि भगवान् है वे अर्धलक्ष्मीहरि है। अर्थशास्त्र-प्राचीन हिन्दू राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ कौटि- ___ यह विष्णु का एक स्वरूप है । गौतमीय तन्त्र में कथन है : लीय अर्थशास्त्र । यद्यपि यह धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, किन्तु ऋषिः प्रजापतिश्छन्दो गायत्री देवता पुनः । स्थान-स्थान पर इसमें तत्कालीन धर्म एवं नैतिकता का अर्धलक्ष्मीहरिः प्रोक्तः श्रीबीजेन षडङ्गकम् ॥ वर्णन विशद रूप से प्राप्त होता है। राज्य, विधान, अप- [प्रजापति ऋषि, छन्द गायत्री, देवता अर्धलक्ष्मीहरि राध एवं उसके दण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक दशा (जो उस कहे गये हैं। श्री बीज के द्वारा षडङ्गन्यास होता है। समय देश में व्याप्त थी) का इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण यह प्रतीक अर्धनारीश्वर (शिव) के समानान्तर है। वर्णन है । तत्कालीन धर्माचरण का भी यह ग्रन्थ सर्वोत्तम यह भी सत् और चित् के मिलन का रूपक है, जिससे प्रमाण है। आनन्द की सृष्टि होती है। 'अर्थशास्त्र' बहुत व्यापक शब्द है । इसमें समाजशास्त्र, अर्धश्रावणिका व्रत-श्रावण शुक्ल प्रतिपदा को व्रतारम्भ दण्डनीति और सम्पत्तिशास्त्र तीनों का समावेश है। वार्ता करके एक मास पर्यन्त उसका अनुष्ठान करना चाहिए। अर्थात् व्यापार सन्बन्धी सभी बातें सम्पत्तिशास्त्र के पार्वती की, जिन्हें अर्द्धश्रावणी भी कहा जाता है, पूजा होनी विषय है। राजनीति सम्बन्धी सभी बातें दण्डनीति के चाहिए । व्रती को एक मास तक एक समय अथवा दोनों विषय हैं । त्रयी में वर्णाश्रम विभाग और उनके सम्बन्ध में समय विधि से आहार करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार समाजशास्त्र का विषय है। २. ७५३-७५४ । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इन सभी विषयों का समाहार है। अर्थोदय व्रत-स्कन्दपुराण के अनुसार माघ मास की अमाअर्धनारीश-अर्धाङ्गिनी पार्वती और उनके ईश शंकर का वस्या के दिन यदि रविवार, व्यतीपात योग और श्रवण संयुक्त रूप । उनका ध्यान इस प्रकार बताया गया है : नक्षत्र हो तो अर्धोदय योग होता है । इस योग के दिन यह नीलप्रवालरुचिरं विलसत्रिनेत्रं व्रत किया जाता है । कदाचित् ही इन सबका मिलन संभव पाशारुणोत्पलकपालकशूलहस्तम् । होता है और इसे पवित्रता में करोड़ों सूर्यग्रहणों के तुल्य अर्धाम्बिकेशमनिशं प्रविभक्तभूषम् समझा जाता है। अर्धोदय के दिन प्रयाग में प्रातः गंगाबालेन्दुबद्धमुकुट प्रणमामि रूपम् ।। स्नान का बड़ा माहात्म्य है । किन्तु कहा गया है कि इस [ नीले प्रवाल के समान सुन्दर, तीन नेत्रों से सुशोभित, दिन सभी नदियाँ गङ्गातुल्य हो जाती हैं । इस व्रत के तीन हाथ में पाश, लाल कमल, कपाल और त्रिशूल लिये हुए, देवता हैं-ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर और वे इसी क्रम में अङ्गों में भूषण धारण किये हए, बालचन्द्रमा रूपी मकूट पूजनीय होते हैं। पौराणिक मन्त्रों के अनुसार अग्नि में पहने हुए शिव-पार्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।] घृत का हवन करते हैं तथा 'प्रजापते' (ऋ० वे० १०. अर्धनारीश्वर-आधे-आधे रूप से एक देह में संमिलित १२१.१०) ब्रह्मा के लिए, 'इदम् विष्णुः' (ऋ० वे० १.१२. गौरी-शंकर । यह शिव का एक रूप है । तिथ्यादितत्त्व में १७) विष्णु के लिए एवं 'व्यम्बकम्'(ऋ० ० ७.५९.१२) कथन है : महेश्वर के लिए, तीन मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। अष्टमी नवमीयुक्ता नवमी चाष्टमीयता । __ व्रतार्क (पत्रात्मक, ३४८ अ-३५० ब) में कथित है कि अर्धनारीश्वरप्राया उमामाहेश्वरी तिथिः ।। भट्ट नारायण के 'प्रयागसेतु के अनुसार यह योग पौष मास [अष्टमी नवमी से युक्त अथवा नवमी अष्टमी से युक्त हो, में पड़ता है जब कि अमान्त का परिगणन किया गया हो, उसे अर्धनारीश्वरी या उमामाहेश्वरी तिथि कहते हैं।] तथा पूर्णिमान्त का परिगणन किया गया हो तब माध में । यह रूप शिव और शक्ति के मिलन का प्रतीक है। भुजबलनिबन्ध (पृ० ३६४-३६५) के अनुसार सूर्य उस इसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री का मिलन है। इससे समय मकर राशि पर होना चाहिए । तिथितत्त्व, १७७, आनन्द की उत्पत्ति होती है, और फिर सम्पूर्ण विश्व में एवं व्रतार्क के अनुसार यह योग तभी मान्य होगा जब इसकी अभिव्यक्ति। __ दिन में पड़े रात में नहीं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० ३०) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अर्पण-अलक्ष्मीनाशक स्नान के अनुसार यदि उपर्युक्त समूह में से कोई एक (जैसे, पौष अर्यक्त–पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित वह परिवार जिसके अथवा माघ, अमावस्या, व्यतीपात, श्रवण नक्षत्र, रविवार) सर्पयज्ञ में अर्यक गृहपति एवं आरुणि होता थे । अनुपस्थित हो तो यह महोदय पर्व कहलाता है। अद्ध दिय अर्यमा-वैदिक देवमण्डल का एक देवता। यह सूर्य का ही एक के अवसर पर ब्राह्ममुहर्त में नदी स्नान अत्यन्त पुण्यदायक रूप है । वैदिक काल में अनेक आदित्य वर्ग के देवता थे । होता है। परवर्ती काल में उन सबका अवसान एक देवता सूर्य में हो अर्पण-भक्तिभाव से पूजा की सामग्री देवता के समक्ष निवे गया, जो विना किसी भेद के उन्हीं के नामों, यथा सूर्य, दन करना । गीता के अष्टम अध्याय में कथन है : सविता, मित्र, अर्यमा, पूषा से कहे जाते हैं। आदित्य, यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददाति यत् । विवस्वान् एवं विकर्तन आदि भी उन्हीं के नाम हैं। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ काव्यों में भी अर्यमा का प्रयोग सूर्य के पर्याय के रूप हे अर्जन, जो काम करते, भोजन करते, हवन करते, में हआ है : दान देते, तप करते हो उसे मेरे प्रति अर्पण करो।] प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव । (किरात०) विन्यास के अर्थ में भी वह शब्द प्रयुक्त हुआ है : [जिस प्रकार अर्यमा के अस्त होने पर अन्धकार मेरु कैलासगौरं वृषमारुरुक्षोः की तटी में भर जाता है।] पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् ॥ (रघुवंश) अहंन्सम्मान्य, योग्य, समर्थ, अर्हता प्राप्त । प्रचलित अर्थ [ कैलास के समान गौर वर्णवाले नन्दी के ऊपर चढ़ने । क्षपणक, बुद्ध, जिन भी है। के लिए उद्यत शंकरजी के पैर रखने के कारण मेरी पीठ पवित्र हो गयी है।] अलकनन्दा-(अलति = चारों ओर बहती है, अलका, अर्बुद-(१) पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सूर्ययज्ञ में ग्राव अलका चासो नन्दा च) कुमारी (त्रिकाण्डशेष) । भारतवर्ष स्तुत् पुरोहित के रूप में अर्बुद का उल्लेख है। स्पष्टतया की गङ्गा (शब्दमाला)। श्रीनगर (गढवाल) के समीप इन्हें ऋषि अर्बुद काद्रवेय समझना चाहिए, जिनका वर्णन भागीरथी गङ्गा के साथ मिली हुई यह स्वनामख्यात नदी ऐतरेय ब्राह्मण (६.१) एवं कौशीतकि ब्राह्मण (२९.१) में है। इसके किनारे कई पवित्र संगमस्थल है । जहाँ मन्दा किनी इसमें मिलती है वहाँ नन्दप्रयाग है; जहाँ पिण्डर मन्त्रद्रष्टा के रूप में हुआ है। (२) यह पर्वतविशेष (आबू) का नाम है। भारत के मिलती है वहाँ कर्णप्रयाग; जहाँ भागीरथी मिलती है प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सनातनी हिन्दू और वहाँ देवप्रयाग । इसके आगे यह गङ्गा कहलाने लगती जैन सम्प्रदाय वाले दोनों इसे पवित्र मानते हैं । यह राज है। यद्यपि अलकनन्दा का विस्तार अधिक है, फिर भी स्थान में स्थित है। गङ्गा का उद्गम भागीरथी से ही माना जाता है। दे० अर्य-यह शब्द साहित्य में विशेष व्यवहृत नहीं है। वेद 'गङ्गा'। भाष्यकार महीधर इसका अर्थ वैश्य लगाते हैं, साधारणतः अलक्ष्मी---दरिद्रा देवी, लक्ष्मी की अग्रजा. जो लक्ष्मी नहीं 'आर्य' नहीं लगाते । यद्यपि 'अर्य' का अर्थ वैश्य परवर्ती है। यहाँ पर 'न' विरोध अर्थ में है । यह नरकदेवता काल में प्रचलित रहा है, किन्तु यह निश्चित नहीं है कि निर्ऋति, जेष्ठादेवी आदि भी कही जाती है (पद्मपुराण, यह मौलिक अर्थ है। फिर भी इसका बहप्रचलित अर्थ उत्तर खण्ड)। उसका विवरण 'जेष्ठा' शब्द में देखना 'वैश्य' ही है। वाजसनेयी संहिता में इसका प्रयोग इस चाहिए । दीपावली की रात्रि को उसका विधिपूर्वक पूजन अर्थ में मिलता है : कर घर में से बिदा कर देना चाहिए। यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्यः अलक्ष्मीनाशक स्नान-पौष मास की पूर्णिमा के दिन जब ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च । पुष्य नक्षत्र हो, श्वेत सर्षप का तेल मर्दन कर मनुष्यों [ इस कल्याणी वाणी को मैं सम्पूर्ण जनता के लिए को यह स्नान करना चाहिए । इस प्रकार स्नान करने से बोलता हूँ-ब्राह्मण, राजन्य, शूद्र और अर्य (वैश्य) दारिद्रय दूर भागता है। तब भगवान् नारायण की मूर्ति के लिए।] का पूजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इन्द्र, चन्द्रमा, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलवणतृतीया अवगाहन बृहस्पति तथा पुष्य की प्रतिमाओं का भी सर्वोपधि युक्त जल से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ ( तिथि तथा संवत्सर) | अलवण तृतीया - किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया, किन्तु वैशाख शुक्ल पक्ष, भाद्रपद अथवा माघ शुक्ल पक्ष की तृतीया इस व्रत में विशेष महत्त्वपूर्ण होती है। स्त्रियाँ ही इसका मुख्यतः आचरण करती हैं । द्वितीया को उपवास, तृतीया को नमक रहित भोजन, गौरी देवी का पूजन जीवन पर्यन्त भी किया जा सकता है दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड ४८-५१ । - अलवार -- दक्षिण भारत की उपासक परम्परा से ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से उस प्रदेश में हरिभक्ति का प्रचार था। कहा जाता है कि उस प्रदेश में कलियुग के प्रारम्भ में प्रसिद्ध अलवार भक्त गण उत्पन्न हुए थे । इनमें तीन आचार्य हुए चोंहिये, पूदत्त एवं पे । पहिये का जन्म काञ्ची नगर में हुआ था। इनकी ध्यानावस्थित मूर्ति काशी के एक मन्दिर में है, जो वहाँ के सरोवर के बीच जल में बना है । पूदत्त का जन्म तिरुवन्न मामलयि नामक स्थान में, जिसे पहले मल्ला पुरी कहते थे, हुआ था । पे का जन्म मद्रास के मलयपुर नामक स्थान में हुआ। ये सदा श्री हरि के प्रेम में उन्मत्त रहा करते थे । इसी से इनका नाम 'वे' अर्थात् उन्मत्त पड़ गया। तदनन्तर पाण्ड्य देश में 'तिकमिडिशि' और 'शठारि' का जन्म हुआ, जिन्हें शहरिपु या शठकोप भी कहते हैं। शठरिपु के शिष्य मधुर कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था। वे बड़ी मधुर भाषा में कविता किया करते थे, इसी से उनका नाम 'मधुर कवि' पड़ा । केरल प्रान्त के प्रसिद्ध राजा 'कुलशेखर' भी एक प्रधान अलवार हो गये हैं। उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक एक स्तोत्र की रचना की । इनके पश्चात् 'पेरिया अलवार' अर्थात् सर्वश्रेष्ठ भक्त का जन्म हुआ। उनकी पुत्री अण्डाल बहुत बड़ी भक्त थी । बहुत ही मधुरभाषिणी होने के कारण उसे गोदा कहते हैं । उसने तमिलभाषा में 'स्तोत्ररत्नावली' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें तीन सौ स्तोत्र हैं । इन स्तोत्रों का भक्तों में बड़ा आदर हैं। इस तरह अनेक अलवारों का विवरण मिलता है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दार्शनिक विद्वान् विशिष्टाइस मत की परम्परा बनाये हुए थे, वहां ये प्राचीन अलवार भी भक्ति-मङ्गा बहा रहे थे। दसवीं शताब्दी ५३ में इस मत को अपनी प्रतिभा से यामुनाचार्य ने पुनः उद्दीप्त किया था, रामानुजाचार्य ने इसका सर्वतोमुखी प्रचार किया । इस प्रकार तमिल देश में भक्तिमार्गी कवि गायकों की एक श्रृंखला वर्तमान थी। ये गायक एक से दूसरे मन्दिर तक घूमा करते थे, स्तुतियां बनाते और आनन्दातिरेक में उनका गायन अपने आराध्य देव की प्रतिमा के सम्मुख किया करते थे। बारह वैष्णव गायकों के नाम मिलते हैं, जिन्हें अलवार के नाम से पुकारा जाता है । उनका धर्माचरण सबसे बढ़कर उन्मादपूर्ण भावना था । उनका सबसे बड़ा आनन्द था अपने आराध्य की मूर्ति की आँखों की ओर एकटक देखना तथा उनकी प्रशंसा संगीत में करना । गाते-गाते आत्मविभोर होकर देवालय की भूमि पर गिर जाना, रात भर देवता के अदर्शन के कारण रुग्ण तथा प्रातःकाल देवालय का द्वार खुलते ही देवदर्शन कर स्वास्थ्य लाभ करना आदि उनकी भक्ति के मधुर उदाहरण हैं । ये जाति से बहिष्कृत लोगों को शिक्षा देते थे तथा इनमें से कुछ अलवार स्वयं जातिबहिष्कृत थे । इनकी रचनाओं में स्थानीय कथाओं, देवालय के देव की स्तुति, मूर्ति के आकार-प्रकार के अतिरिक्त रामायण-महाभारत एवं पुराणों का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है। ये अलवार श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के शिक्षक माने जाते हैं। इनकी स्तुतियों का सामाजिक पूजा तथा विद्वानों की शिक्षाविधि आदि के अर्थ में बड़ा सम्माननीय स्थान है । अलोक - (१) मिथ्या; अवास्तविक; शशशृंग, आकाशपुष्प के खदृश, कल्पना मात्र मृपा 'ज्ञातेऽलीकनिमीलिते नयनयो:' ( अमरुशतक ) । : (२) अप्रिय तथवास महाराजो नालीकमधिगच्छति ।' ( रामायण ) अलौकिक — लौकिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं, अथवा लोकव्यवहार में प्रचलित नहीं स्वर्ग या दिव्य लोक की वस्तु । श्रीमद्भागवत में कहा गया है : 'उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् ।' [ हे विश्वात्मन् अपने इस अलौकिक रूप को हटा लो। ] भगवान् के नाम, रूप, लीला और धाम सभी अलौकिक है। अवगाहन स्नान करना, गोता लगाना। इसके पर्याय है Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवच्छेववाद-अवतार अवगाह, वगाह, मज्जन । जल में मज्जन (डुबकी लगाने) की विधि इस प्रकार है: अङ्गलीभिः पिधायैवं श्रोत्रदृङ्नासिकामुखम् । निमज्जेत प्रतिस्रोतस्त्रिः पठेदघमर्षणम् ।। [ कान, आँख, नाक, मुख को अङ्गली से दबाकर जल में प्रवाह के सामने स्नान करना तथा तीन वार अघमर्षण मन्त्र पढ़ना चाहिए।] अवच्छेदवाद-इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस वा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद अथवा परिमिति के आरोप के कारण होती है। अवतार-ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण अथवा उतरना। हिन्दुओं का विश्वास है कि ईश्वर यद्यपि सर्वव्यापी, सर्वदा सर्वत्र वर्तमान है, तथापि समय-समय पर आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर विशिष्ट रूपों में स्वयं अपनी योगमाया से उत्पन्न होता है। परमात्मा या विष्णु के मुख्य अवतार दस हैं : मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि । इनमें मुख्य, गौण, पूर्ण और अंश रूपों के और भी अनेक भेद हैं। अवतार का हेतु ईश्वर की इच्छा है। दुष्कृतों के विनाश और साधुओं के परित्राण के लिए अवतार होता है (भगवद्गीता ४।८)। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि कच्छप का रूप धारण कर प्रजापति ने शिशु को जन्म दिया । तैत्तिरीय ब्राह्मण के मतानुसार प्रजापति ने शूकर के रूप में महासागर के अन्तस्तल से पृथ्वी को ऊपर उठाया। किन्तु बहुमत में कच्छप एवं वराह दोनों रूप विष्णु के हैं । यहाँ हम प्रथम बार अवतारवाद का दर्शन पाते हैं, जो समय पाकर एक सर्वस्वीकृत सिद्धान्त बन गया। सम्भवतः कच्छप एवं वराह ही प्रारम्भिक देवरूप थे, जिनकी पूजा बहुमत द्वारा की जाती थी (जिसमें ब्राह्मणकुल भी सम्मिलित थे)। विशेष रूप से मत्स्य, कच्छप, वराह एवं नृसिंह ये चार अवतार भगवान् विष्णु के प्रारम्भिक रूप के प्रतीक हैं । पाँचवें अवतार वामनरूप में विष्णु ने विश्व को तीन पगों में नाप लिया था । इसकी प्रशंसा ऋग्वेद एवं ब्राह्मणों में है, यद्यपि वामन नाम नहीं लिया गया है । भगवान् विष्णु के आश्चर्य से भरे कार्य स्वाभाविक रूप में नहीं किन्तु अवतारों के रूप में ही हुए हैं। वे रूप धार्मिक विश्वास में महान् विष्णु से पृथक् नहीं समझे गये । अन्य अवतार हैं-राम जामदग्न्य, राम दाशरथि, कृष्ण एवं बुद्ध । ये विभिन्न प्रकार एवं समय के हैं तथा भारतीय धर्मों में वैष्णव परम्परा का उद्घोष करते हैं। आगे चलकर राम और कृष्ण की पूजा वैष्णवों की दो शाखाओं के रूप में मान्य हुई। बुद्ध को विष्णु का अवतार मानना वैष्णव धर्म की व्याप्ति एवं उदारता का प्रतीक है। __ विभिन्न ग्रन्थों में अवतारों की संख्या विभिन्न है । कहीं आठ, कहीं दस्र, कहीं सोलह और कहीं चौबीस अवतार बताये गये हैं, किन्तु दस अवतार बहुमान्य हैं। कल्कि अवतार जिसे दसवाँ स्थान प्राप्त है वह भविष्य में होने वाला है। पुराणों में जिन चौबीस अवतारों का वर्णन है उनकी गणना इस प्रकार है : १. नारायण (विराट् पुरुष), २. ब्रह्मा ३. सनक-सनन्दन-सनत्कुमार-सनातन ४. नरनारायण ५. कपिल ६. दत्तात्रेय ७. सुयश ८. हयग्रीव ९. ऋषभ १०. पृथु ११. मत्स्य १२. कूर्म १३. हंस १४. धन्वन्तरि १५. वामन १६. परशुराम १७. मोहिनी १८. नृसिंह १९. वेदव्यास २०. राम २१. बलराम २२. कृष्ण २३. बुद्ध २४. कल्कि । किसी विशेष केन्द्र द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति के प्रकट होने का नाम अवतार है। अवतार शब्द द्वारा अवतरण अर्थात् नीचे उतरने का भाव स्पष्ट होता है, जिसका तात्पर्य इस स्थल पर भावमूलक है। परमात्मा की विशेष शक्ति का माया से सम्बन्धित होना एवं सम्बद्ध होकर प्रकट होना ही अवतरण कहा जा सकता है । कहीं से कहीं आ जाने अथवा उतरने का नाम अवतार नहीं होता। ___ इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रामाण्य रूप में सामने आते हैं। यथा'प्रजापतिश्चरति गर्भेऽन्तरजायमानो बहुधा विजायते ।' [परमात्मा स्थल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।] ऋग्वेद भी अवतारवाद प्रस्तुत करता है, यथा “रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय । इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश ।" [भगवान् भक्तों के प्रार्थनानुसार प्रख्यात होने के लिए माया के संयोग से अनेक रूप धारण करते हैं । उनके शतशतरूप है। ] इस प्रकार निखिल शास्त्रस्वीकृत अवतार ईश्वर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतार के होते हैं, जो कि अपनी कुछ कलाओं से सुशोभित होते हैं, जिन्हें आंशिक अवतार एवं पूर्णावतार की संज्ञा दी जाती है । 'परमात्मा षोडशकला सम्पन्न माना जाता है । परमात्मा की षोडश कलाशक्ति जड़-चेतनात्मक समस्त संसार में व्याप्त है। एक जीव जितनी मात्रा में अपनी योनि के अनुसार उन्नत होता है, उतनी ही मात्रा में परमात्मा की कला जीवाश्रय के माध्यम से विकसित होती है । अतः एक योनिज जीव अन्य योनि के जीव से उन्नत इसलिए है कि उसमें अन्य योनिज जीवों से भगवत्कला का विकास अधिक मात्रा में होता है । चेतन सृष्टि में उद्भिज्ज सृष्टि ईश्वर की प्रथम रचना है, इसलिए अन्नमयकोषप्रधान उद्भिज्ज योनि में परमात्मा की षोडश कलाओं में से एक कला का विकास रहता है। इसमें श्रुतियाँ भी सहमत हैं, यथा 'पोडशानां कलानामेका कलाऽतिशिष्टाभूत् सानेनोपसमाहिता प्रज्वालीत् । ' [ परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमश कोष के द्वारा प्रकट हुई।] अतः स्पष्ट है, उद्भिज्ज योनि द्वारा परमात्मा की एक कला का विकास होता है। इसी क्रम से परवर्ती जीवयोनि स्वेदज में ईश्वर की दो कला, अण्डज में तीन और जरायुज के अन्तर्गत पशु योनि में चार कलाओं का विकास होता है। इसके अनन्सर जरायुज मनुष्ययोनि में पाँच कलाओं का विकास होता है । किन्तु यह साधारण मनुष्य तक ही सीमित है । जिन मनुष्यों में पाँच से अधिक आठ कला तक का विकास होता हैं वे साधारण मनुष्यकोटि में न आकर विभूति कोटि में ही परिगणित होते हैं। क्योंकि पाँच कलाओं से मनुष्य की साधारण शक्ति का ही विकास होता है, और इससे अधिक छः से लेकर आठ कलाओं का विकास होने पर विशेष शक्ति का विकास माना जाता है, जिसे विभूति कोटि में रखा गया है। शक्ति लेकर जिसे इस प्रकार एक कला से लेकर आठ कला तक का विकास लौकिक रूप में होता है । नवम कला से षोडश कला तक का विकास अलौकिक विकास है, जीवकोटि नहीं अपितु अवतारकोटि कहते हैं । जिन केन्द्रों द्वारा परमात्मा की शक्ति नवम कला से लेकर षोडश कला तक विकसित होती है, वे सभी केन्द्र जीव न कहला कर अवतार कहे जाते हैं। इनमें नवम कला से अतः ५५ पन्द्रहवीं कला तक का विकास अंशावतार कहलाता है एवं षोडश कलाकेन्द्र पूर्ण अवतार का केन्द्र है। इसी कलाविकास के तारतम्य से चेतन जीवों में अनेक विशेषताएं देखने में आती हैं । यथा पाँच कोषों में से अन्नमय कोष का उद्भिज्ज योनि में अपूर्व रूप से प्रकट होना एक कला विकास का ही प्रतिफल है। अतः ओषधि, वनस्पति, वृक्ष तथा लताओं में जो जीवों की प्राणाधायक एवं पुष्टिप्रदायक शक्ति है, यह सब एक कला के विकास का हो परिणाम है। स्वेदज, अण्डज, पशु और मनुष्य तथा देवताओं तक की तृप्ति अन्नमय कोष वाले उद्भिज्जों द्वारा ही होती है और इसी एक कला के विकास के परिणाम स्वरूप उनकी इन्द्रियों की क्रियाएं दृष्टिगोचर होती हैं। यथा महाभारत ( शान्ति पर्व ) में कथन है : ऊष्मतो म्लायते वर्णं त्वक्फलं पुष्पमेव च । म्लायते शीर्यते चापि स्पर्शस्तेनात्र विद्यते ॥ [ ग्रीष्मकाल में गर्मी के कारण वृक्षों के वर्ण, त्वचा, फल, पुष्पादि मलिन तथा शीर्ण हो जाते हैं, अतः वनस्पति में स्पर्शेन्द्रिय की सत्ता प्रमाणित होती है । ] इसी प्रकार प्रवात, वायु, अग्नि, वज्र आदि के शब्द से वृक्षों के फलपुष्प नष्ट हो जाते हैं । इससे उनकी श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सत्यापित की जाती है। लता वृक्षों को आधार बना लेती है एवं उनमें लिपट जाती है, यह कृत्य बिना दर्शनेन्द्रिय के सम्भव नहीं । अतः वनस्पतियाँ दर्शनेन्द्रिय शक्तिसम्पन्न मानी जाती है। अच्छी बुरी गन्ध तथा नाना प्रकार की धूपों की गन्ध से वृक्ष निरोग तथा पुष्पित फलित होने लगते हैं। इससे वृक्षों में घ्राणेन्द्रिय की भी सत्ता समझी जाती है। इसी प्रकार वे रस अपनी टहनियों द्वारा ऊपर खींचते हैं, इससे उनकी रसनेन्द्रिय की सत्ता मानी जाती है । उद्भिज्जों में सुख-दुःख के अनुभव करने की शक्ति भी देखने में आती है | अतः निश्चित है कि ये चेतन शक्तिसम्पन्न हैं । इस सम्बन्ध में मनु का भी यही अभिमत है : तमसा बहुरूपेण वेष्टिता कर्महेतुना । अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः । [ वृक्ष अनेक प्रकार के तमोभावों द्वारा आवृत रहते हुए भी भीतर ही भीतर सुख-दुख का अनुभव करते हैं । ] अधिक दिनों तक यदि किसी वृक्ष के नीचे हरे वृक्षों को लाकर चीरा जाय तो वह वृक्ष कुछ दिनों के अनन्तर सूख Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। इससे वृक्षों के सुख-दुःखानुभव स्पष्ट हैं। वृक्षों का श्वासोच्छ्वास वैज्ञानिक जगत् में प्रत्यक्ष मान्य ही है। वे दिन-रात को आक्सिजन तथा कार्बन गैस का क्रम से त्याग-ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार अफ्रीका आदि के पशुपक्षी कीट-भक्षी लताएं कुत्र प्रख्यात ही हैं। अतः वे सभी क्रियाए भगवान् की एक कला मात्र की प्राप्ति से वनस्पति योनि में देखी जाती हैं । इसके अनन्तर स्वेदज योनि में दो कलाओं का विकास माना जाता है, जिससे इस योनि में अन्नमय और प्राणमय कोषों का विकास देखने में आता है। इस प्रकार प्राणमय कोष के ही कारण स्वेदज गमनागमन व्यापार में सफल होते हैं । अण्डज योनि में तीन कलाओं के कारण अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोषों का विकास होता है । इस योनि में मनोमय कोष के विकास के परिणामस्वरूप इनमें प्रेम आदि अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । इसी प्रकार जरायुज योनि के अन्तर्गत चार कलाओं के विद्यमान रहने के कारण इनमें अन्नमय, प्राणमय मनोमय कोणों के साथ ही साथ विज्ञानमय कोष का भी विकास होता है। उत्कृष्ट पशुओं में तो बुद्धि का भी विकास देखने में आता है, जिससे वे अनेक कर्म मनुष्यवत् करते हैं । यथा अश्व, श्वान, गज आदि पशु स्वामिभक्त होते हैं, एवं समय आने पर उनके प्राणरक्षक के रूप में भी देखे जाते हैं। जरायुज योनि के ही द्वितीय प्रभेद मनुष्ययोनि में चार से अधिक एक आनन्दमय कोष का भी विकास है । पञ्चकोषों के विकास के कारण ही मनुष्य में कर्म की स्वतन्त्रता होती है । मनुष्य यदि चाहे तो पुरुषार्थ द्वारा पाँचों कोषों का विकास कर पूर्ण ज्ञानसम्पन्न मानव भी हो सकता है। इसी प्रकार कर्मोन्नति द्वारा मनुष्य जितनाजितना उन्नत होता जाता है, उसमें ईश्वरीय कलाओं का विकास भी उतना हो होता जाता है । इस कला विकास में ऐश्वर्यमय शक्ति का सम्बन्ध अधिक है, अज्ञेय ब्रह्मशक्ति का नहीं। विष्णु भगवान् के साथ ही भगवदवतार का प्रधान सम्बन्ध रहता है। क्योंकि विष्णु ही इस सृष्टि के रक्षक एवं पालक हैं। वद्यपि सृष्टि स्थिति एवं संहार के असाधारण कार्यों की निष्पन्नता के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों के अवतार हुआ करते हैं, पर जहाँ तक रक्षा का प्रश्न है, इसके लिए विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं । अवतार- तिविव्रत अवतारों की वे सब जन्मतिथियां जो जयन्तियों के नाम से विख्यात है व्रत के लिए विहित है। , अवतारतिथिव्रत- अवनेजन - कृत्यसारसमुच्चय ( पृ० १३) के अनुसार ये तिथियां निम्नलिखित हैं मत्स्य चैत्र शुक्ल ३ कूर्म वैशाख पूर्णिमा वराह भाद्र शुक्ल ३; नरसिंह वैशाख शुक्ल १४; वामन भाद्र शुक्ल १२; परशुराम वैशाख शुक्ल ३; राम चैत्र शुक्ल ९; बलराम भाद्र शुक्ल ६; कृष्ण भाद्र कृष्ण ८; बुद्ध ज्येष्ठ शुक्ल २ या वैशाखी पूर्णिमा । कुछ ग्रन्थों के अनुसार कल्कि अवतार अभी होना शेष है जबकि कुछ ने श्रावण शुक्ल ६ को कल्कि जयन्ती का उल्लेख किया है। कुछ ग्रन्थों में इन जयन्तियों अथवा जन्मतिथियों में अन्तर है । अवधूत - सम्यक् प्रकार से धूत (परिष्कृत) निर्मुक्त इस शब्द का प्रयोग शैव एवं वैष्णव दोनों प्रकार के साधुओं के अर्थ में होता है । शैव अवधूत वे संन्यासी हैं जो तपस्या का कठोर जीवन बिताते हैं, जो कम से कम कपड़े पहनते हैं और कपड़े की पूर्ति भस्म से करते हैं तथा अपने केश जटा के रूप में बढ़ाते हैं। वे मौन रहते हैं, हर प्रकार से उनका जीवन बड़ा क्लेशसाध्य होता है । योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इस श्रेणी के विचित्र अवधूत के नाम से पुकारा जाता है । नाम दिया, वैष्णव सम्प्रदाय में भी अवधूत का महत्त्व है । जब स्वामी रामानन्द ने सामान्य जनों को वैष्णवों में दीक्षित करने के लिए अपने धार्मिक सम्प्रदाय से जातिभेद हटा दिया तब उन्होंने अपने शिष्यों को 'अवधूत' जिसका अर्थ था कि उन्होंने अपने पुराने रूप (पूर्ववर्ती स्वेच्छाचार) को त्याग दिया है, उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार कर अपनी व्यक्तिगत आदतों को त्याग दिया है, और इस प्रकार समाज एवं प्रकृति के बन्धनों को तोड़ दिया है। ऐसे रामानन्दी साथ दसनामी संन्यासियों से अधिक कड़ा अनुशासनमय धार्मिक जीवन यापन करते हैं। अवध्य बघ के अयोग्य : 'अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुस्तिर्यग्योनिगता अपि ।' (स्मृति) [ निम्न योनि की स्त्रियों भी अवध्य कही गयी है । ] ब्राह्मण भी अवध्य (वधदण्ड के अयोग्य ) माना गया है । अवनेजन - ( १ ) चरण प्रक्षालन करना, पग धोना : ' न कुर्याद् गुरुपुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् |' ( मनु ) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्तिका-अविकृतपरिणामवाद [ गुरुपुत्र के पैर नहीं धोने चाहिए।] (२) पिण्डदान के लिए बिछे हुए कुशों पर जल सींचना । ब्रह्मपुराण में लिखा है : सपुष्प जलमादाय तेषां पृष्ठे पृथक् पृथक् । अप्रदक्षिणं नेनिज्याद् गोत्रनामानुमन्त्रितम् ।। [ फल-सहित जल लेकर पिण्डों के पृष्ठ भाग पर अलग-अलग बायीं ओर जल सींचना चाहिए।] अवन्तिका-मालव देश की प्राचीन राजधानी । उज्जयिनी (उज्जैन) का वास्तव में यही मूल नाम था। यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी। तब से इसका नाम उज्जयिनी ( विजय वाली ) पड़ा। इसकी गणना भारत को सप्त पवित्र मोक्षदायिनी पुरियों में है : अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ (स्कन्दपुराण) [(१) अयोध्या, (२) मथुरा, (३) माया, (४) काशी, (५) काञ्ची, (६) अवन्तिका और(७) द्वारावती ये सातों पुरी मोक्षदायिका हैं।] इसके पर्याय विशाला और पुष्पकरण्डिनी भी हैं। 'संस्कारतत्त्व' में कहा गया है : उत्पन्नोर्कः कलिङ्ग तु यमुनायाञ्च चन्द्रमाः । अवन्त्यां च कुजो जातो मागधे च हिमांशुजः ।। [ कलिङ्ग में सूर्य की, यमुना में चन्द्रमा की, अवन्ती में मङ्गल की और मगध में बुध की उत्पत्ति हुई।] अवभृथ-दीक्षान्तस्नान; प्रधान यज्ञ समाप्त होने पर सामूहिक नदीस्नान; यज्ञादि के न्यूनाधिक दोष की शांति के निमित्त शेष कर्त्तव्य होम । स्नान इसका एक मुख्य समझा जाता है। अवरोधन-रोक, बाधा, किसी क्रिया की रुकावट । पाण्डवगीता में कथन है : कृष्ण त्वदीयपदपंकजपिञ्जरान्ते अद्य व मे विशतु मानसराजहंसः । प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ॥ [हे कृष्ण ! तुम्हारे चरणरूपी कमल के पिंजड़े के भीतर मेरा मनरूपी राजहंश आज ही प्रविष्ट हो जाय । क्योंकि प्राण-प्रयाण के समय कफ, वात और पित्त से कण्ठ के अवरुद्ध हो जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे हो सकता है ?] राजाओं के अन्तःपुर को अवरोध कहते हैं, जहाँ उनकी रानियाँ निवास करती हैं। अवलिप्त-धन आदि से गर्वित मनुष्य । मनु (४।७९) के अनुसार इसका साथ वर्जित है : न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालन पुक्कसैः । न मूर्ख वलिप्तश्च नान्त्यैः नान्त्यावसायिभिः ।। [पतित, चाण्डाल, पुक्कस, मूर्ख, धन से गर्वित, अन्त्यज और अन्त्यजों के पड़ोसियों के साथ नहीं रहना चाहिए।] अविकृत परिणामवाद-वैष्णव भक्तों का एक दार्शनिक सिद्धान्त । ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध-निरूपण में इसका विकास हुआ। ब्रह्म की निर्विकारता तथा निरपेक्षता और जीव-जगत् की सत्यता सिद्ध करने के लिए इस मत का प्रतिपादन किया गया। यद्यपि ब्रह्म-जीवजगत् का वास्तविक अद्वैत है परन्तु ब्रह्म में बिना विकार उत्पन्न हुए उसी से जीव और जगत् का प्रादुर्भाव होता है । अतः यह प्रक्रिया अविकृत परिणाम है । इसी मत को अविकृत परिणामवाद कहते हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति में जब परिणाम (परिवर्तन ) होता है तब जगत् की उत्पत्ति होती है । इस मत को प्रकृतिपरिणामवाद कहते हैं। वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्म का परिणाम ही जगत् है। इसे ब्रह्मपरिणामवाद कहते हैं। किन्तु वेदान्तियों के कई विभिन्न सांप्रदायिक मत हैं। शङ्कराचार्य ब्रह्म की निर्विकारता की रक्षा के लिए जगत् को ब्रह्म का परिणाम न मानकर उसको ब्रह्म का विवर्त मानते हैं। किन्तु इससे जगत् मिथ्या मान ततश्चकारावभथं विधिदृष्टेन कर्मणा । (महाभारत) [ शास्त्रोक्त विधान के अनुसार उसने अवभूथ स्नान किया।] भुवं कोष्णेन कुण्डोध्नी मेध्येनावभृथादपि । (रघुवंश) [ कुण्ड भर दूध देने वाली गौ ने अवभृथ से भी पवित्र अपने दूध से भूमि को सिंचित किया।] अवमदिन सप्ताह का ऐसा दिन, जिसमें दो तिथियों का अन्त हो। इस दिन की दूसरी तिथि की गणना नहीं की जाती और उसका क्षय होना कहा जाता है। प्रथम बार व्रत आचरण करने में इसको त्यक्त Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ अविघ्नविनायक अथवा अविध्नव्रत-अविनीत ह . लिया गया। यह सिद्धान्त रामानुजाचार्य को मान्य नहीं था। अतः उन्होंने जीव और जगत् ( चित् और अचित् ) को ब्रह्म के अन्तर्गत उसका विशेषण ( गुणभूत ) माना। मध्वाचार्य ने ब्रह्म को केवल निमित्त माना और प्रकृति को जगत् का उपादान कारण माना। ___ इस द्वैत दोष से बचने के लिए निम्बार्क ने प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति माना, जिससे जगत् का प्रादुर्भाव होता है । इस मान्यता से ब्रह्म में विकार नहीं होता, परन्तु जगत् प्रक्षेप मात्र अथवा मिथ्या ही बन जाता है। वल्लभाचार्य ने उपर्युक्त मतों की अपूर्णता स्वीकार करते हुए कहा कि जीव-जगत् ब्रह्म का परिणाम है, किन्तु एक विचित्र परिणाम है। इससे ब्रह्म में विकार नहीं उत्पन्न होता। उनके अनुसार जीव और जगत् ब्रह्म के वैसे ही परिणाम हैं, जैसे अनेक प्रकार के आभूषण सोने के, अथवा अनेक प्रकार के भाण्ड मृत्तिका के । अपने मत के समर्थन में इन्होंने उपनिषदों से बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। इस मत में ब्रह्म सच्चिदानन्द ( सत् + चित् + आनन्द ) है जिससे जीव-जगत् प्रादुर्भूत होता है। सत् से जगत्; सत् और चित् से जीव और सत्, । चित् और आनन्द से ईश्वर का आविर्भाव होता है। इस प्रकार अविकृत ब्रह्म से यह सम्पूर्ण जगत् उद्भूत होता है। अविघ्नविनायक अथवा अविध्नवत--(१), फाल्गुन, चतुर्थी तिथि से चार मासपर्यन्त गणेशपूजन। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द १, ५२४-५२५ । (२) मास के दोनों पक्षों की चतुर्थी, तीन वर्षपर्यन्त व्रत-अवधि और गणेश देवता । दे० निर्णयामत, ४३, भविष्योत्तर पुराण । अविज्ञ य-जानने योग्य नहीं, दुर्जेय । मनु का कथन है : आसीदिदं तमोभतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतक्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ [ यह ब्रह्माण्ड अन्धकारपूर्ण, अप्रज्ञात, लक्षणहीन, अतर्कनीय, न जानने योग्य, सर्वत्र सोये हुए के समान था ।] मूल तत्त्व ( ब्रह्म) भी अविज्ञेय कहा गया है। वह ज्ञान का विषय नहीं, अनु भति का विषय है । वास्तव में वह विषय मात्र नहीं है; अनिर्वचनीय है। अविद्या-अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। आत्मा एवं विश्व, आत्मा एवं पदार्थ में द्वैत की स्थापना माया अथवा अविद्या का कार्य है। अविद्या का अर्थ है मानवबुद्धि की सीमा, जिसके कारण वह देश और काल के भीतर देखती और सोचती है । अविद्या वह शक्ति है जो मानव के लिए सम्पूर्ण दृश्य जगत् का सर्जन या भान कराती है। सम्पूर्ण दश्यमान जगत् अविद्या का साम्राज्य है। जब मनुष्य इससे ऊपर उठकर अन्तर्दृष्टि और अनुभव में प्रवेश करता है तव अविद्या का आवरण हट जाता है और अद्वैत सत्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। अविद्या के पर्याय अज्ञान, माया, अहङ्कारहेतुक अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, विद्याविरोधिनी अयथार्थ बुद्धि आदि है। कथन है : अविद्याया अविद्यात्वमिदमेव तु लक्षणम् । यत्प्रमाणासहिष्णुत्वमन्यथा वस्तु सा भवेत् ॥ [अविद्या का लक्षण अविद्यात्व ही है। वह प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अन्यथा वह वस्तु सत्ता हो जायगी।] अविधि-अविधान, अथवा शास्त्र के विरुद्ध आचरण । गीता ( ९।२३ ) में कथन है : येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। [हे अर्जुन ! जो लोग अन्य देवताओं की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वे भी अविधि पूर्वक मेरा ही यजन करते हैं। ] याज्ञवल्कय ने भी कहा है : वसेत् स नरके घोरे दिनानि पशुरोमभिः । अमितानि दुराचारो यो हन्त्यविधिना पशून् । [जो दुष्ट मनुष्य विना विधि के पशुओं का वध करता है वह पशु के रोम के बराबर असंख्य दिनों तक घोर नरक में वास करता है। ] अविनय-विनय का अभाव अथवा दुःशीलता। मनु (७.४०-४१) का कथन है : बहवोऽविनयान्नष्टा राजानः सपरिच्छदाः । वनस्था अपि राज्यानि विनयात प्रतिपेदिरे ।। [विनय से रहित बहुत से राजा परिवार सहित नष्ट हो गये । विनय युक्त राजाओं ने वन में रहते हुए भी राज्य को प्राप्त किया।] अविनीत-विनयरहित (व्यक्ति), समुद्धत । रामायण में कहा है : Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविमुक्त-अव्यङ्ग न चापि प्रतिकूलेन नाविनीतेन रावण । काण्ड, ७०-७५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ४३९-४४४ । राज्यं पालयितुं शक्यं राज्ञा तीक्ष्णेन वा पुनः ।। अविवाह्या-विवाह के अयोग्य । सुमन्तु के अनुसार माता[ हे रावण ! कोई राजा प्रतिकूल, अविनीत, तीक्ष्ण पिता से सम्बद्ध सात पीढ़ी तक की कन्याएँ अविवाह्य आचरण के द्वारा राज्य का पालन नहीं कर सकता।] होती हैं। दूसरों के मत में दोनों पक्षों की पाँच पीढियों अविमुक्त-वाराणसी क्षेत्र । काशीखण्ड (अ० २६ ) में । तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए । लिखा है : नारद का भी मत है : मने प्रलयकालेपि नैतत क्षेत्रं कदाचन । आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः । विमुक्तं स्यात् शिवाभ्यां यदविमुक्तं ततो विदुः ॥ अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा ।। अविमुक्तं तदारभ्य क्षेत्रमेतदुदीर्यते । सप्तमे पञ्चमे वापि येषां वैवाहिकी क्रिया । अस्यानन्दवनं नाम पुराऽकारि पिनाकिना ।। ते च सन्तानिनः सर्वे पतिताः शूद्रतां गताः ॥ क्षेत्रस्यानन्दहेतुत्वादविमुक्तमनन्तरम् । [पिता एवं माता की सात एवं पाँच पीढ़ियों तक की आनन्दकन्द बीजानामङ्कराणि यतस्ततः ॥ कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए । वे कन्याएँ ज्ञेयानि सर्वलिङ्गानि तस्मिन्नानन्दकानने । अविवाह्य है। समान प्रवर और समान गोत्र वाली अविमुक्तमिति ख्यातमासीदित्थं घटोद्भव ।। कन्याओं के साथ भी विवाह नहीं करना चाहिए। पाँच [हे मुने! प्रलय काल में भी शिव-पार्वती वाराणसी अथवा सात पीढ़ियों में विवाह करनेवाले लोग सन्तान क्षेत्र को नहीं छोड़ते । इसीलिए इसे अविमुक्त कहते हैं । सहित पतित होकर शूद्र हो जाते हैं । ] शिव ने पहले इसका नाम आनन्दवन रखा, क्योकि यह अवीचिमान -एक नरक का नाम । उसके अन्य नाम हैं क्षेत्र आनन्द का कारण है। इसके अनन्तर अविमुक्त वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेनाम रखा। इस आनन्दवन में असंख्य शिवलिंगों के रूप यादन, अवीचि, अयापान । जो इस लोक में साक्ष्य, द्रव्य में आनन्दकन्द बीजों के अङ्कर इधर उधर बिखरे हुए की अदला-बदली, दान आदि में किसी प्रकार का झूठ है । हे अगस्त्य ! इस प्रकार यह वाराणसी अविमुक्त नाम बोलता है वह मरकर अवीचिमान् नरक में नीचे सिर से विख्यात हुई।] करके खुले स्थान में सौ योजन ऊँचे पर्वत से गिराया पद्मपुराण में काशी के चार विभाग किये गये हैं- जाता है। यहाँ पर पापी मनुष्य गिराये जाने से तिल के काशी, वाराणसी, अविमुक्त और अन्तर्गृही । विश्व समान विच्छिन्न शरीर हो जाता है । (भागवत, ५.२६) नाथ मन्दिर के चारों ओर दो सौ धन्वा (एक धन्वा = अवेस्ता-पारसी (ईरानी) लोगों का मूल धर्मग्रन्थ, जिसका ४ हाथ) का वृत्त अविमुक्त कहलाता है। दे० 'काशी' वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक देवताओं एवं धार्मिक और 'वाराणसी। कृत्यों का अवेस्ता एवं वेद के पाठों में साम्य है, जैसे अवियोगद्वादशी-भाद्र शुक्ल १२ तिथि । इस दिन शिव अहुरमज्द का वरुण से, सोम का हओम से, ऋत का अश तथा गौरी, ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु और लक्ष्मी, से । ये देवतानाम एवं धार्मिक विचारसाम्य भारतीय एवं सूर्य तथा उनकी पत्नी विक्षुब्धा का पूजन होना चाहिए। ईरानी आर्यों की एकता के द्योतक है। सम्भवतः ये एक दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ११७७-११८० । ही मूल स्थान के रहने वाले भाई-भाई थे । अवियोगवत अथवा अवियोगततीया-स्त्रियों के लिए अवैधव्य शुक्लकादशी-चैत्र शुक्ल एकादशी। दे० हेमाद्रि, विशेष व्रत । मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारम्भ होता व्रत खण्ड, जिल्द १, ११५।। है । तृतीया के दिन शर्करा मिश्रित खीर का सेवन, शम्भु अव्यक्त–वेदान्त में 'ब्रह्म' और सांख्य में 'प्रकृति' दोनों के तथा गौरी का पूजन विहित है । एक वर्ष पर्यन्त आटा लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ तथा चावल की बनी हुई शम्भु तथा गौरी की मूर्तियों है 'जो व्यक्त (प्रकट) नहीं है।' यह जगत् का वह मौलिक का बारहों महीनों में भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न रूप है जो दृश्य अथवा प्रतीयमान नहीं है। फूलों से पूजन करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु का व्रत अव्यङ्ग-इसका शाब्दिक अर्थ है पूर्ण । यह एक पूजा-उपा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-अशोकाष्टमी दान है, जिसे सूर्यमन्दिर का मग (अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण) पुरोहित धारण करता है । भविष्यपुराण में उद्धृत है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने सूर्योपासना से अपना कुष्ठ रोग निवारण किया तथा देवता के प्रति कृतज्ञ हो उन्होंने चन्द्रभागा तीर्थ में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। फिर वे नारद के शिक्षानुसार शकद्वीप की आश्चर्यजनक यात्रा कर वहाँ से एक मग पुरोहित लाये । यह मग पुरोहित अन्य पूजासामग्रियों के साथ 'अव्यङ्ग' नामक उपादान पूजा के समय अपने हाथ में धारण करता था। अव्यय-जिसका व्यय नहीं हो, अविनाशी, नित्यपुरुष । यह विष्णु का पर्याय है । मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है : नमस्कृत्य सुरेशाय विष्णवे प्रभविष्णवे । पुरुषायाप्रमेयाय शाश्वतायाव्ययाय च ॥ [सुरेश, विष्णु, प्रभविष्णु, पुरुष, अप्रमेय, शाश्वत, अव्यय को नमस्कार करके । ] तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः । (रघुवंश) [योग समाधि के द्वारा रघु तम से परे अव्यय पुरुष को प्राप्त हुआ।] अशून्य व्रत-इस व्रत में श्रावण मास से प्रारम्भ करके चार मासपर्यन्त प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया के दिन अक्षत, दही तथा फलों सहित चन्द्रमा को अर्घ्यदान किया जाता है। यदि द्वितीया तिथि तृतीया से विद्ध हो तो उसी दिन व्रत का आयोजन किया जाता है। दे० पुरुषार्थचिन्तामणि, पृ० ८३ ।। अशन्यशयन व्रत-श्रावण मास से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिवत है । इसमें लक्ष्मी तथा हरि का पूजन होता है। इसका उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर, मत्स्य (७१, २-२०), पद्मपुराण, विष्णुपुराण (२४, १-१९) आदि में हुआ है। स्त्रियों के अवैधव्य तथा पुरुषों के अवियोग (पत्नी से अवियोग) के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें भगवान् से यह प्रार्थना की जाती है : लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयन सदा । शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथात्र मधुसूदन ॥ [हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मीजी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपने पति या पत्नी से सूनी न हो। कृत्यरत्नाकर (पृष्ठ २२८) में लिखा है कि जब यह कहा गया है कि व्रत श्रावण कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है तो प्रयोग से सिद्ध है कि मास पूर्णिमान्त है। अशोकत्रिरात्र-ज्येष्ठ, भाद्र अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से लेकर तीन रात्रिपर्यन्त एक वर्ष के लिए यह व्रत किया जाता है । चाँदी के अशोक वृक्ष का पूजन तथा ब्रह्मा और सावित्री की प्रतिमाओं का प्रथम दिन पूजन, उमा तथा महेश्वर का द्वितीय दिन, लक्ष्मी तथा नारायण का तृतीय दिन पूजन होता है। इसके पश्चात् प्रतिमाएँ दान कर दी जाती हैं। यह व्रत पापशामक, रोगनिवारक तथा दीर्घायुष्य, यश, समृद्धि, पुत्र तथा पौत्र आदि प्रदान करता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.२७९-२८३; व्रतार्क (पत्रात्मक २६१ ब-२६४) । यद्यपि साधारणतः यह व्रत महिलाओं के लिए निर्दिष्ट है किन्तु पुत्रों की समृद्धि के इच्छुक पुरुष भी इस व्रत का आचरण कर सकते हैं। अशोकद्वादशी-विशोक द्वादशी की ही भाँति, आश्विन मास से एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दशमी के दिन हलका भोजन ग्रहण कर एकादशी को पूर्ण उपवास करके द्वादशी को व्रत की पारणा होती है। इसमें केशव का पूजन होता है । इसका फल है सुन्दर स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा शोक से मुक्ति । दे० मत्स्य पुराण, ८१.१-२८; कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड (पृ० ३६०-३६३) । अशोकपूर्णिमा-फाल्गुन मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए । प्रथम चार मासों में तथा उसके बाद के चार मासों में पृथ्वी का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। प्रथम चार मासों में पृथ्वी को 'धरणी' मानते हुए पूजन होता है। बाद के चार मासों में 'मेदिनी' नाम से तथा अन्तिम चार मासों में 'वसुन्धरा' नाम से पूजन होता है। दे० अग्निपुराण, १९४.१; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१६२-१६४ ।। अशोकाष्टमी-(१) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यदि कहीं उस दिन बुधवार तथा पुनर्वसु नक्षत्र हो तो उसका पुण्य बहुत बढ़ जाता है । इसमें अशोक के पुष्पों से दुर्गा का पूजन होता है। अशोक की आठ कलियों से युक्त जल ग्रहण किया जाना चाहिए। अशोक वृक्ष का मन्त्र बोलते हुए पूजन करना चाहिए : त्वामशोक कराभीष्टं मधुमाससमुद्भवम् । पिवामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोककाष्टमी-अश्वदीक्षा दे० कालविवेक, पृ० ४२२; हेमाद्रि का चतुर्य चिन्तामणि, काल अंश, पृ० ६२६ । चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन सभी तीर्थ तथा नदियों का जल ब्रह्मपुत्र नदी में आ जाता है । इस दिन का ब्रह्मपुत्र में स्नान उन सभी पुण्यों को प्रदान करता है, जो वाजपेय यज्ञ करने से प्राप्त होते हैं। अशोककाष्टमी - इस व्रत में उमा का पूजन होता है। नीलमत पुराण (पृष्ठ ७४, श्लोक १९०५-९०७) बतलाता है कि अशोक वृक्ष स्वयं देवी है । अथवा शास्त्र के अर्थ में अदृढ विश्वास श्राद्धतत्त्व में कथन है : विधिहीनं भावदुष्टं कृतमया च यत् । तद्धरन्त्यसुरास्तस्य मूढस्य दुष्कृतात्मनः ॥ [ मूढ एवं दुष्टात्मा पुरुष के विधिहीन, भावदूषित तथा अधापूर्वक किये गये कार्य को असुर हर लेते हैं ।] मानसिक वृत्तिभेद को भी अश्रद्धा कहते हैं : कामः सल्पी विचिकित्सा श्रद्धाद्धा धृतिर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव । । काम, मूल्य, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, बुद्धि, भय ये सब मन ही हैं । ] गीता में कथन है : 'अश्रद्धया च यद्दत्तं तत्तामसमुदाहृतम्' [ जो दान विना श्रद्धा के दिया जाता है उसे तामस कहा है । ] अधाद्धभोजी धाद में भोजन न करने वाला, प्रशंसनीय ब्राह्मण श्राद्ध का अन्न न खाने वाला ब्राह्मण पवित्र आचारवान् या त्यागी माना जाता है। कुछ धाड़ों में भोजन करने के बदले प्रायश्चित्त करने का आदेश स्मृतियों में पाया जाता है । अश्वग्रीव - विष्णु से द्वेष करनेवाला असुर । महाभारत में कहा है : ' 'अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः [ अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुण्ड, महाबल ये दैत्य हैं । ] वृष्णिवंशज चित्रक का एक पुत्र जो राजा हो गया 'अश्वग्रीव इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः ' अश्वत्थ - हिन्दुओं का पूज्य पोपल वृक्ष । इसे विश्ववृक्ष भी कहते हैं । इसका एक नाम वासुदेव भी है। ऐसा विश्वास है कि इसके पत्ते पत्ते में देवताओं का वास है । काम-कर्मरूपी वायु के द्वारा प्रेरित, नित्य प्रचलित स्वभाव एवं शीघ्र विनाशी होने के कारण तथा कल भी रुकेगा ऐसा विश्वास न होने के कारण, मायामय संसारवृक्ष को भी अश्वत्थ कहते हैं । इसके पर्याय है- (१) वोधिद्रुम, (२) चलदल, (३) पिप्पल, (४) कुञ्जराशन, (५) अच्युतावास, (६) चलपत्र, (७) पवित्रक, (८) शुभद, (९) बोधिवृक्ष, (१०) याज्ञिक, (११) गजभक्षक, (१२) श्रीमान्, (१३) क्षीरद्रुम, (१४) विप्र, (१५) मङ्गल्य, (१६) श्यामल, (१७) गुह्यपुष्प, (१८) सेव्य, (१९) सत्य, ( २० ) शुचिम और (२१) धनवृक्ष । ६१ ऋग्वेद में अश्वत्थ की लकड़ी के पात्रों का उल्लेख है। परवर्ती काल के ग्रन्थों में इस वृक्ष का अत्यधिक उल्लेख किया गया है। इसकी कठोर लकड़ी अग्नि जलाते समय शमी की लकड़ी के ऊपर रखी जाती थी । यह अपनी जड़ों को दूसरे वृक्ष के तने में स्थापित कर उन्हें नष्ट कर देता है, विशेष कर खदिर नामक वृक्ष को । इसी कारण इसे बाध भी कहते हैं । इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया है, जिसे पक्षी खाते हैं (ऋ० १. १६४, २०) । देवता लोग इस वृक्ष के नीचे तीसरे स्वर्ग में निवास करते हैं (अ० ० ५.४, ३ छा० ३०८.५, २० कौ० उ० ९.३) । अश्वत्थ एवं न्यग्रोध को शिखण्डी भी वृक्ष की लकड़ी के पात्र यज्ञों में काम में कहते हैं । इस लाये जाते हैं । इस वृक्ष का धार्मिक महत्त्व अधिक है। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ ।' विश्ववृक्ष से इसकी तुलना की गयी है । इसको चैत्यवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे पूजा-अर्चा आदि होती है। J अश्वरथव्रत अपशकुन, आक्रमण संक्रामक बीमारियों, जैसे कुष्ठ आदि के फैलने के समय अश्वत्व का पूजन किया जाता है। दे० व्रतार्क, पत्रात्मक, पृ० ४०६, ४०८ । अश्वदीक्षा - आश्विन शुक्ल पक्ष में जब स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा हो उस दिन यह व्रत किया जाता है । इन्द्र के घोड़े (उच्चैःश्रवा) तथा अपने घोड़ों का इस समय सम्मान करना चाहिए। यदि नवमी तिथि हो तो शान्तिपाठ के साथ चार भिन्न रंगों में रंगे हुए धागों को घोड़ों की Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ गर्दनों में बांधना चाहिए। दे० नीलमत पुराण, पृष्ठ ७७, पद्य ९४३-९४७ । अश्वपूजा - आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दे० 'आश्विन' । अश्वमुख - घोड़े के समान मुख वाला, किन्नर ( स्त्री अश्वमुखी, किन्नरी) । किम्पुरुष इसका एक अन्य पर्याय है । अश्वमेध वैदिक यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह महाक्रतुओं में से एक है। ऋग्वेद में इससे सम्बन्धित दो मन्त्र हैं । शतपथ ब्राह्मण ( १३.१-५) में इसका विशद वर्णन प्राप्त होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.८०९), कात्यायनीय श्रौतसूत्र ( २० ), आपस्तम्ब (२०), आश्वलायन ( १०.६), शांखायन (१६) तथा दूसरे समान ग्रन्थों में इसका वर्णन प्राप्त होता है महाभारत (१०.७१.१४) में महाराज युधिष्ठिर द्वारा कौरवों पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् पाप मोचनार्थ किये गये अश्वमेध यज्ञ का विशद वर्णन है । अश्वमेध मुख्यतः राजनीतिक यज्ञ था और इसे वही सम्राट् कर सकता था, जिसका आधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे । आपस्तम्ब ने लिखा है 'राजा सार्वभौमः अश्वमेधेन यजेत् । नाप्यसार्वभौम:' [ सार्वभौम राजा अश्वमेध यज्ञ करे असार्वभौम कदापि नहीं | ] यह यज्ञ उसकी विस्तृत विजयों, सम्पूर्ण अभिलाषाओं की पूर्ति एवं शक्ति तथा साम्राज्य की वृद्धि का योतक होता था। दिग्वि जय-यात्रा के पश्चात् साफल्यमण्डित होने पर इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था । ऐतरेय ब्राह्मण (८.२० ) इस यज्ञ के करनेवाले महाराजों की सूची प्रस्तुत करता है, जिन्होंने अपने राज्यारोहण के पश्चात् पृथ्वी को जीता एवं इस यज्ञ को किया। इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट् का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा । जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा अधिक सामाजिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्ष आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रौत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया । - यज्ञ का प्रारम्भ वसन्त अथवा ग्रीष्म ऋतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्रायः एक वर्ष का समय लगता था । सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व चुना जाता था। यह शुद्ध जाति का मूल्यवान् एवं विशिष्ट चिह्नों से युक्त होता था । यज्ञ स्तम्भ में बांधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान अश्वपूजा - अश्वमेघ कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात् इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी । इसके सिर पर जयपत्र बाँधकर छोड़ा जाता था एक सौ राजकुमार, एक सौ राजसभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिए सशस्त्र पीछे-पीछे प्रस्थान करते थे । इसके स्वतन्त्र विचरण में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने देते थे। इस अश्व के चुराने या इसे रोकने वाले नरेश से युद्ध होता था । यदि यह अश्व खो जाता तो दूसरे अश्व से यह क्रिया आरम्भ से पुनः की जाती थी। जब यह अश्व दिग्विजय यात्रा पर जाता था तो स्थानीय लोग इसके पुनरागमन की प्रतीक्षा करते थे। मध्यकाल में अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये जाते थे । सवितृदेव को नित्य उपहार दिया जाता था। राजा के सम्मुख पुरोहित उत्सव के मध्य मन्त्रगान करता था । इस मन्त्रगान का चक्र प्रत्येक ग्यारहवें दिन दुहराया जाता था। इसमें गान, वंशीवादन तथा वेद के विशेष अध्यायों का पाठ होता था । इस अवसर पर राजकवि राजा की प्रशंसा में रचित गीतों को सुनाता था । मन्त्रगान नाटक के रूप में विविध प्रकार के पात्रों, वृद्ध, नवयुवक, सँपेरों, टाकू, मछुवा, आखेटक एवं ऋषियों के माध्यम से प्रस्तुत होता था। जब वर्ष समाप्त होता और अश्व वापस आ जाता, तब राजा की दीक्षा के साथ यज्ञ प्रारम्भ होता था । वास्तविक यज्ञ तीन दिन चलता था, जिसमें अन्य पशुयज्ञ होते थे एवं सोमरस भी निचोड़ा जाता था । दूसरे दिन यज्ञ का अश्व स्वर्णाभरण से सुसज्जित कर, तीन अन्य अश्वों के साथ एक रथ में नाधा जाता था और उसे चारों ओर घुमाकर फिर स्नान कराते थे। फिर वह राजा की तीन प्रमुख 'रानियों द्वारा अभिषिक्त एवं सुसज्जित किया जाता था, जब कि होता एवं प्रमुख पुरोहित ब्रह्मोद्य करते थे । पुनः अश्व एक बकरे के साथ यज्ञस्तम्भ में बाँध दिया जाता था। दूसरे पशु जो सैकड़ों की संख्या में होते थे, बलि के लिए स्तम्भों में बाँधे जाते थे कपड़ों से ढककर इनका श्वास फुलाया जाता था । पुनः मुख्य रानी अश्व के साथ वस्त्रावरण के भीतर प्रतीकात्मक रूप से लेटती थी । पुरोहितादि ब्राह्मण महिलाओं के साथ प्रमोदपूर्वक प्रश्नो तर करते थे (वाजसनेयी संहिता २३, २२) । ज्यों ही मुख्य Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वमेधिक-अश्विनौ रानी उठ खड़ी होती, त्यों ही चातुरीपूर्वक यज्ञ-अश्व काट दिया जाता था । अनेकों अबोधगम्य कृत्यों के पश्चात्, जिसमें सभी पुरोहित एवं यज्ञ करनेवाले सम्मिलित होते थे, अश्व के विभिन्न भागों को भूनकर प्रजापति को आहुति दी जाती थी । तीसरे दिन यज्ञकर्त्ता को विशुद्धिस्नान कराया जाता, जिसके बाद वह यश कराने वाले पुरोहितों तथा ब्राह्मणों को दान देता था । दक्षिणा जीते हुए देशों से प्राप्त धन का एक भाग होती थी। कहीं-कहीं दासियों सहित रानियों को भी उपहार सामग्री के रूप में दिये जाने का उल्लेख पाया जाता है । अश्वमेध ब्रह्महत्या आदि पापक्षय, स्वर्ग प्राप्ति एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए भी किया जाता था। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद अश्वमेध प्रायः बन्द ही हो गया। इसके परवर्ती उल्लेख प्रायः परम्परागत हैं। इनमें भी इस यज्ञ के बहुत से धौत अङ्ग संपन्न नहीं श्रौत होते थे । अवमेधिक अपयमेध याग के उपयुक्त घोड़ा। देखिए 'अश्वमेध' । अश्वयुज् (क) — अश्विनी नक्षत्र आश्विन मास । अश्वल - विदेहराज जनक का पुरोहित जो बृहदारण्यक उप निषद् में एक प्रामाणिक विद्वान् कहा गया है। ऋग्वेद के श्रोत सूत्रों में सबसे प्रथम आश्वलायन श्रौतसूत्र समझा जाता है, जो बारह अध्यायों में विभक्त है। कुछ लोगों का कहना है कि अश्वल ऋषि ही उस सूत्रग्रन्थ के रचयिता हैं । ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के प्रणेता का नाम भी आश्वलायन है । अन्धव्रत- यह संवत्सर व्रत है। इसका इन्द्र देवता है। दे० मत्स्य पुराण, १०१.७१ तथा हेमाद्रि, व्रत खण्ड । अश्विनौ ( अश्विन् ) - ये वैदिक आकाशीय देवता हैं और दो भाई है तथा इनका 'उषा' से समीपी सम्बन्ध है, क्योंकि तीनों का उदय एक साथ ही प्रातः काल होता है । निश्चय ही यह दिन-रात्रि का सन्धिकाल है क्योंकि अग्नि, उषा एवं सूर्य के उदय काल का अश्विन के उदयकाल से साम्य है ( ऋ० १.१५७ ) । सूर्य की पुत्री तीन बैठकों से युक्त अश्विन के रथ में सवार होती हैं' (ऋ० १. २४.५ आदि ) । आशय यह है कि उषा ( पौ फटना ) एवं सन्धिकालीन धीमा प्रकाश ( प्रातःकालीन नक्षत्र अश्विनी) दोनों एक ही काल में प्रकट होते हैं। इस ----- ६३ प्रकार साथ-साथ उदय से उषा एवं अश्विनी भाइयों में प्रेम का आरोपण किया गया गया है और उषा देवी ने दोनों अश्वारोहियों को अपना सहयोगी चुना है । समस्या और भी उलझ जाती है जब कि सूर्यपुत्री को अश्विनौ की बहिन तथा पत्नी दोनों कहा जाता है ( ऋ० १. १८०.२ ) । वास्तव में यह सम्पूर्ण वर्णन आलंकारिक और रूपकात्मक है | अश्विनों के वाहन अश्व ही नहीं, अपितु पक्षी भी कहे गये हैं । उनका रथ मधु हाँकता है । उसके हाथ में मधु का ही कोड़ा है । ओल्डेनबर्ग ने इसका अर्थ प्रातःकालीन ओस - बूँदें तथा ग्रिफिथ ने जीवनदायक प्रभात वायु लगाया है। उनके वाहन पक्षी रक्त वर्ण के हैं। उनका पथ रक्तवर्ण एवं स्वर्णवर्ण है । अश्विनौ का जो भी भौतिक आधार हो, वे स्पष्टतः उषा एवं दिन के अग्रदूत हैं । 7 इनका दूसरा पक्ष है दुःख से मुक्ति देना एवं आश्चर्यजनक कार्य करना । अश्विनी विपत्ति में सहायता करते हैं। वे देवताओं के चिकित्सक हैं जो प्रत्येक रोग से मुक्ति देते हैं खोयी हुई दृष्टि दान करते हैं, शारीरिक क्षतों को पूरते हैं और अस्वास्थ्यकारी एवं पीड़क बाणों से बचाते हैं । वे गौ एवं अश्व-धन से परिपूर्ण हैं एवं उनका रथ धन एवं भोजन से भरा रहता है । इनके दुःख से मुक्ति देने के चार उदाहरण ऋग्वेद ( ७.७१. ५) में दिये हुए हैं उन्होंने बूढ़े महर्षि च्यवन को युवक बना दिया, उनके जीवन को बढ़ा दिया तथा उन्हें अनेक कुमारियों का पति होने में समर्थ बनाया । इन्होंने जलते हुए अग्निकुण्ड से अत्रि का उद्धार किया । : अश्विनौ के वंश का विविधता से वर्णन मिलता है । कई बार उन्हें द्यौ की सन्तान कहा गया है । एक स्थान पर सिन्धु को उनकी जननी कहा गया है ( निःसन्देह यह आकाशीय सिन्धु है और इसका सम्भवतः अर्थ है आकाश का पुत्र ) । एक स्थान पर उन्हें विवस्वान् की जुड़वाँ सन्तान कहा गया है। अश्विनौ का निकट सम्बन्ध प्रेम, विवाह, पुरुषत्व एवं संतान से है वे सोम एवं सूर्या के विवाह में वर के मध्यस्थ के रूप से प्रस्तुत किये गये हैं । वे सूर्या को अपने रथ पर लाये । इस प्रकार वे नवविवाहिताओं को वरगृह में लाने का कार्य करते हैं । वे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सन्तान के निमित्त पूजित होते हैं ( ऋ० १०.१८४.२ )। पौराणिक पुराकथाओं में अश्विनौ का उतना महत्त्व नहीं है, जितना वैदिक साहित्य में । फिर भी अश्विनी- कुमार के नाम से इनकी बहुत सी कथाएँ प्राचीन साहित्य . में उपलब्ध होती है । दे० 'अश्विनीकुमार' । अश्विनी-सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत प्रथम नक्षत्र । अश्विनी से लेकर रेवती तक सत्ताईस तारागण दक्ष की कन्या होने के कारण 'दाक्षायणी' कहलाते हैं। अश्विनी चन्द्रमा की भार्या तथा नव-पादात्मक मेषराशि के आदि चार पाद रूप है, इसके स्वामी देवता अश्वारूढ अश्विनीकुमार हैं। अश्विनीकुमार--आयुर्वेद के आचार्यों में अश्विनीकुमारों की गणना होती है । सुश्रुत ने लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले पहल एक लाख श्लोकों का आयुर्वेद (ग्रन्थ ) बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उसको प्रजापति ने पढ़ा, प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा । इन्द्र से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की । अश्विनीकुमारों ने च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान किया। अश्विनीकुमार वैदिक अश्विनौ ही हैं, जो पीछे पौराणिक रूप में इस नाम से चित्रित होने लगे। ये अश्वरूपिणी संज्ञा नामक सूर्यपत्नी के युगल पुत्र तथा देवताओं के वैद्य हैं । हरिवंश पुराण में लिखा है : विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे दाक्षायण्यामरिन्दम । तस्य भार्याभवत्संज्ञा त्वाष्ट्री देवी विवस्वतः ॥ देवौ तस्यामजायेतामश्विनौ भिषजां वरौ। [हे अरिन्दम ! कश्यप से दक्ष प्रजापति की कन्या द्वारा विवस्वान् नामक पुत्र हुआ । उसकी पत्नी त्वष्टा की पुत्री संज्ञा थी। उससे अश्विनीकुमार नामक दो पुत्र हुए जो श्रेष्ठ वैद्य थे ।] दे० 'अश्विन्' । अष्टक-आठ का समूह, अष्ट संख्या से विशिष्ट । यथा गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते वाल्मीकिना विरचितं सुखदं मनुष्यः ।। [जो मनुष्य प्रभात समय में प्रेमपूर्वक सुख देने वाला, वाल्मीकि मुनि द्वारा रचित गङ्गाष्टक पढ़ता है ।] अच्युतं केशवं विष्णुहरि सत्यं जनार्दनम् । हंसं नारायणञ्चैव एतन्नामाष्टकं शुभम् ।। [ अच्युत, केशव, विष्णु, हरि, सत्य, जनार्दन, हंस, नारायण, ये आठ नाम शुभदायक है।] अश्विनी-अष्ट छाप अष्टका-श्राद्ध के योग्य कुछ अष्टमी तिथियाँ । आश्विन, पौष, माघ, फाल्गुन मासों की कृष्णाष्टमी अष्टका कहलाती हैं । इनमें श्राद्ध करना आवश्यक है। अष्टगन्ध-आठ सुगन्धित द्रव्य, जिनको मिलाकर देवपूजन, यन्त्रलेखन आदि के लिए सुगन्धित चन्दन तैयार किया जाता है। विभिन्न देवताओं के लिए इनमें कुछ वस्तुएं अलग-अलग होती हैं। साधारणतया इनमें चन्दन, अगर, देवदारु, केसर, कपूर, शैलज, जटामांसी और गोरोचन माने जाते हैं। अष्टछाप-पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्यकीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य थे तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी ऐसे ही चार शिष्य थे। आठों व्रजभूमि (मथुरा के चारों ओर के समीपी गाँवों) के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को 'अष्टछाप' कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्राएँ है । उन्होंने व्रजभाषा में श्री कृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रची। उनके बाद सभी कृष्णभक्त कवि व्रजभाषा में ही कविता लिखने लगे। अष्टछाप के कवि निम्नलिखित हुए हैं (१) कुम्भनदास (१४६८-१५८२ ई०) (२) सूरदास (१४७८-१५८० ई०) । कृष्णदास (१४९५-१५७५ ई०) (४) परमानन्ददास (१४९१-१५८३ ई०) (५) गोविन्ददास (१५०५-१५८५ ई०) (६) छीतस्वामी (१४८१-१५८५ ई०) (७) नन्ददास (१५३३-१५८६ ई०) (८) चतुर्भुजदास इनमें सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्छल भक्ति के कारण ये लोग भगवान् कृष्ण के 'सखा' भी माने जाते हैं । परम भागवत होने के कारण ये 'भगवदीय' भी कहलाते हैं । ये लोग विभिन्न वर्गों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास क्षत्रिय थे किन्तु कृषक का काम करते थे । सूरदास जी किसी के मत में सारस्वत ब्राह्मण और किसी के मत में बह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण और छीतस्वामी माथर चौबे थे । नन्ददास भी सनाढ्य ब्राह्मण थे। अष्टछाप के भक्तों में बड़ी उदारता पायी जाती है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में इनका जीवनवृत्त विस्तार से पाया जाता है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमङ्गल-अष्टाङ्गयोग अष्टमङ्गल-आठ प्रकार के मङ्गलद्रव्य या शुभकारक [अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, भूमि, जल, वायु, यजमान, वस्तुएँ । नन्दिकेश्वर पराणोक्त दुर्गोत्सवपद्धति में कथन है : आकाश ये आठ महादेव की मतियाँ हैं।। मृगराजो वृषो नागः कलशो व्यजनं तथा । अष्टश्रवा-जिनके आठ कान हैं; ब्रह्मा का एक उपनाम । वैजयन्ती तथा भेरी दीप इत्यष्टमङ्गलम् ।। चार मुख वाले ब्रह्मा के प्रत्येक मुख के दो दो कान होने के [सिंह, बैल, हाथी, कलश, पंखा, वैजयन्ती, ढोल तथा कारण उनको आठ कानों वाला कहते हैं। . दीपक ये आठ मङ्गल कहे गये है।] अष्टाकपाल-आठ कपालों ( मिट्टी के तसलों) में पका शुद्धितत्त्व में भिन्न प्रकार से कहा गया है : हआ होमान्न । यह एक यज्ञकर्म भी है, जिसमें आठ लोकेस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणो गौर्हताशनः ।। कपालों में पुरोडाश (रोट ) पकाकर हवन किया हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टमः ॥ जाता है। [ इस लोक में ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सोना, घी, सूर्य, जल अष्टाङ्ग-देवदर्शन की एक विधि, जिसमें शरीर के आठ तथा राजा ये आठ मङ्गल कहे गये हैं। अंगों से परिक्रमा या प्रणाम किया जाता है। आत्मअष्टमी-आठवीं तिथि, यह चन्द्रमा की आठ कला-क्रिया उद्धार अथवा आत्मसमर्पण की रीतियों में 'अष्टाङ्ग रूप है । शुक्ल पक्ष में अष्टमी नवमी से युक्त ग्रहण करनी प्रणिपात' भी एक है। इसका अर्थ है (१) आठों अङ्गों से चाहिए। कृष्ण पक्ष की अष्टमी सप्तमी से युक्त ग्रहण ( पेट के बल ) गुरु या देवता के प्रसन्न तार्थ सामने लेट करनी चाहिए, यथा : जाना। (२) इसी रूप में पुनः पुनः लेटते हुए एक स्थान कृष्णपक्षेऽष्टमी चैव कृष्णपक्षे चतुर्दशी। से दूसरे स्थान पर जाना। इसके अनुसार किसी पूर्वविद्धैव कर्तव्या परविद्धा न कुत्रचित् ॥ पवित्र वस्तु की परिक्रमा या दण्डवत् प्रणाम उपर्युक्त रीति उपवासादिकार्येषु एष धर्मः सनातनः ।। से किया जाता है। अष्टाङ्ग-परिक्रमा बहुत पुण्यदायिनी [उपवास आदि कार्यों में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तथा मानी जाती है । साधारण जन इसको 'डंडौती देना' कहते कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पूर्वविद्धा ही लेनी चाहिए न कि हैं। इसका विवरण यों है : परविद्धा । यही परम्परागत रीति है । ] उरसा शिरसा दृष्टया मनसा वचसा तथा । अष्टमीव्रत-लगभग तीस अष्टमीव्रत हैं, जिनका उचित पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्यते ॥ नों पर उल्लेख किया गया है। सामान्य नियम यह है छाती, मस्तक, नेत्र, मन, वचन, पैर, जंघा और कि शुक्ल पक्ष की नवमीविद्धा अष्टमी को प्राथमिकता हाथ-~-आठ अंगों से झुकने पर अष्टांग प्रणाम होता है।] प्रदान की जाय तथा कृष्ण पक्ष में सप्तमीसंयुक्त अष्टमी (स्त्रियों को पञ्चांग प्रणाम करने का विधान है।) ली जाय । दे० तिथितत्त्व, ४०, धर्मसिन्धु, १५, हेमाद्रि, अष्टाङयोग-(१) पतञ्जलि के निर्देशानसार आठ अंगों व्रतखण्ड, १.८११-८८६ । की योग साधना । इसके आठ अङ्ग निम्नांकित है : अष्टमूर्ति-शिव का एक नाम । उनकी आठ मूर्तियों के १. यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) निम्नांकित नाम हैं : २. नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर(१) क्षितिमूर्ति शर्व, (२) जलमूर्ति भव, (३) अग्नि प्रणिधान) मूर्ति रुद्र, (५) वायुमूर्ति उग्र, (५) आकाशमूर्ति भीम, ३. आसन (स्थिरता तथा सुख से बैठना) (६) यजमानमूर्ति पशुपति, (७) चन्द्रमूर्ति महादेव और ४. प्राणायाम (श्वास का नियमन-रेचक, पूरक तथा (८) सूर्यमूर्ति ईशान । शरभरूपी शिव के ये आठ चरण कुम्भक) भी कहे गये हैं। दे० कालिकापुराण और तन्त्रशास्त्र । ५. प्रत्याहार (इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन) शिव की आठ मूर्तियाँ इस प्रकार भी कही गयी हैं : ६. धारणा (चित्त को किसी स्थान में स्थिर करना) अथाग्निः रविरिन्दुश्च भूमिरापः प्रभञ्जनः । ७. ध्यान (किसी स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान जब एक यजमानः खमौ च महादेवस्य मूर्तयः ।। प्रवाह में संलग्न है, तब उसे ध्यान कहते हैं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ta अष्टाङ्गार्थ्य-अष्टाध्यायी ८. समाधि (जब ध्यान अपना स्वरूप छोड़कर ध्येय के आकार में भासित होता है तब उसे समाधि कहते हैं।) समाधि की अवस्था में ध्यान और ध्याता का भान नहीं रहता, केवल ध्येय रह जाता है। ध्येय के ही आकार को चित्त धारण कर लेता है । इस स्थिति में ध्यान, ध्याता और ध्येय की एक समान प्रतीति होती है। (२) 'अष्टाङ्गयोग' नामक दो ग्रन्थों का भी पता चलता है । एक तो श्री चरनदास रचित है, जो चरनदासी पंथ के चलाने वाले थे। इस पंथ में योग की प्रधानता है, यद्यपि ये उपासना राधा-कृष्ण की करते हैं। रचनाकाल अठारहवीं शती है । दूसरा 'अष्टाङ्गयोग' गुरु नानक का रचा बताया जाता है। धारणा, ध्यान और समाधि योग के इन तीन अङ्गों को संयम कहते हैं। इनमें सफल होने से प्रज्ञा का उदय होता है । (योगसूत्र) अष्टाङ्गाऱ्या-आठ द्रव्यों से बनाया गया पूजा का एक उपकरण । तन्त्र में कथन है : आपः क्षीरं कुशाग्राणि दधि सर्पिः सतण्डुलाः । यवाः सिद्धार्थकश्चैव अष्टाङ्गार्ग्यः प्रकीर्तितः ॥ [ जल, दूध, कुश का अग्रभाग, दही, घी, चावल, जौ, सरसों ये मिलाकर अष्टाङ्गाऱ्या कहे गये हैं।] स्कन्दपुराण (काशीखण्ड) में कथन है : आपः क्षीरं कुशाग्राणि धृतं मधु तथा दधि । रक्तानि करवीराणि तथा रक्तं च चन्दनम् ॥ अष्टाङ्ग एष अयॊ वै मानवे परिकीर्तितः ॥ [ जल, दूध, कुश का अग्रभाग, घी, मधु, दही, करवीर के रक्तपुष्प तथा लालचन्दन सूर्य के लिए यह अष्टाङ्ग अर्ध्य कहा गया है।] अष्टादशरहस्य-आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ । अष्टावशलीलाकाण्ड-चैतन्यदेव के शिष्य एवं प्रकाण्ड विद्वान् रूप गोस्वामी का रचा हुआ एक ग्रन्थ । अष्टावशस्मृति-इस नाम का एक प्रसिद्ध स्मृतिसंग्रह। इसमें मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ नहीं हैं। इन दो के अतिरिक्त जिन स्मतियों का संग्रह इसमें किया गया औशनसस्मृति, ५. आङ्गिरसस्मति, ६. यमस्मति, ७. आपस्तम्बस्मृति, ८. संवर्तस्मृति, ९. कात्यायनस्मृति, १०. बृहस्पतिस्मृति, ११. पराशरस्मृति, १२. व्यासस्मृति, १३. शङ्ख-लिखितस्मृति, १४. दक्षस्मृति, १५. गौतमस्मृति, १६. शातातपस्मृति, १७. वसिष्ठस्मृति और १८. स्मृतिकौस्तुभ । ___इस संग्रह में विष्णुस्मृति भी सम्मिलित है, किन्तु उसके केवल पाँच अध्याय ही दिये गये हैं, जब कि वङ्गवासी प्रेस की छपी विष्णुसंहिता में कुल मिलाकर एक सौ अध्याय हैं । अष्टाध्यायी-पाणिनिरचित संस्कृत व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसमें आठ अध्याय हैं। इसका भारतीय भाषाओं पर बहुत बड़ा प्रभाव है । साथ ही इसमें यथेष्ट इतिहास विषयक सामग्री भी उपलब्ध है । वैदिक भाषा को ज्ञेय, विश्वस्त, बोधगम्य एवं सुन्दर बनाने की परम्परा में पाणिनि अग्रणी हैं। संस्कृत भाषा का तो यह ग्रन्थ आधार ही है। उनके समय तक संस्कृत भाषा में कई परिवर्तन हुए थे, किन्तु अष्टाध्यायी के प्रणयन से संस्कृत भाषा में स्थिरता आ गयी तथा यह प्रायः अपरिवर्तनशील बन गयी। ___अष्टाध्यायी में कुल सूत्रों की संख्या ३९९६ है । इसमें सन्धि, सुबन्त, कृदन्त, उणादि, आख्यात, निपात, उपसंख्यान, स्वरविधि, शिक्षा और तद्धित आदि विषयों का विचार है। अष्टाध्यायी के पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के अपने बनाये हैं और बहत से ऐसे शब्द है जो पूर्वकाल से प्रचलित थे । पाणिनि ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या करके उनके अर्थ और प्रयोग का विकास किया है। आरम्भ में उन्होंने चतुर्दश सुत्र दिये हैं। इन्हीं सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार बनाये गये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक पाणिनि ने अपने सूत्रों में किया है। प्रत्याहारों से सूत्रों की रचना में अति लाघव आ गया है । गणसमूह भी इनका अपना ही है । सूत्रों से ही यह भी पता चलता है कि पाणिनि के समय में पूर्व-अञ्चल और उत्तर-अञ्चलवासी दो श्रेणी वैयाकरणों की थीं जो पाणिनि की मण्डली से अतिरिक्त रही होंगी। १.अत्रिस्मृति, २. विष्णुस्मृति, ३. हारीतस्मृति, ४. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र-असिधारावत अष्टावक्र-एक ज्ञानी ऋषि । इनका शरीर आठ स्थानों में वक्र (टेढ़ा) था, अतः इनका नाम 'अष्टावक्र' पड़ा । पुरा- कथा के अनुसार ये एक बार राजा जनक की सभा में गये । वहाँ सभासद् इनको देखकर हँस पड़े । अष्टावक्र क्रुद्ध होकर बोले, “यह चमारों की सभा है । मैं समझता था कि पण्डितों की सभा होगी।" जनक ने पूछा, भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? अष्टावक्र ने उत्तर दिया, "आपकी सभा में बैठे लोग केवल चमड़े को पह- चानते हैं, आत्मा और उसके गुण को नहीं।" इस पर सभासद् बहुत लज्जित हुए। तब अष्टावक्र ने आत्मतत्त्व का निरूपण किया । यह एक पण्डित का नाम भी है, जिन्होंने मानव गृह्य- सूत्र पर वृत्ति लिखी है। अष्टारचक्रवान्-जागृत अष्टकोण चक्रवाला, समाधिसिद्ध योगी, जिसकी कुण्डलिनी का अष्टदल कमल विकसित हो गया हो। एक जैन आचार्य, जिनके पर्याय हैं- (१) मञ्जुश्री, (२) ज्ञानदर्पण, (३) मञ्जभद्र, (४) मञ्जघोष, (५) कुमार, (६) स्थिरचक्र, (७) वज्रधर, (८) प्रज्ञाकाय, (९) वादिराज, (१०) नीलोत्पली, (११) महा- राज, (१२) नील, (१३) शार्दूलवाहन, (१४) धियाम्पति, (१५) पूर्वजिन, (१६) खङ्गी, (१७) दण्डी, (१८) विभूषण, (१९) बालव्रत, (२०) पञ्चचीर, (२१) सिंहकेलि, (२२) शिखावर, (२३) वागीश्वर । अष्टाविंशतितत्त्व-वङ्ग प्रदेशवासी रघुनन्दन भट्टाचार्य कृत 'अष्टाविंशतितत्त्व' सोलहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है, जिसको प्राचीनतावादी हिन्दू बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते है। इस ग्रन्थ में हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्यों का विशद वर्णन किया गया है। असती-दराचारिणी, स्वैरिणी, व्यभिचारिणी । उसके पर्याय हैं-(१) पुश्चली, (२) धर्षिणी, (३) बन्धकी, (४) कुलटा, (५) इत्वरी, (६) पांसुला, (७) धृष्टा, (८) दुष्टा, (९) धर्षिता, (१०) लङ्का, (११) निशाचरी, (१२) पारण्डा। असत्पथ-कुमार्ग, जो अच्छा मार्ग नहीं है, पाप का रास्ता। (१) कुपथ, (२) कापथ, (३) दुरध्व, (४) अपथ, (५) कदध्वा, (६) विपथ और (७) कुत्सितवम । असाध्वी-जो साध्वी नहीं, अपतिव्रता । असि-जो स्नान से पापों को दूर करती है [अस् + इन्। नदी विशेष । यह काशी की दक्षिण दिशा में स्थित बरसाती नदी है। जहाँ गङ्गा और असि का संगम होता है वह अस्सीघाट कहलाता है : असिश्च वरणा यत्र क्षेत्ररक्षाकृतौ कृते । वाराणसीति विख्याता तदारभ्य महामुने ।। [असि और वरणा को नगरी की सीमा पर रख दिया गया, उनका सङ्गम प्राप्त करके काशिका उस समय से वाराणसी नाम से विख्यात है।] असित-प्राचीन वेदान्ताचार्यों में एक, जो गीता के अनुसार व्यासजी के समकक्ष माने गये हैं : "असितो देवलो व्यासः" (गीता १०,१३)। असितमग-ऐतरेय ब्राह्मण में इसे कश्यप परिवार की उपाधि बताया गया है। ये जनमेजय के एक यज्ञ में सम्मिलित नहीं किये गये थे, किन्तु राजा ने जिस पुरोहित को यज्ञ करने के लिए नियुक्त किया, उस भूतवीर से असितमृग ने यज्ञ की परिचालना ले ली थी। जैमिनीय तथा षड्विंश ब्राह्मणों में असितमृगों को कश्यपों का पुत्र कहा गया है और उनमें से एक को 'कूसुरबिन्दु औद्दालकि' संज्ञा दी गयी है। असिधाराव्रत-तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना। इसमें व्रतकर्ता को आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिकी पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त, अथवा एक वर्ष पर्यन्त, अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमिशयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए । भिन्नभिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाय । यह क्रम दीर्घ काल तक चले। बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.२१८, १.२५ । असिधारा शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की कालिदास ने रघुवंश (७७.१३) में रामवनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना बतलाया है : 'इयन्ति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ।' Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असिपत्रवन-असुरविद्या युवा युवत्या साधं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत् । अन्तविविक्तसंगः स्यादसिधारावतं स्मृतम् ॥ [ यवती स्त्री के साथ एकान्त में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना असिधाराव्रत कहा गया है । -मल्लिनाथ ] असिपत्रवन-असि (तलवार) के समान जिसके तीक्ष्ण पत्ते हैं, ऐसा वन-एक नरक, जहाँ पर तीक्ष्ण पत्तों के द्वारा पापियों के शरीर का विदारण किया जाता है (मनु) । जो इस लोक में विना विपत्ति के ही अपने मार्ग से विचलित हो जाता है तथा पाखण्डी है उसे यमदूत असिपत्रवन में प्रविष्ट करके कोड़ों से मारते हैं। वह जीव इधर-उधर दौड़ता हआ दोनों ओर की धारों से तालवन के खङ्गसदृश पत्तों से सब अंगों में छिद जाने के कारण "हा मैं मारा गया" इस प्रकार शब्द करता हुआ मूच्छित होकर पग पग पर गिरता है और अपने धर्म से पतित होकर पाखंड करने का फल भोगता है । दे० भागवत पुराण । मार्कण्डेय पुराण में भी इसका वर्णन पाया जाता है : असिपत्रवनं नाम नरकं शृणु चापरम् । योजनानां सहस्रं वै ज्वलदग्न्यास्तृतावनि ॥ तप्तसूर्यकरैश्चण्डैः कल्पकालाग्नि दारुणः । प्रतपन्ति सदा तत्र प्राणिनो नरकौकसः ॥ तन्मध्ये च वनं शीतं स्निग्धपत्रं विभाव्यते । पत्राणि यत्र खङ्गानि फलानि द्विजसत्तम । [ हे ब्राह्मण ! दूसरा असिपत्र नाम का नरक सुनो । वहाँ एक हजार योजन तक विस्तृत पृथ्वी पर आग जलती है, ऊपर भयङ्कर सूर्य की किरणों से तथा नीचे प्रलयकालीन अग्नि से प्राणी तपाया जाता है, उसके मध्य भाग में चिकने पत्तों वाला शीतवन है, जिसके पत्ते एवं फल खङ्ग के समान हैं। ] असुनीति-असु = प्राण या जीवन की नीति = मार्गदर्शक उक्ति । ऋग्वेद (१०.५९.५६) में असुनीति को मनुष्य की मृत्यु पर आत्मा की पथप्रदर्शक माना गया है । असुनीति की स्तुतियों से स्पष्टतया प्रकट होता है कि वे या तो इस लोक में शारीरिक स्वास्थ्य कामनार्थ अथवा स्वर्ग में शरीर एवं इसके दूसरे सुखों की प्राप्ति के लिए की गयी हैं। असुर-असु = प्राण, र = वाला (प्राणवान् अथवा शक्ति- मान)। बाद में धीरे-धीरे यह भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिससे उनके रहस्यमय गुणों का पता लगता है। किन्तु परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया। असुर देवों के बड़े भ्राता है एवं दोनों प्रजापति के पुत्र हैं। असुरों ने लगातार देवों के साथ युद्ध किया और प्रायः विजयी होते रहे । उनमें से कुछ ने तो सारे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया, जब तक कि उनका संहार इन्द्र, विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवों के शत्रु होने के कारण उन्हें दुष्ट दैत्य कहा गया है, किन्तु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु भगुप्त्र शुक्र थे जो देवगुरु बृहस्पति के तुल्य ही ज्ञानी और राजनयिक थे । ___ महाभारत एवं प्रचलित दूसरी कथाओं के वर्णन में असुरों के गुणों पर प्रकाश डाला गया है। साधारण विश्वास में वे मानव से श्रेष्ठ गुणों वाले विद्याधरों की कोटि में आते हैं । कथासरित्सागर की आठवीं तरङ्ग में एक प्रेमपूर्ण कथा में किसी असुर का वर्णन नायक के साथ हुआ है । संस्कृत के धार्मिक ग्रन्थों में असुर, दैत्य एवं दानव में कोई अन्तर नहीं दिखाया गया है, किन्तु प्रारम्भिक अवस्था में 'दैत्य एवं दानब' असुर जाति के दो विभाग समझे गये थे । दैत्य 'दिति' के पुत्र एवं दानव ‘दनु' के पुत्र थे। - देवताओं के प्रतिद्वन्द्वी रूप में 'असुर' का अर्थ होगाजो सुर नहीं है (विरोध में नञ्तत्पुरुष); अथवा जिसके पास सुरा नहीं है; जो प्रकाशित करता है (सूर्य, उरन् प्रत्यय) । सुरविरोधी। उनके पर्याय है : (१) दैत्य, (२) दैतेय, (३) दनुज, (४) इन्द्रारि, (५) दानव, (६) शुक्रशिष्य, (७) दितिसुत, (८) पूर्वदेव, (९) सुरद्विट्, (१०) देवरिपु, (११) देवारि । रामायण में असुर की उत्पत्ति और प्रकार से बतायी गयी है : सुराप्रतिग्रहाद् देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुराः स्मृताः ॥ [सुरा = मादक तत्त्व का उपयोग करने के कारण देवता लोग सुर कहलाये, किन्तु ऐसा न करने से दैतेय लोग असुर कहलाये ।] असुरविद्या-शासायन एवं आश्वलायन श्रौत-सूत्रों में असुरविद्या को शतपथ ब्राह्मण में प्रयुक्त 'माया' के अर्थ में लिया गया है। इसका प्रचलित अर्थ 'जादूगरी' है। परन्तु Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिकुण्ड-अहङ्कार आश्चर्यजनक सभी भौतिक विद्याओं का समावेश इसमें हो। चार युगों के आदि के चार दिनों ('मन्वादि' तथा सकता है । आसुरी (शुद्ध भौतिक) प्रवृत्ति से उत्पन्न सभी 'युगादि' तिथि) तथा माघ के दोनों पक्षों की द्वितीया को ज्ञान-विज्ञान असुरविद्या हैं। इसमें सुरविद्या अथवा दैवी दो दिन । चैत्र कृष्णपक्ष की द्वितीया को केवल एक दिन । विद्या (आध्यात्मिकता) को स्थान नहीं है। कार्तिक के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन । अगहन अस्थिकुण्ड-हड्डियों से भरा एक नरक । ब्रह्मवैवर्तपुराण महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया को दो दिन । फाल्गुन (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २७) में कहा गया है : महीने के दोनों पक्ष की द्वितीया को दो दिन अनध्याय पितॄणां यो विष्णुपदे पिण्डं नैव ददाति च । होता है । सभी उत्सव दिनों में और अक्षय तृतीया को स च तिष्ठत्यस्थिकुण्डे स्वलोमाब्दं महेश्वरि ॥ भी अस्वाध्याय होता है ।। [हे पार्वति, जो विष्णपद (गया) में पिता-प्रपितामहों को अस्वामिक-जिसका उत्तराधिकारी कोई न हो । स्वामिपिण्ड नहीं देता है वह व्यक्ति अपने रोमों के बराबर वर्षों रहित वस्तु । अकर्तृक । यम ने कहा है : तक अस्थिकुण्ड नामक नरक में रहता है ।] अटव्यः पर्वताः पुण्या नद्यस्तीर्थानि यानि च । अस्थिधन्वा हड्डियों से बना धनुष धारण करने वाला, सर्वाण्यस्वामिकान्याहुन हि तेषु परिग्रहः ॥ शंकर । महर्षि दधीचि की हड्डियों से तीन धनुष बने, [अटवी, पर्वत, पुण्य नदी, जो भी तीर्थ स्थान है इन उनमें से शिव के लिए निर्मित धनुष का नाम 'पिनाक' था। सबको अस्वामिक कहा गया है। इनका दान नहीं किया अस्थिमाली-हड्डियों (मुण्डों) की माला पहनने वाला। जा सकता। ] शंकर । दे० शिवशतक । 'पुण्य' इस विशेषण से अटवी नैमिषारण्य आदि; पर्वत अस्पृहा-इच्छा या लालसा न होना, वितृष्णा । एकादशी- हिमालय आदि; नदी गङ्गा आदि; तीर्थ पुरुषोत्तम आदि; तत्त्व में कथन है : क्षेत्र वाराणसी आदि आते हैं। स्वामी ( मालिक ) के यथोत्पन्नेन सन्तोषः कर्तव्योऽत्यल्पवस्तुना । अभाव में इनका परिग्रह (कब्जा) नहीं किया जा सकता। परस्याचिन्तयित्वार्थं सास्पृहा परिकीर्तिता ।। अस्वामिविक्रय-अनधिकारी के द्वारा किया गया विक्रय । [ मनुष्य को अत्यन्त स्वल्प वस्तु से संन्तोष कर लेना अस्वामिकर्तृक विक्रय । अस्वामिविक्रय नामक व्यवहार-पद चाहिए। दूसरे के धन की कामना नहीं करनी चाहिए। उसे (अभियोग, मुकदमा) का लक्षण नारद ने कहा है : (इस स्थिति को) अस्पृहा कहा गया है । ] निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य च । अस्वाध्याय-जिस काल में वेदाध्ययन नहीं होता । विधि विक्रीयतेऽसमक्षं यत्स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ।। पूर्वक वेद-अध्ययन न होना । अध्ययन के लिए निषिद्ध [गिरवी रखा हुआ दूसरे का धन, गिरा हुआ प्राप्त धन, दिन । यथा, ग्रहणों का दिन। धर्मसूत्रों और स्मृतियों में अपहरण किया हुआ धन; इस प्रकार का धन यदि उसके अस्वाध्याय (अनध्याय) की लम्बी सूचियाँ दी हुई है। तद स्वामी के समक्ष नहीं बेचा जाता तो उसे 'अस्वामिविक्रय' नुसार यदि सूर्य ग्रस्त दशा में अस्त हो जाय तो तीन दिन कहत है। अनध्याय, अन्यथा एक दिन । सन्ध्या को मेघ गर्जन में एक अहंता-'मैं हूँ' ऐसी चेतना, मैं पने का अभिमान । ज्ञान दिन। माघ महीने से लेकर चार महीनों तक केवल मेघ की प्रक्रिया में 'जानने वाले' की स्थिति के लिए इसका गर्जन के दिन में। भूकम्प होने पर एक दिन । उल्कापात में प्रयोग होता है। अहंकार से जीवात्मा की तन्मयता को एक दिन । महा-उल्कापात होने पर अकालिक अनध्याय । ही 'अहंता' कहा गया है। एक वेद समाप्ति के पश्चात् एक दिन । आरण्यक भाग अहं ब्रह्मास्मि-'मैं ब्रह्म हैं' यह उपनिषद् का महावाक्य की समाप्ति के पश्चात् एक दिन । पाँच वर्षों तक अध्ययन है, जो सर्वप्रथम बृहदारण्यकोपनिषद् ( १.४.१०) में के बाद पाँच दिन । चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, श्रावण शुक्ल प्रति- आया है । यह आत्मा तथा ब्रह्म के अभेद का द्योतक है । पदा तथा आग्रहायण शुक्ल प्रतिपदा को एक दिन । ये प्रति- अहङ्कार-चित्त का एक घटक योग । दर्शन के अनुसार मन, पदाएं नित्य हैं । अन्य प्रतिपदाओं में इच्छानुसार अध्ययन बुद्धि और अहङ्कार से चित्त बनता है। अहङ्कार के द्वारा किया जा सकता है। चौदह मन्वन्तर की चौदह तिथियों, अहं का ज्ञान किया जाता है । यह तीन प्रकार का कहा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गया है - ( १ ) सात्त्विक, (२) राजस और ( ३ ) तामस । सात्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई । राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियाँ हुईं । तामस अहङ्कार से सूक्ष्म पञ्चभूत उत्पन्न हुए। वेदान्त के मत में यह अभिमानात्मक अन्तःकरण की वृत्ति है। अहं यह अभिमान शरीरादि विषयक मिथ्या ज्ञान कहा गया है । व्यूह सिद्धान्त में विष्णु के चार रूपों में अनिरुद्ध को अहङ्कार कहा गया है। सांख्य दर्शन में दो मूल तत्व हैं जो बिल्कुल एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं - १. पुरुष ( आत्मा ) और २. प्रकृति (मूल प्रकृति अथवा प्रधान ) । प्रकृति तीन गुणों से युक्त है - तमस्, रजस् एवं सत्त्व । ये तीनों गुण प्रलय में संतुलित रूप में रहते हैं, किन्तु जब इनका सन्तु लन भंग होता है ( पुरुष की उपस्थिति के कारण ) तो प्रकृति से 'महान् ' अथवा बुद्धि की उत्पत्ति होती है, जो सोचने वाला तत्व है और जिसमें 'सत्व' की मात्रा विशेष होती है। बुद्धि से 'अहङ्कार' का जन्म होता है, जो 'व्यक्तिगत विचार' को जन्म देता है । अहङ्कार से मनस् एवं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । फिर पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। अह (अन्) - दिन दिवस इसके विभागों के भिन्न-भिन्न मत हैं- उदाहरण के रूप में द्विपा, त्रिषा, चतुर्षा पञ्चधा, अष्टधा अथवा पञ्चदशधा । दो तो मुख्य हैं : पूर्वाह्न तथा अपराह्न (मनुस्मृति ३.२७८) तीन विभाग भी प्रचलित है। चार भागों में भी विभाजन गोभिल गृह्यसूत्र में वर्णित है -१. पूर्वाह्न (१३ पहर), २. मध्याह्न ( एक पहर ), ३. अपराह्न (तीसरे पहर के अन्त तक और इसके पश्चात् ), ४. सायाह्न ( दिन के अन्त तक ) | दिवस का पञ्चधा विभाजन देखिए ऋग्वेद ( ७६.३ युतायातं सङ्गवे प्रातराह्नी) पांच में से तीन नामों यथा प्रातः, सजन तथा मध्यन्दिन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । दिवस का आठ भागों में विभाजन कौटिल्य (१.१९), वक्षस्मृति ( अध्याय २) तथा कात्यायन ने किया है। कालिदास कृत विक्रमोर्वशीय (२.१) के प्रयोग से प्रतीत होता है कि उन्हें यह विभाजन ज्ञात था । दिवस तथा रात्रि के १५,१५ मुहूर्त होते हैं। देखिए वृहद्योगयात्रा, ४.२-४ (पन्द्रह मुहतों के लिए) । 1 भूमध्य रेखा को छोड़कर भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न अहः (अन) - अहिंसा भिन्न स्थानों में जैसे-जैसे रात्रि-दिवस घटते-बढ़ते हैं, वैसे-से उन्हीं स्थानों पर मुहूर्त का काल भी पटता बढ़ता है। इस प्रकार यदि दिन का विभाजन दो भागों में किया गया हो तब पूर्वाह्न अथवा प्रातःकाल ७३ मुहूर्त का होगा। यदि पाँच भागों में विभाजन किया गया हो तो प्रातः या पूर्वाह्न तीन मुहूर्त का ही होगा । माधव के कालनिर्णय ( पृ० ११२ ) में इस बात को बतलाया गया है कि दिन को पाँच भागों में विभाजित करना कई वैदिक ऋचाओं तथा स्मृतिग्रन्थों में विहित है, अतः यही विभाजन मुख्य है । यह विभाजन शास्त्रीय विधिवाचक तथा निषेधार्थक कृत्यों के लिए उल्लिखित है। दे० हेमाद्रि, चतुर्वर्गचिन्तामणि, काल भाग, ३२५ - ३२९ वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० १८-१९; कालतत्त्वविवेचन, पृ० ६, ३६७ । अहल्या- गौतम मुनि की भार्या, जो महासाध्वी थी । प्रातःकाल उसका स्मरण करने से महापातक दूर होना कहा गया है अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा । पञ्चकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ॥ [ अहत्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा, मन्दोदरी इन पाँच कन्याओं ( महिलाओं ) का प्रातःकाल स्मरण करने से महापातक का नाश होता है। ] कृतयुग में इन्द्र ने गौतम मुनि का रूप धारण कर अहल्या के सतीत्व को नष्ट कर दिया। इसके बाद गौतम के शाप से वह पत्नी शिला हो गयी। त्रेतायुग में श्री रामचन्द्र के चरण स्पर्श से शापविमुक्त होकर पुनः पहले के समान उसने मानुषी रूप धारण किया । दे० वाल्मीकिरामायण, बालकाण्ड अहल्या मैत्र यी व्यावहारिक रूप में यह एक रहस्यात्मक संज्ञा है, जिसका उद्धरण अनेक ब्राह्मणों ( शतपथ ब्राह्मण, ३.३,४,१८, जैमिनीय ब्रा०, २.७९, षड्विंश ब्रा०, १.१ ) में पाया जाता है । यह उद्धरण इन्द्र की गुणावलि में से, जिसमें इन्द्र को अहल्याप्रेमी ( अहल्यायै जार) कहा गया है, लिया गया है। अहिंसा -- सभी सजीव प्राणियों को मनसा, वाचा, कर्मणा दुःख न पहुंचाने का भारतीय सिद्धान्त इसका सर्वप्रथम प्रतिपादन छान्दोग्य उपनिषद् (२.१७) में हुआ है एवं अहिंसा को यज्ञ के एक भाग के समकक्ष कहा गया है । वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र दया और दान देव और मानव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाव्रत अहिर्बुध्न्यस्नान दोनों के विशेष गुण बतलाये गये हैं । जैन धर्म ने अहिंसा को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया । पञ्च महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह में इसको प्रथम स्थान दिया गया है। योगदर्शन के पञ्च यमों में भी अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया गया है : 'तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । यह सिद्धान्त सभी भारतीय सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य था, किन्तु रूप इसके भिन्न-भिन्न थे । जैन धर्म ऐकान्तिक अहिंसा को स्वीकार किया, जिससे उसमें कृच्छ्राचार बढ़ा। प्रारम्भिक बौद्धों ने भी इसे स्वीकार किया, किन्तु एक सीमारेखा खींचते हुए, जिसे हम साधारण की संज्ञा दे सकते हैं, अर्थात् तर्कसंगत एवं मानवता संगत अहिंसा । अशोक ने अपने प्रथम व द्वितीय शिलालेख में अहिंसा सिद्धान्त को उत्कीर्ण कराया तथा इसका प्रचार किया । उसने मांसभक्षण का क्रमशः परित्याग किया और विशेष पशुओं का तथा विशेष अवसरों पर सभी पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया । कस्सप ने ( आमगन्धत) में कहा है कि मांस भक्षण से नहीं, अपितु बुरे कार्यों से मनुष्य बुरा बनता है । बौद्धधर्म के एक लम्बे शासन के अन्त तक यज्ञों में पशुवध बन्द हो चुका था। एक बार फिर उसे सजीव करने की चेष्टा 'पशुयाग' करने वालों ने की, किन्तु वे असफल रहे । वैष्णव धर्म पूर्णतया अहिंसावादी था। उसके आचार, आहार और व्यवहार में हिंसा का पूर्ण त्याग निहित था। इसके विधायक अंग थे क्षमा, दया, करुणा, मैत्री आदि । धर्माचरण की शुद्धतावश मांसभक्षण का भारत के सव वर्णों ने प्रायः स्याग किया है। विश्व के किसी भी देश में इतने लम्बे काल तक अहिंसा सिद्धान्त का पालन नहीं हुआ है, जैसा कि भारतभू पर देखा गया है। अहसाव्रत - इस व्रत में एक वर्ष के लिए मांसभक्षण निषिद्ध है, तदुपरान्त एक गौ तथा सुवर्ण मृग के दान का विधान है । यह संवत्सर व्रत है । दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत खण्ड ४४४: हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.८६५ । अहिंस्र - अवध्य, जो मारने के योग्य नहीं है । वैदिक साहित्य में गौ (गाय) के लिए इस शब्द का तथा 'अच्या' शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है। अहिच्छत्र ( रामनगर ) - ( १ ) अर्जुन द्वारा जीता गया एक देश, जो उन्होंने द्रोणाचार्य को भेंट कर दिया था। एक नगर उक्त देश की बनी शक्कर; छत्राक पौधा एक प्रकार ७१ का मोती । (२) उत्तर रेलवे के आंवला स्टेशन से छ: मील रामनगर तक पैदल या बैलगाड़ी से जाना पड़ता है, यहाँ पार्श्वनाथजी पधारे थे । जब वे ध्यानस्थ थे तब धरणेन्द्र तथा पद्मावती नामक नागों ने उनके मस्तक पर अपने फणों से छत्र लगाया था यहाँ की खुदाई में प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली हैं । यहाँ जैन मन्दिर है तथा कार्तिक में मेला लगता है। - 1 अहिच्छत्रा - एक प्राचीन नगरी, इसके अवशेष उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में पाये जाते हैं । ज्योतिषतत्त्व में कथन है : "केशव, आनर्तपुर, पाटलिपुत्र, अहिच्छत्रा पुरी, दिति, अदिति इनका क्षौर के समय स्मरण करने से कल्याण होता है ।" इससे इस पुरी का धार्मिक महत्त्व प्रकट है । दे० अहिच्छत्र । अहिर्बुध्न्य — निकटवर्ती आकाश का यह एक सर्प कहा गया है । ऋग्वेदोक्त देवता प्रकृति के विविध उपादानों के प्रतिरूप एवं उनके कार्यों के संचालक माने गये हैं। आकाशीय विद्युत् एवं झंझावात के नियंत्रण के लिए एवं उनके प्रतीकस्वरूप जिन देवों की कल्पना की गयी है उनमें इन्द्र, त्रित आप्त्य, अपांनपात् मातरिश्वा अहिर्बुध्न्य, अज-एक-पाद, रुद्र एवं मरुतों का नाम आता है । विद्युत् के विविध नामों एवं झंझा के विविध देशों का इन नामों के माध्यम से बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। विद्युत् जो आकाशीय गौओं की मुक्ति के लिए योद्धा का रूप धारण करती है उसे 'इन्द्र' कहते हैं । यही तृतीय या वायवीय अग्नि है, अतएव इसे 'त्रित आप्त्य' कहते हैं । आकाशीय जल से यह उत्पन्न होती है, अतएव इसे 'अपांनपात्' कहते हैं । यह मेघमाता से उत्पन्न हो पृथ्वी पर अग्नि लाती है, अतएव मातरिश्वा एवं पृथ्वी की ओर तेजी से चलने के समय इसका रूप सर्पाकार होता है इसलिए इसे अहिर्बुधन्य कहते हैं । अहिर्बुध्न्यस्नान - हेमाद्रि, व्रत खण्ड, पृष्ठ ६५४-६५५ ( विष्णुधर्मोत्तर पुराण से उद्धृत ) के अनुसार जिस दिन उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र हो, उस दिन दो कलशों के जल से स्नान किया जाय, जिसमें उदुम्बर ( गूलर ) वृक्ष की पत्तियाँ, पञ्चगव्य (गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोमूत्र तथा गोमय ), कुश तथा घिसा हुआ चन्दन भी मिला हो । अहिर्बुध्न्य के पूजन के साथ सूर्य, वरुण, चन्द्र, रुद्र तथा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ विष्णु का पूजन भी विहित है अहिर्बुध्न्य उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का देवता है । इससे गोधन की वृद्धि तथा समृद्धि होती है। 'अहिर्बुध्न्य' ही इसका शुद्ध तथा पुरातन रूप है। ऋग्वेद की दस ऋचाओं में 'अहिर्बुध्न्य' शब्द ( कदाचित् अग्नि या रुद्र ) किसी देवता के लिए प्रयुक्त हुआ है । दे० ऋग्वेद १.१८६, २.३१,६, ५.४१,१६, ६.४९, १४, ६.५०.१४; ७.३४.१७; ७.३५.१३; ७. ३८.५ इत्यादि तथा निर्णयसिन्धु १०.४४ । 1 अहि वृत्र-पुत्ररूपी सर्प वृत्र इन्द्र का सबसे बड़ा शत्रु है तथा यह उन बादलों का प्रतिनिधि या प्रतीक है जो गरजते बहुत किन्तु बरसते कम हैं या एकदम नहीं बरसते । वृत्र को 'नवन्तम् अहिम्' कहा गया है (ऋ० ३० ५.१७.१०) । उसकी माता 'दनु' है जो वर्षा के उन बादलों का नाम है जो कुछ ही बूँदें बरसाते हैं । ऋग्वेद ( १०.१२०.६ ) के अनुसार दनुगो के सात पुत्र है जो अनावृष्टि के दानव कहलाते हैं और आकाश के विविध भागों में छाये रहते है। वृव आकाशीय जल को नष्ट करने वाला कहा गया है। इस प्रकार वृत्र झूठे बादल का रूप है जो पानो नहीं बरसाता इन्द्र विद्युत् का रूप है जिसकी उपस्थिति के पश्चात् प्रभूत जलवृष्टि होती है । वृत्र को अहि भी कहते हैं, जैसा कि बाइबिल में शैतान को कहा गया है । यहाँ हम 'अहि-वृत्र' एवं 'अहि- बुधन्य' की तुलना कर सकते हैं । दोनों का निवास आकाशीय सिन्धु में है ऐसा जान पड़ता है कि दोनों एक ही समान है, केवल अन्तर यह है कि गहराई का साँप ( अहिर्बुध्न्य ) इन्द्र का द्योतक है इसलिए देव है, किन्तु अवरोधक साँप ( अहि- वृत्र ) दानव है | अहि-वृत्र के पैर, हाथ, नाक नहीं हैं ( ऋ० वे० १. ३२. ६-७ ३.१०.८), किन्तु बादल, विद्युत् एवं माया जैसे आयुधों से युक्त वह भयंकर प्रतिद्वन्द्वी है । इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता इसके वध एवं इस पर विजय प्राप्त करने में मानी गयी है । इन्द्र अपने वज्र से वृत्र द्वारा उपस्थित की गयी बाधा की दीवार चीरकर आकाशीय जल की धारा को उन्मुक्त कर देता है । अहीन - अहः = एक या अनेक दिन तक होने वाला यज्ञ । अहीना - आस्वस्थ्य - एक ऋषि, जिन्होंने सावित्र ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०, ९.१० ) व्रत या क्रिया द्वारा अमरता प्राप्त की थी। नाम का पूर्वार्ध अहोना ( अ + होना ) " अहिवृत्र - आगम उपर्युक्त उपलब्धि का द्योतक है एवं उत्तरार्ध की तुलना अश्वत्थ से की जा सकती है। अ आ - स्वर वर्णों का द्वितीय अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित बतलाया गया है आकारं परमाश्चर्य ज्योतिर्मयं प्रिये । ब्रह्म (विष्णु) मयं वर्ण तथा समयं प्रिये ॥ पञ्चप्राणमयं वर्ण स्वयं परमकुण्डली ॥ [ हे प्रिये ! आ अक्षर परम आश्चर्यमय है । यह शङ्ख के समान ज्योतिर्मय तथा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रमय है । यह पाँच प्राणों से संयुक्त तथा स्वयं परम कुण्डलिनी शक्ति है । ] वर्णाभिधान तन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं आकारो विजयानन्तो दीर्घच्छायो विनायकः । क्षीरोदधिः पयोदश्च पायो दीर्घास्थवृत्तको ॥ प्रचण्ड एकजो रुद्रो नारायण इनेश्वरः । प्रतिष्ठा मानदा कान्तो विश्वान्तकगजान्तकः ॥ पितामहो दिगन्तो भूः क्रिया कान्तिश्च सम्भवः । द्वितीया मानदा काशी विघ्नराजः कुजो वियत् ॥ आकाश-वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य - पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन माने गये हैं । इनमें पांचवां द्रव्य आकाश है, यह विभु अर्थात् सर्वव्यापी द्रव्य है और सब कालों में स्थित रहता है। इसका गुण शब्द है तथा यह उसका समवायी कारण है । आकाशदीप - कार्तिक मास में घी अथवा तेल से भरा हुआ दीपक देवता को उद्देश्य करते हुए किसी मन्दिर अथवा चौरस्ते पर खम्भे के सहारे आकाश में जलाया जाता है । दे० अपरार्क, ३७०,३७२ भोज का राजमार्तण्ड, पृष्ठ ३३० निर्णयसिन्धु, १९५ । । आकाशमुखी एक प्रकार के शैव साधु, जो गरदन को पीछे झुकाकर आकाश में दृष्टि तब तक केन्द्रित रखते हैं, जब तक मांसपेशियां सूख न जायें। आकाश की ओर मुख करने की साधना के कारण ये साधु 'आकादशमुखी' कहलाते हैं । आगम - परम्परानुसार शिवप्रणीत तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है -आगम, यामल और मुख्य तन्त्र । वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते हैं। महानिर्वाणतन्त्र में महादेव ने कहा है : - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम कलिकल्मषदीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरि । मेध्यामध्यविचाराणां न शुद्धिः श्रौतकर्मणा ॥ न संहिताभिः स्मृतिभिरिष्टसिद्धिर्नृणां भवेत् । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं यथोच्यते ।। विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये । श्रुतिस्मृतिपुराणादौ मयैवोक्तं पुरा शिवे ।। आगमोक्तविधानेन कलौ देवान् यजेत् सुधीः ॥ [ कलि के दोष से दीन ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य को पवित्र- अपवित्र का विचार न रहेगा। इसलिए वेदविहित कर्म द्वारा वे किस तरह सिद्धि लाभ करेंगे ? ऐसी अवस्था में स्मृति-संहितादि के द्वारा भी मानवों की इष्टसिद्धि नहीं होगी । मैं सत्य कहता हूँ, कलियुग में आगम मार्ग के अतिरिक्त कोई गति नहीं है। मैंने वेद-स्मृति-पुराणादि में कहा है कि कलियुग में साधक तन्त्रोक्त विधान द्वारा ही देवों की पूजा करेंगे । ] आगमों की रचना कब हुई, यह निर्णय करना कठिन है । अनुमान किया जाता है कि वेदों की दुरूहता और मंत्रों के कीलित होने से महाभारत काल से लेकर कलि के आरम्भ तक अनेक आगमों का निर्माण हुआ होगा। आगम अति प्राचीन एवं अति नवीन दोनों प्रकार के हो सकते हैं। आगमों से ही शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आचार, विचार, शील, विशेषता और विस्तार का पता लगता है । पुराणों में इन सम्प्रदायों का सूत्र रूप से कहींकहीं वर्णन हुआ है, परन्तु आगमों में इनका विस्तार से वर्णन है । आजकल जितने सम्प्रदाय हैं प्रायः सभी आगम ग्रन्थों पर अवलम्बित हैं। मध्यकालीन शैवों को दो मोटे विभागों में बाँटा जा सकता है-पाशुपत एवं आगमिक । आगमिक शवों की चार शाखाएँ हैं, जो बहुत कुछ मिलती-जुलती और आगमों को स्वीकार करती हैं। वे हैं-(१) शैव सिद्धान्त की संस्कृत शाखा, (२) तमिल शैव, (३) कश्मीर शैव और (४) वीर शैव । तमिल एवं वीर शैव अपने को माहेश्वर कहते हैं, पाशुपत नहीं, यद्यपि उनका सिद्धान्त महाभारत में वर्णित पाशुपत सिद्धान्तानुकूल है । __आगमों की रचना शैवमत के इतिहास की बहुत ही महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है । आगम अट्ठाईस हैं जो दो भागों में विभक्त हैं। इनका क्रम निम्नांकित है : (१) शैविक-कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान् और सप्रभ (सुप्रभेद)। (२) रौद्रिक-विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चन्द्रहास (चन्द्रज्ञान), मुख्य, युगबिन्दु (मुखबिम्ब), उद्गीता (प्रोद्गीता), ललित, सिद्ध, सन्तान, नारसिंह (सवोक्त या सवोत्तर), परमेश्वर, किरण और पर (वातुल)। प्रत्येक आगम के अनेक उपागम हैं, जिनकी संख्या १९८ तक पहुँचती है। प्राचीनतम आगमों की तिथि का ठीक पता नहीं चलता, किन्तु मध्यकालीन कुछ आगमों की तिथियों का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है। तमिल कवि तिरमूलर (८०० ई०), सुन्दरी (लगभग ८०० ई०) तथा माणिक्क वाचकर (९०० ई० के लगभग) ने आगमों को उद्धृत किया है । श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी का कथन है कि शिवसूत्रा की रचना कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा ८५० ई० के लगभग हुई, जिनका उद्देश्य अद्वैत दर्शन के स्थान पर आगमों की द्वैतशिक्षा की स्थापना करना था। इस कथन की पुष्टि मतङ्ग (परमेश्वर-आगम का एक उपागम) एवं स्वायम्भुव द्वारा होती है। नवीं शताब्दी के अन्त के कश्मीरी लेखक सोमानन्द एवं क्षेमराज के अनेक उद्धरणों से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। किरण आगम की प्राचीनतम पाण्डुलिपि ९२४ ई० की है। __आगमों के प्रचलन से शैवों में शाक्त विचारों का उद्भव हुआ है एवं उन्हीं के प्रभाव से उनकी मन्दिरनिर्माण, मूर्तिनिर्माण तथा धार्मिक क्रिया सम्बन्धी नियमावली भी तैयार हुई । मृगेन्द्र आगम (जो कामिक आगम का प्रथम अध्याय है) के प्रथम श्लोक में ही सबका निचोड़ रख दिया गया है : "शिव अनादि हैं, अवगुणों से मुक्त है, सर्वज्ञ है; वे अनन्त आत्माओं के बन्धनजाल काटने वाले हैं । वे क्रमशः एवं एकाएक दोनों प्रकार से सृष्टि कर सकते हैं। उनके पास इस कार्य के लिए एक अमोघ साधन है 'शक्ति', जो चेतन है एवं स्वयं शिव का शरीर है; उनका शरीर सम्पूर्ण 'शक्ति' है।"......''इत्यादि । ___सनातनी हिन्दुओं के तन्त्र जिस प्रकार शिवोक्त हैं उसी प्रकार बौद्धों के तन्त्र या आगम बुद्ध द्वारा वर्णित हैं । बौद्धों के तन्त्र भी संस्कृत भाषा में रचे गये हैं। क्या सनातनी और क्या बौद्ध दोनों ही सम्प्रदायों में तन्त्र अतिगुह्य तत्त्व Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ समझा जाता है। माना जाता है कि यथार्थतः दीक्षित एवं अभिषिक्त के अतिरिक्त अन्य किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। कुलार्णवतन्त्र में लिखा है कि धन देना, स्त्री देना, अपने प्राण तक देना पर यह गुह्य शास्त्र अन्य किसी अदीक्षित के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। शैव आगमों के समान वैष्णव आगम भी अनेक हैं, जिनको 'संहिता' भी कहते हैं । इनमें नारदपंचरात्र अधिक प्रसिद्ध है। आगमप्रकाश -- गुजराती भाषा में विरचित 'आगमप्रकाश' तान्त्रिक ग्रन्थ है । इसमें लिखा है कि हिन्दुओं के राज्य काल में वङ्ग के तान्त्रिकों ने गुजरात के डभोई, पावागढ़, अहमदाबाद, पाटन आदि स्थानों में आकर कालिका मूर्ति की स्थापना की । बहुत से हिन्दू राजाओं ने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी, ( आ० प्र० १२ ) । आधुनिक युग में प्रचलित मन्त्रगुरु की प्रथा वास्तव में तान्त्रिकों के प्राधान्य काल से ही आरम्भ हुई । आगमप्रामाण्य - श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामुनाचार्य द्वारा विरचित यह ग्रन्थ वैष्णव आगम अथवा संहिताओं के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है । इसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी है । आगस्त्य -- ऐतरेय (३.१.१ ) एवं शाङ्खायन आरण्यक (७.२) में उल्लिखित यह एक आचार्य का नाम है। आग्नेयक - शैव-आगमों में एक रौद्रिक आगम है । आग्नेय व्रत -- इस व्रत में केवल एक बार किसी भी नवमी के दिन पुष्पों से भगवती विन्ध्यवासिनी का पूजन (पाँच उपचारों के साथ) होता है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, ९५८-५९ ( भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत ) | आङ्गिरस - यह अङ्गिरस्-परिवार की उपाधि है, जिसे बहुत से आचार्यों ने ग्रहण किया था । इस उपाधि के धारण करने वाले कुछ आचार्यों के नाम हैं कृष्ण, आजीगति, च्यवन, अयास्य, सुधन्वा इत्यादि । आङ्गिरस कल्पसूत्र - अथर्ववेद का एक वेदांग | इसमें अभिचारकर्मकाल में कर्त्ता और कारयिता सदस्यों की आत्मरक्षा करने की विधि बतायी गयी है। उसके पश्चात् अभिचार उपयुक्त देशकाल, मंडप रचना, साधक के दीक्षादि धर्म, समिधा और आज्यादि के संरक्षण का निरूपण है । फिर आगमप्रकाश आचार अभिचार-कर्मसमूह तथा प्राकृताभिचार निवारण और अन्यान्य कर्मों का उल्लेख है । आङ्गिरसस्मृति पं० जीवानन्द द्वारा प्रकाशित स्मृतिसंग्रह ( भाग १, पृ० ५५७-५६० ) में ७२ श्लोकों की यह एक संक्षिप्त स्मृति संगृहीत है। इसमें चार वर्णों और चार आश्रमों के कर्त्तव्यों, प्रायश्चित्तविधि आदि का निरूपण है। अन्त्यजों के हाव से भोजन और पेय ग्रहण करने, गौ को मारने और आघात पहुँचाने आदि के विस्तृत प्रायश्चित्तों का विधान और नीलवस्त्र धारण के नियम भी इसमें पाये जाते हैं । स्त्रीधन का अपहरण इसके मत से निषिद्ध है -- याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन धर्मशास्त्रकारों के नाम दिये गये हैं, उनमें अङ्गिरा भी हैं। उसके टीकाकार विश्वरूप ने कई स्थलों पर अङ्गिरा का मत उद्धृत किया है । यथा, अङ्गिरा के अनुसार परिषद् के सदस्यों की संख्या १२१ होनी चाहिए ( या० स्मृ० १.९ ) । इसी प्रकार अङ्गिरा के मत में शास्त्र के विरुद्ध 'आत्मतुष्टि' का प्रमाण अमान्य है । ( या० स्मृ० १.५० ) । याज्ञवल्क्यस्मृति के दूसरे टीकाकार अपरार्क ने अङ्गिरा के अनेक वचनों को उद्धृत किया है। मनु के टीकाकार मेधातिथि ने सतीप्रथा पर अङ्गिरा का अवतरण देकर उसका विरोध किया है। (म० स्मृ० ५.१५१ ) । मिताक्षरा आदि अन्य टीकाओं और निबन्ध ग्रन्थों में अङ्गिरा के अवतरण पाये जाते हैं । लगता है कि कभी धर्मशास्त्र का आङ्गिरस सम्प्रदाय बहुप्रचलित था जो धीरे धीरे लुप्त होता गया । आचार-शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीति-रिवाजों को 'आचार' कहते हैं । स्मृति या विधि सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों में आचार का महत्त्व भली भाँति दर्शाया गया है। मनुस्मृति (१.१०९) में कहा गया है कि आचार, आत्म अनुभूतिजन्य एक प्रकार की विधि है एवं द्विजों को इसका पालन अवश्य करना चाहिए। धर्म के स्रोतों में श्रुति और स्मृति के पश्चात् आचार का तीसरा स्थान है । कुछ विद्वान् तो उसको प्रथम स्थान देते हैं; क्योंकि उनके विचार में धर्म आचार से ही उत्पन्न होता है -- 'आचारप्रभवो धर्मः' । इस प्रकार के लोकसंग्राहक धर्म को तीन भागों में बाँटा गया है - 'आचार', 'व्यवहार' और 'प्रायश्चित्त' । (याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रकरण - विभाजन Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यकारिका-आज्ञा ७५ इन्ही तीन रूपों में है)। याज्ञवल्क्य ने आचार के अन्तर्गत स्वामी की जीवनी, जिसे काशी के पं० राममिथ शास्त्री निम्नलिखित विषय सम्मिलित किया है : (१) संस्कार ने लिखा है। (२) वेदपाठी ब्रह्मचारियों के चारित्रिक नियम (३) विवाह आजकेशिक-'जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण' ( १.९.३ ) के एवं पत्नी के कर्त्तव्य (४) चार वर्ण एवं वर्णसंकर (५) अनुसार एक परिवार का नाम, जिसके एक सदस्य बक ने ब्राह्मण गृहपति के कर्त्तव्य (६) विद्यार्थी-जीवन समाप्ति के इन्द्र पर आक्रमण किया था। बाद कुछ पालनीय नियम (७) विधिसंमत भोजन एवं आचार(सप्त)-कुछ तन्त्र ग्रन्थों में वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, निषिद्ध भोजन के नियम (८) वस्तुओं की धार्मिक पवित्रता वाम, सिद्धान्त और कूल ये सात प्रकार के आचार बतलाये (९) श्राद्ध (१०) गणपति की पूजा (११) ग्रहों की शान्ति गये हैं । ये सातों आचार तीनों यानों ( देवयान, पितृयान के नियम एवं (१२) राजा के कर्त्तव्य आदि । एवं महायान ) के अन्तर्गत माने जाते हैं। महाराष्ट्र के __स्मृतियों में आचार के तीन विभाग किये गये हैं : (१) । वैदिकों में वेदाचार, रामानुज और इतर वैष्णवों में वैष्णदेशाचार (२) जात्याचार और (३) कुलाचार । दे० वाचार, शङ्करस्वामी के अनुयायी दाक्षिणात्य शैवों में दक्षि'सदाचार' । देश विशेष में जो आचार प्रचलित होते हैं णाचार, वीर शैवों में शैवाचार और वीराचार तथा केरल, उनको देशाचार कहते हैं, जैसे दक्षिण में मातुलकन्या मे गौड, नेपाल और कामरूप के शाकों में क्रमशः वीराचार, विवाह । इसी प्रकार जातिविशेष में जो आचार प्रचलित वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार, चार प्रकार होते हैं उन्हें जात्याचार कहा जाता है, जैसे कुछ जातियों के आचार देखे जाते है । पहले तीन आचारों के प्रतिपादक में सगोत्र विवाह । कुल विशेष में प्रचलित आचार को थोड़े ही तन्त्र हैं, पर पिछले चार आचारों के प्रतिपादक कुलाचार कहा जाता है। धर्मशास्त्र में इस बात का राजा तन्त्रों की तो गिनती नहीं है। पहले तीनों के तन्त्रों में को आदेश दिया गया है कि वह आचारों को मान्यता पिछले चारों आचारों की निन्दा की गयी है। प्रदान करे । ऐसा न करने से प्रजा क्षुब्ध होती है। आजि-अथर्ववेद (११ ७.७ ), ऐतरेय ब्राह्मण एवं श्रौत सूत्रों में वर्णित वाजपेय यज्ञ के अन्तर्गत तीन मख्य क्रियाएं सोलहवीं शताब्दी का है। होती थीं-१. आजि ( दौड़ ), २. रोह ( चढ़ना) और आचार्यपद-हिन्दू संस्कृति में मौखिक व्याख्यान द्वारा बड़े ३. संख्या । अन्तिम दिन दोपहर को एक धावनरथ यज्ञजनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा न थी। यहाँ मण्डप में घुमाया जाता था, जिसमें चार अश्व जुते होते के जितने आचार्य हुए हैं सबने स्वयं के व्यक्तिगत कर्तव्य थे, जिन्हें विशेष भोजन दिया जाता था। मण्डप के पालन द्वारा लोगों पर प्रभाव डालते हुए आदर्श आचरण बाहर अन्य सोलह रथ सजाये जाते, सत्रह नगाड़े बजाये अथवा चरित्र के ऊपर बहुत जोर दिया है। समाज का जाते तथा एक गूलर की शाखा निर्दिष्ट सीमा का बोध प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार से ही संभव है । विचारों के कराती थी। रथों की दौड़ होती थी, जिसमें यज्ञकर्ता कोरे प्रचार से आचार संगठित नहीं हो सकता। इसी विजयी होता था। सभी रथों के घोड़ों को भोजन दिया कारण आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक जाता था एवं रथ घोड़ों सहित पुरोहितों को दान कर दिये आचार्य कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम नहीं था। जाते थे। इनकी परिभाषा निम्नाङ्कित है : आज्यकम्बल विधि-भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं में से आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि । एक । जिस समय सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो रहा हो स्वयं आचरते यस्तु आचार्यः स उच्यते ॥ उस समय यह विधि की जाती है। दे० गदाधरपद्धति, [जो शास्त्र के अर्थों का चयन करता है और कालसारभाग, १९१।। ( उनका ) आचार के रूप में कार्यान्वय करता है तथा आज्ञा-योगसाधना के अन्तर्गत कुण्डलिनी उत्थापन का स्वयं भी उनका आचरण करता है, वह आचार्य कहा छठा स्थान या चक्र, जिसकी स्थिति भ्र मध्य में मानी गयी जाता है।] है । दक्षिणाचारी विद्वान् लक्ष्मीधर ने 'सौन्दर्यलहरी' के आचार्यपरिचर्या-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य रामानुज ३१ वें श्लोक को टीका में ६४ तन्त्रों की चर्चा करते हुए Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ आज्ञासंक्रान्ति-आत्मा ८ मिश्रित एवं ५ समय या शुभ तन्त्रों की भी गणना की है । मिश्रित तन्त्रों के अनुसार देवी की अर्चना करने पर साधक के दोनों उद्देश्य ( भोग एवं मोक्ष, पार्थिव सुख एवं मुक्ति ) पूरे होते हैं, जब कि समय या शुभ तन्त्रानुसारी अर्चना से ध्यान एवं योग की उन क्रियाओं तथा अभ्यासों की पूर्णता होती है, जिनके द्वारा साधक 'मूलाधार' चक्र से ऊपर उठता हुआ चार दूसरे चक्रों के माध्यम से 'आज्ञा' एवं आज्ञा से 'सहस्रार' की अवस्था को प्राप्त होता है । इस अभ्यास को 'श्रीविद्या' की उपासना कहते हैं । दुर्भाग्यवश उक्त पाँचों शुभ तन्त्रों का अमी तक पता नहीं चला है और इसी कारण यह साधना रहस्यावत बनी आज्ञासंक्रान्ति-संक्रान्ति व्रत । यह किसी भी पवित्र संक्रान्ति के दिन आरम्भ किया जा सकता है। इसका देवता सूर्य है। व्रत के अन्त में अरुण सारथि तथा सात अश्वों सहित सूर्य की सुवर्ण की मूर्ति का दान विहित है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.७३८ ( स्कन्द पुराण से उद्धृत )। आडम्बर-(१) धौंसा या नगाड़ा बजाने का एक प्रकार। एक आडम्बराघात का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (३०. १९) के पुरुषमेधयज्ञ की बलि के प्रसंग में हुआ है। (२) साररहित धर्म के बाह्याचार (दिखावट) को भी आडम्बर कहते हैं। आणव-जीवात्मा का एक प्रकार का बन्धन, जिसके द्वारा वह संसार में फंसता है । यह अज्ञानमूलक है। आगमिक शैव दर्शन में शिव को पशुपति तथा जीवात्मा को 'पशु' कहा गया है। उसका शरीर अचेतन है, वह स्वयं चेतन है । पशु स्वभावतः अनन्त, सर्वव्यापी चित् शक्ति का अंश है किन्तु वह पाश से बँधा हुआ है। यह पाश (बन्धन ) तीन प्रकार का है-आणव ( अज्ञान ), कर्म (क्रियाफल) तथा माया ( दृश्य जगत् का जाल )। दे० 'अणु'। आत्मा-आत्मन्' शब्द की व्युत्पत्ति से इस ( आत्मा ) की कल्पना पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा है___ "आत्मा 'अत्' धातु से व्युत्पन्न होता है जिसका अर्थ है 'सतत चलना,' अथवा यह 'आप्' धातु से निकला है, जिसका अर्थ 'व्याप्त होना है।' आचार्य शङ्कर 'आत्मा' शब्द की व्याख्या करते हए लिङ्ग पुराण (१.७०.९६) से निम्नाङ्कित श्लोक उद्धत करते हैं : यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह । यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते । [ जो व्याप्त करता है; ग्रहण करता है; सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है; और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है उसको आत्मा कहा जाता है। ] ____ 'आत्मा' शब्द का प्रयोग विश्वात्मा और व्यक्तिगत आत्मा दोनों अर्थों में होता है। उपनिषदों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से आत्मतत्त्व पर विचार हुआ है। ऐतरेयोपनिषद् में विश्वात्मा के अर्थ में आत्मा को विश्व का आधार और उसका मूल कारण माना गया है। इस स्थिति में अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म से उसका अभेद स्वीकार किया गया है। 'तत्त्वमसि' वाक्य का यही तात्पर्य है । 'अहं ब्रह्मास्मि' भी यही प्रकट करता है। 'आत्मा' शब्द का अधिक प्रयोग व्यक्तिगत आत्मा के लिए ही होता है। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसकी विभिन्न कल्पनाए हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार यह अणु है । न्याय के अनुसार यह कर्म का वाहक है। उपनिषदों में इसे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' कहा गया है। अद्वैत वेदान्त में यह सच्चिदानन्द और ब्रह्म से अभिन्न है। आचार्य शङ्कर ने आत्मा के अस्तित्व के समर्थन में प्रबल प्रमाण उपस्थित किया है । उनका सबसे बड़ा प्रमाण है 'आत्मा की स्वयं सिद्धि' अर्थात् आत्मा अपना स्वतः प्रमाण है; उसको सिद्ध करने के लिए किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वह प्रत्यगात्मा है अर्थात् उसी से विश्व के समस्त पदार्थों का प्रत्यय होता है; प्रमाण भी उसी के ज्ञान के विषय हैं; अतः उसको जानने में बाहरी प्रमाण असमर्थ हैं। परन्तु यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो इसके लिए ऐसा कोई नहीं कहता कि 'मैं नहीं हूँ।' ऐसा कहने वाला अपने अस्तित्व का ही निराकरण कर बैठेगा। वास्तव में जो कहता है कि 'मैं नहीं हूँ' वही आत्मा है ('योऽस्य निराकर्ता तदस्य तद्रूपम्' )। आत्मा वास्तव में ब्रह्म से अभिन्न और सच्चिदानन्द है। परन्तु माया अथवा अविद्या के कारण वह उपाधियों में लिप्त रहता है । ये उपाधियाँ हैं : Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मपुराण- आत्मस्वरूप (१) मुख्य प्राण ( अचेतन श्वास-प्रश्वास ) (२) मन ( इन्द्रियों की संवेदना को ग्रहण करने का केन्द्र या माध्यम) (३) इन्द्रियाँ ( कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय ) (४) स्थूल शरीर और (५) इन्द्रियों का विषय स्थूल जगत् । ज्ञान के द्वारा बाह्य जगत् का मिथ्यात्व तथा ब्रह्म से अपना अभेद समझने पर उपाधियों से आत्मा मुक्त होकर पुनः अपने शुद्ध रूप को प्राप्त कर लेता है। आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। उपनिषदों में इनका विस्तृत वर्णन है । ये निम्नाकित हैं : (१) असमय कोष (स्थूल शरीर ) (२) प्राणमय कोष ( श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है) (३) मनोमय कोष (संकल्प-विकल्प करने वाला), (४) विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और (५) आनन्दमय कोष ( दुःखों से मुक्ति और प्रसाद उत्पन्न करने वाला) । आत्मचेतना में आत्मा की गति स्थूल कोपों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है । किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है । इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की 'चार' अवस्थाएं होती हैं : ( १ ) जाग्रत् ( जागने की स्थिति, जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने विषयों में रमण करती रहती हैं) (२) स्वप्न ( वह स्थिति जिसमें इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं, किन्तु मन काम करता रहता है और अपने संसार की स्वयं सृष्टि कर लेता है) (३) सुषुप्ति ( वह स्थिति, जिसमें मन भी सो जाता है, स्वप्न नहीं आता किन्तु जागने पर यह स्मृति बनी रहती है कि नींद अच्छी तरह आयी) और (४) तुरीया ( वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की सम्पूर्ण स्मृतियाँ समाप्त हो जाती हैं ।) आत्मा की तीन मुख्य स्थितियाँ हैं - (१) बद्ध, (२) मुमुक्षु और (३) मुक्त बद्धावस्था में वह संसार से लिप्त रहता है । मुमुक्षु की अवस्था में वह संसार से विरक्त और मोक्ष की ओर उन्मुख रहता है । मुक्तावस्था में वह ७७ अविद्या और अज्ञान से छूटकर अपने स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है । किन्तु मुक्तावस्था की भी दो स्थितियाँ हैं— (१) जीवन्मुक्ति और (२) विदेहमुक्ति जब तक मनुष्य का शरीर है वह प्रारब्ध कर्मों का फल भोगता है, जब तक भोग समाप्त नहीं होते, शरीर चलता रहता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्ति के साथ पालन करता रहता है; ज्ञानमूलक होने से वे आत्मा के लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते । सगुणोपासक भक्त दार्शनिकों की माया, बन्ध और मोक्ष सम्बन्धी कल्पनाएँ निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गियों से भिन्न है भगवान् से जीवात्मा का वियोग बन्ध है । भक्ति द्वारा जब भगवान् का प्रसाद प्राप्त होता है और जब भक्त का भगवान् से सायुज्य हो जाता है तब बन्ध समाप्त हो जाता है । वे सायुज्य, सामीप्य अथवा सालोक्य चाहते हैं, अपना पूर्णविलय नहीं, क्योंकि विलय होने पर भगवान् के सायुज्य का आनन्द कौन उठायेगा ? उनके मत में भगवन्निष्ठ होना ही आत्मनिष्ठ होना है । आत्मपुराण-परिव्राजकाचार्य स्वामी शङ्करानन्दकृत यह ग्रन्थ अद्वैत साहित्य जगत् का अमूल्य रत्न है। इसमें अद्वैतवाद के प्रायः सभी सिद्धान्त और श्रुति - रहस्य, योगसाधन रहस्य आदि बातें बड़ी सरल और श्लोकबद्ध भाषा में संवाद रूप से समझायी गयी है। सुप्रसिद्ध 'पंचदशी' ग्रन्थ के आरम्भ में विद्यारण्य स्वामी गुरु रूप में जिनका स्मरण करते हैं, संभवतः ये वही महात्मा शंकरानन्द हैं । आत्मपुराण में कावेरी तट का उल्लेख है, अतः ये दाक्षिणात्य रहे होंगे । इस रोचक ग्रन्थ की विशद व्याख्या भी काशी के प्रौढ़ विद्वान् पं० काकाराम शास्त्री ( कश्मीरी ) ने प्रायः सवा सौ वर्ष पूर्व रची थी । आत्मबोध-स्वामी शङ्कराचार्यरचित एक छोटा सा प्राथमिक अद्वैतवादी ग्रन्थ | आत्मबोधोपनिषद् - इस उपनिषद् में अष्टाक्षर 'ओम् नमो नारायणाय' मन्त्र की व्याख्या की गयी है। आत्मानुभूति की सभी प्रक्रियाओं का विशद वर्णन इसमें पाया जाता है । आत्मविद्याविलास श्री सदाशिवेन्द्र सरस्वती-रचित अठा रहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ । इसकी भाषा सरल एवं भावपूर्ण है। अध्यात्मविद्या का इसमें विस्तृत और विशद विवेचन किया गया है। आत्मस्वरूप -- नरसिंहस्वरूप के शिष्य तथा प्रसिद्ध दार्शनिक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आत्मानन्द-आदिग्रन्थ आचार्य । इन्होंने पद्मपादकृत ‘पञ्चपादिका' के ऊपर 'प्रबोध- ज्ञात होता है कि ये पूर्वमीमांसा के आचार्य थे। परिशोधिनी' नामक टीका लिखी, जो अपनी तार्किक आथर्वण-अथर्वा ऋषि द्वारा संगृहीत वेद; उक्त वेद का युक्तियों के लिए प्रसिद्ध है । मंत्र; आथर्वण का पाठक, परम्परागत अध्येता अथवा आत्मानन्द-ये ऋक्संहिता के एक भाष्यकार है। विधि विधान । आत्मानात्मविवेक-शङ्कराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपादा- आथव'ण उपनिषदें-दूसरे वेदों की अपेक्षा अथर्ववेदीय चार्य की रचनाओं में एक । इसमें आत्मा तथा अनात्मा के उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्व का प्रकाश ही भेद को विशद रूप से समझाया गया है । इनका उद्देश्य है। इसलिए अथर्ववेद को 'ब्रह्मवेद' भी आत्मार्पण-अप्पय दीक्षित रचित उत्कृष्ट कृतियों में से एक कहते हैं । विद्यारण्य स्वामी ने 'अनुभूतिप्रकाश' नामक निबन्ध । इसमें आत्मानुभूति का विशद विवेचन है। ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और नृसिंहोत्तरतापनीय इन तीन आत्मोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसमें आत्मतत्त्व का उपनिषदों को ही प्रारम्भिक अथर्ववेदीय उपनिषद् माना निरूपण किया गया है। है । किन्तु शङ्कराचार्य माण्डूक्य को भी इनके अन्तर्गत आत्रेय-बृहदारण्यक उपनिषद् (२.६.३) में वणित माण्टि मानते हैं, क्योंकि बादरायण ने वेदान्तसूत्र में इन्हीं चारों के एक शिष्य की पैतृक उपाधि । ऐतरेय ब्राह्मण में आत्रेय के प्रमाण अनेक बार दिये हैं । जो संन्यासी प्रायः सिर मुड़ाये अङ्ग के पुरोहित कहे गये है। शतपथ ब्राह्मण में एक रहते हैं, उन्हें मुण्डक कहते हैं । इसी से पहली रचना का आत्रेय को कुछ यज्ञों का नियमतः पुरोहित कहा गया है। 'मुण्डकोपनिषद्' नाम पड़ा। ब्रह्म क्या है, उसे किस प्रकार उसी में अन्यत्र एक अस्पष्ट वचन के अन्तर्गत आत्रेयी समझा जाता है, इस उपनिषद् में इन्हीं बातों का वर्णन शब्द का भी प्रयोग हुआ है । है। प्रश्नोपनिषद् गद्य में है । ऋषि पिप्पलाद के छः ब्रह्मआत्रेयी-गभिणी या रजस्वला महिला । प्रथम अर्थ के जिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के मूल छः तत्त्वों पर प्रश्न किये लिए 'अत्र' (यहाँ है) से इस शब्द की व्युत्पत्ति होती है। हैं। उन्हीं छ: प्रश्नोत्तरों पर यह प्रश्नोपनिषद् आधारित द्वितीय अर्थ के लिए 'अ-त्रि (तीन दिन स्पर्श के योग्य है । माण्डूक्योपनिषद् एक बहुत छोटा गद्यसंग्रह है, परन्तु नहीं) से इसकी व्युत्पत्ति होती है। अत्रि गोत्र में उत्पन्न सबसे प्रधान समझा जाता है। नृसिंहतापिनी पूर्व और भी आत्रेयी कही गयी है, जैसा कि उत्तररामचरित में उत्तर दो भागों में विभक्त है। इन चारों के अतिरिक्त भवभूति ने एक वेदपाठिनी ब्रह्मचारिणी आत्रेयी का वर्णन मुक्तिकोपनिषद् में अन्य ९३ आथर्वण उपनिषदों के भी किया है। नाम मिलते हैं। आत्रय ऋषि-कृष्ण यजुर्वेद के चरक सम्प्रदाय की बारह आदि उपदेश-'साधमत' के संस्थापक बीरभान अपनी शाखाओं में से एक शाखा मैत्रायणी है । पुनः मैत्रायणी की शिक्षाएं कबीर की भाँति दिया करते थे। वे दोहे और सात शाखाएं हुई, जिनमें 'आत्रेय' एक शाखा है। भजन के रूप में हुआ करती थीं। उन्हीं के संग्रह को ___ आचार्य आत्रेय के मत का उल्लेख (ब्र० स० ३.४.४४) 'आदि उपदेश' कहते हैं। करके ब्रहासुत्रकार ने उसका खण्डन किया है। उनका आदिकेदार-उत्तराखण्ड में स्थित मुख्य तीर्थों में से एक । मत है कि यजमान को ही यज्ञ की अङ्गभूत उपासना का बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से ४-५ सीढ़ी नीचे शङ्कराफल प्राप्त होता है, ऋत्विज को नहीं । अतएव सभी उपा- चार्य का मन्दिर है । उससे ३-४ सीढ़ी उतरने के बाद सनाएँ स्वयं यजमान को करनी चाहिए, पुरोहित के द्वारा आदिकेदार मन्दिर स्थित है। नहीं करानी चाहिए। इसके विरोध में सूत्रकार ने आचार्य आदिग्रन्थ-सिक्खों का यह धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें गुरु औडुलोमि के मत को प्रमाणस्वरूप उद्धत किया है। नानक तथा दूसरे गुरुओं के उपदेशों का संग्रह है। इसका मीमांसादर्शन में जैमिनि ने वेदान्ती आचार्य कार्णाजिनि पढ़ना तथा इसके बताये मार्ग पर चलना प्रत्येक सिक्ख के मत के विरुद्ध सिद्धान्त रूप से आत्रेय के मत का उल्लेख अपना कर्तव्य समझता है । 'आदिग्रन्थ' को 'गुरु ग्रन्थ किया है। फिर कर्म के सर्वाधिकार मत का खण्डन करने साहब' या केवल 'ग्रन्थ साहब' भी कहा जाता है, क्योंकि के लिए भी जैमिनि ने आत्रेय का प्रमाण दिया है। इससे . दसवें गुरु गोन्विदसिंह ने सिक्खों की इस गरुप्रणाली को Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदित्यउपपुराण-आदित्यशयन अनुपयुक्त समझा एवं उन्होंने 'खड्ग-दी-पहल' (खड्ग- रायण का रविवार); 'विजय' (श० ७ को रोहिणी के संस्कार) के द्वारा 'खालसा' दल बनाया, जो धार्मिक जीवन साथ रविवार); 'पुत्रद' (रोहिणी या हस्त के साथ रविवार, के साथ तलवार का व्यवहार करने में भी कुशल हुआ। उपवास एवं पिण्डों के साथ श्राद्ध हेतु); 'आदित्याभिमुख' गुरु गोविन्दसिंह के बाद सिक्ख 'आदिग्रन्थ' को ही गुरु (माघ कृ० ७ को रविवार, एकभक्त, प्रातः से सायं तक मानने लगे और यह 'गुरु ग्रन्थ साहब' कहलाने लगा। महाश्वेता मंत्र का जप हेतु); 'हृदय' (संक्रान्ति के साथ आदित्य उपपुराण-अठारह महापराणों की तरह ही कम से रविवार, नक्त, सूर्यमन्दिर में सूर्याभिमुख होना, आदित्यकम उन्नीस उपपुराण भी प्रसिद्ध है । प्रत्येक उपपुराण हृदय मन्त्र का १०८ बार जप); 'रोगपा' (पूर्वाफाल्गुनी किसी न किसी महापुराण से निकला हुआ माना जाता को रविवार, अर्क के दोने में एकत्र किये हुए अर्कफूलों से है । बहुतों का मत है कि उपपुराण बाद की रचनाएँ हैं, पूजा); 'महाश्वेताप्रिय' (रविवार एवं सूर्य ग्रहण, उपवास, परन्तु अनेक उपपुराणों से यह प्रकट होता है कि वे अति- महाश्वेता का जप) । महाश्वेता मन्त्र है-'ह्रां ह्रीं सः' प्राचीन काल में संग्रहीत हुए होंगे। 'आदित्य उपपुराण' इति, दे० हे. (वत २, ५२१)। अन्तिम दस के लिए एक प्राचीन रचना है, जिसका उद्धरण अल-बीरूनी दे० कृत्यकल्पतरु (व्रत १२-२३), हे० (व० २,५२४-२८)। (सखाऊ, १.१३०), मध्व के ग्रन्थों एवं वेदान्तसूत्र के आदित्यवार नक्तव्रत-हस्त नक्षत्र से युक्त रविवार को भाष्यों में प्राप्त होता है। इस व्रत का आचरण होता है, यह रात्रि अथवा वार व्रत आदित्यदर्शन-अन्नप्राशन संस्कार के पश्चात् शिशु का है, जिसका देवता सूर्य है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान 'निष्क्रमण' (पहली बार घर से निकालना) संस्कार होता होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.५३८-५४१; कृत्यहै। इसी संस्कार का अन्य नाम आदित्यदर्शन भी है, रत्नाकर, पृ० ६०८-६१० । क्योंकि सर्य का दर्शन बालक उस दिन पहली ही बार ___ आदित्यवारव्रत-इसमें मार्गशीर्ष मास से एक वर्षपर्यन्त me_ e : करता है । दे० 'निष्क्रमण' । सूर्य का पूजन होता है । भिन्न-भिन्न मासों में सूर्य का आदित्यमण्डलविधि-इस व्रत में रक्त चन्दन अथवा केसर भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न फल से बनाये हुए वृत्त पर गेहूँ अथवा जौ के आटे का घी-गुड़ अर्पित किये जाते हैं। जैसे, मार्गशीर्ष में सूर्य का नाम से संयुक्त खाद्य पदार्थ रखा जाता है । लाल फूलों से सूर्य होगा 'मित्र' और उन्हें नारिकेल अर्पित किया जायगा। का पूजन होता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ७५३, ७५४ पौष में 'विष्णु' नाम से सम्बोधित होंगे तथा 'बीजपूर'फल (भविष्योत्तर पुराण ४४.१-९ से उद्धृत)। अर्पित किया जायगा। इसी प्रकार अन्य मासों में भी । आदित्यवार-सूर्य के व्रत का दिन । जब यह कुछ तिथियों, दे० व्रतार्क, पत्रात्मक (३७५ ब -३७७ अ)। इस व्रत के नक्षत्रों एवं मासों से युक्त होता है तो इसके कई नाम (कल पुण्य से समस्त रोगों का निवारण होता है । १२) होते हैं । माघ शु०६ को यह 'नन्द' कहलाता है, आदित्यवत-पुरुषों और महिलाओं के लिए आश्विन मास जब व्यक्ति केवल रात्रि में खाता है (नक्त), सूर्य प्रतिमा से प्रारम्भ कर एक वर्ष तक रविवार को यह व्रत चलता पर घी से लेप करता है और अगस्ति वृक्ष के फल, श्वेत है। सूर्य देवता का पूजन होता है। व्रतार्क (पत्रात्मक, चन्दन, गुग्गुल धूप एवं अपूप (पूआ) का नैवेद्य चढ़ाता है पृ० ३७८ अ) में स्कन्द पुराण से एक कथा लेकर इस (हे०, ७० २, ५२२-२३) । भाद्रपद शुक्ल में यह रविवार बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार साम्ब 'भद्र' कहलाता है, उस दिन उपवास या केवल रात्रि में श्री कृष्ण के शाप से कोढ़ी हो गया था और अन्त में इसी भोजन किया जाता है, दोपहर को मालतीपुष्प, चन्दन एवं व्रत के आचरण से पूर्णरूप से स्वस्थ हुआ। विजयधूप चढ़ायी जाती है, (हे०, ७०, २, ५२३-२४); आदित्यस्तव-अप्पय दीक्षित कृत शैव मत का एक ग्रन्थ । कृत्यकल्पतरु (व ०१२-१३) । रोहिणी नक्षत्र से युक्त रविवार इसके अनुसार सूर्य के माध्यम से अन्तर्यामी शिव का ही 'सौम्य' कहलाता है। अन्य नाम हैं 'कामद' (मार्गशीर्ष जप किया जाता है। श० ६); 'जय' (दक्षिणायन का रविवार); 'जयन्त' (उत्त- आदित्यशयन-हस्त नक्षत्र युक्त रविवासरीय सप्तमी, अथवा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सूर्य की संक्रान्ति से युक्त रविवासरीय सप्तमी हो, उस दिन उमा तथा शर की प्रतिमाओं का पूजन विहित है ( सूर्य शिव से भिन्न नहीं हैं ) । इसमें देवताओं के चरणों से प्रारम्भ कर ऊपर के अङ्गों का नामोच्चारण करते हुए हस्त नक्षत्र से प्रारम्भ कर आगे के नक्षत्रों को अज्ञों के नाम के साथ जोड़ते हुए नमस्कार किया जाता है। पाँच चादरों तथा एक तकिया से युक्त शय्या तथा एक सौ मुद्राओं का दान होता है । दे० पद्मपुराण ५.२४,६४-९६ (हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.६८०-६८४ से उद्धृत) । आवित्वशान्तिव्रतहस्त नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । आक वृक्ष की लकड़ियों से सूर्य का पूजन विहित है ( संख्या में १०८ या २८ ) । इन्हीं लकड़ियों से हवन किया जाता है, जिसमें प्रथम मधु तथा घी अथवा दधि और घी की सात आकृतियाँ दी जाती हैं । दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड ५३७-३८ ( भविष्य पुराण से)। 1 आदित्य हृदय - विधि रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य के मन्दिर में बैठकर १०८ बार आदित्यहृदयमन्त्र का जप और नक्त भोजन का आचरण करना चाहिए। रामायण (युद्ध काण्ड, १०७) में अगस्त्य ऋषि ने राम के पास आकर उपदेश दिया कि वे सूर्य की पद्यात्मक 'आदित्यहृदय' नामक स्तुति करें, जिससे रावण के साथ होने वाले युद्ध में विजयी हो सकें। कृत्यकल्पतर (प्रत। काण्ड, १९-२० ) में उपर्युक्त कथा का उल्लेख है । एक बात स्पष्ट है कि यदि रविवार को संक्रान्ति हो तो 'आदित्यहृदय' का पाठ करना चाहिए । आदित्याभिमुख विधि - प्रातःकालीन स्नानोपरान्त व्रतेच्छ को उदित सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होना चाहिए, तदुपरान्त जैसे जैसे सूर्य पश्चिमाभिमुख हो, वह भी उसके घूमने के साथ सूर्यास्तपर्यन्त स्वयं घूमता जाय। फिर एक स्तम्भ के सम्मुख महाश्वेता का जप करके गन्ध, पुष्प तथा अक्षत इत्यादि से सूर्य का पूजन कर दक्षिणा दे सबके पश्चात् स्वयं भोजन ग्रहण करे । आदिवदरी (१) वदरीनाथजी को मूर्ति पहले तिब्ब तीय क्षेत्र में थी । उस स्थान को आदि बदरी माना जाता है । वर्तमान बदरीनाथपुरो से माना घाटी होकर उस स्थान का रास्ता जाता है, जो बहुत ही कठिन है। आदित्य शान्तियत-आनतीय कैलास जाने के लिए नीती घाटी से उसकी ओर जाते हैं। उस मार्ग से शिवचलम् जाकर वहाँ से यूलिंगमठ (आदिबदरी) जा सकते हैं । यह स्थान अब भी बड़ा रमणीक है । तिब्बती उसे बुलिंगमठ कहते हैं। कहा जाता है कि वहाँ से उक्त मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने वर्तमान पुरी में लाकर स्थापित किया था। (२) कपालमोचन तीर्थ से १२ मील पर दूसरा आदिबदरी मन्दिर है। कहते हैं कि यहां दर्शन करना बदरीनाथदर्शन करने के बराबर है। पैदल का मार्ग है। यह मंदिर पर्वत पर है । यहाँ ठहरने की व्यवस्था नहीं है । ( ३ ) श्यामसुन्दर ने भी गोपों को आदिबदरी नारायण के दर्शन कराये थे । वह स्थान ब्रजमंडल के कामवन क्षेत्र में है। आवियामलतन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में जो चौंसठ तन्त्रों को नामावली दी हुई है, उसमें आदियामल तन्त्र भी एक है। आदि रामायण - (१) ऐसा प्रवाद है कि वाल्मीकि रामायण आदि रामायण नहीं है और आदि रामायण भगवान् शंकर का रचा हुआ बहुत बृहत् ग्रन्थ था, जो अब उपलब्ध नहीं है ! इसका नाम महारामायण भी बतलाया जाता है । कहते हैं कि इसको स्वायम्भुव मन्वतर के पहले सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था। (२) एक दूसरा आदि रामायण उपलब्ध हुआ है जो अवश्य ही परवर्ती है । अयोध्या के एक मठ से भुशुण्डि - रामायण अथवा आदि रामायण प्राप्त हुआ है । इस पर कृष्णभक्ति के माधुर्य भाव का गहरा प्रभाव प्रतीत होता है। आधिपत्यकाम—यह वाजपेय यज्ञ के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, जिसका उल्लेख आश्वलायन श्रौतसूत्र ( ९.९.१ ) में आता है। इसके अनुसार आधिपत्य की कामना रखने वाले नरेश को वाजपेय यज्ञ करना चाहिए। आष्वव यज्ञक्रिया के मध्य किये जानेवाले यजुर्वेदानुसारी कर्म यजुर्वेद | यज्ञ के चार पुरोहितों के लिए चार अलग अलग वेद हैं । ऋग्वेद होता के लिए, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उद्गाता के लिए एवं अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है । इसलिए यजुर्वेद को आध्वर्यव भी कहते हैं । आनतीय- शांखायन सूत्र के एक व्याख्याकार आनतीय । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्तर्यव्रत-आनन्दबोधाचार्य (सौराष्ट्रदेशवासी) वरदपुत्र पण्डित ने शाङ्खायन सूत्र की। उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य, शारीरकभाष्य और शतजो टीका रची, उसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय श्लोकी पर तथा सरेश्वराचार्य कृत तैत्तिरीयोपनिषदका भाग लुप्त हो गया है । वार्तिक एवं बहदारण्यकोपनिषदवार्तिक पर भी टीकाएँ आनन्तर्यव्रत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को लिखी हैं। प्रारम्भ होता है। फिर प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की आनन्दतारतम्यखण्डन-श्रीनिवासाचार्य (द्वितीय) ने द्वितीया की रात्रि तथा तृतीया के दिन उपवास एक वर्ष मध्वाचार्य के मत में दोष दिखलाने के उद्देश्य से 'आनन्दतक करना होता है। भगवती उमा का प्रत्येक तृतीया को तारतम्यखण्डन' नामक प्रबन्ध की रचना की। इसमें भिन्न-भिन्न नामों से पूजन विहित है । नैवेद्य भी परिवर्तित मध्वाचार्य प्रतिपादित द्वैत मत की आलोचना है। होते रहने चाहिए । व्रती को भिन्न-भिन्न भोज्य पदार्थों से आनन्दतीर्थ-प्रसिद्ध द्वैतवादी आचार्य मध्व का दूसरा नाम । व्रत की पारणा करनी चाहिए। यह व्रत स्त्रियोपयोगी इन्होंने वेदान्त के प्रस्थानत्रय (उपनिषद्-ब्रह्मसूत्र-गीता) पर है। इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि यह कर्ता के लिए तर्कपूर्ण भाष्य रचना की है । इनका जीवन-काल बारहवीं पुत्रों एवं निकटसम्बन्धियों का अन्तर (वियोग) नहीं होने शताब्दी और उडूपी (कर्नाटक) निवास स्थान माना जाता देता । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.४०५-४१३ । है । वैष्णवों के चार संप्रदायों में एक 'माध्व संप्रदाय' आनन्द-आत्मा अथवा परमात्मा के अनिवार्य गुणों आनन्द तीर्थ से ही प्रचारित हुआ। (सत् + चित् + आनन्द) में से एक। इसका शाब्दिक अर्थ है आनन्दनवमी-यह व्रत फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन सम्यक् प्रकार से प्रसन्नता ( आ + नन्द ) । यह पूर्णता प्रारम्भ होकर । एक वर्षपर्यन्त चलता है। पञ्चमी को अथवा मोक्ष की अवस्था का द्योतक है। जिन कोषों में एकभक्त, षष्ठी को नक्त, सप्तमी को अयाचित, अष्टमी आत्मा वेष्टित होता है उनमें से एक 'आनन्दमय कोष' तथा नवमी के दिन उपवास और देवी का पूजन होना भी है, परन्तु पूर्ण आनन्द तो कोष से परे है। चाहिए। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर पुष्प, आनन्दगिरि-शङ्कराचार्यकृत भाष्य ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीका नैवेद्य, देवी के नाम इत्यादि का चार-चार मास के प्रत्येक कार । वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य वाली इनकी टीका का भाग में परिवर्तन कर देना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, नाम 'न्यायनिर्णय' है। भाष्य के भाव को हृदयङ्गम व्रत काण्ड, २९९-३०१; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.९४८कराने में यह बहुत ही सहायक है। इनकी टीका में १५० में इसका नाम 'अनन्दा' है। भामती, विवरण, कल्पतरु आदि टीकाओं की छाया आनन्दपञ्चमी-नागों को पञ्चमी तिथि अत्यन्त प्रिय दिखाई पड़ती है तथा इन्होंने स्वयं भी अन्य टीकाओं का है। इस तिथि को नागप्रतिमाओं का पूजन होता है। आश्रय लेने की बात लिखी है। इन्होंने 'शङ्करदिग्विजय' दूध में स्नान करती हुई ये प्रतिमाएं भय से मुक्ति प्रदान नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना भी की, जो विद्या करती हैं । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द १, पृ० ५५७. रण्य स्वामी के 'शङ्करदिग्विजय' के बाद लिखा गया। ५६०। इससे सिद्ध होता है कि ये विद्यारण्य स्वामी के परवर्ती आनन्दबोधाचार्य-श्री आनन्दबोध भट्टारकाचार्य बारहवीं और अप्पय दीक्षित के पूर्ववर्ती थे, क्योंकि अप्पय दीक्षित शताब्दी में वर्तमान थे। उन्होंने अपने न्यायमकरन्द ने 'सिद्धान्तलेश' में 'न्यायनिर्णय' टीका का उल्लेख ग्रन्थ में वाचस्पति मिश्र का नामोल्लेख किया है तथा किया है । विद्यारण्य स्वामी का काल चौदहवीं शताब्दी विवरणाचार्य प्रकाशात्म यति के मत का अनुवाद भी किया है और अप्पय दीक्षित का सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी है । वाचस्पति मिश्र दसवीं शताब्दी में और प्रकाशात्म का पूर्व भाग है। आनन्दगिरि का काल पन्द्रहवीं यति ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे। चित्सुखाचार्य ने, जो शताब्दी है। तेरहवीं शताब्दी में वर्तमान थे, 'न्यायमकरन्द' की आनन्दगिरि का दूसरा नाम आनन्दज्ञान भी है। व्याख्या की। इससे ज्ञात होता है कि आनन्दबोध इनके पूर्वाश्रम और जीवन चरित्र के विषय में किसी बारहवीं शताब्दी में हुए होंगे। वे संन्यासी थे । इससे प्रकार का परिचय नहीं मिलता। इन्होंने शङ्कराचार्यकृत अधिक उनके जीवन की कोई घटना नहीं मालूम होती। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दभट्ट-आन्वीक्षिको उनके तीन ग्रन्थ मिलते हैं-१. न्यायमकरन्द, २. प्रमाण- का दान विहित है। दे० कृत्यकल्परु, व्रत काण्ड, ४४३; माला और ३. न्यायदीपावली । इन तीनों में उन्होंने हेमाद्रि, व्रत खण्ड १, पृष्ठ ७४२-४३ । अद्वैत मत का विवेचन किया है । दे० 'अद्वैतानन्द' । आनन्दसफल सप्तमी-यह व्रत भाद्र शुक्ल सप्तमी के दिन आनन्द भट्ट-वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार । प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इस तिथि को उपवास आनन्दभाष्य-वेदान्त दर्शन का एक वैष्णव भाष्य, जो विहित है। दे० भविष्य पुराण, १.११०,१-८; कृत्यआचार्य स्वामी रामानन्द के सांप्रदायिक सिद्धांतों के अनु- कल्पतरु, व्रतकाण्ड, १४८-१४९। कुछ हस्तलिखित ग्रन्था रूप सगुण ब्रह्मस्वरूप का प्रतिपादन करता है । यह में इसे 'अनन्त फल' कहा गया है । उत्तम कोटि की गम्भीर तार्किक रचना है, जिससे भाष्य- आनन्दाधिकरण-वल्लभाचार्य रचित सोलहवीं शताब्दी का कार का अनुपम पाण्डित्य प्रकट होता है। एक ग्रन्थ । इसमें पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया आनन्दलहरी-शंकराचार्य द्वारा विरचित महामाया दुर्गा- गया है। देवी की स्तुति एक ललित शिखरिणी छन्द में रची गयी, आन्दोलक महोत्सव-वसन्त ऋतु में यह महोत्सव मनाया भक्तिपूर्ण कृति है। सामान्यतया इसके निर्माता आद्य जाता है। दे० भविष्योत्तर पुराण, १३३-२४ । इसमें शंकराचार्य माने जाते हैं। किन्तु आलोचकगण पश्चाद्- दोला ( झला), संगीत और रंग आदि का विशेष आयोभावी शंकराचार्य पदासीन किसी अन्य महात्मा को इसका जन रहता है। रचयिता मानते हैं । ४१ पद्यात्मक आनन्दलहरी गहन आन्दोलन व्रत-इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को शिवसिद्धान्तपूर्ण तांत्रिक स्तोत्र सौन्दर्यलहरी का पूर्वार्ध मानी पार्वती की प्रतिमाओं का पूजन तथा एक पालने में उनको जाती है। झुलाना होता है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.७४५-७४८, आनन्दलिङ्ग जङ्गम-उत्तराखण्ड के श्री केदारनाथ धाम जिसमें ऋग्वेद, दशम मण्डल के इक्यासीवें सूक्त के तीसरे में स्थित बहुत प्राचीन मठ । इसकी प्राचीनता का प्रमाण मन्त्र का उल्लेख है : 'विश्वतश्चक्षुरुत।' एक ताम्रशासन है, जो इस मठ में वर्तमान बताया जाता आन्ध्र ब्राह्मण-देशविभाग के अनुसार ब्राह्मणों के दो है । उसके अनुसार हिमवान् केदार में महाराज जनमेजय बड़े वर्ग हैं-पश्चगौड और पञ्चद्रविड। नर्मदा के दक्षिण के के राजत्वकाल में स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम वहाँ के ब्राह्मण आन्ध्र, द्रविड, कर्णाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर हैं। मठ के अधिष्ठाता थे । उन्हीं के नाम जनमेजय ने मन्दा- इन्हें पञ्चद्रविड कहा गया है और उधर के ब्राह्मण इन्हीं किनी, क्षीरगङ्गा, मधुगङ्गा, स्वर्गद्वार गङ्गा, सरस्वती पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं । आन्ध्र या तैलङ्ग में तिलघानि और मन्दाकिनी के बीच जितना भूक्षेत्र है, सबका दान यन, वेल्लनाटी, वेगिनाटी, मुकिनाटी, कासलनाटी, करनइस उद्देश्य से किया कि ऊखीमठ के आचार्य आनन्द- कम्मा, नियोगी और प्रथमशाखी ये आठ विभाग हैं। लिङ्ग जङ्गम के शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से दे० 'पञ्च द्रविड ।' भगवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें। आन्वीक्षिकी सामान्यतः इसका अर्थ तर्क शास्त्र अथवा आनन्दवल्ली-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं। पहला दर्शन है। इसीलिए इसका न्याय शास्त्र से गहरा भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है, दूसरे सम्बन्ध है। 'आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', 'हेतुवाद' का भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगु- निन्दापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता वल्ली। इन दोनों ( दूसरी और तीसरी) का इकट्ठा है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित चार प्रकार की विद्याओं नाम वारुणी उपनिषद् भी है। आनन्दवल्ली में ब्रह्म के (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति ) में से आनन्दतत्त्व की व्याख्या है। 'आन्वीक्षिकी' महत्त्वपूर्ण विद्या मानी गयी है, जिसकी शिक्षा आनन्दव्रत-इस व्रत में चैत्र मास से चार मासपर्यन्त प्रत्येक राजकुमार को दी जानी चाहिए। उसमें (२.१.१३) बिना किसी के याचना करने पर भी जल का वितरण इसकी उपयोगिता निम्नलिखित बतलायी गयी है : किया जाता है। व्रत के अन्त में जल से पूर्ण कलश, प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । भोज्य पदार्थ, वस्त्र, एक अन्य पात्र में तिल तथा सुवर्ण आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपः-आपद्धर्मपर्वाध्याय [आन्वीक्षिकी सदा सभी विद्याओं का प्रदीप, सभी वर्णन है, जिन के नाम हैं-(१) पितृयज्ञ, (२) पार्वणयज्ञ, कर्मों का उपाय और सभी धर्मों का आश्रय मानी गयी (३) अष्टकायज्ञ, (४) श्रावणीयज्ञ, (५) आश्वयुजीयज्ञ, है। इस प्रकार आन्वीक्षिको विद्या त्रयी, वार्ता, दण्डनीति (६) आग्रहायणीयज्ञ और (७) चैत्रीयज्ञ । इनके अतिरिक्त आदि विद्याओं के बलाबल को युक्तियों से निर्धारित करती पञ्चमहायज्ञों का भी वर्णन पाया जाता है-(१) ब्रह्मयज्ञ, हुई संसार का उपकार करती है, विपत्ति और समृद्धि में (२) देवयज्ञ, (३) पितृयज्ञ, (४) अतिथियज्ञ और (५) बुद्धि को दृढ रखती है और प्रज्ञा, वाक्य एवं क्रिया में भूतयज्ञ । इसमें सोलह गृह्य संकारों का भी विधान है। कुशलता उत्पन्न करती है। निम्नांकित मुख्य हैं : आपः-ऋग्वेद के ( ७.४७.४९;१०.९,३०) जैसे मन्त्रों १. गर्भाधान, २. पुंसवन, ३. सीमन्तोन्नयन, ४. जातमें आपः (जलों) के विविध गुणों की अभिव्यक्ति हुई कर्म, ५. नामकरण, ६. निष्क्रमण, ७. अन्नप्राशन, ८. है। यहाँ आकाशीय जलों की स्तुति की गयी है, उनका चौल, ९. उपनयन, १०. समावर्तन, ११. विवाह, १२. स्थान सूर्य के पास है। अन्त्येष्टि आदि । 'इन दिव्य जलों को स्त्रीरूप माना गया है । वे माता __ आठ प्रकार के विवाहों-१. ब्राह्म, २. दैव, ३. आर्ष, हैं, नवयुवती हैं, अथवा देवियाँ हैं । उनका सोमरस के ४. प्राजापत्य, ५. आसुर, ६. गान्धर्व, ७. राक्षस और साथ संयोग होने से इन्द्र का पेय प्रस्तुत होता है । वे धन पैशाच-का वर्णन भी इसमें पाया जाता है। वान् है, धन देनेवाली हैं, वरदानों की स्वामिनी है तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र-वैदिक संप्रदाय के धर्मसूत्र केवल पाँच घी, दूध एवं मधु लाती हैं।' उपलब्ध हैं: (१) आपस्तम्ब, (२) हिरण्यकेशी, (३) बौधा यन, (४) गौतम और (५) वसिष्ठ । चरणव्यूह के अनुइन गुणों को हम इस प्रकार मानते हैं कि जल पृथ्वी • सार आपस्तम्ब कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के को उपजाऊ बनाता है, जिससे वह प्रभूत अन्न उत्पन्न खाण्डिकीय वर्गीय पाँच उपविभागों में से एक है। यह करती है। सबसे प्राचीन धर्मसूत्र है। यह दो प्रश्नों, आठ पटलों जल पालन करनेवाला, शक्ति देनेवाला एवं जीवन और तेईस खण्डों में विभक्त है ।। देनेवाला है। वह मनुष्यों को पेय देता है एवं इन्द्र को आपद्धर्म-सभी वर्गों तथा आश्रमों के धर्म वृत्ति तथा अवभी। वह ओषधियों का भी भाग है एवं इसी कारण स्था भेद से स्मृतियों में वर्णित हैं । किन्हीं विशेष परिरोगों से मुक्ति देनेवाला है। स्थितियों में जब अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का आपदेव-सुप्रसिद्ध मीमांसक । उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पालन संभव नहीं होता तो धर्मशास्त्र में उनके विकल्प पूर्वमीमांसा का एक प्रामाणिक परिचायक ग्रन्थ है। बताये गये हैं । शास्त्रों से विहित होने के कारण इनका मीमांसक होते हुए भी उन्होंने सदानन्दकृत वेदान्तसार पालन भी धर्म ही है। उदाहरण के लिए, यदि ब्राह्मण पर 'बालबोधिनी' नाम की टीका लिखी है, जो नृसिंह अपने वर्ण के विशिष्ट कर्तव्यों (पाठन, याजन और प्रतिग्रह) सरस्वतीकृत 'सुबोधिनी' और रामतीर्थ कृत 'विद्वन्मनो से निर्वाह नहीं कर सकता तो वह क्षत्रिय अथवा वैश्य के रञ्जिनी' की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझी जाती है। विशिष्ट कर्तव्यों (शस्त्र, कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) को आपदेवी-आपदेव रचित 'मीमांसान्यायप्रकाश' को अपना सकता है। किन्तु इन कर्तव्यों में भी ब्राह्मण के अधिकांश लोग 'आपदेवी' कहते हैं । इसकी रचना १६- लिए सीमा बाँध दी गयी है कि संकटकालीन स्थिति ३० ई० के लगभग हुई थी। यह अति सरल संस्कृत बीत जाने पर आपद्धर्म का त्याग कर उसे अपने वर्णधर्म भाषा में है और इसका अध्ययन बहुत प्रचलित है। का पालन करना चाहिए। आपस्तम्ब गृह्यसूत्र-ह्यसूत्र कुल १४ हैं। ऋग्वेद के तीन, आपद्धर्मपर्वाध्याय-महाभारत के १८ पर्व हैं और इन साम के तीन, शुक्ल यजुः का एक, कृष्ण यजुर्वेद के छः एवं पर्यों के अवान्तर भी १०० छोटे पर्व हैं, जिन्हें पर्वाध्याय आथर्वण का एक । गृह्यसूत्रों में आपस्तम्ब का स्थान महत्त्व ___कहते हैं । ऐसे ही छोटे पर्यों में से आपद्धर्म भी एक है। पूर्ण है । इसमें तथा अन्य गृह्यसूत्रों में मुख्यतः गृह्ययज्ञों का इसकी विषयसूची इस प्रकार है : Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपस्तम्बयजुः संहिता-आबू (अर्बुद) राजर्षि वृत्तान्त कीर्तन । कायव्य-दस्यु संवाद । नकुलो- आपस्तम्बीय मण्डनकारिका - मीमांसा शास्त्र का एक प्रसिद्ध पाख्यान । मार्जार मूषिक संवाद । ब्रह्मदत्त-पूजनोसंवाद । कणिक उपदेश । विश्वामित्र निषादसंवाद। कपोतलुब्धकसंवाद भार्याप्रशंसा कीर्तन इन्द्रोत-परीक्षित्संवाद - गोमायुसंवाद पवन शाल्मलिसंवाद आत्मज्ञान कीर्तन | दम गुणवर्णन तपः कीर्तन सत्य कथन । लोभोपाख्यान। नृशंसप्रायवित्तकथन लगोत्पत्ति कीर्तन । षड्जगीता | कृतनोपाख्यान । आपस्तम्ब यजुः संहिता कृष्ण यजुर्वेद के एक सम्प्रदाय ग्रन्थ का नाम 'आपस्तम्ब यजुसंहिता' है। इसमें सात अष्टक हैं । इन अष्टकों में ४४ प्रश्न हैं । इन ४४ प्रश्नों में ६५१ अनुवाक हैं। प्रत्येक अनुवाक् में दो सहस्र एक सौ अड्डानवे कण्डिकाएँ हैं । साधारणतः एक कण्डिका में ५०-५० शब्द हैं । आपस्तम्ब शुल्वसूत्र - कल्पसूत्रों की परम्परा में शुल्वसूत्र भी आते हैं। शुल्बसूत्रों की भूमिका १८७५ ई० में विबो द्वारा लिखी गयी थी (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बेंगाल) । शुल्वसूत्र दो हैं : पहला बौधायन एवं दूसरा आपस्तम्ब । जर्मन में इसका अनुवाद श्री बर्क ने प्रस्तुत किया था शुल्बसूत्रों का सम्बन्ध श्रीत यज्ञों से है। शुल् का अर्थ है मापने का तागा या डोरा । यज्ञवेदिकाओं के निर्माण में इसका काम पड़ता था । यज्ञस्थल, उसके विस्तार, आकार आदि का निर्धारण शुल्बसूत्रों के अनुसार होता था । भारतीय ज्यामिति के प्राचीन आदिम ग्रन्थ माने जाते हैं । आपस्तम्ब श्रौतसूत्र - श्रीतसूत्र अनेक आचार्य ने प्रस्तुत किये हैं। इनकी संख्या १३ है कृष्ण यजुर्वेद के छः श्रीत सूत्र हैं, जिनमें से 'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र' भी एक है । इस का जर्मन अनुवाद गार्वे द्वारा १८७८ में और कैलेंड द्वारा १९१० ई० में हुआ। श्रौतसूत्रों की याज्ञिक क्रियाओं पर हिल्लेण्ट ने विस्तृत ग्रन्थ लिखा है। वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जिन यज्ञों का वर्णन है उनको श्रौतसूत्रों में पद्धतिबद्ध किया गया है । वैदिक हवि तथा सोम यज्ञ सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठानों का इसमें प्रतिपादन है। श्रुतिप्रतिपादित चौदह यज्ञों का इसमें विधान है । दे० 'श्रौतसूत्र' । आपस्तम्ब स्मृति अवश्य ही यह परवर्ती स्मृतियों में से है। आपस्तम्बधर्मसूत्र से इसकी विषयसूची बहुत भिन्न है। ८४ ग्रन्थ । सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र ने, जो पाण्डित्य के अगाध सागर थे और जिन्हें शाङ्करमत के आचार्यों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, अपने संन्यास ग्रहण करने के पूर्व ' आपस्तम्बीय मण्डनकारिका' की रचना की थी । आपिशलि - एक प्रसिद्ध प्राचीन व्याकरणाचार्य । इनका नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों में (वा सुप्यापिशले । ६. १. ९२ ) आया है। आप्तोपदेश–न्यायदर्शन में वर्णित चौथा प्रमाण । न्यायसूत्र में लिखा है कि आसोपदेश अर्थात् 'आप्त पुरुष का वाक्य' शब्द प्रमाण माना जाता है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जो 'साक्षात्कृतधर्मा' हो अर्थात् जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ । गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किये हैं- 'दृष्टार्थ' एवं 'अदृष्टार्थ' । प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बताने वाला 'दृष्टार्थ' एवं केवल अनुमान से जानने योग्य बातों को (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्म इत्यादि को बताने वाला 'अदृष्टार्थ' कहलाता है । इस पर वात्स्यायन ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक वचन और ऋषि वचन या वेदवाक्य का विभाग हो जाता है । अदृष्टार्थ में केवल वेदवाक्य ही प्रमाण माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है । इससे उसके वाक्य सत्य और विश्वसनीय हैं | पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं, उनका वक्ता प्रामाणिक मान लिया जाय । जब आबू ( अर्बुद) - प्रसिद्ध पर्वत तथा तीर्थस्थान, जो राजस्थान के सिरोही क्षेत्र में स्थित है। यह मैदान के बीच में द्वीप की तरह उठा हुआ है। इसका संस्कृत रूप अर्बुद है जिसका अर्थ फोड़ा या सर्प भी है। इसे हिमालय का पुत्र कहा गया है । यहाँ वसिष्ठ का आश्रम था और राजा अम्बरीष ने भी तपस्या की थी। इसका मुख्य तीर्थ गुरुशिखर ५६५३ फुट ऊँचा है । यहाँ एक गुहा में दत्ताश्रेय और गणेश की मूर्तियां और पास में अचलेश्वर (शिव) का मन्दिर भी है । यहाँ शक्ति की पूजा अधरादेवी तथा अर्बुदमाता के रूप में होती है। यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ भी है और देलवाड़ा में जैनियों के बहुत सुन्दर कलात्मक मन्दिर बने हुए हैं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास आयुर्वेद आभास - कश्मीरी शैव मत का एक सिद्धान्त । कश्मीरी शैवों की साहित्यिक परम्परा में सोमानन्द कृत 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ व मत के दार्शनिक विचारों को स्पष्टरूप में प्रस्तुत करता है। यह एकेश्वरवाद को मानता है एवं इसके अनु सार मोक्ष मनुष्य को सतत प्रत्यभिज्ञा (मनुष्य का शिव के साथ तादात्म्य भाव) के अनुशासन से प्राप्त हो सकता है। यहाँ सृष्टि को केवल माया नहीं, अपितु शिव का शक्ति के माध्यम से व्यक्तीकरण माना गया है । सम्पूर्ण सृष्टि शिव का 'आभास' (प्रकाश) है आभास का शाब्दिक अर्थ है 'सम्यक् प्रकार से भासित होगा' यह एक प्रकार की विश्व-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम शिव (अन्तिम तत्व) विश्व के विविध रूपों में भासित होता है। 1 आमर्दकीव्रत- किसी मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी, विशेष रूप से फाल्गुन मास की आमदंकी अथवा पात्री ( आंवला फल अथवा हरे) कहलाती है। विभिन्न नक्षत्रों से युक्त द्वादशी के विभिन्न नाम ये हैं । जैसे विजया ( श्रवण नक्षत्र के साथ), जयन्ती (रोहिणी के साथ), पापनाशिनी (पुष्य नक्षत्र के साथ ) । अन्तिम द्वादशी के दिन उपवास करने से एक सहस्र एकादशियों का पुण्य प्राप्त होता है। विष्णु की पूजा करते हुए व्रती को आमलक वृक्ष के नीचे जागरण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, १, २१४-२२२ । आमलक्येकादशी - फाल्गुन शुक्ल एकादशी । इस तिथि को आमलक वृक्ष के नीचे हरि भगवान् का पूजन करना चाहिए, क्योंकि इस वृक्ष में विष्णु और लक्ष्मी का वास है । दे० पद्मपुराण, ६.४७. ३३ स्मृतिकौस्तुभ ३६४-३६६ । आँवले के वृक्ष के नीचे बैठकर कार्तिक पूर्णिमा अथवा कार्तिक मास के किसी भी दिन पूजन और भोजन करना चाहिए । आमेर (अम्बानगर ) - राजस्थान का एक प्रसिद्ध शाक्त पीठ । यह जयपुर से ५ मील दूर है जो इस राज्य की प्राचीन राजधानी थी । यहाँ काली का एक प्रसिद्ध मन्दिर है । एक अन्य पहाड़ी पर पर गलता ( झरना) टीला है, जिसको लोग गालव ऋषि की तपोभूमि मानते हैं। टीले के ऊपर सात कुण्ड हैं । इनके पास ही शंकरजी का मन्दिर है। झरनों से बराबर जल प्रवाहित होता रहता है ८५ जिसमें यात्री स्नान करके अपने को पुण्य का भागी समझते हैं । आम्रपुण्यभक्षण इस व्रत का सम्बन्ध कामदेव पूजन से है आम्रमञ्जरीकामदेव का प्रतीक है, क्योंकि इसकी मदगन्ध काम को उद्दीप्त करती है । कामदेव की तुष्टि के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आम्र मञ्जरियों को रवाना चाहिए । ० स्मृतिकौस्तुभ ५१९ वर्षकृत्यकौमुदी, ५१६-५१७ । आयतन - छान्दोग्य उपनिषद् (७.२४.२) में यह निवास स्थान के अर्थ में केवल एक स्थान पर आया है। किन्तु काव्यों में इसे पवित्र स्थान, विशेष कर मन्दिर माना गया है, जैसे देवायतन, शिवायतन आदि । : - विष्णु भगवान् को मङ्गल का आयतन माना गया है मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुडध्वजः । मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलायतनं हरिः ॥ आयन्त दीक्षित — आयन्त दीक्षित देश के शिष्य थे। इन्होंने 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' नामक एक अद्भुत ग्रन्थ की रचना की थी। बेङ्कटेश सदाशिवेन्द्र सरस्वती के समकालीन थे, उन्होंने 'अक्षयषष्टि' और 'दायशतक ' नामक दो ग्रंथ रचे हैं । उनके शिष्य होने के कारण आयन्त दीक्षित का जीवन काल भी अठारहवीं शताब्दी ही सिद्ध होता है। 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' में आयन्त दीक्षित ने व्यास के वेदान्तसूत्रों को अद्वैतवादी माना है। अद्वैत सिद्ध प्रेमियों के लिए यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । आयुर्वेद - - परम्परा के अनुसार आयुर्वेद एक उपवेद है तथा धर्म और दर्शन से इसका अभिन्न सम्बन्ध है। चरणव्यूह के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है परन्तु सुश्रुतादि आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार यह अथर्ववेद का उपवेद है । सुश्रुत के मत से "जिसमें या जिसके द्वारा आयु प्राप्त हो, आयु जानी जाय उसको आयुर्वेद कहते हैं।" भावमिश्र ने भी ऐसा ही लिखा है । चरक में लिखा है-- 'यदि कोई पूछने वाला प्रश्न करे कि ऋक्, साम, यजु, अथर्व इन चारों वेदों में किस वेद का अवलम्ब लेकर आयुर्वेद के विद्वान् उपदेश करते हैं, तो उनसे चिकित्सक चारों में अथर्ववेद के प्रति अधिक भक्ति प्रकट करेगा। क्योंकि स्वस्त्ययन, बलि, मङ्गल, होम, नियम, प्रायश्चित्त, उपवास और मन्त्रादि अथर्ववेद से लेकर ही वे चिकित्सा का उपदेश करते हैं ।' Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ सुश्रुत में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का 'आयुर्वेद शास्त्र' बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा । ये आठ भाग निम्नांकित हैं। (१) शल्य तन्त्र, ( २ ) शालाक्य तन्त्र, (३) काय चिकित्सा तन्त्र, (४) भूत विद्या तन्त्र, (५) कौमारभृत्य तन्त्र, (६) अगद तन्त्र, (७) रसायन तन्त्र और (८) वाजीकरण तन्त्र । इस अष्टाङ्ग आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्व शरीरविज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी है। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी) और जलचिकित्सा (हाइड्रो पैथी) आदि आजकल के अभिनव चिकित्सा प्रणालियों के विधान भी पाये जाते हैं। आयुधव्रत- इस व्रत में श्रवण से चार मासपर्यन्त शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म का पूजन करना चाहिए। ये आयुध वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के प्रतीक हैं । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.१४८, १-६; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.८३१ । आयुर्व्रत - ( १ ) इस व्रत में एक वर्ष तक शम्भु तथा केशव (विष्णु) का चन्दन से लेपन करना चाहिए । व्रत के अन्त में जलपूर्ण कलश तथा गौ का दान विहित है । दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, ४४२ । (२) पूर्णिमा के दिन भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का पूजन, उपवास कुछ उपहार ब्राह्मण तथा सद्यः विवाहित स्त्रियों को देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड २.२२५२२९ (गरुड पुराण से ) । आयुः संक्रान्तिवत - इस व्रत में संक्रान्ति के दिन सूर्य का पूजन, काँसे के पात्र, दूध, घी तथा सुवर्ण का दान विहित है । इसका उद्यापन धान्य संक्रान्ति के समान होना चाहिए । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.७६७; व्रतार्क, १० ३८९ । आरणीय विधि-संत्तिरीय ब्राह्मण का शेषांश तैत्तिरीय आरण्यक है। इसमें दस काण्ड हैं काठक में बतायी हुई 'आरणीय विधि' का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। इसके आयुधव्रत- आरण्यक पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि स्थापन के नियम लिखे हैं। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय के नियम हैं। चौबे, पाँचवें और छठे में दर्श-पूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों पर विचार है । आरण्यक - ब्राह्मणों और उपनिषदों का मध्यवर्ती साहित्य आरण्यक है, अतः यह श्रुति का ही एक भाग है । कहा जा सकता है कि आरण्यक ब्राह्मणों की ही भाषा और शैली में लिखे गये उनके पूरक हैं । इनके अध्यायों का प्रारम्भ ब्राह्मणों जैसा ही है, किन्तु सामग्री में सामान्य अन्तर दिखाई पड़ता है, जो क्रमशः रहस्यात्मक दृष्टान्तों या रूपकों के माध्यम से दार्शनिक चिन्तन में बदल गया है। साधारणतः धार्मिक क्रियाकलापों एवं रूपक वाले भाग को ही आरण्यक कहते है, एवं दार्शनिक भाग उपनिषद् कहलाता है। इन आरण्यक ग्रन्थों के भाग धार्मिक क्रियाओं का वर्णन करते हैं तथा यत्र-तत्र उनकी रहस्यपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार ये ब्राह्मणशिक्षाओं से अभिन्न दिखाई पड़ते हैं । किन्तु कुछ अध्यायों में कुछ कड़े नियमों की स्थापना हुई, जिसके अनुसार कुछ क्रियाओं को गुप्त रखने की आज्ञा है और उन्हें कुछ विशेष पुरुषों के निमित्त ही करने योग्य बतलाया गया है। ऐसे रहस्थात्मक स्थल उपनिषदों में भी दृष्टिगोचर होते हैं । इसके साथ ही कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनमें केवल क्रियाओं के रूपक ही दिये गये हैं, पर वे धार्मिक क्रियाओं के सम्पादनाव नहीं, किन्तु ध्यान करने के लिए दिये गये हैं । इनमें से किसी भी रूपकात्मक अथवा याज्ञिक अध्याय में पुनर्जन्म अथवा कर्मवाद की शिक्षा नहीं है। आरण्यकों का अध्ययन अरण्य ( वन ) में ही करना चाहिए। किन्तु वे कौन थे जो उनका अध्ययन करते थे ? ब्राह्मणों के निर्माण-काल में ही विरक्त यति, मुनियों का एक सम्प्रदाय प्रकट हुआ, जो सांसारिकता का त्याग कर चुका था और जिसने अपने जीवन को धार्मिक लक्ष्य की ओर लगा दिया था। उनके अभ्यासों के तीन प्रकार थे : (१) तपस्या, (२) यज्ञ और ( ३ ) ध्यान । किन्तु नियम विभिन्न थे, इसलिए अभ्यासों में विभिन्नता थी। कुछ लोगों ने यज्ञों को एकदम छोड़ दिया। बड़े एवं विस्तृत यज्ञ वैसे भी असम्भव होते थे ऊपर जो कुछ अरण्यवासी साधुओं के सम्बन्ध में कहा गया है, उसका बड़ा ही राजीव वर्णन रामायण में उपस्थित है । जब विद्यार्थी अपनी शिक्षा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरण्यगान - आरोग्यद्वितीया समाप्त कर लेता तो उसके लिए तीन मार्ग हुआ करते थे, अपने गुरु के साथ आजन्म रहना, गृहस्व बनना और अरण्यवासी साधु बनना। ऐसे साधु का प्रारम्भिक नाम 'वैखानस' या किन्तु बाद में वानप्रस्थ ( वनवासी) का प्रयोग होने लगा। सायणाचार्य का कहना है कि आरण्यक साधुओं का पाठ्य 'ब्राह्मण ग्रन्थ' था । इस मत का डायसन ने समर्थन किया है। आरण्यक के विषयों के विभिन्न अध्यायों-धार्मिक क्रियाओं की रहस्यात्मक व्याख्या, दृष्टान्त, आन्तरिक यश आदि का बनवासो साधुओं के विभिन्न प्रकार के अभ्यासों से मेल भी खाता है । किन्तु ओल्डेनवर्ग एवं वेरिडेल कीथ का कथन है कि आरण्यक वे रहस्यात्मक ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन एकांत में ही हो सकता है । प्रो० कीथ का कथन है कि ब्राह्मणों की तरह आरण्यक भी पुरोहितों को पढ़ाया जाता था। दोनों में अन्तर केवल रहस्यों का था, जो आरण्यक ग्रन्थों में है । आरण्यकों में वे ही अध्याय महत्वपूर्ण है जो अपने रूपक, रहस्य, ध्यान आदि पर जोर डालने के कारण ब्राह्मणों से तथा दार्शनिक उपनिषदों से भिन्न हैं । मुख्य आरण्यक ग्रन्थ निम्नांकित है ऋग्वेद के आरण्यक - १. ऐतरेय आरण्यक — इसके पाँच ग्रन्थ पाये जाते हैं । दूसरे और तीसरे आरण्यक स्वतन्त्र उपनिषद् हैं। दूसरे के उत्तरार्द्ध के शेष चार परिच्छेदों में वेदान्त का प्रतिपादन है | इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है । चौथे आरण्यक का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन किया है। २. कौषीतकि आरण्यक - इसके तीन खण्ड हैं । प्रथम दो खण्ड कर्मकाण्ड से भरे हैं। तीसरा खण्ड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता है। यह बहुत सारगर्भित है। आनन्दधाम में प्रवेश करने की विधि इसमें प्रतिपादित है। यजुर्वेद के आरण्यक - १. तैत्तिरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है। इस आरण्यक में दस काण्ड है। आरणीय विधि का इसमें प्रतिपादन हुआ है। २. बृहदारण्यक शुक्लयजुर्वेद का है। सामवेद का आरण्यक - १. छान्दोग्य आरण्यक यह आरण्यक छः प्रपाठकों में विभाजित है। वह आरण्यक आरण्यगान भी कहलाता है। ( कॉवेल, कीथ, विंटरनित्ज) आरण्यमान जिस प्रकार आरण्यकों के पढ़ने अथवा अध्ययन के लिए वन में निवास किया जाता था, उसी प्रकार सामवेद के 'आरण्यगान' के लिए भी विधान था, अर्थात् उसे भी अरण्य (वन) में ही गाया जाता था । आरम्भवाद-जगत् अथवा सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में वैशेषिकों तथा नैयायिकों का मत है कि ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न करता है। इसी सिद्धान्त को आरम्भबाद कहते हैं। नित्य परमाणु एक दूसरे से विभिन्न प्रकार से मिलकर जगत् के अनन्त पदार्थों की रचना ( आरम्भ ) करते हैं । यह एक प्रकार का सर्जनात्मक विकासवाद है । ८७ आराध्य ब्राह्मण' आराध्य ब्राह्मण' अर्ध-लिङ्गायतों की दो शाखाओं में से एक है। इन अर्ध-लिङ्गायतों में लिङ्गायत प्रथाएँ अपूर्ण एवं जातिभेद का भाव संकीर्ण हैं । आराध्य ब्राह्मण विशेषकर कर्णाटक एवं तैलंग प्रदेश में पाये जाते हैं । ये अर्ध परिवर्तित स्मार्त हैं जो पवित्र यज्ञोपवीत एवं शिवलिङ्ग धारण करते हैं । अपनी व्यक्तिगत पूजा में वे लिङ्गायत हैं, किन्तु स्मातों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध करते हैं। उनके लिए कोई स्मार्त व्यक्ति वैवाहिक उत्सव सम्पन्न करता है, किन्तु वे दूसरे लिङ्गायतों के घर भोजन नहीं करते । दूसरा अर्थ-लिङ्गायत दल जातिबहिष्कृत है, जिसके लिए कोई भी जङ्गम संस्कारोत्सव नहीं करता और वे किसी भी अर्थ में लिङ्गायत समाज में प्रवेश नहीं पा सकते । आरुणि यह एक पितृपरक नाम है। अरुण औपवेशि के पुत्र उद्दालक के अर्थ में यह व्यवहृत होता है। आरुणि यशस्वी से भी उद्दालक का बोध होता है, जो जैमिनीय ब्राह्मण ( २१८० ) में सुब्रह्मण्या के आचार्य हैं। आरुणि का प्रयोग जैमिनीय उपनिषद्, ब्राह्मण, काठक संहिता एवं ऐतरेय आरण्यक में भी हुआ है। आरुणेयोपनिषद् - निवृत्तिमार्गी उपनिषदों में इसकी गणना की जाती है। आरोग्यद्वितीया - पौष शुक्ल द्वितीया को अथवा शुक्ल पक्ष की प्रत्येक द्वितीया को उदयकालीन चन्द्र के पूजन का विधान है। चन्द्रमा का पूजन करने के पश्चात् वस्त्रों का -Y Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आरोग्यप्रतिपदा-आर्तभक्ति जोडा, सूवर्ण तथा एक तरल पदार्थ से भरा हआ कलश दान करना चाहिए । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.३८९-९१ (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, २.५८ से उद्धृत)। आरोग्यप्रतिपदा-वर्ष की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि को व्रतारम्भ होता है। यह एक वर्षपर्यन्त चलता है । प्रत्येक प्रतिपदा को सूर्य की छपी हुई प्रतिमा का पूजन विहित है । दान पूर्व व्रत के समान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.३४१-४२; व्रतराज, ५३ । आरोग्यवत-(१) इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ल पक्ष के पश्चात् आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर शरद्पूर्णिमा तक होता है । दिन में कमल तथा जाति-जाति के पष्पों से अनिरुद्ध की पूजा, हवन आदि होता है । व्रत की समाप्ति से पूर्व तीन दिन का उपवास विहित है। इससे स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा समृद्धि की उपलब्धि होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.२०५,१-७ । (२) यह दशमीव्रत है। नवमी को उपवास तथा दशमी को लक्ष्मी और हरि का पूजन होना चाहिए । हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.९६३-९६५ । आरोग्यसप्तमी-इस व्रत में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी से प्रत्येक सप्तमी को एक वर्ष तक उपवास, सूर्य के पूजन आदि का विधान है । दे० वाराह पुराण, ६२.१-५ । आचिक (१) सामवेदीय मन्त्रों की स्तुतियों का संग्रह, जो उद्गाता को कण्ठस्थ करना पड़ता था। सोमयज्ञ के विविध अवसरों पर कौन मन्त्र किस स्वर में और किस क्रम में गाया जायगा, आदि की शिक्षा आचार्य अपने शिष्यों को देते थे। 'कौथुमी शाखा' में उद्गाता को ५८५ गान सिखाये जाते थे। इस पूरे संग्रह को आर्थिक कहते हैं । इसमें दो प्रकार के गान होते हैं-पहला 'ग्रामगेय गान' तथा दूसरा 'आरण्य गान' । पहला बस्तियों में गाया जाता था, किन्तु दूसरा इतना पवित्र माना जाता था कि उसके लिए केवल वनस्थली का एकान्त ही उपयुक्त समझा जाता था। आचिक (२) सामवेद में आये हुए ऋग्वेद के मन्त्र 'आर्चिक' कहे जाते हैं और यजुर्वेद के मन्त्र ( गद्यात्मक ) 'स्तोम' कहलाते हैं। सामवेदीय आचिक ग्रन्थ अध्यापक भेद, देश भेद, कालक्रम भेद, पाठक्रम भेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं । सब शाखाओं में मन्त्र एक से ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्नभिन्न हैं। आचिक ग्रन्थ तीन है-छन्द, आरण्यक और उत्तरा । उत्तराचिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इन सूक्तों का 'त्रि' नाम है । इसी के समान भावापन्न दो दो ऋचाओं की समष्टि का नाम 'प्रगाथ' है। चाहे त्रिक हो या प्रगाथ, इनमें से प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द आचिक में से लिया गया है । इसी छन्द-आचिक से एक ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं को मिलाकर त्रिक बनता है। इसी प्रकार प्रगाथ भी हैं। इन्हीं कारणों से इनमें जो पहली ऋचाएं हैं वे सब 'योनि-ऋक्' कहलाती हैं और आचिक योनि-ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं। योनि-ऋक् के पश्चात् उसी के बराबर की दो या एक ऋचा जिसके उत्तर दल में मिले उसी का नाम उत्तराचिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तरा है। एक ही अध्याय का बना हआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन करने के योग्य हो 'आरण्यक' कहलाता है। सब वेदों में एक-एक आरण्यक है । योनि, उत्तरा और आरण्यक इन्हीं तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आचिक अर्थात् ऋक्समूह है । छन्द ग्रन्थों में जितने साम हैं उनके गाने वाले 'छन्दोग' कहलाते हैं। आर्त भक्ति-श्रीमद्भगवद्गीता (७.१६) में भक्तों के चार प्रकार बतलाये गये हैं : १. अर्थार्थी ( अर्थ अथवा लाभ की आशा से भजन करने वाला) २. आर्त ( दुःख निवारण के लिए भजन करने वाला) ३. जिज्ञासु ( भगवान् के स्वरूप को जानने के लिए भजन करने वाला) ४. ज्ञानी (भगवान् के स्वरूप को जानकर उनका चिन्तन करने वाला )। यद्यपि आर्त भक्ति का स्थान अन्य प्रकार की भक्ति से निचली श्रेणी का है, तथापि आर्त भक्त को भी भगवान् सुकृती कहते हैं। आर्त होकर भी भगवान् की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है। भक्तिशास्त्र के सिद्धांतग्रन्थों में भक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है-(१) परा भक्ति (जिसका उद्देश्य केवल भक्ति है और उसके बदले में कल Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शन-आर्यसमाज ८९ नहीं चाहिए, और (२) अपरा भक्ति (साधनरूप भक्ति)। आर्त भक्ति अपरा भक्ति का ही एक उप प्रकार है। आदर्शन अथवा आाभिषेक-यह व्रत मार्गशीर्ष पूर्णिमा को होता है। दक्षिण भारत में नटराज ( नृत्यमुद्रा में भगवान् शिव ) के दर्शनार्थ जनसमूह चिदम्बरम में उमड़ पड़ता है। दक्षिण भारत का यह एक महान् व्रत है। आर्द्रानन्दकरी तृतीया-हस्त एवं मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ अभिजित् नक्षत्रों के दिन वाली शुक्ल पक्ष की तृतीया। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण करना चाहिए । इस व्रत में शिव तथा भवानी का पूजन होता है। भवानी के चरणों से प्रारम्भ कर मुकुट तक शरीर के प्रत्येक अवयव को नमस्कार किया जाता है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.४७१-४७४ । आर्य-आर्यावर्त का निवासी, सभ्य, श्रेष्ठ, सम्मान्य । वैदिक साहित्य में उच्च वर्गों के लिए व्यवहृत साधारण उपाधि । कहीं-कहीं 'आर्य' (अथवा 'अर्य') वैश्यों के लिए ही सुरक्षित समझा गया है ( अथर्व १९.३२, ८ तथा ६२,१ ) । आर्य शब्द से मिश्रित उपाधियाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की भी हुआ करती थीं । किन्तु 'शूद्रायौं' यौगिक शब्द का अर्थ अस्पष्ट है । आरम्भ में इसका अर्थ सम्भवतः शूद्र एवं आर्य था, क्योंकि महाव्रत उत्सव में तैत्तिरीयब्राह्मण में ब्राह्मण एवं शूद्र के बीच (कृत्रिम) युद्ध करने को कहा गया है, यद्यपि सूत्र इसे वैश्य ( अर्य ) एवं शूद्र का युद्ध बतलाता है । कतिपय विद्वानों के मत में यह युद्ध और विरोध प्रजातीय न होकर सांस्कृतिक था। वस्तुतः यह ठीक भी जान पड़ता है, क्योंकि शूद्र तथा दास बृहत् समाज के अभिन्न अङ्ग थे। 'आर्य' शब्द ( स्त्रीलिंग आर्या ) आर्य जातियों के विशेषण, नाम, वर्ण, निवास के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यह श्रेष्ठता सूचक भी माना गया हैं : 'योऽहमार्येण परवान भ्रात्रा ज्येष्ठेन भामिनि ।' (रामायण, द्वितीय काण्ड) इस प्रकार महर्षि बाल्मीकि ने आर्य शब्द को श्रेष्ठ या सम्मान्य के अर्थ में ही प्रयुक्त किया है । स्मति में आर्य का निम्नलिखित लक्षण किया गया है : कर्त्तव्यमाचरन् काममकर्त्तव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्राकृताचारे स तु आर्य इति स्मृतः ।। बणश्रिमानुकूल कर्तव्य में लीन, अकर्त्तव्य से विमुख आचारवान् पुरुष ही आर्य है। अतः यह सिद्ध है कि जो व्यक्ति या समुदाय सदाचारसम्पन्न, सकल विषयों में अध्यात्म लक्ष्य युक्त, दोषरहित और धर्मपरायण है, वही आर्य कहलाता है। आर्यभट-गुप्तकाल के प्रमुख ज्योतिर्विद । ये गणित और खगोल ज्योतिष के आचार्य माने जाते हैं। इनके बाद के ज्योतिर्विदों में वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, द्वितीय आर्यभट, भास्कराचार्य, कमलाकर जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। इनका जन्मकाल सन् ४७६ ई० और निवासस्थान पाटलिपुत्र (पटना) कहा जाता है । गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' इन्हीं का प्रचलित किया हुआ है, जिसके अनुसार भारत में इन्होंने ही सर्वप्रथम पृथ्वी को चल सिद्ध किया। इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'आर्यभटीय' है। आर्यसमाज-प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धां की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन् १८२४ ई० में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशङ्कर तथा पिता का नाम अम्बाशङ्कर था। ये बाल्यकाल में शङ्कर के भक्त थे। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं : ( १८२४-१८४५) घर का जीवन, (१८४५-१८६३) भ्रमण तथा अध्ययन एवं (१८६३-१८८३) प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा । इनके प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं : १. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह ( जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा ), २. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और ३. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् १८ वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की । प्रथमतः वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य' पड़ा । पश्चात् ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई । फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया। दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य समाज प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, अक्तूबर सन् १८८३ में अजमेर में इनकी इहलीला जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने समाप्त हुई । कहा जाता है कि रसोइए ने इनको विष दे इन्हें वेद पढ़ाया। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद दिया। उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं आर्यसमाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैंचाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान १. सभी सत्य ज्ञान का प्रारम्भिक कारण ईश्वर है । की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम २. ईश्वर ही सर्वस्व सत्य है, सर्वज्ञान है, सर्व सौन्दर्य पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के है, अशरीरी है, सर्व शक्तिमान् है, न्यायकारी है, दयालु पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक है, अजन्मा है, अनन्त है, अपरिवर्तनशील है, अनादि है, पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का अतुलनीय है, सबका पालनकर्ता एवं सबका स्वामी है, परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्श- सर्वव्याप्त है, सर्वज्ञ है, अजर व अमर है, भयरहित है, निक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से पवित्र है एवं सृष्टि का कारण है । केवल उसी की पूजा वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष होनी चाहिए। इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण ३. वेद ही सच्चे ज्ञानग्रन्थ है तथा प्रत्येक आर्य में बम्बई से पूना, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक का सबसे पुनीत कर्तव्य है उन्हें पढ़ना या सुनना एवं इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दी। पण्डितों, मौल उनकी शिक्षा दूसरों को देना। वियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी ४. प्रत्येक प्राणी को सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था । इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य के त्याग के लिए सर्वदा तत्पर रहना चाहिए । भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गङ्गा ५. प्रत्येक काम नेकीपूर्ण होना चाहिए तथा उचित तट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये । ढाई एवं अनुचित के चिन्तन के बाद ही उसे करना चाहिए। वर्ष के बाद पुनः जनसेवा का कार्य आरम्भ किया। ६. आर्यसमाज का प्राथमिक कर्तव्य है मनुष्य मात्र की १० अप्रैल सन् १८७५ में बम्बई में इन्होंने आर्यसमाज शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति द्वारा विश्वकी स्थापना की। १८७७ में दिल्ली दरबार के अवसर कल्याण करना । पर दिल्ली जाकर पंजाब के कुछ भद्रजनों से भी मिले, जिन्होंने इन्हें पंजाब आने का निमन्त्रण दिया। यह उनकी ७. हर एक के प्रति न्याय, प्रेम एवं उसकी योग्यता के पंजाब की पहली यात्रा थी, जहाँ इनका मत भविष्य में अनुसार व्यवहार करना चाहिए । खूब फूला-फला । १८७८-१८८१ के मध्य आर्यसमाज एवं ८. अन्धकार को दूर कर ज्ञान ज्योति को फैलाना थियोसॉफिकल सोसाइटी का बड़ा ही सुन्दर भाईचारा चाहिए। र । । किन्तु शीघ्र ही दोनों में ईश्वर के व्यक्तित्व के ऊपर ९. किसी को भी केवल अपनी ही भलाई से सन्तुष्ट मतभेद हो गया। नहीं होना चाहिए अपितु अपनी उन्नति का सम्बन्ध दूसरों __स्वामी दयानन्द भारत के अन्य धार्मिक चिन्तकों, की उन्नति से जोड़ना चाहिए । जैसे देवेन्द्रनाथ ठाकूर, केशवचन्द्र सेन ( ब्रह्मसमाज ), १०. साधारण समाजोन्नति या समाज कल्याण के मैडम ब्लौवाट्स्की एवं कर्नल आलकॉट ( थियोसॉफिकल सम्बन्ध में मनुष्य को अपना मतान्तर त्यागना तथा अपनी सोसाइटी ), भोलानाथ साराभाई ( प्रार्थनासमाज), सर व्यक्तिगत बातों को भी छोड़ देना चाहिए। किन्तु व्यक्तिसैयद (रिफाई इस्लाम ) एवं डॉ० टी० जे० स्काट गत विश्वासों में मनुष्य को स्वतन्त्रता बरतनी चाहिए । तथा रे० जे० ग्रे (ईसाई प्रतिनिधि) से भी मिले । जीवन ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के के अन्तिम दिनों में स्वामीजी राजस्थान में थे। आपने अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को महाराज जोधपुर तथा अन्य राजाओं पर अच्छा प्रभाव दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक डाला । कुछ दिनों बाद स्वामीजी बीमार पड़े एवं ३० सिद्धांत है । आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य समाज अवलम्बित है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के समाने यह समस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिससे भारतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं । स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है - 'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान है । यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है । ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है -१. चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों ( अग्नि, वायु, सूर्य एवं अङ्ग ) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए । २. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-सन्य एवं प्रकृति-प्रन्य से यहाँ साम्य प्रकट होता है । स्वामी दयानन्द कहते हैं, "मैं वेदों को स्वतः प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते । ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है । वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है- १. वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये है जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है। २. वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये है क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते । ३. वे विज्ञान एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं । आर्यसमाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्ततः वो महत्त्वपूर्ण हैं: १. भारत को ( भूले हुए) वैदिक पथ पर पुनः चलाना और २. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना । स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने, अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे 'आर्य समाज' कहते हैं । 'आर्य' का अर्थ है भद्र एवं 'समाज' ९१ का अर्थ है सभा । अतः आर्यसमाज का अर्थ है 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा' । आर्य प्राचीन भारत का देशप्रेमपूर्ण एवं धार्मिक नाम है जो भद्र पुरुषों के लिए प्रयोग में आता था। स्वामीजी ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए यह नाम चुना । यह धार्मिक से भी अधिक सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व रखता है । इस प्रकार यह अन्य धार्मिक एवं सुधारवादी संस्थाओं से भिन्नता रखता है, जैसे- ब्रह्मसमाज ( ईश्वर का समाज ), प्रार्थना - समाज आदि । स्वामी दयानन्द की मृत्यु से अब तक की घटनाओं में समाज का दो दलों में बँटना एक मुख्य परिवर्तन है। इस विभाजन के दो कारण थे : (क) भोजन में मांस के उपयोग पर मतभेद और (स) उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नीति सम्बन्धी मतभेद पहले कारण से उत्पन्न हुए दो वर्ग 'मांसभक्षी दल' एवं 'शाकाहारी दल कहलाते हैं तथा दूसरे कारण से उत्पन्न दो दल 'कॉलेज पार्टी' एवं 'महात्मा पार्टी' (प्राचीन पद्धति पर चलने वाले ) कहलाते हैं । ये मतभेद एक और भी गहरा मतभेद उपस्थित करते हैं जिसका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की मान्यता के परिणाम से है । इस दृष्टि से कॉलेज पार्टी अधिक आधुनिक और उदार है, जबकि महात्मा पार्टी का दृष्टिकोण अधिक प्राचीनतावादी है । कॉलिज पार्टी ने लाहौर में एक महाविद्यालय दयानन्द ऐंग्लोवेदिक कॉलेज' की स्थापना की, जबकि महात्मा पार्टी ने हरिद्वार में 'गुरुकुल' स्थापित किया, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर विशेष बल दिया जाता रहा है। संघटन की दृष्टि से इसमें तीन प्रकार के समाज हैं१. स्थानीय समाज, २. प्रान्तीय समाज और ३. सार्वदेशिक समाज । स्थानीय समाज की सदस्यता के लिए निम्नलिखित नियमावली है—१. आर्य समाज के दस नियमों में विश्वास, २ वेद की स्वामी दयानन्द द्वारा की हुई व्याख्यादि में विश्वास ३ सदस्य की आयु कम से कम १८ वर्ष होनी चाहिए, ४. द्विजों के लिए विशेष दीक्षा संस्कार की आवश्यकता नहीं है किन्तु ईसाई तथा मुसलमानों के लिए एक शुद्धि संस्कार की व्यवस्था है । स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् अस्थायी सदस्य द्वितीय, जिन्हें Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ आर्य समाज-आर्यावर्त मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। थो, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्माणस्थली अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिदर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है। द्वन्द्वी था । लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् स्थानीय समाज के निम्नांकित पदाधिकारी होते है- आर्यसमाज का मुख्य केन्द्र आजकल दिल्ली है। सभापति, उपसभापति, मंत्री, कोशाध्यक्ष और पुस्तकालया- _जहाँ तक इसके भविष्य का प्रश्न है, कुछ ठीक नहीं ध्यक्ष। ये सभी स्थायी सदस्यों द्वारा उनमें से ही चुने जाते कहा जा सकता। यह उत्तर भारत की सबसे मूल सुधारहैं । प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रति- वादी एवं लोकप्रिय संस्था है। स्त्रीशिक्षा, हरिजनसेवा, निधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं। स्थानीय समाज के । अश्पृश्यता-निवारण एवं दुसरे सुधारों में यह प्रगतिशील प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज है । वेदों को सभी धर्म का मूल आधार एवं विश्व के में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका विज्ञान का स्रोत बताते हुए, यह देशभक्ति को भी स्थापना, गठन प्रतिनिधिमूलक है। करता है । इसके सदस्यों में से अनेक ऐसे हैं जो वास्तविक पूजा पद्धति-साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक रविवार देशहितैषी एवं देशप्रेमी है। शिक्षा तथा सामाजिक को प्रातः होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन सुधार द्वारा यह भारत का खोया हुआ पूर्व-गौरव लाना छुट्टी पर होते हैं। यह सत्संग तीन या चार घण्टे का चाहता है। होता है । भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में आर्यावर्त-इसका शाब्दिक अर्थ है 'आर्या आवर्तन्तेऽत्र' - वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ आर्य जहाँ सम्यक् प्रकार से बसते है । इसका दूसरा अर्थ प्रारम्भ होती है। साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है 'पुण्यभूमि' । मनुस्मृति (२.२२) में आर्यावर्त की परिहै । पश्चात् प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का भाषा इस प्रकार दी हुई है : प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाजगान से होता है। ___ आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् । इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावतं विदुर्बधाः ॥ सदस्य अपने क्रम से प्रधान वक्ता या पूजा-संचालक का [पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक, (उत्तर स्थान ग्रहण करते हैं। दक्षिण में हिमालय, विन्ध्याचल) दोनों पर्वतों के बीच कार्यप्रणाली-आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के अन्तराल (प्रदेश) को विद्वान् आर्यावर्त कहते हैं । ] मेधासमान भाषण, शिक्षा, समाचार पत्र आदि की सहायता से तिथि मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक का भाष्य करते हए अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक है, लिखते हैं : प्रथम वेतनभोगी और द्वितीय, अवैतनिक । अवैतनिक में "आर्या आवर्तन्ते तत्र पुनः पुनरुद्भवन्ति । स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर आदि आक्रम्याक्रम्यापि न चिरं तत्र म्लेच्छाः स्थातारो भवन्ति ।" लोग होते हैं, जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले [आर्य वहाँ बसते हैं, पुनः पुनः उन्नति को प्राप्त शास्त्रज्ञ और विद्वान् प्रचारक होते हैं। पहला दल शिक्षा होते हैं। कई बार आक्रमण करके भी म्लेच्छ (विदेशी) पर जोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर स्थिर रूप से वहाँ नहीं बस पाते ।] बल देता है। आर्यसमाज का प्रत्येक संगठन कुछ आजकल यह समझा जाता है कि इसके उत्तर में हाईस्कूल, गुरुकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था हिमालय शृंखला, दक्षिण में विन्ध्यमेखला, पूर्व में पूर्वकरता है। सागर (वंग आखात) और पश्चिम में पश्चिम पयोधि यह मुख्यतः उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि (अरब सागर) है। उत्तर भारत के प्रायः सभी जनपद इसके कुछ केन्द्र दक्षिण भारत में भी हैं। बरमा तथा पूर्वी इसमें सम्मिलित है । परन्तु कुछ विद्वानों के विचार में अफ्रीका, मारीशस, फीजी आदि में भी इसको शाखाएँ हिमालय का अर्थ है पूरी हिमालय शृङ्खला, जो प्रशान्त है जो वहाँ बसे हुए भारतीयों के बीच कार्य करती हैं। महासागर से भूमध्य महासागर तक फैली हुई है और आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी लाहौर में जिसके दक्षिण में सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया और दक्षिण Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्षानुक्रमणी-आश्रम पूर्व एशिया के प्रदेश सम्मिलित थे । इन प्रदेशों में सामी आश्मरथ्य आचार्य-वेदान्त के व्याख्याता प्राचीन आचार्य । और किरात प्रजाति बाद में आकर बस गयी। वेदान्तसूत्र ( १ । २ । २१; १ । ४ । २० ) में जो इनके आर्षानुक्रमणी-शौनक ऋषि प्रणीत एक वैदिक अनुक्रमणी मत का उल्लेख आया है उससे आचार्य शङ्कर तथा भामग्रन्थ । ऋग्वेद के समस्त सूक्त संख्या में १०२८ हैं । इनमें से तोकार वाचस्पति मिश्र ने इन्हें विशिष्टाद्वैतवादी सिद्ध 'बालखिल्य' नामक ११ सूक्तों पर सायणाचार्य का भाष्य किया है । अतः ये वेदव्यास और जैमिनि से पहले हुए थे। है । शौनक ऋषि की आर्षानुक्रमणी में उनका उल्लेख इनका मत है कि परमेश्वर अनन्त होने पर भी उपासक पाया जाता है। के ऊपर अनुग्रह करने के लिए प्रादेशमात्र स्थान में आविआर्षेय ब्रह्माण-सामवेद की जैमिनीय संहिता का एक भूत होते हैं और विज्ञानात्मा एवं परमात्मा में परस्पर ब्राह्मण । सायणाचार्य ने इसका भी भाष्य किया है। इस भेदाभेद-सम्बन्ध है । कहा जाता है कि आश्मरथ्य के इस ग्रन्थ में ऋषि सम्बन्धी उपदेश है, अर्थात् सामों के ऋषि, भेदाभेद की ही आगे चलकर यादवप्रकाश के द्वारा पुष्टि छन्द, देवता इत्यादि पर व्याख्या और विचार है । साथ हई है । इसके अनुसार आत्मा न तो एकान्ततः ब्रह्म से ही कई धार्मिक तथा पौराणिक कथाएं पायी जाती हैं। भिन्न है और न अभिन्न है । स्वामी निम्बार्काचार्य तथा संस्कृत के कथा-साहित्य की प्राचीन परम्परा इसमें भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तुत वेदान्तसूत्र के भाष्य में भी सुरक्षित हैं। आश्मरथ्य के भेदाभेदवाद का पोषण हुआ है। आलेख्यसर्पपञ्चमी (नागपञ्चमी)-उत्तर भारत में श्रावण आश्रम-जिन दो संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगशक्ल पञ्चमी को तथा दक्षिण भारत में (अमान्त गणना ठन हुआ है वे हैं वर्ण और आश्रम । वर्ण का आधार मनुष्य के अनुसार) भाद्र शुक्ल पंचमी को यह व्रत होता है। की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ है, जिसके अनुसार रंगीन चूर्णों से किसी स्थान पर नागों की आकृतियाँ वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्तव्यों का चुनाव करता बनाकर उनका पूजन करना चाहिए। परिणामस्वरूप है । आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिजत जीवन नागों के भय से मुक्ति होती है। दे० भविष्यत् पुराण का संस्कार करना है । मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत (ब्राह्म पर्व, ३७.१-३)। होता है; क्रमशः संस्कार से वह प्रबुद्ध और संस्कृत बन आवसथ-इसका ठीक अर्थ अतिथि-स्वागतशाला अथवा जाता है । सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकासस्थान है (अथर्व० ९.६,५)। इसका सम्बन्ध विशेष रूप क्रमों में बाँटा जा सकता है-(१) बाल्य और किशोरासे ब्राह्मण एवं दूसरों से था, जो भोज तथा यज्ञों के अव वस्था, (२) यौवन, (३) प्रौढावस्था और (४) वृद्धावस्था । सर पर आते थे। यह प्रायः आधुनिक धर्मशाला अथवा इन्हीं के अनुरूप चार आश्रमों की कल्पना की गयी थी, यात्रीनिवास के समान था। इसका प्रयोग निवासस्थान जो (१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य,(३) वानप्रस्थ और संन्यास के साधारण अर्थ में भी होता जान पड़ता है (ऐ० कहलाते हैं। आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं कहीं अन्तर उप० ३.१२)। पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (२.९.२१,१) के अनुसार आशादशमी व्रत-किसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य ), मौन और वानप्रस्थ प्रारम्भ कर छ: मास, एक वर्ष अथवा दो वर्ष तक गृह चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (३.२) में ब्रह्मचारी, गृहके प्राङ्गण में दस कोष्ठक खींचकर उनमें भगवान् का स्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं । वसिष्ठपूजन करना चाहिए। इससे व्रती की समस्त आशाओं धर्मसूत्र (७.१-२) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और तथा कामनाओं की पूर्ति होती है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड परिव्राजक का उल्लेख करता है। १. ९७७-९८१; व्रतराज ३५६-७। आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन आशादित्य व्रत-आश्विन मास के रविवार को व्रत का के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी थाअनुष्ठान प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का उसके ___ ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यतः धर्म अर्थात् संयम-नियम से, बारह विभिन्न नामों से पूजन होना चाहिए । दे० हेमाद्रि, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध व्रतखण्ड, ५३३-३७ । उपराम और मोक्ष की तैयारी से और संन्यास का सम्बन्ध Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रमोपनिषद् मोक्ष से था । इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है । नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए (मनुस्मृति, जीवन की इस प्रक्रिया के लिए 'आश्रम' शब्द का ५.१६९) । वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदाचुनाव बहुत ही उपयुक्त था । यह शब्द 'श्रम्' धातु से सीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में बना है, जिसका अर्थ है "श्रम करना, अथवा पौरुष दिख- जीवन विताना चाहिए ( मनुस्मृति ६. १-२) । वानप्रस्थ लाना" (अमरकोश, भानुजी दीक्षित )। सामान्यतः समाप्त करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना होता है। इसके तीन अर्थ प्रचलित है-(१) वह स्थिति अथवा स्थान इसमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णतः त्याग और परिव्रजन जिसमें श्रम किया जाता है, (२) स्वयं श्रम अथवा तपस्या ( अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते और (३) विश्रामस्थान । रहना) विहित है (मनु०-६.३३) । दे० पृथक्-पृथक् विभिन्न वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएं हैं जिनमें आश्रम । मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अव- वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्तव्यों का समाहार स्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर तथा इनसे विश्राम करते हैं । परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान का विधान करता है वहाँ आश्रम उसके व्यक्तिगत कर्तव्यों करता है। का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास-सरणियों __ मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध चाहिए ( शतायुर्वं पुरुषः ) अतएव चार आश्रमों का विभा- कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उसको जन २५-२५ वर्ष का होना चाहिए । प्रत्येक मनुष्य के जीवन प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार में चार अवस्थाए स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य संघटन करना चाहिए और किन किन साधनों का उपयोग को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना करना चाहिये । वास्तव में जीवन की यह अनुपम और चाहिए । परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास और आज भी हैं जो नियमतः इनका पालन करना आव- में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पायी जाती है । श्यक नहीं समझतं । इनके मत को "बाध' कहा गया है । प्रसिद्ध विद्वान् डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है : कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं "हम यह कह नहीं सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृअर्थात् उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में तियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहाहेरफेर हो सकता है। परन्तु सन्तुलित विचारधारा रिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार आश्रमों के समुच्चय में विश्वास करती आयी है । इसके करने में स्वतन्त्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है जो जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वियीय चतुर्थांश में इस विचार की महत्ता की समता कर सके।” ( दे० गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतु- 'आश्रम' शब्द, 'इनसाइक्लोपीडिया, रेलिजन और ईथिथांश में संन्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव क्स' में । ) में सामाजिक जीवन का सन्तुलन भंग होकर मिथ्याचार आश्रमव्रत-चैत्र शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ कर वर्ष को चारअथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है। चार महीनों के तीन भागों में विभाजित करके पूरे वर्ष विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रम- इस व्रत का आचरण करना चाहिए । वासुदेव, संकर्षण, धर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है । संक्षेप में मनु- प्रद्यम्न तथा अनिरुद्ध का वर्ष के प्रत्येक भाग में क्रमशः पाश्रमों के कर्तव्य नीचे दिये जा रहे हैं-ब्रह्मचर्य पूजन होना चाहिए। दे० विष्णधर्मोत्तर पराण, ३.१४२. आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत १-७ । का पालन करना चाहिए ( मनुस्मृति, ४.१)। दूसरे आश्रमोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद, जिसमें संन्यासी की आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसाना चाहिए; पूर्वावस्था का विशद वर्णन है। इससे संन्यासी की सांसा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वलायनगृह्यसूत्र-आषाढकृत्य रिक जीवन से विदाई, उसकी वेशभूषा, दुसरी आश्वकताएँ, भोजन, निवास, एवं कार्यादि पर विस्तृत प्रकाश पड़ता। है । संन्यास सम्बन्धी उपनिषदों, यथा ब्रह्म संन्यास, आरु- णेय, कठश्रुति, परमहंस तथा जाबाल में भी ऐसा ही पूर्ण विवरण प्राप्त होता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र--ऋग्वेद के गृह्यसूत्रों में एक । इसकी रचना करने वाले ऋषि अश्वल अथवा आश्वलायन थे,। इसमें गृह्यसंस्कारों, ऋतु यज्ञों तथा उत्सवों का सविस्तर वर्णन है। आश्वलायनगृह्मपरिशिष्ट-आश्वलायन द्वारा रचित ऋग्वेद के अनुपूरक कर्मकाण्ड से सम्बन्ध रखनेवाला यह परि- शिष्ट ग्रन्थ है। आश्वलायनश्रौतसूत्र- सूत्रों की रचना कर्मकाण्ड विषयक है। इन्हें कल्पसत्र भी कहते हैं । ऋग्वेद के श्रौतसत्रों में सबसे पहला 'आश्वलायनसूत्र' समझा जाता है। यह बारह अध्यायों में है । ऐतरेय ब्राह्मण के साथ आश्वलायन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। अश्वल ऋषि विदेहराज जनक के ऋत्विजों में होता' थे। किसी किसी का कहना है कि ये ही इन सूत्रों के प्रवर्तक थे, इसीलिए इनका आश्वलायन नाम पड़ा । कुछ लोग आश्वलायन को पाणिनि का समकालीन बतलाते हैं । भारतीय विद्वान् इस दूसरी कल्पना को नहीं मानते । ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के प्रणेता का नाम भी आश्वलायन है । आश्वलायन के गुरु 'प्रातिशाख्यसूत्र' के रचयिता शौनक कहे जाते हैं। आश्विनकृत्य-आश्विन मास में अनेक व्रत तथा उत्सव होते हैं, जिनमें से मुख्य कृत्यों का उल्लेख यथास्थान किया जायगा । यहाँ कुछ का ही उल्लेख होगा । विष्णुधर्मसूत्र (९०.२४.२५) में स्पष्ट क ा गया है कि यदि कोई व्यक्ति इस मास में प्रतिदिन घृत का दान करे तो वह न केवल अश्विनी को सन्तुष्ट करेगा अपितु सौन्दर्य भी प्राप्त करेगा । ब्राह्मणों को गोदुग्ध अथवा गोदुग्ध से बनी अन्य वस्तुओं सहित भोजन कराने से उसे राज्य की प्राप्ति होगी। इसी मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को पौत्र द्वारा, जिसके पिता जीवित हों, अपने पितामह तथा पितामही के श्राद्ध का विधान है । उसी दिन नवरात्र प्रारम्भ होता है। शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को सती ( भगवती पार्वती) का पूजन करना चाहिए । अध्य, मधुपर्क, पुष्प इत्यादि वस्तुओं : द्वारा धार्मिक, पतिव्रता तथा सधवा स्त्रियों के प्रति क्रमशः, जिनमें माता-बहिन तथा अन्य पूज्य सभी स्त्रियाँ आ जाती हैं, सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए । पञ्चमी के दिन कुश के बनाये हुए नाग तथा इन्द्राणी का पूजन करना चाहिए । शुक्ल पक्ष की किसी शुभ तिथि तथा कल्याणकारी नक्षत्र और मुहूर्त में सुधान्य से परिपूरित क्षेत्र में जाकर संगीत तथा नृत्य का विधान है। वहीं पर हवन इत्यादि करके नव धान्य का दही के साथ सेवन करना चाहिए । नवीन अंगूर भी खाने का विधान है। शुक्ल पक्ष में जिस समय स्वाति नक्षत्र हो उस दिन सूर्य तथा घोड़े की पूजा की जाय, क्योंकि इसी दिन उच्चैः -श्रवा सूर्य को ढोकर ले गया था। शुक्ल पक्ष में उस दिन जिसमें मूल नक्षत्र हो, सरस्वती का आवाहन करके, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में ग्रन्थों में उसकी स्थापना करके, उत्तराषाढ़ में नैवेद्यादि की भेंटकर, श्रवण में उसका विसर्जन कर दिया जाय । उस दिन अनध्याय रहे; लिखना पढ़ना, अध्यापनादि सब वजित है। तमिल नाडु में आश्विन शुक्ल नवमी के दिन ग्रन्थों में सरस्वती की स्थापना करके पूजा की जाती है । तुला मास (आश्विन मास) कावेरी में स्नान करने के लिए बड़ा पवित्र माना गया है । अमावस्या के दिन भी कावेरी नदी में एक विशेष स्नान का आयोजन किया जाता है। दे० निर्णयसिन्धु, पुरुषार्थचिन्तामणि, स्मृतिकौस्तुभ आदि । आषाढकृत्य-आषाढ मास के धार्मिक कृत्यों तथा प्रसिद्ध व्रतों का उल्लेख यथास्थान किया गया है। यहाँ कुछ छोटे व्रतों का उल्लेख किया जायगा । मास के अन्तर्गत एकभक्त व्रत तथा खड़ाऊँ, छाता, नमक तथा आवलों का ब्राह्मण को दान करना चाहिए। इस दान से वामन भगवान की निश्चय ही कृपादृष्टि होगी। यह कार्य या तो आषाढ़ मास के प्रथम दिन हो अथवा सुविधानुसार किसी भी दिन । आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को यदि पुष्य नक्षत्र हो तो कृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा का रथोत्सव निकाला जाय । शुक्ल पक्ष की सप्तमी को वैवस्वत सूर्य की पूजा होनी चाहिए, जो पूर्वाषाढ़ को प्रकट हुआ था । अष्टमी के दिन महिषासुरमर्दिनी भगवती दुर्गा को हरिद्रा, कपूर तथा चन्दन से युक्त जल में स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर कुमारी कन्याओं और ब्राह्मणों को सुस्वादु मधुर भोजन कराया जाय । तत्पश्चात् दीप जलाना चाहिए। दशमी के दिन वरलक्ष्मी व्रत तमिलनाडु में अत्यन्त प्रसिद्ध है । म Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन-आसुर एकादशी तथा द्वादशी के दिन भी उपवास, पूजन आदि का विधान है। आषाढी पूर्णिमा का चन्द्रमा बड़ा पवित्र है । अतएव उस दिन दानपुण्य अवश्य होना चाहिए। यदि संयोग से पूर्णिमा के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र हो तो दस विश्वेदेवों का पूजन किया जाना चाहिए । पूर्णिमा के दिन खाद्य का दान करने से कभी न भ्रान्त होने वाला विवेक तथा बुद्धि प्राप्त होती है । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण । आसन-(१) आसन शब्द का अर्थ है बैठना अथवा शरीर की एक विशेष प्रकार की स्थिति । हस्त-चरण आदि के विशेष संस्थान से इसका रूप बनता है । 'अष्टाङ्गयोग' का यह तीसरा अङ्ग है । पतञ्जलि के अनुसार आसन की परिभाषा है 'स्थिरसुखमासनम्' अर्थात् जिस शारीरिक स्थिति से स्थिर सुख मिले। परन्तु आगे चलकर आसनों का बड़ा विकास हुआ और इनकी संख्या ८४ तक पहुँच गयी। इनमें दो अधिक प्रयुक्त हैं: 'एक सिद्धासनं नाम द्वितीयं कमलासनम्' । ध्यान को एकग्रता के लिए आसन तथा प्राणायाम साधन मात्र हैं, किन्तु क्रमशः इनका महत्व बढ़ता गया और ये प्रदर्शन के उपकरण बन गये। तन्त्रसार में निम्नांकित पाँच आसन प्रसिद्ध हैं: पद्मासनं स्वस्तिकाख्यं भद्र वज्रासनं तथा । वीरासनमिति प्रोक्तं क्रमादासनपञ्चकम् ।। [ पद्मासन, स्वस्तिकासन, भद्रासन वज्रासन तथा वीरासन ये क्रमशः पाँच आसन कहे जाते हैं ।] इनकी विधि इस प्रकार है : ऊर्वोरुपरि विन्यस्य सम्यक् पादतले उभे । अङ्गष्ठौ च निबध्नीयाद् हस्ताभ्यां व्युत्क्रमात्तथा ॥ पद्मासनमिति प्रोक्तं योगिनां हृदयङ्गमम् ।।१।। जानोरन्तरे सम्यक् कृत्वा पादतले उभे । ऋजुकायो विशेन्मन्त्री स्वस्तिकं तत्प्रचक्षते ॥२॥ सीमन्याः पार्श्वयोन्य॑स्य गुल्फयुग्मं सुनिश्चलम् । वृषणाधः पादपाष्णि पाणिभ्यां परिबन्धयेत् । भद्रासनं समुद्दिष्टं योगिभिः सारकल्पितम् ।।३।। ऊर्वोः पादौ क्रमान्न्यस्येत् कृत्वा प्रत्यङ्मुखाङ्गली। करौ निदध्यादाख्यातं वज्रासनमनुत्तमम् ॥४॥ एकपादमधः कृत्वा विन्यस्योरौ तथेतरम् । ऋजुकायो विशेन्मन्त्री वीरासनमितीरितम् ॥५॥ (२) गोरखनाथी सम्प्रदाय, जो एक नयी प्रणाली के योग का उत्थान था, भारत के कुछ भागों में प्रचलित हुआ। किन्तु यह प्राचीन योगप्रणाली से मिल नहीं सका। इसे हठयोग कहते हैं तथा इसका सबसे महत्वपूर्ण अङ्ग है-शरीर की कुछ क्रियाओं द्वारा शुद्धि, कुछ शारीरिक व्यायाम तथा मस्तिष्क का महत् केन्द्रीकरण (समाधि)। इनमें बहसंख्यक शारीरिक आसनों का प्रयोग कराया जाता है। (३) उपवेशन के आधार पीठादि को भी आसन कहा जाता है । यह सोलह प्रकार के पूजा-उपचारों में से है । कालिकापुराण (अ०६७) में इन आसनों का विधान और विस्तृत वर्णन पाया जाता है : उपचारान् प्रवक्ष्यामि शृणु षोडश भैरव । यः सम्यक् तुष्यते देवी देवोऽप्यन्यो हि भक्तितः ।। आसनं प्रथमं दद्यात् पौष्पं दारुजमेव वा । वास्त्रं वा चार्मणं कोशं मण्डलस्योत्तरे सृजेत् ।। [हे भैरव, सुनो। मैं सोलह उपचारों का वर्णन कर रहा हूँ जिनसे देवी तथा अन्य देव प्रसन्न होते हैं। इनमें आसन प्रथम है जिसका अर्पण करना चाहिए । आसन कई प्रकार के होते है, जैसे पौष्प ( पुष्प का बना हुआ), दारुज ( काष्ठ का बना हुआ ), वास्त्र ( वस्त्र का बना हुआ), चार्मण (चमड़े, यथा अजिन आदि का बना हुआ), कौश (कुशनिर्मित) । इन आसनों को मण्डल के उत्तर में बनाना (रखना) चाहिए।] आसुर-(१) असुरभाव संयुक्त अथवा असुर से सम्बन्ध रखनेवाला । ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाहों में से भी एक का नाम आसुर है। मनुस्मृति (३.३१) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है : ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्याय चैव शक्तितः । कन्याप्र दानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥ [ कन्या की जातिवालों (माता, पिता, भाई, बन्धु आदि) को अथवा स्वयं कन्या को ही धन देकर स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याप्रदान (विवाह) करना आसुर (धर्म) कहलाता है।] ___ इस प्रकार के विवाह को भी धर्मसंमत कहा गया है, क्योंकि यह पैशाच विवाह की पाशविकता, राक्षस विवाह की हिंसा और गान्धर्व विवाह की कामुकता से मुक्त है। परन्तु फिर भी यह अप्रशस्त कहा गया है । कन्यादान एक प्रकार का यज्ञ माना गया है, जिसमें कन्या का पिता अथवा उसका अभिभावक ही यजमान है। उसके द्वारा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसुरि-आहवनीय ९७ किसी प्रकार का भी प्रतिग्रह निन्दनीय है। इसलिए जब कन्यादान का यज्ञ के रूप में महत्व बढ़ा तो आसुर विवाह कन्याविक्रय के समान दुषित समझा जाने लगा। अन्य अप्रशस्त विवाहों की तरह केवल गणना के लिए इसका उल्लेख होता है । दे० 'विवाह' । (२) श्रीमद्भगवद्गीता (अ० १६) में समस्त जीवधारी (भूतसर्ग) दो भागों में विभक्त हैं। वे हैं दैव और आसुर । आसुर का वर्णन इस प्रकार किया गया है : द्वौ भूतसौं लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च । देवो विस्तरशः प्रोक्तः आसुरं पार्थ मे शृणु । प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसम्भूतं किमन्त्यत्कामहेतुकम् ।। एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्यबुद्धयः । प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ।। आदि आसूरि-बृहदारण्यक उपनिषद् के प्रथम दो वंशों (आचार्यों की तालिका) में भरद्वाज के शिष्य एवं औपवनि के आचार्य रूप में इनका उल्लेख है, किन्तु तीसरे में याज्ञवल्क्य के शिष्य तथा आसुरायण के आचार्य रूप में उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के प्रथम चार अध्यायों में याज्ञिक अधिकारी एवं सत्य पर अटल रहने वाले पुरुषों का उल्लेख हुआ है, जिनमें इनकी गणना है । सांख्यशास्त्र के आचार्य, कपिल के शिष्य भी आसूरि (२) साधारण अर्थ में आस्तिक वह है जो ईश्वर और परमार्थ में विश्वास रखता है। आस्तिकदर्शन-वेदोक्त प्रमाणों को मानने वाले आस्तिक एवं न मानने वाले नास्तिक दर्शन कहलाते हैं । चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं अर्हत् ये छः नास्तिक दर्शन हैं : तथा वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त ये छ: आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। आस्तिकवर्ग-दर्शनों में छः आस्तिक तथा छः नास्तिक गिने जाते हैं । हिन्दू साहित्य इन नास्तिक दर्शनों को भी अपना अङ्ग समझता है। विपरीतमतसहिष्णु भारतवर्ष में आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का अनादि काल से विकास होता चला आया है। भारतीय उदारता के अंक में आस्तिक एवं नास्तिक दोनों वर्गों की परम्परा और संस्कृति समान सुरक्षित बनी रही है । आस्तिक वर्ग का अर्थ है आस्तिक दर्शनों का अनुयायी। आस्तीकपर्व-महाभारत के 'आस्तीकपर्व' में गरुड और सी की उत्पत्ति का वर्णन है । समुद्रमन्थन, उच्चैःश्रवा की उत्पत्ति और महाराज परीक्षित् के पुत्र जनमेजय के सर्पानुष्ठान का वर्णन भी किया गया है। भरतवंशीय महात्माओं के पराक्रम का वृत्तान्त भी इसमें वर्णित है। जरत्कारु ऋषि के पुत्र आस्तीक की इस पर्व में अधिक प्रधानता होने के कारण यह 'आस्तीक पर्व' कहा गया है। इनके नाम पर सर्प को भगाने का यह श्लोक प्रचलित है : सपसर्प भद्रं ते दूरं गच्छ वनान्तरम् । जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर ।। आहवनीय-यज्ञोपयोगी एक अग्नि । धार्मिक यज्ञ कार्यों में यज्ञवेदी का बड़ा महत्त्व है। यह वेदी कुश से आच्छादित ऊँचे चबूतरे की होती थी, जो यज्ञसामग्री देने अथवा यज्ञ सन्बन्धी पात्रों के रखने के लिए बनायी जाती थी। मुख्य अग्निवेदी कुण्ड के समान विभिन्न आकार की होती थी, जिसमें यज्ञाग्नि रखी रहती थी। प्राचीन भारत में जब देवों की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अपने घर के अग्निस्थान में करता था, उसका यह पुनीत कर्तव्य होता था कि पवित्र अग्नि वेदी में स्थापित रखे रहे। यह कार्य प्रत्येक गृहस्थ अग्न्याधान या यज्ञाग्नि के आरम्भिक उत्सवदिन से ही प्रारम्भ करता था। इस अवसर पर यज्ञकर्ता पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् । प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् । (भागवत, १.३.१०) आस्तिक-(१) वेद के प्रामाण्य (और वर्णाश्रम व्यवस्था) में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। आस्तिक के लिए ईश्वर में विश्वास रखना अनिवार्य नहीं है किन्तु वेद में विश्वास रखना आवश्यक है। सांख्य और पूर्व- मीमांसा दर्शन के अनुयायी ईश्वर की आवश्यकता सृष्टिप्रक्रिया में नहीं मानते, फिर भी वे आस्तिक हैं। शङ्कराचार्य ने आस्तिक्य की परिभाषा इस प्रकार की है : "आस्तिक्यं श्रद्धानता परमार्थेष्वागमेषु ।" [परमार्थ (मोक्ष) और आगम (वेद) में श्रद्धा रखना आस्तिक्य है। ] १३ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार-इक्ष्वाकु नियमपूर्वक नित्य हवन करता है उसे 'आहिताग्नि' कहा जाता हैं । इसका एक पर्याय ‘अग्निहोत्री' है। आहति-यज्ञकुण्ड में देवता के उद्देश्य से जो हवि का प्रक्षेप किया जाता है उसे 'आहुति' कहते हैं। आहुति द्रव्य को 'मृगी मुद्रा' ( शिशु के मुख में कौर देने की अंगुलियों के आकार ) से अग्नि में डालना चालना चाहिए। आहिक-(१) नित्य किया जाने वाला धार्मिक क्रियासमह । धर्मशास्त्र ग्रन्थों में दैनिक धार्मिक कमी का पूरा विवरण पाया जाता है। रघुनन्दन भट्टाचार्यकृत 'आह्निकाचार तत्त्व' में दिन-रात के आठों यामों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। (२) कुछ प्राचीन ग्रन्थों के प्रकरणसमूह को भी, जिसका अध्ययन दिन भर में हो सके, आह्निक कहते हैं। अपने चार पुरोहितों का चुनाव करता था। गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि (दो प्रकार की अग्नि) के लिए एक वृत्ताकार एवं दूसरा वर्गाकार स्थान होता था। आवश्य- कता समझी गयी तो दक्षिणाग्नि के लिए एक अर्धवृत्त कुण्ड भी बनाया जाता था। पश्चात् अध्वर्यु घर्षण द्वारा अथवा ग्राम से संग्रह कर गार्हपत्य अग्नि स्थापित करता था। सन्ध्याकाल में वह दो लकड़ियाँ जिन्हें अरणी कहते है, यज्ञकर्ता एवं उसकी स्त्री को देता था, जिससे घर्षण द्वारा वे दूसरे प्रातःकाल आहवनीय अग्नि उत्पन्न करते थे। आहार-हिन्दू धर्म में आहार की शुद्धि-अशुद्धि का विस्तृत विचार किया गया है । इसका सिद्धान्त यह है कि आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि होती है और सत्त्वशुद्धि से बुद्धि शुद्ध होती है । शुद्ध बुद्धि से ही सद् विचार और धर्म में रुचि उत्पन्न हो सकती है। आहार दो प्रकार का होता है-(१) हित और (२) अहित । सुश्रुत के अनुसार हित आहार का गुण है : आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृदेहधारकः । आयुस्तेजःसमुत्साहस्मृत्योजोऽग्निवर्द्धनः ।। भगवद्गीता ( अ० १७ श्लोक ८-१०) के अनुसार वह तीन प्रकार-सात्विक, राजस तथा तामस-का होता है : आयुः-सत्त्व-बलारोग्य-सुख-प्रीतिविवर्द्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रियाः ॥ कट्वम्ल लवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।। यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ [ आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसाल, स्निग्ध, स्थिर और प्रिय लगने वाले भोजन सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं। कट, अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), अति उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, दाह करने वाले तथा दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाले भोजन राजस व्यक्ति को इष्ट होते हैं। एक याम से पड़े हुए, नीरस, सड़े, बासी, उच्छिष्ट (जूठे) और अमेध्य (अपवित्र = मछली, मांस आदि) आहार तामसी व्यक्ति को अच्छे लगते हैं। इसलिए साधक को सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए । आहिताग्नि-जो गृहस्थ विधिपूर्वक अग्नि स्थापित कर इ-स्वर वर्ण का तृतीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है : इकारं परमानन्दं सुगन्धकुसुमच्छविम् । हरिब्रह्ममयं वर्ण सदा रुद्रयतं प्रिये ॥ सदा शक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा । सदा शिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम् ।। हरिब्रह्मात्मकं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम् । इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ।। [हे प्रिये ! इकार ('इ' अक्षर) परम आनन्द की सुगन्धि वाले पुष्प की शोभा धारण करने वाला है। यह वर्ण हरि तथा ब्रह्ममय है । सदा रुद्र से संयुक्त रहता है। सदा शक्तिमान् तथा गुरु और ब्रह्ममय है। सदा शिवमय है। परम तत्त्व है। ब्रह्म से समन्वित है। हरि-ब्रह्मात्मक है और तीनों गुणों से समन्वित है। ] वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम है : इः सूक्ष्मा शाल्मली विद्या चन्द्रः पूषा सुगुह्यकः । सुमित्रः सुन्दरो वीरः कोटरः काटरः पयः ।। भ्रूमध्यो माधवस्तुष्टिदक्षनेत्रञ्च नासिका। शान्तः कान्तः कामिनी च कामो विघ्नविनायकः ॥ नेपालो भरणी रुद्रो नित्या क्लिन्ना च पावका ।। इक्ष्वाकु-पुराणों के अनुसार वैवश्वत मनु का पुत्र और सूर्यवंश (इक्ष्वाकुवंश) का प्रवर्तक । इसकी राजधानी अयोध्या Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इज्या-इतिहास और सौ पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि अयोध्या का राजा एतासां सङ्गमो यत्र त्रिवेणी सा प्रकीर्तिता । हुआ, दूसरे पुत्र निमि ने विदेह (मिथिला) में एक राजवंश तत्र स्नातः सदा योगी सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ प्रचलित किया । अन्य पुत्रों ने अन्यत्र उपनिवेश तथा राज्य [इडा नामक नाडी ही गङ्गा है। पिङ्गला को यमुना स्थापित किये। कहा गया है । गङ्गा-यमुना के बीच में सुषुम्ना नाड़ी इज्या-यज्ञकर्म अथवा यजन का एक पर्याय । दे० 'यज्ञ' सरस्वती है । इन तीनों का जहाँ सङ्गम (भ्रूमध्य में) होता 'सोहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलतः ।' (रघु० १.६८) है वही त्रिवेणी प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान (ध्यान) करनेवाला [ मैं इज्या (यज्ञ) से विशुद्ध चित्तवाला और प्रजालोप योगी सदा के लिए सब पापों से मुक्त हो जाता है। ] (संतानहीनता) से निमीलित (कुम्हलाया हुआ) हूँ।] इडा नाडी सकाम कर्म के अनुष्ठान की सहायिका है। इसके अन्य अर्थ पूजा, सङ्गम, गौ, कुट्टनी आदि हैं। इडा और पिङ्गला के बीच में वर्तमान सुषुम्ना नाडी ब्रह्मइडा-(१) वाणी, सरस्वती, पृथ्वी, गौ। वैदिक साहित्य नाडी है। इस माडी में यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है। में 'इडा' शब्द मूलतः अन्न, स्फूर्ति, दुग्धाहुति आदि के उत्तरगीता (अध्याय २) में इसका निम्नलिखित वर्णन है : अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । पुनः, वाग्देवता के अर्थ में इसका इडा च वामनिश्वासः सोममण्डलगोचरा । प्रचलन हो गया। कई मन्त्रों में यह मनु की उपदेशिका पितयानमिति ज्ञेया वाममाश्रित्य तिष्ठति ।। कही गयी है । यज्ञानुष्ठान के नियमों को प्रवर्तिका भी यह गुदस्य पृष्ठभागेऽस्मिन् वीणादण्डस्य देहभृत् । मानी गयी है । सायण ने इसको पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी दीर्घास्थि मूनिपर्यन्तं ब्रह्मदण्डेति कथ्यते ।। माना है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मनु ने संतान प्राप्ति तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं ब्रह्मनाडीति सूरिभिः । के लिए यज्ञ किया, जिससे इडा आविर्भूत हुई। मनु और इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना सूक्ष्मरूपिणी।। इडा के संयोग से ही मानवों की उत्पत्ति हुई । हरिवंश के सर्व प्रतिष्ठितं यस्यां सर्वगं सर्वतोमुखम् ।। अनुसार इडा की गणना देवियों में है : ___ इन नाडियों के शोधन के बिना योगी को आत्मज्ञान की श्रुतिः प्रीतिरिडा कान्तिः शान्तिः पुष्टि: क्रिया तथा । प्राप्ति नहीं होती। (२) यौगिक साधना की आधार एक नाड़ी। हठयोग इतिहास-छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि इतिहासया स्वरोदय के अभ्यासार्थ नासिका के वाम या चन्द्र स्वर पुराण पाँचवाँ वेद है। इससे इतिहास एवं पुराण की के नाम से इस नाड़ी का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। धार्मिक महत्ता स्पष्ट होती है । अधिकांश विद्वान् इतिहास षट्चक्रभेद नामक ग्रन्थ (श्लोक २) में इसका निम्नांकित से रामायण और महाभारत समझते हैं और पुराण से संकेत है : अठारह वा उससे अधिक पुराण ग्रन्थ और उपपुराण समझे मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्लै । जाते हैं । अनेक विद्वान् इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। मध्ये नाडी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा ॥ स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना है कि इस स्थल पर उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया गया है : इतिहास-पुराण का तात्पर्य ब्राह्मण भाग में उल्लिखित "मेरोर्मेरुदण्डस्य बाह्यप्रदेशे बहिर्भागे सव्यदक्षे वाम- कथाओं से है। दक्षिणपार्वे शशि मिहिरशिरे चन्द्रसूर्यात्मके नाड्यौ इडा- अठारह विद्याओं की गिनती में इतिहास का नाम कहीं पिङ्गलानाडीद्वयमिति फलितार्थः । निषण्णे वर्तेत् ।" नहीं आया है। इन अठारह विद्याओं की सूची में पुराण के [ मेरुदण्ड के बाह्य प्रदेश में वाम और दक्षिण पार्श्व में । अतिरिक्त और कोई विद्या ऐसी नहीं है जिसमें इतिहास चन्द्र-सूर्यात्मक (इडा तथा पिङ्गला) नाडियों के बीच में का अन्तर्भाव हो सके। इसीलिए प्रायश्चित्ततत्त्वकार ने सुषुम्ना नाडी वर्तमान है।] इतिहास को पुराण के अन्तर्गत समझकर उसका नाम ज्ञानसङ्कलनीतन्त्र (खण्ड) में इडा का और भी वर्णन । अलग नहीं गिनाया । ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायणापाया जाता है : चार्य ने लिखा है कि वेद के अन्तर्गत देवासुर युद्धादि का इडा नाम सैव गङ्गा यमुना पिङ्गला स्मृता । वर्णन इतिहास कहलाता है और "यह असत् था और कुछ गङ्गायमुनयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ॥ न था" इत्यादि जगत् की प्रथमावस्था से लेकर सृष्टि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० इवावत्सर-इन्द्र क्रिया का वर्णन पुराण कहलाता है। बृहदारण्यक के भाष्य में शङ्कराचार्य ने भी लिखा है कि उर्वशी-पुरूरवा आदि संवाद स्वरूप ब्राह्मणभाग को इतिहास कहते हैं और "पहले असत् ही था" इत्यादि सृष्टि-प्रकरण को पुराण कहते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि सर्गादि का वर्णन पुराण कहलाता था और लौकिक कथाएँ इतिहास कही जाती थीं। इदावत्सर-वाजसनेयी संहिता (२७.४५) के अनुसार एक विशेष संवत्सर है : "संवत्सरोऽसि परिवत्सरोऽसि इदावत्सरोऽसि इद्वत्सरोऽसि ।" विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार इस संवत्सर में अन्न और वस्त्र का दान पुण्यकारक होता है। ज्योतिष की गणना में 'पंचवर्षात्मक युग' मान्यता के अनुसार वर्ष का एक प्रकार इदावत्सर है। इन्दु-चन्द्रमा। इसकी व्युत्पत्ति है : 'उनत्ति अमृतधारया भुवं क्लिन्नां करोति इति' | अमृत की धारा से पृथ्वी को भिगोता है, इसलिए 'इन्दु' कहलाता है। ] इन्दुव्रत-साठ संवत्सरवतों में से अट्ठावनवाँ व्रत । व्रती को किसी सपत्नीक सद्गृहस्थ का सम्मान करना चाहिए तथा वर्ष के अन्त में उसे गौ का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २. ८८३ । इन्द्र-ऋग्वेद के प्रायः २५० सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा ५० सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है । इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है । अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत्प्रहार । इन्द्र को अग्नि का जुड़वां भाई (ऋ ६.५९.२) कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है। इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है। (अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूद जल नहीं बरसाते । इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है । ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है। हिलबॅण्ट ने सूर्यरूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए कहा है : वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्ति केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है । वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत्प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है। ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करनेवाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु (सतलज) नदियों के अथाह जल को सूखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी। इन्द्र और वृत्र के आकाशीय युद्ध की चर्चा हो चुकी है। इन्द्र के इस युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया । इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं । चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।। नौ सूकों में इन्द्र एवं वरुण का संयक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रध्वज-इन्द्रप्रस्थ प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं । युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एवं उन्नति देना, दुष्टों के विरुद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है । किन्तु यह समानता उनके सृष्टिविषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर हैं : वरुण राजा है, असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन देवगण करते हैं, जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है । इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु ( विनम्र ) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरुतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है । इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है । पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है । पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्तिब्रह्मा, विष्णु और शिव-का महत्त्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है । वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है । शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्रअथवा अशनि है । जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्रायः तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं । पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है। इन्द्रध्वज--महान् वैदिक देवता इन्द्र का स्मारक काष्ठस्तम्भ। यह विजय, सफलता और समृद्धि का प्रतीक है। प्राचीन काल मे भारतीय राजा विधिवत् इसकी स्थापना करते थे और उस अवसर पर उत्सव मनाया जाता था; संगीत, नाटय आदि का आयोजन होता था। भरत के नाटयशास्त्र में इसका उल्लेख पाया जाता है : अयं ध्वजमहः श्रीमान् महेन्द्रस्य प्रवर्तते । अथेदानीमयं वेदः नाट्यसंज्ञः प्रयुज्यताम् ।। इस ध्वज की उत्पत्ति की कथा बृहत्संहिता में पायी जाती है। एक बार देवतागण असुरों से पीडित होकर उनके अत्याचार से मुक्त होने के लिए ब्रह्मा के पास गये । ब्रह्मा ने उनको विष्णु के पास भेजा । विष्णु उस समय क्षीर सागर में शेषनाग के ऊपर शयन कर रहे थे। उन्होंने देवताओं की विनय सुनकर उनको एक ध्वज प्रदान किया, जिसको लेकर एक बार इन्द्र ने असुरों को परास्त किया था । इसीलिए इसका नाम इन्द्रध्वज पड़ा। इन्द्रध्वजोत्थानोत्सव-यह इन्द्र की ध्वजा को उठाकर जलूस में चलने का उत्सव है। यह भाद्र शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है। ध्वज के लिए प्रयुक्त होने वाले दण्ड के लिए इक्षुदण्ड (गन्ना) काम में आता है, जिसकी सभी लोग इन्द्र के प्रतीक रूप में अर्चना करते हैं। तदनन्तर किसी गम्भीर सरोवर अथवा नदी के जल में उसे विसर्जित किया जाता है। ध्वज का उत्तोलन श्रवण, धनिष्ठा अथवा उत्तराषाढ़ नक्षत्र में तथा उसका विसर्जन भरणी नक्षत्र में होना चाहिए। इसका विशद वर्णन बराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय ४३), कालिका पुराण (९०) तथा भोज के राजमार्तण्ड ( सं० १०६० से १०९२ तक ) में है। यह व्रत राजाओं के लिए विशेष रूप से आचरण करने योग्य है । बुद्धचरित में भी इसका उल्लेख है । रघुवंश ( ४.३ ), मृच्छकटिक ( १०.७ ), मणिमेखलाई के प्रथम भाग, सिलप्पदिकारम् के ५ वें भाग तथा एक शिलालेख ( एपिग्राफिया इंडिका, १०.३२०; मालव संवत् ४६१ ) में भी इसका उल्लेख हुआ है। कालिकापुराण, ९०; कृत्यकल्पतरु ( राजधर्म, पृष्ठ १८४-१९०); देवीपुराण तथा राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय, पृष्ठ ४२१४२३) में भी इसका वर्णन मिलता है। इन्द्रप्रस्थ-पाण्डवों की राजधानी, जिसको उन्होंने खाण्डववन जलाकर बसाया था। नयी दिल्ली के दक्षिण में इसकी स्थिति थी, जिसके एक सीमान्त भाग को आज भी इस नाम से पुकारते है । बारहवीं शती तक उत्तर भारत के पाँच पवित्र तीर्थों में इन्द्रप्रस्थ (इन्द्रस्थानीय) की गणना थी। गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के अभिलेखों में इसका उल्लेख है। कुतुबमीनार के पास का गाँव मिहरौली 'मिहिरावली' (सूर्यमण्डल) का अपभ्रंश है। इसके पास के ध्वंशावशेष अब भी इराके धार्मिक स्वरूप को व्यक्त करते हैं । कुशिक (कान्यकुब्ज) के साथ इन्द्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ इन्द्रपौर्णमासी-इन्द्रोतदैवापशोनक प्रस्थ (दिल्ली) का धार्मिक स्वरूप बाद में तुर्को ने पूर्णतः वराह से, देवी व ईशानी का शिव से सम्बन्ध स्थापित है। नष्ट कर दिया। इस प्रकार इन्द्राणी अष्टमातृकाओं में से भी एक है। इन्द्रपौर्णमासी हेमाद्रि, बतखण्ड २.१९६ में इसका उल्लेख अमरकोश में सप्त मातृकाओं का (ब्राह्मीत्याद्याऽस्तु है। भाद्रपद मास की पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। मातरः) उल्लेख है : इसके पश्चात् तीस सपत्नीक सद्गृहस्थों को अलंकारों से ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा । सम्मानित करना चाहिए । इस व्रत के आचरण से मोक्ष वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमातरः ।। की प्राप्ति होती है। इन्द्रियाँ-पूर्वजन्म के किये हए कर्मों के अनुसार शरीर इन्द्रव्रत-साठ संवत्सर व्रतों में से सैंतालीसवाँ व्रत । कृत्य उत्पन्न होता है । पञ्चभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कल्पतरु के व्रत काण्ड, पृष्ठ ४४९ पर इस व्रत का उल्लेख कही गयी है । घ्राणेन्द्रिय से गन्ध का ग्रहण होता है, है। व्रती को चाहिए कि वह वर्षा ऋतु में खुले आकाश इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है, के नीचे शयन करे । अन्त में दूधवाली गौ का दान क्यों कि रस जल का गुण है। चक्षु इन्द्रिय तेज से बनी है, क्योंकि रूप तेज का गण है । त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि करे। स्पर्श वायु का गुण है । श्रोत्र इन्द्रिय आकाश से बनी है, इन्द्रव्याकरण-छहों अङ्गों में व्याकरण वेद का प्रधान अङ्ग क्योंकि शब्द आकाश का गुण है । समझा जाता है। जो लोग वेदमन्त्रों को अनादि मानते हैं बौद्धों के मत में शरीर में जो गोलक देखे जाते हैं उनके अनुसार तो बीजरूप से व्याकरण भी अनादि है। उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे आँख की पुतली जीभ पतञ्जलि वाली जनश्रुति से पता चलता है कि सबसे पुराने इत्यादि)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अङ्ग दिखाई वैयाकरण देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं और इन्द्र की पड़ते हैं वे इन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं गणना उनके बाद होती है। एक प्राचीन पद्य "इन्द्रश्चन्द्रः हैं । इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। काशकृत्स्नः......."जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः" के अनुसार कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं । न्याय में उनके पाणिनिपूर्व काल में इन्द्रव्याकरण प्रचलित रहा होगा। मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया इन्द्रसावणि-चौदहवें मनु का नाम इस मन्वन्तर में बृहद्- गया है। सांख्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और भानु का अवतार होगा, शुचि इन्द्र होंगे, पवित्र चाक्षुष मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गयी है। न्याय में आदि देवता होंगे, अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध, मागध आदि कर्मेन्द्रियाँ नहीं मानी गयी हैं, पर मन एक आन्तरिक सप्तर्षि होंगे । भागवत पुराण, विष्णु पुराण (२।३) एवं करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न मार्कण्डेय पुराण (अध्याय १००) में यह वर्णन पाया होकर व्यापक होता तो युगपत् कई प्रकार का ज्ञान जाता है। सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रियों का एक क्षण में एक इन्द्राणी-इन्द्र की पत्नी, जो प्रायः शची अथवा पौलोमी साथ संयोग होते हुए उन सबके विषयों का एक साथ भी कही गयी है। यह असुर पुलोमा की पुत्री थी, ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते । गन्ध, जिसका वध इन्द्र ने किया था। शाक्त मत में सर्वप्रथम रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ मातृका पूजा होती है। ये माताएँ विश्वजननी हैं, या विषय हैं । जिनका देवस्त्रियों के रूप में मानवीकरण हुआ है । इसका इन्द्रोत-ऋग्वेद (८.६८) की एक दानस्तुति में दाता के दूसरा अभिप्राय शक्ति के विविध रूपों से भी हो सकता रूप में इन्द्रोत का दो बार उल्लेख हुआ है । द्वितोय मण्डल है, जो आठ है, तथा विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित है। में उसका एक नाम आतिथिग्व है जिससे प्रकट होता है 'वैष्णवी व लक्ष्मी का विष्णु से, ब्राह्मी या ब्रह्माणी का कि यह अतिथिग्व का पुत्र था। ब्रह्मा से. कार्तिकेयी का युद्धदेवता कार्तिकेय से, इन्द्राणी इन्द्रोतदैवापशौनक-इस ऋषि का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण का इन्द्र से, यमी का मृत्यु के देवता यमसे, वाराही का (१३:५,३,५,४,१) में जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरा-इष्टापूर्त १०३ पुरोहित के रूप में हुआ है, यद्यपि यह सम्माननीय पद गन्धमादन पवर्त है (दे० भागवतपुराण) । अग्नीध्र (पञ्चाल ऐतरेय ब्राह्मण (८.२१) में तुरकावषेय को प्राप्त है। के राजा) के प्रसिद्ध पुत्र का नाम भी इलावृत था, जिसको जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण (३.४०.१) में इन्द्रोत दैवाप पिता से राज्य रिक्थ में मिला। दे० विष्णपराण, शौनक श्रुत के शिष्य के रूप में उल्लिखित है तथा वंश- २.१.१६-१८ । ब्राह्मण में भी इसका उल्लेख है। किन्तु ऋग्वेद में इल्वल-सिंहिका का पुत्र एक दैत्य, जो वातापी का भाई उल्लिखित देवापि से इसका सम्बन्ध किसी भी प्रकार नहीं था। यह ब्राह्मणों का विनाश करने के लिए अपने भाई जोड़ा जा सकता। वातापी को मायारूपी मेष (भेड़) बनाकर और ब्राह्मणों इरा-कश्यप की एक पत्नी । दे० गरुडपुराण, अध्याय ६ : । को भोज में निमन्त्रण देकर खिला देता था । पुनः वातापी धर्मपल्ल्यः समाख्याता कश्यपस्य वदाम्यहम् । को बुलाता था । वातापी उनका पेट फाड़कर निकल आता अदितिदितिर्दनुः काला अमायुः सिंहिका मुनिः ।। था। इससे सहस्रों ब्राह्मणों की मृत्यु हुई । अगस्त्य ऋषि कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥ को अपने पितरों को इस दशा से बहुत कष्ट हुआ। वे उस इरा से वृक्ष, लता, वल्लो तथा तृण जाति की उत्पत्ति दिशा को गये (दे० 'अगस्ति') । इल्वल ने उनको भी निमन्त्रण दिया और वातापी को मेष बनाकर उसका मांस इरावती-भारत की देवनदियों में इसकी गणना है : उनको खिलाया । उसके बाद उसने वातापी को पुकारा । किन्तु अगस्त्य के पेट से केवल अपना वायु निकला। विपाशा च शतद्रुश्च चन्द्रभागा सरस्वती । इरावती वितस्ता च सिन्धुर्देवनदी तथा।। उन्होंने हँसते हुए कहा कि वातापी तो जीर्ण (पक्व) हो (महाभारत) गया; अब निकल नहीं सकता। दे० महाभारत, वनपर्व, [ विपाशा (व्यास ), शतद्रु ( सतलज ), चन्द्रभागा अगस्त्योपाख्यान, ९६ अध्याय । (चिनाव), सरस्वती ( सरसुती ), इरावती ( रावी), इष्ट-वेदी या मण्डप के अन्दर करने लायक धार्मिक कर्म; वितस्ता ( झेलम ) तथा सिन्धु (अपने नाम से अब भी होम, यज्ञ; अभीष्ट देवता, आराधित देवता; किसी घटना प्रसिद्ध) ये देवनदियाँ हैं ।] का घड़ी-पलों में निर्धारित समय । दे० 'यज्ञ' । इल-दे० 'उमावन'। इष्टजात्यवाप्ति-विष्णुधर्मोत्तर ( ३.२००.१-५ ) के अनुइला–पौराणिक कथा के अनुसार इला मूलतः मनु का पुत्र सार इस व्रत का अनुष्ठान चैत्र तथा कार्तिक के प्रारम्भ में इल था। इल भूल से इलावर्त में भ्रमण करते हुए करना चाहिए, ऋग्वेद के दशम मण्डल के ९०.१-१६ मन्त्रों शिवजी के काम्यकवन में चला गया। शिवजी ने शाप से हरि का षोडशोपचार के साथ पूजन होना चाहिए। दिया था कि जो पुरुष काम्यकवन में आयेगा वह स्त्री हो व्रत के अन्त में गौ का दान विहित है। जायगा । अतः इल स्त्री इला में परिवर्तित हो गया। इष्टसिद्धि-इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है। प्रथम इला का विवाह सोम (चन्द्रमा) के पुत्र बुध से हुआ। इस सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र कृत है, जिसको सम्बन्ध से पुरूरवा का जन्म हुआ, जो ऐल कहलाया। उन्होंने संन्यास लेने के पश्चात् लिखा और जिसमें शाङ्कर इससे ऐल अथवा चन्द्रवंश की परम्परा आरम्भ हुई, मत का ही समर्थन है। द्वितीय, अविमुक्तात्मा द्वारा कृत जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (वर्तमान झूसी, अरैल, प्रयाग) है, जिसमें शब्दाद्वैत मत का उल्लेख मिलता है । थी। विष्णु की कृपा से इला पुनः पुरुष हो गयी जिसका इष्टापूर्त-धार्मिक कर्मों के दो प्रमुख विभाग हैं-(१) इष्ट नाम सुद्युम्न था। और (२) पूर्त । इष्ट का सम्बन्ध यज्ञादि कृत्यों से है, इलावृत (इलावत)-इसका शाब्दिक अर्थ है इला के जिनका फल अदृष्ट है । पूर्त का सम्बन्ध लोकोपकारी आवर्तन (परिभ्रमण) का स्थान । यह जम्बू द्वीप के नव कार्यों से है, जिनका फल दृष्ट है। मलमासतत्त्व में उद्वर्षों (देशों) के अन्तर्गत एक वर्ष है जो सुमेरु पर्वत । धृत जातुकर्ण्य का कथन है : (पामीर) को घेर कर स्थित है। इसके उत्तर में नील अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानाञ्चानुपालनम् । पर्वत, दक्षिण में निषध, पश्चिम में माल्यवान् तथा पूर्व में आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च इष्टमित्यभिधीयते ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामः पूतं मित्यभिधीयते ॥ [ अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदों के आदेशों का पालन, आतिथ्य वैश्वदेव (आदि) इष्ट कहलाते हैं । वापी, कूप, तडाग, धर्मशाला, पाठशाला, देवालयों का निर्माण, अन्न का दान, आराम ( बाटिका आदि का लगवाना ) को पूर्त कहा जाता है । ] इष्टिका आजकल की 'ईट' । वास्तव में यह यज्ञ (इष्टि ) वेदी के चयन (चुनाव) में काम आती थी, अतः इसका नाम इष्टिका पड़ गया। बाद में इससे गृहनिर्माण भी होने लगा । चाणक्य ने इष्टिकानिर्मित भवन का गुण इस प्रकार बतलाया है : कूपोदकं वच्छाया श्यामा स्त्री इष्टिकालयम् । शीतकाले भवेदुष्णमुष्णकाले तु शीतलम् ॥ ईंटों से निर्मित स्थान में पितृकर्म का निषेध है । श्राद्धतत्त्व में उद्धृत शङ्खलिखित | इष्टिका ( ईंट ) द्वारा देवालयों के निर्माण का महाफल बतलाया गया है मृग्मयारकोटिगुणितं फलं स्वाद्वामभिः कृते । कोटिकोटिगुणं पुण्यं फलं स्यादिष्टिकामये ॥ द्विपराधं गुणं पुण्यं शैलजे तु विदुर्बुधाः ॥ ( प्रतिष्ठातत्त्व ) इहामुत्र - फलभोगविराग - 'इह' इस संसार को और 'अमुत्र' ( वहाँ ) स्वर्ग को कहते हैं। सांसारिक भोग तथा स्वर्ग के भोग दोनों मोक्षार्थी के लिए स्याज्य है। दे० वेदान्त सार । ई ई-स्वरवर्ण का चतुर्थ अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है : ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली ब्रह्मविष्णुमयं वर्ण तथा रुद्रमयं सदा ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण पीतविच, हलताकृतिम् । चतुर्ज्ञानमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम निम्नलिखित हैं : ईस्त्रमूर्तिर्महामाया लोलाक्षी वामलोचनम् । गोविन्दः शेखरः पुष्टिः सुभद्रा रत्नसंज्ञकः ॥ विष्णुलक्ष्मीः प्रहासदेव वाग्विद्धः परात्परः । कालोत्तरीयो भेरुण्डा रतिश्च पौण्ड्रवर्द्धनः ॥ इष्टिका - ईश्वर शिवोत्तमः शिवा तुष्टिचतुर्थी विन्दुमालिनी । वैष्णवी वैन्दवी जिह्वा कामकला सनादका ॥ पावक: कोटर: कीर्तिर्मोहिनी कालकारिका । कुचन्द्र तर्जनी च शान्तिस्त्रिपुरसुन्दरी ॥ [ हे देवि ! ईकार ( 'ई' अक्षर ) स्वयं परम कुण्डली है । यह वर्ण ब्रह्मा और विष्णुमय है । यह सदा रुद्रमय है । यह वर्ण पञ्चदेवमय है । पीली बिजली की रेखा के समान इसकी प्रकृति है । यह वर्ण चतुर्ज्ञानमय तथा सर्वदा पञ्चप्राणमय है । ] ई - कामदेव का एक पर्याय । दे० 'कामदेव | ईति - कृषि के छः प्रकार के उपद्रव, यथा अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥ (मनुस्मृति) [ अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी) मूषक, पक्षी, प्रत्यासन्न ( आक्रमणकारी) राजा मे छः प्रकार की ईवियों कही गयी हैं । ] ये बाहरी भय हैं, जबकि 'भीति' आन्तरिक भय है । महाभारत आदि ग्रन्थों में ( और स्मृतियों में भी ) इस बात का उल्लेख है। बाहरी भयों के लिए अधार्मिक राजा ही उत्तरदायी है । धार्मिक राज्य में ईतियाँ नहीं होतीं । 'निरातङ्का निरीतयः ।' ( रघुवंश, १.६३) । ईश्वर - सर्वोच्च शक्तिमान् सर्वसमर्थ विश्वाधिष्ठाता स्वामी; परमात्मा । वेदान्त की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, अज्ञानोपहित चैतन्य को ईश्वर कहते हैं । यह अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है; अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है । अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टि का कर्ता और नियामक है, भकों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष (पुरुषोत्तम) अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप से पूजित होता है। वहीं देवाधिदेव है और समस्त देवता उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं । संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्य उसी के नियन्त्रण में होते हैं परन्तु जगत् में वह चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अन्ततोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है । अपनी योगमाया से युक्त होकर ईश्वर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म अपना फल स्वयं उत्पन्न करते हैं । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वरगणगौरीव्रत-ईशान १०५ न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का ईश्वर कृष्ण--'सांख्यकारिका' के रचयिता । चीनी विद्वानों निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृद्- के अनुसार इनका अन्य नाम विन्ध्यवासी था और ये वसुभाण्ड तैयार करता है, वैसे ही ईश्वर प्रकृति का उपादान बन्धु से कुछ समय पूर्व हुए थे । विद्वानों ने इनका समय लेकर सृष्टि की रचना करता है। योगदर्शन में ईश्वर चतुर्थ शताब्दी का प्रारम्भ माना है । परम्परानुसार 'सांख्यपुरुष है और मानव का आदि गुरु है। सांख्यदर्शन के कारिका' षष्टितन्त्र' का पुनर्लेखन है, जो ईश्वरवादी अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है; विकास- सांख्यों का प्रामाणिक ग्रन्थ है। सांख्यकारिका में कुल प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं । पूर्वमीमांसा सत्तर आर्या पद्य (कारिकाएँ) हैं, जिनको रचना की दृष्टि भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती । से बहत ही उत्तम कहा जा सकता है। मीमांसा के दुरूह उसके अनुसार वेद स्वयम्भू है; ईश्वरनिःश्वसित नहीं ।। वेदान्तसूत्र एवं जैमिनिसूत्र ग्रन्थों से भिन्न प्रसाद गुण की आहत, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों में ईश्वर की सत्ता यह कृति पूर्णतया बोधगम्य है, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञानार्थी स्वीकार नहीं की गयी है। के लिए अवश्य दुरूह है । दे० 'सांख्यकारिका'। भक्त दार्शनिकों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ है-१. द्वैत ईश्वरगीता-दक्षिणमार्गी शाक्त मत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । वादी आचार्य मध्व आदि ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व इसके ऊपर भास्करानन्दनाथ ने, जिन्हें भास्कर राय भी स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का कहते हैं और जो अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तंजौर साफल्य देखते हैं । २. अद्वैतवादियों में ईश्वर को लेकर के राजपण्डित थे, सुन्दर टीका लिखी है। कई सूक्ष्म भेद है । रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका-काश्मीर शव मत के साहित्यिक मानते हैं । वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना विकास में और विशेष कर इसके दार्शनिक पक्ष में सोमाकर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धाद्वैत नन्द के 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है । सोमानन्द ही मानते हैं। ऐसे ही भेदाभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि के ही शिष्य उत्पलाचार्य ने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की कई मत है । दे० 'निम्बार्क' तथा 'चैतन्य' । रचना की। इस कारिका की व्याख्या सोमानन्द के एक ईश्वरगणगौरीवत-चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया दूसरे शिष्य अभिनवगुप्त (१००० ई० ) ने की। तक लगातार १८ दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है । यह केवल सधवा स्त्रियों के लिए है। इसमें ईश्वरसंहिता-वैष्णव अथवा पाञ्चरात्र मत के उदय एवं गौरी-शिव की पूजा होती है। मालव प्रदेश में यह बहुत विस्तारात्मक इतिहास में संहिताओं का प्रमुख स्थान है। प्रसिद्ध है। यह अनिश्चित है कि ये कब और कहाँ लिखी गयीं। संख्या में ये १०८ कही जाती हैं। ईश्वरव्रत-किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें शिवजी की पूजा ईश्वरसंहिता तमिल (दक्षिण) देश में लिखी गयी, जब होती है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१४८ । कि अधिकांश संहिताएँ उत्तर भारत में ही रची गयीं। ईश्वरा-पार्वती का एक पर्याय, यथा ईश्वरसंहिता में वैष्णवसंत शठकोप का वर्णन है। विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः ईश्वरी-दुर्गा देवी का पर्याय । देवीमाहात्म्य-स्तुति में स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः ॥ (किरातार्जुनीय) कथन है : [ शङ्करजी ने पार्वती के मङ्गलमय कंकण पहने हुए 'त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ।' हाथ को अपने हाथ से सौ को ऊपर उठाकर ग्रहण [हे देवि ! तुम चर-अचर सब प्राणियों की समर्थ किया।] स्वामिनी हो।] ___ लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों के लिए भी इस शब्द ईश-ईश्वर, परमात्मा ( उपनिषदों के अनुसार ) । ब्रह्मा, का प्रयोग होता है। विष्णु, शिव ( पुराणों के अनुसार ) । परवर्ती काल में ईश्वराभिसन्धि-कविताकिक श्रीहर्ष रचित अद्वैतमत का _ 'ईश' का प्रयोग प्रायः 'शिव' के अर्थ में ही अधिक हुआ। एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । ईशान--शिव का एक पर्याय, यथा १४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईशानव्रत-उक्थ तत्रेशानं समभ्यय॑ त्रिरात्रोपोषितो नरः । पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् । [शिव का पूजन करके मनुष्य को तीन रात्रि तक व्रत वाग्दडजश्च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणाष्टकः ।। करना चाहिए। [ पिशुनता, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण ग्यारह रुद्रों के अन्तर्गत एक रुद्र । तथा वाग्दण्ड से उत्पन्न पारुष्य ये क्रोध से उत्पन्न आठ ईशानवत-शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तथा पूर्णिमा के दिन । दुर्गुण कहे गये हैं।] जब गुरुवार हो, इस व्रत का आचरण किया जाता है। ईहा-वाञ्छा, इच्छा, चेष्टा : पाँच वर्षों तक विष्णु भगवान् के साथ लिङ्ग के वाम भाग धर्मार्थ यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरोहता । का पूजन तथा खखोल्क (सूर्य) के साथ दक्षिण भाग का पूजन प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम् ।। होता है । एक वर्ष के पश्चात एक गौ का दान, दो वर्ष (महाभारत) के बाद दो गौओं का, तीन वर्ष के बाद तीन गौओं का, [धर्म के लिए धन की इच्छा की अपेक्षा निरीहता चार वर्ष के बाद चार गौओं का और पाँच वर्ष के बाद ( निश्चेष्टता ) ही श्रेष्ठ है, क्योंकि कीचड़ को धोने पाँच गौओं का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, की अपेक्षा उसे न छूना ही अच्छा है। ] व्रतकाण्ड ३८३-३८५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१७९-१८० । ईशोपनिषद-ईशावास्य उपनिषद् का संक्षिप्त नाम । यह १८ उ-स्वरवर्ण का पञ्चम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका मन्त्रों का एक दार्शनिक सङ्कलन है। इसका सम्बन्ध तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित है : शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा से है । यजुर्वेद के उकारः परमेशानि अधः कुण्डली स्वयम् । अन्तिम ( चालीसवें ) अध्याय में यह उपनिषद् संगृहीत पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा ॥ है । इसे यजुर्वेद का उपसंहार समझना चाहिए । यह कर्म पञ्चप्राणमयं देवि चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ योगवादी उपनिषद् है और इसमें कर्म और ज्ञान का समन्वय स्वीकार किया गया है। संक्षेप में हिन्दुत्व के मूल [हे देवी! उकार ( उ अक्षर ) स्वयं अधः कुण्डली भूत सिद्धान्त इसमें आ गये हैं। इसका प्रथम मन्त्र इस है। पीले चम्पक के समान इसका रंग है । सर्वदा पञ्चदेवदृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है : मय है । पञ्चप्राणमय तथा चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्चिज् जगत्यां जगत् । मोक्ष) का देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥ इस प्रकार हैं: [यह सम्पूर्ण विश्व ईश ( ईश्वर ) से आवास्य ( ओत उः शङ्करो वर्तुलाक्षी भूतः कल्याणवाचकः । प्रोत ) है । जगत् में जो कुछ है वह चलायमान ( परि अमरेशो दक्षः कर्णः षड्वक्त्रो मोहनः शिवः ॥ वर्तनशील = नश्वर ) है। इसलिए त्यागपूर्वक जागतिक उग्रः प्रभुधृतिविष्णुर्विश्वकर्मा महेश्वरः । पदार्थों का भोग करना चाहिए। किसी दूसरे के स्वत्व शत्रुघ्नश्चरिका पुष्टिः पञ्चमी वह्निवासिनी ॥ का लोभ नहीं करना चाहिए। धन-सम्पत्ति किसकी है ? कामघ्नः कामना चेशो मोहिनी विघ्नहन्मही । अर्थात् किसी की नहीं है अथवा किसी एक व्यक्ति की उढसूः कुटिला श्रोत्रं पारदीपो वृषो हरः ।। नहीं, अपितु ईश्वर की है। ] दूसरा मन्त्र है : । उक्थ-वेदमन्त्रात्मक स्तोत्र; यज्ञ का एक भेद; सामगान का कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एक प्रकार, सामवेद : 'विप्रा उक्थेभिः कवयो गुणन्ति ।' [ कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करनी [बुद्धिमान् ब्राह्मण सामवेद के द्वारा स्तुति करते हैं ।] चाहिए। इस प्रकार ( त्यागभाव से ) कर्म करने से अथ योसावन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते सैव तत्साम मनुष्य पर कर्म के बन्धन का लेप नहीं होता ।] तद् यजुः तद् उक्थं तद् ब्रह्म । ( छान्दोग्योपनिषद् ) ईर्ष्या-दूसरे को उन्नति में असहिष्णुता रखना । धार्मिक [यह जो आँख के भीतर पुरुष ( आकार) दिखाई साधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। इसका पर्याय है देता है वही ऋग्वेद, वही सामवेद, वही स्तोत्र (सामवेद अक्षान्ति । मनुस्मृति (७.२८) का कथन है : का सूक्त), वही यजुर्वेद और वही ब्रह्म है। ] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उखा-उज्जैन उखा-यज्ञों से सम्बन्धित हविष्य राँधने का बड़ा पात्र । यह मिट्टी का बना होता था ( मृन्मयी ) । दे० वाजसनेयी संहिता ११.५९, तैत्तिरीय संहिता, ४.१.५४ । उग्र - ( १ ) शंकर का एक नाम; एकादश रुद्रों में से एक । वायुपुराण के अनुसार यह वायुमूर्ति है। (२) क्षत्रिय के द्वारा शूद्र स्त्री में उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति । इस सम्बन्ध में मनु का कथन है : क्षत्रियात् शूद्रकन्यायां क्रूराचारविहारवान् । क्षत्रशूद्रवपुरु नाम प्रजायते ॥ [ क्षत्रिय और शूद्रकन्या से उत्पन्न कूर आचार-विहारवान् व्यक्ति उग्र कहा जाता है । ] इसका कार्य बिलों में रहने वाले गोधा आदि को मारना अथवा पकड़ना है । उग्रचण्डा - दुर्गा देवी का एक विरुद । महिषासुर के प्रति भगवती का कथन है : उग्रचण्डेति या मूर्तिर्भद्रकाली हाहं पुनः । यया मूर्त्या त्वां हनिष्ये सा दुर्गेति प्रकीर्तिता ॥ एतासु मूर्तिषु सदा पादलग्नो नृणां भवान् । पूज्यो भविष्यसि त्वं वै देवानामपि रक्षसाम् ॥ [ उग्रचण्डी नाम से प्रसिद्ध जो मूर्ति है वह मैं भद्रकाली हूँ जिस मूर्ति से मैं तुम्हें मारूंगी वह दुर्गा नाम से विख्यात है । इन मूर्तियों में सदा मेरे पाँव के नीचे दबे हु तुम मनुष्यों, राक्षसों तथा देवताओं के द्वारा पूजित होगे । ] उग्रतारा (१) — दुर्गा देवी का एक स्वरूप । जो उग्र भय से भक्तों की रक्षा करती है उसे उग्रतारा कहते हैं । उग्रतारा (२) - देवी का एक प्रसिद्ध पीठ । यह सहरसा स्टेशन (दरभंगा) के पास वनगामहिसी नामक गाँव के समीप है। कुछ लोग इसे 'शक्तिपीठ' मानते हैं। सतीदेह का नेत्रभाग यहाँ गिरा था। यहां एक यन्त्र पर तारा, एकजा तथा नीलसरस्वती की मूर्तियां अङ्कित हैं । इनके अतिरिक्त दुर्गा काली, त्रिपुरसुन्दरी, तारकेश्वर तथा तारानाथ की भी मूर्तियां है । उप्र नक्षत्र तीनों पूर्वा (पूर्वाषाढ पूर्वाभाद्रपदा और पूर्वाफाल्गुनी), मघा तथा भरणी उग्र नक्षत्र कहलाते हैं । ० बृहत्संहिता ( ९७-९८ ) । इनकी शान्ति के लिए धार्मिक कृत्यों का विधान है। उपशेखरा — गङ्गा का एक पर्याय शेखर अर्थात् मस्तक पर गंगा रहती है ।) ( उग्र अर्थात् शंकर के - १०७ उग्रश्रवा - महाभारत का प्रवचन करने वाले एक ऋषि, जो सुत नामक निम्न जाति में उत्पन्न हुए थे । उच्चाटन मन्त्र प्रयोग से किसी को भगाना मारण-मोहन आदि पट् कर्मों के अन्तर्गत इस अभिचार कर्म की गणना है। इसकी देवी दुर्गा है, तिथि कृष्णचतुर्दशी तथा अष्टमी भी है। दिन शनिवार है। जप करने वाले को बालों का सूत्र बनाकर पीड़े के दांतों से बनी हुई माला इसमें पिरोनी चाहिए और जप के समय उसे धारण करना चाहिए। फल इसका उच्चाटन है अर्थात् शत्रु को अपने देश तथा स्थान से भगा देना विशेष विवरण के लिए देखिए 'शारदातन्त्र' | उच्छिष्टभुक भोजन का बचा हुआ भाग इसे फिर खाना तामसिक भोजन के प्रकार में आता है और इसको त्याज्य बताया गया है । भोजन करने के बाद बिना हाथ-मुँह धोया हुआ व्यक्ति कहीं न जाय (न चोच्छिष्टः स्वचिद् व्रजेत् — मनु । ) । उच्छिष्ट गणपति- 'शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्यों के छः भेद कहे गये हैं जो गणपति के विभिन्न रूपों तथा गुणों की अर्चा किया करते थे । ये छः रूप हैं : महागणपति, हरिद्रागणपति, उच्छिष्टगणपति, नवनीतगणपति, स्वर्णगणपति एवं सन्तानगणपति । उच्छिष्ट गाणपत्यों का एक वर्ग हेरम्ब गणपति की उपासना किया करता था। उच्चैःश्रवा - इसके कई अर्थ है, यथा- जिसका यश ऊँचा हो, जिसके कान ऊँचे हों अथवा जो ऊँचा सुनता हो । मुख्य अर्थ इन्द्र का घोड़ा है । यह श्वेत वर्ण का है । पुराणों में इसकी गिनती उन चौदह रत्नों में है, जो के समुद्रमन्थन पश्चात् क्षीरसागर से निकले थे । अमृत से इसका पोषण होता है । यह अश्वों का राजा है । इसीलिए श्वेत वर्ण के अश्व महत्त्वपूर्ण और पूजनीय माने जाते हैं। उज्जैन भारत का प्रसिद्ध तीर्थ, जिसका सम्बन्ध ज्योतिर्लिङ्गमहाकाल से है। इस नगर को उज्जयिनी अथवा अवन्तिका भी कहते हैं । यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी, अतः इसका नाम उज्जयिनी पड़ा । इसका प्राचीनतम नाम अवन्तिका अवन्ति नामक राजा के नाम पर था । दे० स्कन्द पुराण | इस देश को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है। द्वादश ज्योतिलिङ्गों प्रसिद्ध महाकाल का मन्दिर यहीं है । ५१ शक्तिपीठों में Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उज्ज्वलनीलमणि-उत्तरमीमांसा यहाँ भी एक पीठ है । हरसिद्धि देवी का मन्दिर ही सिद्ध पीठ है । महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था । उज्ज- जि विक्रमादित्य की राजधानी थी । भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है । यहाँ बारह वर्ष में एक बार कुम्भ मेला लगता है । इसकी गणना सात पवित्र पुरियों अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । पुरी द्वारवती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ॥ उज्ज्वलनीलमणि--रूप गोस्वामी कृत अलङ्कारशास्त्र का एक प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ । रूप गोस्वामी महाप्रभु चैतन्य के शिष्य थे। अलङ्कारशास्त्र में प्रायः सामान्य पार्थिव प्रेम का ही चित्रण पाया जाता है। रूप गोस्वामी ने 'उज्ज्वलनीलमणि' में भगवद्-माधुर्य और रति ( निष्काम प्रेम ) का ही निरूपण किया है । वास्तव में उनके 'भक्तिरसामृतसिन्ध' के सिद्धान्तों का ही इसमें प्रदर्शन है । इस ग्रन्थ में साध्यभक्ति के भावों में तीन और जोड़े गये हैं-मान, अनुराग और महाभाव । उज्ज्वल रस-साहित्य में शृङ्गार का वर्ण श्याम कहा गया है। किन्तु भक्तिशास्त्र का शृंगार उज्ज्वल है । रूप गोस्वामी द्वारा रचित 'उज्ज्वलनीलमणि' में इस शब्द का प्रयोग अलौकिक रागानुगा भक्ति के लिए हुआ है, जिसमें शृङ्गार रस का पूर्ण अन्तर्भाव है । वास्तव में माधुर्य भक्तिवादी लोग भक्ति को ही रस मानते हैं, जो लौकिक शृंगार से भिन्न है, क्योंकि इसके अवलम्बन स्वयं भगवान हैं। इसलिए लौकिक राग से मुक्त होने के कारण इसका वर्ण उज्ज्वल है। उञ्छ-खेत से अन्न उठा लेने के पश्चात् शेष अन्न के दाने चनने को उञ्छ कहा जाता है । गेहँ, धान आदि की खेत में गिरी मञ्जरियाँ चुनने को 'शिल' कहते हैं और एकएक दाना चुनने को 'उञ्छ' । उञ्छ-शिल या शिलोञ्छ वृत्ति शब्द प्रायः एक साथ प्रयोग में आते हैं । उञ्छ-वृत्ति ब्राह्मणों के लिए श्रेष्ठ कही गयी है । सिद्धान्त यह है कि जो बिना माँगे मिलता है वह 'अमृत' है और जो मांगने से मिलता है वह 'मृत' है । ब्राह्मण को अमृत पर ही निर्वाह करना चाहिए। उत्कोच-शाब्दिक अर्थ 'जो शुभ का नाश करता है' (उत् + कुच् + क)। इसके लिए घस शब्द प्रसिद्ध है। इसके पर्याय हैं : (१) प्राभूत, (२) ढौकन, (३) लम्बा , (४) कोशलिक, (५) आमिष, (६) उपाचार, (७) प्रदा, (८) आनन्दा, (९) हार, (१०) ग्राह्य, (११) अयन, (१२) उपदानक और (१३) अपप्रदान । याज्ञवल्क्यस्मृति (१।३३८) में कथन है : उत्कोचजीविनो द्रव्यहीनान् कृत्वा विवासयेत् । घिस लेने वालों को धन छीनकर देश से निर्वासित कर देना चाहिए।] उत्तराभाद्रपदा-अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्तर्गत इक्कीसवाँ नक्षत्र; प्रौष्ठपदा। इसका रूप सूकार चार ताराओं से युक्त है । इसका अधिदेवता अहिर्बुध्न है । उत्तर मीमांसा-छ: हिन्दू चिन्तन प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन यग्म है, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। मीमांसा का अर्थ है खोज, छानबीन अथवा अनुसन्धान । मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है। दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्त्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं। उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते है, क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा = ब्रह्म) है। 'वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे जाते है जो चार अध्यायों में विभक्त हैं । इस दर्शन का संक्षिप्त सार निम्नलिखित है : ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उद्गम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों द्वारा जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है । विश्व, जो ब्रह्म द्वारा समय समय पर उद्भत होता है उसका न आदि है न अन्त है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराडीसाधु-उत्सर्जन वेद भी अनन्त हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा में व्यवहृत होने वाले सूक्त उस गानक्रम में व्यवस्थित होते पोषण प्राप्त करते हैं। हैं, जिस क्रम में उद्गाता छात्रों को ये सिखलाये जाते हैं । जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अन्तहीन है, चेतना- उत्तराचिक (राणायनीय)-सामवेद में जो ऋचाएं आयी युक्त है, सर्वव्यापी है । यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं हैं, उन्हें 'आचिक' कहा गया है। साम-आचिक ग्रन्थ ब्रह्म है । इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है । अनु- अध्यापकभेद, देशभेद, कालभेद, पाठ्यक्रमभेद और उच्चाभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म रण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब केवल 'ज्ञानमय' है जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ शाखाओं में मन्त्र एक जैसे ही है, उनकी संख्या में व्यतिहै। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उप- क्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौत एवं गृह्यसूत्र और प्रातिनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है । कर्म से शाख्य भिन्न-भिन्न है । सामवेद की शाखाएँ कही तो जाती कार्य का फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता हैं एक सहस्र, पर प्रचलित है केवल तेरह। कुछ है । ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है । दे० 'ब्रह्मसूत्र' । लोगों के मत से वास्तव में तेरह ही शाखाएं हैं, क्योंकि उत्तराडी साधु-दादूपंथी साधुओं के पाँच प्रकार हैं-(१) जो "सहस्रतमा गीत्युपायाः" के प्रमाण से सहस्र शाखाएँ खालसा, (२) नागा, (३) उत्तराडी, (४) विरक्त और बतायी जाती हैं, उसका अर्थ "हजारों तरह से गाने के (५) खाकी। उत्तराडी साधुओं की मण्डली पञ्जाब में उपाय' है। उन तेरह शाखाओं में से भी आज केवल दो बनवारीदास ने बनायी थी। इनमें बहुत से विद्वान् साधु प्रचलित है। उत्तर भारत में 'कौथमी शाखा' और दक्षिण होते थे, जो अन्य साधुओं को पढ़ाते थे। कुछ वैद्य होते में 'राणायनीय शाखा' प्रचलित हैं। उत्तराचिक में एक थे। दादूपंथी साधओं की प्रथम तीन श्रेणियों के सदस्य छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन जो व्यवसाय चाहें कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इस अर्थात् विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य को छु प्रकार के सूक्तों का सामवेदीय संग्रह जो दक्षिण में प्रचलित सकते हैं । खाकी साधु भभूत (भस्म) लपेटे रहते हैं और है 'उत्तराचिक राणायनीय संहिता' के नाम से पुकारा भाँति-भाँति की तपस्या करते हैं । तीनों श्रेणियों के साधु जाता है । ब्रह्मचारी होते हैं और गृहस्थ लोग 'सेवक' कहलाते हैं। उत्पल-उत्पल अथवा उत्पलाचार्य दशम शताब्दी के एक उत्तरायण-भमध्य रेखा के उत्तर तथा दक्षिण में सूर्य की शैव आचार्य थे, जिन्होंने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की स्थिति के क्रम से दो अयन-उत्तरायण और दक्षिणायन रचना की तथा इस पर एक भाष्य भी लिखा । यह ग्रन्थ होते हैं । धार्मिक विश्वासों तथा क्रियाओं में इनका बहुत सोमानन्दकृत 'शिवदृष्टि' की शिक्षाओं का सारसंग्रह है। महत्त्व है । ऋतुओं का परिवर्तन भी इन्हीं के कारण होता उत्पल वैष्णव-'स्पन्दप्रदीपिका' के रचयिता उत्पल वैष्णव है । प्रत्येक अयन (उत्तरायण या दक्षिणायन) के प्रारम्भ में का जीवनकाल दसवीं शती का उत्तरार्ध था । 'स्पन्ददान की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। अयन के प्रारम्भ प्रदीपिका' कल्लटरचित 'स्पन्दकारिका' की व्याख्या है। में किया गया दान करोड़ों पुण्यों को प्रदान करता है, जब- उत्पात-प्राणियों के शुभ-अशुभ का सूचक महाभूत-विकार, कि अमावस्या के दान केवल एक सौ पुण्य प्रदान करते हैं। भूकम्प आदि । इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो अकस्मात् दे० भोज का राजमार्तण्ड, वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० २१४। आता है।' इसके पर्याय हैं-(१) अजन्य और (२) उत्तराचिक-यह चार सौ सूक्कों का एक सामवेदी संग्रह है, उपसर्ग । वह तीन प्रकार का है-(१) दिव्य, जैसे बिना जिसमें से प्रत्येक में लगभग तीन-तीन ऋचाएँ हैं। सब पर्व में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण आदि, (२) अन्तरीक्ष्य, मिलाकर इसमें लगभग १२२५ छन्द हैं। उत्तराचिक जैसे उल्कापात और मेघगर्जन आदि और (३) भौम, स्तुतिग्रन्थ है। 'आचिक' शब्द का अर्थ ही है ऋचाओं जैसे भूकम्प, तुफान आदि । इन उत्पातों की शान्ति के लिए का 'स्तुतिग्रन्थ' । आचिक के छन्द विभिन्न वर्गों में बहुत सी धार्मिक क्रियाओं का विधान किया गया है। विभिन्न देवों के अनुसार बँटे हुए हैं। फिर ये प्रत्येक छन्द- उत्सर्जन-छोड़ देना, त्याग देना । इसके पर्याय हैं (१) समूह दस-दस की संख्या में बँटे होते हैं । फिर सोमयज्ञ दान, (२) विसर्जन, (३) विहापित, (४) विश्राणन, (५) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सव-उत्तरगीता वितरण, (६) स्पर्शन,(७) प्रतिपादन, (८) प्रादेशन, (९) (२) स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत और उसकी (१०) अपवर्जन । इसका अर्थ कर्त्तव्य क्रियाविशेष को रोक दूसरी रानी का पुत्र भी उत्तम नामक था जो आगे चलदेना भी है, जैसा मनु का कथन है : कर तीसरे मन्वन्तर का अधिपति हुआ । पु ये तु छन्दसां कुर्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विजः । उत्तमभक्त प्राप्तिव्रत-वसन्त ऋतु में शुक्ल पक्ष की द्वादशी को माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्न प्रथमेऽहनि ।। इस व्रत का अनुष्ठान होता है। विष्णु इसका देवता है। [माघ शुक्लपक्ष के प्रथम दिन के पूर्व भाग में ब्राह्मण दे० वाराह पुराण, ५४.१-१९ । पुष्य नक्षत्र में वेदों का घर से बाहर विसर्जन करे । ] इस उत्तमसाहस-एक ऊँचा अर्थदण्ड ( जुर्माना )। जैसे प्रकार वैदिक अध्ययन-सत्र की समाप्ति का नाम उत्स 'साशीतिपणसाहस्रो दण्ड उत्तमसाहसः ।' जन है। (याज्ञवल्क्य स्मृति) उत्सव-आनन्ददायक व्यापार । इसके पर्याय है-(१) [१०८० पणों का दण्ड उत्तमसाहस कहलाता है । ] क्षण, (२) उद्धव, (३) उद्धर्ष, (४) मह । मनुस्मृति (३. अन्यत्र भी कथन है : ५९ ) में कथन है : पणानां द्वे शते साढे प्रथमः साहसः स्मृतः । तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनः । मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः ।। भूतिकामैननित्यं सत्कारेषत्सवेषु च ।। [ दो सौ पचास पणों का प्रथमसाहस दण्ड, पाँच सौ [ इसलिए सत्कार तथा उत्सवों में लक्ष्मी के इच्छुक पणों का मध्यमसाहस दण्ड और हजार पणों का उत्तममनुष्यों द्वारा भूषण, वस्त्र तथा भोजन के द्वारा स्त्रियों साहस दण्ड होता है। ] का सम्मान करना चाहिए। उत्तरकाशी-उत्तराखण्ड का प्रमुख तीर्थ स्थल । यहाँ अनेक व्रत-ग्रन्थों तथा पुराणों में असंख्य उत्सवों का उल्लेख । थों तथा जगणों में असंख्य उत्सवों का उल्लेख प्राचीन मन्दिरों में विश्वनाथजी का मन्दिर तथा देवाहै। उनमें होलिका दर्गोत्सव विशेष प्रसिद्ध हैं, जिनका सुरसंग्राम के समय छूटी हुई शक्ति ( मन्दिर के सामने का उल्लेख अन्यत्र किया गया है । 'उत्सव' शब्द ऋग्वेद त्रिशूल ) दर्शनीय है । पास ही गोपेश्वर, परशुराम, दत्ता( १.१००.८ तथा १.१०१.२) में मिलता है। इस शब्द त्रेय, भैरव, अन्नपूर्णा, रुद्रेश्वर और लक्षेश्वर के मन्दिर की व्युत्पत्ति उत्पूर्वक 'सु' धातु से है, जिसका सामान्य हैं। दक्षिण में शिव-दुर्गा मन्दिर और पूर्व में जड़भरत अर्थ है "ऊपर उफन कर बहना" अर्थात् आनन्द का अति- का मन्दिर है । इसके पूर्व में वारणावत पर्वत पर विमलेरेक । उत्सव के दिन सामूहिक रूप से आनन्द उमड़ कर श्वर महादेव का मन्दिर है । पूर्व-काशी के समान यह भी प्रवाहित होने लगता है। इसीलिए उत्सवों के दिन प्रसा- भागीरथी गंगा के तट पर असि और वरणा नदियों के धन, गान, भोजन, मिलन, दान-पुण्य आदि का प्रावि- मध्य में बसी हुई है। कहा जाता है कि कलियुग में विश्वधान है। नाथजी वास्तविक रूप में यहीं निवास करते हैं। उतथ्य-महर्षि अंगिरा का पुत्र तथा देवगुरु बृहस्पति का उत्तरक्रिया-पितरों के वार्षिक श्राद्ध आदि की क्रिया, जैसे ज्येष्ठ भ्राता, यथा प्रेतपितृत्वमापन्न सपिण्डीकरणादनु । त्रयस्त्वङ्गिरसः पुत्रा लोके सर्वत्र विश्रुताः । क्रियन्ते याः क्रियाः पित्र्यः प्रोच्यन्ते ता नृपोत्तराः ॥ बृहस्पतिरुतथ्यश्च संवर्तश्च धृतव्रतः ॥ (विष्णुपुराण) [ अङ्गिरा के तीन पुत्र संसार में प्रसिद्ध हैं--(१) बृह [ सपिण्डीकरण के पश्चात् जब प्रेत पितर संज्ञा को स्पति, (१) उतथ्य और (३) व्रतधारी संवर्त । ] महा प्राप्त हो जाता है तब उसके बाद की जानेवाली क्रिया को भारत और पुराणों में इनकी कथा विस्तार से कही गयी है। उत्तर क्रिया' कहते हैं । ] उत्तम-(१) स्वायंभुव मनु के पुत्र महाराज उत्तानपाद उत्तरगीता-'उत्तरगीता' महाभारत का ही एक अंश और महारानी सुरुचि का पुत्र । उत्तानपाद की छोटी रानी माना जाता है । प्रसिद्धि है कि पाण्डवों की विजय और सुनीति का पुत्र ध्रुव था। राज्यप्राप्ति के पश्चात् श्री कृष्ण के सत्संग का सुअवसर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपक्ष-उदककमं पाकर एक बार अर्जुन ने कहा कि भगवन् ! युद्धारम्भ में आपने जो गीता उपदेश मुझको दिया था, युद्ध की मार-काट और भाग-दौड़ के बीच उसे मैं भूल गया हूँ । कृपा कर वह ज्ञानोपदेश मुझको फिर से सुना दीजिए। श्री कृष्ण बोले कि अर्जुन, उक्त उपदेश मैंने बहुत ही समाहितचित ( योगस्थ ) होकर दिव्य अनुभूति के द्वारा दिया था, अब तो मैं भी उसको आनुपूर्वी रूप में भूल गया हूँ। फिर भी यथास्मृति उसे सुनाता हूँ इस प्रकार श्री कृष्ण का बाद में अर्जुन को दिया गया उपदेश ही 'उत्तर गीता' नाम से प्रसिद्ध है। स्वामी शंकराचार्य के परमगुरु गौडपादाचार्य की व्याख्या इसके ऊपर पायी जाती है, जिससे इस ग्रन्थ का गौरव और भी बढ़ गया है । उत्तरपक्ष पूर्व पक्ष का विलोम विवाद के मध्य प्रतिपक्षी के सिद्धान्तों का खण्डन करने के पश्चात् किसी विचारक का अपना जो मत होता है उसे उत्तरपक्ष कहते हैं । उत्तराफाल्गुनी अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्रों के अन्त गंत बारहवाँ नक्षत्र इसमें पर्यदु के आकार के दो तारे हैं। इसका अधिष्ठाता देवता अर्थमा है। उद्वह आकाशमण्डल के स्टरों में छाये हुए सात प्रकार के वायुओं के अन्तर्गत एक वायु। इसकी स्थिति ऊपर की ओर होती है। 'सिद्धान्तशिरोमणि' में कथन है आवहः प्रवश्चैव विवहश्च समीरणः । परवहः संवहश्चैव उद्वहश्च महाबलः । तथा परिवहः श्रीमानुत्पातभयशंसिनः । इत्येते क्षुभिताः सप्त मारुता गगनेचराः ॥ [ आवह, प्रवह विवह, परवह, संवह, उद्वह तथा परिवह; आकाशगामी ये सात पवन परस्पर टकराते हुए उपद्रव होने की सूचना देते हैं । ] उद्वाह-विवाह एक स्त्री को पत्नी बनाकर स्वीकार करना । यह आठ प्रकार का होता है (मनु० ३.२१ ) : (१) वर को बुलाकर शक्ति के अनुसार कन्या को अलंकृत करके जब दिया जाता है, उसे 'ब्राह्म विवाह' कहते हैं । (२) जहाँ यज्ञ में स्थित ऋत्विक् वर को कन्या दी जाती है, उसे 'देव विवाह' कहते हैं। (३) जहाँ वर से दो बैल लेकर उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता है। उसे 'आर्य' विवाह कहते हैं। (४) जहाँ इसके साथ धर्म का आचरण करो" ऐसा नियम करके कन्यादान किया १११ जाता है उसे 'प्राजापत्य' विवाह कहते हैं । (५) जहाँ धन लेकर कन्यादान किया जाता है वह 'आसुर विवाह' कहलाता है । (६) जहाँ कन्या और वर का परस्पर प्रेम हो जाने के कारण "तुम मेरी पत्नी हो", "तुम मेरे पति हो" ऐसा निश्चय कर लिया जाता है यह 'गान्धर्व विवाह' कहलाता है । ( ७ ) जहाँ पर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर लिया जाता है उसे 'राक्षस विवाह' कहते हैं । (८) जहाँ सोयी हुई, मत्त अथवा प्रमत्त कन्या के साथ निर्जन में बलात्कार किया जाता है, वह 'पैशाच विवाह' कहलाता है। विवाह का शाब्दिक अर्थ है 'उठाकर ले जाना' । क्योंकि विवाह के अन्तर्गत कन्या को उसके पिता के पर से पतिगृह को उठा ले जाते हैं, इसलिए इस क्रिया को 'उद्वाह' कहा जाता है । विशेष विवरण के लिए दे० 'विवाह' । उद्दालक यह व्रत 'पतितसावित्रीक' (उपनयन संस्कारहीन लोगों के लिए है। ऐसा बतलाया गया है कि उष्ण दुग्ध तथा 'आमिक्षा' पर ही व्रती को दो मास तक निर्भर रहना चाहिए । आठ दिन तक दही पर तथा तीन दिन घी पर जीवन-यापन करना चाहिए अन्तिम दिन पूर्ण उपवास का विधान है। उद्दालक आरुणि अरुण का पुत्र उद्दालक आरुणि वैदिक काल के अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्यों में से था । वह शतपथ ब्राह्मण ( ११.४.१.२ ) में कुरुपञ्चाल का ब्राह्मण कहा गया है । वह अपने पिता अरुण तथा मद्रदेशीय पतञ्चल काव्य का भी शिष्य ( बृहदा० उप० ) तथा प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य ऋषि का गुरु था ( वृहदा० उप० ) । तैत्तिरीय संहिता में अरुण का नाम तो आता है, आरुणि का नहीं । उद्दालक का वास्तविक पुत्र श्वेतकेतु था, जिसका समर्थन आपस्तम्ब ने अपने समय के अवर व्यक्ति के रूप में किया है । उदककर्म - मृतक के लिए जलदान की क्रिया। यह कई प्रकार से सम्पन्न होती है । एक मत से सभी सम्बन्धी ( ७ वीं या १० वीं पीढ़ी तक ) जल में प्रवेश करते है। वे केवल एक ही वस्त्र पहने रहते हैं और यज्ञसूत्र दाहिने कन्धे पर लटकता रहता है । वे अपना मुख दक्षिण की ओर करते हैं, मृतक का नाम लेते हुए एक-एक अञ्जलि पानी देते हैं । फिर पानी से बाहर आकर अपने भीगे कपड़े निचोड़ते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ उदकपरीक्षा-उदयन स्नान के बाद सम्बधी एक साफ घास के मैदान में बैठते निर्जलेषु च देशेषु खनयामासुरुत्तमान् । हैं जहाँ उनका मनबहलाव कथाओं अथवा यम-गीत द्वारा उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान् । किया जाता है। घर के द्वार पर वे पिचुमण्ड को पती [जल रहित प्रदेशों में अनेक प्रकार की वेदिकाओं से चबाते हैं, मुख धोते हैं, पानी, अग्नि तथा गोबर आदि का सुसज्जित उत्तम कुएं खोदे गये । ] स्पर्श करते हैं, एक पत्थर पर चढ़ते हैं और तब घर में यह 'इष्टापूर्त' नामक पुण्यकर्मों में 'पूर्त' के अन्तर्गत प्रवेश करते हैं। विशेष कृत्य है। इसको खुदवाने से बड़ा भारी पुण्य उदकपरीक्षा-जल के द्वारा अपराध के सत्यासत्य की परीक्षा। होता है। दिव्य प्रमाणों में यह आता है । वाद उत्पन्न होने पर उदमय आतरेय-ऐतरेय ब्राह्मण (८.२२ ) में उदमय चार प्रमाणों के आधार पर न्याय किया जाता है। वे हैं- आतरेय को अङ्ग वैरोचन का पारिवारिक पुरोहित कहा (१) लिखित, (२) भुक्ति, (३) साक्षी और (४) दिव्य ।। उदकपरीक्षा दिव्य का ही एक प्रकार है । जल के प्रयोग से उदयगिरि-खण्डगिरि-भुवनेश्वर से सात मील पश्चिम यह परीक्षा होती है, क्योंकि हिन्दू धर्म में जल को बहुत उदयगिरि तथा खण्डगिरि नामक पहाड़ियाँ हैं । यह पवित्र माना जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि प्रधानतः जैन तीर्थ है, परन्तु सभी हिन्दू इसको पवित्र जलस्पर्श करते समय कोई झूठ नहीं बोलेगा। आजकल मानते हैं। यहाँ कलिङ्ग देश के ५०० मुनि मोक्ष प्रायः गङ्गाजल इसके लिए प्रयुक्त होता है। प्राप्त कर गये हैं । दोनों,पहाड़ियाँ समीप हैं। उदयगिरि प्राचीन रीति में दोषी व्यक्ति को निर्धारित समय तक का नाम कुमारगिरि है । महावीर स्वामी यहाँ पधारे थे। जल में डुबकी लगानी होती थी । समय से पूर्व ऊपर उठ इसमें अनेक गुफाएं हैं। उनमें अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । आने वाला व्यक्ति अपराधी मान लिया जाता था। खण्डगिरि के शिखर पर एक जैन मन्दिर है। दो मन्दिर उदकसप्तमी-इसमें सप्तमी को एक अञ्जलि पानी पीकर व्रत और है । पास ही आकाशगङ्गा नामक कुण्ड है। आगे रखने का विधान है । इससे आनन्द की प्राप्ति होती है । दे० गुप्तगङ्गा, श्यामकुण्ड तथा राधाकुण्ड है। एक गुफा में कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, १८४, हेमाद्रि, व्रतखण्ड ७२६ । २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। उदयगिरि तथा उद्गाता-सामगान करने वाला याजक 'उद्गाता' कह- खण्डगिरि की प्राचीन गुफाओं तथा वहाँ को शिल्प की लाता है। हरिवंश में कथन है : कला को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। ब्रह्माणं परमं वक्त्रादुद्गातारञ्च सामगम् । उदयन-न्यायदर्शन के आचार्यों में उदयन का स्थान बड़ा होतारमथ चाध्वर्यु बाहुभ्यामसृजत्प्रभुः ॥ ही ऊँचा है । इनके द्वारा विरचित 'कुसुमाञ्जलि' में ईश्वर [ प्रजापति ने ब्रह्मा को तथा सामगान करने वाले उद्- की सत्ता को भली भाँति प्रमाणित किया गया है। यह गाता को अपने मुख से और होता तथा अध्वर्य को बाहओं ग्रन्थ दूसरे ईश्वरवादी दार्शनिकों को भी प्रिय है । उदयन से उत्पन्न किया । ] ने इसमें भास्कर (भास्कराचार्य) पर आक्षेप किया है, जो वैदिक यज्ञों, विशेष कर सोमयज्ञ में, सामवेद के मन्त्रों का वेदान्त के आचार्य थे और जिन्होंने अपने भाष्य (भास्करगान होता था । गाने वाले पुरोहित को 'उद्गाता' कहते भाष्य) में शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उदयनाचार्य थे । उद्गाता को दो प्रकार की शिक्षा लेनी पड़ती थी। ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' की भी रचना की है। यह पहली शिक्षा थी-शुद्ध एवं शीघ्र मन्त्रों का गायन, तथा ग्रन्थ वाचस्पति की टीका का ही स्पष्टीकरण है। उन सभी स्वरों की जानकारी जो विशेष कर सोमयज्ञों में कहते हैं कि आचार्य उदयन जब जगन्नाथजी के दर्शन प्रयुक्त होते थे। दूसरी शिक्षा से इस बात का स्मरण करने गये उस समय मन्दिर के पट बन्द थे। इससे आचार्य रखना होता था कि किस सोमयज्ञ में कौन सा सूक्त या ने व्यंग्यवचनपूर्वक उनकी इस प्रकार स्तुति की : मन्त्र गान करना पड़ेगा। ऐश्वर्यमदमत्तोसि मामवज्ञाय वर्तसे । उदपान-जिसमें से जल पिया जाता है । अमरकोश के अनु उपस्थितेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थितिः । सार इसका अर्थ कूप है । अन्यत्र भी कहा है : [ जगत् के नाथ (ईश्वर) होने से मत्त होकर Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसेविका-उन्मै विलक्कम आप मेरा तिरस्कार कर छिप गये हैं। किन्तु बौद्धों चार नैयायिकों का उल्लेख करते हुए इन्हें ईसा की छठी (नास्तिकों) का सामना होने पर आपकी सत्ता मेरे तर्कों शताब्दी में उत्पन्न बताया है। उद्योतकर ने प्रसिद्ध बौद्ध से ही सिद्ध हो सकती है।] नैयायिक दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रन्थ का उदसेविका-यह उत्सव ठीक उसी प्रकार मनाया जाता है खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया है। जैसे भूतमात उत्सव होता है। यह एक शाक्त तान्त्रिक इनका एक नाम भरद्वाज भी है तथा इन्हें पाशुपताचार्य प्रक्रिया है। इन्द्रध्वजोत्सव के अवसर पर ध्वज को भी कहा गया है, जिससे इनके पाशुपत शैव होने का अनुउतार लेने के पश्चात् इसका आचरण किया जाना मान लगाया जाता है। चाहिए। यह भाद्रपद शक्ल पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता उन्मत्तभैरवतन्त्र-तन्त्रशास्त्र के मौलिक ग्रन्थ शिवोक्त था । इसकी समानता कुछ अंशों में रोम की रहस्यात्मक कहे गये हैं। 'तन्त्र' अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है । 'बैकानेलिया' (होली जैसी रागात्मक चेष्टाओं) से की जा यथार्थतः दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा किसी के सामने सकती है। स्कन्द पुराण में थोड़ी भिन्नता के साथ इस यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए । 'आगमतत्त्वव्रत का वर्णन किया गया है । इस विषय में मतभेद है कि विलास' में ६४ तन्त्रों की सूची दी हुई है, जिसमें 'उन्मत्त उत्सव कब और कहाँ आयोजित किया जाय । प्रायः यह भैरव' चौतीसवाँ है। आगमतत्त्वविलास की सूची के पूर्णिमान्त में होता था। अब इसका प्रचार प्रायः बन्द है। सिवा अन्य बहुत से स्थानों पर इस तन्त्र का उल्लेख उदासी-सिक्खों के मुख्य दो सम्प्रदाय हैं : (१) सहिजधारी हुआ है। और (२) सिंह । सहिजधारियों एवं सिंहों के भी कई उन्मनी-हठयोग की मुद्राओं में से एक मुद्रा। इसका उपसम्प्रदाय है। उदासी (संन्यासमार्गी) सहिजधारी शाब्दिक अर्थ है 'विरक्त अथवा उदासीन होना' । संसार शाखा के हैं। इस मत (उदासीन) के प्रवर्तक नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे। इस मत का प्रारम्भ लगभग १४३९ ई० में से विरक्ति के लिए इस मुद्रा का अभ्यास किया जाता है। इसमें दृष्टि को नासाग्र पर केन्द्रित करते हैं और हुआ। श्रीचन्द्र ने नानक के मत को कुछ व्यापक रूप देकर यह नया मत चलाया, जो सनातनी हिन्दुओं के भृकुटि (भौंह) का ऊपर की ओर प्रक्षेप करते हैं । गोरख, निकट है। कबीर आदि योगमार्गी सन्तों ने साधना के लिए इस उद्गीथ-ओंकारसंपुटित सामगान की विशेष रीति : मुद्रा को बहुत उपयोगी माना है। 'गोरखबानी' में निम्नां कित वचन पाये जाते हैं : 'ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ।' ( छान्दोग्य उ० ) अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखा प्रदेशे महान्त उद्गीथविदो वसन्ति । तुटी डोरी रस कस बहै । (उत्तर चरित) उन्मनी लागा अस्थिर रहै ।। उद्गीता आगम-आगमों का प्रचलन शव सम्प्रदाय के उन्मनि लागा होइ अनन्द । इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है । परम्परा तूटी डोरी विनसै कन्द । के अनुसार २८ आगम हैं, जिन्हें शैविक एवं रौद्रिक दो कबीर ने भी कहा है (कबीरसाखी संग्रह) : वर्गों में बांटा गया है। 'उद्गीता' अथवा 'प्रोद्गीता हँसै न बोलै उन्मनी, चंचल मेल्या भार । आगम' रौद्रिक आगम है। कह कबीर अन्तर बिंधा, सतगुर का हथियार । उद्योतकर-न्यायदर्शन के विख्यात व्याख्याता । गौतम उन्मैविलक्कम्-शैव सिद्धान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । ऋषि के न्यायसूत्रों पर वात्स्यायन का भाष्य है । इस तमिल शैवों में मेयकण्ड देव की प्रचुर प्रसिद्धि है । इन्होंने भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में रचे गये व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका' बारह संस्कृत सूत्रों का तमिल पद्य में अनुवाद किया। के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयना- ये संमान्य आचार्य भी थे और इनके अनेक शिष्य थे चार्यकृत 'तात्पर्यपरिशुद्धि' है । वासवदत्ताकार सुबन्धु ने जिनमें से एक शिष्य मान वाचकम कण्डदान की प्रसिद्धि मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीति और उद्योतकर इन 'उन्मविलक्कम्' नामक भाष्य के कारण बहुत अधिक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ उपक्रमपराक्रम-उपदेश है । यह रचना ५४ पद्यों में शैव सिद्धान्त को प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत करती है। उपक्रमपराक्रम-अप्पय दीक्षित रचित पूर्वमीमांसादर्शन का एक ग्रन्थ । उपक्रम एवं उपसंहारादि षड्विध लिङ्गों से शास्त्र का निर्णय किया जाता है। इस ग्रन्थ में यह दिखलाया गया है कि उपक्रम ही सबसे अधिक प्रबल है और ग्रन्थ का प्रतिपाद्य सिद्धान्त इसी से स्पष्ट हो जाता है। उपकुर्वाण-ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण करने के अनन्तर जो स्नातक गृहस्थ होता है उसको उपकुर्वाण कहते हैं। स्नातक दो प्रकार के होते हैं-(१) उपकुर्वाण और (२) नैष्ठिक । अधिकांश स्नातक उपकुर्वाण होते हैं जो आचार्य की अनुज्ञा लेकर गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करते हैं। उपकूर्वाण का अर्थ है 'कर्मनिष्ठ' । नैष्ठिक का अर्थ है 'ज्ञाननिष्ठ' । कुछ स्नातक ऐसे होते थे जो गार्हस्थ्य में नहीं आना चाहते थे। वे गुरुकुल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ज्ञानार्जन करते थे । उपकूपजलाशय-कुँए के पास बनाया गया जलाशय । कँए के पास पशुओं के पीने के लिए पत्थर आदि के द्वारा बाँधा गया पानी रखने का स्थान । यह पूर्त कर्म माना जाता है । इसके बनवाने से अदृष्ट पुण्य होता है। उपक्षेपणधर्म-उपक्षेपण रूप धर्म । शूद्र का अन्न, जिसे ब्राह्मण के घर पकाने के लिए दिया गया हो, उपक्षेपण कहलाता है। उपग्रन्थसूत्र-सामवेदीय सूत्रग्रन्थों में से एक सूत्रग्रन्थ ।। ऋग्वेदीय अनुक्रमणिकाकार षड्गुरुशिष्य ने लिखा है कि 'उपग्रन्थसत्र' कात्यायन द्वारा निर्मित हआ है। उपग्रहण-उपाकरण का पर्याय । संस्कारपूर्वक गुरु से वेदों का ग्रहण करना उपग्रहण कहलाता है। श्रावणी पूर्णिमा को यह कृत्य किया जाता है । दे० 'उपाकर्म' । उपज्ञा-सर्वप्रथम उत्पन्न ज्ञान, उपदेश के विना हृदय में स्वतः उद्भूत प्रथम ज्ञान । जैसे वाल्मीकि को श्लोक निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त हो गया था : 'अथ प्राचेतसोपज्ञं रामायणमितस्ततः ।' (रघुवंश १५,६३) [इसके पश्चात् वाल्मीकि ने रामायण का स्वतः ज्ञान प्राप्त किया । उपतन्त्र-तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। ऐसे तन्त्र संख्या में सौ से भी अधिक हैं । वाराही तन्त्र से यह भी पता चलता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं जिनकी गिनती नहीं हो सकती। (दे० आगम) उपदेवता-जो देवता की समानता को प्राप्त हो, यक्ष, भत आदि । उपदेवता दस है, जैसा कि अमरकोश में बताया गया है : विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ।। [(१) विद्याधर, (२) अप्सरा, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) गन्धर्व, (६) किन्नर, (७) पिशाच, (८) गुह्यक, (९) सिद्ध और (१०) भूत । ये देवयोनियाँ हैं ।] उपदेश-मन्त्र आदि का शिक्षण या कथन । उसका पर्याय है दीक्षा । यथा : सूर्यचन्द्रग्रहे तीर्थे सिद्धक्षेत्रे शिवालये । मन्त्रमात्रप्रकथनमुपदेशः स उच्यते ॥ (रामार्चनचन्द्रिका) [चन्द्र-सूर्यग्रहण, तीर्थ, सिद्धक्षेत्र, शिवालय में मन्त्र कहने को उपदेश कहते है ।] हितकथन को भी उपदेश कहा जाता है। हितोपदेश के विग्रह खण्ड में कहा है : 'उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये ।' [मूों को हितकर वचन से क्रोध ही आता है, शान्ति नहीं । शिक्षण के अर्थ में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है, मनु (८.२७२) ने इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया है। हिन्दू संस्कृति में मौखिक उपदेश द्वारा भारी जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा नहीं थी। यहाँ के सभी आचार्यों ने आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बड़ा जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार में ही निहित है। कोरे विचार के प्रचार से आचार संगठित नहीं होता । इसलिए आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक 'आचार्य' कहलाते थे । उपदेशक उनका नाम न था । जहाँ तक पता चलता है, भारी जनसमूह के सामने मौखिक व्याख्यान द्वारा विचारों के प्रचार करने की पद्धति की नींव सर्वप्रथम महात्मा गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों ने डाली । तब से इस रूप में धर्म के प्रचार की रीति चल पड़ी। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेशरत्नमाला-उपनयन ११५ केबल: . उपनय कर को उप उपदेशरत्नमाला-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ, जो तमिल भाषा में लिखा गया है । इसके रचयिता गोविन्दाचार्य का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में माना जाता है। उपदेशसाहस्री-शङ्कराचार्य द्वारा रचित अद्वैत वेदान्त का एक प्रधान ग्रन्थ । महात्मा रामतीर्थ ने इस ग्रन्थ पर ‘पदयोजनिका' नामक टीका का निर्माण किया । शङ्करा- चार्य के वेदान्त सम्बन्धी सिद्धान्तों का इसमें एक सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त सार है। उपदेशामत-जीव गोस्वामी (सोलहवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न) द्वारा रचित ग्रन्थों में से एक । यह ग्रन्थ इनके अचिन्त्यभेदाभेदवाद (चैतन्यमत) के अनुसार लिखा गया है । ग्रन्थकर्ता प्रसिद्ध भक्त और गौड़ीय वैष्णवाचार्य रूप और सनातन गोस्वामी के भतीजे थे । चैतन्यदैव के अन्तर्धान के बाद जीव गोस्वामी वृन्दावन चले आये और यहीं पर इनकी प्रतिभा का विकास हुआ। फलतः इन्होंने भक्तिमार्ग के अनेक ग्रन्थ प्रस्तुत कर बंगाल में वैष्णव धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को उधर भेजा था। उपदेष्टा-उपदेश देने वाला । यह गुरुवत् पूज्य है : तथोपदेष्टारमपि पूजयेच्च ततो गुरुम् । न पूज्यते गुरुयंत्र नरैस्तत्राफला क्रिया ।। (बृहस्पति) [उपदेशक गुरु की वैसी ही पूजा करनी चाहिए जैसे गुरु की। जहाँ मनुष्य गुरु की पूजा नहीं करते वहाँ क्रिया विफल होती है।] उपधर्म-हीन धर्म अथवा पाखण्ड । मनुस्मृति ( २.३३७) में कथन है : एष धर्मः परः साक्षाद् उपधर्मोऽन्य उच्यते । [ यह साक्षात् परम धर्म है और अन्य (इससे विरुद्ध) उपधर्म कहा गया है। ] उपधा-राजाओं द्वारा गुप्त रूप से मन्त्रियों के चरित्र की परीक्षा । प्राचीन राजशास्त्र में उपधाशुद्ध मन्त्रीगण श्रेष्ठ या विश्वस्त माने जाते थे। उपधि-छल, धोखा, कपट : 'यत्र वाप्यपधि पश्येत तत्सर्वं विनिवर्तयेत ।' [जहाँ कपटपूर्वक कोई वस्तु बेंची या दी गयी हो वह सब लौटवा देनी चाहिए । ] किरात० (१,४५) में भी कहा गया है : अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि सन्धिदूषणानि । [विजय का इच्छुक राजा कपटपूर्वक शत्रुओं के साथ की हुई सन्धि को भङ्ग कर देता है । ] उपनय-विशेष कर्मानुष्ठान के साथ गुरु के समीप में ले जाना । यथा : गृह्योक्तकर्मणा येन समीपं नीयते गरोः । बालो वेदाय तद्योगाद् बालस्योपनयं विदुः ।। (स्मृति) [ वेदज्ञान के लिए गृह्यसूत्र में कहे गये कर्म के द्वारा बालक को जो गुरु के पास लाया जाता है उसे उपनय कहते हैं।] तकशास्त्र में हेतु के बल से किसी निश्चय पर पहुँचना भी उपनय कहलाता है। उपनयन-एक धार्मिक कृत्य, जिसके द्वारा बालक को आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए ले जाते हैं। इसके कई पर्याय हैं-(१) वटूकरण, (२) उपनाय, (३) उपनय, (४) आनय आदि । संसार की सभी जातियों में बालक को जाति की सांस्कृतिक सम्पत्ति में प्रवेश कराने के लिए कोई न कोई संस्कार होता है। हिन्दुओं में इसके लिए उपनयन संस्कार है । ऐसा माना जाता है कि इससे बालक का दूसरा जन्म होता है और इसके पश्चात् वह सूक्ष्म ज्ञान और संस्कार को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है । माता-पिता से जन्म शारीरिक जन्म है। आचार्यकुल (गरुकुल) में ज्ञानमय जन्म बौद्धिक जन्म है। मनुस्मृति (२.१७०) में कथन है : तत्र यद् ब्रह्मजन्मास्य मौजीबन्धनचिह्नितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते ।। [ मुंज की करधनी से चिह्नित बालक का जो ब्रह्म(ज्ञान) जन्म है, उसमें उसकी माता सावित्रो (गायत्री मन्त्र) और पिता आचार्य कहा जाता है। ] इस संस्कार से बालक 'द्विज' (दो जन्म वाला) होता है । जो जड़ता अथवा मूढ़ता से यह संस्कार नहीं कराता वह व्रात्य अथवा वृषल है। उपनयन का उद्देश्य है बालक के ज्ञान, शौच और Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ उपनयन आचार का विकास करना। इस सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य- कुमारस्योपनयनं श्रुताभिजनवृत्तवान् । स्मृति (१.१५) का कथन है : तपसा धूतनिःशेषपाप्मा कुर्याद् द्विजोत्तमः ॥ शौनक उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्वकम् । सत्यवाग् धृतिमान् दक्षः सर्वभूतदयापरः । वेदमध्यापयेदेनं शौचाचारांश्च शिक्षयेत् ।। आस्तिको वेदनिरतः शुचिराचार्य उच्यते ।। [गुरु को महाव्याहृति (भः भुवः स्वः) के साथ शिष्य वेदाध्ययनसम्पन्नो वृत्तिमान् विजितेन्द्रियः । का उपनयन करके उसको वेदाध्ययन कराना तथा शौच दक्षोत्साही यथावृत्तजीवनेहस्तु वृत्तिमान् ।। यम और आचार की शिक्षा देनी चाहिए । ] विभिन्न वर्ण के संस्कार सम्पन्न करने के लिए किसी उपयुक्त समय बालकों के उपनयनार्थ विभिन्न आय का विधान है; का चुनाव किया जाता है । प्रायः उपनयन जब सूर्य ब्राह्मणबालक का उपनयन आठवें वर्ष में, क्षत्रियबालक उत्तरायण में (भूमध्य रेखा के उत्तर) रहता है तव किया का ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यबालक का बारहवें वर्ष में होना जाता है । परन्तु वैश्य बालक का उपनयन दक्षिणायन में चाहिए । दे० पारस्करगृह्यसूत्र, २.२; मनुस्मृति, २.३६; भी हो सकता है । विभिन्न वर्गों के लिए विभिन्न ऋतुएँ याज्ञवल्क्यस्मृति, १.११ । इस अवधि के अपवाद भी पाये निश्चित है। ब्राह्मण बालक के लिए वसन्त, क्षत्रिय जाते हैं । प्रतिभाशाली बालकों का उपनयन कम आयु में बालक के लिए ग्रीष्म, वैश्य बालक के लिए शरद तथा भी हो सकता है। ब्रह्मवर्चस की कामना करने वाले रथकार के लिए वर्षा ऋतु निर्धारित हैं। ये विभिन्न ब्राह्मण बालक का उपनयन पाँचवें वर्ष में हो सकता है। ऋतुएँ विभिन्न वर्गों के स्वभाव तथा व्यवसाय को उपनयन की अन्तिम अवधि ब्राह्मण बालक के लिए सोलह प्रतीक हैं। वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए बाईस वर्ष और वैश्य बालक । संस्कार के आरम्भ में क्षौरकर्म (मुण्डन) और स्नान के लिए चौबीस वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति निर्धारित अंतिम के पश्चात् बालक को गुरु की ओर से ब्रह्मचारी के अनुअवधि के पश्चात् भी अनुपनीत रह जाय तो वह सावित्री कूल परिधान दिये जाते हैं। उनमें प्रथम कौपीन है जो पतित, आर्यधर्म से विहित, ब्रात्य हो जाता है। मनु गुप्त अङ्गों को ढकने के लिए होता है। शरीर के सम्बन्ध (२.३९) का कथन है : में यह सामाजिक चेतना का प्रारम्भ है। मन्त्र के साथ अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः । आचार्य कौपीन तथा अन्य वस्त्र देता है। इसके साथ ही सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविहिताः ।। ब्रह्मचारी को मेखला प्रदान की जाती है। इसकी उपपरन्तु व्रात्य हो जाने के पश्चात् भी आर्य समाज योगिता शारीरिक स्फूर्ति और आन्त्रजाल की पुष्टि के (शिष्ट समाज) में लौटने का रास्ता बन्द नहीं हो जाता, लिए होती है। व्रात्यस्तोम नामक प्रायश्चित्त करके पुनः उपनयनपूर्वक समाज में लौटने का विधान है : मेखला के पश्चात् ब्रह्मचारी को यज्ञोपवीत पहनाया तेषां संस्कारेप्सुत्यिस्तोमेनेष्ट्वा काममधीयीत । जाता है । यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि आजकल उपनयन (पारस्करगृह्यसूत्र २.५.५४) संस्कार का नाम ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया है । यज्ञइसके लिए आचार्य का निर्वाचन बड़े महत्त्व का है। उपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के समय पहना हुआ ऊपरी उपनयन का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति और चरित्र का निर्माण वस्त्र ।' वास्तव में यह यज्ञवस्त्र ही था जो संक्षिप्त है। यदि आचार्य ज्ञानसम्पन्न और सच्चरित्र न हो तो प्रतीक के रूप में तीन सूत्र मात्र रह गया है। वह शिष्य के जीवन का निर्माण नहीं कर सकता। 'जिसको इसी प्रकार मृगचर्म, दण्ड आदि भी उपयुक्त मन्त्रों के अविद्वान् आचार्य उपनीत करता है वह अन्धकार से अन्ध- साथ प्रदान किये जाते हैं । कार में प्रवेश करता है । अतः कुलीन, विद्वान तथा आत्म- ब्रह्मचारी को परिधान समर्पित करने के पश्चात कई संयमी आचार्य की कामना करनी चाहिए।' दे० 'उप- ___ एक प्रतीकात्मक कर्म किये जाते हैं । पहला है आचार्य द्वारा निषद्' । स्मृतियों में आचार्य के गुणों पर विशेष बल अपनी भरी हुई अञ्जलि से ब्रह्मचारी की अञ्जलि में दिया गया है :. जल डालना, जो शुचिता और ज्ञान-प्रदान का प्रतीक है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपन्यास-उपनिषद् दूसरा है ब्रह्मचारी द्वारा सूर्यदर्शन । यह नियम, व्रत उपनिषद्-यह शब्द 'उप + नि+ सद् + विवप्' से बना और उपासना का प्रतीक है । है, जिसका अर्थ है (गुरु) के निकट (रहस्यमय ज्ञान की ___ इन प्रतीकात्मक क्रियाओं के बाद आचार्य बालक को प्राप्ति के लिए) बैठना ।' अर्थात् उपनिषद् वह साहित्य ब्रह्मचारी के रूप में स्वीकार करता है और पूछता है, है जिसमें जीवन और जगत् के रहस्यों का उद्घाटन, "तू किसका विद्यार्थी है ?" वह उत्तर देता है, निरूपण तथा विवेचन है। वैदिक साहित्य के चार भाग "आपका ।" आचार्य संशोधन करते हुए कहता है, "तू हैं-(१) मन्त्र अथवा संहिता, (२) ब्राह्मण, (३) आरइन्द्र का ब्रह्मचारी है । अग्नि तेरा आचार्य है। मैं तेरा ण्यक तथा (४) उपनिषद् । उपनिषद् वैदिक साहित्य का आचार्य हूँ।" अन्तिम भाग अथवा चरम परिणति है। मन्त्र अथवा संहिताओं में मूलतः कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और उपासना यज्ञोपवीत के समान सावित्री (गायत्री मन्त्र भी उप का प्रतिपादन हुआ है। इन्हीं विषयों का ब्राह्मणों और नयन संस्कार का एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। यह शैक्षणिक तथा बौद्धिक जीवन का मलमन्त्र है। सावित्री उपनिषदों में विस्तार तथा व्याख्यान हुआ है। ब्राह्मणों में कर्मकाण्ड का विस्तार एवं व्याख्यान है, आरण्यक को ब्रह्मचारी की माता कहा गया है। आचार्य सावित्री एवं उपनिषदों में ज्ञान और उपासना का। वैदिक साहित्य मन्त्र का उच्चारण ब्रह्मचारी के सामने करता है : का अन्तिम भाग होने से उपनिषदें वेदान्त (वेद + अन्त) भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम्, भी कहलाती हैं, क्योंकि वेदों के अन्तिम ध्येय ब्रह्म का भर्गो देवस्य धीमहि, उनमें निरूपण है। वेदान्तदर्शन के तीन प्रस्थान हैंधियो यो नः प्रचोदयात् ॥ उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता। इनमें उपनिषद् का प्रथम [ यह है (अस्ति)। यह समृद्धि और प्रकाशस्वरूप है। स्थान है। हम सविता (समस्त सृष्टि को उत्पन्न करने वाले) देव के प्रत्येक वेद की संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक तथा शुभ्र तेज को धारण करते हैं। वह हमारी बुद्धि को उपनिषद् भिन्न-भिन्न होती हैं। ऐसा कहा जाता है कि प्रदीप्त करे।] चारों वेदों की एक सहस्र एक सौ अस्सी उपनिषदें है__सावित्री के उपदेश के पश्चात आहवनीय अग्नि में। परन्तु इस समय सभी उपलब्ध नहीं हैं । प्रमुख बारह उपआहति, भिक्षाचरण, त्रिरात्र व्रत, मेधाजनन आदि व्रतों निषदें हैं-(१) ईशावास्य (२) केन (३) कठ (४) प्रश्न का ब्रह्मचारी के लिए विधान है । ये सभी शैक्षणिक एवं (५) मुण्डक (६) माण्डूक्य (७) तैत्तिरीय (८) ऐतरेय बौद्धिक महत्त्व के है । उपनयन संस्कार के सभी अङ्ग (९) छान्दोग्य (१०) बृहदारण्यक (११) कौषीतकि और मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे । (१२) श्वेताश्वतर । इन पर आचार्य शङ्कर के प्रामाणिक ब्रह्मचारी अनुभव करता है कि उसके जीवन में एक नव- भाष्य हैं। अन्य आचार्यों-रामानुज, मध्व, निम्बार्क, युग का प्रादुर्भाव हो रहा है, जहाँ उसके बौद्धिक एवं वल्लभ आदि ने भी अपने-अपने साम्प्रदायिक भाष्य इन भावनात्मक विकास की अनन्त सम्भावना है। पर लिखे हैं। सभी सम्प्रदाय अपने मत का मूल उपनिउपन्यास-वास्योपक्रम, परिचयात्मक वचन, आरम्भिक षदों में ही ढूढ़ते है। अतः अपने सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा के लिए प्रत्येक आचार्य को उपनिषदों पर भाष्य लिखना वस्तुवर्णन, यथा आवश्यक हो गया था। मुख्य उपनिषदों का परिचय नीचे 'ब्रह्मजिज्ञासोपन्यासमुखेन ।' (शारीरक भाष्य) दिया जा रहा है : [ब्रह्मजिज्ञासा के प्राथमिक उल्लेख द्वारा। इसका १. ईशावास्य-इस उपनिषद् का यह नाम इस दूसरा अर्थ 'विचार' है, जैसा कि मनु ने कहा है : लिए है कि इसका प्रथम मन्त्र 'ईशावास्यमिदं सर्वम्...' विश्वजन्यमिमं पुण्यमपन्यासं निबोधत । से प्रारम्भ होता है। यह यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय [ कहे जा रहे, सर्वजनहितकारी पवित्र विचार है। इसमें सब मिलाकर केवल अठारह मन्त्र हैं। परन्तु को सुनो।] संक्षेप से इनमें उपनिषदों के सभी विषयों का बहुत Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ प्रभावशाली ढंग से निरूपण हुआ है । अतः यह बहुत लोकप्रिय है। २. केनोपनिषद् - इसके नामकरण का कारण यह है कि इसका प्रारम्भ 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' वाक्य से होता है। यह सामवेद की जैमिनीय शाखा के ब्राह्मणग्रन्थ का नवम अध्याय है इसको 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी कहते हैं । इसका प्रतिपाद्य विषय ब्रह्मतत्त्व है। इसके अनुसार जो ब्रह्मतत्त्व जान लेता है वह सभी बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है । । ३. कठोपनिषद् - कृष्णयजुर्वेद की कठशाला के अन्त र्गत यह उपनिषद् आती है । इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं । इसका प्रारम्भ नचिकेता की कथा से होता है, जिसमें श्रेय और प्रेय का सुन्दर विवेचन है। ४. प्रश्नोपनिषद् - अथर्ववेद की पिप्पलाद संहिता के ब्राह्मणग्रन्थ का एक अंश प्रश्नोपनिषद कहलाता है । इसमें प्रश्नोत्तर के रूप में प्रातत्व का निरूपण किया गया है । इसीलिए इसका यह नामकरण हुआ । ५. मुण्डकोपनिषद् - अथर्ववेद की शौनक शाखा का एक अंश मुण्डकोपनिषद् है। इसमें तीन मुण्डक और प्रत्येक मुण्डक में दो-दो अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा ब्रह्मतत्व इसके विचारणीय विषय है। ६. माण्डूक्योपनिषद् - यह अथर्ववेद की एक संक्षिप्त उपनिषद् है । इसमें केवल बारह मन्त्र हैं । इसमें 'ओंकार' के महत्व का निरूपण है । उपनिषद् है । ब्राह्मणग्रन्थ के ७. तैत्तिरीयोपनिषद् - यह यजुर्वेदीय कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के अन्तिम भाग को 'तैत्तिरीय आरण्यक' कहते हैं। यह आरण्यक दस प्रपाठकों में विभाजित है। इनमें से सात से नौ तक के प्रपाठकों को तैत्तिरीय उपनिषद् कहते हैं । उपर्युक्त तीन प्रपाठकों के क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली नाम हैं । प्रथम वल्ली में शिक्षा का माहात्म्य, दूसरी में ब्रह्मतत्त्व का निरूपण तथा तीसरी में वरुण द्वारा अपने पुत्र को उपदेश हैं । ८. ऐतरेयोपनिषद् - यह ऋग्वेदीय उपनिषद् है। ऋग्वेद के 'ऐतरेय ब्राह्मण' के पांच भाग है जिनको पाँच आर व्यक की संज्ञा दी गयी है। इसके द्वितीय आरण्यक के चतुर्थ से षष्ठ- तीन अध्यायों को ऐतरेयोपनिषद् कहते उपनिषद् हैं । इन तीन अध्याओं में क्रमशः सृष्टि जीवात्मा और ब्रह्मतत्व का निरूपण है । ९. छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद की कौथुमी शाखा के तीन ब्राह्मण हैं - ( १ ) ताण्डव, (२) पवंश और (३) मन्त्र । इन्हीं के अन्तिम आठ अध्याय छान्दोग्य ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य उपनिषद् कहलाते हैं । ये आठ अध्याय बहुत विस्तृत हैं अतः यह उपनिषद् बहुत विशाल है । १०. बृहदारण्यकोपनिषद् -- शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं। उन दोनों का ब्राह्मणग्रन्व 'शतपथ' हैं। इसके अन्तिम छ: अध्यायों को वृहदारण्यक या बृहदारण्य कोपनिषद् कहते हैं । इसका 'बृहत्' नाम अन्वर्थ है, क्योंकि आकार में यह सबसे बड़ी उपनिषद् है। इसमें भी सृष्टि और ब्रह्म का विस्तार से निरूपण किया गया है । है। ११. कौषीतकि उपनिषद् - यह ऋग्वेदीय उपनिषद् वेद के कोपीतकि ब्राह्मण का एक भाग आर यक कहा जाता है, जिसमें पन्द्रह अध्याय हैं । इनमें से तीसरे और छठे अध्याय को मिलाकर कौषीतकि उपनिषद् कही जाती है। कुक्षीतक नामक ऋषि ने इसका उपदेश किया था, अतः इसका नाम 'कौषीतकि' पड़ा। इसका एक दूसरा नाम कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् भी है। यह भी एक बृहदाकार उपनिषद् है । १२. श्वेताश्वतरोपनिषद् - यह कृष्ण यजुर्वेद की उपनिषद् है और इस वेद के श्वेताश्वतर ब्राह्मण का एक भाग है। इसमें छ: अध्याय हैं जिनमें ब्रह्मविद्या का बहुत हृदयग्राही विवेचन पाया जाता है । इन उपनिषदों के अतिरिक्त बहुसंख्यक परवर्ती उपनिपदें हैं। एक परवर्ती उपनिषद् मुक्तिकोपनिषद् में १०८ उपनिषदों की सूची है । इन सभी उपनिषदों का संग्रह निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से गुटका के रूप में प्रका शित है। अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित उपनिषद् संग्रह में १७९ उपनिषदें हैं । बम्बई के गुजराती प्रिंटिंग प्रेस से प्रकाशित 'उपनिषद्वाक्यमहाकोश' में २२३ उपनिषद्ग्रन्थों का नामोल्लेख है । उपनिषदों को कालक्रम के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है( १ ) प्राचीन उपनिषद् और ( २ ) परवर्ती उपनिषद् | प्राचीन वैदिक शाखाओं पर आधारित है; परवर्ती साम्प्र दायिक हैं। मध्य युग में धार्मिक सम्प्रदायों ने अपनी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषद्-उपपुराण ११९ प्राचीनता सिद्ध करने के लिए अनेक उपनिषदों की उपनिषदालोक-'श्वेताश्वतर' एवं 'मैत्रायणीयोपनिषद्' रचना की। यजुर्वेद की हो उपनिषदें कही जाती हैं । इन पर आचार्य उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय उपासना और ज्ञान है।। विज्ञानभिक्षु ने 'उपनिषदालोक' नाम की विस्तृत टीका जैसा कि लिखा जा चुका है, ब्राह्मणों में संहिताओं के लिखा है। कर्मकाण्ड का विस्तार और व्याख्यान हुआ है। इसी उपनीत–जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है । उपनीत प्रकार उपनिषदों में संहिताओं के उपासना और ज्ञान होने के पूर्व बालक के शौचाचार के नियम सरल होते हैं । काण्ड का विस्तार और विकास हुआ है। ब्राह्मण और उपनयन के पश्चात् उसको ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का उपनिषद् एक दूसरे के पूरक हैं। उपनिषदों ( ईशावास्य पालन करना होता है। स्मृतियों में अनुपनीत की छूटों और मुण्डक ) में ही दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख और उपनीत के नियमों की विस्तृत सूचियाँ पायी है-(१) परा और (२) अपरा । 'परा' विद्या ब्रह्मविद्या जाती हैं। है, जिसका उपनिषदों में मुख्य रूप से विवेचन है। परन्तु उपपति-अवैध या गुप्त पति, जार, आचारहानि का 'अपरा' विद्या के बारे में कहा गया है कि लोकयात्रा के कारण पति । उपपति की निन्दा की गयी है और परस्त्रीलिए यह आवश्यक है और संहिताओं, ब्राह्मणों तथा गमन के लिए उसको प्रायश्चित्ती बतलाया गया है। वेदाङ्गों में इसका निरूपण हुआ है। 'परा' अथवा ब्रह्म उपपत्ति-किसी नियम की सङ्गति अथवा समाधान । विद्या के अन्तर्गत आत्मा, ब्रह्म, जगत्, बन्ध, मोक्ष, सिद्धान्त प्रकरण के प्रतिपाद्य अर्थ की सिद्धि के लिए कही मोक्ष के साधन आदि का सरल, सुबोध किन्तु रहस्यमय जाने वाली युक्ति को भी उपपत्ति कहते हैं । वेदान्तसार शैली में उपनिषदें निरूपण करती हैं । में कहा है : श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । उपनिषत्प्रस्थान-मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ । इसमें उप [आत्मा को वेदवाक्यों से सुनना चाहिए, युक्तियों से निषदों के आधार पर द्वैत मत का प्रतिपादन किया मानना चाहिए। गया है। उपपातक-पतन करने वाला कर्म, जो नरक में गिराता है, उपनिषदब्राह्मण----'उपनिषद्ब्राह्मण' और 'आश्रेयब्राह्मण' अथवा पाप के साथ जिसकी उपमा की जाय । विशेष पापों दोनों ही 'जैमिनीय' अथवा 'तलवकारब्राह्मण' में सम्मि को भी उपपातक कहते है, ये उनचास प्रकार के हैं : (१) लित है, जो सामवेद की तलवकार शाखा से सम्बन्धित हैं। गोधनहरण, (२) अयाज्ययाजन, (३) परदारगमन, (४) उपनिषद्भाष्य-शङ्कराचार्य के रचे हुए ग्रन्थों में 'उपनिषद्- आत्मविक्रय, (५) गुरुत्याग, (६) पितत्याग आदि उपपाभाष्य' प्रसिद्ध हैं । जिन उपनिषदों का भाष्य उन्होंने तक होते हैं। लिखा ह व ह : इश, कन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, उपपुराण-अठारह पुराणों के अतिरिक्त अनेक उपपुराण ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वता भी हैं, जिनकी वर्णनसामग्री एवं विषय पुराणों के सदृश पनीय तथा श्वेताश्वतर । शङ्कराचार्य के समान ही मध्वाचार्य ही हैं । निम्नाङ्कित उपपुराण प्रसिद्ध हैं : ने भी दस उपनिषदों (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डू १. सनत्कुमार १०. कालिका क्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक) पर भाष्य २. नरसिंह ११. साम्ब लिखा है । इसी प्रकार रामानुजाचार्य आदि महानुभावों ३. बृहन्नारदीय १२. नन्दिकेश्वर के भी उपनिषद्भाष्य प्रसिद्ध हैं । ४. शिव अथवा शिवधर्म १३. सौर उपनिषन्मङ्गलदीपिका-दोद्दय भट्टाचार्य के रचे नौ ग्रन्थों ५. दुर्वासा १४. पाराशर में से एक । दोद्दय भट्टाचार्य रामानुज मतानुयायी एवं ६. कापिल १५. आदित्य अप्पय दीक्षित के समसामयिक थे । उनका काल सोलहवीं ७. मानव १६. ब्रह्माण्ड शताब्दी माना जाता है । इस ग्रन्थ में उपनिषदों के आधार ८. औशनस १७. माहेश्वर पर विशिष्टाद्वैत मत का निरूपण किया गया है। ९. वारुण १८. भागवत Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० उपभोग-उपरिचरवसु १९. वासिष्ठ २५. देवी ये माता के तुल्य ही पूजनीय हैं। इनका अनादर करने २०. कौम २६. बृहद्धर्म से पाप होता है। २१. भार्गव २७. परानन्द उपमान-न्यायदर्शन के अनुसार तीसरा प्रमाण । गौतम ने २२. आदि २८. पशुपति चार प्रमाण माने है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और २३. मुद्गल २९. हरिवंश शब्द । किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई २४. कल्कि वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है, वही उपमान है। वैष्णव लोग भागवत पुराण को उपपुराण न मानकर जैसे, "नीलगाय गाय के सदृश होती है।" महापुराण मानते हैं। उपयम-विवाह, पाणिग्रहण । दे० 'विवाह' । व्यासप्रणीत अठारह महापुराणों के सदृश अनेक मुनियों उपयाचित-इष्टसिद्धि के प्रयोजन से देवता के लिए देय द्वारा प्रणीत अठारह उपपुराण भी कहे गये हैं : वस्तु । उसका पर्याय है 'दिव्यदोहद ।' प्रार्थित वस्तु को भी अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कथितान्यपि । उपयाचित कहते हैं । आद्यं सनत्कुमारोक्तं नारसिंहं ततः परम् ॥ उपरतस्पृह-निःस्पृह, निष्काम, जिसकी धन आदि की तृतीयं वायवीयञ्च कुमारेण च भाषितम् । इच्छा समाप्त हो गयी है। धन रहने पर भी धन की चतुर्थ शिवधर्माख्यं साक्षान्नन्दीशभाषितम् ।। इच्छा से रहित व्यक्ति उपरतस्पृह कहा जाता है। यह दुर्वाससोक्तमाश्चर्य नारदीयमतः परम् । साधक का एक विशिष्ट गुण है। नन्दिकेश्वरयुग्मञ्च तथैवोशनसेरितम् ॥ उपरति-विरक्त होना, विरति । जैसे, मार्कण्डेय पुराण कापिलं वारुणं साम्बं कालिकायमेव च । (९१.८) में कहा है : माहेश्वरं तथा कल्कि दैवं सर्वार्थसिद्धिदम ।। 'विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि! नमोस्तु ते।' पराशरोक्तमपरम् प्रारीचं भास्कराह्वयम् । [विश्व की विरति में समर्थ हे नारायणि, तुमको [ मुनियों के द्वारा कहे गये अन्य उपपुराण हैं । सनत् नमस्कार है। ] जितेन्द्रियों की विषयों से उपरति एक साधन माना जाता है। कुमार द्वारा कहा गया प्रथम, नरसिंह द्वारा द्वितीय, कुमार द्वारा कहा गया वायवीय, साक्षात् नन्दीश द्वारा कहा गया उपराग-एक ग्रह पर दूसरे ग्रह की छाया, राहुग्रस्त चन्द्र, शिवधर्माख्य, दुर्वासा द्वारा कहा गया आश्चर्य, नारदीय, अथवा राहुग्रस्त सूर्य आदि। निकट में होने के कारण नन्दिकेश्वर, औशनस, कापिल, वारुण, साम्ब, कालिका, अपने गुणों का अन्य के गुणों में आरोप भी उपराग है । जैसे स्फटिकमणि के खम्भों में लाल फूलों के लाल रंग माहेश्वर, कल्कि, दैव, पाराशर, मारीच और सौरपुराण का आरोप । दुर्नय, व्यसन आदि भी इसके अर्थ हैं। ये अष्टादश उपपुराण कहे गये हैं। ] दे० कूर्मपुराण, उपरिचर वसु-पाश्चरात्र धर्म का प्रथम अनुयायी उपरिचर मलमासतत्त्व में उद्धृत । उपभोग-भोजन के अतिरिक्त भोग्यवस्तु । इसका पर्याय है। वसु था। इसकी कथा नारायणीय आख्यान में आयी है। निवेश। यह शान्तिपर्व के ३१४ वें अध्याय से ३५१ वें अध्याय न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । के अन्त तक वणित है। नारायणीयाख्यान शान्ति (मनु २.९४) पर्व का अन्तिम प्रतिपाद्य विषय है। वह बेदान्त आदि [ कभी भी काम की शान्ति कामों के उपभोग से नहीं मतों से भिन्न और अन्तिम ही माना गया है। इस मत हो सकती।] के मूल आधार नारायण हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर में उपमाता-माता के समान, धात्री । यह स्मृति में छः प्रकार सनातन विश्वात्मा नारायण से नर, नारायण, हरि और की कही गयी है : कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुई। नर-नारायण ऋषियों ने मातुःष्वसा मातुलानी पितृव्यस्त्री पितृष्वसा । बदरिकाश्रम में तप किया । नारद ने वहाँ जाकर उनसे श्वश्रूः पूर्वजपत्नी च माततुल्याः प्रकीर्तिताः ।। प्रश्न किया। उत्तर में उन्होंने यह पाञ्चरात्र धर्म सुनाया। [ माता की बहिन, मामी, चाची, पिता की बहिन, इस धर्म का पहला अनुयायी राजा उपरिचर वसु था । सास, बड़े भाई की पत्नी ये माता के समान होती हैं। ] इसी ने पाञ्चरात्र विधि से नारायण की पूजा की। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलेख-उपवेद १२१ उपलेख-ऋक्संहिता का एक प्रातिशाख्य सूत्र शौनक का बनाया कहा जाता है। प्रातिशाख्य सूत्र के आधार पर निर्मित 'उपलेख' नामक एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। इसको प्रातिशाख्य सूत्र का परिशिष्ट भी कहते हैं। उपलेखसूत्र-शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेखसुत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था, उसको देखकर उठवटाचार्य ने एक विस्तृत भाष्य लिखा है। उपवर्ष-आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहीं-कहीं उपवर्ष नामक एक प्राचीन वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार ने दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्तिग्रन्थ बनाये थे, ऐसा प्रतीत होता है। पण्डित लोग अनुमान करते हैं कि ये 'भगवान् उपवर्ष' वे ही हैं जिनका उल्लेख शबर भाष्य ( मी० सू० १.१.५ ) में स्पष्टतः किया गया है। शङ्कर कहते हैं (ब्र० सू० ३.३.५.३) कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसा वृत्ति में कहीं-कहीं पर 'शारीरक सूत्र' पर लिखी गयी वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है। ये उपवर्षाचार्य शबर स्वामी से पहले हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु कृष्णदेवनिर्मित 'तन्त्रचूडामणि' ग्रन्थ में लिखा है कि शबर भाष्य के ऊपर उपवर्ष की एक वृत्ति थी। कृष्णदेव के वचन का कोई मूल्य है या नहीं यह कहना कठिन है। यदि उनका वचन प्रामाणिक माना जाय, तो इस उपवर्ष को प्राचीन उपवर्ष से भिन्न मानना पड़ेगा। वेदान्तदेशिक (श्रीवैष्णव) ने अपनी तत्त्वटीका में बोधायनाचार्य का द्वितीय नाम उपवर्ष प्रतिपादित किया है। शबर स्वामी ने भी बोधायनाचार्य का उल्लेख उपवर्ष नाम से किया है। उपवसथ-निवास स्थान, जहाँ पर आकर बसते हैं। शतपथ ब्राह्मण (११.१.७) में कथन है 'तेऽस्य विश्वेदेवा गृहानागच्छन्ति तेऽस्य गृहेषूपवसन्ति स उपवसथः ।' उपवास-एक धार्मिक व्रत, रात-दिन भोजन न करना । इसके पर्याय हैं उपवस्त, उपोषित, उपोषण, औपवस्त आदि । इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है : उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ।। [पाप से निवृत्त होकर गुणों के साथ रहने को उपवास कहते हैं, जिसमें सभी विषयों का उपभोग वजित है।] __ इसका शाब्दिक अर्थ है ( उप+वास ) अपने आराध्य के समीप वास करना। इसमें भोजन-पान का त्याग सहायक होता है, अतः इसे उपवास कहते है । उपवीत (यज्ञोपवीत)-एक यज्ञपरक धार्मिक प्रतीक, बायें कन्धे पर रखा हुआ यज्ञसूत्र यज्ञ, सूत्र मात्र । देवल ने कहा है : 'यज्ञोपवीतकं कुर्यात् सूत्राणि नवतन्तवः ।' [यज्ञोपवीत-सूत्र को नौ परतों का बनाना चाहिए।] यज्ञोपवीते द्वे धायें श्रौते स्मातें च कर्मणि । तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्रालाभेऽति दिश्यते ॥ [श्रौत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र के अभाव में तीन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए । ] वर्णभेद से मनु ( २. ४४ ) ने सूत्रभेद भी कहा है : कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम् ॥ [ब्राह्मण का यज्ञोपवीत कपास के सूत्र का, क्षत्रिय का शण के सूत्र का, और वैश्य का भेड़ के ऊन का होना चाहिए।] ___आगे चलकर कपास के सूत्र का यज्ञोपवीत सभी वर्गों के लिए विहित हो गया । दे० 'यज्ञोपवीत' । उपवेद-चरणव्यूह' में वेदों के चार उपवेद कहे गये हैं । ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र । परन्तु सुश्रुत, भावप्रकाश तथा चरक के अनुसार आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है । यह मत सुसंगत जान पड़ता है, क्योंकि अथर्ववेद में आयुर्वेद के तत्त्व भरे पड़े हैं। परिणामस्वरूप अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को ऋग्वेद का उपवेद मानना पड़ेगा। उपवेदों का अध्ययन भी प्रत्येक वेद के साथ-साथ वेद के ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक है। चारों उपवेद चार विज्ञान हैं । अर्थशास्त्र में वार्ता अर्थात् लोकयात्रा [विश्वेदेव इसके घर में आते हैं, वे उसके घर में रहते हैं, उसे उपवसथ कहते हैं। ] याग का पूर्वदिन भी उपवसथ कहलाता है। इस दिन यम-नियम ( उपवास आदि ) के द्वारा यज्ञ की तैयारी की जाती है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उपशम-उपाङ्गललिताव्रत का सारा विज्ञान है और समाजशास्त्र के सङ्गठन और प्रमीत, प्रोक्षित, मृत आदि । पाक क्रिया द्वारा रूप, रस राष्ट्रनीति का कथन है। धनुर्वेद में सैन्यविज्ञान, युद्ध- आदि से सम्पन्न व्यञ्जन भी उपसम्पन्न कहा जाता है। क्रिया, व्यक्ति एवं समष्टि सबकी रक्षा के साधन और उसके पर्याय है प्रणीत, पर्याप्त, संस्कृत । मनु (५.८१) उनके प्रयोग की विधियाँ दी हुई हैं। गान्धर्ववेद में संगीत में मृत के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है : का विज्ञान है जो मन के उत्तम से उत्तम भावों को उद्दीप्त श्रोत्रिये तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत् । करने वाला और उसकी चञ्चलता को मिटाकर स्थिररूप [श्रोत्रिय ब्राह्मण के मर जाने पर तीन दिन तक से उसे परमात्मा के ध्यान में लगा देने वाला है । लोक ___अपवित्रता रहती है।] में यह कला कामशास्त्र के अन्तर्गत है, परन्तु वेद में उपाकरण-संस्कारपूर्वक वेदों का ग्रहण । इसका अर्थ मोक्ष के उपायों में यह एक प्रधान साधन है। आयुर्वेद में 'संस्कारपूर्वक पशओं को मारना' भी है। आश्वलायन रोगी शरीर और मन को स्वस्थ करने के साधनों पर श्री० सू० (१०.४) में कथन है : साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। इस प्रकार ये चारों "उपाकरण कालेऽश्वमानीय ।" विज्ञान चारों वेदों के आनुङ्गिक सहायक है। [संस्कार के समय में घोड़े को (बलिदानार्थ) लाकर।] उपशम-अन्तःकरण की स्थिरता। इसके पर्याय हैं शम, उपाकृत-संस्कारित बलिपशु, यज्ञ में अभिमन्त्रित करके शान्ति, शमथ, तृष्णाक्षय, मानसिक विरति । मारा गया पशु । धर्मशास्त्र में कथन है : प्रबोधचन्द्रोदय में कहा गया है : 'अनुपाकृतामांसानि देवान्नानि हवींषि च ।' 'तथायमपि कृतकर्तव्यः संप्रति परमामुपशमनिष्ठां प्राप्त : ।' [अनभिमंत्रित मांस, देव-अन्न तथा हविष् (अग्राह्य [यह भी कृतकृत्य होकर इस समय अत्यन्त तृष्णाक्षय को प्राप्त हो गया है । ] उपागम-शैव आगमों में से प्रत्येक के कई उपागम हैं। उपश्र ति-प्रश्नों के दैवी उत्तर को सुनना। हारावली में आगम अट्ठाईस हैं और उपागमों की संख्या १९८ है । कहा है: उपाग्रहण-उपाकरण, संस्कारपूर्वक गुरु से वेद ग्रहण नक्तं निर्गत्य यत् किञ्चिच्छुभाशुभकरं वचः । (अमर-टीका में रायमुकुट)। श्रूयते तद्विदुर्धीरा दैवप्रश्नमुपश्रुतिम् ॥ उपाङ्ग-वेदों के उपांगों में प्राचीन प्रमाणानुसार पहला [ रात्रि में घर से बाहर जाकर जो कुछ भी शुभ या उपाङ्ग इतिहास-पुराण है, दुसरा धर्मशास्त्र, तीसरा न्याय अशुभ वाक्य सुना जाता है, उसे विद्वान् लोग प्रश्न का और चौथा मीमांसा। इनमें न्याय और मीमांसा की दैवी उत्तर उपश्रु ति कहते हैं । यह एक प्रकार का एकान्त गिनती दर्शनों में है, इसलिए इनको अलग-अलग दो में चिन्तन से प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभूति है। इसलिए उपाङ्ग न मानकर एक उपाङ्ग 'दर्शन' के नाम से रखा श्रुति अथवा शब्दप्रमाण के साथ ही इसको भी उपश्रुति- गया और चौथे की पूर्ति तन्त्रशास्त्र से की गयी। प्रमाण (यद्यपि गौण) मान लिया गया है। मीमांसा और न्याय ये दोनों शास्त्र शिक्षा, व्याकरण और उपसद्-अग्निविशेष । अग्निपुराण के गणभेद नामक निरुक्त के आनुषङ्गिक (सहायक) हैं। धर्मशास्त्र श्रौतसूत्रों अध्याय में कथन है : का आनुषङ्गिक है और पुराण ब्राह्मणभाग के ऐतिगाहपत्यो दक्षिणाग्निस्तथैवाहवनीयकः । हासिक अंशों का पूरक है। एतेऽग्नयस्त्रयो मुख्याः शेषाश्चोपसदस्त्रयः ।। चौथा उपाङ्ग तन्त्र शिवोक्त है। प्रधानतः इसके तीन [ गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय ये तीन अग्नियाँ विभाग है-आगम, यामल और तन्त्र । तन्त्रों में प्रायः मुख्य हैं। उन्हीं विषयों का विस्तार है, जिनपर पुराण लिखे गये यह एक यज्ञभेद भी है। आश्वलायनश्रौतसूत्र (४.८. हैं । साथ ही साथ इनके अन्तर्गत गुह्यशास्त्र भी है जो १) में उपसद नामक यज्ञों में इसका प्रचरण बतलाया दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा और किसी को बताया गया है। नहीं जाता। उपसम्पन्न-यज्ञ के लिए मारा गया पशु । उसके पर्याय हैं उपाङ्गललिताव्रत-यह आश्विन शुक्ल पञ्चमी को किया Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय-उपासन जाता है । इसमें ललितादेवी (पार्वती) की पूजा होती है । यह दक्षिण में अधिक प्रचलित है । उपाध्याय - जिसके पास आकर अध्ययन किया जाता है । अध्यापक, वेदपाठक मनु० (२.१४५) का कथन है एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः । योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ [ वेद के एक देश अथवा अङ्ग को जो वृत्ति के लिए अध्ययन कराता है उसे उपाध्याय कहते हैं । ] ऐसा भविष्य पुराण के दूसरे अध्याय में भी कहा है। चूंकि शुल्क ग्रहण करके जीविका के लिए उपाध्याय अध्यापन करते थे, इसलिए ब्राह्मणो में उनका स्थान ऊंचा नहीं था। कारण यह है कि ज्ञान विक्रय को भी वणिक् वृत्ति माना गया है : यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति । [ जिसका आगम ( शास्त्र - ज्ञान ) केवल जीविका के लिए है, उसे (विद्वान् लोग ) ज्ञान की दुकान करने वाला वणिक् कहते हैं । ] उपाध्याया - महिला अध्यापिका । यह अपने अधिकार से 'उपाध्याया' होती है, उपाध्याय की पत्नी होने के कारण नहीं । उपाध्याय की पत्नी को 'उपाध्यायानी' कहते हैं । उपाध्यायानी— उपाध्याय की पत्नी महाभारत (१०९.९६ ) में कथन है : स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छत् ।' [ उपाध्याय से इस प्रकार कहे जाने पर उसने उपाध्यायानी से पूछा ] गृहासक्त होने से इसको अध्यापन का अधिकार नहीं होता । उपाध्यायी— उपाध्याय की पत्नी, अध्यापकभार्या । उपाधि - धर्मचिन्ता धर्मपालनार्य सावधानी, कुटुम्बव्यापृत, आरोप, छल, उपद्रव । रामायण ( २.१११.२९) में कथन है : उपाधिर्न मया कार्या वनवासे जुगुप्सितः । [ वनवास में मैं छल, कपट नहीं करूँगा । ] तर्कशास्त्र में इसका अर्थ है 'साध्यव्यापकत्व होने पर हेतु का अव्यापकत्व होना ।' जैसे अग्नि धूमयुक्त हैं, यहाँ काष्ठ का गीला होना उपाधि है । इसका प्रयोजन व्यभिचार (लक्ष्य- अतीत ) का अनुमान शुद्ध करना है। उपाधिखण्डन - आचार्य मध्व ने 'उपाधिखण्डन' नामक १२३ ग्रन्थ में सिद्ध किया है कि ईश्वर और आत्मा का भेद पारमार्थिक है। औपाधिक भेदवाद अतिविरुद्ध और युक्तिहीन है । जयतीर्थाचार्य ने 'उपाधिखण्डन' की टीका लिखी है। इस ग्रन्थ में द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । उपाय—कार्यसिद्धि का साधन । धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुसार उपाय चार है--साम, दान, भेद और दण्ड । - राजनय में इन्हीं उपायों का प्रयोग किया जाता है । हिन्दू धर्म के अनुसार युद्ध के परिणाम जय और पराजय दोनों ही अनित्य हैं । अतः युद्ध का आश्रय कम से कम लेना चाहिए। जब प्रथम तीन उपाय- साम, दान और भेद असफल हो जायँ तभी दण्ड अथवा युद्ध का अवलम्बन करना चाहिए | इन उपायों का साधारणतः क्रमशः प्रयोग करना चाहिए । परन्तु विशेष परिस्थिति में चारों का साथ-साथ प्रयोग हो सकता है। उपायपद्धति — शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी अनुक्रमणी भी कात्यायन की रचना के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस प्रातिशाख्यसूत्र में शाकटायन, शाकल्य, गार्ग्य, कश्यप, दालभ्य जतुकण्यं, शौनक और औपशिति के नाम भी पाये जाते हैं । इस अनुक्रमणी की एक 'उपायपद्धति' नामक व्याख्या श्रीहल की बनायी हुई है । उपासक - पूजक; जो सेवा करता है; उपासना करनेवाला; पूज्य के समीप बैठकर उसका चिन्तन करने वाला । द्विजों का सेवक होने के कारण शूद्र को भी उपासक कहा गया है । साधारणतः किसी भी प्रकार की उपासना (ध्येय के निकट आसन) करने वाले को उपासक कहा जाता है। बौद्ध धर्म में बुद्ध के गृहस्थ अनुयायी को उपासक कहा जाता है । उपासन — गोरखनाथी मत के योगियों में हठयोग की प्रणाली अधिक प्रचलित है। इसके अनुसार शरीर की कुछ कायिक परिशुद्धि एवं निश्चित किये गये शारीरिक व्यायामों द्वारा 'समाधि' अर्थात् मस्तिष्क की सर्वोत्कृष्ट एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। इन्हीं शारीरिक व्यायामों को 'आसन' कहते हैं । पश्चात्कालीन योगी जबकि 'आसन' पर विश्वास करते थे, प्राचीन योगी 'उपासन' पर विश्वास करते थे। 'उपासन' उपासना का ही पर्याय है । इसका अर्थ है 'अपने आराध्य अथवा ध्येय के सान्निध्य में बैठना। इसके लिए भावात्मक अनुभूति Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मात्र आवश्यक है; किसी शारीरिक अथवा बौद्धिक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है । उपासना (१) वेद का अधिकांश भाग कर्मकाण्ड और उपासनाकाण्ड है, शेष ज्ञानकाण्ड है । कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के लिए है। उपासना और कर्म दोनों काण्ड मध्यम के लिए । कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों काण्ड उत्तम के लिए हैं । पर उत्तम अधिकारी कर्म और उपासना को निष्काम भाव से करता है । उपासना व्यक्ति का ब्रह्म के साथ व्यक्तिगत सान्निध्य है। अतः व्यक्तिगत योग्यता और अधिकार भेद से इसके अनेक मार्ग प्रचलित हैं। सभी उपासनापद्धतियों में कुछ बातें सामान्य रूप से सर्वनिष्ठ हैं, जैसे अपने उपास्य का भावात्मक बोध, उपास्य के सान्निध्य में जाने की उत्कण्ठा, सान्निध्य - भावना से आनन्द की अनुभूति अपने कल्याण के सम्बन्ध में आश्वासन | गीता ( ९.२२ ) में भगवान् कृष्ण ने कहा है : " अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। [ जो भक्तजन अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य उपा सना में रत पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं वह्न करता हूँ । ] (२) ईश्वर अथवा किसी अन्य देवता की सेवा का नाम भी उपासना है । उसके पर्याय हैं - ( १ ) वरिवस्या, (२) सुश्रूषा (३) परिचर्या और (४) उपासन | देवीभागवत में शक्ति उपासना की प्रशंसा में कहा गया है न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कस्यचित् । न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च ॥ गायभ्युपासना नित्या सर्वदेवः समीरिता । यया विना स्वधः पातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा ॥ [ विष्णु की नित्य उपासना करना वेदों में कहीं नहीं कहा गया । न विष्णु की दीक्षा और न शिव की दीक्षा ही नित्य है । किन्तु गायत्री की नित्य उपासना सब वेदों में कही गयी है, जिसके बिना ब्राह्मण का अधःपतन हो सकता है । ] उपासनाकाण्ड - वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों का प्रतिपादन है ( १ ) कर्मकाण्ड, (२) ज्ञानकाण्ड एवं (३) उपासनाकाण्ड । उपासनाकाण्ड ईश्वर - आराधना उपासना उबटाचार्य से सम्बन्ध रखता है, जिससे मनुष्य ऐहिक, पारलौकिक और पारमार्थिक अभीष्टों का सम्पादन कर सकता है। ऋग्वेद के सूक्तों में विशेष रूप से स्तुतियों की अधिकता है। ये स्तुतियां विविध देवताओं की हैं। जो लोग देवताओं की अनेकता नहीं मानते वे इन सब नामों (देवनामों) का अर्थ परब्रह्म परमात्मा का वाचक लगाते हैं । जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भी इन सब स्तुतियों को परमात्मापरक मानते हैं और कहते हैं कि ये सभी देवता और समस्त सृष्टि परमात्मा की विभूति है। इस लिए वे वरुण को जल के देवता, अग्नि को तेज के देवता, द्यौः को आकाश के देवता इत्यादि रूप से विश्व की शक्तियों के अधिपति परमात्मा की विभूति ही मानते हैं । जहाँ पृथिवी की स्तुति है, वहाँ पृथिवी के ही गुणों का वर्णन है। पृथिवी परमात्मा की सृष्टि और उसी की विभूति है पृथिवी की स्तुति के व्याज से परमात्मा की ही स्तुति की जाती है । ये स्तुतियाँ तथा उसके सम्बन्ध की प्रार्थनाएं उपासनाकाण्ड के अन्तर्गत है । उपेन्द्र - वामन (विष्णु ), इन्द्र के छोटे भाई । 'इन्द्र के पश्चात् उत्पन्न होने वाला ।' कश्यप ऋषि एवं अदिति माता से वामन रूप में इन्द्र के अनन्तर उत्पन्न होने के कारण विष्णु का नाम उपेन्द्र पड़ा । उपेन्द्रस्तोत्र - इसे कुछ विद्वान् तमिल देश में रचा गया मानते हैं, परन्तु समझा जाता है कि 'उपेन्द्रस्तोत्र' उत्तर की ही रचना है । किन्तु इसके रचयिता के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । उपोषण - उपवास; आहारत्याग । तिथितत्त्व में लिखा है। उपोषणं नवम्याच दशम्याचैव पारणम् । [ नवमी के दिन उपवास और दशमी के दिन पारण करना चाहिए ] दे० 'उपवास' उपोषित - उपवास का ही एक पर्याय । मनु (५.१५५) ने कहा है : नास्ति स्त्रीणां पृथम् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषितम् । [ स्त्रियों के लिए यज्ञ, व्रत, उपवास, मे अलग नहीं हैं । ] उबटाचार्य - यजुर्वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार निघण्टु के टीकाकार देवराज और भट्टभास्कर मिश्र ने अपने ग्रन्थों में माघवदेव भवस्वामी, गृहदेव, श्रीनिवास और उम्बट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे हैं । यह पता नहीं है कि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयद्वादशो-उमापति शिवाचार्य १२५ उब्बट ने ऋक्संहिता का कोई भाष्य किया है या नहीं, तपस्या से रोका । इसके अनन्तर उसका नाम ही उमा परन्तु उब्बट का शुक्ल यजुर्वेद संहिता पर एक भाष्य हो गया। ] पाया जाता है । इसके सिवा इन्होंने ऋप्रातिशाख्य और उमागुरु-पार्वती का पिता हिमालय। दक्ष प्रजापति के शुक्ल यजुर्वेदप्रातिशाख्य पर भी भाष्य लिखे हैं। यज्ञ में शिव की निन्दा सुनने से योग के द्वारा शरीर उभयद्वादशी-यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ त्यागने वाली सती हिमालय से मेनका के गर्भ में उत्पन्न होता है। इसके पश्चात् पौष शुक्ल से द्वादशी हुई । इस कथानक का पुराणों में विस्तृत वर्णन है। एक वर्षपर्यन्त कुल चौबीस द्वादशियों को इस व्रत का उमाचतुर्थी-माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का आचरण अनुष्ठान किया जाता है। इन तिथियों को विष्णु के होता है। इसमें उमा के पूजन का विधान है। पुरुष और चौबीस अवतारों ( केशव, नारायण आदि ) का पूजन विशेष रूप से स्त्रियाँ कुन्द के पुष्पों से भगवती उमा का किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड । पूजन करती तथा उस दिन व्रत भी रखती हैं । उभयनवमी-यह व्रत पौष शुक्ल नवमी को प्रारम्भ होता उमानन्द नाथ-दक्षिणमार्गी शाक्तों में तीन आचार्यों का है । इसमें एक वर्ष पर्यन्त चामुण्डा का पूजन होता है। नाम उनकी देवीभक्ति की दृष्टि से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न उपकरणों से देवी की प्रतिमा ये हैं नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ एवं उमानन्द का निर्माण करके भिन्न भिन्न नामों से उनकी पूजा की नाथ, जो एक छोटी गुरुपरम्परा उपस्थित करते हैं । जाती है। कतिपय दिवसों में महिष का मांस समर्पित तीनों में सबसे अधिक प्रसिद्ध भास्करानन्द नाथ थे जिनके करते हुए रात्रि में पूजन करने तथा प्रत्येक नवमी को शिष्य उमानन्द नाथ हुए । उमानन्द नाथ ने 'परशुरामकन्याओं को भोजन कराने का विधान है । दे० कृत्यकल्प- भार्गवसूत्र' पर एक व्यावहारिक भाष्य लिखा है । तरु का व्रतकाण्ड, २७४-२८२।। उमापति-उमा के पति शिव । महाभारत में कथन है : उभयसप्तमी-यह व्रत शुक्ल पक्ष की किसी सप्तमी में तप्यते तत्र भगवान् तपो नित्यमुमापतिः ।। प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में सूर्य वहाँ पर भगवान् शिव नित्य तपस्या करते हैं ।] देवता के पूजन का विधान है । एक मत के अनुसार यह उमापतिधर-कृष्णभक्ति शाखा के कवियों में उमापतिधर व्रत माघ शुक्ल सप्तमी से प्रारम्भ होना चाहिए । एक वर्ष का नाम भी उल्लेखनीय है । इन्होंने मैथिली एवं बंगला पर्यन्त प्रत्येक मास में सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन ___भाषा में कृष्ण-सम्बन्धी गीत लिखे हैं। ये तिरहुतनिवासी करने का विधान है । दे० भविष्योत्तर पुराण, ४७.१.२४ और विद्यापति के समकालीन थे। उभयैकादशी-यह व्रत मार्गशीर्ष की शुक्ल एकादशी से उमापति शिवाचार्य-तमिल शैवों में 'चार संतान आरम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में विष्णु आचार्य,' नाम प्रसिद्ध हैं। ये है मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, का भिन्न भिन्न नामों (जैसे केशव, नारायण आदि) मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति शिवाचार्य । उमापति से पूजन होता है । दे० व्रतार्क, २३३ ब-२३७ अ । गुर्जरों ब्राह्मण थे एवं चिदम्बर मन्दिर के पुजारी थे। ये मरइ में इस व्रत का नाम केवल 'उभय' है। ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य बन गये. जो शद्र थे। उमापति उमा-शिव की पत्नी, पार्वती। उमा का शाब्दिक अर्थ उनका उच्छिष्ट खाने के कारण जाति से बहिष्कृत हुए। है 'प्रकाश' । सर्वप्रथम केन उपनिषद् में उमा का उल्लेख किन्तु अपने सम्प्रदाय के ये बहुत बड़े आचार्य बन गये एवं हुआ है । यहाँ ब्रह्मा तथा दूसरे देवताओं के बीच माध्यम बहुत से ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया । इनमें से आठ के रूप में इनका आविर्भाव हुआ है। इस स्थिति में ग्रन्थ सिद्धान्तशास्त्रों में परिगणित हैं । वे हैं (१) शिववाक् देवी से इनका अभेद जान पड़ता है । प्रकाश, (२) तिरुअकुलपयन, (३) विनावेवा, (४) पोत्रपउमा शब्द की व्युत्पत्ति कुमारसम्भव में इस प्रकार क्रोदइ, (५) कोडिकवि, (६) नेविडुतूतु, (७) उण्मैनेऋदी हुई है : विलक्कम और (८) संकल्पनिराकरण । उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यांसुमुखी जगाम। उमामहेश्वरव्रत-(१) इसे प्रारम्भ करने की तिथि के ["उ”, “मा" यह कहकर माता (मेनका) ने उसे बारे में कई मत हैं । इसे भाद्रपद की पूर्णिमा से प्रारम्भ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ करना चाहिए, किन्तु चतुर्दशी को ही संकल्प कर लेना चाहिए। इसमें स्वर्ण अथवा रजत की शिव तथा पार्वती की प्रतिमाओं के पूजन का विधान है। यह कर्णाटक में अत्यन्त प्रसिद्ध है । (२) पूर्णिमा, अमावस्या, चतुर्दशी अथवा अष्टमी को इसे प्रारम्भ करना चाहिए। उमा तथा शिव का पूजन होना चाहिए । हविष्यान्न के साथ नक्त का भी विधान है । (३) अष्टमी अथवा चतुर्दशी तिथियों को प्रारम्भ करना चाहिये। व्रती को अष्टमी तथा चतुर्दशी को एक वर्षपर्यन्त उपवास रखना चाहिये । (४) मार्गशीर्ष मास की प्रथम तिथि, वही देवता । (५) मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरम्भ होना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त । वही देवता । दे० भवि ष्योत्तरपुराण, २३.१-२८, लिङ्गपुराण, पूर्वार्द्ध ८४ । व्रतार्क, हेमाद्रि, प्रखंड उमायामलतन्त्र - शाक्त साहित्य के कुलचूडामणि' एवं 'वामकेश्वर' तन्त्रों में तन्त्रों की तालिका है, जिसमें तीन प्रकार के तन्त्र उल्लिखित हैं-आठ भैरव, आठ बहुरूप एवं आठ यामल । यामल के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश एवं ग्रह यामल तन्त्र हैं । यामल शब्द यमल से बना है, जिसका अर्थ है 'जोड़ा' । इसका सन्दर्भ एक देवता तथा उसकी शक्ति के युगल सहयोग से है । उमावन-उमा के बिहार का काम्यक वन पुरविशेष उसके पर्याय है- (१) देवीकोट, (२) कोटिवर्ष (३) बाणपुर, (४) शोणितपुर | उमावन ( काम्यकवन) में ही शिव-पार्वती (उमा) का विवाहोत्तर विहार हुआ था । इस वन के सम्बन्ध में शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह स्त्री हो जायेगा। मनु के पुत्र इल भूल से इस वन में चले गये । वे शाप के कारण तुरन्त स्त्री 'इला' बन गये । उमासंहिता - शिवपुराण की रचना में कुल सात खण्ड है। इसका पाचवा खण्ड 'उमासंहिता' है। उमासुत - उमा के पुत्र कार्तिकेय या गणेश । उमा हैमवती - जिस प्रकार शिव ( गिरीवा) पर्वतों के स्वामी कहे जाते हैं, वैसे ही उनकी पत्नी पार्वती (पर्वतों की पुत्री) कहलाती हैं। शिव ने हिमालय की पुत्री उमा से विवाह उमायामलतन्त्र - उर्वरा किया । केनोपनिषद् (३.२५) में वे प्रथम बार उमा हैमवती कही गयी हैं, जिससे एक स्वर्गीय (दिव्य ) महिला का बोध होता है, जो ब्रह्मज्ञानसम्पन्ना हैं । स्पष्टतः, ये प्रथमतः एक स्वतन्त्र देवी थीं अथवा कम से कम एक दैवी शक्ति थीं, जो हिमालय का चक्कर लगाया करती थीं और पश्चात् उन्हें द्र की पत्नी समझा जाने लगा । केनोपनिषद् में उमा हेमवती ने देवताओं की शक्ति का उपहास करते हुए सभी शक्तियों के स्रोत ब्रह्म का प्रति पादन किया है । उमेश — उमा के पति, महादेव । उर्वरा - कृषि योग्य भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में होता आया है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में सिंचाई की सहायता से गहरी कृषि का उल्लेख मिलता है। खाद देने का भी वर्णन है । ऋग्वेद के अनुसार क्षेत्र भलीभाँति मापे जाते थे जिससे खेतों पर व्यक्तिगत स्वामित्व का पता चलता है। क्षेत्रों की विजय उर्वरा-सा 'उर्वरा जित्', 'क्षेत्र-सा' का भी उल्लेख है, साथ ही 'क्षेत्रपति' नामक एक देवता की कल्पना में 'उर्वरापति' एक मानवीय उपाधि का आरोप है। ऋग्वेद में क्षेत्रों का उल्लेख संतान के उल्लेख के साथ ही हुआ है तथा संहिताओं में 'क्षेत्राणि संजि' अर्थात् क्षेत्रों की विजय का उल्लेख है। क्षेत्रों से सीमित 1 । वेदों में साम्प्र सह स्वामित्व का पिशेल के मतानुसार क्षेत्र घास के होता था, जिसे खिल्ल या खिल्य कहते दायिक खेती का उल्लेख या सामूहिक उल्लेख नहीं मिलता । व्यक्तिगत स्वामित्व भी उत्तरकालीम है छान्दोग्य उप० में धन को व्यक्त करने वाले पदार्थों में क्षेत्र एवं घर कहे गये ( आयतनानि ) हैं । यवन लेखकों के उद्धरणों से भी व्यक्तिगत स्वामित्व का पता लगता है। प्रायः एक परिवार के सदस्य एक भूभाग में बिना विभाजन के सह स्वामित्व रखते थे। स्वामित्व के उत्तराधिकार सम्बन्धी नियमों का सूत्रों के पूर्व अस्तित्व नहीं था । शतपथ ब्राह्मण में पुरोहित को पारिश्रमिक रूप में भूमि दान करने का उल्लेख है । फिर भी भूमि एक विशेष धन थी जिसे आसानी से किसी को न तो दिया जा सकता था और न उसे त्यागा जा सकता था । उर्वशी - ( १ ) स्वर्गीय अप्सरा, जिसका उल्लेख संस्कृत साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है । सर्वप्रथम ऋग्वेद थे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उर्वशीकुण्ड-उशनस्उपपुराण १२७ में पुरूरवा-उर्वशी आख्यान में इसका धर्णन पाया जाता महामाये०' (भविष्योत्तर पुराण)। इस व्रत का उल्का है। ब्राह्मण ग्रन्थों में उर्वशी के ऊपर कई आख्यान है। नाम होने का कारण यह है कि व्रती अपने शत्रु को उल्का कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशीय' में तो वह नायिका जैसा भयंकर प्रतीत होता है । स्त्री यदि यह व्रत करे तो ही है। इन्द्र अपने किसी भी प्रतिद्वन्द्वी की तपस्या भङ्ग वह अपनी सपत्नी (सौत) के लिए उल्का सी प्रतीत करने के लिए मेनका, उर्वशी आदि अप्सराओं का उपयोग होगी। करता था। उलूक-उल्लू पक्षी, जो लक्ष्मी का वाहन माना गया है। (२) महान् व्यक्तियों को भी जो वश में कर ले, सांसारिक ऐश्वर्य बन्धन का कारण है, जो उसका स्वेच्छा अथवा नारायण महर्षि के ऊरु (जंघा) स्थान में वास करे से वरण करता है, वह पारमार्थिक दृष्टि से उलूक (मूर्ख) उसे उर्वशी कहते हैं । इसकी उत्पत्ति हरिवंश में कही है। लक्ष्मीप्राप्ति की मन्त्रसाधना में इस पक्षी का सहयोग गयी है । उसके अनुसार वह नारायण की जंधा का विदा- लिया जाता है । दे० 'उलूकतन्त्र' । रण करके उत्पन्न हुई थी। यह पक्षी अपनी उग्र बोली के लिए प्रसिद्ध है तथा इसे उर्वशीकुण्ड (चरणपादुका)-बदरीनाथ मन्दिर के पीछे नैऋत्य (दुर्भाग्य का सूचक) भी कहते हैं। पूर्व काल में पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका का स्थान आता है। जंगली वृक्षों को अश्वमेधयज्ञ में उलूक दान किये जाते थे, यहीं से नल लगाकर बदरीनाथ मन्दिर में पानी लाया क्योंकि वे वहीं वास करने लगते थे। गया है। चरणपादुका के ऊपर उर्वशीकुण्ड है, जहाँ उशती-उत्तम वाणी, कल्याणमयी वाणी, वेदवाणी: कामभगवान नारायण ने उर्वशी को अपनी जता से प्रकट नाशील, स्नेहमयी महिला : किया था । किन्तु यहाँ का मार्ग अत्यन्त कठिन है। इसी “शूद्रस्येवोशितां गिरम् ।" (भागवत), "जायेव पत्य पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ, तैमिंगिलतीर्थ तथा नरनारायण उशती सुवासाः ।" (महाभाष्य), "उशतीरिव मातरः ।" आश्रम है । यदि कोई सीधा चढ़ता जाय तो वह इसी पर्वत (आर्जन मन्त्र)। के ऊपर से 'सत्पथ' पहँच जायेगा। किन्तु यह मार्ग व्यामिश्र या मोहक वचन : "वर्जयेद् उशती वाचम् ।" दुर्गम है। (महाभारत) उरुगाय-ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में कथित विष्णु का एक उशनस् उपपुराण-अठारह महापुराणों की तरह कम से विरुद, जिसका अर्थ है 'जो बहुत लोगों द्वारा गाया जाय।' कम उन्तीस उपपुराण ग्रन्थ हैं। प्रत्येक उपपुराण किसी भगवान् विष्णु अथवा कृष्ण की यह पदवी है : न किसी महापुराण से निर्गत माना जाता है। उनमें जिह्वा सती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः । औशनस उपपुराण भी अत्यन्त प्रसिद्ध है । इसके रचयिता [ हे सूत ! जो बहुगेय भगवान् की कथा नहीं कहता उशना अर्थात् शुक्राचार्य कहे जाते हैं। सुनता उसकी जिह्वा दादुर के समान व्यर्थ है । ] उशनस् काव्य-एक भृगु (कवि) वंशज प्राचीन ऋषि, विस्तीर्ण गति के लिए भी इसका प्रयोग हुआ है, जैसे शुक्राचार्य । ऋग्वेद में इनका सम्बन्ध कुत्स एवं इन्द्र से कठोपनिषद् (२.११) में कहा है : दिखलाया गया है। पश्चात् इन्होंने असुरों का पुरोहितस्तोमं महदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरो नचिकेतो पद ग्रहण किया, उन्होंने देवों से प्रतिद्वंद्विता कर ली। ऽत्यस्राक्षीः । इनके नाम से राजनीति का सम्प्रदाय विकसित हुआ, [ हे नचिकेता ! तुमने स्तुत्य और बड़ी ऐश्वर्ययुक्त, जिसको कौटिल्य ने औशनस कहा है । दे० अर्थशास्त्र । इसके विस्तृत गति तथा प्रतिष्ठा को देखकर भी उसे धैर्यपूर्वक अनुसार केवल दण्डनीति मात्र ही विद्या है, जबकि अन्य त्याग दिया। लोग आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता को मिलाकर चार विद्यायें उल्कानवमी-एक प्रकार का अभिचार व्रत, जो आश्विन मानते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनेक स्थलों पर शुक्ल पक्ष की नवमी को किया जाता है। इस तिथि से उशना का उल्लेख हुआ है । ये घोर राजनीतिवादी थे । प्रारम्भ करके एक वर्षपर्यन्त इसमें महिषासुरमदिनी की चरकसंहिता (८.५४) में भी 'औशनस अर्थशास्त्र' का उल्लेख निम्नलिखित मन्त्र से पूजा करनी चाहिए : "महिषनि है । महाभारत के शान्तिपर्व (५६, ४०-४२; १८०,१०) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ उशना (स्मृतिकार)-उषःकाल में उशना के राजनीतिक विचारों का उद्धरण मिलता है। परम्परा के अनुसार उशना ने बृहस्पतिप्रणीत विशाल ग्रन्थ का एक संक्षिप्त संस्करण तैयार किया था, जो कालक्रम से लुप्त हो गया। कुछ लोगों का मत है कि 'शुक्रनीतिसार' उसी का लघु संस्करण है। उशना (स्मतिकार)-यद्यपि मुख्य स्मृतियाँ अठारह हैं, किन्तु इनकी संख्या २८ तक पहुँच जाती है। स्मतिकारों में उशना भी एक हैं। इस स्मृति में जाति एवं वृत्ति का विधान और अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न संकरजातियों का विचार किया गया है । उशना-यह नाम शतपथ ब्राह्मण (३.४; ३.१३;४.२; ५.१५) में उस क्षुप (पौधे) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है जिससे सोमरस तैयार किया जाता था । उषा-यह शब्द 'वस्' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'चमकना' है। इसकी दूसरी व्युत्पत्ति है 'ओषंति नाशयत्यन्धकारम्' (अन्धकार को नाशती है) । प्रकृति के एक अत्यन्त मनोरम दृश्य अरुणोदय के रूप में उषा का वर्णन एक युवती महिला के रूप में कवियों ने किया है। वैदिक सूक्तों के अन्तर्गत उषा का निरूपण सुन्दरतम रचना मानी जाती है, जहाँ इन्द्र का गुण बल, अग्नि का गुण पौरोहित्य-ज्ञान तथा वरुण का गुण नैतिक शासन है । उषा का गुण उसका स्त्रीसुलभ आकर्षक स्वरूप है। उषा का वर्णन २१ ऋचाओं में हुआ है। एक ही उषा देवी का प्रातःकालीन बेलाओं में देखा जाने वाला विविध शोभामय रूप है । वह सुन्दर युवती है, सुन्दर वस्त्रों से अलंकृत है तथा सुजाता है। वह मुस्कराती, गाती एवं नाचती है तथा अपने मनमोहक रूप को दिखाती है । यदि इन्द्र राजा का प्रतिनिधित्व करता है तो उषा तदनुरूप महिला रानी की प्रतिनिधि है। उषा रात्रि के काले वस्त्रों को दूर करती है, बुरे स्वप्नों को भगाती, बुरी आत्माओं (भूत-प्रेतादि) से रक्षा करती है । वह स्वर्ग का द्वार खोल देती, आकाश के छोर को प्रकाशित करती तथा प्रकृति के भण्डारों को, जिन्हें रात छिपाये रखती है, स्पष्ट कर देती है तथा सभी के लिए सदयता से उन्हें बिखेर देती है। उषा वरदान की देवी है। जब उसका प्रातः उदय होता है, प्रार्थना की जाती है-"दानशीलता का उदय करो, प्राचुर्य का उदय करो।" वह क्षण-क्षण रूप बदलने वाली महिला है, क्योंकि हर क्षण वह अपना नया आकर्षण सभी के लिए उपस्थित करती है। हर प्रातःकाल वह अपने इस रूप के भण्डार को लटाती तथा हर एक को उसका 'भाग' प्रदान करती है। उषा का नियमित रूप से पूर्व में उदय उसे 'ऋत' का रूप प्रमाणित करता है। वह 'ऋत' में उत्पन्न हुई तथा ऋत की रक्षा करने वाली है। वह ऋत की उपेक्षा न करते हुए नित्य उसी स्थान पर आती है । उषा का पूर्व में उदय प्रत्येक उपासक को जगाता है कि वह अपने यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करे। ___ उषा का सूर्य से निकट का सम्बन्ध है। सूर्य के पूर्व उदित होने के कारण, इसे सूर्य की माता कहा गया है । किन्तु सूर्य उषा का पीछा उसी प्रकार करता है, जैसे नवयुवक युवती का । इस दृष्टिबिन्दु से उषा सूर्य की पत्नी कहलाती है। इन्द्र का प्रकटीकरण बादल की गरज एवं विद्य त्-ध्वनि में होता है। उषा अपनी प्रातःकालीन पूर्वी लालिमा (सुनहरे रंग) के रूप में उसी प्रकार सुकुमार स्त्री रूपिणी है, जैसे इन्द्र कठोर एवं पुरुष रूपी । अग्नि वैदिक पुरोहित, इन्द्र वैदिक योद्धा एवं उषा वैदिक नारी है। पौराणिक कल्पना में उषा सूर्य की पत्नियोंसंज्ञाछाया, उषा और प्रत्यूषा में से एक है । सूर्य की परिवार मूर्तियों में इसका अंकन होता है और सूर्य के पार्श्व में यह अन्धकार रूपी राक्षसों पर बाणप्रहार करती हुई दिखायी जाती है। [दे० ऋ० ४.५१; १.११३; ७.७९; १.२४; ४.५४; १.११५; १०.५८ ।] उषःकाल-(१) सूर्योदय से पाँच घड़ी पूर्व का काल अथवा पूर्व दिवसीय सूर्योदय से ५५ घड़ी बाद का समय । यथा पञ्च पञ्च उषःकालः सप्त पञ्चारुणोदयः । अष्ट पञ्च भवेत् प्रातः शेषः सूर्योदयो मतः ।। [पहले दिन की ५५ घड़ी बीतने पर उषःकाल, ५७ घड़ी बीतने पर अरुणोदय और ५८ घड़ी के बाद सूर्योदय काल माना गया है। ] (कृत्यसारसमुच्चय) । उषःकाल का धार्मिक कृत्यों के लिए बड़ा महत्त्व है। (२) रात्रि का अवसान भी उषःकाल कहलाता है। वह नक्षत्रों के प्रकाश की मन्दता से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक रहता है । तिथितत्त्व में वराह का कथन है : Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमापति-ऊर्ध्वपुण्ड १२९ अर्धास्तमयात् संध्या व्यक्तीभूता न तारका यावत् । पञ्चप्राणयुतं वर्ण पीतविद्युल्लता तथा । तेजःपरिहानिरुषा भानोर|दयं यावत् ।। धर्मार्थकाममोक्षञ्च सदा सुखप्रदायकम् ।। [सूर्य के अर्धास्तमन से लेकर जब तक तारे न दिखाई [ऊ अक्षर शख तथा कुन्द के समान श्वेतवर्ण का है। दें इस बीच के समय को सन्ध्या कहते हैं तथा ताराओं परम कुण्डलिनी (शक्ति का अधिष्ठान) है। यह पञ्च प्राणके तेज के मन्द होने से लेकर सूर्य के अर्धोदय तक के मय तथा पञ्च देवमय है। पांच प्राणों से संयुक्त यह वर्ण समय को उषःकाल कहते हैं।] पीत विद्युत् की लता के समान है। धर्म, अर्थ, काम, उषापति-उषा का पति अनिरुद्ध । यह कामदेव के अवतार मोक्ष और सुख को सदा देनेवाला है । ] वर्णोद्धारतन्त्र में प्रद्युम्न यादव का पुत्र माना जाता है । उषा बाणासुर की इसके निम्नलिखित नाम है : पुत्री थी। पहले दोनों का गान्धर्व विवाह हुआ था, पुनः ऊः कण्ठको रतिः शान्तिः क्रोधनो मधुसूदनः । कृष्ण-बलराम आदि ने युद्ध में बाणासुर को पराजित कर कामराजः कुजेशश्च महेशो वामकर्णकः ।। उसे धूम-धाम के साथ विवाह करने को विवश कर दिया। अर्धीशो भैरवः सूक्ष्मो दीर्घघोषा सरस्वती। (आधुनिक विचारकों के अनुसार बाणासुर असीरिया देश विलासिनी विघ्नकर्ता लक्ष्मणो रूपकर्षिणी।। का प्रतापी शासक था ।) महाविद्यश्वरी षष्ठा षण्ढो भूः कान्यकुब्जकः ॥ उष्णीष-शिरोवेष्टन, वैदिक भारतीयों द्वारा व्यवहृत पगड़ी, ऊर्णा-ऊन; भेड़ आदि के रोम । भौंहों का मध्यभाग भी जिसे पुरुष अथवा स्त्री समान रूप से व्यवहार करते थे । ऊर्णा कहलाता है। दोनों भौंहों के मध्य में मृणालतन्तुओं दे० ऐ० ब्रा०, ६.१; शत० ब्रा०, ३.३; २. ३; ४. ५. २. के समान सूक्ष्म सुन्दर आकार को उठी हुई रेखा महा७२.१.८ (इन्द्राणी का उष्णीष) आदि एवं काठक संहिता, पुरुषों का लक्षण है। यह चक्रवर्ती राजा तथा महान् १३.१० । व्रात्यों के उष्णीष का अथर्ववेद (१५.२.१) एवं योगियों के ललाट में भी होती है। योगमूर्तियों के ललाट पञ्चविंश ब्रा० (१७.१.१४;१६. ६. १३) में प्रचुर उल्लेख में ऊर्णा अङ्कित को जाती है । वह ध्यान का प्रतीक है। मिलता है। वाजपेय (शतपथ ब्रा० ५.३.५. ३३) तथा राजसूय (मैत्रायणी सं० ४.४.३) यज्ञों में राजपद के ऊर्णनाभ-एक प्राचीन निरुक्तकार, जिनका उल्लेख यास्क चिह्न रूप में राजा द्वारा उष्णीष धारण किया जाता था। ने निघण्टु की व्याख्या में किया है। शिरोभूषा के रूप में देवताओं को भी उष्णीष दिखलाया ऊर्ध्वपुण्ड-चन्दन आदि के द्वारा ललाट पर ऊपर की जाता है । भावप्रकाश में कथन है : ओर खींची गयी पत्राकार रेखा । यथा : उष्णीषं कान्तिकृत केश्यं रजोवातकफापहम् । ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्याद्वारिमृद्भस्मचन्दनः । लघु चेच्छस्यते यस्माद् गुरु पित्ताक्षिरोगकृत् ।। [ब्राह्मण जल, मिट्टी, भस्म और चन्दन से ऊर्ध्वपुण्ड [पगड़ी शोभा बढ़ाती है और बालों का हित करती तिलक करे। है । वात, पित्त, कफ सम्बन्धी रोगों से बचाती है । छोटी ऊर्ध्वपुण्ड्रं द्विजः कुर्यात् क्षत्रियस्तु त्रिपुण्ड्रकम् । पगड़ी अच्छी होती है, बड़ी पगड़ी पित्त तथा आँखों के अर्द्धचन्द्रन्तु वैश्यश्च वर्तुलं शूद्रयोनिजः ।। रोगों को बढ़ाती है। [ ब्राह्मण ऊर्ध्वपुण्ड्र, क्षत्रिय त्रिपुण्ड्र, वैश्य अर्धचन्द्र, उष्णीष धारण माङ्गलिक माना जाता है । शुभ अवसरों शूद्र वर्तुलाकार चन्दन लगाये । ] पर इसका धारण शिष्टाचार का एक आवश्यक अङ्ग है । विविध आकारों में सभी सनातनधर्मी व्यक्तियों द्वारा तिलक लगाया जाता है । किन्तु ऊर्ध्वपुण्ड्र वैष्णव सम्प्रदाय ऊ-स्वरवर्ण का षष्ठ अक्षर । कामधनुतन्त्र में इसका तन्त्रा- का विशेष चिह्न है। वासुदेव तथा गोपीचन्दन उपनिषदों त्मक महत्त्व निम्नांकित है : (भागवत ग्रन्थों) में इसका प्रशंसात्मक वर्णन पाया जाता शङ्खकुन्दसमाकारं ऊकारं परमकुण्डलो । है। यह गोपीचन्दन से ललाट पर एक, दो या तीन खड़ी पञ्चप्राणमयं वर्ण 'पञ्चदेवमयं सदा ॥ लम्ब रेखाओं के रूप में बनाया जाता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० । देवप्रसादी चन्दन, रोली, गंगा की या तुलसीमूल की रज या आरती की भस्म से भी ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक किया जाता है । प्रसादी कुंकुम या रोली से मस्तक के मध्य एक रेखा बनाना लक्ष्मी या श्री का रूप कहा जाता है । पत्राकार दो रेखाएँ बनाना भगवान् का चरणचिह्न माना जाता है। ॐकार की चौथी मात्रा अर्धचन्द्र और बिन्दु के लम्ब रूप में भी वह होता है ऊर्ध्वमे - शिव का एक पर्याय इसका शाब्दिक अर्थ है। जिसका मेद्र (लिङ्ग) ऊपर की ओर हो। लिङ्ग निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चित ज्ञान का प्रतीक है। शिव ज्ञान के सन्दोह हैं । स्कन्द पुराण आदि कई ग्रन्थों में ऊर्ध्वमेढ़ शिव की कथाएँ पायी जाती हैं । ऊर्ध्वरेता-अखण्ड ब्रह्मचारी जिसका वीर्य नीचे पतित न होकर देह के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाय। सनकादि, शुकदेव, नारद, भीष्म आदि। भीष्म ने पिता के अभीष्ट विवाह के लिए अपना विवाह त्याग दिया । अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी रहने के कारण ऊर्ध्वरेता नाम से ख्यात हो गये । यह शंकर का भी एक नाम है : करिता ऊर्ध्वलिङ्ग कशायी नभःस्थलः । [ ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्ग, ऊर्ध्वशायी, नभस्थल । ] ऊषीमठ — हिमालय प्रदेश का एक तीर्थ स्थल । जाड़ों में केदारक्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। उस समय केदार नाथजी की चल मूर्ति यहाँ आ जाती है । यहीं शीतकाल भर उनकी पूजा होती है । यहाँ मन्दिर के भीतर बदरीनाथ, तुङ्गनाथ, ओंकारेश्वर, केदारनाथ, ऊष्ण, अनिरुद्ध, मान्धाता तथा सत्ययुग त्रेता द्वापर की मूर्तियाँ एवं अन्य कई मूर्तियां है। ऋ ऋ - स्वरवर्ण का सप्तम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य अधोलिखित है : ऋकारं परमेशानि कुण्डली मूर्तिमान् स्वयम् । अत्र ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव वरानने ॥ सदा शिवतं वर्ण सदा ईश्वर संयुतम् । पञ्च वर्णमयं वर्ण चतुर्ज्ञानमयं तथा ।। रक्तविद्युल्लताकारं ऋकारं प्रणमाम्यहम् || [ हे देवी! ऋ अक्षर स्वयं मूर्तिमान् कुण्डली है । इसमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सदा वास करते हैं । यह सदा शिव ऊर्ध्वमेढ्र-ऋक्थ युत और ईश्वर से संयुक्त रहता है। यह पञ्चवर्णमय तथा चतुर्ज्ञानमय है, रक्त विद्युत् की लता के समान है । इसको प्रणाम करता हूँ । ] वर्णोद्वार तन्त्र में इसके निम्नांकित नाम बतलाये गये हैं : ऋ पूर्दोषमुखी रुद्रो देवमाता त्रिविक्रमः । भावभूतिः क्रिया क्रूरा रेविका नाशिका भूतः ॥ एकपाद शिरो माला मण्डला शान्तिनी जलम् । कर्णः कामलता मेघा निवृत्तिगंणनायकः ॥ रोहिणी शिवदूती च पूर्णगिरिव सप्तमे । ऋ - प्राचीन वैदिक काल में देवताओं के सम्मानार्थ उनकी जो स्तुतियाँ की जाती थीं, उन्हें ऋक् या ऋचा कहते थे । ऋग्वेद ऐसी ही ऋचाओं का संग्रह है । इसी लिए इसका यह नाम पड़ा। दे० 'ऋग्वेद' । अथर्वसंहिता के मत से यज्ञ के उच्छिष्ट (शेष) में से यजुर्वेद के साथ-साथ ऋक्, साम, छन्द और पुराण उत्पन्न हुए। बृहदारण्यक उ० और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है : 'गीली लकड़ी में से निकलती हुई अग्नि से जैसे अलगअलग धुआं निकलता है, उसी तरह उस महाभूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनु व्याख्यान निकलते हैं: ये सभी इसके निःश्वास हैं ।' ऋक् ज्यौतिष - ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन ग्रन्थ बहुत प्राचीन काल के मिलते हैं। पहला ऋज्योतिष, दूसरा यजुः ज्योतिष और तीसरा अथर्व ज्यौतिष । ऋक् ज्यौतिष के लेखक लगध है। इसको 'वेदाङ्गज्योतिष' भी कहते है । ऋषय पैतृक धन, सुवर्ण हिरण्यं द्रविणं चुम्नं विनममुक्यं धनं वसु । --- (शब्दार्णव) (याज्ञवल्क्य) 'ऋक्यमूलं हि कुटुम्बम् ।' [ पैतृक सम्पत्ति हो कुटुम्ब का मूल है । ] तात्पर्य यह है कि कुटुम्ब उन सदस्यों से बना है जिनका ऋभ पाने का अधिकार है । उन्हीं को इसका अधिकार होता है जो कौटुम्बिक धार्मिक क्रियाओं को करने के अधिकारी हैं । इसीलिए धर्मपरिवर्तन करने वालों को क्य पाने का अधिकार नहीं था। अब धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में धर्मपरिवर्तन ऋक्थ प्राप्ति में बाधक नहीं है । प्रातिशाख्य वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों, उच्चारण, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋक्ष-ऋग्वेद १३१ पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निघण्टु की टीका वेदविशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशाख्य कहते हैं। भाष्य करने वाले एक स्कन्दस्वामी के नाम से भी पायी वेदाध्ययन के लिए अत्यन्त पूर्वकाल में ऋषियों ने पढ़ने की। जाती है। सायणाचार्य वेद के परवर्ती भाष्यकार है। ध्वनि, अक्षर, स्वरादि विशेषता का निश्चय करके अपनी- यास्क के समय से लेकर सायण के समय तक विशेष रूप अपनी शाखा की परम्परा निश्चित कर दी थी। इस से कोई भाष्यकार प्रसिद्ध नहीं हुआ। विभेद को स्मरण रखने और अपनी परम्परा की रक्षा के वेदान्तमार्गी लोग संहिता की व्याख्या की ओर विशेष लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बने । इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा रुचि नहीं रखते, फिर भी वैष्णव संप्रदाय के एक आचार्य तथा व्याकरण दोनों पाये जाते हैं। आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य स्वामी) ने ऋग्वेदसंहिता के कुछ एक समय था जब वेद की सभी शाखाओं के प्राति- अंशों का श्लोकमय भाष्य किया था। फिर रामचन्द्र तीर्थ शाख्यों का प्रचलन था और सभी उपलब्ध भी थे । परन्तु ने उस भाष्य की टीका रची थी । सायण ने अपने विस्तृत अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक् 'ऋग्भाष्य' में भट्टभास्कर मिश्र और भरतस्वामी-वेद के प्रातिशाख्य, यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का तैत्तिरीय दो भाष्यकारों का उल्लेख किया है। कतिपय अंश चण्डू प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायनरचित वाज पण्डित, चतुर्वेद स्वामी, युवराज रावण और वरदराज के सनेय प्रातिशाख्य, सामवेद का पुष्यमुनि रचित सामप्राति भाष्यों के भी पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त मुद्गल, शाख्य और अथर्वप्रातिशाख्य वा शौनकीय चतुरध्यायी कपर्दी, आत्मानन्द और कौशिक आदि कुछ भाष्यकारों उपलब्ध हैं। शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, के नाम भी सुनने में आते हैं। छः पटल और १०३ कण्डिकाएँ हैं। इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। ऋग्वेद-वेद चार हैं, उनमें से ऋग्वेद सबसे प्रमुख और पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था। इसको देखकर मौलिक है । क्योंकि सम्पूर्ण सामवेद और यजुर्वेद का पद्याउबटाचार्य ने इसका विस्तृत भाष्य लिखा है। त्मक अंश तथा अथर्ववेद के कतिपय अंश ऋग्वेद से ही ऋक्ष-रीछ या भालू । ऋग्वेद में ऋक्ष शब्द एक बार तथा लिये गये हैं। पातञ्जल महाभाष्य (पस्पशाह्निक) के अनुपरवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित् ही प्रयुक्त हुआ है। सार ऋग्वेद की इक्कीस संहिताएँ थीं। किन्तु आजकल स्पष्टतः यह जन्तु वैदिक भारत में बहुत कम पाया जाता। केवल एक ही शाकल संहिता उपलब्ध है जिसमें १०२८ था। इस शब्द का बहुवचन में प्रयोग 'सप्त ऋषियों' सुक्त (११ वालखिल्यों को लेकर) है । शाकल संहिता का के अर्थ में भी कम ही हुआ है। ऋग्वेद में दानस्तुति के दो प्रकार से विभाजन किया गया है । प्रथमतः यह मण्डल, एक मन्त्र में 'ऋक्ष' एक संरक्षक का नाम है, जिसके पुत्र अनुवाक और वर्ग में विभाजित है, जिसके अनुसार इसमें आर्भ का उल्लेख दूसरे मन्त्र में आया है। १० मण्डल, ८५ अनुवाक और २००८ वर्ग है। दूसरे परवर्ती काल में नक्षत्रों के अर्थ में इसका प्रयोग हुआ विभाजन के अनुसार इसमें ८ अष्टक, ६४ अध्याय और है। रामायण तथा पुराणों की कई गाथाओं में ऋक्ष एक १०२८ सूक्त हैं । प्रत्येक सूक्त के ऋषि, देवता और छन्द जाति विशेष का नाम है। ऋक्षों ने रावण से युद्ध करने विभिन्न है । ऋषि वह है जिसको मन्त्र का प्रथम साक्षामें राम की सहायता की थी। त्कार हुआ था। (आधुनिक भाषा में ऋषि वह था जिसने उस सूक्त की रचना की अथवा परम्परा से उसे ग्रहण ऋग्विधान-इस ग्रन्थ की गणना ऋग्वेद के पूरक साहित्य किया था ।) सूक्त का वर्णनीय विषय देवता होता है । में की जाती है । इसके रचयिता शौनक थे । छन्द विशेष प्रकार का पद्य होता है जिसमें सूक्त की ऋग्भाष्य-ऋग्वेद के ऊपर लिखे गये भाष्यसाहित्य का रचना हुई है। सामूहिक नाम ऋग्भाष्य है। ऋग्वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन समझे जाते व्याख्यान और अध्यापन के क्रम से ऋग्वेद की है । एक निघण्टु है और दूसरा यास्क का निरुक्त । देवराज पाँच शाखाएं बतलायी गयी हैं-(१) शाकल, (२) यज्वा निघण्टु के टीकाकार हैं। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर वाष्कल, (३) आश्वलायन, (४) शालायन और Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ (५) माण्डुकेय कुछ विद्वानों के अनुसार इसकी सत्ता ईस शाखाएँ थीं, जिनके नाम निम्नाकित है : १०. शाङ्खायन ११. आश्वलायन १२. कौषीतकि १३. महाकौषीतकि २२. १४. शाम्व्य १. मुद्गल २. गालव ३. शालीय ४. वात्स्य ५. रौशिरि ६. बोध्य १५. माण्डूक्य ७. अग्निमाठर १६. बहुच ८. पराशर १७. प मधुच्छन्दा जेत मेधातिथि शुनःशेप हिरण्यस्तूप कण्व प्रस्कण्व सव्य नोधा ९. जातूकर्ण्य १८. उद्दालक दे० [पं० भगवद्दत्त वैदिक वाङ्मय का इतिहास, भाग १. पृ० १३१ । ऋग्वेद के ऋषियों के नाम निम्नाति है दीर्घतमा अगस्त्य पराशर गोतम कुत्स कश्यप ऋज्राश्व त्रित कक्षीवान् भावयव्य रोमश परुच्छेय बुध अवस्यु प्रगाथकण्व ययाति अपाला इन्द्र मरुत् लोपामुद्रा गृत्समद सोमहूति कूर्म विश्वामित्र ऋषभ उत्कल कट देवश्रवा देवव्रत प्रजापति वामदेव अदिति १९. शतबलाक्ष २०. गज २१. वाकलि त्रसदस्यु पुरुमिल्ल बभ्रु गतु द्युम्निक संवरण महष २३. " २४. ऐतरेय २५. वसिष्ठ २६. सुलभ २७. शौनक कुमार ईश 33 सुतम्भरा धरुण वब्रि पुरु द्वित तन शश विश्वसाम घुम्न विश्वचर्षणि गोपपणि वसुयु त्र्यारुण अश्वमेध अत्रि विश्ववर गौरवीति गविष्ठिर प्रभु पुन स 1 नृमेष पृथु वसु चक्षुः सप्तर्षि कवि पूतदक्ष प्रतिक्षत्र ऊर्ध्वद्म अमही रेहजमदग्नि पुरुहन शिशु खानस त्रिशिरा पुष्टिगु हर्यश्व शङ्ख हरिमन्थ वेन मातरिश्वा कुरु स्तुत् मचित गुत्समद प्रतर्दन असित कुसीबी अभितया अम्बरीष इध्मबाह विश्वक् सप्तगु यज्ञ भूतांश गौपवन कपोत ऋष्यवज्ञ जरत्कारु विभ्राजा रहूमण क्षुतकक्ष सुकक्ष अत्रिभूय गौरी उतथ्य fafor प्रतिरथ कृशाश्व निध्रुवि नेम सुदीति अत्रि पवित्र धुष्टिगु गोपवन दमन देवश्रवा अकृष्टपच्या कृष कृत्नु च्यवन वसुक्र व्याघ्रपात् वेवल उशना काव्य घोषा ऋजिश्वा श्यावाश्व वैकुण्ठ विवृहा सुदास सरमा नाभानेदिष्ट अनिला विषाणक राम स्यूमरश्म शिखण्डिनी बृहन्मति अयास्य विन्दु आवत्सार रीति आवत्सारक्ष द्युतान प्रतिभानु ऋणञ्चय भृगु पुरुमीढ यम यमी रेणू आयु सप्तवधि विरूप संयुक अजा पृषध सुपर्ण एकत लुभ कर्णश्रुत दृढच्युत कृष्ण ऋग्वेद सुहस्त्य नेमनु अप्रतिरथ बृहत्कथ प्रचेता मान्धाता पणि सुमित्र शबरा विप्र जूति उष्ट्रदेश Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद १३३ व्यङ्ग नभप्रभेदन मूर्धन्वान् इत विश्वावसु शतप्रभेदन शर्याति अभीवर्त जिन देवताओं की स्तुति ऋग्वेद में की गयी है उनकी सूची निम्नलिखित है : अग्नि अग्नायी रति ध्रुव वायु विश्वकर्मा संवर्त अग्निपावक साधि तान्व ऊर्ध्वग्रीव साम्बमित्र अग्निपूत उर्वशी धेनु द्रोण अग्नितापस धर्म अर्बुद पतङ्ग पृथुबन्धु भिक्षु सर्वहरि सप्तधृति श्रद्धा आयु शिबि मण्डूक यूप लव उपस्तुत् पुरूरवा अरिष्टनेमि सुवेद उरुक्षय भिषक् श्येन सार्पराज्ञि अघमर्षण सवन कुलमल दुवस्यु नाभाग मृत्यु इन्द्रमाता शिरिम्बिठ केतु बाभ्रव्य स्वस्ति यक्ष्मनाशन सूर्य बृहद्दिव हिरण्यगर्भ चित्रमहा प्रतिप्रभ भुवन बहिष मुद्गल श्रुतविद् ऋतु मरुत् सिन्धु रक्षोहा अन्न प्रस्तोक पृथ्वी वनस्पति पृष्णि वरुण विष्णु राका वास्तोष्पति पूषा सिनीवाली सरस्वान् इन्द्रावरुण सविता चित्र मित्रावरुण अश्विनौ कपिञ्जल सोम पितृमान् पितर उषा सरमापुत्र अर्यमा पर्वत सोमक विश्वेदेव आदित्य रुद्र सरस्वती आप्त्य वामदेव धाता आप्रो उच्चैःश्रवा वैकुण्ठ वैश्वानर दधिक्रा आत्मा क्षेत्रपति निऋति त्वष्टा स्वनय सीता ज्ञान ब्रह्मणस्पति सोम रोमशा घृत . ओषधि दक्षिणा बृहस्पति उशना अरण्यानी वाक् अत्रि श्रद्धा इन्द्राणी काले देवी शची वरुणानी साध्य मायाभेद पर्जन्य ताओं ऋग्वेद में आये हुए छन्दों के नाम अधोलिखित है : अभिसारिणी मध्येज्योतिष्मती पुरौष्णिक् अनुष्टुप् महाबृहती स्कन्धोग्रीवी अष्टि महापदपङ्क्ति तनुशिरा अस्तारपङ्क्ति महापङ्क्ति विष्टप् अतिधति सतोबृहती उपरिष्टाबृहती अतिजगती महासतोबृहती उपरिष्टाज्ज्योति अतिनिचुत् नष्टरूपा ऊर्ध्वबृहती अत्यष्टि न्यसारिणी उरोबृहती विहव्य रातहव्य यजत उरुचक्रि शिंकु भर्ग कलि मेधातिथि असङ्ग शश्वति देवातिथि ब्रह्मातिथि वत्स ऋभु मत्स्य बहुवृक्त पौर अवस्यु मान्य मन्यु यवापमरुत् शशकर्ण सुहोन अश्वसूक्ति देवापि भरद्वाज नारद शुनहोत्र इरिम्बिठ गर्ग वैवस्वत मनु वसिष्ठ सहस्रवसु शंयु साध्वस वीतहव्य गोषक्ति नर सौभरि ऋजिस्वा कश्यप मैत्रावरुणि रोचिशा विश्वमना पायु निपतिथि वशिष्ठ वाशिष्ठ शक्ति श्यावाश्व Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ऋग्वेद बृहती पुरुष के रूपक से बहुत सुन्दर रूप में हुआ है। इसके कुछ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं : सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमि सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥१॥ [ पुरुष (विश्व में पूर्ण होने वाली अथवा व्याप्त सत्ता) सहस्र (असंख्यात अथवा अनन्त) सिर वाला, सहस्र आँख वाला तथा सहस्र पाँव वाला है। वह भूमि (जगत्) को सभी ओर से घेरकर भी इसका अतिक्रमण दस अंगुल से किये हुए है। अर्थात् पुरुष इस जगत् में समाप्त न होकर इसके भीतर और परे दोनों ओर है । ] एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥ [जितना भी विश्व का विस्तार है वह सब इसी विराट-पुरुष की महिमा है । यह पुरुष अनन्त महिमा वाला है। इसके एक पाद ( चतुर्थांश = कियदंश ) में ही सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इसके अमृतमय तीन पाद ( अधिकांश) प्रकाशमय लोक को आलोकित कर पादनिवृत् पदपक्ति विष्टारपङ्क्ति चतुर्विंशतिक पङ्क्ति उष्णिग्गी द्विपदी पङ्क्त्युत्तरा उष्णिक धृति पिपीलिकमध्या वर्धमाना द्विपदाविराट् प्रगाथ विपरीता एकपदात्रिष्टुप् प्रस्तारपङ्क्ति विरापा एकपदाविराट् प्रतिष्ठा विराट गायत्री पुरस्ताद् विराट्पूर्वा जगती बृहती विराट्स्थाना ककुप् यवमध्या विष्टारबृहती कृति ऋग्वेद में देवतातत्त्व के अन्तर्गत अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन हुआ है । सम्पूर्ण विश्व का किसी न किसी 'दैवत' के रूप में ग्रहण है। मुख्य देवताओं को स्थानक्रम से तीन वर्गों-(१) भूमिस्थानीय, (२) अन्तरिक्षस्थानीय तथा (३) व्योमस्थानीय में बाँटा गया है। इसी प्रकार परिवारक्रम से देवताओं के तीन वर्ग है(१) आदित्यवर्ग (सूर्य परिवार), (२) वसुवर्ग तथा (३) रुद्रवर्ग। इनके अतिरिक्त कुछ भावात्मक देवता भी हैं, जैसे श्रद्धा, मन्यु, वाक् आदि । बहुत से ऋषिपरिवारों का भी देवीकरण हुआ है, जैसे ऋभु आदि । नदी, पर्वत, यज्ञपात्र, यज्ञ के अन्य उपकरणों का भी देवीकरण किया गया है। ऋग्वेद के देवमण्डल को देखकर अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसमें बहुदेववाद का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु यह मत गलत है । वास्तव में देवमण्डल के सभी देवता एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हैं; अपितु वे एक ही मूल सत्ता के दृश्य जगत् में व्यक्त विविध रूप हैं । सत्ता एक ही है । स्वयं ऋग्वेद में कहा गया है : ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति, अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।' [ मूल सत्ता एक ही है । उसी को विप्र (विद्वान्) अनेक प्रकार से (अनेक रूपों में) कहते हैं । उसी को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा गया है। ] वरुण, इन्द्र, सोम, सविता, प्रजापति, त्वष्टा आदि भी उसी के नाम हैं। एक ही सत्ता से सम्पूर्ण विश्व का उद्भव कैसे हुआ है, इसका वर्णन ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.९०) में विराट तस्माद् यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥७॥ [ उसी सर्वहुत यज्ञ (विश्व के लिए पूर्ण रूपेण अर्पित सत्ता) से ऋक् और साम उत्पन्न हुए। उसी से छन्द ( स्वतन्त्र ध्वनि) उत्पन्न हुए और उसी से यजुः भी।] यत्पुरुषं व्यदधुः. कतिधा व्यकल्पयन् । मुखं किमस्यासीत् किम्बाहू किमूरू पादा उच्यते । [ जिस पुरुष का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है उसका मुख क्या था, बाहु क्या, जंघा क्या और पाँव क्या थे ? ] ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥११॥ [ ब्राह्मण इसका मुख था, राजन्य (क्षत्रिय) इसकी भुजाएँ थीं, जो वैश्य (सामान्य जनता) है वह इसकी जंघा थी; इसके पाँवों से शूद्र उत्पन्न हुआ। अर्थात् सम्पूर्ण समाज विराट् पुरुष से ही उत्पन्न हुआ और उसी का अङ्गभूत है।] इसाक ही सत्ता से सम्बर्ष चिस्व का उद्भव की हत्या है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद १३५ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥१६॥ [ देवों (दिव्य शक्तिवाले पुरुषों) ने यज्ञ से ही यज्ञ का अनुष्ठान किया, अर्थात् विश्वकल्याणी मूल सत्ता का ही विश्वहित में विस्तार किया । यज्ञ के जो नियम बने वे ही प्रथम धर्म हए । जो इस विराट् पुरुष की उपासना करनेवाले लोग हैं वे ही आदरणीय देवता हैं । ] ऋग्वेद के 'नासदीय सूक्त' (अष्टक ८, अध्याय ७, वर्ग १७) में गूढ़ दार्शनिक प्रश्न उठाये गये हैं : नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्र जो नो व्योमाऽपरो यत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मन् __ नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥१॥ न मृत्युरासीदमृतं न तहि न राव्या अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेक तस्माद् धान्यन्न परः किञ्चनास ।।२।। तम आसीत् तमसा गूढमग्र प्रतं सलिलं सर्वमा इदम् । तच्छ्येनाभ्यपिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिना जायतकम् ॥३॥ कामस्तदन समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीप्या कवयो मनीषा ॥४॥ तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम् ___अधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् । रेतोधा आसन्महिमान आसन्त् स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥ को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् । कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । अग्देिवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥ इयं विसृष्टिर्यंत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥ [ उस समय न तो असत् (शून्य रूप आकाश) था और न सत् (सत्त्व, रज तथा तम मिलाकर प्रधान) था। उस समय रज (परमाणु) भी नहीं थे और न विराट व्योम (सबको धारण करने वाला स्थान) था। यह जो वर्तमान जगत् है वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढंक सकता और न उससे अधिक अथाह हो सकता है, जैसे कुहरे का जल न तो पथ्वी को ढंक सकता है और न नदी में उससे प्रवाह चल सकता है । जब यह जगत् नहीं था तो मृत्यु भी न थी और न अमृत था। न रात थी और न दिन था। एक ही सत्ता थी, जहाँ वायु की गति नहीं है। वह सत्ता स्वयं अपने प्राण से प्राणित थी। उस सत्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। तम था। इसी तम से ढंका हुआ वह सब कुछ थाचिह्न और विभाग रहित । वह अदेश और अकाल में सर्वत्र सम और विषय भाव से नितान्त एक में मिला और फैला हुआ था। जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढंकी थी-आकारहीन । तब तपस् की महान् शक्ति से सर्वप्रथम एक की उत्पत्ति हुई। सबसे पहले (विश्व के विस्तार की) कामना उठ खड़ी हुई । जब ऋषियों ने विचार और जिज्ञासा की तो उनको पता लगा कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई। सत् और असत की विभाजक रेखा तिर्यक् रूप से फैल गयी। इसके नीचे और ऊपर क्या था? अत्यन्त शक्तिशाली बोज था। इधर जहाँ स्वतन्त्र क्रिया थी उधर परा शक्ति थी। वास्तव में कौन जानता है और कह सकता है कि यह सुष्टि कहाँ से हुई ? देवताओं की उत्पत्ति इस सृष्टि से पीछे की है । फिर कौन कह सकता है कि यह सृष्टि कब हुई। वेद ने जो सृष्टिक्रम का वर्णन किया है वह उसको कैसे ज्ञात हुआ ? जिससे यह सृष्टि प्रकट हुई उसी ने इसको रचा अथवा नहीं रचा है (और यह स्वतः आविर्भूत हो गयो है ?)। परम आकाश में इस सृष्टि का जो अध्यक्ष (निरीक्षण करनेवाला) है, वही इसको जानता है, अथवा शायद वह भी नहीं जानता । ] ऋग्वेद में जिस पूजापद्धति का विधान है उसमें देवस्तुति प्रथम है। मन्त्रोच्चारण द्वारा साधक अपने साध्य से सांनिध्य स्थापित करना चाहता है। इसके साथ ही यज्ञ का विधान है, जिसका उद्देश्य है अपनी सम्पत्ति और जीवन को देवार्थ (लोकहिताय) समर्पित करना। देव और मनुष्य का साक्षात्कार सीधा-सुगम है । अतः प्रतिमा की आवश्यकता नहीं । जिनका देव और यज्ञ में विश्वास नहीं वे शिश्नदेव (शिश्नोदरपरायण) हैं । इस प्रकार इसमें Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-ऋजुविमला देवपूजन और अतिथिपूजन पर बल दिया गया है। पितरों १२. मोक्षशास्त्र के प्रति आदर-श्रद्धा का आदेश है। १३. नौ-निर्माण तथा वायुयान निर्माण कला ऋग्वेद में ऋत की महती कल्पना है, जो सम्पूर्ण १४. बिजली और ताप विश्व में व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ है। यही कल्पना १५. आयुर्वेद विज्ञान नीति का आधार है। वरुणसूक्त (ऋ० वे० ५.८५.७) में १६. पुनर्जन्म सुन्दर नैतिक उपदेश पाये जाते हैं। ऋत के साथ सत्य, १७. विवाह व्रत और धर्म की महत्त्वपूर्ण कल्पनाएँ तथा मान्यताएं हैं। १८. नियोग हिन्दू धर्म के सभी तत्त्व मूलरूप से ऋग्वेद में वर्तमान १९. शासक तथा शासित के धर्म है । वास्तव में ऋग्वेद हिन्दू धर्म और दर्शन की आधार- २०. वर्ण और आश्रम शिला है। भारतीय कला और विज्ञान दोनों का उदय २१. विद्यार्थी के कर्तव्य यहीं पर होता है। विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता के २२. गृहस्थ के कर्तव्य अव्यक्त और व्यक्त रूप में विश्वास, मन्त्र, यज्ञ, अभि २३. वानप्रस्थ के कर्तव्य चार आदि से उसके पूजन और यजन आदि मौलिक २४. संन्यासी के कर्तव्य धार्मिक तत्त्व ऋग्वेद में पाये जाते हैं । इसी प्रकार तत्त्वों २५. पञ्च महायज्ञ को जानने की जिज्ञासा, जानने के प्रकार, तत्त्वों के रूप २६. ग्रन्थों का प्रामाण्य कात्मक वर्णन, मानवजीवन की आकांक्षाओं, आदर्शों २७. योग्यता और अयोग्यता तथा मन्तव्य आदि प्रश्नों पर ऋग्वेद से पर्याप्त प्रकाश २८. शिक्षण और अध्ययनपद्धति पड़ता है । दर्शन की मूल समस्याओं; ब्रह्म, आत्मा, माया, २९. प्रश्नों और सन्देहों का समाधान कर्म, पुनर्जन्म आदि का स्रोत भी ऋग्वेद में पाया जाता ३०. प्रतिज्ञा है। देववाद, एकेश्वरवाद, सर्वेश्वरवाद, अद्वैतवाद, सन्देह- ३१. वेद सम्बन्धी प्रश्नोत्तर . वाद आदि दार्शनिक वादों का भी प्रारम्भ ऋग्वेद में ही ३२. वैदिक शब्दों के विशेष नियम-निरुक्त दिखाई पड़ता है। ३३. वेद और व्याकरण के नियम ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों ३४. अलंकार और रूपक का स्वतन्त्र भाष्य किया है। उनका 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' पाश्चात्य विद्वानों के मन्तव्यों के परिष्कारार्थ इस अति प्रभावशाली ग्रन्थ है, जो वेदभाष्य की भूमिका के प्रकार का वेदार्थविचार अत्युपयोगी है। रूप में प्रस्तुत किया गया है । इसमें निम्नांकित विषयों पर ऋजिश्वा-ऋजिश्वा का उल्लेख ऋग्वेद (१.५१,५;५.३, विचार हुआ है : ८; १०.१.१;६.२०.७) में अनेकों बार आया है, किन्तु १. वेदों का उद्गम अस्पष्ट रूप से, जैसे कि यह अति प्राचीन नाम हो। यह २. वेदों का अपौरुषेयत्व और सनातनत्व पिघु तथा कृष्णगर्भा आदि दैत्यों से युद्ध करने में इन्द्र की ३. वेदों का विषय सहायता करता है । लडविग के अनुसार यह औशिज का ४. वेदों का वेदत्व पुत्र है, किन्तु यह सन्देहात्मक धारणा है। वह दो बार ५. ब्रह्मविद्या स्पष्ट रूप से वैदथिन अथवा विदथी का वंशज कहा गया ६. वेदों का धर्म है (ऋ० ४.१६.१३; ५.२९.११)। ७. सृष्टिविज्ञान ऋजुकाम-कश्यप मुनि का एक पर्याय । इसका शब्दार्थ ८. सृष्टिचक्र है, 'जिसकी कामना सरल हो ।' ऋजुकामता एक धार्मिक ९. गुरुत्व और आकर्षण शक्ति गुण माना जाता है। १०. प्रकाशक और प्रकाशित ऋजुविमला-पूर्वमीमांसा सूत्र पर लिखा हुआ व्याख्या११. गणितशास्त्र ग्रन्थ । इसका रचनाकाल ७०० ई० के लगभग और Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋणमोचनतीर्थ-ऋत्विक् (ऋत्विज) रचनाकार हैं प्रभाकरशिष्य शालिकनाथ पण्डित । जीवन निर्वाह कर ले, किन्तु कुत्ते की वृत्ति (नौकरी ऋणमोचनतीर्थ–सहारनपुर-अम्बाला के बीच जगाधरी के आदि) से कभी भी जीवन-यापन न करे। समीप एक पुण्यस्थान । यहाँ भीष्मपञ्चमी को मेला लगता शिल-उच्छ को ऋत, भिक्षा न माँगने को अमृत, है। 'ऋणमोचन तीर्थ' नामक सरोवर है। इसमें स्नान भीख मांगने को मृत, हल जोतने को प्रमृत कहा गया है। करने के लिए दूर-दूर से यात्री आते हैं। यह सरोवर ऋतधामा-जिसका सत्य धाम (तेज) है; अग्नि, विष्णु, जंगल में है। एक भावी इन्द्र । यजुर्वेद (५.३२) में कथन है : ऋत-स्वाभाविक व्यवस्था, भौतिक एवं आध्यात्मिक 'हव्यसूदन ऋतधामासि स्वतिः ।' निश्चित दैवी नियम । यह विधि, जिसे 'ऋत' कहते हैं, ऋतधामा रुद्रसावणि मनु के काल में इन्द्र होगा; यह अति प्राचीन काल में व्यवस्थित हई थी। ऋत का भागवत (८.१३.२८) में कहा गया है : पालन सभी देवता, प्रकृति आदि नियमपूर्वक करते हैं । भविता रुद्रसावणिः राजन् द्वादशमो मनुः । ईरानी भाषा में यह नियम १६०० ई० पू० 'अर्त' के ऋतधामा च देवेन्द्रो देवाश्च हरितादयः ।। नाम से और अवेस्ता में 'अश' के नाम से पुकारा जाता था। ऋत्विक् (ऋत्विज्)-जो ऋतु में यज्ञ करता है, याज्ञिक. ऋत की सभी शक्तियों को धारण करने वाला देवता पुरोहित । मनु (२.१४३) में कथन है : वरुण है (ऋ० ५.८५.७) । प्रकृति के सभी उपादान उसके अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान् । विषय हैं एवं वह देखता है कि मनुष्य उसके नियमों का यः करोति वृतो यस्य स तत्विगिहोच्यते ।। पालन करते है या नहीं । वह नैतिकों को पुरस्कार एवं [अग्नि की स्थापना, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञ अनंतिकों को दण्ड देता है । वरुण के अतिरिक्त अन्य देव जो यजमान के लिए करता है वह उसका ऋत्विक् कहा ताओं का भी ऋत से सम्बन्ध है । उसी के माध्यम से जाता है । ] उसके पर्याय हैं-(१) याजक, (२) भरत, देवगण अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं। (३) कुरु, (४) वाग्यत, (५) वृक्तवहिष, (६) यतश्रुच, ऋत के तीन क्षेत्र हैं-(१) विश्वव्यवस्था, जिसके (७) मरुत्, (८) सबाध और (९) देवयव ।। द्वारा ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड अपने क्षेत्र में नियमित रूप यज्ञकार्य में योगदान करने वाले सभी पुरोहित ब्राह्मण से कार्य करते हैं, (२) नैतिक नियम, जिसके अनुसार होते हैं। पुरातन श्रौत यज्ञों में कार्य करने वालों की व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध का निर्वाह होता है। (३) निश्चित संख्या सात होती थी। ऋग्वेद की एक पुरानी कर्मकाण्डीय व्यवस्था, जिसके अन्तर्गत धार्मिक क्रियाओं तालिका में इन्हें होता, पोता, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रशास्ता, के विधि-निषेध, कार्यपद्धति आदि आते हैं। दे० ऋग्वेद, अध्वर्यु और ब्रह्मा कहा गया है। सातों में प्रधान १. २४. ७-८-१०; ७.८६.१; ७. ८७.१-२ । सृष्टि 'होता' माना जाता था जो ऋचाओं का गान करता था। प्रक्रिया में बतलाया गया है कि तप से ऋत और सत्य वह प्रारम्भिक काल में ऋचाओं की रचना भी (ऊह उत्पन्न हुए; फिर इनसे क्रमश रात्रि, समुद्र, अर्णव, संवत्सर, विधि से) करता था। अध्वर्य सभी यज्ञकार्य (हाथ से सूर्य, चन्द्र आदि उत्पन्न हुए। किये जाने वाले) करता था। उसकी सहायता मुख्य रूप से फसल कटने के बाद खेत में पड़ी हुई बालियों के आग्नीध्र करता था, ये हो दोनों छोटे यज्ञों को स्वतन्त्र रूप दानों को चुनने वाली उञ्छवृत्ति को भी ऋत कहते हैं । से कराते थे। प्रशास्ता जिसे उपवक्ता तथा मैत्रावरुण भी मनुस्मृति (४.४.५) में कहा है : कहते हैं, केवल बड़े यज्ञों में भाग लेता था और होता को ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा । परामर्श दता था। कुछ प्रार्थनाएँ इसके अधीन होती थीं। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कदाचन ।। पोता, नेष्टा एवं ब्रह्मा का सम्बन्ध सोमयज्ञों से था। ऋतमुञ्छशिलं जेयममृतं स्यादयाचितम् । बाद में ब्रह्मा को ब्राह्मणाच्छंसी कहने लगे जो यज्ञों में मृतन्तु याचितं भैक्षं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ निरीक्षक का कार्य करने लगा। [ ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत, सत्य-अनृत इनके द्वारा ऋग्वेद में वर्णित दूसरे पुरोहित साम गान करते थे । १८ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ उद्गाता तथा उसके सहायक प्रस्तोता एवं दूसरे सहायक प्रतिहर्ता के कार्य यज्ञों के परवर्ती काल की याद दिलाते हैं । ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप जब और भी विकसित एवं जटिल हुआ तब सोलह पुरोहित होने लगे, जिनमें नये ऋत्विक् थे अच्छावाक्, ग्रावस्तुत्, उन्नेता तथा सुब्रह्मण्य, जो औपचारिक तथा कार्यविधि के अनुसार चार-चार भागों में बटे हुए थे― होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक् तथा ग्रावस्तुत्; उद्गाता, प्रस्तोता प्रतिहर्ता तथा सुत्रह्मण्य अध्वर्यु, प्रतिस्थाता, नेष्टा तथा उन्नेता और ब्रह्मा ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र तथा पोता । इनके अतिरिक्त एक पुरोहित और होता था जो राजा के सभी धार्मिक कर्तव्यों का आध्यात्मिक परामर्शदाता था। यह पुरोहित बड़े यज्ञों में ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करता था तथा सभी याज्ञिक कार्यों का मुख्य निरीक्षक होता था । यह पुरोहित प्रारंभिक काल में होता होता था तथा सर्वप्रथम मन्त्रों का गान करता था । पश्चात् यही ब्रह्मा का स्थान लेकर यज्ञनिरीक्षक का कार्य करने लगा । ऋतुमती ऋतुयुक्त स्त्री उसके पर्याय हैं (१) रजस्वला, (२) स्त्रीधर्मिणी, (३) अवी, (४) आत्रेयी, (५) मलिनी, (६) पुष्पवती और (७) उदक्या धर्मशास्त्र में ऋतुमती के कर्तव्यों का वर्णन है। उसे इस काल में सब कार्यों से अलग होकर एकान्त में रहना चाहिए। पति के लिए भी यह नियम है कि वह प्रथम चार दिन पत्नी का स्पर्श न करे । पत्नी का यह कर्तव्य है कि वह स्नान के पति की कामना करे। पति के लिए ऋतुकाल दिन बाद पत्नी के पास जाना अनिवार्य है ऋतुस्नातां तु यो भार्या सन्निधी नोपगच्छति । घोरायां ब्रह्महत्यायां युज्यते नात्र संशयः ॥ (मनु० ४.१५) ऋतुस्नान रजस्वला स्त्री का चौथे दिन किया जाने वाला स्नान इस स्नान के पश्चात् पति का मूल देखना चाहिए | पति के समीप न होने पर पति का मन में ध्यान करके सूर्य का दर्शन कर लेना चाहिए ऐसा धर्मशास्त्र में विधान है। पश्चात् के चार ऋतुव्रत- हेमाद्रि, व्रतखण्ड (२.८५८-८६१) में पांच ऋतुव्रतों का उल्लेख है जिनका निर्देश यथा स्थान किया गया है । ऋभु ऋतुमतीषि देव वायुस्थानीय देवगण ऋग्वेद (९.२१.६ ) में कथन है : 'ऋभुर्न रथ्यं नवं दधतो केतुमादिशे ।' महाभारत के वनपर्व में ऋभुओं को देवताओं का भी देवता कहा गया है : ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः । तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः || [ ऋभु देवताओं के भी देव हैं । उनके लोक बहुत परे हैं, जिनके लिए यहाँ देवता लोग यज्ञ करते हैं । ] ऋष्यशृङ्ग - विभाण्डक ऋषि के पुत्र, एक ऋषि । उनकी पत्नी राजा लोमपाद की कन्या शान्ता थी । वीरशैव या लिङ्गायतों के ऋष्यश्वङ्ग नामक एक प्राचीन आचार्य भी थे । ऋषभध्वज - शिव का एक पर्याय, उनकी ध्वजा में ऋषभ (बैल) का चिह्न रहता है । ऋषि - वेद; ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला । जो ज्ञान के द्वारा मन्त्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है यह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं- (१) व्यास आदि महर्षि, (२) भेल आदि परमर्षि (1) कण्व आदि देवर्षि, (४) वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि, (५) सुश्रुत आदि श्रुतर्षि, (६) ऋतुपर्ण आदि राजर्षि, (७) जैमिनि आदि काण्डर्षि । रत्नकोष में भी कहा गया है : सप्त ब्रह्मदेव महर्षि-परमर्षयः 1 काण्डषिश्च श्रुतश्चि राजर्षिश्च क्रमावराः ॥ [ ब्रह्मर्षि, देवर्षि महर्षि परमर्षि काण्डर्षि, श्रुतपि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं । ] 1 सामान्यतः वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे ( ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः ) । ऋग्वेद में प्रायः पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषिपरिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही । ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्रायः त्वष्टा से की गयी है जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे । निस्सन्देह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रान्त लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार 7 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिकुल्या भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यवि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है । साधारणतया मन्त्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मन्त्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था । परवर्ती साहित्य में ऋषि ऋचाओं के साक्षात्कार करने वाले माने गये हैं, जिनका संग्रह संहिताओं में हुआ । प्रत्येक वैदिक सूक्त के उल्लेख के साथ एक ऋषि का नाम आता है। ऋपिगण पवित्र पूर्व काल के प्रतिनिधि हैं तथा साधु माने गये हैं । उनके कार्यों को देवताओं के कार्य के तुल्य माना गया है। ऋग्वेद में कई स्थानों पर उन्हें सात के दल में उल्लिखित किया गया है । बृहदारण्यक उपनिषद् में उनके नाम गोतम, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, कश्यप एवं अपि बताये गये हैं । ऋग्वेद में कुत्स, अत्रि, रेभ, अगस्त्य, कुशिक, वसिष्ठ, व्यश्व तथा अन्य नाम ऋषिरूप में आते हैं । अथर्ववेद में और भी बड़ी तालिका है, जिसमें अङ्गिरा, अगस्ति, जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, वसिष्ठ, भरद्वाज, गवि ष्ठिर, विश्वामित्र, कुत्स, कक्षीवन्त, कण्व, मेधातिथि, त्रिशोक, उगना काव्य गोतम तथा मुद्गल के नाम सम्मि लित हैं। वैदिक काल में कवियों की प्रतियोगिता का भी प्रचलन था । अश्वमेव यज्ञ के एक मुख्य अङ्ग 'ब्रह्मोद्य' (समस्यापूर्ति) का यह एक अङ्ग था । उपनिषद्-काल में भी यह प्रतियोगिता प्रचलित रही । इस कार्य में सबसे प्रसिद्ध थे याज्ञवल्क्य जो विदेह राजा जनक की राजसभा में रहते थे । ऋषिगण त्रिकालज्ञ माने गये हैं । उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये साहित्य को आर्पेय कहा जाता है । यह विश्वास है कि कलियुग में ऋषि नहीं होते, अतः इस युग में न तो नयी श्रुति का साक्षात्कार हो सकता है और न नयी स्मृतियों की रचना उनकी रचनाओं का केवल अनुवाद, भाष्य और टीका ही सम्भव हैं । ऋषिकुल्या - एक पवि नदी | महाभारत ( तीर्थयात्रा पर्व, २.८४.४६) में इसका उल्लेख है ऋषिकुल्यां समासाद्य नरः स्नात्वा विकल्मषः । देवान् पितॄन् चार्चयित्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते ।। [ मनुष्य ऋषिकुल्या नदी में स्नान कर पापरहित होकर १३९ तथा देवताओं और पितरों का पूजन करके ऋषिलोक को प्राप्त होता है । ] ऋषिकेश दे० 'हृषीकेश' । ऋषिपञ्चमी व्रत - ब्रह्माण्डपुराण के अनुसार ऋषिपञ्चमी का वर्णन करते हुए हेमाद्रि कहते हैं कि यह व्रत भाद्र शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है । यह सभी वर्णों के लिए है, किन्तु प्रायः स्त्रियाँ ही यह व्रत वर्ष भर की अपवित्रता एवं छूत के प्रायश्चित्तार्थ करती हैं । नदी के स्नानोपरान्त व्रत करने वाले को दैनिक कर्तव्यों से मुक्त हो अग्निहोत्रमण्डप में आना चाहिए, वहाँ सप्तर्षियों की कुश से बनी मूर्ति को पञ्चामृत में नहलाना चाहिए, फिर उन्हें चन्दन तथा कपूर लगाना चाहिए। उनकी पूजा फूल, सुगन्धित पदार्थ, धूप, दीप, श्वेतवस्त्र, यज्ञोपवीत, नैवेद्य से करके अर्घ्य देना चाहिए। इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति तीनों प्रकार की बाधाओं से प्राण तथा भाग्योदय होता है। इस व्रत को करनेवाली स्त्री आनन्दोपभोग व सुन्दर शरीर, पुत्र पौत्र आदि प्राप्त करती है । ऋष्यमूक पर्वत रामायण की घटनाओं से सम्बद्ध दक्षिण भारत का पवित्र गिरि । विरूपाक्ष मन्दिर के पास से ऋष्यमूक तक मार्ग जाता है। यहाँ तुङ्गभद्रा नदी धनुषाकार बहती है। नदी में चक्रतीर्थ माना जाता है । पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराममन्दिर है । पास की पहाड़ी को 'मतङ्ग पर्वत' मानते हैं। इसी पर्वत पर मतङ्ग ऋषि का आश्रम था। पास ही चित्रकूट और जालेन्द्र नाम के शिखर हैं । यहीं तुङ्गभद्रा के उस पार दुन्दुभि पर्वत दीख पड़ता है, जिसके सहारे सुग्रीव ने श्री राम के बल की परीक्षा करायी थी । इन स्थानों में स्नान-ध्यान करने का विशेष महत्त्व है । ॠ ऋ - स्वर वर्ण का अष्टम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्नांकित है : ऋकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डलम् । पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ॥ चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणयुतं सदा । त्रिशनिसहितं वर्ण प्रणमामि सदा प्रिये ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम इस प्रकार हैं : Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल-एकजन्मा ऋः क्रोधोऽतिथिशो वाणी वामनो गोऽथ श्रीधतिः । ऊर्ध्वमुखी निशानाथः पद्ममाला विनवृधीः ।। शशिनी मोचिका श्रेष्ठा दैत्यमाता प्रतिष्ठिता। एकदन्ताह्वयो माता हरिता मिथुनोदया ।। कोमलः श्यामला मेधी प्रतिष्ठा पतिरष्टमी । ब्रह्मण्यमिव कीलाले पादको गन्धकर्षिणी ।। कामिनी विश्वपा कालो नित्या शुद्धः शुचिः कृती । सूर्यो धैर्योत्कर्षिणी च एकाकी दनुजप्रसूः ।। ल-देवनगरी (मेदिनीकोश); दैत्यस्त्री, दनुजमाता, कामधेनुमाता। शर्व, महादेव । इन एकाक्षर शब्दों का तान्थिक क्रियाओं में उपयोग होता है । ] ल-स्वर वर्ण का नवम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसकी तान्त्रिक महिमा इस प्रकार है : लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली परदेवता । अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ।। ब्रह्मदेवमयं वर्णं चतुर्ज्ञानमयं सदा । पञ्चप्राणयुतं वर्णं तथा गुणत्रयात्मकम् ।। बिन्दुत्रयात्मक वर्णं पीतविद्युल्लता तथा ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम बतलाये गये हैं : लः स्थाणुः श्रीधरः शुद्धो मेधा धूम्रावको वियत् । देवयोनिर्दक्षगण्डो महेशः कौन्तरुद्रकौ ॥ विश्वेश्वरो दीर्घजिह्वा महेन्द्रो लाङ्गलिः परा । चन्द्रिका पार्थिवो धूम्रा द्विदन्तः कामवर्द्धनः ।। शुचिस्मिता च नवमी कान्तिरायतकेश्वरः । चित्ताकर्षिणी काशश्च तृतीयकुलसुन्दरी ।। ल-देवमाता का एक पर्याय (मेदिनीकोश)। ए-स्वरवर्ण का एकादश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका धार्मिक माहात्म्य वर्णित है : एकारं परमं दिव्यं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । रञ्जिनी कुसुमप्रख्यं पञ्चदेवमयं सदा ॥ पञ्चप्राणात्मकं वर्णं तथा विन्दुत्रयात्मकम् । चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परमकुण्डली ॥ तन्त्रशास्त्र में एकार के कई नाम दिये हए हैं : एकारो वास्तवः शक्तिझिण्टी सोष्ठो भगं मरुत् । सुक्ष्मा भूतोकेशी च ज्योत्स्ना श्रद्धा प्रमर्दनः ।। भयं ज्ञानं कृशा धीरा जङ्घा सर्वसमुद्भवः । वह्निविष्णुर्भगवती कुण्डली मोहिनी रुरुः ।। योषिदाधारशक्तिश्च त्रिकोणा ईशसंज्ञकः । सन्धिरेकादशी भद्रा पद्मनाभः कुलाचलः ।। एककुण्डल-जिराके कान में एक ही कुण्डल है; बलराम । मेदिनीकोश के अनुसार यह कुबेर का भी पाय है। एकचक्र-एक नगरी, इसके पर्याय हैं-हरिगह, शुम्भपुरी । सूर्य का रथ, असहायचारी । ऋग्वेद (१.१६४. २) में कथन है : सप्त यञ्जन्ति रथमेकचक्रमेकोऽश्वो वहति सप्तनामा । त्रिनाभिचक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः ।। एक राजा । हरिवंश (३.८४) में कहा गया है : एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्च महाबलः । इस नाम का एक असुर भी था: एकचक्र इति ख्यात आसीद् यस्तु महासुरः । प्रतिविन्ध्य इति ख्यातो बभूव प्रथितः क्षितौ ।। [ जो एकचक्र नाम का महान् असुर था, वह 'प्रतिविन्ध्य' नाम से पृथ्वी में विख्यात हुआ।] एकजन्मा-शूद्र; द्विजातिभिन्न; जिसका दूसरा जन्म नहीं हो । जब मनुष्य का दूसरा जन्म (उपनयन संस्कार) होता ल-स्वरवर्ण का दशम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्नांकित है : लकारं परमेशानि पूर्णचन्द्र समप्रभम् । पञ्चदवात्मकं वर्ण पञ्चप्राणात्मकं सदा ।। गुणत्रयात्मक वर्ण तथा बिन्दुत्रयात्मकम् । चतुर्वर्गप्रदं देवि स्वयं परम कुण्डली ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं : लकारः कमला हर्षा हृषीकेशो मधुव्रतः । सुक्ष्मा कान्तिमिगण्डो रुद्रा कामोदरी सूरा ॥ शान्तिकृत स्वस्तिका शक्रो मायावी लोलुपो वियत् । कुशमी सुस्थिरो माता नीलपीतो गजाननः ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकतीर्थी-एकलिङ्गजी १४१ है तब वह द्विज अर्थात् द्विजन्मा होता है । शूद्र का यह एकनाथी भागवत-एकनाथजी द्वारा भागवतपुराण का संस्कार नहीं होता। मराठी भाषा में रचा गया छन्दोबद्ध रूपान्तर । यह अपनी एकतीर्थी—जिसका समान तीर्थ (गुरु) हो, सतीर्थ्य, सहपाठी, भावपूर्ण अभिव्यक्ति, रहस्य भेदन तथा हृदयग्राहकता के गरुभाई। धर्मशास्त्र में एकतीर्थी होने के अधिकारों और लिए प्रसिद्ध है। दायित्वों का वर्णन है। एकपाद-एक प्रकार का व्रत । योग के अनेक आत्मशोधक एकदन्त-जिसके एक दाँत हो, गणेश । परशुराम के द्वारा तथा मन को बाह्य वस्तुओं से हटाकर एकाग्र करने के इनके उखाड़े गये दाँत की कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस साधनों में से यह भी एक शारीरिक क्रिया है । इसमें लम्बी प्रकार है-एक समय एकान्त में बैठे हुए शिव-पार्वती के अवधि (कई सप्ताह) तक एक पाँव पर खड़े रहने का द्वारपाल गणेशजी थे। उसी समय उनके दर्शन के लिए विधान है। परशराम आये । शिवदर्शन के लिए लालायित होने पर एकपिङ्ग-यक्षराज कुबेर । उनके पिङ्गल नेत्र की कथा भी गणेशजी ने उन्हें भीतर नहीं जाने दिया। इस पर स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में कही गयी है। गणेशजी के साथ उनका तुमुल युद्ध हुआ। परशुराम के एकभक्त व्रत-जिसमें एक बार भोजन का विधान हो उसको द्वारा फेंके गये परशु से गणेशजी का एक दाँत टूट गया। एकभक्त व्रत कहते हैं। रात्रि में भोजन न करके केवल उस समय से गणेशजी एकदन्त कहलाने लगे। दिन में भोजन करना भी एकभक्त कहलाता है। एकदण्डी-शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित दसनामी संन्यासियों स्कन्दपुराण में लिखा है : में से प्रथम तीन (तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती) विशेष दिनार्धसमयेऽतीते भुज्यते नियमेन यत् । सम्मान्य माने जाते है । इनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित एकभक्तमिति प्रोक्तं रात्रौ तन्न कदाचन ।। हो सकते हैं । शेष सात वर्गों में अन्य वर्गों के लोग भी [दिन का आधा समय व्यतीत हो जाने पर नियम से आ सकते है, किन्तु दण्ड धारण करने के अधिकारी जो भोजन किया जाय उसे एकभक्त कहा जाता है। ब्राह्मण ही हैं । इसका दीक्षावत इतना कठिन होता है कि वह भोजन रात्रि में पुनः नहीं होता। ] इस व्रत का बहुत से लोग दण्ड के बिना ही रहना पसन्द करते हैं। नियम और फल विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है। इन्हीं संन्यासियों को 'एकदण्डी' कहते हैं। इसके विरुद्ध श्रीवैष्णव संन्यासी (जिनमें केवल ब्राह्मण ही सम्मिलित एकलिङ्ग-एक ही देवमूर्ति वाला स्थान । यह शिव का होते हैं) त्रिदण्ड धारण करते हैं। दोनों सम्प्रदायों में पर्याय है । आगम में लिखा है : अन्तर स्पष्ट करने के लिए इन्हें 'एकदण्डी' तथा पञ्चक्रोशान्तरे यत्र न लिङ्गान्तरमीक्ष्यते । 'त्रिदण्डी' नामों से पुकारते हैं। तदेकलिङ्गमाख्यातं तत्र सिद्धिरनुत्तमा ॥ एकदंष्ट्र-दे० 'एकदन्त' । [पाँच कोश के भीतर जहाँ पर एक ही लिङ्ग हो दूसरा न हो, उसे एकलिङ्ग स्थान कहा गया है। वहाँ एकनाथ-मध्ययुगीन भारतीय सन्तों में एकनाथ का नाम तप करने से उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।] बहुत प्रसिद्ध है। महाराष्ट्रीय उच्च भक्तों में नामदेव के पश्चात् दूसरा नार एकनाथ का ही आता है। इनकी एकलिङ्गजी--राजस्थान का प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थान । मृत्यु १६०८ ई० में हुई । ये वर्ण से ब्राह्मण थे तथा पैठन उदयपुर से नाथद्वारा जाते समय मार्ग में हल्दीघाटी में रहते थे। इन्होंने जातिप्रथा के विरुद्ध आवाज उठायी और एकलिङ्गजी का मन्दिर पड़ता है। उदयपुर से तथा अनुपम साहस के कारण कष्ट भी सहा । इनकी यह १२ मील है। एकलिङ्गजी की मूर्ति में चारों ओर प्रसिद्धि भागवतपुराण के मराठी कविता में अनुवाद के मुख हैं अर्थात् यह चतुर्मुख लिङ्ग है। एकलिङ्गजी कारण हुई। इसके कुछ भाग पंढरपुर के मन्दिर में मेवाड़ के महाराणाओं के आराध्य देव है। पास में इन्द्रसंकीर्तन के समय गाये जाते हैं। इन्होंने 'हरिपद' नामक सागर नामक सरोवर है। आस-पास में गणेश, लक्ष्मी, छब्बीस अभंगों का एक संग्रह भी रचा । दार्शनिक दृष्टि से डुटेश्वर धारेश्वर आदि कई देवताओं के मन्दिर हैं । पास ये अद्वैतवादी थे । में ही वनवासिनी देवी का मन्दिर भी है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ एकशृङ्ग-एकान्ती एकशृङ्ग-विष्णु के अवतार मत्स्य का एक सींग होने के ४१४ ( ब्रह्मपुराण से उद्धृत ) । सम्भवतः एका-अनङ्गा कारण उसको एकशृङ्ग कहते हैं। स्वायम्भुव मन्वन्तर देवी का व्रत पति के आकर्षण अथवा वशीकरण के लिए में असमय में ही प्रलय हो जाने के कारण मत्स्यरूप धारण किया जाता है। करनेवाले विष्ण के सींग में मन ने नाव बांधी थी। एकान्तरहस्य-वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें दे० कालिका पुराण, अ० ३२ दे। सम्पूर्ण प्रपत्तियोग पर आधारित पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों एका-अद्वितीया, दुर्गा : का निरूपण किया गया है। एकागणार्था त्रैलोक्ये तस्मादेका च सोच्यते । एकान्तद रामाय्य ( एकान्त रामाचार्य)-आलोचक विद्वानों [ समस्त गुणों की तीनों लोकों में वह एक ही मूर्ति । के अनुसार वीरशैव मत के संस्थापक वसव कहे जाते हैं, है, इसलिए उसे “एका" कहते हैं । ] जो कलचुरी राजा बिज्जल के प्रधान मंत्री थे। बिज्जल मार्कण्डेय पुराण (९०.७) में कथन है : ११५६ ई० में कल्याण में राज्य करता था। किन्तु डा० एकवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा । फ्लीट का मत है कि अब्लुर के एकान्तद रामाय्य ही [ इस संसार में मैं एक ही है: मझसे अतिरिक्त और वीरशैव मत के प्रवर्तक थे, जिनका चरित्र एक प्राचीन दूसरा कोई नहीं है । ] अभिलेख में प्राप्त है। वे पूर्णतया धर्मपरायण थे, जबकि एकाक्षरोपनिषद्-यह परवर्ती उपनिषद् है । इसमें अद्वैत वसव को राजनीतिक एवं सैनिक जीवन में भी लिप्त रहना अक्षर तत्त्व का निरूपण किया गया है। पड़ता था। 'एकान्तद रामाय्य' का संस्कृत रूप 'एकान्त एकादशी-प्रसिद्ध एवं पवित्र तिथि । यह शुक्ल पक्ष में रामायं' अथवा 'एकान्त रामाचार्य है। सूर्यमण्डल से चन्द्रमण्डल की निर्गम रूप एकादश कला एकान्न-एकभक्त व्रत, अर्थात् एक बार ही भोजन करने क्रिया है। कृष्ण पक्ष में सूर्यमण्डल में चन्द्रमण्डल की का व्रत । ऐसा व्रत जिसमें एक ही अन्न खाया जाय । प्रवेश रूप एकादश कला-क्रिया है । इसके पर्याय हैं-(१) स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में कथन है : हरिवासर, (२) हरिदिन। इस दिन अन्न त्याग, व्रत, ऊर्जे यवान्नमश्नीयादेकान्नमथवा पुनः । उपवास आदि किये जाते हैं। वैष्णवों के लिए इसका [कार्तिक मास में एक अन्न अथवा जौ खाना चाहिए।] विशेष महत्त्व है। कई रसोंवाली भोज्य वस्तुओं को एकमएक मिला एकादशीव्रत-सभी वैष्णव तथा बहुत से अन्य सम्प्रदाय देना भी एकान्न है। संन्यासियों के लिए ऐसे स्वादरहित वाले हिन्दू भी प्रत्येक एकादशी का व्रत करते हैं । इसका भोजन करने का नियम है। गांधीजी का 'अस्वादवत' माहात्म्य प्रसिद्ध है। वैसे तो सभी मासों की एकादशी यही है। पवित्र है, किन्तु कार्तिक शुक्ल एकादशी का विशेष महत्त्व एकान्ती-एक मात्र परमात्मा पर अवलम्बित रहने वाला। है। इसको प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । इसी दिन इस प्रकार के भक्त का अटल विश्वास होता है कि विष्णु अपनी निद्रा से जागते हैं। दे० 'प्रबोधिनी एकादशी'। परमेश्वर की पूजा-भक्ति ही केवल मोक्ष का मार्ग है । इसका पारमार्थिक भाव है अन्नत्याग के समान ही एकादश अतएव ईश्वर तथा उसके अवतारों की ही भक्ति एवं इन्द्रियों के विषयों-संसारी वस्तुओं का त्यागरूप एका- पूजा होनी चाहिए । इस प्रकार यह सम्प्रदाय एकेश्वरवादी दशी-व्रत । है। भागवत साहित्य बार-बार इस बात पर जोर देता एकानङ्गापूजा-इस व्रत का अनङ्ग (कामदेव ) से है कि सच्चा विश्वासी 'एकान्ती' ही होगा और वह केवल सम्बन्ध है । कार्तिक शुक्ल ४, ८, ९ अथवा चतुर्दशी को एक ईश्वर की आराधना करेगा। महिलाएँ किसी फलदार वृक्ष के नीचे एकानङ्गा का गरुडपुराण के १३१ वें अध्याय में लिखा है : पूजन करें। तत्पश्चात् बाज अथवा अन्य किसी पक्षी से एकान्तेनासमो विष्णुर्यस्मादेषां परायणः । कहें कि उनके उत्तम खाद्य तथा नैवेद्य में से वह चोंच तस्मादेकान्तिनः प्रोक्तास्तद्भावगतचेतसः ।। भरकर भगवती के पास कुछ थोड़ा-सा नैवेद्य ले जाये। [क्योंकि ये एकान्त भाव से महान् विष्णु की भक्ति उस दिन पत्नी पति से पूर्व ही भोजन कर ले । तदनन्तर करते हैं, अतः इन्हें एकान्ती कहा गया है। इनका मन वह पति को भोजन कराये । दे० कृत्यरत्नाकर, ४१३- भगवान् की ओर ही रहता है । ] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकायन-एकेश्वरवाद १४३ एक है सब ईश्वर पुरुषसू एकायन-मख्य आश्रय, एक मात्र गन्तव्य मार्ग, एकनिश्चय।। दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त एकेश्वरछान्दोग्य उपनिषद् में उद्धत अध्ययन का एक विषय; सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पुराणों में तो ईश्वर संभवतः नीतिशास्त्र । सेंट पीटर्सवर्ग डिक्शनरी में इसका के अस्तित्व का ही नहीं, किन्तु उसकी भक्ति, साधना अर्थ 'ऐक्य का सिद्धान्त' अर्थात 'एकेश्वरवाद' बतलाया गया और पूजा का अपरिमित विकास हुआ । विशेष कर विष्णुहै । मैक्समूलर इसका अर्थ 'आचरण शास्त्र' तथा मोनियर पुराण और श्रीमद्भागवतपुराण ईश्वरवाद के प्रबल विलियम अपने शब्दकोश में 'सांसारिक ज्ञान' बतलाते हैं। पुरस्कर्ता है। वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों में भी एकाष्टका-अथर्ववेद ( १५. १६. २; शतपथ ब्राह्मण ६, एकेश्वरवाद की प्रधानता रही है। इस प्रकार ऋग्वेद२, २, २३, ४, २, १० ) के अनुसार पूर्णमासी के पश्चात् काल से लेकर आज तक भारत में एकेश्वरवाद प्रतिअष्टम दिन एकाष्टका कहलाता है । एकाष्टका या अष्टका । का अर्थ सभी अष्टमी नहीं, अपितु कोई विशेष अष्टमी व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद की प्रधानता प्रतीत होता है। अथर्व० (३.१०) में सायण ने एकाष्टका होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की को माघ मास का कृष्णपक्षीय अष्टम दिन बतलाया है। दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता हैतैत्तिरीय संहिता में यह दिन उन लोगों की दीक्षा के लिए अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में निश्चित किया गया है, जो एक वर्ष की अवधि का कोई पूर्ण विलय । जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई यज्ञ करने जा रहे हों। रूप हैं। एक है सर्वेश्वरवाद । इसका अर्थ यह है कि एकेश्वरवाद-बहुत-से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर जगत् में जो कुछ भी है वह ईश्वर ही है और ईश्वर को मानना । इस धार्मिक अथवा दार्शनिक वाद के अनुसार सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में कोई एक सत्ता है जो विश्व का सर्जन और नियन्त्रण सर्वेश्वरवाद का रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। करती है; जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है; जो उपनिषदों में 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ।' पूर्ण और सभी गुणों का आगार है और जो सबका ध्यान में भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय केन्द्र और आराध्य है। यद्यपि विश्व के मूल में रहने सर्वेश्वरवाद पाश्चात्य 'पैनथिइज्म' नहीं है। पैनथिइज्म वाली सत्ता के विषय में कई भारतीय वाद हैं, जिनमें में ईश्वर अपने को जगत में समाप्त कर देता है। भारतीय एकत्ववाद और अद्वैतवाद बहुत प्रसिद्ध हैं, तथापि एकेश्वर- सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त वाद का उदय भारत में, ऋग्वेदिक काल से ही पाया विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी जाता है । अधिकांश यूरोपवासी प्राच्यविद्, जो भारतीय और अतिरेकी दोनों है। एकेश्वरवाद का दूसरा रूप है दैवततत्त्व को समझने में असमर्थ हैं और जिनको एक- 'ईश्वर कारणतावाद' । इसके अनुसार ईश्वर जगत् का अनेक में बराबर विरोध ही दिखाई पड़ता है, ऋग्वेद के निमित्त कारण है । जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। सिद्धान्त को बहुदेववादी मानते हैं । भारतीय विचार- ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है धारा के अनुसार विविध देवता एक ही देव के विविध और जगत् अपनी कर्मशृङ्खला से चलता रहता है । न्याय रूप हैं । अतः चाहे जिस देव की उपासना की जाय वह और वैशेषिक दर्शन इसी मत को मानते हैं । एकेश्वरवाद अन्त में जाकर एक ही देव को अर्पित होती है । ऋग्वेद का तीसरा रूप है 'शुद्ध ईश्वरवाद' । इसके अनुसार ईश्वर में वरुण, इन्द्र, विष्णु, विराट् पुरुष, प्रजापति आदि का सर्वेश्वर और ब्रह्म के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात् यही रहस्य बतलाया गया है। कर लेता है । वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी उपनिषदों में अद्वैतवाद के रूप में एकेश्वरवाद का और जगत् का कर्ता, धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और वर्णन पाया जाता है । उपनिषदों का सगुण ब्रह्म ही ईश्वर आराध्य है। इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में पुरुषोत्तम है, यद्यपि उसकी सत्ता व्यावहारिक मानी गयी है, कहा गया है। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी पारमार्थिक नहीं । महाभारत में (विशेष कर भगवद्गीता ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। एकेश्वरवाद का चौथा में ) ईश्वरवाद का सुन्दर विवेचन पाया जाता है। षड्- रूप है 'योगेश्वरवाद' । इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ एकोद्दिष्टश्राद्ध-एकोरामाराध्य शिवाचार्य जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय ( कर्मफल के संस्कार) से मुक्त रहता है; उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है । दे० पातञ्जल योगसूत्र, १.२४ । योगसूत्र की भोजवृत्ति (२.४५) के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो विघ्न बाधा उपस्थित होती है उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधिसिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है । परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त; वह केवल उपदेष्टा और गुरु है। एकेश्वरवाद में ईश्वरकारणतावाद ( ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है ) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें तीन मुख्य है-प्रथम है, 'जगत् की कार्यता।' इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है अतः इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-शृङ्खला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर । दूसरा प्रमाण है 'जगत् का आयोजनत्व', अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता ही होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती। तीसरा प्रमाण है 'कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध', अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध । इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए । एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के बिना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है । योगसूत्र में ईश्वर की सिद्धि के लिए एक और प्रमाण मिलता है। वह है सृष्टि में ज्ञान का तारतम्य (अनेक प्राणियों में ज्ञान की न्यूनाधिक मात्रा)। इस ज्ञान की कहीं न कहीं पराकाठा होनी चाहिए। वह ईश्वर में ही संभव है। सबसे बड़ा प्रमाण है सन्त और महात्माओं, ऋषि-मुनियों का साक्षात् अनुभव, जिन्होंने स्वतः ईश्वरानुभूति की है। एकोद्दिष्ट श्राद्ध-एक मृत व्यक्ति की शान्ति और तृप्ति के लिए किया गया श्राद्ध । यह परिवार के पितरों के वार्षिक श्राद्ध से भिन्न है । किसी व्यक्ति के दुर्दशाग्रस्त होकर मरने, डूबकर मरने, बूरे दिन पर मरने, मूलतः हिन्दू पर बाद में मुसलमान या ईसाई हो जाने वाले एवं जातिबहिष्कृत की मृत्यु पर 'नारायणबलि' नामक कर्म करते हैं। यह भी एकोद्दिष्ट का ही रूप है। इसके अन्तर्गत शालग्राममूर्ति की विशेष पूजा के साथ बीच-बीच में प्रेत का भी संस्कार किया जाता है। यह श्राद्धकर्म समस्त भारत में सनातन हिन्दू धर्मावलम्बियों में सामान्य अन्तर के साथ प्रचलित है। एकोराम-वीरशैव मत के संस्थापकों में से एक आचार्य । वीरशैव मत को लिंगायत वा जंगम भी कहते हैं। इसके संस्थापक पाँच संन्यासी माने जाते हैं, जो शिव के पाँच सिरों से उत्पन्न दिव्य रूपधारी माने गये हैं। कहा जाता है कि पाँच संन्यासी अतिप्राचीन युग में प्रकट हुए थे, बाद में वसव ने उनके मत को पुनर्जीवन दिया। किन्तु प्राचीन साहित्य के पर्यालोचन से पता चलता है कि ये लोग वसव के समकालीन अथवा कुछ आगे तथा कुछ पीछे के समय के हैं । ये पाँचों महात्मा वीरशैव मत से सम्बन्ध रखने वाले पाँच मठों के महन्त थे । एकोराम भी उन्हीं में से एक थे और ये केदारनाथ (हिमालय) मठ के अध्यक्ष थे। एकोरामाराध्य शिवाचार्य-कलियुग में उत्पन्न वीरशैव मत के एक आचार्य । दे० 'एकोराम' । ऐ-स्वर वर्ण का द्वादश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक माहात्म्य निम्न प्रकार है: ऐकारं परमं दिव्यं महाकुण्डलिनी स्वयम् । कोटिचन्द्र प्रतीकाशं पञ्च प्राणमयं सदा ।। ब्रह्मविष्णुमयं वर्ण तथा रुद्रमयं प्रिये । सदाशिवमयं वर्ण बिन्दुत्रय समन्वितम् ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं : ऐलज्जा भौतिकः कान्ता वायवी मोहिनी विभुः । दक्षा दामोदरः प्रज्ञोऽधरो विकृतमुख्यपि ।। क्षमात्मको जगद्योनिः परः परनिबोधकृत् । ज्ञानामृता कपदिश्रीः पीठेशोऽग्निः समातृकः ।। त्रिपुरा लोहिता राज्ञी वाग्भवो भौतिकासनः । महेश्वरो द्वादशी च विमलश्च सरस्वती ।। कामकोटो वामजानुरंशमान विजयो जटा । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐक्य-ऐन्द्रमहाभिषेक १४५ ऐक्य-वीरशैव भक्ति या साधना के मार्ग की छः अव- इनका नाम ऐतरेय पड़ा । इसका रचनाकाल बहुत प्राचीन स्थाएँ शिव के ऐक्य की ओर ले जाती हैं । वे हैं भक्ति, है। इसमें जनमेजय का उल्लेख है, अतः इसको कुछ महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं ऐक्य । ऐक्य भक्ति विद्वान् परवर्ती मानते हैं, किन्तु यह कहना कठिन है कि की चरम परिणति है, जिसमें शिव और भक्त का भेद यह जनमेजय महाभारत का परवर्ती है अथवा अन्य कोई मिट जाता है। पूर्ववर्ती राजा। ऐड--देवी का एक बीजमन्त्र । रहस्यमय शाक्त मन्त्रों में __ ऐतरेय ब्राह्मण पर गोविन्द स्वामी तथा सायण के अधिकांश गूढार्थक ध्वनिसमूह हैं, यथा ह्रीङ्, हूङ, महत्त्वपूर्ण भाष्य हैं । सायणभाष्य के आजकल चार संस्कहम्, फट् । 'ऐड्' भी शाक्त मन्त्र की एक ध्वनि है। इस रण उपलब्ध हैं । आधुनिक युग में इसका पहला संस्करण ध्वनि के जप से अद्भुत शक्ति का उदय माना जाता है। अंग्रेजी अनुवाद के साथ मार्टिन हाग ने १८६३ ई० में ऐतरेय आरण्यक-आरण्यक शब्द की व्याख्या पूर्ववर्ती पृष्ठों प्रकाशित किया था । दूसरा संस्करण थियोडोर आडफरेस्टन में हो चुकी है। ऐतरेय आरण्यक ऋग्वेद के ऐसे ही दो ने १८७९ ई० में प्रकाशित किया। पण्डित काशीनाथ ग्रन्थों में से एक है। इसके पाँच अध्याय है, दूसरे और शास्त्री ने १८९६ में इसका तीसरा संस्करण निकाला तीसरे में वेदान्त का प्रतिपादन है अतः वे स्वतन्त्र और चौथा संस्करण ए० वी० कीथ द्वारा प्रकाशित किया उपनिषद् माने जाते हैं। इन दो अध्यायों का संकलन गया। महीदास ऐतरेय ने किया था । प्रथम के संकलक का पता ऐतरेयोपनिषद-एक ऋग्वेदीय उपनिषद् । ऋग्वेद के नहीं, चौथे-पाँचवें का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ऐतरेय आरण्यक में पाँच अध्याय और सात खण्ड हैं । ने किया। दे० 'आरण्यक' ।। इनमें से चौथे, पाँचवें तथा छठे खण्डों का संयुक्त नाम ऐतरेय ब्राह्मण-ऋक् साहित्य में दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ऐतरेयोपनिषद् है। इन तीनों में क्रमशः जगत्, जीव पहले का नाम ऐतरेय ब्राह्मण तथा दूसरे का शाङ्खायन तथा ब्रह्म का निरूपण किया गया है। इसकी गणना अथवा कौषीतकि ब्राह्मण है। दोनों ग्रन्थों का अत्यन्त । प्राचीन उपनिषदों में की जाती है। घनिष्ठ सम्बन्ध है, यत्र-तत्र एक ही विषय की व्याख्या ऐतरेयोपनिषद्दीपिका-माधवाचार्य अथवा विद्यारण्यस्वामी की गयी है, किन्तु एक ब्राहाण में दूसरे ब्राह्मण से विप- द्वारा रचित ऐतरेयोपनिषद की शाङ्करभाष्यानुसारिणी रीत अर्थ प्रकट किया गया है । कौषीतकि ब्राह्मण में जिस टीका। अच्छे ढंग से विषयों को व्याख्या की गयी है उस ढंग से ऐतिद्यतत्त्वसिद्धान्त-स्वामी निम्बार्काचार्य द्वारा रचित ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं है । ऐतरेय ब्राह्मण के पिछले दस माना गया एक ग्रन्थ । इसका उल्लेख अन्य ग्रन्थों में पाया अध्यायों में जिन विषयों की व्याख्या की गयी है वे कौषी जाता है । उक्त आचार्य के किसी पश्चाद्भावी अनुयायी तकि में नहीं हैं, किन्तु इस अभाव को शाङ्खायनसूत्रों में द्वारा इसका निर्माण सम्भव है। (इसकी एक ताड़पत्रित पूरा किया गया है । आजकल जो ऐतरेय ब्राह्मण उपलब्ध प्रतिलिपि 'ऐतिह्यतत्त्वराद्धान्त' नाम से 'निम्बार्कपीठ, है उसमें कुल चालीस अध्याय हैं । इनका आठ पञ्चिकाओं प्रयाग' के जगद्गुरुपुस्तकालय में सुरक्षित है।) में विभाग हआ है। शासायनब्राह्मण में तीस अध्याय ऐन्द्रमहाभिषेक-ऐतरेय ब्राह्मण में दो विभिन्न राजकीय हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अन्तिम दस अध्याय ऐतिहासिक यज्ञों का विवरण प्राप्त होता है। वे हैं-पुनरभिषेक (८. आख्यानों से भरे हैं । इसमें बहुत से भौगोलिक विवरण ५-११) एवं ऐन्द्रमहाभिषेक (८. १२-२०)। प्रथम कृत्य भी मिलते हैं। इन ब्राह्मणों में 'आख्यान' है, 'गाथाएँ' का राज्यारोहण से सम्बन्ध नहीं है । यह कदाचित् राजहै, 'अभियज्ञ गाथाएँ' भी है जिनमें बताया गया है कि सूय यज्ञ से सम्बन्धित है। ऐन्द्रमहाभिषेक का सिंहासनाकिस मन्त्र का किस अवसर पर किस प्रकार आविर्भाव रोहण से सम्बन्ध है । इसका नाम ऐन्द्रमहाभिषेक इसलिए हुआ है। पड़ा कि इसमें वे क्रियाएं की जाती हैं, जो इन्द्र के स्वर्गऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महीदास ऐतरेय माने जाते राज्यारोहण के लिए की गयी मानी जाती हैं। पुरोहित है । ये इतरा नामक दासी से उत्पन्न हुए थे, इसलिए इस अवसर पर राजा के शरीर में इन्द्र के गुणों की Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ऐन्द्रि - ओ स्थापना मन्त्र एवं प्रतिज्ञाओं द्वारा करता है । दे० 'अभि- ऐल — इला का पुत्र पुरूरवा । इसीसे ऐल अथवा चन्द्रवंश का पेक' और 'राज्याभिषेक' | आरम्भ हुआ था। महाभारत ( १७५ १७) में कथन है : पुरूरवास्ततो विद्वानिलायां समपद्यत । सा वै तस्याभवन्माता पिता चैवेति नः श्रुतम् ॥ ऐन्द्रि - इन्द्र का पुत्र जयन्त । बाली नामक वानरराज को भी ऐन्द्रि कहा गया है, अर्जुन का भी एक पर्याय ऐन्द्र है, क्योंकि इन दोनों का जन्म इन्द्र से हुआ था । ऐन्द्री - इन्द्र की पत्नी । मार्कण्डेयपुराण (८८. २२) में कथन है : 'वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरि स्थिता ।' दुर्गा का भी एक नाम ऐन्द्री है। पूर्व दिशा, इन्द्र देवता के लिए पढ़ी गयी ऋचा, ज्येष्ठा नक्षत्र भी ऐन्द्री कहे जाते हैं । ऐयनार - एक ग्रामदेवता, जिसकी पूजा दक्षिण भारत में व्यापक रूप से होती है । इसका मुख्य कार्य है खेतों को किसी भी प्रकार की हानि, विशेष कर दैवी विपत्तियों से बचाना । प्रायः प्रत्येक गाँव में इसका चबूतरा पाया जाता है । मानवरूप में इसकी मूर्ति बनायी जाती है । यह मुकुट धारण करता है और घोड़े पर सवार होता है । इसकी दो पत्नियों, पूरणी और पुदुक्ला की मूर्तियां इसके साथ पायी जाती है जो रक्षण कार्य में उसकी सहायता करती हैं । कृषि परिपक्व होने के समय इनकी पूजा विशेष प्रकार से की जाती है। ऐयनार की उत्पत्ति हरिहर के संयोग से मानी जाती है। जब हरि (विष्णु) ने मोहिनी रूप धारण किया था उस समय हर (शिव) के तेज से ऐयनार की उत्पत्ति हुई थी। इसका प्रतीकत्व यह है कि इस देवता में रक्षण और संहार दोनों भावों का मिश्रण है । ऐरावत-पूर्व दिशा का दिग्गज इन्द्र का हाथी, यह श्वेतवर्ण, चार दाँत वाला, समुद्र के मन्थन से निकला हुआ स्वर्ग का हाथी है । इसके पर्याय हैं - अभ्रमातङ्ग, अभ्रमुवल्लभ श्वेतहस्ती, चतुर्दन्त मल्लनाग इन्द्रकुञ्जर, हस्तिमल्ल, सदादान, सुदामा, श्वेतकुञ्जर, गजाग्रणी, नागमल्ल । महाभारत, भीष्मपर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भूभाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया है। जनसाहित्य में भी यही नाम आया है। इस भाग के निवासियों के विलास एवं यहाँ के सौन्दर्यादि का वर्णन भीष्मपर्व के पूर्व अध्यायों में वर्णित 'उत्तरकुरु' देश के अनुरूप ही हुआ है । [ पश्चात् पुरूरवा इला से उत्पन्न हुआ । वही उसकी माता तथा पिता हुई ऐसा सुना जाता है । ] ऐल अथवा चन्द्रवंश भारतीय इतिहास का बहुत प्रसिद्ध राजवंश है । इसमें पुरूरवा, आयु, ययाति आदि विख्यात राजा हुए। ययाति के पुत्र यदु, पुरु, अनु आदि थे । यदु के वंश का विपुल प्रसार भारत में हुआ 1 ऐश्वर्यं - स्वामित्वसूचक सामग्री; वैभव; ईश्वर का भाव । उसके पर्याय है- विभूति भूति, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावसायिता छः भगों में भी इसकी गणना है : ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीङ्गना ।। [ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, वीर्य, यश, शोभा, ज्ञान और वैराग्य इन छः को भग कहते हैं । ] ऐश्वर्यतृतीया - तृतीया के दिन ब्रह्मा, विष्णु अथवा शिव की पूजा का विधान है। ऐश्वर्य की अभिवृद्धि के लिए तीनों लोकों के साथ तीनों देवताओं का नाम तथा मन्त्रोच्चारण करना चाहिए । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.४९८ । ओ ओ स्वरवर्ण का त्रयोदश अक्षर कामधेनु तन्त्र में इसका धार्मिक माहात्म्य इस प्रकार है : ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदेवमयं सदा । रक्तविद्युल्लताकारं त्रिगुणात्मानमीश्वरम् ॥ पञ्चप्राणमयं वर्णं नमामि देवमातरम् । एतद् वर्ण महेशानि स्वयं परमकुण्डली | तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं : सद्योजातो वासुदेवो गायत्री दीर्घजकः । आप्यायनी चोर्ध्वदन्तो लक्ष्मीर्वाणी मुखी द्विजः ॥ उद्देश्यदर्शकस्तीव्र : कैलासो कैलासो वसुधाक्षरः । प्रणवांशी ब्रह्मसूत्र मजेश सर्वमङ्गला ॥ त्रयोदशी दीर्घनासा रतिनाथ दिगम्बरः । त्रैलोक्यविजया प्रज्ञा प्रीतिबीजादिकर्षिणी ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओम्-औघड़ १४७ ओम्-प्रणव, ओंकार; परमात्मा । यह नाम अकार, उकार विन्ध्य पर्वत की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव तथा मकार तीन वर्णी से बना हुआ है। कहा भी है : यहाँ ओङ्कारेश्वर रूप में विराजमान हुए हैं। अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः । ओगण-पश्चिमी पंडितों के विचार से ऋग्वेद (१०.८९. मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः ।। १५) में यह शब्द केवल बहुवचन में उन व्यक्तियों के [ अकार से विष्णु, उकार से महेश्वर, मकार से ब्रह्मा लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वैदिक ऋषियों के शत्रु थे । का बोध होता है। इस प्रकार प्रणव से तीनों का बोध लुड्विग के अनुसार ( ऋग्वेद, ५.२०९ ) यह शब्द एक होता है । ] व्यक्ति विशेष का बोधक है। पिशेल ( वेदिके स्टुडिअन, यथा पर्ण पलाशस्य शकुनैकेन धार्यते । पृ० २, १९१, १९२ ) इसे एक विशेषण बतलाते हैं, तथा जगदिदं सर्वमोंकारेणैव धार्यते ।। जिसका अर्थ 'दुर्बल' है। (याज्ञवल्क्य) __ ओङ्कारवादार्थ-तृतीय श्रीनिवास ( अठारहवीं शताब्दी [ जैसे पलाश का पत्ता एक तिनके से उठाया जा __ के पूर्वार्ध में उत्पन्न ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें सकता है, उसी प्रकार यह विश्व ओंकार से धारण किया विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन किया गया है । जाता है । ] ओषधिप्रस्थ–ओषधि-वनस्पतियों से भरपूर पर्वतीय भूमि; ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । ऐसे स्थान पर बसी हुई नगरी, जो हिमालय की राजकण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ ॥ धानी थी। इसका कुमारसम्भव में वर्णन है : [ ओंकार और अथ शब्द ये दोनों ब्रह्मा के कण्ठ को तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम् । भेदन करके निकले है। इसीलिए इन्हें माङ्गलिक कहा [ कार्यसिद्धि के लिए हिमालय के ओषधिप्रस्थ नामक गया है। ] नगर को जाइए।] तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ।। उपासना और यौगिक क्रियाओं के लिए यह स्थान (गीता, अ०१७) उपयुक्त माना गया है। औ [ इसलिए 'ॐ' का उच्चारण करके ब्रह्मवादी लोग विधिपूर्वक निरन्तर यज्ञ, दान, तप की क्रिया आरम्भ औ-स्वर वर्ण का चतुर्दश अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका करते हैं।] माहात्म्य इस प्रकार दिया हुआ है : ___'ओम्' स्वीकार, अंगीकार, रोष अर्थों में भी प्रयुक्त रक्तविद्युल्लताकारं औकारं कुण्डली स्वयम् । होता है। अत्र ब्रह्मादयः सर्वे तिष्ठन्ति सततं प्रिये ॥ योगी लोग ओंकार का उच्चारण दीर्घतम घंटाध्वनि पञ्चप्राणमयं वर्ण सदाशिवमयं सदा। के समान बहुत लम्बा या अत्यन्त प्लुत स्वर से करते हैं, सदा ईश्वरसंयुक्तं चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ उसका नाम 'उद्गीथ' है। प्लुत के सूचनार्थ ही इसके तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं : बीच में '३' का अंक लिखा जाता है। इसकी गुप्त चौथी औकारः शक्तिको नादस्तेजसो वामजङ्घकः । मनुरर्द्धग्रहेशश्च मात्रा का उच्चारण या चिन्तन ब्रह्मज्ञानी जन करते है। शङ्कर्णः सदाशिवः ।। ओङ्कारेश्वर-प्रसिद्ध शव तीर्थ । द्वादश ज्योतिलिङ्गों में अधोदन्तश्च कण्ठ्योष्ठ्यौ सङ्कर्षणः सरस्वती । 'ओङ्कारेश्वर' की गणना है। यहाँ दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं; आज्ञा चोर्ध्वमुखी शान्तो व्यापिनी प्रकृतः पयः ।। ओडारेश्वर और अमलेश्वर । नर्मदा नदी के बीच में अनन्ता ज्वालिनी व्योमा चतुर्दशी रतिप्रियः । मान्धाता द्वीप पर ओडारेश्वर लिङ्ग है । यहीं पर सूर्य- नेत्रमात्मकर्षिणी च ज्वाला मालिनिका भृगुः ।। वंश के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने शङ्कर की तपस्या की औघड़-प्राचीन पाशुपत सम्प्रदाय प्रायः लुप्त हो गया है। थी। इस द्वीप का आकार प्रणव से मिलता जलता है। उसके कुछ विकृत अनुयायी अघोरी अवश्य देखे जाते हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ औडुलोमि-क वे पुराने कापालिक हैं एवं गोरख और कबीर के प्रभाव से परिवर्तित रूप में दीख पड़ते हैं। ___ तान्त्रिक एवं कापालिक भावों का मिश्रण इनकी चर्या में देखा जाता है, अतः ये किसी बन्धन या नियम से अव- घटित-अघटित ( नहीं गढ़े हुए) मस्त, फक्कड़ पड़े रहते हैं, इसी से ये औधड़ कहलाते हैं । दे० 'अघोर पंथ'। औडुलोमि-एक पुरातन वेदान्ताचार्य । वेदान्ती दार्शनिक आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध की प्रायः तीन प्रकार से व्याख्या करते हैं। आश्मरथ्य के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से भिन्न है न अभिन्न । इनके सिद्धान्त को भेदाभेदवाद कहते हैं। दूसरे विचारक औडुलोमि हैं। इनका कथन है कि आत्मा ब्रह्म से तब तक भिन्न है, जब तक यह मोक्ष पाकर ब्रह्म में मिल नहीं जाता । इनके सिद्धान्त को सत्यभेद या द्वैत सिद्धान्त कहते हैं । तीसरे विचारक काशकृत्स्न हैं। इनके उनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है। इनका सिद्धान्त अद्वैतवाद है। आचार्य औडुलोमि का नाम केवल वेदान्तसूत्र ( १.४. २१;३.४.४५;४.४.६ ) में ही मिलता है, मीमांसासूत्र में नहीं मिलता । ये भी बादरायण के पूर्ववर्ती जान पड़ते है । ये वेदान्त के आचार्य और आत्मा-ब्रह्म भेदवाद के समर्थक थे। औद्गात्रसारसंग्रह-सामवेदी विधियों का संग्रहरूप एक निबन्धग्रन्थ है। सामवेद का अन्य श्रौतसूत्र 'द्राह्यायण' है । 'लाटचायन श्रौतसूत्र' से इसका बहत थोडा भेद है। यह सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है । मध्वस्वामी ने इसका भाष्य लिखा है तथा रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'औदगात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध में उस भाष्य का संस्कार किया है। और्ध्वदेहिक-शरीर त्याग के बाद आत्मा की सद्गति के लिए किया हआ कर्म । मृत शरीर के लिए उस दिन प्रदत्त दान और संस्कार का नाम भी यही है । जिस दिन व्यक्ति मरा हो उस दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व तक प्रेत की तृप्ति के लिए जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह सब और्ध्वदेहिक कहलता है। दे० 'अन्त्येष्टि' । मनु ( ११.१० ) में कहा गया है : भृत्यानामुपरोधेन यत्करोत्यौवंदेहिकम् । तद्वत्यसूखोद जीवतश्च मतस्य च ॥ [ अपने आश्रित रहने वालों को कष्ट देकर जो मतात्मा के लिए दान आदि देता है वह दान जीवन में तथा मरने के पश्चात् भी दुःखकारक होता है।] और्णनाभ-ऋग्वेद (१०.१२०.६ ) में दनु के सात पुत्र दानवों के नाम आते हैं। ये अनावृष्टि ( सूखा ) के दानव हैं और सूखे मौसम में आकाश की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । इनमें वृत्र आकाशीय जल को अवरुद्ध करने वाला है जो सारे आकाश में छाया रहता है । दूसरा शुश्न है जो सस्य को नष्ट करता है । यह वर्षा ( मानसून ) के पहले पड़ने वाली प्रचंड गर्मी का प्रतिनिधि है। तीसरा और्णनाभ ( मकड़ी का पुत्र ) है । कदाचित् इसका ऐसा नाम इसलिए पड़ा कि सूखे मौसम में आकाश का दृश्य फैले हुए ऊन या मकड़े जैसा हो जाता है। औरस-अपने अंश से धर्मपत्नी के द्वारा उत्पन्न सन्तान । याज्ञवल्क्य के अनुसार : स्वक्षेत्रे संस्कृतायान्तु स्वयमुत्पादयेद्धि यम् । तमौरसं विजानीयात् पुत्रं प्रथमकल्पितम् ।। [संस्कारपूर्वक विवाहित स्त्री से जो पुत्र उत्पन्न किया जाता है उसे सर्वश्रेष्ठ औरस पुत्र जानना चाहिए। ] धर्मशास्त्र में औरस पुत्र के अधिकारों और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। अ: अ:-यह एकाक्षरकोश के अनुसार महेश्वर का प्रतीक है । महाभारत में भी इसकी पुष्टि हुई है : बिन्दुविसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः । (१३.१७.१२६) कामधेनुतन्त्र में इसका प्रतीकत्व वर्णित है : अःकारं परमेशानि विसर्ग सहितं सदा । अकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम् ।। पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा । सर्वज्ञानमयो वर्णः आत्मादितत्त्वसंयुतः ।। बिन्दूत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा। किशोरवयसः सर्वे गीतवाद्यादि तत्पराः ॥ शिवस्य युवती एताः स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ॥ क-व्यञ्जनवर्ण के कवर्ग का प्रथम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्षीवाम्-कण्ठ : । इसका प्रतीकात्मक रहस्य निम्नलिखित बतलाया गया है। अधुना संप्रवक्ष्यामि ककारतत्वमुत्तमम् । रहस्यं परमाश्चर्यं त्रैलोक्यानाञ्च संशृणु ॥ वामरेखा भवेद् ब्रह्मा विष्णुर्दक्षिणरेखिका | अधोरेखा भवेद् रुद्रो मात्रा साक्षात्सरस्वती ॥ कुण्डली अंकुशाकारा मध्ये शून्यः सदाशिवः । जवायावकसंकाशा वामरेखा वरानने ॥ शरच्चन्द्रप्रतीकाशा दक्ष रेखा च मूर्तिमान् । अधोरेखा वरारोहे महामरकतद्युतिः ॥ शङ्खकुन्दसमा कीर्तिर्मात्रा साक्षात् सरस्वती । कुण्डली अशा या तु कोटिविद्युल्लताकृतिः ॥ कोटिचन्द्रप्रतीकाशो मध्ये शून्यः सदाशिवः । शून्यगर्भे स्थिता काली कैवल्यपददायिनी ॥ ककाराज्जायते सर्व कामं कैवल्यमेव च । अवश्य जायते देवि तथा धर्मश्च नान्यथा ॥ ककारः सर्ववर्णानां मूलप्रकृतिरेव च । ककारः कामदा कामरूपिणी स्फुरदव्यया ॥ कमनीया महेशानि स्वयं प्रकृति सुन्दरी । माता सा सर्वदेवानां कैवल्य पददायिनी ॥ ऊर्ध्वकोणे स्थिता कामा ब्रह्मतिरितीरिता । वामकोणे स्थिता ज्येष्ठा विष्णुशक्तिरितीरिता ।। दक्षको स्थिता बिन्दू रौद्री संहाररूपिणी । ज्ञानात्मा स तु चाङ्गि कलाचतुष्टयात्मकः ॥ इच्छाशक्तिर्भवेद् ब्रह्मा विष्णुश्च ज्ञानशक्तिमान् । क्रियाशक्तिर्भवेद् रुद्र: सर्व प्रकृतिमूर्तिमान् ॥ आत्मविद्या शिवस्तत्र सदा मन्त्रः प्रतिष्ठितः । आसनं त्रिपुरादेव्याः ककारं पञ्चदैवतम् ॥ ईश्वरो यस्तु देवेशि त्रिकोणे तस्य संस्थितिः । त्रिकोणमेतत् कथितं योनि मण्डलमुत्तमम् ॥ केवलं प्रपदे यस्या: कामिनी सा प्रकीर्तिता । जवायrवकसिन्दूर सदृशी कामिनी पराम् ॥ चतुर्भुजां त्रिनेत्रा बाहुवल्ली विराजिताम् । कदम्ब कोरकाकारस्तनद्वय विभूषिताम् || तान्त्रिक क्रियाओं में इस अक्षर का वहा उपयोग होता है । कक्षीवान् — ऋचाओं के द्रष्टा एक ऋषि । ऋग्वेद (१.१८, १,५१, १३, ११२, १६, ११६, ७, ११७, ६, १२६,३,४.२६,१; ८.९,१०,१.७४, ८ १०.२५, १०६१,१६) में अनेकों बार १४९ कक्षीवान् ऋषि का नाम उद्धृत है । वे उशिज नामक दासी के पुत्र और परिवार से 'पत्र' थे, क्योंकि उनकी एक उपाधि परिचय (०३० १.११६,७११७,६) है। ऋग्वेद (१.१२६) में उन्होंने सिंधुतट पर निवास करने वाले स्वनय भाग्य नामक राजकुमार की प्रशंसा की है, जिसने उनको सुन्दर दान दिया था । वृद्धावस्था में उन्होंने वृचया नामक कुमारी को पत्नी रूप में प्राप्त किया। ये दीर्घजीवी थे। ऋग्वेद (४.२६,१) में पुराकथित कुस्स एवं उशना के साथ इनका नाम आता है । परवर्ती साहित्य में इन्हें आचार्य माना गया है। इनका नाम ऋग्वेद के कतिपय सूतों के संकलन कार नौ ऋषियों की तालिका में आता है ये नौ ऋषि हैंसव्य नोधस, पराशर, गोतम, कुत्स, कक्षीवान्, परुच्छेप, दीर्घतमा एवं अगस्त्य । ये पूर्ववर्ती छः ऋषियों से या उनके कुलों से भिन्न हैं । कङ्कतीय - शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत एक परिवार का नाम, जिसने शाण्डिल्य से 'अग्निचयन' सीखा था । आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में 'कङ्कतिब्राह्मण ग्रन्थ का उद्धरण है । बौधायनश्रौतसूत्र में उद्धृत छागलेयब्राह्मण एवं कङ्कतिब्राह्मण सम्भवतः एक ही ग्रन्थ के दो नाम हैं । कंस - पुराणों के अनुसार यह अन्धक - वृष्णि संघ के गणमुख्य उग्रसेन का पुत्र था । इसमें स्वच्छन्द शासकीय या अधिनायकवादी प्रवृत्तियां जागृत हुई और पिता की अपदस्थ करके यह स्वयं राजा बन बैठा। इसकी बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव थे। इनको भी इसने कारागार में डाल दिया । यहीं पर इनसे कृष्ण का जन्म हुआ अतः कृष्ण के साथ उसका विरोध स्वाभाविक था । कृष्ण ने उसका वध कर दिया। अपनी निरंकुश प्रवृत्तियों के कारण कंस का चित्रण राक्षस के रूप में हुआ है । - कच्छ- - शीघ्र गति और सन्नद्धता के लिए पहना गया जाँघिया, जो सिक्खों के लिए आवश्यक है । गुरु गोविन्दसिंह ने मुगल साम्राज्य से युद्ध करने के लिए एक शक्तिशाली सेना बनायी अपने सैनिकों पर पूर्णरूप से धार्मिक प्रभाव डालने के लिए उन्होंने अपने हाथ से उन्हें 'खड्ग दी पहल' तलवार का धर्म दिया तथा उनसे बहुत सी प्रतिज्ञाएं करायीं । इन प्रतिज्ञाओं में 'क' से प्रारम्भ होने वाले पाँच पहनावों का ग्रहण करना भी था। कच्छ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ( कच्छा) उन पाँचों में से एक है। पाँच पहनावे है कच्छ कड़ा, कृपाण, केश एवं कंघा । कज्जली - भाद्र कृष्ण तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए । इसमें विष्णुपूजा का विधान है । निर्णयसिन्धु के अनुसार यह मध्य देश (बनारस, प्रयाग आदि ) में अत्यन्त प्रसिद्ध है । कठरुद्रोपनिषद् - उत्तरकालीन एक उपनिषद् । जैसा कि नाम से प्रकट है, यह कठशाखा तथा रुद्र देवता से सम्बद्ध उपनिषद् है । इसमें रुद्र की महिमा तथा आराधना बतलायी गयी है। कठश्रुति उपनिषद् - यह संन्यासमार्गीय एक उपनिषद् है । इसका रचनाकाल मैत्रायणी उपनिषद् के लगभग है। कठोपनिषद् - कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा के अन्तर्गत यह उपनिषद् है । इसमें दो अध्याय और छः वल्लियाँ हैं । इसके विषय का प्रारम्भ उद्दालकपुत्र वाजश्रवस ऋषि के विश्वजित् यज्ञ के साथ होता है। इसमें नचिकेता की प्रसिद्ध कथा है, जिसमें श्रेय और प्रेय का विवेचन किया गया है। नचिकेता ने यमराज से तीन वर मांगे थे, जिनमें तीसरा ब्रह्मज्ञान का वर था । यमराज द्वारा नचिकेता के प्रति वर्णित ब्रह्मविद्या का उपदेश इसका प्रतिपाद्य मुख्य विषय है। कण्टकोद्धार - आचार्य रामानुज ( विक्रमाब्द प्रायः ११९४ ) ने अपने मत की पुष्टि, प्रचार एवं शाङ्करमत के खण्डन के लिए अनेकों ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'कण्टकोद्धार' भी एक है । इसमें अद्वैतमत का निराकरण करके विशिष्टाद्वैत मत का प्रतिपादन किया गया है। कटदानोत्सव यह उत्सव भाद्रपद शुक्ल एकादशी, द्वादशी, पूर्णिमा को जब भगवान् विष्णु दो मास के और शयन के लिए करवट बदलते हैं, मनाया जाता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड २.८१३ स्मृतिकौस्तुभ १५३ ॥ कणाद - वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ऋषि । इनका वैशेषिकसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है । प्रशस्तपाद का 'पदार्थधर्मसंग्रह' नामक ग्रन्थ ही वैशेषिक दर्शन का भाष्य कहलाता है | परन्तु यह भाष्य नहीं है और सूत्रों के आधार पर प्रणीत स्वतन्त्र ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में कणाद ने धर्म का लक्षण इस प्रकार बतलाया है : 1 कजली-प 'यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः ।' [ जिससे अभ्युदय ( ऐहलौकिक सुख) तथा निःश्रेयस ( पारमार्थिक मोक्ष) की सिद्धि हो वह धर्म है । ] इसके पश्चात् सब पदार्थों के प्रकार, लक्षण तथा स्वरूप का परिचय दिया गया है। उनके मतानुसार नाना भेदों से भिन्न अनन्त पदार्थ हैं । इन समस्त पदार्थों की अवगति हजार युग बीत जाने पर भी एक-एक को पकड़कर नहीं हो सकती । अतः श्रेणीविभाग द्वारा विश्व के सभी पदार्थों का ज्ञान इस दर्शन के द्वारा कराया गया है। इसमें विशेषताओं के आधार पर पदार्थों का वर्णन किया गया है, अतः इसका नाम वैशेषिक दर्शन है । प्रसिद्ध है कि कश्यप गोत्र के ऋषि कणाद ने उम्र तप किया और इन्होंने शिलोञ्छ बीनकर अपना जीवन बिताया इसीलिए ये कणाद (कण = दाना खाने वाले) कहलाये । अथवा कण अणु के सिद्धान्तप्रवर्तक होने से ये कणाद कहे गये। इनके शुद्ध अन्तःकरण में इसीलिए पदार्थों के तत्त्वज्ञान का उदय हुआ । कणाद ने प्रमेय के विस्तार के साथ अपने सूत्रों में आत्मा और अनात्मा पदार्थों का विवेचन किया है। परन्तु शास्त्रार्थ की विधि और प्रमाणों के विस्तार के साथ इन वस्तुओं के विवेचन की आवश्यकता थी । इसकी पूर्ति गौतम के 'न्यायदर्शन' में की गयी है। दे० 'वैशेषिक दर्शन' । कण्व - ऋग्वेद के प्रथम सात मण्डलों के सात प्रमुख ऋषियों में कण्व का नाम आता है। आठवें मण्डल की ऋचाओं की रचना भी कुछ परिवार की ही है, जो पहले मण्डल के रचयिता है। ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य ( ऋ० १.३६,८,१०, ११,१७,१९,३९,७,९, ४७, ५, ११२, ५, ११७,८; ११८, ७, १३९,९; ५.४१,४;८.५, २३, २५, ७-१८, ८, २०, ४९, १०, ५०,१०:१०.७१, ११:११५.५१५०५ अथर्व वेद ४.३७, १७.१५,१;१८.३,१५ वाजसनेयी सं० १७.७४; पञ्चविंश ब्रा० ८.२,२; ९.२,९; कौ० ब्रा० २८.८ ) में कण्व का नाम बार-बार आता है । उनके पुत्र तथा वंशजों का उद्धरण, विशेष कर ऋग्वेद के आठवें मण्डल में कण्वाः, कण्वस्य सूनवः, काण्वायनाः एवं काण्व नामों से आया है । कण्व के एक वंशज का एकवचन में अकेले वा पैतृक पदवी के साथ 'कृण्व मार्षद' (ऋ० १.४८, ४, ८.३४, १) रूप में तथा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्वाश्रम-कपर्द १५१ 'कण्व-श्रायस' (तैत्ति० सं० ५.४,७,५; काठक सं० २१.८, मैत्रा० सं० ३.३,९) के रूप में तथा बहुवचन में 'कण्वाः । सौश्रवसः' के रूप में उद्धरण है। कण्वपरिवार का अत्रि- परिवार से सम्बन्ध प्रतीत होता है, किन्तु विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं । अथर्ववेद के एक परिच्छेद में दोनों परिवारों में प्रतियोगिता परिलक्षित है (अ० २.२५)। महाभारत में कण्व शकुन्तला के धर्मपिता के रूप में उद्धृत हैं । किन्तु यह कहना कठिन है कि ये वही ऋषि हैं, जिनका उल्लेख वैदिक संहिताओं में हुआ है। कण्वाश्रम-बिजनौर जिले के अन्तर्गत अथवा मतान्तर से कोटद्वार से छ: मील दूर मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम है । दुष्यन्त और शकुन्तला का मिलन यहाँ हुआ था। कथासारामृत-मराठा भक्तों की परम्परा में अठारहवों शताब्दी के महीपति नामक भागवत धर्मावलम्बी सन्त ने 'कथासारामत' की रचना की। इसमें भगवत्कथाओं का संग्रह है। कदलीव्रत-यह व्रत भाद्र शुक्ल की चतुर्दशी को किया जाता है। इसमें केले के वृक्ष की पूजा होती है, जिससे सौन्दर्य तथा सन्तति की वृद्धि होती है । गुर्जरों में यह व्रत कार्तिक, माघ अथवा वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन समस्त उपचारों तथा पौराणिक मन्त्रों के साथ किया जाता है । इस व्रत का उद्यापन उसी तिथि को उसी मास में अथवा अन्य किसी शुभ मास में किया जाना चाहिए। यदि केले का वृक्ष अप्राप्य हो तो उसकी स्वर्णप्रतिमा का पूजन किया जाता है। दे० अहल्याकामधेनु, ६११ अ। कनकदास-इनका उद्भव काल १६वीं शती है। ये मध्वमतावलम्बी वैष्णव एवं कन्नड़ भजनों के रचयिताओं में मुख्य हैं। कनखल-हरिद्वार को पंच पुरियों में एक पुरी। नीलधारा तथा नहर वाली गंगा की धारा दोनों यहाँ आकर मिल जाती है । सभी तीर्थों में भटकने के पश्चात यहाँ पर स्नान करने से एक खल की मुक्ति हो गयी थी ( ऐसा कौन खल है जो यहाँ नहीं तर जाता ), इसलिए मुनियों ने इसका नामकरण "कनखल" किया। हरि की पौड़ी से कनखल तीन मील दक्षिण है। यहाँ दक्ष प्रजापति का स्मारक दक्षे- श्वर शिवमन्दिर प्रतिष्ठित है।। कनफटा योगी-गोरखपन्थी साध, जो अपने दोनों कानों के मध्य के रिक्त स्थान में बड़ा छिद्र कराते हैं जिससे वे उसमें वृत्ताकार कुंडल ( शीशा, काठ अथवा सींग का बना हुआ) पहन सकें । वे अनेकों मालाएं पहनते हैं और उनमें से किसी एक में छोटी चाँदी की मोदी सरकार जिसे 'सिंगीनाद' कहते हैं। मालाओं में एक श्वेत पत्थर की गुरियों की माला प्रायः रहती है, जिसका अभिप्राय है कि धारण करने वाले ने हिंगुलाज ( बलूचिस्तान) स्थित शक्तिपीठ के मन्दिर का दर्शन किया है। वे लोग शाक्त एवं शैव दोनों के मन्दिरों का दर्शन करते हैं। उनका मन्त्र है 'शिव-गोरक्ष'। वे गोरखनाथ की पूजा करते हैं तथा उन्हें अति प्राचीन मानते हैं। योगमार्ग का अधिक आचरण भी इनमें नहीं पाया जाता, क्योंकि आधुनिक संन्यासी साध जैसे ये भी साधारण हो गये हैं। इनके अनेकों ग्रन्थ हैं। 'हठयोग' तथा 'गोरक्षशतक' गोरखनाथ प्रणीत कहे जाते हैं। आधुनिक ग्रन्थों में 'हठयोगप्रदीपिका', स्वात्माराम रचित 'घेरण्डसंहिता' तथा 'शिवसंहिता' हैं। प्रथम सबसे प्राचीन है। प्रदीपिका तथा घेरण्ड के एक ही विषय हैं, किन्तु शिवसंहिता का एक भाग ही हठयोग पर है, शेष शाक्तयोग के भाष्य के सदृश है । दे० 'गोरख पंथ' । कन्दपुराणम्-शव सम्प्रदाय की तमिल शाखा के साहित्य में कन्दपुराण का प्रमुख स्थान है। यह स्कन्दपुराण का तमिल अनुवाद है, जिसे द्वादश शताब्दी में 'काञ्ची अय्यर' नामक शैव सन्त ने प्रस्तुत किया। ये काञ्जीवरम के निवासी थे। कन्याकुमारी-भारत के दक्षिणांचल के अन्तिम छोर पर समुद्रतटवर्ती एक देवीस्थान । 'छोटे नारायण' से कन्याकुमारी बावन मील है। यह अन्तरीप भूमि है। एक ओर बंगाल का आखात, दूसरी ओर पश्चिम सागर तथा सम्मुख हिंद महासागर है । महाभारत (वनपर्व ८५.२३) में इसका उल्लेख है : ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थमुपस्पृशेत् । तत्तोयं स्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। पद्मपुराण (३८.२३) में इसका माहात्म्य दिया हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ एक समुद्रवेष्टित शिला पर कुछ समय तक भजन-ध्यान किया था। इस घटना की स्मृति में उक्त शिला पर भव्य भवन निर्मित है, जो ध्यान-चिन्तन के लिए रमणीक स्थल बन गया है। कपर्द-'कपर्द' शब्द सिर के केशों को चोटी के रूप में बाँधने की वैदिक प्रथा का बोधक है। इस प्रकार एक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कुमारी को चार चोटियों में केशों को दांपने वाली 'चतु कपर्दा' (० वे १०.११४, ३) कहा गया है तथा 'सिनीबाली' को सुन्दर चोटी वाली 'सुकपर्दा' कहा गया है ( वाजसनेयी सं० ११.५९) । पुरुष भी अपने केशों को इस भांति राजाते थे, क्योंकि 'रुद्र' (० ० १.११४,१, ५; वाज० सं० १६.१०,२९, ४३, ४८, ५९) तथा 'पूषा' को ऐसा करते कहा गया है ऋ०० ६.५३,२:९.६७, ११) । वसिष्ठों को दाहिनी ओर जूदा वपिने से पहचाना जाता था एवं उन्हें 'दक्षिणाasaपर्व' कहते थे। कपर्दी का प्रतिलो शब्द पुलस्ति है अर्थात् केशों को बिना चोटी किये रखना । । कपर्दी (१) शंकर का एक उपनाम, क्योंकि उनके मस्तक पर विशाल जटाजूट बँधा रहता है। (२) ऋग्वेद और आपस्तम्बधर्मसूत्र के एक भाष्यकार भी 'कपर्दी स्वामी' नाम से प्रसिद्ध हैं । कपविक (वेदान्ताचार्य) - स्वामी रामानुजकृत संग्रह ' ( पृ० १५४ ) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यो का उल्लेख मिलता है । इन आचार्यों ने रामानुज से पहले वेदान्त शास्त्र के प्रचार के लिए ग्रन्यनिर्माण किये थे । आचार्य रामानुज के सम्मानपूर्ण उल्लेख से प्रतीत होता है कि ये लोग सविशेष ब्रह्मवादी थे। कपर्दिक उनमें से एक थे। दूसरे पाँच आचार्यों के नाम हैं-भारुचि, टडू, बोधायन गृहदेव एवं द्रविडाचार्य । कपर्दीश्वर विनायक व्रत - श्रावण शुक्ल चतुर्थी को गणेश - पूजन का विधान है। दे० तार्क ७८ ८४ अवतराज १६०-१६८ । दोनों ग्रन्थों में विक्रमार्कपुर का उल्लेख है। और कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने इस व्रत का आचरण किया था । कपालकुण्डला - इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपालों (खोपड़ियों) का कुण्डल धारण करनेवाली (साधिका ) ।' कापालिक पंथ में साधक और साधिकाए दोनों कपालों के कुण्डल ( माला) धारण करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखे गये 'मालतीमाधव' नाटक में एक मुख्य पात्र अपोरघण्ट कापालिक संन्यासी है। वह चामुण्डा देवी के मन्दिर का पुजारी था जिसका सम्बन्ध तेलुगुप्रदेश के श्रीशैल नामक शैव मन्दिर से था । कपालकुण्डला अघोरघण्ट की शिष्य भी दोनों योग की साधना करते थे। वे पूर्णरूपेण व विचारों के मानने वाले थे, 1 1 कपर्दी-कपिल एवं नरबलि भी देते थे। संन्यासिनी कपालकुण्डला मुण्डों की माला पहनती तथा एक भारी डण्डा लेकर चलती थी, जिसमें घण्टियों की रस्सी लटकती थी। अघोरपष्ट मालती को पकड़कर उसकी बलि देना चाहता था, किन्तु वह उससे मुक्त हो गयी । कपालमोचन तीर्थ - सहारनपुर से आगे जगाधारी से चौदह मील दूर एक तीर्थ यहाँ कपालमोचन नामक सरोवर है, इसमें स्नान करने के लिए यात्री दूर दूर से आते हैं । यह स्थान जंगल में स्थित और रमणीक है । कपाली शब्दार्थ है 'कपाल ( हाथ में ) धारण करने वाला' अथवा 'कपाल ( मुण्ड ) की माला धारण करने वाला ।' यह शिव का पर्याय है । किन्तु 'चर्यापद' में इसका एक दूसरा ही अर्थ है कपाली की व्युत्पत्ति उसमे इस प्रकार बतायी गयी है कम महासुखं पालयति इति कपाली । अर्थात् जो 'क' महासुख का पालन करता है वह कपाली है। इस साधना में 'डोम्बी' ( नाड़ी ) के साधक को कपाली कहते हैं। 1 कपालेश्वर शिव का पर्याय कापालिक एक सम्प्रदाय की अपेक्षा साधकों का पंथ कहला सकता है, जो विचारों में वाममार्गी शाक्तों का समीपवर्ती है। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख में कपालेश्वर ( देवता । एवं उनके संन्यासियों का उल्लेख पाया जाता है। मुण्डमाला धारण किये हुए शिव ही कपालेश्वर हैं । कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महामुनि कपिल के 'सांख्यसूत्र' जो सम्प्रति उपलब्ध है, छ: अध्यायों में विभक्त हैं। और संख्या में कुल ५२४ हैं । इनके प्रवचन के बारे में पञ्चशिखचार्य ने लिखा है "निर्माणचित्तमधिष्ठाय भगवान् परमधिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच ।" [ सृष्टि के आदि में भगवान् विष्णु ने योगबल से 'निर्माण चित्त' ( रचनात्मक देह) का आधार लेकर स्वयं उसमें प्रवेश करके, दयार्द्र होकर कपिल रूप से परम तत्व की जिज्ञासा करने वाले अपने शिष्य आसुरि को इस तन्त्र ( सांख्यसूत्र ) का प्रवचन किया। ] पौराणिकों ने चौबीस अवतारों में इनकी गणना की है । भागवत पुराण में इनको विष्णु का पञ्चम अवतार बतलाया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार 'तत्त्वसमास - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिलउपपुराण-कबीर तथा कबीरपंथ १५३ सूत्र' नामक एक संक्षिप्त सूत्र रचना को कपिल का मूल उपदेश मानना चाहिए । इनकी जन्मभूमि गुजरात का सिद्धपुर और तपःस्थल गंगा-सागरसंगम तीर्थ कहा जाता है । कपिल-उपपुराण-यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से कपिलादान-श्राद्धकर्म के सम्बन्ध में ग्यारहवें दिन 'कपिला धेनु दान' तथा वृषोत्सर्ग मृतक के नाम पर किया जाता है। यह दान महाब्राह्मण को दिया जाता है। कपिष्ठलकठसंहिता-यजर्वेद की पाँच शाखाओं में से कपिष्ठल-कठ एक शाखा है। 'कपिष्ठलकठसंहिता' इसी शाखा की है। कपिलवस्तु-अब तक यह मान्य था कि पिपरहवा से नौ मील उत्तर-पश्चिम नेपाल राज्य में तिलौरा नामक स्थान ही गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोदन की राजधानी था। यहाँ विशाल भग्नावशेष हैं। यह स्थान लम्बिनी से पन्द्रह मील पश्चिम है । किंतु नवीन खोजों से प्रमाणित होता है कि बस्ती जिला, उत्तर प्रदेश का पिपरहवा नामक स्थान ही। प्राचीन कपिलवस्तु है। बौद्ध परम्परा ( दीग्धनिकाय ) के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में कपिल मुनि का आश्रम था। अयोध्या से निष्कासित इक्ष्वाकुवंशी राजकुमारों ने यहाँ पहुँचकर शाक ( शाक ) वन के बीच शाक्य जनपद की स्थापना की। सम्भवतः कापिल सांख्य के अनीश्वरवादी दर्शन का प्रभाव शाक्यों ( विशेष कर गौतम बुद्ध ) पर इसी परम्परा से पड़ता रहा होगा। कपिलाषष्ठीव्रत-भाद्र कृष्ण को षष्ठी ( अमान्त गणना) अथवा आश्विन कृष्ण की षष्ठी ( पूणिमान्त गणना), भौमवार, व्यतीपात योग, रोहिणी नक्षत्रयुक्त दिन में इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.५७८। यदि उपर्युक्त संयोगों के अतिरिक्त कहीं सूर्य भी हस्त नक्षत्र से युक्त हो तो इस व्रत का पुण्य और अधिक होता है । इसमें भास्कर की पूजा तथा कपिला गौ के दान का विधान है। कपिलपरम्परा के अनुयायी संन्यासी गण इस दिन कपिल मुनि का जन्मोत्सव मनाते हैं। इस पर्व में रोहिणी का संयोग अनुमान पर ही आधारित है। इतने योगों का एक साथ पड़ जाना दुर्लभ बात है । साधारणतः ऐसा योग ६० वर्षों में कहीं एकाध बार पड़ता है। कबीर तथा कबीरपंथ-धार्मिक सुधारकों में कबीर का नाम अग्रगण्य है। इनका चलाया हुआ सम्प्रदाय कबीरपंथ कहलाता है । इनका जन्म १५०० ई० के लगभग उस जुलाहा जाति में हुआ जो कुछ ही पीढ़ी पहले हिन्दू से मुसलमान हुई थी, किन्तु जिसके बीच बहुत से हिन्दू संस्कार जीवित थे। ये वाराणसी में लहरतारा के पास रहते थे । इनका प्रमुख धर्मस्थान 'कबीरचौरा' आज तक प्रसिद्ध है। यहाँ पर एक मठ और कबीरदास का मन्दिर है, जिसमें उनका चित्र रखा हुआ है। देश के विभिन्न भागों से सहस्रों यात्री यहाँ दर्शन करने आते हैं। इनके मूल सिद्धान्त ब्रह्मनिरूपण, ईसमुक्तावली, कबीरपरिचय की साखी, शब्दावली. पद, साखियाँ, दोहे, सुखनिधान, गोरखनाथ की गोष्ठी, कबीरपजी, वलक्क की रमैनी, रामानन्द की गोष्ठी, आनन्द रामसागर, अनाथमङ्गल, अक्षरभेद की रमैनी, अक्षरखण्ड की रमैनी, अरिफनामा कबीर का, अर्जनामा कबीर का, आरती कबीरकृत, भक्ति का अङ्ग, छप्पय, चौकाघर की रमैनी, मुहम्मदी बानी, नाम माहात्म्य, पिया पहिचानवे को अङ्ग, ज्ञानगूदरी, ज्ञानसागर, ज्ञानस्वरोदय, कबीराष्टक, करमखण्ड की रमैनी, पुकार, शब्द अनलहक, साधकों के अङ्ग, सतसङ्ग को अङ्ग, स्वासगुञ्जार, तीसा जन्म, कबीर कृत जन्मबोध, ज्ञानसम्बोधन, मुखहोम, निर्भयज्ञान, सतनाम या सतकबीर बानी, ज्ञानस्तोत्र, हिण्डोरा, सतकबीर, बन्दीछोर, शब्द वंशावलो, उग्रगीता, बसन्त, होली, रेखता, झूलना, खसरा, हिण्डोला, बारहमासा, बाँचरा, चौतीसा, अलिफनामा, रमैनी, बीजक, आगम, रामसार, सोरठा कबीरजी कृत, शब्द पारखा और ज्ञानबतीसी, विवेकसागर, विचारमाला, कायापजी, रामरक्षा, अठपहरा, निर्भयज्ञान, कबीर और धर्मदास की गोष्ठी आदि ग्रन्थों में पाये जाते हैं । कबीरदास ने स्वयं ग्रन्थ नहीं लिखे, केवल मुख से भाखे हैं । इनके भजनों तथा उपदेशों को इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया । इन्होंने एक ही विचार को सैकड़ों प्रकार से कहा है और सबमें एक ही भाव प्रतिध्वनित होता है । ये रामनाम की महिमा गाते थे, एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मसजिद, मन्दिर आदि को नहीं मानते थे। अहिंसा, मनुष्य मात्र की समता तथा संसार की असारता २० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कबीरपंथी-करकचतुर्थी (करवाचौथ) को इन्होंने बार-बार गाया है । ये उपनिषदों के निर्गुण कबीरपंथ धार्मिक साधना और विचारधारा के रूप में ब्रह्म को मानते थे और साफ कहते थे कि वही शुद्ध ईश्वर है । अपने सामाजिक तथा व्यापक धार्मिक जीवन में वे है चाहे उसे राम कहो या अल्ला । ऐसी दशा में इनकी पूर्ण हिन्दू है । कबीरपंथी विरक्त साधु भी होते हैं। वे शिक्षाओं का प्रभाव शिष्यों द्वारा परिवर्तन से उलटा नहीं। हार अथवा माला (तुलसी काष्ठ की) पहनते हैं तथा जा सकता था। थोड़ा सा उलट-पुलट करने से केवल ललाट पर विष्णु का चिह्न अंकित करते हैं। इस प्रकार इतना फल हो सकता है कि रामनाम अधिक न होकर इस पंथ के भ्रमणशील या पर्यटक साधु उत्तर भारत में सत्यनाम अधिक हो। यह निश्चित बात है कि ये रामनाम सर्वत्र पर्याप्त संख्या में पाये जाते हैं। ये अपने सामान्य, और सत्यनाम दोनों को भजनों में रखते थे। प्रतिमापूजन सरल एवं पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं। इन्होंने निन्दनीय माना है । अवतारों का विचार इन्होंने कमलषष्ठी-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी से सप्तमी त्याज्य बताया है । दो-चार स्थानों पर कुछ ऐसे शब्द हैं, तक मनाया जाता और प्रतिमास एक वर्ष पर्यन्त चलता जिनसे अवतार महिमा व्यक्त होती है । है । ब्रह्मा इसके देवता हैं । पञ्चमी के दिन व्रत के नियम __ कबीर के मुख्य विचार उनके ग्रन्थों में सूर्यवत् चमक प्रारम्भ होते है। षष्ठी को उपवास करना चाहिए। रहे हैं, किन्तु उनसे यह नहीं जान पड़ता कि आवागमन शर्करा से भरे सुवर्णकमल ब्रह्मा को चढ़ाने चाहिए। सिद्धान्त पर वे हिन्दूमत को मानते थे या मुसलमानी सप्तमी के दिन ब्रह्मा की प्रतिष्ठा करते हुए उन्हें खीर का मत को । अन्य बातों पर कोई वास्तविक विरोध कबीर भोग लगाना चाहिए। वर्ष के बारह महीनों में ब्रह्माजी की शिक्षाओं में नहीं दीख पड़ता। कबीर साहब के बहुत की भिन्न-भिन्न नामों से पूजा करनी चाहिए। दे० भविसे शिष्य उनके जीवन काल में ही हो गये थे। भारत में ष्योत्तरपुराण, ३९ । अब भी आठ-नौ लाख मनुष्य कबीरपंथी हैं। इनमें कमलसप्तमी-यह व्रत चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ होकर मुसलमान थोड़े ही है और हिन्दू बहुत अधिक । कबीर- एक वर्ष तक प्रतिमास चलता है। दिवाकर (सूर्य) इसके पंथी कण्ठी पहनते हैं, बीजक, रमैनी आदि ग्रन्थों के प्रति देवता हैं। दे० मत्स्यपुराण, ७८.१-११।। पूज्य भाव रखते हैं । गुरु को सर्वोपरि मानते हैं। कमला-दस महाविद्याओं में से एक । दक्षिण और वाम निर्गुण-निराकारवादी कबीरपंथ के प्रभाव से ही अनेक दोनों मार्ग वाले दसों महाविद्याओं की उपासना करते निर्गुणमार्गी पंथ चल निकले । यथा-नानकपंथ पञ्जाब में, हैं। कमला इनमें से एक है । उसके अधिष्ठाता का नाम दादूपंथ जयपुर (राजस्थान) में, लालदासी अलवर में, 'सदाशिव विष्णु' है। 'शाक्तप्रमोद' में इन दसों महासत्यनामी नारनौल में, बाबालाली सरहिन्द में, साधपंथ विद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, दिल्ली के पास, शिवनारायणी गाजीपुर में, गरीबदासी ध्यान एवं उपासनाविधि वर्णित हैं।। रोहतक में, मलूकदासी कड़ा (प्रयाग) में, रामसनेही । कमलाकर-भारतीय ज्योतिर्विदों में आर्यभट, वराहमिहिर, (राजस्थान) में । कबीरपंथ को मिलाकर इन ग्यारहों में ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, कमलाकर आदि प्रसिद्ध ग्रन्थकार समान रूप से अकेले निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना हए हैं । ये सभी फलित एवं गणित ज्योतिष के आचार्य की जाती है । मूर्तिपूजा वर्जित है, उपासना और पूजा का माने जाते हैं । भारतीय गणित ज्योतिष के विकास में काम किसी भी जाति का व्यक्ति कर सकता है । गुरु की कमलाकर भट्ट का स्थान उल्लेखनीय है ।। उपासना पर बड़ा जोर दिया जाता है । इन सबका पूरा करकचतुर्थी (करवाचौथ)-केवल महिलाओं के लिए इसका साहित्य हिन्दी भाषा में है। रामनाम, सत्यनाम अथवा विधान है। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इसका अनुष्ठान शब्द का जप और योग इनका विशेष साधन है । व्यवहार होता है। एक वटवृक्ष के नीचे शिव, पार्वती, गणेश तथा में बहुत से कबीरपंथी बहुदेववाद, कर्म, जन्मान्तर और स्कन्द की प्रतिकृति बनाकर षोडशोपचार के साथ पूजन तीर्थ इत्यादि भी मानते हैं। किया जाता है। दस करक (कलश) दान दिये जाते हैं। कबीरपंथी-कबीर साहब द्वारा प्रचारित मत को मानने चन्द्रोदय के पश्चात् चन्द्रमा को अर्घ्य देने का विधान है। वाले भक्त । भारत में इनकी पर्याप्त संख्या है। परन्तु दे० निर्णयसिन्धु, १९६; व्रतराज १७२ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्काचार्य-कर्मकाण्ड १५५ कर्काचार्य-आपस्तम्ब गृह्यसूत्र के भाष्यकार । इन्होंने कात्यायनसूत्र एवं पारस्कररचित गृह्यसूत्र पर भी भाष्य लिखा है। करकाष्टमी-कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। रात्रि को गौरीपूजन का विधान है। इसमें सुवासित जल से परिपूर्ण, मालाओं से परिवृत नौ कलशों का दान करना चाहिए । नौ कन्याओं को भोजन कराकर व्रती को भोजन करना चाहिए। यह व्रत महाराष्ट्र में बहुत प्रसिद्ध है। कर्तभज-हिन्दू-मुस्लिमवाद से मिश्रित एक उपासनामार्गी समुदाय । इसकी शिक्षा एवं नैतिकता सन्देहात्मक है। इस पर इस्लाम का प्रभाव भी परिलक्षित होता है तथा इसके अनुयायी अपना सम्बन्ध चैतन्य से जोड़ते हैं। कर्म-वैशेषिक दर्शन में इसका साधारण अर्थ क्रिया, गति, अथवा काम है । अन्य दर्शनों में यह एक आध्यात्मिक तत्त्व है, जिसको आत्मा संसार में वहन करता है । मनुष्य के मानस में यह संस्कार रूप से कार्य करता रहता है । इसका प्रयोग कार्य-कारण सम्बन्ध के अर्थ में भी होता है। इसी से शुभाशुभ कर्मफल उत्पन्न होता है। इसी के माना इसके तीन प्रकार है-(१) प्रारब्ध, (२) सञ्चित और र (३) क्रियमाण। प्रारब्ध वह है जो वर्तमान जीवन को चला रहा है और जिसका फल भोगना अनिवार्य है। सञ्चित वह है जो पहले से एकत्रित जमा है और प्रायश्चित्त से दूर किया जा सकता है, अथवा ज्ञान से जिसका निराकरण हो सकता है। क्रियमाण वह है जो वर्तमान में किया जाता है, जिसका फल साथ ही उत्पन्न होता जाता है और जो भविष्य का निर्धारण करता है। भक्ति सम्प्रदायों में यह विश्वास है कि भगवान् की दया, अनुग्रह अथवा प्रसाद से सब तरह के कर्मफल समूल कभी भी नष्ट हो सकते हैं। कर्मवाद-आवागमन तथा कर्म का सिद्धान्त सर्वप्रथम भली भांति ब्राह्मण ग्रन्थों में स्थापित किया गया है । फिर भी उपनिषदों में ही प्रथम बार इसका सम्बन्ध नैतिक कार्य- कारण के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत हआ है । इस प्रकार इस गुरुतम सिद्धान्त की सृष्टि आर्यों की ही देन है । किन्तु कुछ विद्वानों का विश्वास है कि आदिम जातियाँ ही, जो यह विश्वास करती थीं कि मरने के बाद उनका आत्मा पशुशरीर में निवास करता है, उक्त सिद्धान्त को चलाने वाली है। यह बात अंशतः सत्य हो सकती है, क्योंकि आर्य लोग दैनिक जीवन में इनके संपर्क में रहते थे तथा धीरे-धीरे आयों ने इनसे सम्बन्ध भी आरम्भ कर दिया था। इनसे आर्येतरों ने वैज्ञानिक कार्य-कारण-सिद्धान्त 'कर्म' को सहज ही स्वीकार कर अपनी ओर से सामान्य लोगों में फैला दिया। ___इस सिद्धान्त के अनुसार कारण और कार्य में प्रकृत सम्बन्ध है । कारण के अनुसार ही कार्य होता है । जीवात्मा अपने कर्म के अनुसार बार-बार जन्म ग्रहण करता एवं मरता है। मनुष्य का इस जन्म का चरित्र उसके दूसरे जन्म की अवस्थाओं का निर्णायक होता है । अच्छे चरित्र का सत्फल एवं बुरे का दण्ड मिलता है। दे० छान्दोग्य उप० ५.१०.७)। काम के अर्थ में 'कर्म' शब्द एक अद्भुत शक्ति है जो सभी कर्मों को दूसरे जन्म के फल या कर्म के रूप में परिवर्तित कर कर देती है । इस सिद्धान्त का विकास होते होतं निश्चित हुआ कि मनुष्य का मन, शरीर एवं चरित्र तथा उसके अनुभव उसके आगामी जन्म के कारणतत्त्व है। मनुष्य ने यह भी जाना कि जीवन पिछले कर्मों का फल है तथा एक जन्म के कर्म दूसरे जन्म में अच्छे फल एवं दण्ड की योजना करते हैं । इस प्रकार जन्म एवं मरण या संसार का आदि तथा अन्त नहीं है। इसी कारण आत्मा को आदि-अन्त रहित माना गया है। किन्तु कर्म का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। मनुष्य केवल अतीत के कर्मफल से बद्ध है। वर्तमान में उसे अपने कर्मों के चुनाव में स्वातंत्र्य है। इसके द्वारा वह अपने भविष्य का निर्माण करने वाला है । भक्तों में तो यह भी विश्वास है कि भगवत्कृपा से अतीत के कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। कर्मकाण्ड-(१) सम्पूर्ण वैदिक धर्म तीन काण्डों में विभक्त है-(१) ज्ञान काण्ड, (२) उपासना काण्ड और (३) कर्म काण्ड । कर्मकाण्ड का मूलतः सम्बन्ध मानव के सभी प्रकार के कर्मों से है, जिनमें धार्मिक क्रियाएँ भी सम्मिलित है । स्थूल रूप से धार्मिक क्रियाओं को ही 'कर्मकाण्ड' कहते हैं, जिससे पौरोहित्य का घना सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड के भी दो प्रकार है-(१) इष्ट और (२) पूर्त । यज्ञ-यागादि, अदृष्ट और अपूर्व के ऊपर आधारित कर्मों को इष्ट कहते Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कर्मधारा-कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) हैं । लोक-हितकारी दृष्ट फल वाले कर्मों को पूर्त कहते कहते है। दूसरा मार्ग कर्ममार्ग है। हिन्दुत्व में सबसे हैं । इस प्रकार कर्मकाण्ड के अन्तर्गत लोक-परलोक-हित- प्राचीन पवित्र धारणा कर्तव्यों के पालन की है जिसका कारी सभी कर्मों का समावेश है। धर्म शब्द में अन्तर्भाव हआ है । कर्तव्यों में सबसे प्रमुख कर्मकाण्ड-(२) वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत प्रारम्भ में 'यज्ञ' थे, किन्तु वर्ण, आश्रम, परिवार एवं हैं कि चारों वेदों में प्रधानतः तीन विषयों; कर्मकाण्ड, ज्ञान- समाज-सन्बन्धित कर्तव्य भी इसमें निहित थे । गीता का काण्ड एवं उपासनाकाण्ड का प्रतिपादन है। कर्मकाण्ड कर्मसिद्धान्त जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं, यह बतलाता है अर्थात् यज्ञकर्म वह है जिससे यजमान को इस लोक में अभीष्ट कि वेदों में बताये गये कर्म केवल उतना ही फल इस लोक फल की प्राप्ति हो और मरने पर यथेष्ट सुख मिले । यजुर्वेद में या स्वर्ग में देते हैं जितना उन कर्मों ( यज्ञों) के लिए के प्रथम से उन्तालीसवें अध्याय तक यज्ञों का ही वर्णन निश्चित है, किन्तु जो मनुष्य इन्हें बिना इच्छा के है । अन्तिम अध्याय ( ४० वाँ ) इस वेद का उपसंहार (निष्काम) करता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। योग शब्द है, जो 'ईशावास्योपनिषद्' कहलाता है। वेद का अधि- का प्रयोग गीता में अनेक अर्थों में हआ है । इसका कौन कांश कर्मकाण्ड और उपासना से परिपूर्ण है, शेष अल्प सा अर्थ 'कर्मयोग' है, इसका निश्चय करना कठिन है। भाग ही ज्ञानकाण्ड है । कर्मकाण्ड कनिष्ठ अधिकारी के किन्तु सम्भवतः यहाँ इसका अर्थ निग्रह है, अर्थात् लिए है। उपासना और कर्म मध्यम के लिए । कर्म, उपा- आसक्तिरहित कर्म । सना और ज्ञान तीनों उत्तम के लिए हैं। पूर्वमीमांसा कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी)-विश्व कर्मप्रधान है । कर्म का शास्त्र कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है । इसका नाम 'पूर्वमी संस्कार ही मानव की मूल शक्ति है। इसी के अनुसार भांसा' इस लिए पड़ा कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म मनुष्य के भाग्य का निर्णय होता है। कर्मभेद से ही है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । पूर्व मनुष्य अनेक योनियों-देव, मनुष्य, तिर्यक् आदि-में आचरणीय कर्मकाण्ड से सम्बन्धित होने के कारण इसे भ्रमण करता है । इसी के अनुसार वह लोक-लोकान्तर में पूर्वमीमांसा कहते है। ज्ञानकाण्ड-विषयक मीमांसा का जाता है। सत्त्वगुणात्मक कर्म पुण्य तथा तमोगुणात्मक दूसरा पक्ष 'उत्तरमीमासा' अथवा वेदान्त कहलाता है । कर्म पाप माना गया है । सत्त्वगुण के मार्ग पर चलनेवाला कर्मधारा-हिमालय का एक तीर्थस्थल । वराह भगवान् मनुष्य अपना अन्तःकरण शुद्ध करके परमानन्द मोक्ष को पाताल से पृथ्वी का उद्धार और हिरण्याक्ष का वध करने के प्राप्त करता है । तमोगुणी और पापकर्म करनेवाला पश्चात् यहाँ शिलारूप में स्थित हो गये थे । अलकनन्दा मानव अज्ञान और कर्मबन्धन में पड़ा रहता है। इसलिए की धारा में यह उच्च शिला है। यहाँ गङ्गाजी के तट कर्म के क्षेत्र में मनुष्य को पूर्णतः सावधान रहना चाहिए। पर कर्मधारा तथा कई तीर्थ है । कर्ममहिमा विस्तार से, शास्त्र के आधार पर नीचे दी कमनिर्णय-मध्चाचार्य द्वारा रचित एक दार्शनिक ग्रन्थ । जाती है : कर्मप्रदीप-सामवेद के गोभिल गृह्यसूत्र पर कात्यायन ने कर्म की महिमा इस बात से ही जानी जा सकती है परिशिष्ट लिखा है, जिसे 'कर्मप्रदीप' कहते हैं । यद्यपि यह कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा चराचर विश्व को व्याप्त गोभिलगृह्यसूत्र के पूरक रूप में लिखा गया है, तो भी किये हुए है । प्रलय के उपरान्त चतुर्दश लोकों में नवीन इसका आदर स्वतन्त्र गृह्यसूत्र और स्मृतिशास्त्र की तरह जीवनसृष्टि समष्टि जीवों के पूर्वकर्म के अनुसार होती होता आया है। आशादित्य शिवराम ने इस ग्रन्थ की है । समस्त देवताओं द्वारा संसार की नियमानुसार रक्षा टीका की है। कर्मचक्र का ही परिणाम है। इसी के आधार पर देवताकर्ममार्ग-धार्मिक साहित्य में मोक्ष के तीन मार्ग ज्ञानमार्ग, गण अपनी-अपनी नियमित गतियों को प्राप्त करते हैं। कर्ममार्ग तथा भक्तिमार्ग बतलाये गये हैं। उपनिषदों, निष्कर्ष यह है कि निखिल ब्रह्माण्ड में देव, ग्रह-नक्षत्र सांख्यदर्शन, बौद्ध एवं जैन दर्शनों के विकसित रूप में। तथा चराचर सभी कर्म के कारण स्थित और गतिमान् हैं। जिस मार्ग का अवलम्बन बताया गया है, उसे ज्ञानमार्ग सात्त्विक कर्म के तारतम्य से जीव को ऊवं सप्तलोकों Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) १५७ तथा तामसिक कर्म के तारतम्य से अधः सप्त लोकों की प्राप्ति होती है। ऊर्ध्वलोक में आनन्द तथा अधोलोक में दुःख भोग का विधान है । धर्म से पुण्य और अधर्म से पाप होता है । सोमरस पान करने वाला यज्ञकर्मी पुण्यात्मा है। वह इन्द्रलोक में जाकर देवभोग्य दिव्य वस्तुओं को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। __ इसी प्रकार अधर्म के क्रमानुसार अधोलोक में निम्न और निम्नतर योनियों की प्राप्ति हुआ करती है । छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार पुण्य कर्म के अनुष्ठान से ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य आदि उत्तम योनियों की प्राप्ति होती है तथा निम्न या पाप कर्म के अनुष्ठान से कुक्कुर, सूकर और चाण्डाल आदि योनियों की प्राप्ति होती है। स्वर्ण चुरानेवाले, मदिरा सेवन करनेवाले, गुरुपत्नीगामी तथा ब्रह्मघाती एवं इनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी अधोगामी होते हैं। योगदर्शन के अनुसार कर्म ही सम्पूर्ण अविद्या और अस्मिता रूपी क्लेशों का मूल कारण है। कर्मसंस्कार ही जन्म और मरण-रूप चक्र में जीव के परि- भ्रमण का कारण है। उसके पाप-पुण्य का फल भी इसी चक्र में भोगने को मिल जाता है । महाभारत के अनुसार कर्मसंस्कार प्रत्येक अवस्था में जीव के साथ रहता है। जीव पूर्व जन्म में जैसा कर्म करता है पर जन्म में वैसा ही फल भोगता है। अपने प्रारब्ध कर्म का भोग उसे मातृगर्भ से ही मिलना आरम्भ हो जाता है। जीवन की तीन अवस्थाओं-बाल, युवा और वृद्ध में से जिस अवस्था में जैसा कर्म किया जाता है उसी अवस्था में उसका फल भी भोगने को मिलता है। जिस शरीर को धारण कर जीव कर्म करता है उसका फल भी उसी काया से प्राप्त होता है। इस तरह प्रारब्ध कर्म सदा कर्ता का अनुगामी होता है। ___ योगदर्शन के अनुसार कर्म के मूल में जाति, आयु और भोग तीनों निहित रहते हैं। कर्म के अनुसार उच्चवर्ग या निम्नवर्ग में जीव का जन्म होता है। प्रारब्ध कर्म आयु का भी निर्धारक है। अर्थात् जिस शरीर में जिस प्राक्तन कर्म के भोग का जितने दिन तक विधान होगा वह शरीर उतने ही दिन तक स्थित रह सकता है। तदु- परान्त दूसरे नबीन कर्म की भोगस्थिति दूसरे शरीर में होती है। कर्म के भोग पक्ष का भी वही विधान है। संसार में सुख और दुःख भी कर्म के अनुसार ही होते हैं। शरीर के अंगों का निर्माण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है। शरीर को रचना और गुण का तारतम्य भी प्राक्तन कर्म का परिणाम है। उसमें दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का संस्कार है। वेदों में कर्म की महिमा का सबसे अधिक वर्णन है । वेद के इस प्रकरण को कर्मकाण्ड कहते हैं। वहाँ तीन प्रकार के कर्मों का विधान है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । नित्य कर्म करने से कोई विशेष फल तो नहीं मिलता पर न करने से पाप अवश्य होता है । जैसे त्रिकालसन्ध्या और पाँच महायज्ञादि हैं। पूर्व कर्म के अनुसार वर्तमान समय में मनुष्य प्रकृति की जिस कक्षा पर चल रहा है उसी पर पुनः बने रहने के लिए नित्य कर्म अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से मनुष्य अपनी वर्तमान कक्षा से च्युत हो जाता है । जैसे पञ्च महायज्ञ आत्मोन्नति के एक साधन हैं, इनकी उपयोगिता पञ्च-सूना दोष दूर करने के लिए ही है। संसार में जीने के लिए मनुष्य प्रकृतिप्रवाह को आघात पहुँचाता है। उसे अपने जीवनयापन के लिए नित्य सहस्रों प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। मनुष्य के श्वास-प्रश्वास तक से असंख्य प्राणियों की हत्या होती है। इस पाप को दूर करने के लिए भारतीय शास्त्रों में पञ्च महायज्ञों की व्यवस्था की गयी है । मनु के अनुसार सामान्य गृहस्थ से भी कम से कम पाँच स्थलों पर जीवहत्या होती है-चूल्हा, पेषणी ( चक्की ), उपस्कर ( सफाई ), कण्डनी ( ऊखल ) और उदकुम्भ (जलघड़ा) । इन पाँच चीजों का उपयोग जीवहिंसा का कारण होता है। इन नित्यहिंसाजनित पापों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को पञ्चमहायज्ञ रूपी नित्यकर्म करना आवश्यक है। ___ यही कारण है कि नित्यकर्म करने से पुण्य नहीं होता, पर न करने से पाप अवश्य होता है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार निर्धारित कर्म भी इस व्यवस्था के अन्तर्गत हैं। सभी जातियों की कर्मवृत्तियाँ उनके नित्यकर्म के अन्तर्गत आती है। जब तक मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार कार्य न करेगा तब तक अपनी वर्तमान जाति में नहीं रह सकेगा । वह उच्चवर्ग को तो नहीं ही प्राप्त कर सकेगा; अपितु वर्तमान वर्ग से भी च्युत होकर अधोगामी हो जायगा। ब्राह्मण का स्वाध्याय तथा वैश्यों के गोरक्षा आदि उनके नित्यकर्म हैं। इनके न करने से उन्हें Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) योग रहता है, पर काम्य कर्म किसी विशेष कामना का प्रतिफलन है। पाप होता है और करने से वे अपनी भूमि पर स्थित रहते हुए उच्च पद को प्राप्त करते हैं । यही बात राजा के प्रजा- पालन के सम्बन्ध में भी है। संसार की अराजकता को दूर कर प्रजा के भय को दूर करना ही राजा का काम है, ऐसा मनुसंहिता से स्पष्ट है । शुक्रनीतिसार के अनुसार धार्मिक और प्रजारञ्जक राजा देवांश होता है, अन्यथा उसे राक्षसांश समझना चाहिए; ऐसा राजा अधर्मी और प्रजापीड़क होता है; इससे अशान्ति का विस्तार होता है और सारी प्रजा भी पापी हो जाती है। राजा के पाप से प्रजा भी पापी होती है । इससे प्रजा में वर्णसंकरता आती है, जिससे ऋतुविपर्यय, अपग्रहों का अत्याचार तथा प्रजा का नाश आरम्भ होता है और अन्त में राज्य हो समूल नष्ट हो जाता है। अतएव प्रजापालन राजा का नित्यकर्म है। जिन कर्मों के न करने से पाप नहीं होता अपितु करने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है उनको 'नैमित्तिक कर्म' की संज्ञा दी गयी है। उदाहरणार्थ, तीर्थदर्शनादि । तीर्थों के दर्शन न करने से पाप नहीं होता पर दर्शन करने से पुण्य फल की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस प्रकार एक विषयी व्यक्ति साधु-महात्मा के पास पहुँच कर कुछ समय के लिए अपने विषय भाव को भूल जाता है, उसी प्रकार तीर्थों में जाकर व्यक्ति कुछ समय के लिए अपने सांसारिक मोह से मुक्ति पा जाता है। जिन दैवी शक्तियों के प्रभाव से तीर्थों की महिमा प्रतिष्ठित होती है उनकी सीमा में आने पर मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है। वह अपने विषम भाव को भूलकर सद्भावना से युक्त हो जाता है। यही तीर्थाटन का फल है। इसी प्रकार पूजा, दान, स्नान, देवस्थान दर्शन, साधु का दर्शन आदि भी नैमित्तिक कर्म है। किसी विशेष कामना से किये गये कर्म 'काम्य कर्म' कहे जाते हैं । इनके मूल में स्वार्थ निहित रहता है। एक ही कार्य भावभेद से नैमित्तिक कर्म हो सकता है और काम्य कर्म भी । उदाहरणार्थ केवल तीर्थदर्शन के ध्येय से किया गया तीर्थाटन नैमित्तिक कर्म होगा। पर यदि वह किसी विशेष कामना की सिद्धि के लिए किया जाय तो उसे काम्य कर्म कहा जायगा । निष्कर्ष यह है कि नैमित्तिक कर्म के मूल में व्यक्ति की सामान्य धर्मभावना का केवल भावभेद से ही कर्म की शक्ति में अन्तर आ जाता है। इसीलिए भावना के तारतम्य से कर्मों को तीन भागों में विभक्त किया गया हैं-आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । आत्मोन्नति के साथ मनुष्य की भावना उदारतापूर्ण और विचारमूलक हो जाती है, इसलिए उसके कर्मभाव में भी परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतः आधिभौतिक कर्म विश्वभूतों से सम्बद्ध है । जिसमें भूतों के द्वारा मनुष्य की सम्पूर्ण मनोकामना फलवती हो उसे अधिभूत कर्म कहते हैं। ब्राह्मण भोजन और साधु भोजन आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं, इन कार्यों से व्यक्ति इन लोगों की मानसिक शक्ति द्वारा कुछ आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास करता है। यही मनोकामना जब व्यक्तिगत सुखकामना और पर-सुखकामना से मिलकर सार्वभौमिक और लोकमंगलकारी हो जाती है तो उसे आधिभौतिक कर्म की संज्ञा दी जाती है। दरिद्रों को भोजन देना, अनाथालय स्थापित करना, चिकित्सालय की सहायता करना आदि इसी प्रकार के कार्य हैं। इनसे व्यक्ति को विशेष पुण्यलाभ होता है। आधिदैविक कर्म दैविक शक्तियों को अनुकूल करके फल प्राप्त करने का साधन है। शास्त्रीय दृष्टि से प्रबल कर्म दुर्बल कर्म को दबा देते हैं । यदि कोई व्यक्ति दैवी शक्ति से प्राप्त प्रबल संस्कार से अपने प्रतिकूल संस्कारों को दबा दे तो यह उसका आधिदैविक कर्म कहा जायगा। ऐसा करके व्यक्ति अपने पुराने पापमय संस्कारों की पीड़ा से मुक्ति पा सकता है । आधिदैविक कर्म का अनुष्ठान स्वार्थसिद्धि के लिए भी होता है और विश्वमङ्गल की कामना से भी होता है। यदि देश में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष या महामारी आदि का विस्तार हो जाय तो उसे समग्र प्राणियों के पाप का परिणाम समझना चाहिए। इनको दूर करने के लिए परोपकारी व्यक्ति द्वारा किये गये देवयज्ञ आदि देषी संस्कार आधिदैविक कर्म कहे जायेंगे। आध्यात्मिक कर्म बौद्धिक होते हैं । इसीलिए स्वदेश तथा स्वधर्म रक्षार्थ किये गये कार्य या ज्ञानविस्तारक कर्मों Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) १५९ को आध्यात्मिक कर्म की संज्ञा दी गयी है। अहंकार के दूर करना और समस्त संसार का कल्याण करना उनका विकासक्रम में प्रकृति के निम्नतर स्तर से लेकर उच्चतर कर्तव्य था। स्तर तक जाने के विविध सोपान हैं । जीव अपनी साधना उपर्युक्त त्रिविध भेदों के साथ कर्म के दो भेद अन्य के बल से क्रमशः निम्न स्तरों से ऊर्ध्व स्तरों को प्राप्त प्रकार से भी किये गये हैं। वे हैं-सकाम कर्म और करता है । वासना के भिन्न-भिन्न स्तर हैं । उद्भिज और निष्काम कर्म । सकाम कर्म वासनामूलक होता है। जिस स्वेदज योनियों में वासना के प्राकृतिक और आत्मरक्षा कामना या वासना से कर्म किया जाता है उसी के अनुकूल त्मक रूप मिलते हैं। मनोमय कोष के विकास के अभाव फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में इन कर्मों की विधि में उन्हें परसुख से स्वसुख के सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है । और फल वर्णित हैं । सकाम कर्म से मनुष्य को धूमयान अण्डज योनि में इस ओर थोड़ा विकास हआ है। अपने गति और निष्काम कर्म से देवयान गति मिलती है। बच्चों पर प्रेम, दाम्पत्य प्रेम, अपत्य प्रेम आदि इस वासना श्रीमद्भगवद्गीता में इन दो गतियों का वर्णन है। इन के विस्तार के ही रूप हैं। मनुष्ययोनि में इसका सर्वा गतियों को क्रमशः कृष्णगति और शुक्लगति कहते है। पहली से पुनर्जन्म और दूसरी से अपुनरावृत्ति मिलती है । धिक विस्तार है । सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य भोगकामना से किये गये कर्मी का परिणाम जन्म-मरण होता समाज के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर ध्यान रखता है । मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ की ओर क्रमशः बढ़ता रहता है। व्यष्टिकेन्द्र है। इस प्रकार सकाम कर्म के द्वारा पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति नहीं मिलती। से समष्टि की ओर बढ़ ना उसका स्वभाव है। इसीलिए सकाम कर्मी व्यक्ति अष्टादश फल प्रदायक कर्मों का बाल्यावस्था के व्यष्टिसुख से वह क्रमशः परिवारसुख अनुष्ठान करते हैं । ऐसे व्यक्तियों को जरा-मरण के बन्धन और फिर समाजसुख और देशसुख की ओर उन्मुख होता से मुक्ति कभी नहीं मिल सकती। इनमें आसक्ति का है। इस प्रकार मनुष्य का अहंकार क्रमशः उदारता में प्राधान्य होता है इसलिए पुण्य के बल पर ये स्वर्ग में सुख परिणत हो जाता है। यहाँ तक कि वह संसार के सुख के भोगकर पुण्य क्षय होने पर पुनः मृत्युलोक में आ जाते लिए भी कष्ट सहने को तैयार हो जाता है। उस समय हैं । ऐसे सकाम कर्मी हीन लोक को भी प्राप्त हो सकते उसकी व्यक्तिगत सत्ता का इतना अधिक विस्तार हो हैं। इसलिए सकाम कर्म की अनित्यता तथा तुच्छता को जाता है कि उसकी स्वार्थबुद्धि नष्ट हो जाती है और जानते हए मनुष्य को निष्काम कर्म और वैराग्य का ही परार्थबुद्धि का विकास होता है। ऐसा पवित्रात्मा आध्या अनुष्ठान करना चाहिए। त्मिक प्रगति अधिक करता है। वह ज्ञान और धर्म की सकाम कर्म से प्राप्त स्वर्ग में मनुष्य के पुण्य का क्षय उन्नति में अत्यधिक योग देता है। ऐसा महात्मा अपनी होता है। इसलिए मर्त्यलोक के मिथ्यात्व को जानकर सत्ता का विस्तार करके 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त तत्त्वज्ञानी व्यक्ति वैराग्य का आश्रय ग्रहण करता है । इस को भाव रूप में अपना लेता है। वह विश्वजीवन और प्रकार श्रुति के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति पुत्र, धन और यश विश्वप्राण हो जाता है। उसके सभी कर्म जगत्कल्याण के की सभी भौतिक इच्छाओं से विरत हो पूर्ण संन्यास हेतु होते हैं, अतः वह पूर्ण साधुता को प्राप्त हो जाता ग्रहण करता है। निष्काम कर्मयोग से वह पूर्णतः वासनाहै । आध्यात्मिक कर्म ही उसकी योगसाधना है। शून्य हो जाता है और अन्ततः उत्तरायण गति को प्राप्त भागवत के अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्राणियों में ब्रह्म । होता है। की सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विद्यमान है। अतः ___ इसके अतिरिक्त एक तीसरी सहज गति है जिसके अनुउनकी अवज्ञा करके परमेश्वर की पूजा करना गर्हणीय सार मनुष्य को इहलोक में ही मुक्ति मिल जाती है। है । सब अनेक होकर भी एक हैं। अतः प्राणियों के प्रति ज्ञानी पुरुष परमात्मा की सत्ता से विज्ञ होकर उसी बैरभाव को त्यागकर मित्रभाव से सर्वव्यापी परमात्मा का विराट् सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर देते हैं और पूजन करना चाहिए । सर्वभूतों में परमात्मा की सत्ता की परितृप्त, वीतराग तथा प्रशान्त हो विदेह लाभ करते हैं। अनुभूति ही श्रेयस्कर है। हमारे प्राचीन ऋषियों का अतएव निष्काम कर्मयोगी ज्ञानी होकर मुक्तिपद को प्राप्त जीवन ऐसा ही था। समष्टि जीव के अज्ञानान्धकार को करता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कर्ममहिमा (विश्वव्यापिनी) तीन गणों के भेद से कर्म के भी तीन भेद निर्धारित किये गये हैं। इसीलिए गीता में भी कृष्ण ने गुणों के क्रमानुसार त्रिविध यज्ञ, त्रिविध कर्म और विविध कर्ता की व्यवस्था की है। आसक्तिविहीन, रागद्वेषरहित, वर्णाश्रम के अनुसार किया गया कर्म सात्त्विक; फलासक्ति, अहंकार तथा आशा से अनुष्ठित कर्म राजसिक तथा भावी आपत्ति का ध्यान न करके मोहवश किया गया कर्म तामसिक होता है। निष्काम कर्मयोगी आसक्तिविहान, धैर्यवान् और उत्साही होता है इसलिए वह सात्त्विक कर्त्ता है। विषयासक्त और फलासक्त, लोभी तथा हर्ष-विषाद से युक्त सकाम कर्ता राजसिक होता है । दूसरों के मानापमान की चिन्ता न करनेवाला, अविवेकी तथा अविनयी, शठ, आलसी और दीर्घसूत्री कर्ता तामसिक होता है। ___ मनु के अनुसार शारीरिक, मानसिक और वाचनिक सत-असत् कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को फल की प्राप्ति होती है । इनमें उत्तम, मध्यम और अधम गतियाँ कर्म के अवान्तर उपक्रम हैं । इन तीनों प्रकार के कर्मों के निम्नांकित दस लक्षण बताये गये है-परधन हरण की इच्छा, मन में अनिष्ट चिन्तन तथा परलोक का मिथ्यात्व सिद्ध कर शरीर को ही आत्मा मानना; ये तीन मानसिक अशुभ कर्म हैं। वाणी में कटुता, अनृत भाषण, किसी व्यक्ति की परोक्षनिन्दा, असम्बद्ध प्रलाप; ये चार वाचिक अशुभ कर्म हैं। इसके अतिरिक्त न दिये गये धन को हड़प लेना, अवैध हिंसा तथा परस्त्रीगमन; ये तीन शारीरिक अशुभ कर्म हैं। मन से किये गये सुकर्म या दुष्कर्म का फल मानसिक सुख-दुःख होता है, वाणी के कर्म का फल वाणी से मिलता है तथा शारीरिक कर्मों का परिणाम शारीरिक सुख-दुःख होता है। मनुष्य को शारीरिक अशुभ कर्म से स्थावर योनि, वाणीगत अशुभ कर्म से पशु-पक्षी की योनि तथा मानसिक अशुभ कर्मों से चाण्डाल योनि की प्राप्ति होती है। __ मनुष्य धर्म अधिक और अधर्म कम करने पर स्वर्गलोक में सुख पाता है। इसके विपरीत अधर्म का आधिक्य होने पर निधनोपरान्त यमलोक में यातना पाता है। पाप का फल भोगने पर निष्पाप हो वह पुनः मनुष्यशरीर धारण करता है। सत्त्व, रज और तम आत्मा के तात्त्विक गुण हैं । संसार के प्रत्येक प्राणी में ये गुण न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। जिस प्राणो में जिस गुण का आधिक्य होता है उसमें उसी के लक्षण अधिक मिलते हैं। सत्त्वगुण ज्ञानमय है, तमोगुण अज्ञानमय तथा रजोगुण रागद्वेषमय होता है । सत्त्वगुण में प्रति-प्रकाशरूप शान्ति होती है, रजोगुण में आत्मा की अप्रीतिकर दुःखकातरता तथा विषयभोग की लालसा के लक्षण विद्यमान होते हैं। तमोगुण मोहयुक्त, विषयात्मक, अविचार और अज्ञानकोटि में आता है । इसके अतिरिक्त इन गुणों के उत्तम, मध्यम और अधम फल के कुछ अन्य लक्षण भी हैं। यथा सत्त्वगुणी प्रवृत्ति के मनुष्य में वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, शौच, जितेन्द्रियता, धर्मानुष्ठान, परमात्म-चिन्तन के लक्षण मिलते हैं: रजोगुणी प्रवृत्ति के व्यक्ति में सकाम कम में रुचि, अधैर्य, लोकविरुद्ध तथा अशास्त्रीय कर्मों का आचरण तथा अत्यधिक विषयभोग के लक्षण मिलते हैं । तमोगुणी व्यक्ति लोभी, आलसी, अधीर, क्रूर, नास्तिक, आचारभ्रष्ट, याचक तथा प्रमादी होता है। अतीत, वर्तमान और आगमी के क्रमानुसार भी सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के शास्त्रों में लक्षण बताये गये हैं। जो कार्य पहले किया गया हो, अब भी किया जा रहा हो पर जिसे आगे करने में लज्जा का अनुभव हो उसे तमोगुणी कर्म कहते हैं। लोकप्रसिद्धि के लिए जो कर्म किये जाते हैं उनके सिद्ध न होने पर मनुष्य को दुःख होता है, इन्हें रजोगुणी कर्म कहते हैं। जिस कार्य को करने की मनुष्य में सदा इच्छा बनी रहे और वह सन्तोषदायक हो तथा जिसे करने में ममष्य को किसी प्रकार की लज्जा की अनुभूति न हो उसे सत्त्वगुणी कर्म कहा जाता है । प्रवृत्ति के विचार से तमोगुण काममूलक, रजोगुण अर्थमूलक तथा सत्त्वगुण धर्ममूलक होता है। सत्त्वगणसम्पन्न व्यक्ति देवत्व को, रजोगणी मनुष्यत्व को तथा तमोगुणी तिर्यक् योनियों को प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त तीन गतियाँ भी कर्म और ज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार की हैं; जैसे अधम सात्त्विक, मध्यम सात्त्विक, उत्तम सात्विक; अधम राजसिक, मध्यम राजसिक, उत्तम राजसिक; अधम तामसिक, मध्यम तामसिक, उत्तम तामसिक आदि । मनु के अनुसार इन्द्रियगत कार्यों में अतिशय आसक्ति तथा धर्मभावना के अभाव में मनुष्य को अधोगति प्राप्त होती है। जिस विषय की ओर इन्द्रियों का अधिक झुकाव होता है उसी में उत्तरोत्तर आसक्ति बढ़ती जाती है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा - कर्मयोग इससे मनुष्य का वर्तमान लोक तो बिगड़ता ही है परलोक में भी अति दुःख और नरकपीड़ा का अनुभव करना पड़ता है, निम्न कोटि की योनियों में पुनः जन्म होता है। और अपार यातना सहनी पड़ती है। जिन भावनाओं से जो-जो कर्म किये जाते हैं उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करके कष्ट भोगना पड़ता है। संक्षेप में प्रवृत्तिमार्गी कम के यही परिणाम हैं। निवृत्तिमार्गी कर्मों के विचार से वेदाध्ययन, तप, ज्ञान, अहिंसा और गुरुसेवा आदि कर्म मोक्ष के साधक हैं । इनमें आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है । यही मुक्ति का सर्वप्रथम साधन है ऊपर बताये गये सभी कर्म वेदाध्ययन या वेदाभ्यास के अन्तर्गत समाविष्ट है। वैदिक कर्म मूलतः दो तरह के है प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक परलोकसुखकामना से कृत कर्म प्रवृत्तिमूलक तथा ज्ञानार्जन के प्रयोजन से कृत निष्काम कर्म निवृत्तिमूलक है। प्रवृत्तिमूलक कर्म का सम्यक् अनुष्ठान मनुष्य को देवयोनि में प्रवेश दिलाता है और निवृत्तिमूलक कर्म से निर्वाण (मोक्ष) मिलता है। आत्मज्ञान सर्वभूतों में आत्मा को तथा आत्मा में सर्वभूतों को देखता है, इससे उसे ब्रह्मपद की प्राप्ति होती है । यही कर्मयज्ञ की पूर्णता है । कर्ममीमांसा — पूर्व मीमांसा' को ही कर्ममीमांसा कहते हैं। इसका उद्देश्य है धर्म के विषय में निश्चय को प्राप्त करना अथवा सभी धार्मिक कर्त्तव्यों को बताना । किन्तु वास्तव में यज्ञकर्मी की विवेचना ने इसमें इतना अधिक महत्त्व प्राप्त किया है कि दूसरे कर्म उसकी ओट में छिप जाते हैं । ऋचाओं तथा ब्राह्मणों में सभी आवश्यक निर्देश है. किन्तु वे नियमित नहीं है इस कारण पुरोहित को यज्ञों के अनुष्ठान में नाना कठिनाइयाँ पड़ती हैं । मीमांसा ने इन समस्याओं के समाधान के लिए अपने सिद्धान्त उप' स्थित किये तथा वैदिक संहिताओं के समझने में निर्देशक कार्य किया है । वेदों में बताये गये यज्ञों के बहुत से फल कहे गये हैं, किन्तु वे कार्य के साथ ही तुरन्त नहीं देखे जा सकते । इसलिए यह विश्वास करना आवश्यक है कि यज्ञ से 'अपूर्व ' फल प्राप्त होता है, जो अदृश्य है और जिसे केवल अनुभव किया जा सकता है और जो समय आने पर कहे गये फल को देगा 1 २१ १६१ पूर्व मीमांसा अध्यात्म मार्ग की शिक्षा नहीं देती, फिर भी किसी-किसी स्थान पर उसमें आध्यात्मिक विचार आ ही गये हैं। ईश्वर की सत्ता का विरोध यहाँ इस आधार पर हुआ है कि एक सर्वज्ञ की धारणा नहीं की जा सकती। विश्व की प्रामाणिक अनुभवगत धारणा यहाँ उपस्थित हुई है। सृष्टि की अनन्तता को वस्तुओं के नाश एवं पुनः उत्पत्ति के विश्वास की भूमिका में समझा गया है एवं कर्म के सिद्धान्त पर इतना जोर दिया गया है कि आवागमन से मुक्ति पाना कठिन ही जान पड़ता है । यह चिन्तनप्रणाली वैदिक याज्ञिकों, पुरोहितों की सहायता के लिए स्थापित हुई। आज भी यह गृहस्यों के दैनन्दिन जीवन में निर्देशक का कार्य करती है। वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान यह संन्यास की शिक्षा नहीं देती और न संन्यासियों से इसका सम्बन्ध ही रहा है । कर्मयोग - भारतीय जीवन के तीन मार्ग माने गये हैं - ( १ ) कर्ममार्ग, (२) ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग | इन्हीं तीनों को क्रमशः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग भी कहते हैं । वास्तव में ये समानान्तर नहीं, किन्तु समवेत मार्ग हैं | पूर्ण जीवन के लिए तीनों का समन्वय आवश्यक है । कर्ममार्ग के विरुद्ध कर्मसंन्यासियों का सबसे बड़ा आक्षेप यह था कि कर्म से बन्धन होता है; अतः मोक्ष के लिए कर्मसंन्यास आवश्यक है | भगवद्गीता में यह मत प्रतिपादित किया गया कि जीवन में कर्म का त्याग असम्भव है। कर्म से केवल बन्ध का वंश तोड़ देना चाहिए जो कर्म ज्ञानपूर्वक भक्तिभाव से अनासक्ति के साथ किया जाता है। उससे बन्ध नहीं होता। इसमें तीनों मार्गों का समुच्चय और समन्वय है। इसी को गीता में कर्मयोग कहा गया है । इसका प्रतिपादन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है (गीता, ३.३ ९ ) : लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ||३|| न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ||४|| न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५॥ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्यान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ||६|| Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कर्मविभाग-कर्मसंन्यास यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । हो नहीं सकती थी। वस्तुओं की अदला-बदली बिना कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।७।। सबको सब चीजें मिल नहीं सकती थीं। चारों वर्णों को नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । अन्न, दूध, घी, कपड़े-लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिए। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥८॥ इन वस्तुओं को उपजाना, तैयार करना, फिर जिसकी यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । जिसे जरूरत हो उसके पास पहुंचाना; यह सारा काम तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।९।। प्रजा के एक बड़े समुदाय को करना ही चाहिए। इसके [ हे निष्पाप अर्जुन ! इस संसार में दो प्रकार की लिए वैश्यों का वर्ण हआ। किसान, व्यापारी, ग्वाले, निष्ठाए मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं-ज्ञानियों की ज्ञान कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये सभी वैश्य हए । शिक्षक योग से और योगियों (कर्मयोगियों) की (निष्काम) कर्म- को, रक्षक को, वैश्य को छोटे-मोटे कामों में सहायक योग से । मनुष्य केवल कर्म के अनारम्भ से नि कर्मता को । और सेवक की जरूरत थी। धावक तथा हरकारे की, प्राप्त नहीं होता है और न केवल कर्मों के त्याग से सिद्धि हरवाहे की, पालकी ढोने वाले की, पशु चराने वाले की, को प्राप्त करता है। क्योंकि कोई भी पुरुष किसी काल लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने वाले की, बासन में क्षणमात्र भी विना कर्म किये नहीं रहता है। निश्चय- मांजने वाले की, कपड़े धोने वाले की जरूरत थी । ये पूर्वक सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म जरूरतें शूद्रों ने पूरी की। इस तरह जनसमुदाय की करते हैं । जो कर्मेन्द्रियों को बाहर से रोककर भीतर से सारी आवश्यकताएं प्रजा में पारस्परिक कर्मविभाग से मन के द्वारा इन्द्रियों के विषयों का स्मरण करता रहता पूरी हुई। यही कर्मविभाग अंग्रेजी के भ्रमोत्पादक उल्थे है वह विमुढात्मा मिथ्याचारी कहा जाता है। किन्तु हे से आज 'श्रमविभाग' बन गया है। प्रजा में यह कर्मअर्जुन ! (इसके विपरीत) मन द्वारा भीतर से इन्द्रियों का विभाग तथा समाज में यह श्रमविभाग सनातन है। "स्वे नियन्त्रण करके कर्मेन्द्रियों से अनासक्त होकर जो कर्मयोग स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः" गीता ने इसी कर्मका आचरण करता है वह श्रेष्ठ माना जाता है। तुम सार्य से बचने की शिक्षा दी है। ऐसा कर्मविभाग शास्त्रविहित कर्म को करो। क्योंकि कर्म न करने की हिन्दू-दण्डनीति अथवा समाजशास्त्र में है। ऐसा अद्भत अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । तुम्हारे कर्म न करने से तुम्हारी संगठन संसार में दूसरा नहीं है। शरीरयात्रा भी संभव न होगी। (सभी कर्मों से बन्ध नहीं चारों वर्गों का कमविभाग मन आदि के धर्मशास्त्रों में होता) यज्ञार्थ (लोकहित) के अतिरिक्त कर्म करने से लोक इस प्रकार बतलाया गया है : में मनुष्य कर्मबन्धन में फँसता है। इसलिए हे अर्जुन ! ब्राह्मण-पठन-पाठन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह; आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञार्थ (समष्टि के कल्याण के क्षत्रिय-पठन, यजन, दान; रक्षण, पालन, रंजन; लिए कर्म का सम्यक् प्रकार से आचरण करो।] वैश्य-पठन, यजन, दान; कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य; कर्मविभाग–यह वर्णविभाग का पर्याय है। मानवसमूह शूद्र-पठन, यजन (मन्त्ररहित), दान; अन्य वर्णों को की जितनी आवश्यकताएँ हैं उनके विचार से विधाता ने सेवा (सहायता)। सत्ययुग में चार बड़े विभाग किये। शिक्षा की पहली आव- इन्हीं कमी से जीवन में सिद्धि प्राप्त होती है : श्यकता थी। इसीलिए सबसे पहले-देव-दानव-यज्ञादि से यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् । भी पहले-बड़े तेजस्वी, प्रतिभाशाली, सर्वदर्शी ब्राह्मणों स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विन्दति मानवः ।। की सृष्टि की । इन्हीं से सारी पृथ्वी के लोगों ने सब कुछ (गीता १८. ४६) सीखा। राष्ट्र की रक्षा, प्रजा की रक्षा, व्यक्ति की रक्षा [जिस परमात्मा से सभी जीवधारियों की उत्पत्ति हुई दूसरी आवश्यकता थी। इस काम में कुशल, बाहुबल को है और जिसके द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व का वितान तना विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय हुए। शिक्षा और गया है, अपने स्वाभाविक कर्मी से उसकी अर्चना करके रक्षा से भी अधिक आवश्यक वस्तु थी जीविका । अन्न के मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता है। ] बिना प्राणी जी नहीं सकता था। पशुओं के बिना खेती कर्मसंन्यास-स्वामी शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसायं-करणग्रन्थ स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया त्यागपूर्ण आश्रम थे। इनकी अवहेलना स्वाभाविक थी ही। है। वे जिज्ञास और ज्ञानी दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास इस प्रकार गृहस्थाश्रम ही प्रधान आश्रम रहा एवं एक की आवश्यकता बतलाते हैं। उनके मत में निष्काम कर्म आश्रम में रहकर भी अन्य आश्रमों के नियम व कर्मों केवल चित्तशुद्धि का हेतु है। परमपद की प्राप्ति कर्म- का (सुविधा के अनुसार) पालन होता रहा । संन्यासपूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन करके आत्मतत्त्व उधर भिन्न वर्गों के लिए जो भिन्न-भिन्न कार्य का बोध प्राप्त होने पर ही हो सकती है। निश्चित किये गये थे, इस नियम में भी शिथिलता आने __श्रीमद्भगवद्गीता में इससे भिन्न मत प्रकट किया लगी। ब्राह्मण शस्त्रोपजीवो होने लगे । द्रोणाचार्य, गया है । इसके अनुसार काम्य कर्मों का त्याग तथा नित्य कृपाचार्य आदि इसके उदाहरण है। ययाति के पुत्र यदु और नैमित्तिक कर्मों का अनासक्तिपूर्वक सम्पादन ही कर्म- आदि को राज्याधिकार नहीं मिला तो वे पशुपालनादि संन्यास है; यज्ञार्थ अथवा भगवदर्पण बुद्धि से कर्म करने से करने लगे । समाज की आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मण, बन्ध नहीं होता। गीता (३. १५-२५) में यज्ञार्थ कर्म के क्षत्रिय भी अधिकांश अपने-अपने काम छोड़कर वैश्यवत सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है : गार्हस्थ्य-धर्म पालन करने लगे थे। इस प्रकार प्राचीन कर्म ब्रह्मोद्धवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । काल में ही कर्मसार्य प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ।। काल में तो यह साङ्कर्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । है। अनेक सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं का यह एक बहुत बड़ा अघायरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। कारण है। xxxx कर्मेन्द्रिय--मनुष्य की दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ सबका तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । स्वामी मन होता है । दस इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रिय और असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।। पाँच कर्मेन्द्रिय है। वाक्, हस्त, पाद, गुदा और उपस्थ कर्मणव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं जिनका शरीर के हितार्थ कार्यात्मक लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।। उपयोग होता है। इसी प्रकार (४.३१ में) कहा है : कर्मेन्द्रियों का संयम धार्मिक साधना का प्रथम चरण यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । है। किन्तु इनका संयम भी आन्तरिक मन से होना नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। चाहिए; बाहरी हठपूर्वक नहीं। जो बाहर से अपनी गीता (६.१ में) पुनः कथन है : इन्द्रियों को रोकता है किन्तु भीतर से उनके विषयों का अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः । ध्यान करता है, वह मुढात्मा और मिथ्याचारी है। गीता स संन्यासी च योगी च न निरग्निन चाक्रियः ।। (३.६,७) में कथन है : कर्मसार्य-अपने स्वभावज कर्म को छोड़कर लोभ अथवा कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । भयवश दूसरे के कर्म को जीविकार्थ करना कमसार्य इन्द्रियार्थान्विमुढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। कहलाता है । प्राचीन काल में प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽजन । अलग-अलग निर्धारित नियम एवं कर्म थे। (दे० 'वर्ण' कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसनः स विशिष्यते ।। और 'आश्रम'1) ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश का अधिकार कर्णप्रयाग-यह तीर्थस्थल गढ़वाल जिले के अन्तर्गत है। प्रथम तीन वर्गों को, गहस्थाश्रम में सभी वर्गों को, वान- यहाँ भागीरथी और अलकनन्दा का संगम है। प्रस्थ में केवल प्रथम दो को था एवं संन्यास में प्रवेश एक कर्णश्रवा (आङ्गिरस)-----पञ्चविंश ब्राह्मण (१३.११,१४) में मात्र ब्राह्मण कर सकता था । कालान्तर में आश्रम के इन्हें साम गान का ऋषि बताया गया है। यही बात नियम ढीले पड़े। ब्रह्मचर्याश्रम के कतिपय संस्कारों को दावसु के बारे में भी कही गयी है। न पूरा कर ब्राह्मण भी अपने बालकों को गृहस्थाश्रम में करण ग्रन्थ-वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की प्रवेश करा देते थे। वानप्रस्थ और संन्याग तो अत्यन्त विधि अत्यन्त प्राचीन है और नैदिक काल से चली आयी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ है । बीच-बीच में कालानुसार बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने करण - ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके इसकी कालविषमता को ठीक कर रखा है । करण ग्रन्थों के द्वारा ज्योतिष में बराबर संशोधन होते चले आये हैं । संप्रति मकरन्दीय ग्रहलाघव जैसे करण ग्रन्थ अधिक प्रचलित है। करम्भ - जौ के सत्तू को दही में मिलाकर बनाया गया एक होमद्रव्य । यह कृषि के देवता पूषा का प्रिय यज्ञभाग है । दक्षयज्ञध्वंस के समय वीरभद्र ने पूषा के दाँत तोड़ दिये थे, तब से वे कोमल पिष्ट (करम्भ ) की हवि ग्रहण करते हैं । करम्भ जुआर आदि से भी बनाया जाता है । करविन्दस्वामी - आपस्तम्ब शुल्वसूत्र के ये एक भाष्यकार हुए हैं। करवीरप्रतिपदावत ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । किसी देवालय के उद्यान में खड़े हुए करवीर वृक्ष का पूजन करना चाहिए। तमिलनाडु में यह व्रत वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है । कलश -- धार्मिक कृत्यों में कलश की स्थापना एक महत्त्व - पूर्ण कर्तव्य है । इसमें वरुण की पूजा होती है । विवाह, मूर्तिस्थापना, जयप्रयाण, राज्याभिषेक आदि के समय एक कलश अथवा कई कलशों की अथवा अधिक से अधिक १०८ कलशों की स्थापना की जाती है । कलश की परिधि १५ अंगुल से ५० अंगुल तक ऊँचाई १६ अंगुल तक तली १२ अंगुल और मुँह ८ अंगुल चौड़ा होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड १.६०८ में इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी हुई है : कलां कलां गृहीत्वा च देवानां विश्वकर्मणा । निर्मितोऽयं सुरैर्यस्मात् कलवास्तेन उच्यते || ऋग्वेद एवं परवर्ती साहित्य में 'पात्र' या 'घट' के लिए व्यवहृत शब्द 'कलश' था, जो कच्ची या पक्की मिट्टी का बना होता था। दोनों प्रकार के पात्र व्यवहार में आते थे। सोमरस के काष्ठनिर्मित द्रोणकलश का उल्लेख प्रायः यज्ञों में हुआ है। 1 कलस — इसकी व्युत्पत्ति 'क (जल) से लस सुशोभित होता है' (केन लसतीति) की गयी है। कालिकापुराण (पुष्याभिषेक, अध्याय ८७ ) में इसकी उत्पत्ति और धार्मिक माहात्म्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है " देवता और असुरों द्वारा अमृत के लिए जब सागर का मन्थन हो रहा था तो अमृत (पीयूष ) के धारणार्थ विश्वकर्मा ने कलस का निर्माण किया। देवताओं की पृथक्-पृथक् कलाओं को एक करके यह बना था, इस लिए कलस कहलाया । नव कलस हैं, जिनके नाम हैं। गोह्य, उपगो, मरुत्, मयूख, मनोहा, कृषिभद्र, तनुशोधक, इन्द्रियप्न और विजय हे राजन्, इन नामों के क्रमश: नौ नाम और है उनको सुनो, जो सदैव शान्ति देने वाले हैं। प्रथम क्षितीन्द्र, द्वितीय जलसम्भव तीसरा पवन, चौथा अग्नि, पांचवां यजमान छठा कोशसम्भव, सातवाँ सोम, आठवाँ आदित्य और नवाँ विजय । कलस को पञ्चमुख भी कहा गया है, वह महादेव के स्वरूप को धारण करनेवाला है। कलस के पांच मुलों में पञ्चानन महादेव स्वयं निवास करते हैं, इसलिए सम्यक् प्रकार से वामदेव आदि नामों से मण्डल के पद्मासन में पञ्चवक्त्रघट का न्यास करना चाहिए । क्षितीन्द्र को पूर्व में, जलसम्भव को पश्चिम में पवन को वायव्य में, अग्निसम्भव को अग्निकोण में, यजमान को नैऋत्य में, कोशसम्भव को ईशान में सोम को उत्तर में और आदित्य को दक्षिण में रखना चाहिए। कलस के मुख में ब्रह्मा और ग्रीवा में शङ्कर स्थित हैं । मूल में विष्णु और मध्य में मातृगण का निवास है। दिक्पाल देवता दसों दिशाओं से इसका मध्य में वेष्टन करते हैं और उदर में सप्तसागर तथा सप्त द्वीप स्थित हैं । नक्षत्र, ग्रह, सभी कुलपर्वत, गङ्गा आदि नदियाँ, चार वेद, सभी कलस में स्थित है। कलस में इनका चिन्तन करना चाहिए रत्न, सभी बीज, पुष्प, फल, वज्र, मौक्तिक, वैदूर्य, महापद्म, इन्द्रस्फटिक, बिल्व, नागर, उदुम्बर, बीजपूरक, जम्बीर, आम्र, आम्लातक, दाडिम, यव, शालि, नीवार, गोधूम, सित सर्षप, कुंकुम, अगुरु, कर्पूर, मदन, रोचन, चन्दन, मांसी, एला, कुष्ठ, कर्पूरपत्र, चण्ड, जल, निर्यासक, अम्बुज, शैलेय, बदर, जाती, पत्रपुष्य, कालशाक, पृक्का, देवी, पर्णक, वच, धात्री मज्जिष्ठ, तुरुक, मङ्गलाष्टक, दूर्वा, मोहनिका, भद्रा, शतमूली, शतावरी, पर्णी में शवल, क्षुद्रा, सहदेवी, गजाङ्कश, पूर्णकोषा, सिता, पाठा, गुज्जा, सुरसी, कालस, व्यामक, गजदन्त शतपुष्पा, पुनर्णवा, ब्राह्मी, देवी, सिता, रुद्रा और सर्वसन्धानिका, इन सभी शुभ वस्तुओं को लाकर फलस में निधापन करना चाहिए । कलस के देवता विधि, शम्भु, गदाधर (विष्णु) का यथाक्रम पूजन करना चाहिए। विशेष करके शम्भु का । प्रासादमण और शम्भुतम् से वार का प्रथम पूजन , करम्भ - कलस 1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला-कलियुग १६५ करना चाहिए। इसके पश्चात् नानाविधि से दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । पहले स्थापित कलसों में नवग्रहों की और मातृघटों में मातृकाओं की पूजा करनी चाहिए। घट में सभी देवताओं की पृथक्-पृथक् पूजा होती है। मुख्यतया पूर्वोक्त नव देवताओं की । भक्ष्य, माल्य, पेय, पुष्प, फल, यावक, पायस आदि यथासम्भव आयोजनों से राजा को सभी देवताओं का पूजन करना चाहिए। कला-शिव की शक्ति का एक रूप । शिव द्वारा विश्व की क्रमिक सृष्टि अथवा विकास की प्रक्रिया का ही नाम कला है । सभी कलाओं में शक्ति की अभिव्यक्ति है। शैव तन्त्रों में चौसठ कलाओं का उल्लेख पाया जाता है । उनकी सूची निम्नांकित है : १. गीत २७. धातुवाद २. वाद्य २८. मणिरागज्ञान ३. नृत्य २९. आकरज्ञान ४. नाट्य ३०. वृक्षायुर्वेदयोग ५. आलेख्य ३१. मेष-कुक्कुट-लावक-युद्ध ६. विशेषकच्छेद्य ३२. शुकसारिकाप्रलापन ७. तण्डुलकुसुमबलिविकार ३३. उदकघात ८. पुष्पास्तरण ३४. चित्रायोग ९. दशन-वसनाङ्गराग ३५. माल्यग्रथनविकल्प १०. मणिभूमिका कर्म ३६. शेखरापीडयोजन ११. शयनरचना ३७. नेपथ्यायोग १२. उदकवाद्यम् ३८. कर्णपत्रभङ्ग १३. पानकरसरागासवयोजन ३९. गन्धयुक्ति १४. सुचीवापकर्म ४०. भूषणयोजन १५. सूत्रक्रीडा ४१. ऐन्द्रजाल १६. प्रहेलिका ४२. कौचुमारयोग १७. प्रतिमाला ४३. हस्तलाघव १८. दुर्वचकयोग ४४. चित्रशाक-पूप-भक्ष्य१९. पुस्तकवाचन विकल्पक्रिया २०. नाटिकाख्यायिकादर्शन ४५. केशमार्जनकौशल २१. काव्यसमस्यापूरण ४६. अक्षरमुष्टिकाकथन २२. पट्टिका-वेत्र-बाण-विकल्प ४७. म्लेच्छित-कविकर्म २३. तर्क-कर्म ४८. देशभाषाज्ञान २४. तक्षण ४९. पुष्पशकटिकाःनिमित्र-ज्ञान २५. वास्तुविद्या ५०. यन्त्रमातृका २६. रूयान्तरपरीक्षा ५१. धारणमातृका ५२. सम्पाठय ५९. आकर्षक्रीडा ५३. मानसीकाव्य क्रिया ६०. बालकक्रीडन ५४. क्रियाविकल्प ६१. वैनायिकीविद्याज्ञान ५५. छलितकयोग ६२. वैजयिकीविद्याज्ञान ५६. अभिधानकोषछन्दोज्ञान ६३. वैतालिकीविद्याज्ञान ५७. वस्त्रगोपन ६४. उत्सादन ५८. द्यूतविशेष भागवत की श्रीधरी टीका में भी इन कलाओं की सूची दी गयी है। कला का एक अर्थ जिह्वा भी है। हठयोगप्रदीपिका (३.३७ ) में कथन है : कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत् । [जिह्वा को उलटी करके तीन नाडियों के मार्ग कपालगह्वर में लगाना चाहिए ।] __ आकार या शक्ति का माप भी कला कहा जाता है, यथा चन्द्रमा की पंद्रहवीं कला, सोलह कला का अवतार (षोडशकलोऽयं पुरुषः । ) । राशि के तीसवें अंश के साठवें भाग को भी कला कहते हैं। कलानिधितन्त्र-एक मिश्रित तन्त्र । मिश्रित तन्त्रों में देवी की उपासना दो लाभों के लिए बतायी गयी है; पार्थिव सुख तथा मोक्ष, जबकि शुद्ध तन्त्र केवल मोक्ष के लिए मार्ग दर्शाते है । 'कलानिधितन्त्र' में कलाओं के माध्यम से तान्त्रिक साधना का मार्ग बतलाया गया है। कलि-यह शब्द ऋग्वेद में अश्विनों द्वारा रक्षित किसी व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में कलि ( बहुवचन ) का प्रयोग गन्धों के वर्णन के साथ हुआ है। विवाद, कलह; बहेड़े के वृक्ष और कलियुग के स्वामी असुर का नाम भी कलि है। कलियुग-विश्व की आयु के सम्बन्ध में हिन्दू सिद्धान्त तीन प्रकार के समयविभाग उपस्थित करता है । वे हैंयुग, मन्वन्तर एवं कल्प। युग चार है--कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि । ये प्राचीनोक्त स्वर्ण, रूपा, पीतल एवं लौह युग के समानार्थक हैं। उपर्युक्त नाम जुए के पासे के पक्षों के आधार पर रखे गये हैं। कृत सबसे भाग्यवान् माना जाता है जिसके पक्षों पर चार बिन्दु हैं, त्रेता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि पर मात्र एक बिन्दु है । ये ही सब सिद्धान्त युगों के गुण एवं आयु पर भी घटते हैं । क्रमशः इन युगों में मनुष्य के अच्छे गुणों का Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ह्रास होता है तथा युगों की आयु भी क्रमशः ४८०० वर्ष, ३६०० वर्ष, २४०० वर्ष १२०० वर्ष है । सभी के योग को एक महायुग कहते हैं जो १२००० वर्ष का है। किन्तु ये वर्ष दैवी हैं और एक दैवी वर्ष ३६० मानवीय वर्ष के तुल्य होता है, अतएव एक महायुग ४३,२०,००० वर्ष का होता है। कलि का मानवीय युगमान ४.३२,००० वर्ष है। कलि (तिष्य) युग में कृत ( सत्ययुग ) के ठीक विप रीत गुण आ जाते हैं। वर्ण एवं आश्रम का साहू, वेद एवं अच्छे चरित्र का ह्रास, सर्वप्रकार के पापों का उदय, मनुष्यों में नानाव्याधियों की व्याप्ति आयु का क्रमशः क्षीण एवं अनिश्चित होना, वर्वरों द्वारा पृथ्वी पर अधिकार, मनुष्यों एवं जातियों का एक दूसरे से संघर्ष आदि इसके गुण हैं । इस युग में धर्म एकपाद, अधर्म चतुष्पाद होता है, आयु सौ वर्ष की युग के अन्त में पापियों के नाश के लिए भगवान् कल्कि अवतार धारण करेंगे । युगों की इस कालिक कल्पना के साथ एक नैतिक कल्पना भी है, जो ऐतरेय ब्राह्मण तथा महाभारत में पावी जाती है : कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतः सम्पद्यते चरन् ॥ [ सोनेवाले के लिए कलि, अँगड़ाई लेनेवाले के लिए द्वापर, उठनेवाले के लिए नेता और चलने वाले के लिए कृत ( सत्ययुग ) होता है । ] कल्कि पुराण ( प्रथम अध्याय ) में कलियुग की उत्पत्ति का वर्णन निम्नांकित है : " संसार के बनानेवाले लोकपितामह ब्रह्मा ने प्रलय के अन्त में घोर मलिन पापयुक्त एक व्यक्ति को अपने पृष्ठ भाग से प्रकट किया। वह अधर्म नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसके वंशानुकीर्तन, श्रवण और स्मरण से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । अधर्म की सुन्दर विडालाक्षी ( बिल्ली के जैसी आँखवाली ) भार्या मिथ्या नाम की थी । उसका परमकोपन पुत्र दम्भ नामक हुआ। उसने अपनी बहिन माया से लोभ नामक पुत्र और और निकृति नामक पुत्री को उत्पन्न किया, उन दोनों से क्रोध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसने अपनी हिंसा नामक बहिन से कलि महाराज को उत्पन्न किया । वह दाहिने हाथ से जिल्ह्वा और वाम हस्त से उपस्थ ( शिश्न) पकड़े हुए, अंजन के समान वर्णवाला, काकोदर, कराल मुखवाला और भयानक था उससे सड़ी कलियुग दुर्गन्ध आती थी और वह द्यूत, मद्य, हिंसा, स्त्री तथा सुवर्ण का सेवन करने वाला था । उसने अपनी दुरुक्ति नामक बहिन से भय नामक पुत्र और मृत्यू नामक पुत्री उत्पन्न किये। उन दोनों का पुत्र निरय हुआ। उसने अपनी यातना नामक बहिन से सहस्रों रूपों वाला लोभ नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस प्रकार कलि के वंश में असंख्य धर्मनिन्दक सन्तान उत्पन्न होती गयीं ।" गरुडपुराण ( युगधर्म ११७ अ० ) में कलिधर्म का वर्णन इस प्रकार है : "जिसमें सदा अमृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विवाद, शोक, मोह भय और दैन्य बने रहते हैं, उसे कलि कहा गया है उसमें लोग कामी और सदा कटु बोलनेवाले होंगे। जनपद दस्युओं से आक्रान्त और वेद पाखण्ड से दूषित होगा । राजा लोग प्रजा का भक्षण करेंगे । ब्राह्मण शिश्नोदरपरायण होंगे। विद्यार्थी प्रतहीन और अपवित्र होंगे । गृहस्व भिक्षा मांगेंगे। तपस्वी ग्राम में निवास करने वाले, धन जोड़ने वाले और लोभी होंगे। क्षीण शरीर वाले, अधिक खाने वाले, शौर्यहीन, मायावी, दुःसाहसी भृत्य ( नौकर ) अपने स्वामी को छोड़ देंगे। तापस सम्पूर्ण व्रतों को छोड़ देंगे । शूद्र दान ग्रहण करेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे, प्रजा उद्विग्न, शोभाहीन और पिशाच सदृश होगी । विना स्नान किये लोग भोजन, अग्नि, देवता तथा अतिथि का पूजन करेंगे । कलि के प्राप्त होने पर पितरों के लिए पिण्डोदक आदि क्रिया न होगी । सम्पूर्ण प्रजा स्त्रियों में आसक्त और सूद्रप्राय होगी । स्त्रियां भी अधिक सन्तानवाली और अल्प भाग्यवाली होंगी । खुले सिर वाली ( स्वच्छन्द) और अपने सत्पति की आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली होंगी। पाखण्ड से आहत लोग विष्णु की पूजा नहीं करेंगे, किन्तु दोष से परिपूर्ण काल में एक गुण होगा -- कृष्ण के कीर्तन मात्र से मनुष्य बन्धनमुक्त हो परम गति को प्राप्त करेंगे। जो फल कृतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में परिचर्या से प्राप्त होता है वह कलियुग में हरि कीर्तन से सुलभ है । इसलिए हरि नित्व ध्येय और पूज्य हैं।" भागवत पुराण (द्वादश स्कन्ध, तीन अध्याय) में कलिधर्म का वर्णन निम्नांकित है : 1 "कलियुग में धर्म के तप शौच, दया, सत्य इन नार पाँवों में केवल चौथा पाँच (सत्य) शेष रहेगा । वह भी Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग १६७ अधार्मिकों के प्रयास से क्षीण होता हुआ अन्त में नष्ट हो जायेगा। उसमें प्रजा लोभी, दुराचारी, निर्दय, व्यर्थ वैर। करनेवाली, दुर्भगा, भूरितर्ष (अत्यन्त तृषित) तथा शूद्र- दासप्रधान होगी। जिसमें माया, अनृत, तन्द्रा, निद्रा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय, दैन्य अधिक होगा वह तामसप्रधान कलियुग कहलायेगा । उसमें मनुष्य क्षुद्रभाग्य, अधिक खानेवाले, कामी, वित्तहीन और स्त्रियाँ स्वैरिणी और असती होंगी । जनपद दस्युओं से पीड़ित, वेद पाखण्डों से दूषित, राजा प्रजाभक्षी, द्विज शिश्नोदरपरायण, विद्यार्थी अव्रत और अपवित्र, कुटुम्बी भिक्षाजीवी, तपस्वी ग्रामवासी और संन्यासी अर्थलोलुप होंगे । स्त्रियाँ ह्रस्वकाया, अतिभोजी बहुत सन्तानवाली, निर्लज्ज, सदा कटु बोलनेवाली, चौर्य, माया और अतिसाहस से परिपूर्ण होंगी। क्षुद्र, किराट और कूटकारी व्यापार करेंगे। लोग विना आपदा के भी साधु पुरुषों से निन्दित व्यवसाय करेंगे। भृत्य द्रव्यरहित उत्तम स्वामी को भी छोड़ देंगे। पति भी विपत्ति में पड़े कुलीन भृत्य को त्याग देंगे। लोग दूध न देनेवाली गाय को छोड़ देंगे । कलि में मनुष्य माता-पिता, भाई, मित्र, जाति को छोड़कर केवल स्त्री से प्रेम करेंगे, साले के साथ संवाद में आनन्द लेंगे, दीन और स्त्रैण होंगे । शूद्र दान लेंगे और तपस्वी वेश से जीविका चलायेंगे। अधार्मिक लोग उच्च आसन पर बैठकर धर्म का उपदेश करेंगे। कलि में प्रजा नित्य उद्विग्न मनवाली, दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, अन्नरहित भूतल में अनावृष्टि के भय से आतुर; वस्त्र, अन्न, पान, शयन, व्यवसाय, स्नान, भूषण से हीन; पिशाच के सदश दिखाई पड़नेवाली होगी। लोग कलि में आधी कौड़ी के लिए भी विग्रह करके मित्रों को छोड़ देंगे, प्रियों का त्याग करेंगे और अपने प्राणों का भी हनन करेंगे। मनुष्य अपने से बड़ों और माता-पिता, पुत्र और कुलीन भार्या की रक्षा नहीं करेंगे। लोग क्षुद्र और शिश्नोदर परायण होंगे। पाखण्ड से छिन्न-भिन्न बुद्धि वाले लोग जगत् के परम गुरु, जिनके चरणों पर तीनों लोक के स्वामी आनत हैं, उन भगवान् अच्युत की पूजा प्रायः नहीं करेंगे।" ___ "द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) व्रात्य (सावित्री- पतित) और राजा लोग शूद्रप्राय होंगे । सिन्धु के तट, चन्द्रभागा (चिनाव) की घाटी, काञ्ची और कश्मीरमण्डल में शूद्र, व्रात्य, म्लेच्छ तथा ब्रह्मवर्चस से रहित लोग शासन करेंगे। ये सभी राजा समसामयिक और म्लेच्छप्राय होंगे। ये सभी अधार्मिक और असत्यपरायण होंगे । ये बहुत कम दान देनेवाले और तीव्र क्रोध वाले, स्त्री, बालक, गौ, ब्राह्मण को मारनेवाले और दूसरे की स्त्री तथा धन का अपहरण करेंगे । ये उदित होते हो अस्त तथा अल्प शक्ति और अल्पायु होंगे । असंस्कृत, क्रियाहीन, रजस्तमोगुण से घिरे, राजा रूपी ये म्लेच्छ प्रजा को खा जायेंगे । इनके अधीन जनपद भी इन्हीं के समान आचार वाले होंगे और वे राजाओं द्वारा तथा स्वयं परस्पर पीडित होकर क्षय को प्राप्त होंगे।" "इसके पश्चात् प्रतिदिन धर्म, सत्य शौच, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मृति कलिकाल के द्वारा क्षीण होंगे। कलि में मनुष्य धन के कारण ही जन्म से गुणी माना जायेगा। धर्म-न्याय-व्यवस्था में बल ही कारण होगा। दाम्पत्य सम्बन्ध में केवल अभिरुचि हेतु होगी और व्यवहार में माया । स्त्रीत्व और पुंस्त्व में रति और विप्रत्व में सूत्र कारण होगा। आश्रम केवल चिह्न से जाने जायेंगे और वे परस्पर आपत्ति करनेवाले होंगे। अवृत्ति में न्यायदौर्बल्य और पाण्डित्य में वचन की चपलता होगी । असाधत्व में दरिद्रता और साधुत्व में दम्भ प्रधान होगा । विवाह में केवल स्वीकृति और अलंकार में केवल स्नान शेष रहेगा । दूर घूमना ही तीर्थ और केश धारण करना ही सौन्दर्य समझा जायेगा। स्वार्थ में केवल उदर भरना, दक्षता में कुटुम्ब पालन, यश में अर्थसंग्रह होगा । इस प्रकार दुष्ट प्रजा द्वारा पृथ्वी के आक्रान्त होने पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में जो बली होगा वही राजा बनेगा। लोभी, निघृण, डाकू, अधर्मी राजाओं द्वारा धन और स्त्री से रहित होकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में चली जायेगी। दुर्भिक्ष और कर से पीड़ित, शाक, मूल, आमिष, क्षौद्र, फल, पुष्प भोजन करनेवाली प्रजा वृष्टि के अभाव में नष्ट हो जायेगी । बात, तप, प्रावृट, हिम, क्षुधा, प्यास, व्याधि, चिन्ता आदि से प्रजा सन्तप्त होगी। कलि में परमायु तीस बीस वर्ष होगी । कलि के दोष से मनुष्यों का शरीर क्षीण होगा। मनुष्यों का वर्णाश्रम और वेदपथ नष्ट होगा। धर्म में पाखण्ड की प्रचरता होगी और राजाओं में दस्यओं की, वर्गों में शूद्रों की, गौओं में बकरियों की, आश्रमों में गार्हस्थ्य की, बन्धुओं में यौन सम्बन्ध की, ओषधियों में अनुपाय की, वृक्षों में शमी की, मेघों में विद्युत की, घरों Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कलिसंतरणोपनिषद्-कल्पसूत्रतन्त्र में शून्यता की प्रधानता होगी। इस प्रकार खरधर्मी मनुष्यों कल्पपादपदान-कल्पवृक्ष की सुवर्णप्रतिमा का दान । के बीच गतप्राय कलियुग में धर्म की रक्षा करने के लिए इसकी गणना महादानों में है। अपने सत्त्व से भगवान् अवतार लेंगे।" वंगदेशीय वल्लालसेन विरचित दानसागर के महादान दानावर्त में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। कलिसंतरणोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसमें कलि कल्पवृक्ष-यह वह वृक्ष है जो मनुष्य की सभी कामनाओं से उद्धार पाने का दर्शन प्रतिपादित है, जो केवल भग की पूर्ति करता है । इसको कल्पतरु भी कहते हैं । वान् के नामों का जप ही है । जप का मुख्य मन्त्र : जैन विश्वासों के अनुसार विश्व की प्रथम सृष्टि में - हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । मनुष्य युग्म (जोड़े) में उत्पन्न हुए तथा एक जोड़े ने दो __ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।। जोड़ों को जन्म दिया, जो आपस में विवाह कर द्विगुणित यही माना गया है। होते गये । जीविका के लिए ये कोई व्यवसाय नहीं करते कल्प-विश्व की आयु के सम्बन्ध में युग के साथ समय के थे। दस प्रकार के कल्पतरु थे जो इन मनुष्यों की सभी दो और बृहत् मापों का वर्णन आता है । वे हैं मन्वन्तर इच्छाओं को पूरा करते थे । एवं कल्प । युग चार हैं-कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि । कल्पतरु एक माङ्गलिक प्रतीक भी है। इन चार युगों का एक महायुग होता है । १००० महा- कल्पवृक्षव्रत-साठ संवत्सर व्रतों में से एक । दे० मत्स्य युग मिलकर एक कल्प बनाते हैं। इस प्रकार कल्प एक पुराण, १०१; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, ४४६ । विश्व की रचना से उसके नाश तक की आयु का कल्पसूत्र-छः वेदाङ्गों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, नाम है। छन्द और ज्योतिष में कल्प दूसरा अङ्ग है । जिन सूत्रों में कल्प कल्प का अर्थ कल्पसूत्र भी है। कल्प छः वेदाङ्गों में संगृहीत हैं उनको कल्पसूत्र कहते हैं। इनके तीन विभाग से एक है । कौन-सा यज्ञ किसलिए, किस विधि-विधान से हैं-श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी)। प्रथम करना चाहिए यह कल्पसूत्रों के अनुशीलन से ज्ञात हो दो में श्रौत और गृह्य यज्ञों की विस्तृत व्याख्या की गयी सकता है। है। इनका मुख्य विषय है धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रतिकल्कि-भगवान् विष्णु के दस अवतारों में से अन्तिम अव पादन, यज्ञों का विधान और संस्कारों की व्याख्या । श्रौततार, जो कलियुग के अन्त में होगा। कल्कि-उपपुराण यज्ञ दो प्रकार के हैं-सोमसंस्था और हविःसंस्था । (अध्याय २, कल्किजन्मोपनयन) में इसका विस्तृत वर्णन गृह्ययज्ञ को पाकसंस्था कहा गया है। इन तीनों प्रकार पाया जाता है । दे० 'अवतार' । के यज्ञों के सात-सात उपप्रकार हैं। सोमसंस्था के प्रकार हैं-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, कल्किद्वादशी-भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी। अतिरात्र और आप्तोर्याम । हविःसंस्था के प्रकार है-अग्न्याकल्कि इसके देवता हैं। वाराह पुराण (४८.१.२४) में धेय, अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य और इसका विस्तृत वर्णन है। पशुबन्ध । पाकसंस्था के प्रकार है-सायंहोत्र, प्रातर्होत्र, कल्पतरु-एक अद्वैतवेदान्तीय उपटीका ग्रन्थ, जिसका पूर्ण स्थालीपाक, नवयज्ञ, वैश्वदेव, पितृयज्ञ और अष्टका । सब नाम 'वेदान्तकल्पतरु' है। इसके रचयिता स्वामी अमला मिलाकर कल्पसूत्रों में ४२ कर्मों का पतिपादन है : १४ नन्द का आविर्भाव दक्षिण भारत में हुआ था । यह ग्रन्थ श्रौतयज्ञ, ७ गृह्ययज्ञ, ५ महायज्ञ और १६ संस्कारयज्ञ । संवत् १३५४ वि० से पूर्व लिखा जा चुका था । इस ग्रन्थ परिभाषासूत्र में इनका विस्तृत वर्णन पाया जाता है । वेदमें शांकरभाष्य पर लिखित वाचस्पति मिश्र की 'भामती' संहिताओं के समान कल्पसूत्रों की संख्या भी ११३० टीका की व्याख्या की गयी है। होनी चाहिए थी किन्तु इनमें से अधिकांश लुप्त हो गये; इसी प्रकार के उपनाम वाला दूसरा ग्रन्थ 'कृत्यकल्प- संप्रति केवल ४० कल्पसूत्र ही उपलब्ध हैं। दे० 'सूत्र' । तर' धर्मशास्त्र पर मिलता है। इसके रचयिता बारहवीं कल्पसूत्रतन्त्र-एक तन्त्र ग्रन्थ । आगमतत्त्वविलास में शती में उत्पन्न लक्ष्मीधर थे जो गहडवार राजा गोविन्द- उल्लिखित तन्त्रों की तालिका में इस तन्त्र का नाम चन्द्र के सान्धिविग्रहिक (मन्त्रियों में से एक) थे। आया है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पादि-कवितावली १६९ कल्पादि-मत्स्यपुराण में ऐसी सात तिथियों का उल्लेख का अधिक प्रचार था, इसीलिए इसको 'कातन्त्र' (कुत्सित है जिनसे कल्प का प्रारम्भ होता है । उदाहरणतः वैशाख ग्रन्थ) ईर्ष्यावश कहा गया है, अथवा कार्तिकेय के वाहन शुक्ल ३, फाल्गुन कृष्ण ३, चैत्र शुक्ल ५, चैत्र कृष्ण ५ कलापी (मोर पक्षी) ने इसको प्रकट किया था इससे भी (अथवा आमावस्या), माघ शुक्ल १३, कार्तिक शुक्ल ७ इसका 'कातन्त्र' नाम चल पड़ा। और मार्गशीर्ष शुक्ल ९ । दे० हेमाद्रि, कालखण्ड ६७०. कलापी-पाणिनि के सूत्रों में जिन वैयाकरणों का उल्लेख १; निर्णयसिन्ध, ८२; स्मतिकौस्तुभ, ५-६ । ये श्राद्धतिथियाँ किया गया है, उनमें कलापी (४.३.१०४) भी एक हैं । हैं। हेमाद्रि के नागर खण्ड में ३० तिथियाँ ऐसी बतलायी कल्लिनाथ-गान्धर्व वेद (संगीत) के चार आचार्य प्रसिद्ध गयी हैं जैसे कि वे सब कल्पादि हों। मत्स्यपुराण हैं: सोमेश्वर, भरत, हनुमान और कल्लिनाथ । इनमें से (अध्याय २९०.७-११) में ३० कल्पों का उल्लेख है, कइयों के शास्त्रीय ग्रन्थ मिलते हैं। किन्तु वे नागर खण्ड में उल्लिखित कल्पों से भिन्न प्रकार कवच-देवपूजा के प्रमुख पंचाग स्तोत्रों में प्रथम अंग (अन्य चार अंग अर्गला, कीलक, सहस्रनाम आदि हैं)। कल्पानुपदसूत्र-ऋचाओं को साम में परिणत करने की स्मार्तों के गृहों में देवी की दक्षिणमार्गी पूजा की सबसे विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं । महत्वपूर्ण स्तुति चण्डीपाठ है जिसे दुर्गासप्तशती भी 'कल्पानुपदसूत्र' भी इनमें से एक सामवेदीय सूत्र है। कहते हैं। इसके पूर्व एवं पीछे दूसरे पवित्र स्तोत्रों का कल्याणसप्तमी-किसी भी रविवार को पड़ने वाली सप्तमी पाठ होता है। ये कवच कीलक एवं अर्गलास्तोत्र हैं, के दिन यह व्रत किया जा सकता है । उस तिथि का नाम जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण से लिये गये हैं । कवच में कल्याणिनी अथवा विजया होगा । एक वर्ष पर्यन्त इसका कुल ५० पद्य हैं तथा कीलक में १४ । इसमें शस्त्ररक्षक अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य के पूजन का विधान लोहकवच के तुल्य ही शरीर के अंगों की रक्षात्मक प्रार्थना है । १३ वें मास में १३ गायों का दान या संमान करना की गयी है। चाहिए। दे० मत्स्यपुराण, ७४.५२०; कृत्यकल्पतरु, किसी धातु की छोटी डिबिया को भी कवच कहते हैं, व्रतकाण्ड, २०८-२११। जिसमें भूर्जपत्र पर लिखा हुआ कोई तान्त्रिक यन्त्र या कल्याणश्री (भाष्यकार)-आश्वलायन श्रौतसूत्र के ११ मन्त्र बन्द रहता है । पृथक्-पृथक् देवता तथा उद्देश्य के व्याख्याग्रन्थों का पता लगा है। इनके रचयिताओं में से पृथक्-पृथक् कवच होते हैं । इसको गले अथवा बाँह में कल्याणश्री भी एक है। रक्षार्थ बाँधते हैं । मलमासतत्त्व में कहा है : कल्लट-कश्मीर के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक । इनका जीवन- यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं प्रतिवारणम् । काल नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'काश्मीर शैव तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम् ॥ साहित्यमाला' में प्रसिद्ध 'स्पन्दकारिका' ग्रन्थ की रचना [ जैसे शस्त्र के प्रहार से चर्म अथवा धातु का बना कल्लट द्वारा हुई थी। इसमें स्पन्दवाद (एक शैवसिद्धान्त) हुआ कवच (ढाल) रक्षा करता है, उसी प्रकार दैवी का प्रतिपादन किया गया है । आघात से (यान्त्रिक शान्ति) कवच रक्षा करता है ।] कल्हण-कल्हण पण्डित कश्मीर के राजमन्त्रियों में से थे। कवि कर्णपूर-वंगदेशीय भक्त कवि । सन् १५७० के आसइन्होंने 'राजतरङ्गिणी' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की पास बङ्गाल में धार्मिक साहित्य के सर्जन की ओर रचना की है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का इतिहास विद्वानों की अधिक रुचि थी । इसी समय चैतन्य महाप्रभु संस्कृत श्लोकों में वर्णित है । कश्मीर के प्राचीन इतिहास के जीवन पर लगभग पांच विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये; पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है ।। दो संस्कृत तथा शेष बँगला में। इनमें पहला है संस्कृत कलाप व्याकरण-प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ । इसका प्रचार नाटक 'चैतन्यचन्द्रोदय' जिसकी रचना कवि कर्णपूर ने बङ्गाल की ओर है, इसको 'कातन्त्र व्याकरण' भी कहते की थी। इसमें चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का काव्यमय हैं । कलाप व्याकरण के आधार पर अनेक व्याकरण ग्रन्थ विवेचन है। बने हैं, जो बङ्गाल में प्रचलित हैं । बौद्धों में इस व्याकरण कवितावली-सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कविताबद्ध २२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कवीन्द्राचार्य-कश्यप श्रीराम की कथा, जो कवित्त और सवैया छन्दों में है। विश्वकर्मभौवन' नामक राजा का अभिषेक कराया था। इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं । भक्ति भावना से ऐतरेय ब्राह्मण में कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया भीना हुआ यह व्रजभाषा का ललित काव्य है । गया है । शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा कवीन्द्राचार्य-शतपथ ब्राह्मण के तीन भाष्यकारों में से गया है : “स यत्कर्मो नाम । प्रजापतिः प्रजा असृजत् । एक कवीन्द्राचार्य भी हैं । यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो कश्मीरशैवमत-शैवमत की एक प्रसिद्ध शाखा कश्मीरी __ वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्यः ।" शैवों की है । यहाँ 'शैव आगमों' को शिवोक्त समझा गया महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं एवं इन शैवों का यही धार्मिक आधार बन गया । ८५० वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ब्रह्मा के छ: ई० के लगभग 'शिवसूत्रों' को रहस्यमय एवं नये शब्दों मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा में शिवोक्त ठहराया गया एवं इससे प्रेरित हो दार्शनिक से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया। कश्यप ने साहित्य की एक परम्परा यहाँ स्थापित हो गयी, जो दक्ष प्रजापति की १७ पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की लगभग तीन शताब्दियों तक चलती रही। 'शिवसूत्र' इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हई उसका विवरण एवं 'स्पन्दकारिका' जो यहाँ के शवमत के आधार थे, निम्नांकित है : प्रायः दैनिक चरितावली पर ही विशेष रूप से प्रकाश १. अदिति से आदित्य ( देवता) डालते हैं। किन्तु ९०० ई० के लगभग सोमानन्द की २. दिति से दैत्य 'शिवदृष्टि' ने सम्प्रदाय के लिए एक दार्शनिक रूप उप- ३. दनु से दानव स्थित किया। यह दर्शन अद्वैतवादी है एवं इसमें मोक्ष ४. काष्ठा से अश्वादि प्रत्यभिज्ञा (शिव से एकाकार होने के ज्ञान) पर ही ५. अनिष्टा से गन्धर्व आधारित है। फिर भी विश्व को केवल माया नहीं बताया ६. सुरसा से राक्षस गया, इसे शक्ति के माध्यम से शिव का आभास कहा ७. इला से वृक्ष गया है । विश्व का विकास सांख्य दर्शन के ढंग का ही ८. मुनि से अप्सरागण है, किन्तु इसकी बहुत कुछ अपनी विशेषताएँ है । यह ९. क्रोधवशा से सर्प प्रणाली 'त्रिक' कहलाती है, क्योंकि इसके तीन सिद्धान्त १०. सुरभि से गौ और महिष हैं-शिव, शक्ति एवं अणु; अथवा पति, पाश एवं पशु । ११. सरमा से श्वापद (हिंस्र पशु) इसका सारांश माधवकृत 'सर्वदर्शनसंग्रह' अथवा चटर्जी १२. ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि के 'कश्मीर शैवमत' में प्राप्त हो सकता है । आगमों की १३. तिमि से यादोगण (जलजन्तु) शिक्षाओं से भी यह अधिक अद्वैतवादी है, जबकि नये १४. विनता से गरुड और अरुण साहित्यिक इसे आगमों के अनुकूल सिद्ध करने की चेष्टा १५. कद्रू से नाग करते हैं । इस मत परिवर्तन का क्या कारण हो सकता १६. पतङ्गी से पतङ्ग है ? आचार्य शङ्कर ने अपनी दिग्विजय के समय कश्मीर १७. यामिनी से शलभ । भ्रमण किया था, इसलिए हो सकता है कि उन्होंने वहाँ दे० भागवत पुराण । मार्कण्डेय पुराण (१०४.३ ) के के शैव आचार्यों को अद्वैतवाद के पक्ष में लाने का उप- अनुसार कश्यप की तेरह भार्याए थीं। उनके नाम हैक्रम किया हो ! १. दिति, २. अदिति, ३. दनु, ४. विनता, ५. खसा, कश्यप-प्राचीन वैदिक ऋषियों में प्रमुख ऋषि, जिनका ६. कद्रु, ७. मुनि, ८. क्रोधा, ९. रिष्टा, १०. इरा, उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है । अन्य संहिताओं में ११. ताम्रा, १२. इला और १३. प्रधा। इन्हीं से सब भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एवं सृष्टि हुई। रहस्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एवं अति कश्यक एक गोत्र का भी नाम है । यह बहुत व्यापक प्राचीन कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार इन्होंने गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काँगड़ा-काठकगृह्यसूत्र गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई। कांगड़ा हिमाचल प्रदेश का एक शक्तिपीठ, जो पठानकोट से ५९ मील पर कांगडा और उससे एक मील आगे काँगडामन्दिर स्टेशन के समीप है रास्ता मोटरस और पैदल दोनों है । यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएँ हैं । यहाँ पर ज्वालामुखी या ज्वालाजी के नाम से दुर्गा महामाया का मन्दिर है । दोनों नवरात्रों में मेला लगता है । प्राकृतिक अग्निज्वालाओं के रूप में देवीजी दर्शन देती है। काञ्चनपुरोव्रत- यह प्रकीर्णक (फुटकर ) व्रत है। शुक्ल पक्षीय तृतीया, कृष्ण पक्षीय एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी अथवा संक्रान्ति को सुवर्ण की पुरी, जिसकी दीवारें भी सुवर्ण की हों अथवा चाँदी या जस्ता की हों तथा खम्भे सुवर्ण के हों, दान में दी जाय। उस पुरी के अन्दर विष्णु तथा लक्ष्मी की प्रतिमाएं विराजमान करनी खण्ड २.८६८-८७६: भविष्यो तर पुराण १४७ । भगवती का यह व्रत गौरी और भगवान् शिव, राम तथा सीता दमयन्ती तथा नल, कृष्ण तथा पाण्डवों के द्वारा आचरित था । इस व्रत के आचरण से समस्त वस्तुएँ सुलभ कामनाएं पूर्ण तथा पापों का प्रक्षालन होता है। चाहिए दे० हेमाद्रि, | व्रतखण्ड, " काची (काशीवरम्) - यह तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो मद्रास से ४५ मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। ऐसी अनुभूति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा ने देवी के दर्शन के लिए तप किया था। मोक्षदायिनी सप्त पुरियों— अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया ( हरिद्वार ), काशी, काञ्ची और अवन्तिका (उज्जैन) में इसकी गणना है । काञ्ची हरिहरात्मक पुरी है । इसके शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची दो भाग हैं । सम्भवतः कामाक्षीमन्दिर ही यहाँ का शक्तिपीठ है। दक्षिण के पञ्चतत्त्वलिङ्गों में से भूतत्त्वलिङ्ग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद है । कुछ लोग काली के एकाम्रेश्वर लिङ्ग को भूतत्वलिङ्ग मानते हैं, और कुछ लोग तिस्वारूर की त्यागराजलिङ्ग मूर्ति को । इसका माहात्म्य निम्नाङ्कित है : रहस्यं सम्प्रवक्ष्यामि लोपामुद्रापते शृणु । नेत्रद्वयं महेशस्य काशीकाञ्चीपुरीद्वयम् ॥ १७१ विख्यातं वैष्णवं क्षेत्रं शिवसांनिध्यकारकम् । काञ्चीक्षेत्रे पुरा पाता सर्वलोकपितामहः || श्रीदेवीदर्शनार्थाय तपस्तेपे सुदुष्करम् । प्रादुरास पुरो लक्ष्मी पद्महस्तपुरस्सरा ॥ पद्मासने च तिष्ठन्ती विष्णुना जिष्णुना सह । सर्वशृङ्गारवेषाचा सर्वाभरणभूषिता ॥ (ब्रह्माण्डपु० ललितोपाख्यान २५ ) काञ्ची आधुनिक काल में काजीवरम् के नाम से प्रसिद्ध है । यह ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में महत्त्वपूर्ण नगर था । सम्भवतः यह दक्षिण भारत का नहीं तो तमिलनाडु का सबसे बड़ा केन्द्र था बुद्धघोष के समकालीन प्रसिद्ध भाष्यकार धर्मपाल का जन्मस्थान यहीं था. इससे अनुमान किया जाता है कि यह बौद्धधर्मीय जीवन का केन्द्र था । यहाँ के सुन्दरतम मन्दिरों की परम्परा इस बात को प्रमाणित करती है कि यह स्थान दक्षिण भारत के धार्मिक क्रियाकलाप का अनेकों शताब्दियों तक केन्द्र रहा है। छठी शताब्दी में पल्लवों के संरक्षण से प्रारम्भ कर पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी तक विजयनगर के राजाओं के संरक्षणकाल के मध्य १००० वर्ष के द्राविड़ मन्दिरशिल्प के विकास को यहाँ एक ही स्थान में देखा जा सकता है । 'कैलासनाथ मन्दिर इस कला के चरमोत्कर्ष का उदाहरण है। एक दशाब्दी पीछे का पेरुमल' इस कला के सौष्ठव का सूचक है मन्दिर पल्लव नृपों के शिल्पकला प्रेम के हरण है। काशीपुराणम् अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'काली अपार एवं उनके गुरु 'शिवज्ञानयोगी' द्वारा काडीवरम् में प्रचलित स्थानीय धार्मिक आख्यानों के सङ्कलन के रूप में 'काञ्चीपुराणम्' ग्रन्थ तमिल भाषा में रचा गया है । काठक - कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं में से एक शाखा का नाम । उपर्युक्त वेद की चार संहिताएँ ऐसी हैं, जिनमें ब्राह्मणभाग की सामग्री भी मिश्रित है । इनमें से एक 'काठक संहिता' भी है तैतिरीय आरण्यक में अंशतः काठक ब्राह्मण सुरक्षित हैं । । बना 'बैकुण्ठ उपर्युक्त दोनों उत्कृष्ट उदा काठक गृह्यसूत्र - काठक गृह्यसूत्र कृष्ण यजुर्वेद शाखा का ग्रन्थ है एवं इस पर देवपाल की वृत्ति है। इसमें गृह्य संस्कारों और पाक यज्ञों का कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार वर्णन पाया जाता है । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ काठकब्राह्मण-कात्यायनस्मृति काठक ब्राह्मण-कृष्ण यजुर्वेद को काठक शाखा का ऋषियों की। कात्यायन गोत्रनाम भी सम्भव है, इस ब्राह्मण, जो सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं है। इसका कुछ भाग प्रकार उक्त ग्रन्थकर्ता कात्यायन वंशपरम्परा से अनेक तैत्तिरीय आरण्यक में उपलब्ध हुआ है। हुए होंगे। काठक संहिता-कृष्ण यजुर्वेद की चार संहिताओं में से कात्यायनस्मृति-(१) हिन्दू विधि और व्यवहार के ऊपर एक । इस वेद की संहिताओं एवं ब्राह्मणों का पृथक् कात्यायन एक प्रमुख प्रमाण और अधिकारी शास्त्रकार हैं। विभाजन नहीं है । संहिताओं में ब्राह्मणों की सामग्री भी इनका सम्पूर्ण स्मृति ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। भाष्यों और भरी पड़ी है। इसके कृष्ण विशेषण का आशय यही है निबन्धों (विश्वरूप से लेकर वीरमित्रोदय तक) में इनके कि मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग का एक ही ग्रन्थ में उद्धरण पाये जाते हैं। शङ्ख-लिखित, याज्ञवल्क्य और मिश्रण हो जाने से दोनों का आपाततः पृथक् वर्गीकरण पराशर ने भी कात्यायन को स्मृतिकार के रूप में स्मरण नहीं हो पाता । इस प्रकार शिष्यों को जो व्यामोह या किया है। कात्यायनस्मृति अपने विषय प्रतिपादन में नारद अविवेक होता है वही इस वेद की 'कृष्णता' है। और बृहस्पति से मिलती-जुलती है । यथा नारद के समान काठकादिसंहिता-कृष्ण यजुर्वेद की काठकादि चारों संहि- कात्यायन भी 'वाद' के चार पाद-(१) धर्म, (२) व्यवताओं का विभाग दूसरी संहिताओं से भिन्न है । इनमें हार, (३) चरित्र और (४) राजशासन मानते हैं और यह पाँच भाग हैं, जिनमें से पहले तीन में चालीस स्थानक भी स्वीकार करते हैं कि परवर्ती पाद पूर्ववर्ती का बाधक है हैं। पाँचवें भाग में अश्वमेध यज्ञ का विवरण है। (पराशरमाधवीय, खण्ड ३, भाग १, पृ० १६-१७; वीरकाण्व-कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में जिन पूर्वा- मित्रोदय, व्यवहार, ९-१०, १२०-१२१)। कात्यायन ने चार्यों की चर्चा है उनमें काण्व का भी नाम है। स्पष्टतः स्त्रीधन के ऊपर विस्तार से विचार किया है और उसके ये कण्व के वंशधर थे। विभिन्न प्रकारों की व्याख्या की है । प्रायः सभी निबन्धकाण्वशाखा-शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा । इस शाखा कारों ने स्त्रीधन पर कात्यायन को उद्धृत किया है। लगके शतपथ ब्राह्मण में सत्रह काण्ड हैं। उसके पहले, पाँचवें भग एक दर्जन निबन्धकारों ने कात्यायन के ९०० श्लोकों और चौदहवें काण्ड के दो-दो भाग हैं। इस ब्राह्मण के को उद्धृत किया है। इन उद्धरणों में कात्यायन ने बीसों एक सौ अध्याय हैं इसलिए यह 'शतपथ' कहलाता है। बार भृगु का उल्लेख किया है, भृगु के विचार स्पष्टतः दे० 'शतपथ' । मनुस्मृति से मिलते-जुलते हैं। कातन्त्रव्याकरण-वंग देश की ओर कलाप व्याकरण नारद और बृहस्पति के समान ही व्यवहार पर कात्याप्रसिद्ध है। इसे 'कातन्त्रव्याकरण' भी कहते हैं। उस यन के विचार विकसित है, कहीं-कहीं तो उनसे भी आगे। प्रदेश में इसके आधार पर अनेक सुगम व्याकरण ग्रन्थ स्त्रीधन पर कात्यायन के विचार बहुत आगे हैं । कात्यायन बनकर प्रचलित हो गये हैं। शर्ववर्मा नामक किसी ने व्यवहार, प्राड्विवाक, स्तोभक, धर्माधिकरण, तीरित, कार्तिकेयभक्त विद्वान् ने इस ग्रन्थ की रचना की है। अनुशिष्ट, सामन्त आदि पदों की नयी परिभाषाएँ भी की कात्यायन-पाणिनिसूत्रों पर वातिक ग्रन्थ रचने वाले एक हैं। कात्यायन ने पश्चात्कार और जयपत्र में भेद किया मुनि । इन्हें निरुक्तकार यास्क एवं महाभाष्यकार पतञ्जलि है; पश्चात्कार वादी के पक्ष में वह निर्णय है जो प्रतिवादी के मध्यकाल का माना जाता है। कात्यायन ने गायत्री, के घोर प्रतिवाद के पश्चात् दिया जाता है, जबकि जयउष्णिक आदि सात छन्दों के और भी भेद स्थिर किये पत्र प्रतिवादी की दोषस्वीकृति अथवा अन्य सरल आधारों हैं । इस छन्दःशास्त्र पर कात्यायनरचित सर्वानुक्रमणिका पर दिया जाता है। पठनीय है । कात्यायन वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचयिता (२) जीवानन्द के स्मृतिसंग्रह (भाग १, पृ० ६०३भी हैं। इसके अतिरिक्त कात्यायन मुनि ने कात्यायन- ६४४) में कात्यायन नाम की एक स्मृति पायी जाती है। श्रौतसूत्र एवं कात्यायनस्मृति नामक दो और ग्रन्थों इसमें तीन प्रपाठक, उन्तीस खण्ड और लगभग ५०० की भी रचना की है। यह नहीं कहा जा सकता कि ये श्लोक हैं । आनन्दाश्रम के स्मृतिसंग्रह में यही ग्रन्थ प्रकाविभिन्न रचनाएँ एक ही ऋषिकृत हैं या अन्यान्य शित है। इसको कात्यायन का 'कर्मप्रदीप' कहा गया है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कात्यायनश्रौतसूत्र-कान्यकुब्ज (कन्नौज) १७३ रखा जा सकतारदीपदानाव इससे बहुत सी धार्मिक क्रियाओं पर प्रचर प्रकाश पड़ता भगवती कात्यायनी की प्रतिमा का पूजन इसलिए किया है । इसके मुख्य विषय है था कि उन्हें भगवान् कृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों । इसयज्ञोपवीत, आचमन, अङ्गस्पर्श, गणेशपूजा, चतुर्दश लिए धार्मिक आदर्श पति प्राप्त करने के लिए कुमारियाँ मातृपूजा, कुश, श्राद्ध, अग्निसंस्कार, अरणि, मुक्, सुव, और अन्य महिलाएँ भक्तिभाव से इस व्रत का अनुष्ठान स्नान, दन्तधावन, सन्ध्या, प्राणायाम, मन्त्रपाठ, तर्पण, करती हैं। पञ्चमहायज्ञ, अशौच, स्त्रीधर्म आदि । निश्चित रूप से यह कातीयगृह्यसूत्र--इसके रचयिता पारस्कर हैं और इसमें तीन कहना कठिन है कि व्यावहारिक (विधिक) और कर्म काण्ड हैं। इसकी पद्धति वासुदेव ने लिखी है। उस पर काण्डीय कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। परन्तु यह जयराम की एक टीका है। शङ्कर गणपति की टीका सत्य है कि बहुत से भाष्यकार और निबन्धकार कर्मप्रदीप (जिनका प्रसिद्ध नाम रामकृष्ण था) भी बहुत पाण्डित्यपूर्ण के अवतरण कात्यायन के नाम से उद्धृत करते हैं। है। इसकी भूमिका बड़ी खोज से लिखी गयी है। इन्होंने कात्यायन का काल चतुर्थ और षष्ठ शती ई० के बीच काण्वशाखा को ही श्रेष्ठ ठहराया है। इनके अतिरिक्त रखा जा सकता है। कात्यायन मनु और याज्ञवल्क्य का चरक, गदाधर, जयराम, मुरारिमिश्र, रेणुकाचार्य, वागीअनुसरण करते हैं और नारद और बृहस्पति को प्रमाण श्वरीदत्त और वेदमिश्र आदि के भाष्यों का भी प्रचार है। मानते हैं । अतः कात्यायन इनके परवर्ती हुए। इसलिए कान्तारदीपदानविधि--आश्विन पूर्णिमा तक बलिदान के लिए प्रयुक्त होने वाले वृक्ष पर आठ दीपक प्रज्वलित करने तीसरी-चौथी शती के पश्चात् ही इनको रखा जा सकता चाहिए अथवा तीन रात्रियों (आश्विन अमावस्या और है । विश्वरूप, मेधातिथि आदि निबन्धकार कात्यायन को पूर्णिमा तथा कात्तिक पूर्णिमा) को अथवा केवल कार्तिक उद्धृत करते हैं। जिससे लगता है कि उनके समय में पूर्णिमा को ही। इसके देवता हैं धर्म, रुद्र तथा दामोदर । कात्यायनस्मृति प्रसिद्ध और प्रचलित हो चुकी थी। इस- यह पूजाविधि प्रेतों तथा पितरों की तप्ति के लिए है। लिए इन निबन्धकारों से २-३ सौ वर्ष पूर्व ही कात्यायन कान्तिव्रत-कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इसका अनुष्ठान होता का काल माना जा सकता है । है। एक वर्ष पर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। कात्यायनश्रौतसूत्र-शुक्ल यजुर्वेद के श्रौतसूत्रों में कात्यायन इसमें बलराम तथा केशव के पूजन का विधान है। साथ श्रौतसूत्र सबसे प्रसिद्ध है । इसके २६ अध्याय हैं। शत ही द्वितीया के चन्द्रमा की भी पूजा होती है। कार्तिक पथ ब्राह्मण के पहले नौ काण्डों में जिन सब क्रियाओं का मास से चार मास तक तिल तथा घी से हवन करना विचार है, कात्यायनश्रौतसूत्र के पहले अठारह अध्यायों । चाहिए । वर्ष के अन्त में रजत से निर्मित चन्द्रमा का दान में भी उन्हीं सब क्रियाओं पर विचार किया गया है। करना चाहिए। उन्नीसवें अध्याय में सौत्रामणी, बीसवें में अश्वमेध, इक्की- कान्यकुब्ज (कन्नौज)-इसे अश्वतीर्थ कहा जाता है और सर्वे में पुरुषमेध, पितृ मेध और सर्वमेध, बाईसवें, तेईसवें, एक नाम 'कुशिकतीर्थ' भी है। महर्षि ऋचीक ने यहाँ और चौबीसवें अध्यायों में एकाह, अहीन और सत्र आदि के राजा गाधि की कन्या सत्यवती से विवाह किया था। याज्ञिक क्रियाएं वर्णित है । पचीसवें अध्याय में प्रायश्चित्त गाधि ने पहले इनसे शुल्क रूप में एक सहस्र श्यामकर्ण पर और छब्बीसवें में प्रवर्ग पर विचार है । अश्व माँगे, जो ऋषि ने वरुणदेव से कहकर यहीं प्रकट कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं वृत्तिकार हुए कर दिये । गाधि के पुत्र विश्वामित्र हुए और ऋचीक के है । उनमें से यशोगोपी, पितृभूति, कर्क, भर्तृयज्ञ, अनन्त, पुत्र जमदग्नि ऋषि । जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे । यहाँ गङ्गाघर, गदाधर, गर्ग, पद्मनाभ, मिश्र अग्निहोत्री, गौरीशंकर, क्षेमकरी देवी, फूलमती देवी तथा सिंहवाहिनी याज्ञिक देव, श्रीधर, हरिहर और महादेव के नाम विशेष । देवी के मन्दिर है । पहले कन्नौज वैभवपूर्ण नगर रह चुका उल्लेखनीय हैं। है। गङ्गा इसके पास बहती थी । किन्तु अब धारा कात्यायनीव्रत-भागवत के दशम स्कन्ध के २२वें अध्याय में चार मील दूर चली गयी है। कन्नौज में अब भी कुछ श्लोक १ से ७ तक इस व्रत का उल्लेख है। कथा यह है कि प्राचीन अवशेष रह गये हैं। यह स्थान कानपुर से पचास एक बार नन्दवज में कुमारियों ने मार्गशीर्ष मास भर मील पर है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कान्यकुब्ज ब्राह्मण-कामधेनुतन्त्र कान्यकुब्ज ब्राह्मण-भौगोलिक आधार पर ब्राह्मणों के दो कापालिकों का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत में पाया बड़े विभाग है-पञ्चगौड (उत्तर भारत के) तथा पञ्चद्रविड जाता है। परन्तु वहाँ शैव रूप में ही वे चित्रित है, (दक्षिण भारत के )। पञ्चगौड़ों की ही एक शाखा कान्यकुब्ज बीभत्स रूप में नहीं। चालुक्य नागवर्धन (सातवीं शती) है । गौड़ों का उद्गमस्थल कुरुक्षेत्र है । इस प्राचीन गौड़- के कपालेश्वर मंदिर के अभिलेख में कापालिकों का वर्णन भूमि के निवासी होने के कारण इस प्रदेश के ब्राह्मण गौड़ । महाव्रती के रूप में मिलता है। इसके अनन्तर आठवीं कहलाये । पजाब और कश्मीर के ब्राह्मण सारस्वत हैं। शताब्दी के भवभूतिरचित 'मालतीमाधव' नाटक में प्रयाग के पास से कान्यकुब्ज तक फैले हुए ब्राह्मण कान्य- कापालिक साधक अघोरघण्ट का उल्लेख आता है, कुब्ज कहलाये। कान्यकुब्जों में सरयूपारीण, जुझौतिया जिसका सम्बन्ध श्रीशैल पर्वत (आन्ध्र) से था। और बङ्गाली भी सम्मिलित हैं। पंच गौड़ों में मैथिल और ग्यारहवीं शताब्दी के चन्देल राजाओं के राजपण्डित उत्कल ब्राह्मण भी माने जाते हैं। कृष्ण मिश्र द्वारा रचित 'प्रबोधचन्द्रोदय' में भी कापालिकों कापालिक-पाशुपत शैवों का एक सम्प्रदाय । इसका शाब्दिक की चर्चा है । इस ग्रन्थ के अनुसार कापालिकों का सम्बन्ध अर्थ है 'कपाल (खोपड़ी) धारण करने वाला' । कपाल नरबलि, श्रीचक्र, योगसावन तथा अनेक घोर असामामृतक अथवा मृत्यु का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध शिव के जिक क्रियाओं से था। योगदीपिका (१.८, ३.९६) में विध्वंसक, घोर अथवा रौद्र रूप से है। कापालिकों का कापालिकों का उल्लेख मिलता है : आचार-व्यवहार वाममार्गी शाक्तों से मिलता-जुलता है। 'निषेव्यते शीतलमद्यधारा इनकी संख्या कभी भी अधिक नहीं थी। वास्तव में एक कापालिके खण्डमतेऽमरोली।' संघटित सम्प्रदाय की अपेक्षा कुछ साधकों का ही यह एक किसी समय कश्मीर में कापालिक-उत्सव मनाया जाता समुदाय रहा है। था। कृष्ण चतुर्दशी के दिन नृत्य, गीत, सामूहिक यौनकापालिक मत के उद्गम के विषय में पुराणों में विहार के साथ यह उत्सव सम्पन्न होता था। आजकल अद्भुत कथाएं दी हुई है। इनमें से एक के अनुसार यह सम्प्रदाय प्रायः लुप्त है । शिव ने ब्रह्मा का वध किया था। इसका प्रायश्चित्त करने कापाली-शिव का एक विरुद, क्योंकि वे अपने घोर वेश के लिए उन्होंने कपाली व्रत धारण किया और ब्रह्मा का मे नरकपाल धारण करते हैं । महाभारत (१३.१७.१०२) कपाल उनके हाथ में पड़ा रह गया। कपाली व्रत एक में कथन है : प्रकार का उन्मत्तव्रत था, जिसके द्वारा शिव ब्रह्महत्या से अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्करजितः शिवः । मुक्ति पा सके । ब्रह्माण्डपुराण तथा नीलमत-पुराण में इससे कापेय-'कपि' गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति । काठकसंहिता भिन्न शिवताण्डव की कथा दी हुई है। शिव का घोर और पञ्चविंश ब्राह्मण में कापेयों को चित्ररथ का पुरोहित ताण्डव संसार के विध्वंसक भीषण भार को स्वयं वहन कहा गया है । दे० 'शौनक'। करने के लिए है, जिससे विश्व इसकी विभीषिका से सुर- कामतानाथ (कामदगिरि)-बाँदा जिले में चित्रकूट के अन्तक्षित रहे। कापालिक साधकों का भी यही उद्देश्य है। र्गत सीताकुण्ड से डेढ़ मील दूर कामतानाथ या कामदगिरि उनके घोर रूप के भीतर महती करुणा छिपी रहती है। नामक पहाड़ो, जो परम पवित्र मानी जाती है । इस पर परन्तु कभी-कभी पथभ्रष्ट कापालिक भ्रमवश शिव का ऊपर नही चढ़ा जाता, इस की परिक्रमा की जाती है। अनुकरण करते हुए मानव-शिर काटने का अभिनय भी परिक्रमा तीन मील की है। रामचन्द्र जी ने वनवास काल करते थे। ऐसी घटनाएं कभी-कभी बीच में सुनाई पड़ती में यहीं अधिक समय व्यतीत किया था। है। 'शंकरदिग्विजय' काव्य में आचार्य शंकर के साथ कामधेनतन्त्र-शाक्त साहित्य के अन्तर्गत 'कामधेनुतन्त्र' घटी एक ऐसी ही दुर्घटना का उल्लेख है। ये जटाजूट की रचना सोलहवीं शती में हुई। इसका अंग्रेजी अनुवाद धारण करते हैं, जूट में नवचन्द्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित मुनरो द्वारा हुआ है। रहती है, इनके हाथ में नरकपाल का कमण्डलु रहता है, ___ 'कामधेनु' नामक एक व्याकरण ग्रन्थ भी किसी परवर्ती ये कपालपात्र में मदिरा-मांस का भी सेवन करते हैं । शाकटायन द्वारा लिखा बताया जाता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामत्रिवत- कामरूप 1 कामत्रिव्रत - इस व्रत में कुछ देवियों, यथा उमा, मेधा, भद्रकाली, कात्यायनी अनसूया, वरुणपत्नी का पूजन होता है। इनके पूजन से मनोवांछित अभिलाषाओं की पूर्ति होती है। तीन कामदविधि - इस व्रत में मार्गशीर्ष मास के रविवार के दिन चन्दन से चर्चित करवीर पुष्पों से भगवान् सूर्य की पूजा करनी चाहिए। कामदासप्तमी - फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है । इसमें एक वर्ष पर्यन्त सूर्य का पूजन होना चाहिए । इसको चार-चार मास के वर्ष के खण्ड करके फाल्गुन मास से प्रारम्भ किया जाता है । इसमें भिन्न-भिन्न फूलों भिन्न-भिन्न धूप तथा भिन्नभिन्न यों के अर्पण का विधान है। कामदेवपूजा-मंत्र शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भिन्न-भिन्न पुष्पों से कपड़े पर चित्रित कामदेव की पूजा होती है । यह चित्रफलक शीतल जल से परिपूर्ण तथा पुष्पों से युक्त कलश के सम्मुख रखा जाना चाहिए। इस दिन पतियों द्वारा अपनी पत्नियों का सम्मान वांछनीय है । दे० कृत्यकल्पतरु का नैत्यकालिक काण्ड, ३८४ । कामधेनुव्रत – कार्तिक कृष्ण एकादशी से प्रारम्भ होकर लगातार पाँच दिन यह व्रत चलता है । इस तिथि को श्री तथा विष्णु की पूजा होती है। रात्रि में दीपों को घर, गोशाला, चैत्य, देवालय, सड़क, श्मशान भूमि तथा सरोवर में प्रज्ज्वलित करना चाहिए। एकादशी के दिन उपवास करना चाहिए तथा भगवान् विष्णु की प्रतिमा को गौ के घी या दूध में चार दिन स्नान कराना चाहिए। इसके पश्चात् कामधेनु का दान करना चाहिए। यह व्रत समस्त पापों के प्रायश्चित्तस्वरूप भी किया जाता है । कामदेवत्रयोदशी (मदनत्रयोदशी ! — चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को कामदेव त्रयोदशी कहते हैं। इस तिथि को कामदेव के प्रतीक स्वरूप दमनक वृक्ष की पूजा की जाती है । दे० 'अनङ्गत्रयोदशी' | कामन्दकीय नीतिसार - राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसके प्रणेता कामन्दक नाम से प्रसिद्ध हैं । ये कौटिल्यपरम्परा के अनुयायी हैं। इस ग्रन्थ में राजनीति के विविध विषयों पर अति सारगर्भित विवरण उपस्थित किया गया है। १७५ विशेष कर राजा के कर्तव्य (धर्म), राजकर्मचारियों का चुनाव एवं उनका धर्म, युद्धनीति, मण्डल व्यवस्था एवं राज्य के सप्त अंगों का वर्णन अभिनय रूप में प्राप्त होता है । कुछ विद्वानों का मत है कि यह ग्रन्थ कौटिलीय अर्थ - शास्त्र का छन्दोबद्ध रूपान्तर है । किन्तु बात ऐसी नहीं हैं। कामन्दक ने एक पण्डित की भाँति युग एवं आवश्य कता के अनुसार इसके रूप को छोटा कर दिया है एवं पद्यों में रचना कर कंठस्थ करने की सुविधा उपस्थित की हैं। इसमें कौटिल्य से भिन्न विचार भी हैं एवं अतिप्राचीन आचार्यों के मतों का भी उपयोग हुआ है । इसमें ग्रन्थकार की सबसे बड़ी विशेषता साहित्यिक प्रतिभा का चमत्कार है। उपमा आदि अलद्वारों की सहायता से राजनीति के रूखे तथ्यों को अति रोचक एवं हृदयग्राही रूप दे दिया गया है । प्रजा द्वारा वर्णाश्रम धर्म पालन कराना राजा का परम कर्तव्य है, इस सिद्धान्त पर कामन्दक ने बहुत बल दिया है । काममहोत्सव - चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। त्रयोदशी की रात्रि के समय किसी उद्यान में रति तथा मदन की प्रतिमा की स्थापना करके चतुर्दशी को उनका पूजन किया जाता है। यह उत्सव श्रृंगारिक गीतों के साथ कुछ वाच यन्त्रों के साथ गाते बजाते हुए मनाना चाहिए दूसरे दिन एक पहर तक मृत्तिका से खेलना चाहिए। शैव आगम में यही व्रत चैत्रावली तथा मदनभञ्जी भी कहलाता है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, १९०; 'चैत्रविहित अशोकाष्टमी' । कामरूप - असम प्रदेश का प्राचीन नाम । इसके नामकरण का कारण इस प्रकार बताया गया है : "मूल प्रकृति भगवती कामरूपिणी सती (दक्षकन्या, शिवपत्नी) जिस देश में विराजमान है वह देश उनके नाम से प्रसिद्ध है।" यहाँ कामगिरि ( गोहाटी के पास ) के योनिपीठ में कामाख्या देवी का मन्दिर है तत्रचूडामणि का कथन है : 1 योनिपीठं कामगिरौ कामाख्या तत्र देवता । सर्वत्र विरला चाहं कामरूपे गृहे गृहे ॥ [ कामगिरि में योनिपीठ है। वहाँ कामाख्या नामक देवी है । सर्वत्र मैं विरला हूँ, किन्तु कामरूप में घर-घर ।] यह प्रदेश गणेशगिरि के शिखर पर स्थित है, ऐसा तन्त्रग्रन्थों में लिखा है : Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कालेश्वरं गिरि पुरं नीलपर्वतम्। कामरूपाभिधी देशो गणेशगिरि मूर्द्धनि ॥ कामरूपी - इच्छानुकूल वेशधारी । अर्धदेवों में गन्धर्व एवं विद्याधरों का नाम आता है। विद्याधरों का विशेष गुण आकाश में उड़ना है, जिसके कारण इन्हें 'सेयर' (आकाश में चलने वाला ) कहा जाता है। ये वेश बदलने अथवा मनोवांछित रूप धारण करने की विद्या (जादू) जानते हैं, जिसके कारण इन्हें कामरूपी कहते हैं। कामवन --- जिसमें शिव पार्वती एकान्तवास करते हैं । इसे कुछ लोग काम्यकवन भी कहते हैं । शिव का शाप था कि जो कोई पुरुष इसमें प्रवेश करेगा वह तुरन्त स्त्री बन जायेगा। मनु का पुत्र इल भूल से इसमें प्रविष्ट होकर स्त्री इला बन गया था । व्रजमण्डल के भरतपुर जिले में भी कामवन है, जहाँ गोविन्ददेवजी के मन्दिर में वृन्दा देवी का महल है। यहाँ चौरासी तीर्थों की उपस्थिति मानी जाती है । कामव्रत - ( १ ) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है । यह कार्तिक में प्रारम्भ होकर एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसमें सूर्य का पूजन होता है । हेमाद्रि के अनुसार यह स्त्रीपुत्रकामावाप्ति-उत्सव है । (२) पौष शुक्ल त्रयोदशी को प्रारम्भ होकर तदनन्तर एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है । प्रत्येक त्रयोदशी को नक्त (रात्रिभोजन) करना चाहिए । चैत्र में सुवर्ण का अशोक वृक्ष तथा १० अंगुल लम्बा इक्षुदण्ड इस मन्त्र के साथ दान करना चाहिए 'प्रद्युम्नः प्रसीदतु ।' (३) किसी भी महीने की सप्तमी को यह व्रत किया जा सकता है । सुवर्चला (सूर्य की पत्नी) को इसमें पूजा होती है। मनोवांछित पदार्थों की इससे उपलब्धि होती है। (४) पौष शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । इसमें कार्तिकेय के रूप में भगवान् विष्णु की पूजा होती है | पञ्चमी को नक्त करना चाहिए। षष्ठी के दिन केवल एक समय का आहार सप्तमी को पारण ऐसा एक वर्ष पर्यन्त करना चाहिए । स्वामी कार्तिकेय की सुवर्णप्रतिमा तथा दो वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे मनुष्य जीवन में समस्त कामनाओं को प्राप्त करता है। हेमाद्रि ( व्रतखण्ड) के अनुसार यह 'कामपण्टी' व्रत है। कामाख्या देवी कामाख्या शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है "जो भक्तों की कामना को पूर्ण करती है कामरूपी कामाख्यापीठ अथवा भक्त साधकों द्वारा जिसकी कामना की जाती है। वह 'कामा' है जिसका 'कामा' नाम है वह 'कामाख्या' है ।" कालिकापुराण ( अ० ६१ ) में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है । कामाख्या पीठ - यह भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ तीर्थ असम प्रदेश में है । कामाख्या देवी का मन्दिर पहाड़ी पर है, अनुमानतः एक मील ऊँची इस पहाड़ी को 'नोल पर्वत' भी कहते हैं। इस प्रदेश का प्रचलित नाम कामरूप है। तन्त्रों में लिखा है कि करतोया नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र नद तक त्रिकोणाकार कामरूप प्रदेश माना गया है । किन्तु अब वह रूपरेखा नहीं है । इस देश में सौभारपीठ, श्रीपीठ, रत्नपीठ, विष्णुपीठ, रुद्रपीठ तथा ब्रह्मपीठ आदि कई सिद्धपीठ हैं, 'कामाख्यापीठ' सबसे प्रधान है। देवी का मन्दिर कूचविहार के राजा विश्वसिंह और शिवसिंह का बनवाया हुआ है। इसके पहले के मन्दिर को बंगाली आक्रामक काला पहाड़ ने तोड़ डाला था । सन् १५६४ ई० तक प्राचीन मन्दिर का नाम 'आनन्दाख्या' था, जो वर्तमान मन्दिर से कुछ दूरी पर है। पास में छोटा सा सरोवर है। देवीभागवत (७ स्कन्ध, अ० ३८ ) में कामाख्या देवी के माहात्म्य का वर्णन है। इसका दर्शन, भजन, पाठ-पूजा करने से सर्व विघ्नों की शान्ति होती है। पहाड़ी से उतरने पर गोहाटी के सामने ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य में उमानन्द नामक छोटे चट्टानी टापू में शिवमन्दिर है। आनन्दमूर्ति को भैरव ( कामाख्यारक्षक) कहते हैं । कामाख्यापीठ के सम्बन्ध में कालिकापुराण (अ० ६१ ) में निम्नांकित वर्णन पाया जाता है : "शिव ने कहा, प्राणियों की सृष्टि के पश्चात् बहुत समय व्यतीत होने पर मैंने दक्षतनया सती को भार्यारूप में ग्रहण किया, जो स्त्रियों में श्रेष्ठ थी । वह मेरी अत्यन्त प्रेयसी भार्या हुई । अपने पिता द्वारा यज्ञ के अवसर पर मेरा अपमान देखकर उसने प्राण त्याग किया। मैं मोह से व्याकुल हो उठा और सती के मृत शरीर को कन्धे पर रखकर समस्त चराचर जगत् में भ्रमण करता रहा । इधर-उधर घूमते हुए इस श्रेष्ठ पीठ (तीर्थस्थल) को प्राप्त हुआ । पर्याय से जिन-जिन स्थानों पर सती के अंगों का पतन हुआ, योगनिद्रा (मेरी शक्ति सती) के प्रभाव से वे पुण्यतम स्थल बन गये। इस कुब्जिकापीठ ( कामाख्या) = Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामावाप्तिव्रत- कायारोहण में सती के योनिमण्डल का पतन हुआ। यहाँ महामाया देवी विलीन हुई मुझ पर्वत रूपी शिव में देवी के विलीन होने से इस पर्वत का नाम नीलवर्ण हुआ । यह महातुङ्ग ( ऊँचा ) पर्वत पाताल के तल में प्रवेश कर " गया। इस तीर्थस्थल के मन्दिर में शक्ति की पूजा योनिरूप में होती है। यहाँ कोई देवीमूर्ति नहीं है । योनि के आकार का शिलाखण्ड है, जिसके ऊपर लाल रंग की गेरू के घोल की धारा गिरायी जाती है और वह रक्तवर्ण के वस्त्र से ढका रहता है। इस पीठ के सम्मुख पशुबलि भी होती है । कामावासिथत कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को यह व्रत किया जाता है। इस तिथि में महाकाल (शिव) का पूजन समस्त मनोवाञ्छाओं को पूरा करता है । कामिकागम - शैव आगमों में सबसे पहला आगम 'कामिक' है इसमें समस्त शैव पूजा पद्धतियों का विस्तृत वर्णन है। कामिकाव्रत - मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । इस तिथि को सुवर्ण अथवा रजतप्रतिमा का जिस पर चक्र अंकित हो, पूजन करना चाहिए। पूजन करने के पश्चात् उसे दान कर देना चाहिए । काम्पिल - यह स्थान बदायूँ जिले में है। पूर्वोत्तर रेलवे की आगरा कानपुर लाइन पर कायमगंज रेलवे स्टेशन है। कायमगंज से छः मील दूर काम्पिल तक पक्की सड़क जाती है। किसी समय काम्पिल ( ल्य) महानगर था यहाँ रामेश्वरनाथ और कालेश्वरनाथ महादेव के प्रसिद्ध मन्दिर हैं और कपिल मुनि की कुटी है । जैनों के अन्तिम तीर्थंकर महावीर का समवशरण भी यहाँ आया था । यहाँ प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें विमलनाथजी की तीन प्रतिमाएँ हैं। एक जैनधर्मशाला है । चैत्र और आश्विन में यहाँ मेला लगता है । काम्पील-यजुर्वेदसंहिता के एक मन्त्र में 'काम्पीलवासिनी' सम्भवतः राजा की प्रधान रानी को कहा गया है, जिसका कर्तव्य अश्वमेध यज्ञ के समय मेचित पशु के पास सोना या बिल्कुल ठीक अर्थ अनिश्चित है। वेबर एवं जिमर दोनों काम्पील एक नगर का नाम बतलाते हैं, जो पर वर्ती साहित्य में काम्पिल्य कहलाया एवं जो मध्यदेश २३ १७७ (आज के उत्तर प्रदेश) में दक्षिण पञ्चाल की राजधानी था । काम्यतीर्थं या काम्यक वन - कुरुक्षेत्र के सात पवित्र वनों में से एक । यह सरस्वती के तट पर स्थित है । यहीं पर पाण्डवों ने अपने प्रवास के कुछ दिन बिताये थे । यहाँ वेतन से गये थे। ज्योतिसर से पेहवा जाने वाली सड़क के दक्षिण में लगभग ढाई मील पर कमोधा ग्राम है । काम्यक का अपभ्रंश ही कमोधा है । यहाँ ग्राम के पश्चिम में काम्यक तीर्थ है। सरोवर के एक ओर प्राचीन पक्का घाट है तथा भगवान् शिव का मन्दिर है । चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रति वर्ष यहाँ मेला लगता है । कायव्यूह योगदर्शन में अनेक शारीरिक क्रियाओं द्वारा मन को केन्द्रित करने का निर्देश है। जब योगशास्त्र से तन्त्रशास्त्र का मेल हो गया तो इस 'कायव्यूह' (शारीरिक यौगिक क्रियाओं) का और भी विस्तार हुआ, जिसके अनुसार शरीर में अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किये गये। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक स्वतन्त्र शाखा विकसित हुई, जिसमें नैति पीति वस्ति आदि पट्कर्म तथा नाडीशोधन आदि के साधन बतलाये गये हैं । काया (गोरखपंथ के मत से ) — गोरखनाथ पंथी का सापक काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है । काया उसके लिए वह यन्त्र है, जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है; जन्ममरण - जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है; जरा, मरण, व्याधि और काल पर विजय पा जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले कायाशोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट्कर्म (नेति, धौति वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक ) करता है जिससे काया शुद्ध हो जाय। हठयोग पर घेरण्ड ऋषि की लिखी 'घेरण्डसंहिता' एक प्राचीन ग्रन्थ है और परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर चली आयी है। नायपन्थियों ने उसी प्राचीन सात्विक प्रणाली का उद्धार किया है। कायारोहण - लाट ( गुर्जर ) प्रान्त में एक स्थानविशेष है । वायुपुराण के एक परिच्छेद में लकुलीश उपसम्प्रदाय ( पाशुपत सम्प्रदाय के एक अङ्ग) के वर्णन में उद्भूत है कि शिव प्रत्येक युग में अवतरित होंगे और उनका अन्तिम अवतार तब होगा जब कृष्ण वासुदेव रूप में अवतरित Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक-कार्णाजिनि होंगे । शिव योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर एक मृतक २१-५८) के अनुसार कार्तिक मास में मांस खानेवाला शरीर में, जो वहाँ अरक्षित पड़ा होगा, प्रवेश करेंगे तथा चाण्डाल हो जाता है । दे० 'बकपञ्चक' । लकुलीश नामक संन्यासी के रूप में प्रकट होंगे । कुशिक, शिव, चण्डी, सूर्य तथा अन्यान्य देवों के मन्दिरों में गार्य, मित्र एवं कौरश्य उनके शिष्य होंगे जो शरीर पर कार्तिक मास में दीप जलाने तथा प्रकाश करने की बड़ी भस्म मलकर पाशुपत योग का अभ्यास करेंगे। प्रशंसा की गयी है। समस्त कार्तिक मास में भगवान् उदयपुर से १४ मील दूर स्थित एकलिङ्गजी के एक केशव का मुनि ( अगस्त्य ) पुष्पों से पूजन किया जाना पुराने मन्दिर के लेख से इस बात की पुष्टि होती है कि चाहिए। ऐसा करने से अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता भगवान् शिव भडौंच प्रान्त में कायारोहण स्थान पर अव- है। दे० तिथितत्त्व १४७ ।। तरित हुए एवं अपने हाथ में एक लकुल धारण किये हुए कार्तिकपूणिमा-यह शरद ऋतु की अन्तिम तिथि है जो थे। चित्रप्रशस्ति में भी उपर्युक्त कथानक प्राप्त होता बहुत पवित्र और पुण्यदायिनी मानी जाती है। इस अवहै कि शिव पाशुपत धर्म के कड़े नियमों के पालनार्थ लाट सर पर कई स्थानों पर मेले लगते हैं। सोनपुर में हरिहरप्रान्त के करोहन (सं० कायारोहण) में अवतरित हुए। क्षेत्र का मेला तथा गढ़मुक्तेश्वर ( मेरठ), वटेश्वर यह स्थान गुजरात में आजकल 'करजण' (कायारोहण का (आगरा), पुष्कर (अजमेर) आदि के विशाल मेले विकृत रूप) कहलाता है । यहाँ अब भी लकुलोश का एक इसी पर्व पर लगते हैं। व्रजमण्डल और कृष्णोपासना से मन्दिर है, जिसमें उनकी प्रतिमा स्थापित है। प्रभावित अन्य प्रदेशों में इस समय रासलीला होती है । कातिक-यह बड़ा पवित्र मास माना जाता है । यह समस्त इस तिथि पर किसी को भी बिना स्नान और दान के तीर्थों तथा धार्मिक कृत्यों से भी पवित्रतर है। इसके • नहीं रहना चाहिए। स्नान पवित्र स्थान एवं पवित्र माहात्म्य के लिए देखिए स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड का नदियों में एवं दान अपनी शक्ति के अनुसार करना नवम अध्याय; नारदपुराण (उत्तरार्द्ध), अध्याय २२; पद्म चाहिए । न केवल ब्राह्मण को अपितु निर्धन सम्बन्धियों, पुराण, ४.९२। बहिन, बहिन के पुत्रों, पिता की बहिनों के पुत्रों, फूफा कातिकस्नानवत-सम्पूर्ण कार्तिक मास में गृह से बाहर आदि को भी दान देना चाहिए । पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा किसी नदी अथवा सरोवर में स्नान करना चाहिए। वाराणसी के तीर्थस्थान इस कार्तिकी स्नान और दान के गायत्री मन्त्र का जप करते हुए हविष्यान्न केवल एक बार लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं। ग्रहण करना चाहिए । व्रती इस व्रत के आचरण से वर्ष कार्तिकेयव्रत--षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता भर के समस्त पापों से मुक्त हो जाता हैं। ६० विष्णु- है। स्वामी कार्तिकेय इसके देवता हैं। दे० हेमाद्रि, धर्मोत्तर, ८१,१-४; कृत्यकल्पतरु, ४१८ द्वारा उद्धृत; व्रतखण्ड, १.६०५, ६०६; व्रतकालविवेक, पृष्ठ २४ । हेमाद्रि, २.७६२ । कातिकेयषष्ठी-मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का कार्तिक मास में समस्त त्यागने योग्य वस्तुओं में मांस अनुष्ठान होता है। इस दिन सुवर्णमयी, रजतमयी, विशेष रूप से त्याज्य है। श्रीदत्त के समयप्रदीप (४६) काष्ठमयी अथवा मृन्मयी कार्तिकेग्न की प्रतिमा का पूजन तथा कृत्यरत्नाकर (पृ० ३९७-३९९) में उद्धृत महा होता है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, १.५९६-६०० । भारत के अनुसार कार्तिक मास में मांसभक्षण, विशेष रूप से शक्ल पक्ष में, त्याग देने से इसका पुण्य शत वर्ष तक काष्णाजिनि-आचार्य कााजिनि के नाम का उल्लेख के तपों के बराबर हो जाता है । साथ ही यह भी कहा ब्रह्मसूत्र (३.१.९) और मीमांसासूत्र (४.३.१७; ६.७.३५) गया है कि भारत के समस्त महान् राजा, जिनमें ययाति, दोनों में हुआ है। ये भी व्यासदेव और जैमिनि के पूर्वराम तथा नल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, वर्ती आचार्य हैं। इनका उल्लेख व्यासदेव ने अपने मत कार्तिक मास में मांस भक्षण नहीं करते थे। इसी कारण के समर्थन में और जैमिनि ने इनका खण्डन करने के लिए उनको स्वर्ग की प्राप्ति हुई। नारदपुराण (उत्तरार्द्ध, किया है। इससे मालूम होता है कि ये वेदान्त के ही Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारिका-काल आचार्य थे। वे प्रायः वादरि के मत के समर्थक प्रतीत होते हैं । कारिका - स्मरणीय छन्दोबद्ध पचों के संकलन को कारिका कहते हैं। हिन्दू दार्शनिकों ने अपने दर्शन के सारविषय को या तो सूत्रों के रूप में या कारिका के रूप में अपने अनुगामियों के लाभार्थ प्रस्तुत किया, ताकि वे इसे कंठस्थ कर लें। उनके अनुगामियों ने उन सूत्रों या कारिकाओं के ऊपर भाष्य आदि लिखे। उदाहरण के लिए सांख्यदर्शन पर ईश्वरकृष्ण की 'सांख्यकारिका' अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसका अनुवाद अति प्राचीन काल में चीनी भाषा में उस देश की राजाज्ञा से हुआ था । कारिकावाक्य प्रदीप पाणिनि पर अवलम्बित अनेक व्याकरणसिद्धान्त ग्रन्थों में एक कारिकावाक्यप्रदीप है। इससे सम्बन्धित चार अन्य टीकाग्रन्थ व्याकरणभूषण, भूषणसारदर्पण, व्याकरणभूषण सार एवं व्याकरणसिद्धान्तमञ्जूषा है 'वाक्यप्रदीप' व्याकरण का दार्शनिक ग्रन्थ है। इसमें भी कारिकाएँ हैं । कारिणनाथ - नाथ सम्प्रदाय में नौ नाथ मुख्य कहे गये है: गोरखनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ आदि । कारिणनाथ उनमें तीसरे हैं। गोरखपंथी कनफट्टा योगियों के अन्तर्गत कारिणनाथ के विचारों का समावेश होता है । कारुणिक सिद्धान्त कारुणिक सिद्धान्त को 'कालमुख सिद्धान्त' भी कहते हैं महीसूर (कर्नाटक) के समीप 'दक्षिण केदारेश्वर' का मन्दिर प्रसिद्ध है। वहां की गुरुपरम्परा में श्रीकण्ठाचार्य वेदान्त के भाष्यकार हुए हैं । वे आचार्य रामानुज की तरह विशिष्टाईतवादी थे और कालमुख व 'लकुलागम समय' सम्प्रदाय के अनु शैव यायी थे । श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट कर लेते हैं । इस शक्ति में जीव और जगत्, चित् और अचित्, दोनों का बीज वर्तमान रहता है। उसी शक्ति से भगवान् महेश्वर चराचर की सृष्टि करते हैं । इसी सिद्धान्त को 'शक्तिविशिष्टाद्वैत' कहते हैं, यही कारुणिक सिद्धान्त भी कहलाता है । वीरशैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को भी अपनाते हैं। दक्षिण का लकुलीश सम्प्रदाय भी प्राचीन और गधीन दो रूपों में बंटा हुआ है और कदाचित् इस १७९ सम्प्रदाय के अनुयायी कालमुख अथवा कारुणिक सिद्धान्त को मानते है । फारोहन- दे० 'कायारोहण' । काल - वैशेषिक दर्शन के अनुसार कुल नौ द्रव्य है। इनमें छठा द्रव्य 'काल' है यह सभी क्रिया, गति एवं परि वर्तन को उत्पन्न करनेवाली शक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है ओर इस प्रकार दो समयों के अन्तर को प्रकट करने का आधार है । सातवाँ द्रव्य दिक् ( दिशा ) काल को सन्तुलित करता है तन्त्रमत से अन्तरिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही जरा की उत्पत्ति होती है । भाषापरिच्छेद के अनुसार काल के पाँच गुण 3 ६ -- १. संख्या २ परिमाण ३ पृथक्त्व, ४ संयोग, ५. विभाग । विष्णुपुराण (१.२.१४) में काल को परब्रह्म का रूप माना गया है : द्विज । परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं व्यक्ताव्यक्तं तथैवान्ये रूपे कालस्तथा परम् ॥ तिथ्यादितत्त्व में काल की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है : अनादिनिधनः कालो रुद्रः संकर्षणः स्मृतः । कलनात् सर्वभूतानां स कालः परिकीर्तितः ॥ [ काल आदि और निधन (विनाश ) रहित, रूद्र और संकर्षण कहा गया है। समस्त भूतों की फलना ( गणना ) करने के कारण यह काल ऐसा प्रसिद्ध है । ] हारीत ( प्रथम स्थान, अ० ४) के द्वारा काल का विस्तृत वर्णन किया गया है : कालस्तु त्रिविधो ज्ञेयोऽतीतोऽनागत एव च । वर्तमानस्तृतीयस्तु वक्ष्यामि शृणु लक्षणम् ॥ काल: कलयते लोक काल: कलयते जगत् । काल: कलयते विश्वं तेन कालोऽभिधीयते ॥ कालस्य वशगाः सर्वे देवर्षिसिद्ध किन्नराः । कालो हि भगवान् देवः स साक्षात्परमेश्वरः ॥ सर्गपालन संहर्ता स काल: सर्वतः समः । कालेन कल्प्यते विश्वं तेन कालोऽभिधीयते ॥ येनोत्पत्तिश्च जायेत येन वै कल्प्यते कला । सोऽन्तवच्च भवेत्कालो जगदुत्पत्तिकारकः ॥ यः कर्माणि प्रपश्येत प्रकर्षे वर्तमानके । सोऽपि प्रवर्तको शेयः कालः स्यात् प्रतिपालक || । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालका-कालरात्रिवत येन मृत्युवशं याति कृतं येन जयं व्रजेत् । गया, तब वे उस स्थान से आकर कालका में स्थित हुई। संहर्ता सोऽपि विज्ञेयः कालः स्यात् कलनापरः ।। कालक्षेपम्-मराठा भक्तों की 'हरिकथा' नामक एक कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । संस्था है, जिसमें वक्ता गीतों में उपदेश देता है तथा कालः स्वपिति जागति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ बीच-बीच में 'जय राम कृष्ण हरि' का उच्च स्वर से [ काल तीन प्रकार का जानना चाहिए; अतीत (भूत), कीर्तन करता है। इसके साथ वह अनेक श्लोक पढ़ता अनागत ( भविष्य ) और वर्तमान । इसका लक्षण कहता हुआ उनकी व्याख्या करता है। यही गीत एवं गद्य हूँ, सुनो। काल लोक की गणना करता है, काल जगत् भाषण की उपदेश प्रणाली पूरे दक्षिण भारत में है । वहाँ की गणना करता है, काल विश्व की गणना करता है, गायक को भागवत तथा उसके गीतबद्ध उपदेश को इसलिए यह काल कहलाता है। सभी देव, ऋषि, सिद्ध 'कालक्षेपम्' कहते हैं । इसका शाब्दिक अर्थ है 'भगवन्नामऔर किन्नर काल के वश हैं। काल स्वयं ही भगवान् कीर्तन में काल (समय) बिताना ।' देव है; वह साक्षात् परमेश्वर है। वह सृष्टि, पालन कालज्ञानतन्त्र-एक तन्त्र ग्रन्थ । शाक्त साहित्य से सम्बऔर संहार करनेवाला है। वह काल सर्वत्र समान है। न्धित इस तन्त्र की रचना आठवीं शती में हुई । स्वर्गीय काल से ही विश्व की कल्पना होती है, इसलिए वह म० म० हरप्रसाद शास्त्री ने इसका विस्तृत विश्लेषण काल कहलाता है। जिससे उत्पत्ति होती है. जिससे किया है। कला की कल्पना होती है, वही जगत की उत्पत्ति करने- कालपी-झाँसी से ९२ मील दूर कालपी नगर यमुना के वाला काल जगत् का अन्त करनेवाला भी होता है । जो दक्षिण तट पर स्थित है । कालपी में जौंधर नाला के पास सभी कर्मों को बढ़ते हुए और होते हुए देखता है, उसी वेदव्यास ऋषि का जन्मस्मारक व्यासटीला है। इसके काल को प्रवर्तक जानना चाहिए। वही प्रतिपालक भी पास ही नृसिंहटीला है। यहाँ के निवासियों का विश्वास होता है । जिसके द्वारा किया हुआ विनाश को प्राप्त होता है कि प्रलयकाल आने पर जौंधर नाले से मोटी जलधारा है, अथवा जय को प्राप्त होता है, वही काल संहर्ता और निकल कर विश्व को जलमग्न कर देगी। यहीं कालप्रिय कलना में संलग्न है। काल ही सम्पूर्ण भूतों को उत्पन्न (कालपी) नाथ का स्थान है जो तीर्थरूप में प्रसिद्ध है। करता है, काल ही प्रजा का सहार करता है, काल ही कालभैरवाष्टमी-मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को कालभैरवासोता और जागता है। काल दुरतिक्रम है अर्थात् उसका ष्टमी कहते हैं । इस तिथि के कालभैरव देवता है, जिनका कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता ।] पूजन, दर्शन इस दिन करना चाहिए । दे० व्रतकोश, भागवत पुराण ( ९.९.२ ) में काल मृत्यु का पर्याय ३१६-३१७; वर्षकृत्यदीपक, १०६ । माना गया है। मेदिनीकोश में काल को ही महाकाल कालमाधव-माधवाचार्य रचित एक धर्मशास्त्र सम्बन्धी कहा गया है और दीपिका में शनि ।। ग्रन्थ । इसका दूसरा नाम 'कालनिर्णय' है। इस पर मिश्रकालका-(१) कालकेय नामक असुरगण की माता। भागवत मोहन तर्कतिलक की एक टीका भी है जो सं० १६७० पुराण (६.६.३२) के अनुसार यह वैश्वानर की कन्या है : में लिखी गयी थी। इसकी कई व्याख्याएं उपलब्ध हैं । वैश्वानरसुता याश्च चतस्रश्चारुदशनाः । इनमें नारायण भट्ट का कालनिर्णयसंग्रह श्लोकविवरण, उपदानवी हयशिरा पुलोमा कालका तथा ।। मथुरानाथ की कालमाधव चन्द्रिका, रामचन्द्राचार्य की यजुर्वेदसंहिता के अनुसार कालका अश्वमेध यज्ञ का दीपिका, लक्ष्मीदेवी की लक्ष्मी (भाष्य) आदि प्रसिद्ध है । बलिपशु कहा गया है, जिसे अधिकांश उद्धरणों में एक कालमुखशाखा-दे० 'कारुणिक सिद्धान्त' । प्रकार का पक्षी समझा जाता है। कालरात्रिवत-आश्विन शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अम्बाला (पंजाब) से '४० मील दूर कालका अनुष्ठान किया जाता है। लगभग सभी वर्गों के लिए स्टेशन है। यहीं कालका देवी का मन्दिर है। सात दिन, तीन दिन अथवा शरीर की शक्ति के अनुसार परम्परा के अनुसार पार्वती के शरीर से कौशिकी देवी केवल एक दिन का उपवास विहित है । पहले श्री गणेश, के प्रकट हो जाने पर पार्वती का शरीर श्यामवर्ण हो • मातृदेवों, स्कन्द तथा शिवजी का पूजन होता है, तद Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालाग्नि-कालिकापुराण १८१ नन्तर एक शैव ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण या किसी पारसी द्वारा हवनकुण्ड में हवन कराना चाहिए। आठ कन्याओं को भोजन कराने तथा आठ ही ब्राह्मणों को निमन्त्रित करने का विधान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.३२६-३३२ (कालिका पुराण से)। कालाग्नि-काल का वह स्वरूप, जो प्रलय के समय समस्त सृष्टि का विनाश करता है । यह प्रलयाग्नि' भी कहलाता है । महाभारत (१.५४.२५) में कथन है : ब्रह्मदण्डं महाघोरं कालाग्निसमतेजसम् । नाशयिष्यामि मात्र त्वं भयं कार्षीः कथञ्चन ॥ पञ्चमुख रुद्राक्ष का नाम भी कालाग्नि है। स्कन्दपुराण में उल्लेख है : पञ्चवक्त्रः स्वयं रुद्रः कालाग्निर्नाम नामतः । अगम्यागमनाच्चैव अभक्ष्यस्य च भक्षणात् ॥ मुच्यते सर्वपापेभ्यः पञ्चवक्त्रस्य धारणात् । कालाग्निरुद्र-जगत् का संहार करनेवाले कालाग्नि के अधिष्ठातृदेव । देवीपुराण में कालाग्निरुद्र का वर्णन पाया जाता है: कालाग्निरुद्ररूपो यो बहुरूपसमावृतः ।। अनन्तपद्मरूपश्च धाता यः कारणेश्वरः । दारुणाग्निश्च रुद्रश्च यमहन्ता क्षमान्तकः ।। लोहितः क्रूरतेजात्मा घनो वृष्टिर्बलाहकः । विद्युतश्चलशीलश्च प्रसन्नः शान्तसौम्यदृक् ।। सर्वज्ञो विविधो बुद्धो द्युतिमान् दीप्तिसुप्रभः । एते रुद्रा महात्मानः कालिकाशक्तिबंहिताः ।। संहरन्ति समन्तेदं ब्रह्माद्यं सचराचरम् । कालाग्निरुद्रोपनिषद्-एक शैव सांप्रदायिक उपनिषद्, जिसमें त्रिपुण्ड्र धारण और रहस्यमय ढंग से ध्यान करने का विवरण प्राप्त होता है। कालाष्टमीव्रत-मृगशिरा नक्षत्र युक्त भाद्रपद की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए । एक वर्ष पर्यन्त यह क्रम चलना चाहिए । मान्यता है कि इस दिन शिव- जी विना नन्दीगण अथवा गणेश के अपने मन्दिर में विराजते हैं। व्रती विभिन्न वस्तुओं से शिवजी को स्नान कराता है, भिन्न-भिन्न पुष्प समर्पित करता है तथा प्रत्येक महीने में पृथक्-पृथक् नामों से पूजन करता है। कालिका-काले (कृष्ण) वर्णवाली । यह चण्डिका का ही एक रूप है। इसके नामकरण तथा स्वरूप का वर्णन कालिकापुराण (उत्तरतन्त्र, अ० ६०) में निम्नांकित प्रकार से पाया जाता है : सर्वे सुरगणाः सेन्द्रास्ततो गत्वा हिमाचलम् । गङ्गावतारनिकटे महामायां प्रतुष्टुवुः ।। अनेकः संस्तुता देवी तदा सर्वामरोत्करः । मातङ्गवनितामूर्तिभूत्वा देवानपृच्छत । युष्माभिरमररत्र स्तूयते का च भाविनी । किमर्थमागता यूयं मातङ्गस्याश्रमं प्रति ॥ एवं ब्रुवन्त्या मातङ्गयास्तस्यास्तु कायकोषतः । समुद्भूताब्रवीद्देवी मां स्तुवन्ति सुरा इति ॥ शुम्भो निशुम्भो ह्यसुरौ बाधेते सकलान् सुरान् । तस्मात्तयोर्वधायाहं स्तूयेऽद्य सकलैः सुरैः ।। विनिःसृतायां देव्यान्तु मातङ्गयाः कायतस्तदा । भिन्नाञ्जननिभा कृष्णा साभूद् गौरी क्षणादपि । कालिकाख्याऽभवत्सापि हिमाचलकृताश्रया। तामुग्रतारां ऋषयो वदन्तीह मनीषिणः ॥ उग्रादपि भयात्त्राति यस्माद् भक्तान् सदाम्बिका ।। [इन्द्र के साथ सभी देवतागण हिमालय में गङ्गावतरण के पास महामाया को प्रसन्न करने लगे। उनके द्वारा स्तुति किये जाने पर देवी ने मातङ्गवनिता की मति धारण करके देवताओं से पूछा, "तुम अमरों द्वारा किस भाविनी की स्तुति की जा रही है ? किस प्रयोजन के लिए तुम लोग मातङ्ग-आश्रम में आये हो ?" ऐसा बोलती हुई उस मातङ्गी के शरीर से एक देवी उत्पन्न हुई। उसने कहा, "देवगण मेरी स्तुति कर रहे हैं । शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर सभी देवताओं को पीड़ित कर रहे हैं। इसलिए उनके वध के लिए समस्त देवताओं द्वारा मेरी स्तुति हो रही है।" मातङ्गी की काया से उसके निकल जाने पर वह घोर काजल सदृश कृष्णा (काली) हो गयी । वही कालिका कहलायी, जो हिमालय के आश्रय में रहने लगी। उसी को ऋषि लोग उग्रतारा कहते हैं। क्योंकि वह उन भय से भक्तों का सदा त्राण करती है । ] कालिका उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से एक। इसमें देवी दुर्गा की महिमा तथा शाक्तमत का प्रतिपादन किया गया है। कालिकापुराण-कालिकापुराण को ही 'कालिकातन्त्र' भी कहते हैं। यह बंगाल में प्रचलित शाक्तमत का नियामक ग्रन्थ है। इसमें चण्डिका को पशु अथवा मनुष्य की Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कालिंजर (कालजर)-काशिकावृत्ति बलि देने का निर्देश भी है। बलिपशओं की तालिका लटकी हुई, कटि में अनेक दानवकरों की करधनी लटबहुत बड़ी है । वे है-पक्षी, कच्छप, घड़ियाल, मत्स्य, कती हुई तथा मुक्त केश एड़ी तक लटकते हुए होते हैं। वन्य पशुओं के नौ प्रकार, भैंसा, बकरा, जंगली सूअर, यह युद्ध में हराये गये दानव का रक्तपान करती हुई गैंडा, काला हिरन, बारहसिंगा, सिंह एवं व्याघ्र इत्यादि। दिखायी जाती है। वह एक पैर अपने पति शिव की भक्त अथवा साधक अपने शरीर के रक्त का भी अर्पण कर छाती पर तथा दूसरा जंधा पर रखकर खड़ी होती है। सकता है। रक्तबलि का प्रचार क्रमशः कम होने से यह आजकल काली को कबूतर, बकरों, भैंसों की बलि पुराण भी आजकल बहुत लोकप्रिय नहीं है। दी जाती है । पूजा खड्ग की अर्चना से प्रारम्भ होती है। कालिंजर (कालञ्जर)-बुन्देलखण्ड में स्थित एक प्रसिद्ध बहुत से स्थानों में काली अब वैष्णवी हो गयी है । दे० शैव तीर्थ । मानिकपुर-झाँसी रेलवे लाइन पर करबी 'कालिका'। से बीस मील आगे बटौसा स्टेशन है। यहाँ से अठारह कालीघाट-शक्ति (काली) के मन्दिरों में दूसरा स्थान मील दूर पहाड़ी पर कालिंजर का दुर्ग है। यहाँ नील- कालीघाट (कलकत्ता) के कालीमन्दिर का है, जबकि कंठ का मंदिर है । यह पुराना शाक्तपीठ है । महाभारत के प्रथम स्थान कामरूप के कामाख्या मन्दिर को प्राप्त है। वनपर्व, वायुपुराण (अ० ७७) और वामनपुराण (अ० ८४) यहाँ नरबलि देने की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसे आधुमें इसका उल्लेख पाया जाता है। चन्देल राजाओं के निक काल में निषिद्ध कर दिया गया है। समय में उनकी तीन राजधानियों-खजूरवाह (खजु- कालीतन्त्र--'आगमतत्त्वविलास' में दी गयी तन्त्रों की राहो), कालञ्जर और महोदधि (महोबा)-में से यह वाष (महाबा)-म स यह सूची के क्रम में 'कालीतन्त्र' का सातवाँ स्थान है। इसमें भी एक था। आइने-अकबरी (भाग २, पृ० १५९) में काली के स्वरूप और पूजापद्धति का वर्णन है। इसको गगनचुम्बी पर्वत पर स्थित प्रस्तरदुर्ग कहा गया कालीव्रत-कालरात्रि व्रत के ही समान इसका अनुष्ठान है। यहाँ पर कई मन्दिर है। एक में प्रसिद्ध कालभैरव होता है । दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, २६३,२६९ । की १८ बालिश्त ऊँची मूत्ति है। इसके सम्बन्ध में बहुत ...कालोत्तरतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की सूची में उल्लिखित सी आश्चर्यजनक कहानियाँ प्रचलित है। कई झरने और सरोवर भी बने हुए हैं। एक तन्त्र ग्रन्थ । यह दशम शताब्दी के पहले की रचना है। काली-शाक्तों में शक्ति के आठ मातकारूपों के अतिरिक्त काशकृत्स्न-एक वेदान्ताचार्य। आत्मा (व्यक्ति) एवं काली की अर्चा का भी निर्देश है । प्राचीन काल में शक्ति का ब्रह्म के सम्बन्धों के बारे में तीन सिद्धान्त उपस्थित किये कोई विशेष नाम न लेकर देवी या भवानी के नाम से गये हैं। प्रथम आश्मरथ्य का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार पूजा होती थी। भवानी से शीतला का भी बोध होता आत्मा न तो बिल्कुल ब्रह्म से भिन्न हैं और न अभिन्न ही। था। धीरे-धीरे विकास होने पर किसी न किसी कार्य दूसरा औडुलोमि का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार मुक्ति का सम्बन्ध किसी विशेष देवता या देवी से स्थापित होने के पूर्व आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है। तीसरा काशलगा। काली की पूजा भी इसी विकासक्रम में प्रारम्भ कृत्स्न का सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा बिल्कुल हुई। त्रिपुरा एवं चटगांव के निवासी काला बकरा, ब्रहा से अभिन्न है। काशकृत्स्न अद्वैतमत का सिद्धान्त चावल, केला तथा दूसरे फल काली को अर्पण करते हैं। उपस्थित करते हैं। उधर काली की प्रतिमा नहीं होती, केवल मिट्टी का एक काशिकावृत्ति-पाणिनि के अष्टाध्यायीस्थित सूत्रों की गोल मुण्डाकार पिण्ड बनाकर स्थापित किया जाता है। व्याख्या । पतञ्जलि के महाभाष्य के पश्चात् वामन और __ मन्दिर में काली का प्रतिनिधित्व स्त्री-देवी की प्रतिमा जयादित्य की 'काशिकावृत्ति' का अच्छा प्रचार हुआ। से किया जाता है, जिसकी चार भुजाओं में, एक में खड्ग, हरिदत्त ने ‘पदमञ्जरी' नामक काशिकावृत्ति की टीका दूसरी में दानव का सिर, तीसरी वरद मुद्रा में एवं चतुर्थ भी लिखी है । महाभाष्य के समान काशिकावृत्ति से भी अभय मुद्रा में फैली हुई रहती है। कानों में दो मृतकों सामाजिक जीवन पर आनुषंगिक प्रकाश पड़ता है। इसका के कुण्डल, गले में मुण्डमाला, जिह्वा ठुड्डी तक बाहर रचनाकाल पांचवीं शताब्दी के समीप है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी १८३ काशी-संसार के इतिहास में जितनी अधिक प्राक्कालिकता, नैरन्तर्य और लोकप्रियता काशी को प्राप्त है उतनी किसी भी नगर को नहीं । यह लगभग ३००० वर्षों से भारत के हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थान तथा उसकी सम्पूर्ण धार्मिक भावनाओं का केन्द्र रही है । यह परम्परागतधार्मिक पवित्रता तथा शिक्षा का केन्द्र है। हिन्दूधर्म की विचित्र विषमता, संकीर्णता तथा नानात्व और अन्तविरोधों के बीच यह एक सूक्ष्म शृंखला है जो सबको समन्वित करती है। केवल सनातनी हिन्दुओं के लिए ही नहीं, बौद्धों और जैनों के लिए भी यह स्थान बड़े महत्त्व का है। भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम यहीं उसका उपदेश किया था। जैनियों के तीन तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था। इसे वाराणसी अथवा बनारस भी कहा जाता है। पिछले सैकड़ों वर्षों से इसके माहात्म्य पर विपुल साहित्य की सर्जना हुई है । पुराणों में इसका बहुत विस्तृत विवरण मिलता है । पुराख्यानों से पता चलता है कि काशी प्राचीन काल से ही एक राज्य रहा जिसकी राजधानी वाराणसी थी। पुराणों के अनुसार ऐल (चन्द्रवंश) के क्षत्रवृद्ध नामक राजा ने काशीराज्य की स्थापना की। उपनिषदों में यहाँ के राजा अजातशत्रु का उल्लेख है, जो ब्रह्मविद्या और अग्निविद्या का प्रकाण्ड विद्वान् था। महाभारत के के अनसार अति प्राचीन काल में काशी में धन्वन्तरि के पौत्र दिवोदास ने आक्रामक भद्रश्रेण्य के १०० पुत्रों को मार डाला और वाराणसी पर अधिकार कर लिया । इससे क्रुद्ध होकर भगवान् शिव ने अपने गण निकुम्भ को भेजकर उसका विनाश करवा दिया। हजारों वर्षों तक काशी खण्डहर के रूप में पड़ी रही।। तदुपरान्त भगवान् शिव स्वयं आकर काशी में निवास करने लगे। तब से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी। बौद्धधर्म के ग्रन्थों से पता चलता है कि काशी बद्ध के युग में राजगृह, श्रावस्ती तथा कौशाम्बी की तरह एक बड़ा नगर था। वह राज्य भी था। उस युग में यहाँ वैदिक धर्म का पवित्र तीर्थस्थान तथा शिक्षा का केन्द्र भी था। काशीखण्ड (२६.३४ ) और ब्रह्मपुराण के (२०७) के अनुसार वाराणसी शताब्दियों तक पाँच नामों से जानी जाती रही है। वे नाम हैं-वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनन्दकानन और श्मशान अथवा महाश्मशान। पिनाकपाणि शम्भ ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन और तदनन्तर अविमुक्त कहा (स्कन्द०, काशी०, २६.३४)। काशी 'काश्' धातु से निष्पन्न है । 'काश्' का अर्थ है ज्योतित होना अथवा करना । इसका नाम काशी इसलिए है कि यह मनुष्य के निर्वाणपथ को प्रकाशित करती है, अथवा भगवान् शिव की परमसत्ता यहाँ प्रकाश करती है (स्कन्द०, काशी २६.६७) । ब्रह्म० (३३.४९) और कूर्म पुराण (१.३१.६३) के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच स्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। जाबालोपनिषद् में कुछ विपरीत मत मिलते हैं। वहाँ अविमुक्त, वरणा और नासी का अलौलिक प्रयोग है। अविमुक्त को वरणा और नासी के मध्य स्थित बताया गया है । वरणा को त्रुटियों का नाश करने वाली तथा नासी को पापों का नाश करनेवाली बताया गया है और इस प्रकार काशी पाप से मुक्त करने वाली नगरी है। लिङ्गपुराण (पूर्वार्ध, ९२.१४३) के अनुसार 'अवि' का अर्थ पाप है और काशी नगरी पापों से मुक्त है इसलिए इसका नाम 'अविमुक्त' पड़ा है । काशीखण्ड (३२.१११) तथा लिङ्गपुराण (१.९१.७६) के अनुसार भगवान् शंकर को काशी (वाराणसी) अत्यन्त प्रिय है इसलिए उन्होंने इसे आनन्दकानन नाम से अभिहित किया है। काशी का अन्तिम नाम श्मशान' अथवा महाश्मशान इसलिए है कि वह निधनोपरान्त मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करने वाली है। वस्तुतः श्मशान (प्रेतभूमि ) शब्द अशुद्धि का द्योतक है, किन्तु काशी को श्मशानभूमि को संसार में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। दूसरी तात यह है कि 'श्म' का तात्पर्य है 'शव' और 'शान' का तात्पर्य है 'लेटना' (स्कन्द०, काशी० ३०, १०३.४) । प्रलय होने पर महान् आत्मा यहाँ शव या प्रेत के रूप में निवास करते हैं, इसलिए इसका नाम महाश्मशान है। पद्मपुराण (१३३. १४) के अनुसार भगवान् शङ्कर स्वयं कहते हैं कि अविमुक्त प्रसिद्ध प्रतभूमि है। संहारक के रूप में यहाँ रहकर मैं संसार का विनाश करता हूँ। यद्यपि सामान्य रूप से काशी, वाराणसी और अविमुक्त तीनों का प्रयोग समान अर्थ में ही किया गया है, किन्तु पुराणों में कुछ सीमा तक इनके स्थानीय क्षेत्रविस्तार में अन्तर का भी निर्देश है। वाराणसी उत्तर से दक्षिण तक वरणा और असी से घिरी हुई है। इसके पूर्व में गङ्गा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ काशी तथा पश्चिम में विनायकतीर्थ है। इसका विस्तार धनुषा- ११८) और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिङ्ग से कार है, जिसका गङ्गा अनुगमन करती है। मत्स्यपुराण अछूती नहीं है। जैसे काशीखण्ड के दसवें अध्याय में (१८४.५०-५२) के अनुसार इसका क्षेत्रविस्तार ढाई ही ६४ लिङ्गों का वर्णन है। ह्वेनसांग के अनुसार उसके योजन पूर्व से पश्चिम और अर्द्ध योजन उत्तर से दक्षिण है। समय में काशी में सौ मन्दिर थे और एक मन्दिर में इसका प्रथम वृत्त सम्पूर्ण काशीक्षेत्र का सूचक है। पद्म- भगवान् महेश्वर की १०० फुट ऊँची ताँबे की मूर्ति थी। पुराण (पातालखण्ड) के अनुसार यह एक वृत्त से घिरी हुई किन्तु दुर्भाग्यवश विधर्मियों द्वारा काशी के सहस्रों है, जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहली- मन्दिर विध्वस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर विनायक तक जाती है। यह दूरी दो योजन तक है मस्जिदों का निर्माण किया गया। औरंगजेब ने तो काशी (मत्स्यपुराण, अध्याय १८१.६१-६२)। का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था । परन्तु यह नाम अविमुक्त उस पवित्र स्थल को कहते है, जो २०० चला नहीं और काशी में मन्दिर फिर बनने लगे। धनुष व्यासार्ध (८०० हाथ या १२०० फुट) में विश्वे- भगवान् विश्वनाथ काशी के रक्षक हैं और उनका श्वर के मन्दिर के चतुर्दिक् विस्तृत है। काशीखण्ड में मन्दिर सर्वप्रमुख है। ऐसा विधान है कि प्रत्येक काशीअविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है। पर वासी को नित्य गङ्गास्नान करके विश्वनाथ का दर्शन वहाँ यह शब्द काशी के लिए प्रयुक्त हुआ है। पवित्र करना चाहिए। पर औरंगजेब के बाद लगभग १०० वर्षों काशीक्षेत्र का सम्पूर्ण अन्तर्वृत्त पश्चिम में गोकर्णेश से तक यह व्यवस्था नहीं रही । शिवलिङ्ग को तीर्थयात्रियों लेकर पूर्व में गङ्गा की मध्यधारा तथा उत्तर में भारभूत के सुविधानुसार यत्र-तत्र स्थानान्तरित किया जाता रहा से दक्षिण में ब्रह्मेश तक विस्तृत है। (त्रिस्थलीसेतु, पृ० २०८)। वर्तमान मन्दिर अठारहवीं __काशी का धार्मिक माहात्म्य बहुत अधिक है। महा शताब्दी के अन्तिम चरण में रानी अहल्याबाई होल्कर भारत (वनपर्व ८४.७९.८०) के अनुसार ब्रह्महत्या का अप द्वारा निर्मित हुआ। अस्पृश्यता का जहाँ तक प्रश्न है, राधी अविमुक्त में प्रवेश करके भगवान विश्वेश्वर की मति त्रिस्थलीसेतु (पृष्ठ १८३) के अनुसार अन्त्यजों (अस्पृश्यों) का दर्शन करने मात्र से ही पापमुक्त हो जाता है और . के द्वारा लिङ्गस्पर्श किये जाने में कोई दोष नहीं है, यदि वहाँ मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे मोक्ष मिलता क्योंकि विश्वनाथजी प्रतिदिन प्रातः ब्रह्मवेला में मणिहै। अविमुक्त में प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों कणिका घाट पर गङ्गास्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण के पूर्वजन्मों के हजारों पाप क्षणमात्र में नष्ट हो जाते है। धर्म में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति काशी में मृत्यु होने काशी में विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थयात्री को पर पुनः संसार को नहीं देखता । संसार में योग के द्वारा पाँच अवान्तर तीर्थों-दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु अवि- बिन्दुमाधव तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना मुक्त में योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है (मत्स्य० १८५. आवश्यक है (मत्स्य०)। आधुनिक काल में काशी के अवा१५-१६)। कुछ स्थलों पर वाराणसी तथा वहाँ की न्तर पाँच तीर्थ 'पञ्चतीर्थी' के नाम से अभिहित किये नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते हैं। जाते हैं और वे हैं गङ्गा-असी-संगम, दशाश्वमेध घाट, उदाहरणार्थ, काशीखण्ड में असी को 'इडा', वरणा को । मणिकर्णिका, पञ्चगङ्गा तथा वरणासंगम । लोलार्क तीर्थ 'पिङ्गला', अविमुक्त को 'सुषुम्ना' तथा इन तीनों के सम्मि- असीसंगम के पास वाराणसी की दक्षिणी सीमा पर स्थित लित स्वरूप को काशी कहा गया है (स्कन्द, काशीखण्ड है। वाराणसी के पास गङ्गा की धारा तो तीव्र है और ५१५)। परन्तु लिंगपुराण का इससे भिन्न मत है। वहाँ वह सीधे उत्तर की ओर बहती है, इसलिए यहाँ इसकी पवित्रता का और भी अधिक माहात्म्य है। दशाश्वमेध सुषुम्ना कहा गया है। घाट तो शताब्दियों से अपनी पवित्रता के लिए ख्यातिलब्ध पुराणों में कहा गया है कि काशीक्षेत्र के एक-एक है। काशीखण्ड (अध्याय ५२, ५६, ६८) के अनुसार पग में एक-एक तीर्थ की पवित्रता है (स्कन्द, काशी० ५९, दशाश्वमेध का पूर्व नाम 'रुद्रसर' है। किन्तु जब ब्रह्मा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये, उसका नाम दशाश्वमेध पड़ गया। मणिकर्णिका ( मुक्तिक्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ तथा वाराणसी के धार्मिक जीवनक्रम का केन्द्र है । इसके आरम्भ के सम्बन्ध में एक रोचक कथा है : विष्णु ने अपने चिन्तन से यहाँ एक पुष्करिणी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहाँ घोर तपस्या करते रहे। इससे शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने विष्णु के सिर को स्पर्श किया और उनका एक मणिजटित कर्णभूषण सेतु के नीचे जल में गिर पड़ा। तभी से इस स्थल को 'मणिकर्णिका' कहा जाने लगा । काशीखण्ड के अनुसार निधन के समय यहाँ सज्जन पुरुषों के कान में भगवान् शङ्कर 'तारक मन्त्र' फेंकते हैं । इसलिए यहाँ स्थित शिवमन्दिर का नाम 'तारकेश्वर' है । यहाँ पञ्चगङ्गा घाट भी है। इसे पञ्चगङ्गा पाट इस लिए कहा जाता है कि पुराणों के अनुसार यहाँ किरणा, धूतपापा, गङ्गा, यमुना तथा सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है, यद्यपि इनमें से प्रथम दो अब अदृश्य हैं। काशीखण्ड (५९.११८-१३३) के अनुसार जो व्यक्ति इस पञ्चनदसंगम स्थल पर स्नान करता है वह इस पाञ्चभौतिक पदार्थों से युक्त मर्त्यलोक में पुनः नहीं आता। यह पाँच नदियों का संगम विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित किया गया था । सत्ययुग में धर्ममय, त्रेता से धूतपातक, द्वापर में बिन्दुतीर्थ तथा कलियुग में इसका नाम 'पञ्चनद' पड़ा है। काशी में तीर्थयात्री के लिए पञ्चकोशी की यात्रा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है पञ्चकोशी मार्ग की लम्बाई लगभग ५० मील है और इस मार्ग पर सैकड़ों मन्दिर है। मणिकर्णिका केन्द्र से यात्री वाराणसी की अवृत्ताकार में परिक्रमा करता है जिसका अर्द्धव्यास पंचक्रोश है, इसीलिए इसे 'पंचक्रोशी' कहते हैं ( काशीखण्ड, अध्याय २६, श्लोक ८० और ११४ तथा अध्याय ५५ - ४४ ) । इसके अनुसार यात्री मणिकणिका घाट से गंगा के किनारे किनारे चलना आरम्भ करके अस्सीघाट के पास मणिकणिका से ६ मील दूर खाण्डव ( कंदवा ) नामक गाँव में रुकता है वहाँ से दूसरे दिन धूपचण्डी के लिए (१० मील) प्रस्थान करता है । वहाँ धूपचण्डी देवी का मन्दिर है । तीसरे दिन वह १४ मील की यात्रा पर रामेश्वर २४ १८५ नामक गाँव के लिए प्रस्थान करता है। चौथे दिन वहाँ से ८ मील दूर शिवपुर पहुँचता है और पाँचवें दिन वहाँ से ६ मील दूर कपिलधारा जाता है और वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है। छठे दिन वह कपिलधारा से वरणासंगम होते हुए लगभग ६ मील की यात्रा करके मणिकर्णिका आ जाता है। कपिलधारा से मणिकर्णिका तक यह य (देवास) बिखेरता हुआ आता है तदुपरान्त वह गङ्गास्नान करके पुरोहितों को दक्षिणा देता है। फिर साक्षीविनायक के मन्दिर में जाकर अपनी पञ्चक्रोशी यात्रा की पूर्ति की साक्षी देता है । इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अन्य तीर्थ भी प्रमुख हैं । इनमें ज्ञानवापी का नाम उल्लेखनीय है । यहाँ भगवान् शिव ने शीतल जल में स्नान करके यह वर दिया था कि यह तीर्थ अन्य तीर्थों से उच्चतर कोटि का होगा । इसके अतिरिक्त दुर्गाकुण्ड पर एक विशाल दुर्गामन्दिर भी है। काशीखण्ड (श्लोक ३७, ६५) में इससे सम्बद्ध दुर्गास्तोत्र का भी उल्लेख है । विश्वेश्वरमन्दिर से एक मील उत्तर भैरवनाथ का मन्दिर है । इनको काशी का कोतवाल कहा गया है। इनका वाहन कुत्ता है। साथ ही गणेशजी के मन्दिर तो काशी में अनन्त हैं । त्रिस्थली सेतु ( पृ० ९८ - १०० ) से यह पता चलता है कि काशी में प्रवेश करने मात्र से ही इस जीवन के पापों का क्षय हो जाता है और विविध पवित्र स्थलों पर स्नान करने से पूर्व जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । कुछ पुराणों अनुसार काशी में रहकर तनिक भी पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके लिए बड़े ही कठोर दण्ड का विधान है। तीर्थस्थान होने के कारण यहाँ पूर्वजों अथवा पितरों का श्राद्ध और पिण्डदान किया जा सकता है, किन्तु तपस्वियों द्वारा काशी में मठों का निर्माण अधिक प्रशंसनीय है । साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक काशीवासी को प्रतिदिन मणिकर्णिका घाट पर गङ्गा स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। त्रिस्थली सेतु ( पृ० १६८ ) में कहा गया है कि किसी अन्य स्थल पर किये गये पाप काशी आने पर नष्ट हो जाते हैं । किन्तु काशी में किये गये पाप दारुण यातनादायक होते हैं । जो काशी में रहकर पाप करता है वह पिशाच हो जाता है । वहाँ इस अवस्था में सहस्रों वर्षों तक रहकर परमज्ञान को प्राप्त होता है, तदुपरान्त उसे मोक्ष Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ काशीखण्ड-काश्य मिलता है । काशी में रहकर जो पाप करते हैं उन्हें यम- होती है, बुद्धि का विकास होता है और बहुदर्शिता आती यातना नहीं सहनी पड़ती, चाहे वे काशी में मरें या है। इसलिए तीर्थयात्राओं को हिन्दू धर्म पुण्यदायक अन्यत्र । जो काशी में रहकर पाप करते हैं वे कालभैरव मानता है । तीर्थों में सत्सङ्ग और अनुभव से ज्ञान बढ़ता द्वारा दण्डित होते हैं । जो काशी में पाप करके कहीं अन्यत्र है और पापों से बचने की भावना उत्पन्न होती है। मरते हैं वे राम नामक शिव के गण द्वारा सर्वप्रथम 'काशीखण्ड' में काशी के बहुसंख्यक तीर्थी और उनके यातना सहते हैं, तत्पश्चात् वे कालभैरव द्वारा दिये गये इतिहास एवं माहात्म्य का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। दण्ड को सहस्रों वर्षों तक भोगते हैं। फिर वे नश्वर काशीखण्ड वास्तव में काशीप्रदर्शिका है। मानवयोनि में प्रविष्ट होते हैं और काशी में मरकर काशीमोक्षनिर्णय-मण्डन मिश्र ने इस ग्रन्थ का प्रणयन निर्वाण (मोक्ष या संसार से मुक्ति) पाते हैं। संन्यास ग्रहण करने के पूर्व किया था। काशी में निवास स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (८५, ११२-११३) में यह करने से मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, इसका इसमें युक्तियुक्त उल्लेख है कि काशी से कुछ उत्तर में स्थित धर्मक्षेत्र (सार- विवेचन है। नाथ) विष्णु का निवासस्थान है, जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप काशीविश्वनाथ-काशी को विश्वनाथ (शिव) की नगरी धारण किया था। यात्रियों के लिए सामान्य नियम यह कहा गया है। यहाँ पर शिवलिङ्गमति की अर्चा प्रचलित है कि उन्हें आठ मास तक संयत होकर स्थान-स्थान पर है । मन्दिर के गर्भ भाग में प्रवेश कर दर्शन करते हैं और भ्रमण करना चाहिए। फिर दो या चार मास तक एक काशीविश्वनाथ के लिङ्ग का पूजन भी करते हैं, बिल्वस्थान पर निवास करना चाहिए। किन्तु काशी में प्रविष्ट पत्र-पुष्पादि चढ़ाते हैं। काशी का विश्वनाथमन्दिर उत्तर होने पर वहाँ से बाहर भ्रमण नहीं होना चाहिए और भारत के शैव मन्दिरों में सर्वोच्च स्थान रखता है । इसका काशी छोड़ना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वहाँ मोक्ष प्राप्ति निर्माण अठारहवीं शती के अन्तिम चरण में महारानी निश्चित है। अहल्याबाई होल्कर ने कराया था। इसके शिखर पर लगा भगवान शिव के श्रद्धाल भक्त के लिए महान विपत्तियों हुआ सोना महाराज रणजीतसिंह द्वारा प्रदत्त है। में भी उनके चरणों के जल के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र स्थान काश्मीरक सदानन्दयति-'अद्वैतब्रह्मसिद्धि' नामक प्रकरणनहीं है। बाह्याभ्यन्तर असाध्य रोग भी भगवान् शङ्कर ग्रन्थ के प्रणेता । इनका जीवनकाल सत्रहवीं शताब्दी है । की प्रतिमा पर पड़े जल के आस्थापूर्ण स्पर्श से दूर हो इनके नाम के साथ 'काश्मीरक' शब्द का व्यवहार होने से जाते हैं (काशीखण्ड, ६७, ७२-८३)। दे० 'अविमुक्त' । जान पड़ता है कि ये कश्मीर देशीय थे । इनकी 'अद्वैतब्रह्मकाशीखण्ड-स्कन्दपुराण का एक भाग, जिसमें तीर्थ के सिद्धि' अद्वैतमत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है । इसमें प्रतितीन प्रकार कहे गये हैं-(१) जङ्गम, (२) मानस और बिम्बवाद एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष (३) स्थावर । पवित्रस्वभाव, सर्वकामप्रद ब्राह्मण और विवेचना में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का गौ जङ्गम तीर्थ हैं । सत्य, क्षमा, शम, दम, दया, दान, मुख्य सिद्धान्त बताया गया है। जब तक प्रवल साधना के आर्जव, सन्तोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, तपस्या आदि मानस द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तभी तीर्थ हैं। गङ्गादि नदी, पवित्र सरोवर, अक्षय वटादि तक वह इस वाग्जाल में फंसा रहता है। अन्यथा 'ज्ञाते पवित्र वृक्ष, गिरि, कानन, समुद्र, काशी आदि पुरी द्वैतं न विद्यते' (ज्ञान होने पर द्वैत समाप्त हो जाता है)। स्थावर तीर्थ हैं। पद्मपुराण में इस धरती पर साढ़े तीन काश्य-उज्जयिनीनिवासी एक विद्वान् कुलाचार्य (अध्याकरोड़ तीर्थों का उल्लेख है। जहाँ कहीं कोई महात्मा पक), जो बलराम और कृष्ण के गुरु हुए। इनके पिता प्रकट हो चुके हैं, या जहाँ कहीं किसी देवी या देवता ने संदीपन और पूर्वनिवास काशी रहा होगा : लीला की है, उसी स्थान को हिन्दुओं ने तीर्थ मान लिया अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः । है। भारतभूमि में इस प्रकार के असंख्य स्थान हैं। काश्यं सान्दीपिनि नाम हवन्तीपुरवासिनम् ।। तीर्थाटन करने तथा देश में घूमने से आत्मा की उन्नति (भागवत पु०, १०.४५.३१) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्यप-कीर्तनीय काश्यप — एक प्राचीन वेदान्ताचार्य प्राचीन काल में काश्यप का भी एक सूत्रग्रन्थ था । शाण्डिल्य ने अपने सूत्रग्रन्थ में काश्यप तथा वादरायण के मत का उल्लेख करके अपना सिद्धान्त स्थापित किया है। उनके मत में काश्यप भेदवादी तथा बादरायण अभेदवादी थे । शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र में काश्यप का उल्लेख है । कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में काश्यप का शिक्षा (वेदाङ्ग) के पूर्वाचार्य के रूप में उल्लेख हुआ है । काश्यप मानुषी बुद्ध के एक अवतार भी माने जाते हैं । किनाराम बाबा महात्मा किनाराम का जन्म बनारस जिले के क्षत्रिय कुल में विक्रम सं० १७५८ के लगभग हुआ द्विरागमन के पूर्व ही पत्नी का देहान्त हो गया । उसके कुछ दिन बाद उदास होकर घर से निकल गये और गाजीपुर जिले के कारो नामक गाँव के संयोगी वैष्णव महात्मा शिवादास कायस्थ की सेवा-टहल में रहने लगे और कुछ दिनों के बाद उन्हीं के शिष्य हो गये । कुछ वर्ष गुरुसेवा करके उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की। वहाँ भगवान् दत्तात्रेय का दर्शन किया और उनसे अवधूत वृत्ति की शिक्षा लेकर उनकी आज्ञा से काशी लौटे। यहां उन्होंने बाबा कालूराम अधोरपन्थी से अधोर मत का उपदेश लिया। दे० 'अघोर मत' अथवा 'कापा'लिक' वैष्णव भागवत और फिर अघोरपन्थी होकर किनाराम ने उपासना का एक अद्भुत सम्मिश्रण किया। वैष्णव रीति से ये रामोपासक हुए और अघोर पन्थ की रीति से मद्यमांसादि के सेवन में इन्हें कोई आपत्ति न हुई। साथ ही इनके समक्ष जाति-पांति का कोई भेदभाव न था । इनका पन्थ अलग ही चल पड़ा। इनके शिष्य हिन्दू-मुसलमान सभी हुए । --- जीवन में अपने दोनों गुरुओं की मर्यादा निवाहने के लिए इन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान मारुफपुर, नयी डीह, परानापुर और महूपुर में और अघोर मत के चार स्थान रामगढ़ (बनारस) देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) और कृमिकुण्ड (काशी) में स्थापित किये। ये मठ अब तक चल रहे हैं । इन्होंने भदैनी में कृमिकुण्ड पर स्वयं रहना आरम्भ किया। काशी में अब भी इनकी प्रधान गद्दी कृमिकुण्ड पर है। इनके अनुयायी सभी जाति के लोग हैं । रामावतार की उपासना इनकी विशेषता है । १८७ ये तीर्थयात्रा आदि मानते हैं, इन्हें औघड़ भी कहते हैं । ये देवताओं की मूर्ति की पूजा नहीं करते। अपने शवों को समाधि देते हैं, जलाते नहीं । किनाराम बाबा ने संवत् १८०० वि० मे १४२ वर्ष की अवस्था में समाधि ली। किनारामी ( अघोरपन्थी ) - दे० 'किनाराम' । किमिच्छावत- मार्कण्डेय पुराण के अनुसार इस व्रत में अतिथि से पूछा जाता है कि वह क्या चाहता है ? इसके विषय में करन्धम के पुत्र अवीक्षित की एक कथा आती है, जिसके अनुसार उसकी माता ने इस व्रत का आचरण किया था तथा उसने अपनी माता को सर्वदा इस व्रत का आचरण करने का वचन दिया था। अवीक्षित ने घोषणा की थी : शृण्वन्तु मेऽचिनः सर्वे प्रतिज्ञातं मया सदा । किमिच्छय ददाम्येष क्रियमाणे किमिच्छ के || ( मार्कण्डेय पुराण, १२२.२० ) [मेरे सब याचक सुन लें, किमिच्छक व्रत करते हुए मैंने प्रतिज्ञा की है - आप क्या चाहते हैं, में वही दान करूँगा । ] किरण - रौद्रिक आगमों में से यह एक आगम है । 'किरणागम' की सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति ९२४ ई० (हरप्रसाद शास्त्री, २, १२४ ) की उपलब्ध है । किरणावली-वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थलेखक आचार्यों में उदयन का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका वैशेषिक मत पर पहला ग्रन्थ है 'किरणावली', जो प्रशस्तपाद के भाष्य का व्याख्यान है | यह दशम शताब्दी की रचना है । किरणावलीप्रकाश वर्धमान उपाध्याय द्वारा रचित द्वादश शताब्दी का यह ग्रन्थ उदयन कृत 'किरणावली' को व्याख्या है | कीर्तन सोहिला - सिक्खों की एक प्रार्थनापुस्तक । सिक्खों की मूल प्रार्थनापुस्तिका का नाम 'पञ्जग्रन्थी' है। इसके पाँच भाग है - (१) जपजी, (२) रहिराम, (३) कीर्तन सोहिला, (४) सुखमनी और (५) आसा दो वार । इनमें से प्रथम तीनों का खालसा सिक्खों को नित्य पाठ करना चाहिए। कीर्तनीय चैतन्य सम्प्रदाय में सामूहिक कीर्तन के प्रमुख को कीर्तनीय कहते हैं । इस सम्प्रदाय के मन्दिरों में प्रायः राधा-कृष्ण की मूर्तियों के साथ ही चैतन्य, अद्वैत एवं नित्यानन्द की मूर्तियां भी स्थापित रहती हैं। केवल Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कीतिव्रत-कुत्स चैतन्य महाप्रभु की ही मूर्ति किसी-किसी मन्दिर में पायी यह कश्मीर में उपजती है, अतः दुर्लभता के कारण जाती है। पूजा में प्रधानता संकीर्तन की रहती है। इसके स्थान पर रोली का उपयोग होता है इसलिए अब 'कीर्तनीय' (प्रधान संकीर्तक) तथा उसके दल वाले जग- रोली ही कुंकुम नाम से प्रचलित है। रोली हलदी से मोहन (प्रधान मन्दिर के सामने के भाग) में बैठते हैं तथा बनती है अतः यह भी मांगलिक प्रतीक है, जो स्मार्तों के झाल एवं मृदंग बजाकर कीर्तन करते हैं। कीर्तनीय द्वारा देवी की पूजा में यन्त्र (देवी की प्रतिमासूचक वस्तु) बीच-बीच में आत्मविभोर हो नाच भी उठता है। एक पर चढ़ाया जाता है। या अधिक बार 'गौरचन्द्रिका' के गायन का नियम है। कुक्कुटी-मर्कटीव्रत-भाद्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का कीर्तिवत-यह संवत्सरवत है। इसमें व्रती पीपल वृक्ष, अनुष्ठान होता है । प्रत्येक सप्तमी को व्रत करते हुए एक सूर्य तथा गङ्गा को प्रणाम करता है, इन्द्रियों का निग्रह वर्ष तक यह क्रम चलाना चाहिए । सप्तमी चाहे कृष्णकर एक स्थान पर निवास करता है, केवल मध्याह्न में पक्षीय हो या शुक्लपक्षीय । अष्टमी के दिन तिल, चावल एक बार भोजन करता है। इस प्रकार का आचरण एक (गुड़ से युक्त) ब्राह्मण को दान में देना चाहिए । एक वृत्त वर्ष तक किया जाता है । व्रत की समाप्ति के पश्चात् व्रती में भगवान् शिव तथा अम्बिका की आकृतियाँ बनाकर किसी अच्छे सपत्नीक ब्राह्मण का पूजन करता है तथा उनका पूजन करें। 'तिथितत्व' (पृ. ३७) में इसे उसे तीन गौओं के साथ एक सुवर्णवृक्ष दान में देता है। कुक्कुटीव्रत कहा गया है। व्रत करने वाले को जीवन इस व्रत के आचरण से मनुष्य यश तथा भूमि प्राप्त पर्यन्त भुजा में सुवर्ण अथवा रजततार से युक्त सूत के धागे करता है। बाँधे रहना चाहिए। कथा है कि एक रानी तथा राज पुरोहित की पत्नी मर्कटी अर्थात् वानरी तथा कुक्कुटी कीर्तिसंक्रान्तिव्रत-संक्रान्ति के दिन धरातल पर सूर्य की अर्थात् मुर्गी हो गयी थीं, क्योंकि वे इस धागे को बाँधना आकृति खींचकर उस पर सूर्य की प्रतिमा स्थापित करके भूल गयी थीं। इस कथा का वर्णन कृष्ण ने युधिष्ठिर से पूजन किया जाता है । एक वर्ष पर्यन्त यह अनुष्ठान होना किया है। चाहिए। इसके फलस्वरूप मनुष्य को यश, दीर्घायु, राज्य कुक्कुटेश्वरतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में लिखित तन्त्रों तथा स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। की सूची में सोलहवाँ स्थान 'कुक्कुटेश्वर तन्त्र' को कोलक-किसी अनुष्ठान में मुख्य मन्त्र के पूर्व जो पाठ किया जाता है उसको कीलक कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ कुण्डलिया-(गिरिधर कविराय कृत) नैतिक उपदेशों से है 'कील ठोंक कर दृढ़ता से गाड़ना' । कील दृढ़ता का भरी एवं सामाजिक उपयोगितापूर्ण कुण्डलियों की रचना, प्रतीक है । कीलकस्तोत्र का उदाहरण दुर्गासप्तशती में देखा जो अठारहवीं शताब्दी के एक सुधारवादी हिन्दी कवि जा सकता है, जिसमें चण्डीपाठ के पूर्व कुछ अन्य गिरिधर कविराय ने की है। हिन्दी नोति साहित्य में पवित्र स्तोत्र पढ़े जाते हैं, जैसे कवच, कोलक एवं अर्गला गिरिधर कविराय की कुण्डलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। स्तोत्र जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण के उद्धरण हैं। कुण्डिकोपनिषद्-त्याग-वैराग्य प्रतिपादक एक उपनिषद् । कीलाल-ऋग्वेद के सिवा अन्य संहिताओं में 'कीलाल' संन्यास धर्म की निदर्शक उपनिषदों में यह प्रमुख मानी शब्द का प्रयोग 'मीठे पेय' अर्थ में हआ है। पुरुषमेध यज्ञ जाती है। की बलिसूची में सुराकार का नाम भी कीलाल के रूप कत्स-ऋग्वेदीय मन्त्रों के साक्षात्कर्ता ऋषियों में से एक में आया है, इसलिए इस पेय की प्रकृति भी निश्चय ही ऋषि । अष्टाध्यायी (पाणिनि) के सूत्रों में जिन पूर्वाचार्यों सुरा के समान रही होगी। के नाम आये हैं उनमें कुत्स भी हैं । पौराणिक कथाओं के कुंकुम-केसर, जो सुगन्ध और रक्त-पीत रंग के लिए अनुसार इन्द्र ने इन्हें बहुत ताडित किया, किन्तु फिर प्रसिद्ध अलंकरण द्रव्य है। देवपूजा में चन्दन के साथ प्रसन्न होकर सुष्ण दैत्य से इनकी रक्षा की। एक बार मिलाकर इसका उपयोग होता है। लक्ष्मी, दुर्गा आदि इन्द्र इनको अमरावती में अपने प्रासाद में ले गया । इन्द्र देवियों की पूजा में कुंकुम अलग से भी चढ़ाई जाती है। और कुत्स दोनों आकार और सौन्दर्य में समान थे। इन्द्र प्राप्त है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुत्स औरव-कुमारिल १८९ की पत्नी शची पहचान न सकी कि उसका पति इन्द्र महान् आचार्यों का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें पहले हैं प्रभाकर, कौन सा है। जिन्हे 'गुरु' भी कहते हैं तथा दूसरे हैं कुमारिल, जिन्हें कुत्स औरव-पञ्चविंश ब्राह्मण के अनुसार कुत्स औरव भट्ट भी कहते हैं। दोनों ने शबर के भाष्य की व्याख्या ने अपने पारिवारिक पुरोहित उपगु सौश्रवस का वध इस __ की है किन्तु दोनों की व्याख्या में अन्तर है। दोनों ने लिए कर डाला था कि सौश्रवस के पिता इन्द्र की पूजा दो प्रतिद्वन्द्वी सम्प्रदायों को जन्म दिया। प्रभाकर का के अधिक पक्षपाती थे। इस तथ्य का समर्थन ऋग्वेद के काल अज्ञात है किन्तु यह निश्चित है कि वे कुमारिल के कुछ सूक्तों में कुत्स एवं इन्द्र की प्रतियोगिता के वर्णन से पूर्व हुए। प्रभाकर का ग्रन्थ 'बृहती' शाबरभाष्य का प्राप्त होता है। स्पष्टीकरण मात्र है; उसमें कुछ आलोचना नहीं है। कुन्दचतुर्थी-माघ शुक्ल चतुर्थी । इस तिथि को देवीपूजा कुमारिल आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए, उन्होंने होती है। कुन्दपुष्प, शाक, सब्जी, नमक, शक्कर, जीरा शाबरभाष्य पर एक विस्तृत व्याख्या की रचना की आदि वस्तुएँ कन्याओं को दान में दी जाती हैं। चतुर्थी जिसके तीन भाग है, और उनमें शबर से यथेष्ट अन्तर के दिन उपवास का विधान है। यह गौरीचतुर्थी के परिलक्षित होता है। नाम से भी प्रसिद्ध है। चतुर्थी को उपवास ही इस व्रत कुमारिल की रचना के तीन भाग हैं : (१) श्लोकका मुख्य अङ्ग है। उस दिन उक्त दान देने से सौभाग्य वार्तिक (पद्य), जो प्रथम अध्याय के प्रथम पाद पर की उपलब्धि होती है। है; (२) तन्त्रवात्तिक (गद्य) जो प्रथम अध्याय के अवकुब्जिकातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में ५५वाँ शेष तथा अध्याय दो और तीन पर है और (३) टुप्टीका स्थान 'कुब्जिकातन्त्र' का है। इसमें निगूढ़ तान्त्रिक (गद्य) अध्याय ४ से १२ पर संक्षिप्त टिप्पणी है । कुमारिल क्रियाओं का वर्णन है। की प्रणाली पर मण्डन मिश्र ने, जो बाद में शङ्कर के शिष्य कुग्जिकामततन्त्र-एक प्राचीन तन्त्रग्रन्थ। गुप्तकालीन (सुरेश्वराचार्य) हो गये थे, अनेकों ग्रन्थों की रचना की। भाषाशैली में लिखित होने के कारण इसका रचनाकाल प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों ने अनीश्वरवाद का लगभग सातवीं शताब्दी प्रतीत होता है। निर्वाह प्रकृति के सृष्टिक्रम में देवी कार्य की अनावश्यकुबेरतीर्थ-कुरुक्षेत्र के समीप यह स्थान भद्रकाली मन्दिर कता बताते हुए किया है। दोनों इस विषय पर यथार्थसे थोड़ी दूर सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। यहाँ वादी दृष्टिकोण रखते हैं। किन्तु दोनों का आत्मा की कुबेर ने यज्ञों का अनुष्ठान किया था। इसी प्रकार विशुद्ध चेतनता, प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि तार्किक तत्त्वों नर्मदातट पर भी एक कुबेरतीर्थ विख्यात है। में मतान्तर है। कुमारिल ने कर्ममीमांसा एवं उसके कुबेरव्रत-तृतीया तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान किया बाहर के दर्शनों पर भी सक्रिय प्रभाव डाला। वे बौद्ध जाता है । इसमें कुबेर की पूजा होती है । मत के कठोर आलोचक थे तथा जब कभी वे विजयकुमार-वाल्मीकि-माध्व मतावलम्बी किसी कुमार-वाल्मीकि यात्रा में निकले, उन्होंने इस मत के प्रत्याख्यान करने का नामक कवि ने रामायण का कन्नड भाषा में अनुवाद यत्न किया। किया है । इसी अनुवाद को 'कुमार-वाल्मीकि' कहते हैं । ___ कुमारिल के अनुसार वेद के शब्द, वाक्य और क्रम धार्मिक होने की अपेक्षा यह अनुवाद विनोदपूर्ण अधिक नित्य हैं । कुमारिल ने शब्द को द्रव्य माना है। शब्द तो है। मध्वमत के प्रचार में इसने यथेष्ट सहायता पहुँचायी नित्य है ही, उसका अर्थ भी नित्य है और शब्द तथा है । कर्णाटक में यह बहुत लोकप्रिय है । अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है। शब्द की नित्यता पर जो कुमारषष्ठी-चैत्र शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का आरम्भ युक्तियाँ उन्होंने प्रस्तुत की हैं, वे बहुत प्रौढ और वैज्ञानिक होता है और यह एक वर्ष पर्यन्त चलता है। मिट्टी की हैं। कुमारिल ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और अभाव द्वादश भुजा वाली स्कन्द की मूर्ति का पूजन इसमें किया ये पाँच पदार्थ माने हैं। पूर्व मीमांसा के अन्य सिद्धान्त जाता है। उन्हें मान्य है, यद्यपि शबरभाष्य की आलोचना यत्र-तत्र कुमारिल-कर्ममीमांसा शास्त्र के उत्कर्ष काल में इसके दो उनके द्वारा हई है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारी-कुम्भपर्व कुमारिल का आधुनिक हिन्दुत्व की स्थापना में बहुत त्रयोदशे महालक्ष्मीद्विसप्ता पीठनायिका । बड़ा हाथ है। उनकी प्रणाली वेदों एवं ब्राह्मणों पर क्षेत्रज्ञा पञ्चदशभिः षोडशे चान्नदा मता ॥ आधृत है । वे उसके बाहर के सभी पक्षों का निराकरण एवं क्रमेण सम्पूज्या यावत् पुष्पं न जायते । करते हैं। पुष्पितापि च सम्पूज्या तत्पुष्पादानकर्मणि ॥ कर्ममीमांसा में प्रभाकर एवं कुमारिल ने ही प्रथम बार कुमारीपूजन की विधि निम्नलिखित प्रकार से बतायी मुक्ति का वर्णन किया है। उनका कथन है कि मुक्तिलाभ गयी है : धर्म एवं अधर्म दोनों के समाप्त हो जाने पर ही हो अथान्यत्साधनं वक्ष्ये महाचीनक्रमोद्भवम् । सकता है और जो मुक्ति चाहता है उसे केवल आवश्यक येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्र देवी प्रसीदति ।। कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां कुह्वां वा रविसंक्रमे । कुमारी-(१) शिवपत्नी पार्वती के अनेकों नाम एवं गुण कुमारीपूजनं कुर्यात् यथा विभवमात्मनः ।। शिव के समान ही हैं। उनका एक नाम 'कुमारी' भी वस्त्रालङ्करणाद्यैश्च भक्ष्यभोज्यैः सुविस्तरैः । है । तैत्तिरीय आरण्यक (१०.१.७) में उन्हें कन्या कुमारी पञ्चतत्त्वादिभिः सम्यग् देवीबुद्धया सुसाधकः ॥ कहा गया है । स्कन्दपुराण के कुमारीखण्ड में कुमारी का कुमा कुमारीतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में 'कुमारीचरित्र और माहात्म्य विस्तार से वणित है। भारत का तन्त्र' का छठा क्रमिक स्थान है। इसमें कुमारीपूजन का दक्षिणान्त अन्तरीप (कुमारी अन्तरीप ) उन्हीं के नाम विस्तृत वर्णन पाया जाता है।। से सम्बन्धित है। कुमारीपूजा-नवरात्र में इस व्रत का अनुष्ठान होता है । (२) 'कुमारी' नाम 'कुमार' का युग्म (जोड़ा) या दे० समयमयूख, २२ । विशेष विवरण के लिए दे० 'कुमारी'। समकोटिक भी है। यह ऐसी उग्र कुमारिका ग्रहों का सूचक है, जो शिशुओं का भक्षण करती हैं । कुम्भपर्व-बारह-बारह वर्ष के अन्तर से चार मुख्य तीर्थों में लगनेवाला स्नान-दान का ग्रहयोग। इसके चार स्थल (३) स्मृतियों में द्वादश वर्षीया कन्या का नाम भी प्रयाग, हरिद्वार, नासिक-पंचवटी और अवन्तिका (उज्जैन) कुमारी कहा गया है : हैं। (१) जब सूर्य तथा चन्द्र मकर राशि पर हों, गुरु अष्टवर्षा भवेद् गौरी दशवर्षा च रोहिणी । वृषभ राशि पर हो, अमावस्या हो; ये सब योग जुटने पर सम्प्राप्ते द्वादशे वर्षे कूमारीत्यभिधीयते ।। प्रयाग में कुम्भयोग पड़ता है। इस अवसर पर त्रिवेणी [अष्ट वर्ष की कन्या गौरी और दस वर्ष की रोहिणी में स्नान करना सहस्रों अश्वमेध यज्ञों, सैकड़ों वाजपेय होती है। बारह वर्ष प्राप्त होने पर वह कुमारी यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से कहलाती है। ] भी अधिक पुण्य प्रदान करता है। कुम्भ के इस अवसर __'अन्नदाकल्प' आदि आगम ग्रन्थों में कुमारीपूजन पर तीर्थयात्रियों को मुख्य दो लाभ होते हैं; गंगास्नान के प्रसंग में कुमारी अजातपुष्पा ( जिसको रजोधर्म न तथा सन्तसमागम । होता हो ) कन्या को कहा गया है। सोलह वर्ष पर्यन्त (२) जिस समय गुरु कुम्भ राशि पर और सूर्य मेष राशि वह कुमारी रह सकती है। वयभेद से उसके कई नाम पर हो तब हरिद्वार में कुम्भपर्व होता है । (३) जिस समय बतलाये गये हैं : गुरु सिंह राशि पर स्थित हो तथा सूर्य एवं चन्द्र कर्क एकवर्षा भवेत् सन्ध्या द्विवर्षा च सरस्वती । राशि पर हों तब नासिक में कुम्भ होता है। (४) जिस त्रिवर्षा तु विधामूर्तिश्चतुर्वर्षा तु कालिका ॥ समय सूर्य तुला राशि पर स्थित हो और गुरु वृश्चिक राशि सुभगा पञ्चवर्षा च षड्वर्षा च उमा भवेत् । पर हो तब उज्जैन में कुम्भपर्व मनाया जाता है। सप्तभिर्मालिनी साक्षादष्टवर्षा च कूब्जिका ।। ___ कुम्भ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में मनोरंजक नवभिप्लसकर्षा दशभिश्चापराजिता। कथाएँ है । इनका सम्बन्ध समुद्रमन्थन से उत्पन्न अमृतघट एकादशे तु रुद्राणी द्वादशाब्दे तु भैरवी ।। से है। इस अमृतघट को असुर गण उठा ले गये थे, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुक्षेत्र १९१ जिसको गरुड़ पुनः पृथ्वी पर ले आये । जिन-जिन स्थानों पर यह अमृतघट (कुम्भ ) रखा गया वहाँ अमृतबिन्दुओं के छलक जाने से वे सभी प्रदेश पुण्यस्थल हो गये । वहाँ निश्चित समय पर स्नान-दान-पुण्य करने से अमृत-पद ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है। प्राचीन धर्मशास्त्रग्रन्थों में उक्त कुम्भयोगों का उल्लेख नहीं पाया जाता है । कुरुक्षेत्र-अम्बाला से २५ मील पूर्व स्थित एक प्राचीन तीर्थ । ब्राह्मणयुग में कुरुक्षेत्र बहुत ही पवित्र स्थल माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण ( ४.१.५.१३ ) के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में यज्ञाहुति दी थी । मैत्रायणी संहिता में भी यही बात कही गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणयुग के वैदिक लोग कुरुक्षेत्र में यज्ञ करने को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। यह वैदिक संस्कृति का केन्द्र था, इसलिए यहाँ अधिक यज्ञ होना स्वाभाविक है और इसी कारण इसे 'धर्मक्षेत्र' भी कहा गया है । तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार देवताओं ने कुरुक्षेत्र में एक सत्र पूरा किया था। इसकी वेदी कुरुक्षेत्र में ही थी। इसके दक्षिणी भाग को खाण्डव तथा उत्तरी भाग को तून, मध्यभाग को परीण तथा मरु को उत्कर कहा गया है । इससे यह ज्ञात होता है कि खाण्डव, तून तथा परीण कुरुक्षेत्र के सीमान्त प्रदेश थे और मरु प्रदेश कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। महाभारत में कुरुक्षेत्र के पवित्र गुणों का उल्लेख किया गया है। ऐसा ज्ञात होता है कि इसकी सीमा दक्षिण में सरस्वती तथा उत्तर में दृषद्वती नदी तक थी। वनपर्व (८६.६ ) में कुरुक्षेत्र को 'ब्रह्मावर्त' कहा गया है । यही बात वामन पुराण तथा मनुस्मृति में भी किञ्चित् परिवर्तन के साथ कही गयी है । इस प्रकार आर्यावर्त में ब्रह्मावर्त सर्वाधिक पवित्र माना गया है और कुरुक्षेत्र ऐसा ही स्थल है। ब्राह्मणयुग में सर्वाधिक पवित्र सरस्वती कुरुक्षेत्र से ही होकर बहती थी और मरु भूमि को भी, जहाँ वह अदृश्य हो जाती है, पवित्र स्थल माना गया था। मूलतः कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की वेदी कहलाता था, तदुपरान्त इसे समन्तपञ्चक तब कहा गया जब परशुराम ने पिता की हत्या के बदले में क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवरों का निर्माण किया। फिर उनके पितरों के वरदान से यह पवित्र स्थल हो गया। बाद में महाराज कुरु के नाम पर इसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। वामनपुराण के अनुसार कुरुक्षेत्र का अर्धव्यास पाँच योजन तक है। पुराणों में कुरुक्षेत्र को कई नामों से अभिहित किया गया है । इनमें कुरुक्षेत्र, समन्तपञ्चक, विनशन, सन्निहत्य, ब्रह्मसर और रामहृद नाम प्रमुख हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र वैदिक संस्कृति का केन्द्र था। धीरे-धीरे यह केन्द्र पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसकता गया और अन्ततः मध्यदेश ( गङ्गा और यमुना के बीच का प्रदेश) भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो गया । महाभारत के वनपर्व ( अ० ८३ ) के अनुसार जो लोग कुरुक्षेत्र में रहते है वे सभी पापों से मुक्त है । इसके अतिरिक्त जो यह कहता है कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा और वहाँ रहँगा, वह भी पापमुक्त हो जाता है। संसार में इससे अधिक पवित्र स्थल दूसरा कोई नहीं है । कुरुक्षेत्र की धूलि का कण भी यदि कोई महान् पापी स्पर्श करे तो वह कण ही उसके लिए स्वर्ग हो जाता है । अन्यत्र ग्रह, नक्षत्र और तारों के भी पतन का भय बना रहता है, परन्तु जो कुरुक्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होते हैं वे पुनः मर्त्यलोक में नहीं आते (नारदीय पुराण, ११.६४.२३-२४) । ___ नारदीय पुराण ( उत्तरार्ध, अ० ६५ ) में कुरुक्षेत्र के लगभग सौ तीर्थों का नामाङ्कन किया गया है । इनमें से कुछ का ही विवरण यहाँ दिया जा सकता है । सर्वप्रथम ब्रह्मसर या पवनहद का नाम आता है, जहाँ राजा कुरु योगी के रूप में निवास करते थे। इस झील की लम्बाई पूर्व से पश्चिम ३५४६ फुट तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण १९०० फुट है । वामन पुराण का मत है कि इसकी सीमा अर्ध योजन थी । चक्रतीर्थ की भूमि पर कृष्ण ने भीष्म पर आक्रमण करने के लिए चक्र धारण किया था । व्यासस्थली थानेश्वर से १७ मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित आधुनिक वनस्थली है। अस्थिपुर थानेश्वर के पश्चिम तथा औजसघाट के दक्षिण में स्थित है। यहाँ महाभारतयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों का अन्तिम संस्कार किया गया था। कनिंघम के भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अनुसार चक्रतीर्थ ही अस्थिपुर है और अलबीरूनी के युग में यह कुरुक्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर था। सरस्वतीतट पर स्थित पृथूदक वनपर्व में बहुत ही उच्च स्तर का तीर्थ माना गया है। उसमें कहा गया है कि कुरुक्षेत्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ पवित्र स्थल है और सरस्वती उससे भी अधिक पवित्र है । सरस्वतीतट पर स्थित तीर्थ सरस्वती से भी अधिक पवित्र है और पृथूदक सरस्वती पर स्थित तीर्थों में भी सबसे अधिक पवित्र है। इससे उत्तम कोई तीर्थ नहीं है । शल्यपर्व ( ३९.३३-३४ ) में कहा गया है कि जो व्यक्ति सरस्वती के उत्तरी तट पर पृथूदक में पवित्र ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए जीवन का उत्सर्ग करता है वह निर्वाण को प्राप्त होता है तथा जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। वामन पुराण (३९.२० और २३ ) में इसे ब्रह्मयोनि तीर्थ कहा गया है । पृथूदक थानेश्वर से १४ मील पश्चिम कर्नाल जिले में स्थित आधुनिक पिहोवा है। वामन ( ३४.३) और नारदीय पुराण ( उत्तरार्द्ध, ६५.४.७ ) में कुरुक्षेत्र के सात वनों - काम्यकवन, अदितिवन, व्यासवन, फलकीवन, सूर्यवन, मधुवन और सीतावन का उल्लेख है जो बहुत पवित्र हैं और पाप का नाश करने वाले हैं । तीर्थों की सूची में कुरुक्षेत्र को सन्तिहती या सन्निहत्य के नाम से अभिहित किया गया है । वामन पुराण ( ३२.३-४ ) के अनुसार सरस्वती का उद्गम प्लक्ष] वृक्ष से हुआ है । वहाँ से कई पहाड़ियों को वेधते हुए वह द्वैतवन में प्रवेश करती है । वामन पुराण ( ३२.६२२ ) में मार्कण्डेय द्वारा सरस्वती की प्रशंसा की गयी है । कुलचूडामणितन्त्र – एक महत्वपूर्ण तन्त्र ग्रन्थ । इसमें ६४ तन्त्रों की सूची दी हुई है, जो 'वामकेश्वरतन्त्र' की सूची से मिलती-जुलती है । कुलशेखर-तमिल वैष्णवों में बारह आलवारों (भक्तकवियों ) के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। कुलशेखर इनमें ही हुए हैं। दे० आलवार स्थानीय परम्परा के अनुसार कुलशेखर का जन्म कलि के आरम्भ में मलावीर के चात्मपट्टन या तिरुमञ्जिक्कोलम् नामक स्थान में हुआ था । उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक सरस स्तोत्र की रचना की है। कुलसारतन्त्र - 'कुलचूडामणितन्त्र' की सूची में उद्धृत एक ग्रन्थ । इसमें कौल सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है । कुलार्णव- बहुप्रचलित तन्त्र ग्रन्थ । इसके अनुसार तान्त्रिक । गण कई प्रकार के आचारों में विभक्त है। उनमें वेदाचार सामान्यतः श्रेष्ठ हैं, वेदाचार से वैष्णवाचार महान् है, फुलचूडामणितन्त्र - कुलीनवाद वैष्णवाचार से शैवाचार उत्कृष्ट है, शैवाचार से दक्षिणाचार उत्तम है, दक्षिणाचार से वामाचार प्रशंसनीय है. वामाचार से सिद्धान्ताचार श्रेष्ठ है और सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार उत्तम है। कौलाचार से उत्तम और कोई आचार नहीं है। इस ग्रन्थ में इन्हीं कौल आचारों और सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । कुलालिकाम्नाय - इस तन्त्र ग्रन्थ में भारत के तीन यानों का उल्लेख है : - दक्षिणे देवयानं तु पितृयानं तु उत्तरे । मध्ये तु महायानं विसंज्ञा प्रगीयते ॥ [दक्षिण में देवयान, उत्तर में पितृयान और मध्यदेश में महायान प्रचलित हैं ] इन थानों की विशेषता तो ठीक ठीक मालूम नहीं है, परन्तु महायानी श्रेष्ठ तन्त्र तथागतगुह्यक' से पता लगता है कि रुद्रयामलादि में जिसे वामाचार अथवा कौलाचार कहा गया है वही महायानियों का अनुष्ठेय आचार है । इसी सम्प्रदाय से क्रमश: 'कालचक्रयान' या 'कालोत्तरमहायान' तथा वज्रयान की उत्पत्ति हुई । नेपाल के सभी शाक्त-बौद्ध वज्रयान सम्प्रदाय के हैं । कुलीनवाद 'कुलीन' का मूल अर्थ है श्रेष्ठ परिवार का व्यक्ति । कुलीनवाद का अर्थ हुआ 'पारिवारिक श्रेष्ठता का सिद्धान्त' । इसके अनुसार श्रेष्ठ परिवार में ही उत्तम गुण होते हैं । अतः विवाहादि सम्बन्ध भी उन्हीं के साथ होना चाहिए । धर्मशास्त्र के अनुसार जिस परिवार में लगातार कई पीढ़ियों तक वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन होता हो, वह कुलीन कहलाता है । शैक्षणिक प्रतिष्ठा के साथ विवाह सम्बन्ध में इस प्रकार के परिवार बंगाल में श्रेष्ठ माने जाते थे । सेनवंश के शासन काल में कुलीनता का बहुत प्रचार हुआ । विवाह सम्बन्ध में कुलीन परिवारों की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। इस पर बहुत ध्यान दिया जाता था कि पुत्री अपने से उच्च कुल के वर से ब्याही जाय । फल यह हुआ कि कुलीन वरों की माँग अधिक हो गयी और इससे अनेक प्रकार की कुरीतियाँ उत्पन्न हुई । बंगाल में यह कुलीन प्रथा खूब बढ़ी तथा वहाँ एक-एक कुलीन ब्राह्मण ने बहुत ही ऊँचा दहेज लेकर सौ-सौ से अधिक कुमारियों का पाणिग्रहण करते हुए उनका 'उद्धार' कर डाला। शिशुहत्या भी इस प्रथा का एक कुपरिणाम थी, क्योंकि विवाह को लेकर कन्या एक समस्या बन जाती थी। अंग्रेजों ने इस शिशुहत्या को Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलेश्वरीतन्त्र-कुल्लूकभट्ट १९३ बन्द कर दिया तथा आधुनिक काल के अनेक सुधारवादी कल्लूकभट्ट-मनुस्मृति की प्रसिद्ध टीका के रचयिता। समाजों को चेष्टा से कुलीनवाद का ढोंग कम होता गया इनका काल बारहवीं शताब्दी है । मेधातिथि और गोविन्दऔर आज यह प्रथा प्रायः समाप्त हो चुकी है। राज के मनुभाष्यों का इन्होंने प्रचुर उपयोग किया है। कुलदीपिका नामक ग्रन्थ में कूल की परिभाषा और इनके अन्य ग्रन्थ है-स्मृतिविवेक, अशौचसागर, श्राद्धकुलाचार का वर्णन निम्नाङ्कित प्रकार से पाया जाता है : सागर और विवादसागर । पूर्वमीमांसा के ये प्रकाण्ड आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम् । पण्डित थे। अपनी टीका 'मन्वर्थमुक्तावली' में इन्होंने निष्ठाऽवृत्तिस्तपो दानं नवधा कुललक्षणम् ॥ लिखा है-"वैदिकी तान्त्रिकी चैव द्विविधा श्रुतिः [ आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, तीर्थदर्शन, निष्ठा, कीर्तिता।" [ वैदिकी एवं तान्त्रिकी ये दो श्रुतियाँ मान्य है। ] इसलिए कुल्लू कभट्ट के मत से तन्त्र को भी श्रुति वृत्ति का अत्याग, तप और दान ये नौ प्रकार के कूल के कहा जा सकता है। कुल्लूक ने कहा है कि ब्राह्मण, लक्षण हैं । ] क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियाँ जो क्रियाहीनता के कुलीनस्य सुतां लब्ध्वा कुनीनाय सुतां ददौ । कारण जातिच्युत हुई है, चाहे वे म्लेच्छभाषी हों चाहे पर्यायक्रमतश्चैव स एव कुलदीपकः ॥ आर्यभाषी, सभी दस्यु कहलाती है। इस प्रकार के कति[ वही कुल को प्रकाशित करनेवाला है जो कुल से पय मौलिक विचार कुल्लूकभट्ट के पाये जाते हैं। कन्या ग्रहण करके पर्यायक्रम से कुल को ही कन्या देता मन्वर्थमुक्तावली की भूमिका में कुल्लूकभट्ट ने अपना है। ] चार प्रकार के कुलकर्म बताये गये हैं : संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया है : आदानञ्च प्रदानञ्च कुशत्यागस्तथैव च । गौडे नन्दनवासिनाम्नि सूजनैर्वन्द्ये वरेन्द्रयां कुले प्रतिज्ञा घटकाग्रे च कुलकर्म चतुर्विधम् ।। श्रीमद्भट्टदिवाकरस्य तनयः कुल्लूकभट्टोऽभवत् । [ आदान, प्रदान, कुशत्याग, प्रतिज्ञा और घटकान ये काश्यामुत्तरवाहिजह -तनयातीरे समं पण्डितैस् कुलकर्म कहे गये हैं। ] राजा वल्लालसेन ने पञ्च तेनेयं क्रियते हिताय विदुषां मन्वर्थमुक्तावली ।। गोत्रीय राढीय बाईस कुलों को कुलीन घोषित किया था। गौडदेश के नन्दन ग्रामवासी, सूजनों से वन्दनीय बंगाल में इनकी वंशपरम्परा अभी तक चली आ रही है। वारेन्द्र कुल में श्रीमान् दिवाकर भट्ट के पुत्र कुल्लूक हुए । कुलेश्वरीतन्त्र-यह मिथ तन्त्रों में से एक तन्त्र है। काशी में उत्तरवाहिनी गङ्गा के किनारे पण्डितों के साहकुल्लजम साहेब-अठारहवीं शताब्दी में विरचित सन्त । चर्य में उनके ( कुल्लूकभट्ट के ) द्वारा विद्वानों के हित साहित्य का एक ग्रन्थ । इसके रचयिता स्वामी प्राणनाथ ने के लिए मन्वर्थमुक्तावली ( नामक टीका ) रची जा रही इसमें बतलाया है कि भारत के सभी धर्म एक ही पुरुष है। मेधा तिथि तथा गोविन्दराज के अतिरिक्त अन्य शास्त्र( ईश्वर ) में समाहित हैं। ईसाइयों के मसीहा, मुसल कारों का भी उल्लेख कुल्लूकभट्ट ने किया है, जैसे गर्ग मानों के महदी एवं हिन्दुओं के निष्कलंकावतार सभी ( मनु. २.६ ), धरणीधर, भास्कर ( मनु, १.८,१५), एक ही व्यक्ति के रूप हैं । दे० 'प्राणनाथ' ।। भोजदेव (मनु, ८.१८४ ), वामन ( मनु, १२.१०६), कुल्लू-हिमाचल प्रदेश में ब्यास नदी के तट पर कुल्लू विश्वरूप ( मनु, २.१८९ ) । निबन्धों में कुल्लूक कृत्यनगर स्थित है। यह बहुत सुन्दर स्थान है। यहाँ पठान- कल्पतरु का प्रायः उल्लेख करते हैं । आश्चर्य इस बात का कोट से सीधा मोटरमार्ग भी मण्डी होकर आता है। है कि मन्वर्थमुक्तावली में कुल्लूक ने बंगाल के प्रसिद्ध पठानकोट से कुल्लू एक सौ पचहत्तर मील पड़ता है। निबन्धकार जीमूतवाहन के दायभाग की कहीं चर्चा यह नगर बाजार, रघुनाथ-मन्दिर, धर्मशाला, थाना, नहीं की है। संभवतः वाराणसी में रहने के कारण वे पोस्ट आफिस, बिजली आदि से सम्पन्न है । तुषार- जीमूतवाहन के ग्रन्थ से परिचित नहीं थे । अथवा जीमूतमण्डित गगनचुम्बी भूधरों से वेष्टित यह स्थल समुद्रतल से वाहन अभी प्रसिद्ध नहीं हो पाये थे। ४७०० फुट ऊँचाई पर है। विजयादशमी को यहाँ की कुल्लक भट्ट ने अन्य भाष्यकारों की आलोचना करते विशेष यात्रा होती है और दस दिन तक मेला रहता है। हए अपनी टीका की प्रशंसा की है (दे० पुष्पिका) : Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ कुबेर-कुशीनगर सारासारवचः प्रपञ्चनविधी मेधातिथेश्चातूरी कुशकाशास्त एवासन् शश्वद् हरितवर्चसः । स्तोकं वस्तु निगूढमल्पवचनाद् गोविन्दराजो जगौ । ऋषयो वै पराभाव्य यज्ञघ्नान यज्ञमीजिरे ।। ग्रन्थेऽस्मिन्धरणीधरस्य बहुशः स्वातन्त्र्यमेतावता [ सब संपत्तियों से भरपूर बहिष्मती नगरी में पहले स्पष्टं मानवधर्मतत्त्वमखिलं वक्तं कृतोऽयं श्रमः ॥ यज्ञस्वरूपी वराह भगवान् के शरीरकम्पन से जो रोम [ मेधातिथि की चातुरी सारगर्भित तथा सारहीन गिरे, वे ही हरे-भरे कुश और कास हो गये। ऋषियों ने वचनों ( पाठों ) के विवेचन की शैली में दिखाई पड़ती उनको हाथ में धारण कर यज्ञविरोधियों को मार भगाया है। गोविन्दराज ने शास्त्रों के गूढ़ अर्थों की व्याख्या और अपना अनुष्ठान पूरा किया। (भागवत)] संक्षेप में की है। धरणीधर ने परम्परा से स्वतन्त्र होकर कुश (राजा)—सूर्यवंशी भगवान् राम के ज्येष्ठ पुत्र । रामाशास्त्रों का अर्थ किया है । ( परन्तु मैंने 'मन्वर्थमुक्तावली' यण में इनकी उत्पत्ति का वर्णन मिलता है कि सीताजी के में ) मानव धर्म ( शास्त्र ) के सम्पूर्ण तत्व को स्पष्ट बड़े पुत्र का मार्जन ऋषि ने पवित्र कुशों से किया था रूप से कहने का श्रम किया है। इसलिए उसका नाम कुश हो गया। सर विलियम जोन्स ने कुल्लक भट्ट की प्रशंसा में लिखा कुश (द्वीप)--पौराणिक भुवनकोश ( भूगोल ) के अनुसार है : “इन्होंने कष्टसाध्य अध्ययन कर बहुत सी पाण्डुलि सात द्वीपों में एक कुश द्वीप भी है । यह घृत के समुद्र से पियों की तुलना से ऐसा ग्रन्थ प्रस्तुत किया, जिसके घिरा हुआ है जहाँ देवनिर्मित अग्नि के समान कुशस्तम्ब विषय में सचमुच कहा जा सकता है कि यह लघुतम वर्तमान हैं। इसीलिए इसका नाम 'कुश' पड़ा। इसके किन्तु अधिकतम व्यञ्जक, न्यूनतम दिखाऊ किन्तु पाण्डि राजा प्रियव्रत के पुत्र हिरण्यरेता थे। इन्होंने इस द्वीप को त्यपूर्ण, गम्भीरतम किन्तु अत्यन्त ग्राह्य है। प्राचीन सात भागों में विभक्त कर अपने सात पत्रों को दे दिया। अथवा नवीन किसी लेखक की ऐसी सुन्दर टीका दुर्लभ कुशकण्डिका-होम कर्म में कुश बिछाने तथा वस्तु शुद्ध है।" दे० पेद्दा रमप्पा बनाम बंगरी शेषम्मा, इण्डियन करने की विधि का ज्ञापक लम्बा गद्यमन्त्रा । इसके अनुला रिपोर्टर (२, मद्रास, २८६, पृ० २९१ )। सार कुशों के द्वारा सभी प्रकार के होम के लिए सम्पादित कुबेर-उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता। मार्कण्डेय तथा अग्निसंस्कार की क्रिया को भी कुशकण्डिका कहते हैं। वायुपुराण में 'कुबेर' शब्द की व्युत्पत्ति निम्नलिखित प्रकार से दी हुई है : कर्मकाण्ड में यह क्रिया सर्वप्रथम की जाती है। कुत्सायां क्विति शब्दोऽयं शरीरं बेरमुच्यते । कुशिक-(१) कान्यकुब्ज (कन्नौज) के पौराणिक राजाओं कुबेरः कुशरीरत्वान् नाम्ना तेनैव सोऽङ्कितः ॥ में से एक, जिसके नाम से कौशिक वंश चला । कुशिकतीर्थ [ 'कु' का प्रयोग कुत्सा ( निन्दा ) में होता है । 'बेर' कान्यकुब्ज का एक पर्याय है । यह राजधानी ही नहीं, मध्यशरीर को कहते हैं। इसलिए कुत्सित शरीर धारण करने । युग तक प्रसिद्ध तीर्थ भी था, जिसकी गणना गहडवाल अभिलेखों के अनुसार उत्तर भारत के पञ्चतीर्थों में होती थी। के कारण वे 'कुबेर' नाम से विख्यात हुए।] (२) लकुली (लकुलीश, जो शिव के एध अवतार भागवत पुराण के अनुसार विश्रवा मुनि की इडविडा समझे जाते हैं) के शिष्यों में से एक कुशिक हैं । उनके कुशिक (इलविला ) नामक भार्या से कुबेर उत्पन्न हुए थे। ये आदि चार शिष्यों ने पाशुपत योग का पूर्ण अभ्यास धन, यज्ञ और उत्तर दिशा के स्वामी हैं। ये तीन चरणों और आठ दाँतों के साथ उत्पन्न हुए थे। किया था। कुश (यज्ञीय तण)-यह एक पवित्र घास है । इसका प्रयोग कुशीनगर-उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में कसया नामक यज्ञों के विविध कर्मकाण्डों तथा सभी हिन्दू संस्कारों में कसबे के पास प्राचीन कुशीनगर है । अति प्राचीन काल में होता है । इसकी नोक बड़ी तेज होती है। इसीसे कुशाग्र यह कुशावती नगरी (कुश की राजधानी) थी। पीछे यह बुद्धि का मुहावरा प्रचलित हुआ। इसकी उत्पत्ति का वर्णन मल्ल गणतन्त्र की राजधानी बनी। यहीं पर बुद्ध ने परिइस प्रकार है: निर्वाण प्राप्त किया था, अतएव यह स्थान बुद्धधर्मानुयाबहिष्मती माम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता । यियों का प्रमुख तीर्थस्थान हो गया है। गोरखपुर से पूर्वोन्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः ।। त्तर कसया (कुशीनगर) छत्तीस मील दूर है। खुदाई से Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुधिवाजश्रवस-कूटस्थपुरुष १९५ अन्थों की हान शाङ्कर खण्डन किया निकली मूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ माथाकुँवर का कोटा, तर्क-युक्तियों के बहुत तीव्र प्रखर जल से नास्तिकों के परिनिर्वाणस्तूप तथा परिनिर्वाणचैत्य, रामभारस्तूप हृदय को बड़ी मात्रा में धो डाला है, फिर भी पत्थर से आदि दर्शनीय हैं। भी कठोर उन लोगों के मन में आप स्थान ग्रहण न कर परिनिर्वाणस्तुप में भगवान् बुद्ध की अस्थियाँ प्रतिष्ठा- सके । किन्तु “ईश्वर नहीं है", "ईश्वर नहीं है" इस ।। मूल स्तूप कुशीनगर के मल्लों ने ही प्रकार उलटे रूप में बड़े वेग से वे सब तत्परतापूर्वक बनवाया था, परन्तु उसके बाद भग्न होने पर अत्यन्त आपका ही चिन्तन करते हैं, अतः अन्त समय पर उनका पवित्र होने के कारण इस स्तूप का कई बार पुनर्निर्माण भी उद्धार करने की कृपा कीजियेगा।] और संस्कार हुआ। परिनिर्वाणचैत्य में भगवान् बुद्ध की कूटसन्दोह-आचार्य रामानुज ने अपने मत की पुष्टि और परिनिर्वाण-मुद्रा में ( लेटी हुई ) विशाल लाल पत्थर की प्रचार के लिए 'श्रीभाष्य' के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थों की प्रतिमा है जिसके आसन के सामने भगवान् बुद्ध के परि- रचना की । इन ग्रन्थों में इन्होंने शाङ्कर मत का प्रबल निर्वाण का पूरा दृश्य अङ्कित है। इसी पर एक अभिलेख शब्दों में खण्डन किया है। रामानुजरचित ग्रन्थों की से ज्ञात होता है कि भिक्षु बल ने इस प्रतिमा का दान लम्बी सुची में एक ग्रन्थ 'कटसन्दोह' भी है।। किया था। रामभारस्तूप उस स्थान पर बना है, जहाँ कूटस्थ पुरुष-(१) शाक्त प्रणाली में यह धारणा है कि मल्लों का अभिषेक होता था और भगवान् बुद्ध का दाह- सर्वोच्च अन्तिम अवस्था में विष्ण वा शिव तथा उनकी शक्ति संस्कार हुआ था। माथावर के कोट में पालकालीन एक ही परमात्मा है, जिनमें कोई अन्तर नहीं है। केवल भगवान् बुद्ध की बैठी हुई एक सुन्दर प्रतिमा है। सृष्टिकाल में दोनों भिन्न होते हैं । सृष्टि को आरम्भिक कुभि वाजश्रवस-शतपथ ब्राह्मण (१०. ५. ५. १) में । प्रथम अवस्था में शक्ति जागृत होती है, जैसे नींद से पवित्र अग्नि के सक्तों के आचार्थ के रूप में तथा बृहदा उठी हो । उसके दो रूप होते हैं : क्रिया तथा भूति । पुनः रण्यक उपनिषद् के अन्तिम वंश (शिक्षकों की सूची) में ये उसके स्वामी के छः गुणों का उदय होता है, यथा ज्ञान, वाजश्रवा के शिष्य कहे गये हैं । यह स्पष्ट नहीं है कि शक्ति, प्रतिभा, बल, शौर्य एवं सौन्दर्य । उनकी शक्ति बृहदारण्यक के अन्तिम वंश में उद्धृत कुश्रि तथा शतपथ लक्ष्मी छहों जोड़े बनकर संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध के दशम अध्याय के वंश में उद्धृत कुश्रि, जिसे यज्ञवचस (द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ व्यूह) तथा उनकी शक्ति के राजस्तम्बायन का शिष्य कहा गया है, दोनों एक हैं अथवा रूप में प्रकट होती है । व्यूहों से १२ अर्धव्यूह तथा १२ भिन्न-भिन्न । विद्यश्वर उदित होते हैं । सृष्टि की इस अवस्था में विभवों (विष्णु के अवतारों) का उदय होता है, जो संख्या में ३९ कुषोतक सामश्रवा-पञ्चविंश ब्राह्मण में इन्हें एक गृहपति हैं। साथ ही बैकुण्ठ और उसके निवासियों का उदय कहा गया है। ये कौषीतकियों के एक यज्ञसत्र के समय होता है। गृहपति बनाये गये थे। सृष्टि के आरम्भ की दूसरी अवस्था में शक्ति का भूतिरूप कुसुमाञ्जलि-न्यायाचार्य उदयन की रचनाओं में सबसे ठोस आकार धारण करता है, जिसे 'कटस्थ पुरुष' तथा प्रसिद्ध कुसुमाञ्जलि है, जिसमें कुल ७२ स्मरणीय श्लोकों 'माया शक्ति' कहते हैं । कूटस्थ पुरुष व्यक्तिगत आत्माओं में ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गयी है । नैयायिकों में (जीवों) का समष्टिगत रूप है (जैसे अनेकों मधुमक्खियों यह ग्रन्थ बहुत प्रचलित है । इसकी अन्तिम भावपूर्ण और का एक छत्ता होता है), जबकि माया सृष्टि का भौतिक तर्कमयी शुभाशंसा है : उपादान है। इत्येवं श्रुतिशास्त्रसप्लवजले भूयोभिराक्षालिते (२) सांख्य दर्शन का कटस्थ पुरुष निलिप्त, केवल और येषां नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसारोपमाः । द्रष्टा मात्र है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'कूट (चोटी) पर किन्तु प्रोद्यतविप्रतीपविधयाप्युच्च भवच्चिन्तकाः बैठा हुआ। काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते तारणीया जनाः ।। (३) पञ्चदशी (६.२२-२७) में परमात्मा के लिए इसका [ हे करुणामय प्रभो, इस ग्रन्थ में मैंने श्रुति-स्मृति- प्रयोग हुआ है : Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ चेतनः । उच्यते ॥ अधिष्ठानतया देहावच्छिन्न कूटवन्निर्विकारेण स्थितः कूटस्थ कूटस्थे कल्पिता बुद्धिस्तत्र चित्प्रतिबिम्बकः । प्राणानां धारणाज्जीवः संसारेण स युज्यते ॥ जलव्योम्ना घटाकाशो यथा सर्वस्तिरोहितः । तथा जीवेन कूटस्थः सोऽन्योन्याध्यास उच्यते ॥ अयं जीवो न कूटस्थं विविनक्ति कदाचन । अनादिरविवेकोऽयं मूलाविद्येति गम्यताम् ॥ विक्षेपावृत्तिरूपाभ्यां द्विधाविद्या प्रकल्पिता । न भाति नास्ति कूटस्थ इत्यापादनमावृतिः ॥ अज्ञानी विदुषा पृष्टः कूटस्थं न प्रबुध्यते । न भाति नास्ति कूटस्थ इति बुद्ध्वा वदत्यपि ॥ श्रीमद्भगवद्गीता (१५.१६-१७) में सच्चिदानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम को कूटस्थ कहा गया है : द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ कूटसाक्षी - धर्मशास्त्र में ( व्यवहारतत्त्व के अनुसार ) मायावी अथवा मिथ्यावादी साक्षी को कूटसाक्षी कहा गया है । याज्ञवल्क्यस्मृति में कूटसाक्षी का लक्षण निम्नां - कित है : द्विगुणा वान्यथा ब्रूयुः कूटाः स्युः पूर्वसाक्षिणः । न ददाति तु यः साक्ष्यं जानन्नपि नराधमः । स कूटसाक्षिणां पापैस्तुल्यो दण्डेन चैव हि ॥ [ वे पूर्व साक्षी कूट कहे जाते हैं जो दूना (बढ़ाकर ) अथवा अन्यथा (असत्य) बोलते हैं । जो मनुष्य जानता हुआ भी साक्ष्य नहीं देता है वह भी कूटसाक्षी के समान ही अधम और दण्ड है । ] कूर्म - विष्णु का एक अवतार, जिसने भूमण्डल को अपनी पीठ पर धारण कर रखा है। कूर्म या कच्छप जलजन्तु है । धार्मिक रूपक, माङ्गलिक प्रतीक, तान्त्रिक उपचारादि के रूप में इसका उपयोग होता है। बृहत्संहिता (अ० ६४) के अनुसार मन्दिर में स्थापित कूर्म की प्रतिमा मङ्गलकारिणी होती है : वैदूर्यवि स्थूलकण्ठत्रिकोणो गूढच्छिद्रश्चारुवंशश्च शस्तः । क्रीडावाप्यां तोयपूर्णे मणौ वा कार्यः कूर्मो मङ्गलार्थं नरेन्द्रः ॥ कूटसाक्षी - कूर्मद्वादशी शतपथ ब्राह्मण में कूर्म प्रजापति का अवतार माना गया है : ' स यत् कूर्मो नाम एतद्वा रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत । यदसृजदकरोत्तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्म्मः कश्यपो वं कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप इति । (शतपथ ब्राह्मण, ७ ५. १-५) दे० 'कूर्मावतार' | पद्म पुराण के अनुसार सत्ययुग में देव और असुरों द्वारा समुद्रमन्थन के अवसर पर मन्दर पर्वत को धारण करने के लिए भगवान् विष्णु ने कूर्म का रूप ग्रहण किया (क्षीरोदमध्ये भगवान् कूर्मरूपी स्वयं हरिः । ) भागवतपुराण में भी यही बात कही गयी है । तन्त्रसार में यह एक मुद्रा का नाम है। इसका वर्णन इस प्रकार है : देवताध्यान कर्मणि ॥ वामहस्तस्य तर्जन्यां दक्षिणस्य कनिष्ठया । तथा दक्षिण तर्जन्यां वामाङ्गुष्ठे न योजयेत् ॥ उन्नतं दक्षिणाङ्गुष्ठं वामस्य मध्यमादिकाः । अङ्गुलीर्योजयेत् पृष्ठे दक्षिणस्य करस्य च ॥ वामस्य पितृतीर्थेन मध्यमानामिके तथा । अधोमुखे च ते कुर्याद्दक्षिणस्य करस्य च ॥ कूर्मपृष्ठ मं कुर्याद्दक्षपाणि च सर्वशः । कूर्ममुद्रेयमाख्याता हठयोग में एक आसन का नाम कूर्मासन है : गुदं निरुध्य गुल्फाभ्यां व्युत्क्रमेण समाहितः । कूर्मासनं भवेदेतदिति योगविदो विदुः ॥ तन्त्रों में एक चक्र का नाम भी कूर्मचक्र है । कूर्मतीर्थ - हिमालय में स्थित एक तीर्थ । बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सोधे चढ़ने से चरणपादुका का स्थान आता है । उसके ऊपर उर्वशीकुण्ड तथा इसी पर्वत पर आगे कूर्मतीर्थ पड़ता है । यहाँ भगवान् विष्णु का कूर्म ( कच्छप) के रूप में पूजन होता है । कूर्म भूपृष्ठ का प्रतीक है, जो सभी जीवधारियों को धारण करता है । कूर्मद्वादशी - पौष शुक्ल द्वादशी । इस तिथि को कूर्म अव तार हुआ था, इसलिए विष्णु-नारायण की पूजा होती है । दे० वराह पुराण, अध्याय ४०; कृत्यरत्नाकर, ४८२-४८४ । घृत से परिपूर्ण ताम्रपात्र में एक कूर्म ( कछुए) की मूर्ति स्थापित करके उसके ऊपर मन्दराचल रखकर किसी सुपात्र को दान दिया जाता है। इस अनुष्ठान से भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूर्मद्वादशीव्रत-कृकलास १९७ कूर्मद्वादशीव्रत-भविष्य पुराण के अनुसार यह पौष शुक्ल कूर्मावतार-अवतारवाद का निरूपण पुराणों का प्रधान द्वादशी का व्रत है। इस व्रत में घृत भरे ताँबे के पात्र पर अङ्ग है । शैव पुराणों में शिव के अवतार तथा वैष्णव मन्दर पर्वत सहित कच्छप की मूर्ति रखकर पूजा की पुराणों में विष्णु के अगणित अवतारों का वर्णन पाया जाती है। जाता है । इसी प्रकार अन्य पुराणों में अन्य देवों के अवकूर्मपुराण-साधारणतया यह शैवपुराण है तथा इसमें तारों की चर्चा है। ये वर्णन निराधार नहीं कहे जा 'लकुलीश-पाशुपतसंहिता' की कुछ सामग्री उद्धृत है, जो सकते, क्योंकि ब्राह्मण तथा उपनिषदों में भी विविध अववायुपुराण में भी दृष्टिगोचर होती है। यह कुछ आगमों तारों की चर्चा है। शतपथ ब्राह्मण (१.४.३.५) में कूर्माएवं तन्त्रों की शिक्षा को व्यक्त करता है। वायुपुराण से वतार का वर्णन है । अधिकांश वैदिक ग्रन्थों के मत से कुछ न्यूनाधिक यह शिव के अट्ठाईस अवतारों तथा उनके कूर्म, वराह आदि अवतारों की जो कथा कही गयी है, शिष्यों का वर्णन भी प्रस्तुत करता है । इसमें कुछ शाक्त वह प्रजापति (ब्रह्मा) के अवतार की प्रकारान्तर में कथा तन्त्रों के भी उद्धरण हैं तथा शक्तिपूजा पर बल दिया है । वैष्णव पुराण इन्हीं अवतारों को विष्णु का अवतार गया है । यह अब भी निश्चित रूप से विदित नहीं है कि बतलाते हैं। किस शैव सम्प्रदाय के वर्णन इसमें प्राप्त है (केवल अव- कूष्माण्डदशमी-आश्विन शुक्ल दशमी। इस दिन शिव. तारों को छोड़कर, जो लकुलीश मत से सम्बन्धित है)। दशरथ तथा लक्ष्मी का कूष्माण्ड (कुम्हड़ा) के फूलों से कर्मपुराण के पूर्वार्द्ध में तिरपन अध्याय तथा उत्तरार्ध पूजन किया जाता है। चन्द्रमा को अर्घ्य दान करते हैं। में छियालीस अध्याय है। नारदपुराण आदि प्रायः सभी दे० गदाधरपद्धति, कालसार भाग, पृ० १२५ । पुराणों में जहाँ कूर्मपुराण की चर्चा आयी है, बराबर कूष्माण्डी-अम्बिका अथवा दुर्गा का एक पर्याय । कुष्माण्ड सत्रह हजार श्लोक बताये गये है। परन्तु प्रचलित प्रतियों की बलि से प्रसन्न होने के कारण दुर्गा कूष्माण्डी कही जाती में केवल छः हजार के लगभग ही श्लोक पाये जाते हैं। हैं । पवित्र मन्त्रों का नाम, जैसा वसिष्ठस्मृति में कथन है : नारदपुराण में जो विषयसूची दी हुई है उसकी आधी सर्ववेदपवित्राणि वक्ष्याम्यहमतः परम् । से कम ही सूची छपी पुस्तकों में पायी जाती है। ऐसा येषां जपैश्च होमैश्च प्रयन्ते नात्र संशयः ।। जान पड़ता है कि कूर्मपुराण के कुछ अंश तन्त्र ग्रन्थों में अघमर्षणं देवकृतः शुद्धवत्यस्तरत् समाः । मिला दिये गये हैं, क्योंकि नारदपुराणोक्त सूची के छूटे कूष्माण्डयः पावमान्यश्च दुर्गासावित्र्यथैव च ।। हुए विषय डामर, यामल आदि तन्त्रों में पाये जाते हैं । कूष्माण्डी एक लता भी है, जिसके फलों की बलि देने ___ मूलतः इस पुराण का रूप विशाल था। इसके उपलब्ध । से पाप दूर होते हैं । याज्ञवल्क्य के अनुसार, अंश से पता लगता है कि इसमें चार संहिताएं थीं-(१) त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा कूष्माण्डीभिघृतं शुचि । ब्राह्मी, (२) भागवती, (३) सौरी और (४) वैष्णवी । सुरापः स्वर्णहारी च रुद्रजापी जले स्थितः ।। इस समय केवल 'ब्राह्मी संहिता' ही मिलती है। इसी का [ तीन दिन उपवास करने के बाद कुष्माण्डी के फलों नाम कर्मपराण है । मत्स्य और भागवत पुराणों के अनुसार के साथ घृत का सेवन करने से और जल में बैठकर रुद्रमूल कूर्मपुराण में १८००० श्लोक थे, परन्तु वर्तमान कूर्म जप करने से मद्यपान एवं सुवर्णचोरी का पाप कट पुराण में केवल ६००० श्लोक पाये जाते हैं। इसके कर्म नाम जाता है।] पड़ने का कारण यह है कि भगवान् विष्णु ने कूर्मावतार । कुकलास-कृकलास (गिरगिट) का उल्लेख यजुर्वेद (तैत्तिधारण कर इस पुराण का उपदेश इन्द्रद्यम्न नामक राजारीय संहिता, ५. ५. १९. १; मैत्रायणो सं०, ३. १४. २१ को दिया था। इस पुराण में शिव ही प्रधान आराध्य तथा वाजसनेयी सं०, २४. ४०) में अश्वमेध यज्ञ की बलिदेवता के रूप में वर्णित हैं। इसमें यह मत प्रतिपादित पशुतालिका में हुआ है । 'कृकलासी' का भी ब्राह्मणों में किया गया है कि त्रिमूर्तियाँ-ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव एक उल्लेख है । 'त्रिकाण्डशेष' के अनुसार यह सूर्य का प्रतीक ही मूल सत्ता ब्रह्म के विभिन्न रूप है। शिव के साथ ही है, क्योंकि क्रमशः यह सूर्य के सभी रंगों को धारण करता शाक्तपूजा का भी इसमें विस्तृत वर्णन पाया जाता है। (बदलता ) है, महाभारत (१३.७०) के अनुसार सूर्यवंशी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ कृच्छ्व त-कृतयुग राजा नूग को ब्राह्मण की गौ का अपहरण करने के कारण द्वादशरात्रं निराहारः स कृच्छातिकृच्छ्रः । एतत्कृक्छ्रातिकृकलास योनि में जन्म धारण करना पड़ा था। कृच्छ्रद्वयं द्वादशाहसाध्यमशक्तविषयम् । कच्छवत-मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस ब्रत का प्रारम्भ [बारह दिन निराहार व्रत करने को कुच्छातिकृच्छ्र होता है । चार वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। कहते हैं । यह व्रत असमर्थों के लिए बारह दिन का है। इसके देवता गणेशजी हैं। एक वर्ष तक चतुर्थी को एक प्रायश्चित्तविवेक में ब्रह्मपुराण से निम्नांकित श्लोक उद्धृत समय आहार करके जीवनयापन करना चाहिए, द्वितीय वर्ष है, जिसके अनुसार यह व्रत इक्कीस दिन का होता है : रात्रि में भोजन करना चाहिए। तृतीय वर्ष बिना माँगे चरेत् कृच्छ्रातिकृच्छ्रञ्च पिबेत्तोयञ्च शीतलम् । जो मिल जाय उसे खाना चाहिए तथा चौथे वर्ष चतुर्थी एकविंशतिरात्रन्तु कालेष्वेतेषु संयतः ॥ के दिन पूर्णोपवास करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, १.५०१ घोर पापों के प्रायश्चित्त स्वरूप इस व्रत का विधान ५०४, स्कन्दपुराण । किया गया है। ___ यह पापों को दूर करता है, इसलिए 'कृच्छ' कहलाता कृतकोटि-(१) जिसने शास्त्रों की कोटि (सीमा अथवा है । याज्ञवल्क्य का कथन है : श्रेष्ठता) प्राप्त कर ली है उसको कृतकोटि कहते हैं । गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । 'त्रिकाण्डशेष' के अनुसार यह काश्यप अथवा उपवर्ष का जग्ध्वा परेयुपवसेत् कृच्छ सान्तपनं स्मृतम् ।। पर्याय है। यह शङ्कराचार्य की पदवी भी है। कच्छवतानि-कुछ व्रत कृच्छ्र माने जाते हैं । जैसे सौमायन, (२) प्रसिद्ध है कि ब्रह्मसूत्र पर बौधायन (एक वेदान्तातप्तकृच्छू, कृच्छातिकृच्छू, सान्तपन । यद्यपि ये प्राय चार्य) ने वृत्ति लिखी थी जिसको आचार्य रामानुज ने श्चित्त हैं तथापि हेपाद्रि में इनकी गणना व्रतों में की अपने भाष्य में उद्धृत किया है। जर्मन पण्डित याकोबी गयी है। शूद्रों के लिए इन व्रतों का निषेध है। कुछ का मत है कि बौधायन ने मीमांसासूत्र पर भी वृत्ति अन्य कृच्छ्र व्रतों का भी वर्णन मिलता है, जैसे कार्तिक लिखी है । प्रपञ्चहृदय नामक ग्रन्थ से यह बात सिद्ध होती कृष्ण सप्ती से पैताम्भ कृच्छ्र। इसमें चार दिन तक है और प्रतीत होता है कि बौधायननिर्मित वेदान्तवृत्ति क्रमशः केवल जल, दुग्ध, दधि तथा घृत ही लेना चाहिए, का नाम 'कृतकोटि' था (प्रपञ्चह०, पृ० ३९)। पुलवर एकादशी को उपवास तथा हरिपूजन का विधान है । पुराण, मणिमेखल आदि द्रविड भाषा के प्रबन्धों वैष्णव कृच्छ्र व्रत के समय 'मुन्यन्न' (नीवार के समान में बौधायनकृत मीमांसावृत्ति का कृतकोटि नाम एक धान्य) को तीन दिन तक खाना चाहिए। तदनन्तर से निर्देश है। तीन दिन तक यावक तथा तीन दिन तक उपवास करना कृतक्रिय-धार्मिक क्रिया सम्पन्न करनेवाला व्यक्ति । इसका चाहिए। सांकेतिक रूप किसी कर्म को समाप्त करना है। मनुस्मृति कृच्छातिकृच्छ-कृच्छ का अर्थ है कष्ट अथवा कठिन । (५.९९) के अनुसार : कठिन से कठिन व्रत को 'कृच्छातिकृच्छ्' कहते हैं । वसिष्ठ विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम् । के अनुसार : वैश्यः प्रतोदं रश्मीन् वा यष्टि शूद्रः कृतक्रियः ।। ___ अब्भक्षस्तृतीयः कृच्छ्रातिकृच्छ्रो यावत् सकृदादीत । [ कृतक्रिय ब्राह्मण जल स्पर्श करके, क्षत्रिय वाहन यावदेकवारमुदकं हस्तेन गृहीतु शक्नोति तावन्नवसु दिवसेषु अथवा अस्त्र-शस्त्र छूकर, वैश्य कोड़ा अथवा लगाम छूकर भक्षयित्वा त्र्यहमुपवासः कृच्छ्रातिकृच्छ्रः । और शूद्र यष्टि (लाठी) स्पर्श करके शुद्ध होता है।] [जिसमें केवल एक बार जल पिया जाता है वह कृच्छा- कृतयुग-वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू विश्व की चार सीमाएँ तिकृच्छ है । अथवा जिसमें प्रतिदिन एक बार हाथ से जल मानते हैं, जिन्हें 'युग' कहते हैं। ये हैं कृत, त्रेता, द्वापर ग्रहण कर नौ दिनों तक ऐसे ही रहा जाय और तीन दिन एवं कलि । ये नाम पासे के पहलुओं (पक्ष) के अनुसार पूर्ण (जलरहित) उपवास किया जाय वह कृच्छाति- रखे गये हैं। कृत सर्वोत्कृष्ट है, जिसके पहलू पर चार कृच्छ्र है ।] सुमन्तु के अनुसार : बिन्दु होते हैं, ता पर तीन, द्वापर पर दो एवं कलि Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्ति-कृत्तिकास्नान १९९ पर एक बिन्दु हाता है, अर्थात् क्रम से प्रत्येक में एक-एक मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल बिन्दु कम होता जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों, रामायण-महाभारत के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और एवं पुराणों में उपर्युक्त पासों के पक्षबिन्दुओं के अनुसार अनुगृहीत हूँ। काल से तो सभी मरते हैं, परन्तु इस प्रकार इनके नाम रखने का अर्थ यह है कि कृत सबसे चौगुना लम्बा की मृत्यु कल्याणकारी है। कृपानिधि शंकर ने हंसते हुए एवं सर्वगुणसम्पन्न युग है तथा क्रम से युगों में गुण एवं कहा-हे गजासुर ! मैं तुम्हारे महान् पौरुष से प्रसन्न हूँ। आयु का ह्रास होता जाता है। कृत की आयु ४४०० हे असुर, अपने अनुकूल वर माँगो, तुमको अवश्य दूंगा। दिव्य वर्ष है, वेता की ३३००, द्वापर की २२०० तथा कलि उस दैत्य ने शिव से पुनः निवेदन किया, हे दिग्वास! यदि की ११०० दिव्य वर्ष है। एक दिव्य वर्ष १००० मानव- आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे सदा धारण करें। यह मेरी वर्ष के बराबर होता है। कृत्ति (चर्म) आपकी त्रिशूलाग्नि से पवित्र हो चुकी है । ___ कृतयुग हमारे सामने मनुष्यजाति की सबसे सुखी यह अच्छे आकार वाली, स्पर्श करने में सुखकर और युद्ध अवस्था को प्रस्तुत करता है । मनुष्य इस युग में ४००० में पणीकृत है । हे दिगम्बर ! यदि यह मेरो कृत्ति पुण्यवती वर्ष जीता था । न तो युद्ध होते थे न झगड़े। वर्णाश्रमधर्म नहीं होती तो रणाङ्गण में इसका आपके अंग के साथ तथा वेद की शिक्षाओं का पूर्णरूपेण पालन होता था । सम्पर्क कैसे होता ? हे शंकर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो अच्छे गुणों का दृढ शासन था। कलि ठीक इसके विपरीत एक दूसरा वर दीजिए । आज के दिन से आपका नाम गुणों का बोधक युग है । दे० 'कलियुग ।' कृत्तिवासा हो। उसके वचन को सुनकर शंकर ने कहा, कृत्ति-मरुत् देवता के एक अस्त्र का नाम । ऋग्वेद में उद्धृत ऐसा ही होगा। भक्ति से निर्मल चित्त वाले दैत्य से उन्होंने (१.१६८.३) मरुतों को 'कृत्ति' धारण करने वाला कहा गया है। जिमर ने इस शब्द का अर्थ 'खड्ग' लगाया है, हे पुण्यनिधि दैत्य ! दूसरा वर अत्यन्त दुर्लभ है। जिसे युद्ध में धारण किया जाता था। किन्तु इसका कोई अविमुक्त (काशी) में, जो मुक्ति का साधन है, तुम्हारा प्रमाण नहीं है कि उस समय कृत्ति एक मानवीय अस्त्र था। यह पुण्यशरीर मेरी मूर्ति होकर अवतरित होगा, जो सबके कृत्तिवासा-कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र के रूप में धारण लिए मक्ति देनेवाला होगा। इसका नाम 'कृत्तिवासेश्वर करने वाले । यह शिव का पर्याय है । स्कन्दपुराण के होगा । यह महापातकों का नाश करेगा। सभी मतियों में काशीखण्ड (अध्याय ६४) में गजासुरवध तथा शिव के यह श्रेष्ठ और शिरोभूत होगा।" कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है, यथा कृत्तिकावत-यह व्रत कार्तिकी पूर्णिमा के दिन प्रारम्भ "महिषासुर का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से होता है। इसमें किसी पवित्र स्थान पर स्नान करना उन्मत्त होकर सभी देवताओं का पोडन कर रहा था। चाहिए, जैसे प्रयाग, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, नैमिषारण्य, मलयह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था वहाँ तुरन्त स्थान और गोकर्ण, अथवा किसी भी नगर अथवा ग्राम में सभी दिशाओं में भय छा जाता था। ब्रह्मा से वर पाकर स्नान किया जा सकता है। सुवर्ण, रजत, रत्न, नवनीत वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभि- तथा आटे की छः कृत्तिका नक्षत्रों की मूर्तियों का पूजन भूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस करना चाहिए । मूर्तियाँ चन्दन, आलक्तक तथा केसर से दैत्यपुङ्गव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने चचित तथा सज्जित होनी चाहिए। पूजा में जाती पुष्पों मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध का प्रयोग करना चाहिए। किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने को छत्र के कृत्तिकास्नान-इस व्रत में भरणी नक्षत्र के दिन उपवास समान टॅगा हुआ जानकर वह शिव की शरण में गया करना चाहिए। कृत्तिका नक्षत्र वाले दिन पुरोहित द्वारा और बोला-हे त्रिशूलपाणि! है देवताओं के स्वामी ! यजमान तथा उसकी पत्नी को सोने के कलश अथवा मैं आपको कामदेव को भस्म करने वाला जानता हूँ । हे। पवित्र जल तथा वनस्पतियों से परिपूर्ण मिट्टी के कलश पुरान्तक! आपके हाथों मेरा बध श्रेयस्कर है। कुछ मैं द्वारा स्नान कराना चाहिए। इसमें अग्नि, स्कन्द, चन्द्र, कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें । हे मृत्युञ्जय! कृपाण तथा वरुण के पूजन का विधान है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कृत्यकल्पतरु-कृष्ण कृत्यकल्पतरु-धर्मशास्त्र का एक निबन्ध-ग्रन्थ । इसके कृष्णदत्त लौहित्य-(लौहित्य के वंशज) : जैमिनीय उपरचयिता गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक निषद् ब्राह्मण (३.४२.१) की एक गुरुशिष्य-सूची में इन्हें लक्ष्मीधर थे। रचनाकाल बारहवीं शताब्दी है। यह श्याम सुजयन्त लौहित्य का शिष्य कहा गया है। विशाल ग्रन्थ था किन्तु इसकी पूरी पाण्डुलिपि उपलब्ध कृष्ण-( महाभारत तथा भागवत के : ) इनके ऐतिहासिक नहीं है। यह बारह काण्डों में विभक्त था। उपलब्ध स्वरूप का वर्णन उपस्थित करना एक ग्रन्थ रचना का पाण्डुलिपियों से ज्ञात है कि इसका ग्यारहवाँ काण्ड राज- विषय है। महाभारत में कृष्ण एक स्थान पर मानवीय धर्म और बारहवाँ व्यवहार है। पूरे ग्रन्थ का नाम तो नायक, दूसरे स्थान पर अर्धदेव (विष्णु के अंशावतार) कृत्यकल्पतरु है किन्तु इसके अन्य नाम कल्पतरु, कल्पद्रुम, एवं अन्य स्थान पर पूर्णावतार (एक मात्र ईश्वर) के रूप कल्पवृक्ष आदि भी प्रचलित हैं। इसकी सर्वाधिक पूर्ण में देख पड़ते हैं, जिन्हें आगे चलकर ब्रह्म अथवा परमात्मा पाण्डुलिपि महाराणा उदयपुर के ग्रन्थालय में सुरक्षित है। इसमें बारह काण्ड और ११०८ पन्ने हैं। इसके __ कृष्ण का जन्म द्वापर के अन्त में मथुरा में अन्धकबारह काण्ड निम्नाङ्कित हैं : वृष्णि गणसंघ में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुदेव १. ब्रह्मचारी तथा माता का नाम देवकी था। उन दिनों इनके नाना २. गृहस्थ ८. तीर्थ देवक के भाई उग्रसेन इस संघ के गणमुख्य थे। उनका ३. नैयत काल ९.४ पुत्र कंस एकतन्त्रवादी था। वह उग्रसेन को उनके पद से ४. श्राद्ध १०. शुद्धि हटाकर स्वयं राजा बन बैठा। कृष्ण उसके विरोधी थे। ५. प्रतिष्ठा ११. राजधर्म कंस ने कृष्ण को मारने की बड़ी चेष्टा की, जिसकी अति६. प्रतिष्ठा १२. व्यवहार । रञ्जित कहानियाँ भागवत-पुराण में वर्णित हैं। इनसे दो और काण्ड पाये जाते हैं : १३. शान्तिक और कृष्ण के अद्भुत पुरुषार्थ का परिचय मिलता है। अन्त १४. मोक्ष । मनमोहन चक्रवर्ती (जर्नल ऑफ द एशियाटिक में उन्होंने कंस का बध कर उग्रसेन को पुनः गणमुख्य सोसायटी ऑफ बंगाल, १९१५, पृ० ३५८-५९) का सुझाव बनाया। कंस के बध से उसका सहायक और श्वशुर, है कि लुप्त सातवाँ काण्ड पूजा तथा नवाँ प्रायश्चित्त था। मगध का शासक जरासंध बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने चेदिकृष्ण-ऋग्वेद को एक ऋचा (८.८५.३-४ ) में राज शिशुपाल और यवन कालनेमि की सहायता से मथुरा 'कृष्ण' किसी ऋषि का नाम है। उन्हें अथवा उनके पुत्र । पर सत्रह बार आक्रमण किया। कृष्ण को विवश होकर को ( ऋग्वेद, ८.२६ ) मन्त्रद्रष्टा कहा गया है। मथुरा छोड़ द्वारका जाना पड़ा । कृष्ण के नेतृत्व में यादवों 'कृष्णीय' शब्द गोत्रवाचक है जो ऋग्वेद की दो ऋचाओं ने सुराष्ट्र में एक नये राज्य की स्थापना की। कृष्ण ने में उद्धृत है, जहाँ विश्वक् कृष्णीय के लिए विष्णापू को अपनी योग्यता के बल पर अखिल भारतीय राजनीति में अश्विनी ने किसी रोग से मुक्ति देकर बचाया था। इस प्रमुख स्थान ग्रहण किया। अवस्था में कृष्ण, विष्णापू के पितामह प्रतीत होते हैं । ___इसी बीच हस्तिनापुर के कौरवों और पाण्डवों में राज्य कौषीतकि ब्राह्मण (३०.९) में उद्धृत कृष्ण आंगिरस के बँटवारे के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। कृष्ण पाण्डवों एवं उपर्युक्त कृष्ण एक ही जान पड़ते हैं। के सहायक थे । पहले इन्होंने प्रयत्न किया कि शान्ति के कृष्ण देवकीपुत्र-छान्दोग्य उपनिषद् में कृष्ण देवकीपुत्र घोर साथ पाण्डवों को अधिकार मिल जाय । कौरवों के दुरा आङ्गिरस के शिष्य के रूप में उद्धृत हैं । परम्परा तथा ग्रह के कारण युद्ध हुआ। इसी युद्ध का नाम महाभारत आधुनिक विद्वान् ग्रियर्सन, गार्वे आदि ने इन्हें महा- है । वास्तव में महाभारत के कथाकार व्यास और सूत्रभारत के नायक कृष्ण के रूप में माना है, जिन्हें आगे धार कृष्ण थे। महाभारत के प्रारम्भ में पाण्डव अर्जुन चलकर देवत्व प्राप्त हो गया। को कुलक्षय की आशंका से जो व्यामोह हआ उसका निराकृष्ण हारीत-ऐतरेय आरण्यक में इन्हें एक आचार्य कहा करण कृष्ण ने भगवद्गीता के उपदेश से किया, जो नीतिगया है। दर्शन की उत्कृष्ट कृति है। कृष्ण बहुत बड़े दार्शनिकनीक महा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णकर्णामृत - कृष्णचेतन्य भी थे। इसीलिए इनको योगेश्वर एवं जगद्गुरु (कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ) की उपाधि मिली। इनकी सहायता से पाण्डव विजयी हुए और युधिष्ठिर ( पाण्डवों में श्रेष्ठ ) की अध्यक्षता में पाण्डवराज्य की स्थापना हुई । कृष्ण इसके पश्चात् द्वारका लौट आये । गृहयुद्ध से उनके यदुवंश का विध्वंस हुआ जंगल में एक व्याथ के बाण से स्वयं उनका भी निधन हुआ । कृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रभावशाली था। वे राजनीति के बहुत बड़े ज्ञाता और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित थे । धार्मिक जगत् में भी वे नेता और प्रवर्तक थे । उन्होंने समुच्चयवादी (ज्ञान-कर्म-भक्तिसमन्वयी) भागवत धर्म का प्रवर्तन किया । अपनी योग्यताओं के कारण वास्तव में वे युगपुरुष थे, जो आगे चल कर युगावतार के रूप में स्वीकार किये गये । पुराणों में कृष्ण का वर्णन ईश्वर के पूर्णावतार के रूप में है। पूर्णावतार का साङ्गोपाङ्ग रूपक भागवत पुराण में पाया जाता है। दुष्टों का अत्याचार, अवतार का उद्देश्य, कारागार में जन्म, योगमाया का जन्म, गोचारण, गोप तथा गोपियाँ, उनका अनन्य प्रेम, दुष्टदलन, कंसवध, रास, वेदान्त शिक्षण आदि का विस्तृत वर्णन और निरूपण इस पुराण तथा अन्य पुराणों में उपलब्ध है । हरिवंश ( महाभारत के परिशिष्ट) में कृष्ण की कथा दुबारा कही गयी है । कृष्ण ने जिस भागवत धर्म का प्रवर्तन किया था, आगे चलकर उसमें वे स्वयं उपास्य मान लिये गये । दर्शन में इतिहास का उदात्तीकरण हुआ और कृष्ण के ईश्वरत्व और ब्रह्मपद की प्रतिष्ठा हुई। भागवत-वैष्णव धर्म आज भारत का बहुमानित और प्रतिष्ठित धर्म है। भारत में इसके सम्प्रदायों तथा उपसम्प्रदायों का व्यापक प्रचार हुआ है । दे० 'अवतार' । कृष्णकर्णामृत विष्णु स्वामी मत के अनुयायी बिल्वमङ्गल द्वारा रचित एक संस्कृत काव्य, जिसके विषय राधा तथा कृष्ण हैं । कानों में अमृत सींचने के समान यह बड़ी मधुर श्रव्य रचना है । - कृष्ण चतुर्दशी (शिवरात्रि ) - (१) फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव इसके देवता हैं । भगवान् शिव के चौदह नामों के जप का विधान है । चौदह वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। २६ २०१ ( २ ) केवल महिलाओं के लिए इसका विधान है । कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए। शिव इसके देवता हैं । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए । (३) माघ मास के कृष्ण भगवान् शिव की बिल्वपत्रों से विविध चरितों कृष्ण पूर्णावतार दिन भगवान् शङ्कर की प्रतिमा के सम्मुख गुग्गुल जलाना चाहिए । कृष्णचरित - वैष्णव पुराणों में कृष्ण के का वर्णन कई दृष्टियों से हुआ है। अथवा षोडशकला - अवतार माने गये हैं । अतः इनके जीवन में विविधता और जीवन के सभी वैषम्य समन्वित हैं। कृष्ण का वाह्यतः विरोधात्मक चरित्र बहुतों को भ्रम में डाल देता है । परन्तु इसके मूल में समन्वयात्मक एकता वर्तमान है । अतः इनके भक्तों के लिए वैषम्य प्रतीयमान है; वास्तविक नहीं कृष्ण के पूर्णावतार में समग्र जीवन का चित्रण है । भागवत और महाभारत में कृष्णचरित का पूरा विकास पाया जाता है। कृष्ण चैतन्य सोलहवीं शती के प्रारम्भ में दो नये सम्प्र दाय चैतन्य एवं वल्लभ उत्पन्न हुए । इनमें चैतन्य का मत प्रथम है तथा इसकी शिक्षाएँ तथा अन्य धार्मिक विधियाँ पूर्व के अन्य सम्प्रदायों के समीप हैं । कृष्ण चैतन्य का बालनाम विश्वम्भर था। ये बङ्गाल के नदिया ( नवद्वीप ) नामक प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र में उत्पन्न हुए थे । बचपन में ही ये तर्क एवं व्याकरण के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध हो गये । १५०७ ई० में ईश्वर पुरी ( माध्व संन्यासी ) से प्रभावित होकर भागवत पुराण में वर्णित भक्ति को इन्होंने अपने जीवन में गम्भीरता से ग्रहण किया। इसके पश्चात् इन्होंने अपना उपदेश आरम्भ किया तथा इनके अनेक शिष्य हो गये, जिनमें अद्वैताचार्य ( एक वृद्ध एवं सम्माननीय वैष्णव विद्वान् ) एवं नित्यानन्द ( जो बहुत दिन तक माध्व थे ) उल्लेखनीय हैं । इसी समय इन पर निम्बार्की एवं विष्णुस्वामियों का बड़ा प्रभाव पड़ा तथा ये जयदेव, चण्डीदास एवं विद्यापति के गीतों में आनन्द लेने लगे । इस प्रकार इन्होंने अपने माध्व शिक्षक से विलग होकर राधा को अपने विचार एवं आराधना में प्रधानता दी। ये अधिकांश समय शिष्यों के साथ मिलकर राधा-कृष्ण की पक्ष की चतुर्दशी को पूजा करनी चाहिए । इस Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कृष्णजन्मखण्ड-कृष्णदास अधिकारी स्तुतियाँ ( संकीर्तन ) गाने में व्यतीत करने लगे । प्रायः कहा जाता है । बंगला भाषा में चैतन्य के ऊपर बहुत बड़ा ये शिष्यों को लेकर नगर कीर्तन किया करते । ये नये साहित्य विकसित हुआ है, जो जनता में बहुत लोकमार्ग आगे चलकर बड़े ही लोकप्रिय सिद्ध हुए । प्रिय है। कृष्णजन्मखण्ड-ब्रह्मवैवर्तपुराण का एक अंश । एक स्व१५०९ ई० में इन्होंने केशव भारती से संन्यास की दीक्षा ली एवं 'कृष्ण चैतन्य' नाम धारण किया। फिर तन्त्र ग्रन्थ के रूप में वैष्णवों में इसका बहुत आदर है । उड़ीसा में जगन्नाथमन्दिर, पुरी, चले गये। कुछ वर्षों निम्बार्क सम्प्रदाय का यह प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। कृष्णजयन्ती-देवताओं के जन्मोत्सव उनकी अवतरण तक अपना सम्पूर्ण समय उत्तर तथा दक्षिण भारत की की तिथियों पर मनाये जाते हैं। इनमें रामजयन्ती, यात्रा में बिताया। वृन्दावन इनको बहुत प्रिय था, जो कृष्णजयन्ती एवं विनायकजयन्ती ( गणेशचतुर्थी ) विशेष राधा की रासभूमि थी। ये इस समय नवद्वीपवासियों प्रसिद्ध हैं। कृष्णजयन्ती विष्णु के अवतार के रूप में द्वारा कृष्ण के अवतार माने जाने लगे तथा इनका सम्प्र मनायी जाती है। कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी दाय प्रसिद्ध हो गया। १५१६ ई० से ये पुरी में रहने लगे। को हुआ था। इस दिन भगवान् की मूर्ति को सजाते हैं, यहाँ पर इनके कई शिष्य हुए। इनमें सार्वभौम, प्रताप झूले पर झुलाते हैं, संकीर्तन व भजन करते एवं व्रत रुद्र ( उड़ीसा के राजा ) तथा रामानन्द राय ( प्रताप रखते हैं तथा जन्मकाल (१२ बजे रात ) व्यतीत हो रुद्र के मन्त्री) प्रसिद्ध हैं। दो बड़े विद्वान् शिष्य इनके जाने पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस समय भागवत और हुए जिन्होंने आगे चलकर चैतन्य सम्प्रदाय के पुराण का पाठ किया जाता है, जिसमें भगवान् कृष्ण की धार्मिक नियमों एवं दर्शनों के स्थापनार्थ ग्रन्थों की रचना जन्मकथा वणित है। की। ये थे रूप एवं सनातन । और भी दूसरे शिष्यों ने ___ अर्ध रात्रि में अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र होने राधा-कृष्ण तथा चैतन्य की प्रशंसा में गीत लिखे। इनमें पर यह पर्व कृष्णजयन्ती कहा जाता है, इस योग में से नरहरि सरकार, वासुदेव घोष एवं वंशीवादन कुछ हेरफेर होने पर इसको कृष्णजन्माष्टमी कहते हैं। प्रमुख थे। कष्णदास कविराज-चैतन्य साहित्यमाला में अति प्रख्यात चैतन्य न तो व्यवस्थापक थे और न लेखक । इनके ग्रन्थ 'चैतन्यचरितामृत' की रचना कृष्णदास कविराज सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य सँभाला नित्यानन्द ने ने वृन्दावन के समीप राधाकुण्ड में सात वर्ष के अनवरत तथा धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों की स्थापना की परिश्रम से १५८२ ई० में पूरी की थी। इसमें सम्प्रदाय के रूप एवं सनातन ने। इनका कुछ नया सिद्धान्त नहीं नेता कृष्णचैतन्य का सम्पूर्ण जीवन बड़ी अच्छी शैली में था। किन्तु सम्भवतः चैतन्य ने ही मध्व के द्वैत की वणित है। दिनेशचन्द्र सेन के शब्दों में 'बँगला भाषा में अपेक्षा निम्बार्क के भेदाभेद को अपने सम्प्रदाय का दर्शन रचित यह ग्रन्थ चैतन्य तथा उनके अनुयायियों की माना। इनके आधार ग्रन्थ थे भागवत पुराण ( श्रीधरी शिक्षाओं को प्रस्तुत करनेवाला सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।' व्याख्या सहित ), चण्डीदास, जयदेव एवं विद्यापति के कृष्णदास (माध्व)-सोलहवीं शती के एक वैष्णव आचार्य । गीत, ब्रह्मसंहिता तथा कृष्णकर्णामृत काव्य । लोगों पर इन्होंने कन्नड भाषा में पद्यात्मक रचना की है, जिसका इनके प्रभाव का मुख्य कारण था धार्मिक अनुभव, प्रभाव- विषय माध्वसम्प्रदाय तथा दर्शन है। शाली भावावेश (जब ये कृष्ण की मूर्ति की ओर देखते तथा कृष्णदास अधिकारी-वल्लभाचार्य के अष्टछाप साहित्यउनके प्रेम पर भाषण करते थे) तथा कृष्णभक्ति की निर्माताओं में से एक भक्त कवि । इनका जन्म गुजरात के संस्पर्शयुक्त एवं हार्दिक प्रशंसा की नयी प्रणाली। राधा- पाटीदार वंश में सोलहवीं शती के मध्य हुआ था। कृष्ण की कथा को ही इन्होंने अपनी आराधना का बल्लभाचार्य के प्रभावशाली पुत्र गुसाँई विट्ठलनाथजी माध्यम बनाया, क्योंकि इनका कहना था कि हमारे पास का संरक्षण और श्रीनाथजी की पूजा-अर्चा का प्रबन्धभार मनुष्यों का सबसे अधिक हृदय स्पर्श करने वाली कोई कुछ वर्ष इनके अधीन था। सम्प्रदायसेवा के साथ ही ये और गाथा नहीं है । इनका मत 'गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय' भक्तिपूर्ण पदरचना भी करते थे। उत्सवों के समय इन Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णद्वादशी-कृष्णलीलाभ्युदय २०३ पदों का शास्त्रीय गायन पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में अब भी कृष्ण-बलरामावतार-भगवान् विष्णु का कृष्णावतार अष्टम प्रचलित है। पूर्णावतार के रूप में माना जाता है। कहा भी गया है : कृष्णद्वादशी-आश्विन कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनु- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।' सभी ष्ठान होता है। द्वादशी के दिन उपवास तथा वासुदेव के अवतार अंशावतार हैं, किन्तु कृष्ण-अवतार पूर्णावतार होने पूजन का विधान है। वासुदेवद्वादशी के नाम से भी यह के कारण साक्षात् भगवत्स्वरूप है। कृष्ण के अवतार प्रसिद्ध है। के साथ उनके बड़े भाई बलराम अंशावतार के रूप में कृष्णदेव-विजयनगर के एक यशस्वी राजा (१५०९-२९ अवतरित हुए थे। ई०)। ये विद्या और कला के प्रसिद्ध आश्रयदाता थे। इनके बलराम और कृष्ण की उत्पत्ति के पूर्व पृथ्वी असुरसमय में दक्षिण में हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान हुआ। इनके भार से पीड़ित होकर गौ के रूप में रोती हुई ब्रह्मा के राजपण्डितों ने कर्ममीमांसा का उद्धार किया, वेदों का पास गयी एवं ब्रह्मादि सभी देवताओं ने मिलकर पृथ्वी भाष्य लिखा एवं दर्शन तथा स्मृतियों का संग्रह किया। की रक्षा के लिए भगवान् की प्रार्थना की। उस समय इनकी राजसभा के दो महान् आचार्य थे दो भाई सायण कंस एवं जरासन्ध आदि बलवान् असुरों से संसार पीड़ित (वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार) और माधव (दार्शनिक तथा था। धर्म पतन की ओर जा रहा था। दूसरी ओर दुर्योधर्मशास्त्री)। धन आदि कौरववंशीय राजाओं के अत्याचारों से राजा कृष्ण द्वैपायन-वेदान्त दर्शन अथवा ब्रह्मसूत्र के मान्य और प्रजा दोनों में ही भयंकर पापवृद्धि हो रही थी। लेखक बादरायण थे। भारतीय परम्परा इन्हें वेदव्यास इधर शिशुपाल, दन्तवक्र, के द्वारा भी संसार अत्यधिक तथा कृष्ण द्वैपायन भी कहती है। किन्तु इनके जीवन के पीड़ित था। इस प्रकार इस भयंकर भार से पृथ्वी के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। महाभारत के अनुसार उद्धार के लिए तथा धर्मरक्षणार्थ भगवान् का पूर्णावये ऋषि पराशर तथा धीवरकन्या सत्यवती से उत्पन्न तार हुआ। हुए थे । माता ने संकोचवश इनको एक द्वीप में रख दिया था, जहाँ इनका पालन-पोषण हुआ। इसीलिए ये द्वैपायन लिखे हैं उनमें एक कृष्णभट्ट भी है। (द्वीप में पालित) कहलाये। भारतीय परम्परा के अनुसार कष्णमिश्र-जेजाकभुक्ति के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा (११२९ये वैदिक संहिताओं के संकलनकर्ता एवं सम्पादक एवं अठारह ११६३ ई०) के राजकवि और गुरु । इन्होंने प्रबोधपुराणों तथा महाभारत के रचयिता थे । भारतीय साहित्य चन्द्रोदय नामक प्रतीकात्मक नाटक की रचना की। जनके इतिहास में इनका स्थान अद्वितीय है । इनके ग्रन्थ पर श्रुति के अनुसार जब कीर्तिवर्मा ने चेदिराज कर्ण पर वर्ती भारतीय साहित्य के उपजीव्य हैं । दे० 'व्यास'। विजय प्राप्त की तो युद्ध में रक्तपात देखकर उसके मन में कृष्णदोलोत्सव-चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को इस व्रत । वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय कृष्णमिश्र ने कीर्तिवर्मा का अनुष्ठान होता है। भगवान् कृष्ण की प्रतिमा (लक्ष्मी के मनोरञ्जन के लिए बड़ी पटुता से इस नाटक की सहित) किसी झूले में विराजमान करके उसका दमनक रचना की। यह दार्शनिक नाटक है और इसमें अद्वैत नामक पत्तियों से पूजन करना चाहिए। रात्रि में जागरण वेदान्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसकी का विधान है । दे० स्मृतिकौस्तुभ, १०१ । शैली रूपकात्मक है । इसके पात्र विवेक, प्रबोध, साधन कृष्णध्यानपद्धति-अप्पय दीक्षित कृत 'कृष्णध्यानपद्धति' और उनके विरोधी मनोविकार हैं। इसमें दर्शाया गया है एवं उसकी व्याख्या एक उत्कृष्ट रचना है । यह वैष्णवों में कि किस प्रकार मानव सांसारिक विकारों और प्रपञ्चों से अति प्रिय और प्रसिद्ध ग्रन्थ है। मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इसमें विरोधी मतों कृष्णप्रेमामृत-वल्लभ संप्रदाय का एक मान्य ग्रन्थ । इसका और पाखण्डों का खण्डन किया गया है। दे० प्रबोधनिर्माणकाल १५३१ ई० के लगभग है। विट्ठलनाथजी चन्द्रोदय । ने इसकी रचना की थी। अत्यन्त ललित छन्दों में कृष्ण- कृष्णलीलाभ्युदय--भागवत पुराण के दशम स्कन्ध का यह भक्ति की अभिव्यक्ति इसमें की गयी है। कन्नड अनुवाद १५९० ई० के लगभग बेङ्कट आनामक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कृष्णषष्ठी-केतु एक आचार्य ने किया था। यह कर्णाटक में उसी प्रकार कृष्णपिङ्गला-दुर्गा का एक पर्याय (कृष्ण-पिङ्गल वर्णलोकप्रिय है, जिस प्रकार हिन्दी क्षेत्र में प्रेमसागर और युक्ता)। कहीं-कहीं शिव को भी कृष्ण-पिङ्गल रूप में सुखसागर । सम्बोधित किया गया है : कृष्णषष्ठी-(१) मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी को इस व्रत का ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिङ्गलम् । अनुष्ठान होता है । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना ऊर्ध्वलिङ्गं विरूपाक्षं विश्वरूपं नतोऽस्म्यहम् ।। चाहिए। सूर्य का प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामों से कृष्ण यजुर्वेद-यजुर्वेद का प्राचीन पाठ, जिसमें मन्त्रों के साथ पूजन होना चाहिए। ब्राह्मण भाग भी मिला हुआ है। मन्त्र-ब्राह्मण के पार्थक्य (२) मास के दोनों पक्षों की षष्ठी को एक वर्षपर्यन्त के समझने में दुरूहता होने के कारण इसको कृष्ण यजुर्वेद इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए । नक्त भोजन करना कहा जाने लगा। इसके पाठविवेचन में याज्ञवल्क्य ऋषि चाहिए तथा स्वामी कार्तिकेय को अर्घ्य देना चाहिए। का गुरु से मतभेद हो गया था, तब गुरु ने उनसे अपना वेद कृष्णस्तवराज-निम्बार्काचार्य द्वारा रचित एक छोटा स्तोत्र उगलवा लिया (छीन लिया)। बाद में याज्ञवल्क्य मन्त्रग्रन्थ । यह निम्बार्कसम्प्रदाय में बहुत लोकप्रिय है। किन्तु यह ब्राह्मण का 'शुक्ल यजुर्वेद' के नाम से अलगाव कर पाये। निश्चित नहीं है कि यह आद्य आचार्य की रचना है या कृष्णसार मृग-काली पीठ वाला पुराना हिरन । धर्मशास्त्र बाद के किसी आचार्य की। के अनुसार ऐसे मृग जिस क्षेत्र में स्वच्छन्द घूमते हैं, वह कृष्णानन्द-तैत्तिरीयोपनिषद् पर अनेक भाष्य और वृत्तियाँ तपस्या के योग्य पवित्र माना गया है। शिकारियों के क्रूर हैं । कृष्णानन्द स्वामी की भी एक वृत्ति इस पर है। हिंसाकर्म से बचे रहने पर हिरन काले पड़ जाते हैं, अतः कृष्णानन्द वागीश-शाक्त साहित्य के उन्नीसवीं शती के । ऐसा निष्पाप स्थान शुद्ध समझा जाता है। प्रमुख आचार्य । इन्होंने 'तन्त्रसार' नामक ग्रन्थ की रचना कृष्णा-कालिन्दी या यमुना नदी का एक नाम । की है। पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी का नाम भी कृष्णा है। कृष्णामृतमहार्णव-मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ । इसकी एक काली देवी भी कृष्णा कही जाती है। टीका आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने १८ वीं शती में कृष्णा नदी-दक्षिण भारत की पुण्यसलिला नदी। इसके लिखी है। पर्याय हैं कृष्णवेण्या, कृष्णगङ्गा आदि । महाभारत (६.९. कृष्णार्चनवीपिका-सोलहवीं शती में चैतन्यमत के प्रसिद्ध ३३) में इसका निम्नाङ्कित उल्लेख है : आचार्य जीव गोस्वामी द्वारा विरचित ग्रन्थ । इसमें श्री सदा निरामयां कृष्णां मन्दगां मन्दवाहिनीम् । कृष्ण की सेवा-पूजा का विधान भली भाँति वर्णित है। [कृष्णा सदा पवित्र, मन्द गति और मन्द प्रवाह वाली है।] राजनिघण्टु के अनुसार इसके जल के गुण स्वच्छत्व, कृष्णालङ्कार-अप्पय दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' पर ___ रुच्यत्व, दीपनत्व तथा पाचकत्व हैं । अच्युत कृष्णानन्दतीर्थ कृत टीका । टीका की रचना में केतु-नव ग्रहों में से अन्तिम । इसकी गणना दुष्ट ग्रहों में इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है। है। यह राहु (ग्रसने वाले ग्रह) का शरीर (धड़) माना कृष्णावतार-दे० 'कृष्ण' तथा 'कृष्ण-बलरामावतार'। जाता है। ज्योतिषतत्व में इसकी रिष्टि (कुफल) का वर्णन कष्णाष्टमीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का इस प्रकार पाया जाता है: अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना केतुर्यस्मिन्नृक्षेऽभ्युदितस्तस्मिन् प्रसूयते जन्तुः । चाहिए। शिव इसके देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् रौद्रे सर्पमुहर्ते वा प्राणः संत्यजत्याशु ।। शिव का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन तथा प्रत्येक मास में [आर्द्रा, आश्लेषा अथवा केतु जिस नक्षत्र में हो, इन भिन्न-भिन्न नैवेद्य पदार्थों का अर्पण करना चाहिए। नक्षत्रों में जन्म लेने वाले व्यक्ति को प्राणसंकट होता है।] कृष्णोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें कृष्ण का इसके दशाफल का पूर्ण वर्णन केरलीयजातक नामक दार्शनिक रूप व्याख्यात हुआ है । वैष्णव सम्प्रदाय में इसका ग्रन्थ में पाया जाता है। दूरसंचारी धूमकेतु नामक उपविशेष आदर है। ग्रह भी केतु कहे गये हैं । ज्योतिष ग्रन्थों के केतुचाराध्याय Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केदारगौरीव्रत-केवल २०५ में उनकी गति और क्रूर फल का विस्तृत वर्णन मिलता जनमेजय ने क्षीरगङ्गा, स्वर्गद्वारगङ्गा, सरस्वती और है। दे० गर्गसंहिता, बृहत्संहिता आदि ग्रन्थ । आधुनिक मन्दाकिनी के सङ्गम के बीच के भूक्षेत्र का दान इस ग्रन्थकारों में मथुरानाथ विद्यालङ्कार ने अपने समयामृत उद्देश्य से किया कि आनन्द लिङ्ग जङ्गम के शिष्य केदारनामक ग्रन्थ में केतु के उत्पातों का सविस्तार विवरण क्षेत्रवासी ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से भगवान् किया है। केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें। अभिलेख के अनुसार __ ऋग्वेद (१०.८.१) में सूर्य और उसकी रश्मियों के लिए यह दान उन्होंने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधि'केतु' शब्द का प्रयोग हुआ है (देवं वहन्ति केतवः)। ष्ठिर के राज्यारोहण के नवासी वर्ष बीतने पर प्लवङ्गम केदार-गौरीव्रत-कार्तिकी अमावस्या के दिन इस व्रत का नामक संवत्सर में किया था । भूतपूर्व टीहरी राज्य के राजा अनुष्ठान होता है। इस तिथि को गौरी तथा केदार शिव इस पीठ के शिष्य हैं और भारत के तेरह नरेश (जिनमें के पूजन का विधान है। 'अहल्याकामधेनु' के अनुसार नेपाल, कश्मीर और उदयपुर भी हैं) प्रति वर्ष अपनी ओर यह व्रत दाक्षिणात्यों में विशेष प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में से पूजा और भेंट करते रहे हैं। इस मठ के अधीन अनेक पद्मपुराण से एक कथा भी उद्धृत की गयी है। शाखामठ है। केदारनाथ-शिव का एक पर्याय । इसकी व्युत्पत्ति इस केनोपनिषद-सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छान्दोग्य एवं प्रकार बतायी गयी है : 'के' (मस्तक में) 'दारा' (जटा के केनोपनिषद् प्रसिद्ध है। इस उपनिषद् का दूसरा नाम भीतर गङ्गारूपिणी पत्नी) हैं जिनकी। केदारनाथ एक तलवकार है । यह तलवकार ब्राह्मण के अन्तर्गत है । कहा तीर्थ भी है जो उत्तराखण्ड के शव तीर्थों में यह अत्यन्त जाता है कि डाक्टर वारनेल ने तंजौर में इस तलवकार पवित्र माना गया है । इसके लिए यात्रा प्रारम्भ करने मात्र ब्राह्मण ग्रन्थ को पाया था। इसके १३५ से लेकर १४५वें से सब पापों का क्षय हो जाता है। खण्ड तक को 'तलवकार उपनिषद्' अथवा 'केनोपनिषद्' ___ हठयोग में भ्रमध्य के स्थानविशेष को केदार कहा गया माना जाता है । छान्दोग्य एवं केन पर शङ्कराचार्य के भाष्य है । हठयोगदीपिका (३.२४) में कथन है : हैं तथा अन्य आचार्यों ने अनेक वृत्तियाँ और टीकाएँ कालपाशमहाबन्धविमोचनविचक्षणः । लिखी हैं। उपनिषद् का केन' नाम इसलिए पड़ा कि त्रिवेणीसङ्गमं धत्ते केदारं प्रापयन्मनः ।। इसका प्रारम्भ 'केन' (किसके द्वारा) शब्द से होता है। इस टीका में स्पष्ट किया गया है : इसमें उस सत्ता का अन्वेषण किया गया है जिसके द्वारा दोनों भौंहों के बीच में शिव का स्थान है। वह केदार । सम्पूर्ण विश्व का धारण और सञ्चालन होता है। केरलोत्पत्ति-शङ्कर के आविर्भावकाल के निर्णायक प्रमाण शब्द से वाच्य है। उसी पर अपना मन केन्द्रित करना चाहिए। ग्रन्थों में केरलोत्पत्ति का भी एक प्रमुख स्थान है । इसके अनुसार शङ्कर का कलिवर्ष ३०५७ में आविर्भाव हुआ । वीर शैवमत की व्यवस्था के अन्तर्गत प्रारम्भिक पाँच शङ्कर का जीवनकाल भी इसमें ३२ वर्ष के स्थान पर मठ मुख्य थे । इनमें केदारनाथ (हिमालय प्रदेश) का स्थान ३८ वर्ष लिखा है। किन्तु यह परम्परा प्रामाणिक नहीं प्रथम है। इसके प्रथम महन्त एकोरामाराध्य कहे जाते जान पड़ती। आचार्य शङ्कर की प्राचीनता प्रदर्शित करने हैं । भक्तों का विश्वास है कि श्री केदारजी के रामनाथ के लिए यह मत प्रचलित किया गया लगता है। लिङ्ग से, जो भगवान् शिव के अघोर रूप हैं, एको रामाराध्य प्रकट हुए थे। केरेय पद्मरस-कन्नड वीरशैव साहित्य में पद्मराज नामक उत्तराखण्ड का केदारेश्वर मठ बहुत प्राचीन है । इसकी पुराण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'के रेय पद्मरस' की प्राचीनता का महत्त्वपूर्ण प्रमाण एक ताम्रशासनपत्र से कथा लिखी गयी है। इस पुराण की रचना सन् १३८५ होता है जो उसी मठ में कहीं सुरक्षित है। इसके ई० में पद्मनाङ्क ने की थी। अनुसार महाराज जनमेजय के राजत्व काल में स्वामी केवल-भक्तिमार्ग में आत्मा को चार श्रेणियों में बांटा गया आनन्दलिङ्ग जङ्गम इस मठ के गुरु थे। उन्हीं के नाम है : बद्ध, मुमुक्ष, केवल एवं मुक्त । केवल अवस्था को Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ केश-केशवचन्द्रसेन पुनरुन्मेष होता है। इसके आचार्य दो प्रकार के हुए : गृहस्थ तथा संन्यासी । इन आचार्यों में केशव काश्मीरी का नाम सर्वप्रमुख रूप से आता है। पुनर्विकासकाल के आरम्भिक नेताओं का युग्म केशव काश्मीरी ( निम्बार्को में अग्रणी) तथा उनके भगिनीपति हरिव्यास देव (निम्बार्कों के अन्य नेता) का था । ये कृष्णचैतन्य एवं वल्लभाचार्य के समकालीन थे। केशव काश्मीरी प्रसिद्ध तार्किक विद्वान् एवं निम्बार्कदर्शन के भाष्यकार थे । उपासना के क्षेत्र में उनकी 'क्रमदीपिका' की विशेष प्रतिष्ठा है जो विशेषकर गौतमीय तन्त्र के आधार पर निर्मित 'भक्त' भी कहते हैं। केवल का हृदय पवित्र होता है। केवल आराध्य में ही तल्लीन रहता है और भक्ति के साथ मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है। सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष और प्रकृति के पार्थक्य की स्थिति 'कैवल्य' कहलाती है । इस स्थिति में रहनेवाला मुक्त आत्मा 'केवल' कहलाता है। जैन धर्म में जिसे शुद्ध (केवल) ज्ञान प्राप्त हो गया हो, ऐसे जिन विशेष को 'केवली' कहा जाता है। हठयोगदोपिका (२.७१) के अनुसार 'केवल' कुम्भक का एक भेद है : प्राणायामस्त्रिधा प्रोक्तो रेच-पूरक-कुम्भकैः । सहितः केवलश्चेति कुम्भको द्विविधो मतः ।। [प्राणायाम तीन प्रकार का कहा गया है : रेचक, पूरक और कुम्भक । कुम्भक भी दो प्रकार का माना गया है: सहित और केवल । ] केश-धार्मिक आज्ञानुसार सिक्खों के धारण करने के पाँच उपादानों में पहला केश है। ये कभी कटाये नहीं जाते । पाँच उपादान पाँच 'ककार' (क वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्द) कहलाते हैं : केश, कृपाण, कड़ा, कच्छ और कंधा । पूर्ण केश रखने की प्रथा को दशम गुरु गोविन्दसिंह ने प्रारम्भ किया था। खालसा सिक्खों का यह प्रमुख चिह्न है, जो नानकपंथियों से उनको पथक करता है। केशव-विष्णु का एक नाम । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : ‘क (जल) में जो सोता है ( के जले शेते इति)। भागवत पुराण के अनुसार परब्रह्मशक्ति को ही केशव कहा गया है : 'ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-संज्ञाः शक्तयः केशसंज्ञिताः ।' सुन्दर लम्बे केश (बाल) रखने के कारण भी विष्ण को केशव कहते हैं । अथवा क ब्रह्मा, ईश रुद्र इन दोनों को अपने स्वरूप में लीन कर जो परमात्मा रूप से एक मात्र अवस्थित रहता है वह 'केशव' है। रिवंश- पुराण (८०.६६) के अनुसार केशी नामक असुर का वध करने के कारण विष्णु का नाम केशव पड़ा (केशं केशिनं वाति हन्ति इति): यस्मात्त्वया हतः केशी तस्मान्मच्छाशनं शृणु । केशवो नाम नाम्ना त्वं ख्यातो लोके भविष्यसि ॥ केशव काश्मीरी-निम्बार्कों का इतिहास १३५० ई० से १५०० ई० तक अज्ञात है। किन्तु १५०० से इसका केशवचन्द्र सेन-भारतीय पुनर्जागरण के आन्दोलन में 'ब्रह्मसमाज' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह आन्दोलन १८२८ ई० में राजा राममोहन राय द्वारा आरम्भ हुआ। आन्दोलन का प्रथम चरण १८४१ में समाप्त हुआ। दूसरे चरण के नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा उनके एक नवयुवक सहयोगी केशवचन्द्र सेन थे। दूसरे चरण में समाज काफी प्रगति पर था एवं केशव के सहयोग ने इसे और भी गति दी। ये सम्भ्रान्त वैद्यकुल के व्यक्ति थे तथा इन्होंने आधुनिक उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। १८५७ ई० में समाज को सदस्यता ग्रहण कर १८५९ से इन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा समाजोन्नति में लगाना आरम्भ किया। देवेन्द्रनाथ ठाकुर इन्हें बहुत पसन्द करते थे। पाँच वर्ष तक दोनों ने साथ-साथ कार्य किया। इसी समय 'ब्राह्म विद्यालय' खोला गया जिसमें केशवचन्द्र ने अंग्रेजी में तथा देवेन्द्रनाथ ने मातृभाषा में अपने सिद्धान्तों को समझाया। इसके फलस्वरूप अनेक नवयुवक समाज में सम्मिलित हुए। इस बीच केशव ने 'बैंक आफ बंगाल' में नौकरी कर ली किन्तु उसे उन्होंने १८६१ में त्याग दिया तथा अपना संपूर्ण समय समाज के लिए देने लगे। 'संगति सभा' के अनेक अनुयायियों ने केशव का अनुगमन किया, जिनमें प्रतापचन्द्र मजुमदार प्रधान थे । एक पत्रिका "इण्डियन मिरर" निकाली जाने लगी। १८६२ ई० में देवेन्द्रनाथ ने केशवचन्द्र को नया सम्मान दिया। समाज के आचार्य केवल ब्राह्मण हुआ करते थे। देवेन्द्रनाथ स्वयं रामाज के आचार्य थे एवं Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशवप्रयाग-केशवाचार्य २०७ दो और काम उपाचार्य करने वाले थे। देवेन्द्रनाथ ने साहित्य, दान, स्त्री विकास, शिक्षा और आत्मनिग्रह । केशव को आचार्य पद प्रदान किया। अनेक कार्य और संस्थायें इस समय प्रारम्भ की गई, यथा इस समय केशवचन्द्र ने हिन्दु समाज का विरोध नार्मल स्कूल पवार गर्ल्स, विक्टोरिया इन्स्टीट्यूशन सहन करते हुए अपनी स्त्री को समाजसेवा में लगाया। फ्वार वीमेन, इन्डस्ट्रियल स्कूल फार ब्वायेज एवं भारत इससे बड़ा लाभ हआ। ब्राह्मों ने अपनी स्त्रियों को आश्रम, जिसमें स्त्रियों एवं शिशुओं को शिक्षा दी अधिक स्वाधीनता प्रदान करना आरम्भ किया जो जाती थी। आगे चलकर स्त्रीस्वाधीनता आन्दोलन में बहुत ही सहायक हुआ। इस समय तक केशव अपने को ईश्वर के आदेश लोगों दो वर्ष बाद केशव ने बंबई एवं मद्रास में भी 'ब्रह्म तक पहुँचानेवाला समझने लगे तथा दूसरों को उन्होंने समाज' की स्थापना करायी। जब केशव यात्रा पर थे आदेश देना आरम्भ किया। अतएव समाज के अन्दर तभी देवेन्द्रनाथ को कुछ प्राचीन विचारों ने प्रभावित केशव का विरोध आरम्भ हो गया। फिर एक बार केशव किया तथा उन्होंने केशव के स्थान पर उपाचार्यों को के जीवन में उदासी आयी, किन्तु ईश्वराराधना में लीन कार्य करने की अनुमति दे दी। केशव के दल ने इसका हो इन्होंने सब भुला दिया। केशव ने मृत्यु के पहले विरोध किया और इस प्रकार दो समाजों की स्थापना फिर एक वार पश्चिम की यात्रा की। इनके अन्तिम हुई। देवेन्द्रनाथ का समाज 'आदिसमाज' तथा केशव समय तक १७३ ब्रह्मसमाज की शाखाएँ हो गयी थीं, १५०० का 'नव ब्रह्मसमाज' कहलाया । पक्के सदस्य तथा ५०० अनुयायी थे । इनके द्वारा संचायहाँ से समाज का तीसरा चरण या युग आरम्भ लित आन्दोलन ने बंगाल में सुधार और नवजीवन की होता है। देवेन्द्रनाथ का साथ छूट जाने पर केशवचन्द्र ने एक लहर सी फैला दी। ईश्वर पर भरोसा रखा तथा उन्हें नयी प्रेरणा व स्फूर्ति केशवप्रयाग-माणा ग्राम के पास अलकनन्दा में जहाँ प्राप्त हुई। उन्होंने अनेक प्रचारक एवं भक्त प्राप्त किये और सरस्वती की धारा मिलती है उस स्थान को केशवप्रार्थना में इनको विशेष शान्ति मिली। घर पर ही प्रयाग कहते हैं । उत्तराखण्ड के तीर्थों में यह प्रसिद्ध है । सदस्यों की भीड़ जमती तथा धार्मिक सेवाओं एवं केशव भट्ट-निम्बार्काचार्य की परंपरा के उत्तरार्द्ध में प्रार्थना में लोग खूब हाथ बटाते। वैष्णव धर्म से, उनके दो शिष्य बहुत प्रसिद्ध हुए; एक केशव भट्ट जो इनका पारिवारिक धर्म था, केशव ने इस समय तथा दूसरे हरिव्यास । इन्हीं दो शिष्यों से दो श्रेणियाँ बहुत कुछ लिया। भक्ति, जो हिंदू धर्म में ईश्वरप्रेम एवं निकली हैं। गृहस्थ और संन्यासी जो आपसी भेदों के उसमें विश्वास का प्रतीक है, इस आन्दोलन का प्रधान होते हुए भी बड़े आदत थे । दे० 'केशव काश्मीरी' । अङ्ग बन गयी। २२ अगस्त १८६९ को मछुआ बाजार केशव मिश्र-न्यायवैशेषिक दर्शन के आचार्य । इनका (कलकत्ता) में केशवचन्द्र ने एक भवन बनवाया जिसे उदयकाल १३वीं शती है । इन्होंने तर्कभाषा नामक ग्रन्थ मन्दिर की संज्ञा दी गयी। यहाँ अनेकों प्रतिष्ठित लोग की रचना की है। इसका अंग्रेजी अनुवाद महामहोपाध्याय आने लगे तथा समाज के सदस्य हुए। मन्दिर के निर्माण पं० गंगानाथ झा ने किया । के कुछ ही दिन बाद इन्होंने बिलायत की यात्रा की। केशवस्वामी गोपाल-इन्होंने बौधायन श्रौतसूत्र पर भाष्य वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ । इंगलैण्ड में बहुसंख्यक लिखा है। लोगों के बीच केशव ने भाषण किया। ब्रिटेन की महा- केशवाचार्य-निम्बार्काचार्य के शिष्य श्रीनिवास द्वारा कृत रानी ने भी इनसे भेंट की। ब्रिटिश क्रिश्चियन होम ने ब्रह्मसूत्रभाष्य के व्याख्याता। ये पन्द्रहवीं शती में हुए थे इन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया। और चैतन्य महाप्रभु के समय में जीवित थे । निम्बार्काकलकत्ता लौटकर केशव ने अनेक प्रकार के सुधार चार्य के 'वेदान्तपरिजातसौरभ' का भाष्य 'वेदान्तप्रारम्भ किये। एक नया समाज 'इण्डियन रिफार्म कौस्तुभ' नाम से श्रीनिवासाचार्य ने लिखा और 'वेदान्तएसोसिएशन' बनाया, जिसके पाँच विभाग थे-सस्ता कौस्तुभ' की टीका केशवाचार्य ने लिखी। निम्बार्काचार्य Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कैयट-कैगल्यसार की परंपरा में ये अत्यन्त प्रौढ़ विद्वान् माने जाते हैं। 'आस' निवास किया जाता है ( केलीनां समूहः कैलम्, दे० 'केशव भट्ट'। कैलेनास्यते अत्र) । यहाँ शिव पार्वती के साथ निवास करते कयट-शब्दाद्वैतवाद के सबसे प्रथम दार्शनिक व्याख्याता हैं और उनके गण इतस्ततः किलोल किया करते हैं। भर्तहरि थे। उनके पश्चात् भर्तमित्र हुए, जिनका स्फोट भागवत पुराण में सुमेरु पर्वत के पूर्व में जठर और पर 'स्फोटसिद्धि' नामक ग्रन्थ अब उपलब्ध हो गया है। देवकूट, पश्चिम में पवन और पारियात्र तथा दक्षिण में इनके बाद इस सिद्धान्त का पूर्ण वर्णन पुण्यराज एवं कैयट कैलास और करवीर पर्वत स्थित कहे गये हैं। के व्याख्यानिबन्धों में पाया जाता है, जो क्रमशः 'वाक्य- कैलासनाथ-कैलास क्षेत्र के स्वामी, कुबेर, जो यक्षों के पदीय' और 'पातञ्जलि महाभाष्य' पर है। कैयट का राजा और धन के देवता हैं । इनकी राजधानी अलकापुरी समय ११वीं शताब्दी है और ये कश्मीरदेशीय थे। कैलास की द्रोणी में बसी हई और मानवों के लिए अगोचर इनकी टीका के बल पर ही पश्चात्कालीन विद्वान् महा- है। कैलास के शिरोभाग पर शंकरजी का निवास है, अतः भाष्य को समझने में समर्थ हो सके। टीका के उपक्रम में वे भी कैलासनाथ कहलाते हैं। इनका कहना है : कैलाससंहिता-शिवपुराण के सात खण्ड हैं : १. विश्वेश्वरभाष्याब्धिः क्वातिगम्भीरः क्वाहं मन्दमतिस्तथा । संहिता, २. रुद्रसंहिता, ३. शतरुद्रसंहिता, ४. कोटितथापि हरिबद्धन सारेण ग्रन्थसेतुना । रुद्रसंहिता, ५. उमासंहिता, ६. कैलाससंहिता एवं क्रममाणः शनैः पारं तस्य प्राप्तास्मि पंगुवत् ॥ ७. वायवीय संहिता (पूर्व एवं उत्तर दो खण्ड युक्त)। महाभाष्य की दुर्बोधता को लेकर श्री हर्ष जैसे महा- कैलाससंहिता में कुल २३ अध्याय हैं । दे० 'शिवपुराण' । कवि ने 'नैषधचरित' में एक अद्भूत उपमा दी है। कैवद्यदीपिका-यह मानभाउ संप्रदाय का एक ग्रन्थ है, जो उन्होंने नल की राजधानी शत्रुओं के लिए वैसी ही अभेद्य संस्कृत में रचा गया है। 'मानभाउ' या महानुभाव मत बतलायी है जैसी पंडितों के लिए महाभाष्य की फक्किकाएँ महाराष्ट्र की ओर प्रचलित है। अबोध्य थीं। कैयट ने इन्हें सूबोध्य बना दिया । कैवर्त-एक वर्णसंकर जाति । ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार कैलास-हिमालय का सर्वाधिक पवित्र शिखर । मानसरोवर क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न संतान इस जाति की से कैलास लगभग २० मील दूर है। पूरे कैलास की होती है । इसके पर्याय हैं दाश, धीवर, दाशेरक, जालिक । आकृति विराट् शिवलिङ्ग जैसी है, जो मानों पवतो क मनुस्मृति (१०.३४ ) में भी कैवर्त की गणना संकर एक षोडशदल कमल के मध्य स्थित है । कैलास शिखर जातियों में की गयी है : आस-पास के समस्त शिखरों से ऊँचा है। इसकी परि- निषादो मार्गवं सूते दाशं नौकर्मजीविनम् । क्रमा ३२ मील की है जिसे यात्री प्रायः तीन दिनों में पूरी कैवर्तमिति यं प्राहरार्यावर्तनिवासिनः ॥ करते हैं । कैलास का ऊर्ध्व भाग तो प्रायः अगम्य है, केवल्य-सब उपाधियों से रहित केवल ( शद्ध मात्र ) की उसका स्पर्श यात्रामार्ग से लगभग डेढ़ मील सीधी चढ़ाई अवस्था ( भाव ) । यह मोक्ष अथवा मुक्ति का पर्याय है। पार करके किया जा सकता है और यह चढ़ाई पर्वतारोहण पातञ्जलि योगसूत्र के कैवल्य पाद में कहा गया है : की विशिष्ट तैयारी के विना शक्य नहीं है । कैलास के पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपशिखर की ऊँचाई समुद्रस्तर से १९,००० फुट कही जाती प्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । ( सत्र ३३)। है। कैलास के दर्शन एवं परिक्रमा करने पर जो अद्भूत [जब सभी गणों-सत्त्व. रज और तम का परुषार्थ शान्ति एवं पवित्रता का अनुभव होता है वह स्वयं अनुभव (कार्य) समाप्त हो जाता है और उससे जो स्थिति की वस्तु है। उत्पन्न होती है वही सभी विकारों से रहित स्थिति कैवल्य कैलास शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की गयी है : है। अथवा अपने स्वरूप ( शुद्ध ज्ञानरूप ) में प्रतिष्ठा क अर्थात् जल में जिसका लसन अथवा लास्य हो (के जले (सम्यक् स्थिति ) कैवल्य है । ] लासो लसनं दीप्तिरस्य ) वह कैलास कहलाता है । दूसरी कैवल्यसार-वीरशैव मत का पन्द्रहवीं शती में रचित एक व्युत्पत्ति है : केलियों का समूह कैल; 'कल' के साथ यहाँ ग्रन्थ । इसके रचयिता मरितोण्टदार्य नामक आचार्य है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैवल्योपनिषद्-कोणार्क २०९ कैवल्योपनिषद् -एक शैव उपनिषद, जो अथर्वशिरस् उप- कोटिरुद्रसंहिता-शिवपुराण के सात खण्डों में से चौथे खण्ड निषद् की ही समकालीन है। का नाम । इसमें कुल ४३ अध्याय हैं । दे० 'शिवपुराण ।' कोकिलावत-मुख्यतः महिलाओं के लिए इस व्रत का कोटिहोम-मत्स्यपुराण (९३.५-६) के अनुसार नवग्रहहोम विधान है । आश्विन पूर्णिमा की सन्ध्या को इसका संकल्प उस समय अयुतहोम कहलाता है जब आहुतियों की संख्या करना चाहिए, आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् एक मास तक दस सहस्र हो। इसी क्रम से बढ़ते हुए एक अन्य प्रकार सुवर्ण अथवा तिलों की कोकिला के रूप में गौरी बनाकर का होम लक्षहोम है तथा तीसरा कोटिहोम है। वस्तुतः उसका पूजन करना चाहिए । एक मास तक नक्त भोजन नवग्रहमख अशुभ शकुनों तथा क्रूर ग्रहों के प्रशमनार्थ का विधान है। मासान्त में एक ताम्रपात्र में रत्नों की होता है । मत्स्यपुराण (९३) में उपर्युक्त तीनों होमों का आँखें, चाँदी की चोंच तथा पैर बनवाकर कोकिला का वर्णन है । बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार जिस समय दान करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव प्रभाकरवर्द्धन मृत्युशय्या पर था उस समय कोटिहोम का ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने के बाद गौरी को आयोजन किया गया था। कोकिला हो जाने का शाप दिया था। सूवर्ण की एक कोटीश्वरीव्रत-भाद्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुकोकिला बनाकर, जिसकी आँखें मोतियों की हों तथा ष्ठान होता है। चार वर्ष तक इसका आचरण करना पैर चाँदी के हों, षोडशोपचारपूर्वक पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास का विधान है। एक लाख चाहिए । सुख, समृद्धि के लिए यह व्रत वांछनीय है। अक्षत अथवा तिल दूध में डालने चाहिए । तदनन्तर देवी तमिलनाडु के पंचाङ्गों में इसका अनुष्ठान ज्येष्ठ १४ पार्वती की एक स्थूल प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करना ( मिथुन ) को बतलाया गया है। चाहिए । इस पूजन से न तो दारिद्रय रहेगा न कोई अन्य कोजागर ( कौमुदीमहोत्सन)-आश्विन पूर्णिमा के दिन विपत्ति, आठ सन्तान और सुन्दर पति की प्राप्ति होगी। इसका अनुष्ठान होता है । इसमें लक्ष्मी तथा ऐरावतारूढ़ इसका नाम लक्षेश्वरी भी है। इन्द्र का पूजन रात्रि में करना चाहिए । घी अथवा तिल कोटितीर्थ या कोटीश्वर या शिवकोटि शंकरजी की के तेल के बहुसंख्यक दीपक मुख्य सड़कों पर, मन्दिरों में, एक करोड़ मूर्तियों का भी नाम है । ऐसा एक तीर्थ प्रयागबागों में तथा घरों में प्रज्वलित करने चाहिए। दूसरे राज में गंगाजी के बड़े रेल पुल के पास है। यहाँ लंकादिन प्रातःकाल इन्द्र की पूजा होनी चाहिए । ब्राह्मणों विजय कर लौटते समय रामचन्द्रजी एक करोड़ शिवको अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। लिङ्गपुराण मूर्तियों का एकतन्त्र में पूजन कर रावणवध के पाप से के अनुसार दयालुता की मूर्ति लक्ष्मी मध्य रात्रि के समय मुक्त हुए थे। परिभ्रमण करती हुई कहती है : “कौन जाग रहा है ?" कोटेश्वर-हिमालय में स्थित एक तीर्थस्थान । देवप्रयाग से मनुष्यों को नारियल में भरा हुआ पानी ( रस ) पीना खर्साडा १० मील और यहाँ से कोटेश्वर ४ मील दूर है । चाहिए तथा पासों से खेलना चाहिए । 'को जागति' न यहाँ कोटेश्वर महादेव का मन्दिर है। दो शब्दों में 'कोजागर' व्रत की ध्वनि विद्यमान है। इसे कोणार्क-भुवनेश्वर से लगभग ४२ मील दक्षिणपूर्व उड़ीसा काणाक-भुवनश्वर स 'कौमदीमहोत्सव' भी कहा जाता है। सम्भवतः कोजाग का यह एक सौर तीर्थ है । स्थानीय जनश्रुति के अनुसार शब्द 'कौमुदीजागर' का ही संकेतात्मक तथा संक्षिप्त रूप एक बार भगवान् श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो है। कौमुदीमहोत्सव के लिए दे० कृत्यकल्पतरु ( राजधर्म), गया था। भगवान् की आज्ञा से इस स्थान पर कोणादित्य १० १८२-१८३; राजनीतिप्रकाश ( वीरमित्रोदय ), १० की आराधना करने से उनका कुष्ठ दूर हुआ । पश्चात् ४१९-४२१ । साम्ब ने यहाँ सूर्यमूर्ति स्थापित की थी (यह मूर्ति अब पुरी कोटिमाहेश्वरी-हिमालय स्थित एक तीर्थस्थान । यह में है)। यह उपाख्यान सूर्यपूजा सम्बन्धी पौराणिक कथा स्थान कालीमठ से दो मील दूर है। यहाँ कोटिमाहेश्वरी ___का रूपान्तर है। वास्तव में मूल सूर्यमन्दिर पंजाब देवी का मन्दिर है । यात्री यहाँ पिततर्पण तथा पिण्डदान में चन्द्रभागा (चेनाव) और सिन्धुनद के संगम पर मुलकरते हैं। तान - मूलस्थान में था। तुर्कों द्वारा उसके नष्ट होने पर २७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कोणार्क वाला सूर्यमन्दिर सन् १२५० में बना और नया चन्द्रभागातीर्थ स्थापित हुआ। इस मन्दिर में भास्कर्व कला परम्परा का सम्पूर्ण वैभव दृष्टिगोचर होता है। किन्तु यह आज भग्नावस्था में है। भारत के लगभग सभी सूर्यमन्दिरों की यही अवस्था है। वास्तव में सौर मत का प्रभाव समाप्त होता गया और उचित संरक्षण न मिलने से यह मन्दिर भी ध्वस्त हो गया है । इसका जगमोहन मात्र आज खड़ा है । वर्ष में एक बार यहाँ देश के कोने-कोने से बचे-खुचे सूर्योपासक इकट्ठे होकर इस स्थान मन्दिर एवं वातावरण को प्राणवान् कर देते हैं । यह तीर्थ भी चन्द्रभागा के नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ पर चन्द्रभागा नदी समुद्र में मिलती है । परन्तु स्पष्टतः यह पुराने तीर्थ (चन्द्रभागा या चेनाब और सिन्धु के संगम) का स्थानान्तरण है । 3 कोणार्क का सूर्यमन्दिर अपनी वास्तुकला लिए प्रसिद्ध अपनी वास्तुकला लिए प्रसिद्ध है। यहां पर सूर्य की अनेक सर्जनात्मक क्रियाएँ प्रतीकात्मक रूप से विविध आकारों में अंकित हैं । कोविलपुराण - यह शैव सिद्धान्त की तमिलशाखा का चौदहवीं शती में निर्मित एक ग्रन्थ है । कोलाहल पण्डित - यामुनाचार्य के समसामयिक पाण्डयराज का सभापण्डित । राजा इसके प्रति अत्यन्त श्रद्धाभाव रखता था । जो पण्डित कोलाहल से शास्त्रार्थ में हार जाते थे, उन्हें राजा की आज्ञा के अनुसार दण्डस्वरूप कुछ वार्षिक कर कोलाहल पण्डित को देना पड़ता था । कोलाहल सम्राट् की तरह अधीनस्थ पण्डितों से कर वसूलता था। यामुनाचार्य के गुरु भाष्याचार्य भी उसे कर दिया करते थे । एक बार भाष्याचार्य ने दो तीन वर्ष तक कर नहीं दिया । कोलाहल का एक शिष्य कर माँगने आकर भाष्याचार्य को अनुपस्थित पा अनापन्यानाप बक्ने लगा । ऐसी स्थिति में यामुन ने, जो १२ वर्ष के बालक थे, कोलाहल से शास्त्रार्थ करने को कहा । शिष्य ने जाकर कोलाहल से कहा। उधर राजा-रानी को भी पता चला। दोनों में तर्क हुआ। रानी ने कहा कि यामुन जीतेगा यदि न जीतेगा तो मैं आपकी क्रीतदासी की दासी होकर रहेंगी। राजा ने कहा कोलाहल जीतेगा यदि न जीतेगा तो मैं अपना आधा राज्य यामुन को दे दूंगा । रानी की बात रह गयी, यामुन जीत गये। कोलाहल पण्डित हार कोविलपुराण- कोयुमी गया। यामुन को राजा ने सिंहासन पर बैठा दिया। दे० ' यामुनाचार्य' । कोष -उपनिषदों में आत्मा के पाँच कोष बताये गये हैं : १. अन्नमय कोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है) २. प्राणमय कोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व ) ३. मनोमय कोष ( मन की संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया) ४. विज्ञानमय कोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) ५. आनन्दमय कोष ( आनन्द की स्थिति ) । ये आत्मा के आवरण माने गये हैं । इनके क्रमशः भेदन से जीवात्मा अपना स्वरूप पहचानता है । आत्मा इन सबका आधार और इनसे परे है । दे० 'आत्मा' | पञ्चदशी ( ३.१-११ ) में इन कोषों का विस्तृत वर्णन है । कोसल ( कोशल ) - जनपद का नाम, जिसकी राजधानी अयोध्या थी (दे० 'अयोध्या' ) वाल्मीकि रामायण । ( १.४.५ ) में इसका उल्लेख है : कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् । निविष्ट: सरपूतीरे प्रभूत धनधान्यवान् ।। [ कोसल नामक महान् जनपद विस्तृत और सुखी था । यह सरयू के किनारे स्थित और प्रभूत धन-धान्य से युक्त था ।] कहीं-कहीं अयोध्या नगरी के लिए ही इसका प्रयोग हुआ है। कौस्त — शतपथ ब्राह्मण ( ४.६.१.१३ ) में 'कौकूस्त' एक यज्ञ में पुरोहितों को दक्षिणा देनेवाला कहा गया है। काण्व शाखा इस शब्द का पाठ 'कौक्थस्त' के रूप में करती है । कौत्स - यह एक प्रसिद्ध ऋषि का नाम है । - कौथुमी — सामवेद की एक शाखा । सामसंहिता के सभी मन्त्र गेय हैं। जिन यज्ञों में सोमरस काम में लाया जाता या उनमें (अर्थात् सोमयागों में ) उद्गाताओं का यह कर्तव्य था कि वे सामगान करें ब्रह्मचारियों को आचार्य इस संहिता के छन्दों के सस्वर पाठ करने की विधि सिखाते थे, तथा वे इसे बार-बार गाकर कंठस्थ भी कर लेते थे। उन्हें यह भी शिक्षा दी जाती थी कि किस वंश में किस ऋचा या छन्द का गान होगा। कौथुमीसंहिता सामवेद की तीन शाखाओं में से एक है। यह शाखा उत्तर भारत में प्रचलित है, जबकि 'जैमिनीय' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिल्य-कौल २११ एवं 'राणायनीय' का प्रचार कर्णाटक एवं महाराष्ट्र में मध्य एवं लघु । भट्टोजिदीक्षित ने 'सिद्धान्तकौमुदी' है। कौथमी शाखा के आचार्य अपने ब्रह्मचारियों ( उद्- लिखी जिसके प्रचार से अष्टाध्यायी की पठनप्रणाली उठ गाता की शिक्षा लेने वालों ) को ५८५ स्वरों की शिक्षा सी गयी । सिद्धान्तकौमुदी पर भट्टोजिदीक्षित ने ही 'प्रौढमदेते थे, जिनका सम्बन्ध उतने ही छन्दों से होता था। नोरमा' नाम की टीका लिखी । मध्यकौमुदी एवं लघुवैसे तो सामवेद की १००० शाखाएँ कही जाती है, किन्तु कौमुदी वरदराज ने लिखीं। कौमुदी पाणिनिसूत्रों पर ही प्रचलित हैं केवल तेरह । इन तेरहों में भी आजकल दो अवलम्बित है । संस्कृत भाषा के अध्ययन में यह अत्यन्त ही प्रधान हैं -कौथुमी (उत्तर भारत में काशी, कान्य- महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । कहावत है "कौमुदी कण्ठलग्ना चेद् कुब्ज, गुजरात और वङ्ग) तथा राणायनीय (दक्षिण में)। वृथा भाष्ये परिश्रमः ।" कौटिल्य-कौटिल्य चाणक्य एवं विष्णुगुप्त नाम से भी प्रसिद्ध कौमुदीव्रत-आश्विन शुक्ल एकादशी से यह व्रत किया हैं। इनका व्यक्तिवाचक नाम विष्णुगुप्त, स्थानीय नाम जाता है। उपवास तथा जागरण का इसमें विधान है। चाणक्य (चणकावासो) और गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल द्वादशी को विभिन्न प्रकार के कमलों से वासुदेव की पूजा । से) था। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। इन्होंने की जाती है । वैष्णवों द्वारा त्रयोदशी को यात्रोत्सव, चतु'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन र्दशी को उपवास तथा पूर्णिमा को वासुदेव की पूजा की राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि जाती है। 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र के जप का पर भली भाँति प्रकाश डालता है । 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल इसमें विशेष महत्त्व है। हेमाद्रि के अनुसार इस व्रत को के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वाङ्ग भगवान् विष्णु के जागरण तक अर्थात् कार्तिक शुक्ल एकादेखा जा सकता है । अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी दशी तक जारी रखना चाहिए। काफी प्रकाश पड़ता है । उस समय बहुत से देवताओं तथा कौरव्य-एक शैव संप्रदायाचार्य। शिव के लकूलीश (संन्यासी देवियों की पूजा होती थी। न केवल बड़े देवता-देवी अपितु रूप में शिव) अवतार के चार शिष्य थे-कुशिक, गाग्य, यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय मित्र (मैत्रेय) एवं कौरष्य। इन्होंने चार उपसम्प्रदायों आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत, की स्थापना की। अग्नि, बाढ़, सूखा, अकाल आदि से बचने के लिए भी कौम उपपुराण-यह उन्तीस उपपुराणों में से एक उपबहतेरे धार्मिक कृत्य किये जाते थे। अनेक उत्सव, जादू टोने आदि का भी प्रचार था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के कौल-शाक्तों के वाममार्गी संप्रदाय में कौल एक शाखा है। अनुसार राजा का मुख्य कर्तव्य था प्रजा द्वारा वर्णाश्रम इसका आधारभूत साहित्य है कौलोपनिषद् तथा परशुरामधर्म और नैतिक आचरण का पालन कराना। दे० 'अर्थ भार्गवसूत्र । दूसरे ग्रन्थ में कौल प्रणाली की सभी शाखाओं शास्त्र'। का सम्पूर्ण विवरण है। दिव्य, घोर और पशु इन तीन कौतुकव्रत-इसमें नौ वस्तुओं के उपयोग का विधान है, भावों में से दिव्य भाव में लीन ब्रह्मज्ञानी को 'कौल' कहते यथा दूर्वा, अंकुरित यव, बालक नामक पौधा, आम्रदल, हैं। कूलार्णवतन्त्र में 'कौल' की निम्नांकित परिभाषा दो प्रकार की हल्दी, सरसों, मोर के पंख तथा साँप की पायी जाती है : केंचुली। विवाह के समय उपर्युक्त वस्तुएँ वर-वधू के _ 'दिव्यभावरतः कौल: सर्वत्र समदर्शनः ।' कङ्कण में बाँधी जाती हैं। दे० हेमाद्रि, १.४९; व्रतराज, [दिव्य भाव में रत, सर्वत्र समान रूप से देखनेवाला १६ । कालिदास कृत रघुवंश के अष्टम सर्ग के प्रथम श्लोक 'कौल' होता है ।] महानीलतन्त्र में कथन है : में 'विवाहकौतुक' शब्द आया है। ये सभी मांगलिक पशोर्वक्त्राल्लब्धमन्त्रः पशुरेव न संशयः । वस्तुएँ हैं तथा अनुराग, काम और सर्जन क्रिया को इंगित वीराल्लब्धमनुर्वीरः कौलाच्च ब्रह्मविद् भवेत् ।। करती हैं। [पशु के मुख से मन्त्र प्राप्त कर मनुष्य निश्चय ही पशु कौमुदी-संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों में कौमुदी का प्रचार रहता है, वीर से मन्त्र पाकर बीर और कौल के मुख से अधिक देखा जाता है। इसके तीन संस्करण हैं--सिद्धान्त, मन्त्र पाकर ब्रह्मज्ञानी होता है ।] दे० 'कौलाचार' । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कौलाचार-कौशिक कौलाचार-तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त है। पृथ्वी में यह एक मात्र मुक्तिदायिनी समझी जाती है । कुलार्णवतन्त्र के अनुसार वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, है । इसका नाम ही तीर्थ है। वाम, सिद्धान्त एवं कौल ये सात आचार हैं। कौलाचार कौलोपनिषद्-कौलमार्ग (शाक्तों की एक शाखा) का यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। किन्तु प्रथम तीन अन्तिम चार आधारग्रन्थ है। यह संक्षिप्त ग्रन्थ है और सरल गद्य में की निन्दा भी करते हैं। प्रत्येक आचार के अनेक तन्त्र संकेतों के साथ लिखा गया है। अतः पहेली के समान हैं । तन्त्रों में कौलाचार का वर्णन इस प्रकार है : सरलता से समझ में न आने वाला है तथा इसका निर्देश दिक्कालनियमो नास्ति तिथ्यादिनियमो न च । अस्पष्ट है। इसका कथन है कि पूजा-पाठ एवं यज्ञादि से नियमो नास्ति देवेशि महामन्त्रस्य साधने ।। मुक्ति नहीं मिलती। इसे प्राप्त करने के लिए सामाजिक क्वचित शिष्टः क्वचिद् भ्रष्टः क्वचिद् भूतपिशाचकः । परम्परा से चले आ रहे अन्धविश्वासी बन्धनों से मुक्ति नानावेशधराः कौला विचरन्ति महीतले ।। पानी चाहिए। कौल धर्म वीरों का मार्ग है, कायरों का कर्दमे चन्दनेऽभिन्न मित्रे शत्रौ तथा प्रिये । नहीं। श्मशाने भवने देवि तथैव काञ्चने तणे ।। कौशाम्बी-प्राचीन प्रसिद्ध वत्स जनपद की राजधानी, जो न भेदो यस्य देवेशि स कौलः परिकीर्तितः ।। प्रयाग से दक्षिण है। इसका गौतम बुद्ध के जीवन तथा बौद्ध धर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यह इतिहासप्रसिद्ध (नित्यातन्त्र) राजा उदयन की राजधानी थी। इस स्थान का नाम अब [ देश एवं काल का नियम नहीं है, तिथि आदि का भी कोसम है । यहाँ भूखनन से बहुत-सी मूर्तियाँ, स्थापत्य के नियम नहीं है । हे देवेशि ! महामन्त्र-साधन का भी नियम भग्न खण्ड और अन्य वस्तुएँ निकली हैं। यह जैनों का नहीं है । कभी शिष्ट, कभी भ्रष्ट और कभी भूत-पिशाच भी तीर्थस्थल है। के समान, इस तरह नाना वेषधारी कौल महीतल पर वाल्मीकिरामायण (१.३२.५) के अनुसार कुशाम्ब विचरण करते हैं । कर्दम और चन्दन में, मित्र और शत्रु नामक एक पौरव राजा ने इसकी स्थापना की थी : में, श्मशान और गृह में, स्वर्ण और तृण में जिनका भेदज्ञान _ 'कुशाम्बस्तु महातेजा कौशाम्बीमकरोत् पुरीम् ।। नहीं, उन्हें ही 'कौल' कहा जा सकता है। गंगा की बाढ़ से जब हस्तिनापुर नष्ट हो गया तो कौलों के विषय में और भी कथन है : वहाँ से हटकर पौरव राज वत्स जनपद में आ गया था। अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः सभामध्ये तु वैष्णवाः । कौशिक-इन्द्र का एक नाम, जिसे कुशिकों से सम्बन्धित नाना रूपधराः कौला विचरन्ति महीतले ।। कहा गया है। विश्वामित्र को भी कौशिक (कुशिक के पुत्र) [ भीतर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा में वैष्णव; नाना । कहते हैं। बृहदारण्यक उनिषद् के प्रारम्भिक दो वंशों में रूप धारण करके कौल लोग पृथ्वी पर विचरण करते हैं । ] कौशिक नामक आचार्य का नाम कौण्डिन्य के शिष्य के कौलाचार में जो वस्तुएँ मूल में रूपकात्मक थीं वे रूप में आया है। पुराणों में बतलाया गया है कि किस आगे चलकर व्यवहार में अपने भौतिक रूप में प्रयुक्त होने प्रकार इन्द्र ने राजा कुशिक की तपस्या से भयभीत होकर लगीं। कौलों की साधना में पञ्च मकार (मद्य, मांस, उसका पुत्रत्व स्वीकार किया। हरिवंश (२७.१३-१६) में मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) का उन्मुक्त प्रयोग होता है। इन यह कथा इस प्रकार है : पञ्च मकारों से जगदम्बिका का पूजन होता है। काली अथवा कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः । तारा का मन्त्र ग्रहण करके जो पञ्च मकार का सेवन नहीं लभेयमिति तं शस्त्रासादभ्येत्य जज्ञिवान् ।। करता वह कलियुग में पतित है; वह जप, होम आदि पूणे वर्षसहस्र वं तन्तु शक्रो ह्यपश्यत । कार्यों में अनधिकारी होता है तथा मूर्ख कहलाता है । अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः ।। उसका पितृतर्पण श्वानमूत्र के समान है । काली और तारा समर्थं पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत् । का मन्त्र पाकर जो वीराचार नहीं करता वह शूद्रत्व को पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः ।। प्राप्त होता है। सुरा सभी कायों में प्रशस्त मानी जाती स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम् ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशिकसूत्र-क्रममुक्ति २१३ कौशिकसूत्र-यह अथर्ववेद से सम्बन्धित प्रथमतः गृह्यसूत्र सायणाचार्य ने ऐतरेय एवं कौषीतकि दोनों आरण्यकों के है। इसमें ऐन्द्रजालिक उत्सवों का वर्णन भी विशद रूप से भाष्य लिखे हैं। मिलता है तथा जो बातें अथर्ववेद में अस्पष्ट हैं वे कौषीतकि उपनिषद्-ऋग्वेद के कौषीतकि नामक ब्राह्मण सुस्पष्ट कर दी गयी हैं। के इसी नाम वाले आरण्यक का तीसरा खण्ड 'कौषीतकि गोपथब्राह्मण के अनुसार अथर्ववेदसंहिता के पाँच उपनिषद्' कहलाता है। विशेष विवरण के लिए दे० 'कौषीतकि आरण्यक' । सूत्रग्रन्थ है-कौशिकसूत्र, वैतानसूत्र, नक्षत्रकल्पसूत्र, कौषीतकिब्राह्मण-ऋग्वेद की दो शाखाओं-ऐतरेय एवं आङ्गिरसकल्पसूत्र एवं शान्तिकल्पसूत्र । कौशिकसूत्र को ही कौषीतकि के इन्हीं नामों के दो ब्राह्मण हैं । कौषीतकि को 'संहिताविधिसूत्र' भी कहते हैं। बहुत से सूत्रग्रन्थों में शाङ्खायन भी कहते हैं । कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण भाग के अतिअथर्ववेद के प्रतिपाद्य कर्मों का विधान अत्यन्त सूक्ष्म रूप रिक्त सामान्ययज्ञादि विषयक महत्त्वपूर्ण छः ब्राह्मणग्रन्थ हैं । से किया गया है, जिससे वे दुर्बोध हो गये हैं। इन्हें ही ये है-ऐतरेय; कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार, तैत्तिरीय सुबोध कर देने के लिए कौशिकसूत्र का संग्रह हुआ है। कौशिकसूत्र में १. स्थालीपाकविधान में दर्शपूर्णमास विधि एवं शतपथ । कौषीतकि ब्राह्मण का अंग्रेजी अनुवाद प्रो० कीथ द्वारा एवं विश्लेषण डॉयसन द्वारा हुआ है । २. मेधाजनन ३. ब्रह्मचारीसम्पद् ४. ग्राम-दुर्ग-राष्ट्रादि क्रतुरत्नमाला-शाङ्खायन श्रौतसूत्र पर लिखा गया एक लाभ विषय ५. पुत्र-पशु-धन-धान्य-प्रजा-स्त्री-करि-तुरग भाष्य क्रतुरत्नमाला के नाम से प्रसिद्ध है । इसके रचयिता रथ-दोलकादि सर्वसम्पत्साधक समूह ६. मानवगण में श्रीपति के पुत्र विष्णु कहे जाते हैं। ऐकमत्य सम्पादक सौमनस्यादि विषयों का वर्णन है। क्रमदीपिका--केशव काश्मीरी निम्बार्कों के एक दिग्विजयी कोषीकाराम-आपस्तम्ब सूत्र के भाष्यकारों में से एक नेता, विद्वान् एवं भाष्यकार हो गये हैं। उनकी क्रमकौशिकाराम भी है। दीपिका नामक पुस्तक यज्ञ, पूजार्चन आदि पर एक गौरवपूर्ण कौषीतकि आरण्यक-वेद के चार भाग हैं-संहिता, ब्राह्मण, रचना है, जो गौतमीय तन्त्र की चनी हई सामग्रियों का आरण्यक एवं उपनिषद् । ऋग्वेद का यह आरण्यक भाग संग्रह है। इसकी रचना १६वीं शती के प्रारम्भ में हुई थी। है। आरण्यकों में ऋषियों का निर्जन अरण्यों में रहकर ब्रह्म क्रमपूजा-कृत्यरत्नाकर में (१४१-१४४, देवीपुराण से विद्या अध्ययन तथा उनके द्वारा अनेक गम्भीर अनुभूत विचार लोककल्याणार्थ दिये हए है। कौषीतकि आरण्यक उद्धृत) लिखा है कि चैत्र शुक्ल पक्ष में दुर्गा का पूजन होना चाहिए । कुछ विशेष तिथियों तथा नक्षत्रों के अवसर पर के तीन खंड हैं, जिनमें दो खंड प्रधान है, जो कर्मकांड से इससे पुण्य, सुख, समृद्धि की प्राप्ति होती है। भरे पड़े है । तीसरा खंड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता क्रममक्ति-क्रमशः मुक्ति प्राप्त करने का सिद्धान्त । इस विषय है। यह एक सारगर्भ उपादेय ग्रन्थ है। आनन्दमय धाम पर शङ्कर द्वारा वेदान्तसूत्र (३.३.२९) पर व्याख्यान प्राप्त में कैसे प्रवेश किया जाय और उस आनन्द का उपभोग होता है । उनका कहना है कि देवयान और पितयान दो किस प्रकार किया जाय इस बात पर अनेक अध्यायों में मार्ग हैं । पितृयान जन्म-मरण का मार्ग है। देवयान से विचार हुआ है। गृह्यकृत्य, पारिवारिक बन्धन आदि में क्रममुक्ति का मार्ग प्रारम्भ होता है । परन्तु निर्गुण ब्रह्म का बँधे हए लोगों के मन के भीतर उस समय में अत्यन्त सर्वोच्च ज्ञान रखने वाले संत तो पहले ही ब्रह्म के साथ कोमल हृदय की वृत्तियों ने किस प्रकार विकास किया है, एकत्व की प्राप्ति कर चुकते हैं तथा उनके लिए किसी देवइसका बहुत ही सुन्दर चित्र दूसरे अध्याय में मिलता है। यान (देवपथ) पर चलने की आवश्यकता नहीं है । जो तीसरे अध्याय में ऐतिहासिक वृत्तान्त और इन्द्र के युद्धादि लोग केवल सगुण ब्रहा का ही ज्ञान रखते हैं, वे इस पथ पर के उपाख्यान दिये गये हैं। चौथा अध्याय भी आख्यानों से अग्रसर होते हैं। वे ब्रह्म को प्राप्त कर पुनः लौटते नहीं। भरा है । काशिराज वीरेन्द्रकेशरी ने एक ज्ञानी ब्राह्मण सगुण ब्रह्म से एकत्व प्राप्त कर अन्त में पूर्ण ज्ञान प्राप्त को जो उपदेश दिया था वह भी इस अध्याय में वर्णित करते हैं । इस प्रतीक्षाकाल तथा अपूर्ण ज्ञान के काल में है । इसमें भौगोलिक बातें भी हैं । हिमवान और विन्ध्यादि आत्मा को पूर्ण आनन्द एवं अजेय इच्छाशक्ति प्राप्त होती पर्वतों के नाम और पहाड़ियों के नाम भी पाये जाते हैं। है (यही ऐश्वर्य कहलाता है)। जब वह सर्वोच्च प्रकाश के Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ क्रमसंदर्भ-छत्र समीप पहुँचता है, उसे नया स्वरूप प्राप्त होता है तथा धर्मशास्त्र में व्यवहारपाद ( न्यायविधि) का एक पादवास्तव में वह मुक्त हो जाता है। इसे 'क्रममुक्ति' का विशेष क्रिया कहलाता है । वह दो प्रकार की होती हैसिद्धान्त कहते हैं। मानुषी और देवी । प्रथम साक्ष्य, लेख्य और अनमान भेद क्रमसंदर्भ-चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय में जीव गोस्वामी के से तीन प्रकार की होती है। दूसरी घट. अग्नि, उदक. रचे ग्रंथों का प्रमुख स्थान है। 'क्रमसंदर्भ' भागवत पुराण विष, कोष, तण्डुल, तप्तमाषक, फाल, धर्म भेदों से नौ का उन्हीं के द्वारा संस्कृत में किया गया भाष्य है। प्रकार की होती है । दे० 'व्यवहरतत्त्व' में बृहस्पति । रचना १५८०-१६१० ई० के मध्य की है । इस प्रकार की क्रियापाद-शैव आगमों के समान ही वैष्णव संहिताओं के सैद्धांतिक रचनाओं के जीव गोस्वामीकृत छ: निबन्ध हैं, चार भाग हैं-१. ज्ञानपाद, २. योगपाद, ३. क्रियाजिनकी भाषा अत्यन्त प्रौढ और प्रांजल है । ये 'षट्संदर्भ' पाद और ४. चर्यापाद । क्रियापाद के अन्तर्गत मन्दिरों वैष्णवों के आकर ग्रंथ (निधि) माने जाते हैं । तथा मूर्तियों के निर्माण का विधान और वर्णन पाया क्रवण-ऋग्वेद में एक स्थान (५. ४४. ९) पर उल्लिखित जाता है। यह शब्द लुडविग के मत से एक होता (पुरोहित) का नाम धर्मशास्त्र में व्यवहार (न्याय ) का तीसरा पाद है। राथ इसे विशेषण मानकर 'कायर' अर्थ करते हैं। क्रिया कहलाता हैसायण इसका अर्थ 'पूजा करता हुआ' और ओल्डेनवर्ग पूर्वपक्षः स्मृतः पादो द्वितीयश्चोत्तरः स्मृतः । इसका अर्थ अनिश्चित बताते हैं, किन्तु सम्भवतः वे इसका क्रियापादस्तथा चान्यश्चतुर्थो निर्णयः स्मृतः ॥ अर्थ 'बलिपशु का वधिक' लगाते हैं। (बृहस्पति, व्यवहारतत्त्व) क्रव्याव-क्रव्य = कच्चा मांस + अद = भक्षक अर्थात् दानव । [व्यवहार का प्रथम पाद पूर्वपक्ष, द्वितीय पाद उत्तर, शव दहन करने वाले अग्नि का भी यह नाम है। महाभारत ततीय क्रियापाद और चतुर्थ निर्णयपाद कहलाता है। . (१.६.७) में कथा है कि भूगु ने पुलोमा के अपहरण पर क्रियायोग-देवाराधन तथा उनके पूजन के लिए मन्दिर अग्नि को शाप दिया कि वह सर्वभक्षी हो जाय । सर्वभक्षी निर्माण आदि पुण्यकर्मो को क्रियायोग कहते हैं। अग्निहोने पर मांसादि सभी अमेध्य वस्तुओं को अग्नि को ग्रहण पुराण के वैष्णव क्रियायोग के यमानुशासन अध्याय में करना पड़ा। परन्तु प्रश्न यह उपस्थित हो गया कि अशुद्ध इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। अग्निमुख से देव और पितर किस प्रकार आहुति ग्रहण पातञ्जलि योगसूत्र के अनुसार तप, स्वाध्याय और करेंगे । देवताओं के अनुरोध से ब्रह्मा ने अपने प्रभाव को ईश्वरप्रणिधान क्रियायोग के अन्तर्गत सम्मिलित हैं अग्नि पर प्रकट करते हुए अपने आहुत भाग को स्वीकार (तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानिक्रियायोगाः)। किया। इसके पश्चात् देव-पितरो न भा अपना-अपना भाग क्रियासार-आगमिक शैवों में नीलकंठ रचित क्रियासार का अग्निमुख से लेना प्रारम्भ किया । व्यवहार अधिक होता है। यह श्रीकंठशिवाचार्य-रचित शान्तिकर्म आदि में क्रव्याद अग्नि का अपसारण (दूरी शैव ब्रह्मसूत्रभाष्य का संक्षिप्त सार है । यह संस्कृत ग्रन्थ करण) ऋग्वेद (१०.१६.९) के मन्त्र से किया जाता है। लिङ्गायती द्वारा प्रयुक्त होता है, जो सत्रहवीं शती की क्रिया-सृष्टि-विकास के प्रथम चरण को 'क्रिया' कहते हैं। रचना है। प्रारंभिक सृष्टि की पहली अवस्था में शक्ति का जागरण दो ऋञ्च आङ्गिरस-सामवेद के क्रौञ्च नामक गान के ध्वनिकार चरणों में होता है-१. 'क्रिया' और २. 'भूति' तथा ऋषि पञ्चविंश ब्राह्मण (१३. ९, ११, ११, २०) में उनके छः गुणों का विकास होता है। उक्त नाम यह सिद्ध करने के लिए दिया हुआ है कि साम शिक्षा, पूजा, चिकित्सा और सामान्य धार्मिक विधियों के गानों का नाम स्वररचयिता के नामानुसार रखा गया है के लिए भी ‘क्रिया' शब्द का प्रयोग होता है : इस नियम के अनेक अपवाद भी मिलते हैं। आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजानं सम्प्रधारणम् । क्षत्र-राष्ट्र, शक्ति, सार्वभौमता । ऋग्वेद में इसका अर्थ उपायः कर्मचेष्टा च चिकित्सा च नवक्रियाः ।। शासक है ( १. १५७. २; ८. ३५. १७) तथा परवर्ती (भावप्रकाश) ग्रन्थों में भी यही अर्थ माना गया है। किन्तु ऋग्वेद में Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्री-क्षत्रिय २१५ इसका आशय उस शासक (शासक जाति) से निश्चयपूर्वक नहीं है, जैसा परवर्ती ग्रन्थों में माना गया है । क्षत्रपति से सदा राजा का बोध हुआ है। आगे चलकर इसका अर्थ क्षत्रिय वर्ग ही प्रचलित हो गया। इसका शाब्दिक अर्थ है 'क्षत (आघात) से त्राण देनेवाला (रक्षा करनेवाला)' [क्षात् त्रायते इति क्षत्त्रः ] । क्षत्री-संहिताओं एवं ब्राह्मणों में यह बहुप्रयुक्त शब्द है, जिसका अर्थ राजसेवकों में से एक सदस्य होता है। किन्तु अर्थ अनिश्चित है । ऋग्वेद (६.१३.२ ) में इसका अर्थ वह देवता है, जो याजकों को अच्छी वस्तुएँ प्रदान करता है । अथर्ववेद ( ३.२४,७;५.१७.४ ) तथा अन्य स्थानों में (शतपथ ब्राह्मण १४.५.४.६ ) तथा शां० श्री० सू० ( १६ ९,१६ ) में यही अर्थ है । वाजसनेयीसंहिता में महीधर द्वारा इसका अर्थ द्वारपाल लगाया गया है । सायण ने इसका अर्थ अन्तःपुराध्यक्ष (शत० ब्रा० ५.३.१.७) लगाया है। दूसरे परिच्छेदों में इसे रथवाहक कहा गया है। बाद में क्षत्री शब्द से एक वर्णसंकर जाति का बोध होने लगा। क्षत्रिय-संहिता तथा ब्राह्मणों में 'क्षत्रिय' समाज का एक प्रमुख अंग माना गया है, जो पुरोहित, प्रजा एवं सेवक (ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्र) से भिन्न है। राजन्य क्षत्रिय का पूर्ववर्ती शब्द है, किन्तु दोनों की व्युत्पत्ति एक है, (राजा सम्बन्धी अथवा राजकुल का)। वैदिक साहित्य में क्षत्रिय का प्रारम्भिक प्रयोग राज्याधिकारी या दैवी अधिकारी के अर्थ में हुआ है। पुरुषसूक्त (ऋ० वे० १०.९०) के अनुसार राजन्य (क्षत्रिय) विराट् पुरुष के बाहुओं से उत्पन्न हुआ है। क्षत्रिय एवं ब्राह्मणों (ब्रह्म-क्षत्र) का सम्बन्ध सबसे समीपवर्ती था। वे एक दूसरे पर भरोसा रखते तथा एक दूसरे का आदर करते थे। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता था। ऋषिजन राजाओं को अनुचित आचरण पर अपने प्रभाव से राज्यच्युत तक कर देते थे। वैदिक काल में छोटे राज्यों के क्षत्रियों का मुख्य कर्तव्य युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहना होता था। क्षत्रियों के प्रायः तोन वर्ग होते थे-(१) राजकुल, (२) प्रशासक वर्ग और (३) सैनिक । वे दार्शनिक भी होते थे, जैसे विदेह के जनक, जिन्हें ब्रह्मा कहा गया है। इस काल के और भी ज्ञानी क्षत्रिय थे, यथा, प्रवाहण जैवलि, अश्वपति कैकेय एवं अजातशत्रु । इन्होंने एक उपासना का नया मार्ग चलाया, जिसका विकसित रूप भक्ति मार्ग है । राजऋषियों को राजन्यर्षि भी कहते थे। किन्तु यह साधारण क्षत्रिय का धर्म नहीं था। वे कृषि भी नहीं करते थे । शासन का कार्य एवं युद्ध ही उनका प्रिय आचरण था । उनकी शिक्षा का मुख्य विषय था युद्ध कला, धनुर्वेद तथा शासनव्यवस्था, यद्यपि साहित्य, दर्शन तथा धर्मविज्ञान में भी वे निष्णात होते थे। जातकों में 'खत्तिय' शब्द आर्यराजन्यों के लिए व्यवहृत हुआ है जिन्होंने युद्धों में विजय दिलाने का कार्य किया, अथवा वे प्राचीन जातियों के वर्ग जो विजित होने पर भी राजसी अवस्थाओं का निर्वाह कर सके थे, क्षत्रिय कहलाते थे। रामायण-महाभारत में भी क्षत्रिय का यही अर्थ है, किन्तु जातकों के खत्तिय से इसके कुछ अधिक मूल्य हैं, अर्थात् सम्पूर्ण राजकार्य सैनिक वर्ग, सामन्त आदि । परन्तु जातक अथवा महाभारत किसी में क्षत्रिय का अर्थ सम्पूर्ण सैनिक वर्ग नहीं है । सेना में क्षत्रियों के सिवा अन्य वर्गों के पदाधिकारी (साधारण सैनिक से उच्च श्रेणी के) होते थे। __ धर्मसूत्रों और स्मृतियों में क्षत्रिय की उत्पत्ति और कत्र्तव्यों का समुचित वर्णन है । मनु (१.३१) ने पुरुषसूक्त के वर्णन को दुहराया है : लोकानां तु विवृद्धयर्थ मुखबाहूरु पादतः । ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रञ्च निरवर्तयात् ।। [लोक की वृद्धि के लिए विराट के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र बनाये गये ।] स्मृतियों के अनुसार क्षत्रिय का सामान्य धर्म पठन (अध्ययन), यजन (यज्ञ करना) और दान है । क्षत्रिय का विशिष्ट धर्म प्रजारक्षण, प्रजापालन तथा प्रजारञ्जन है । आपात्, काल में वह वैश्यवृत्ति से अपना निर्वाह कर सकता है, किन्तु शूद्रवृत्ति उसे कभी स्वीकार नहीं करनी चाहिए । श्रीमद्भगवद्गीता (८.४३) के अनुसार क्षत्रिय के निम्नांकित स्वाभाविक हैं : शौयं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्ध चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।। [शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपलायन, दान और ऐश्वर्य स्वाभाविक क्षात्र कर्म हैं।] श्रीमद्भागवत पुराण (द्वादश स्कन्ध, अ० १ और ब्रह्मवैवर्तपुराण (श्रीकृष्णजन्म खण्ड, ८३ अध्याय) में क्षत्रिय Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ क्षपणक-क्षौरकर्म के लक्षण और कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है जो मनु आदि स्मृतियों से मिलता-जुलता है । क्षपणक-जैन अथवा बौद्ध संन्यासी । जटाधर के अनुसार यह बुद्ध का ही एक प्रकार अथवा भेद है । क्षपणक प्रायः नग्न रहा करते थे। महाभारत (१.३.१२) में क्षपणक का उल्लेख है : सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणक मागच्छन्तम् । क्षपावन-क्षपा = रात्रि में, अवन = रक्षक-राजा । इस शब्द से राजा के एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य-रात्रि में रक्षण का ज्ञान होता है। रात्रि में निशाचरों, चोरों और हिंस्र जानवरों का भय अधिक होता है । इनसे प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। इसलिए उसका एक विरुद 'क्षपावन' है। क्षीरधाराव्रत-दो मासों की प्रतिपदा तथा पञ्चमी के दिन व्रती को केवल दुग्वाहार करना चाहिए। इस प्रकार के आचरण से अश्वमेध यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । दे० लिङ्गपुराण, ८३.६ । क्षीरधेनु-क्षीरधेनु का दान धार्मिक कृत्य है । दान के लिए भीर धादिनिति को भी रोक वराह पुराण के श्वेतोपाख्यान के क्षीरधेनु महात्म्य नामक अध्याय में इसका वर्णन पाया जाता है। क्षीरप्रतिपदा-वैशाख अथवा कार्तिक की प्रतिपदा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए । ब्रह्मा इसके देवता हैं । निम्नांकित शब्दों का उच्चारण करते हुए व्रती को अपने सामर्थ्यानुसार दुग्ध समर्पित करना चाहिए : "ब्रह्मन् प्रसीदतु माम् ।" कुछ धार्मिक ग्रन्थों के पाठ का भी इसमें विधान है। क्षुद्रसूत्र-ऋचाओं को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्रग्रन्थ हैं। इनमें एक 'क्षुद्रसूत्र' भी है । इसमें तीन प्रपाठक हैं। क्षरिकोपनिषद-योग सम्बन्धी उपनिषदों में से एक । इसमें योग की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। मनोविकारों को यह उपनिषद् (चिन्तन) छुरी की तरह काट देती है। क्षेत्रपाल-खेत अथवा भूमिखण्ड का रक्षक देवता। गृहप्रवेश या शान्तिकर्मों में क्षेत्रपाल को बलि देकर प्रसन्न किया जाता है। सिन्दूर, दीपक, दही, भात आदि सजाकर चौराहे पर क्षेत्रपाल के लिए रखने की विधि है। क्षेमराज-अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज का जन्म ११वीं शती में कश्मीर में हआ। कश्मीरी शैवमत के आचार्यों में इनकी गणना होती है। इन्होंने वसुगुप्त रचित 'शिवसूत्र' पर 'शिवसूत्रविशिनी नामक व्याख्या लिखी है। इस ग्रन्थ में अनेकों आगमों के उद्धरण पाये जाते हैं । क्षेमव्रत-चतुर्दशी के दिन यह व्रत किया जाता है । इसमें यक्ष-राक्षसों के पूजन का विधान है। दे० हेमाद्रि, २.१५४। चतुर्दशी तिथि ऐसे ही प्राणियों के पूजनार्थ निश्चित है। क्षौरकर्म-सामान्यतः क्षौरकर्म शारीरिक प्रसाधन है, जिसमें केश, दाढ़ी-मँछ, नखों को कतर कर देह सजा दी जाती है। परन्तु व्रतों और संस्कारों में इसका धार्मिक महत्त्व भी है। व्रतादि में क्षौरकर्म न करने से दोष होता है : व्रतानामुपवासानां श्रद्धादीनाञ्चं संयमे । न करोति क्षौरकर्म अशुचिः सर्वकर्मसु ।। __ (ब्रह्मवैवर्त, प्रकृतिखण्ड, २७ अध्याय) [जो व्रत, उपवास, श्राद्ध, संयम आदि में क्षौरकर्म नहीं करता है वह सभी कर्मों में अपवित्र रहता है । ] 'शुद्धितत्व' में क्षौर का विधान इस प्रकार है : 'केशश्मश्रुलोमनखानि वापयीत शिखावर्जम्' । [ शिखा छोड़कर केश (सिर के बाल), दाढ़ी, रोयें और नख को कटाना चाहिए।] निम्नांकित तिथियों और कर्मी में क्षौर कर्म निषिद्ध है : रोहिण्याञ्च विशाखायां मैत्र चैवोत्तरासु च । मघायां कृत्तिकायाञ्च द्विजैः क्षौर विजितम् ।। कृत्वा तु मैथुनं क्षौरं यो देवान् तर्पये पितृन् । रुधिरं तद्भवेत्तोयं दाता च नरकं व्रजेत् ।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण) 'कर्मलोचन' नामक पद्धति में क्षौर कर्म सम्बन्धी और भी निषेध पाये जाते हैं : नापितस्य गृहे क्षौरं शक्रादपि हरेत् श्रियम् । रवौ दुःखं सुखं चन्द्रे कुजे मृत्युबुधे धनम् ।। मानं हन्ति गुरोर्वारे शुक्र शुक्रक्षयो भवेत् । शनौ च सर्वदोषाः स्युः क्षौर मत्र विवर्जयेत् ॥ [नापित के घर में जाकर क्षौरकर्म कराना इन्द्र की शोभा को भी हर लेता है। रविवार को क्षौरकर्म दुःख, चन्द्रवार को सुख, मंगल को मृत्यु, और बुध को धन उत्पन्न करता है। गुरुवार को मान का हनन करता है । शुक्र को क्षौरकर्म से शुक्रक्षय होता है। शनिवार को क्षौर से सभी Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख-खजुराहो २१७ दोष होते हैं, अतः इन दिनों में क्षौर वर्जित है।] किन्तु उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः । नट, भाण, भृत्य, राजसेवक आदि के लिए तथा व्रत, तीर्थ अजरश्चामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम् ।। आदि में निषेध नहीं है। भोजन के पश्चात् क्षौर नहीं एवमस्त्विति तं विष्णुरुवाच विनतासुतम् । कराना चाहिए। शिशु के प्रथम क्षौरकर्म को 'चूडाकरण' प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत् ।। कहते हैं । दे० 'चूडाकरण' । भवतेऽपि वरं दद्यां वृणोतु भगवानपि । तं ववे वाहनं विष्णुर्गरुत्मन्तं महाबलम् ॥ ध्वजञ्च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम् । ख-व्यञ्जन वर्णों के अन्तर्गत कवर्ग का द्वितीय अक्षर । एवमस्त्विति तं देवमुक्त्वा नारायणं खगः । वर्णाभिधानतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार कहा ववाज तरसा वेगाद् वायुं स्पर्धन् महाजवः ॥ गया है: [ भगवान् (विष्णु ) ने आकाश में उड़ने वाले गरुड खः प्रचण्डः कामरूपी शुद्धिर्वह्निः सरस्वती । आकाश इन्द्रियं दुर्गा चण्डी सन्तापिनी गुरुः ॥ से कहा, मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। आकाशगामी गरुड ने वर माँगते हए कहा, आपके ऊपर मैं ब→। उसने फिर शिखण्डी दन्तो जातीशः कफोणि गरुडो गदी। शून्यं कपाली कल्याणी सूर्पकर्णोऽजरामरः ।। नारायण से यह वचन कहा, अमृत के विना मैं अजर और अमर हो जाऊँ। विष्णु ने गरुड़ से कहा, ऐसा ही शुभाग्नेयश्चण्डलिंग जनो झंकारखड्गको । हो। उन दोनों वरों को ग्रहण कर गरुड़ ने विष्णु से वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है : कहा, मैं आपको वर देना चाहूँगा, वरण कीजिए । विष्णु बन्धूकपुष्पसंकाशां रत्नालङ्कारभूषिताम् । ने कहा, मैं तुम्हें वाहनरूप में ग्रहण करता हूँ। उन्होंने वराभयकरी नित्यां ईषद्हास्यमुखी पराम् । ध्वज बनाया और कहा, तुम इसके ऊपर स्थित होगे । एवं ध्यात्वा खस्वरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। गरुड़ ने भगवान् नारायण से कहा, ऐसा ही होगा। मातृकान्यास में यह अक्षर बाह में स्थापित किया इसके पश्चात् अत्यन्त गति वाला गरुड़ वायु से स्पर्धा जाता है। करता हुआ अत्यन्त वेग से प्रस्थान कर गया । ] दे० ख के अर्थ हैं इन्द्रिय, शून्य, आकाश, सूर्य, परमात्मा । ___ 'विष्णु' और 'गरुड़। खखोल्क-काशीपुरी में स्थित एक सूर्य देवता। इनका खगेन्द्र-खग ( पक्षियों) का इन्द्र (राजा), गरुड । माहात्म्य काशीखण्ड में वर्णित है : महाभारत ( १.३१.३१ ) में कथन है : काशीवासिजनानेकरूपपापक्षयंकरः । 'पतत्रिणाञ्च गरुड इन्द्रत्वेनाभ्यषिच्यत ।' विनतादित्य इत्याख्यः खखोल्कस्तत्र संस्थितः ।। [गरुड का पक्षियों के इन्द्र के रूप में अभिषेक हआ।] काश्यां पैलंगिले तीर्थ खखोल्कस्य विलोकनात् । दे० 'गरुड़'। नरश्चिन्तितमाप्नोति नीरोगो जायते क्षणात् ।। खजुराहो ( खर्जूरवाह )—यह स्थान मध्य प्रदेश में छतरकहते हैं कि नागमाता कदू और गरुडमाता विनता पुर के पास स्थित है। प्राचीन काल में चन्देल राजाओं ( दोनों सौतें ) लड़ती हुई सूर्य की ओर गयीं तो कद्रू ने ___ की यहाँ राजधानी थी। अपने समय में यह तीर्थस्थल घबड़ाहट में सूर्य को उल्का समझा और 'ख, ख, उल्का' था। आर्य शैली ( नागर शैली) के मन्दिरों में भारतीय ऐसा कह दिया । विनता ने इसी को सूर्य का नाम मानकर वास्तुकला का सुन्दरतम विकास खजुराहो के मन्दिरों में प्रतिष्ठित कर दिया। पाया जाता है। इनका निर्माण चन्देल राजाओं के संरखगासन-खग = गरुड है आसन जिसका, विष्णु । विष्णु क्षण में ९५० ई० से १०५० ई० के मध्य हुआ, जो संख्या का आसन गरुड कैसे हुआ, इसका वर्णन महाभारत । में लगभग ३० हैं तथा वैष्णव, शैव और जैन मतोंसे (१.३३.१२-१८) में पाया जाता है : सम्बन्धित हैं। प्रत्येक मन्दिर लगभग एक वर्गमील के तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम् । क्षेत्रफल में स्थित है। कन्दरीय महादेव का मन्दिर स ववे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरीक्षगः ।। इस समुदाय में सर्वश्रेष्ठ है। मन्दिरों में गर्भगृह, मण्डप, २८ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ खट्वाङ्ग-खाण्डवबन अर्द्धमण्डप, अन्तराल एवं महामण्डप पाये जाते हैं । गर्भ- भरे रहते हैं और लकड़ी दृढ होती है । इसमें से कत्था भी गृह के चतुर्दिक प्रदक्षिणापथ भी है। वैष्णव तथा शव निकलता है। मन्दिरों की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियों का अङ्कन खण्डनकुठार- अद्वैत वेदान्तमत के उद्भट लेखक वाचस्पति प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो शिव-शक्ति के ऐक्य मिश्र द्वारा रचित एक ग्रन्थ । वेदान्तबाह्य सिद्धान्तों की अथवा शिव-शक्ति के योग से सृष्टि की उत्पत्ति का इसमें तीव्र आलोचना की गयी है। प्रतीक है। यहाँ पर चौंसठ योगिनियों का एक मन्दिर खण्डनखण्डखाद्य-वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । पण्डितभी था जो अब भग्नावस्था में है। रत्न श्रीहर्ष कृत 'खण्डनखण्डखाद्य' का अन्य नाम अध्यात्म उपदेश सम्बन्धी संस्कृत नाटक 'प्रबोधचन्द्रो 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है। शङ्कराचार्य का मायावाद दय' की रचना कृष्णमिश्र नामक एक ज्ञानी पंडित द्वारा अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही अवलम्बित है । उनके यहीं पर १०६५ ई० में सम्पन्न हई, जो कीर्तिवर्मा नामक सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण भिन्न, अभिन्न अथवा चन्देल राजा की सभा में अभिनीत हुआ था। इस नाटक भिन्नाभिन्न भी नहीं हैं, अपितु अनिर्वचनीय हैं। इस से तत्कालीन धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों पर प्रकाश अनिर्वचनीयता के आधार पर ही कारण सत् है और पड़ता है । दे० 'प्रबोधचन्द्रोदय' तथा 'कृष्णमिश्र' । कार्य मायामात्र है। श्रीहर्ष के खण्डनखण्डखाद्य में सब प्रकार के विपक्षों का बड़ी तीक्ष्णता के साथ खण्डन किया खट्वाङ्ग-शिव का विशेष शस्त्र । इसकी आकृति खट्वा गया है तथा उनके सिद्धान्त का ही नहीं अपितु जिनके (चारपाई) के अङ्ग (पाय) के समान होती थी। यह दुर्लध्य और अमोघ होता है । महिम्नस्तोत्र में द्वारा वे सिद्ध होते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन कर अद्वितीय, अप्रमेय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना की वर्णन है : गयी है। महोक्षः खट्वाङ्गपरशुरजिनं भस्म फणिनः __ग्रन्थ का शब्दार्थ है : 'खण्डनरूपी खाँड़ की मिठाई । कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् । खाको साधु-दादूपन्थी साधुओं की पाँच श्रेणियाँ हैं। [बूढ़ा बैल, खाट का पाया, फरसा, चमड़ा, राख, साँप उनमें खाकी साधु भी एक हैं। ये भस्म लपेटे रहते हैं और खोपड़ी-वरदाता प्रभु की यही साधनसामग्री है।] और भाँति भाँति की तपस्या करते हैं। भस्म अथवा एक इक्ष्वाकुवंशज राजर्षि, जो मृत्यु सन्निकट जानकर खाक शरीर पर लपेटने के कारण ही ये खाकी कहकेवल घड़ी भर ध्यान करते हुए मोक्ष पा गये । लाते हैं। खड्ङ्गधाराव्रत-दे० असिधाराव्रत, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, दादूपन्थियों के अतिरिक्त शैव-वैष्णवों में भी ऐसे ३.२१८.२३-२५ । संन्यासी होते हैं। खङ्गसप्तमी-वैशाख शुक्ल सप्तमी को गङ्गासप्तमी कहते खादिरगृह्यसूत्र-यह गृह्यसूत्र शुक्लयजुर्वेद का है । ओल्डेनहैं। इस व्रत में गंगापूजन होता है। कहा जाता है कि वर्ग द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि जह न ऋषि क्रोध में आकर गङ्गाजी को पी गये थे तथा ईस्ट, सिरीज में प्रस्तुत किया गया है । इसमें गृह्य संस्कारों इसी दिन उन्होंने अपने दाहिने कान से गङ्गाजी को और ऋतुयज्ञों का वर्णन पाया जाता है । बाहर निकाला था। खाण्डकीय-यह कृष्ण यजुर्वेद का एक सम्प्रदाय है । खण्डदेव-प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् । पूर्वमीमांसा के दार्श- खाण्डववन-अग्नि के द्वारा खाण्डववन जलाने की कथा निक ग्रन्थों में खण्डदेव ( मृत्युकाल १६६५ ई०) द्वारा महाभारत की मुख्य कथा से सम्बन्धित है । राजा श्वेतकि रचित 'भट्टदीपिका' का बहुत सम्मानित स्थान है। इसकी के द्वादश वर्षीय यज्ञ में अग्नि ने घृत का बड़ी मात्रा में प्रसिद्धि का मुख्य कारण इसकी तार्किकता है । यह ग्रन्थ भोजन किया और इससे उनको अजीर्ण रोग हो गया। कुमारिल भट्ट के सिद्धान्तों का पोषक है। पश्चात् दूसरे यजमानों को यज्ञवस्तुओं के भक्षण की खदिर-यज्ञोपयोगी पवित्र वृक्ष । इसका यज्ञयप (यज्ञस्तम्भ) सामर्थ्य उनको न रही। परिणामस्वरूप अग्निदेव बहुत बनता है । इसकी शाखाओं में छोटे-छोटे चने जैसे काँटे क्षीण हो गये तथा इस सम्बन्ध में उन्होंने ब्रह्मा से पार्थना Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खालसा २१९ की । ब्रह्मा ने अग्नि को खाण्डव वन जलाकर उसके ऐसे हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आकाश में विचरण जन्तुओं का भक्षण करने की अनुमति दी, जो देवों को करने वाली यक्ष, गन्धर्व आदि कई देवयोनियाँ हैं, उन्हीं कष्ट पहुँचाते थे । अग्नि ने ब्राह्मण का वेष धारण कर में विद्याधर भी हैं । पक्षी और नक्षत्र भी खेचर कहअर्जन एवं कृष्ण के पास जाकर खाण्डव वन को जलाने में सहायता मांगी, क्योकि खाण्डव वन इन्द्र द्वारा सुरक्षित खेचरी-आकाशचारिणी देवी । आकाश में चलने की एक था। कृष्ण और अर्जुन ने होकर वन के दो सिरों पर सिद्धि, जो योगियों को प्राप्त होती है। हठयोग की एक खड़े पशुओं को वन से भागने से रोकते हुए इन्द्र मुद्रा (शारीरिक स्थिति), जिसमें जीभ को उलटकर तालुको अग्नि के कार्य में बाधा देने से रोकने का कार्य मूल में लगाते हैं । इसकी पहेली प्रसिद्ध है : सँभाला । इस प्रकार सारा वन जल गया। अग्नि पन्द्रह दिन तक प्रज्वलित रहा । कहा गया है कि अग्नि ने इसे गोमांस खादयेद् यस्तु पिबेदमरवारुणीम् । एक बार और जलाया था। यह पौराणिक कथा प्रतीत कुलीनं तमहं मन्ये चेतरे कुलघातकाः ।। होती है । इसके पीछे यह अर्थ स्पष्ट है कि पाण्डवों ने खेमवास-महात्मा दादूदयाल ( दादूपन्थ चलाने वाले ) के इस वन को जलाकर 'खाण्डवप्रस्थ' ( इन्द्रप्रस्थ) नाम एक शिष्य कवि खेमदास थे। इनके रचे हए भजन या पद की अपनी राजधानी बसायी । जनता में खूब प्रचलित हैं। खशा-दक्ष की कन्या और कश्यप की एक पत्नी । गरुड- ख्याति-दार्शनिक सिद्धान्तवाद, यथा अनिर्वचनीय ख्याति, पुराण ( अध्याय ६ ) में इसका उल्लेख है : असत्ख्याति, सत्ख्याति आदि । सांख्यदर्शन के अनुसार धर्मपत्न्यः समाख्याताः कश्यपस्य वदाम्यहम् । अन्तिम ज्ञानरूपा वृत्ति । इस मत में तीन प्रकार के तत्त्व अदितिदितिदनुः काला अनायुः सिंहिका मुनिः ।। है-(१) व्यक्त (२) अव्यक्त और ज्ञ। मूल प्रकृति कद्रुः प्राधा इरा क्रोधा विनता सुरभिः खशा॥ को अव्यक्त कहा जाता है। मूल प्रकृति के परिणाम को खालसा-सिक्ख धर्म की एक शाखा 'खालसा' ( शद्ध) व्यक्त कहा जाता है । इसके तेईस भेद हैं जो कार्य-कारण कहलाती है। गुरु गोविन्दसिंह ने देखा कि उन्हें मगलों परम्परा से परिणत होते हैं । ज्ञ चेतन है । सांख्यसिद्धान्त से अवश्य लड़ना पड़ेगा । इस कारण उन्होंने एक ऐसा में ये ही पचीस तत्त्व अथवा प्रमेय हैं। इन्हीं तत्त्वों के सैनिक दल तैयार किया, जिसको धार्मिक आधार प्राप्त सम्यक् ज्ञान अर्थात् प्रकृति-पुरुष के पार्थक्य के बोध से दुःख हो। उन्होंने अपने सैनिकों को 'खड्ग दी पहुल' (खड्ग की निवृत्ति होती है । सांख्यकारिका (२) में कथन है : संस्कार ) तथा अन्य अनेक प्रतिज्ञाओं के पालन करने के 'व्यक्ताव्यक्त-ज्ञ-विज्ञानात् ।' लिए तैयार किया। इन प्रतिज्ञाओं में पाँच वस्तुओं [ व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के विज्ञान से दुःख निवृत्ति ।] ( केश, कच्छा, कृपाण, कड़ा तथा कंधा ) का धारण, इस ज्ञान को ही ख्याति कहते हैं। परन्तु यह भी एक नियमित ईश्वराराधना, एक साथ भोजन करना तथा प्रकार की चित्तवृत्ति (अक्लिष्टा) का परिणाम है। रज मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, सती होने, शिशुवध, तम्बाकू एवं और तम से रहित सत्त्वगुणप्रधान प्रशान्तवाहिनी प्रज्ञा मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की प्रतिज्ञाएँ थीं। हर ख्याति है। इसमें वृत्तिसंस्कार का चक्र बना रहता है। एक की उपाधि 'सिंह' रखी गयी । इनमें जातिभेद न रहा चित्तनिरोध की अवस्था में यह संस्काररूप से चलता रहता और इस प्रकार ये खालसा ( शुद्ध ) कहलाये । है। अभ्यास के द्वारा संस्कारों का भी क्षय होकर विदेह खिलपर्व-उन्तीस उपपुराणों के अतिरिक्त महाभारत का कैवल्य प्राप्त होता है, जिसमें ख्याति भी निवृत्त हो जाती खिलपर्व, जिसे हरिवंश भी कहते हैं, उपपुराणों में गिना है । दे० शिशुपालवध (४.५५) । जाता है । इसमें विष्णु भगवान् के चरित्र का कीर्तन है और विशेष रूप से कृष्णावतार की कथा है। खेचर-(आकाश में चलने वाले) विद्याधर । इन्हें कामरूपी ग-व्यञ्जनों के कवर्ग का तृतीय वर्ण । कामधेनुतन्त्र भी कहते हैं, अर्थात् ये जैसा रूप चाहें धारण कर सकते में इसके स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है : Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० गकार परमेशानि पञ्चदेवात्मकं सदा । दोनों रूपों की ओर विद्वानों ने संकेत किये है। अतः निर्गुणं त्रिगुणोपेतं निरीहं निर्मलं सदा ।। गङ्गा का भौतिक रूप के साथ एक पारमार्थिक रूप भी है। पञ्चप्राणमयं वणं सर्वशक्त्यात्मकं प्रिये । वनपर्व के अनुसार यद्यपि कुरुक्षेत्र में स्नान करके मनुष्य अरुणादित्यसंकाशां कुण्डलीं प्रणमाम्यहम् ।। पुण्य को प्राप्त कर सकता है, पर कनखल और प्रयाग के [हे परमेश्वरी देवी! ग वर्ण सदा पञ्चदेवात्मक है। स्नान में अपेक्षाकृत अधिक विशेषता है । प्रयाग के स्नान तीन गुणों से संयुक्त होते हुए भी सदा निर्गुण, निरीह को सबसे अधिक पवित्र माना गया है। यदि कोई व्यक्ति और निर्मल है । यह वर्ण पञ्च प्राणों से युक्त और सभी सैकड़ों पाप करके भी गङ्गा (प्रयाग) में स्नान कर ले तो शक्तियों से संपन्न है । लालवर्ण सूर्य के समान शोभा वाले उसके सभी पाप धुल जाते हैं। इसमें स्नान करने या कुण्डलिनीशक्ति स्वरूप इस वर्ण को प्रणाम करता है।] इसका जल पीने से पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी तक पवित्र वर्णोद्धारतन्त्र के अनुसार इसके ध्यान की विधि इस हो जाती है । गङ्गाजल मनुष्य की अस्थियों को जितनी प्रकार है : ही देर तक स्पर्श करता है उसे उतनी ही अधिक स्वर्ग में प्रसन्नता या प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। जिन-जिन स्थानों से ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि शृणुष्व वरवणिनी । होकर गङ्गा बहती है उन स्थानों को इससे संबद्ध होने के दाडिमीपुष्पसंकाशां चतुर्बाहुसमन्विताम् ॥ कारण पूर्ण पवित्र माना गया है । रक्ताम्बरधरां नित्यां रत्नालङ्कारभूषिताम् । गीता (१०.३१) में भगवान् कृष्ण ने अपने को नदियों एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। में गङ्गा कहा है। मनुस्मृति ( ८.९२ ) में गङ्गा और तन्त्रों में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते हैं : कुरुक्षेत्र को सबसे अधिक पवित्र स्थान माना गया है । कुछ गो-गौरी गौरवो गङ्गा गणेशो गोकुलेश्वरः । पुराणों में गङ्गा की तीन धाराओं का उल्लेख है-स्वर्गङ्गा शार्की पञ्चात्मको गाथा गन्धर्वः सर्वगः स्मृतिः ।। (मन्दाकिनी), भूगङ्गा ( भागीरथी ) और पातालगङ्गा सर्वसिद्धिः प्रभा धूम्रा द्विजाख्यः शिवदर्शनः । । (भोगवती)। पुराणों में भगवान विष्णु के बायें चरण के विश्वात्मा गौः पृथग्रूप बालबन्धुस्त्रिलोचनः । अँगूठे के नख से गङ्गा का जन्म और भगवान् शङ्कर की गीतं सरस्वती विद्या भोगिनी नन्दिनी धरा । जटाओं में उसका विलयन बताया गया है। भोगवती च हृदयं ज्ञानं जालन्धरी लवः ॥ विष्णुपुराण (२.८.१२०-१२१) में लिखा है कि गङ्गा गङ्गा-भारत की सर्वाधिक पवित्र पुण्यसलिला नदी। राजा का नाम लेने, सुनने, उसे देखने, उसका जल पीने, स्पर्श भगीरथ तपस्या करके गङ्गा को पृथ्वी पर लाये थे। यह ___करने, उसमें स्नान करने तथा सौ योजन से भी 'गङ्गा' कथा भागवत पुराण में विस्तार से है । आदित्य पुराण के नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों अनुसार पृथ्वी पर गङ्गावतरण वैशाख शुक्ल तृतीया को तक के पाप नष्ट हो जाते हैं । भविष्यपुराण (पृष्ठ ९, १२ तथा हिमालय से गङ्गानिर्गमन ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तथा १९८) में भी यही कहा है । मत्स्य, गरुड और पद्म(गङ्गादशहरा) को हुआ था। इसको दशहरा इसलिए पुराणों के अनुसार हरिद्वार, प्रयाग और गङ्गा के समुद्रकहते हैं कि इस दिन का गङ्गास्नान दस पापों को संगम में स्नान करने से मनुष्य मरने पर स्वर्ग पहुँच जाता हरता है। कई प्रमुख तीर्थस्थान-हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, है और फिर कभी उत्पन्न नहीं होता। उसे निर्वाण की सोरों, प्रयाग, काशी आदि इसी के तट पर स्थित हैं। प्राप्ति हो जाती है। मनुष्य गङ्गा के महत्त्व को मानता हो ऋग्वेद के नदीसूक्त (१०.७५.५-६) के अनुसार गङ्गा या न मानता हो यदि वह गङ्गा के समीप लाया जाय और भारत की कई प्रसिद्ध नदियों में से सर्वप्रथम है। महा- वहीं मृत्यु को प्राप्त हो तो भी वह स्वर्ग को जाता है और भारत तथा पद्मपुराणादि में गङ्गा की महिमा तथा पवित्र नरक नहीं देखता । वराहपुराण (अध्याय ८२) में गङ्गा के करनेवाली शक्तियों की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की गयी है। नाम को 'गाम् गता' (जो पृथ्वी को चली गयी है) के रूप स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (अध्याय २९) में इसके सहस्र काठशीवाट (अध्याय २९) में दसके सहस्र में विवेचित किया गया है। नामों का उल्लेख है। इसके भौतिक तथा आध्यात्मिक पद्मपुराण (सृष्टिखंड, ६०.३५) के अनुसार गङ्गा सभी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्गाजयन्ती-गङ्गेश उपाध्याय २२१ प्रकार के पतितों का उद्धार कर देती है। कहा जाता है गङ्गाधर-शिव का एक पर्याय । शिवजी गङ्गा को अपने सिर कि गङ्गा में स्नान करते समय व्यक्ति को गङ्गा के सभी पर धारण करते है, इसलिए इनका यह नाम पड़ा। नामों का उच्चारण करना चाहिए। उसे जल तथा मिट्टी वाल्मीकि रामायण (१.४३.१-११) में शिव द्वारा गङ्गा लेकर गङ्गा से याचना करनी चाहिए कि आप मेरे पापों धारण की कथा दी हुई है। को दूर कर तीनों लोकों का उत्तम मार्ग प्रशस्त करें। गङ्गाधर (भाष्यकार)-कात्यायनसूत्र (यजुर्वेदीय) के भाष्यबुद्धिमान व्यक्ति हाथ में दर्भ लेकर पितरों की सन्तुष्टि के कारों में गङ्गाधर का भी नाम उल्लेखनीय है। लिए गङ्गा से प्रार्थना करे । इसके बाद उसे श्रद्धा के साथ गङ्गाधर (कवि)-ऐतिहासिक गया अभिलेख के रचयिता, सूर्य भगवान् को कमल के फूल तथा अक्षत इत्यादि सम- जिनका समय ११३७ ई० है। गङ्गाधर नामक गीतपण करना चाहिए । उसे यह भी कहना चाहिए कि वे गोविन्दकार जयदेव के प्रतिस्पर्धी एक कवि भी थे। उसके दोषों को दूर करें। गङ्गासागर-वह तीर्थ, जहाँ गङ्गा नदी सागर में मिलती है ___ काशीखण्ड (२७.८०) में कहा गया है कि जो लोग गङ्गा (गङ्गा और सागर का संगम) । सभी संगम पवित्र माने के तट पर खड़े होकर दूसरे तीर्थों की प्रशंसा करते है और जाते हैं, यह संगम औरों से विशेष पवित्र है। अपने मन में उच्च विचार नहीं रखते, वे नरक में जाते यात्री कलकत्ता से प्रायः जहाज द्वारा गंगासागर जाते हैं। काशीखण्ड (२७.१२९-१३१) में यह भी कहा गया हैं। कलकत्ता से ३८ मील दक्षिण 'डायमण्ड हारबर' है कि शुक्ल प्रतिपदा को गङ्गास्नान नित्यस्नान से सौगुना, है, वहाँ से लगभग ९० मील गंगासागर के लिए नाव या संक्रान्ति का स्नान सहस्रगुना, चन्द्र-सूर्यग्रहण का स्नान जहाज द्वारा जाना होता है। द्वीप में थोड़े से साधु रहते लाखगुना लाभदायक है। चन्द्रग्रहण सोमवार को तथा है, वह अब वन से ढका तथा प्रायः जनहीन है। जहाँ सूर्यग्रहण रविवार को पड़ने पर उस दिन का गङ्गास्नान गंगासागर का मेला होता है, वहाँ से उत्तर वामनखल असंख्यगुना पुण्यकारक है। स्थान में एक प्राचीन मन्दिर है। उसके पास चन्दनपीडि __ भविष्यपुराण में गङ्गा के निम्नांकित रूप का ध्यान वन में एक जीर्ण मन्दिर है और बुड-बुडीर तट पर करने का विधान है : विशालाक्षी का मन्दिर है । इस समय गङ्गासागर का मेला सितमकरनिषण्णां शुक्लवर्णां त्रिनेत्राम् जहाँ लगता है पहले वहाँ पूरी गङ्गा समुद्र में मिलती थी। करधृतकमलोद्यत्सूत्पलाऽभीत्यभीष्टाम् । अब सागरद्वीप के पास एक छोटी धारा समुद्र में मिलती विधिहरिहररूपां सेन्दुकोटीरचूडाम् है। यहाँ कपिल मुनि का आश्रम था, जिनके शाप से कलितसितदुकूलां जाह्नवीं तां नमामि । राजा सगर के साठ हजार पुत्र जल गये थे और जिनको गङ्गा के स्मरण और दर्शन का बहुत बड़ा फल बत- तारने के लिए भगीरथ गङ्गा को यहाँ लाये । संक्रान्ति के लाया गया है : दिन समुद्र की प्रार्थना की जाती है, प्रसाद चढ़ाया जाता दृष्टा तु हरते पापं स्पृष्टा तु त्रिदिवं नयेत् । है और स्नान किया जाता है। दोपहर को फिर स्नान प्रसङ्गेनापि या गङ्गा मोक्षदा त्ववगाहिता ।। तथा मुण्डन कर्म होता है। श्राद्ध, पिण्डदान भी किया गङ्गाजयन्ती-ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गङ्गाजयन्ती मनायी __ जाता है। मीठे जल का कच्चा सरोवर है जिसका जल जाती है । इस तिथि को गङ्गादशहरा भी कहते हैं। इस पीकर लोग अपने को पवित्र मानते हैं । दिन गङ्गास्नान का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसी दिन गङ्गश उपाध्याय-न्यायदर्शन के एक नवीन शैली प्रवर्तक हिमालय से गङ्गा का निर्गमन हुआ था। इस तिथि का आचार्य । इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्त्वचिन्तामणि' त्रयोदश गङ्गास्नान दसों प्रकार के पापों का हरण करता है। दस शताब्दी में रचा गया था। ये मिथिला के निवासी थे । पापों में तीन मानसिक, तीन वाचिक और चार कायिक हैं। जब मैथिलों ने नवद्वीप विद्यापीठ के पक्षधर पण्डित को गङ्गादास सेन-महाभारत ग्रन्थ को उड़िया भाषा में अनू- उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि नहीं करने दी, तब उन्होंने सुनदित करने वालों में गङ्गादास सेन भी एक हैं। उत्कल कर हो उसे पूरा कण्ठस्थ कर लिया और नवद्वीप के प्रदेश में इनका महाभारत बहुत लोकप्रिय है। प्रकाण्ड विद्वान् जगदीश तर्कालंकार, मथुरानाथ भट्टाचार्य Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आदि को पढ़ाकर नव्य न्याय का दिगन्त में प्रसार किया। गङ्गोत्तरी - गङ्गाजी का उद्गम तो हिममण्डित गोमुख तीर्थ से हुआ है, किन्तु गंगोत्तरी धाम उससे १८ मील नीचे है । गंगोत्तरी में स्नान के पश्चात् गंगाजी का पूजन करके गंगाजल लेकर यात्री नीचे उतरते हैं। यह स्वान समुद्रस्तर से १०,०२० फुट की ऊंचाई पर गंगा के दक्षिण तट पर है । आस-पास देवदारु तथा चीड़ के वन हैं । यहाँ मुख्य मन्दिर गङ्गाजी का है। शीत काल में यह स्थान हिमाच्छादित हो जाता है। गङ्गोत्तरी से नीचे केदारगंगा का संगम है । वहाँ से एक फर्लांग पर बड़ी ऊँचाई से गंगाजी शिवाकार गोल शिलाखण्ड के ऊपर गिरती हैं । इस स्थान को गौरीकुण्ड कहते हैं । गजच्छाया - ज्योतिष का एक योग । मिताक्षरापरिभाषा में इसका लक्षण दिया हुआ है : यदेन्दुः पितृदैवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः याम्या तिथिर्भवेत् सा हि गजच्छाया प्रकीर्तिता ॥ [ चन्द्र मया में और सूर्य हस्त नक्षत्र (आश्विन कृष्ण १३) में हो तब गजच्छाया योग कहलाता है।] कृत्यचिन्तामणि के अनुसार यह योग श्राद्ध के लिए पुण्यकारक माना जाता है : कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां मघास्विन्दुः करे रविः । यदा तदा गजच्छाया धाद्धे पुण्यैरवाप्यते ।। वराहपुराण के अनुसार चन्द्र-सूर्यग्रहणकाल को भी गजच्छाया योग कहते हैं : सैंहिकेयो यदा भानुं ग्रसते पर्वसन्धिषु । गजच्छाया तु सा प्रोक्ता तत्र श्राद्धं प्रकल्पयेत् ॥ गजच्छाया व्रत आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को यदि मघा नक्षत्र हो तथा सूर्य हस्त नक्षत्र पर हो तो इस व्रत का अनुष्ठान होता है । यह श्राद्ध का समय है । शातातप (हमाद्रि, काल पर चतुर्वचिन्तामणि) के अनुसार यदि इस अमावस को सूर्यग्रहण हो तो उसको गजच्छाया कहते हैं । इस समय का श्राद्ध अक्षय होता है । गजनीराजनाविधि - आश्विन पूर्णिमा के दिन मध्याह्नोत्तर काल में गजों ( हाथियों) के सामने लहरों में जलते हुए दीपकों को आवर्तित करने को गजनीराजनाविधि कहते गङ्गोतरी-गण हैं । यह राजाओं के लिए मांगलिक कृत्य माना जाता है । गजपूजाविधि - आश्विन पूर्णिमा के दिन सुख-समृद्धि के अभिलाषियों के लिए इस व्रत का विधान है । दे० हेमाद्रि, २.२२२-२५ । इसमें गज की पूजा होती है । गजानन -- गणेश का पर्याय । गणेश गजानन कैसे हुए यह कथा ब्रह्मवैवर्त (गणेशखण्ड, अध्याय ६) तथा स्कन्दपुराण ( गणेशखण्ड, अध्याय ११ ) में विभिन्न रूपों में कही गयी है। ब्रह्मवैवर्त में कहा गया है शनिदृष्टया शिरश्छेदाद गजवक्त्रेण योजितः । गजाननः शिशुस्तेन नियतिः केन बाध्यते ॥ [ शनिदेव की दृष्टि पड़ने से गणेशजी का मस्तक कट गया, तब हाथी का मस्तक लगा देने पर वे गजानन कहे गये । भाग्य प्रबल है ।] दे० 'गणेश' | गजायुर्वेद - आयुर्वेद का यह एक पशुचिकित्सीय विभाग है । गाय, हाथी, घोड़े आदि पशुओं के सम्बन्ध में आयुर्वेद ग्रन्थ अवश्य रहे होंगे, क्योंकि अग्निपुराण (२८१-२९१ अध्याय तक ) में इन विविध आयुर्वेदों की चर्चा की गयी है। गजायुर्वेद में गज (हाथी) के प्रकार तथा तत्सम्बन्धी चिकित्सा का विस्तृत विधान है। 'शालिहोत्र' भी पशुचिकित्सा का प्रमुख ग्रन्थ है। गढ़मुक्तेश्वर - मेरठ से २६ मील दक्षिण-पूर्व गङ्गा के दाहिने तट पर यह नगर है। यहाँ तक मोटर बसें जाती है। प्राचीन काल में विस्तृत हस्तिनापुर नगर का यह एक खण्ड था । यहाँ मुक्तेश्वर शिव का मन्दिर है । कई अन्य प्राचीन मन्दिर भी हैं। कार्तिक पूर्णिमा को यहां विशाल मेला लगता है । गण गण का अर्थ 'समूह' है रुद्र के अनुचरों को भी गण कहा गया है। कुछ देवता गण ( समुदाय) रूप में प्रसिद्ध हैं : आदित्य- विश्व वसवः, तुषिताभास्वरानिलाः । महाराजिक - साध्याश्च रुद्राश्च गणदेवताः ॥ [ आदित्य (१२) विश्वेदेव (१०) वसु (८), तुषित, आभास्वर, मरुत (४९), महाराजिक, साध्य और रुद्र (११) गणदेवता हैं ।] मरुतों के गण, इन्द्र और दोनों के सैनिक हैं । ज्योतिषरत्नमाला में अश्विनी आदि जन्मनक्षत्रों के अनुसार देव, मानुष और राक्षस तीन गण माने गये हैं । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणगौरोवत-गणपति २२३ गणगौरीव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को विशेष रूप से सधवा शरीर और लम्बा उदर है। इनके चार हाथ और हाथी स्त्रियों के लिए गौरीपूजन का विधान है। कुछ लोग इसे का सिर है, जिसमें एक ही दाँत है, इनके एक हाथ में गिरिगौरीव्रत कहते हैं। दे० अहल्याकामधेनु, पत्रात्मक शंख, दूसरे में चक्र, तीसरे में गदा अथवा अंकुश तथा २५७ । भारत के मध्य भाग, राजस्थान आदि में यह बहुत चौथे में कुमुदिनी है । इनकी सवारी मूषक है। प्रचलित है। __ गणेश के गजानन और एकदन्त होने के सम्बन्ध में गणपति (गणेश)-गणपति का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद पुराणों में अनेक कथाएँ दी हई हैं । दे० 'गजानन' । एक (२.२३.१) में मिलता है : कथा के अनुसार पार्वती को अपने शिशु गणेश पर बड़ा गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कवि कवीनामुपश्रवस्तमम् । गर्व था। उन्होंने शनिग्रह से उसको देखने को कहा। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आनः शृण्वन्नूतिभिः सीद शनि की दृष्टि पड़ते ही गणेश का सिर जलकर भस्म हो सादनम् ।। गया । पार्वती बहुत दुखी हुईं। ब्रह्मा ने उनसे कहा कि शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेधाध्याय में भी गणपति शब्द जो भी प्रथम सिर मिले उसको गणेश के ऊपर रख दिया आया है । ऐसा लगता है कि प्रारम्भिक गणराज्यों के गण- जाय । पार्वती को सबसे पहले हाथी का ही सिर मिला, पतियों के सम्बन्ध में जो भावना थी उसी के आधार पर जिसको उन्होंने गणेश के ऊपर रख दिया । इस प्रकार देवमण्डल के गणपति की कल्पना की गयी। परन्तु यह गणेश गजानन हो गये । दूसरी कथा के अनुसार एक बार शब्द देवताओं के एक विरुद के रूप में प्रयुक्त हुआ है, पार्वती स्नान करने गयीं और गणेश को दरवाजे पर बैठा स्वतन्त्र देवता के रूप में नहीं। किन्तु रुद्र (वैदिक शिव) गयीं । शिव आकर पार्वती के भवन में प्रवेश करना चाहते के गणों से गणपति का सम्बन्ध स्वतन्त्र देवता रूप में थे। गणेश ने रोका। शिव ने क्रोध में आकर गणेश का सिर काट दिया, परन्तु पार्वती को सन्तुष्ट करने के लिए पुराणों में रुद्र के मरुत् आदि असंख्य गण प्रसिद्ध हैं। हाथी का सिर लाकर गणेश के शरीर में जोड़ दिया । इनके नायक अथवा पति को विनायक या गणपति कहते तीसरी कथा के अनुसार पार्वती ने स्वयं अपनी कल्पना से हैं । समस्त देवमण्डल के नायक भी गणपति ही हैं, यद्यपि गणेश का सिर हाथी का बनाया । एकदन्त होने की शिवपरिवार से इनका सम्बन्ध बना हुआ है। डॉ० सम्पू कथा इस प्रकार है कि एक बार परशराम कैलास में शिवर्णानन्द ने अपने ग्रन्थों-'गणेश' तथा 'हिन्दू देवपरिवार का जी से मिलने गये । पहरे पर बैठे गणेश ने उनको रोका। विकास' में गणेश को आर्येतर देवता माना है, जिसका दोनों में युद्ध हुआ। परशुराम के परशु (फर्स) से गणेश क्रमशः प्रवेश और आदर हिन्दू देवमण्डल में हो गया । बहुतेरे का एक दाँत टूट गया। ये सब कथाएँ काल्पनिक है। लोगों का कहना है कि हिन्दू लघु देवमण्डल, अर्धदेवयोनि इनका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि गणपति का सिर हाथी तथा भूत-पिशाच परिवार में बहुत से आर्येतर तत्त्व मिलते के समान बड़ा होना चाहिए जो बुद्धिमानी और गम्भीरता हैं । परन्तु गणपति अथवा गणेश में आर्येतर तत्त्व हूँढना का द्योतक है। इनके आयुध भी दण्डनायक के प्रतीक है। कल्पना मात्र है । गणपति का सम्बन्ध प्रारम्भ से ही आर्य गणपति विघ्ननाशक, मंगल और ऋद्धि-सिद्धि के देने वाले, गणों, रुद्रगण तथा शिवपरिवार से है । उनको विघ्नकारी। विद्या और बुद्धि के आगार हैं। प्रत्येक मङ्गलकार्य के और भयंकर गुण ऋक्थ में रुद्र से मिले हैं तथा सिद्धि- प्रारम्भ में इनका आवाहन किया जाता है। प्रत्येक शिवकारी और माङ्गलिक गुण शिव से । मन्दिर में गणेश की मति पायी जाती है। गणेश के स्वपुराणों में रूपकों की भरमार है इसलिए गणपति की तन्त्र मन्दिर दक्षिण में अधिक पाये जाते हैं । गणपति की उत्पत्ति और उनके विविध गुणों का आश्चर्यजनक रूपकों पूजा का विस्तृत विधान है। इनको मोदक (लड्डू) विशेष में अतिरंजित वर्णन है। अधिकांश कथाएं ब्रह्मवैवर्त- प्रिय हैं । गणेश की मूर्ति का ध्यान निम्नांकित है : पुराण में पायी जाती है । गणपति कहीं शिव-पार्वती के पुत्र खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् माने गये हैं और कहीं केवल पार्वती के ही। इनके विग्रह प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम् । की कल्पना भी विचित्र है। इनका रक्त रंग अथवा मोटा दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ गणपति उपनिषद-गणेश उपपुराण वन्दे शैलसुतासुतं गणपति सिद्धिप्रदं कामदम् ।। तन्त्रसार में एक दूसरा ध्यान वर्णित है : सिन्दूराभं त्रिनेत्रं पृथुतरजठरं हस्तपर्दधानं दन्तं पाशाङ्कुशेष्टान्युरुकरविलसद्बीजपूराभिरामम् । बालेन्दुद्योतिमौलि करिपतिवदनं दानपूरार्द्रगण्डम् भोगीन्द्राबद्धभूषं भजत गणपति रक्तवस्त्राङ्गरागम् ॥ पूजापद्धति में गणपतिनमस्कार की विधि इस प्रकार है: देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः । विघ्नं हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः ।। राघवभट्ट कृत शारदातिलक की टीका के अनुसार इकावन (५१) गणपति और उतनी ही उनकी शक्तियाँ हैं। गणपति उपनिषद्-गाणपत्य साहित्य का उदय गणपति- पूजा से होता है । गणपति तापनीय उपनिषद एवं गणपति उपनिषद् में गाणपत्य धर्म वा दर्शन प्राप्त होता है । गण- पति उपनिषद् अथर्वशिरस् का ही एक भाग है। इसका अंग्रेजी अनुवाद केनेडी ने प्रस्तुत किया है। गणपति-उपासना-महाभारत, अनुशासन पर्व के १५१वें अध्याय में गणेश्वरों और विनायकों का स्तुति से प्रसन्न हो जाना और पातकों से रक्षा करना वर्णित है । इस नाते गजानन एवं षडानन दोनों गणाधीश हैं और भगवान् शंकर के पुत्र है। परन्तु गजानन तो परात्पर ब्रह्म के अवतार माने जाते हैं और परात्पर ब्रह्म का नाम "महा- गणाधिपति' कहा गया है। भाव यह है कि महागणाधि- पति ने ही अपनी इच्छा से अनन्त विश्व और प्रत्येक विश्व में अनन्त ब्रह्माण्डों की रचना की और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अपने अंश से त्रिमूर्तियाँ प्रकट की। इसी दृष्टि से सभी सम्प्रदायों के हिन्दुओं में सभी मंगल कार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सबसे पहले होती है । यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता है । पुस्तक, पत्र, बही आदि किसी भी लेख के आरम्भ में पहले "श्रीगणेशाय नमः" लिखने की पुरानी प्रथा चली आती है। महाराष्ट्र में गणपतिपूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को बड़े समारोह से हुआ करती है और गणेशचतुर्थी के व्रत तो सारे भारत में मान्य हैं। गणपति विनायक के मन्दिर भी भारतव्यापी हैं और गणेशजी आदि और अनादि देव माने जाते हैं। इन्हीं के नाम से गाणपत्य सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। गणपतिकुमारसम्प्रदाय-'शङ्करदिग्विजय' में आनन्दगिरि और धनपति ने गाणपत्य सम्प्रदाय की छ: शाखाओं का वर्णन किया है। इनमें एक शाखा 'गणपतिकुमारसम्प्रदाय' है । इस सम्प्रदाय वाले हरिद्रा-गणपति को पूजते हैं। वे भी अपने उपास्य देव को परब्रह्म परमात्मा कहते हैं और ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के २३वें सूक्त को प्रमाण मानते हैं। दे० 'गणपति' । गणपतिचतुर्थो-भविष्यपुराण के अनुसार प्रत्येक चतुर्थी का व्रत गणपतिचतुर्थीव्रत कहलाता है। जब गणेश की पूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को होती है तो इस तिथि को शिवाचतुर्थी, यदि माघ शुक्ल चतुर्थी को हो तो शान्ता चतुर्थी और यदि शुक्ल चतुर्थी को मंगल का दिन पड़े तो उसे सुखा चतुर्थी कहते हैं। आजकल यह पूजा डेढ़ दिन, पाँच दिन, सात दिन अथवा अनन्तचतुर्दशी तक चलती है । अन्तिम दिन मूर्ति कूप, तालाब, नदी अथवा समुद्र में गाजे-बाजे के साथ विजित की जाती है। दो मास की चतुर्थियों के दिनों में व्रती को निराहार रहने का विधान है। उस दिन ब्राह्मण को तिल से बने पदार्थ खिलाने चाहिए। वही पदार्थ रात्रि में स्वयं भी खाने चाहिए । दे० हेमाद्रि, १.५१९-५२० ।। गणपतितापनीयोपनिषद-नसिंहतापनीयोपनिषद् की बहुग्राहकता वा प्रचार देख अन्य सम्प्रदायों ने भी इसी ढंग के उपनिषद्ग्रन्थ प्रस्तुत किये। राम, गणपति, गोपाल, त्रिपुरा आदि तापनीय उपनिषदें प्रस्तुत हई। गणपतितापनीयोपनिषद् में गाणपत्य मत के दर्शन का विवेचन गणेश उत्सव-महाराष्ट्र प्रदेश में यह उत्सव उसी उल्लास से मनाया जाता है जैसे बंगाल में दुर्गोत्सव, उड़ीसा में रथयात्रा तथा द्रविड देश में पोंगल मास । मध्ययुग में मराठा शक्ति के उदय के साथ गणेशपूजन का महत्त्व बढ़ा । उस समय गणेश (जननायक) की विशेष आवश्यकता थी। गणेश उसके धार्मिक प्रतीक थे। आधुनिक युग में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने इस उत्सव का पुनरुद्धार किया। इसमें लगभग एक सप्ताह का कार्यक्रम बनता है । इसमें पूजन, कथा, व्याख्यान, मनोरञ्जन आदि का आयोजन किया जाता है। यह उत्सव बड़े सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व का है। गणेश उपपुराण-गाणपत्य सम्प्रदाय का उपपुराण । इसमें Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेशकुण्ड-गन्धवत २२५ भगवान् गणपति की अनेक कथाएँ दी गयी है। गणेशकुण्ड-करवी स्टेशन से चित्रकूट जाते समय मार्ग में करवी संस्कृत पाठशाला मिलती है। यहाँ से लगभग ढ़ाई मील दक्षिण-पूर्व पगडण्डी के रास्ते जाने पर गणेशकुण्ड नामक सरोवर तथा प्राचीन मन्दिर मिलते हैं। अब ये सरोवर तथा मन्दिर जीर्ण दशा में अरक्षित हैं। गणेशखण्ड-ब्रह्मवैवर्तपुराण के चार खण्डों-ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, गणेशखण्ड और कृष्णजन्मखण्ड में से एक । गणेशखण्ड में गणेश के जन्म, कर्म तथा चरित का विस्तृत वर्णन है। इसमें गणेश कृष्ण के अवतार के रूप में वर्णित हैं। गणेशचतुर्थीव्रत-भाद्र शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए । इसमें गणेशपूजन का विधान है। हेमाद्रि, १.५१० के अनुसार चतुर्थी के दिन गणेशपूजन का विधान वैश्वानरप्रतिपदा की तरह ही होना चाहिए । दे० 'गणपतिचतुर्थी' । गणेशयामलतन्त्र-कुलचूडामणितन्त्र में उद्धृत ६४ तन्त्रों की सूची में आठ यामल तन्त्र सम्मिलित हैं। 'यामल' शब्द यमल (युग्म) से गठित है तथा विशेष देवता तथा उसकी शक्ति के ऐक्य का सूचक है। गणेशयामलतन्त्र उन आठों में से एक है। गणेशस्तोत्र-वैष्णवसंहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख पाया जाता है, जो गाणपत्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। गणेशस्तोत्र इसी का एक अंश है, जिसमें गणेश की स्तुतियों का संग्रह है। गणोद्देशदीपिका-यह चैतन्य सम्प्रदाय के आचार्य रूप गोस्वामी कृत १६वीं शती का एक संस्कृत ग्रन्थ है। इसमें चैतन्य महाप्रभु के साथियों को गोपियों का अवतार कहा गया है। गण्डको-हिमालय से प्रवाहित होनेवाली उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नदी। इसका प्राचीन नाम सदानीरा था। दूसरा नाम नारायणी भी है, क्योंकि इसके प्रवाहवेग द्वारा गोलाकार होनेवाले पाषाणखण्डों से नारायण (शालग्राम) निकलते हैं । परवर्ती स्मृतियों के अनुसार, गण्डक्याश्चैकदेशे च शालग्रामस्थलं स्मृतम् । पाषाणं तद्भवं यत्तत् शालग्राममिति स्मृतम् ।। वराहपुराण (सोमेश्वरादि लिङ्गमहिमा, अविमुक्तक्षेत्र, त्रिवेण्यादिमहिमा नामाध्याय) में शालग्राम-उत्पत्ति का विस्तृत वर्णन पाया जाता है : गण्डक्यापि पुरा तप्तं वर्षाणामयुतं विधो । शीर्णपर्णाशनं कृत्वा वायुभक्षाप्यनन्तरम् ।। दिव्यं वर्षशतं तेपे विष्णु चिन्तयती सदा । ततः साक्षाज्जगन्नाथो हरिभक्तजनप्रियः ॥ उवाच मधुरं वाक्यं प्रीतः प्रणतवत्सलः । गण्डकि त्वां प्रसन्नोऽस्मि तपसा विस्मितोऽनघे ।। अनवच्छिन्नया भक्त्या वरं वरय सुव्रते । ततो हिमांशो सा देवी गण्डकी लोकतारिणी ।। प्राञ्जलिः प्रणता भूत्वा मधुरं वाक्यमब्रवीत् । यदि देव प्रसन्नोऽसि देयो मे वांछितो वरः ।। मम गर्भगतो भूत्वा विष्णो मत्पुत्रतां व्रज । ततः प्रसन्नी भगवान् चिन्तयामास गोपते ।। गण्डकीमवदत् प्रीतः शृण देवि वचो मम । शालग्रामशिलारूपी तव गर्भगतः सदा ॥ तिष्ठामि तव पुत्रत्वे भक्तानुग्रहकारणात् । मत्सान्निध्याद् नदीनां त्वमतिश्रेष्ठा भविष्यसि ।। दर्शनात् स्पर्शनात् स्नानात् पानाच्चैवावगाहनात् । हरिष्यसि महापापं वाङ्मनःकायसम्भवम् । [ गण्डकी ने दीर्घकाल तक विष्णु की आराधना की, विष्णु ने उसको दर्शन देकर वर माँगने को कहा । गंडकी ने वर माँगा कि आप मेरे गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ करें। भगवान् बोले कि शालग्राम शिलारूप में मैं तुमसे उत्पन्न होता रहूँगा; इससे तुम सभी नदियों में पवित्र एवं दर्शन-पान-स्नान से अमित पुण्यदायिनी हो जाओगी।] गदाधर (भाष्यकार)-गदाधर ने कात्यायनसूत्र (यजु वेदीय) तथा पारस्करगृह्यसूत्र (यजु०) पर भाष्य लिखे हैं। पारस्करगृह्यसूत्र वाला गदाधर का भाष्य कर्मकाण्ड पर प्रमाण माना जाता है। भाष्य और निबन्ध का यह मिश्रण है। गद्यत्रय-आचार्य रामानुजकृत एक ग्रन्थ, जिसकी टीका वेङ्कटनाथ ने लिखी है । इसमें विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त (तत्त्वत्रय, चित्-अचित-ईश्वर) का प्रतिपादन किया गया है। गन्धव्रत-पूर्णिमा के दिन इस व्रत का आरम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त आचरण होता है। पूर्णिमा को उपवास का विधान है । वर्ष की समाप्ति के पश्चात् सुगन्धित पदार्थों से निर्मित देवप्रतिमा किसी ब्राह्मण को दान की जाती है। दे० हेमाद्रि, २.२४१ । २९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ गन्धर्व-गया गन्धर्व-यह अर्धदेव योनि है । स्वर्ग का गायक है। इसकी गन्धर्ववेद है। .व्युत्पत्ति है : 'गन्ध' अर्थात् सङ्गीत, वाद्य आदि से उत्पन्न गन्धाष्टक-आठ सुगन्धित पदार्थों का समूह । सभी व्रतों प्रमोद को 'अव' प्राप्त करता है जो । स्तुतिरूप तथा गीतरूप में गन्ध से परिपूर्ण अष्ट द्रव्यों का सम्मिश्रण थोड़ी भिन्नता वाक्यों अथवा रश्मियों का धारण करने वाला गन्धर्व है। के साथ पृथक्-पथक देवताओं को अर्पित करना चाहिए। उसकी विद्या गान्धर्व विद्या वा गान्धर्व उपवेद है। गन्धर्व देवताओं में शक्ति, विष्णु, शिव तथा गणेशादि की गणना उन देववर्गों का नाम है जो नाचते, गाते और बजाते है। 'शारदातिलक' के अनुसार देवताभेद से गन्धाष्टक हैं। गीत. वाद्य और नत्य तीनों का आनुषङ्गिक सम्बन्ध निम्नलिखित प्रकार के हैं : है । गाने का अनुसरण वाद्य करता है और वाद्य का नृत्य । चन्दनागुरु-कर्पूर-चोर-कुङ्कुम-रोचनाः । साधारणतः लौकिक सङ्गीतशास्त्र के प्रवर्तक भरत समझे जटामांसी कपियुता शक्तर्गन्धाष्टकं विदुः ।। जाते हैं और दिव्य के भगवान् शङ्कर । परलोक में किन्नर, चन्दनागुरु-ह्रीवेर-कुष्ठ-कुङ्कम-सेव्यकाः । गन्धर्व आदि सङ्गीतकला का व्यवसाय करने वाले समझे जटामांसी सुरमिति विष्णोर्गन्धाष्टकं विदुः॥ जाते हैं। इनकी गणना शङ्कर के गणों में है। चन्दनागुरु-कर्पूर-तमाल-जलकुङ्कमम् । जटाधर के अनुसार गन्धर्वी के निम्नलिखित भेद हैं : कुशीदं कुष्ठसंयुक्त शैवं गन्धाष्टकं शुभम् ।। हाहा हुहूश्चित्ररथो हंसो विश्वावसुस्तथा । स्वरूपं चन्दनं चोरं रोचनागुरुमेव च । गोमायुस्तुम्बुरुनन्दिरेवमाद्याश्च ते स्मृताः ।। मदं मृगद्वयोद्भूतं कस्तूरी चन्द्रसंयुतम् ॥ अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में गन्धर्वो के गन्धाष्टकं विनिर्दिष्टं गणेशस्य महेशि तु ।। ग्यारह गण अथवा वर्ग बताये गये हैं : गया-हिन्दुओं के पितरों की श्राद्धभूमि । इसके ऐतिहासिक, अभ्राजोऽङ्घारिवम्भारि सूर्यवध्रास्तथा कृधः । पौराणिक तथा शिल्पकला सम्बन्धी अवशेषों के वर्णन से हस्तः सुहस्तः स्वाञ्च व मूद्धन्वांश्च महामनाः ।। ग्रन्थों के सैकड़ों पृष्ठ भरे पड़े हैं। किन्तु गया के सम्बन्ध विश्वावसुः कृशानुश्च गन्धर्वंद्वादशा गणाः ॥ में दिये गये प्रायः सभी मत कुछ न कुछ सीमा तक शब्दार्थचिन्तामणि के अनुसार दिव्य और मर्त्य भेद से विवादास्पद हैं । गया के पुरोहित मध्वाचार्य द्वारा स्थापित गन्धर्वो के दो भेद हैं। दिव्य गन्धर्व तो स्वर्ग और आकाश वैष्णव सम्प्रदाय में आस्था रखते हैं और प्रायः महन्तों का में रहते हैं, मर्त्य गन्धर्व पृथ्वी पर जन्म लेते हैं। दिव्य जैसा आचरण करते हैं । कहा जाता है कि गया भगवान् गन्धर्व का उल्लेख ऋग्वेद (१०.१३९. :५) में मिलता है : विष्णु का पवित्र स्थल है । परन्तु वनपर्व में यह संकेत है विश्वावसुरभि तन्नो गृणातु कि गया यम (धर्मराज), ब्रह्मा तथा शिव का भी एक दिव्यो गन्धर्वो रजसो विमानः । प्रमुख पवित्र स्थान है। इसी प्रकार महाभारत (३. १६१.२६) में : वेदों और पुराणों में 'गया' शब्द विभिन्न स्थलों पर स तमास्थाय भगवान् राजराजो महारथम् । भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयुक्त हुआ है। गय नाम ऋग्वेद की प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः ।। कुछ ऋचाओं के रचयिता के लिए प्रयुक्त हुआ है । वेदमर्त्य गन्धर्व की चर्चा इस प्रकार है : संहिताओं में तो यह नाम असुरों और राक्षसों के लिए भी अस्मिन् कल्पे मनुष्यः सन् पुण्यपाकबिशेषतः । आया है । इनमें गयासुर का नाम उल्लेखनीय है । निरुक्त गन्धर्वत्वं समापन्नो मर्त्यगन्धर्व उच्यते ।। (१२.१९) में गयशिर नाम आया है, जिस पर भगवान् स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में गन्धर्वलोक का सविस्तर विष्णु पाँव रखते थे। महाभारत, विष्णुधर्मसूत्र तथा वामनवर्णन है । यह लोक गुह्यकलोक के ऊपर और विद्याधर- पुराण (२२.२०) में गयशिर नाम के स्थल को ब्रह्मा की लोक के नीचे है। पूर्वी वेदी माना गया है और बौद्ध ग्रन्थों में भी यह नाम गन्धर्ववेद-शौनक के चरणव्यूह के अनुसार सामवेद का ___ गया के प्रमुख स्थल के लिए आया है । अश्वघोष के बुद्धउपवेद गन्धर्ववेद है। दे० 'उपवेद' । गन्धर्वसम्बन्धित चरित से प्रकट है कि महात्मा बुद्ध एक राजर्षि के आश्रम सङ्गीतरूप कला अथवा विद्या जिससे जानी जाय वह (गया) में गये और वहाँ उन्होंने नयरंजना (निरंजना) नदी Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीबदास-रुड २२७ के तट पर अपना निवासस्थान बनाया । वहाँ यह भी जाता है और फल्गु नदी में स्नान करके उनका तर्पण करता बताया गया है कि बुद्धगया में वे कश्यप ऋषि के उरुबिल्व है। इस सन्दर्भ में गया के गदाधर (विष्णु) और गयशिर नामक आश्रम में गये थे, जहाँ उन्हें सम्बोधि की प्राप्ति ____ का दर्शन उसके लिए आवश्यक है। लिखितस्मृति के हुई। विष्णुधर्मसूत्र (८५.४०) के अनुसार विष्णुपद गया अनुसार यदि कोई भी किसी व्यक्ति के नाम से गयशिर में ही स्थित है । वह श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थल है। में पिण्डदान करे तो नरक में स्थित व्यक्ति स्वर्ग को और इसी प्रकार उससे यह भी पता चलता है कि 'समारोहण' स्वर्गस्थित व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है। कूर्मपुराण में नाम का भी कोई स्थल गया में फल्गु नदी के तट पर युक्ति तो यह है कि मनुष्य को कई संतानों की कामना स्थित है। करनी चाहिए जिससे उनमें से यदि कोई एक भी गया ___ अनुशासनपर्व में अश्मपृष्ठ (प्रेतशिला), निरविन्द पर्वत जाकर श्राद्ध करे तो पितरों को मुक्ति मिल जायेगी और तथा क्रौञ्चपदी तीनों को गया का पवित्र स्थल माना गया वह स्वयं मोक्ष को प्राप्त होगा। मत्स्यपुराण (२२. ४. ६) है, किन्तु वनपर्ण में इनका उल्लेख नहीं है। फिर भी में गया को पितृतीर्थ कहा गया है। इनको वनपर्व में वर्णित विष्णुपद, गयशिर तथा समारो- गयामाहात्म्य-वायुपुराण में गयामाहात्म्य का विस्तारपूर्वक हण स्थलों से अतिरिक्त समझना चाहिए। अश्मपृष्ठ में वर्णन किया गया है। इसके अन्तिम आठ अध्याय गयापहली ब्रह्महत्या का अपराधी शुद्ध हो जाता है, निरविन्द ___ माहात्म्य पर ही हैं। यह अलग ग्रन्थ के रूप में भी पर दूसरी का तथा क्रौञ्चपदी पर तीसरी ब्रह्महत्या का प्रसिद्ध है, जो वायुपुराण से ही लिया गया है। दे० अपराधी भी बिशुद्ध हो जाता है। 'गया'। डा. कीलहान के अनुसार राजकुमार यक्षपाल ने भग- गरीबदास-ये महात्मा (१७१७-८२ ई०) छीड़ानी या वान् मौलादित्य तथा अन्य देवताओं की मूर्तियों के लिए चुरनी (रोहतक जिला) गाँव में रहते थे । इनके 'गुरुग्रन्थ' मन्दिर बनवाये। वहीं एक उत्तरमानस नामक पुष्कर अथवा में २४,००० पंक्तियाँ है। इनका सम्प्रदाय आज भी प्रचझील का भी निर्माण कराया । उसने गया के अक्षयवट के लित है, किन्तु इनका एक ही मठ है तथा साधारण जनता पास एक सत्र (भोजनालय) भी बनवाया था । डा० वेणी- इनकी शिष्यता या सदस्यता नही प्राप्त कर सकती । इनके माधव बरुआ के अनुसार पालशासक नयपाल के अभिलेखों साधु केवल द्विज ही हो सकते हैं। इनके मतावलम्बियों से यह पता चलता है कि उत्तर मानस का निर्माण १०४० को गरीबदासी कहते हैं। निर्गुण-निराकार-उपासक यह ई० के आसपास हुआ था। इस प्रकार अनुमानतः गया का पंथ भी अनेक पंथों की तरह कबीरपंथ से प्रभावित है। माहात्म्य ११वीं शताब्दी के बाद ही अधिक बढ़ा होगा। गरुड-एक पुराकल्पित पक्षी, जिसका आधा शरीर पक्षी किन्तु वायुपुराण (७७.१०८) से लगता है कि उत्तरमानस और आधा मनुष्य का है। पुराणकथाओं में गरुड विष्णु का निर्माण ८वीं या ९वीं शताब्दी तक अवश्य हो गया के वाहन के रूप में वर्णित है । विष्णु सूर्य के ही सर्वव्यापी होगा । वस्तुतः गया का माहात्म्य कब से बढ़ा यह विवा- रूप हैं जो अनन्त आकाश का तीव्रता से चक्कर लगाते दास्पद प्रश्न है। महाभारत और स्मृतियाँ भिन्न-भिन्न मत- हैं। इसलिए इनके लिए एक शक्तिमान् और द्रुतगामी मतान्तरों से युक्त है । वनपर्न (८७) में यह उल्लेख है कि वाहन की आवश्यकता थी। विष्ण के वाहन के रूप में आठ पुत्रों में से यदि कोई एक भी गया जाकर पितृपिण्ड गरुड की कल्पना इसी का प्रतीक है। इस सम्बन्ध में यज्ञ करे तो पितर लोग प्रतिष्ठित और कृतज्ञ होते हैं। उल्लेख करना अनुचित न होगा कि स्वयं सूर्य का सारथि उसमें आगे यह भी कहा गया है कि फल्गु नामक पवित्र अरुण (लालिमा) है, जो गरुड का अग्रज है। नदी, गयशिर पर्वत तथा अक्षयवट ऐसे स्थल हैं जहाँ पौराणिक कथाओं के अनुसार गरुड दक्षकन्या विनता पितरों को पिण्ड दिया जाता है। गया में पूर्वजों या पितरों और कश्यप के पुत्र हैं, इसीलिए 'वैनतेय' कहलाते हैं । का श्राद्ध करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं। फलतः उस व्यक्ति विनता का अपनी सपत्नी कद्रू से वैर था, जो सपो की को भी जीवन में सुख मिलता है । अविस्मृति (५५.५८) माता है । अतः गरुड भी सो के शत्र हैं। गरुड जन्म से के अनुसार पुत्र अपने पितरों के हित के लिए ही गया ही इतने तेजस्वी थे कि देवताओं ने उनका अग्नि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ गरुडाग्रज-गर्भाधान समझ कर पूजन प्रारम्भ कर दिया। इनका सिर, पक्ष लोक, यमयातना, नरक आदि विशेष रूप से वर्णित है । और चोंच तो पक्षी के हैं और शेष शरीर मानव का । त्रिवेणीस्तोत्र, पञ्चपर्वमाहात्म्य, विष्णुधर्मोत्तर, वेङ्कटइनका सिर श्वेत, पक्ष लाल और शरीर स्वर्ण वर्ण का गिरिमाहात्म्य, श्रीरङ्गमाहात्म्य, • सुन्दरपुरमाहात्म्य है । इनकी पत्नी उन्नति अथवा विनायका है। इनके पुत्र इत्यादि अनेक छोटे ग्रन्थ गरुडपुराण से उद्धृत बताये का नाम सम्पाति है । ऐसा कहा जाता है कि अपनी माता जाते हैं। विनता को कद्र की अधीनता से मुक्त करने के लिए गरुड ने देवताओं से अमत लेकर अपनी विमाता को देने गरुडस्तम्भ-श्रीरङ्गम् शैली के विष्णुमन्दिरों में सभामण्डप का प्रयत्न किया था। इन्द्र को इसका पता लग गया। के बाहर और भगवान् की दृष्टि के सम्मुख एक ऊँचा स्तम्भ दोनों में युद्ध हुआ। इन्द्र को अमृत तो मिल गया, किन्तु बनाया जाता है। नीचे कई कोणों का उसका वप्र और युद्ध में उसका वज्र टट गया । गरुड के अनेक नाम है, नसेनी जैसा शिखर होता है । स्तम्भकाष्ठ पर धातु (प्रायः यथा काश्यपि ( पिता से ), वैनतेय ( माता से ), सुपर्ण, सोने) का पत्र चढ़ा रहता है। इस पर गरुड का आवास गरुत्मान् आदि । माना जाता है । हेलियोडोरस नामक यनानी क्षत्रप द्वारा गरुडाग्रज-गरुड के बड़े भाई अरुण । महाभारत (१.३१. ईसापूर्व प्रथम शती में स्थापित बेसनगर का गरुडस्तम्भ २४-३४) में अरुण के गरुडाग्रज होने की कथा दी हई है। इतिहास में बहुत विख्यात है। गरुडोपनिषद्-एक अथर्ववेदीय उपनिषद् । इसमें विष गर्ग-एक ऋषि का नाम, जिनका उल्लेख किसी भी संहिता निवारण की धार्मिक विधि है। में नहीं पाया जाता किन्तु उनके वंशजों 'गर्गाः प्रावरेयाः' गरुडपञ्चशती-वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ द्वारा तिरुपा- का काठक संहिता में उल्लेख है। कात्यायनसूत्र के भाष्यहिन्द्रपुर में रचित यह ग्रन्थ तमिल लिपि में लिखा कार के रूप में गर्ग का नाम उल्लेखनीय है । ज्योतिष गया है। इसमें भगवान् विष्णु के मुख्य पार्षद या वाहन साहित्य में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है । आगे चलकर गोत्र गरुड की स्तुति की गयी है। ऋषियों में गर्ग की गणना होने लगी। गरुडध्वज-विष्णु की ध्वजा में गरुड का चिह्न या आवास यादवों के पुरोहित रूप में भी गर्गाचार्य प्रसिद्ध है । रहता है, इससे वे गरुडध्वज कहलाते हैं। गर्भ-जीव के सञ्चित कर्म के फलदाता ईश्वर के आदेशानुगरुडपुराण-गरुड और विष्णु का संवादरूप पुराण ग्रन्थ । सार प्रकृति द्वारा माता के जठरगह्वर में पुरुष के शुक्रयोग नारदपुराण के पूर्वांश के १०८वें अध्याय में गरुडपुराण से गर्भ स्थापित किया जाता है । गरुडपुराण (अ० २२९) की विषयसूची दी गयी है। मत्स्यपुराण के अनुसार में गर्भस्थिति की प्रक्रिया लिखी हुई है। गरुडपुराण में अठारह हजार श्लोक हैं और रेवामाहात्म्य, गर्भाधान-यह स्मार्त गृह्य संस्कारों में से प्रथम संस्कार श्रीमद्भागवत, नारदपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार है । धार्मिक क्रिया के साथ पुरुष धर्मपत्नी के जठरगह्वर यह संख्या उन्नीस हजार है। जो गरुडपुराण हिन्दी में वीर्य स्थापित करता है जो गर्भाधान कहा जाता है। विश्वकोशकार श्री नगेन्द्रनाथ वसु को उपलब्ध हआ शौनक (वीरमित्रोदय, संस्कारप्रकाश में उद्धृत) ने इसकी था, उसकी उन्होंने (पूर्वखण्ड के दो सौ तैंतालीस अध्यायों परिभाषा इस प्रकार दी है : । की और उत्तरखण्ड की पैंतालीस अध्यायों की सूची दी निषिक्तो यत्प्रयोगेण गर्भः संधार्यते स्त्रिया । है । यह सूची नारदीय पुराण के लक्षणों से मिलती है तद्गर्भालम्भनं नाम कर्म प्रोक्तं मनीषिभिः ।। परन्तु श्लोकसंख्या में न्यूनता है। गर्भाधान के लिए उपयुक्त समय पत्नी के ऋतुस्नान यह पुराण हिन्दुओं में बहुत लोकप्रिय है, विशेषकर की चौथी रात्रि से लेकर सोलहवीं रात्रि तक है (मनुस्मृति, अन्त्येष्टि के सम्बन्ध में इसके एक भाग को पुण्यप्रद समझा ३.२, याज्ञवल्क्यस्मृति, १.७९)। उत्तरोत्तर रात्रियाँ रजजाता है । इस पुराण भाग का श्रवण श्राद्धकर्म का एक अङ्ग स्राव से दूर होने के कारण अधिक पवित्र मानी जाती माना जाता है । इसमें प्रेतकर्म, प्रेतयोनि, प्रेतथाद्ध, यम- हैं। गर्भाधान रात्रि में होना चाहिए, वह दिन में निषिद्ध Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ गभिणीधर्म-गवायुर्वेद है (आश्वलायनस्मृति)। एक आथर्वणिक श्रुति में निषेध का यह कारण दिया हुआ है : नातवे दिवा मैथनमर्जयेत् । अल्पभाग्या अल्पवीर्याश्च दिवा प्रसूयन्तेऽल्पायुषश्च । [ऋतुकाल और दिन में स्त्रीसंग नहीं करना चाहिए। इससे अल्पभाग्य, अल्पवीर्य और अल्पायु बालक उत्पन्न होते हैं । गर्भाधान की रात्रिसंख्या के अनुसार सन्तति का लिङ्ग निश्चित माना जाता है (मनुस्मृति, २.४८)। परन्तु मनुस्मृति (३.४९) के अनुसार सन्तति के लिङ्ग में माता- पिता के रक्त-वीर्य का आधिक्य भी कारण होता है । मास की तिथियों में ८,१४,१५,३० और सम्पूर्ण पर्व गर्भाधान के लिए निषिद्ध है । गर्भाधान संस्कार पति ही कर सकता है। प्राचीन काल में पति के अभाव अथवा असमर्थता में देवर अथवा नियोगप्रथा के अनुसार कोई नियुक्त व्यक्ति भी ऐसा कर सकता था (दे० 'नियोग')। परन्तु कलियुग में नियोग वजित है। गर्भाधान तभी तक अनिवार्य है जब तक पुत्र न उत्पन्न हो; इसके पश्चात् गर्भाधान में विकल्प है : ऋतुकालाभिगामी स्याद्यावत्पुत्रोऽभिजायते । ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः । पितृणामनृणश्चैव स तस्मात्सर्वमर्हति ।। निश्चित मांगलिक धर्मकृत्य के पश्चात् पति द्वारा पत्नी का आलिङ्गन करके निम्नलिखित मन्त्रों से गर्भाधान करने का विधान है : अहमस्मि सा त्वं द्यौरहं पृथ्वी त्वं रेतोऽहं रेतोभृत् त्वम् । (बौ० गृ० सू०१.७.१-१८) (यह मैं हूँ। वह तुम हो । मैं आकाश हूँ। तुम पृथ्वी हो । मैं रेतस् हूँ। तुम रेतस् को धारण करने वाली हो ।] तां पूषन् शिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति । या न ऊरू उशती विशु याति यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ।। (ऋग्वेद, १०.८५.३७) गभिणीधर्म-धर्मशास्त्र में गर्भिणी स्त्री के विशेष धर्म का विधान किया गया है। पद्मपुराण (५.७.४१-४७) तथा मत्स्यपुराण में कश्यप तथा अदिति के संवादरूप में गभिणी के निम्नांकित कर्तव्य बतलाये गये हैं : गर्भिणी कुञ्जराश्वादि-शैल-हादिरोहणम् । व्यायाम शीघ्रगमनं शकटारोहणं त्यजेत् ।। शोकं रक्तविमोक्षञ्च साध्वसं कुक्कुटासनम् । व्यवायञ्च दिवास्वप्नं रात्रौ जागरणं त्यजेत् ॥ [गर्भिणी को हाथी, घोड़े, पर्वत, अट्टालिका आदि पर चढ़ना, व्यायाम, शीघ्रगमन, बैलगाडी-रोहण का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार शोक, रक्तोत्सर्ग, शीघ्रता से कुक्कुटासन से बैठना, अधिक श्रम, दिन में सोना, रात्रि में जागरण आदि का त्याग करना चाहिए।] __ स्कन्दपुराण ( मदनरत्न में उद्धृत ) के अनुसार : हरिद्रां कुङ्कुमञ्चैव सिन्दूरं कज्जलं तथा । कूर्पासकञ्च ताम्बूलं माङ्गल्याभरणं शुभम् ॥ केश संस्कारकवरीकरकर्ण विभूषणम् । भर्तुरायुष्यमिच्छन्ती वर्जयेद् गर्भिणी नहि ॥ [हल्दी, कुंकुम, सिन्दूर, काजल, कूर्पास, पान, सुहागवस्तु, आभूषण, वेणी-केशसंस्कार को पति की मंगलकामना के लिए पत्नी अवश्य धारण करे । ] गर्भिणीधर्म के साथ-साथ गर्भिणीपति के धर्म का भी विधान पाया जाता है : वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद् गर्भिणीपतिः । श्राद्धञ्च सप्तमान्मासादूर्ध्वं चान्यत्र वेदवित् ॥ क्षौरं शवानुगमनं नखकृन्तनञ्च युद्धं च वास्तुकरणं त्वतिदूरयानम् । उद्वाहमम्बुधिजलं स्पृशनोपयोगम् आयुःक्षयो भवति भिणिकापतीनाम् ।। (कलिविधान) | मण्डन, संभोग, यात्रा, श्राद्धकर्म गर्भ के सातवें महीने से न करना चाहिए। क्षौर, श्मशान जाना, नख केश काटना, युद्ध, निर्माण, दूरयात्रा, विवाह, समुद्रयात्रा-इन्हें भी नहीं करना श्रेयस्कर है। गवाक्षतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित चौसठ तन्त्रों की सूची में 'गवाक्षतन्त्र' का ४६वां स्थान है। गवायुर्वेद-आयुर्वेद के कई विभागों में गवायुर्वेद भी एक है। यह गायों की चिकित्सा के सम्बन्ध में है। गाय का आधार लेकर प्रायः सभी पालतू पशुओं की चिकित्सा का विज्ञान इस शास्त्र में प्राप्त होता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० गवाशिर - ' गवाशिर' का ऋग्वेद (१.१३७.११८७,९; २.४१.२३.३२.२४२.१, ७,७५२.१०१०१.१० ) में अनेक बार सोम के पर्याय के रूप में वर्णन हुआ है । गहवर (गह्वर ) वन - यह व्रजयात्रा के प्रमुख स्थलों में बहुत ही रमणीक वन है। शंख का चिह्न महाप्रभु वल्ल भाचार्य की बैठक, दानघाटी तथा गाय आदि यहाँ के मुख्य दर्शनीय स्थान हैं। यहां जयपुर के महाराज माधवसिंह का बनवाया हुआ विशाल एवं भव्य मन्दिर है । इसमें पत्थर की शिल्पकला देखने योग्य है । गहिनीनाथ - नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथ प्रसिद्ध हैं । गहिनी - नाथ इनमें चतुर्थ हैं। के स्तनों का चिह्न । गाजीदास - निर्गुणधारा के सुधारक पन्थों में सतनामी पन्थ उल्लेखनीय है । इस पन्थ का प्रारम्भ किसने कब किया, इसका ठीक पता नहीं है। इसके पुनरुद्धारकों में महात्मा जगजीवन दास ( सं० १८०० ), उनके शिष्य दूलनदास तथा कुछ काल पीछे गाजीदास हुए गाजीदास छत्तीसगढ़ के चमार जाति के थे। आज से लगभग सौ सवा सौ वर्ष पहले इन्होंने इस पन्थ की पुनर्रचना की । गाजीदास ने चमार जाति के सामाजिक सुधार के लिए छत्तीसगढ़ प्रान्त के चमारों में इसका प्रचार किया । दे० ' सतनामी सम्प्रदाय' । गाणपत्य - डॉ० भण्डारकर ने अपने ग्रन्थ ( वैष्णविष्म, शैविज्म एण्ड अदर माइनर सेक्ट्स ऑव इण्डिया ) में इस मत के प्रारम्भिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस सम्प्रदाय का उदय छठी शताब्दी में हुआ कहा जाता है, किन्तु यह तिथि अनिश्चित ही है । गणपति देव की पूजा ( स्तुति ) का उल्लेख याज्ञवल्क्यस्मृति, मालतीमाधव तथा ८वीं व ९वीं शती के अभिलेखों में प्राप्त होता है। किन्तु इस मत का दर्शन 'वरवतापनीय' अथवा 'गणपतितापनीय' उपनिषदों में प्रथम उपलब्ध होता है । गणेश को अनन्त ब्रह्म कहा गया है। तथा उनके सम्मान में एक राजसी मन्त्र नृसिंहतापनीय उप० में दिया गया है। इस मत की दूसरी उपनिषद् गणपति-उपनिषद् है, जो स्मार्तो के अथर्वशिरस् का एक भाग है। वैष्णव संहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख है जो इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। अग्नि तथा गरुड पुराणों में इस देव की पूजा के गवाशिरगात्रहरिया निर्देश प्राप्त हैं, जो इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित न होकर भागवतों या स्मातों की पज्ञायतनपूजा से सम्ब न्धित हैं । ईसा की दशम अथवा एकादश शताब्दी तक यह सम्प्रदाय प्रयप्ति प्रचलित था तथा चौदहवीं शती में अवनत होने लगा । इस सम्प्रदाय का मन्त्र 'श्रीगणेशाय नम:' है तथा ललाट पर लाल तिलक का गोल चिह्न इस मत का प्रतीक है । सम्प्रदाय की उपनिषदों के सिवा इस मत का प्रतिनिधि एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गणेशपुराण' जिसमें गणेश की विभूतियों का वर्णन है और उनके कोढ़ विमोचन की चर्चा है। इस मत के धार्मिक आचरणों के अतिरिक्त गणेश के हजारों नाम इसमें उल्लि खित हैं । रहस्यमय ध्यान से गणेशरूपी सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही मूर्तिपूजा की हिन्दू प्रणाली भी यहाँ दी हुई हैं। 'मुद्गलपुराण' भी एक गाणपत्य पुराण है । 'शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्य मत के छः विभाग कहे गये हैं - १. महागणपति २ हरिद्रा गणपति ३. उच्छिष्ट गणपति ४. नवनीत गणपति ५. स्वर्ण गणपति एवं ६ सन्तान गणपति । उच्छिष्ट गणपति सम्प्रदाय की एक शाखा हेरम्ब गणपति की गुह्य प्रणाली ( हेरम्ब बौद्धों की तरह ) का अनुसरण करती है । गाणपत्य सम्प्रदाय की अनेक शालाएँ है, इनमें से अनेक शाखाएँ मुद्गलपुराण में भी उल्लिखित हैं तथा उनमें से अनेकों का स्वरूप दक्षिण भारत की मूर्तियों में आज भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु यह सम्प्रदाय आज अस्तित्वहीन है । इस सम्प्रदाय का ह्रास होते हुए भी इस देवता का स्थान आज भी लघु देवों में प्रधानता प्राप्त किये हुए है । इनकी पूजा आज भी विघ्नविनाशक एवं सिद्धिदाता के रूप में प्रत्येक माङ्गलिक अवसर पर सर्वप्रथम होती है । स्कन्दपुराण में इनके इसी रूप ( लघु देव ) का वर्णन प्राप्त है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखण्ड में इनके जन्म तथा गजवदन होने का वर्णन है। दे० 'गणपति' तथा 'गणेश' । गात्रहरिद्रा - गावहरिद्रा का प्रयोग हिन्दुओं में अनेक अवसरों पर किया जाता है। बालिकाओं के रजोदर्शन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथि- गान्धर्व के अवसर पर ब्राह्मण कुमारों के यज्ञोपवीत के अवसर पर तथा विवाह संस्कार के दिन या एक दिन पूर्व ही वर तथा कन्या दोनों का गात्रहरिद्रा उत्सव होता है । शरीर पर हरिद्रालेपन नये जन्म अथवा जीवन में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन का प्रतीक है । इससे शरीर की कान्ति बढ़ती है । दक्षिण भारत में यह अंगराग की तरह प्रचलित है। गाधि - कान्यकुब्ज के चन्द्रवंशी राजा कुशिक के पुत्र तथा विश्वामित्र के पिता का नाम महाभारत ( ३. ११५.१९) में इनका उल्लेख हैं : कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिवः स महाबलः । गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ॥ [ कान्यकुब्ज ( कन्नौज ) देश में गाधि नाम का महाबली राजा हुआ, जो तपस्या के लिए वनवासी हो गया या ।] हरिवंश (२७.१३-१६) में इनकी उत्पत्ति की कथा दी हुई है : कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः । लभेयमिति तं शक्रस्त्रासादभ्येत्य जज्ञिवान् ॥ पूर्ण वर्षसहस्रे वै तं तु शक्रो ह्यपश्यत । अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः ॥ समर्थ पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत् । पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः ॥ स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम् पौरकुत्स्यभवद्भार्यां गाधिस्तस्यामजायत । X X X पाने के लिए गाधेः कन्या महाभागा नाम्ना सत्यवती शुभा । तां गाधिः काव्यपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः ॥ [ राजा कुशिक ने इन्द्र के समान पुत्र तपस्या की, तब इन्द्र स्वयं अपने अंश से राजा का पुत्र बनकर गाधि नाम से उत्पन्न हुआ। गाधि की कन्या सत्यवती थी, जो भृगुवंश के ऋचीक की पत्नी हुई । ] गान्धर्वतन्त्र - आगमतत्त्वविलास में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में गान्धर्वतन्त्र का क्रम ५७ है। इसमें आगमिक क्रियाओं में गन्धर्वों के महत्त्व तथा उनकी संगीत विद्या का विवरण है । · गान्धर्ववेद सामवेद का उपवेद सामवेद की १००० शाखाओं में आजकल केवल १३ पायी जाती हैं। वार्ष्णेय शाखा का उपवेद गान्धर्व उपवेद के नाम से प्रसिद्ध है । २३१ गान्धर्व वेद के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं। सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ । आजकल हनुमान् का मत प्रचलित है। गान्धर्ववेद अन्य उपवेदों की तरह सर्वथा व्यवहारात्मक हैं। इसलिए आधुनिक काल में इसके जो अंश लोप होने से बचे हुए हैं वे ही प्रचलित समझे जाने चाहिए। सामवेद का 'अरण्यगान' एवं 'ग्रामगेयगान' आजकल प्रचार से उठ गया है, इसलिए सामगान की वास्तविक विधि का लोप हो गया है । ऋषियों के मध्य जो विद्या गान्धर्ववेद कहलाती थी, वही सर्वसाधारण के व्यवहार में आने पर संगीत विद्या कहलाने लगी । ऋषियों की विद्या ग्रन्थों में मर्यादित होने के कारण अब आधुनिक काल में सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं है। दे० 'उपवेद' । गान -- वैदिक काल में गेय मन्त्रों का संग्रह तथा याज्ञिक विधि सम्बन्धी शिक्षा विशेष गुरुकुलों में हुआ करती थी। ऐसे सामवेद के गुरुकुल थे जहाँ मन्त्रों का गान करना तथा छन्दों का उच्चारण मौखिक रूप में सिखाया जाता था । जब लेखन प्रणाली का प्रचार हुआ तो अनेक स्वरग्रन्थों की, जिन्हें 'मान' कहते थे, रचना हुई इस प्रकार गान की उत्पत्ति सामवेद से हुई। गान के दो भेद हैं- ( १ ) मार्ग और देशी संगीतदर्पण (३.६) के अनुसार मार्ग - देशीविभागेन सङ्गीतं द्विविधं स्मृतम् । दृहिणेन यदन्विष्टं प्रयुक्तं भरतेन च ।। महादेवस्य पुरतस्तन्मार्गांख्यं विमुक्तिदम् ॥ तत्तद्देशस्थया रीत्या यत्स्याल्लोकानुरञ्जनम् । देशे देशे तु सङ्गीतं तद्देशीत्यभिधीयते ।। [ मार्ग और देशी भेद से संगीत दो प्रकार का है। ब्रह्मा ने जिसे निर्धारित कर भरत को प्रदान किया और भरत ने शंकर के समक्ष प्रयुक्त किया वह मार्ग संगीत है । जो विभिन्न देशों के अनुसार लोकरंजन में लिए अनेक रीतियों में प्रचलित है वह देशी संगीत है । ] गान्धर्व (१) विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के नव उपद्वीपों में से एक गान्धर्वद्वीप भी है : भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान्निबोधत । इन्द्रद्वीपः कशेरुमांस्ताम्रपर्णी गभस्तिमान् ॥ नागद्वीपस्तथा सौम्यो गान्धर्वरत्वच वारुणः । अयन्तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ [ इन्द्र, कशेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नाग, सौम्य, गान्धर्व, वारुण तथा भारत, ये नौ द्वीप हैं । ] (२) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्रकार का विवाह गान्धर्व कहलाता है। जिस विवाह में कन्या और बर परस्पर अनुराग से एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में वरण करते हैं उसे गान्धर्व कहते हैं। मनुस्मृति ( ३.३२) में इसका लक्षण निम्नांकित है : इच्छयायोन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः ॥ [ जिसमें कन्या और वर की इच्छा से परस्पर संयोग होता है और जो मैथुम्य और कामसम्भव है उसे गान्धर्व जानना चाहिए। ] दे० 'विवाह' | गायत्री - ऋग्वेदीय काल में सूर्योपासना अनेक रूपों में होती थी । सभी द्विजों की प्रातः एवं सन्ध्या काल की प्रार्थना में गायत्री मन्त्र को स्थान प्राप्त होना सूर्योपासना को निश्चित करता है । 'गायत्री' ऋग्वेद में एक छन्द का नाम है। सावित्र ( सविता अथवा सूर्य-सम्बन्धी) मन्त्र इसी छन्द में उपलब्ध होता है (ऋग्वेद, ३.६२.१० ) । गायत्री का अर्थ है 'गायन्तं त्रायते इति ।' 'गाने वाले की रक्षा करने वाली ।' पूरा मन्त्र है -भूः । भुवः । स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् [ हम सविता देव के वरणीय प्रकाश को धारण करते हैं । वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे ।] गायत्री का एक नाम 'सावित्री' भी है। उपनयनसंस्कार के अवसर पर आचार्य गायत्री अथवा सावित्री मन्त्र उपनीत ब्रह्मचारी को प्रदान करता है । सन्ध्योपासना में इस मन्त्र का जप तथा मनन अनिवार्य माना गया है । जो ऐसा नहीं करते वे 'सावित्रीपतित' समझे जाते हैं । गायत्री त्रिपदा, छन्दोयुक्ता, मन्त्रात्मिका और वेदमाता कही गयी है। मनुस्मृति (२.७७-७८ ८१-८३) में इसका महत्त्व बतलाया गया है । पद्मपुराण में गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी कहा गया है। यह पद गायत्री को कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथा विस्तार से दी हुई है । इसका ध्यान इस प्रकार बताया गया है : श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशाङ्केन समा मता । विभ्रती विपुलावूरू कदलीगर्भकोमली ॥ गायत्री-गार्हपत्य शृङ्गं करे गृह्य पङ्कजं च सुनिर्मलम् । वसाना बसने क्षौमे रक्तं चाद्भुतदर्शने ॥ गायत्रीव्रत - शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें सूर्यपूजन का विधान है। गायत्री (ऋग्वेद ३.६२.१०) का जप शत बार, सहस्रबार दस सहस बार करने से अनेक रोगों का नाश होता है। दे० हेमाद्रि, २.६२-६३ (गरुडपुराण से उद्धृत ) । इस ग्रन्थ में गायत्री की प्रशंसा तथा पवित्रता के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। गार्ग्यगुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र (काल्पावन कृत) तथा कात्यायन के ही वाजसनेय प्रातिशाख्य में गायं का नाम आया है। परवर्ती काल में एक पाशुपत आचार्य के रूप में भी इनका उल्लेख है । चित्रप्रशस्ति में कहा गया है कि शिव ने कारोहण (लाट देश) में अवतार लिया तथा पाशुपत मत के ठीक-ठीक पालनार्थ उनके चार शिष्य हुए - कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य एवं मैत्रेय । पाणिनिसूत्रों में प्राचीन व्याकरण-आचार्य के रूप में भी गार्ग्य का उल्लेख हुआ है । गार्हपत्य - एक यज्ञिय अग्नि । भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल में देवताओं की पूजा प्रत्येक आर्य अपने गृह में स्थापित अग्निस्थान में करता था। गृहस्थ का कर्तव्य होता था कि वह यज्ञवेदी में प्रथम अग्नि की स्थापना करे । इस उत्सव को 'अग्न्याधान' कहते थे। ऐसे अवसर पर गृहस्थ चार पुरोहितों के साथ 'गार्हपत्य' तथा 'आहबनीय' अग्नियों के लिए यज्ञवेदियों का निर्माण करता था। गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्ताकार आहवनीय अग्नि के लिए वर्गाकार तथा 'दक्षिणाग्नि' के लिए अर्द्ध वृत्ताकार ( यदि इसकी भी आवश्यकता हुई) स्थान निर्मित होता था। तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से अस्थायी अग्नि प्राप्त करता था तथा 'गार्हपत्य अग्नि' की स्थापना करता था गार्हपत्य का आवाहन निम्नांकित वैदिक मन्त्र से किया जाता था : , इह प्रियं प्रजया मे समृध्यताम् अस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि । (ऋग्वेद १०.८५.२७) मनुस्मृति में पिता को भी गार्हपत्य अग्निरूप माना गया है : पिता गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः । ( ३.३३१ ) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गालव-गीतगोविन्द [पिता गार्हपत्य अग्नि और माता दक्षिणाग्नि कहे गिरितनयावत-इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद, वैशाख गये हैं।] अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को होता है। एक वर्ष गालव-अष्टाध्यायी के सूत्रों में जिन पूर्ववर्ती वैयाकरणों पर्यन्त इसमें गौरी अथवा ललिता का पूजन होना का नाम आया है, गालव उनमें एक है । ऋषियों(७.१.७४) चाहिए । द्वादश मासों में गौरी के भिन्न भिन्न नामों का की सूची में भी गालव की गणना है। स्मरण करते हुए भिन्न-भिन्न पुष्पों से पूजा करनी चाहिए। गिरनार (गिरिनगर)-सौराष्ट्र (पश्चिम भारत ) का गिरिधर-(१) श्रीकृष्ण का एक पर्याय । गोवर्धन पर्वत एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान । प्राचीन काल से यह योगियों (गिरि ) धारण करने के कारण उनका यह नाम पड़ा। और साधकों को आकृष्ट करता रहा है। काठियावाड़ (२) एक वैष्णव सन्त कवि का नाम भी गिरधर है । का प्राचीन नगर जूनागढ़ गिरनार की उपत्यका में बसा मराठा भक्तों ने मानभाऊ लोगों की सर्वदा उपेक्षा की है। हुआ है । नगर का एक द्वार गिरनारदरवाजा कहलाता मानभाऊ भी मराठी भाषाभाषी एक प्रकार के पाश्चरात्र है । द्वार के बाहर एक ओर बाघेश्वरी देवी का मन्दिर वैष्णव है। जिन-जिन मराठी लेखकों तथा कवियों की है। वही वामनेश्वर शिवमन्दिर भी है। यहाँ अशोक रचनाओं से यह उपेक्षा का भाव परिलक्षित होता है, का शिलालेख लगा हुआ है। आगे मुचकुन्द महादेव का उनमें गिरिधर, एकनाथ आदि हैं। सम्भवतः अपनी परमन्दिर है। ये स्थान पहाड़ के दातार शिखर के नीचे म्परावादी स्मात प्रवृत्तियों के कारण ही ये मानभाऊ की ओर हैं। यहाँ पर कई देवालय बने हुए हैं । महाप्रभु सन्तों की उपेक्षा करते थे। वल्लभाचार्य के वंशजों की हवेली (आवास) भी है। गिरिषरजी-वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय साहित्य में प्राचीन काल में यह पर्वत 'ऊर्जयन्त' अथवा 'उज्ज- 'शद्धाद्वैतमार्तण्ड' का विशिष्ट स्थान है। इसके रचयिता यन्त' कहलाता था (दे० स्कन्दगुप्त का गिरनार अभि- गिरिधरजी १६०० ई० के आसपास हए थे। ये अपने लेख) । इस पर्वत की एक पहाड़ी पर दत्तात्रेय की पादुका समय में वल्लभीय अनुयायियों के अध्यक्ष थे। नाभाजी के चिह्न बने हुए हैं। अशोक के शिलालेख से प्रकट है एवं तुलसीदास भी इनके समसामयिक थे । कि तृतीय शती ई० पू० में यह तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हो चुका गिरिनगर-दे० गिरनार । था। रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख के प्रारम्भ में ही गिरिशिष्यपरम्परा-शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्यों में इसका उल्लेख है ( एपिग्रागिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० से सुरेश्वराचार्य ( मण्डन ) प्रमुख थे तथा उन चारों ३६-४२ ) वस्त्रापथ क्षेत्र का यह केन्द्र माना जाता था के दस शिष्य थे, जो 'दसनामी' के नाम से प्रसिद्ध हैं । ये (स्कन्दपुराण, २.२.१-३)। यहाँ सुवर्णरेखा नामक चार गरुओं के नाम पर चार मठों में बँटकर रहने लगे। पवित्र नदी बहती है। सुरेश्वर के तीन शिष्य-गिरि, पर्वत और सागर ज्योतिगिरि-(१) गिरि अथवा पर्वत हिन्दू धर्म में पूजनीय माने र्मठ ( जोशीमठ ) के अन्तर्गत थे । इस प्रकार गिरि-शिष्यगये हैं। पूजा का आधार धारणशक्ति अथवा गुरुत्व है परम्परा जोशी मठ में सुरक्षित हैं। ( गिरति धारयति पृथ्वी, ग्रियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा)। गीतगोविन्द-शृंगार रस प्रधान संस्कृत का गीतकाव्य । पर्वतों में कुलपर्वत विशेष पूजनीय है : इसके रचयिता लक्ष्मणसेन के राजकवि जयदेव थे। इसमें मेरु मन्दर कैलास मलया गन्धमादनः । राधा-कृष्ण के विहार का ललित वर्णन है । महेन्द्रः श्रीपर्वतश्च हेमकूटस्तथैव च । राधा का नाम सर्वप्रथम 'गोपालतापिनी उपनिषद्' अष्टावेते तु सम्पूज्या गिरयः पूर्वदिक्क्रमात् ।। में आता है। राधापूजक सम्प्रदायों द्वारा यह ग्रन्थ अति सम्मानित है। जिन सम्प्रदायों में राधा की आराधना महेन्द्रो मलयः सह्य सानुयानक्षपर्वतः । होती है उनमें विष्णुस्वामी एवं निम्बार्कों का नाम विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वताः ।। प्रथम आता है। राधा की पूजा एवं गीतों द्वारा प्रशंसा गिरिजा-गिरि ( पर्वत ) हिमालय अथवा हिमालयाधि- उत्तर भारत में माध्वकाल के पूर्व प्रचलित थी, क्योंकि ष्ठित देवता से जन्मी हई पार्वती । दे० 'उमा', 'पार्वती'। जयदेवरचित गीतागोविन्द बारहवीं शती के अन्त की x Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ गीता-गुण रचना है। बंगाल में जयदेव को निम्बार्क मतावलम्बी समन्वित । एकान्तवादी सम्प्रदायों ने इन तीन विद्याओं कहते हैं, किन्तु गीतगोविन्द की राधा प्रेयसी हैं, पत्नी को वैकल्पिक मान लिया। इससे जीवन एकाङ्गी हो नहीं, जबकि निम्बार्कों के मतानुसार राधा कृष्ण की गया । भगवान् कृष्ण ने तीनों के समन्वयमार्ग की पुनः पत्नी हैं। प्रतिष्ठा की। गीता-दे० 'श्रीमद्भगवद्गीता'। महाभारत के भीष्म- गीताभाष्य-गीताभाष्य ग्रन्थ कई आचार्यों द्वारा रचे गये पर्व में यह पायी जाती है। महाभारतयुद्ध के पूर्व अर्जुन हैं। वे आचार्य हैं-शङ्कर, रामानुज, मध्व, केशव का व्यामोह दूर करने के लिए कृष्ण ने इसका उपदेश काश्मीरी, बलदेव विद्याभूषण आदि । इन भाष्यों में किया था। इसमें कर्म, उपासना और ज्ञान का समुच्चय साम्प्रदायिक दर्शन एवं धर्म का प्रतिपादन किया गया है। है । नीलकण्ठ ने अपनी टीका में इसके विषय में कहा है : गीतार्थसंग्रह-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के यामनाचार्य द्वारा भारते सर्ववेदार्थो भारतार्थञ्च कृत्स्नशः । रचित संस्कृत ग्रन्थ 'गीतार्थसंग्रह' भगवद्गीता की व्याख्या गीतायामस्ति तेनेयं सर्वशास्त्रमयी मता ॥ उपस्थित करता है । इसमें विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन इयमष्टादशाध्यायी क्रमात् षट्कत्रयेण हि । किया गया है। कर्मोपास्तिज्ञानकाण्ड-त्रितयात्मा निगद्यते । गीतार्थसंग्रहरक्षा-आचार्य वेङ्कटनाथ ने तमिल में लगभग मधुसूदन सरस्वती ने अपनी टीका गीतागूढार्थदीपिका १०८ ग्रंथों की रचना है। 'गीतार्थसंग्रहरक्षा' उनमें से में गीता के उद्देश्य का विशद विवेचन किया है : एक है। इसमें भगवद्भक्ति कूट-कूट कर भरी है। जनता सहेतुकस्य संसारस्यात्यन्तोपरमात्मकम् । में यह बहुत प्रिय है। परं निःश्रेयसं गीताशास्त्रस्योक्तं प्रयोजनम् ॥ आदि गीतावली (१)-चैतन्य सम्प्रदाय के आचार्यों में सनातन भगवद्गीता के अतिरिक्त और भी गीताएँ हैं, जैसे गोस्वामी प्रमुख हैं। उन्हीं की यह पद्यमयी रचना है। भागबतपुराण में गोपीगीता, अध्यात्मरामायण में राम- श्लोकों में भगवान् कृष्ण का चरित्र वर्णित है । गीता, आश्वमेधिक पर्व में ब्राह्मणगीता, अनुगीता, देवी गीतावली (२)-राम भक्ति सम्बन्धी साहित्यभंडार में भागवत में भगवतीगीता आदि । अनेक आचार्यों ने गीता पर साम्प्रदायिक टीकाएँ गोस्वामी तुलसीदास का प्रमुख योगदान है। गीतावली में तुलसीदास ने रामकथा को गीतों में कहा है। इसके गीत तथा भाष्य लिखे हैं। इनमें शाङ्करभाष्य बहुत प्रसिद्ध गेय तो हैं ही, साहित्यिक दृष्टि से बड़े उच्चकोटि के हैं । है। यह अद्वैतवादी तथा निवृत्तिमार्गी भाष्य है। आधु गीताविवृत-मध्वमतावलन्बी श्री राधवेन्द्र स्वामीकृत एक निक टीकाकारों तथा निबन्धकारों में लोकमान्य तिलक ग्रन्थ। इसकी भाषा सरल है, रचना १७वीं शताब्दी की है। का 'गीतारहस्य', श्री अरविन्द का 'एसेज ऑन दी गीता' तथा महात्मा गान्धी का 'अनासक्तियोग' उल्ले गीतासार-भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश किया है खनीय हैं। वह गरुड पुराण (अध्याय २३३) में 'गीतासार' के नाम से गीतातात्पर्यनिर्णय-गीता पर स्वामी मध्वाचार्यरचित एक प्रसिद्ध है । मोक्ष के लिए समस्त योग, ज्ञान आदि के प्रतिनिबन्ध ग्रन्थ । इसमें द्वैतवादी दर्शन तथा कृष्ण भक्ति का पादक शास्त्रों का सार इसमें संक्षेप से संगृहीत है। प्रतिपादन किया गया है। गुटका-कबीरपंथी सम्प्रदाय की यह प्रार्थना पुस्तिका है । गीताधर्म-भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को राजयोग का उप- कबीर के अनुयायी नित्य पाठ में इसका उपयोग करते हैं। देश करके भागवत धर्म का पुनरारम्भ किया। इसका गुडतृतीया-इस व्रत का अनुष्ठान भाद्र शुक्ल तृतीया को तात्पर्य यह है कि गीताधर्म सृष्टि के आरम्भ से चला आ होता है। पार्वती इसकी देवता हैं। पुष्पों को गुड़ अथवा रहा था। बीच में उसका लोप हो जाने पर श्री कृष्ण पायस (खीर) के साथ भगवती को समर्पण करना चाहिए। द्वारा उसका पुनरारम्भ हुआ। गीताधर्म अध्यात्म पर गण-वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः है-द्रव्य, गुण, आधारित समुच्चयवादी धर्म था। मनुष्य की मुक्ति का कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय । अभाव भी एक मार्ग त्रिविध माना जाता था-ज्ञान, कर्म और भक्ति पदार्थ कहा गया है । इस प्रकार पदार्थ सात हुए। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणरत्नकोष-गुरु २३५ द्रव्याश्रयी (द्रव्य में रहने वाला), कर्म से भिन्न और अनिरुद्ध को द्वारका से उठा लायी थी । गुप्तकाशी में नन्दी सत्तावान् जो हो, वह गुण है । गुण के चौबीस भेद है : पर आरूढ, अर्धनारीश्वर शिव की सुन्दर मूर्ति है। एक कुंड १. रूप २. रस ३. गन्ध ४. स्पर्श ५. संख्या में दो धाराएँ गिरती है, जिन्हें गङ्गा-यमुना कहते हैं। ६. परिमाण ७. पृथक्त्व ८. संयोग ९. विभाग यहाँ यात्री स्नान करके गप्त दान करते हैं। १०. परत्व ११. अपरत्व १२. बुद्धि १३. सुख । गुप्तप्रयाग-उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल । यह हर१४. दुःख १५. इच्छा १६. द्वेष १७. यत्न १८. सिल (हरिप्रयाग) से दो मील की दूरी पर स्थित है। गुरुत्व १९. द्रवत्व २०. स्नेह २१. संस्कार २२. झाला से आध मील पर श्यामप्रयाग ( श्याम गङ्गा और धर्म २३. अधर्म और २४. शब्द । दे० भाषापरिच्छेद । भागीरथी का संगम ) है। यहाँ से दो मील पर गुप्त__ शाक्त मतानुसार प्राथमिक सृष्टि की प्रथम अवस्था में प्रयाग है। शक्ति का जागरण दो रूपों में होता है, क्रिया एवं भूति गुप्तगोदावरी-चित्रकूट के अन्तर्गत अनसूयाजी से छः मील तथा उसके आश्रित छः गुणों का प्रकटीकरण होता है । वे तथा बाबूपुर से दो मील की दूरी पर गुप्त गोदावरी है । गुण है-ज्ञान, शक्ति, प्रतिभा, बल, पौरुष एवं तेज । ये एक अँधेरी गुफा में १५-१६ गज भीतर सीताकुण्ड है। र वासुदेव के प्रथम व्यूह तथा उनकी शक्ति इसमें सदा झरने से जल गिरता रहता है। यात्री इसमें लक्ष्मी का निर्माण करते हैं। छः गुणोंमें युग्मों के बदलकर स्नान करके गोदावरी के स्नानपुण्य का अनुभव करते हैं। संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध ( द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ गुप्तारघाट-एक वैष्णव तीर्थ । शुद्ध नाम 'गोप्रतारतीर्थ' । व्यूह ) एवं उनकी शक्तियों का जन्म होता है आदि। अयोध्या से नौ मील पश्चिम सरयूतट पर है । फैजाबाद सांख्य दर्शन के अनुसार गुण प्रकृति के घटक हैं। इनकी छाँवनी होकर यहाँ सड़क जाती है। यहाँ सरयूस्नान का संख्या तीन हैं। सत्त्व का अर्थ प्रकाश अथवा ज्ञान, रज का बहत माहात्म्य माना जाता है । घाट के पास गुप्त हरि का अर्थ गति अथवा क्रिया और तम का अर्थ अन्धकार अथवा मन्दिर है। जडता है । जिस प्रकार तीन धागों से रस्सी बँटी जाती है गुरदास-एक मध्य कालीन सन्त का नाम । सुधारवादी उसी प्रकार सारी सृष्टि तीन गुणों से घटित है। दे० सांख्य- साहित्यमाला में १६वीं शती के अन्त में भाई गुरदास ने कारिका। एक और पुष्प पिरोया, जिसका नाम है 'भाई गुरदास की वार'। इस ग्रन्थ का आंशिक अंग्रेजी अनुवाद मेकालिफ गुणरत्नकोष-आचार्य रामानुजरचित यह एक ग्रन्थ है ।। ने किया है। गुणावाप्तिव्रत-यह फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ होता , गुरु-गुरु उसको कहते हैं जो वेद-शास्त्रों का गृणन (उपदेश) है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए । शिव करता है अथवा स्तुत होता है (गृणाति उपदिशति वेदतथा क्रमशः चार दिनों तक आदित्य, अग्नि, वरुण और शास्त्राणि 'यद्वा गीर्यते स्तूयते शिष्यवर्गः)। मनुस्मृति चन्द्रदेव की (शिव रूप में) पूजा होनी चाहिए । प्रथम दो (२.१४२) में गुरु की परिभाषा निम्नांकित है : । रुद्र रूप में तथा अन्तिम दो कल्याणकारी शङ्कर रूप में। निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि । अचित होने चाहिए। इन दिनों पवित्र द्रव्यों से युक्त जल सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते । से स्नान करना चाहिए । चारों दिन गेहूँ, तिल तथा यवादि | जो विप्र निषेक (गर्भाधान) आदि संस्कारों को यथा धान्यों से होम का विधान है। आहार रूप में केवल दुग्ध । विधि करता है और अन्न से पोषण करता है वह गुरु ग्रहण करना चाहिए। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.१३७. कहलाता है ।] इस परिभाषा से पिता प्रथम गुरु है, १-१३ (हेमाद्रि, २.४९९-५०० में उद्धृत)। तत्पश्चात् पुरोहित, शिक्षक आदि । मन्त्रदाता को भी गुप्तकाशी-उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग से २१ मील की दूरी गुरु कहते हैं। गुरुत्व के लिए वर्जित पुरुषों की सूची पर स्थित । पूर्वकाल में ऋषियों ने भगवान् शङ्कर की ___कालिकापुराण (अध्याय ५४) में इस पकार दी हुई है : प्राप्ति के लिए यहाँ तप किया था । कहते हैं बाणासुर की अभिशप्तमपुत्रञ्च सन्नद्धं कितवं तथा । कन्या ऊषा का भवन यहाँ था। यहीं ऊषा की सखी क्रियाहीनं कल्पाङ्गं वामनं गुरुनिन्दकम् ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सदा मत्सरसंयुक्तं गुरुमन्त्रेषु वर्जयेत् । गुरुर्मन्त्रस्य मूलं स्यात् मूलशद्धी सदा शुभम् ॥ कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय ११ ) में गुरुवर्ग की एक लम्बी सूची मिलती है : उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः । मातुलः श्वशुरस्त्राता मातामहपितामही ॥ बन्धुर्ज्येष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवः स्मृताः । मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा ॥ श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु । इत्युक्तो गुरुवर्गोऽयं मातृतः पितृतो द्विजाः ॥ इनका शिष्टाचार, आदर और सेवा करने का विधान है । युक्तिकल्पतरु में अच्छे गुरु के लक्षण निम्नांकित कहे गये हैं : सदाचारः कुशलधी: सर्वशास्त्रार्थ पारगः । नित्यनैमित्तिकानाञ्च कार्याणां कारकः शुचिः ॥ अपर्व मैथुनपरः पितृदेवार्चने रतः । गुरुभक्तोजितक्रोधो विप्राणां हितकृत् सदा || दयावान् शीलसम्पन्नः सत्कुलीनो महामतिः । परदारेषु विमुखो दृढसंकल्पको द्विजः ॥ अन्यैश्च वैदिकगुणैर्युक्तः कार्यो गुरुर्नृपैः । एतैरेव गुणैर्युक्तः पुरोधाः स्यान्महीर्भुजाम् ।। मन्त्रगुरु के विशेष लक्षण बतलाये गये हैं : शान्तो दान्तः कुलीनश्च विनीतः शुद्धवेशवान् । शुद्धाचारः सुप्रतिष्ठः शुचिर्दक्षः सुबुद्धिमान् ।। आश्रमी ध्याननिष्ठश्च मन्त्र-तन्त्र - विशारदः । निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते ॥ उद्धर्तुञ्च व संहर्तुं समर्थो ब्राह्मणोत्तमः । तपस्वी सत्यवादी च गृहस्थो गुरुरुच्यते ॥ सामान्यतः द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है : गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरुः । पतिरेको गुरुः स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरुः ॥ ( चाणक्यनीति ) उपनयनपूर्वक आचार सिखाने वाला तथा वेदाध्ययन कराने वाला आचार्य ही यथार्थतः गुरु है । : उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः । आचारमग्निकार्यञ्चसन्ध्योपासनमेब च ॥ गुरु-प्रभाकर अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः । तमपीह गुरु विद्याच्छ्र तोपक्रिययातया ॥ षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम् । तदद्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥ ( मनु० २.६९; २. १४९, ३ . १ ) वीरशैवों में यह प्रथा है कि प्रत्येक लिङ्गायत गाँव में एक मठ होता है जो प्रत्येक पाँच प्रारम्भिक मठों से सम्बन्धित रहता है । प्रत्येक लिङ्गायत किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होता है प्रत्येक का एक गुरु होता है । जङ्गम इनकी एक जाति है जिसके सदस्य लिङ्गायतों के । गुरु होते हैं । जब लिङ्गायत अपने गुरु का चुनाव करता है तब एक उत्सव होता है, जिसमें पाँच पात्र, पाँच मठों के महन्तों के प्रतिनिधि के रूप में, रखे जाते हैं । चार पात्र वर्गाकार आकृति में एवं एक केन्द्र में रखा जाता है । यह केन्द्र का पात्र उस लिङ्गायत के गुरु के मठ का प्रतीक होता है । जब गुरु किसी लिङ्गायत के घर जाता है, उस अवसर पर 'पादोदक' संस्कार ( गुरु का चरण धोना ) होता है, जिसमें सारा परिवार तथा मित्रमण्डली उपस्थित रहती है । गृहस्वामी द्वारा गुरु की षोडशोपचार पूर्वक पूजा की जाती है धार्मिक गुरु के प्रति भक्ति की परम्परा भारत में अति प्राचीन है । प्राचीन काल में गुरु का आज्ञापालन शिष्य का परम धर्म होता था । गुरु शिष्य का दूसरा पिता माना जाता था एवं प्राकृतिक पिता से भी अधिक आदरणीय था । आधुनिक काल में गुरुसंमान और भी बढ़ा चढ़ा है । नानक, दादू, राधास्वामी आदि संतों के अनुयायी जिसे एक बार गुरु ग्रहण करते हैं, उसकी बातों को ईश्वरवचन मानते हैं । विना गुरु की आज्ञा के कोई हिन्दू किसी सम्प्रदाय का सदस्य नहीं सकता । प्रथम वह एक जिज्ञासु बनता है । बाद में गुरु उसके कान में एक शुभ बेला में दीक्षामज्ञ पढ़ता है और फिर वह सदस्य बन जाता है । गुरु (प्रभाकर) - छठी शती से आठवीं शती के बीच कर्ममीमांसा के दो प्रसिद्ध विद्वान् हुए; एक प्रभाकर जिन्हें गुरु भी कहते हैं एवं दूसरे कुमारिल, जिन्हें भट्ट कहा जाता है । इन दोनों से मीमांसा के दो सम्प्रदाय चले । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुकुलजीवन-गुह २३७ गुरुकुलजीवन-द्विज या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को जीवन गुरु अङ्गद ने नानक के पदों के लिए उस लिपि को स्वीकी पहली अवस्था में अच्छे गृहस्थजीवन की शिक्षा लेना कार किया जो ब्राह्मी से निकली थी और पंजाब में उनके अनिवार्य था । यह शिक्षा गुरुकुलों में जाकर प्राप्त की जाती समय में प्रचलित थी । गुरुवाणी उसमें लिखी गयी, इसथी, जहाँ वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त क्षत्रिय शस्त्रास्त्र लिए इसका नाम 'गुरुमुखी' पड़ा । गया । वास्तव में 'गुरुमुखी' विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन एवं कृषि का कार्य भी लिपि का नाम है, परन्तु भूल से लोग इसे भाषा भी सीखता था। गुरुकुल का जीवन अति त्यागपूर्ण एवं तपस्या समझ लेते हैं । इसकी वही वर्णमाला है जो संस्कृत और का जीवन था। गुरु की सेवा, भिक्षाटन पर जीविका, भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं की। इस समय पंजाबी गुरु के पशुओं का चारण, कृषिकर्म करना, समिधा जुटाना भाषा को सिवख लोग इसी लिपि में लिखते हैं । आदि कर्म करने के पश्चात् अध्ययन में मन लगाना पड़ता गुरुरत्नमालिका-यह सदाशिव ब्रह्मेन्द्र द्वारा रचित एक था । धनी, निर्धन सभी विद्यार्थियों का एक ही प्रकार का ग्रन्थ है। जीवन होता था। इस तपस्थलों से निकलने पर स्नातक गुरुव्रत-अनुराधा नक्षत्र युक्त गुरुवार को इस व्रत का समाज का सम्माननीय सदस्य के रूप में आदृत होता एवं ____ अनुष्ठान होता है । सुवर्ण पात्र में रखी हुई बृहस्पति ग्रह विवाह कर गृहस्थाश्रम का अधिकारी बनता था। की सुवर्णमूर्ति के पूजन का विधान है। इसमें सात नक्तों का आचरण किया जाता है । दे० देमाद्रि, २.५०९।। गुरुग्रन्थसाहब-(१) सिक्ख संप्रदाय का सर्वोत्तम धार्मिक गुरुस्थल जङ्गम-'जङ्गम' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में ग्रन्थ, जिसकी पूजा गुरुमूर्ति के रूप में की जाती है । इस होता है-पहला प्रयोग जाति के सदस्य के लिए । पवित्र ग्रन्थ का अखण्ड पाठ करने की रीति सिक्खों ने ही दूसरा अभ्यासी के अर्थ में। अभ्यासी अर्थवाचक जङ्गम प्रचलित की। इसमें सिक्खों के दस गुरुओं की वाणी के पूज्य होता है । ऐसे जङ्गम लिङ्गायतों के गुरु होते हैं साथ ही कबीर, नामदेव, रविदास, मीरा, तुलसी आदि तथा किसी न किसी मठ से सम्प्रदाय की शिक्षा व दीक्षा भक्तों की चुनी हुई वाणियाँ भी संकलित हैं और यह ग्रहण करते हैं । इन्हें आजीवन ब्रह्मचारी रहना चाहिए । गुरुमुखी लिपि में लिखा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं-गुरुस्थल जङ्गम और विरक्त (२) इसी नाम का गरीबदासी सम्प्रदाय का भी एक जङ्गम । गुरुस्थलों को सभी पारिवारिक संस्कारों धार्मिक ग्रन्थ है, जिसे संत गरीबदास (१७१७-८२ ई०)। (उत्सवों) एवं गुरु का कार्य करने की शिक्षा दी जाती है । गुर्वष्टमी व्रत-गुरुवारयुक्त भाद्रपद मास की अष्टमी को ने में रचा। इसमें २४,००० पद है । दे० 'गरीबदास'। गुव ___ इस व्रत का अनुष्ठान होता है । सुवर्ण अथवा रजत की गुरुदेव-पन्द्रहवी शती के वीरशैव सम्प्रदाय के एक आचार्य, गुरु अर्थात् बृहस्पति देवता की प्रतिमा की पूजा का जिन्होंने 'वीरशैव आचार प्रदीपिका' की रचना की। विधान है। गुरुदेव स्वामी-ये 'आपस्तम्ब सूत्र' के एक भाष्यकार थे । गुरुद्वारा-सिक्खों का पूजास्थान गुरुद्वारा कहलाता है। गुह-(१) कार्तिकेय का एक पर्याय । महाभारत (३.२२८) __ में शिव ( रुद्र ) के पुत्र को गुह कहा गया है : पूजा में 'ग्रन्थ साहब' के कुछ निश्चित भागों का पाठ तथा रुद्रसूनुं ततः प्राहुर्गुहं गुरुमतांवर । ग्रन्थ की पूजा होती है। सिक्ख गुरुद्वारों में अमृतसर का अर्थनमभ्ययुः सर्वा देवसेनाः सहस्रशः । स्वर्णमन्दिर प्रमुख और दर्शनीय है। गुरु नानक तथा अस्माकं त्वं पतिरिति ब्रुवाणाः सर्वतो दिशः ।। अन्य गुरुओं के जीवन से सम्बन्ध रखने वाले प्रमुख स्थानों [ रुद्र के पुत्र का नाम गुह हुआ और देवताओं की पर गुरुद्वारे बने हुए हैं, जो सिक्खों के तीर्थस्थान हैं। समस्त सेना ने इनको अपना नाथक मान लिया।] गुरुप्रवीप-वेदान्ताचार्य अद्वैतानन्द स्वामी (सं० १२०६ से । (२) वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान् राम १२५५) के तीन ग्रन्थों में एक ग्रन्थ का नाम 'गुरुप्रदीप' है। के सखा निषादराज का नाम गुह था। यह शृङ्गवेरपुर गुरुमुखी-उस लिपि का नाम जिसमें सिक्खों का धर्मग्रन्थ के मुख्य गंगातट का शासक था। राम और भरत का 'ग्रन्थ साहब' लिखा हुआ है । गुरु नानक के उत्तराधिकारी इसने बड़ा आतिथ्य किया था। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ गुहदेव-गृहस्थ (३) कहीं-कहीं विष्णु को भी गुह कहा गया है : जातियों-गुह्यक, किरात एवं किन्नरों के चित्र पाये जाते 'करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।' (महा० १३. हैं । यक्षों के बहुत कुछ सदृश ही गुह्यक भी होते हैं । १४९-५४ ) इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : भरहुत और साँची की मूर्तिकला में इनका अङ्कन बौने के 'गुहते संवृणोति स्वरूपादीनि मायया' [ जो अपनी माया रूप में शालभञ्जिकाओं के पैरों के नीचे हुआ है । अनङ्गसे स्वरूप आदि का संवरण करता है।] परवश व्यक्ति कामिनियों के चरणतल में कैसे दब जाता गुहदेव-वेदान्त के एक आचार्य । निघण्टु के टीकाकार है, इसका यह प्रतीक है। देवराज और भट्ट भास्कर ने माधवदेव, भवस्वामी, गुह- गुह्मकद्वादशी--द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। देव, श्रीनिवास, उब्वट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे व्रती को इस दिन उपवास करना चाहिए तथा गुह्यकों हैं । ब्रह्मसूत्र रचना के बाद और स्वामी शङ्कराचार्य के पूर्व (यक्षों) की तिल और अक्षतों से पूजा करनी चाहिए। भी वेदान्त के आचार्यों की परम्परा अक्षुण्ण रही है । इन इस व्रत में किसी ब्राह्मण को सुवर्ण दान करने से समस्त आचार्यों का उल्लेख दार्शनिक साहित्य एवं शङ्कर के पापों का क्षय हो जाता है। भाष्य में हुआ है। रामानुजकृत वेदार्थसंग्रह (पृ० गुह्यसमाज--एक धार्मिक संघटन, जो वामाचारी तान्त्रिक १५४ ) में प्राचीन काल के छ: वेदान्ताचार्यों का उल्लेख साधकों का वह समाज है जिसमें बहुत सी गुह्य (गोपनीय) मिलता है, इनमें गुहदेव भी हैं। क्रियाएँ होती हैं । इसमें वे ही साधक प्रवेश पाते हैं जो इस __गह-गम्भीर आध्यात्मिक तत्त्व को गुह्य कहते हैं । साधना में विधिवत् दीक्षित होते हैं। कन्दराओं, गुहाओं गीता ( ९.१ ) में भगवान् ने ज्ञान को गुह्यतम कहा है : और गुप्त स्थानों में इस समाज द्वारा साधना की जाती है। इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । गूढज (गूढोत्पन्न)-धर्मशास्त्र के अनुसार बारह प्रकार के ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। पुत्रों में से एक । पत्नी अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य [ तुमको श्रद्धालु समझकर मैं इस अति गुह्य ज्ञान पुरुष से प्रच्छन्न रूप में जो पुत्र उत्पन्न करती है उसे का उपदेश करूँगा, विज्ञान के साथ इसको समझकर तुम गूढज कहा जाता है । मनुस्मृति (९,१७०) में इसकी परिकष्ट से छूट जाओगे।] भाषा इस प्रकार की गयी है : बुद्धि अथवा हृदयाकाश रूपी गहरी गुहा में स्थित उत्पद्यते गृहे यस्य न च ज्ञायेत कस्य सः । होने कारण इस तत्त्व को गुह्य कहा गया है। कहीं-कहीं स गृहे गूढ़ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः ॥ विष्णु और शिव को भी गुह्य कहा गया है। विष्णु- यह दायभागी बन्धु माना गया है (मनु. ९,१५९) । सहस्रनाम ( महाभारत, १३.१४९.७१ ) में गुह्य विष्णु याज्ञवल्क्यस्मति (२.३२) में इसकी यही परिभाषा का एक नाम है : मिलती है : गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः । 'गृहे प्रच्छन्न उत्पन्नो गूढजस्तु सुतो मतः ।' इसी प्रकार महाभारत (१३.१७.९१ ) में शिव वर्तमान हिन्दू-विधि में गूढ़ज पुत्र की स्वीकृति नहीं है। ( महादेव ) गुह्य कहे गये हैं : गृहस्थ---गृह में पत्नी के साथ रहनेवाला । पत्नी का गृह में यजुः पादभुजो गुह्यः प्रकाशो जंगमस्तथा । रहना इसलिए आवश्यक है कि बहुत से शास्त्रकारों ने गुह्यक-अर्ध देवयोनियों में गुह्यक भी हैं। कुबेर के अनु पत्नी को ही गृह कहा है : 'न गृहं गृहमित्याहुहिणी चरों का यह एक भेद है । धार्मिक तक्षणकला के अलङ्क- गृहमुच्यते ।' गृहस्थ द्वितीय आश्रम 'गार्हस्थ्य' में रहता रण में इसका प्रतीकात्मक उपयोग किया गया है। है । इसलिए इसको ज्येष्ठाश्रमी, गृहमेधी, गृही, गृहपति, निधि रक्षन्ति ये यक्षास्ते स्युर्गुह्यकसंज्ञकाः । गृहाधिपति आदि भी कहा गया है। धर्मशास्त्र में ब्राह्मण [देवताओं की निधि के रक्षक यक्षगण गुह्यक कह- को प्रमुखता देते हुए गृहस्थधर्म का विस्तार से वर्णन लाते हैं।] किया गया है । (दे० मनुस्मृति, अध्याय ४)।। अजन्ता की भित्ति-चित्रकला में जहाँ पर्वतीय दृश्य चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाद्यं गुरौ द्विजः । चित्रित हैं, उनमें पक्षी, वानर एवं काल्पनिक जङ्गली द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत् ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूढार्थदीपिका - गृहपञ्चमी अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः । या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि ॥ यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः । अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धर्मसञ्चयम् ।। ऋतानृताभ्याज्जीवेत्त, मृतेन प्रमृतेन वा । सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन ॥ ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् ॥ मृतं तु याचितं भैक्ष्यं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् । सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीयते । सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत् ॥ द्विज आयु के प्रथम चतुर्थ भाग को गुरुगृह में व्यतीत कर द्वितीय - चतुर्थ भाग में विवाह कर पत्नी के साथ घर में वास करे । सम्पूर्ण जीवधारियों के अद्रोह अथवा अल्पद्रोह से अपनी वृत्ति की स्थापना कर विप्र को आपत्तिरहित अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपनी जीवनयात्रा की सिद्धि मात्र के लिए अपने अनिन्दनीय कर्मों द्वारा शरीर को क्लेश दिये बिना उसे धनसञ्चयन करना चाहिए। उसे ऋत और अनृत से जीना चाहिए अथवा मृत और प्रमृत से अथवा सत्यानृत से, किन्तु श्वान - वृत्ति (नौकरी) से कभी नहीं । ऋत उञ्छशिल (खेत में पड़े हुए दानों को चुनना ) को, अमृत अयाचित (बिना मागे प्राप्त) को, मृत याचित भिक्षा को प्रमृत कर्षण ( बलात् प्राप्त ) को कहा गया है । सत्यानृत वाणिज्य है । उससे भी जीवन व्यतीत किया जा सकता है । श्वानवृत्ति सेवा नाम से प्रसिद्ध है । इसलिए इसका त्याग करना चाहिए । ] गरुड पुराण ( ४९ अध्याय ) में गृहस्थधर्म का वर्णन सामान्यतः इस प्रकार से किया गया है : सर्वेषामाश्रमाणान्तु दैविध्यन्तु चतुर्विधम् । ब्रह्मचार्युपकुर्वाणो नैष्ठिको ब्रह्मतत्परः ॥ योऽधीत्य विधिवद्वेदान् गृहस्थाश्रममाव्रजेत् । उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैष्ठिको मरणान्तकः ॥ अग्नयोऽतिथिशुश्रूषा यज्ञो दानं सुरार्चनम् । गृहस्थस्य समासेन धर्मोऽयं द्विजसत्तमाः ॥ उदासीनः साधकश्च गृहस्थो द्विविधो भवेत् । कुटुम्बभरणे युक्तः साधकोऽसौ गृही भवेत् ॥ ऋणानि त्रीण्युपाकृत्य त्यक्त्वा भार्याधनादिकम् । एकाकी विचरेद्यस्तु उदासीनः स मौक्षिकः ।। २३९ [ ब्रह्मचारी (स्नातक) के दो प्रकार होते हैं ---- उपकुर्वाण और नैष्ठिक । जो वेदों का विधिवत् अध्ययन कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है यह उपकुर्वाण और जो आमरण गुरुकुल में रहता है वह नैष्ठिक है । अग्न्याधान, अतिथिसेवा, यज्ञ, दान, देवपूजन ये संक्षेप में गृहस्थ के धर्म हैं । उदासीन और साधक-गृहस्थ दो प्रकार का होता है । कुटुम्बभरण में नियमित लगा हुआ गृहस्थ साधक होता है । ऋणों - ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्त होकर, भार्या और धन आदि को छोड़कर मोक्ष की कामना से जो एकाकी विचरता है वह उदासीन है । ] प्रत्येक गृहस्थ को तीन ऋणों से मुक्त होना आवश्यक है । वह नित्य के स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से और सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है । उसके नित्य कर्मों में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान अनिवार्य है। ये यज्ञ हैं - ( १ ) ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याय) (२) देवयज्ञ ( यज्ञादि ) (३) पितृयज्ञ ( पितृतर्पण और पितृसेवा ) ( ४ ) अतिथियज्ञ ( संन्यासी, ब्रह्मचारी, अभ्यागत की सेवा) और भूतयज्ञ अर्थात् जीवधारियों की सेवा । दे० 'आश्रम' और 'गार्हस्थ्य' । गूढार्थदीपिका - स्वामी मधुसूदन सरस्वती कृत श्रीमद्भगवद्गीता की टीका । इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं । शंकराचार्य के मतानुसार रचित यह व्याख्या विद्वानों में अत्यन्त आदर के साथ प्रचलित है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी है । गृत्समद - एक वैदिक ऋषि । ऋग्वेद की ऋचाएँ सात वर्गों में विभक्त हैं एवं वे सात ऋषिकुलों से सम्बन्धित हैं । इनमें प्रथम ऋषिकुल के ऋषि का नाम गृत्समद है । सर्वानुक्रमणिका, ऐतरेय ब्राह्मण (५.२.४) एवं ऐतरेय आरण्यक ( २.२.१ ) में गृत्समद को ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल का साक्षात्कार करने वाला कहा गया है। कौषीतकि ब्राह्मण ( २२.४ ) में गृत्समद को भार्गव भी कहा गया है । गृहपञ्चमी - पञ्चमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है । इसमें ब्रह्मा के पूजन का विधान है। सुर्खी, चूना, सूप, धान्य साफ करने का यन्त्र, रसोई के बर्तन, (गार्हस्थ्य की पाँच आवश्यक वस्तुएँ) तथा जलकलश का दान किया जाता है । दे० हेमाद्रि, १.५७४; कृत्यरत्नाकर, ९८ ( सात Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० गृह्यसूत्र-गोकर्णक्षेत्र वस्तुओं का उल्लेख करता है, जिनमें एक है चूल्हा तथा क्षीरोदन तैयार किया जाता था। ऋग्वेद की दानस्तुति दूसरा है जलकलश )। में गौओं के बड़े-बड़े समूहों का उल्लेख किया गया है। पुरोहितों को गौओं के दान एवं गोपालन अथवा इनके गृह्यसूत्र-धार्मिक जीवन के कर्तव्यनिर्धारक ग्रन्थों में चार स्वामित्व को विशेष महत्त्वपूर्ण ढंग से दर्शाया गया है। प्रकार के सूत्रों का सर्वोपरि महत्त्व है। वे हैं श्रौत, वैदिक कालीन गौएँ रोहित, शुक्ल, पृश्नि, कृष्ण आदि गृह्य, धर्म एवं इन्द्रजालिक ग्रन्थ । गृह्यसूत्रों को 'गृह्य' इसलिए कहा गया है कि वे घरेलू (पारिवारिक) यज्ञों रङ्गों के नाम से पुकारी जाती थीं। बैल हल तथा गाड़ी तथा परिवार के लिए आवश्यक धार्मिक कृत्यों का वर्णन खींचते थे। ये व्यक्तिगत स्वामित्व के विषय थे एवं उपस्थित करते हैं। वस्तुओं के विनिमय एवं मूल्यांकन के भी साधन थे। ___ गो शब्द का प्रयोग गौ से उत्पन्न वस्तुओं के लिए भी गृह्यसूत्रों के तीन भाग हैं। पहले भाग में छोटे यज्ञों का वर्णन है, जो प्रत्येक गहस्थ अपने अग्निस्थान में किया जाता है । प्रायः इसका अर्थ दुग्ध ही लगाया जाता पुरोहित द्वारा (या ब्राह्मण होने पर स्वतः) करता है। है, किन्तु पशु का मांस बहुत कम । इससे पशुचर्म का ये यज्ञ तीन प्रकार के हैं : (अ) घृत, तैल, दुग्ध को अग्नि बोध भी होता है. जिसे अनेक कामों में लाया जाता है। 'चर्मन' शब्द कभी-कभी गो का पर्याय भी समझा में देना, (आ) पका हुआ अन्न देना तथा (इ) पशुयज्ञ । जाता है। दूसरे भाग में सोलह संस्कारों का वर्णन है, यथा जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि, गोदान अनेक प्रकार के दानों में महत्त्वपूर्ण है । स्वतन्त्र जो जीवन की विशिष्ट अवस्थाओं से सम्बन्धित कर्म हैं। रूप से गौ का दान पुण्यकारक तो समझा ही जाता है, तीसरे में मिश्रित विषय हैं, जैसे गृहनिर्माण सम्बन्धी कर्म, अन्य धार्मिक कार्यों के साथ-विवाह, श्राद्ध आदि में भी श्राद्ध कर्म, पितृयज्ञ तथा अन्य लधु क्रियाएँ । कौशिक गृ० इसका विधान है। सू० में चिकित्सा तथा दैवी विपत्तियों को दूर करने के गो-उपचार-यगादि तथा यगान्त्य नामक तिथियों के दिन मन्त्र भी पाये जाते हैं। सभी वेदशाखाओं के उपलब्ध __ इस व्रत का विधान है। इसमें एक गौ का सम्मान तथा गृह्यसूत्रों की सूची देना आवश्यक प्रतीत होता है । ये पूजन होना चाहिए । षडशीतिमुख, उत्तरायण, दक्षिणायन हैं : (ऋक् सम्बन्धी) १. शाङ्खायन २. शाम्बव्य ३. आश्व विषुव (समान रात्रि तथा दिवस), प्रत्येक मास की संक्रालायन; (साम सम्बन्धी) ४. गोभिल ५. खादिर ६. न्तियों, पूर्णिमा, चतुर्दशी,; पञ्चमी, नवमी, सूर्य तथा जैमिनि; (शुक्लयजुर्वेद सम्बन्धी) ७. पारस्कर; (कृष्णयजुर्वेद चन्द्र ग्रहण के दिन भी इस व्रत का आचरण करना सम्बन्धी) ८. आपस्तम्ब ९. हिरण्यकेशी १०. बौधायन चाहिए। दे० कृत्यरत्नाकर, ४३३-४३४; स्मृतिकौस्तुभ ११. भारद्वाज, १२. मानव १३. वैखानस; (अथर्ववेद । सम्बन्धी) १४. कौशिक । दे० 'सूत्र' । गोकर्णक्षेत्र-कर्नाटक प्रदेश में गोवा के समीप में स्थित गो (गौ)–गौ हिन्दुओं का पवित्र पशु है। अनेक यज्ञिय एक शैवतीर्थ । यह रावण द्वारा स्थापित कहा जाता है। पदार्थ-घी, दुग्ध, दधि इसी से प्राप्त होते हैं । यह स्वयं उत्तर प्रदेश के खीरी जिले में 'गोला गोकर्णनाथ' भी पूजनीय एवं पृथ्वी, ब्राह्मण और वेद का प्रतीक है। उत्तर का गोकर्ण तीर्थ कहलाता है। गोकर्णक्षेत्र के आसभगवान् कृष्ण के जीवन से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। पास कई तीर्थ है-१. माण्डव्यकुण्ड (गोकर्ण से चार मील उनको गोपाल, गोविन्द आदि विरुद इसी से प्राप्त हुए। पश्चिम) २. कोणार्क कुण्ड ३. भद्रकुण्ड (गोकर्ण मन्दिर गोरक्षा और गोसंवर्धन हिन्दू का आवश्यक कर्तव्य है।। से आध मील) ४. पुनर्भूकुण्ड और ५. गोकर्णतीर्थ (मन्दिर वैदिक कालीन भारतीयों के धन का प्रमुख उपादान गाय के समीप)। इस क्षेत्र में गोकर्णनाथ को मिलाकर पञ्चअथवा बैल है। गौ के क्षीर का पान या उसका उपभोग घृत लिङ्ग माने जाते हैं, जिनमें मुख्य लिङ्ग गोकर्णजी का है। या दधि बनाने के लिए होता था। क्षीर यज्ञों में सोमरस दुसरा देवकली के पास सरोवर के किनारे देवेश्वर महादेव, के साथ मिलाया जाता था, अथवा अन्न के साथ तीसरा भीटा स्टेशन के पास गदेश्वर, चौथा गोकर्णनाथ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकुल-गोत्र __२४१ से दक्षिण बावर गाँव में वटेश्वर और पांचवां सुने- शान्तौ मृगाजिनं शस्तं मोक्षार्थं व्याघ्रचर्म च । सर गाँव के पश्चिम स्वर्णेश्वर । इनके दर्शनों के लिए बह- गोचर्म स्तम्भने देवि सम्भवे वाजिचर्म च ।। संख्यक यात्री आते हैं। श्रीमद्भागवत में गोकर्ण का इसके अनुसार स्तम्भन क्रिया (शत्रु के जडीकरण) में उल्लेख है : गोचर्म काम आता है। पारस्कर आदि गृह्यसूत्रों के ततोऽभिव्रज्य भनवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान् । अनुसार विवाह संस्कार की एक क्रिया में वर को वृषभगोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटे:।। चर्म पर बैठने का विधान है। यहाँ पर वृषभचर्म वृष्यता [ तदनन्तर बलरामजी केरल देश में गये, पुनः त्रिगर्त अथवा सर्जनशक्ति का प्रतीक है । में पहुंचे जहाँ गोकर्ण नामक शंकरजी विराजते हैं ।] देवी- (२) भूमि का एक माप : भागवत (७.३०.६०) में शाक्त पीठों में इसकी गणना को दशहस्तेन वंशेन दश वंशान् समन्ततः । गयी है : पंच चाभ्यधिकान् दद्याद् एतद् गोचर्म उच्यते ॥ केदारपीठे सम्प्रोक्ता देवी सन्मार्गदायिनी। (वसिष्ठ) मन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकणिका ।। [ दस हाथ लम्बे बाँस द्वारा पंद्रह-पंद्रह वर्गाकार में इसके अनुसार गोकर्ण में भद्रकणिका देवी का नापी गयी भूमि गोचर्म कहलाती है।] निवास है। गोतम-गोतम का उल्लेख ऋग्वेद में अनेक बार हुआ है, गोकूल-यह वैष्णव तीर्थ है। विश्वास किया जाता है कि किन्त किसी ऋचा के रचयिता के रूप में नहीं । यह भगवान् कृष्ण ने यहाँ गौएँ चरायी थीं । मथुरा से दक्षिण स्पष्ट है कि उनका सम्बन्ध आङ्गिरसों से था, क्योंकि छः मील दूर यह यमुना के दूसरे तट पर स्थित है । कहा गोतम प्रायः उनका उल्लेख करते हैं। ऋग्वेद की एक जाता है, श्री कृष्ण के पालक पिता नन्दजी का यहाँ गोष्ठ ऋचा में इनका पितृवाचक 'रहुगण' (१.७८.५) था। संप्रति वल्लभाचार्य, उनके पुत्र गुसाई बिट्ठलनाथजी- शब्द आया है। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें 'माथ्व एवं गोकुलनाथजी की बैठकें हैं । मुख्य मन्दिर गोकुलनाथ विदेस' का पारिवारिक पुरोहित तथा वैदिक सभ्यता के जी का है। यहाँ वल्लभकुल के चौबीस मन्दिर बतलाये वाहक समझा गया है (१.१४.१.१०) । उसी ब्राह्मण में जाते हैं। इन्हें विदेह जनक एवं याज्ञवल्क्य का समकालीन एवं एक महालिङ्गेश्वर तन्त्र में शिवशतनाम स्तोत्र के अनुसार सूक्त का रचयिता कहा गया है । अथर्ववेद के दो परिच्छेदों महादेव गोपीश्वर का यह स्थान है : में भी इनका उल्लेख है। वामदेव तथा नोधस इनके पुत्र __ गोकुले गोपिनीपूज्यो गोपीश्वर इतीरितः । थे । उनमें वाजश्रवस् भी सम्मिलित हैं। गोकुलनाथ-व्रजभाषा के गद्यलेखक रूप में गोकुलनाथ गोत्र-इसको व्युत्पत्ति कई प्रकार से बतायी गयी है। वल्लभसम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। इनकी पूर्व पुरुषों का यह उद्घोष करता है, इसलिए गोत्र कह'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' व्रजभाषा की तत्कालीन लाता है । इसके पर्याय है सन्तति, कुल, जनन, अभिजन, टकसाली रचना बहुत ही आदरणीय है। इन्होंने पुष्टि अन्वय, वंश, सन्तान आदि । कुछ विद्वानों के अनुसार मार्गीय सिद्धान्तग्रन्थों की व्याख्या भी लिखी है। 'गोत्र' शब्द का अर्थ 'गोष्ठ' है। आदिम काल में जितने गोचर-इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होनेवाला विषय । जितना दृश्य कुटुम्बों की गायें एक गोष्ठ में रहती थीं उनका एक गोत्र जगत् है अथवा जहाँ तक मन की गति है वह सब गोचर । होता था। परन्तु इसका सम्बन्ध प्रायः वंशपरम्परा से माया का साम्राज्य है। परमतत्त्व इससे परे है। वेदान्तसार ही है। वास्तविक अथवा कल्पित आदि पुरुष से वंशमें कथन है 'अखण्डे सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम् ।' परम्परा प्रारम्भ होती है । मनु के अनुसार निम्नांकित मूल गोचर्म-(१) गौ का चमड़ा । कई धार्मिक कृत्यों में गोचर्म गोत्र ऋषि थे: के आसन का विधान है। समयाचारतन्त्र (पटल २) में जमदग्निर्भरद्वाजो विश्वामित्रात्रिगौतमाः । विविध कर्मों में विविध आसन निम्नांकित प्रकार से बत- वसिष्ठ काश्यपागस्त्या मुनयो गोत्रकारिणः । लाये गये हैं : एतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यते ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ गोत्रिरात्रनत-गोदावरी किन्तु अन्यत्र मनु ने ही चौबीस गोत्रों का उल्लेख (२) भाद्र शुक्ल द्वादशी अथवा कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी किया है : को इस व्रत का प्रारम्भ करना चाहिए । तीन दिन तक उपशाण्डिल्यः काश्यपश्चैव वात्स्यः सावर्णकस्तथा । वास, लक्ष्मी, नारायण तथा कामधेनु का पूजन होना चाहिए। भरद्वाजो गौतमश्च सौकालीनस्तथापरः ॥ इसके अनुष्ठान से सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है। कल्किपञ्चाग्निवेश्यश्च कृष्णात्रेयवसिष्ठको । (३) यह व्रत भाद्र शुक्ल त्रयोदशी को आरम्भ करना विश्वामित्रः कुशिश्च कौशिकश्च तथापरः ।। चाहिए । तीन दिन पर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। घृतकौशिकमौद्गल्यौ आलम्यानः पराशरः । कामधेनु तथा लक्ष्मीनारायण की पूजा का इसमें विधान सौपायनस्तथात्रिश्च वासुकी रोहितस्तथा ॥ है। दे० हेमाद्रि, व्रतखंड, ३०३-३०८ (भविष्योत्तर पुराण वैयाघ्रपद्यकश्चैव जामदग्न्यस्तथापरः । से); व्रतप्रकाश (पत्रात्मक १६१)। चतुर्विशतिर्वे गोत्रा कथिताः पूर्वपण्डितः ।। गोवा-दक्षिण भारत की प्रेमानुरागवती एक विष्णुभक्त कुलदीपिका में उद्धृत धनञ्जयकृत धर्मप्रदीप के अन- महिला । आलवार भक्तों में पेरिया आलवार अर्थात् 'सर्वसार चालीस गोत्र निम्नांकित हैं : श्रेष्ठ भक्त' का जन्म परम्परा के अनुसार कलिसंवत्सर ४५ सौकालीनकमौद्गल्यौ पराशरबृहस्पती । में हुआ था। उनकी पुत्री अण्डाल, जो कलिसंवत् ९६ में काञ्चनो विष्णुकौशिक्यौ कात्यायनायकाण्वकाः ।। उत्पन्न हुई थी, बहुत बड़ी भक्त थी । बहुत ही मधुरभाषिणी कृष्णात्रेयः साङ्कृतिश्च कौडिन्यो गर्गसंज्ञकः । होने के कारण उसे गोदा कहते थे । उसने तमिल भाषा में आङ्गिरस इति ख्यातः अनावृकाख्यसंज्ञितः ।। 'स्तोत्र रत्नावली' पुस्तक की रचना की है, जिसमें तीन सौ अव्यजैमिनिवृद्धाख्या शाण्डिल्यो वात्स्य एव च । स्तोत्र हैं। तमिल भक्तों में इनका बड़ा आदर है । (इनकी सावालम्यानवैयाघ्रपद्यश्च घृतकौशिकः ॥ जन्मतिथि आदरार्थ अत्यन्त प्राचीन काल में मानी गयी है।) शक्तिः काण्वायनश्चैव वासुकी गौतमस्तथा । गोवान-गो=केशों का दान = खण्डन करने वाला संस्कार, शुनकः सौपायनश्चैव मुनयो गोत्रकारिणः ॥ जो दाढ़ी-मूछों के मुण्डन रूप में होता है। इसीलिए शतएतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यते ॥ पथ ब्राह्मण में इसका अर्थ 'क्षौरकम' है। गोदान विधि गोत्रों के आदि पुरुष ब्राह्मण ऋषि थे। इसलिए (सिर का मुण्डन) पूर्ण युवावस्था की प्राप्ति पर तथा ब्राह्मणों के जो गोत्र हैं वे ही पौरोहित्य परम्परा से क्षत्रिय, विवाह के अवसर पर होती है । अथर्ववेद में इस विधि का वैश्य और शूद्रों के भी गोत्र हैं । अग्निपुराण के वर्णसङ्करो। उल्लेख है, किन्तु यह नाम नहीं है । बाद में केशान्त संस्कार पाख्यान में इस मत का उल्लेख किया गया है : का यह पर्याय हो गया, क्योंकि प्रथम बार दाढ़ी-मूछ साफ क्षत्रिय-वैश्य-शद्राणां गोत्रं च प्रवरादिकम् । करने के समय गोदान किया जाता था । दे० 'केशान्त' । तथान्यवर्णसङ्कराणां येषां विप्राश्च याजकाः ।। गोदावरी-दक्षिण भारत की गङ्गा। भारत की पवित्र नदियों जिनकी पौरोहित्य परम्परा छिन्न हो गयी है और में इसका तीसरा स्थान है। स्नान करने के समय इसका जिनके गोत्र का पता नहीं लगता उनकी गणना काश्यप ध्यान और आवाहन किया जाता है : गोत्र में की जाती है, क्योंकि कश्यप सबके पूर्वज माने जाते हैं । दे० गोत्रप्रवरमञ्जरी। गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । गोत्रिरात्र व्रत-(१) यह व्रत आश्विन कृष्ण त्रयोदशी को कावेरि नर्मदे सिन्धो जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु ॥ आरम्भ होता है । तीन दिन तक इसका आचरण किया वैदिक साहित्य में गोदावरी का उल्लेख नहीं मिलता, जाता है। इसके गोविन्द देवता हैं । गोशाला अथवा पर्ण- किन्तु रामायण के समय से इसकी चर्चा प्रारम्भ हो जाती शाला में वेदिका का निर्माण कर उस पर मण्डल बनाकर है । अरण्यकाण्ड (१३.१३.२१) में कथन है कि पञ्चवटी भगवान् कृष्ण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए, जिसकी नामक प्रदेश गोदावरी के निकट और अगस्त्य आश्रम से दाहिनी और बायीं ओर चार-चार पटरानियां हों। चौथे दो योजन की दूरी पर स्थित है।। दिन होम, गौओं को अर्घ्यदान तथा उनका पूजन होना महाभारत के वनपर्व (८८.२) में गोदावरी का निम्नांचाहिए। इस व्रत के आचरण से सन्तान की वृद्धि होती है। कित वर्णन पाया जाता है : Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोधूमवत-गोदपभिरात्र २४३ यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी। के बायें किनारे पर नासिक में नारोशङ्कर मन्दिर प्रसिद्ध बह्वारामा बहजला तापसाचरिता शिवा ॥ है। पञ्चवटी में सीतागुफा यात्रियों के विशेष आकर्षण का ब्रह्मपुराण (७०.१७५ ) में गोदावरी और उसके स्थान है । सीतागुफा के ही पास कालाराम का मन्दिर है, तटवर्ती तीर्थों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। ब्रह्म- जिसकी गणना दक्षिण-पश्चिम भारत के सर्वोत्तम मन्दिरों पुराण गोदावरी को प्रायः गौतमी कहता है : में की जा सकती है । गोवर्धन और तपोवन के बीच कई विन्ध्यस्य दक्षिणे गङ्गा गौतमी सा निगद्यते । पवित्र घाट और कुण्ड हैं। नासिक में सबसे पवित्र स्थान उत्तरे साऽपि विन्ध्यस्य भागीरथ्यभिधीयते ।। (७८.७७)। रामकुण्ड और सबसे प्रसिद्ध धार्मिक पर्व रामनवमी है । (तीर्थसार में उद्धृत) बृहस्पति के सिंहस्थ होने के अवसर पर र गोदावरी द्वारा सिञ्चित प्रदेश को अत्यन्त पवित्र और स्नान अत्यन्त पुण्यकारक माना जाता है जिसका बारह धर्म तथा मुक्ति का बीज कहा गया है : वर्ष में एक बार यहाँ विशाल धार्मिक समारोहपूर्वक मेला धर्मबीजं मुक्तिबीजं दण्डकारण्यमुच्यते । लगता है। विशेषाद् गौतमीश्लिष्टो देशः पुण्यतमोऽभवत् । गोधूमव्रत-सत्ययुग में नवमी के दिन भगवान् जनार्दन (वही, १६१.७३) (विष्णु) द्वारा दुर्गा, कुबेर, वरुण तथा वनस्पतियों का कई पुराणों में गोदावरी घाटी के ऊपरी अञ्चल की निर्माण किया गया । वनस्पति भी एक चेतन देवता है, बड़ी प्रशंसा की गयी है : जिसमें गोधम प्रमुख है। इस व्रत में गेहूँ के आटे के बने सह्यस्यान्तरे चैते तत्र गोदावरी नदी। पदार्थों से उपर्युक्त पाँच देवताओं का पूजन करना चाहिए। पृथिव्यामपि कृत्स्नायां स प्रदेशो मनोरमः ॥ दे० कृत्य रत्नाकर, २८५-२८६ । यत्र गोवर्धनो नाम मन्दरो गन्धमादनः ॥ गोपथ ब्राह्मण-अथर्ववेद से सम्बन्धित एक ब्राह्मणग्रन्थ । (मत्स्यपुराण ११४.३७-३८) गोदावरी की उत्पत्ति के विषय में पुराणों में कई इसके विषयों में विविधता है । यह ग्रन्थ 'वैतानसूत्र' पर कथाएँ दी हुई हैं। ब्रह्मपुराण ( ७४.७६ ) के अनुसार आधारित है । इसमें दो काण्ड हैं, जिनका ११ अध्यायों गौतम ऋषि शिव की जटा से गङ्गा को ब्रह्मगिरि में अपने में विभाजन हुआ है। पहले काण्ड में पांच तथा दूसरे में आश्रम के पास ले आये थे। कुछ परिवर्तन के साथ यही छः अध्याय हैं । अध्याय प्रपाठक भी कहलाते हैं। इस कथा नारदपुराण (उत्तरार्द्ध, ७२) तथा वराहपुराण (७१. ब्राह्मण का मुख्यतः सम्बन्ध ब्रह्मविद्या से है । इसके कुछ ३७-४४) में पायी जाती है। ब्रह्मगिरि में आकर गङ्गा ही अंश शतपथ और ताण्ड्य ब्राह्मण से लिये गये हैं और कुछ गोदावरी बन गयी। कूर्मपुराण (२.२०.२९-३५) के स्पष्टतः परवर्ती प्रक्षेप जान पड़ते हैं। अनुसार गोदावरी के तट पर किया हुआ श्राद्ध बहुत हो गोपदत्रिरात्र ( गोष्पदत्रिरात्र )-इस व्रत को भाद्र शुक्ल पुण्यकारक होता है। तृतीया या चतुर्थी को अथवा कार्तिक मास में प्रारम्भ गोदावरी के किनारे स्थित तीर्थों की संख्या बहुत बड़ी करना चाहिए। तीन दिन तक गौओं तथा लक्ष्मीनारायण है । ब्रह्मपुराण में लगभग एक सौ तीर्थों का वर्णन पाया के पूजन का इसमें विधान है । सूर्योदय के समय व्रत की जाता है, जिनमें त्र्यम्बक, कुशावर्त, जनस्थान, गोवर्धन, स्वीकृति तथा उसी दिन उपवास करना चाहिए। गौ के प्रवरासंगम, निवासपुर, बज्जरासंगम, आदि मुख्य हैं। सींग और पूंछ को दही तथा घी से अभिषिञ्चित करना गोदावरी के किनारे सर्वप्रसिद्ध तीर्थ है नासिक, गोवर्धन, चाहिए । व्रती को चूल्हे में न पकाया हुआ खाद्य ग्रहण पञ्चवटी और जनस्थान । प्राचीन काल में इन तीर्थों में करना चाहिए । तैल तथा लवण वर्जित है। दे० हेमाद्रि २. बहुत बड़ी संख्या में मन्दिर थे । परन्तु मुसलमानी काल में ३२३-३२६ (भविष्योत्तर पुराण १९.१-१६ से)। हेमाद्रि उनमें से अधिकांश ध्वस्त हो गये । फिर मराठों के उत्थान के अनुसार पूजन के समय 'माता रुद्राणाम्', (ऋग्वेद, के पश्चात् पेशवाओं के शासनकाल में अनेक मन्दिरों का अष्टम मण्डल, १०१.१५.१) मन्त्र का उच्चारण करना निर्माण हुआ। पञ्चवटी में रामजीमन्दिर एवं गोदावरी चाहिए। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ गोपनवत-गोपी गोपद्मवत-आश्विन मास की पूर्णिमा, अष्टमी, एकादशी गोपाल भट्ट--चैतन्यसम्प्रदाय के एक आचार्य । ये इस अथवा द्वादशी को व्रत प्रारम्भ कर चार मास पर्यन्त तब सम्प्रदाय के प्रारम्भिक छः गोस्वामियों में से एक थे । तक किया जाय जब तक कृष्ण पक्ष की वही तिथि न आ 'हरिभक्तिविलास' इस सम्प्रदाय का प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जाय । इस व्रत को सभी कर सकते हैं, किन्तु विशेष रूप जिसकी रचना सनातन गोस्वामी ने की। परन्तु यह से इस व्रत का विधान नव विवाहितों के लिए है। गौ के गोपाल द्वारा भी रचित माना जाता है। भट्टजी दक्षिण पैर की प्रतिमा अपने गृह में, गोशाला में, विष्णुमन्दिर में, देश के निवासी थे, बाद में चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा से शिवालय में अथवा तुलसी के थाले के पास ३३ बार वृन्दावन में आकर आजीवन भगवान् की आराधना एवं अंकित कर पाँच वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान करना ग्रन्थरचना करते रहे। चाहिए। इसके विष्णु देवता हैं। तदनन्तर उद्यापन का गोपालसहस्रनाम-सभी कृष्णभक्त सम्प्रदायों का धार्मिक विधान है। व्रत के अन्त में गोदान करना चाहिए । दे० स्तोत्र ग्रन्थ । इसमें भगवान कृष्ण के एक सहस्र नामों का स्मृतिकौस्तुभ, ४१८-४२४; व्रतराज, ६०४-६०८। कीर्तन है। गोपाल-(१) भगवान् कृष्ण का एक लोकप्रिय नाम । गोपाष्टमी-कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अन्भागवत धर्म में कृष्ण या वासुदेव के ईश्वरीकरण के ष्ठान होता है । इसी दिन भगवान् कृष्ण गोप बने थे । विषय में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं । राम इसके देवता भी वे ही हैं। इसमें गौओं के पूजन का कृष्ण गोपाल भण्डारकर वासुदेव एवं कृष्ण में अन्तर विधान है ( दे० निर्णयामृत, ७७ (कूर्म पुराण से))। बतलाते हैं। उनका कहना है कि वासुदेव प्रारम्भ में सात्वत कुल के प्रमुख व्यक्ति थे, जो छठी। शती ई० पू० गोपिनी-वीराचार (तान्त्रिक) सम्प्रदाय के पश्वाचारी में या इससे पूर्व हुए थे। उन्होंने अपने कुल के लोगों को साधकों की पूजनीय नायिकाओं का एक प्रकार गोपिनी एकेश्वरवाद की शिक्षा दी। तदनन्तर उनके अनुयायियों कहलाता है। कुलार्णवतन्त्र में 'गोपिनी' शब्द की ने उन्हें व्यक्तिगत ईश्वर मानकर उनकी ही आराधना व्युत्पत्ति बतलायी गयी है : प्रारम्भ की। उन्हें पहले नारायण, फिर विष्णु और अन्त आत्मानं गोपयेद् या च सर्वदा पशुसङ्कटे । में मथुरा के गोपदेवता 'गोपाल कृष्ण' के रूप में माना सर्ववर्णोद्भवा रम्या गोपिनी सा प्रकीर्तिता ।। गया । इस सम्प्रदाय में प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ भगवद्गीता गोपी-वैष्णव वाङ्मय में भागवतपुराण, हरिवंश एवं की रचना की गयी जो सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। दे० उनका ग्रन्थ विष्णपुराण का प्रमख स्थान है। तीनों में कृष्ण के जीवन'वैष्णविज्म, शैविज्म ऐण्ड अदर माइनर रेलिजस सेक्ट्स काल का वर्णन मिलता है। भागवत में उनके परवर्ती ऑफ इन्डिया।' इस कथन में कल्पना का पुट अधिक है। जीवन की अपेक्षा बाल्य एवं युवा काल का वर्णन अति 'गोविन्द', 'गोपाल' आदि कृष्ण के पर्याय बहुत पुराने हैं। सुन्दर हआ है । इसमें गोपियों के बीच उनकी क्रीडा का (२) ब्रजमंडल में बसने वाले गोपों को भी गोपाल कहा वर्णन प्रमुख हो गया है । गोपियाँ अनन्य भक्ति की प्रतीक गया है, जो वैकुंठवासी देवों के अवतार थे : हैं। गोपीभाव का अर्थ है अनन्यभक्ति। दार्शनिक गोपाला मुनयः सर्वे वैकुण्ठानन्दमूर्तयः । दृष्टि से गोपियाँ 'गोपाल-विष्णु' की ह्लादिनी शक्ति की गोपालचम्पू-महात्मा जीव गोस्वामी द्वारा रचित कृष्ण अनेक रूपों में अभिव्यक्ति हैं, जो उनके साथ नित्य विहार लीलासम्बन्धी काव्यग्रन्थ । गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में यह बहुत लोकप्रिय है। अथवा रास करती हैं। गोपालतापनीयोपनिषद-इसमें गोपाल कृष्ण के ब्रह्मत्व का गोपीतत्त्व और गोपीभाव के उद्गम और विकास का निरूपण किया गया है। कृष्णोपासक वैष्णवों को यह इतिहास बहुत लम्बा और मनोरञ्जक है। सर्वप्रथम विश्वस्त एवं प्रामाणिक उपनिषद् है । ऋग्वेद के विष्णुसुक्त (१.१५५.५ ) में विष्णु के लिए गोपालनवमी-इस व्रत का अनुष्ठान नवमी के दिन करना 'गोप', 'गोपति', 'गोपा' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। चाहिए। समुद्रगामिनी नदी में स्नान करने का इसमें __यह भी कहा गया है कि विष्णुलोक में मधु का उत्स है विधान है। कृष्ण भगवान की पूजा होनी चाहिए। और उसमें भूरिशृंगा गौएँ चरती है। ये शब्द निश्चित Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपी रूप से विष्णु का सम्बन्ध, चाहे प्रतीकात्मक ही क्यों न हो, गो, गोप और गोपियों से जोड़ते हैं । यहाँ पर गो, गोप आदि शब्द यौगिक हैं, व्यक्तिवाचक अथवा जातिवाचक नहीं । इनका सम्बन्ध है गमन, विक्रम, समृद्धि, माधुर्य और आनन्द से। इसी मूल वैदिक कल्पना के आधार पर वैष्णव साहित्य में कृष्ण के गोपस्वरूप, उनके गोपसखा, गोपी, गोपी भाव की सारी कल्पनाएँ और भावनाएँ विकसित हुईं। यह कहना कि कृष्ण का मूलतः सम्बन्ध केवल गोप-प्रजाति से था, वैष्णव धर्म के इतिहास को बीच में खण्डित रूप से देखना है। हाँ, यह कहना ठीक है कि विष्णु का गोप रूप गोचारण करने वाले गोपों और गोपियों में अधिक लोकप्रिय हुआ । महाभारत में कृष्ण और विष्णु का ऐक्य तो स्थापित हो गया था, परन्तु उसमें कृष्ण की बाललीला की चर्चा न होने से गोपियों का कोई प्रसंग नहीं है । किन्तु पुराणों में गोप-गोपियों का वर्णन (रूपकात्मक) मिलना प्रारम्भ हो जाता है। भागवत ( १०.१.२३ ) पुराण में तो स्पष्ट कथन है कि गोपियाँ देवपत्नियाँ थीं, भगवान् कृष्ण का अनुरञ्जन करने के लिए वे गोपी रूप में अवतरित हुई । ब्रह्मवैवर्त और पद्मपुराण में गोपीकल्पना और गोपी भावना का प्रचुर विस्तार हुआ है। इनमें गोलोक, नित्य वृन्दावन, नित्य रासक्रीडा, कृष्ण के ब्रह्मत्व, राधा की आह्लादिका शक्ति आदि का सरहस्य वर्णन पाया जाता है । मध्ययुगीन कृष्णभक्त सन्तों ने गोपीभाव को और अधिक प्रोत्साहन दिया और गोपियों की अनन्त कल्पनाएँ हुईं। सनकादि अथवा हंस सम्प्रदाय के आचार्य निम्बार्क ने गोपीभाव की दार्शनिक तथा रहस्यात्मक व्याख्या की है । इनके अनुसार कृष्ण ब्रह्म हैं। इनकी दो शक्तियाँ हैं(१) ऐश्वर्य और ( २ ) माधुर्य । उनकी ऐश्वर्यशक्ति में रमा, लक्ष्मी, भू आदि की गणना है। उनकी माधुर्य शक्ति में राधा तथा अन्य गोपियों की गणना है । गोपियाँ कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं । निम्बार्क ने कहा : अङ्ग े तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम् । सखी सहस्रैः परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ॥ ( दशश्लोकी) २४५ स्पष्टतः यहाँ राधा की कल्पना शक्तिरूप में हुई है । गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय के द्वारा गोपीभाव का सबसे अधिक विस्तार और प्रसार हुआ | पुष्टिमार्ग ने इसे और पुष्ट किया । इन दोनों सम्प्रदायों के अनुसार गोपियाँ भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं । लीला में कृष्ण के साथ उनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में नित्य साहचर्य है । वृन्दावन की प्रत्यक्ष रासलीला में वे भगवान् की गुह्लादिनी शक्ति का प्रवर्तन करती हैं । वे नित्यसिद्धा मानी गयी हैं। चैतन्य मत के आचार्यों ने गोपियों का सूक्ष्म किन्तु विस्तृत वर्गीकरण किया है । दे० रूप गोस्वामीकृत 'उज्ज्वलनीलमणि', कृष्णवल्लभा अध्याय । गोपियों के स्वरूप और नाम के विषय में अन्यत्र भी कथन है : गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेयाः स्वाधिजा गोपकन्यका । देवकन्याश्च राजेन्द्र न मानुष्यः कथञ्चन ॥ [ गोपियों को श्रुति (वेद अथवा मधुस्वर ) समझना चाहिए | ये गोपकन्यका अपनी अधिष्ठान शक्ति से उत्पन्न हुई हैं । हे राजेन्द्र ! ये देवकन्याएँ हैं; किसी प्रकार ये मानुषी नहीं हैं । ] ब्रजबाला के रूप में इनके निम्नांकित नाम हैं : पूर्णरसा, रसमन्थरा, रसालया, रससुन्दरी, रसपीयूषधामा, रसतरङ्गिणी, रसकल्लोलिनी, रसवापिका, अनङ्गमञ्जरी, अनङ्गमानिनी, मदयन्ती, रङ्गविह्वला, ललितयौवना, अनङ्गकुसुमा, मदनमञ्जरी, कलावती, ललिता, रतिकला, कलकण्ठी आदि । श्रुतिगण के रूप में इनके निम्नलिखित नाम हैं : उद्गीता, रसगीता, कलगीता, कलस्वरा, कलकण्ठिता, विपञ्ची, कलपदा, बहुमता, कर्मसुनिष्ठा, बहुहरि, बहुशाखा, विशाखा, सुप्रयोगतमा, विप्रयोगा, बहुप्रयोगा, बहुकला, कलावती, क्रियावती आदि । मुनिगण के रूप में गोपियों के नाम अधोलिखित हैं : उग्रतपा, सुतपा, प्रियव्रता, सुरता, सुरेखा, सुयर्वा, बहुप्रदा, रत्नरेखा, मणिग्रीवा, अपर्णा, सुपर्णा, मत्ता, सुलक्षणा, मुदती, गुणवती, सौकालिनी, सुलोचना, सुमना, सुभद्रा, सुशीला, सुरभि, सुखदायिका आदि । गोपबालाओं के रूप में उनकी संज्ञा नीचे लिखे प्रकार की है : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ गोपीचन्दन-गोमती चन्द्रावली, चन्द्रिका, काञ्चनमाला, रुक्ममाला, गोभिलगृह्यसूत्र-इस गृह्यसूत्र में चार प्रपाठक है । कात्याचन्द्रानना, चन्द्ररेखा, चान्द्रवापी, चन्द्रमाला, चन्द्रप्रभा, यन ने इस पर एक परिशिष्ट लिखा है। गोभिलगृह्यसूत्र चन्द्र कला, सौवर्णमाला, मणिमालिका, वर्णप्रभा, शुद्ध सामवेद की कौथुमी शाखा वालों और राणायनी शाखा काञ्चनसन्निभा, मालती, यूथी, वासन्ती, नवमल्लिका, वालों का है। इसका अंग्रेजी अनुवाद ओल्डेनवर्ग ने प्रस्तुत मल्ली, नवमल्ली, शेफालिका, सौगन्धिका, कस्तूरी, किया है। दे० सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द ३० । पद्मिनी, कुमुद्वती, गोपाली, रसाला, सुरसा, मधुमञ्जरी, इस पर अनेक संस्कृतभाष्य लिखे गये हैं, यथा भट्टनारायण रम्भा, उर्वशी, सुरेखा, स्वर्णरेखिका, वसन्ततिलका आदि। का भाष्य (रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत); यशोधर दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड । का भाष्य (गोविन्दानन्द की 'क्रियाकौमुदी' में उद्धृत); गोपीचन्दन-यह एक प्रकार की मिट्टी है जो द्वारका के सरला नाम की टीका ('श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत)। पास गोपीतालाब में मिलती है। कहा जाता है कि यह इसमें गृहस्थजीवन से सम्बद्ध सभी धार्मिक क्रियाओं गोपियों की अंगधूलि है जहाँ उन्होंने कृष्ण के स्वरूप में की विधि सविस्तर वर्णित है। गृह्ययज्ञों में सात मुख्य हैं, अपने को लीन कर दिया था। गोपीचन्दन से बनाया यथा पितृयज्ञ, पार्वणयज्ञ, अष्टकायज्ञ, श्रावणीयज्ञ, आश्वहुआ 'ऊर्द्धपुण्ड्र' तिलक भागवत सम्प्रदाय का चिह्न है । युजीयज्ञ, आग्रहायणीयज्ञ तथा चैत्रीयज्ञ । इनके अतिरिक्त इसको धारण करनेवाले गोपीभाव की उपासना करते हैं। पाँच नित्य महायज्ञ है, यथा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, गोपीचन्दन उपनिषद्-वासुदेव तथा गोपीचन्दन-उपनिषद् अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ। जिन शरीरसंस्कारों का वर्णन वैष्णवों के परवर्ती युग की रचनायें हैं। दोनों में गोपी इसमें है, उनकी सूची इस प्रकार है-१. गर्भाधान २. पुंसवन ३. सीमन्तोन्नयन ४. जातकर्म ५. नामकरण चन्दन से ललाट पर ऊर्द्धपुण्ड्र लगाने का निर्देश है । इनमें गोपीचन्दन और गोपीभाव का तात्त्विक विवेचन ६. निष्क्रमण ७. चूडाकर्म ८. उपनयन ९. वेदारम्भ किया गया है। १०. केशान्त ११. समावर्तन १२. विवाह १३. अन्त्येष्टि आदि। गोपीचंद्रनाथ-नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से अन्तिम गोपीचन्द्रनाथ थे। गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तनाथ, गोभिलस्मृति-कात्यायन के 'कर्मप्रदीप' से यह अभिन्न है । गोपीचन्द्रनाथ, सभी अब तक जीवित एवं अमर समझे । दे० आनन्दाश्रम स्मृतिसंग्रह, पृ० ४९-७१ । कर्मप्रदीप ही जाते हैं। कहते हैं कि साधकों को कभी-कभी इनके दर्शन गोभिलस्मृति के नाम से उद्धृत होता है। इसकी प्रस्ताभी हो जाते हैं। इन योगियों को चिरजीवन ही नहीं वना में कहा गया है : प्राप्त है, इन्हें चिरयौवन भी प्राप्त है। ये योगबल से अथातो गोभिलोक्तानामन्येषां चैव कर्मणाम् । नित्य किशोर रूप या सनकादिक की तरह बालरूप में अस्पष्टानां विधिं सभ्यग्दर्शयिष्ये प्रदीपवत् ॥ रहते हैं। गोपीचन्द (गोपीचन्द्रनाथ) के गीत आज भी इसके मुख्य विषय हैं-यज्ञोपवीतधारण विधि, आचभिक्षुक योगी गाते फिरते हैं। मन और अङ्गस्पर्श, गणेश तथा मातृका पूजन, कुश, श्राद्ध, अग्न्याधान, अरणि, स्रक्, स्रुव, दन्तधावन, स्नान, गोपुर-धार्मिक भवनों का एक अङ्ग। मन्दिरप्राकार के प्राणायाम, मन्त्रोच्चारण, देव-पितृ-तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, मुख्य द्वारशिखर को गोपुर कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति है श्राद्धकर्म, अशौच, पत्नीधर्म, श्राद्ध के प्रकार आदि । 'गोपन अर्थात् रक्षण करता है जो' (गोपायति रक्षति इति)। गोभिलीय श्राद्धकल्प-यह रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्महाभारत (१.२०८.३१) में एक विशाल गोपुर का धृत है । महायशस् ने इसकी टीका की है, जिसका दूसरा उल्लेख पाया जाता है : नाम यशोधर भी है । इसके दूसरे टीकाकार समुद्रकर भी द्विपक्षगरुडप्रख्यारैः सौधश्च शोभितम् । हैं, जिनका उल्लेख भवदेवकृत 'श्राद्धकला' में हुआ है। गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः ।। गोमती-ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 'नदीसक्त' में एक नदी दक्षिण के द्राविड शैली के मन्दिरों में बृहत्काय गोपुर के रूप में उद्धृत । उक्त ऋचा में इसका सिन्धु की सहापाये जाते हैं। यक नदी के रूप में उल्लेख हुआ है । सिन्धु में पश्चिम से Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमय-गोमांस २४७ बुड्ढा , आकर मिलने वाली गोमल नदी से यह निश्चय ही अभिन्न समझी जा सकती है। गेल्डनर का मत है कि गुमती या इसकी चार ऊपरी शाखाओं (क्योंकि यह शब्द बहुवचन में है) से ही उपर्युक्त नदी का साम्य है । परवर्ती साहित्य में इस नदी को कुरुक्षेत्र में स्थित तथा वैदिक सभ्यता का केन्द्रस्थल कहा गया है । आजकल इस नाम की गङ्गा की सहायक नदी उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होती है। इसके किनारे लखनऊ, जौनपुर आदि नगर हैं। महाभारत (६.९.१७) में एक पवित्र नदी के रूप में इसका उल्लेख है, जिसके किनारे त्र्यम्बक महादेव का स्थान है : गोमती धूतपापां च चन्दनाञ्च महानदीम् । अस्यास्तीरे महादेवस्त्र्यम्बकमूर्त्या विराजते ।। महालिङ्गेश्वरतन्त्र के शिवशतनाम स्तोत्र में भी कथन है : त्र्यम्बको गोमतीतीरे गोकर्णे च त्रिलोचनः । स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (२९.५१) में गोमती का गङ्गा के पर्याय के रूप में उल्लेख है : 'गोमती गुह्यविद्या गोर्गोत्री गगनगामिनी ।' देवीभागवत (७.३०.५७) के अनुसार गोमती एक देवी का नाम है : 'गोमन्ते गोमती देवी मन्दरे कामचारिणी ।' प्रायश्चित्ततत्त्व में उद्धृत शातातप के अनुसार गोमती एक प्रकार का वैदिक मन्त्र है : पञ्चगव्येन गोघाती मासकेन विशध्यति । गोमतीञ्च जपेद् विद्यां गवां गोष्ठे च संवसेत् ।। गोमय-गाय का पुरीष (गोबर) । पञ्चगव्य (गाय के पाँच विकारों) में से यह एक है। महाभारत के दानधर्म में इसका माहात्म्य वर्णित है : शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुष्करम् । गोभिः पूर्व विष्ताभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति ।। अस्मत्पुरीषस्नानेन जनः पूयेत सर्वदा । सकृता च पवित्रार्थं कुर्वीरन् देवमानुषाः ।। ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः । एवं भवत्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च ॥ मनुस्मृति (११.२१२) के अनुसार कृच्छ्रसान्तपन व्रत में गोमयभक्षण का विधान है : गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्सान्तपनं स्मृतम् ।। बुड्ढी, वन्ध्या, रोगात, सद्यः प्रसूता गाय का गोमय वर्जित है : अत्यन्तजीर्णदेहाया बन्ध्यायाश्च विशेषतः । रोगार्तायाः प्रसूताया न गोर्गोमयमाहरेत् ।। (चिन्तामणि में उद्धृत) गोमयादिसप्तमी-चैत्र शक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् भास्कर का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन, व्रती को पञ्चगव्य, यावक, अपने आप गिरी हुई पत्तियाँ अथवा दुग्धाहार ही ग्रहण करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु, १३५१३६; हेमाद्रि, १.७२४-७२५ । गोमांस-गोमांसभक्षण हिन्दू मात्र के लिए निषिद्ध है। अज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक गोमांस भक्षण करने पर प्रायश्चित्त करना आवश्यक है । अज्ञानपूर्वक प्रथम वार भक्षण के लिए पराशर ने निम्नांकित प्रायश्चित्त का विधान किया है : अगभ्यागमने चैव मद्य-गोमांस-भक्षणे । शुद्धौ चान्द्रायणं कुर्यान्नदीं गत्वा समुद्रगाम् ।। चान्द्रायणे ततश्चीणे कुर्याद्ब्राह्मणभोजनम् । अनुडुत्सहितां गाञ्च दद्याद् विप्राय दक्षिणाम् ।। [ अगभ्यागमन (अयोग्य स्त्री से संयोग), मद्यसेवन तथा गोमांसभक्षण के पाप से शुद्ध होने के लिए समुद्रगापिनी नदी में स्नान करके चान्द्रायणव्रत करना चाहिए। चान्द्रायण-व्रत के समाप्त होने पर ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिए और ब्राह्मण को दान में बैल के साथ गाय देनी चाहिए । ज्ञानपूर्वक गोमांसभक्षण में संवत्सरबत का विधान है : गामश्वं कुञ्जरोष्ट्रौ च सर्व पञ्चनखं तथा । क्रव्यादं कुक्कुट ग्राम्यं कुर्यात् संवत्सरं व्रतम् ।। दुबारा गोमांसभक्षण के लिए संवत्सरव्रत के साथ पन्द्रह गायों का दान तथा पुनः उपनयन का विधान है (विष्णस्मृति)। विशेष विवरण के लिए देखिए 'प्रायश्चित्त विवेक'। हठयोगप्रदीपिका ( ३.४७.४८) में गोमांसभक्षण प्रतीकात्मक है: Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ गोमुख-गोरखनाथ गोमांस भक्षयेन्नित्यं पिवेदमरवारुणीम् । किया। इनके समाधिस्थ होने के बाद गोरक्ष की कहाकुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातकाः ॥ नियाँ तथा नाथों की कहानियाँ इन्हीं के नाम से चल गोशब्देनोच्यते जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि । पड़ी। कहते हैं कि इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। गोमांसभक्षणं तत्तु महापातकनाशनम् ।। हठयोगप्रदीपिका ( २.५ ) में इनकी गणना सिद्धयोगियों [जो नित्य गोमांस भक्षण और अमर वाणी का पान में की गयी है : करता है उसको कुलीन मानता हूँ; ऐसा न करने वाले श्रीआदिनाथ-मत्स्येन्द्र-शावरानन्द-भैरवाः । कुलघातक होते हैं। यहाँ गो-शब्द का अर्थ जिह्वा है। चौरङ्गी-मीन-गोरक्ष-विरूपाक्ष-बिलेशयाः ।। तालु में उसके प्रवेश को गोमांसभक्षण कहते हैं। यह इनकी समाधि गोरखपुर ( उ. प्र.) में है जो गोरखमहापातकों का नाश करने वाला है।] पंथियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। दे० 'गोरखनाथ' और गोमुख-(१) हिमालय पर्वत के जिस सँकरे स्थान से गङ्गा 'गोरखनाथी'। का उद्गम होता है उसे 'गोमुख' कहते हैं। यह पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। गङ्गोत्तरी से लगभग गोरखनाथजी का यह संस्कृत नाम है । 'गोरक्ष' शिव दस मील पर देवगाड़ नामक नदी गङ्गा में मिलती है ।। वहाँ से साढ़े चार मील पर चीड़ोवास ( चीड़ के वृक्षों का गोरखनाथ नाथ सम्प्रदाय का उदय यौगिक क्रियाओं के वन ) है। इस वन से चार मील पर गोमुख है। यहीं उद्धार के लिए हुआ, जिनका रूप तान्त्रिकों और सिद्धों हिमधारा (ग्लेशियर ) के नीचे से गङ्गाजी प्रकट होती ने विकृत कर दिया था। नाथ सम्प्रदाय के नवें नाथ हैं । गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय की परम्परा में प्रथम नाम वह सूना हो जाता है । गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी आदिनाथ (विक्रम की ८वीं शताब्दी ) का है, जिन्हें पड़ती है। धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी सम्प्रदाय वाले भगवान् शङ्कर का अवतार मानते हैं । हिमचट्टानें टूट-टूटकर गिरने लगती है। अतः धूप चढ़ने आदिनाथ के शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ एवं मत्स्येन्द्र के शिष्य के पहले लोग चीड़ोवास के पड़ाव पर पहुँच जाते हैं। गोरखनाथजी हुए। नौ नाथों में गोरखनाथ का नाम (२) यह एक प्रकार का आसन है। हठयोगप्रदीपिका सर्वप्रमुख एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश में (१.२० ) में इसका वर्णन इस प्रकार पाया जाता है: इनका मुख्य स्थान गोरखपुर में है। गोरक्षनाथजी का मन्दिर सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपावें नियोजयेत् । प्रसिद्ध है। यहाँ नाथपंथी कनफटे योगी साधु रहते हैं। दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति ॥ इस पन्थ वालों का योगसाधन पातञ्जलि विधि का विक[बायें पीठ के पार्श्व में दाहिनी एडी और दायें पृष्ठ- सित रूप है । नेपाल के निवासी गोरखनाथ को पशुपतिपार्श्व में बायीं एड़ी लगानी चाहिए। इस प्रकार गोमुख नाथजी का अवतार मानते हैं। नेपाल के भोगमती, आकृति वाला गोमुख आसन बनता है।] भातगाँव, मृगस्थली, चौधरी, स्वारीकोट, पिडठान आदि (३) जपमाला के गोपन के लिए निर्मित वस्त्र की स्थानों में नाथ पन्थ के योगाश्रम हैं। राज्य के सिक्कों झोली को गोमुखी कहते हैं । दे० मुण्डमालातन्त्र । पर 'श्रीगोरखनाथ' अंकित रहता है। उनकी शिष्यता गोयुग्मवत-रोहिणी अथवा मृगशिरा नक्षत्र को इस व्रत के कारण ही नेपालियों में गोरखा जाति बन गयी है और का अनुष्ठान होता है। इसमें एक साँड तथा एक गौ का एक प्रान्त का नाम गोरखा कहलाता है। गोरखपुर में शृङ्गार कर उनका दान करना चाहिए। दान से पूर्व उन्होंने तपस्या की थी जहाँ वे समाधिस्थ हुए। उमा तथा शङ्कर का पूजन करना चाहिए। इस व्रत का गोरखनाथकृत हठयोग, गोरक्षशतक, ज्ञानामृत, आचरण करने से कभी पत्नी अथवा पुत्र की मृत्यु नहीं गोरक्षकल्प, गोरक्षसहस्रनाम आदि ग्रन्थ हैं । काशी नागरी देखनी पड़ती, ऐसा इस व्रत का माहात्म्य कहा गया है। प्रचारिणी सभा की खोज में चतुरशीन्यासन, योगचिन्तागोरक्ष-प्रसिद्ध योगी गोरक्षनाथजी १२०० ई० के लग- मणि, योगमहिमा, योगमार्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, भग हुए एवं इन्होंने अपने एक स्वतन्त्र मत का प्रचार विवेकमार्तण्ड और सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति आदि संस्कृत Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोरखनाथी-गोलोक २४९ ग्रन्थ और मिले हैं। सभा ने गोरखनाथ के ही लिखे गोरत्नव्रत-यह गोयुग्म का वैकल्पिक व्रत है। इसमें उन्हीं हिन्दी के ३७ ग्रन्थ खोज निकाले हैं, जिनमें मुख्य ये हैं : मन्त्रों का उच्चारण होता है, जिनका प्रयोग गोयुग्म व्रत में (१) गोरखबोध (२) दत्त-गोरखसंवाद (३) गोरख- किया जाता है। नाथजीरा पद (४) गोरखनाथजी के स्फुट ग्रन्थ (५) गोला गोकर्णनाथ-उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से ज्ञानसिद्धान्त योग (६) ज्ञानतिलक (७) योगेश्वरी- बाईस मील पर गोला गोकर्णनाथ नामक नगर है। यहाँ साखी (८) नबोध (९) विराटपुराण और (१०) गोरख- एक सरोवर है, जिसके समीप गोकर्णनाथ महादेव का सार आदि । विशाल मन्दिर है। वराहपुराण में कथा है कि भगवान् गोरखनाथी-गोरखनाथ के नाम से सम्बद्ध और उनके शङ्कर एक बार मृगरूप धारण कर यहाँ विचरण कर द्वारा प्रचारित एक सम्प्रदाय । गोरखनाथी (गोरक्षनाथी) रहे थे। देवता उन्हें ढूढ़ते हुए आये और उनमें से ब्रह्मा, लोगों का सम्बन्ध कापालिकों से अति निकट का है। विष्णु तथा इन्द्र ने मृगरूप में शङ्कर को पहचान कर ले गोरखनाथ की पूजा उत्तर भारत के अनेक मठ-मन्दिरों चलने के लिए उनकी सींग पकड़ी । मृगरूपधारी शिव तो में, विशेष कर पंजाब एवं नेपाल में, होती है। फिर भी अन्तर्धान हो गये, केवल उनके तीन सींग देवताओं के इस धार्मिक सम्प्रदाय की भिन्नतासूचक कोई व्यवस्था हाँथ में रह गये । उनमें से एक शृङ्ग देवताओं ने गोकर्णनहीं है। संन्यासी, जिन्हें 'कनफटा योगी' कहते हैं, इस नाथ में स्थापित किया, दूसरा भागलपुर जिले (बिहार) सम्प्रदाय के वरिष्ठ अंग हैं । सम्भव है ( किन्तु ठीक नहीं के शृङ्गेश्वर नामक स्थान में और तीसरा देवराज इन्द्र कहा जा सकता है ) गोरखनाथ नामक योगी ने ही इस ने स्वर्ग में । पश्चात् स्वर्ग की वह लिङ्गमूर्ति रावण द्वारा सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया हो। इसका संगठन १३वीं दक्षिण भारत के गोकर्ण तीर्थ में स्थापित कर दी गयी । शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि गोरखनाथ का देवताओं द्वारा स्थापित मूर्ति गोला गोकर्णनाथ में है। नाम सर्वप्रथम मराठा भक्त ज्ञानेश्वररचित 'अमृतानुभव' इसलिए यह पवित्र तीर्थ माना जाता है। ( ई० १२९० ) में उद्धृत है। गोलोक-इसका शाब्दिक अर्थ है ज्योतिरूप विष्णु का लोक ( गौर्योतिरूपो ज्योतिर्मयपुरुषः तस्य लोकः स्थानम् )। गोरखनाथ ने एक नयी योग प्रणाली को जन्म दिया, विष्णु के धाम को गोलोक कहते हैं। यह कल्पना ऋग्वेद जिसे हठयोग कहते हैं। इसमें शरीर को धार्मिक कृत्यों के विष्णुसूक्त से प्रारम्भ होती है। विष्णु वास्तव में एवं कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाओं से शुद्ध करके सूर्य का ही एक रूप है। सूर्य की किरणों का रूपक भूरिमस्तिष्क को सर्वश्रेष्ठ एकाग्रता ( समाधि), जो प्राचीन शृंगा ( बहुत सींग वाली ) गायों के रूप में बाँधा गया योग का रूप है, प्राप्त की जाती है। विभिन्न शारीरिक है । अतः विष्णुलोक को गोलोक कहा गया है। ब्रह्मप्रणालियों के शोधन और दिव्य शक्ति पाने के लिए वैवर्त एवं पद्मपुराण तथा निम्बार्क मतानुसार राधा कृष्ण विभिन्न आसन प्रक्रियाओं, प्राणायाम तथा अनेक मुद्राओं नित्य प्रेमिका हैं। वे सदा उनके साथ 'गोलोक' में, जो के संयोग से आश्चर्यजनक सिद्धि लाभ इनका लक्ष्य सभी स्वर्गों से ऊपर है, रहती हैं। अपने स्वामी की तरह होता है। ही वे भी वृन्दावन में अवतरित हुई एवं कृष्ण की विवागोरखपुर-उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल में नाथ पन्थियों का । हिता स्त्री बनीं। निम्बाकों के लिए कृष्ण केवल विष्णु यहाँ प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यहाँ गोरखनाथजी की के अवतार ही नहीं, वे अनन्त ब्रह्म है, उन्हीं से राधा तथा समाधि के ऊपर सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। गर्भगृह में असंख्य गोप एवं गोपी उत्पन्न होते हैं, जो उनके साथ समाधिस्थल है, इसके पीछे काली देवी की विकराल 'गोलोक' में भाँति-भाँति की लीला करते है । · मूर्ति है । यहाँ अखण्ड दीप जलता रहता है । गोरखपंथ तन्त्र-ग्रन्थों में गोलोक का निम्नांकित वर्णन पाया का साम्प्रदायिक पीठ होने के कारण यह मठ और जाता है : इसके महन्त भारत में अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ के महंत वैकुण्ठस्य दक्षभागे गोलोकं सर्वमोहनम् । सिद्ध पुरुष होते आये हैं। तत्रैव राधिका देवी द्विभुजो मुरलीधरः ।। ३२ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० गोवत्सद्वादशी-गोविन्द यद्रूपं गोलकं धाम तद्रपं नास्ति मामके । ज्ञाने वा चक्षुषो किंवा ध्यानयोगे न विद्यते ॥ शद्धतत्त्वमयं देवि नाना देवेन शोभितम् । मध्यदेशे गोलोकाख्यं श्रीविष्णोर्लोभमन्दिरम् ॥ श्रीविष्णोः सत्वरूपस्य यत् स्थलं चित्तमोहनम् । तस्य स्थानस्य माहात्म्यं किं मया कथ्यतेऽधुना ।। आदि ब्रह्मवैवर्तपुराण ( ब्रह्मखण्ड, २८ अध्याय ) में भी गोलोक का विस्तृत वर्णन है । गोवत्सद्वादशी-कार्तिक कृष्ण द्वादशी से आरम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इसके हरि देवता हैं । प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न नामों से हरि का पूजन करना चाहिए । इससे पुत्र की प्राप्ति होती है । दे० हेमाद्रि, १.१०८३-१०८४ । गोवर्धन-व्रजमण्डल के एक पर्वत का नाम । जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, इससे वज ( चरागाह ) में गायों का विशेष रूप से वर्धन (वृद्धि) होता था। भागवत की कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण ने इन्द्रपूजा के स्थान पर गोवर्धनपूजा का प्रचार किया। इससे क्रुद्ध होकर इन्द्र ने अतिवृष्टि के साथ व्रज पर आक्रमण किया और ऐसा लगा कि व्रज जलप्रलय से नष्ट हो जायेगा । भगवान् कृष्ण ने व्रज की रक्षा के लिए गोवर्धन को एक अंगुली पर उठाकर इन्द्र द्वारा किये गये अतिवर्षण के प्रभाव को रोक दिया। तब से कृष्ण का विरुद गोवर्धनधारी हो गया और गोवर्धन की पूजा होने लगी। यह पर्वत मथुरा से सोलह मील और बरसाने से चौदह मील दूर है, जो एक छोटी पहाड़ी के रूप में है । लम्बाई लगभग चार मील है, ऊँचाई थोड़ी ही है, कहीं कहीं तो भूमि के बराबर है । पर्वत की पूरी परिक्रमा चौदह मील की है। एक स्थान पर १०८ बार दण्डवत् प्रणाम करके तब आगे बढ़ना और इसी क्रम से लगभग तीन वर्ष में इस पर्वत की परिक्रमा पूरी करना बहुत बड़ा तप माना जाता है । गोवर्धन बस्ती प्रायः मध्य में है। पद्मपुराण के पातालखण्ड में गोवर्धन का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गयाँ है: अनादिर्हरिदासोऽयं भधरो नात्र संशयः । [इसमें सन्देह नहीं कि यह पर्वत अनादि और भगवान् का दास है।] गोवर्धपूनजा-पद्मपुराण (पाताल खण्ड ) और हरिवंश (२.१७ ) में गोवर्धनपूजा का विस्तारसे वर्णन पाया जाता है : प्रातर्गोवर्द्धनं पूज्य रात्री जागरणं चरेत् । भूषणीयास्तथा गावः पूज्याश्च दोहवाहनाः ।। श्रीकृष्णदासवर्योऽयं श्रीगोवर्द्धनभूधरः । शुक्लप्रतिपदि प्रातः कार्तिकेऽर्योऽत्र वैष्णनैः ॥ पूजन विधि निम्नांकित है : मथरायां तथान्यत्र कृत्वा गोवर्द्धनं गिरिम् । गोमयेन महास्थूलं तत्र पूज्यो गिरिर्यथा ॥ मथुरायां तथा साक्षात् कृत्वा चैव प्रदक्षिणम । गैष्णनं धाम सम्प्राप्य मोदते हरिसन्निधौ ॥ गोवर्धन पूजा का मन्त्र इस प्रकार है : गोवर्द्धन धराधार गोकुलत्राणकारक । विष्णुबाहुकृतोच्छायो गवां कोटिप्रदो भव ।। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट एवं गोवर्धनपूजा होती है। गोबर का विशाल मानवाकार गोवर्धन बनाकर ध्वजा-पताकाओं से सजाया जाता है । गाय-बैल रंग, तेल, मोर पंख आदि से अलंकृत किये जाते हैं। सबकी पूजा होती है। घरों में और देवालयों में छप्पन प्रकार के व्यञ्जन बनते हैं और भगवान् को भोग लगता है । यह त्योहार भारतव्यापी है. परन्तु मथुरा-वृन्दावन में यह विशेष रूप से मनाया जाता है। गोवर्धनमठ-शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में जगन्नाथपुरीस्थित मठ। इन मठों को आचार्य ने अद्वैत-विद्याध्ययन एवं उसके प्रभाव के प्रसार के लिए स्थापित किया था। शङ्कर के प्रमुख चार शिष्यों में से एक आचार्य पद्मपाद इस मठ के प्रथम अध्यक्ष थे। सम्भवतः १४०० ई० में यहाँ के महन्त श्रीधर स्वामी ने भागवत पुराण की टीका लिखी। गोविन्द-श्री कृष्ण का एक नाम । भगवद्गीता। (१.३२) में अर्जुन ने कृष्ण का संबोधन किया है : 'किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगर्जीवितेन वा।' इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति इस प्रकार है : 'गां धेनुं पथिवीं वा विन्दति प्राप्नोति वा' ( जो गाय अथवा पृथ्वी को प्राप्त करता है )। किन्तु विष्णुतिलक नामक ग्रन्थ में दूसरी ही व्युत्पत्ति पायी जाती है : गोभिरेव यतो वेद्यो गोविन्दः समुदाहृतः। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोविन्दद्वादशी-गोविन्दसिंह २५१ [गो ( वेदवाणी ) से जो जाना जाता है वह गोविन्द सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक चालीस वर्षों में चैतन्य सम्प्रकहलाता है । ] हरिवंश के विष्णुपर्व (७५.४३-४५) में दाय का आन्दोलन पर्याप्त बलिष्ठ था एवं इस काल में कृष्ण के गोविन्द नाम पड़ने की निम्नलिखित कथा है : बँगला में उत्कृष्ट काव्यरचना ( सम्प्रदाय सम्बन्धी ) करने अद्यप्रभृति नो राजा त्वमिन्द्रो वैभव प्रभो । वाले कुछ कवि और लेखक हुए। इस दल में सबसे बड़ी तस्मात्त्वं काञ्चनः पूर्णदिव्यस्य पयसो घटै : ॥ प्रतिभा गोविन्ददास की थी। एभिरद्याभिषिच्यस्व मया हस्तावनामितः । गोविन्दप्रबोध-कार्तिक शक्ल एकादशी को इस व्रत का अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः ।। अनुष्ठान होता है । कुछ ग्रन्थों में द्वादशी तिथि है। गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम् ॥ गोविन्द भगवत्पादाचार्य-आचार्य गोविन्द भगवत्पाद गौड गोपालतापिनी उपनिषद् (पूर्व विभाग, ध्यान प्रकरण, पादाचार्य के शिष्य तथा शङ्कराचार्य के गुरु थे। इनके ७-८ ) में गोविन्द का उल्लेख इस प्रकार है : विषय में विशेष कोई बात नहीं मिलती। शङ्कराचार्य को तान् होचुः कः कृष्णो गोविन्दश्च कोऽसाविति गोपीजन जीवनी से ऐसा मालूम होता है कि ये नर्मदा तट पर वल्लभः कः का स्वाहेति। तानुवाच ब्राह्मणः कहीं रहा करते थे । शङ्कराचार्य का उनका शिष्य होना ही पापकर्षणो गोभूमिवेदविदितो विदिता गोपीजना विद्या- यह बतलाता है कि वे अपने समय के उद्भट विद्वान्, अद्वैत कलाप्रेरकस्तन्माया चेति ।' सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य एवं सिद्ध योगी रहे होंगे । उनका महाभारत (१.२१.१२ ) में भी गोविन्द नाम की कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। किसी का कहना है कि ये व्युत्पत्ति पायी जाती है : गोविन्द पादाचार्य ही पतञ्जलि थे। परन्तु यह मत प्रामागां विन्दता भगवता गोविन्दनामितौजसा । णिक नहीं है, क्योंकि पतञ्जलि का समय दूसरी शती ई० वराहरूपिणा चान्तविक्षोभितजलाविलम् ।। पू० का प्रथम चरण है। उनका कोई अद्वैत सिद्धान्त पुनः महाभारत ( ५.७०.१३ ) में ही : सम्बन्धी ग्रन्थ नहीं मिलता है। विष्णुर्विक्रमाद्देवो जयनाज्जिष्णुरुच्यते । गोविन्दभाष्य-अठारहवीं शती में बलदेव विद्याभूषण शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद् गवाम् ॥ ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए 'वेदान्तसूत्र' पर एक व्याख्या ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, २४ वा अ० ) में भी लिखी, जिसे 'गोविन्दभाष्य' कहते हैं। इस ग्रन्थ में यही बात कही गयी है : 'अचिन्त्य भेदाभेद' का दार्शनिक मत दर्शाया गया है कि युगे युगे प्रणष्टां गां विष्णो ! विन्दसि तत्त्वतः । ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में भी गोविन्देति ततो नाम्ना प्रोच्यसे ऋषिभिस्तथा ।। अचिन्त्य है। [हे विष्णु ! आप युग युग में नष्ट हुई गौ ( वेद ) गोविन्दराज-तैत्तिरीयोपनिषद् के एक वृत्तिकार । मनुको तत्त्वतः प्राप्त करते हैं, अतः आप ऋषियों द्वारा स्मति की टीका करनेवाले भी एक गोविन्दराज हुए हैं। गोविन्द नाम से स्तुत होते हैं।] गोविन्दविरुदावली-महाप्रभु चैतन्य के शिष्य रूप गोस्वामी गोविन्दद्वादशी-फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का द्वारा रचित एक ग्रन्थ । अनुष्ठान होता है । एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण किया गोविन्दशयनवत-आषाढ़ शुक्ल एकादशी को इस व्रत का जाता है । प्रत्येक मास की द्वादशी को गौओं को विधि- अनुष्ठान होता है । किसी शय्या पर अथवा क्यारी में विष्णु वत् चारा खिलाना चाहिए। घृत, दधि अथवा दुग्ध भगवान् की प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए। चार मिश्रित खाद्य पदार्थों को मिट्टी के पात्रों में रखकर आहार मास तक व्रत के नियमों का आचरण किया जाना चाहिए। करना चाहिए। क्षार तथा लवण वर्जित है। हेमाद्रि, चातुर्मास्यव्रत भी इसी तिथि को आरम्भ होता है। १.१०९६.९७ ( विष्णुरहस्य से ) तथा जीमूतवाहन के गोविन्दशयन के बाद समस्त शुभ कर्म, जैसे उपनयन, कालविवेक, ४६८ के अनुसार द्वादशी के दिन पुष्य नक्षत्र विवाह, चूडाकर्म, प्रथम गृहप्रवेश इत्यादि चार मास आवश्यक है। तक निषिद्ध हैं। गोविन्ददास-ये चैतन्य सम्प्रदाय के एक भक्त कवि थे। गोविन्दसिंह-सिक्खों के दसवें गुरु । ये गुरु तेगबहादुर के Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ गोविन्दाणव-गोस्वामी पुत्र थे । इन्होंने ही 'खालसा' दल की स्थापना ( १६९० में जो श्लोक लिखा है उसके एक पद के साथ ब्रह्मानन्द ई० में) की तथा पञ्च 'ककार' ( केश, कंघा, कड़ा, कच्छ सरस्वती कृत 'लघुचन्द्रिका' की समाप्ति के एक श्लोक का तथा कृपाण ) धारण करने की प्रथा चलायी । इनके कुछ सादृश्य देखा जाता है। इन दोनों से सिद्ध होता है समय में सिक्ख सम्प्रदाय सैनिक जत्थे के रूप में संग- कि गोविन्दानन्द तथा ब्रह्मानन्द के विद्यागुरु श्री शिवराम ठित हो गया। गोविन्दसिंह ने गुरुप्रथा को समाप्त कर थे। इससे इन दोनों का समकालीन होना भी सिद्ध होता दिया, जो नानक के काल से चली आ रही थी। दे० है। ब्रह्मानन्द मधुसुदन सरस्वती के समकालीन थे । अतः 'प्रथ साहब'। गोविन्दानन्द का स्थितिकाल भी सत्रहवीं शताब्दी होना हिन्दू धर्म की रक्षा, प्रतिष्ठा और उद्धार के लिए। चाहिये। विगत गुरुओं के समान ही दृढ़ संगठन बनाकर ये आजी- गोविन्दानन्द सरस्वती-योगदर्शन के एक आचार्य। इनके वन मुगलों से मोर्चा लेते रहे । अन्त तक इन्होंने भारी शिष्य रामानन्द सरस्वती (१६वीं शती के अंत ) ने त्याग, बलिदान और संघर्ष झेलते हुए अध्यात्म वृत्ति को पतञ्जलि के योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक टीका लिखी। भी परिनिष्ठित किया। इनकी काव्यरचना ओजस्वी नारायण सरस्वती इनके दूसरे शिष्य थे, जिन्होंने १५९२ और कोमल, दोनों रूपों में मिलती है। ई० में एक ग्रन्थ (योग विषयक) लिखा। इनके शिष्यों के गोविन्वार्णव-एक धर्मशास्त्रीय निबन्धग्रन्थ । इसकी रचना काल को देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि ये काशी के राजा गोविन्दचन्द्र गहडवाल के प्रश्रय में राम- अवश्य १६वीं शती के प्रारम्भ में हुए होंगे। चन्द्र के पुत्र शेष नृसिंह ने की थी। इसका दूसरा नाम गोष्ठाष्टमी-कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान 'धर्मसागर' अथवा 'धर्मतत्त्वालोक' भी है। इसमें छः होता है । इसमें गौओं के पूजन का विधान है । गौओं को वीचियाँ हैं-१. संस्कार २. आह्निक ३. श्राद्ध ४. घास खिलाना, उनको परिक्रमा करना तथा उनका अनुशुद्धि ५. काल और ६. प्रायश्चित्त । इसका उल्लेख सरण करना चाहिए। 'निर्णयसिन्धु' और लक्ष्मण भट्ट के 'आचाररत्न' में गोष्ठीपूर्ण-स्वामी रामानुज के दूसरे दीक्षागुरु । इनसे पुनः हुआ है । दे० अलवर संस्कृत ग्रन्थसूची। श्रीरङ्गम् में रामानुज ने दीक्षा ली। गोष्ठीपूर्ण ने इन्हें गोलतिका व्रत-इस व्रत में ग्रीष्म ऋतु में कलश से पवित्र योग्य समझकर मन्त्र रहस्य समझा दिया और यह आज्ञा दी जल की धारा भगवान् शिव की प्रतिमा पर डाली जातो कि दूसरों को यह मन्त्र न सुनायें। परन्तु जब उन्हें ज्ञात है। विश्वास किया जाता है कि इससे ब्रह्मपद की प्राप्ति हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से ही मनुष्यों का उद्धार हो होती है । दे० हेमाद्रि, २.८६१ ( केवल एक श्लोक )। सकता है, तब वे एक मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों गोविन्द स्वामी-गोविन्द स्वामी 'ऐतरेय ब्राह्मण' के एक नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्ला कर मन्त्र का प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं। उच्चारण करने लगे । गुरु यह सुनकर बहुत क्रोधित हुए 'अष्टछाप' के एक भक्त कवि भी इस नाम से प्रसिद्ध और उन्होंने शिष्य को बुलाकर कहा-'इस पाप से तुम्हें हैं, जो संगीताचार्य भी थे। अनन्तकाल तक नरक की प्राप्ति होगी।' इस पर रामानुज गोविन्दानन्द-आचार्य गोविन्दानन्द शङ्कराचार्य द्वारा प्रणीत ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया-गुरुदेव ! यदि आपकी 'शारीरक भाष्य' के टीकाकार हैं। उनकी लिखी हुई कृपा से सब स्त्री-पुरुष मुक्त हो जायेंगे और मैं अकेला 'रत्नप्रभा' सम्भवतः शाङ्करभाष्य की टीकाओं में सबसे नरक में पड़ गा तो मेरे लिए यही उत्तम है।' गोष्ठीपूर्ण सरल है । इसमें भाष्य के प्रायः प्रत्येक पद की व्याख्या रामानुज की इस उदारता पर मुग्ध हो गये और उन्होंने है । सर्वसाधारण के लिए भाष्य को हृदयंगम कराने में प्रसन्न होकर कहा-'आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे ही यह बहुत ही उपयोगी है। जो लोग विस्तृत और गंभीर नाम पर 'रामानुज सम्प्रदाय' के नाम से विख्यात होगा।' टीकाओं के समझने में असमर्थ है उन्हीं के लिए यह गोस्वामी-(१) एक धार्मिक उपाधि । इसका अर्थ है 'गो व्याख्या लिखी गयी है। (इन्द्रियों) का स्वामी ( अधिकारी)'। जिसने अपनी गोविन्दानन्दजी ने 'रत्नप्रभा' में अपने गुरु के सम्बन्ध इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वही वास्तव में Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ गोस्वामीपुरुषोत्तमज-गौतमधर्मसूत्र 'गोस्वामी' है। इसलिए वीतराग सन्तों और वल्लभ- जिस मत का प्रतिपादन किया है उसे 'अजातवाद' कहते कुल के गुरुओं को भी इस उपाधि से विभूषित किया है । सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न जाता है। मत हैं। कोई काल से सृष्टि मानते हैं और कोई भगवान् (२) चैतन्य सम्प्रदाय के धार्मिक नेता, विशेष कर के संकल्प से इसकी रचना मानते हैं। इस प्रकार कोई रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल परिणामवादी हैं और कोई आरम्भवादी । किन्तु गौडपाद भट्ट तथा रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते हैं। ये इस के सिद्धान्तानुसार जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई, केवल सम्प्रदाय के अधिकारी नेता थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे एक अखण्ड चिद्धन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत् भास रही है तथा प्रचारार्थ कार्य किये हैं। चैतन्य के साथी अनु- है । यही बात आचार्य इन शब्दों में कहते हैं : यायियों एवं उनसे सम्बन्धित अनुयायियों ( भाई, भतीजे मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः । आदि ) को भी गोस्वामी कहा जाता है । मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते ॥ (३) गौण रूप में गोस्वामी (गुसांई) उन गृहस्थों को [यह जितना द्वैत है सब मन का ही दृश्य है। परभी कहते हैं जो पुनः विवाह कर लेने वाले विरक्त साधु- मार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हा संतों के वंशज हैं। जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती। ] आचार्य ने गोस्वामी पुरुषोत्तमजी-वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख अपनी कारिकाओं में अनेक प्रकार की युक्तियों से यही विद्वानों में गोस्वामी पुरुषोत्तमजी विशेष उल्लेखनीय सिद्ध किया है कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी है। इनकी अनेक गंभीर रचनाओं से पुष्टिमार्गीय साहित्य प्रकार से प्रपञ्च की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। अतः की श्रीवृद्धि हुई है। परमार्थतः न उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक गौडपाद-'सांख्यकारिका व्याख्या' के रचयिता एवं अद्वैत है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है : सिद्धान्त के प्रसिद्ध आचार्य । सांख्यकारिका के पद्यों एवं न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः । सिद्धान्तों की ठीक-ठोक व्याख्या करने में इनकी टीका न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।। महत्त्वपूर्ण है। गौडपादाचार्य के जीवन के बारे में कोई बस, जो समस्त विरुद्ध कल्पनाओं का अधिष्ठान, विशेष बात नहीं मिलती। आचार्य शङ्कर के शिष्य सर्वगत, असङ्ग, अप्रमेय और अविकारी आत्मतत्त्व है, एक सुरेश्वराचार्य के 'नैष्कर्म्यसिद्धि' ग्रन्थ से केवल इतना पता मात्र वही सद्वस्तु है। माया की महिमा से रज्जू में सर्प, लगता है कि वे गौड देश के रहने वाले थे। इससे प्रतीत शुक्ति में रजत और सुवर्ण में आभूषणादि के समान उस होता है कि उनका जन्म बङ्गाल प्रान्त के किसी स्थान में सर्वसङ्गशून्य निर्विशेष चित्तत्त्व में ही समस्त पदार्थों की हुआ होगा। शङ्कर के जीवनचरित से इतना ज्ञात होता प्रतीति हो रही है। है कि गौडपादाचार्य के साथ उनकी भेंट हुई थी। गौड़ीय वैष्णवसमाज-बङ्गाल के चैतन्य सम्प्रदाय का परन्तु इसके अन्य प्रमाण नहीं मिलते।। _ दूसरा नाम 'गौडीय वैष्णव समाज, है, जिसके दार्शनिक ___ गौडपादाचार्य का सबसे प्रधान ग्रन्थ है 'माण्डूक्यो- मत का नाम 'अचिन्त्य भेदाभेद वाद' है। विशेष विवरण पनिषत्कारिका'। इसका शङ्कराचार्य ने भाष्य लिखा के लिए 'चैतन्य सम्प्रदाय' अथवा 'अचिन्त्यभेदाभेदहै। इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक टीका भी वाद' देखें। मिलती है । उनकी अन्य टीका है 'उत्तर गीता-भाष्य'। गौतम-न्यायदर्शन के रचयिता का नाम । यह एक गोत्रउत्तर गीता (महाभारत) का एक अंश है । परन्तु यह नाम भी है। शाक्यगण इसी गोत्र का था। अतः बुद्ध अंश महाभारत की सभी प्रतियों में नहीं मिलता। गौतम भी कहलाते हैं । दे० 'न्याय दर्शन'। गौडपाद अद्वैतसिद्धान्त के प्रधान उद्घोषक थे । इन्होने गौतमधर्मसूत्र-प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से यह सामवेदीय अपनी कारिका में जिस सिद्धान्त को वीजरूप में प्रकट धर्मसूत्र है। इसमें दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी किय, उसी को शङ्कराचार्य ने अपने ग्रन्थों में विस्तृत रूप से विधि संकलित है। इसमें सामाजिक जीवन, राजधर्म समझाकर संसार के सामने रखा । कारिकाओं में उन्होंने तथा विधि अथवा व्यवहार (न्याय) का विधान है। हरदत्त नागराला या महा मिलता । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ के अनुसार इसमें कुल २८ अध्याय है। इसके कलकत्ता संस्करण में एक अध्याय और 'कर्मविपाक' पर जोड़ दिया गया है । गौतम बुद्ध - ५६२ ई० पू० शाक्य गण में इनका जन्म हुआ था । इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया । सनातनी हिन्दू इन्हें भगवान् विष्णु का नवाँ अवतार मानते हैं । नित्य के संकल्प में प्रत्येक हिन्दू बुद्ध को वर्तमान अवतार के रूप में स्मरण करता है। बोधगया में इनका मन्दिर है जिसके बारे में सनातनियों का विश्वास है कि भगवान् विष्णु ने यह नवां अवतार असुरों को माया मोह में फँसाने के लिए लिया, वेदप्रतिपादित यज्ञविधि की निन्दा की और अहिंसा एवं प्रव्रज्या का प्रचार किया कि असुर लोग, जो उस समय बहुत प्रबल थे, शाम्त और संसार से विरत रहें। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, स्कन्दपुराण एवं बाद के ग्रन्थों में ये ही भाव गौतम बुद्ध के प्रति प्रकट किये गये हैं। वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र, द्वितीय पाद, छब्बीसवें सूत्र की व्याख्या में एक आख्यायिका दी हैं, जो सनातनियों के उपर्युक्त विचारों की पोषिका है। गौतमस्मृति - अष्टाविंशति स्मृतियों में एक मुख्य स्मृति । गौतमीयतन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित चौसठ तन्त्रों की सूची में 'गौतमीय तन्त्र' एवं 'बृहत् गौतमीय तन्त्र' नामक दो तन्त्रों का उल्लेख है । गौरचन्द्र - अधिक सुन्दर एवं शुभ्र वर्ण होने के कारण चैतन्य को अनेक भक्त गौरचन्द्र कहा करते थे। उनकी प्रशंसा में 'गौरचन्द्रिका' नामक पुस्तक भी लिखी गयी है। गौर चन्द्रिका - चैतन्य के रूपगुणों की प्रशंसा में उनके शिष्यों ने यह ग्रन्थ रचा। दे० 'गौरचन्द्र' | गौराङ्गाष्टक - चैतन्य साहित्य में गौराङ्गाष्टक नामक संस्कृत ग्रन्थ का भी नाम आता है। इसका उस सम्प्रदाय में नित्य पाठ किया जाता है। गौरीकुण्ड – केदारनाथ मन्दिर से आठ मील नीचे यह एक पवित्र कुण्ड (जलाशय) है। यहाँ दो कुण्ड हैं—एक गरम पानी का और दूसरा ठंडे पानी का शीतल जल का कुण्ड । अमृतकुण्ड कहा जाता है। कहते है, भगवती पार्वती ने इसी में प्रथम स्नान किया था। गौरीकुण्ड का जल काफी उष्ण है । जनविश्वास के अनुसार माता पार्वती का जन्म यहाँ हुआ था । यहाँ पार्वती का मन्दिर भी है । गौरीगणेशचतुर्थी- किसी भी चतुर्थी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान हो सकता है। इसमें गौरी तथा गणेश के पूजन का विधान है। इससे सफलता तथा सौभाग्य सुरक्षित रहते हैं । गौतमबुद्ध-गौरीवत गौरीगणेशपूजा सभी सम्प्रदायों के हिन्दुओं में मङ्गल कार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सबसे पहले होती है। यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता गौरीचतुर्थी - माघ शुक्ल चतुर्थी को गौरीपूजन का विधान सर्वसाधारण के लिए है। किन्तु विशेष रूप से महिलाओं द्वारा कुछ पुष्पों से विदुषी ब्राह्मणस्त्रियों तथा विधवाओं की प्रतिष्ठा करनी चाहिए । गौरीतपोव्रत - इस व्रत का विधान केवल महिलाओं के लिए है। मार्गशीर्ष अमावस्या को इसका अनुष्ठान होता है । अर्द्धरात्रि के समय शिव तथा पार्वती की किसी शिवमन्दिर में पूजा करनी चाहिए। सोलह वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए। तदनन्तर पार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को इसका उद्यापन होना चाहिए। यह 'महाव्रत' भी कहा जाता है । गौरीतृतीयाव्रत -- चैत्र शुक्ल, भाद्र शुक्ल अथवा माघ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। गौरी की पूजा उनके विभिन्न नामों से होती है। महादेव तथा गौरी की पूजा का इसमें विधान है। पार्वती के ये आठ नाम हैं: पार्वती, ललिता, गौरी, गायत्री, शाङ्करी, शिवा, उमा तथा सती । गौरीविवाह चैत्र मास की तृतीया, चतुर्थी अथवा पञ्चमी - को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। शिव तथा गौरी की सुवर्ण, रजत, नीलम की प्रतिमाएँ धनी लोग बनवाकर उनका विवाह करें। सामान्य लोग चन्दन, अर्क पौधे की, अशोक अथवा मधूक नामक वृक्ष की प्रतिमाएँ बनाकर उनका विवाह करायें दे० कृत्यरत्नाकर, १०८-११० ( देवी पुराण से ) । , गौरीव्रत - ( १ ) आश्विन मास से चार मास तक इस व्रत का आचरण होता है । व्रती को दुग्ध अथवा दुग्ध की बनी वस्तुओं, दधि घृत तथा गन्ने का रस नहीं ग्रहण करना चाहिए, अपितु इन्हीं वस्तुओं को पात्रों में रखकर दान करना चाहिए । दान देते समय निम्न शब्दों का उच्चारण करना चाहिए, "गौरि, प्रसीदतु माम् ।" (२) केवल महिलाओं के लिए शुक्ल पक्ष में तृतीया से तथा चैत्र मास में कृष्ण पक्ष से एक वर्षपर्यन्त गौरी के भिन्न-भिन्न नामों से पूजन का विधान है । प्रत्येक तृतीया को भिन्न-भिन्न प्रकार का भोग भी विहित है । (३) तृतीया के दिन केवल महिलाओं के लिए भविष्यत् पुराण (१.२१.१ ) में इस व्रत का विधान है । लवणविहीन Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थसाहब-पर्यसन २५५ भोजन का उस दिन आहार करना चाहिए। विशेष रूप जहाँ तिथि तथा नक्षत्रों के सन्दर्भानुसार भिन्नसे वैशाख, भाद्रपद तथा माघ की तृतीया पवित्र है। के संयोगों का निर्देश करते हैं, वहाँ ग्रहों तथा अन्य देवों (४) ज्येष्ठ की चतुर्थी को उमा का पूजन करना चाहिए, के सम्मानसूचक कुछ विशेष यागों का भी संकेत करते क्योंकि उसी दिन उनका जन्म हुआ था। हैं । इन यज्ञ-यागों द्वारा थोड़े से व्यय में ही अनन्त पुण्य प्रन्थ साहब-गुरु नानक, अन्य सिक्ख-गुरुओं तथा सन्त। की उपलब्धि होती है। इस विषय में एक उदाहरण कवियों के वचनों का इसमें संग्रह है। पांचवे गुरु अर्जुन पर्याप्त होगा । यदि किसी रविवार को षष्ठी तिथि हो देव स्वयं कवि थे एवं व्यावहारिक भी। उन्होंने अमृतसर और संयोग से उसी दिन पुष्य नक्षत्र भी हो, तो स्कन्दका स्वर्णमन्दिर बनवाया और 'ग्रन्थ साहब' को पूर्ण किया। याग का आयोजन किया जाना चाहिए। इस व्रत के ग्रह-यज्ञकर्म का सोमपानपात्र (प्याला)। ग्रह का उल्लेख आयोजन से मनुष्य की समस्त मनोवांछाएँ पूर्ण होती हैं । शतपथ ब्राह्मण (४.६.५.१) में परवर्ती ग्रह के अर्थ में न लगभग एक दर्जन 'याग' हेमाद्रिकृतव्रतखण्ड में बतलाये गये होकर ऐन्द्रजाजिक शक्ति के अर्थ में हुआ है। परवर्ती हैं। तीन प्रकार के ग्रहयज्ञों के लिए देखिए : स्मृतिकौस्तुभ, साहित्य में ही प्रथम बार इसका प्रयोग खेचर पिण्डों के ४५५-४७९ जो हेमाद्रि २.५९०-५९२ से नित्तान्त भिन्न है। अर्थ में हुआ है, जैसा कि मैत्रायणी उपनिषद् (६.१६) प्रहयामलतन्त्र-'वामकेश्वरतन्त्र' में चौसठ तन्त्रों की सूची से ज्ञात है। वैदिक भारतीयों को ग्रहों का ज्ञान था। दी हुई है, इसमें आठ यामलतन्त्र हैं । ये यामल (जोड़े) ओल्डेनवर्ग ग्रहों को आदित्यों की संज्ञा देते हैं जो सात विशेष देवता एवं उसकी शक्ति के युग्मीय एकत्व के प्रतीक है-सूर्य, चन्द्र एवं पाँच अन्य ग्रह । दूसरे पाश्चात्य का वर्णन करते हैं । ग्रहयामलतन्त्र भी उनमें से एक है। विद्वानों ने इसका विरोध किया है। हिलब्राण्ट ने पाँच ग्रामगेयगान-आचिक (सामवेदसम्बन्धी ग्रन्थ) में दो अध्वर्युओं (ऋग्वेद ३.७.७) को ग्रह कहा है। यह भी प्रकार के गान हैं , प्रथम ग्रामगेयगान, द्वितीय अरण्यगान। केवल अनुमान ही है। 'पञ्च उक्षाणः' को ऋग्वेद के एक अरण्यगान अपने रहस्यात्मक स्वरूप के कारण वन में गाये दूसरे मन्त्र में उसी अनिश्चिततापूर्वक ग्रह कहा गया है। जाते हैं । ग्रामगेयमान नित्य स्वाध्याय, यज्ञ आदि के समय निरुक्त के भाष्य में दुर्गाचार्य ने 'भूमिज' को मङ्गल ग्रह ग्राम में गाये जाते हैं। कहा है। परवर्ती तैत्तिरीय आरण्यक (१.७) में वणि सप्तसूर्यों को ग्रहों के अर्थ में लिया जा सकता है। लुड्विग ने सूर्य व चन्द्र के साथ पाँच ग्रहों एवं सत्ताईस नक्षत्रों को घट-धार्मिक साधनाओं में 'घट' का कई प्रकार से उपयोग ऋग्वेदोक्त चौंतीस ज्योतियों एवं यज्ञरूपी घोड़े की होता है । शुभ कृत्यों में वरुण (जल तथा नीति के देवता) पसलियों का सूचक बताया है। के अधिष्ठान के रूप में घट की स्थापना होती है । घट ग्रह-नक्षत्रों और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों का घनिष्ठ घटिकायन्त्र अथवा काल का भी प्रतीक है जो सभी सम्बन्ध है। प्रत्येक धार्मिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्त की कृत्यों का साक्षी माना जाता है । नवरात्र के दुर्गापूजनाआवश्यकता होती है। इसीलिए प्राचीन काल में वेद के रम्भ में घट की स्थापना कर उसमें देवी को विराजमान षडङ्गों में ज्योतिष' का विकास हआ था। यज्ञों का किया जाता है। समय ज्योतिषपिण्डों की गतिविधि के अनुसार निश्चित शाक्त लोग रहस्यमय रेखाचित्रों का 'यन्त्र' एवं होता था। सूर्य-उपासना में सौरमण्डल के नव ग्रहों का 'मण्डल' के रूप में प्रचरता से प्रयोग करते हैं । इन यन्त्रों विशिष्ट स्थान है। नव ग्रहों में शुभ और दुष्ट दोनों एवं मण्डलों को वे धातु की स्थालियों, पात्रों एवं पवित्र प्रकार के ग्रह होते हैं । प्रत्येक माङ्गलिक कार्य के पूर्व नव- घटों पर अंकित करते हैं । मद्यपूर्ण घट की पूजा और ग्रह-पूजन होता है। दुष्ट ग्रहों की शान्ति की विधि भी उसका प्रसाद लिया जाता है। कर्मकाण्डीय पद्धतियों में विस्तार से वणित है। घटपर्यसन (घटस्फोट)-किसी पतित अथवा जातिच्युत ग्रयाग-निबन्धों और पद्धतियों के शान्ति वाले विभाग में व्यक्ति का जो श्राद्ध (अन्त्येष्टि) उसके जीवनकाल में ही नवग्रह याग प्रकरण मिलता है । हेमाद्रि ( २.८०-५९२) कुटुम्बियों द्वारा किया जाता है, उसे 'घटपर्यसन' कहते हैं । घ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ घटयोनि-घंटाकर्ण घटयोनि-अगस्त्य या कुम्भज ऋषि । पुरा कथा के अनुसार को घृत तथा मधु का भोजन, एक प्रस्थ तिल (आढक का अगस्त्य का जन्म कुम्भ अथवा घट से हुआ था। इसलिए चौथाई) तथा दो प्रस्थ धान का दान करना चाहिए। उनको कुम्भज अथवा घटयोनि कहते हैं । दे० 'अगस्त्य' । घृतस्नापनविधि-इस व्रत में ग्रहण के दिन अथवा पौष में धर्म-यज्ञीय पात्र, जो एक तरह की बटलोई जैसा होता किसी भी पवित्र दिन शिवपूजा का विधान है । एक रात था । ऋग्वेद तथा वाज० सं०, ऐ० ब्रा० इत्यादि में 'धर्म' तथा एक दिन शिवमूर्ति के ऊपर घृत की अनवरत धारा से उस पात्र का बोध होता है जिसमें दूध गर्म किया जाता पड़नी चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण था, विशेषकर अश्विनौ को देने के लिए। अतएव इस रखना चाहिए। शब्द से गर्म दूध एवं किसी गर्म पेय का भी अर्थ प्रायः घृताची-सरस्वती का एक पर्याय । एक अप्सरा का भी लगाया जाने लगा। यह नाम है। इन्द्रसभा की अप्सराओं में इसकी गणना घृत-यज्ञ की सामग्री में से एक मुख्य पदार्थ । अग्नि में है। इसने कई ऋषियों तथा राजाओं को पथभ्रष्ट किया । इसकी स्वतन्त्र आहुति दी जाती है। हवन कर्म में सर्व- पौर वंश के कशनाभ अथवा रौद्राश्व के द्वारा इसके दस पुत्र प्रथम 'आधार' एवं 'आज्यभाग' आहुतियों के नाम से हुए। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार कई वर्णसंकर जातियों अग्नि में घृत टपकाने का विधान है। साफ किये हुए ___के पूर्वज इससे विश्वकर्मा के द्वारा उत्पन्न हुए थे । हरिमक्खन का उल्लेख ऋग्वेद में यज्ञ-उपादान घृत के अर्थ में वंश के अनुसार कूशनाभ से इसके दस पुत्र तथा दस हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायण ने घृत एवं कन्याएं उत्पन्न हुई थीं। सर्पि का अन्तर करते हुए कहा है कि सर्पि पिघलाया दूसरी कथा के अनुसार कुशनाभ से इसकी एक सौ हुआ मक्खन है, और घृत जमा हुआ (घनीभूत) मक्खन कन्याएँ उत्पन्न हुई। वायु उनको स्वर्ग में ले जाना चाहते है। किन्तु यह अन्तर उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि थे, परन्तु उन्होंने जाना अस्वीकार कर दिया । वायु के मक्खन अग्नि में डाला जाता था। अग्नि को 'घृतप्रतीक', शाप से उनका रूप विकृत (कुबड़ा) हो गया। परन्तु पुनः 'घृतपृष्ठ', 'घृतप्रसह' एवं 'घृतप्री' कहा गया है। जल उन्होंने अपना स्वाभाविक रूप प्राप्त करके काम्पिल के का व्यवहार मक्खन को शुद्ध करने के लिए होता था, राजा ब्रह्मदत्त से विवाह किया। कूबड़ी कन्याओं के नाम एतदर्थ उसे 'धृतपू' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में पर ही उस देश का नाम 'कन्याकुब्ज' कान्यकुब्ज हो गया । आज्य, घृत, आयुत तथा नवनीत को क्रमशः देवता, मानव, घंटाकर्ण-पाशुपत सम्प्रदाय के एक आचार्य । शव परम्परा पितृ एवं शिशु का प्रतीक माना गया है। श्रौतसूत्रों, के पौराणिक साहित्य से पता लगता है कि अगस्त्य, गृह्यसूत्रों, स्मृतियों तथा पद्धतियों में घृत के उपयोग का दधीचि, विश्वामित्र, शतानन्द, दुर्वासा, गौतम, ऋष्यशृङ्ग, विस्तृत वर्णन पाया जाता है। उपमन्यु एवं व्यास आदि महर्षि शैव थे । व्यासजी के घृतकम्बल-माघ शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान लिए कहा जाता है कि उन्होंने केदारक्षेत्र में 'घण्टाकर्ण' होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। पूर्णिमा सम उपवास करन का विधान है। पूर्णिमा से पाशुपत दीक्षा ली थी, जिनके साथ बाद में वे काशी में को एक स्थूल कम्बल के समान जमा हुआ घृत शिव मूर्ति रहने लगे। व्यासकाशी में घंटाकर्ण तालाब वर्तमान है । पर वेदी पर्यन्त लपेटा जाना चाहिए । तदनन्तर कृष्ण वर्ण वहीं घंटाकर्ण की मूर्ति भी हाथ में शिवलिङ्ग धारण किये वाले साँड़ों का जोड़ा दान करना चाहिए । इसके परिणाम- विराजमान है। वर्तमान काशी के नीचीबाग मुहल्ले में स्वरूप व्रती असंख्य वर्षों तक शिवलोक में वास करता ___घंटाकर्ण (कर्णघण्टा) का तालाब है और उसके । है। यह शान्तिकर्म भी है । इसके अनुसार व्रती को एक व्यासजी का मन्दिर है । मुहल्ले का नाम भी 'कर्णघंटा' है । वस्त्र उढ़ाकर उसका घी से अभिषिञ्चन करना चाहिए। कहा गया है कि घंटाकर्ण इतने कट्टर शिवभक्त थे कि दे० आथर्वण परिशिष्ट, अड़तीसवाँ भाग, २०४-२१२; शंकर के नाम के अतिरिक्त कान में दूसरा शब्द पड़ते ही राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय), पष्ठ ४५९-४६४। सिर हिला देते थे जहाँ कानों के पास दो घण्टे लटके घृतभाजनव्रत-पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता रहते थे। घण्टों की ध्वनि में दूसरा शब्द विलीन हो है। शिवजी की पूजा इस व्रत में की जाती है। ब्राह्मण जाता था। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेरण्ड ऋषि-चक्रधर २५७ ङ कारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली । सर्वदेवमयं वर्ण त्रिगुणं लोललोचने ॥ पञ्चप्राणमयं वर्ण ङकारं प्रणमाम्यहम् । तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं, यथा ङ. शक्तो भैरवश्चण्डो विन्दुत्तंसः शिशुप्रियः । एकरुद्रो दक्षनखः खर्परो विषयस्पृहा ।। कान्तिः श्वेताह्वयो धीरो द्विजात्मा ज्वालिनी वियत् । मन्त्रशक्तिश्च मदनो विघ्नेशो चात्मनायकः ।। एकनेत्रो महानन्दो दुर्द्धरश्चन्द्रमा यतिः । शिवयोषा नीलकण्ठः कामेशीच मयाशुको ॥ वर्णोद्धारतन्त्र में इसके ध्यान की विधि निम्नलिखित है: धूम्रवर्णां महाघोरां ललज्जिह्वां चतुर्भजाम् । पीताम्बरपरीधानां साधकाभीष्टसिद्धिदाम् ।। एवं ध्यात्वा ब्रह्मरूपां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। घेरण्ड ऋषि-धेरण्ड ऋषि की लिखी 'धेरण्डसंहिता' प्राचीन ग्रन्थ है। यह हठयोग पर लिखा गया है तथा परम्परा से इसकी शिक्षा बराबर होती आयी है । नाथपंथियों ने उसी प्राचीन सात्त्विक योग प्रणाली का प्रचार किया है, जिसका विवेचन 'घेरण्डसंहिता' में हुआ है। घेरण्डसंहिता-दे० 'घेरण्ड ऋषि' । घोटकपञ्चमी-आश्विन कृष्ण पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह व्रत राजाओं के लिए निर्धारित है जो अश्वों की अभिवृद्धि अथवा सुस्वास्थ्य के लिए अनुष्ठित होता है । यह एक प्रकार का शान्तिकर्म है। घोर आङ्गिरस्-एक पुराकथित आचार्य का नाम, जो कौषीतकि ब्राह्मण एवं छान्दोग्य उपनिषद् में उल्लिखित हैं । इनको कृष्ण (देवकीपुत्र) का शिक्षक कहा गया है । यह आंशिक नाम है, क्योंकि आंगिरसों के घोरवंशज 'भिषक् अथर्वा' भी कहे गये हैं। ऋग्वेदीय सूक्तों में 'अथर्वाणो वेदाः' का सम्बन्ध 'भेषजम्' एवं 'आंगिरसो वेदाः' का 'घोरम्' के साथ है। अतएव घोर आङ्गिरस् अथर्ववेदी कर्मकाण्ड के कृष्णपक्षपाती लगते हैं। इनका उल्लेख काठक संहिता के अश्वमेधखण्ड में भी हुआ है। घोषा-ऋग्वेद की महिला ऋषि । वहाँ दो मन्त्रों में घोषा को अश्विनों द्वारा संरक्षित कहा गया है । सायण के मतानुसार उसका पुत्र सुहस्त्य ऋग्वेद के एक अस्पष्ट मन्त्र में उधत है । ओल्डेनवर्ग यहाँ घोषा का ही प्रसंग पाते हैं, किन्तु पिशेल घोषा को संज्ञा न मानकर क्रियाबोधक मानते हैं। अश्विनों की स्तुति में कहा गया है कि उन्होंने वृद्धा कुमारी घोषा को एक पति दिया। ऋग्वेद (१०.३९.४०) की ऋचा घोषा नाम्नी ऋषि (स्त्री) की रची कही गयी है । कथा यों है कि घोषा कक्षीवान की कन्या थी । कुष्ठ रोग से ग्रस्त होने के कारण बहुत दिनों तक वह अविवाहित रही। अश्विनों (देवताओं के वैद्यों) ने उसको स्वास्थ्य, सौन्दर्य और यौवन प्रदान किया, जिससे वह पति प्राप्त कर सकी। चक्र-(१) विष्णु के चार आयुधों-शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म में से एक आयुध । यह उनका मुख्य अस्त्र है । इसका नाम सुदर्शन है । चक्रनेमि (पहिया का घेरा) के मूल अर्थ में यह अव गति अथवा प्रगति का प्रतीक है। दर्शन में भवचक्र अथवा जन्ममरणचक्र के प्रतीक के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। (२) शाक्तमत में देवी की चार प्रकार की आराधना होती है। प्रथम मन्दिर में देवी की जनपूजा, द्वितीय में चक्रपूजा, तृतीय में साधना एवं चतुर्थ में अभिचार (जादू) द्वारा, जैसा कि तन्त्रों में बताया गया है। चक्रपूजा एक महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक साधना है । इसे आजकल वामाचार कहते हैं। बराबर संख्या के पुरुष एवं स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के हों अथवा समीपी सम्बन्धी हों, यथा पति पत्नी, माँ, बहिन, भाई-एक गुप्त स्थान में मिलते तथा वृत्ताकार बैठते हैं । देवी की प्रतिमा या यन्त्र सामने रखा जाता है एवं पञ्चमकार-मदिरा, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन का सेवन होता है । चक्रधर-(१) विष्णु का एक पर्याय है। वे चक्र धारण करते हैं, अतः उनका यह नाम यड़ा। (२) एक सन्त का नाम । इनका जीवनकाल तेरहवीं शती का मध्य है। ये ही मानभाऊ सम्प्रदाय के संस्थापक थे । इनके अनुयायी यादवराजा रामचन्द्र (१२७१ F-व्यञ्जन वर्णों के कवर्ग का पञ्चम अक्षर । तान्त्रिक विनियोग के लिए कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है: ३३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ चक्रधरचरित-चण्डी (चण्डिका) १३०९ ई०) के समकालीन नागदेव भट्ट एवं ज्ञानेश्वरी के रचयिता ज्ञानेश्वर हुए । इनका परवर्ती इतिहास अज्ञात है। इनका वैष्णवमत बड़ा उदार था। इसमें जाति अथवा वर्णभेद नहीं माना जाता था। इसलिए रूढ़िवादियों द्वारा इस मत का तीव्र विरोध हुआ। चक्रधर करहाद ब्राह्मण थे तथा मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय वाले इन्हें अपने देवता दत्तात्रेय का अवतार मानते हैं । चक्रधरचरित-यह मानभाऊ (सं० महानुभाव) सम्प्रदाय का एक ग्रन्थ है जो मराठी भाषा में लिखा गया है । सम्प्रदाय ' के संस्थापक के जीवनचरित का विवरण इसमें पाया जाता है। चक्रपूजा-दे० 'चक्र'। चक्रवर्ती-(१) जिस राजा का (रथ) चक्र समुद्रपर्यन्त चलता था, उसको चक्रवर्ती कहते थे। उसको अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ करने का अधिकार होता था। भारत के प्राचीन साहित्य में ऐसे राजाओं की कई सूचियाँ पायी जाती है। मान्धाता और ययाति प्रथम चक्रवतियों में से थे । समस्त भारत को एक शासनसूत्र में बाँधना इनका प्रमुख आदर्श होता था। (२) शास्त्रों में प्रकाण्ड योग्यता प्राप्त करने पर विद्वानों को भी यह उपाधि दी जाती थी। चक्रवाक-चकवा नामक एक पक्षी । यह नाम ध्वन्यात्मक है। इसका उल्लेख ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में आता है। अथर्ववेद एवं परवर्ती साहित्य में सच्चे दाम्पत्य का उदाहरण इससे दिया गया है। चक्रायुध (चक्री)-विष्णु का पर्याय । इसका अर्थ है 'चक्र है आयुध (अस्त्र) जिसका।' मूर्तिकला में विष्णु के आयुधों का आयुधपुरुष के रूप में अंकन हुआ है। चक्रोल्लास-आचार्य रामानुज कृत एक ग्रन्थ । विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय में इसका बड़ा आदर है। चक्षुर्वत-नेत्रव्रत के समान इस व्रत में चैत्र शुक्ल द्वितीया को अश्विनीकुमारों (देवताओं के वैद्य) की पूजा की जाती है, एक वर्ष तक अथवा बारह वर्ष तक । उस दिन व्रती को दधि अथवा घृत का आहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती के नेत्र अच्छे रहते हैं और बारह वर्ष तक व्रत करने से वह राजयोगी बन जाता है। चण्डमारुत-श्रीवैष्णव संप्रदाय का एक तार्किक ग्रन्थ, जिसके रचयिता चण्डमारुताचार्य थे। यह ग्रन्थ 'शतदूषणी' नामक ग्रन्थ का व्याख्यान है । चण्डमारुताचार्य को दोद्दयाचार्य रामानुजदास भी कहते हैं। चण्डमारुतटीका-दे० 'चण्डमारुत' । चण्डमारुत महाचार्य-विशिष्टाद्वैत सम्बन्धी 'चण्डमारुत' नामक टीका के रचयिता। यह टीका वेदान्तदेशिकाचार्य वेङ्कटनाथ की 'शतदूषणी' के ऊपर रचित है। चण्डा-भयंकर अथवा क्रुद्ध । यह दुर्गा का एक विरुद है। असुरदलन में दुर्गा यह रूप धारण करती है। चण्डाल (चाण्डाल)-वर्णसंकर जातियों में से निम्न कोटि की एक जाति । चण्डाल शूद्र पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न माना जाता है। परन्तु वास्तव में यह अन्त्यज जाति है जिसका सभ्य समाज के साथ पूरा सपिण्डीकरण नहीं हुआ । अतः यह बस्तियों के बाहर रहती और नगर के कूड़े-कर्कट, मल-मूत्र आदि साफ करती है । इसमें भक्ष्याभक्ष्य और शुचिता का विचार नहीं है। चण्डालों की घोर आकृति, कृष्ण वर्ण और लाल नेत्रों का वर्णन साहित्यिक ग्रन्थों में पाया जाता है। मृत्युदण्ड में अपराधी का बध इन्हीं के द्वारा होता था। चण्डी (चण्डिका)-दुर्गा देवी। काली के समान ही दुर्गा देवी का सम्प्रदाय है। वे कभी-कभी दयालु रूप में एवं प्रायः उग्र रूप में पूजी जाती हैं । दयालु रूप में वे उमा, गौरी, पार्वती अथवा हैमवती, जगन्माता तथा भवानी कहलाती हैं; भयावने रूप में वे दुर्गा, काली अथवा श्यामा, चण्डी अथवा चण्डिका, भैरवी आदि कहलाती हैं । आश्विन और चैत्र के नवरात्र में दुर्गापूजा विशेष समारोह से मनायी जाती है । देवी की अवतारणा मिट्टी के एक कलश में की जाती है । मन्दिर के मध्य का स्थान गोबर व मिट्टी से लीपकर पवित्र बनाया जाता है। घट में पानी भरकर, आम्रपल्लव से ढककर उसके ऊपर मिट्टी का ही एक ढकना, जिसमें जौ और चावल भरा रहता है तथा जो एक पीले वस्त्र से ढका होता है, रखा जाता है । पुरोहित मन्त्रोचारण करता हुआ, कुश से जल उठाकर कलश पर तथा उसके उपादानों पर छिड़कता है तथा देवी का आवाहन घट में करता है । उनके आगमन को मान्यता देते हुए एक प्रकार की लाल-धूलि (रोली) घट के बाहर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चण्डिकावग-चतुर्वर्गचिन्तामणि २५९ चारों ओर छिड़कते हैं। इस पूजाविधि के मध्य में हठयोग के चौरासी (चतुरशीति ) आसनों का विवरण पुरोहित केवल फल-मूल ही ग्रहण करता है। पूजा का पाया जाता है। अन्त अग्नि में यज्ञ (होम) से होता है, जिसमें जौ, चीनी, चतुर्थीवत-गणेश चतुर्थी, गौरीचतुर्थी, नागचतुर्थी, स्कन्दघृत एवं तिल का व्यवहार होता है। यह हवन घट के चतुर्थी तथा बहुला चतुर्थी के अतिरिक्त इस चतुर्थीव्रत सामने होता है, जिसमें देवी का वास समझा जाता है। का विधान है । इसके लिए पञ्चमी से विद्ध चतुर्थी होनी यज्ञ की राख एवं कलश की लाल धूलि पुजारी यजमान चाहिए । लगभग २५ व्रत ऐसे हैं जो चतुर्थी के दिन होते के घर लाता है तथा उनके सदस्यों के ललाट पर लगाता हैं । यमस्मृति के अनुसार यदि चतुर्थी तिथि शनिवार को है और इस प्रकार वे देवी के साथ एकाकारता प्राप्त करते पड़े तथा उसी दिन भरणी नक्षत्र हो तो उस दिन स्नान हैं । भारत के विभिन्न भागों में चण्डी की पूजा प्रायः तथा दान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है । चतुर्थी तीन इसी प्रकार से होती है । प्रकार की होती है-शिवा, शान्ता तथा सुखा ( भविष्य चण्डिकावत-कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की नवमी को इस पुराण ३१.१-१०)। वे क्रमशः हैं भाद्रपद शुक्ल पक्ष की व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। एक वर्ष तक इसका चतुर्थी, माघ कृष्ण की चतुर्थी तथा भौमवासरीय चतुर्थी । आचरण होना चाहिए। इसमें चण्डिका के पूजन का चतुर्थीजागरण व्रत-कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का विधान है । इस दिन उपवास करना चाहिए । अनुष्ठान होता है । पाँच अथवा बारह वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। शिवजी का घृत स्नान कराते हुए चण्डीवास-बङ्गाल में चण्डीदास भगवद्भक्त कवि हो गये पूजन करना चाहिए । असंख्य कलशों से स्नान कराने हैं। बँगला में इनके रचे भक्तिरसपूर्ण भजन तथा कीर्तन बहुत व्यापक और प्रचलित हैं। इनका जीवनकाल लग का विधान है । कलश सौ तक हो सकते हैं । इसके अतिभग १३८० से १४२० ई० तक माना जाता है । बँगला रिक्त षोडशोपचार पूजन पूर्वक रात्रि में जागरण करना भाषा में राधा-कृष्ण विषयक अनेक सुन्दर भजन इनके चाहिए । इससे व्रती को दिव्यानन्दों की उपलब्धि तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। रचे हुए पाये जाते हैं। चतुर्दशीव्रत-धर्मग्रन्थों में लगभग तीस चतुर्दशीव्रतों का चण्डीमङ्गल-मुकुन्दराम द्वारा बँगला में लिखित 'चण्डी उल्लेख मिलता है। कृत्यकल्पतरु केवल एक व्रत का मङ्गल' चण्डीपूजा की एक काव्यमय पद्धति देता है । यह उल्लेख करता है और वह है शिवचतुर्दशी।। शाक्तों में बहुत प्रचलित है । चतुर्दश्यष्टमी-मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुचण्डीमाहात्म्य-चण्डीमाहात्म्य को देवीमाहात्म्य भी कहते र्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें भोजन है । हरिवंश के कुछ श्लोकों एवं मार्कण्डेयपुराण के एक नक्त पद्धति से करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अंश से यह माहात्म्य गठित है । इसका रचना काल छठी आचरण होता है । इसमें शिवपूजन का विधान है। शताब्दी है, क्योंकि बाणरचित चण्डीशतक इसी ग्रन्थ पर चतुर्मतिव्रत-विष्णुधर्मोत्तरपुराण के तृतीय अध्याय, श्लोक आधारित है। चण्डीमाहात्म्य के अनेक अनुवाद तथा १३७-१५१ में १५ चतुर्मति व्रतों का उल्लेख है । हेमाद्रि, इस पर आधारित अनेक भजन बँगला शाक्तों द्वारा लिखे व्रतखण्ड १.५०५ में भी कुछ वर्णन मिलता है । गये हैं। चतुर्युगवत-चैत्र मास के प्रथम चार दिनों में चारों चण्डीशतक-बाणभट्ट द्वारा रचित चण्डीशतक सातवीं युगों-कृत, त्रेता, द्वापर तथा तिष्य ( कलि ) का पूजन शताब्दी के पूर्वाध का साहित्यिक ग्रन्थ है । यह 'चण्डी होता है । एक वर्ष तक अनुवर्ती मासों में भी इन्हीं माहात्म्य' पर आधारित है। इसमें देवो की स्तुति १०० तिथियों में इस व्रत का आचरण करना चाहिए । इसमें श्लोकों में हुई है । विविध भारतीय भाषाओं में इसका केवल दुग्धाहार का विधान है। अनुवाद हुआ है। चतुर्वर्गचिन्तामणि-धर्मशास्त्र का विख्यात निबन्ध ग्रन्थ । चतुरशीत्यासन-यह ग्रन्थ गोरखनाथप्रणीत है तथा नागरी हेमाद्रि तेरहवीं शती के अन्त में यादव ( महाराष्ट्र के ) प्रचारणी सभा काशी की खोज से प्राप्त हुआ है। इसमें राजाओं के मंत्री थे। उन्होंने धर्मशास्त्रीय विषयों का एक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० चतुर्वेदस्वामी-चन्द्रषष्ठी विश्वकोश तैयार किया, जिसे 'चतुर्वर्गचिन्तामणि' कहते चन्द्रज्ञान आगम-चन्द्रज्ञान को चन्द्रहास भी कहते हैं । हैं । लेखक की योजना के अनुसार इसके पाँच खण्ड है- यह एक रौद्रिक आगम है। ताथ (४) माक्ष तथा (५) चन्द्रग्रहण-पृथ्वी की छाया ( रूपक अर्थ में छाया राक्षसी परिशेष । परिशेष खण्ड के चार भाग है-(१) देवता का पुत्र राह अर्थात अन्धकार ) जब चन्द्रमा पर पड़ती (२) काल-निर्णय (३) कर्मविपाक तथा (४) लक्षण है तब उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं। इस पर्व पर नदीस्नान समुच्चय । 'बिलियोथिका इंडिका' सीरीज में इसका तथा विशेष जप-दान-पुण्य करने का विधान है । यह प्रकाशन चार भागों तथा ६००० पृष्ठों में हुआ है । दूसरी धार्मिक कृत्य नैमित्तिक माना गया है। और तीसरी जिल्द में दो दो भाग हैं । चौथी जिल्द प्राय चन्द्रनक्षत्रवत -सोमवार युक्त चैत्र को पूर्णिमा को इस श्चित्त पर है । यह सन्देह किया जाता है कि यह हेमाद्रि को व्रत का अनुष्ठान होता है। यह वार व्रत है। इसमें रचना है अथवा नहीं । अभी सम्पूर्ण ग्रन्थ का मुद्रण नहीं चन्द्रपूजन का विधान है । आरम्भ से सातवें दिन चन्द्रमा हो पाया है । यह धर्मशास्त्र का एक विशाल एवं महत्त्व को रजतप्रतिमा किसी कांसे के बर्तन में रखकर उसकी पूर्ण ग्रन्थ है । दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इति पूजा की जाती है। चन्द्रमा का नामोच्चारण करते हुए हास, भाग १। २८ या १०८ पलाश की समिधाओं से घी तथा तिल के चतुर्वेद स्वामी-ये ऋकसंहिता के एक भाष्यकार हैं, साथ होम करना चाहिए। जिनका उल्लेख सायण ने अपने विस्तृत ऋग्वेदभाष्य में चन्द्रभागा-एक नदी और तीर्थ प्राचीन काल में चिनाव किया है। नदी ( पंजाब ) को चन्द्रभागा कहते थे । जहाँ यह सिन्धु चतुःश्लोकी भागवत-महाराष्ट्र भक्त एकनाथ (१६०८ ई०) में मिलती थी वहाँ चन्द्रभागातीर्थ था। यहाँ पर कृष्ण के द्वारा लिखित भागवत का अत्यन्त संक्षिप्त रूप । इसके भीतर चार श्लोकों में ही भागवत की सम्पूर्ण कथा पुत्र साम्ब ने सूर्यमन्दिर की स्थापना की थी। मुसलमानों द्वारा इस तीर्थ के नष्ट कर देने पर उत्कल में इस तीर्थ वर्णित है। मूल संस्कृत में चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश नारा का स्थानान्तरण हुआ। इस नाम की एक छोटी नदी समुद्र (बंगाल की खाड़ी) में मिलती है । वहीं नवीन चन्द्रभागा यण ने ब्रह्मा को सुनाया था, जो भागवत पुराण के द्वितीय तीर्थ स्थापित हुआ और कोणार्क का सूर्यमन्दिर बना । स्कन्ध में उद्धृत है। कोणार्क का सूर्यमन्दिर धार्मिक स्थापत्य का अद्भुत चन्द्र-चन्द्र या चन्द्रमा सौर मण्डल में पृथ्वी का उपग्रह नमूना है। है । ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अनुसार यह विराट् पुरुष के मन से उत्पन्न हुआ। इसलिए यह मन का स्वामी है।। चन्द्रमा-पृथ्वी का उपग्रह । वेद में इसकी उत्पत्ति का वर्णन चन्द्रकलातन्त्र-दक्षिणाचार के अनुयायी विद्यानाथ ने, इस प्रकार पाया जाता है : जिन्हें लक्ष्मीधर भी कहते हैं, 'सौन्दर्य लहरी' के ३१ वें चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत । श्लोक की टीका में ६४ तन्त्रों की तालिका के साथ-साथ श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।। दो और सूचियाँ दी है। प्रथम में ८ मिश्र तथा द्वितीय में [चन्द्रमा उस पुरुष के मनस् अर्थात् ज्ञानस्वरूप ५ शुभ तन्त्र हैं। उनके अन्तर्गत 'चन्द्रकलातन्त्र' मिश्र सामर्थ्य से, तथा उसके चक्षुओं अर्थात् तेजस्वरूप से सूर्य तन्त्र है। उत्पन्न हुआ । ....."] चन्द्रप-कुरुक्षेत्रान्तर्गत ब्रह्मसर सरोवर के मध्य में बड़े चन्द्रवत-वराहपराण के अनुसार यह व्रत प्रत्येक द्वीप पर यह अति प्राचीन पवित्र स्थान है। यह कूप पूर्णिमा को पन्द्रह वर्ष तक किया जाता है । इसके अनुष्ठान कुरुक्षेत्र के चार पवित्र कुओं में गिना जाता है । कप के साथ एक मन्दिर है। कहा जाता है कि युधिष्ठिर ने चन्द्रषष्ठी-भाद्र कृष्ण षष्ठी को चन्द्रषष्ठी कहते हैं। महाभारत युद्ध के बाद यहाँ पर एक विजयस्तम्भ बनवाया कपिला षष्ठी के समान इसका अनुष्ठान किया जाता है। था । वह स्तम्भ अब यहाँ नहीं है । षष्ठी के दिन उपवास का विधान है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रहास आगम-वह चन्द्रहास आगम दे० 'चन्द्रज्ञान आगम' । चन्द्रार्घ्यदान - प्रथम दिवस के चन्द्रमा के साथ जब रोहिणी नक्षत्र हो, विशेष रूप से कार्तिक मास में चन्द्रमा को अध्यं देने से विशेष पुष्यों तथा सुखों की उपलब्धि होती है। चन्द्रावती - इसका प्राचीन नाम चन्द्रपुरी है । यह जैन तीर्थ है। जैनाचार्य चन्द्रप्रभ का जन्म यहाँ हुआ था। यह स्थान वाराणसी से १३ मील दूर पड़ता है। यहाँ पहुँचने के लिए पूर्वोत्तर रेलवे के कादीपुर स्टेशन पर उतर कर लगभग चार मील चलना पड़ता है। यहाँ अन्य सम्प्रदाय के हिन्दू भी दर्शनार्थ जाते हैं । चन्द्रिका माध्व संप्रदायाचार्य स्वामी जयतीर्थ की दार्शनिक कृति 'तत्त्वप्रकाशिका' की सुप्रसिद्ध टीका । इसके रचयिता स्वामी व्यासतीर्थ १६ वीं शती ई० में हुए थे। चन्द्रिका (२) अनुभूतिस्वरूपाचार्य नामक विद्वान् का रचा हुआ एक संस्कृत व्याकरण । पाणिनिव्याकरण की अपेक्षा यह कुछ सरल है । कहते हैं कि सरस्वती देवी की कृपा से इस ग्रन्थ को उक्त पंडितजी ने एक रात में ही रच दिया था इसलिए इसका 'सारस्वत व्याकरण' नाम पड़ गया । चम्पकचतुर्दशी शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है, जब सूर्य वृषभ राशि पर स्थित हो। इसमें शिवजी के पूजन का विधान है। चम्पकद्वादशी – ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें चम्पा के फूलों से भगवान् गोविन्द का पूजन करना चाहिए । चम्पाषष्ठी - भाद्र शुक्ल षष्ठी को, जब वैधृति योग, भौमवार तथा विशाखा नक्षत्र भी हो, चम्पापष्ठी कहते हैं। इस दिन उपवास करना चाहिए। इसके सूर्य देवता हैं । मार्गशीर्ष मास की पष्ठी भी चम्पाषष्ठी कही गयी है, जब उस दिन रविवार तथा वैधृति योग हो स्मृतिकौस्तुभ ४३० तथा अहल्याकामधेनु के अनुसार दोनों तिथियाँ ठीक है। मदनरत्न के अनुसार यह मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी रविवार को पड़ती है जब शतभिषा नक्षत्र हो । प्रायः ३० वर्ष बाद यह योग आता है । कुछ धर्मग्रन्थों के अनुसार इस दिन भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। निर्णयसिन्धु, पृष्ठ २०९ के अनुसार महाराष्ट्र प्रान्त में मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को चम्पाषष्ठी का व्रत किया जाता है। २६१ चम्पू - पद्य एवं गद्य मिश्रित संस्कृत काव्य रचना | १७वीं शती के मध्य शिवगुण योगी ने विवेकचिन्तामणि नामक एक चम्पू की रचना की । यह वीरशैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित ग्रन्थ है । संस्कृत साहित्य में रामायणचम्पू, नलचम्पू, गोपालचम्पू, वृन्दावनचम्पू आदि उच्च कोटि के सरस और धार्मिक काव्य हैं । चम्बा - एक वैष्णव तीर्थ | हिमाचल प्रदेश में यह भूतपूर्व रियासत है, जो डलहौजी से २० मील दूर रावी नदी के तट पर बसी हुई है । नगर में लक्ष्मीनारायण का मन्दिर है । यहाँ भगवान् नारायण की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा अति विशाल तथा कलापूर्ण है । चमस - एक पात्र, जो यज्ञों के अवसर पर सोमरस वितरण के काम आता था। यह घृत की आहूति देने में भी प्रयुक्त होता है। यह पवित्र काष्ठ, उम्बर, खदिर आदि से बनता है । चरक - ( १ ) सर्वप्रथम इसका अर्थ भ्रमणशील विद्वान् अथवा विद्यार्थी था, जैसा बृहदारण्यकोपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस नाम से विशेषतया कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का बोध होता है। (२) महाराज कनिष्क के समकालीन वैद्य चरक थे, जिनके द्वारा 'चरकसंहिता' की रचना हुई। चरक शाखा – कृष्ण यजुर्वेद की शाखाओं में अकेले चरक सम्प्रदाय की ही बारह शाखाएँ थीं । चरक, आह्वरक, कठ, प्राच्य कठ, कपिष्ठल कठ, आष्ठल कठ, चारायणीय, वारायणीय वार्त्तान्तरेय, श्वेताश्वतर, औपमन्यव और मैत्रायण । चरक शाखा के पहले तीन भागों के नाम ईथिमिका, मध्यमिका और अरिमिका है। चरणपादुकातीर्थ-बदरीनाथ मन्दिर के पीछे पर्वत पर सीधे चढ़ने पर चरणपादुका नामक स्थान आता है । यहीं से नल लगाकर बदरीनाथ पुरी और मन्दिर में जल लाया जाता है । यह जल भगवान् के चरणोदक के समान पवित्र माना जाता है। भारत के अन्य स्थानों में भी भगवान् देवता एवं ऋषि-मुनियों को चरणपादुकायें ( पदचिह्न) विद्यमान हैं । दत्तात्रेय की चरणपादुकायें काशी के मणिकर्णिका घाट और गिरनार पर्वत पर स्थित हैं। चर - चावल, यब, माय आदि से दूध में पकाकर बने हुए हविष्य को 'चरु' कहते हैं, जो देवताओं तथा पितरों को अर्पित किया जाता है। , Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ चरण - वैदिक पाठवली के भेद से कर्मकाण्ड की विभिन्न शाखाओं अथवा पद्धतियों को चरण कहते हैं। उत्तर भारत के अधिकांश मन्दिरों में स्मार्त ब्राह्मण मूर्ति के पास जाकर अपने चरण के गृह्यसूत्र के निर्देशानुसार स्वतः पूजा कर सकते हैं । ' चरणव्यूह - वेदों की शाखाओं के क्रमानुसार उनके ब्राह्मण, आरण्यक, सूत्र तथा उपवेद आदि का निर्देशक ग्रन्थ । यथा चरणव्यूह में कथन है : द्वे सहस्रे शतम्पूने मन्त्रा वाजसनेयके । तावत्त्वन्येन संख्यातं बालखिल्यं सयुक्तिकम् । ब्राह्मणस्य समाख्यातं प्रोक्तमानाच्चतुर्गुणम् || [ वाजसनेय अर्थात् शुक्ल यजुर्वेदसंहिता में १९०० मंत्र हैं । बालखिल्य शाखा का भी यही परिमाण है। इन दोनों से चार गुना अधिक इनके ब्राह्मणों का परिमाण है । ] चरणव्यूह के अनुसार वेदों के चार उपवेद हैं । ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र उपवेद है परन्तु सुश्रुत और चरक से अवगत होता है कि आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद हैं और अर्थवेद ऋग्वेद का चरनदास - एक योग-ध्यानसाधक संत । १७३० ई० के लगभग इन्होंने एक सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे ' चरन - दासी' सम्प्रदाय कहते हैं । इस सम्प्रदाय का आधार कबीरपन्थ के समान है । इन्होंने धर्मोपदेशमय अनेक हिन्दी कविता ग्रन्थों की रचना की है । चरनदास भार्गव ब्राह्मण तथा अलवर के रहने वाले थे । बाद में ये दिल्ली में रहने लगे। इनकी दो शिष्याएँ थीं; सहजोबाई और दयाबाई । दोनों ने पद्य में योग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं। चरनदास का जन्मसमय नागरीप्रचारिणी सभा की खोज के अनुसार संवत् १७६० है और ७८ वर्ष की अवस्था में संवत् १८३८ में इनका देहावसान हुआ। खोज में इनके निम्न ग्रन्थ मिले हैं (१) अष्टांगयोग (२) नरसाकेत (३) सन्देहसागर (४) भक्तिसागर ( ५ ) हरिप्रकाश टीका (६) अमरलोक खण्डधाम ( ७ ) भक्तिपदारथ (८) शब्द (९) दानलीला (१०) मनविरक्तकरन गुटका (११) राममाला और (१२) ज्ञानस्वरोदय । चरनवासी यह योगमार्गी धार्मिक पन्थ है। नाथ सम्प्रदाय - जैसे पाँव है, वैसे ही चरनदासी पन्य वैष्णव समझा जाता है । परन्तु इसका मुख्य साधन हठयोगसंवलित राजयोग है। उपासना में ये राधा-कृष्ण की भक्ति करते हैं, परन्तु योग की मुख्यता होने से इसे योगमत का ही एक पन्थ मानना चाहिए । इस पन्थ के प्रथमाचार्य शुकदेव जी कहे जाते हैं। चरनदास लिखते हैं कि मुझको शुकदेवजी के दर्शन हुए और उन्होंने मुझे अपना शिष्य बनाया और योग की शिक्षा दी । चरण- चाणक्य चर्पटनाथ - नाथ सम्प्रदाय के नव नाथ प्रसिद्ध हैं । चर्पटनाथ उनमें से एक हैं । चर्मण्वती - एक नदी का नाम, जो मध्य प्रदेश में बहती हुई इटावा (उ० प्र०) के निकट यमुना में मिलती है। पुराणों और महाभारत में इसके किनारे पर राजा रन्तिदेव द्वारा अतिथियज्ञ करने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि बलिपशुओं के चमड़ों के पुंज से यह नदी वह निकली, इसीलिए इसका नाम चर्मण्यती (आधुनिक चम्बल) पड़ा । किन्तु यह पुराणों की गुप्त या सांकेतिक भाषाशैली की उक्ति है, जिससे बड़े-बड़े लोग भ्रमित हो गये हैं। यहाँ रन्तिदेव की पशुबलि और चर्मराशि का अर्थ केला (कदली) स्तम्भों को काटकर उनके फलों से होम एवं अतिथिसत्कार करना है। केलों के पत्तों-छिलकों को भी चर्म कहा जाता था। ऐसे कदलीवन से उक्त नदी निर्गत हुई थी। : चर्यापाद वैष्णव या क्षैव संहिताओं के चार खण्ड है (१) ज्ञानपाद ( २ ) योगपाद (३) क्रियापाद एवं (४) चर्यापद | चर्यापाद में धार्मिक क्रियाओं का वर्णन है । शैवागमों में इसका विस्तृत उल्लेख पाया जाता है । चाल - यज्ञयूप (स्तम्भ) के ऊपर पहनाये गये लकड़ी के ढक्कन को चषाल कहते हैं । चाक्षुष मनु-- चौदह मनुओं में से एक मनु का नाम । इनके नाम से चाक्षुष मन्वन्तर की कल्पना हुई । चाणक्य राजनीतिशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कंटिलीय अर्थशास्त्र' के रचयिता एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधान मंत्री । कौटिल्य, विष्णुगुप्त आदि नामों से भी पुकारते हैं । ये चणक नामक स्थान के रहने वाले थे, अतः चाणक्य कहलाये । अर्थशास्त्र राजनीति का उत्कट ग्रन्थ है, जिसने परवर्ती राजधर्म को प्रभावित किया। चाणक्य के - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास्य-वामुण्डा नाम से प्रसिद्ध एक नीतिग्रन्थ 'चाणक्यनीति' भी प्रचलित में उसी काल विभाग का अनुसरण किया गया है जो उस है । चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्ड- समय प्रचलित था और आज भी प्रचलित है। नीति (राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा चान्द्र व्रत-धर्मशास्त्र में इसकी कई विधियाँ पायी त्रयी (वैदिक ग्रन्थों) पर भी काफी बल दिया है। अर्थ- जाती है : शास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि (१) अमावस्या के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। प्रजा वर्णाश्रम धर्म का उचित पालन करती है कि नहीं। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण करना चाहिए । दो कमलदे० 'कौटिल्य' और 'अर्थशास्त्र । पुष्पों पर सूर्य तथा चन्द्रमा की प्रतिमाओं का पूजन करना चातुर्मास्य-चातुर्मास्य से उन वैदिक यज्ञों का बोध होता है, चाहिए। जो प्रत्येक ऋतु (ग्रीष्म, वर्षा, शीत) के आरम्भ में होते थे। (२) मार्गशीर्ष पूर्णिमा से आरम्भ करके एक वर्षपर्यन्त ये मौसम चार मासों के होते थे, अतएव ये उत्सव चार इसका अनुष्ठान करना चाहिए । प्रत्येक पूर्णिमा के दिन महीनों के अन्तर पर किये जाते थे। प्रथम 'वैश्व-देव' उपवास तथा चन्द्रमा के पूजन का विधान है। फाल्गुनी पूर्णिमा को, द्वितीय 'वरुण-प्रघास' आषाढ़ी (३) किसी भी पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान पूर्णिमा को तथा तीसरा 'शाकमेध' कार्तिकी पूर्णिमा को करना चाहिए। १५ वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। मनाया जाता था। इन उत्सवों की क्रमशः दो और इस दिन नक्त भोजन करना चाहिए । इस व्रत के आचरण तिथियाँ भी हो सकती हैं-चैत्री, श्रावणी एवं आग्रहायणी से एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का पूर्णिमा, या वैशाखी, भाद्रपदी एवं पौषी पूर्णिमा । पुण्य प्राप्त होता है। चातुर्मास्यव्रत-वर्षा के चार महीनों का संयुक्त नाम चातु (४) इसके अनुष्ठान में चान्द्रायण व्रत का आचरण स्यि है । इसमें जो व्रत किया जाता है उसको भी चातु करना चाहिए । चन्द्रमा की सुवर्णमयी प्रतिमा के दान का इसमें विधान है। दे० हेमाद्रि, २.८८४; मत्स्य पुराण मस्यि कहा जाता है। इस व्रत में विभिन्न नियमों (भोजन तथा कुछ आचार-व्यवहारों के निषेध) का पालन होता है।। १०१.७५; कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, ४५० । तैल का सेवन तथा मर्दन, उद्वर्तन, ताम्बूल तथा गुड़ का चान्द्रायण व्रत-(१) ब्रह्मपुराणोक्त यह व्रत पौष मास की शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। शास्त्र में एक और सेवन निषिद्ध है। मांसाहार, मधु तथा कुछ मद्य जैसी । उत्तेजक वस्तुएँ त्याज्य बतलायी गयी हैं। दे० हेमाद्रि, चान्द्रायण व्रत का विधान है। चन्द्रमा के ह्रास के साथ २.८००-८६१ (कुछ ऐसे व्रतों का यहाँ उल्लेख है जो आहार के ग्रासों में ह्रास और वृद्धि के साथ वृद्धि करके एक महीने में यह व्रत पूरा किया जाता है । उद्देश्य पापवस्तुतः चातुर्मास्य व्रतों के अन्तर्गत नहीं आते); समय मोचन है। घोर अपराधों के प्रायश्चित्त रूप में यह व्रत मयूख, १५०-१५२ । किया जाता है। चातुराश्रमिक-चार आश्रमों में से किसी एक में रहने (२) यह व्रत पूर्णिमा के दिन आरम्भ होता है। एक वाला 'चातुराश्रमिक' कहलाता है । इससे बाहर के व्यक्ति मास तक इसका आचरण करना चाहिए। प्रत्येक दिन अनाश्रमी, आश्रमेतर कहलाते हैं। तर्पण तथा होम का विधान है। चान्द्र तिथि-वर्तमान चान्द्र मास, तिथि आदि पञ्चाङ्ग की चामुण्डा-(१) शिवपत्नी रुद्राणी के अनेक नाम है, यथा विधि अति प्राचीन है और वैदिक काल से चली आयी देवी, उमा, गौरी, पार्वती, दुर्गा, भवानी, काली, कपाहै। कालानुसार बीच-बीच में बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने लिनी एवं चामुण्डा । दूसरे देवों की देवियों (पत्नियों) के करण-ग्रन्थ लिखकर और संस्कार द्वारा संशोधन करके विपरीत इन्हें धार्मिक आचारों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान इस गणना को ठीक और शुद्ध कर रखा है। छः ऋतुओं का प्राप्त है तथा शिव से कुछ ही कम महत्त्व इनका है। विभाजन उसी तरह सुभीते के लिए हुआ, जिस तरह इनको पति के समान स्थान शिव के युगल (अद्वैत) रूप चान्द्र मास ३० तिथियों में बाँट दिया गया । वेदांगज्योतिष अर्द्धनारीश्वर में प्राप्त होता है, जिसमें दक्षिण भाग शिव Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ चामुण्डा तन्त्र-चार्वाक का एवं वाम देवी का है । देवी के अनेक नामों एवं गुणों है, जिसको लोग आत्मा कहते हैं। शरीर जब विनष्ट हो (दयालु, भयानक, क्रूर एवं अदम्य) से यह प्रतीत होता है जाता है तो चैतन्य भी नष्ट हो जाता है । इस प्रकार कि शिव के समान ये भी अनेक दैवी शक्तियों के संयोग जीव इन भूतों से उत्पन्न होकर इन्ही भूतों में नष्ट हो से बनी हैं। जाता है । अतः चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है । देह से (२) मैसूर (कर्नाटक) में चामुण्डा का प्रसिद्ध मन्दिर है अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण नहीं है। उसके जहाँ बहुसंख्यक यात्री पूजा के लिए जाते हैं। मत से स्त्री-पुत्रादि के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख पुरुषार्थ (३) चण्ड और मुण्ड नामक राक्षसों के बध के लिए है। संसार में खाना, पीना और सुख से रहना दुर्गा से चामुण्डा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इसका चाहिए : वर्णन मार्कण्डेयपुराण में इस प्रकार पाया जाता है: अम्बिका यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । (दुर्गा) के क्रोध से कुञ्चित ललाट से एक काली और भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ भयंकर देवी उत्पन्न हुई। इसके हाथ में खड्ग और पाश [जब तक जीना चाहिए सुखपूर्वक जीना चाहिए। यदि तथा नरमुण्ड से अलंकृत विशाल गदा थी । वह शुष्क, जीर्ण अपने पास साधन नहीं है तो दूसरों से ऋण लेकर भी तथा भयानक हस्तिचर्म पहने हुए थी। मुख फैला हुआ मौज करना चाहिए। श्मशान में शरीर के जल जाने पर और जिह्वा लपलपाती थी। उसकी आँखें रक्तिम और किसने उसको लौटते गाते किसने उसको लौटते हुए देखा है ? ] परलोक वा स्वर्ग उसके भयंकर शब्द से आकाश भर रहा था।' इस देवी आदि का सुख पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि ये प्रत्यक्ष नहीं हैं । ने दोनों राक्षसों का वध करके उनके शिरों को दुर्गा के इसके अनुसार जो लोग परलोक के स्वर्गसुख को अमिश्र सम्मुख अर्पित किया। दुर्गा ने कहा, "तुम दोनों राक्षसों शुद्ध सुख मानते हैं वे आकाश में प्रासाद रचते हैं, क्योंकि के संकुचित समस्त नाम 'चामुण्डा' से प्रसिद्ध होगी।" परलोक तो है ही नहीं। फिर उसका सुख कैसा ? उसे चामुण्डातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों में से प्राप्त करने के यज्ञादि उपाय व्यर्थ हैं। वेदादि धूर्तों और एक तन्त्र 'चामुण्डातन्त्र' है। इसमें चामुण्डा के स्वरूप स्वार्थियों की रचनायें हैं ( त्रयो वेदस्य कर्तारः धूर्त-भाण्डतथा पूजाविधि का सविस्तर वर्णन है। निशाचराः ), जिन्होंने लोगों से धन पाने के लिए ये चारायणीय काठकधर्मसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद की एक प्राचीन सब्जबाग दिखाये हैं। यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग शाखा 'चारायणीय काठक' है। इस शाखा के धर्मसूत्र से को जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में विष्णुस्मृति के गद्यसूत्रों की सामग्री ली गयी ज्ञात होती क्यों नहीं मारता? मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का साधन है। किन्तु कुछ नियम बदले और कुछ नये भी जोड़े यदि श्राद्ध होता है तो विदेश जाने वाले पुरुषों के राहगये हैं। खर्च के वास्ते वस्तुओं को ले जाना भी व्यर्थ है। यहाँ किसी चार्वाक-नास्तिक ( वेदबाह्य ) दर्शन छः हैं-चार्वाक, ब्राह्मण को भोजन करा दे या दान दे दे, जहाँ रास्ते में माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं आहत । आवश्यक होगा वहीं वह वस्तु उसको मिल जायगी। इन सबमें वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। जगत् में मनुष्य प्रायः दृष्ट फल के अनुरागी होते हैं । इनमें से चार्वाक अवैदिक और लोकायत (भौतिकवादी) नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ व काम को दोनों है। ही पुरुषार्थ मानते हैं। पारलौकिक सुख को प्रायः नहीं चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादी है, वह अनुमान आदि अन्य। मानते । कहते हैं कि किसने परलोक वा वहाँ के सुख को प्रमाणों को नहीं मानता। उसके मत से पृथ्वी, जल, तेज देखा है ? यह सब मनगढन्त बातें हैं, सत्य नहीं हैं । जो और वायु ये चार ही तत्त्व हैं, जिनसे सब कुछ बना है। प्रत्यक्ष है वही सत्य है। इस मत का एक दूसरा नाम, उसके मत में आकाश तत्त्व की स्थिति नहीं है। इन्हीं जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, लोकायत भी है। चारों तत्त्वों के मेल से यह देह बनी है। इनके विशेष इसका अर्थ है 'लोक में स्थित'। लोकों-जनों में प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता आयत फैला हुआ मत ही लोकायत है। अर्थात् अर्थ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्वाकदर्शन- चित्रभानुव्रत काम को ही पुरुषार्थ मानने वाले मनुष्यों में यह मत फैला हुआ है। यद्यपि चार्वाक का नाम प्रसिद्ध नहीं है तथापि उसका मत और उसका तर्क बहुत फैले हुए, व्यापक हैं । पाश्चात्य देशों में इस प्रकार का तर्क मानने वाले बहुत लोग हैं। यह मत आधुनिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से मिलता जुलता है, केवल तर्क और युक्ति पर आधारित है । परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों के ऊपर इसके आघात का यह प्रभाव हुआ कि इन सम्प्रदायों ने अपने तर्कपक्ष को पर्याप्त विकसित किया, जिससे वे इसके आक्षेपों का उत्तर दे सकें और इसका खण्डन कर सकें । चार्वाकदर्शन सम्प्रदाय के रूप में भारत में बहुत प्रचलित नहीं हुआ । ( पूर्ण विवरण के लिए दे० 'सर्वदर्शनसंग्रह', प्रथम अध्याय । ) चार्वाकदर्शन दे० 'चार्वाक' । चित्त- पतञ्जलि के अनुसार मन, बुद्धि और अहंकार तीनों से मिलकर चित्त बनता है। चित्त की पाँच वृत्तियाँ होती - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प निद्रा और स्मृति चित्त कीक्षित, मूढ, विक्षिप्त, निरुद्ध एवं एकाग्र ये पाँच प्रकार की भूमियाँ होती हैं। आरम्भ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अन्तिम दो में हो सकता है। } चित्तवृत्तियों के निरोध का ही नाम योग है । पतञ्जलि अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया है। ये आठ अंग हैंयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । योग का अंतिम चरण समाधि है । इसका उद्देश्य है चित्त के निरोध से आत्मा का अपने स्वरूप में लय । चितौड़गढ़ इसका प्राचीन नाम चित्रकूट था। यहाँ पहले पाशुपत पीठ था। मेदपाट के सिसौदिया वंश के राजाओं के समय में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा बढ़ी। पुराने उदयपुर राज्य का यह यशस्वी दुर्ग है। यह भारत का महान् ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक तीर्थ है। यहाँ का कण-कण मातृभूमि की रक्षा के लिए तथा हिन्दुत्व के गौरव की रक्षा के लिए रक्तसिचित है। दुर्ग के भीतर महाराणा प्रताप का जन्मस्थान, रानी पद्मिनी, पन्ना धाय तथा मीराबाई के महल, कीर्तिस्तम्भ, जयस्तम्भ, जटाशंकर महादेव का मन्दिर, गोमुख कुण्ड, रानी पद्मिनी तथा अन्य राजपूत ३४ २६५ वीराङ्गनाओं की विस्तृत चिताभूमि, काली माता का मन्दिर आदि दर्शनीय स्थान हैं । चित्रकूट- यह उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में करवी स्टेशन के पास पयस्विनी के तट पर स्थित अति रम्य स्थान है । चित्रकूट का सबसे बड़ा माहात्म्य यह है कि भगवान् राम ने बनवास के समय वहाँ निवास किया था। चित्रकूट सदा से तपोभूमि रहा है। महर्षि अत्रि-अनसूया का यहाँ आश्रम है, जहाँ से मध्य प्रदेश लग जाता है । यहाँ तपस्वी, भगवद्भक्त, विरक्त महापुरुष सदा रहते आये हैं । चित्रगुप्तपूजा - यमद्वितीया को प्रातःकाल सवेरे चित्रगुप्त आदि चौदह यमों की पूजा होती है । इसके बाद बहिनों के घर भाई के भोजन करने की प्रथा बहुत पुरानी है। इस दिन बहिनें शाप के व्याज से भाई को आशीर्वाद देती हैं । शाप देने का उद्देश्य यमराज को धोखा देना है। शाप से भाई को मरा हुआ जानकर वह उस पर आक्रमण नहीं करता । कायस्थों का यह विश्वास है कि चित्रगुप्त उनके पूर्वज हैं । अतः इस दिन वे उनकी विधिवत् पूजा करते हैं । चित्रगुप्त यमराज के लेखक माने जाते हैं, अतः उनकी कलम-दवात की भी पूजा होती है । चित्रदीप -- विद्यारण्य स्वामी द्वारा विरचित पञ्चदशी अद्वैत वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसके चित्रदीप नामक प्रकरण में उन्होंने चेतन के विषय में कहा है कि घटाकाश, महाकाश जलाकाश एवं मेघाकाश के समान कूटस्थ, ब्रहा, जीव और ईश्वर-भेद से चेतन चार प्रकार का है । व्यापक आकाश का नाम महाकाश है, घटावच्छिन्न आकाश को घटाकाश कहते हैं, घट में जो जल है उसमें प्रतिबिम्वित होनेवाले आकाश को जलाकाश कहते हैं और मेघ के जल में प्रतिबिम्बित होनेवाले आकाश का नाम मेघाकाश है । इन्हीं के समान जो अखण्ड और व्यापक शुद्ध चेतन है उसका नाम ब्रह्म है, देहरूप उपाधि से परिच्छिन्न चेतन को कूटस्थ कहते हैं, देहान्तर्गत अविद्या में प्रतिबिम्बित चेतन का नाम जीव है और माया में प्रतिविम्बित चेतन को ईश्वर कहते हैं । चित्रपट - अप्पय दीक्षितकृत मीमांसाविषयक ग्रन्थों में से एक चित्रपट है । यह ग्रन्थ अप्रकाशित है । चित्रभानुव्रत - शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। रक्तिम सुगन्धित पुष्पों से तथा Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ चित्रभानुपदद्वयव्रत-चिदम्बरम् घृतधारा से सूर्य का पूजन होता है । इससे अच्छे स्वास्थ्य में श्रीहर्ष ने न्यायमत का खण्डन किया था। तेरहवीं की उपलब्धि होती है। शताब्दी के आरम्भ में गङ्गेश ने श्रीहर्ष के मत को खंडित चित्रभानुपदद्वयव्रत-उत्तरायण के प्रारम्भ से अन्त तक इस कर न्यायशास्त्र को पुनः प्रतिष्ठित किया। दूसरी ओर का अनुष्ठान होता है । यह अयन व्रत है। इसमें सूर्य की द्वैतवादी वैष्णव आचार्य भी अद्वैत मत का खण्डन कर रहे पूजा होती है। थे। ऐसे समय में चित्सुखाचार्य ने अद्वैतमत का समर्थन चित्रमीमांसा-अप्पय दीक्षितकृत अलङ्कार शास्त्र-विषयक और न्याय आदि मतों का खण्डन करके शाङ्कर मत की ग्रन्थ । इसमें अर्थचित्र का विचार किया गया है । इसका रक्षा की। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'तत्त्व प्रदीपिका', 'न्यायमकरन्द' की टीका और 'खण्डनखण्डखण्डन करने के लिए पण्डितराज जगन्नाथ ने 'चित्रमीमांसा खाद्य' की टीका लिखी । अपनी प्रतिभा के कारण चित्सुखण्डन' नामक ग्रन्थ की रचना की की। चित्रमीमांसाखण्डन-पण्डितराज जगन्नाथकृत यह ग्रन्थ अप्पय खाचार्य ने थोड़े ही समय में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। दीक्षित कृत 'चित्रमीमांसा' नामक अलङ्कार शास्त्र विष चित्सुख भी अद्वैतवाद के स्तम्भ माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने उनके वाक्यों को प्रमाण के रूप में उद्धृत यक ग्रन्थ के खण्डनार्थ लिखा गया है। किया है। चित्रशिखण्डी ऋषि-सप्त ऋषियों का सामूहिक नाम। पाञ्च चित्सुखो-चित्सुखाचार्य द्वारा रचित 'तत्त्वप्रदीपिका' का रात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा सङ्कलित है, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है । इन दूसरा नाम 'चित्सुखी' है । यह अद्वैत वेदान्त का समर्थक, ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र नाम का . उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है। शास्त्र तैयार किया। ये सप्तर्षि स्वायम्भुव मन्वन्तर के चिता-मृतक के दाहसंस्कार के लिए जोड़ी हई लकड़ियों मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पलस्त्य, पलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। का समूह । गृह्यसूत्रों में चिताकर्म का पूरा विवरण पाया इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों का जाता है । विवेचन है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अङ्गिरा चिदचिदीश्वरतत्त्वनिरूपण-विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का दार्शऋषि के अथर्ववेद के आधार पर इस ग्रन्थ में प्रवृत्ति और निक ग्रन्थ । वरदनायक सुरिकृत (१६वीं शताब्दी का) यह निवृत्ति मार्गों की चर्चा है। दोनों मार्गों का यह आधारस्तम्भ ग्रन्थ जीव, जगत् और ईश्वर के सम्बन्ध में विचार उपहै । नारायण का कथन है-"हरिभक्त वसुराज उपरिचर स्थित करता है। इस ग्रन्थ को बृहस्पति से सीखेगा और उसके अनुसार चिदम्बरम यह सुदूर दक्षिण भारत का अति प्रसिद्ध चलेगा, परन्तु इसके पश्चात् यह ग्रन्थ नष्ट हो जायगा।" शैव तीर्थ है। यह मद्रास-धनुषकोटि मार्ग में बिल्लुपुरम् से चित्रशिखण्डी ऋषियों का . यह ग्रन्थ आजकल उपलब्ध ५० मील दूर अवस्थित है। सुप्रसिद्ध 'नटराज शिव' यहीं नहीं है। विराजमान हैं। शङ्करजी के पञ्चतत्त्व लिङ्गों में से आकाशचित्सुखाचार्य-आचार्य चित्सुख का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी लिङ चिदम्बरम में ही माना जाता है । मन्दिर का घेरा में हुआ था । उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक वेदान्त ग्रन्थ १०० बीघे का है। पहले घेरे के पश्चात् दूसरे घेरे में में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन उत्तुङ्ग गोपुर है, जो नौ मंजिल का है, उस पर नाट्यशास्त्र किया है, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे । उस खण्डन में के अनुसार विभिन्न नृत्यमुद्राओं की मूर्तियाँ बनी हैं । मन्दिर उन्होंने श्रीहर्ष के मत को उद्धृत किया है, जो इस में नृत्य करते हुए भगवान् शङ्कर की बहुत सुन्दर स्वर्णमूर्ति शताब्दी के अन्त में हुए थे। उनके जन्मस्थान आदि के है। इसके सम्मुख सभामण्डप है। कई प्रकोष्ठों के भीतर बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' भगवान् शङ्कर की लिङ्गमय मूर्ति है । यही चिदम्बरम का के मङ्गलाचरण में अपने गुरु का नाम ज्ञानोत्तम लिखा है। मल विग्रह है। महर्षि व्याघ्रपाद तथा पतञ्जलि ने इसी जिन दिनों इनका आविर्भाव हुआ था, उन दिनों न्याय- मति की अर्चा की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्कर मत (तर्कशास्त्र) का जोर बढ़ रहा था। द्वादश शताब्दी ने ताण्डवनृत्य किया। उसी नृत्य के स्मारक रूप में नद Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिदानन्व-चैतन्यचन्द्रोदय २६७ राज की यहाँ स्थापना हुई, ऐसी अनुश्रुति है । धार्मिक यहाँ की रम्य एकान्त स्थली में वल्लभाचार्यजी ने भगविस्तार और कला की अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से यह वान् की आराधना की थी। उसकी स्मृति में 'महाप्रभुजी मन्दिर अपूर्व है। की बैठक स्थापित है। इससे वैष्णव भी इसे अपना तीर्थ इसी चिदम्बरपुर के निवासी उमापति नामक एक । मानते हैं। ब्राह्मण शूद्र सन्त मरई ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य हो गये थे, चूलिकोपनिषद्--इस उपनिषद् में सेश्वर सांख्ययोग सिद्धान्त जिसके कारण उनको जाति से निकाल दिया गया। किन्तु सरलता से प्रस्तुत किया गया है। चूलिका का सांख्य मत गुरु की कृपा से उमापति बहत बड़े सैद्धान्तिक ग्रन्थों के प्रणेता मैत्रायणी के निकट प्रतीत होता है, अतएव ये दोनों उपहुए। उन्होंने अनेक ग्रन्थ रचे जिनमें से आठ तो सिद्धान्त निषदें (चलिका एवं मैत्रायणी) लगभग एक ही काल को शास्त्रों में से हैं। आगे चलकर इनका नाम उमापति शिवा- रचनायें हैं। चार्य हुआ। चेतन-आत्मा का एक पर्याय । इसका अर्थ है 'चेतना रखने चिदानन्द-माध्व वैष्णवों के इतिहास में अठारहवीं शती के । वाला ।' चिदूप होने से आत्मा का यह नाम हुआ । पुरुषमध्य कई अनन्य भगवत्प्रेमी कवि हुए, जिन्होंने भगवान् सूक्त के चतुर्थ मन्त्र में पुरुष के रूप एवं कार्यों के वर्णन कृष्ण की स्तुति के गीत कन्नड़ भाषा में लिखे थे। इनमें में कथित है 'ततो विश्वं व्यक्रामत्', अर्थात् यह नाना प्रकार एक थे चिदानन्द दास, जिनका कन्नड़ ग्रन्थ 'हरिभक्ति का जगत् उसी पुरुष के सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है । वह रसायन' अति प्रसिद्ध है। इनका 'हरिकथासार' नामक दो प्रकार का है; एक 'साशन' अर्थात् चेतन, जो कि अन्य कन्नड़ ग्रन्थ भी सैद्धान्तिक ग्रन्थ समझा जाता है। भोजनादि के लिए चेष्टा करता है और जीवसंयुक्त है । चिन्तामणितन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में दी गयी ६४ तन्त्रों दूसरा 'अनशन', अर्थात् जो जड है और भोज्य होने के की सूची में इसका ३३वा क्रम है । तन्त्र के विभिन्न अङ्गों लिए बना है, क्योंकि उसमें ज्ञान नहीं है, वह अपने आप पर इससे प्रकाश पड़ता है। चेष्टा भी नहीं कर सकता। आत्मा सभी दर्शनों में चेतन चिन्त्य-(१) अट्ठाईस आगमों में से एक शैव आगम माना गया है। चैतन्य उसका गुण है। चैतन्य (१)-आस्तिक दर्शनों के अनुसार चैतन्य आत्मा का 'चिन्त्य' नामक भी है। गुण है। चार्वाक तथा अन्य नास्तिक मतों के अनुसार (२) द्धि का विषय सम्पूर्ण स्थूल विश्व चिन्त्य चैतन्य आत्मा का गुण न होकर प्राकृतिक तत्त्वों के संघात (चिन्ता का विषय ) कहलाता है। इससे विपरीत ब्रह्म से उत्पन्न होता है । जड़वाद के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तत्त्व अचिन्त्य है। और वायु ये चार ही तत्त्व है जिनसे विश्व में सब कुछ चुनार-वाराणसी से पश्चिम गंगातटवर्ती 'चरणाद्रि' नामक बना है। इन्हीं चारों तत्त्वों के मेल से देह बनती है। एक पहाड़ी किला । यह मिर्जापुर जिले में गंगा के दाहिने जिन वस्तुओं के मेल से मदिरा बनायी जाती है उनको तट पर स्थित पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। पृथक्-पृथक् करने से नशा नहीं होता, किन्तु संयोग से इसकी स्थिति ( भगवान के ) चरण के आकार की है, निर्मित मदिरा से ही मादकता उत्पन्न होती है । उसी तरह अतः इसका नाम चरणा द्रि पड़ा। स्थानीय परम्परा के चारों तत्त्वों की पृथक् स्थिति में चैतन्य नहीं मालूम अनुसार इसका देशज नाम चरणाद्रि से चुनार हो गया है। होता, किन्तु इनके एक में मिल जाने से ही शरीर में लोग इसे राजा भर्तृहरि की तपोभूमि और दुर्ग में स्थित चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। शरीर जब विनष्ट हो जाता मन्दिर को राजा विक्रमादित्य का बनवाया मानते हैं। है तो उसके साथ-साथ चैतन्य गुण भी नष्ट हो जाता है। मन्दिर इतना प्राचीन नहीं जान पड़ता । परन्तु गहड़वाल चैतन्य (२)-दे० 'कृष्ण चैतन्य' । राजवंश के समय तक कंतित (कान्तिपुरी) और चरणाद्रि संन्यास आश्रम के 'दसनामी' वर्ग के अन्तर्गत दीक्षित दोनों महत्त्वपूर्ण स्थान थे । चुनार दुर्ग का महत्त्व तो पूरे होने वाले शिष्य का यह एक उपनाम भी है। मध्यकाल तक बना रहा। प्रायः प्रत्येक दुर्ग एक प्रकार चैतन्यचन्द्रोदय-सं० १६२५ वि० के लगभग बङ्गाल में का शाक्तपीठ माना जाता था। धार्मिक नवजागरण हुआ तथा महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चैतन्यचरित-चैतन्य सम्प्रदाय जीवनवृत्तान्त पर भी कतिपय ग्रन्थ कुछ वर्षों में रचे गये । 'चैतन्यचन्द्रोदय' उनमें से एक है। यह कवि कर्णपूर द्वारा रचित संस्कृत नाटक है । इसका नाम 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक आध्यात्मिक नाटक के अनुसार रखा गया प्रतीत होता है। चैतन्यचरित-मुरारि गुप्त रचित यह महाप्रभु कृष्ण चैतन्य की जीवनलीला का संस्कृत में वर्णन है। इसकी रचना सं० १६२९ वि० में हुई थी। चैतन्यचरितामृत-बँगला भाषा में कृष्णदास कविराज कृत महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित यह एक काव्य ग्रन्थ है । रचनाकाल सं० १६३८ वि० है । इसे कवि- राज ने नौ वर्षों के परिश्रम से उत्तर प्रदेशस्थ वृन्दावन (राधाकुण्ड) में तैयार किया था। यह ग्रन्थ बड़ा शिक्षापूर्ण है तथा चैतन्यजीवन पर सर्वोत्तम लोकप्रिय रचना है । इसे सम्प्रदाय के अनेक भक्त लोग कंठस्थ कर लेते हैं। श्री दिनेशचन्द्र सेन के मत से चैतन्य सम्प्रदाय के लिए यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक और अति महत्त्व का है। चैतन्यदेव-दे० 'कृष्ण चैतन्य' । चैतन्यभागवत-महात्मा वृन्दावनदास रचित यह ग्रन्थ बँगला काव्य में चैतन्यदेव का सुन्दर जीवनचरित है। इसकी रचना सं० १६३० वि० में हुई। चैतन्यमङ्गल-कविवर लोचनदास कृत यह ग्रन्थ भी चैतन्यजीवन का ही बंग भाषा में वर्णन करता है। इसकी रचना सं० १६३२ वि० में हुई। चैतन्यसम्प्रदाय-(कृष्ण चैतन्य शब्द की व्याख्या में चैतन्य का जीवनवृत्तान्त देखिए ।) चैतन्य की परमपद-प्राप्ति सं० १५९० वि० में हुई तथा १५९० से १६१७ वि० तक बंगाल का वैष्णव सम्प्रदाय चैतन्य के वियोग से शोकाकुल रहा। साहित्यरचना तथा संगीत मृतप्राय से हो गये, किन्तु चैतन्य सम्प्रदाय जीवित रहा । नित्यानन्द ने इसकी व्यवस्था संभाली एवं चरित्र की नियमावली सबके समक्ष रखी। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के कार्य को हाथ में लिया तथा एक ही दिन में २५०० बौद्ध संन्यासी तथा संन्यासिनियों को चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित कर डाला । चैतन्य की मृत्यु के कुछ पूर्व से ही रूप, सना- तन तथा दूसरे कई भक्त वृन्दावन में रहने लगे थे तथा चैतन्य सम्प्रदाय की सीमा बँगाल से बाहर बढ़ने लगी थी। चैतन्य के छः साथी-रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल भट्ट एवं रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते थे । 'गोस्वामी' से धार्मिक नेता का बोध होता था। ये लोग शिक्षा देते, पढ़ाते और दूसरे मतावलम्बियों को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करते थे। इन्होंने अपने सम्प्रदाय के धार्मिक नियमों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे । भक्ति, दर्शन, उपासना, भाष्य, नाटक, गीत आदि विषयों पर भी उन्होंने रचना की। ये रचनाएँ सम्प्रदाय के दैनिक जीवन, पूजा एवं विश्वास आदि पर ध्यान रखते हुए लिखी गयी थीं। उक्त गोस्वामियों के लिए यह बड़ा ही शुभ अवसर था कि उनके वृन्दावन-वास काल में अकबर बादशाह भारत का शासक था तथा उसकी धार्मिक उदारता के कारण इन्होंने अनेक मन्दिर वृन्दावन में बनवाये और अनेक राजपूत राजाओं से आर्थिक सहायता प्राप्त की। ___ सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक ४० वर्षी में चैतन्य आन्दोलन ने बंगाल में अनेक गीतकार उत्पन्न किये। उनमें सबसे बड़े गोविन्ददास थे। ज्ञानदास, बलरामदास, यदुनन्दन दास एवं राजा वीरहम्बीर ने भी अच्छे ग्रन्थों की रचना की। अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने वेदान्तसूत्र पर सम्प्रदाय के लिए भाष्य लिखा, जिसे उन्होंने 'गोविन्दभाष्य' नाम दिया तथा 'अचिन्त्य भेदाभेद' उसके दार्शनिक सिद्धान्त का नाम रखा । चैतन्य सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद नहीं है । कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य हो सकता है, पूजा कर सकता है तथा ग्रन्थ पढ़ सकता है। फिर भी विवाह के नियम एवं ब्राह्मण के पुजारी होने का नियम अक्षुण्ण था। केवल प्रारम्भिक नेताओं के वंशज ही गोस्वामी कहलाते थे। इन्हीं नियमों से अनेक मठ एवं मन्दिरों की व्यवस्था होती थी। चैतन्य दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। उनके कुछ साथियों ने भी संन्यास ग्रहण किया। किन्तु नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने आधुनिक साधुओं के सरल अनुशासन को जन्म दिया, जिसके अन्तगत वैष्णव साधु वैरागी तथा वैरागिनी कलहाने लगे। ऐसा ही पहले स्वामी रामानन्द ने किया था। इस सम्प्रदाय में हजारों भ्रष्ट शाक्त, और बौद्ध आकर दीक्षित हुए। फलतः बहुत बड़ी अशुद्धता सम्प्रदाय में भी आ गयी । आजकल इस साधुशाखा का आचरण सुधर गया है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र-चौल (चूडाकरण) २६९ इनके मन्दिरों में मुख्य मूर्तियाँ कृष्ण तथा राधा की 'हित' था जिसे उन्होंने इस ग्रन्थ के आरम्भ में जोड़ होती है, किन्तु चैतन्य, अद्वैत तथा नित्यानन्द की मूर्तियों दिया है । इनका समय १५३६ वि० के लगभग है। हितकी भी प्रत्येक मन्दिर में स्थापना होती है। कहीं-कहीं तो चौरासी तथा स्फुट पद दोनों ही व्रजभाषा में रचे गये केवल चैतन्य की ही मूर्ति रहती है । संकीर्तन इनका मुख्य हैं। 'हितजी' की उक्त रचनाएं बड़ी मधुर एवं राधाकृष्ण धार्मिक एवं दैनिक कार्य है। कीर्तनीय (प्रधान गायक) के प्रेमरस से परिपूर्ण हैं। मन्दिर के जगमोहन में करताल एवं मृदंग वादकों के चौरासी वैष्णवन की वार्ता-वल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत बीच नाचता हुआ कीर्तन करता है। अधिकतर 'गौर- व्रजभाषा में कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जो कृष्णचरित्र सम्बन्धी चन्द्रिका' का गायन एक साथ किया जाता है। संकीर्तन- कथाओं के प्रेमतत्त्व पर अधिक बल देते हैं। इनमें सबसे दल व्यक्तिगत घरों में भी संकीर्तन करता है। मुख्य गोस्वामी गोकुलनाथजी की संग्रहरचना "चौरासी चैत्र-इस मास के सामान्य कृत्यों के लिए देखिए कृत्य वैष्णवन की वार्ता" है जो १६०८ वि० सं० में लिखी गयी । इन वार्ताओं से अनेक भक्त कवियों के ऐतिहासिक कालरत्नाकर, ८३-१४४; निर्णयसिन्धु, ८१-९० । कुछ महत्त्व क्रम निर्धारण में सहायता मिलती है । पूर्ण व्रतों का अन्यत्र भी परिगणन किया गया है। शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि तिथि है । इस दिन से प्रारम्भ कर चार चौरासी सिद्ध-बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अन्तर्गत मास तक जलदान करना चाहिए। शुक्ल द्वितीया को। चौरासी सिद्ध बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें कुछ हठयोग के उमा, शिव तथा अग्नि का पूजन होना चाहिए। शुक्ल अभ्यासी शैव सन्त भी गिने जाते हैं। इनके समय तक तृतीया मन्वादि तिथि है । उसी दिन मत्स्यजयन्ती मनानी बौद्ध सन्त धर्म, प्रज्ञा, शील तथा समाधि का मार्ग छोड़चाहिए। चतुर्थी को गणेशजी का लड्डुओं से पूजन कर चमत्कारिक सिद्धियों की प्राप्ति में लग गये थे। होना चाहिए। पञ्चमी को लक्ष्मीपूजन तथा नागों के नीति और औचित्य का विचार इनकी साधना में नहीं पूजन का भी विधान है। षष्ठी के लिए देखिए 'स्कन्द था। सिद्धों में सभी वर्गों के लोग सम्मिलित थे। अतः षष्ठी।' सप्तमी को दमनक पौधे से सूर्यपूजन की विधि । इनमें ब्राह्मणों के आचार-विचार का पालन नहीं होता है। अष्टमी को भवानीयात्रा होती है । इस दिन ब्रह्मपुत्र था। इनमें से बहुत से सुरापी और परस्त्रीसेवी थे। ये नदी में स्नान का महत्त्व है । नवमी को भद्रकाली की पूजा मांस आदि का भी सेवन करते थे। रजकी, भिल्लनी, होती है। दशमी को दमनक पौधे से धर्मराज की पूजा डोमिनी आदि इनकी साधिकाएं थीं। सिद्ध इनमें से का विधान है। शक्ल एकादशी को कृष्ण भगवान् का किसी एक को माध्यम बनाकर और उसके सहयोग से दोलोत्सव तथा दमनक से ऋषियों का पूजन होता है। वाममार्गीय उपचार करके यक्षिणी, डाकिनी, कर्णपिशा चिनी आदि को सिद्ध करते थे। यह सकाम साधना थी। महिलाएँ कृष्णपत्नी रुक्मिणी का पूजन भी करती हैं तथा सन्ध्या काल में सभी दिशाओं में पञ्चगव्य फेंकती हैं। इनमें से कुछ निष्काम निर्गुण ब्रह्म के भी उपासक थे, जो ध्यान द्वारा शून्यता में लीन हो जाते थे। इन सिद्धों में द्वादशी को दमनकोत्सव मनाया जाता है। त्रयोदशी को नारोपा, तिलोपा, मीनपा, जालन्धरपा आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव की पूजा चम्पा के पुष्पों तथा चन्दन लेप से की सिद्धों के चमत्कार लोक में प्रचलित थे। सिद्धों ने अपजाती है। चतुर्दशी को नृसिंहदोलोत्सव मनाया जाता है । भ्रंश अथवा प्रारम्भिक हिन्दी में अपने प्रिय विषयों पर दमनक पौधे से एकवीर, भैरव तथा शिव की पूजा की प्रारम्भिक पद्यरचना भी की है। जाती है। पूर्णिमा को मन्वादि, हनुमज्जयन्ती तथा चोल चूड़ाकरण)-प्रथम मुण्डन या चूड़ाकरण संस्कार को वैशाख स्नानारम्भ किया जाता है। चौल कहते हैं । यह बालक के जन्म के तीसरे वर्ष अथवा चौरासी पद-राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक गोस्वामी जन्म के एक वर्ष के भीतर किया जाता है । आश्वलायन हरिवंशजी ने तीन ग्रन्थ लिखे थे-'राधासुधानिधि', गृह्यसूत्र ( १.४ ) के अनुसार यह संस्कार शुभ मुहूर्त में 'चौरासी पद' एवं 'स्फुट पद'। चौरासी पद का अन्य विषम वर्ष में होना चाहिए । इसमें ब्राह्मण पुरोहित, नाई नाम 'हित चौरासी' भी है। हरिवंशजी का उपनाम एवं दूसरे सम्बन्धी आमंत्रित किये जाते हैं । बालक माता Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० च्यवन-छत्र पिता द्वारा मंडप में लाया जाता है तथा दोनों के बीच वैदिक काल की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण रह गयी बैठता है। पुरोहित बालक के पिता से संकल्प तथा नवग्रह- है । फिर भी सूर्यपूजा का प्रभाव है । उड़ीसा में पुरी के होम कराता है। पुनः वह बालक के निकट एक वर्गाकार समीप कोणार्क तथा गया में सूर्यमन्दिर है। प्रत्येक चिह्न बनाता तथा लाल मिट्टी से उसे चिह्नित करके उस रविवार को सूर्योपासक मांस, मछली नहीं खाते तथा इस पर चावल छिड़कता है। बालक फिर उस वर्गाकार चिह्न दिन को अति पवित्र मानते हैं । कात्तिक मास के रविवार के पास बैठता तथा नाई उसके केश, अपने अस्तुरे की विहार एवं बंगाल में सूर्योपासना के लिए अति महत्त्वपूर्ण पूजा होने के पश्चात् उतारता है। बीच में केवल वह माने जाते हैं। एक केशसमूह छोड़ देता है जो कभी नहीं काटा जाता सूर्यदेव के सम्मान में विहार में कात्तिक शुक्ल षष्ठी और जिसे शिखा कहते हैं। उत्सव का अन्त भोज एव के दिन एक पर्व मनाया जाता है। उस दिन सर्योपासक ब्राह्मणों को दान देकर किया जाता है। लोग व्रत करते हैं तथा अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्य देते __इस संस्कार का प्रयोजन केशपरिष्कार एवं केश अलं- हैं, पुनः दूसरे दिन प्रातः उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्य करण है। आयर्वेद में इस बात का उल्लेख है कि जहाँ देते हैं । यह कार्य किसी नदी के जल में या तालाब के देते हैं । यह कार्य किसी नदी के ज शिखा रखी जाती है उसके नीचे मनुष्यशरीर का मर्म जल में खड़े होकर स्नानोपरान्त करते हैं। श्वेत पुष्प, स्थल है। अतः उसकी रक्षा के लिए उसके ऊपर केश- चन्दन, सुपारी, चावल, दूध, केला आदि भी सूर्य को समूह का रखना आवश्यक है। चढ़ाते हैं । पुरोहित के बदले इस पूजा की क्रिया परिवार च्यवन, च्यवान-एक प्राचीन ऋषि के नाम च्यवन एवं का सबसे बड़ा वृद्ध ( विशेष कर बुढ़िया ) करता है। च्यवान है। ऋग्वेद (१.११६.१०-१३;११८,६; कहीं-कहीं मुसलमान भी यह पूजा करते है। ५.७४,५;७.६८,६;७१,५:१०.४९,४) में वे वृद्ध एवं छठी-गृह्यसूत्रों में षष्ठी एक शिशुघातिनी यक्षिणी मानी बलहीन पुरुष के रूप में वर्णित है, जिन्हें अश्विनों ने गयी है। इसको जन्म के छठे दिन तुष्ट करके विदा यौवन तथा बल प्रदान किया। शतपथ ब्राह्मण में कथा किया जाता है तथा शिशु के दीर्घायुष्य की कामना की दूसरे ढंग से दी गयी है। यहाँ च्यवन के शांति की। जाती है। पुत्री सुकन्या से विवाह करने की कथा है। उन्हें भृगु अन्य शुभ रूप में शिशु के जन्म के छठे दिन की रात अथवा आङ्गिरस कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा को माता षष्ठी या छठी माता की पूजा करती है कि भृगु के दूसरे पुत्र विदन्वन्त ने इन्द्र के विरुद्ध च्यवन है तथा जौ के आटे के रोट व चावल चीनी के साथ की सहायता की, जबकि इन्द्र इनसे अश्विनों के प्रति यज्ञ पकाकर देवी को चढ़ाती है । यह प्रथा विशेष कर चमारों करने से रुष्ट था। यह भी उल्लेखनीय है कि शतपथ- में पायी जाती है। दुसाध जाति में भी इस पूजा का ब्राह्मण में सुकन्या के परामर्श पर अश्विनीकुमार यज्ञ में महत्त्व है। वे भी छठी माँ की पूजा करते हैं । छठी की अपना भाग लेने आते हैं। किन्तु इन्द्र और च्यवन में पूजा के पहले पूजा करने वाले उपवास से अपने को समझौता हो गया होगा, जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण के एक पवित्र करते हैं तथा गान करते हुए नदी के तट पर उद्धरण से पता चलता है कि च्यवन ने शर्याति के ऐन्द्र जाते हैं। वहाँ नदी में पूर्व दिशा की ओर मुख करके महाभिषेक का शुभारम्भ कराया था । पञ्चविंश चलते रहते हैं जब तक सूर्योदय नहीं होता है । सूर्योदय के ब्राह्मण ( ११.५,१२,१९.३,६,१४.६,१०,११.८,११ ) में समय वे हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तथा रोट व फल सूर्य च्यवन को सामवेद का ऋषि कहा गया है। इन्हों वैदिक को चढ़ाते तथा स्वयं उसे प्रसाद स्वरूप खाते हैं। सन्दर्भो के आधार पर पुराणों में च्यवन-सम्बन्धी कई छत्र-देवताओं के अलङ्करण के लिये जो उपादान काम में कथाएं पायी जाती हैं। लाये जाते हैं उनमें एक छत्र भी है। यह राजत्व अथवा अधिकार का द्योतक है। राजपदसूचक उपकरणों में भी छठमाता-कार्तिक शुक्ल षष्ठी को 'छठमाता' कहते हैं और छत्र प्रधान है जो राज्याभिषेक के समय से ही राजा के इस दिन सूर्य की पूजा होती है। आजकल सूर्यपूजा का ऊपर लगाया जाता है। इसीलिए उसकी छत्रपति पदवी के प्रति उल्लेखनी के पर Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्द (बेदाङ्ग)-छन्दोग २७१ है। देवमूर्तियों के ऊपर प्रायः प्रभामण्डल और छत्र का है और इनमें से सबसे अधिक गायत्री छन्द का व्यवहार अङ्कन होता है । हुआ है। कात्यायन ने इन सात छन्दों के अनेक भेद ___ बौद्ध स्तूपों की हम्यिका के ऊपर भी छत्र अथवा छत्रा- स्थिर किये हैं। उन सब भेदों को जानने के लिए कात्यावलि ( कई छत्रों का समूह ) पायी जाती है । यन की रची सर्वानुक्रमणिका देखनी चाहिए। छन्द (वेवाङ्ग)-वेद के छः अङ्ग हैं-शिक्षा, कल्प, व्याक- इन्हीं सात छन्दों को मूल मानकर व्यावहारिक भाषा रण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द । जैसे मनुष्य के अङ्ग आँख, में अनन्त छन्दों का निर्माण हआ है। उत्तररामचरित में कान, नाक, मुँह, हाथ और पांव होते हैं, वैसे ही वेदों की लिखा है कि पहले-पहल आदिकवि वाल्मीकि के मुख से आँख ज्योतिष है, कान निरुक्त हैं, नाक शिक्षा है, मुख । लौकिक अनुष्टुप् छन्द की रचना हुई थी। इसके कुछ ही व्याकरण है, हाथ कल्प हैं तथा पाँव छन्द हैं। शिक्षा । दिन बाद आत्रेयी ने वनदेवता से बातों-बातों में और छन्द से ठीक-ठीक रीति से उच्चारण और पठन का इसकी चर्चा की। इस पर वनदेवता बोली, "क्या ज्ञान होता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य का छठा आश्चर्य की बात है ! यह तो वेद से अतिरिक्त किसी नये अङ्ग छन्द है । ऋग्वेद सम्पूर्ण पद्यमय है। सामवेद एवं छन्द का आविष्कार हो गया है।" इस कथा से जान पड़ता अथर्ववेद भी पद्यमय ही हैं। केवल यजुर्वेद में पद्य और है कि भवभूति के अनुसार पहला लौकिक छन्द अनुष्टप गद्य दोनों हैं। पद्य अथवा छन्दों की संख्या एवं प्रकार है और पहले लौकिक कवि वाल्मीकि थे। वाल्मीकिअगणित हैं। रामायण में भी इस तरह की कथा दी हुई है। परन्तु छन्द का प्रधान प्रयोजन भाषा का लालित्य है। गद्य वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, दूसरे सर्ग के १५वें को सुनकर कान और मन को वह तृप्ति नहीं होती जो श्लोक की टीका करते हुए रामानुज स्वामी यह प्रकट पद्य को सुनकर होती है। पद्य याद भी जल्दी होते हैं करते हैं कि लौकिक छन्दों का प्रयोग वाल्मीकि से पहले और बहुत काल तक स्मरण रहते हैं । साथ ही वे गम्भीर चल चुका था। से गम्भीर भाव संक्षेप में व्यक्त कर देते हैं। यह तो कात्यायन की सर्वानुक्रमणिका के बाद छन्दशास्त्र के छन्दों का साधारण गुण हुआ, परन्तु वेदाध्ययन में छन्द सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हुए। इन्होंने का ज्ञान अनिवार्य है। छन्दों को जाने विना वेदाध्ययन १,६१,६६,२१६ प्रकार के वर्णवृत्तों का उल्लेख किया पाप माना जाता है। है । संस्कृत साहित्य में इस भारी संख्या में से लगभग छन्दों को वेद का चरण बताया जाता है। जिन छन्दों ५० प्रकार के छन्द व्यवहार में आते हैं। अन्य लौकिक का प्रयोग संहिताओं में हुआ है वे और किसी ग्रन्थ में नहीं भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा बहुत प्रकार के छन्दों का पाये जाते । वेद के ब्राह्मण एवं आरण्यक खण्ड में वैदिक व्यवहार हुआ है। परन्तु उनकी गिनती वेदाङ्ग में नहीं है। छन्दों के विषय में बहुत सी कथाएँ आयी है पर उनसे छन्दस-वेद अथवा वेदों के सूस्तों के पवित्र पाठ को छन्दस् छन्द के विषय का विशेष ज्ञान नहीं होता । कात्यायन की कहते हैं । किन्हीं विद्वानों के मत में छन्दस् वेदों का प्राक्'सर्वानुक्रमणिका' में सात छन्दों का उल्लेख है : (१) संहिता रूप था जो संकलित न होकर केवल गान में सुरगायत्री ( २ ) उष्णिक् ( ३) अनुष्टुप् , (४) बृहती क्षित था । परन्तु सामान्यतः सम्पूर्ण वेद को ही छन्दस् (५) पंक्ति (६ ) त्रिष्टुप् और (७) जगती । गायत्री कहते हैं । वैदिक भाषा को भी छन्दस् कहा जाता था। छन्द में सब मिलाकर सस्वर २४ अक्षर होते हैं। वैदिक बौद्धों ने इसके प्रयोग का विरोध किया। प्रारम्भिक बौद्ध गायत्री छन्द त्रिपदा अर्थात् तीन चरणों का होता है। साहित्य में कहा गया है कि जो छन्दस् का प्रयोग करेगा इसी प्रकार २८ अक्षरों का उष्णिक् छन्द होता है । अनु- वह दुष्कृत (पाप) करेगा। ष्टुप् में ३२ अक्षर होते हैं । बृहती में ३६, पंक्ति में ४०, छन्दोग-सामवेद संहिता के मन्त्रों को गाने वाले छन्दोग त्रिष्टुप् में ४४ और जगती में ४८ अक्षर होते हैं। जान कहलाते हैं। इन्हीं छन्दोगों के कर्मकाण्ड के लिए जो आठ पड़ता है, जगती से बड़े छन्द वैदिक काल में नहीं बनते ब्राह्मण ग्रन्थ व्यवहार में आते हैं वे छान्दोग्य कहे जाते हैं । थे। वेद का बहुत भारी मन्त्रभाग इन्हीं सात छन्दों में ये सब आरण्यक ग्रन्थ 'छान्दोग्यारण्यक' नाम से प्रसिद्ध हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ - छागमुख- स्वामी कार्तिकेय का एक पर्याय । छागरथ ( छागवाहन ) अग्नि का पर्याय । अग्नि की मूर्तियों के अजून में छाग (बकरी या भेड़ उनका वाहन दिखाया छाहसा यज्ञ में जो छागवलि होती थी उसको छागहिंसा कहते थे । वैष्णव प्रभाव के कारण छागहिंसा कैसे बन्द हुई इस सम्बन्ध में महाभारत और पुरारों में कई कथाएँ पायी जाती हैं । पाञ्चरात्र मत का प्रथम अनुयायी राजा वसु था । उसने जो यज्ञ किया उसमें पशुवध नहीं हुआ । ऋषियों ने देवों को अप्रसन्न जानकर छागहिंसा के सम्बन्ध में जब वसु से प्रश्न किया, तब उसने देवों के अनुकूल ही कहा कि छागबलि देनी चाहिए । इससे ऋषियों ने उसे शाप दिया और वह भूविवर में घुस गया। वहां उसने अनन्य भक्ति पूर्वक नारायण की सेवा की, जिससे वह मुक्त हुआ ओर नारायण की कृपा से ब्रह्मलोक को पहुँचा । छान्दोग्य दे० 'छन्दोग' | छान्दोग्योपनिषद् — सामवेदीय उपनिषद् ग्रन्थों में छान्दोग्यो पनिषद् और केनोपनिषद् प्रसिद्ध हैं । छान्दोग्य में आठ अध्याय हैं छान्दोग्य ब्राह्मण का यह एक विशेषांश है। उसमें दस अध्याय हैं, परन्तु पहले दो अध्यायों में ब्राह्मणोपयुक्त विषयों पर विचार है। शेष आठ अध्याय उपनिषद् के हैं । छान्दोग्य ब्राह्मण के पहले अध्याय में आठ सूक्त आये हैं। ये सब सूक्त जन्म और विवाह की मंगलप्रार्थना के लिए हैं । यह उपनिषद् ब्रह्मतत्त्व के सम्बन्ध में सर्वप्रधान समझी जाती है। साथ ही यह छः प्राचीन उपनिषदों में से एक है । छान्दोग्योपनिषद्दीपिका यह माधवाचार्य द्वारा विरचित छान्दोग्योपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारिणी टीका है । छान्दोग्यब्राह्मण सामवेदीय ताण्डय शाखा के तीन ब्राह्मण ग्रन्थ हैं - 'पञ्चविंश', 'षड्विंश' एवं 'छान्दोग्य' । छान्दोग्य ब्राह्मण में गृह्य यज्ञकर्मों के प्रायः सभी मन्त्र संगृहीत हैं। इसे उपनिषद्, संहितोपनिषद्, ब्राह्मण अथवा छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं। इसमें सामवेद पढ़ने वालों की रुचि उत्पादन के लिए सम्प्रदायप्रवर्तक ऋषियों की कथा लिखी गयी है। इस ब्राह्मण के आठवें से लेकर दसवें प्रपाठक तक के अंश का नाम 'छान्दोग्योपनिषद्' प्रसिद्ध है । इसे 'मन्त्रब्राह्मण' भी कहते हैं । --- छागमुख-जगत् छान्दोग्यसूत्रदीप 'ब्राह्मायण' अथवा 'वसिष्ठसूत्र' (सामवेद के तीसरे श्रौतसूत्र ) की 'छान्दोग्यसूत्रदीप' नामक वृत्ति या टीका पायी जाती है, जिसके लेखक धन्वी नामक विद्वान् थे । छिन्नमस्तकगणपति- उत्तराखण्ड में जहाँ सोम नदी मन्दाकिनी में मिलती है, वहाँ से पुल पार एक मील पर छि मस्तक गणपति का मन्दिर है। यात्री इनके दर्शन के लिए आते रहते हैं । यह गणपति का वह रूप है जिसमें उनका सिर कटा हुआ दिखाया जाता है। इसकी कथा पुराणों में मिलती है। पार्वती ने अपने देहांश से गणपति का निर्माण किया था। एक बार पार्वती स्नानगृह में थीं, जिसकी रखवाली गणपति कर रहे थे। उसी बीच में शङ्करजी आये । गणपति ने उनको गृहप्रवेश करने से रोका । शङ्कर ने क्रुद्ध होकर गणपति का सिर काट दिया, जिससे वे छिन्नमस्तक हो गये । ज जगजीवनदास-सं० १८०७ वि० के लगभग जगजीवनदास ने सतनामी (सत्यनामी) पंथ का पुनरुद्धार किया। ये बाराबंकी जिले के कोटवा नामक स्थान के रहने वाले योगाभ्यासी एवं कवि थे । इनकी शिक्षाएँ इनके रचे हिन्दी पचों में प्राप्त हैं। इनके एक शिष्य टूलनदासजी भी कवि थे । जगत्- पुरुषसूक्त के प्रथम मन्त्र के अनुसार पुरुष इस सब जगत् में व्याप्त हो रहा है अर्थात् उसने अपनी व्यापकता से इस जगत् को पूर्ण कर रखा है । पुरुषसूक्त के ही १७वें मन्त्र के अनुसार जब जगत् उत्पन्न नहीं हुआ था तब ईश्वर की सामर्थ्य में यह कारण रूप से वर्तमान था । ईश्वर की इच्छानुसार उससे यह उत्पन्न होकर स्थूल नामरूपों में दिखाई पड़ता है । आचार्य शंकर के अनुसार परमार्थतः जगत् माविक और मिथ्या है । परन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है । जब तक मनुष्य संसार में लिप्त है तब तक संसार की सत्ता है । जब मोह नष्ट हो जाता है तब संसार भी नष्ट हो जाता है । आचार्य रामानुज ने ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बताते हुए कहा है कि जड़ जगत् ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगदीश जमवाड़ी जगत् का उपादान और निमित्त कारण है । ब्रह्म ही जगत् रूप में परिणत हुआ है, फिर भी वह विकाररहित है। जगत् सत् है, मिथ्या नहीं है । आचार्य मध्व के मतानुसार जगत् सत्, जड़ और अस्वतन्त्र है। भगवान् जगत् के नियामक हैं । जगत् काल की दृष्टि से असीम है । इन्होंने भी जगत् की सत्यता को सिद्ध किया है। वल्लभाचार्य के मतानुसार ब्रह्म कारण और जगत् कार्य है । कार्य और कारण अभिन्न हैं । कारण सत् है, कार्य भी सत् है, अतएव जगत् सन् है । हरि की इच्छा से ही जगत् का तिरोधान होता है। लीला के लिए अपनी इच्छा से ब्रह्म जगत् रूप में परिणत हुआ है । जगत् ब्रह्मात्मक है, प्रपञ्च ब्रह्म का ही कार्य है। आचार्य वल्लभ अविकृत परिणामवादी हैं। उनके मत से जगत् मायिक नहीं है और न भगवान् से भिन्न ही है । उसकी न तो उत्पत्ति होती है और न विनाश । जगत् सत्य है, पर उसका आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है। जगत् का जब तिरोभाव होता है तब वह कारण रूप से और जब आविर्भाव होता है तब कार्य रूप से स्थित रहता है। भगवान् की इच्छा से ही सब कुछ होता है । क्रीडा के लिए ही उन्होंने जगत् की सृष्टि की। अकेले क्रीडा सम्भव नहीं, अतएव भगवान् ने जीव और जगत् की सृष्टि की है। आचार्य बलदेव विद्याभूषण के मतानुसार ब्रह्म जगत् का कर्त्ता एवं निमित्तकारण है । वही उपादान कारण है। ब्रह्म अविचिन्त्य शक्ति वाला है । इसी शक्ति से वह जगत् रूप में परिणत होता है । जगदीश - जगत् का ईश (स्वामी), ईश्वर ऐश्वर्य परमात्मा का एक गुण है जिससे सम्पूर्ण विश्व का वह शासन करता है । जगन्नाथ उड़ीसा प्रदेश के अन्तर्गत पुरी स्थान में कृष्ण भगवान् का एक मन्दिर है, जिसका नाम है जगन्नाथमन्दिर | 'जगन्नाथ' (विश्व के स्वामी) कृष्ण का ही एक नाम है। उपर्युक्त मन्दिर में जगन्नाथ की मूर्ति के साथ बलराम एवं सुभद्रा की भी मूर्तियां है। आषाढ़ में रथयात्रा के दिन भगवान् जगन्नाथ की सवारी रथ में निकलती है और जनता का अपार मेला लगता है। यह चार धामों में से एक धाम है। प्रत्येक आस्तिक हिन्दू भगवान् जगन्नाथ का दर्शन करना अपना पवित्र कर्तव्य समझता है दे० 'पुरी' | | ३५ २७३ जगन्नाथमाहात्म्य --- यह ब्रह्मपुराण का एक अंश है। ब्रह्मपुराण को आरम्भ में ब्रह्माजी का माहात्म्यसूचक बताया गया है । स्कन्दपुराण में इसका प्रमाण भी दिया गया है । परन्तु अन्त में २४५ वें अध्याय के २० वें श्लोक में इसी पुराण में लिखा है कि यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में वैष्णव अवतारों की कथा की विशेषता और विशेष रूप से उत्कलवर्ती जगन्नायजी के माहात्म्य का कथन इस बात को परिपुष्ट करता है। जगन्नाथाश्रम स्वामी सम्प्रदाय के एक प्रमुख वेदान्ताचार्य | जगन्नाथाश्रम स्वामीजी सुप्रसिद्ध नृसिंहाश्रम स्वामी के गुरु थे । जगमोहन - उत्तर भारतीय मंदिर निर्माण कला (नागर शैली) के अन्तर्गत एवं विशेष कर उड़ीसा के मन्दिरों में गर्भगृह के सामने एक मण्डप होता है, जिसे जगमोहन कहते हैं। इस मण्डप में कीर्तन-भजन करने वाली मंडली आरती के समय या अन्य अवसरों पर गायन-वादन करती है। जङ्गम- 'जङ्गम' का व्यवहार दो अर्थों में होता है; प्रथम जङ्गम जाति के सदस्य के रूप में और द्वितीय एक अभ्यासी जङ्गम के अर्थ में केवल दूसरी कोटि वाले ही । पूजनीय होते हैं । अधिकांश जङ्गम विवाह करते एवं जीविका उपार्जित करते हैं । किन्तु जिन्हें अभ्यासी या आचार्य का कार्य करना होता है, वे आजन्म ब्रह्मचारी रहते हैं। उन्हें किसी मठ में रहकर शिक्षा तथा दीक्षा लेनी पड़ती है । सम्पूर्ण लिंगायत सम्प्रदाय इन जङ्गमों के अधीन होता है। जङ्गमों की दो श्रेणियों भी होती हैं-गुरुस्थल एवं विरक्त गुहस्थल का वर्णन पहले हो गया है, विरक्तों का वर्णन आगे किया जायगा । दे० 'लिङ्गायत' और 'वीरशैव' । जङ्गमबाड़ी काशी में भगवान् विश्वाराध्य का स्थान 'जङ्गमवादी' ( वाटिका) मठ के नाम से प्रसिद्ध है। यह मठ बहुत प्राचीन है। सर्वप्रथम मल्लिकार्जुन जङ्गम नामक शिवयोगी को काशिराज जयनन्ददेव ने विक्रम सं० ६३१ में प्रबोधिनी एकादशी के दिन इस मठ के लिए भूमिदान किया था । इस तरह यह ताम्रशासन लगभग पौने चौदह सौ बरसों का हुआ । इस मठ के पास १२ गाँव है। इनके सिवा गोदौलिया से लेकर दक्षिण में बंगाली टोला के डाकघर तक एवं पूर्व में अगस्त्यकुण्ड से पश्चिम में रामा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पुरा तक सारा स्थान 'जङ्गमबाड़ी' मुहल्ला कहलाता है, जो अधिकांश मठ की ही जागीर है। इसके सिवा मानसरोवर, धनकामेश्वर, मनः कामेश्वर एवं साक्षीविनायक के सामने का स्थान इसी मठ के अधीन है । यह मठ शिवलिङ्गमय है। इसके अधीन हरिश्चन्द्रपुत्र रोहिताश्व को जहाँ साँप ने काटा था वह बगीचा भी है । यह मठ काशी में सबसे पुराना, ऐतिहासिक और दर्शनीय है । जटायु - रामचन्द्रजी के वनवास का सहायक एक गरुडवंशज पक्षी, जो गृधराज कहलाता था। सीताहरण का विरोध करने पर रावण ने इसके पंख काट दिये थे। रामचन्द्रजी ने अपने हाथों इस पक्षी का अन्तिम संस्कार किया था । जन्मतिथिकृत्य प्रति वर्ष जन्मतिथि वाले दिन स्नान-ध्यान के पश्चात् पुरुष को गुरु देवगण, अग्नि, ब्राह्मण, मातापिता तथा प्रजापति का पूजन सम्मान आदि करना चाहिए । अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम, मार्कण्डेय ( इन सबको चिरंजीवी माना गया है) का पूजन करना चाहिए। मार्कण्डेय की निम्नलिखित मन्त्र से प्रार्थना करनी चाहिए : मार्कण्डेय महाभाग प्रकल्पान्तजीवन | चिरंजीवी यथा त्वं भो भविष्यामि तथा मुने । जन्मतिथि का उत्सव मनाने वाले को मिष्ट खाद्यपदार्थ खाना चाहिए किन्तु मांस वर्जित है । उस दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए तिलमिश्रित जल पीना चाहिए । दे० वर्ष कृत्यकौमुदी, ५५३ - ५६४; तिथितत्त्व, २०-२६; समयमयूख, १७५ । जन्माष्टमी - दे० 'कृष्णजन्माष्टमी' | जनक (विदेहराज ) - मिथिला के राजा, जिनको शतपय ब्राह्मण एवं बृहदारण्यकोपनिषद् में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । जैमिनीय ब्राह्मण एवं कौषीतकि उपनिषद् में भी इन्हें सम्मान्य स्थान प्राप्त है। ये याज्ञवल्क्य वाजसनेय एवं स्वेतकेतु आरुणेय आदि ऋषियों के समकालीन थे। अपनी उदारता एवं ब्रह्मसम्बन्धी विवादों में दिलचस्पी के कारण ये प्रसिद्ध है। ये काशी के राजा अजातशत्रु 'के भी समकालीन कहे जाते हैं । ये कुरु-पञ्चाल के ब्राह्मणों से समीपी सम्बन्ध रखते थे, जैसा कि याज्ञवल्क्य एवं श्वेतकेतु के उदाहरण से प्रकट है । उस समय दर्शन का विद्यापीठ कुरुपञ्चाल था । शतपथ ब्राह्मण में जनक के जटायु - जनमसालो ब्रह्मज्ञानी होने का उल्लेख है। इससे उनके जातिपरिवतन का बोध न होकर उनके ब्रह्मतत्त्वज्ञान का बोध होता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण एवं शांखायन श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है । कुछ विद्वानों के अनुसार उनका समय ६०० ई० पू० माना गया है । किन्तु यह तिथि सन्देहात्मक है, क्योंकि अजातशत्रु नाम के दो राजा थे, मगध एवं काशी के । विदेह के राजा जनक एवं सीता के पिता की एकता कम सन्देहात्मक है, किन्तु इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता। सूत्रों में जनक अति प्राचीनकालीन राजा माने गये हैं एवं उनके समय में पत्नी का वह सम्मानित स्थान नहीं था जैसा आगे चलकर हुआ भारतीय साहित्यिक और धार्मिक दार्शनिक परम्परा में जनक विदेहराज और सीता के पिता के रूप में ही प्रसिद्ध हैं, जो वाल्मीकिरामायण के प्रमुख पात्रों में से हैं । जनक ( सप्तरात्र यज्ञ ) पञ्चवित्राह्मण शाखा का एक श्रौतसूत्र है एवं एक गृह्यसूत्र । पहले श्रौतसूत्र का नाम माशक है। लाट्यायन ने इसे मशकसूत्र लिखा है । इस ग्रन्थ में जनक सप्तरात्र यज्ञ की चर्चा है, किन्तु सप्तरात्र यज्ञ जनक कौन थे, यह बतलाना कठिन है । जनकपुर विहार का एक वैष्णव तीर्थ । उपनिषत्कालीन ब्रह्मज्ञान तथा रामावत वैष्णव सम्प्रदाय दोनों से इसका सम्बन्ध है । जनकपुर तीर्थ का प्राचीन नाम मिथिला तथा विदेहनगरी है । सीतामढ़ी अथवा दरभंगा से जनकपुर २४ मील दूर नेपाल राज्य के अन्तर्गत है, जिसके चारों ओर पूर्वक्रम से शिलानाथ, कपिलेश्वर, कूपेश्वर, कल्याणेश्वर, जलेश्वर, क्षीरेश्वर तथा मिथिलेश्वर रक्षक देवताओं के रूप में शिवमन्दिर अब भी विद्यमान हैं। इसके चारों ओर विश्वामित्र, गौतम, बाल्मीकि और याज्ञवल्क्य के आश्रम थे, जो अब भी किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं महाभारत काल में यह जंगल के रूप में था, जहाँ साधु-महात्मा तपस्या किया करते थे । अक्षयवट के तल से श्रीरामपंचायतन मूर्ति प्राप्त हुई थी, वह यहाँ पधरायी गयी है । लोगों का विश्वास है कि इससे जनकपुर की ख्याति और बढ़ गयो । जनमसाखी सिक्ख धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक इसमें गुरु नानक के जीवन की कथाएँ प्राप्त होती हैं। ये जनमसाखियाँ अनेक हैं किन्तु कथाएं काल्पनिक हैं एवं + Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनमेजय-जम्भ २७५ उनके आधार पर नानक के जीवन के सम्बन्ध में निश्चय- जो जाबालिपुर चाहमान अभिलेखों में उल्लिखित है, वह पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। इससे भिन्न (जालोर) है। यहाँ प्राचीन आश्रम के जनमेजय-कुरुवंश का एक राजा, जो ब्राह्मण काल कोई चिह्न नहीं पाये जाते, परन्तु इसके पास का पनागर के अन्त में हुआ था। शतपथ ब्राह्मण में इसको अनेक (पर्णागार = पर्णकुटी) प्राचीन ऋषि-आश्रमों का स्मरण अश्वों का स्वामी कहा गया है, जो थकने पर मीठे पेय से ताजे किये जाते थे। शतपथ ब्राह्मण में उद्धृत गाथा एवं देवताल, जहाँ एक प्राकृतिक सरोवर के चारों ओर अनेक ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उसकी राजधानी आसन्दीवन्त मन्दिर बने हुए हैं और बैजनत्था जो तान्त्रिकों का प्रसिद्ध में थी। उसके उग्रसेन, भीमसेन एवं श्रुतसेन नामक मन्दिर है । वास्तव में नर्मदा ही यहां की पवित्र नदी है, भाइयों ने अश्वमेध यज्ञ द्वारा अपने को पापमुक्त कर जिसके किनारे कई पवित्र घाट हैं। इनमें ग्वारी घाट, पवित्र बनाया था। उसके अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित थे। तिलवारा घाट, लमेटा घाट, रामनगर, भेड़ाघाट आदि इन्द्रोत देवापि शौनक । ऐतरेय ब्राह्मण उसके पुरोहित का प्रसिद्ध हैं । भेड़ाघाट पर नर्मदा और वानगंगा का संगम नाम तुर कावशेय बताता है। है। इन दोनों के बीच में एक पहाड़ी के ऊपर गौरी___ महाभारत के अनुसार जनमेजय परीक्षित का पुत्र था। शङ्कर और चौसठ योगिनियों के प्रसिद्ध मन्दिर हैं। यहाँ परीक्षित को तक्षक ( नागों) ने मार डाला था। अपने पर कार्तिक पूर्णिमा को विशाल मेला लगता है। पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए जनमेजय ने जमदग्नि-ऋग्वेद में उल्लिखित धार्मिक ऋषियों में जमनागयज्ञ ( नागों के साथ संहारकारी युद्ध ) का आयोजन दग्नि का नाम आता है। कुछ मन्त्रों में इनका नाम मन्त्रकर नागों का विध्वंस किया। रचयिता के रूप में तथा एक मन्त्र में विश्वामित्र के सहजन्माष्टमीव्रत-भाद्र कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्णजन्मोत्सव योगी के रूप में उल्लिखित है। अथर्ववेद, यजुर्वेद के उपलक्ष्य में आधी रात तक निर्जल व्रत किया जाता एवं ब्राह्मणों में प्रायः इनका उल्लेख है। इनकी है। इस अवसर पर प्रत्येक वैष्णव मन्दिर तथा घरों में उन्नति तथा इनके परिवार की सफलता का कारण चतुश्री कृष्ण की झांकी सजायी जाती है, कीर्तन होता है तथा रात्र यज्ञ बताया गया है। अथर्ववेद में इनका सम्बन्ध अन्य मङ्गलोत्सव होते हैं। अत्रि, कण्व, असित एवं वीतहव्य से बताया गया है। जपसाहेब-'जपसाहेब' कुछ प्रार्थनाओं का संग्रह ग्रंथ है। यह शनःशेप के प्रस्ताबित यज्ञ के ये अध्वर्यु पुरोहित थे। हिन्दी में है एवं इसकी रचना गुरु गोविन्दसिंह ने की पौराणिक गाथाओं के अनुसार जमदग्नि परशुराम के थी। सिक्खों में इसका पारायण बहुत पुण्यकारी और पिता थे। हैहयों ने इनको अपमानित कर इनको कामधेनु पवित्र माना जाता है। गाय छीन ली थी। इसका प्रतिशोध परशराम ने लिया जपजी-यह सिक्ख धर्म का प्रसिद्ध नित्यपाठ का ग्रन्थ और उत्तर भारत के क्षत्रिय राजाओं को मिलाकर हैहयों है। इसमें पद्य एवं भजनों का संग्रह है। इन पदों को को परास्त और ध्वस्त किया। गुरु नानक ने भगवान् की स्तुति एवं अपने अनुयायियों जमदग्निकुण्ड (जमैथा)-अयोध्या से १६ मील दूर जमैथा की दैनिक प्रार्थना के लिए रचा था। गुरु अर्जुन ने अपने ग्राम गोंडा जिले में है। यहाँ जमदग्निकुण्ड नामक कुछ भजनों को इसमें जोडा तथा अत्य ग्रन्थ भी तैयार प्राचीन सरोवर है, जिसका जीर्णोद्धार किया गया है। किये । 'जपजी' सिक्खों की पाँच प्रार्थनापुस्तकों में से सरोवर के पास शिवमन्दिर तथा देवीमन्दिर है। प्रथम है तथा प्रातःकालीन प्रार्थना के लिए व्यवहृत पास में एक धर्मशाला है। यहाँ यमद्वितीया को मेला होता है। लगता है । कहा जाता है कि यहाँ कभी महर्षि जमदग्नि जबलपुर (जाबालिपुर)-प्राचीन त्रिपुरी नगरी का परवर्ती का आश्रम था। और उत्तराधिकारी नगर । आजकल यह मध्य प्रदेश का जम्भ-अथर्ववेद में 'जम्भ' का नाम एक रोग अथवा रोग प्रशासकीय, न्यायिक तथा शैक्षणिक केन्द्र है। स्थानीय के राक्षस के रूप में आता है। एक सूक्त में 'जङ्गिद' के परम्परा के अनुसार यहाँ जाबालि ऋषि का आश्रम था। पौधे से इसके अच्छा होने की चर्चा है। अन्यत्र इसे Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ 'संहनु' कहा गया है। वेबर ने इसे बच्चों के दाँत निक लने के समय की वेदना का रोग कहा है। ब्लूमफील्ड एवं व्हिटने ने इसे शरीर के टूटने एवं अकड़ने की बीमारी कहा है। जब यह शब्द इतिहास, पुराण, महाभारत और रामायण के लिए प्रयुक्त हुआ है । ये ग्रन्थ जय नाम से पुकारे जाते हैं, क्योंकि इन ग्रन्थों के अनुसार आचरण करनेवाला संसार से ऊपर उठ जाता है। दे० तिथितस्त्व, पृष्ठ ७१ पर उद्धृत 'जयति अनेन संसारम् ''''''''' । जयतीर्थ आचार्य मध्य के तिरोधान के ५० वर्ष बाद जयतीर्थ माध्य सम्प्रदाय के नेता हुए संस्थापक के ग्रन्थों के ऊपर रचे गये इनके भाष्य सम्प्रदाय के मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। इनके रथे ग्रन्थ है- 'तत्वप्रकाशिका' एवं 'न्यायसुधा', जो क्रमशः मध्वरचित ब्रह्मसूत्रभाष्य ( वेदान्तसूत्र ) एवं 'अनुव्याख्यान' के भाष्य हैं। जयदासप्तमी - रविवासरोय शुक्ल पक्ष की सप्तमी जया अथवा जयदा नाम से प्रसिद्ध है । इस दिन विभिन्न फल तथा फूलों से सूर्य का पूजन करने का विधान है । इस दिन उपवास, रात्रि को या एक समय अथवा अयाचित भोजन ग्रहण करना चाहिए। जयद्वादशी - पुष्य नक्षत्रयुक्त फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को जयद्वादशी कहा जाता है । इस दिन किया गया दान तथा तप करोड़ों गुना पुण्य प्रदान करता है । - जयदेव - संस्कृत गीतिकाव्य 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव का भक्त कवियों में, विशेष कर राधा के भक्तों में, मुख्य स्थान है । ये तेरहवीं शती वि० में हुए थे और बंगाल ( गौट) के राजा लक्ष्मणसेन के राजकवि थे। बंगाल में इन्हें निम्बार्क मत का अनुयायी माना जाता है । चैतन्य महाप्रभु जयदेव, चण्डीदास एवं विद्यापति के गीतों को बड़े प्रेम से गाते थे। 'राधाकृष्णगीत' नामक बंगला गीतों का संग्रह भी इन्हीं की रचना बताया है। जयदेव मिश्र - तेरहवीं शती वि० में इनका उदय हुआ था । ये न्यायदर्शन के आचार्य एवं 'तत्त्वालोक' नामक भाष्य के रचयिता थे। यह भाष्य गङ्गेश उपाध्याय रचित 'तत्त्वचिन्तामणि' पर है । जयन्तश्यायदर्शन के एक आचार्य जीवनकाल ९५० वि० के लगभग । इनकी 'न्यायमञ्जरी' न्यायदर्शन का विश्व जय जयरथ कोश है। जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण में 'जयन्त' नाम अनेक आचार्यों का बताया गया है : (१) जयन्त पाराशर्य ( पराशर के वंशज ) विपश्चित् के शिष्य थे तथा इनका उल्लेख एक वंशावली में हुआ है । (२) जयन्त वारक्य ( वरक के वंशज ) उसी वंश में कुबेर वारस्य के शिष्य थे। उनके पितामह भी उसी वंश में कंस वाक्य के शिष्य कहे गये हैं। (३) जयन्त वारक्य, सुयज्ञ शाण्डिल्य, सम्भवतः पूर्वोक से अभिन्न थे, किन्तु इनका उल्लेख दूसरी वंशावली में हुआ है। ( ४ ) जयन्त यशस्वी लौहित्य का भी नाम पाया जाता है । जयन्तव्रत - इस बिन इन्द्रपुत्र जयन्त का पूजन होता है। इससे व्रती स्वस्थ तथा सुखी रहता है । जयन्तविधि - उत्तरायण में रविवार को सूर्य पूजन करना चाहिए। इसको जयन्तविधि कहते हैं । जयन्ती - ( १ ) महापुरुषों के जन्मदिन के उत्सव को 'जयन्ती' कहते हैं । दे० 'अवतार' | ( २ ) भाद्र कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र होने पर 'जयन्ती' कहते हैं। दुर्गा देवी का नाम भी जयन्ती है। इन्द्र की पुत्री भी जयन्ती कहलाती है । जयन्तीकल्प - मध्वाचार्य रचित एक ग्रन्थ का नाम है । जयपौर्णमासी - इस व्रत में एक वर्ष तक प्रत्येक पूर्णिमा के दिन किसी वस्त्रादि पर अंकित नक्षत्रों सहित चन्द्रमा की पूजा होती है । जयव्रत युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले को 'जयव्रत' कहते हैं। हेमाद्रि व्रतकाण्ड, 'अनुष्ठान २.१५५ में विष्णुधर्मपुराण से एक श्लोक करते उद्घृत हुए कहते हैं कि पाँच गन्धर्वो की पूजा से विजय प्राप्त होती है । जयविधि - दक्षिणायन के रविवार को यह वारव्रत किया जाता है । उपवास, नक्त और इसी दिन एकभक्त करने से करोड़ों गुने पुण्यों की प्राप्ति होती है । जयरथ - काश्मीर शैव मतावलम्बी जयरथ १२वीं शती वि० में हुए थे । इन्होंने अभिनवगुप्त रचित 'तन्त्रालोक' का भाष्य किया है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयराम-जल २७७ जयराम-पारस्कर रचित 'कातीय गृह्यग्रन्थ' पर जयराम जराबोध-ऋग्वेद में केवल एक बार यह शब्द आया है की एक टीका बहुत प्रसिद्ध है। तथा इसका अर्थ सन्देहात्मक है। लुडविग ने इसको जयापञ्चमी–हेमाद्रि, १.५४३-५४६ के अनुसार विष्णु का ऋषि का नाम बताया है। ओल्डेनवर्ग इसे व्यक्तिवाचक पूजन ही इस व्रत में कर्तव्य है। मास का उल्लेख नहीं बताते हैं तथा इसका शाब्दिक अर्थ 'वृद्धावस्था में सावमिलता । इसका अर्थ है कि प्रत्येक मास में यह व्रत करना धानी' लगाते हैं। चाहिए। जराबोध शरीर की एक स्थिति है। इसके कई लक्षण जयापार्वतीव्रत-आश्विन शुक्ल त्रयोदशी को आरम्भ करके हैं, जैसे कान के सम्पुट पर के बालों का श्वेत होना । यह कार्तिक कृष्ण तृतीया को इस व्रत की समाप्ति की जाती इस बात की चेतावनी है कि गार्हस्थ्य जीवन से मनुष्य है। इसमें उमा तथा महेश्वर की पूजा का विधान है। को विरक्त होकर वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना चाहिए। २० वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। प्रथम पाँच वर्षों जतिल–'जतिल' (जंगली तिल) का उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में लवण निषिद्ध है। चावल का सेवन विहित है किन्तु (५.४.३.२) में अयोग्य यज्ञसामग्री के रूप में हुआ है । शतगन्ने की बनी शक्कर, गड अथवा अन्य कोई भी मिष्ट पथ ब्राह्मण (९.१.१.३) में जर्तिल के बीजों में ग्रहण वस्तु निषिद्ध है । यह व्रत गुर्जरों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। करने के गुण के साथ ही अग्रहणीय (क्योंकि वे अकर्षित जयावाप्ति-आश्विन की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि भूमि पर उगते हैं) गुण बताया गया है। से पूर्णिमा (कार्तिकी पूर्णिमा) तक यह व्रत होता है। जर्वर-पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सर्पोत्सव में 'जवर' विशेष कर कार्तिकी पूर्णिमा से पहले वाले तीन दिन विष्णु गृहपति थे। की पूजा होती है। इससे कठिन प्रकार के काम्य कर्मी में जरिता-वैदिक संहिता में 'जरिता' का उल्लेख एक सारङ्ग सफलता मिलती है, जैसे विवाद, न्यायिक झगड़े, प्रणय पक्षी के रूप में हुआ है। इससे संबन्धित मन्त्र का आशय सम्बन्ध आदि। महाभारत के ऋषि मन्दपाल की कथा से जोड़ा जाता है, जया तिथि-तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी जया तिथियाँ जिन्होंने 'जरिता' नामक सारङ्ग पक्षी (मादा) से विवाह हैं । निर्णयामृत, ३९ कहता है कि युद्ध के अवसरों की किया, तथा उनके चार पुत्र हुए। उन पुत्रों को ऋषि ने तैयारियों के लिए ये तिथियाँ उपयुक्त हैं और इन दिनों त्याग दिया तथा दावानल को सौंप दिया। साथ ही मन्दशक्ति प्रदर्शन अवश्य सफल होते हैं। पाल ने ऋग्वेद (१०.१४२) के अनुसार अग्नि की प्रार्थना जया सप्तमी-(१) शुक्ल पक्ष की सप्तमी को रोहिणी, की। यह पौराणिक अर्थ सन्देहात्मक है, यद्यपि सायण ने आश्लेषा, मघा, हस्त नक्षत्र होने पर इस व्रत का अनु- इसे ही ग्रहण किया है। ष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य की पूजा होती है । एक जरूथ-यह शब्द ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में उद्धृत है । वर्षपर्यन्त यह चलना चाहिए। मास को तीन भागों में इससे एक दानव का बोध होता है जिसे अग्नि ने हराया विभाजित करके प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न पुष्प, धूप तथा था । लुडविग तथा ग्रिफिथ ने 'जरूथ' को देवशत्रु बताया नैवेद्यों से पूजा करनी चाहिए। है, जो उस युद्ध में मारा गया, जिसमें ऋग्वेद के सप्तम जरा-(१) तान्त्रिक सिद्धान्तानुसार पाताल में शक्ति मण्डल के परम्परागत रचयिता वसिष्ठ पुरोहित थे । की अवस्थिति है, ब्रह्माण्ड में शिव निवास करते हैं. अन्त- जल-पुरुषसूक्त के १३वें मन्त्र (पद्भ्यां भूमिः) के अनुसार रिक्ष में काल की अवस्थिति है और इस काल से ही 'जरा' पृथ्वी के परमाणुकारणस्वरूप से विराट् पुरुष ने स्थूल की उत्पत्ति होती है। गीता के अनुसार जन्म, मृत्यु, पृथिवी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से जरा और व्याधि जीव के चार दुःख हैं, जिनका अनुदर्शन उत्पन्न किया। १७वें मंत्र में कहा गया है कि उस परमनुष्य को करना चाहिए (जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-दुःख- मेश्वर ने अग्नि के परमाणु के साथ जल के परमाणुओं दोषानुदर्शनम् । गीता १३.८)। को मिलाकर जल को रचा। (२) पुराणों में जरा नाम की राक्षसी का भी वर्णन धार्मिक क्रियाओं में जल का विशेष स्थान है। जल मिलता है। महाभारत में जरासन्ध की कथा प्रसिद्ध है। वरुण देवता का निवास और स्वयं भी देवता होने से पवित्र Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जलकृच्छवत-जानकीकुण्ड करने वाला माना जाता है। इसलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य जाति-इसका मूल अर्थ है जन्म अथवा उत्पत्ति को समामें स्नान, अभिषेक अथवा आचमन के रूप में इसका उप- नता । कहीं-कहीं प्रजाति, परिवार अथवा वंश के लिए योग होता है। भी इसका प्रयोग होता है। हिन्दुओं की यह एक विशेष जलकृच्छ व्रत-कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इस कृच्छू व्रत का संस्था है, जो वर्णव्यवस्था (समाज के चार वर्गों में विभाअनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णु पूजन का विधान जन) से भिन्न है। इसके आधार जन्म और व्यवसाय हैं है। जल में रहते हुए उपवास करना चाहिए । इससे विष्णु तथा समान भोजन, विवाह आदि प्रथाएँ हैं; जब कि वर्ण लोक की प्राप्ति होती है। का आधार प्रकृति के आधार पर कर्तव्य का चुनाव और तदनुकूल वृत्ति (शील और आचार) है। प्रत्येक जाति का जल जातूकl-जातूकर्ण्य के वंशज । इनका शांखायन श्रौत्र आचार परम्परा से निश्चित है जिसको धर्मशास्त्र और सूत्र (१६.२९.७) में काशी, विदेह एवं कोसल के राजाओं विधि मान्यता देते हैं । तीन प्रकार के आचारों-देशाचार, के पुरोहित अथवा गृहपुरोहित के रूप में उल्लेख हुआ है। जात्याचार तथा कुलाचार में से एक जात्याचार भी है। जहका-यह यजुर्वेद में अश्वमेध के एक बलिपशु के रूप महाभारत में 'जाति' शब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र के में उद्धृत किया गया है । सायण ने इसे 'बिलवासी क्रोष्टा' अर्थ में किया गया है। नहुषोपाख्यान में युधिष्ठिर का बिल में रहने वाला शृगाल कहा है। . कथन है : जाग्रगौरीपञ्चमी-श्रावण शुक्ल पञ्चमी को इस व्रत का जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते । अनुष्ठान होता है। इससे सर्पभय दूर होता है। इसमें संकरत्वात् सर्ववर्णानां दुष्पपरीक्ष्येति मे मतिः॥ रात्रिजागरण का विधान है । गौरी इसकी देवता हैं। सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः । जातकर्म-गृह्य संस्कारों में से एक संस्कार । यह जन्म के तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुयें तत्त्वदर्शिनः ॥ समय नाल काटने के पहले सम्पन्न होना चाहिए। इसमें [हे महामति सर्प (यक्ष = नहुष) ! 'जाति' का प्रयोग रहस्यमय मन्त्र पढ़े जाते हैं तथा शिशु को मधु और मक्खन यहाँ मनुष्यत्व मात्र में किया गया है । सभी वर्गों (जातियों) चटाया जाता है । इसके तीन प्रमुख अङ्ग हैं : प्रज्ञाजनन का इतना संकर (मिश्रण) हो चुका है कि किसी व्यक्ति की (बुद्धि को जागृत करना), आयुष्य (दीर्घ आयु के लिए (मूल) जाति की परीक्षा कठिन है । सभी जातियों के पुरुष प्रार्थना) और शक्ति के लिए कामना । यह संस्कार शिशु सभी ( जाति की ) स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते आये का पिता ही करता है । वह शिशु को सम्बोधित करते हुए हैं। इसीलिए तत्त्वदर्शी पुरुषों ने शील को ही प्रधान माना कहता है: है (जाति को नहीं)।] जातित्रिरात्रवत-ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से तीन दिन तक इस अङ्गाद् अङ्गात् संभवसि हृदयादधिजायसे । व्रत का अनुष्ठान होता है। द्वादशी को एकभक्त (एक आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम् ।। समय भोजन) रहना चाहिए । त्रयोदशी के बाद तीन दिन [अङ्ग-अङ्ग से तुम्हारा जन्म हुआ है, हृदय से तुम उपवास का विधान है । ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की उत्पन्न हो रहे हो । पुत्र नाम से तुम मेरे ही आत्मा हो । गणों सहित भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा फलों से पूजा करनी सौ वर्ष तक जीवित रहो।] फिर शिशु की शक्ति वृद्धि चाहिए । यव, तिल तथा अक्षतों से होम करना चाहिए। के लिए कामना करता है : सती अनसूया ने इसका आचरण किया था, अतएव तीनों अश्मा भव, परशुर्भव, हिरण्यमस्रुतं भव । देवताओं ने शिशु रूप से उनके यहाँ जन्म लिया ।। पत्थर के समान दृढ हो, परशु के समान शत्रुओं के जातकर्ण्य-शक्ल यजुर्वेद का प्रातिशाख्य सूत्र और उसकी लिए ध्वंसक बनो, शुद्ध सोने के समान पवित्र रहो।] अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस जातरूप--जाति के सौन्दर्य को रखनेवाला, स्वर्ण का एक प्रातिशाख्य में अनेक आचार्यों के नामों के साथ जातकर्य नाम, जिसका उल्लेख परवर्ती ब्राह्मणों एवं सूत्रों में हुआ . का भी नामोल्लेख हुआ है। है । धार्मिक क्रियाओं में इसका प्रायः उपयोग होता है। जानकीकुण्ड-चित्रकूट में कामदगिरि की परिक्रमा में पयबहुमूल्य होने के साथ यह पवित्र धातु भी है। स्विनी नदी के बायें तट पर पहले प्रमोदवन मिलता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावाल- जीव (जीवात्मा ) है। इसके चारों और पक्की दीवार और कोठरियाँ बनी हैं। बीच में दो मन्दिर हैं । प्रमोदवन से आगे पयस्विनी के तट पर जानकीकुण्ड है नदीतटवर्ती श्वेत पत्थरों पर यहाँ बहुत से चरणचिह्न बने हुए हैं। कहते हैं, वनवास काल में जानकीजी यहाँ स्नान किया करती थीं। जाबाल - याज्ञवल्क्य के एक शिष्य का नाम, यजुर्वेद अथवा वाजसनेयी संहिता का के साथ अध्ययन किया था । जाबालि - ( १ ) जाबालिसूत्र के रचयिता जाबालि मुनि थे । रामायण में जाबालि के कथन से यह प्रकट होता है कि रामायणकाल में भी नास्तिक बड़ी संख्या में होते थे । जिसने शुक्ल दूसरे चौदह शिष्यों (२) छान्दोग्य उपनिषद् में जाबालि की उत्पत्ति की कथा है । जब वे पढ़ने के लिए आचार्य के पास गये तो आचार्य ने पूछा, "तुम्हारे पिता का क्या नाम है और तुम्हारा गोत्र कौन सा है ?" जाबालि को यह ज्ञात न था । वे लौटकर माता बाला के पास गये और कहा, "माँ, आचार्य ने पूछा है कि मेरे पिता का नाम क्या है और मेरा गोत्र कौन है ?" माता ने उत्तर दिया, "पुत्र, तुम्हारे पिता का नाम ज्ञात नहीं। जब तुम गर्भ में आये तो में कई पुरुषों के यहाँ दासी का काम करती थी। मेरा नाम जवाला है। आचार्य से कह देना कि तुम मातृपक्ष से जाबालि हो ।” बालक ने आचार्य के पास जाकर ऐसा ही निवेदन किया । आचार्य ने कहा, "तुम सत्यवादी हो, तुम्हारा नाम सत्यकाम होगा ।" जाबालोपनिषद् - यह संन्यासवर्ग की उपनिषदों में से एक लघु उपनिषद् है । इस वर्ग की उपनिषदें वेदान्त सम्प्रदाय के संन्यासियों की व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी नियमावली के सदृश हैं। यह चूलिका एवं मैत्रायणी के पश्चात् काल की है, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्र की पूर्ववर्ती अवश्य है । इसका प्रारम्भ बृहस्पति और याज्ञवल्क्य के संवाद के रूप में होता है। जाम्बवान् – जाम्बवान् को 'जामवन्त' भी कहते हैं । ये रामायणवर्णित ऋक्षसेना के नायक हैं। इन्होंने सीता के अन्वेषण और रावण के साथ युद्ध में राम की सहायता की थी। ये राम के युद्धसचिव भी थे। इनकी गणना भी अर्द्ध देवयोनि में होती है । कहते हैं कि ये ब्रह्माजी के अंश से अवतरित हुए थे । २७९ जामदग्न्यद्वादशी – वंशाल शुक्ल द्वादशी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है जामवन्य के रूप में भगवान् विष्णु की सुवर्णप्रतिमा का पूजन करना चाहिए ( जामदग्न्य परशुरामजी हैं) राजा वीरसेन ने इसी व्रत के आचरण से नल की प्राप्ति की थी। जावा - (१) पाणिग्रहण संस्कार से प्राप्त धर्मपत्नी यह वैवाहिक प्रेम का विषय तथा जाति की परम्परा का स्रोत है । (२) जाया का एक अर्थ 'माता' भी है, अर्थात् 'जिससे उत्पन्न हुआ जाय' । क्योंकि पुरुष अपनी पत्नी से संतान के रूप में स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिए पत्नी एक अर्थ में अपने पति की माता है । जालन्धर - (१) प्राचीन काल में यह एक सिद्धपीठ या । यह अमृतसर से उत्तर पंजाब के मुख्य नगरों में है । कहा जाता है कि जालन्धर दैत्य की राजधानी यही थी । जालन्धर भगवान् शंकर द्वारा मारा गया । यहाँ विश्वपुरी देवी का मन्दिर है । इसे प्राचीन 'त्रिगर्ततीर्थ' कहते हैं । वैसे कांगड़ा के आस-पास का प्रदेश त्रिगर्त है । (२) जालन्धर एक दैत्य का नाम है। पुराणों में इसकी कथा प्रसिद्ध है। इसकी पत्नी वृन्दा थी, जिसके पातिव्रत से यह अमर था । वही आगे चलकर भगवान् विष्णु को अत्यन्त प्रिय हुई और तुलसी के रूप में उनको अर्पित की जाती है। दे० 'वृन्दा' । जिज्ञासावर्पण - श्रीनिवास (तृतीय) आचार्य श्रीनिवास द्वितीय के पुत्र थे। इन्होंने 'जिज्ञासादर्पण' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । यह विशिष्टाद्वैत मत का तार्किक ग्रन्थ है | जित्वा दीली-वृहदारण्यक उपनिषद् ( ४.१.२) में 'जित्वा शैली' विदेहराज जनक तथा याज्ञवल्क्य के समकालीन एक आचार्य कहे गये हैं । उनके मतानुसार 'वाक्' ब्रह्म है । जीव (जीवात्मा) - भारतीय दर्शन में जगत् को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया गया है— चेतन और जड़ । चेतन को ही 'जीव' संज्ञा दी गयी है जीवन, प्राण और चेतना के अर्थों में भी 'जीव' शब्द का प्रयोग होता है। जीव चेतन और भोक्ता है, जड़ जगत् उसके लिए उपभोग्य है । परन्तु यह विभाजन व्यावहारिक है । पारमार्थिक दृष्टि से विश्व में एक ही सत्ता है, वह है ब्रह्म जीव उसी का अंश और तबभिन्न है। जड़ जगत् भी इसी का प्रतिविम्ब अथवा स्फुलिङ्ग है । अध्यास अथवा अविद्या के कारण Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० वस्तुतः चिद्रूप ब्रह्मांश ही जगत् में जीवरूप धारण करता है । इसकी तीन अवस्थाएँ हैं - ( १ ) नित्यशुद्ध, जब वह ब्रह्मीभूत रहता है, (२) मुक्त, जब वह संसार में लिप्त होकर पुनः मुक्त होता है और (३) बढ, जब यह संसार में बद्ध होकर सुख-दुःख भोगता है । अद्वैत वेदान्त में सब कुछ एक ही है, जीवबहुत्व भ्रम मात्र है। ब्रह्म और जीव में तात्त्विक भेद नहीं है। सांख्य दर्शन पुरुष (जीव ) बहुत्व मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक पुरुष का बन्ध और मोक्ष पृथक्-पृथक् होता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन भी जीवबहुत्व के सिद्धान्त को मानते हैं। निम्बार्क के मत से जीव अणु है, विभु नहीं है, मुक्ता वस्था में भी वह जीव ही है । जीव का नित्यत्व चिरस्थायी है। मुक्त जीव भी अणु है। मुक्त एवं बद्ध जीव में यही भेद है कि बद्धावस्था में जीव ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं कर सकता। वह दृदय जगत् के साथ एकात्मकता को प्राप्त किये रहता है। किन्तु मुक्तावस्था में जीव ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। वह अपने को और जगत् को ब्रह्ममय देखता है। चैतन्य के मतानुसार जीव अणु चेतन है । ईश्वर गुणी है, जीव गुण है। ईश्वर देही, जीव देह है । जीवात्मा बहु और नानावस्थापन है । ईश्वर की विमुखता ही उसके बन्धन का कारण है और ईश्वर के सम्मुख होने से उसके बन्धन कट जाते हैं और उसे स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। जीव नित्य है । ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं तथा जीव, प्रकृति और काल ईश्वर के अधीन है। जीव ईश्वर की शक्ति एवं ब्रह्म शक्तिमान् है । जीव (गोस्वामी ) – ये चैतन्यदेव के शिष्य रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी के छोटे भाई के पुत्र थे । इन्होंने ही वैष्णवमत का प्रचार करने के लिए श्रीनिवास आदि को ग्रन्थों के साथ वृन्दावन से वंगदेश में भेजा था। जीव के गुरु सनातन थे । रूप तथा सनातन दोनों का प्रभाव जीव पर पड़ा था। चैतन्यदेव के अन्तर्धान होने के बाद जीव वृन्दावन चले आये और यहीं पर उनकी प्रतिभा का विकास हुआ। जीव ने वृन्दावन में राधा दामोदर के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। वे वहीं भगवान् में जीवन व्यतीत करने लगे । के भजन-पूजन जीव (गोस्वामी) - जुहू जीव ने रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृतसिन्धु की टीका, 'क्रमसन्दर्भ' के नाम से भागवत की टोका, 'षट्सन्दर्भ', 'भक्तिसिद्धान्त', 'गोपालचम्पू' और 'उपदेशामृत' नामक ग्रन्थों की रचना की। जीव गोस्वामी ने अपने सब ग्रन्थ अचिन्त्यभेदाभेद मत के अनुसार लिखे हैं। जीव गोस्वामी अठारहवीं शती वि० के मध्य से उसके अन्त तक जीवित थे। 'चैतन्यचरितामृत' के रचयिता कृष्णदास कविराज पर इनका बड़ा प्रभाव था । जीववशा सत्रहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक आचार्य और कवि ध्रुवदास द्वारा रचित यह एक ग्रन्थ है । पुत्र जीवत्पुत्रिका - आश्विन कृष्ण अष्टमी को उन स्त्रियों का यह निरम्बु प्रत होता है, जिनके पुत्र जीवित हों या जो के होने और जीते रहने की अभिलाषिणी हों । दे० 'जीवत्पुत्रिकाष्टमी' । जीवत्पुत्रिकाष्टमी आश्विन कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का - अनुष्ठान होता है । इसमें महिलाओं को अपने सौभाग्य (पत्नीत्व) तथा संतान के लिए शालिवाहन के पुत्र जीमूतवाहन की पूजा करनी चाहिए। जीवन्तिका व्रत कार्तिकी अमावस्या के दिन दीवार पर जीवन्तिका देवी की प्रतिमा अङ्कित करके पूजा करनी चाहिए । यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं के लिए है । जीवन्मुक्त शरीर के रहते हुए ही मोक्ष का अनुभव करनेवाला | जिसको तत्त्व का साक्षात्कार तो हो गया हो परन्तु प्रारब्ध कर्म का भोग शेष हो वह जीवन्मुक्त है। सचित और क्रियमाण कर्म उसके लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते । जीवन्मुक्त की दो अवस्थाएँ होती हैं -- ( १ ) समाधि और (२) उत्थान समाधि अवस्था में वह ब्रह्मलीन रहता है और शरीर को शववत् समझता है । उत्थान अवस्था में वह सभी व्यावहारिक कार्यों को अनासक्तभाव से करता है । जीवन्मुक्तिविवेक सुरेश्वराचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ इसमें ज्ञानियों की जीवित अवस्था के रहने पर भी उनकी मोक्ष की अवस्था का स्वरूप बतलाया गया है । - - ---- जुहू - एक यज्ञपात्र । ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द 'बड़े चमचे' के अर्थ में व्यवहृत हुआ है, जिससे देवों के लिए यज्ञ में घृत दिया जाता है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्येष्ठावत-जैनधर्म २८१ जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं है-दिगम्बर और श्वेताम्बर । 'दिगम्बर' का अर्थ है 'दिक् (दिशा) है अम्बर (वस्त्र) जिसका' अर्थात् नग्न । अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। इसका उद्देश्य है सभी प्रकार के संग्रह का त्याग। इस शाखा के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं मिल सकता, क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकतीं। इनके तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ नग्न होती है । इसके अनुयायी श्वेताम्बरों द्वारा मानित अङ्ग साहित्य को भी प्रामाणिक नहीं मानते । 'श्वेताम्बर' का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका' । श्वेताम्बर नग्नता को विशेष महत्त्व नहीं देते। इनकी देवमूर्तियाँ कच्छ धारण करती हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्य कोई मौलिक अन्तर नहीं हैं। एक तीसरा उपसम्प्रदाय सुधारवादी स्थानकवासियों का है जो मूर्तिपूजा का विरोधी और आदिम सरल स्वच्छ ज्येष्ठाव्रत-भाद्र शुक्ल अष्टमी को ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत का आचरण किया जाता है। इसमें ज्येष्ठा नक्षत्र की पूजा का विधान है । यह नक्षत्र उमा तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इससे अलक्ष्मी ( दारिद्रय तथा दुर्भाग्य ) दूर हो जाती है । उपर्युक्त योग के दिन रविवार होने पर यह नील ज्येष्ठा भी कहलाती है। जैत्रायण सहोजित-काठक संहिता (१८.५) में वर्णित एक राजा का विरुद, जिसने राजसूय यज्ञ किया था। कुछ विद्वानों ने जैत्रायण को व्यक्तिवाचक बताया है जो पाणिनि के सन्दर्भ 'कर्णादि गण' के अनुसार बना है । किन्तु कपि- ष्ठल संहिता में पाठ भिन्न है तथा इससे किसी भी व्यक्ति का बोध नहीं होता। यहाँ कर्ता इन्द्र है। यह पाठ अधिक सम्भव है तथा इससे उन सभी राजाओं का बोध होता है जो इस यज्ञ को करते हैं। जैन धर्म-वेद को प्रमाण न मानने वाला एक भारतीय धर्म, जो अपने नैतिक आचरण में अहिंसा, त्याग, तपस्या आदि को प्रमुख मानता है । जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है 'वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है।' अर्हन् अथवा तीर्थकर इसी प्रकार के व्यक्ति थे, अतः उनसे प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहलाया। जैन लोग मानते हैं कि उनका धर्म अनादि और सनातन है। किन्तु काल से सीमित है, अतः यह विकास और तिरोभाव-क्रम से दो चक्रों-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। उत्सर्पिणी का अर्थ है ऊपर. जाने वाली । इसमें जीव अधोगति से क्रमश : उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अवसर्पिणी में जीव और जगत् क्रमशः उत्तम गति से अधोगति को प्राप्त होते हैं। इस समय अवसर्पिणी का पाँचवा (अन्तिम से एक पहला) युग चल रहा है। प्रत्येक चक्र में चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। इस चक्र के चौबीसों तीर्थङ्कर हो चुके हैं । इन चौबीसों के नाम और वृत्त सुरक्षित हैं। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे, जिनकी गणना सनातनधर्मी हिन्दू विष्णु के चौबीस अवतारों में करते हैं । इन्हीं से मानवधर्म (समाजनीति, राजनीति आदि) की व्यवस्था प्रचलित हुई। तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ हुए जिनका निर्वाण ७७६ ई० पू० में हुआ। चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान महावीर हुए (दे० 'महावीर')। इन्हीं तीर्थङ्करों के उपदेशों और वचनों से जैन धर्म का विकास और प्रचार हुआ। तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक हैं। जैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलतः नैतिक हैं, जो अधिकतर पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं से गृहीत हैं। पाश्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है-(१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय और (४) अपरिग्रह । महावीर ने इसमें ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा । इस प्रकार जैन धर्म के पाँच महाव्रत हो गये। इनका आत्यन्तिक पालन भिक्षुओं के लिए आवश्यक है। श्रावक अथवा गृहस्थ के लिए अणुव्रत व्यावहारिक है। वास्तव में जैन धर्म का मूल और आधार अहिंसा ही है। मनसा वाचा कर्मणा किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है, अप्राणिवध उसका स्थूल रूप किन्तु अनिवार्य है। जीवधारियों को इन्द्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है । जिनकी इन्द्रियाँ जितनी कम विकसित है उनको शरीरत्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों (वनस्पति, कन्द, फूल, फल आदि) को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं, जैनधर्म में आचारशास्त्र का बड़ा विस्तार हुआ है । छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है । जैनधर्म में धर्मविज्ञान का प्रायः अभाव है, क्योंकि यह जगत् के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता। ईश्वर, देव, प्रेत, राक्षस आदि सभी का इसमें प्रत्याख्यान है। केवल तीर्थकर ही अतिभौतिक पुरुष है, जिनकी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ पूजा का विधान है। जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है और प्रकृति के प्रवाह को सनातन मानता है। इसका अध्यात्मशास्त्र काफी जटिल है। जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा का आधार नय ( अथवा न्याय = तर्क ) है । यह आगमपरम्परा का है, निगमपरम्परा का नहीं । इसके सप्तभङ्गी नय को 'स्वावाद' कहते हैं। यह वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानता है और इसके अनुसार सत्य सापेक्ष और बहुमुखी है। इसको 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसके अनुसार एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यस्य सादृश्य और विरूपत्व, सत्त्व और असत्त्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार किया जाता है । 1 जैन दर्शन के अनुसार विश्व है, बराबर रहा है और बराबर रहेगा । यह दो अन्तिम, सनातन और स्वतन्त्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं (१) जीव और (२) अजीव; एक चेतन और दूसरा जड़, किन्तु दोनों ही अज और अक्षर हैं । अजीव के पाँच प्रकार बतलाये गये हैं : (१) पुद्गल (प्रकृति) (२) धर्म (गति) (३) अधर्म ( अगति अथवा लय ) (४) आकाश (देश) और (५) काल (समय) । सम्पूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने है। उनमें सम्बन्ध जोड़ने वाली कड़ी कर्म है । कर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं । कर्म से सम्पृक्त होने के ही कारण आत्मा अनेक प्रकार के शरीर धारण करने के लिए विवश हो जाता है और इस प्रकार जन्म-मरण (जन्म-जन्मान्तर) के बन्धन में फँस जाता है। जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को पुद्गल (प्रकृति) के मिश्रण से मुक्त कर उसको कैवल्य (केवल शुद्ध आत्मा) की स्थिति में पहुँचाना कैवल्य की स्थिति में कर्म के बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को पुद्गल के अवरोधक बन्धनों से मुक्त करने में समर्थ होता है । इसी स्थिति को मोक्ष भी कहते हैं, जिसमें वेदना और दुःख पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और आत्मा चिरन्तन आनन्द की दशा में पहुँच जाता है । मोक्ष की यह कल्पना वेदान्ती कल्पना से भिन्न है। वेदान्त के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा का ब्रह्म में विलय हो जाता है, किन्तु जैन धर्म के अनुसार आत्मा का व्यक्तित्व कैवल्य में भी सुरक्षित और स्वतन्त्र रहता है। आत्मा स्वभावतः निर्मल जैमिनि जैमिनिभारत और प्रश है, किन्तु पुद्गल के सम्पर्क के कारण उत्पन्न अविद्या से भ्रमित हो कर्म के बन्धन में पड़ता है । कैवल्य के लिए नय के द्वारा 'केवल ज्ञान' प्राप्त करना आवश्यक है । इसके साधन हैं -- ( १ ) सम्यक् दर्शन (तीर्थङ्करों में पूर्ण श्रद्धा) (२) सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान ) ( ३ ) सम्यक् चारित्र्य ( पूर्ण नैतिक आचरण) । जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के अपने पुरुषार्थ द्वारा पार मार्थिक कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है । भारतीय धर्म और दर्शन को इसने कई प्रकार से प्रभावित किया । ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में अपने नय सिद्धान्त द्वारा न्याय और तर्कशास्त्र को पुष्ट किया । तत्त्वमीमांसा में आत्मा और प्रकृति को ठोस आधार प्रदान किया । आचारशास्त्र में नैतिक आचारण, विशेष कर अहिंसा को इससे नया बल मिला । जैमिनि - स्वतन्त्र रूप से 'जैमिनि' का नाम सूत्रकाल तक नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ वैदिक ग्रन्थों के विशेषण रूप में प्राप्त होता है । यथा सामवेद की 'जैमिनीय संहिता', जिसका सम्पादन कैलेण्ड द्वारा हुआ है, 'जैमिनीय ब्राह्मण' जिसका एक अंश जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण है । इनका काल लगभग चतुर्थ अथवा पञ्चम शताब्दी ई० पू० है ये पूर्वमीमांसा सूत्र' के रचयिता तथा मोमांसा दर्शन के संस्थापक थे । ये बादरायण के समकालीन थे क्योंकि मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों का ब्रह्मसूत्र में और ब्रह्मसूत्र के सिद्धान्तों का मीमांसादर्शन में खण्डन करने की चेष्टा की गयी है। मीमांसादर्शन ने कहीं-कहीं पर ब्रह्मसूत्र के कई सिद्धान्तों को ग्रहण किया है। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि जैमिनि वेदव्यास के शिष्य थे, इन्होंने वेदव्यास से सामवेद एवं महाभारत की शिक्षा पायी थी। मीमांसादर्शन के अतिरिक्त इन्होंने भारतसंहिता की, जिसे जैमिनिभारत भी कहते हैं, रचना की थी । इन्होंने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था । इन तीनों पिता-पुत्र-पौत्र ने वेदमंत्रों की एक-एक संहिता (संस्करण) बनायी, जिनका अध्ययन हिरण्यनाभ, पौष्यज्जि और आवस्य नाम के तीन शिष्यों ने किया। जैमिनिभारत जैमिनिभारत या जैमिनीयाश्वमेघ मूलतः संस्कृत भाषा में है, जिसका एक अनुवाद कन्नड में लक्ष्मीदेवपुर ने १७६० ई० में किया। इसमें युधिष्ठिर के - Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेमिनिश्रोतसूत्र-ज्ञान २८३ अश्वमेधयज्ञीय अश्व द्वारा भारत के एक राज्य से दूसरे स्वामी शंकराचार्य द्वारा स्थापित उत्तराम्नाय ज्योतिराज्य में घूमने का वर्णन है। किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य पीठ पूर्व काल में यहाँ विद्यमान था। इसी का अपभ्रंश भगवान् कृष्ण का यश वर्णन करना है। नाम जोशीमठ है। कालान्तर में शांकरमठ और उसकी जैमिनिश्रौतसूत्र-सामवेद से सम्बन्धित एक सूत्र ग्रन्थ, जो परम्परा लुप्त हो गयी । केवल नाम रह गया है, जिसके वैदिक यज्ञों का विधान करता है। आधार पर कुछ संत-महंत मैदान के नगरों में धर्म प्रचार जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण-ताण्ड्य और तलवकार शाखाएँ करते रहते हैं । सामवेद के अन्तर्गत हैं। उनमें जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ज्ञाति-मूल रूप में इस शब्द का अर्थ 'परिचित' है, किन्तु दूसरी शाखा से सम्बन्धित है । इसका अन्य नाम तलबकार ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ 'पितापक्षीय उपनिषद् ब्राह्मण भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह रक्तसम्बन्धी लोग' समझा गया है। पितृसत्तात्मक वैदिक ग्रन्थ प्रारम्भिक छ: उपनिषदों में गिना जाना चाहिए। समाज के गठन से भी इस अर्थ की पुष्टि होती है। यह जैमिनीय न्यायमालाविस्तर-जैमिनीय न्यायमाला तथा प्रायः जाति का पर्याय है। जमिनीय न्यायमालाविस्तर एक ही ग्रन्थ है। इसे विजय- ज्ञातपाप-भक्तिमार्ग में पाप दो प्रकार के कहे गये हैंनगर राज्य के मन्त्री माधवाचार्य ने रचा है । मीमांसा दर्शन। अज्ञात तथा ज्ञात । अज्ञात पापों को यज्ञों से दूर किया जा की पूर्णरूपेण ब्याख्या इस ग्रन्थ में हुई है। न्यायमाला . सकता ह, याद व यज्ञ निष्काम भाव से किय गय हो। जैमिनिसूत्रों के एक-एक प्रकरण को लेकर श्लोकबद्ध जहाँ तक ज्ञात पापों का प्रश्न है, जब मनुष्य भक्तिमार्ग कारिकाओं के रूप में है, विस्तर उसको विवरणात्मक में प्रविष्ट हो अथवा निष्काम कर्म में लीन हो, तो वह व्याख्या है । यह पूर्व मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी पापों को याद करता ही नहीं, और करता भी है तो उपादेयता इसके छन्दोबद्ध होने के कारण भी है। भगवान् उसे क्षमा कर देते हैं । भगवत्कृपा ही ज्ञात पाप मोचन का मार्ग है। जैमिनीय ब्राह्मण-कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग मन्त्रसंहिता के साथ ही ग्रथित है। उसके अतिरिक्त छ: ब्राह्मणग्रन्थ ज्ञान-जन्म से मनुष्य अपूर्ण होता है । ज्ञान के द्वारा ही उसमें पूर्णता आती है। ब्रह्मरूप परमात्मा की सत्ता में पृथक् रूप से यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओं के लिए महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों शक्तियाँ हैं। वे हैं ऐतरेय, कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार अथवा जैमिनीय, तैत्तिरीय एवं शतपथ । इस प्रकार जैमिनीय वर्तमान हैं । पादेन्द्रिय को अध्यात्म, गन्तव्य को अधिभूत और विष्णु को अधिदैव माना गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण कर्मकाण्ड का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । जैमिनीय शाखा-सामसंहिता की तीन मुख्य शाखाएँ बतायी वागिन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को क्रमशः अध्यात्म, वक्तव्य और रूप को अधिभूत, अग्नि और सूर्य को अधिदैव कहते जाती है-कौथुमीय, जैमिनीय एवं राणायनीय शाखा । हैं । मन को अध्यात्म, मन्तव्य को अधिभूत और चन्द्रमा जैमिनीय शाखा का प्रचार कर्णाटक में अधिक है। को अधिदैव कहा गया है । इसी क्रम से प्राणी के भी तीन जैमिनीय सूत्रभाष्य-सं० १५८२ वि० के लगभग 'जैमिनीय भाव होते हैं-आधिभौतिक शरीर, आधिदैविक मन और सूत्रभाष्य' नाम का ग्रन्थ वल्लभाचार्य ने जैमिनि के आध्यात्मिक बुद्धि । इन तीनों के सामञ्जस्य से ही मनुष्य मीमांसासूत्र पर लिखा था। में पूर्णता आती है । इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए ईश्वर जोशीमठ-बदरीनाथ धाम से २० मील नीचे जोशीमठ से निःश्वसित वेद का अध्ययन और अभ्यास आवश्यक है, अथवा ज्योतिर्मठ स्थित है । यहाँ शीतकाल में छ: महीने क्योंकि वेदमन्त्रों में मूल रूप से इसके उपाय निरूपित है। बदरीनाथजी की चलमूर्ति विराजमान रहती है। उस मनुष्य को आधिभौतिक शुद्धि कर्म के द्वारा, आधिदैविक समय यहाँ पूजा होती है । ज्योतीश्वर महादेव तथा भक्त शुद्धि उपासना के द्वारा तथा आध्यात्मिक शुद्धि ज्ञान के वत्सल भगवान् के दो मन्दिर हैं। ज्योतीश्वर शिवमन्दिर द्वारा प्राप्त होती है । आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त होने पर प्राचीन है। जोशीमठ से एक रास्ता नीती घाटी होकर परमात्मा के स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है और मनुष्य मानसरोवर कैलास के लिए जाता है। को मोक्ष मिल जाता है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ज्ञान वेद में जो कहा गया है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती, वह ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता का ही परिचायक है। ज्ञान तत्त्वज्ञानी गुरु की निःस्वार्थ सेवा तथा उसमें श्रद्धा रखने से प्राप्त होता है । तत्त्वज्ञानी गुरु अपने शिष्य की सेवा, जिज्ञासा तथा श्रद्धा से सन्तुष्ट होकर उसे ज्ञानोप- देश देते हैं । ज्ञान संसार में सर्वाधिक पवित्र वस्तु है। योगी को भी पूर्ण योगसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानमार्ग में प्रवेश करने का अधिकार साधनचतुष्टय से सम्पन्न व्यक्ति को दिया गया है। नित्यानित्यवस्तु- विवेक, इहामुत्र फलभोगविराग, शमदमादि षट्सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व साधनचतुष्टय कहलाते हैं। प्रथम साधन में आत्मा की नित्यता और संसार की अनित्यता का विचार आता है । दूसरे के अन्तर्गत इहलोक और परलोक सुखभोग के प्रति विरक्ति का भाव निहित है। तीसरे में शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान-षट् साधन । सम्पत्तियों का संचय होता है । तत्त्वज्ञान को छोड़ अन्य विषयों के सेवन से विरक्ति होना शम है, इन्द्रियों का दमन दम है, भोगों से निवृत्ति उपरति, शीतोष्ण, सुखदुःख आदि को सहन करने की शक्ति तितिक्षा, गुरु और शास्त्र में अटूट विश्वास श्रद्धा तथा परमात्मा के चिन्तन में एकाग्रता समाधान कहे जाते हैं । चौथा साधन मोक्ष प्राप्ति की इच्छा ही मुमुक्षुत्व है । ये चारों साधन ज्ञानमार्गी के लिए आवश्यक हैं, इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानप्राप्ति का अधिकारी नहीं है। ज्ञानप्राप्ति के श्रवण, मनन और निदिध्यासन तीन अंग है । गुरु से तत्त्वज्ञान सुनने का नाम श्रवण, उस पर चिन्तन करने का नाम मनन और मननकृत पदार्थ की उपलब्धि का नाम निदिध्यासन है। इनके सम्यक् और उचित अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार होता है । इस तरह प्रकृति के सभी भागों पर चिन्तन करते हुए साधक स्थूल से लेकर सूक्ष्म भावों तक अपना अधिकार स्थापित कर लेता है। सांख्यदर्शन के अनुसार पंच महाभूत, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच तन्मात्रा, मन, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति इन चौबीस तत्त्वों के आयाम में सृष्टि के प्राणी अर्थात् पुरुष प्रकृति का उपभोग करते हैं। पर वेदान्तप्रक्रिया में प्राणो की रचना के ज्ञानाथं पंचकोषों का निरूपण होता है । तदनुसार चेतन जीव के माया से मोहित होने की स्थिति आनन्दमय कोष है । बुद्धि और विचार विज्ञानमय, ज्ञानेन्द्रिय और मन मनोमय, पंचप्राण और कर्मेन्द्रिय प्राणमय तथा पांचभौतिक शरीर अन्नमय कोष है। इन कोषों में बद्ध होकर मनुष्य या जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है, लेकिन गुरु का उपदेश मिलने पर जब उसे अपने वास्तविक सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। जीव को माया से मुक्त कर मोक्ष तक पहुँचाने वाली क्रमिक स्थिति की सप्त ज्ञानभूमियाँ हैं । स्थूलदर्शी पुरुष के लिए सीधे आत्मा का ज्ञान हो जाना असम्भव है । इसलिए प्राचीन महर्षियों ने इन सप्त ज्ञानभूमियों के निरन्तर अभ्यास से क्रमोन्नति करते हुए विज्ञानमय सप्त दर्शनों के माध्यम से मोक्ष पाने का मार्ग बनाया । सप्त ज्ञानभूमियों के सप्त दर्शन हैं न्याय, वैशेषिक, पातञ्जल, सांख्य, पूर्वमीमांसा, दैवीमीमांसा और ब्रह्ममीमांसा । क्रमशः इनकी साधना करके जीव ज्ञानमय बुद्धि हो जाने से परम पद को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्ति के ये ही मूल तत्त्व हैं। ब्रह्ममीमांसा या वेदान्त विचार के द्वारा साधक को ब्रह्मज्ञान तब प्राप्त होता है जब वह देहात्मवाद से क्रमशः आस्तिकता की उच्चभूमि पर अग्रसर होता रहता है । अतः ऐसे साधक को एकाएक 'तत्त्वमसि', 'अहं ब्रह्मास्मि' का उपदेश नहीं देना चाहिए । ज्ञानमार्ग में प्रवेश चाहने वाले प्रथम अधिकारी के लिए अन्तःकरण के सुख-दुःख रूप आत्मतत्त्व के उपदेश का न्याय और वैशेषिक दर्शन में विधान है । देह को आत्मा समझने वाले व्यक्ति के लिए प्रथम कक्षा में देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञान ही पर्याप्त है। सूक्ष्म तत्त्व में सामान्य व्यक्ति का एकाएक प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए न्याय और वैशेषिक दर्शन में आत्मा और शरीर के केवल पार्थक्य का ही ज्ञान कराया जाता है । इससे साधक देहात्मवाद से विरत हो व्यावहारिक तत्त्वज्ञान की ओर अग्रसर होता है। इससे आगे बढ़ने पर सांख्य और पातञ्जल दर्शन आत्मा के और भी उच्चतर स्तर का दिग्दर्शन कराते हैं। इन दोनों दर्शनों के अनुसार सुख-दुःख आदि सब अन्तःकरण के धर्म हैं । पुरुष को वहाँ असंग और कूटस्थ माना गया है । पुरुष के अन्तःकरण में सुख-दुःखादि का भोक्तभाव औपचारिक है; तात्त्विक इसलिए नहीं है कि आत्मा निलिप्त और Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानकाण्ड-ज्ञानदेव २८५ निष्क्रिय है। इससे यही निष्कर्ष निकला कि सांख्य और और वस्तु से भी परे है। इसीलिए वह नित्य, विभु और पातञ्जल दर्शन द्वारा आत्मा की असंगता तो सिद्ध होती है पूर्ण है । राजयोगी इसी निर्गुण परब्रह्म भाव का अनुभव पर एकात्मवाद नहीं। करता है। साधक इस दशा में निर्विकल्प समाधि धारण सांख्य में बहुपुरुषवाद की कल्पना की गयी है। उससे करता है। परमात्मा की अद्वितीय उपलब्धि नहीं होती अपितु वह परब्रह्म परमात्मा स्वयं प्रकाशमान हैं, वे सर्वातीत और प्रत्येक पिण्ड में अलग-अलग कूटस्थ चैतन्य के रूप में निरपेक्ष हैं, उन्हीं के तेजोमय प्रकाश से सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ज्ञात होता है । इस तरह सांख्य की ज्ञानभूमि पुरुषमूलक और बिजली आदि प्रकाशमान हैं। इन सबका प्रतिपादन है। प्रकृति के अस्तित्व की स्वीकृति के कारण वहाँ प्रकृति वेदान्तभूमि में है। इसी की उपलब्धि से साधक को को अनादि और अनन्त कहा गया है। निर्वाण की प्राप्ति होती है। यहीं जीवनयज्ञ का अवसान इससे आगे बढ़ने पर मीमांसात्रय का आरम्भ होता है। और ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति है। कर्ममीमांसा या पूर्वमीमांसा में जगत् को ही ब्रह्म मानकर ज्ञानकाण्ड-वेदों में समुच्चय रूप से प्रधानतः तीन विषयों अद्वितीयता की सिद्धि की गयी है। इससे जीव द्वैतमय का प्रतिपादन हआ है-कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड एवं उपाजगत् से अद्वैतमय ब्रह्म की ओर जाता है। इसमें साधक सनाकाण्ड । ज्ञानकाण्ड वह है जिससे इस लोक, परलोक की गति ब्रह्म के तटस्थ स्वरूप की ओर होती है। इसके तथा परमात्मा के सम्बन्ध में वास्तविक रहस्य की बातें अनन्तर दैवीमीमांसा आती है। यह उपासनाभूमि है जो जानी जाती हैं। इससे मनुष्य के स्वार्थ, परार्थ तथा ब्रह्म की अद्वितीयता को प्रकृति के साथ मिश्रित कर परमार्थ की सिद्धि हो सकती है। उसको शुद्ध स्वरूप की ओर से दिखाती है । वहाँ ब्रह्म को वेदान्त, ज्ञानकाण्ड एवं उपनिषद् प्रायः समानार्थक ही जगत् की संज्ञा दी जाती है । इसमें आत्मा का यथार्थ ___ शब्द है। वेद के ज्ञानकाण्ड के अधिकारी बहुत थोड़े से ज्ञान प्रकृति के ज्ञान के साथ होता है । मुण्डकोपनिषद् के व्यक्ति होते हैं। अधिकांश कर्मकाण्ड के ही अधिकारी हैं। अनुसार ब्रह्मसत्ता अधः, ऊर्ध्व सर्वत्र व्याप्त है । श्वेताश्वत- ज्ञानचन्द्र-वैशेषिक दर्शन के एक आचार्य । लगभग ६६० रोपनिषद् में भी अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्र और वि० के लगभग ज्ञानचन्द्र ने 'दशपदार्थ' नामक प्रन्थ लिखा नक्षत्रादि को ब्रह्म का रूप माना गया है। वहाँ परमात्मा जो अपने मूल रूप में आजकल प्राप्त तो नहीं है, किन्तु को ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण चराचर के रूप में वर्णित किया इसका चीनी भाषा में अनुवाद पाया जाता है । प्रसिद्धि है गया है और उसे स्त्री-पुरुष, बालक, युवक और वृद्ध सभी कि यह चीनी अनुवाद ६४८ ई० में बौद्ध यात्री ह्वेनसाँग रूपों में देखा गया है। इस तरह दैवीमीमांसा दर्शन की के द्वारा किया गया था। ज्ञानभूमि में परमात्मा को व्यापक, निलिप्त, नित्य और ज्ञानतिलक-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की खोजों से अद्वितीय कार्यब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। प्राप्त और गुरु गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रन्थों में से यह ज्ञान की सप्तम भूमि ब्रह्ममीमांसा वेदान्त की है। एक है। इसमें निरूपित ब्रह्म निर्गण और प्रकृति से परे है। उसमें ज्ञानदास-सत्रहवीं शती वि० के मध्य ४० वर्षों में चैतन्यमाया अथवा प्रकृति का आभास भी नहीं है। माया उसके संप्रदाय के भक्ति आन्दोलन ने बँगला भाषा के अनेक नीचे ब्रह्म के ईश्वर भाव से सम्बद्ध है। वेद के अनुसार गीतकारों और काव्य रचयिताओं को जन्म दिया । ज्ञानपरमात्मा के चार पादों में से एक पाद मायाच्छन्न और दास भी उनमें से ऐसे ही साहित्यिक भक्त थे ।। सृष्टिविलसित है और शेष तीन माया से परे अमृत हैं। ज्ञानदेव-महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त, जो नाथ सम्प्रदाय के ये तीनों ब्रह्मभाव हैं। यहाँ सांख्य दर्शन का मायागत एक आचार्य माने जाते हैं । इनका एक नाम ज्ञानेश्वर भी पुरुषवाद नहीं है । यहाँ माया का लय है इसीलिए वेदान्त है । मराठी भाषा में भगवद्गीता पर इन्होंने बड़ी उत्तम में माया को अनादि कहकर भी सान्त कहा गया है । माया व्याख्या लिखी है जो 'ज्ञानेश्वरी' के नाम से प्रसिद्ध है। का एकान्त अभाव होने से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप पर- ये शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार वल्लभाचार्य के लगभग तीन ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। निर्गुण ब्रह्म देश, काल सौ वर्षों पहले कर चुके थे। इन्होंने अपने 'अमृतानुभव' Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ज्ञानपाद-ज्ञानी नामक वेदान्त ग्रन्थ में अपनी गुरुपरम्परा लिखी है। अद्वैतवादी संन्यासी को परास्त किया। अन्त में इन्होंने इन्हीं की परम्परा में प्रज्ञाचक्षु महाराज गुलाबराव जैसे वैष्णवमत स्वीकार कर लिया। प्रकाण्ड विद्वान् और महात्मा हुए। ज्ञानसागर नाम के कई ग्रन्थ हिन्दी आदि अन्य लोकज्ञानपाव-शैव आगमों एवं संहिताओं के चार विभाग हैं भाषाओं में भी उपलब्ध होते हैं। इनमें साम्प्रदायिक धर्म ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद एवं चर्यापाद । ज्ञानपाद में और दर्शन सम्बन्धी उपदेश पाये जाते हैं । दार्शनिक तत्त्वों का निरूपण है। ज्ञानसिद्धान्तयोग-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने गुरु ज्ञानप्रकाश-सुधारवादी या निर्गणवादी साहित्य सम्बन्धी गोरखनाथ रचित ३७ ग्रन्थों की खोज की है। 'ज्ञानएक ग्रन्थ, जिसको १८०७ वि० के लगभग जगजीवनदास सिद्धान्तयोग' भी उनमें से एक है । गोरखपन्थ के अध्ययन सन्त ने लिखा था। के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है। ज्ञानयाथार्थ्यवाद-अनन्ताचार्य अथवा अनन्तार्य रचित । ज्ञानस्वरोदय--चरणदासी पन्थ के संस्थापक महात्मा चरणविशिष्टाद्वैतवाद का एक ग्रन्थ । इसमें आचार्य की दार्श दास ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसमें पन्थ के धार्मिक निकता एवं पाण्डित्य का पूरा परिचय मिलता है। तथा दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा है । ज्ञानरत्नप्रकाशिका-तृतीय श्रीनिवास द्वारा रचित एक ज्ञानानन्द-वेदान्ताचार्य प्रकाशानन्द के गुरु स्वामी ज्ञानाग्रन्थ । इसमें दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन किया गया है। नन्द थे । इनका जीवनकाल १५वीं और १६वीं शती का ज्ञानलिङ्गजङ्गम-वीरशैवों के पाँच बड़े मठों में केदारेश्वर मठ अति प्राचीन है। परम्परानुसार यह ५००० वर्षों से मध्य भाग होना चाहिए । स्वामी ज्ञानानन्द की गणना छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् के वृत्तिकारों एवं टीकाकारों में अधिक पुराना है । महाराज जनमेजय के राजत्व काल में की जाती है। यहाँ के महन्त स्वामी आनन्दलिङ्ग जनम थे। इनके शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम हुए। मठ में प्राप्त एक ताम्र ज्ञानामृत-(१) माध्व संप्रदाय के एक ग्रन्थव्याख्याकार । शासन से पता लगता है कि महाराज जनमेजय ने एक आनन्दतीर्थ द्वारा तैत्तिरीयोपनिषद् पर लिखे गये भाष्य बड़ा क्षेत्र इस मठ को इसलिए दान दिया था कि उसकी पर ज्ञानामृत एवं अन्य आचार्यों ने टीकाएं लिखी हैं। . आय से आनन्दलिङ्ग के शिष्य ज्ञानलिङ्ग भगवान् केदा (२) 'ज्ञानामृत, गोरखनाथ लिखित एक ग्रन्थ भी है । रेश्वर की पूजा किया करें । उक्त जनमेजय पाण्डव परीक्षित ज्ञानामृतसागर-भागवतसम्प्रदाय का एक ग्रन्थ । 'नारदका पुत्र था, यह कहना कठिन है । यह कोई परवर्ती राजा पाञ्चरात्र' और 'ज्ञानामृतसार' से पता चलता है कि भागवत हो सकता है। धर्म की परम्परा बौद्धधर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो पायी । इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम साधन ज्ञानवसिष्ठम्-स्मार्त साहित्य के अन्तर्गत अध्यात्मज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ 'योगवासिष्ठ रामायण' बहुत उपयोगी है । 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति कही गयी है : रचना है। तमिल भाषा के प्रौढ़ ग्रन्थकार अलनन्तर स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पादसेवन, अर्चन और आत्मनिवेदन। मदवप्पत्तर ने संवत् १६५७ वि० में योगवासिष्ठ का ज्ञानावाप्तिवत-चैत्र पूर्णिमा के उपरान्त एक वर्ष तक इस तमिल में पद्य अनुवाद किया है, जिसका नाम 'ज्ञान व्रत का अनुष्ठान होता है । इसमें नृसिंह भगवान् की प्रतिवसिष्ठम्' है। दिन पूजा का विधान है। सरसों से होम तथा ब्राह्मणों को मधु, घृत, शर्करा से युक्त भोजन कराना चाहिए । वैशाख ज्ञानसमुद्र-दादूपन्थी सन्त सुन्दरदास (सं० १६५५-१७४६ पूर्णिमा से तीन दिन पूर्व उपवास तथा पूर्णिमा के दिन वि०) द्वारा रचित एक ग्रन्थ । सुवर्णदान का विधान है। इससे मेधा की वृद्धि होती है। ज्ञानसागर-यह ग्रन्थ आचार्य यज्ञमूर्ति (देवराज) द्वारा तमिल ज्ञानी-परमात्मा के स्वरूप, गुण, शक्ति आदि को जाननेभाषा में रचा गया है। इन्होंने स्वामी रामानुजाचार्य वाला व्यक्ति । प्रायः उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता इन तीन से १६ वर्षों तक शास्त्रार्थ किया, किन्तु अन्त में रामानुज प्रस्थानों के अध्ययन-चिन्तन और स्वानुभव से परमात्मा ने यामुनाचार्य के 'मायावादखण्डनम्' का अध्ययन कर इस का ज्ञान होता है । सांख्य, योग, वैशेषिक दर्शनों या अन्य Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानेश्वर-झ २८७ संत-महात्माओं के उपदेशों से भी आत्मा-परमात्मा, लोक- सूत्रकाल में ज्योतिष की गणना छः वेदाङ्गों में होने परलोक आदि का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार से लगी थी । यहाँ तक कि यह वेद का नेत्र तक समझा जाने अध्यात्मतत्त्ववेत्ता ही ज्ञानी कहे जाते हैं, जो भगवान् के लगा। वैदिक यज्ञों और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध हो सगुण या निर्गुण दोनों स्वरूपों के ज्ञाता हो सकते हैं। गया। यज्ञों के लिए उपयुक्त समय (नक्षत्रादि की गति ज्ञानेश्वर-प्राचीन भागवत सम्प्रदाय का अवशेष आज भी आदि) का ज्योतिष ही निर्देश करता है। भारत के दक्षिण प्रदेश में विद्यमान है। महाराष्ट्र में इस ज्योतिषतन्त्र-'सौन्दर्यलहरी' के ३१वें श्लोक की व्याख्या सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य सन्त ज्ञानेश्वर समझे जाते हैं । जिस में विद्यानाथ ने ६४ तन्त्रों की सूची लिखी है। ये दो तरह ज्ञानेश्वर नाथसम्प्रदाय के अन्तर्गत योगमार्ग के प्रकार के हैं, मिश्र एवं शुद्ध । इनमें 'ज्योतिषतन्त्र' मिश्र पुरस्कर्ता माने जाते हैं, उसी प्रकार भक्ति मार्ग में वे तन्त्र है। विष्णस्वामी संप्रदाय के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। फिर ज्योतिःसरतीर्थ-कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत भगवद्गीता की उपभी योगी ज्ञानेश्वर ने मराठी में 'अमृतानुभव' लिखा जो देशभूमि ज्योतिःसर अति पवित्र स्थान है। यहाँ पर एक अद्वैतवादी शैव परम्परा में आता है। निदान, ज्ञानेश्वर अति प्राचीन सरोवर 'ज्योतिःसर' अथवा 'ज्ञानस्रोत' सच्चे भागवत थे, क्योंकि भागवत धर्म की यही विशेषता है के नाम से प्रसिद्ध है। कि वह शिव और विष्णु में अभेद बुद्धि रखता है। ज्योतीश्वर-एक वेदान्ताचार्य, जिनका उल्लेख श्रीनिवास__ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता के ऊपर मराठी भाषा में एक दास ने विशिष्टाद्वैतवादी ग्रन्थ यतीन्द्रमतदीपिका में अन्य 'ज्ञानेश्वरी' नामक १०,००० पद्यों का ग्रन्थ लिखा है। आचार्यों के साथ किया है। इसका समय १३४७ वि० कहा जाता है। यह भी अद्वैत- ज्वालामुखी देवी-हिमाचल प्रदेश में स्थित एक तीर्थ, जो वादी रचना है किन्तु यह योग पर भी बल देती है । २८ पंजाब के पठानकोट से आगे ज्वालामुखीरोड स्टेशन से अभंगों (छंदों) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लगभग १३ मील दूर पर्वत पर ज्वालामुखी मन्दिर लिखी है जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का कहलाता है । यह शाक्त पीठ है। ज्वाला के रूप में यहाँ , उद्गार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख शक्ति का प्राकट्य देखा जाता है। समझे जाते हैं । इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है ज्वालेन्द्रनाथ-नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से एक ज्वालेन्द्रतथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। नाथ हैं । इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं दे० 'ज्ञानदेव' । है । संभवतः जालन्धरनाथ ही ज्वालेन्दु या ज्वालेन्द्रनाथ ज्ञानेश्वरी-भगवद्गीता का मराठी पद्यबद्ध व्याख्यात्मक हो सकते हैं। अनुवाद । 'ज्ञानेश्वरी' को चौदहवीं शती के मध्य में संत ज्ञानेश्वर ने प्रस्तुत किया। उनकी यह कृति इतनी व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का चतुर्थ अक्षर । कामधेनुतन्त्र प्रसिद्ध और सुन्दर हई कि आज भी धार्मिक साहित्य में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : का अनुपम रत्न बनी हुई है। इसमें गीता का अर्थ बहुत झकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरूपिणी ही हृदयग्राही और प्रभावशाली ढंग से समझाया गया है। रक्तविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम् ।। दे० 'ज्ञानदेव' तथा 'ज्ञानेश्वर' ।। पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्च प्राणात्मकं सदा । ज्योतिष-छः वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, त्रिबिन्दुसहितं वर्ण त्रिशक्तिसहितं तथा ।। छन्द और ज्योतिष) में से एक वेदाङ्ग ज्योतिष है। ज्योतिष वर्णोद्धारतन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं : सम्बन्धी किसी भी ग्रन्थ का प्रसंग संहिताओं अथवा झो झङ्कारी गुहो झञ्झावायुः सत्यः षडुन्नतः । ब्राह्मणों में नहीं आया है। किन्तु वेद के ज्योतिष विज्ञान अजेशो द्राविणी नादः पाशी जिह्वा जलं स्थितिः ॥ सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना और अध्ययनपरम्परा स्वतन्त्र विराजेन्द्रो धनुर्हस्तः कर्कशो नादजः कुजः । रूप से चलती रही है। दीर्घबाहुबलो रूपमाकन्दितः सुचक्षणः ।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ झषकेतन-टुप्टोका दुर्मुखो नष्ट आत्मवान् विकटा कुचमण्डलः । कलहंसप्रिया वामा अङ्गलीमध्यपर्वकः ।। ट-व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का प्रथम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में दक्षहासादृहासश्च पाथात्मा व्यञ्जनः स्वरः ॥ इसके स्वरूप का वर्णन निम्नाङ्कित है : इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है : .. टकारं चञ्चलापाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने । कोटि विद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ॥ सन्तप्तहेमवर्णाभां रक्ताम्बरविभूषिताम् ।। पञ्चप्राणयुतं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम् । रक्तचन्दनलिप्ताङ्गी रक्तमाल्यविभूषिताम् । त्रिशक्तिसहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ चतुर्दशभुजां देवीं रत्नहारोज्ज्वलां पराम् ॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये है : ध्यात्वा ब्रह्मस्वरूपां तां तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। टङ्कारश्च कपाली च सोमधा खेचरी ध्वनिः । झषकेतन-कामदेव का एक विरुद । इसका अर्थ है 'झष मुकुन्दो विनदा पृथ्वी वैष्णवी वारुणी नयः ।। (मकर अथवा मत्स्य) केतन (ध्वजा) है जिसका' । मकर दक्षाङ्गकार्द्धचन्द्रश्च जरा भूति पुनर्भवः । और मत्स्य दोनों ही काम के प्रतीक हैं। बृहस्पतिर्धनुश्चित्रा प्रमोदा विमला कटिः ।। झषाङ्क-दे० 'झषकेतन' । इसका अर्थ भी कन्दर्प अथवा काम- राजा गिरिमहाधनुर्माणात्मा सुमुखो मरुत् । देव है । हेमचन्द्र के अनुसार अनिरुद्ध का भी यह पर्याय है। टिप्पणी-किसी ग्रन्थ के ऊपर यत्र-तत्र विशेष सूचनिका झंसी (प्रतिष्ठानपुर)-प्रयाग से पूर्व गङ्गा के वाम तट जैसे उल्लेख को टिप्पणी' कहते हैं। पर यह एक तीर्थस्थल है। कहा जाता है कि यहाँ चन्द्र- 'महाभाष्य' की टीका उपटीकाएँ कैयट और नागेश ने वंशी राजा पुरूरवा की राजधानी थी। वर्तमान झूसी की लिखी हैं, उन पर आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र 'वैद्यनाथ बगल में त्रिवेणीसंगम के सामने पुराना दुर्ग है, जो अब पायगुण्डे ने 'छाया' नामक टिप्पणी लिखी है। बहुत से कुछ टीला और गुफा मात्र रह गया है। वहीं 'समुद्रकूप' ऐसे धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिन पर भाष्य, टीका, नामक कुआँ है, जो बड़ा पवित्र माना जाना है। हो टिप्पणी आदि क्रमशः पाये जाते हैं। सकता है कि इसका सम्बन्ध गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से टीका-ग्रन्थों के भाष्य अथवा विवरण लेखों को टीका भी हो। कहते हैं ( टीक्यते गम्यते प्रविश्यते ज्ञायते अनया इति )। वास्तव में 'टीका' ललाट में लगायी जानेवाली कुंकुम ज-व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का पञ्चम अक्षर । कामधेनु- आदि की रेखा को कहते हैं। इसी तरह प्राचीन हस्त तन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : लेखपत्र के केन्द्र या मध्यस्थल में मूल रचना लिखी सदा ईश्वरसंयुक्तं जकारं शृणु सुन्दरि । जाती थी और ऊर्ध्व भाग में ललाट के तिलक की तरह . रक्तविद्युल्लताकारं या स्वयं परकुण्डली ॥ मूल की व्याख्या लिखी जाती थी। मस्तकस्थ टीका के पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकं सदा । सादृश्य से ही ग्रन्थव्याख्या को भी टीका कहा जाने त्रिशक्तिसहितं वर्णं त्रिविन्दुसहितं सदा ।। लगा। ग्रन्थ के ऊर्ध्व भाग में टीका के न अमाने पर उसे तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं : पत्र के निचले भाग में भी लिख लिया जाता था। अकारो बोधनी विश्वा कुण्डली वियत् । टुप्टीका-पूर्वमीमांसा विषयक 'शबरभाष्य' पर अष्टम कौमारी नागविज्ञानी सव्याङ्गलं मखो वकः ।। शती वि० के उत्तरार्द्ध में कुमारिल भट्ट ने एक अनुभाष्य सर्वेशचूर्णिता बुद्धिः स्वर्गात्मा घर्घरध्वनिः । लिखा, जिसके तीन भाग हैं-(१) श्लोकवात्तिक (पद्यमय, धर्मेकपादः सुमुखो विरजा चन्दनेश्वरी ॥ अध्याय एक के प्रथम पाद पर) (२) तन्त्रवार्तिक (गद्य, गायनः पुष्पधन्वा च रागात्मा च वराक्षिणी ।। अध्याय एक के अवशेष तथा अध्याय दो व तीन पर) और एकाक्षरकोष में इसका अर्थ 'घर्घर ध्वनि' है। परन्तु (३) टुप्टीका (गद्य)। टुप्टीका अध्याय चार से बारह तक के मेदिनीकोष के अनुसार इसका अर्थ 'शुक्र' अथवा 'वाम- ऊपर संक्षिप्त टिप्पणी है। (पूर्वमीमांसा दर्शन कुल बारह गति' है। अध्यायों में है।) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठ-दुण्डिराजपूजा ठ-व्यञ्जन वर्गों के टवर्ग का द्वितीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है : ठकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डली मोक्षरूपिणी । पीतविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुण संयुतम् ॥ पञ्चदेवात्मकं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिबिन्दुसहितं वर्ण त्रिशक्तिसहितं सदा ।। तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नामों का उल्लेख है : ठः शन्यो मञ्जरी बीजः पाणिनी लाङ्गली क्षया । वनगो नन्दजो जिह्वा सुनञ्जो घूर्णकः सुधा ।। वर्तुलः कुण्डलो वह्निरमृतं चन्द्रमण्डलः । दक्षजानूरुपादञ्च देवभक्षो बृहमुनिः ।। एकपादो विभूतिश्च ललाटं सर्वमित्रकः । वृषघ्नो नलिनी विष्णुमहेशो ग्रामणी शशी ॥ -यह शिव का एक विरुद है । एकाक्षरकोश में इसका अर्थ 'महाध्वनि' तथा 'चन्द्रमण्डल' है। दोनों ही शिव के प्रतीक हैं। ठक्कुर-देवता का पर्याय । ब्राह्मणों (भूसुरों) के लिए भी इसका प्रयोग होता है। अनन्तसंहिता में इसी अर्थ में यह प्रयुक्त है : 'श्रीदामनामा गोपालः श्रीमान् सुन्दरठक्कुरः ।' प्रायः विष्णु के अवतार की देवमूर्ति को ठक्कुर कहते है। उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि 'ठाकुर' भी इसी से निकली है। किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठक्कुर या ठाकुर कहा जा सकता है, जैसे 'काव्यप्रदीप' के प्रख्यात लेखक को गोविन्द ठक्कुर कहा गया है, बंगाल के देवेन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ आदि महानुभाव ठाकुर कहे जाते थे। कौमारी शङ्करस्त्रासस्त्रिवक्रो मंगलध्वनिः । दुरूहो जटिली भीमा द्विजिह्वः पृथिवी सती ।। कोरगिरिः क्षमा कान्ति भिः स्वाती च लोचनम् ॥ डमरु-भगवान् शिव का वाद्य और मूल नाद (स्वर) का प्रतीक। यह 'आनद्ध' वर्ग का वाद्य है, जिसे कापालिक भी धारण करते हैं। 'सारसुन्दरी' (द्वितीय परिच्छेद) के अनुसार यह मध्य में क्षीण तथा दो गुटिकाओं पर आलम्बित होता है (क्षीणमध्यो गुटिकाद्वयालम्बितः)। सुप्रसिद्ध पाणिनीय व्याकरण के आरम्भिक चतुर्दश सूत्र शंकर के चौदह बार किये गये डमरुवादन से ही निकले माने जाते हैं। भगवान् की कृपा से पाणिनि मुनि को वह ध्वनि व्यक्त अक्षरों के रूप में सुनाई पड़ी थी। डाकिनी-काली माता की गण-देवियाँ । ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृति खण्ड) में कथन है : 'सार्द्धश्च डाकिनीनाञ्च विकटानां त्रिकोटिभिः ।। डाकिनो का शाब्दिक अर्थ है 'ड = भय उत्पन्न करने के लिए, अकिनी = वक्र गति से चलती है।' डामर-भगवान् शिव द्वारा प्रणीत शास्त्रों में एक डामर (तन्त्र) भी है । इसका शाब्दिक अर्थ है 'चमत्कार ।' इसमें भूतों के चमत्कार का वर्णन है। काशीखण्ड (२९.७०) में इसका उल्लेख है : “डामरो डामरकल्पो नवाक्षरदेवीमन्त्रस्य प्रतिपादको ग्रन्थः ।" [ दुर्गा देवी के नौ अक्षर वाले मन्त्र का रहस्यविस्तारक ग्रन्थ डामर कहलाता है । ] वाराहीतन्त्र में इसकी टीका मिलती है । इसके अनुसार डामर छः प्रकार का है : (१) योग डामर, (२) शिव डामर, (३) दुर्गा डामर, (४) सारस्वत डामर, (५) ब्रह्म डामर और (३) गन्धर्व डामर । कोटचक्र विशेष का नाम भी डामर है। 'समयामत' ग्रन्थ में आठ प्रकार के कोटचक्रों का वर्णन है, जिनमें डामर भी एक है । दे० 'चक्र' । ड-व्यञ्जन वर्णों के टवर्ग का तृतीय अक्षर । इसके स्वरूप का वर्णन कामधेनुतन्त्र में निम्नांकित है : डकारं चञ्चलापाङ्गि सदा त्रिगुण संयुतम् । पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ।। त्रिशक्ति सहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा । चतुर्ज्ञानमयं वर्ण आत्मादितत्त्व संयुतम् ।। पीतविद्युल्लताकारं डकारं प्रणमाम्यहम् ॥ तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम पाये जाते हैं : ढक्का-एक आनद्ध वर्ग का वाद्य, जो देवमन्दिरों में विशेष अवसरों पर बजाने के लिए रखा रहता है : "ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।" ढुण्डिराजपूजा-माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती को तिल के लड्डुओं का नैवेद्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ढौकन-तस्व गणेशजी को अर्पण करना चाहिए तथा बाद में प्रसाद शताब्दी में यह स्थान विद्यापीठ के रूप में पूर्ण रूप से रूप में वही ग्रहण करना चाहिए। तिल तथा घृत की प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के आहुतियों से होम का विधान है। 'दण्डि' की व्युत्पत्ति के विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। सिकन्दर के लिए दे० स्कन्दपुराण का काशीखण्ड, ५७.३२ तथा आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिकों के लिए प्रसिद्ध था। पुरुषार्थचि०, ९५। ढोकन-किसी देवता के अर्पण के लिए प्रस्तुत नैवेद्य या __ कोसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने तक्षशिला में ही शिक्षा पायी थी। उपहार को 'ढीकन' कहते हैं । कुरु तथा कोसलराज्य निश्चित संख्या में यहाँ प्रति वर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला के एक धनुःशास्त्र के ण-व्यञ्जनों का पन्द्रहवाँ तथा टवर्ग का पञ्चम अक्षर । विद्यालय में भारत के विभिन्न भागों से सैकड़ों राजकुमार कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : युद्धविद्या सीखने आते थे । पाणिनि भी इसी विद्यालय के णकारं परमेशानि या स्वयं परकुण्डली । छात्र रहे होंगे। जातकों में यहाँ पढ़ाये जाने वाले विषयों पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा ।। में वेदत्रयी एवं अठारह कलाओं एवं शिल्पों का वर्णन पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम् । मिलता है । सातवीं शती में जब ह्वेनसाँग इधर भ्रमण आत्मादितत्त्वसंयुक्त महामोहप्रदायकम् ॥ करने आया तब इसका गौरव समाप्त प्राय था। फाहियान तन्त्रशास्त्र में इसके चौबीस नामों का उल्लेख पाया को भी यहाँ कोई शैक्षणिक महत्त्व की बात नहीं प्राप्त जाता है : हुई थी। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्यकाल णो निर्गुणं रतिर्ज्ञानं जम्भनः पक्षिवाहनः । के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवतः बर्बर विदेशियों के जया शम्भो नरकजित निष्कला योगिनीप्रियः ।। आक्रमणों ने इसे नष्ट कर दिया, संरक्षण देना तो दूर की द्विमुखं कोटवी श्रोत्रं समृद्धिर्बोधिनी मता। बात थी। त्रिनेत्रो मानुषी व्योमदक्ष पादाङ्गुलेर्मुखः ।। तंजौर-कर्नाटक प्रदेश में कावेरी नदी के तट पर बसा माधवः शङ्खिनी वीरो नारायणश्च निर्णयः ।। हआ एक सांस्कृतिक नगर । चोलवंश के राजराजेश्वर णत्वदर्पण-तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थों में नामक नरेश ने यहाँ बृहदीश्वर नाम से भगवान् शंकर एक कृति । इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य के भव्य मन्दिर का निर्माण कराया था। इसकी स्थापत्य मतों का खण्डन है। रचनाकाल अठारहवीं शती वि० का कला बहुत प्रशंसनीय है। मन्दिर का शिखर २०० फुट उत्तरार्ध है। ऊँचा है और नन्दी की मूर्ति १६ फुट लम्बी, १३ फुट ऊँची तथा ७ फुट मोटी एक ही पत्थर की बनी है । इसका शिल्प कौशल देखने के लिए विदेश के यात्री भी तक्षक वैशालेय-तक्षक वैशालेय (विशाला का वंशज) आते हैं। तंजौर का दूसरा तीर्थ अमृतवापिका सरसी अप्रसिद्ध ऋत्विज है, जिसे अथर्ववेद (७.१०,२९) में है । पुराणों के अनुसार यह पराशरक्षेत्र है। पूर्वकाल में विराज का पुत्र कहा गया है। पञ्चविंश ब्राह्मण वणित यह तंजन नामक राक्षस का निवास स्थान था जिसको सर्पयज्ञ में इसे ब्राह्मणाच्छंसी पुरोहित कहा गया है। ऋषियों ने तीर्थ में परिवर्तित कर दिया। तक्षशिला-बृहत्तर भारत का एक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण तत्त्व-किसी वस्तु का निश्चित अस्तित्व या आन्तरिक विद्या केन्द्र तथा गन्धार प्रान्त की राजधानी । रामायण भाव । सूक्ष्म अन्तरात्मा से लेकर मानव और भौतिक में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित सम्बन्धों को सुव्यवस्थित करने वाले नियमों तक के लिए बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया इसका प्रयोग होता है। सांख्य के अनुसार प्रकृति के था । जनमेजय का सर्पयज्ञ इसी स्थान पर हुआ था (महा- विकास तथा पुरुष को लेकर छब्बीस तत्त्व है। त्रिक भारत १.३.२०)। महाभारत अथवा रामायण में इसके सिद्धान्त के अनुसार छत्तीस तत्त्व हैं, जिनका स्वरूप उस विद्याकेन्द्र होने की चर्चा नहीं है, किन्तु ई० पू० सप्तम समय प्रकट होता है जब शिव की चिच्छक्ति के विलास Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वकौमुदी-तत्त्वबोधिनी २९१ से प्रेरित होकर विश्व की सृष्टि होती है । इस प्रक्रिया को तत्त्वदीधिति-सं० १४५७ वि० में रघनाथ शिरोमणि ने 'आभास' भी कहते हैं। गङ्गेश उपाध्याय रचित 'तत्त्वचिन्तामणि' पर 'तत्त्वदीतत्वकौमदी-आचार्य वाचस्पति मिश्र ने सांख्यकारिका पर धिति' नामक व्याख्या लिखी है। तत्त्वकौमुदी नामक टीका की रचना की है। __ तत्त्वदीधितिटिप्पणी-जगदीश तर्कालङ्कार (१६६७ वि०) तत्त्वकौमुदीव्याख्या-चौदहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में ने रघुनाथ शिरोमणि के ग्रन्थ 'तत्त्वदीधिति' पर 'तत्त्वभारती यति ने बाचस्पतिमिश्ररचित 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' दीधितिटिप्पणी' नामक उपटीका लिखी है। पर 'तत्त्वकौमुदीव्याख्या' नामक टीका लिखी है। तत्त्वदीपन-१५वीं शती में आचार्य अखण्डानन्द ने अद्वैततत्त्वकौस्तुभ-भट्टोजि दीक्षितकृत 'तत्त्वकौस्तुभ' नामक वेदान्तीय शारीरकभाष्य सम्बन्धी ग्रन्थ 'पञ्चपादिकावेदान्त विषयक ग्रन्थ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन विवरण' के ऊपर 'तत्त्वदीपन' नामक निबन्ध लिखा । यह किया गया है। प्रामाणिक रचना मानी जाती है । तस्वदीपनिबन्ध-वल्लभाचार्य ने संस्कृत में अनेक विद्वत्तासत्त्वचिन्तामणि-नव्य न्याय पर मैथिल विद्वान् गङ्गेशो पूर्ण ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से उनके सिद्धान्तों को पाध्याय रचित यह अति प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अनेक आचार्यों संक्षेप में बतलाने वाली 'तत्त्वदीपनिबन्ध' पद्यमय ने इस पर टीका व भाष्य लिखे हैं। रचना है । इसके साथ 'प्रकाश' नामक गद्य टीकाभाग तत्वचिन्तामणिव्याख्या-वासुदेव सार्वभौम (१५३३ वि०) तथा सत्रह संक्षिप्त पुस्तिकाओं का भाग भी जुड़ा हुआ है । ने गङ्गेशोपाध्याय रचित प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ 'तत्त्वचिन्ता तत्त्वनिरूपण-पन्द्रहवीं शती में राम्य जामाता मुनि ने मणि' पर यह व्याख्या लिखी है। तत्त्वनिरूपण नामक निबन्ध लिखा । यह विशिष्टाद्वैतमंत तत्त्वटीका-वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ (१३२५ वि०) ने तत्त्व- का समर्थक सम्मान्य ग्रन्थ है । टीका नामक ग्रन्थ तमिल भाषा में लिखा । भगवद्भक्ति तत्त्वनिर्णय-श्रीवैष्णव मतावलम्बी वरदाचार्य (तेरहवीं इसमें कूट-कूटकर भरी है। शताब्दी विक्रमीय) ने 'तत्त्वनिर्णय' नामक ग्रन्थ की तत्त्वत्रय-(१) रामानुज स्वामी द्वारा प्रतिपादित विशि रचना की, जिसमें उन्होंने विष्णु को ही परब्रह्म सिद्ध ष्टाद्वैत मत के अनुसार सष्टि के मल में तीन तत्त्व है किया है । यह ग्रन्थ सम्भवतः अप्रकाशित है। (१) ईश्वर (सर्वात्मा) (२) चित् (आत्मा) और (३) तत्त्वप्रकाश-शिवज्ञान योगी ने, जो शैव सम्प्रदाय की अचित् (जड प्रकृति) । प्रथम तत्त्व ही वास्तव में तत्त्व है तमिल शाखा के प्रसिद्ध आचार्य थे, तमिल में 'तत्त्ववजो पिछले दो से विशिष्ट है। इन तीनों में सायुज्य पिरकाश' ( सं० तत्त्वप्रकाश ) नामक ग्रन्य की रचना की सम्बन्ध है। थी। रचनाकाल १८वीं शती है। तत्त्वप्रकाशिका-जयतीर्थ ( सं० १३९७ वि० ) ने आचार्य (२) लोकाचार्य दक्षिण के एक प्रसिद्ध वैष्णव विद्वान मध्वरचित 'वेदान्तसूत्रभाष्य' पर 'तत्त्वप्रकाशिका' नामक हो चुके हैं । इनका काल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी है, टीका लिखी है। इन्होंने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को समझाने के लिए 'तत्त्वत्रय' एवं 'तत्त्वशेखर' नामक ग्रन्थ लिखे। दोनों ग्रन्थ तत्त्वप्रदीपिका-(१) तेरहवीं शताब्दी में चित्सुखाचार्य ने सरल एवं सुबोध है। तत्त्वत्रय में चित्तत्त्व अथवा आत्म अपने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार तत्त्व, अचित्तत्त्व अथवा जडतत्त्व और ईश्वरतत्त्व का वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है। तत्वप्रदीपिका निरूपण करते हुए रामानुजीय सिद्धान्त का प्रतिपादन का दूसरा नाम 'चित्सुखी' है। (२) तेरहवीं शती के अन्तिम चरण में त्रिविक्रम ने किया गया है। मध्वाचार्य रचित 'वेदान्तसूत्रभाष्य' पर 'तत्त्वप्रदीपिका' तत्त्वत्रयचुलुकसंग्रह-पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य वरदगुरु नामक टीका लिखी है। ने रामानुज मत की व्याख्या करते हुए 'तत्त्वत्रयचुलुक- तत्त्वबोधिनी-सोलहवीं शताब्दी को उत्तरार्द्ध में अद्वैत मत संग्रह' नामक ग्रन्थ लिखा है। के प्रमुख आचार्य नृसिंहाश्रम स्वामी उद्भट दार्शनिक एवं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ तत्त्वमञ्जरी-तन्त्र प्रौढ पण्डित हुए हैं। इनकी रची 'तत्त्वबोधिनी' सर्व- तत्त्वसंख्यान-मध्वाचार्य के ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ 'तत्त्वज्ञात्ममुनिकृत 'संक्षेपशारीरक' की व्याख्या है । संख्यान' है। जयतीर्थाचार्य ने इसकी टीका लिखी है । तत्त्वमञ्जरी-सत्रहवीं शताब्दी में मध्व मतावलम्बी इसमें तत्त्वों की संख्या और व्याख्या दी गयी है। राघवेन्द्र स्वामी रचित यह एक ग्रन्थ है। तत्त्वसार-वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल ने 'तत्त्वसार' तत्त्वमसि-'तुम वह (ब्रह्म) हो' यह महावाक्य एवं 'मारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ लिखे । 'तत्त्वसार' छान्दोग्य उपनिषद् में आया है । उद्दालक आरुणि ने पद्य में है और उसमें उपनिषदों के उपदेश तथा दार्शनिक अपने पुत्र श्वेतकेतु को इसका उपदेश किया है । यह मत का सारांश दिया गया है। सम्पूर्ण औपनिषदिक ज्ञान का सार है। इसका तात्पर्य तत्त्वानुसन्धान-महादेव सरस्वती कृत 'तत्त्वानसन्धान' है व्यक्तिगत आत्मा का विश्वात्मा ( ब्रह्म) से अभेद । प्रकरणग्रन्थ है। इसके ऊपर उन्होंने 'अद्वैतचिन्तातत्त्वमार्तण्ड-अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तृतीय कौस्तुभ' नाम की टीका भी लिखी है । 'तत्त्वानुसन्धान' श्रीनिवास द्वारा रचित 'तत्त्वमार्तण्ड' विशिष्टाद्वैत मत बहुत सरल भाषा में लिखा गया है। इससे सहज में ही का समर्थन एवं अन्य मतों का खण्डन करता है। तसिद्धान्त का ज्ञान हो सकता है । रचनाकाल अठार हवीं शताब्दी है। तत्त्वमुक्ताकलाप-वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य लिखित यह तत्त्वालोक-तेरहवीं शती वि० के उत्तरार्ध में जयदेव ग्रन्थ तमिल भाषा में है। इसकी रचना विक्रम की चौद मिश्र ने 'तत्त्वालोक' नामक भाष्य गङ्गेश उपाध्याय रचित हवीं या पन्द्रहवीं शती में हुई। 'तत्त्वचिन्तामणि' पर लिखा है। तत्त्वबिन्दु-वाचस्पति मिश्र ने भट्टमत पर 'तत्त्वबिन्दु' तत्त्वालोकरहस्य-सत्रहवीं शती वि० के प्रारम्भ में मथुनामक टीका लिखी है।। रानाथ ने 'तत्त्वालोकरहस्य' नामक ग्रन्थ लिखा। इसे तत्त्वविवेक-इस नाम के दो ग्रन्थ हैं। प्रथम के रचयिता माथुरी या मथुरानाथी भी कहते हैं। यह तत्त्वचिन्ताअद्वैत सम्प्रदाय के आचार्य नृसिंहाश्रम है। यह ग्रन्थ मणि की एक टीका है। प्रकाशित है । इसमें केवल दो परिच्छेद हैं। इसके ऊपर तत्त्व रयर-सित्तर ( चित्तर अथवा सिद्ध ) शवों की ही उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की एक टीका तमिल शाखा है, जो मूर्तिपूजा की विरोधिनी है । १८वीं लिखी है । दूसरा ग्रन्थ मध्वाचार्य रचित है। शती वि० में इस मत के 'तत्तुव रयर' नामक आचार्य तत्त्ववैशारदी-सं ९०७ वि० के लगभग योगसूत्र पर ने मूर्तिपूजाविरोधी एक ग्रन्थ लिखा, जिसका नाम वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीका लिखी । त मिथ न तत्त्ववशारदा नामक टाका लिखा । 'अदङ्गन मरई' हैं । दार्शनिक शैली में यह 'योगसूत्रभाष्य' से भी उत्तम ग्रन्थ । तत्त्वोद्योत-मध्वाचार्य लिखित एक ग्रन्थ, जिसकी टीका है। इसमें विषयों का क्रम एवं शब्दयोजना शृंखला- जयतीर्थाचा ने लिखी है। बद्ध है। तन्त्र-तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। यह तीन तत्त्वशेखर-विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में वैष्णव भागों में विभक्त है : आगम, यामल एवं मुख्य तन्त्र । आचार्यों में प्रसिद्ध लोकाचार्य ने रामानुजीय सिद्धान्त वाराहीतन्त्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की समझाने के लिए दो ग्रन्थों की रचना की-तत्त्वत्रय' पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और एवं 'तत्त्वशेखर' । प्रथम में तत्त्वों का वर्गीकरण और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे आगम कहते व्याख्या तथा द्वितीय में उनके उच्चतर दार्शनिक पक्षों का है। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, विवेचन है। वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं । तत्त्वसमास-सांख्यदर्शन का संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ । इसमें सांख्य- जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, सिद्धान्तों का निरूपण 'सांख्यकारिका' से भिन्न शैली में ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, किया गया है । कहा जाता है कि कपिल मुनि की मुख्य राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक रचना यही है। नियमों का वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहलाता है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्त्र-तन्मात्रा २९३ इस शास्त्र के सिद्धान्तानुसार कलियुग में वैदिक मन्त्रों, तन्त्र बौद्ध तन्त्रों से भी पहले प्रकटित हए हैं, इसमें जपों और यज्ञों आदि का फल नहीं होता। इस युग में सन्देह नहीं। सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए तन्त्रशास्त्र में तन्त्रों के मत से सबसे पहले दीक्षा ग्रहण करके तान्त्रिक वर्णित मन्त्रों और उपायों आदि से ही सफलता मिलती कार्यों में हाथ डालना चाहिए । बिना दीक्षा के तान्त्रिक है । तन्त्र शास्त्र के सिद्धान्त बहुत गुप्त रखे जाते हैं और कार्य में अधिकार नहीं है। इसकी शिक्षा लेने के लिए मनुष्य को पहले दीक्षित होना ___ तान्त्रिक गण पाँच प्रकार के आचारों में विभक्त हैं, ये पड़ता है। आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण श्रेष्ठता के क्रम से निम्नोक्त हैं : वेदाचार, वैष्णवाचार, आदि के लिए तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों के लिए शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं तन्त्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। कौलाचार । ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं । यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों (देवी-उपासकों) का है तन्त्रचूडामणि-कृष्णदेव निर्मित 'तन्त्रचूडामणि' प्रसिद्ध और इसके मन्त्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते तान्त्रिक ग्रन्थ है। हैं । जैसे-ह्रीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, कं आदि । तान्त्रिकों का तन्त्ररत्न--पार्थसारथि मिश्र रचित यह जैमिनिकृत 'पूर्वपञ्च मकार सेवन (मद्य, मांस, मत्स्य आदि) तथा चक्र- मीमांसासूत्र' की टीका है। रचनाकाल लगभग १३०० पूजा का विधान स्वतंत्र होता है । अथर्ववेद में भी मारण, ई० है। मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का विधान है। तन्त्रराज-यह तान्त्रिक ग्रन्थ अधिक सम्मान्य है। इसमें परन्तु कहते हैं कि वैदिक क्रियाओं और तन्त्र-मन्त्रादि लिखा है कि गौड़, केरल और कश्मीर इन तीनों देशों के विधियों को महादेवजी ने कीलित कर दिया है और लोग ही विशुद्ध शाक्त हैं। भगवती उमा के आग्रह से कलियुग के लिए तन्त्रों की तन्त्रवार्तिक-भट्टपाद कुमारिल रचित यह ग्रन्थ पूर्वमीमांरचना की है । बौद्धमत में भी तन्त्र ग्रन्थ है । उनका सादर्शन के शाबर भाष्य का समर्थक तथा विवरणात्मक प्रचार चीन और तिब्बत में है। हिन्दू तान्त्रिक उन्हें है। इसमें प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद से लेकर द्वितीय उपतन्त्र कहते हैं। और तृतीय अध्याय तक भाग की व्याख्या है। प्रथम तन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति कब से हई इसका निर्णय नहीं अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या 'श्लोकवार्तिक' में की हो सकता। प्राचीन स्मतियों में चौदह विद्याओं का गयी है। उल्लेख है किन्तु उनमें तन्त्र गृहीत नहीं हुआ है। इनके तन्त्रसार-इसकी रचना संवत् १८६० वि० में मानी जाती सिवा किसी महापुराण में भी तन्त्रशास्त्र का उल्लेख नहीं है। इसमें दक्षिणमार्गीय आचारों का विधान है। है। इसी तरह के कारणों से तन्त्रशास्त्र को प्राचीन काल सुन्दर श्लोकों से परिपूर्ण इसके पृष्ठों में अनेक यन्त्र, में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता। अथर्ववेदीय चक्र एवं मण्डल निर्मित हैं। इसका बङ्गाल में अधिक नृसिंहतापनीयोपनिषद् में सबसे पहले तन्त्र का लक्षण प्रचार है। देखने में आता है । इस उपनिषद् में मन्त्रराज नरसिंह- तन्त्रसारसंग्रह-यह मध्वाचार्य द्वारा प्रणीत ग्रन्थों में से अनुष्टुप् प्रसंग में तान्त्रिक महामन्त्र का स्पष्ट आभास एक है। सूचित हुआ है । शङ्कराचार्य ने भी जब उक्त उपनिषद् के तन्त्रामृत-'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित तन्त्रसूची के भाष्य की रचना की है तब निस्सन्देह वह वि० की ८वीं अन्तर्गत यह तन्त्र ग्रन्थ है । शताब्दी से पहले की है । हिन्दुओं के अनुकरण से बौद्ध तन्त्रालोक-अभिनवगुप्त (कश्मीरी शैवों के एक आचार्य, तन्त्रों की रचना हुई है। वि० की १०वीं शताब्दी से ११वीं वि० शती) द्वारा लिखित 'तन्त्रालोक' शैवमत का १२वीं शताब्दी के भीतर बहुत से बौद्ध तन्त्रों का तिब्बतीय पूर्ण रूप से दार्शनिक वर्णन उपस्थित करता है। भाषा में अनुवाद हुआ था । ऐसी दशा में मूल बौद्ध तन्त्र तन्मात्रा-'पञ्च तत्त्वों' वाला सिद्धान्त सांख्यदर्शन में भी वि० की ८वीं शताब्दी के पहले और उनके आदर्श हिन्दू ग्रहण किया गया है । यहाँ तत्त्वों का विकास दो विभागों Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ तप के रूप में दिखाया गया है । वे हैं 'तन्मात्रा' (सूक्ष्म तत्व) एवं 'महाभूत' (स्थूल तत्त्व) । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्राएँ तथा आकाश, वायु, तेज, जल और। पृथ्वी महाभूत हैं । तप (१)-उपभोग्य विषयों का परित्याग करके शरीर और मन को दृढतापूर्वक सन्तुलन और समाधि की अवस्था में स्थिर रखना ही तप है। इससे उनकी शक्ति उद्दीप्त होती है । तप की विशुद्ध शक्ति द्वारा मनुष्य असाधारण कार्य करने में समर्थ होता है । उसमें अद्भुत तेज उत्पन्न होता है । शास्त्र की दृष्टि से तेज (सामर्थ्य) दो प्रकार का है : (१) ब्रह्मतेज और (२) शास्त्रतेज । पहला तप के द्वारा और दूसरा त्याग के द्वारा समृद्ध होता है। साधन की दृष्टि से तप के तीन प्रकार है-शारीरिक, वाचिक और मानसिक । देव, ब्राह्मण, गुरु, ज्ञानी, सन्त और महात्मा की पूजा आदि शारीरिक तप में सम्मिलित है । वेद-शास्त्र का पाठ, सत्य, प्रिय और कल्याणकारी वाणी बोलना आदि वाचिक तप है। मन की प्रफुल्लता, अक्रूरता, मौन, वासनाओं का निग्रह आदि मानसिक तप के अन्तर्गत है । इन तीनों के भी अनेक भेद-उपभेद है। इस तरह शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप के द्वारा मनुष्य द्वन्द्वसहिष्णु हो जाता है। फलतः उसकी से उपदेशक की बात का समाज पर अनुचित प्रभाव पड़ता है। इससे हानिकारक कर्मों की प्रतिक्रिया होती है। फलतः समाज का अहित होता है और उपदेशक का भी अधःपतन होता है। शास्त्रीय दृष्टि से जो वचन देश, काल और पात्र के अनुसार सर्वभूतहितकारी है वही सत्य और धर्म के अनुकूल है । वाचनिक तप का मूल तात्पर्य वाणी पर नियंत्रण है। अतः मनुष्य को कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए जिससे दूसरों को कष्ट हो । वाचनिक तप के साथ शारीरिक तप का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । शारीरिक तप के अभ्यास के बिना मनुष्य कोई कार्य करने में समर्थ नीं हो पाता। प्राचीन काल में शारीरिक तप जीवन के आरम्भिक काल में ब्रह्मचर्याश्रम के द्वारा द्वन्द्वसहिष्णु होकर किया जाता था । तप के द्वारा मनुष्य कष्टसहिष्णु और परिश्रमी होता था। पर आजकल यह बात नहीं है, इसी कारण मनुष्य शक्तिहीन, आलसी तथा काम से दूर भागने वाला हो गया है। ब्रह्मचर्य द्वारा उच्चतर पद प्राप्त करनेवाले देवता की उपाधि से विभूषित किये जाते हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी को निर्वाण का उत्तम पद प्राप्त होता है। पूर्ण ब्रह्मचारी असाधारण शक्तिमान होता है । शरीर की सप्त धातुओं में वीर्य सर्वप्रधान सारभूत तत्त्व है । ब्रह्मचर्य द्वारा इसकी रक्षा होती है जिससे मन और शरीर दोनों बलिष्ठ होते हैं । ब्रह्मचर्य की भाँति अहिंसा भी 'परम धर्म' माना गया है। यह वह परम तप है जिससे व्यक्ति प्राणिमात्र को अभयदान देता है । प्रकृति के नियम के अनुकूल चलना धर्म और उसके प्रतिकूल चलना अधर्म है। अतः प्रकृतिप्रवाह के अनुकूल चलने वाले को कष्ट देना अधर्म या पाप है । बिना वैर के हिंसा नहीं होती । अतः किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए और मनुष्य को अहिंसा रूपी शारीरिक तप के द्वारा अपने कल्याणार्थ इहलोक और परलोक का सुधार करना चाहिए । उपर्युक्त त्रिविध तपरूपों के भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक भेद के अनुसार तीन-तीन भेद हैं। बिना फल की इच्छा किये अनासक्त होकर श्रद्धासहित किया गया तप सात्त्विक होता है । सत्कार, सम्मान तथा पूजा सर्वश्रेष्ठ है। इससे चित्त में एकाग्रता आती है जिससे ब्राह्मण को ब्रह्मज्ञान और संन्यासी को कैवल्य की प्राप्ति होती है । जब तक सांसारिक मायाप्रसूत राग-द्वेष से मानवमन उद्वेलित रहता है तब तक उसे वास्तविक आनन्द की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि इस स्थिति में चित्त एकाग्र नहीं हो सकता । सारांश यह है कि मानसिक तप चित्त की एकाग्रता और द्वन्द्वसहिष्णुता का साधन है। इससे चित्त शान्त होता है और मनुष्य प्रसन्नता को प्राप्त कर क्रमशः मुक्ति की ओर अग्रसर होता है। वाचनिक तप व्यक्तिगत और जातिगत दोनों प्रकार के उत्थान में सहायक होता है। मानवता के सेवक परोपकारी व्यक्ति का एक-एक शब्द मूल्यवान् और नपातुला होना आवश्यक है । इसके अभाव में निरर्थक वक्तव्य देने वाले उपदेशक की बातों का कोई प्रभाव श्रोता पर नहीं पड़ता । वाचनिक तप की सीमा का अतिक्रमण करने Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्चरणव्रत-तरनतारन २९५ पाने के ध्येय से किया गया दाम्भिक तप राजसिक होता तपोनित्य पौरुशिष्टि---तपोनित्य (तपस्या में नित्य स्थिर ) है। इसका परिणाम अस्थायी और अध्रुव होता है। पौरुशिष्टि ( पुरुशिष्ट के वंशज) का उल्लेख तैत्तिरीय अविचारित हठ द्वारा अपनी भावनाओं को दबाकर, अपने उपनिषद् में एक आचार्य के रूप में हुआ है, जो तपस् के को कष्ट देकर या दूसरे किसी व्यक्ति की हानि या नाश महत्त्व में विश्वास करते थे। करने की इच्छा से जो तप किया जाता है उसे तामसिक तपोवन-हिमालय में स्थित एक तीर्थस्थल । जोशीमठ से तप कहते हैं। इस विवरण को देखते हुए मनुष्य के लिए . छः मील दूर नीति घाटी होकर कैलास जाने वाले मार्ग यह उचित है कि वह शारीरिक, वाचनिक और मानसिक में तपोवन है। यहाँ गर्म जल का कुण्ड है । बड़ा रमत्रिविध तपों में से सबके सात्त्विक रूपों का ही अनुसरण णीक स्थान है। इसमें स्नान करना पुण्यदायक माना करके परम सुख और शान्ति का लाभ करे। जाता है। तपश्चरणव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ तपोवत-माघ मास की सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलना चाहिए। इसके है। व्रती को रात्रि में एक छोटा सा वस्त्र धारण करना सूर्य देवता हैं। चाहिए । तदनन्तर एक गोदान करना चाहिए। तपस-श्रम करना, कष्ट सहते हुए ताप ( गर्मी) उत्पन्न तप्तमद्राधारण-आश्विन शुक्ल और कार्तिक शुक्ल एकाकरना। सामान्यतः तपस् का अर्थ आत्मशोधन एवं दशी को शरीर पर रामानुज, माध्व तथा दूसरे वैष्णव तपस्या है। सर्वप्रथम इसका व्यवहार आरण्यकों में पाया जाता है। आरण्यक वनों में पढ़े जाते थे। उन्हें पढ़ने सम्प्रदायों के द्वारा अग्नितप्त ताम्र अथवा ऐसी ही किसी वाला साधकों का दल था जो जंगल में निवास करता अन्य धातु से शंख तथा चक्र अंकित कराये ( दागे ) जाते था। वे सभी सांसारिक व्यापारों का परित्याग कर हैं। शंख तथा चक्र विष्णु के आयुध हैं । स्मृतिकौस्तुभ धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे। उनके अभ्यासों में तीन (पृ० ८६-८७ ) के अनुसार उपर्युक्त क्रिया में किसी धार्मिक ग्रन्थ का प्रमाण प्राप्त नहीं है। किन्तु निर्णयबातें मुख्य थीं-तपस्, यज्ञ एवं ध्यान । तपस् तीन प्रकार का होता है-मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक । सिन्धु, १-७, १०८ तथा धर्मसिन्धु, ५५ के अनुसार तपस्या-तप की स्थिति में रहने का भाव । दे० 'तप' और मनुष्य को अपनी परम्परागत क्रियाओं का अनुष्ठान करना 'तपस्' । तन्त्रमत के अनुसार तप, तपस्या नहीं है, ब्रह्मचर्य ही तपस्या है। जो ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ऊर्ध्व- तमस-सांख्यमतानुसार प्रकृति तथा उससे उत्पन्न सभी रेता होते हैं, वे ही तपस्वी हैं । । तत्त्वों के तीन उपादान है-सत्त्व (प्रकाश ); रजस् तप (व्रत)--यह शब्द कूछ धार्मिक कृत्यों, जैसे कृच्छ, चान्द्रा- (शक्ति ) तथा तमस् ( जडता)। तमस् अवरोध करनेयण, ब्रह्मचारियों तथा अन्यों के द्वारा स्वीकृत कठोर नियमों वाला उपादान है। उपर्युक्त तीनों गुण विभिन्न अनुपातों तथा आचरणों के लिए व्यवहृत होता है। आप० ध० सू० में मिलकर ( अधिक सत्त्व गुण का कम रज एवं तम से २.५.१ ( नियमेषु तपश्शब्दः ); मनु ११. २०३, २४४; संयोग, अथवा कम सत्त्व गुण का अधिक रज एवं तम के वि० धर्म० ९५; वि० ध० त०, २६६ में तप की लम्बी साथ संयोग ) विभिन्न गण वाले विभिन्न पदार्थ उत्पन्न प्रशंसा की गयी है। कृत्यरत्नाकर, १६ में तप की संयम करते हैं । दे० सांख्यकारिका । के रूप में परिभाषा की गयी है। ( शाब्दिक अर्थ है तरनतारन-अमृतसर से बारह मील दक्षिण ब्यास और उपवास, कठोर आचरणों, व्रतों के द्वारा शरीर को सतलज नदियों के संगम से पूर्वोत्तर यह सिक्खों का सन्तप्त करना । ) अनुशासनपर्व के अनुसार उपवास से पवित्र तीर्थ है । अमृतसर से तरनतारन तक पक्की सड़क अधिक अन्य कोई तप नहीं है। जाती है। यहाँ भी एक सरोवर के मध्य गुरुद्वारा है । तपोज-तपस्या से उत्पन्न हुआ 'तपोज' कहलाता है । उन गुरु अर्जुनदेव ने इस स्थान की प्रतिष्ठा की थी। तरनसभी गुणों का इसमें समावेश है जिनका सम्बन्ध कलुष तारन सरोवर अत्यन्त पवित्र माना जाता है। वैशाख तथा पाप के विनाश से है । की अमावस्या को यहाँ मेला लगता है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ तक-ताप तर्क-इसका शाब्दिक अर्थ है 'युक्ति' । न्याय शास्त्र के जिसे जैमिनीय अथवा तलवकार कहते हैं। इसके अन्तर्गत लिए भी इसका प्रयोग होता है। न्याय के अनुसार तर्क उपनिषद् एवं ब्राह्मण आते हैं। से ज्ञान का सन्धान (लक्ष्य प्राप्त) होता है । परन्तु अन्तिम तलवकार ब्राह्मण-दे० 'तलवकार'। सत्ता की अनुभूति अथवा सत्यानृत, न्याय-अन्याय के ताण्ड-एक आचार्य का नाम, जिनकी शाखा से 'ताण्ड्य निर्णय में इसकी क्षमता नहीं स्वीकार की गयी है। यह ब्राह्मण' का सम्बन्ध है। यह लाट्यायन श्रौतसूत्र में उद्'अप्रतिष्ठ' माना गया है। साधना में इसका महत्त्व प्राथमिक किन्तु गौण है। ताण्डिन-सामवेद की एक शाखा, जिसके तीन ब्राह्मण हैंतकौमुदी-अठारहवीं शती वि० के आरम्भ में लौगाक्षि पञ्चविंश, षड्विंश एवं छान्दोग्य । भास्कर ने 'तर्ककौमदी' की रचना की । यह ग्रन्थ मीमांसा ताण्डवलक्षणसूत्र-सामवेदीय सूत्र ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ । दर्शन से सम्बद्ध है। तान्त्रिक-तन्त्र से सम्बन्ध रखनेवाला । साहित्य और व्यक्ति तकचूडामणि-गोंशोपाध्याय कृत 'तत्त्वचिन्तामणि' दोनों के लिए इसका प्रयोग होता है । विचार और भावना नामक नव्य न्याय के ग्रन्थ पर 'तर्कचडामणि' नाम की की तीन प्रविधियाँ हैं-(१) मन्त्र (२) तन्त्र और (३) टीका धर्मराज अध्वरीन्द्र ने लिखी। इसमें इन्होंने अपने यन्त्र । उनका संघटनात्मक रूप तन्त्र है । जो संघटनात्मक से पूर्ववत्तिनी दस टीकाओं के मतों का खण्डन किया है। रूप को प्रधान मानकर उपासना करते हैं वे तान्त्रिक तर्कताण्डव-व्यासराज स्वामी ( सोलहवीं शती वि०) कहलाते हैं।। कृत 'तर्कताण्डव' न्याय दर्शन की आलोचना प्रस्तुत तान्त्रिक पञ्चमकार-तन्त्र शास्त्र की वाममार्ग पद्धति के करता है। अनुसार उपासना के पाँच साधन, जिनका नाम 'म' अक्षर तर्कभाषा-एकादश शताब्दी के पश्चात् न्याय तथा शे- से आरम्भ होता है, यथा मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और षिक दर्शन मिलकर प्रायः एक ही संयुक्त दर्शन बन मैथन । भौतिक रूप में ये तामस वस्तुएँ प्रतीत होती है, गये। अनेक ग्रन्थों ने इस एकरूपता को व्यक्त किया परन्तु परमार्थ दृष्टि से इनका अर्थ रहस्यात्मक है । है। त्रयोदश शती का केशवमिश्र कृत 'तर्कभाषा' ऐसे ही तात्पर्यचन्द्रिका-सत्रहवीं शती वि० के प्रारम्भ में आचार्य ग्रन्थों में से एक है। इसका अंग्रेजी अनुवाद म०म० गङ्गा- व्यासराज स्वामी ने यह ग्रन्थ लिखा। इनके कुल तीन नाथ झा द्वारा हुआ है। हिन्दी में इसके कई भाषान्तर ग्रन्थ है, जिनमें इन्होंने माध्वमत का प्रतिपादन किया है। तथा टीका है। तात्पर्यदीपिका-सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य (वि० संवत् तकविद्या-न्यायदर्शन का एक पर्याय तर्कविद्या है। इससे १४२३ निधन काल) ने रामानुज स्वामी के 'वेदार्थसंग्रह यह न समझना चाहिए कि गौतम का न्याय केवल विचार पर 'तात्पर्यदीपिका' नामक टीका लिखी है। वा तर्क के नियम निर्धारित करने वाला शास्त्र है; अपितु तात्पर्यपरिशुद्धि-उदयनाचार्य कृत तात्पर्यपरिशुद्धि वाचस्पति यह प्रमेयों का विचार करने वाला दर्शन भी है । पाश्चात्य मिश्र के न्यायवार्तिकतात्पर्य की टीका है । इस परिशुद्धि लॉजिक (तर्कशास्त्र) से इसमें यही भेद है । लॉजिक (तर्क- पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' व्याख्या है । शास्त्र) दर्शन के अन्तर्गत नहीं लिया जाता, परन्तु न्याय ताप-आगम प्रणाली में द्विज वैष्णवों से आशा की जाती शास्त्र दर्शन है । यह अवश्य है कि न्याय में प्रमाण अथवा है कि वे योग्य गुरु का चुनाव कर उससे दीक्षा लें । दीक्षातर्क की परीक्षा विशेष रूप से हुई है। संस्कार में पांच क्रियाएं होती हैं, यथा ताप, पुण्ड्र, नाम, तर्कसंग्रह-सोलहवीं शताब्दी के अन्त में न्याय-वैशेषिक मन्त्र एवं याग । 'ताप' क्रिया में दीक्षा लेने वाले के शरीर दर्शन विषयक यह ग्रन्थ अन्नम् भट्ट द्वारा प्रणीत हुआ। पर साम्प्रदायिक सांकेतिक चिह्न अङ्कित किये जाते हैं । इसके देशी-विदेशी अनुवाद तथा अनेक टीकाएँ प्राप्त हैं। पिछले समय में द्वारका में सभी को तप्त शंख-चक्र लगाये तलवकार-सामवेद की अनेक शाखाओं में एक तलवकार जाते थे। लोगों का विश्वास था 'जो द्वारका जरे, सो भी है। तलवकार शाखा का एक ही ब्राह्मण ग्रन्थ है, कहीं मरे, वह अवश्य तरेगा।' Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापस-तार्य तापस - पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.१५ ) में वर्णित सर्पयज्ञ में दत्त होता पुरोहित था । दत्त का ही नाम तापस है । तामिल वैष्णव-तामिल वैष्णवों को आलवार भी कहते हैं। विशेष विवरण के लिए दे० 'आलवार' | तामिल छठी से नवीं शताब्दी वि० के मध्य तमिल शैवदेश में उल्लेखनीय शैव भक्तों का जन्म हुआ, जो कवि भी थे। उनमें से तीन वैष्णव आलवारों के सदृश ही सुप्रसिद्ध हैं । अन्य धार्मिक नेताओं के समान वे 'नयनार' कहलाते थे। उनके नाम थे नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति । प्रथम दो सातवीं शती में तथा तृतीय नवीं शती में प्रकट हुए थे। आवारों के समान वे भी गायक कवि थे, जिनमें शिव के प्रति अगाध भक्ति भरी बी एक मन्दिर से दूसरे तक ये भ्रमण करते रहते थे तथा शिव की मूर्ति के सामने भावावेश में नाचते हुए स्वरचित भजनों को गाया करते थे। उनके पीछे दर्शकों एवं भक्तों की भीड़ लगी रहती थी । वे आगमों पर आश्रित नहीं थे, किन्तु रामायण-महाभारत तथा पुराणों का अनुसरण करते थे । उनके कुछ ही पद दूसरी भाषाओं में अनूदित हैं । । तिसमूलर ( ८०० ई० ) इस सम्प्रदाय के सबसे पहले कवि हैं जिन्होंने अपने काव्य 'तिरुमन्त्रम्' में आगमों के धार्मिक नियमों का अनुसरण किया है। 'माणिक्कवाचकर' इस मत के दूसरे महापुरुष हैं, जिनके अगणित पदों का संकलन 'तिवाचकम्' के नाम में प्रसिद्ध है, जिसका अर्थ होता है 'पवित्र वचनावली' । ये मदुरा के निवासी एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। गुरु के प्रभाव से अपना पद त्यागकर ये साधु बन गये । इन्होंने पुराणों, आगमों एवं पूर्ववर्ती तमिल रचनाओं का अनुसरण बहुत किया है । ये शङ्कर स्वामी के मायावाद के विरोधी थे । इसके द्वितीय विकासक्रम में ( १०००-१३५० ई० ) पट्टिपात्तु पिल्लई, नाम्बि अन्दर नाम्बि, मेयकण्ड देव, अरुलनन्दी, मरइ ज्ञानसम्बन्ध एवं उमापति का उद्भव हुआ । मेकण्ड आदि अन्तिम चार सन्त आचार्य कहलाते हैं, क्योंकि ये क्रमशः एक दूसरे के शिष्य थे । इस प्रकार तामिल शैवों ने अपना अलग उपासनाविधान निर्माण किया, जिसे तामिल शैवसिद्धान्त कहते हैं । इनके सिद्धान्तग्रन्थ कुल १४ हैं । तीसरे विकासक्रम के अन्तर्गत उक्त सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन न हुआ। यह सम्प्रदाय पूर्ण रूपेण व्यवस्थित ३८ २९७ कभी न था । अधूरी साम्प्रदायिक व्यवस्था साहित्य के माध्यम से मठों के आसपास चलती रहती थी। महन्त लोग घूम घूमकर शिष्यों से संपर्क रखते थे। अधिकांश मठ अब्राह्मणों के हाथ में तथा कुछ ही ब्राह्मणों के अधीन थे । कारण यह कि तमिल देश के अधिकांश ब्राह्मण स्मार्त अथवा वैष्णव मतावलम्बी थे । इस काल के सर्वश्रेष्ठ विद्वान् लेखक शिवज्ञान योगी हुए (१७८५ ई०) इसी शताब्दी के तायुमानवर द्वारा रचित शैव गीतों का संग्रह सबसे बड़ा शैव ग्रन्थ माना जाता है। इसका दार्शनिक दृष्टिकोण शिवाद्वैत के नाम से विख्यात है, जो संस्कृत सिद्धान्तशाखा से भिन्न है। तामिल शैव सिद्धान्त - दे० 'तामिल शैव' । ताम्बूलसंक्रान्तिताम्बूलसंक्रान्ति– केवल महिलाओं के लिए इस व्रत का विधान है। एक वर्ष तक व्रती को प्रति दिन ब्राह्मणों को ताम्बूल खाने को देना चाहिए। वर्ष के अन्त में सुवर्णकमल तथा समस्त रसोई के पात्र ताम्बूल के साथ किसी ब्राह्मण दम्पति को दान करने और सुस्वादु भोजन खिलाने से अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवं जीवन भर पति तथा पुत्रों के साथ व्रती सुखपूर्वक समय व्यतीत करती है। तायुमानवर - एक शिवभक्त गीतकार, जिन्होंने अठारहवीं शती में तामिल शैव गीतों का सबसे बड़ा ग्रन्थ प्रस्तुत किया। तारकद्वादशी - मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । एक वर्ष पर्यन्त चलता है। सूर्य तथा तारागण इसके देवता है। इस व्रत में प्रत्येक मास ब्राह्मणों को भिन्न भिन्न प्रकार का भोजन कराना चाहिए तारों को रात्रि में अर्घ्य दिया जाता है । यह व्रत समस्त पापों का नाश करता है । इस विषय में एक राजा का आख्यान आता है। कि उसने तपस्यारत एक तपस्वी को मृग समझकर मार डाला था, जिसके परिणामस्वरूप उसे बारह जन्मों में भिन्न-भिन्न पशु रूपों में जन्म लेना पड़ा। इस प्रकार के पाप भी इस व्रत के अनुष्ठान से नष्ट हो जाते हैं। तारसारोपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । तारिणीतन्त्र - ' आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की तालिका में तारिणीतन्त्र का क्रमा नवाँ है । तार्क्ष्य- - ऋग्वेद (१.८,९,१०.१७८ ) में इसका अर्थ देवी घोड़ा होता है । निश्चय ही यहाँ सूर्य को अश्व Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ तालवन-तिलचतुर्थी समझा गया है। किन्तु कुछ विद्वान तार्क्ष्य को तृक्षि का यह माणिक्कवाचकर द्वारा रचित है। अपत्यबोधक बताते हैं, जो ऋग्वेद के पश्चात् त्रसद्दस्यु के तिरुमन्त्रम्-तिरुमूलर द्वारा रचित 'तिरुमन्त्रम्' के अनुवाद वंशज कहलाते थे । ऋ०(२.४.१) में 'ताय' से एक पक्षी का नाम 'सिद्धान्तदीपिका' है। नम्बि के 'तिरुमुरई' का बोध होता है ( सम्भवतः वायस का ) जो सूर्य का । नामक संग्रह में यह भी संमिलित है। यह तामिल संकेतक है। शवों के व्यावहारिक धर्म पर प्रकाश डालने वाला तालवन-यह तीर्थस्थान व्रज में है, इसे तारसी गाँव कहते प्रथम एवं सफल काव्यग्रन्थ है। इसमें आगमों के धार्मिक हैं। यहाँ बलरामजी ने धेनुकासुर को मारा था। नियमों का भी समावेश हुआ है । यहाँ बलभद्रकुण्ड और बलदेवजी का मन्दिर है। तिरुवाचकम्-तिरुमूलर के पश्चात् तामिल शवों में ९५० तालवृन्तवासी-आपस्तम्बसूत्र के अनेक व्याख्याकारों में वि० के लगभग माणिक्कवाचकर का प्रादुर्भाव हुआ, तालवृन्तवासी का भी नाम आता है। इनके सम्बन्ध में जिन्होंने अपने छोटे एवं बड़े अनेक गेय पदों का संग्रह कुछ विशेष ज्ञातव्य नहीं है। 'तिरुवाचकम्' नामक ग्रन्थ में किया है। 'तिरुमुरई' तित्तिरि ऋषि-'तैत्तिरीय' शब्द कृष्ण यजुर्वेद के प्राति नामक संग्रह में इसे भी सम्मिलित किया गया है । शाख्यसूत्र में और सामसुत्र में मिलता है। पाणिनि के तिरुविरुत्तम्-द्राविड वेदों में से प्रथम तिरुविरुत्तम् ऋग्वेद का प्रतिनिधि है। नम्मालवार की रचनाओं को चारों वेदों अनुसार 'तित्तिरि' एक ऋषि का नाम था, जिससे तैत्तिरीय शब्द बना है । आत्रेय शाखा की 'संहितानुक्रमणिका' का प्रतिनिधि कहा गया है। उनमें प्रथम तिरुविरुत्तम् है । में भी यही व्युत्पत्ति मिलती है। हो सकता है कि यह तिरुविलंय-आडत्पुराणम्-तमिल प्रदेश में असाम्प्रदायिक व्यक्तिवाचक नाम न होकर गोत्रनाम हो, क्योंकि बहुत से शैव ग्रन्थ भी अनेक रचे गये। उनमें उपर्युक्त भी एक गोत्रनाम पक्षियों पर भी पड़े हैं। सम्बद्ध ऋषि का गोत्र है। इसके रचयिता परजीति हैं। रचनाकाल सत्रहवीं पक्षी 'तित्तिर' ( तीतर ) था। शती का प्रारम्भिक चरण है। इसमें स्थानीय धार्मिक कथाओं का संग्रह किया गया है । तिन्दुकाष्टमी-ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यह व्रत तिलक-धार्मिक एवं शोभाकर चिह्न, जिसे पुरुष और प्रारम्भ होता है । एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसमें स्त्रियाँ सभी अपने ललाट पर धारण करते हैं। राज्यारोहण, कमल के फूलों से हरि का चार मास तक पूजन, आश्विन यात्रा, प्रस्थान तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर भी तिलक से पौष तक धतूरे के फूलों से पूजन और माघ से वैशाख धारण किया जाता है। तिलक चन्दन, कस्तुरी, रोली तक शतपत्रों ( दिवसकमल ) से पूजन करना चाहिए। आदि कई पदार्थों से किया जाता है। तिरिन्दिर-ऋग्वेद ( ८.६.४६-४८ ) की दानस्तुति में धार्मिक ग्रन्थों की व्याख्या भी तिलक कही जाती है, 'पशु' के साथ तिरिन्दिर का नाम गायकों को दान करने क्योंकि पूर्व काल के पत्राकार हस्तलेखों में मूल ग्रन्थ मध्य के सम्बन्ध में आता है । शाङ्खायनश्रौतसूत्र में इसी भाग में और उसकी व्याख्या मस्तकतुल्य ऊपरी हाशिये बात को यों कहा गया है कि कण्व वत्स ने तिरिन्दिर पर लिखी जाती थी। मस्तक के तिलक की समानता से पार्शव्य से एक दान प्राप्त किया। इस प्रकार तिरिन्दिर ऐसे व्याख्यालेख को भी तिलक या टीका कहने की रोति एव पशु एकगोत्रज व्यक्ति के नाम हैं। ऋग्वेद के एक परिच्छेद में लुट्विग को तिरिन्दिर पर यदुओं की विजय तिलकव्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को यह व्रत प्रारम्भ होता का प्रमाण दृष्टिगोचर होता है, किन्तु जिभर इसे असंगत है और एक वर्ष तक चलता है । सुगन्धित अगरु से बताते हैं। यदु राजकुमार अवश्य हो तिरिन्दिर एवं संवत्सर के चित्र की पूजा करनी चाहिए । व्रती को अपने पशु का समानार्थी है। वेबर यदुओं को राजकुमार न मस्तक पर श्वेत चन्दन का तिलक लगाना चाहिए । मानकर गायक मानते हैं । तिलचतुर्थी-माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान तिरुक्कोवैयर-यह तामिल शैव साहित्य का एक प्रसिद्ध होता है। इसकी विधि कुन्दचतुर्थी अथवा ढुण्डिराजग्रन्थ है। रचनाकाल ९५०वि० के लगभग है । सम्भवतः चतुर्थी के समान है। इसमें नक्त व्रत करना होता है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलवाहोवत-तीर्थफल का पात्र २९९ ढुण्डिराज (गणेश) की तिल के लड्डुओं से पूजा होती है। पवित्र नदी, सरोवर आदि से होता है। इसका शाब्दिक तिलवाही व्रत-पौष कृष्ण एकादशी को इस व्रत का अनु- अर्थ है 'नदी पार करने का स्थान ( घाट )।' विश्वास ष्ठान होता है। इसके विष्णु देवता हैं । उस दिन उपवास किया जाता है कि तीर्थ भवसागर पार करने का घाट किया जाता है, गौ के सूखे हुए उपले तथा पुष्य नक्षत्र में है। अतः वहाँ जाकर यात्री को स्नान, दान-पुण्यादि इकट्ठे किये हुए तिलों से होम होता है। इस व्रत से ___करना तथा साधु-सन्तों का सत्संग प्राप्त करना चाहिए । सौन्दर्य की अभिवृद्धि तथा मनोवाञ्छाएं पूरी होती हैं । ___ मुख्य तीर्थों में सात पुरियाँ, चार धाम और भारत के तिलद्वादशी-माघ कृष्ण द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान असंख्य पवित्र स्थान हैं, जिनमें से कुछ का यथास्थान करना चाहिए। इसके कृष्ण देवता हैं जिनकी विधिवत् ___वर्णन हुआ है । सात पुरियाँ निम्नाङ्कित हैं : पूजा इस व्रत में होनी चाहिए। अयोध्या मधुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । तिलद्वादशीव्रत-माघ मास, कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि पुरी द्वारवती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ को यदि पूर्वाषाढ़ या मूल नक्षत्र हो तो उस दिन यह चार धाम हैं-द्वारका, जगन्नाथपुरी, बदरिकाश्रम और व्रत किया जाता है। इसमें तिल से स्नान, हवन, तिल रामेश्वरम् । का ही मिष्टान्न सहित नैवेद्य, तिलतल युक्त दीप, तिल (२) शङ्कराचार्य की शिष्यपरम्परा में उनके चार युक्त जल का प्रयोग करते हैं तथा तिल का दान ब्राह्मणों प्रधान शिष्यों में से प्रथम पद्मपाद के तीर्थ एवं आश्रम को देते हुए वासुदेव की स्तुति ऋ० वे० ( १.२२,२०) नामक दो शिष्य थे । ये शारदामठ के अन्तर्गत है । शङ्कर अथवा पुरुषसूक्त ( ऋ० १०.९० ) द्वारा करते हैं। के ऐसे दस प्रशिष्य उनके चार मुख्य शिष्यों के शिष्य थे तिल्वक-शतपथ ब्राह्मण ( १३.८.१,१६ ) में इसे एक तथा इनमें से प्रत्येक की शिष्यपरम्परा प्रचलित हुई वृक्ष बताया गया है तथा इसके समीप समाधि बनाना जो दसनामी संन्यासी वर्ग की प्रणाली है। आचार्य मध्व अपवित्र कार्य कहा गया है। इससे ही 'तैल्वक' विशेषण __तथा उनके अनेक अनुयायी भी तीर्थ परम्परा के अन्तर्गत बना है, जिसका अर्थ है तिल्वक की लकड़ी का बना माने जाते हैं। हुआ, और जिससे मैत्रायणीसंहिता में यूप तथा यज्ञयष्टि (३) वीर शवों में जब बालक का जन्म होता है तो का बोध षड्विंश ब्राह्मण के अनुसार होता है। पिता अपने गुरु को आमंत्रित करता है तथा अष्टवर्ग तिष्य-ऋग्वेद (५.५४,१३,१०.६४,८) में यह एक नामक संस्कार होता है। ये आठ वर्ग हैं-गुरु, लिंग, नक्षत्र का नाम है, यद्यपि सायण इसका अर्थ सूर्य लगाते विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रसाद । ये पाप हैं। निस्सन्देह यह 'अवेस्ता' के तिस्त्र्य का समानार्थक से सुरक्षा प्रदान करते हैं। है। परवर्ती ग्रन्थों में इसे चन्द्रस्थानों में से एक कहा (४) गुरु को भी तीर्थ कहते हैं, भगवान् का चरणोदक गया है। भी तीर्थ कहलाता है। परवर्ती साहित्य में तिष्य से एक नक्षत्र का बोध तीर्थफल का पात्र-जिसके हाथ, पैर और मन भली भाँति होता है जो पुष्य कहलाता है। इस नक्षत्र में उपवास संयमित हैं, जो प्रतिग्रह नहीं लेता, जो अनुकूल अथवा एवं दान-पुण्य करना महत्त्वपूर्ण माना जाता है । प्रतिकूल जो कुछ भी मिल जाय उसी में संतुष्ट रहता तिष्यव्रत-शुक्ल पक्ष में तिष्य (पुष्य ) नक्षत्र को इस है तथा जिसमें अहंकार का सर्वथा अभाव रहता है वह तीर्थ व्रत का आरम्भ होता है। इसका अनुष्ठान एक वर्ष तक का फल प्राप्त करता है। जो पाखण्ड नहीं करता, नये चलता है। प्रतिमास पुष्य नक्षत्र में यह दुहराया जाता कामों को आरम्भ नहीं करता, थोड़ा आहार करता है, है। केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने का इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका है, सब प्रकार की विधान है। इसमें वैश्रवण ( कुबेर ) की पूजा होती आसक्तियों से रहित है, जिसमें क्रोध नहीं है, जिसकी है । पुष्टि तथा समृद्धि के लिए इसका अनुष्ठान होता है। बुद्धि निर्मल है, जो सत्य बोलता है, व्रत पालन में दृढ़ तीर्थ-(१) तीर्थ का सामान्य अर्थ 'पवित्र स्थान' है, है और सब प्राणियों को अपने आत्मा के समान अनुभव जिसका सम्बन्ध किसी देवता, महापुरुष, महान् घटना, करता है, वह तीर्थ के फल को प्राप्त करता है। जो Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० लोग अश्रद्धालु, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल तर्क में ही डूबे रहते है ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थ के फल को नहीं प्राप्त करते । तीर्थयात्रा - उद्देश्य भगवत्प्राप्ति के लिए - भक्ति, निज तुच्छता, दीनता, ईश्वरविश्वास एवं तीर्थयात्रा की जाती है। तीर्थों में साधु सन्त मिलते हैं, भगवान् का ज्ञान काम-लोभवर्जित साधुसंग से होता है। ऐसे सज्जन जो उपदेश देते हैं उससे संसार का बन्धन छूट जाता है। तीर्थों में इनका दर्शन मनुष्यों की पापराशि को जला डालने के लिए अग्नि का काम करता है। जो संसारबन्धन से छूटना चाहते हैं उन्हें पवित्र जल वाले तीथों में, जहाँ साधु महात्मा लोग रहते हैं, अवश्य जाना चाहिए। दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड १९.१०-१२, १४-१७ । तीर्थयात्राविधि-तीर्थयात्रा का निश्चय होने पर सबसे पहले पत्नी कुटुम्ब, घर आदि की आसक्ति त्याग देनी चाहिए। तब मन से भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करने के लिए घर से कोस भर दूर जाकर वहाँ पवित्र नदी, तालाब, कुएं आदि में स्नान करे व और भी करा ले। उसके बाद विना गांठ का दण्ड अथवा बाँस की मोटी पुष्ट लाठी, कमण्डलु और आसन लेकर पूरी सादगी के साथ तीर्थ का उपयोगी वेष धारण कर धन-मान-बड़ाई, सरकार, पूजा आदि के लोभ का त्याग कर प्रस्थान आरम्भ कर दे। इस रीति से तीर्थयात्रा करने वाले को विशेष फल की प्राप्ति होती है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण भक्तवत्सल गोपते । शरण्य भगवन् विष्णो मां पाहि बहुसंसृतेः ॥ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए तथा मन से भगवान् का स्मरण करते हुए पैदल ही तीर्थयात्रा करनी चाहिए | तभी विशेष फल प्राप्त होता है । तीर्थशिष्यपरम्परा - तीर्थ शिष्यपरम्परा शारदामठ के अन्त- तुमिअ औपोदिति - तैत्तिरीय संहिता (१.६,२,१) में तुमिञ्ज गंत है। विशेष विवरण के लिए दे० 'तीर्थ' । औपोदिति को एक सत्र का होता पुरोहित कहा गया है। तीव्रव्रत - पैरों को तोड़कर ( बाँधकर ) काशी में ही तथा उन्हें सुधा के साथ शास्त्रार्यरत भी वर्णित किया रहना, जिससे मनुष्य बाहर कहीं जा न सके तीव्र व्रत गया है । कहलाता है। अपनी कठोरता के कारण इसका यह नाम है । दे० हेमाद्रि, २.९१६ । तुकाराम तुकाराम (१६०८-४९ ई०) एक छोटे दुकानदार और बिठोवा के परम भक्त थे । उनके व्यक्तिगत धार्मिक जीवन पर उनके रचे गीतों (अभंगों ) की पंक्तियाँ पूर्णरूपेण प्रकाश डालती हैं । उनमें तुकाराम की ईश्वर तुरगसप्तमी - चैत्र शुक्ल सप्तमी को तुरगसप्तमी कहते हैं । इस तिथि को उपवास करना चाहिए तथा सूर्य, अरुण, निकुम्भ, यम, यमुना, शनि तथा सूर्य की पत्नी छाया, सात छन्द, धाता, अर्थमा तथा दूसरे देवगण की पूजा करनी चाहिए । व्रत के अन्त में तुरंग ( घोड़े ) के दान का विधान है । तीर्थयात्रा उद्देश्य तुरगसमी अयोग्यता का ज्ञान, असीम सहायतार्थं ईश्वर से प्रार्थना एवं आवेदन कूट-कूट कर भरे हैं । उन्हें बिठोवा के सर्वव्यापी एवं आध्यात्मिक रूप का विश्वास था, फिर भी वे अदृश्य ईश्वर का एकीकरण मूर्ति से करते थे। उनके पद्य ( अभंग ) बहुत ही उच्चकोटि के हैं । महाराष्ट्र में सम्भवतः उनका सर्वाधिक धार्मिक प्रभाव है। उनके गीतों में कोई भी दार्शनिक एवं गूद धार्मिक नियम नहीं है । वे एकेश्वरवादी थे । महाराष्ट्र केसरी शिवाजी ने उन्हें अपनी राजसभा में आमन्त्रित किया था, किन्तु तुकाराम ने केवल कुछ छन्द लिखकर भेजते हुए त्याग का आदर्श स्थापित कर दिया। उनके भजनों को अभंग कहते हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। प्र - ऋग्वेद (१.११६, ३,११७,१४,६.६२६ ) में तुग्र को भुज्यु का पिता कहा गया है और भुज्यु को अश्विनों का संरक्षित तुझ को ही 'तुग्रच' वा तौग्रच कहते हैं। ऋग्वेद के एक अन्य सूक्त में (६.२०,८,२६,४.१०.४९, ४) दूसरे 'तुम' का उल्लेख इन्द्र के शत्रु के रूप में किया गया है। तुङ्गनाथ - हिमालय के केदार क्षेत्र में स्थित एक तीर्थस्थान तुङ्गनाथ पंचकेदारों में से तृतीय केदार हैं। इस मन्दिर में शिवलिङ्ग तथा कई और मूर्तियां है। यहाँ पातालगङ्गा नामक अत्यन्त शीतल जल की धारा है । तुङ्गनाशिखर से पूर्व की ओर नन्दा देवी पञ्चचूली तथा द्रोणाचल शिखर दीख पड़ते हैं। दक्षिण में पीड़ी, चन्द्रवदनी पर्वत तथा सुरखण्डा देवी के शिखर दिखाई देते हैं | Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरायण-तुलसीदास तुरायण-महाभारत के अनुशासनपर्व (१०३.३४) से प्रतीत भाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें व्याज से वर्णाश्रमधर्म, होता है कि महाराज भगीरथ ने इस व्रत का तीस वर्ष अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, तक आचरण किया था। पाणिनि की अष्टाध्यायी (५.१. देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन ७२) में भी यह नाम आया है। स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय यह एक प्रकार का यज्ञ है । आपस्तम्बश्रौतसूत्र (२.१४)। के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं में 'तुरायणेष्टि यज्ञ' बतलाया गया है। मनुस्मृति (६.१०) पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ में चातुर्मास्य तथा आग्रयण के साथ इसे वैदिक इष्टि वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से बतलाया गया है। भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त, रामराज्य का आदर्श, तुरीयातीतावधूत उपनिषद-यह परवर्ती उपनिषद् है। अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; इसमें अवधूतों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी तुलसी-भारत में जंगली वृक्ष, क्षुप एवं तृणों में भी दिव्य के जमाने में भी बतलायों, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न शक्ति मानी जाती है। जैसे बेल का वक्ष शैवों के लिए था । लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का पवित्र है, कुश, दूर्वा कर्मकाण्डियों के लिए; वैसे ही तुलसी राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने वैष्णवों के लिए पवित्र है । लोग उसकी पूजा करते और झुंझलाकर कहा : उसे अपने घर के आँगन में रोपित करते हैं। प्रत्येक "रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति । दिन स्नानोपरान्त इस वृक्ष को जल दिया जाता है । तुलसी काठहि को सुन, कलि कुचालि पर प्रीति ।" सन्ध्याकाल में वृक्ष के नीचे इसके चरणों के पास दीपक सच है, साढ़े चार सौ वर्ष बाद आज भी कौन सुनता जलाते हैं। इसमें हरि (विष्णु) का निवास मानते हैं। है? फिर भी उनको यह अद्भत पोथी इतनी लोकप्रिय है विष्णु की पूजा के लिए इसकी पत्तियाँ अत्यावश्यक हैं। कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से तुलसी का एक नाम वृन्दा भी है। पुराणों के अनुसार स्थान पाती है। उस समय की सारी शङ्काओं का रामवृन्दा जालन्धर की पत्नी थी। अपने पातिव्रत के कारण चरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि वह विष्णु के लिए भी वन्दनीय थी। इसलिए विष्णु के गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल अवतार कृष्ण की लीलाभूमि का नाम ही वृन्दावन है। और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक ___ इसकी पत्तियों में मलेरिया ज्वर की नाशक शक्ति है। सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो जिससे ग्रामीण वैद्य अधिकतर इसका व्यवहार करते हैं। साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँधकर सारे देश में व्यापक परन्तु इसका प्रयोग अधिकांश धार्मिक भाव से ही होता है। और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको तुलसीकृत रामायण-दे० 'तुलसीदास' । एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य तुलसीत्रिरात्र-कार्तिक शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज होता है। तीन दिन तक व्रत रखना चाहिए। तत्पश्चात् भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की तुलसी के उद्यान में विष्णु तथा लक्ष्मी की पूजा करनी कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरचाहिए। दास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में तुलसीदास (गोस्वामी)-तुलसीदास (१५३२-१६२३ ई०) उठती हैं। के नाम, जीवनचरित्र एवं उनके ग्रन्थों से कौन ऐसा जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी हिन्दू होगा जो अपरिचित होगा । इनका 'रामचरितमानस' रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के झोपड़े से लेकर बड़े-बड़े प्रासादों तक में उत्तर भारत के विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है । परन्तु गोस्वामीजी हिन्दू मात्र के गले का हार है। की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है । शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोक- इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भाव Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ तुलसीलक्षपूजा-तैत्तिरीय आरण्यक नाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं तौला जाता था एवं फलस्वरूप अपराधी या निरपराध में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि घोषित होता था, जबकि दूसरी बार पहली तौल की थे। उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, अपेक्षा वह कम या अधिक भारी होता था। इस प्रकार कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध हैं। इस परवर्ती दिव्य परीक्षा वाली प्रथा से पहले समय तुलसीलक्षपूजा-माघ अथवा कार्तिक मास के विष्णुपूजन में प्रयुक्त तूला को एक नहीं ठहराया जा सकता। में एक लाख तुलसीदलों का अर्पण करना चाहिए। प्रति । तुलादान-यह एक प्रकार का धार्मिक कृत्य है। इसमें दिन एक सहस्र तुलसीदलों के अर्पण का विधान है। दानी बहुमूल्य वस्तुओं-स्वर्ण, चाँदी, अन्न, रत्नादि से वैशाख, माघ अथवा कार्तिक मास में उद्यापन करना तौला जाता है। इन वस्तुओं का दान कर दिया जाता है। चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, ४०८; वर्षकृत्यदीपिका, तेगबहादुर-सिक्खों के नवें गुरु । वृद्ध अवस्था में उन्हें ४०४-४०८। इसी प्रकार बिल्वपत्र, दुर्वादल, कमल या सम्प्रदाय की अध्यक्षता सौंपी गयी। उन्होंने अनेक पद चम्पा के फूलों को अन्यान्य देवों के लिए समर्पित किया एवं स्तुतियाँ लिखी हैं। असहिष्णु मुगल सम्राट औरंगजेब जा सकता है। ने उन्हें पटना में कारावास में डाल दिया और अन्त में तुलसीविवाह-कार्तिक मास में शुक्ल द्वादशी को तुलसी- मरवा डाला। सिक्खों का कहना है कि उसके पहले ही विवाह करने का बड़ा माहात्म्य है । विवाहवती को नवमी गुरु तेगबहादुर यह भविष्यवाणी कर चुके थे कि यूरोपीय के दिन सुवर्ण की भगवान् विष्णु तथा तुलसी की प्रतिमाएँ लोग भारत में आयेंगे और मुगल साम्राज्य को नष्ट कर बनवाकर, तीन दिन तक लगातार उनकी पूजा करके बाद देंगे। इस भविष्यवाणी ने सिक्खों एवं ब्रिटिश सरकार में उनका विवाह रचना चाहिए। इस व्रत के आचरण से को मिलाने में यथेष्ट सहायता प्रदान की । गुरु तेगबहादुर कन्यादान का पुण्य प्राप्त होता है । दे० निर्णयसिन्धु, २०४; के पत्र दशम गुरु गोविन्दसिंह थे, जिनका जन्म पटना के व्रतराज, ३४७-३५२; स्मृतिकौस्तुभ, ३६६ । प्रत्येक हिन्दू कारागार में ही हुआ था। के आँगन में तुलसी का थामला रहता है जिसको वृन्दा- तेजःसंक्रान्तिवत-प्रत्येक संक्रान्ति के दिन इसका अनुवन कहते हैं। संध्या के समय हिन्दू नारियां तुलसी के ष्ठान होता है। एक वर्ष तक यह व्रत चलता है। इसमें वृक्ष की अय, धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजा करती हैं। सूर्य की पूजा होती है। पौराणिक पुराकथा के अनुसार जालन्धर असुर की पत्नी तेजोबिन्दु उपनिषद-योगमार्गीय उपनिषदों में से यह एक का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी के शाप से तुलसी में उपनिषद् है । परिवर्तित हो गयी । पद्मपुराण (भाग ६, अध्याय ३-१९) तेवाराम-तमिल शिवस्तुतियों का एक संग्रह । सन्त नम्बि में जालन्धर-वृन्दा का लम्बा आख्यान पाया जाता है। द्वारा संकलित ग्रन्थ 'तिरुमुरई' में शिव की स्तुतियों का बाद में तुलसी रूप में उत्पन्न वृन्दा भगवान् की अनन्य संकलन है। इसमें पूर्ववर्ती सभी तामिल शैव कवियों की सेविका हो गयी। उसके समानार्थ यह विवाहवत का अनु- रचनाएँ प्रायः समाहित हो गयी है । यह ग्रन्थ ग्यारह भागों ष्ठान होता है। में विभाजित है। इसी का प्रथम भाग है 'तेवाराम' । तुष्टिप्राप्तिव्रत-श्रावण कृष्ण तृतीया (श्रवण नक्षत्र युक्त) तैत्तिरीय-कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा । इसका वर्णन को भगवान् गोविन्द का उन मन्त्रों से पूजन होता है, सूत्र काल तक नहीं पाया जाता। इस शाखा का प्रतिजिनका आरम्भ 'ओम्' से तथा अन्त 'नमः' से होता है। निधित्व एक संहिता, एक ब्राह्मण, एक आरण्यक और इसके आचरण से परम सन्तोष की उपलब्धि होती है। एक उपनिषद् द्वारा होता है। उपनिषद् आरण्यक का ही तुला-तुला का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (३०.१७) में एक अंश है। हआ है। शतपथ ब्राह्मण (११.२,७,३३) में मनुष्य के तैत्तिरीय आरण्यक-तैत्तिरीय ब्राह्मण का शेषांश 'तैत्तिरीय अच्छे एवं बुरे कर्मों को इस लोक तथा परलोक में तौले आरण्यक' है। इसमें दस काण्ड हैं । काठक में बतायी हुई जाने के सिलसिले में इसका उल्लेख है । परवर्ती तुला- आरणीय विधि का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। परीक्षा से इस तुला में भिन्नता है, जिसमें मनुष्य दो बार इसके पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि प्रस्थापना के Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैत्तिरीयोपनिषद्-तोण्डरतियन्तावि नियम लिखे हैं । दूसरे प्रपाठक में अध्ययन के नियम हैं । चौथे, पांचवें और छठे में दर्शपूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों का विचार है । सायण, भास्कर और वरदराज ने तैत्तिरीय आरण्यक के भाष्य लिखे हैं । इसके सातवें, आठवें और नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से उपनिषद् कहलाते हैं । दसवाँ प्रपाठक 'याज्ञिकी अथवा 'नारायणीयोपनिषद्' के नाम से विख्यात है। तैत्तिरीयोपनिषद् तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें, आठवें और नवें प्रपाठक ब्रह्मविद्याविषयक होने से उपनिषद् कहलाते हैं । इन्हीं का संयुक्त नाम तैत्तिरीयोपनिषद् है । इसके बहुत से भाष्य एवं वृत्तियाँ हैं। इनमें शङ्कराचार्य का भाष्य प्रधान है। सायणाचार्य, रङ्गरामानुज और आनन्दतीर्थ ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं । । तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं, प्रथम भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ आलोचना के बाद अद्वैतवाद की श्रुति आदि का विचार है । दूसरे भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगुवल्ली। इन तीनों वल्लियों का इकट्ठा नाम 'वारुणी उपनिषद्' है। उस उपनिषद् में औपनिषद ब्रह्मविद्या की पराकाष्ठा दिखायी गयी है । तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका- माधवाचार्य ( चौदहवीं शताब्दी) द्वारा रचित 'तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका' तैत्तिरीयोपनिषद् की शाङ्करभाष्यानुसारणी टीका है । तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - यह यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का है। इसमें आत्रेय, स्वविर, कौडिन्य, भरद्वाज, वाल्मीकि, आग्निवेश्य, आग्निवेश्यायन, पौष्करसद आदि आचार्यों की चर्चा है । परन्तु इसमें किसी प्रसंग में भी तैत्तिरीय आरण्यक अथवा तैत्तिरीय ब्राह्मण की चर्चा नहीं है । आत्रेय, मारिषेय और वररुचि के लिखे इस पर भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते। इन पुराने भाष्यों को देखकर कात्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत भाष्य इस पर लिखा है। तैत्तिरीय ब्राह्मण - यह आपस्तम्ब एवं आत्रेय शाखा का ब्राह्मण है। इस पर सायणाचार्य एवं भास्कर मिश्र का भाष्य है । भाष्य की भूमिका में संहिता और ब्राह्मण की पृथक्ता पर विचार किया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थ में स्पष्ट ३०३ रूप से मन्त्र का उद्देश्य और व्याख्या रहती है। इस ब्राह्मण का शेषांश तैत्तिरीय आरण्यक तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिकतैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक— सुरेश्वराचार्य ( मण्डन मिश्र ) ने संन्यास लेने के बाद अनेक वेदान्त विषयक ग्रन्थ लिखे थे, तैत्तिरीय श्रुतिवार्तिक उनमें से एक है । तैत्तिरीय संहिता - वैशम्पायन प्रयतित 'तत्तिरीय संहिता' की २७ शाखाएँ हैं । महीधर ने इसके भाष्य में लिखा है कि वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि शिष्यों को वेदाध्ययन कराया । तदनन्तर किसी कारण से क्रुद्ध होकर गुरु याज्ञवल्क्य से बोले कि जो कुछ वेदाध्ययन तुमने किया है उसे वापस करो । याज्ञवल्क्य ने विद्या को मूमिमती करके वमन कर दिया। उस समय वैशम्पायन के दूसरे शिष्य उपस्थित थे। वैशम्पायन ने उन्हें आज्ञा दी कि इन वान्त यजुओं को ग्रहण कर लो। उन्होंने तीतर बनकर मन्त्रब्राह्मण दोनों को मिश्रित रूप में एक साथ ही चुग लिया, इसीलिए उसका तैत्तिरीय संहिता' नाम पड़ा। बुद्धि की मलिनता के कारण यजनों का रंग मन्त्र ब्राह्मण रूप में अलग न हो सकने से काला हो गया, इसी से 'कृष्ण यजुर्वेद' नाम चल पड़ा। इसमें मन्त्रों के संग-संग क्रियाप्रणाली (ब्राह्मण ) भी बतायी गयी है और जिस उद्देश्य से मन्त्रों का व्यवहार होता है वह भी बताया गया है। पूरी संहिता ब्राह्मण भाग के ढंग पर चलती है । इस शाखा के अन्य उपलब्ध ब्राह्मण परिशिष्ट रूप के हैं । त्रोटकाचार्य शङ्कराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक त्रोटकाचार्य थे। शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित बदरिकाश्रमस्थित ज्योतिर्मठ के ये मठाधीश बनाये गये थे। त्रोटक के तीन शिष्य थे - सरस्वती, भारती और पुरी । पुरी, भारती और सरस्वती की शिष्यपरम्परा शृंगेरी मठ में है। त्रोटक के तीनों शिष्य दसनामी संन्यासियों में से हैं । तोडलतन्त्र - 'आगमतत्त्व विलास' में उल्लिखित ६४ तन्त्रों में से ४० वें क्रम में 'तोडल तय' है। - तोण्ड सिद्ध श्वर- वीरशैव मतावलम्बी एक आचार्य (१५वीं शताब्दी) । इन्होंने 'वीर दीपिका' नामक ग्रन्थ की रचना की है। तोण्डर तिरुवन्तादि तमिल शैवकवि नम्बि की कविताओं में से एक 'तोण्डर तिरुवन्तादि' है। - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ त्यागिनीतन्त्र-त्रिचिनापल्लो एवं श्रीरङ्गम् त्यागिनीतन्त्र-इसमें कोच राजवंश के प्रतिष्ठाता विशुसिंह 'त्रागा' की कहानी पश्चिमी भारत में विशेष कर सुनी का परिचय दिया गया है। इसके कारण इसे विक्रम की गयी है । बागा आत्महत्या या आत्मघात को कहते हैं सोलहवीं शती के बाद का माना जाता है। जिसे इस जाति वाले (भाट या चारण) किसी कोश की त्रयीविद्या-(१) पुराकाल में वेदों का वर्गोकरण चार रक्षा या अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यरत रहते समय, आक्रमण संहिताओं में न होकर ऋक्, साम और यजुष रचनाशैली किये जाने पर किया करते थे। काठियावाड़ के सभी के अन्तर्गत था, जिसमें समन वैदिक सामग्री आ जाती भागों में गाँवों के बाहर ‘पालियाँ' दृष्टिगोचर होती हैं । है । अतः त्रयी से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का बोध हो ये रक्षक पत्थर हैं जो उपर्युक्त जाति के उन पुरुष एवं जाता है। स्त्रियों के सम्मान में स्थापित हैं जिन्होंने पशुओं आदि के (२) वेदों के अनुसरणकर्ता धर्मशास्त्र और अन्य रक्षार्थ 'त्रागा' किया था। उन व्यक्तियों एवं घटनाओं सामाजिक शास्त्रों के लिए भी इसका प्रयोग होता है। का विवरण भी इन पत्थरों पर अभिलिखित है। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में त्रयी की गणना चार प्रमुख त्रिक-काश्मीर शव दर्शन प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, विद्याओं में की गयी है : “आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता क्योंकि इसमें तीन ही मुख्य सिद्धान्तों-शिव, शक्ति दण्डनीतिश्चेति विद्याः।" उसमें आगे कहा गया है : एवं अणु अथवा पति, पाश एवं पशु का चिन्तन प्राप्त "एष त्रयीधर्मश्चतुर्णा वर्णानामाश्रमाणां च स्वधर्मस्थापना- होता है । माधवाचार्य के 'सर्वदर्शनसंग्रह' तथा चटर्जी के दोपकारिकः ।" (१.३.४) 'काश्मीर शैववाद' में विस्तार से इसका वर्णन यह त्रयीधर्म चारों वर्णों तथा आश्रमों के स्वधर्म मिलता है। स्थापन में उपकारी होता है।] त्रिकद्र क-यह शब्द बहुवचन में ही केवल प्रयुक्त हुआ है 'व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः । तथा सोमरस रखने के किसी प्रकार के तीन पात्रों का त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति ॥ वाचक है। त्रिखर्व-पञ्चविंश ब्राह्मण (२.८.३) में उद्धृत पुरोहितों की [ आर्य मर्यादा की व्यवस्था से युक्त, वर्णाश्रम धर्मसम्पन्न और त्रयी के द्वारा सुरक्षित प्रजा विशेष प्रकार से एक शाखा का नाम, जिन्होंने एक विशेष यज्ञ सफलता पूर्वक किया था । सुखी रहती है और कभी कष्ट नहीं पाती है। ] त्रयोदशपदार्थवर्जनसप्तमी-उत्तरायण की समाप्ति के त्रिगतिसप्तमी-यह व्रत फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को आरम्भ पश्चात् रविवार के दिन शुक्ल पक्ष में स तमी को (पुरुष होता है, एक वर्ष पर्यन्त चलता है । 'हेलि' नाम (वस्तुतः वाची नक्षत्रों, जैसै हस्त, पुष्य, मृगशिरा, पुनर्वसु, मूल, यह ग्रीक शब्द 'हेलिओस' का भारतीय रूप है ) से सूर्य श्रवण के होने पर) इसका अनुष्ठान होता है। एक वर्ष तक की पूजा होती है। फाल्गुन मास से ज्येष्ठ मास तक सूर्य की 'हंस' नाम से, आषाढ़ से आश्विन तक 'मार्तण्ड' नाम यह व्रत चलता है। सूर्य का पूजन होता है। त्रयोदश पदार्थों, जैसे व्रीहि, यव, गेहूँ, तिल, माष, मूंग इत्यादि का से, कार्तिक से माघ तक 'भास्कर' नाम से पूजा करने से निषेध है । केवल एक धान्य पर आश्रित रहना पड़ता है। ऐहलौकिक तथा पारलौकिक प्रभुत्व प्राप्त होने के साथत्रयोदशीव्रत-किसी मास की त्रयोदशी के दिन इस व्रत साथ इन्द्रलोक का आनन्द और सूर्यलोक में वास मिलता का अनुष्ठान होता है । व्रती को कैथ फल के बराबर गौ है। इन तीन गतियों के कारण इसे त्रिगतिसप्तमी कहते के मक्खन को किसी सुवर्ण, रजत, ताम्र अथवा मिट्टी के हैं। दे० हेमाद्रि, १.७३६-७३८; कृत्यरत्नाकर, ५२४पात्र में रखकर किसी को दान में देना चाहिए। ५२६, श्लोक है : 'जपन् हेलीति देवस्य नाम भक्त्या त्रागा-भाटों तथा चारणों की एक जाति । एक आश्चर्यजनक बात भाट एवं चारण जातियों के विषय में यह है त्रिचिनापल्ली एवं श्रीरङ्गम-सूदर दक्षिण का तीर्थस्थान । कि वे अवध्य समझे गये हैं। इस विश्वास के पीछे उनके कावेरी इन नगरों को दो भागों में बाँटती है। त्रिचिस्वभावतः दूत एवं कीर्तिगायक होने का गुण है। नापल्ली को प्रायः लोग “त्रिची" कहते हैं। इसका शुद्ध Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रित त्रिपुर तमिल नाम 'तिरुचिरापल्ली' है, संस्कृत नाम 'त्रिशिरःपल्ली' है ऐसी जनश्रुति है कि रावण के भाई त्रिशिरा नामक राक्षस ने इसे बसाया था । उसके विनाश के बाद यह वैष्णवतीर्थ के रूप में विकसित हुई । त्रित वैदिक साहित्य में स्पष्टतः यह एक देवता का नाम है । किन्तु निरुक्त (४.६ ) के एक परिच्छेद में यास्क ने त्रित को ऋषि का नाम बताया है । त्रित आट्य --- अपान्नपात्, त्रित आप्त्य, मातरिश्वा, अहिधन्य एवं अज एकपाद को इन्द्र एवं रुद्र के काल्पनिक पर्याय कहते हैं, जो आकाशीय विद्युत् के रूप में वर्णित हैं । 'अपांनपात्' एवं 'त्रित आप्त्य' का प्रारम्भ इण्डो-ईरानियन काल से पाया जाता है। इन दोनों एवं मातरिश्वा को कहीं-कहीं अग्नि (विशेष कर इसके आकाशीय रूप में) माना गया है । ऋग्वेद में कोई पूरा सूक्त 'त्रित आप्त्य' को समर्पित नहीं है, किन्तु अन्य देवतापरक कई सूक्तों में इसका उल्लेख पाया जाता है । इन्द्र, अग्नि, मरुत् और सोम के साथ प्रायः इसका वर्णन मिलता है। वृत्र के ऊपर इसके आक्र मण और आघात के कई सन्दर्भ पाये जाते हैं । इसकी 'आप्त्य' उपाधि से लगता है कि इसकी उत्पत्ति 'अप्' (जल) से हुई । सायण ने इसको जल का पुत्र कहा है । इसके सम्पूर्ण वर्णन से अनुमान किया जा सकता है कि त्रित (आय) विद्युत् का देवता है। तीन प्रकार की अग्नि- पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की अग्नि (विद्युत् ) इन्द्र अथवा वायु और व्योम की अग्नि (सूर्य) में से यह अन्तरिक्ष की अग्नि है। धीरे-धीरे इन्द्र ने इसकी शक्ति को आत्मसात् कर लिया और देवताओं में इसका स्थान बहुत नगण्य हो गया। सायण ने त्रित आप्त्य की उत्पत्ति की प्रकार कही है अग्नि ने ताहति के अवशेष को साफ करने के लिए आहुति की एक चिनगारी जल में फेंक दी । उससे एकत द्वित और त्रित तीन पुरुष उत्पन्न हो गये। क्योंकि वे 'अप्' से उत्पन्न हुए थे अतः 'आपत्य' कहलाये । एक दिन त्रित कूप से पानी लेने गया और उसमें गिर गया। असुरों ने कूप के मुँह पर भारी ढक्कन रख दिया, किन्तु त्रित उसको आसानी से तोड़कर निकल आया । 'नीतिमञ्जरी' में यह कथा भिन्न प्रकार से कही गयी है। एक बार त्रित आदि तीनों भाई जब यात्रा कर रहे थे तो उनको प्यास लगी। वे एक कूप के पास ३९ कथा : ३०५ पहुँचे । त्रित ने कूप से जल निकाल कर अपने भाइयों को पिलाया । भाइयों के मन में लोभ आया । त्रित की सम्पत्ति हड़प लेने के विचार से उसको कूप में ढकेल कर उसके मुँह पर गाड़ी का चक्का रख दिया । त्रित ने अति भक्तिभाव से देवताओं की प्रार्थना की और उनकी कृपा से वह बाहर निकल आया । त्रिपप्रदानसप्तमी - हस्त नक्षत्रयुक्त माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । यह (तिथिव्रत कृत्यकल्पतरु द्वारा स्वीकृत तथा मासव्रत हेमाद्रि द्वारा स्वीकृत है ।) एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसके सूर्य देवता हैं । व्रती को प्रत्येक मास पुत, पान, यव, सुबर्ण और आठ अन्य वस्तुएँ क्रमशः दान में देनी चाहिए तथा एक धान्य ( मिश्र - मन प्रकार का ) और प्रत्येक मास क्रमशः गोमूत्र, जल तथा दस पृथक्-पृथक् वस्तुएँ ग्रहण करनी चाहिए। इससे तीन वस्तुएँ प्राप्त होती हैं समृद्ध कुल में जन्म, सुस्वास्थ्य तथा धन । हेमाद्रि ने 'नयनप्रद सप्तमी' के नाम से इसे सम्बोधित किया है। त्रिदण्डी - श्रीवैष्णव संन्यासी शङ्कर के दसनामी संन्यासियों से भिन्न हैं । इनके सम्प्रदाय में केवल ब्राह्मण ही ग्रहण किये जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं। दसनामी संन्यासी एकदण्डधारी होते हैं। दोनों वर्गों का क्रमशः त्रिदण्डी' एवं 'एकदण्डी' कहकर भेद किया गया है। त्रिपादविभूतिमहानारायण उपनिषद् - यह परवर्ती उपनिषद है। त्रिपुण्ड्र - शैव सम्प्रदाय का धार्मिक चिह्न, जो भौंहों के समानान्तर ललाट के एक सिरे से दूसरे तक भस्म की तीन रेखाओं से अंकित होता है। त्रिपुण्ड्र का चिह्न छाती, भुजाओं एवं शरीर के अन्य भागों पर भी अंकित किया जाता है। 'कालाग्निरुद्र उप०' में त्रिपुण्ड्र पर ध्यान केन्द्रित करने की रहस्यमय क्रिया का वर्णन है । यह सांकेतिक चिह्न शाक्तों द्वारा भी अपनाया गया है। यह शिव एवं शक्ति के एकस्व ( सामुज्य) का निर्देशक है। त्रिपुर- ब्राह्मण ग्रन्थों में त्रिपुर का प्रयोग एक विश्वसनीय सुरक्षा के अर्थ में किया गया है। किन्तु यह प्रसंग क्लिष्ट कल्पना है। तीन दीवारों से घिरे हुए दुर्ग के अर्थ में इसको ग्रहण करना भी सन्दिग्ध ही है। परवर्ती साहित्य में त्रिपुर बाणासुर की राजधानी थी जो स्वर्ण, रौप्य और लौह की बनी थी। शिव ने इसका Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ध्वंस किया अतः वे 'त्रिपुरारि' कहलाये । स्कन्दपुराण के अवन्तिका और रेवा खण्ड में इसका विस्तृत वर्णन है। शिव अवन्तिका से त्रिपुर पर आक्रमण किया था इसलिए इस विजय के उपलक्ष्य में अवन्तिका का नाम 'उमविनी' (विशेष विजय वाली) पढ़ा। यह नगर आगे चलकर 'त्रिपुरी' भी कहलाया । इसका अवशेष जबलपुर से ६-७ मील पश्चिम तेवर गांव और आसन्यास के दूहाँ के रूप में पड़ा हुआ है। त्रिपुरसुन्दरी - यह जगदम्बा महाशक्ति का एक रूप है । त्रिपुरसूदन व्रत -- तीनों उत्तरा नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रतिमा को घृत, दुग्ध, गन्ने के रस में स्नान कराकर तत्पश्चात् केसर से उद्वर्तन तथा बाद में पूजन करना चाहिए । त्रिपुरा-यह देवी का नाम है, जो भूः भुवः स्वः लोकों अथवा पृथ्वी, पाताल, स्वर्ग की स्वामिनी हैं। तन्त्रशास्त्र में त्रिपुरा का बड़ा महत्व वर्णित है। बंगाल के पूर्व में स्थित एक प्रदेश का भी यह नाम है, जो महामाया त्रिपुरा की आराधना का पुराना केन्द्र था। जबलपुर के पास स्थित प्राचीन त्रिपुरी भी पहले शक्ति उपासना का क्षेत्र था। लगता है कि इसके नष्ट होने पर यह पीठ स्थानान्तरित होकर (नये राजवंश के साथ) वंग देश के पार्वत्य और जाङ्गल प्रदेश में चला गया और इस प्रदेश को अपना उपर्युक्त नाम दिया। त्रिपुरा उपनिषद् - यह शाक्त उपनिषद् है जिसकी रचना सं० ९५७-१४१७ के मध्य किसी समय मानी जाती है । इसमें १६ प है तथा इसका सम्बन्ध ऋग्वेद की शाकल शाखा से जोड़ा जाता है। यह शाक्त मत के दार्शनिक आधार का संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करती है । साथ ही यह अनेक प्रकार की व्यवहृत पूजा का भी वर्णन करती है। 'अथर्वशिरम् उपनिषद्' के अन्तर्गत पांच उपनिषदों में से यह एक है । त्रिपुरातन्त्र' आगमतस्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की तालिका में १४वाँ तन्त्र त्रिपुरातन्त्र है । त्रिपुरातापनीय उपनिषद् - शाक्त उपनिषदों में से एक प्रमुख यह 'नृसिंहतापनीय' की प्रणाली पर प्रस्तुत हुई है और 'अथर्वशिरस्' वर्ग की पाँच उपनिषदों के अन्तर्गत है । रचनाकाल 'त्रिपुरा उपनिषद्' के आस-पास है । त्रिपुरसुन्दरी - त्रियुग त्रिपुरोत्सव - इस व्रत के अनुष्ठान में कार्तिकी पूर्णिमा को सान्ध्य काल में शिवजी के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करना चाहिए । त्रिभाष्य-संत्तिरीय प्रातिशास्य पर आत्रेय मारिषेत्र और वररुचि के लिखे भाष्य थे, परन्तु वे अब नहीं मिलते । इन पुराने भाष्यों को देखकर कार्तिकेय ने 'त्रिभाष्य' नाम का एक विस्तृत ग्रन्थ रचा है । त्रिमधुर-मधु, वृत तथा शर्करा को त्रिमधुर कहा जाता है। धार्मिक क्रियाओं में इसका नैवेद्य रूप में प्रचुर उपयोग होता है । त्रिमूर्ति - मैत्रायणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम दो अध्यायों में वर्णित है । एक ही सर्वश्रेष्ठ सत्ता के तीन रूप हैं-ह्मा, विष्णु एवं शिव उपर्युक्त उपनिषद् के पहले परिच्छेद (४.५-६ ) में केवल इतना ही कहा गया है कि तीनों देव निराकार सत्ता के सर्वश्रेष्ठ रूप हैं। दूसरे में (५.२ ) इनके दार्शनिक पक्ष का यह वर्णन है कि ये प्रकृति के अदृश्य आधार सत्त्व, रजस् एवं तमस् हैं। एक ही सत्ता तीन देवों के रूप में निरूपित है— विष्णु सत्त्व हैं, ब्रह्मा रजस् हैं तथा शिव तमस् हैं। त्रिमूर्ति सिद्धान्त का यह वास्तविक रूप है, किन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय अपने देवता को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है । अतएव प्रत्येक सम्प्रदाय में त्रिमूर्ति के विभिन्न रूप हैं । वैष्णवों में विष्णु ही ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मा और शिव उनके आश्रित देव हैं। उसी प्रकार शैवों में शिव ब्रह्मस्वरूप हैं तथा विष्णु और ब्रह्मा उनके आश्रित है। यही भाव गाणपत्य एवं शातों में भी है। निम्बार्क, वल्लभ तथा दूसरे वैष्णव मतावलम्बी कृष्ण को विष्णु से भिन्न एवं ब्रह्म का रूप मानते हैं । साहित्य, मूर्तिशिल्प एवं चित्रकला में त्रिमूर्ति के रूपों का विविध और विस्तृत चित्रण हुआ है । त्रिमूतिव्रत ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। तीन वर्ष पर्यन्त यह चलता हैं। इसमें विष्णु भगवान् की वायु सूर्य तथा चन्द्रमा तीन दैवत मूर्तियों के रूप में पूजा होती है। - त्रियुग - ऋग्वेद (१०.९७, १ ), तैत्तिरीय सं० (४.२,६,१ ) तथा वाजसनेयी सं० ( १२.७५ ) में इस शब्द का अर्थ लता - ओषधि वनस्पतियों की क्रमिक उत्पत्ति का वह युग है, जब देवताओं की भी सृष्टि नहीं हुई थी (देवेभ्यस् त्रियुगम् पुरा ) निरुक्त के भाष्यकार (९.२८) का मत है Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रियुगीनारायण-त्रिवेणी ३०७ कि त्रियुग एरवर्ती भारत के कालक्रम को कहते हैं तथा त्रिविक्रम-(१) त्रिविक्रम का शाब्दिक अर्थ है 'तीन चरण पौधों की उत्पत्ति उसमें से प्रथम युग में हुई। शतपथ वाला' । यह विष्णु का ही एक नाम है । ऋग्वेद में विष्णु के ब्रा० (७.२,४,२६) में इससे तीन ऋतुओं-वसन्त, वर्षा (लम्बे) डगों से आकाश में चढ़ने का उल्लेख है । 'विष्णु एवं पतझड़ का अर्थ लगाया गया है । सूर्य का ही एक रूप है । वह अपने प्रातःकालीन, मध्याह्नत्रियुगीनारायण-हिमालय स्थित एक तीर्थ स्थान । बदरी- कालीन तथा सायंकालीन लम्बे डगों से सम्पूर्ण आकाश नाथ के मार्ग में पर्वतशिखर पर भगवान् नारायण भूदेवी को नाप लेता है। इसी लिए उसको ऋग्वेद में 'उरुक्रम' तथा लक्ष्मी देवी के साथ विराजमान हैं । सरस्वती गङ्गा (लम्बे डगवाला) कहा गया है । इसी वैदिक कल्पना के की धारा यहाँ है, जिससे चार कुण्ड बनाये गये हैं-ब्रह्म- आधार पर पुराणों में वामन की कथा की रचना हुई और कुण्ड, रुद्रकुण्ड, विष्णुकुण्ड और सरस्वतीकुण्ड । रुद्रकुण्ड उनको त्रिविक्रम कहा गया। पुराणों के अनुसार विष्णु के में स्नान, विष्णुकुण्ड में मार्जन, ब्रह्मकुण्ड में आचमन और वामन अवतार ने अपने तीन चरणों से राजा बलि की सरस्वतीकुण्ड में तर्पण होता है । मन्दिर में अखण्ड धूनी सम्पूर्ण पृथिवी और उसकी पीठ नाप ली। इसलिए जलती रहती है जो तीन युगों से प्रज्वलित मानी जाती विष्णु त्रिविक्रम कहलाये। है । कहते हैं शिव-पार्वती का विवाह यहीं हुआ था । (२) १३वीं शती के उत्तरार्द्ध में वैष्णवाचार्य मध्वरचित त्रिरात्रवत-इस व्रत में अक्षारलवण भोजन तथा भूमिशयन वेदान्तसूत्रभाष्य पर त्रिविक्रम ने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक का विधान है । तीन रात्रि इसका पालन करना पड़ता है, व्याख्या लिखी । गृह्यसूत्रों में विवाह के पश्चात् पति-पत्नी द्वारा इसके त्रिविक्रमत्रिरात्र व्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को यह व्रत पालन का आदेश है। बड़े अनुष्ठानों के साथ आनुषङ्गिक प्रारम्भ होता है। प्रति मास दो त्रिरात्रव्रतों के हिसाब से रूप में इसका प्रयोग होता है। चार वर्षों तथा दो मासों में, अर्थात् ५० महीनों में कुल त्रिलोकनाथ-शिव का एक नाम । इस नाम का एक शैव १०० त्रिरात्रव्रत होते हैं । इसमें वासुदेव का पूजन होता तीर्थ है। हिमाचल प्रदेश में रटांग जोत (व्यासकुण्ड) से है । अष्टमी को एकभक्त तथा उसके बाद तीन दिन तक उतरने पर चन्द्रा नदी के तट पर खोकसर आता है । यहाँ उपवास का विधान है। कार्तिक में व्रत की समाप्ति होती डाकबंगला और धर्मशाला है। चन्द्रभागा के किनारे है । दे० हेमाद्रि, २.३१८-३२० । त्रिविक्रम 'विष्णु' का किनारे २८ मील त्रिलोकनाथ के लिए रास्ता जाता है। ही एक विरुद है। ऋग्वेद के विष्णुसुक्क में विष्णु के तीन त्रिलोकनाथ का मन्दिर छोटा परन्तु बहुत सुन्दर बना पदों (त्रिविक्रम) का उल्लेख है । पुराणों के अनुसार विष्णु ने वामन रूप में अपने तीन पदों से सम्पूर्ण त्रिलोकी को हुआ है। नाप लिया था। इस व्रत में इसी रूप का ध्यान किया त्रिलोचन-नामदेव के समकालीन एक मराठा भक्त गायक, जाता है। जिनके बारे में बहुत कम ज्ञात है । ग्रन्थ साहब में उनकी तीन त्रिविक्रमव्रत-यह विष्णुव्रत है। कार्तिक से तीन मास स्तुतियाँ मिलती हैं, किन्तु उनकी मराठी कविताएँ तथा तक अथवा तीन वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। स्मृति भी उनकी जन्मभूमि में ही खो गयी ज्ञात होती है। ___ इसके अनुष्ठान से व्रती पापों से मुक्त हो जाता है । दे० ये वैष्णव भक्त थे। हेमाद्रि, २.८५४-८५५ (विष्णुधर्म० से ); कृत्यकल्पतरु, त्रिलोचनयात्रा-(१) वैशाख शुक्ल तृतीया को इस व्रत का ४२९-४३० । अनुष्ठान होता है। इसमें शिवलिङ्ग ( त्रिलोचन ) का त्रिवृत-दुग्ध, दधि तथा घृत समान भाग होने पर त्रिवृत पूजन करना चाहिए । दे० काशीखण्ड । कहलाते हैं (वैखानसस्मार्तसूत्र, ३.१०)। धार्मिक क्रियाओं (२) त्रयोदशी के दिन प्रदोष काल में काशी में कामेश में त्रिवृत का प्रायः उपयोग होता है। का दर्शन करना चाहिए । विशेष रूप से शनिवार के दिन त्रिवेणी-तीन वेणियों (जलधाराओं) का सङ्गम । प्रयाग कामकूण्ड में स्नान का विधान है। दे० पुरुषार्थचिन्ता- तीर्थराज का यह पर्याय है। गङ्गा और यमना दो नदियाँ मणि, २३० । यहाँ मिलती है और विश्वास किया जाता है कि सरस्वती Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ त्रिवेन्द्रम्-यम्बकहोम भी, जो राजस्थान के मरुस्थल में लुप्त हो जाती है, पृथ्वी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्य के लिए इन्हीं तीन के नीचे-नीचे आकर उनसे मिल जाती है। हिन्दू धर्म में पवित्र तीर्थस्थानों की यात्रा का महत्त्व बतलाया है । नदियाँ पवित्र मानी जाती हैं, दो नदियों का सङ्गम और वस्तुतः इन तीनों स्थलों का सम्यक् सुकृत समाहार ही अधिक पवित्र माना जाता है और तीन नदियों का सङ्गम किसी तीर्थयात्री की यात्रा का मूल उत्स है। यदि इन तो और भी अधिक पवित्र समझा जाता है। यहाँ पर तीनों स्थलों की यात्रा उसने नहीं की तो उसकी तीर्थस्नान और दान का विशेष महत्त्व है। यात्रा व्यर्थ है। 'त्रिस्थलीसेतु' के आनन्दाश्रम संस्करण त्रिवेन्द्रम्-यह तीर्थस्थान केरल प्रदेश में है। यह वैष्णव में प्रयाग का विवरण पृष्ठ १ से ७२ तक, काशी का तीर्थ है । नगर का शुद्ध नाम 'तिरुअनन्तपुरम्' है। पुराणों विवरण पृष्ठ ७३ से ३१६ तक तथा गया का विवरण में इस स्थान का नाम 'अनन्तवनम्' मिलता है। प्राचीन पृष्ठ ३१७ से ३७९ तक दिया गया है। त्रावणकोर राज्य तथा वर्तमान केरल प्रदेश की यह राज- त्रिसम-दालचीनी, इलायची और पत्रक को त्रिसम कहा धानी है। स्शन से आधे मील पर यहाँ के नरेश का जाता है । दे० हेमाद्रि, १४३ । इसका भैषज्य और धार्मिक राजप्रासाद है। भीतर पद्मनाभ भगवान् का मन्दिर है। क्रियाओं में उपयोग होता है। पूर्व भाग में स्वर्णमंडित गरुडस्तम्भ है। दक्षिण भाग में त्रिसुगन्ध-दालचीनी, इलायची तथा पत्रक के समान भाग शास्ता ( हरिहरपुत्र ) का छोटा मन्दिर है। उत्सव को त्रिसुगन्ध भी कहते हैं। धार्मिक क्रियाओं में इनका विग्रह के साथ श्रीदेवी, भूदेवी, लीलादेवी को मूर्तियाँ प्रायः व्यवहार होता है। विराजमान हैं । शास्त्रीय विधि के अनुसार द्वादश सहस्र त्र्यणुक-वैशेषिक दर्शन अणुवादमूलक भौतिकवादी है । ( १२००० ) शालग्राम मूर्तियाँ भीतर रखकर “कटुशर्कर योग" नामक मिश्रण विशेष से भगवान् पद्मनाभ द्रव्यों के नौ प्रकार इसमें मान्य हैं। उनमें प्रथम चार का वर्तमान विग्रह निर्मित हुआ है। पद्मनाभ ही त्रावण परमाणुओं के प्रकार हैं । प्रत्येक परमाणु अपरिवर्तनशील कोर (केरल) के अधिपति माने जाते है । राजा भी उनका एवं अन्तिम सत्ता है। ये चार प्रकार के गुण रखते हैं, प्रतिनिधि मात्र होता था। यथा गंध, स्वाद, ताप, प्रकाश (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के अनुसार )। दो परमाणु मिलकर 'द्वयणुक' बनाते हैं त्रिशकु-तैत्तिरीय उपनिषद् में वर्णित एक आचार्य तथा तथा ऐसे दो अणुओं के मिलन से 'त्र्यणुक' बनते है । वैदिक साहित्य के एक राजऋषि । परवर्ती साहित्य के ये त्र्यणुक ही वह सबसे छोटी इकाई है, जिसमें विशेष अनुसार त्रिशङ्क एक राजा का नाम है। विश्वामित्र ने गुण होता है और जो पदार्थ कहा जा सकता है। इसको सदेह स्वर्ग भेजने की चेष्टा की, परन्तु वसिष्ठ ने त्र्यम्बक-तीन अम्बक ( नेत्र) वाला ( अथवा तीन माता अपने मन्त्रबल से उसको आकाश में ही रोक दिया। तब से त्रिशङ्क एक तारा के रूप में अधर में ही लटका हुआ है। वाला )। यह शिव का पर्याय है । 'महामृत्युञ्जय' मन्त्र के त्रिशक्तितन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में दी गयी ६४ तन्त्रों जप में शिव के इसी रूप का ध्यान किया जाता है। की सूची में यह ४३वाँ तन्त्र है । त्र्यम्बकवत-चतुर्दशी तिथि को भगवान् शङ्कर के प्रीत्यर्थ त्रिशिखिब्राह्मण उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। यह व्रत किया जाता है। प्रत्येक वर्ष के अन्त में एक त्रिशोक-एक पुराकालीन ऋषि, जिसका उल्लेख ऋग्वेद गोदान करते हुए मनुष्य शिवपद प्राप्त करता है । दे० (१.११२,१३; ८.४५,३० तथा १०.२९,२) तथा अथर्व हरिवंश, २.१४७ । वेद ( ४.२९,६) में हुआ है । पञ्चविंश ब्राह्मण में उसके व्यम्बकहोम-'साकमेध' के अन्तर्गत, जो चातुर्मास्ययज्ञ नाम से सम्बन्धित एक साम का प्रसंग है। का तृतीय पर्व है उसमें पितृयज्ञ का विधान है। इसी यज्ञ त्रिस्थली-भारत के तीन श्रेष्ठ तीर्थ प्रयाग, काशी और का दूसरा भाग है 'त्र्यम्बकहोम' जो रुद्र के लिए किया गया विद्वानों द्वारा 'त्रिस्थली' के नाम से अभिहित किये जाता है। इसका उद्देश्य देवता को प्रसन्न करना तथा गये हैं। नारायण भट्ट ने १६३७ वि० में वाराणसी में उन्हें दूसरे लोगों के पास भेजने के लिए तैयार करना है, 'त्रिस्थलीसेतू' नाम का एक ग्रन्थ लिखा था। इस जिससे यज्ञकर्ता को कोई हानि न हो। भौतिक उत्पात Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ त्र्यहःस्पृक-दक्ष के अवसर पर 'शतरुद्रिय होम' भी उपर्युक्त यज्ञ के ही समान शान्तिप्रदायक होता है। त्र्यहःस्पृक्-विष्णुधर्म० १.६०.१४ के अनुसार जब एक तिथि (६० घड़ी से अधिक) तीन दिन तथा रात का स्पर्श करती है तब उसे यहःस्पृक् कहा जाता है। इसमें एक तिथि की वृद्धि हो जाती है। त्रैलोक्यमोहनतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में उद्धृत यह एक तन्त्र है। त्रैलोक्यसारतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में उद्धृत यह एक तन्त्र ग्रन्थ है । त्वष्टा-वैदिक देवों में अति प्राचीन त्वष्टा शिल्पकार देवता है तथा देवों का निर्माणकार्य इसी के अधीन है। 'त्वष्टा' का शाब्दिक अर्थ है निर्माण करनेवाला, शिल्प- कार, वास्तुकार । विश्वकर्मा भी यही है । यह 'द्यो' का पर्याय भी हो सकता है। सभी वस्तुओं को निश्चित आकार में अलंकृत करना तथा गर्भावस्था में पिण्ड को आकृति प्रदान करना इसका कार्य है। मनुष्य एवं पशु सभी जीवित रूपों का जन्मदाता होने के कारण यह वंश एवं जननशक्ति का प्रतिनिधि है। यह मनुष्यजाति का पूर्वज है, क्योंकि प्रथम मनुष्य यम और उसकी पुत्री सरण्या का पुत्र है ( ऋ० १०.१६.१ ) । वायु उसका जामाता है ( ८.२६.२१ ), अग्नि ( १.९५.२ ) एवं अनुभाव से इन्द्र (६.५९.२; २.१७.६) उसके पुत्र है । त्वष्टा का एक पुत्र विश्वरूप है। लोलौजज्जयिनी गुह्यः शरच्चन्द्रविदारकः । इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है : नीलवर्णां त्रिनयनां षड्भुजां वरदां पराम् । पीतवस्त्रपरीधानां सदा सिद्धिप्रदायिनीम् ।। एवं ध्यात्वा थकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् । पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा ॥ तरुणादित्यसंकाशं थकारं प्रणमाम्यम् ।। थं-यह माङ्गलिक ध्वनि है (मेदिनी)। इसीलिए संगीत के ताल में इसका संकेत होता है। इसका तात्त्विक अर्थ है रक्षण । दे० एकाक्षरकोश । थ–मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है 'पर्वत' । तन्त्र में यह भय से रक्षा करने वाला माना जाता है। कहीं-कहीं इसका अर्थ 'भयचिह्न' भी है । शब्दरत्नावली में इसका अर्थ 'भक्षण' भी दिया हुआ है। थानेसर(स्थाण्वीश्वर)तीर्थ-यह तीर्थस्थान हरियाणा प्रदेश में स्थित है और थानेसर शहर से लगभग दो फांग की दूरी पर अत्यन्त ही पवित्र सरोवर है । इसके तट पर स्थावीश्वर ( स्थाणु-शिव ) का प्राचीन मन्दिर है। कहा जाता है कि एक बार इस सरोवर के कुछ जलबिन्दुओं के स्पर्श से ही महाराज वेन का कुष्ठ रोग दूर हो गया था। यह भी कहा जाता है कि महाभारतीय युद्ध में पाण्डवों ने पूजा से प्रसन्न शंकरजी से यहीं विजय का आशीर्वाद ग्रहण किया था। पुष्यभूति वंश के प्रसिद्ध राजा हर्षवर्द्धन तथा उसके पूर्वजों की यह राजधानी थी। प्राचीन काल से यह प्रसिद्ध शैव तीर्थ है। थ-व्यञ्जन वर्णों के तवर्ग का द्वितीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नलिखित प्रकार से बताया गया है : थकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षदायिनी। विशक्तिसहितं वर्णं त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणात्मकं सदा । अरुणादित्यसंकाशं थकारं प्रणमाम्यहम् ।। तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं : थः स्थिरामी महाग्रन्थिन्थिग्राहो भयानकः । शिलो शिरसिजो दण्डी भद्रकाली शिलोच्चयः ।। कृष्णो बुद्धिविकर्मा च दक्षनासाधियोऽमरः । वरदा योगदा केशो वामजानुरसोऽनलः ।। दक्ष-आदित्यवर्ग के देवताओं में से एक । कहा जाता है कि अदिति ने दक्ष को तथा दक्ष ने अदिति को जन्म दिया । यहाँ अदिति सृष्टि के स्त्रीतत्त्व एवं दक्ष पुरुषतत्त्व का प्रतीक है । दक्ष को बलशाली, बुद्धिशाली, अन्तर्दृष्टियुक्त एवं इच्छाशक्तिसम्पन्न कहा गया है। उसकी तुलना वरुण के उत्पादनकार्य, शक्ति एवं कला से हो सकती है। स्कन्दपुराण में दक्ष प्रजापति की विस्तृत पौराणिक कथा दी हुई है । दक्ष की पुत्री सती शिव से ब्याही गयी थी। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अन्य देवताओं को निमन्त्रण दिया किन्तु शिव को नहीं बुलाया। सती अनिमन्त्रित पिता के यहाँ गयी और यज्ञ में पति का भाग न देखकर Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० वक्ष पार्वति-दण्डनीति उसने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना से क्रुद्ध हो- चलने वाला उपासक अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्व कर शिव ने अपने गणों को भेजा जिन्होंने यज्ञ का विध्वंस से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है और मद्य के कर दिया। शिव सती के शव को कन्धे पर लेकर विक्षिप्त स्थान में विजयारस (भंग) का सेवन करता है । विजयाघूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ- रस भी पञ्च मकारों में गिना जाता है। इस मार्ग को वहाँ विविध तीर्थ बन गये। वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है । दाक्षिणात्यों में शंकर__दक्ष नाम के एक स्मृतिकार भी हुए हैं, जिनकी स्वामी के अनुयायी शवों में दक्षिणाचार का प्रचलन धर्मशास्त्रीय कृति 'दक्षस्मृति' प्रसिद्ध है ।। देखा जाता है। वक्ष पार्वति-पर्वत के वंशज दक्ष पार्वति का उल्लेख शतपथ दक्षिणाचारी-दक्षिणाचार का आचरण करने वाले शाक्त ब्राह्मण (२.४,४,६) में एक विशेष यज्ञ के सन्दर्भ में हआ उपासक । दे० 'दक्षिणाचार' । है, जिसे उसके वंशज दाक्षायण करते रहे तथा उसके दक्षिणामूति उपनिषद्-एक परवत्ती उपनिष प्रभाव से ब्राह्मणकाल तक वे राज्यपद के भागी बने रहे। दक्षिणामतिस्तोत्रवातिक-सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने इसका उल्लेख कौषीतकि ब्राह्मण (४.४) में भी है। संन्यास लेने के बाद जिन अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया दक्षिणतःकपर्द-वसिष्ठवंशजों का एक विरुद (ऋ० वे उनमें से एक यह ग्रन्थ भी है। ७.३३.६), क्योंकि वे केशों की वेणी या जटाजूट बनाकर र दण्ड-मनुस्मृति में दण्ड को देवता का रूप दिया गया है पल उसे मस्तक के दक्षिण भाग की ओर झुकाये रखते थे। जिसका रङ्ग काला एवं आँखें लाल है, जिसे प्रजापति ने दक्षिणा-यज्ञ करने वाले पुरोहितों को दिये गये दान धर्म के अवतार एवं अपने पुत्र के रूप में जन्म दिया । (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं । ऐसे अवसरों पर 'गाय' ही दण्ड ही विश्व में शान्ति का रक्षक है । इसकी अनुपस्थिति प्रायः शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा ब्राह्मणों में इसका में शक्तिशाली निर्बलों को सताने लगते हैं एवं मात्स्य न्याय और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाएँ, अश्व, भैंस, ऊँट, फैल जाता है (जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल आभूषण आदि । इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि जाती है, उसी प्रकार बड़े लोग छोटे लोगों को मिटा भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना डालते हैं)। सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा ___ दण्ड ही वास्तव में राजा तथा शासन है, यद्यपि इसका सकता था । अतएव भूमि अदेय समझी गयी । किन्तु मध्य प्रयोग राजा अथवा उचित अधिकारी द्वारा होता है। युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने अपराध से गुरुतर दण्ड देने पर प्रजा रुष्ट होती है तथा लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो लघुतर दण्ड देने पर वह राजा का आदर नहीं करती। आय होती थी, उसका दान । अतएव राजा को चाहिए कि वह अपराध को ठीक तौल प्रत्येक धार्मिक अथवा माङ्गलिक कृत्य के अन्त में कर दण्डविधान करे। यदि अपराधी को राजा दण्डित पुरोहित, ऋत्विज् अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना न करे तो वही उसके किये हुए अपराध एवं पापों का, आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का भागी होता है । मनु ने 'दण्ड' के माहात्म्य में कहा है : सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा दण्ड: शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य (गुरु) को दण्डः सुप्तेषु जागति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ॥ दक्षिणा देने का विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है। बक्षिणाचार-शैव मत के अनुरूप ही शाक्त मत भी निगमों [दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता पर आधारित है, तदनन्तर जब आगमों के विस्तृत है । जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है । बुद्धिआचार का शाक्त मत में और भी समावेश हआ तब से मानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है।] निगमानुमोदित शाक्त मत का नाम दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग दण्डनीति–राजशास्त्र का एक नाम । यह शास्त्र अति अथवा वैदिक शाक्तमत पड़ गया। आजकल इस दक्षिणा- प्राचीन है। महाभारत, शान्तिपर्व के ५९वें अध्याय में चार का भी एक विशिष्ट रूप बन गया है । इस मार्ग पर लिखा है कि सत्ययुग में बहुत काल तक न राजा था, न । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डी - दत्तात्रेय दण्ड । प्रजा कर्मानुगामिनी थी । फिर काम, क्रोध, लोभादि दुर्गण उत्पन्न हुए । कर्त्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हुआ एवं 'मात्स्य न्याय' का बोलबाला हुआ । ऐसी दशा में देवों की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाला 'दण्डनीति' नाम का नीतिशास्त्र रच डाला। इसी के संक्षिप्त रूप आवश्यकतानुसार समय-समय पर 'वैशा लाक्ष', 'बाहुदन्तक', बार्हस्पत्य शास्त्र', 'ओशनसी नीति', 'अर्थशास्त्र', 'कामन्दकीय नीति' एवं 'शुक्रनीतिसार' हुए दण्डनीति का प्रयोग राजा के द्वारा होता था। यह राजधर्म का ही प्रमुख अङ्ग है । कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' के विद्यासमुद्देश प्रकरण में विद्याओं की सूची में दण्डनीति की गणना की है 'आन्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः ।' कौटिल्य ने कई राजनीतिक सम्प्रदायों में ओशनससम्प्रदाय का उल्लेख किया है जो केवल दण्डनीति को ही विद्या मानता था । परन्तु उन्होंने स्वयं इसका प्रतिवाद किया है और कहा है कि चार विद्याएँ हैं ( चतस्र एव विद्या) और इनके सन्दर्भ में ही दण्डनीति का अध्ययन हो सकता है । 'अर्थशास्त्र' में दण्डनीति के निम्नांकित कार्य बताये गये हैं : ( १ ) अलब्धलाभार्था ( जो नही प्राप्त है उसको प्राप्त कराने वाली ), ( २ ) लब्धस्य परिरक्षिणी ( जो प्राप्त है उसकी रक्षा करने वाली ), (३) रक्षितस्य विवर्धिनी ( जो रक्षित है उसकी वृद्धि करने वाली ) और ( ४ ) वृद्धस्य पात्रेषु प्रतिपादिनी (बढ़े हुए का पात्रों में सम्यक् प्रकार से विभाजन करनेवाली ) । बण्डी - चतुर्थ आश्रम के कर्तव्य व्यवहारों के प्रतीक रूप बाँस का दण्ड जो संन्यासी हाथ में धारण करते हैं, वे दण्डी कहे जाते हैं। आजकल प्रायः शङ्कर स्वामी के अनुगामी दण्डियों का विशेष प्रचलन है । यह उनके दसनामी संन्यासियों का एक आन्तरिक वर्ग है। इनके नियमानुसार केवल ब्राह्मण ही दण्ड धारण कर सकता है । इसकी क्रियाएँ इतनी कठिन हैं कि ब्राह्मणों में भी कुछ थोड़े ही उनका निर्वाह कर सकते हैं और अधिकांश इस अधिकार का उपयोग नहीं कर पाते ! ३११ काशी ने गुरु दत्तगोरखसंवाद - नागरी प्रचारिणी सभा, गोरखनाथ विरचित ३७ ग्रन्थ खोज निकाले हैं, जिनमें से 'दत्तगोरखसंवाद' भी प्रमुख ग्रन्थ है । --- दत्त तापस पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.१५.३ ) के वर्णनानुसार दत्त तापस तथाकथित सर्पयज्ञ में होता पुरोहित था। दत्त सम्प्रदाय - प्राचीन वैष्णवों के व्यापक भागवत सम्प्रदाय की अब तीन शाखाएँ पायी जाती हैं- वारकरी सम्प्रदाय, रामदासी पन्थ एवं दत्त सम्प्रदाय ये तीनों सम्प्रदाय महाराष्ट्र में ही उत्पन्न हुए और वहीं से फैले। इन सम्प्रदायों में उच्च कोटि के सन्त, भक्त और कवि हो गये हैं । दत्त सम्प्रदाय तीनों में पुराना है । इसके आराध्य या आदर्श अवधूतराज दत्तात्रेय माने जाते हैं । दत्त होम - दत्तक पुत्र ग्रहण विधि का अनुष्ठान होता है अपना उत्तराधिकारी एवं । करने के समय इस धार्मिक हिन्दुओं में पुत्रहीन पिता वंशपरम्परा स्थापित करने के लिए दूसरे के पुत्र को ग्रहण करता है । इस अवसर पर उसे दूसरी आवश्यक विधियों के करने के पश्चात् व्याहृतिहोम अथवा 'दत्तहोम' करना पड़ता है। इस होम का आशय देवों का साक्षित्व प्राप्त करना होता है कि उनकी उपस्थिति में पुत्रसंग्रह का कार्य सम्पन्न हुआ । दत्तात्रेय - आगमवर्ग की प्रत्येक संहिता प्रारम्भिक रूप में किसी न किसी सम्प्रदाय की पूजा या सिद्धान्त का वर्णन उपस्थित करती है । दत्तात्रेय की पूजा इस नाम की 'दत्तात्रेयसंहिता' में उपलब्ध है। बत्तात्रेय को मानभाउ सम्प्रदाय वाले अपने सम्प्रदाय का मुख्य आचार्य कहते हैं तथा उनकी पूजा करते हैं। दत्तात्रेय की अस्पष्ट मूर्तिपूजा छाया रूप में मानभाउ सम्प्रदाय के इतिहास के साथ संलग्न रहो है। दत्तात्रेय को ऐतिहासिक संन्यासी मान लिया जाय तो अवश्य ही वे महाराष्ट्र प्रदेश में हुए होंगे तथा यादवगिरि ( मेलकोट ) से सम्बन्धित रहे होंगे जैसा नारदपुराण में । उल्लिखित है, उन्होंने मैसूरस्थित यादवगिरि की यात्रा की थी । संप्रति उनका प्रतिनिधित्व तीन मस्तक वाली एक संन्यासी मूर्ति से होता है और इस प्रकार वे त्रिमूर्ति भी समझे जाते हैं । उनके साथ चार कुत्ते एवं एक गाय होती है, जो क्रमशः चारों वेदों एवं पृथ्वी के प्रतीक हैं । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ दत्तात्रेयउपनिषद-वधि किन्तु मानभाउ लोग उनको इस रूप में न मानकर कृष्ण का अवतार समझते हैं। दत्तात्रय उपनिषद-एक परवर्ती उपनिषद् है, जिसका सम्बन्ध दत्तात्रेय सम्प्रदाय अथवा मानभाउ सम्प्रदाय के आरम्भ से है। दत्तात्र यजन्मव्रत-मार्गशीर्ष की पूर्णमासी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनसूया अपने पुत्र को 'दत्त' नाम से पुकारती थीं, क्योंकि भगवान् ने स्वयं को उन्हें पुत्र रूप में प्रदान कर दिया था। साथ ही वे अत्रि मनि के पुत्र थे, इसलिए संसार में दत्त-आत्रेय के नाम से वे प्रसिद्ध हुए। दे० निर्णयसिन्धु, २१०; स्मृतिकौस्तुभ, ४३०; वर्षकृत्यदीपिका, १०७-१०८ । भगवान् दत्तात्रेय के लिए महाराष्ट्र में अपूर्व भक्ति देखी जाती है। उदाहरण के लिए, इनसे सम्बद्ध तीर्थ औदुम्बर, गाङ्गापारा, नरसोबा-वाडी इत्यादि महाराष्ट्र में ही हैं। दत्तात्रेय ने राजा कार्तवीर्य को वरदान दिया था (वनपर्व, ११५. १२) दत्तात्रेय विष्णु के अवतार बतलाये जाते है, उन्होंने अलर्क को योग का उपदेश दिया था । वे सह्याद्रि की कन्दराओं और घाटियों में निवास करते थे और अवधूत नाम से विख्यात थे। तमिलनाडु के पञ्चाङ्गों से प्रतीत होता है कि दत्तात्रेयजयन्ती तमिलनाडु में भी मनायी जाती है। दत्तात्रय सम्प्रदाय-दत्तात्रेय को कृष्ण का अवतार मान कर पूजा करने वाले एक सम्प्रदाय का उदय महाराष्ट्र प्रदेश में हुआ। इसके अनुयायी वैष्णव हैं। ये मूर्तिपूजा के विरोधी हैं । इस सम्प्रदाय को 'मानभाउ', 'दत्त सम्प्रदाय', 'महानुभाव पन्थ' तथा 'मुनिमार्ग' भी कहते हैं। महाराष्ट्र प्रदेश, बरार के ऋद्धिपुर में इसके प्रधान महन्त का मठ है। परन्तु महाराष्ट्र में ही ये लोग लोकप्रिय न हो पाये। महाराष्ट्र के सन्तकवि एकनाथ, गिरिधर आदि ने अपनी कविताओं में इनकी निन्दा की है। सं० १८३९ में माधवराव पेशवा ने फरमान निकाला कि 'मानभाउ पन्थ पूर्णतया निन्दित है। उन्हें वर्णबाह्य समझा जाय । न तो उनका वर्णाश्रम से सम्बन्ध है और न छहों दर्शनों में स्थान है। कोई हिन्दू उनका उपदेश न सुने, नहीं तो जातिच्युत कर दिया जायगा।" समाज उन्हें भ्रष्ट कहकर तरह-तरह के दोष लगाता था। जो हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि यह सुधारक पन्थ वर्णाश्रम धर्म की परवाह नहीं करता था और इसका ध्येय केवल भगवद्भजन और उपासना मात्र था । यह भागवत मत की ही एक शाखा है। ये सभी सहभोजी हैं किन्तु मांस, मद्य का सेवन नहीं करते और अपने संन्यासियों को मन्दिरों से अधिक सम्मान्य मानते हैं । दीक्षा लेकर जो इस पन्थ में प्रवेश करता है, वह पूर्ण गुरु पद का अधिकारी हो जाता है। ये अपने शवों को समाधि देते हैं । इनके मन्दिरों में एक वर्गाकार अथवा वृत्ताकार सौध होता है, वही परमात्मा का प्रतीक है। यद्यपि दत्तात्रेय को ये अपना मार्गप्रवर्तक मानते हैं तो भी प्रति युग में एक प्रवर्तक के अवतीर्ण होने का विश्वास करते हैं । इस प्रकार इनके अब तक पाँच प्रवर्तक हुए हैं और उनके अलग-अलग पाँच मन्त्र भी हैं। पाचों मन्त्र दीक्षा में दिये जाते हैं। इनके गहस्थ और संन्यासी दो ही आश्रम हैं। भगवद्गीता इनका मुख्य ग्रन्थ है। इनका विशाल साहित्य मराठी में है, परन्तु गुप्त रखने के लिए एक भिन्न लिपि में लिखा हुआ है। लीलासंवाद, लीलाचरित्र और सूत्रपाठ तथा दत्तात्रेय-उपनिषद् एवं संहिता इनके प्राचीन ग्रन्थ हैं। विक्रम की चौदहवीं शती के आरम्भ में सन्त चक्रधर ने इस सम्प्रदाय का जीर्णोद्धार किया था। जान पड़ता है, चक्रधर ने ही इस सम्प्रदाय में वे सुधार किये जो उस समय के हिन्दू समाज और संस्कृति के विपरीत लगते थे। इस कारय यह सम्प्रदाय सनातनी हिन्दुओं की दृष्टि में गिर गया और बाद को राज्य और समाज दोनों द्वारा निन्दित माना जाने लगा। सन्त चक्रधर के बाद सन्त नागदेव भट्र हुए जो यादवराज रामचन्द्र और सन्त योगी ज्ञानेश्वर के समकालीन थे । यादवराज रामचन्द्र का समय सं० १३२८-१३६३ है। सन्त नागदेव भट्ट ने भी इस सम्प्रदाय का अच्छा प्रचार किया। मानभाउ सम्प्रदाय वाले भूरे रङ्ग के कपड़े पहनते हैं। तुलसी की कण्ठी और कुण्डल धारण करते हैं। अपना मत गुप्त रखते है और दीक्षा के पश्चात् अधिकारी को ही उपदेश देते हैं। प्राचीन ग्रन्थ । वधि-वैदिक साहित्य में दधि का उद्धरण अनेक बार आया है। 'शतपथ ब्राह्मण (१.८.१.७) में घृत, दधि, मस्तु का Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वघोचि-दमनकमहोत्सव क्रम से उल्लेख है । दधि सोम में मिलाया जाता था। दधीचितीर्थ-यह सरस्वती नदी के तट पर है, इस स्थान 'दध्याशिर' सोम का ही एक विरुद है। परवर्ती धार्मिक पर महर्षि दधीचि का आश्रम था। इन्होंने देवराज इन्द्र साहित्य में दधि को सिद्धि का प्रतीक मानते हैं और के मांगने पर राक्षसों का संहार करने के उद्देश्य से वज्र माङ्गलिक अवसरों पर अनेक प्रकार से इसका उपयोग बनाने के लिए अपनी हड्डियों का दान किया था। करते हैं। दनु-वर्षा के बादल का नाम, जो केवल कुछ ही बूंद दधीचि-एक अति प्राचीन ऋषि । सत्ययुग के दीर्घकाल में बरसाता है। दनु वृत्र (असुर) की माँ का नाम भी है । ही कई बार वेदों का संकोच-विकास हुआ है। महाभारत ऋग्वेद (१०.१२०.६) में सात दनुओं (दानवों) का वर्णन के शल्यपर्व में कथा है कि एक बार अवर्षण के कारण है, जो दनु के पुत्र है और जो आकाश के विभिन्न भागों ऋषि लोग देश के बाहर बारह वर्ष तक रहने से वेदों को घेरे हुए हैं। वृत्र उनमें सबसे बड़ा है । ऋग्वेद (२. को भूल गये थे। तब दधीचि ने और सरस्वती के पुत्र १२.११) में दनु के एक पुत्र शम्बर का वर्णन है जिसका सारस्वत ऋषि ने अपने से कहीं अधिक बूढ़े ऋषियों को इन्द्र ने ४०वें वसन्त में बध किया, जो बड़े पर्वत के ऊपर फिर से वेद पढ़ाये थे। निवास करता था। पुराणों में दनु के वंशज दानवों की दधीचि के त्याग की कथा भारत के उच्च आदर्श की कथा विस्तार के साथ वर्णित है। द्योतक है । वृत्र नामक असुर को मारने के लिए जब देवों दन्त-ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में 'दन्त' शब्द का प्रयोग ने दधीचि से उनकी अस्थियाँ माँगी तो उन्होंने योगबल बहुलता से हुआ है। 'दन्तधाव' एक साधारण कम था, से प्राण त्याग कर हड्डियाँ दे दी, उनसे वज्र का निर्माण विशेष कर यज्ञ करने की तैयारी के समय स्नान, क्षौर हुआ और उसका उपयोग करके इन्द्र ने वृत्त असुर का (केश-श्मश्रु) कर्म, नख कटाना आदि के साथ इसे भी वध किया । विष्णु और शिव के धनुष भी इन्हीं हड्डियों किया जाता था। अथर्ववेद में बालक के प्रथम उगने वाले से बनाये गये थे। दो दन्तों का वर्णन है, यद्यपि इसका ठीक आशय अस्पष्ट दध्यङ् आथर्वण-एक ऋषि । ऋग्वेद में इनको एक प्रकार है । ऐतरेय ब्राह्मण में बच्चे के दूध के दाँतों के गिरने का देवता कहा गया है (१.८०, १६; ८४, १२, १४; का वर्णन है । ऋग्वेद में इस शब्द का एक स्थान पर ११६, १२; ११७, २२; ११९, ९), किन्तु परवर्ती संहि गजदन्त अर्थ लगाया गया है। दन्तचिकित्सा शास्त्र ताओं (तैत्ति० सं० ५.१,४,४; ६,६,३; काठक सं० १९.४) प्रचलित था या नहीं, यह सन्देहात्मक है। ऐतरेय एवं ब्राह्मणों (शतपथ ४.१,५,१८, ६.४,२,३; १४.१,१, आरण्यक में हिरण्यदन्त नामक एक मनुष्य का उल्लेख है, १८,२०,२५,५,१३; बृहदा० उप० २.५,२२, ४,५.२८ जिससे यह अनुमान किया जाता है कि दाँतों को गिरने से आदि) में उन्हें अध्यापक का रूप दिया गया है । पञ्चविंश रोकने के लिए उन्हें स्वर्णजटित किया जाता था। ब्राह्मण (१२.८,६) तथा गोपथ ब्राह्मण (१.५,२१) में दमनकपूजा-चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुष्ठान अस्पष्ट रूप से उन्हें आङ्गिरस भी कहा गया है। होता है । इसमें कामदेव का पूजन किया जाता है। दधिव्रत-श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान दमनक पौधा कामदेव का प्रतीक है अतः उसको माध्यम होता है । व्रतकर्ता इस काल में दही का सेवन नहीं बनाकर पूजा होती है। करता। दमनभञ्जी-चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को इस नाम से पुकारा दधिसंक्रान्तिव्रत-उत्तरायण की (मकर) संक्रान्ति से जाता है, इसमें दमनक पौधे के (स्कन्ध, शाखा, मूल तथा प्रारम्भ कर प्रत्येक संक्रान्ति को एक वर्ष तक इस व्रत का पत्तों) प्रत्येक अवयव से कामदेव की पूजा की जाती है। आचरण होता है । भगवान् नारायण तथा लक्ष्मी की दे० ई० आई०, जिल्द २३ पृ० १८६, जहाँ सं० १२९४ में प्रतिमाओं को दही में स्नान कराना चाहिए। मन्त्र या विन्ध्येश्वर शिव के एक शिवालय निर्माण का उल्लेख तो ऋग्वेद, १.२२.२० होगा या 'ओम् नमो नारायणाय' किया गया है (गुरुवार १२ मार्च १२३७) । (वर्षकृत्यकौमुदी, २१८,२२२) होगा। दमनकमहोत्सव-यह वैष्णवव्रत है । चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ इस व्रत का अनुष्ठान होता है । भगवान् विष्णु की पूजा का इसमें विधान है । दमनक नामक पौधे को प्रतीक बनाकर पूजा होती है । साधारणतः दमनक 'काम' का प्रतीक है, परन्तु विष्णु भी प्रवृत्तिमार्गी ( कामनाप्रधान ) देवता हैं । अतः इनका प्रतीक भी दमनक बना लिया गया है । इसमें निम्नलिखित कामगायत्री का पाठ किया जाता है तत्पुरुषाय विद्यहे कामदेवाय धीमहि । तन्नोज्नङ्गः प्रचोदयात् ॥ दमनकारोपण - इस व्रत में चैत्र प्रतिपदा से पूर्णिमा तक दमनक पौधे से भिन्न-भिन्न देवों की पूजा का विधान है । यथा उमा, शिव तथा अग्नि प्रतिपदा के दिन, द्वितीया को ब्रह्मा तृतीया को देवी तथा शङ्कर, चतुर्थी से पूर्णिमा तक क्रमशः गणेश, नाग, स्कन्द, भास्कर, मातृदेवता, महिषमदिन, धर्म, ऋषि, विष्णु, काम, शिव और सभी सहित इन्द्र पूजित होते हैं । दमनकोत्सव - यह शैव व्रत है । चैत्र शुक्ल चदुर्दशी को इसका अनुष्ठान होता है। किसी उद्यान में दमनक पौधे की पूजा की जाती है । अशोक वृक्ष के मूल में शिव की स्तुति की जाती है । दे० ईशानगुरुदेवपद्धति, २२वीं पटल । इसमें एक लम्बा आख्यान है जब कामदेव ने शिव पर अपना बाण छोड़ना चाहा तब उनके तृतीय नेत्र से भैरव नाम की अग्नि निकली । शिवजी ने उसका नाम दमनक रखा । किन्तु पार्वती ने उसे पृथ्वी पर एक पौधा हो जाने का वरदान दे दिया । तदनन्तर शिवजी ने उसे वरदान दिया कि यदि लोग केवल वसन्त तथा मदन के मन्त्रों से उसकी पूजा करेंगे तो उनकी समस्त मनोवाञ्छाएं पूर्ण होंगी । इस दिन अनङ्गगायत्री का पाठ किया जाता है । दयानन्द सरस्वती—आर्यसमाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरापुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वत्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे । । विक्रम सं० १८८१ में इनका जन्म काठियावाड़ में एक दाँव औदीच्य ब्राह्मणकुल में हुआ। इनका शैशवकाल में मूलशङ्कर नाम था । ये बड़े मेधावी और होनहार थे । दमनकारोपण-वर्श ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्वार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। भारत में घूम घूमकर खूब अध्ययन किया, बहुत काल तक हिमालय में रहकर योगाभ्यास एवं घोर तपस्या की संन्यासाश्रम ग्रहण करके 'दयानन्द सरस्वती' नाम धारण किया । अन्त में सं० १९१७ में मथुरा आकर प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द से साङ्ग वेदाध्ययन किया । गुरुदक्षिणा में उनसे वेद प्रचार मूर्तिपूजा खण्डन आदि की प्रतिज्ञा की और उसे पूरा करने को निकल पड़े । प्रतिज्ञा तो व्याज मात्र थी, हृदय में लगन बचपन से लग रही थी । स्वामीजी ने सारे भारत में वेद-शास्त्रों के प्रचार की धूम मचा दी । ब्राह्मसमाज एवं ब्रह्मविद्यासमाज (थियोसॉफिकल सोसायटी) दोनों को परखा। किसी में वह बात न पायी जिसे वे चाहते थे । पश्चात् सं० १९३२ वि० में 'आर्यसमाज स्थापित किया। आठ वर्ष तक इसका प्रचार करते रहे । सं० १९४० वि० में दीपावली के दिन अजमेर में शरीर छोड़ा। इनके कार्यों के विवरण के लिए दे० 'आर्यसमाज' । दयाबाईचरणदासी पद के प्रवर्तक स्वामी चरणदासजी की दो शिष्याएँ थी, सहजोबाई और दयाबाई । दोनों शिष्याओं ने योग सम्बन्धी पद्य लिखे हैं । इनका समय लगभग १७वीं शती वि० का मध्य है । दयाराम - गुजराती भाषा के सबसे बड़े कवियों में से एक ( १७६२ - १८५३ ई०) । ये वल्लभसम्प्रदाय के अनुयायी थे । इनकी अधिकांश रचनाएँ कृष्णभक्ति एवं रागानुगा कृष्णलीला विषयक हैं । दयाशर आश्वलायनसूत्र के एक व्याख्याकार | इन्होंने साममन्त्र की वृत्ति भी लिखी है । वयाशङ्करगृह्यसूत्रप्रयोगवीप - शाङ्खायन गृह्यसूत्र की यह एक व्याख्या है । दर्श - 'दर्श' से सूर्य-चन्द्र के एक साथ दिखाई देने ( रहने) का बोध होता है, जो पूर्णमासी का प्रतिलोम ( अमावस्या) शब्द है । अधिकांशतया यह शब्द यौगिक रूप 'दर्श पूर्णमास' (अमावस्या पूर्णिमाकृत्य ) के रूप में प्रयुक्त होता है तथा इस दिन विशेष यज्ञकर्म आदि करने का महत्त्व है । इससे वैदिक काल में अमान्त मास प्रचलित होना संभावित होता है, किन्तु यह पूर्णतया सिद्ध नहीं है । केवल 'दर्श' शब्द प्रथम आने से यह सम्भावना की जाती है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन-दशन ३१५ दर्शन-इस शब्द को उत्पत्ति 'दृश' (देखना) धातु से हुई दर्शन उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। है। यह अवलोकन बाहरी एवं आन्तरिक हो सकता है, दर्शनप्रकाश-यह मानभाउ साहित्य के अन्तर्गत मराठी सत्यों का निरीक्षण अथवा अन्वेषण हो सकता है, अथवा भाषा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। आत्मा की आन्तरिकता के सम्बन्ध में ताकिक अनुसन्धान दशग्व-ऋग्वेद (८.१२) की एक ऋचा में एक व्यक्ति का हो सकता है । प्रायः दर्शन का अर्थ आलोचनात्मक अभि नाम 'दशग्व' आता है, जिसकी इन्द्र ने सहायता की थी। व्यक्ति, तार्किक मापदण्ड अथवा प्रणाली होता है। यह विचारों सम्भवतः इसका शाब्दिक अर्थ है 'यज्ञ में दस गौओं का की प्रणाली है, जिसे आभ्यन्तरिक (आत्मिक) अनुभव दान करने वाला'। तथा तर्कपूर्ण कथनों से ग्रहण किया जाता है । दार्शनिक तौर पर 'स्वयं के आन्तरिक अनुभव को प्रमाणित करना दशन्-'दश' के ऊपर आधारित ( दाशमिक) गणना तथा उसे तर्कसंगत ढंग से प्रचारित करना' दर्शन कह- पद्धति । वैदिक भारतीयों की अंकव्यवस्था का आधार लाता है। अखिल विश्व में चेतन और अचेतन दो ही दश था। भारत में अति प्राचीन काल में भी बहुत ही पदार्थ हैं। इनके बाहरी और स्थूल भाव पर बाहर से ऊँची संख्यानामावलियाँ थीं, जबकि दूसरे देशों का ज्ञान विचार करने वाले शास्त्र को 'विज्ञान' और भीतरी तथा इस क्षेत्र में १००० से अधिक ऊँचा नहीं था। वाजसनेयी सूक्ष्म भाव पर भीतर से निर्णय करने वाले शास्त्र को संहिता में १; १०; १००; १०००; १०००० ( अयुत ); 'दर्शन' कहते हैं । १००००० (नियुत); १०००००० (प्रयुत); १००००भारत में बारह प्रमुख दर्शनों का उदय हआ है, इनमें ___०.० ( अर्बुद ); १०००००००० ( न्यर्बुद ); १०००से छः नास्तिक एवं छ: आस्तिक हैं। चार्वाक, माध्यमिक, ०००००० (समुद्र); १०००००००००० ( मध्य ); योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और आर्हत ये छः दर्शन १००००००००००० (अन्त); १०००००००००००० . नास्तिक इसलिए कहे जाते हैं कि ये वेद को प्रमाण नहीं (परार्द्ध ) की तालिका दी हुई है। काठक संहिता में मानते (नास्तिको वेदनिन्दक:)। साथ ही अनीश्वरवादी भी उपर्युक्त तालिका है, किन्तु नियत एवं प्रयत एक दूसरे कहलाने वाले सांख्य एवं मीमांसा दर्शन आस्तिक है । पूर्वोक्त का स्थान ग्रहण किये हुए है तथा न्यर्बुद के बाद 'बद' एक को नास्तिक कहने का भाव यह है कि वे ऋग्वेदादि चारों नयी संख्या आ जाती है । इस प्रकार समुद्र का मान १०वेदों का एक भी प्रमाण नहीं मानते, प्रत्युत जहाँ अवसर ०००,०००,००० और क्रमशः अन्य संख्याओं का मान भी मिलता है वहाँ वेदों की निन्दा करने में नहीं चूकते। इसी क्रम से बढ़ गया है । तैत्तिरीय संहिता में वाजसनेयी के इसीलिए नास्तिक को अवैदिक भी कहा जाता है। समान ही दो स्थानों में संख्याओं की तालिका प्राप्त है। आस्तिक दर्शन छ:-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मैत्रायणी संहिता में अयुत, प्रयुत, फिर अयुत, अर्बुद, मीमांसा एवं वेदान्त हैं। ये वेदों को प्रमाण मानते हैं न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अन्त, परार्ध संख्याएँ दी हुई है। इसलिए वैदिक अथवा आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। पञ्चविंश ब्राह्मण में वाजसनेयी संहिता वाली तालिका निस्सन्देह ये बारहों दर्शन विचार के क्रम-विकास के न्यर्बुद तक दी गयी है, फिर निखर्वक, बद, अक्षित तथा द्योतक हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारत यह तालिका १,०००,०००,०००,००० तक पहुँचती है । की पुण्यभूमि से निकले हुए जितने धर्म-मत अथवा सम्प्र- जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण में निखर्वक के स्थान में निखर्व दाय संसार में फैले हैं उन सबके मूल आधार ये ही बारह तथा बद्व के स्थान में पद्म तथा तालिका का अन्त 'अक्षिदर्शन है। व्याख्याभेद से और आचार-व्यवहार में विवि ति व्योमान्त' में होता है। शाखायन श्रौतसूत्र न्यर्बुद धता आ जाने से सम्प्रदायों की संख्या बहुत बढ़ गयी है । के पश्चात् निखर्वाद, समुद्र, सलिल, अन्त्य, अनन्त परन्तु जो कोई निरपेक्ष भाव से इन दर्शनों का परिशीलन नामावली प्रस्तुत करता है। करता है, अधिकारी और पात्रभेद से उसके क्रमविकास किन्तु अयुत के बाद किसी भी ऊपर की संख्या का के अनुकूल आत्मज्ञान की सामग्री इनमें अवश्य मिल व्यवहार प्रायः नहीं के बराबर होता था। 'बढ' ऐतरेय जाती है। ब्राह्मण में उद्धृत है, किन्तु यहाँ इसका कोई विशेष सांख्यिक Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३१६ अर्थ नहीं है तथा परवर्ती काल की ऊँची संख्याएँ अत्यन्त उलझनपूर्ण हो गयी है । दशनामी - आचार्य शङ्कर ने वेदान्ती संन्यासियों का एक सम्प्रदाय बनाया, उन्हें दस दलों में बाँटा तथा अपने एकएक शिष्य के अन्तर्गत उन्हें रखा जो 'दसनामी' अर्थात् दस उपनामों वाले संन्यासी कहलाते हैं । ये दस नाम हैंतीर्थ, आश्रम, सरस्वती, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, गिरि और पुरी । 7 दशनामी ( अलखनामी ) 'अलखनामी' का संस्कृत रूप 'अलक्ष्यनामा' है, अर्थात् जो अलक्ष्य का नाम ही जपा करते हैं । ये एक प्रकार के शैव संन्यासी हैं जो अपने को दसनामी शिवसम्प्रदाय के पुरी वर्ग का एक विभाग वत लाते हैं । दशनामी दण्डी - आचार्य शङ्कर के दमनामी संन्यासियों में 'दण्ड' धारण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, किंतु इसकी क्रिया इतनी कठिन है कि सभी ब्राह्मण इसे धारण नहीं करते। ये दण्ड धारण करने वाले ब्राह्मण संन्यासी ही 'दसनामी दण्डी' कहलाते हैं । दशनामी संन्यासी दे० 'दशनामी' | दशपदार्थ वैशेषिक दर्शन विषयक एक ग्रन्थ, जो ज्ञानचंद्रविरचित कहा जाता है । इसका मूल रूप अप्राप्त है किन्तु चीनी अनुवाद प्राप्त होता है, जिसे ह्वेनसांग ने ६४८ ई० में प्रस्तुत किया था । - | दशपेय एक याज्ञिक प्रक्रिया वास्तविक राजसूय में सात प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं । इसमें 'दशपेय' चैत्र के सातवें दिन मनाया जाता है। इसमें एक सौ व्यक्ति, जिनमें राजा भी एक होता है, दस-दस के दल में दस प्यालों से सोमरस पीते हैं। इस अवसर पर वंशावली की परीक्षा होती है। इसकी योग्यता, प्रत्येक सदस्य को सोमपान करनेवाले अपने दस पूर्वजों का नाम गिनाना होती है | दशमी - अथर्ववेद (३.४.७) तथा पञ्चविंश ब्राह्मण (२२.१४) मे ९० तथा १०० वर्ष के मध्य के जीवनकाल को 'दशमी' कहा गया है, जिसे ऋग्वेद (१.१५८.६) 'दशम युग' कहता है । वैदिक कालीन सुदीर्घ जीवन का बोध इस शब्द की व्याख्या से होता है। लोगों में 'शरदः शतम् जीने की अभिलाषा होती थी राज्याभिषेक में राजा के 'दशमी' तक जीवित रहकर राज्य करने की कामना की जाती थी । मनु का आदेश है कि 'दशमी' (९०वर्ष से अधिक ) अवस्था दसनामी - दशावतारव्रत के शूद्र को त्रिवर्ण के व्यक्ति भी प्रणाम किया करें ('शूद्रोऽपि दशमीं गतः' अभिवाद्यः ) । दशरथचतुर्थी - कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को इस व्रत का अनु ष्ठान होता है। किसी मिट्टी के पात्र में राजा दशरथ की प्रतिमा का पूजन होता है । पश्चात् दुर्गाजी की भी पूजा होती है । दशरथतीयं - अयोध्या में रामघाट से आठ मील पूर्व सरयू । तट पर वह स्थान है जहाँ महाराज दशरथ का अन्तिम संस्कार हुआ था । इसलिए यह तीर्थ बन गया है । दशरथललितावत आश्विन शुक्ल दशमी को इसका अनुष्ठान होता है। दस दिन तक देवी के सम्मुख ललिता देवी की सुवर्णप्रतिमा तथा चन्द्रमा और रोहिणी की चांदी की प्रतिमाओं का, जिनकी दायीं ओर शिवजी की प्रतिमा तथा बायीं ओर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित होती है, पूजन करना चाहिए। दशरथ तथा कौसल्या ने यह व्रत किया या दस दिन की इस पूजा में प्रत्येक दिन अलग-अलग पुष्प प्रयोग में लाये जाते हैं । - दशग्वेद ( ८.८, २०, ४९: १, ५०, ९) में दशव्रज अश्विनीकुमारों द्वारा संरक्षित एक व्यक्ति का नाम है। दशशिप्र - ऋग्वेद ( ८.५२, २ ) में यह एक यज्ञकर्त्ता का नाम है । दशश्लोकी 'वेदान्तकामधेनु अथवा सिद्धान्तरल आचार्य निम्बार्क रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । इसके दस श्लोकों में ईसाईतमत के सिद्धान्त संक्षेप में कहे गये हैं। इसका रचनाकाल १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध संभवतः है। दशश्लोकी भाष्य महात्मा हरिव्यासदेव रचित यह भाष्य निम्बार्काचार्य के 'दशश्लोकी' ग्रन्थ पर है । दशहरा - विजया दशमी का देशज नाम 'दसहरा' या 'दशहरा' है । इस दिन राजा लोग अपराजिता देवी की पूजा कर पर राज्य की सीमा लाँघना आवश्यक मानते थे और प्रतापशाली राजा 'दसों दिशाओं को जीतने (हराने) का अभियान आरम्भ करते थे। दे० 'विजया दशमी' | दस महाविद्यारूपिणी दुर्गाजी की पूजा आश्विन शुक्ल दशमी को पूर्ण होती है, इस आशय से भी यह पर्व दशहरा कहलाता है । दशावतारव्रत - मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। पुराणों के अनुसार भगवान् विष्णु इसी दिन Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्वमेधघाट-दादू मत्स्य रूप में प्रकट हुए थे। प्रत्येक द्वादशी को व्रत करते बोध होता है । आर्य एवं दस्यु का सबसे बड़ा अन्तर उनके हुए भाद्रपद मास तक विष्णु के दस अवतारों के, क्रमशः धर्म में है। दस्यु यज्ञ न करने वाले, क्रियाहीन, अनेक प्रकार प्रत्येक मास में एक-एक स्वरूप के पूजन करने का की अद्भत प्रतिज्ञा वाले, देवों से घृणा करने वाले आदि विधान है। होते थे। दासों से तुलना करते समय इनका (दस्युओं का) दशाश्वमेधघाट-गङ्गातट पर स्थित दशाश्वमेध घाट काशी कोई 'विश्' (जाति) नहीं कहा गया है । इन्द्र को 'दस्युहत्य' की धार्मिक यात्रा के पांच प्रधान स्थानों में से एक है, जहाँ प्रायः कहा गया है किन्तु 'दासहत्य' कभी भी नहीं। अत परम्परानुसार ब्रह्मा ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। इस एव दोनों एक नहीं समझे जा सकते । दस्यु एक जाति थी घाट पर स्नान करने से दस अश्वमेधों का पुण्य प्राप्त होता है, जिसका बोध उनके विरुद 'अनास' से होता है । इसका अर्थ ऐसा हिन्दुओं का विश्वास है । डा० काशीप्रसाद जायसवाल निश्चित नहीं है । पदपाठ ग्रन्थ एवं सायण दोनों इसका ने यह मत प्रतिपादित किया था कि इसी घाट पर कुषाणों अर्थ (अन = आस) 'मुखरहित' लगाते हैं। किन्तु दूसरे को पराजित करने वाले नागगण भारशिवों ने भारतीय इसका अर्थ (अ = नास ) 'नासिकारहित' लगाते हैं जिसका साम्राज्य के पुनरुत्थान के प्रतीक रूप में दस अश्वमेध यज्ञों अर्थ सानुनासिक ध्वनियों के उच्चारण करने में असमर्थ का अनुष्ठान किया था। इसलिए यह स्थान 'दशाश्वमेध' हो सकता है। यदि यह 'अनास' का ठीक अर्थ है तो कहलाया। इसकी सम्पुष्टि एक वाकाटक अभिलेख से भी दस्युओं का अन्य विरुद है 'मृध्नवाच्' जो 'अनास' के साथ होती है (..."भागीरथ्यमलजलम भिषिक्तानां भार- आता है, जिसका अर्थ 'तुतलाने वाला' है। दस्यु का शिवानाम् )। दे० काशीप्रसाद जायसवाल का 'अन्धयुगीन ईरानी भाषा में समानार्थक है 'पन्दू', 'दक्यु', जिसका अर्थ भारत' । एक प्रान्त है। जिमर इसका प्रारम्भिक अर्थ 'शत्रु' प्रयाग में भी गङ्गातट पर ऐसी घटना का स्मारक । लगाते हैं जबकि पारसी लोग इसका अर्थ 'शत्रुदेश', दशाश्वमेध तीर्थ है। 'विजित देश', 'प्रान्त' लगाते हैं। कुछ व्यक्तिगत दस्युओं वशोणि-यह ऋग्वेद (६.२०.४,८) के अनुसार इन्द्र का के नाम है 'चुमुरि', 'शम्बर' एवं 'शुष्ण' आदि। ऐतरेय कृपापात्र और पणियों का विरोधी जान पड़ता है। लुड्- ब्राह्मण में दस्यु से असभ्य जातियों का बोध होता है । विग के मत में यह पणियों का पुरोहित है जो असम्भव परन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आर्य और दस्यु प्रतीत होता है । ऋग्वेद (१०.९६.१२) में यह सोम का का भेद प्रजातीय नहीं, किन्तु सांस्कृतिक है। विरुद प्रतीत होता है। दात्यौह-यह शब्द यजुर्वेद में अश्वमेध के बलिपदार्थों की दशोण्य-ऋग्वेद (८५२.२) में यह एक यज्ञकर्ता का नाम तालिका में उल्लिखित है। महाभारत तथा धर्मशास्त्रों में है जो दशशिप्र और अन्य दूसरे नामों के साथ उद्धृत है। वणित शब्द 'दात्यूह' का ही यह एक रूप है। सम्भवतः यह दशोणि के समान है या नहीं यह अनिर्णीत है। यह यज्ञीय पदार्थों के समूह का द्योतक है। दशोपनिषद्भाष्य-अठारहवीं शती में आचार्य बलदेव विद्या- दादू-महात्मा दादू दयाल का जन्म सं० १६०१ वि० में भूषण ने 'दशोपनिषद्भाष्य' की रचना की। यह गौड़ीय हुआ और सं० १६६० में ये पञ्चत्व को प्राप्त हुए। ये वैष्णवों के मत के अनुसार लिखा गया है। सारस्वत ब्राह्मण थे। ये कभी क्रोध नहीं करते थे तथा वसहरा-दे० 'दशहरा' और 'विजया दशमी' । सब पर दया रखते थे। इसीसे इनका नाम 'दयाल' पड़ वस्यु-ऋग्वेद में 'आर्य' और 'दस्यु' उसी तरह स्थान- गया। ये सबको दादा-दादा कहने के कारण दादू कहलाये। स्थान पर प्रयुक्त हुए है, जैसे आज 'सभ्य' और 'असभ्य', ये कबीरदास के छठी पीढ़ी के शिष्य थे। इन्होंने भी 'सज्जन' और 'दुर्जन' शब्दों का परस्पर विपरीत अर्थ में हिन्दू-मुस्लिम दोनों को मिलाने की चेष्टा की। ये बड़े प्रयोग होता है। इस शब्द की उत्पत्ति सन्देहात्मक है तथा प्रभावशाली उपदेशक थे और जीवन में ऋषितुल्य हो ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर मानवेतर शत्रु के नाम से इसका गये थे। दादूजी के बनाये हुए 'सबद' और 'बानी' प्रसिद्ध वर्णन हुआ है। दूसरे स्थलों में दस्यु से मानवीय शत्र, हैं, जिनमें इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर (राम)सम्भवतः आदिम स्थिति में रहने वाली असभ्य जातियों का भक्ति के उपदेश सबल छन्दों में दिये हैं। इन्होंने भजन Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ दादूदयाल-दाम्पत्याष्टमी भी बहुत बनाये हैं। कविता की दृष्टि से भी इनकी रचना दादूपंथी-दे० 'दादू', 'दादूपंथ' एवं 'दादूद्वार' । मनोहर और यथार्थ भाषिणी है । इनके शिष्य निश्चलदास, दान-इस शब्द का अर्थ है 'किसी वस्तु से अपना स्वत्व सुन्दरदास आदि अच्छे वेदान्ती हो गये हैं। उनकी रचनाएँ हटाकर दूसरे का स्वत्व उत्पन्न कर देना।' दान (अर्पण) भी उत्कृष्ट हैं । परन्तु सबका आधार श्रुति, स्मृति और का व्यवहार ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर याज्ञिक हविष्य के विशेषतः अद्वैतवाद है। 'बानी' का पाठ केवल द्विज ही कर विनियोग के अर्थ में हआ है, जिसमें देवता आमन्त्रित होते सकते हैं। चौबीस गुरुमन्त्र और चौबीस शब्दों का ही थे । एक दूसरे प्रसंग में इसका अर्थ सायण 'मद का जल' अधिकार शूद्रों को है । लगाते हैं (मदमाते हाथी के मस्तक से टपकता हुआ मददादूदयाल-दे० 'दादू'। बिन्दु) । एक अन्य मन्त्र में राथ महाशय इसका अर्थ चराबाबूद्वार-दादू के बावन शिष्य थे जिनमें से प्रत्येक ने कम गाह लगाते हैं। से कम एक पूजास्थान (मन्दिर) स्थापित किया। इन परवर्ती धार्मिक साहित्य में दान का बड़ा महत्त्व वणित पूजास्थलों को 'दादूद्वार' कहते हैं। इनमें हाथ की है। यह दो प्रकार का होता है। नित्य और नैमित्तिक; लिखी 'वाणी' की पोथी की षोडशोपचार पूजा और चारों वर्गों के लिए दान करना नित्य और अनिवार्य है। आरती होती है, पाठ और भजन का गान होता है । साधु दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है। विशेष ही यह सब करते हैं और जहाँ साधु और उक्त पोथी हो, अवसरों और परिस्थितियों में किसी भी दीन-दुखी, वही स्थान 'दादूद्वार' कहलाता है । 'नरायना' में दादू क्षुधात, रोगग्रस्त आदि को जो दान दिया जा सकता है महाराज की चरणपादुका (खड़ाऊँ) और वस्त्र रखे वह भूतदया अथवा दीनरक्षण है। 'कृत्यकल्पतरु' (दान हैं । इन वस्तुओं की भी पूजा होती है। काण्ड) एवं बल्लालसेन द्वारा विरचित 'दानसागर' ग्रन्थों में अनेकों धार्मिक दानों की विधि और फल बतलाया गया दादूपन्थ-महात्मा दादू के चलाये हए धर्म को 'दादूपन्थ' है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण (३.३१७) भी ऋतुओं, मासों, कहते है, जो राजस्थान में अधिक प्रचलित है। दादूपन्थी साप्ताहिक दिनों, नक्षत्रों में किये गये दानों के पुण्यों की या तो ब्रह्मचारी साधु होते हैं या गृहस्थ जो 'सेवक' कह व्याख्या करता है। लाते हैं। दादूपन्थी शब्द साधुओं के लिए ही व्यवहृत होता है। इन साधुओं के पाँच प्रकार हैं : (१) खालसा, दानकेलिकौमुदी-रूप गोस्वामी कृत संस्कृत भाषा की इन लोगों का स्थान जयपुर से ४० मील पर नरायना में भक्तिरस सम्बन्धी एक पुस्तक। इसका रचना काल है, जहाँ दादूजी की मृत्यु हई थी। इनमें जो विद्वान हैं वे सोलहवीं शती का उत्तरार्ध है। उपासना, अध्ययन और शिक्षण में व्यस्त रहते हैं । (२) दानलीला-सन्त चरणदास रचित ग्रन्थों में एक दानलीला नागा साधु (सुन्दरदास के बनाये), ये ब्रह्मचारी रहकर भी । सैनिक का काम करते हैं । जयपुर राज्य की रक्षा के लिए ये रियासत की सीमा पर नव पड़ावों में रहते थे। इन्हें दानस्तुति-ऋग्वेद की लोकोपयोगी ऋचाओं में दानस्तुति जयपुर दरबार से बीस हजार का खर्च मिलता था । (३) का प्रकरण भी सम्मिलित है। यह सूक्त १.१२६ में उत्तराडी साधुओं की मण्डली (पंजाब में बनवारीदास प्रस्तुत है। अन्य ग्रन्थों में ऐसी दानस्तुतियाँ प्रशस्तिकारों ने बनायी), इनमें प्रायः विद्वान् होते हैं जो साधुओं को की रचनाएँ हैं, जिन्हें उन्होंने अपने संरक्षकों के गुणपढ़ाते हैं। कुछ वैद्य भी होते हैं। ये तीनों प्रकार के गानार्थ बनाया था। ये कहीं-कहीं ऋषियों तथा उनके साधु जो पेशा चाहें कर सकते हैं । (४) विरक्त, ये संरक्षकों की वंशावली भी प्रस्तुत करती हैं। साथ ही ये साधु न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य छू सकते वैदिक कालीन जातियों के नाम तथा स्थान का भी हैं । ये घूमते-फिरते और लिखते-पढ़ते रहते हैं । (५) बोध कराती हैं। खाकी साधु, ये भस्म लपेटे रहते हैं और भाँति-भांति की दाम्पत्याष्टमी-कार्तिक कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुतपस्या करते हैं । ष्ठान किया जाता है। यह तिथिव्रत है। वर्ष को चार Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाम-वात्म्यमुनि - भागों में विभाजित किया जाता है। दर्भों से भगवती उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाएं बनाकर पुष्प, नैवेय, धूप से प्रतिमास भिन्न-भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है । वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को सपत्नीक भोजन कराकर रक्त वस्त्र तथा सोने की बनी हुई दो गायें दक्षिणा में दी जाती हैं। इससे व्रती पुत्र तथा विद्या प्राप्त करता हुआ शिवलोक को जाता है और मोक्ष की कामना हो तो वह भी प्राप्त होता है। बाम रस्सी अथवा पेटी जिसका उल्लेख ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में हुआ है। इसका प्रारम्भिक अर्थ बन्धन ही है। ऋग्वेद (१.१६२.८) में इसका प्रयोग अश्वमेध के घोड़े को बाँधने वाली रस्सी के अर्थ में हुआ है। साथ ही बछड़े को बाँधने के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग (ऋ० २.२८.७) पाया जाता है । दामोदर - कृष्ण का एक पर्याय । कृष्ण बड़े नटखट थे । यशोदा ने एक बार उनके उदर (पेट) को दाम (रस्सी) से बांधकर ऊतल में लगा दिया था, जिससे वे बाहर न भाग जायँ । तब से वे दामोदर नाम से प्रसिद्ध हो गये । दामोदरदास - राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक भक्तकवि, जो सत्रहवीं शती के उत्तरार्ध में हो गये हैं । इनकी 'सेवकवानी' तथा अन्य रचनाएँ प्रसिद्ध हैं । इनका उपनाम 'सेवकजी' था। दामोदर मिश्र - इनका उद्भव ग्यारहवीं शती में हुआ था । ये रामभक्त थे। इन्होंने 'हनुमन्नाटक' नामक एक नाटक लिखा जो संस्कृत के राम साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । दामोदराचार्य - तैत्तिरीयोपनिषद् पर लिखे गये 'आनन्दभाष्य' (आनन्दतीर्थ विरचित) पर दामोदराचार्य ने एक वृत्ति लिखी है । छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् पर भी इनकी टीकाएं और वृत्तियाँ हैं। मुण्डकोपनिषद् पर भी इनकी रची टीका या भाष्य था ऐसा कहा जाता है। दाय - ऋग्वेद (१०.११४.१०) में दाय का प्रयोग श्रमपारितोषिक के अर्थ में हुआ है, किन्तु आगे चलकर इसका अर्थ उत्तराधिकार हो गया । अर्थात् पिता की सम्पत्ति पुत्रों में उसके जीवनकाल या मरने पर विभाजित होगी और उस पर पुत्रों का उत्तराधिकार होगा । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों को बाँट दी । ऐतरेय ब्राह्मण (५.१४) में कहा गया है कि मनु की सम्पत्ति उसके जीवन काल में ही पुत्रों ने बाँट ली ३१९ तथा बूढ़े पिता को नाभानेदिष्ठ पर छोड़ दिया । जैमिनीय ब्राह्मण (२,१५६) में कहा गया है कि पिता के जीवन काल में ही चार पुत्रों ने बुढ़े अभिप्रतारित की सम्पत्ति बांट ली थी । शुनःशेप की कथा से यह प्रकट होता है कि पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति के अधिकारी पिता के साथसाथ होते थे, जब तक कि वे उसे बाँटने के लिए पिता को बाध्य न करें । शतपथ ब्राह्मण तथा निरुक्त के अनुसार स्त्री सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी नहीं होती थी। वह अपने भाइयों से पोषण पाती थी। उत्तराधिकारी दायाद कहलाता है । परवर्ती धर्मशास्त्र में दाय का बहुत विस्तार किया गया है । दाय के लिए उपयुक्त सामग्री क्या है ? दाय कब मिल सकता है? किसको मिल सकता है ? किस अनुपात में मिलेगा ? आदि प्रश्नों पर सविस्तार विचार हुआ है। मध्ययुग में इसके दो सम्प्रदायों का उदय हुआ - (१) मिताक्षरा सम्प्रदाय, जो याज्ञवल्क्यस्मृति के ऊपर विज्ञानेश्वर की टीका 'मिताक्षरा' पर आधारित था। यह 'जन्मनास्वत्व' सिद्धान्त को मानता था। इसके अनुसार पिता के जीवन काल में ही पुत्रों को दाय मिल सकता है; उसके जीतेजी पुत्र अपना भाग अलग करा सकते हैं । इसका प्रचार बंगाल को छोड़कर प्रायः समस्त भारत में है । (२) दायभाग सम्प्रदाय, जो जीमूतवाहन के निबन्ध ग्रन्थ 'दायभाग' के उपर आधारित है। यह 'उपरमस्वत्व' सिद्धान्त को मानता है। इसके अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात् ही पुत्रों को दाय मिल सकता है, उसके जीतेजी पुत्र अनीश ( अधिकाररहित) होते हैं। इसका प्रचार बंगाल में है । वायशतक - वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य (विक्रम की चतुर्दश शताब्दी) रचित उत्तराधिकार सम्बन्धी एक ग्रन्थ । आयन्न दीक्षित के गुरु वेङ्कटेश (१८वीं शताब्दी) ने भी 'दायशतक' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । दारिद्रयहर षष्ठी वर्ष भर प्रतिमास प्रत्येक षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें भगवान् गुह (स्कन्द ) का पूजन होता है । दाल्भ्य मुनि-शुक्ल यजुर्वेद के 'प्रातिशाख्य सूत्र' ( कात्यायन कृत) में यह नाम उल्लिखित है । दाल्भ्य मुनि ने आयुर्वेद - विषयक एक अन्य भी लिखा था जिसे 'दाल्भ्यसूत्र' कहते हैं। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० बावसु आङ्गिरस-दिव् दावसु आङ्गिरस-पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.५,१२,१४) में में इस ग्रन्थ का बहुत आदर है। हिन्दी भाषा में भी वणित सामगान के रचयिता एक ऋषि । इसका अनुवाद प्रकाशित हो गया है । दाश-धीवर अर्थात् मछुवा, जो नाव के द्वारा शुल्क लेकर दास शर्मा-मलय देशवासी वादपुत्र पण्डित आतीय ने लोगों को नदी के पार ले जाता है। यजुर्वेद की पुरुष- शालायनसूत्र का भाष्य लिखा है। इसमें से नवें, दसवें मेध वाली बलितालिका में इसका उल्लेख है ।। और ग्यारहवें अध्याय का भाष्य नष्ट हो गया था। दास वास-(१) ऋग्वेद में दस्युओं के सदश दासों को भी देवों शर्मा ने 'मञ्जूषा' नामक टीका लिखकर इन तीन अध्यायों का भाष्य पूरा किया है। का शत्रु कहा गया है, किन्तु कुछ परिच्छेदों में आर्यों के मानव शत्रुओं के लिए भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है । दिक्-वैशेषिक मतानुसार 'दिक्' या दिशा सातवाँ पदार्थ है। ये पुरों (दुर्गों ) के अधिकारी कहे गये हैं तथा इनके यह 'काल' को सन्तुलित करता है। यह वस्तुओं का स्थान विशों ( गणों) का वर्णन है। ऋग्वेद में अनेक स्थानों निर्देश करता हुआ उन्हें नष्ट होने से बचाता है । दिग्विजयभाष्य-माधवाचार्य रचित 'शङ्करदिग्विजय' पर पर आर्यों एवं दास व दस्युओं के धार्मिक मतभेदों की आनन्दगिरि एवं धनपति ने भाष्य लिखा है जो 'दिग्विजयचर्चा हुई है। अनेक बार दासों को सेवा का काम करने भाष्य' नाम से प्रसिद्ध है। पर बाध्य किया गया था, इसलिए इस शब्द का अर्थ आगे। दिधिषु-ऋग्वेद में देवर को 'दिधिषु' कहा गया है, जो चलकर 'सेवक' समझा जाने लगा। साथ ही दास की किसी स्त्री के पति के मरने पर अन्त्येष्टि के समय स्त्रीलिंग दासी का भी प्रयोग आरम्भ हआ। जो स्त्रियाँ उसके पति का स्थान ग्रहण करता था। 'नियोग' पारिवारिक सेवाकार्य करती थीं वे 'दासी' कहलाती थीं। में भी यह देवर ही होता था, जिसे पुत्रहीन स्त्री पति के (२) धर्मशास्त्र में कई प्रकार के दासों का वर्णन __ मरने पर पुत्र प्राप्ति के लिए ग्रहण करती थी। यह शब्द है, इससे स्पष्ट है कि दासत्व विधितः मान्य था। 'दास' पूषा देवता के लिए भी प्रयुक्त होता है, जिसने 'सूर्या' की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है : “जब कोई स्वतन्त्र को पत्नी रूप में ग्रहण किया था। व्यक्ति स्वेच्छा से अपने को दूसरे के लिए दान कर देता बड़ी बहिन से पहले विवाहित छोटी बहिन का पति भी है तब वह उसका दास बन जाता है" ('स्वतन्त्रस्यात्मनो दानाद्दासत्वं दासवद् भृगुः ।' कात्यायन, 'व्यवहारमयूख' दिनक्षय-जब २४ घंटे के एक दिन में दो तिथियाँ समाप्त हों में उद्धृत)। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों से भी दासत्व तो वह दिन (तिथि) क्षय होता है । दे० चतुर्वर्गचिन्तामणि, उत्पन्न हो जाता है। मनुस्मृति ( ८.४१५ ) के अनुसार काल, ६२६ । कालनिर्णय (२६०) वसिष्ठ को उद्धृत करते सात प्रकार के दास होते हैं : हुए कहता है कि एक दिन में यदि तीन तिथियों का स्पर्श ध्वजाहृतो भक्तदासो गहजः क्रीतदत्रिमौ । होता हो तो वह समय 'दिन का क्षय' कहा जाता है । उस पैतृको दण्डदासश्च सप्तैता दासयोनयः ।। दिन व्रत, उपवास निषिद्ध हैं। इस दिन किया हुआ दान [ध्वजाहृत (युद्ध में बन्दी बनाया हआ), जीविका के सहस्रगुने पुण्यों की प्राप्ति कराता है। लिए स्वयं समर्पित, अपने घर में दास से उत्पन्न, क्रय दिव-संसार तीन भागों-पृथ्वी, वायु अथवा वायुमण्डल किया हुआ, दान में प्राप्त, उत्तराधिकार में प्राप्त और तथा स्वर्ग अथवा आकाश (दिव्) में विभाजित है । आकाश विधि से दण्डित ये दास के सात प्रकार हैं।] एवं पृथ्वी ( द्यावा-पृथिवी) मिलकर विश्व बनाते हैं। नारदस्मृति के अनुसार पन्द्रह प्रकार के दास होते थे। वातावरण आकाश में सम्मिलित है। विद्युत् एवं सौर मण्डल अथवा इसी प्रकार के अन्य मण्डल आकाश में दासों के साथ व्यवहार करने और उनके मुक्त होने के सम्मिलित है। नियम भी धर्मशास्त्रों में दिये हुए हैं। विश्व के तीन विभाजन क्रमशः पृथ्वी (मिट्टी), वायु दासबोध-शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास द्वारा एवं आकाश नामक तीन तत्त्वों में प्रतिबिम्बित हैं । इसी रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । मानवता के उद्बोधन के प्रकार एक सर्वोच्च, एक मध्यम तथा एक निम्नतम तीन लिए इसमें सुन्दर और प्रभावशाली उपदेश हैं। महाराष्ट्र आकाश कहे गये हैं। अथर्ववेद में तीनों आकाशों का Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवाकर-दीक्षा ३२१ अन्तर 'उदन्वती' (जलसम्पन्न), 'पीलमती' (कणसम्पन्न) फील्ड तथा ह्विटने ने अमान्य ठहराया है । पञ्चविंश ब्राह्मण एवं प्रद्यौ विशेषणों से प्रकट होता है । आकाश को व्योम में भी एक ऐसी हो परीक्षा का वर्णन है। दहकती हुई तथा रोचन भी कहते हैं। कुल्हाणी वाली एक प्रकार की परीक्षा का भी उल्लेख दिवाकर-(१) सूर्य का पर्याय । इसका अर्थ है 'दिन उत्पन्न छान्दोग्य उ० में है । लुडविग एवं ग्रिफिथ ऋग्वेद के एक करने वाला। अन्य परिच्छेद में दीर्घतमा की अग्नि एवं जल परीक्षा के (२) दिवाकर नामक एक सूर्योपासक से सुब्रह्मण्य प्रसंग का उल्लेख करते हैं। वेबर के कथनानुसार तुलानामक ग्राम में स्वामी शङ्कराचार्य के मिलन की बात परीक्षा का शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है (११.२,७,३३)। 'शङ्करदिग्विजय' में कही गयी है। परवर्ती धर्मशास्त्र के व्यवहार काण्डों में जहाँ विधिषुपति-धर्मसूत्रों में यह शब्द उन लोगों की तालिका वादों (अभियोगों) के निर्णय के सम्बन्ध में प्रमाणों पर में उद्दिष्ट है जो अनियमित विवाह किये हुए हों। पर- विचार किया गया है, वहाँ 'दिव्य' के विविध प्रकारों का म्परागत इसका अर्थ द्वितीय बार विवाहित स्त्री का पति वर्णन पाया जाता है। है । मनु के अनुसार यह शब्द देवर के लिए व्यवहृत है दिव्य श्वान-दो दैवी श्वान मैत्रायणी सं० (१.६,९) तथा जो अपनी भाभी से भाई की मृत्यु के बाद सन्तानप्राप्ति तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.१,२.४-६) में उल्लिखित सूर्य तथा चन्द्र के लिए वैवाहिक सम्बन्ध करता है। दिधिषु से विधवा है । अथर्व में भी 'दिव्य श्वान' से सूर्य का बोध होता है। का भी बोध होता है जो अन्य पति के चुनाव की इच्छा दिव्याचार भाव-यह शाक्त साधना की मानसिक स्थिति है। करती हो । दूसरी परम्परा में दिधिषु से उस बड़ी बहिन रा म दिाधषु से उस बड़ी बाहन शक्ति की साधना करने वाले तीन भावों का आश्रय लेते का बोध होता है जिसकी छोटी बहिन उसके पहले ब्याही है. उनमें दिव्य भाव से देवता का साक्षात्कार होता है। गयी हो। इसकी पुष्टि 'अग्रेदिधिषुपति' शब्द अर्थात् वीर भाव से क्रियासिद्धि होती है, साधक साक्षात् रुद्र हो अपने से पहले ब्याही छोटी बहिन का पति से होती है। जाता है । पशु भाव से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें क्रम से विष्णु के अनुसार दिधिषु ऐसी बड़ी बहिन के लिए प्रयुक्त है दिव्याचार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशु जिसके विवाह की व्यवस्था उसके पिता-माता न कर सकें भाव से ज्ञान प्राप्त करके साधक वीराचार द्वारा रुद्रत्व और जो अपना पति स्वयं चुने (कुर्यात् स्वयंवरम्) । प्राप्त करता है। तब दिव्याचार द्वारा देवता की तरह क्रियादिवाकरवत-हस्त नक्षत्र युक्त रविवार के दिन इस व्रत शील हो जाता है। इन भावों का मूल निस्सन्देह शक्ति है । का अनुष्ठान किया जाता है। यह सात रविवारों तक दिह, विहवार-ग्रामदेवता को 'दिह' या 'दिहवार' कहते किया जाना चाहिए। यह वारव्रत है। भूमि पर द्वादश हैं। इनकी स्थापना गांव के सीमान्तर्गत किसी वृक्ष (विशेष दल वाले कमल को रखकर, द्वादश आदित्यों में से प्रत्येक कर नीम वक्ष) के तले की जाती है । उत्तर प्रदेश में इनकी को एक-एक दल पर स्थापित करके सूर्य का पूजन करना पूजा होती है । ये ग्राम की रक्षा भूत-प्रेत एवं बीमारियों चाहिए । आदित्यों का क्रम यह होगा--सूर्य, दिवाकर, से करते हैं । कहीं-कहीं इसका उच्चारण 'डीह' भी पाया विवस्वान्, भग, वरुण, इन्द्र, आदित्य, सविता, अर्क, जाता है । मूलतः दिह यक्ष जान पड़ता है जो ग्राम और मार्तण्ड, रवि तथा भास्कर । वैदिक तथा अन्य मन्त्रों का खेतों के रक्षक के रूप में पूजा जाता है। कुछ वर्षों के पाठ करना चाहिए। अन्तराल पर इसकी विस्तृत पूजा होती है जिसमें दिह दिव्य-अपराध परीक्षा की कुछ कठोर सांकेतिक (यक्ष) और यक्षिणी का विवाह एक मुख्य क्रिया है । इसमें विधियाँ, जो अग्नि, जल आदि की सहायता से की जाती नगाडे के वादन के साथ 'पचड़ा' गाया जाता है, जिसमें थीं। दिव्य विधि का प्रयोग परवर्ती साहित्य में अधिकांश 'दिह' का स्तुतिगान होता है। बहुत पीछे हुआ है, किन्तु वैदिक साहित्य में इस प्रकार दीक्षा-किसी सम्प्रदाय की सदस्यता प्राप्त करने के लिए की परीक्षा का प्रसंग अनेक स्थानों में आया है। अथर्ववेद (२.१२) में उद्धृत अग्निपरीक्षा जिसे वेबर, लुडविग, जाता है, वह दीक्षा कही जाती है। विभिन्न प्रकार की जिमर तथा दूसरों ने मान्यता दी है, उसे ग्रिल, ब्लूम- दीक्षाओं के लिए विविध प्रकार के मन्त्रों का विधान है। ४१ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ दीक्षित-दुन्दुभि इस शब्द का मुल सम्बन्ध वैदिक यज्ञों से है। वैदिक यज्ञ दीर्घश्रवा-शाब्दिक अर्थ है 'बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त' । यह एक . का अनुष्ठान करने के पूर्व उसकी दीक्षा लेनी पड़ती थी। राजर्षि का नाम है, जिन्होंने पञ्चविंश ब्राह्मण के अनुदीक्षा लेने के पश्चात् लोग दीक्षित कहलाते थे, तभी वे सार राज्य से निष्कासित होने पर भूख से पीड़ित होकर अनुष्ठान के लिए अधिकारी माने जाते थे। इसका सामान्य किसी विशेष साम मन्त्र का दर्शन और गान किया। इस अर्थ है किसो धार्मिक कृत्य में प्रवेश की योग्यता प्राप्त प्रकार तब उनको भोजन प्राप्त हुआ। ऋग्वेद के एक करना। परिच्छेद में औसिज (वणिक्) को 'दीर्घश्रवा' कहा गया है दीक्षित-(१) यज्ञानुष्ठान की दीक्षा लेने वाला। जो सायण के मतानुसार व्यक्तिवाचक नाम है तथा (२) अप्पय दीक्षित के पितामह का नाम आचार्य राथ के मतानुसार विशेषण है। दीक्षित था। आचार्य दीक्षित भी अद्वैत सम्प्रदाय के दीर्घायु-वैदिक भारतीयों (ऋ० वे० १०.६२,२; अ० अनुयायियों में गिने जाते हैं। इन्होंने बहत से यज्ञ किये थे वे०१.२२,२) की प्रार्थना का एक मख्य विषय था इसी से ये 'दीक्षित' उपनाम से विभूषित हुए। इनका 'दीर्घायु की कामना' । जीवन का आदर्श लक्ष्य १०० वर्ष निवासस्थान काञ्चीपुरी था। जीना था। अथर्ववेद (२.१३,२८,२९; ७.३२) में अनेक दीपमालिका (बीपावली, दिवाली)-हिन्दुओं के चार प्रमुख क्रियाएं दीर्घायु के लिए भरी पड़ी हैं जो 'आयुष्याणि' त्योहारों में से एक । विशेष कर यह वैश्यवर्ग का त्योहार है कहलाती है। किन्तु सभी वर्ग वाले इसे उत्साहपूर्वक मनाते हैं। यह सारे दोघीयुष्य-दे० 'दीर्घायु' । भारत में प्रचलित है । दीपमालिका कार्तिक की अमावस्या । दुग्धव्रत-भाद्रपद की द्वादशी को दुग्ध का पूर्णरूप से परित्याग को मनायी जाती है । इस अवसर पर मकानों की पहले कर यह व्रतारम्भ किया जाता है । निर्णयसिन्धु, १४१ ने से सफाई, सफेदी और सजावट हुई रहती है। रात को इस विषय में भिन्न सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । उसके इस विष दीपदान होता है। दीपों की मालाएँ सजायी जाती हैं। अनुसार व्रती खीर अथवा दही ग्रहण कर सकता है किन्तु इसीलिए इसका नाम 'दीपमालिका' है। इस दिन महा- दुग्ध निाषद्ध । दुग्ध निषिद्ध है। दे० वर्षकृत्यदीपिका, ७७, स्मतिकौस्तुभ, लक्ष्मी तथा सिद्धिदाता गणेश की पूजा होती है। साधक लोग रात भर जागकर जप आदि करते हैं । इसी रात को दुग्धेश्वरनाथ-उत्तर प्रदेश, पं देवरिया जिले के रुद्रपुर जुआ खेलने की बुरी प्रणाली चल पड़ी है, जिसमें कुछ कसवा के पास दुग्धेश्वरनाथ महादेव का मन्दिर है। लोग अपने भाग्य की परीक्षा करते हैं। इन्हें महाकाल का उपलिङ्ग माना जाता है। यह स्थान दीपव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनु बहुत प्राचीन है । नगर और दुर्ग के विस्तृत अवशेष तथा ष्ठान होता है। इसमें भगवती लक्ष्मी तथा नारायण का वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध मूर्तियाँ यहाँ पायी जाती हैं । पञ्चामृत से स्नान कराकर वैदिक मन्त्रों तथा स्तुतियों से इसकी चर्चा फाहियान ने अपने यात्रावर्णन में की है। प्रणाम निवेदन करते हुए पूजन होता है। दोनों प्रतिमाओं पहले यहाँ पञ्चक्रोशी परिक्रमा होतो थी, जिसमें अनेक के सम्मुख दीप प्रज्वलित किया जाता है । तीर्थ पड़ते थे । शिवरात्रि तथा अधिक मास में यहाँ मेला दीप्त आगम-यह एक शैव आगम है। लगता है। मुख्य मन्दिर के आसपास अनेक नवीन दीप्तिव्रत-एक वर्ष तक प्रति दिन सायंकाल इस व्रत का मन्दिर हैं। दुन्दुभि-एक चर्मावृत आनद्ध प्रकार का बाजा, जो युद्ध एवं अनुष्ठान होता है । इसमें व्रती को तेल निषिद्ध है । वर्ष शान्ति दोनों में व्यवहृत होता था। ऋग्वेद तथा उसके के अन्त में स्वर्ण का दीपक, लघु स्थाली, त्रिशूल और परवर्ती साहित्य में प्रायः इसका उल्लेख हुआ है । भूमिएक जोड़ा वस्त्र का दान विहित है। इसके आचरण से दुन्दुभि एक विशेष प्रकार का नगाड़ा था, जो जमीन को मनुष्य इहलोक में मेधावी होता है तथा अन्त में रुद्रलोक खोदकर उसके गड्ढे को चमड़े से मढ़कर बनाया जाता प्राप्त करता है । यह संवत्सरवत है। था। इसका प्रयोग महाव्रत के समय सूर्य की वापसी के दीर्घनीय----ऋग्वेद की एक ऋचा (८.५०.१०) में दीर्घनीथ विरोधी प्रभावों को रोकने के लिए होता था। दुन्दुभिको यज्ञकर्ता कहा गया है। वादक भी पुरुषमेघ की बलिवस्तुओं में सम्मिलित है। २५४ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गन्धदुर्भाग्यनाशनत्रयोदशी-दुर्गोत्सना ३२६ A .. दुर्गन्धदुर्भाग्यनाशनत्रयोदशी-ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इस देवीमाहात्म्य में ७०० श्लोक हैं अतएव यह 'सप्तशती' व्रत का अनुष्ठान होता है । तीन वृक्षों, यथा श्वेत मन्दार भी कहलाता है। इसमें देवों की रक्षा के लिए दुर्गा के अथवा अर्क, लाल करवीर तथा नीम का पूजन इसमें द्वारा अनेक दानवों को मारने की चर्चा है। उनका रूप किया जाता है । यह व्रत सूर्य को बहुत प्रिय है । इसको युद्ध के बीच बड़ा ही भयंकर हो गया है । यहाँ उनके प्रतिवर्ष करना चाहिए। इससे शरीर की दुर्गन्ध तथा सम्प्रदाय के नियमादि तो नहीं दिये जा रहे है किन्तु दुर्भाग्य नष्ट हो जाता है। यह प्रकट है कि ग्रामीण सरलवृत्ति के लोग इनकी पूजा दुर्गा-दुर्गति और दुर्भाग्य से बचाने वाली देवी। इनका में मदिरा और मांस का प्रयोग करते थे। सम्भवतः उन उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत में आता है। वहाँ उनकी दिनों देवी को नरबलि भी देते थे जो अब वजित है। धीरेस्तुति महिषमदिनी तथा कुमारी देवी के रूप में हुई है, धीरे इस शाक्त पूजा पद्धति पर वैष्णव धर्म का प्रभाव जो विन्ध्य पर्वत में निवास करती है तथा मदिरा, मांस, पड़ा। दुर्गा अब बहुत अंश में वैष्णवी हो चुकी हैं । भागवत पशुबलि से प्रसन्न होती है। अपनी सुचरित्रता से वे कृष्णसम्प्रदाय के साथ दुर्गा का सम्बन्ध इसी तथ्य की स्वर्ग को धारण करती हैं। वे कृष्ण की बहिन भी हैं, उन्हीं की तरह घने नीले रङ्ग की तथा मयूरपंख की दुर्गा की मूर्ति का अंकन शक्ति के प्रतीक के रूप में कलँगी धारण करती है । इनका शिव से कोई सम्बन्ध यहाँ हुआ है। वे अत्यन्त सुन्दरी (त्रिपुरसुन्दरी) परन्तु महती नहीं दिखाया गया है। शक्तिशालिनी के रूप में दिखायी जाती है। उनकी आठ, महाभारत (६.२३) में ही एक और परिच्छेद में ये दस, बारह अथवा अठारह भुनाएँ होती हैं, जिनमें अस्त्रदेवी कृष्णकथा से सम्बन्धित हैं तथा यहाँ उन्हें शिव की शस्त्र धारण किये जाते हैं। उनका वाहन सिंह है, जो पत्नी उमा कहा गया है। उन्हें वेद, वेदान्त, सूचरित्रता स्वयं शक्ति का प्रतीक है। वे अपनी शक्ति ( एक शस्त्र तथा अन्य अनेक गुणों से संयुक्त बतलाया गया है। किन्तु का नाम ) से महिषासुर ( तमोगुण के प्रतीक ) का वध वे कुमारी नहीं हैं। करती हैं। दुर्गापूजा अथवा दुर्गोत्सव आश्विन मास के हरिवंश के दो अध्यायों तथा मार्कण्डेय पुराण के एक शक्ल पक्ष में मनाया जाता है । इसके प्रथम नौ दिनों को अंश को 'देवीमाहात्म्य' कहते हैं । हरिवंश का रचनाकाल नवरात्र कहते हैं । इसमें अनेक प्रकार की धार्मिक क्रियाओं चौथी या पाँचवी शती ई० बताया जाता है, इसलिए का अनुष्ठान किया जाता है। देवीमाहात्म्य अधिक से अधिक छठी शताब्दी ई० का दुर्गाचन्द्रकलास्तुति-व्याख्या समेत यह स्तुति कुवलयानन्दहोना चाहिए, क्योंकि यह बाण कवि रचित 'चण्डीशतक' कृत एक निबन्ध ग्रन्थ है जो शाक्त सम्प्रदाय में बहुत लोक(७वीं शताब्दी का प्रारंभिक काल) की पष्ठभमि का काम प्रिय है। करता है । हरिवंश के अध्यायों में दुर्गा के सम्प्रदाय के दूर्गाशतनामस्तोत्र-विश्वसारतन्त्र में यह स्तोत्र पाया जाता धार्मिक दर्शन का वर्णन पाया जाता है । है। इस तन्त्र में भी ६४ तन्त्रों की तालिका दी हई है, देवी के उपासकों का एक सम्प्रदाय है तथा वैष्णव जिसका उल्लेख 'आगमतत्त्वविलास' में है। और शवों की तरह इस मत के अनुसार देवी ही उप- दुर्गोत्सव-दोनों नवरात्रों (शारदीय एवं वसन्तकालीन) में निषदों का ब्रह्म है । देवी शक्ति का विचार यहाँ सर्वप्रथम दुर्गा की पूजा होती है। किन्तु शारदीय पूजा का माहादृष्टिगोचर होता है। ब्रह्म जब कर्म के नियमों से बाधित त्म्य बहुत बड़ा है, क्योंकि परम्परा के अनुसार भगवान् नहीं है, तो वह अवश्य निष्क्रिय होगा और जब ईश्वर राम ने इस अवसर पर दुर्गापूजा की थी। यह भारत का निष्क्रिय है तो उसकी पत्नी ही उसकी शक्ति होगी। सम्भवतः सबसे बड़ा व्यापक उत्सव है । षष्ठी से नवमी इसीलिए वे ( शक्ति, देवी ) और भी पूजा के योग्य हैं तक विशेष पूजा का आयोजन होता है तथा दशमी को तथा व्यावहारिक मनुष्य की उनके प्रति और भी निष्ठा श्रीमूर्ति का विसर्जन होता है। देवीमति के निर्माण एवं बढ़ जाती है। सजावट में लाखों रुपयों का खर्च होता है। भारतीय धर्म Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ दुर्गानवमी-दूर्वागणपतिव्रत एवं कला का इससे बड़ा कोई सार्वजनिक दृश्य नहीं एक बार ये स्वयं भगवान् विष्णु के शाप से पीड़ित उपस्थित किया जा सकता है। हुए थे। दुर्गानवमी-आश्विन शुक्ल नवमी को यह व्रत प्रारम्भ दुर्वासा आश्रम-प्रयाग में त्रिवेणीसंगम से गङ्गा पार होकर होकर एक वर्ष तक चलता है । इसमें पुष्प, धूप, दीप, गङ्गा किनारे पर लगभग छ: मील चलने पर छतनगा नैवेद्य से दुर्गा का पूजन होता है । चार-चार मासों के तीन (शङ्खमाधव) से चार मील दूर ककरा ग्राम पड़ता है। भाग करके प्रत्येक में भिन्न-भिन्न नामों से दुर्गा का यहाँ दुर्वासा मुनि का मन्दिर है। श्रावण में मेला पूजन किया जाता है, जैसे आश्विन में दुर्गा (जिसे लगता है। मङ्गल्या तथा चण्डिका भी कहा जाता है) के नाम से । उकामा कहा जाता ह) का नाम सो दुर्वासा उपपुराण-उपपुराणों में एक 'दुर्वासा उपपुराण' __ इस व्रत का एक और प्रकार यह है कि किसी भी भी है। नवमी को व्रतारम्भ हो सकता है। क्योंकि इसी दिन दर्वासातन्त्र-मिश्रित तन्त्रों में से यह एक तन्त्र ग्रन्थ है। भद्रकाली को समस्त योगिनियों की अध्यक्ष बनाया दुर्वासाधाम-मऊ-शाहगंज (जौनपुर) लाइन पर खुरासो गया था। रोड स्टेशन से तीन मील दक्षिण गोमती के तट पर यह दुर्गापूजा-यह भारत का प्रसिद्ध व्रतोत्सव है। बंगाल में स्थान है। कहा जाता है कि यहाँ महर्षि दुर्वासा ने इसका विशेष रूप से प्रचार है। आश्विन शुक्ल नवमी तपस्या की थी । यहाँ पर दुर्वासा का एक बड़ा मन्दिर तथा दशमी को दुर्गा का विविध प्रकार से विधिवत् पूजन है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है। होता है । दे० दुर्गानवमी। दुल्हाराम-रामसनेही सम्प्रदाय के तीसरे गुरु । इन्होंने दुर्गावत-श्रावण शुक्ल अष्टमी को यह व्रत प्रारम्भ होता लगभग १०००० छन्द तथा ४००० दोहों की रचना की है । एक वर्ष तक चलता है। प्रति मास देवी के भिन्न थी। इस सम्प्रदाय में इनकी रचना बहुत लोकप्रिय है । भिन्न नामों से उनका पूजन किया जाता है। व्रती को दूत-संवादवाहक के रूप में इस का उल्लेख ऋग्वेद तथा चाहिए कि वह भिन्न-भिन्न स्थानों की रज अपने शरीर परवर्ती साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है। दूत के पर मर्दन करे । नैवेद्य भी विभिन्न प्रकार का अर्पण कर्तव्यों और धर्मों का उल्लेख अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, करना चाहिए । कृत्यकल्पतरु (२२५-२३२) में इसे दुर्गा रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थों में हुआ है । दूत के ष्टमी के नाम से कहा गया है। कुछ विशेषाधिकार सर्वमान्य थे। वह अवध्य था और दुर्गाष्टमी-दे० 'दुर्गावत' । उसका वध करने से पाप होता था। दुर्गोत्सव-दे० 'दुर्गापूजा'। दूर्वा-(१) एक प्रकार की माङ्गलिक घास, जिसकी दुःखान्त-पाशुपत शैवों के पाँच मुख्य तत्त्व है-(१) पति गणना पूजा की शुभ सामग्रियों में है। यह गणपतिपूजन (कारण), (२) पशु (कार्य), (३) योगाभ्यास, (४) विधि (विभिन्न आवश्यक अभ्यास) और (५) दुःखान्त (दुःख (२) भाद्र शुक्ल अष्टमी को दूर्वा अष्टमी नाम से से मुक्ति) । पाशुपत सम्प्रदाय में यह मोक्ष का समानार्थी पुकारा जाता है। शब्द है। - दूर्वागणपतिव्रत- श्रावण अथवा कार्तिक मास की चतुर्थी दुर्वासा-पौराणिक साहित्य के ये प्रमुख चरित्रनायक हैं। को प्रारम्भ कर दो या तीन वर्ष तक इस व्रत का अत्यन्त क्रोध और शाप देने की प्रवृत्ति के लिए ये प्रसिद्ध अनुष्ठान होता है। गणेशजी की मूर्ति का लाल फूलों, हैं। दुर्वासा का शाब्दिक अर्थ है 'वह व्यक्ति जो । बिल्वपत्रों, अपामार्ग, शमी के पल्लव, दूर्वा तथा तुलसीक्रोध में आकर अपने वासस् (कपड़े) आदि फाड़ दे। दलों से तथा अन्यान्य उपचारों से पूजन होता है। ऐसे इनकी अनेक कहानियाँ पुराणों में पायी जाती हैं। अभि- मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है जिनमें गणेशजी के ज्ञानशाकुन्तल में दुर्वासा का शाप प्रसिद्ध है। आतिथ्य दस नामों का उल्लेख हो। ( सौरपुराण में शिवजी में त्रुटि हो जाने के कारण इन्होंने शकुन्तला को शाप स्कन्द से कहते है कि इस व्रत का आचरण पार्वती ने दिया था कि उसका पति दुष्यन्त उसको भूल जायेगा। किया था ।) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्वात्रिरात्रव्रत-देव ३२५ दुर्वात्रिरात्रव्रत-(१) यह व्रत विशेष कर महिलाओं के दृशान भार्गव-भृगु का एक वंशज । इसका उल्लेख काठक लिए है। भाद्र शक्ल त्रयोदशी को इसका आरम्भ होता संहिता (१६.८) में एक ऋषि के रूप में हआ है। है। इसमें पूर्णिमा तक तीनों दिन उपवास करना चाहिए। दुषद्वती-एक नदी का नाम, जो आधुनिक हरियाणा में कुछ उमा तथा महेश्वर की प्रतिमाओं का पूजन होता है । धर्म दूर तक सरस्वती के समानान्तर बहती हुई सरस्वती में तथा सावित्री को दूर्वा के मध्य में विराजमान करके मिल जाती है। भरत राजकुमारों के कार्यक्षेत्र के वर्णन उनका पूजन करना चाहिए। नृत्य, गानादि मांगलिक ___ में दृषद्वती का वर्णन सरस्वती एवं आपया के साथ हुआ कार्य करते हुए रात्रि में जागरण और सावित्री के आख्यान है। पञ्चविंशब्राह्मण तथा परवर्ती ग्रन्थों में दृषद्वती एवं का पाठ करना चाहिए। प्रतिपदा को तिल, घी तथा सरस्वती का तट यज्ञों के विशेष स्थल के रूप में वर्णित समिधाओं से होम करने का विधान है। इससे सौख्य, है। मनु ने मध्यदेश की पश्चिमी सीमा इन्हीं दो नदियों समृद्धि तथा सन्तान की प्राप्ति होती है । कहा जाता है कि को बतलाया है । दषद्वती और सरस्वती के बीच का प्रदेश दूर्वा का आविर्भाव भगवान् विष्णु के केशों से हुआ है मनु के अनुसार 'ब्रह्मावर्त' कहलाता था । दे० तथा कुछ अमृतबिन्दु इस पर गिर पड़े थे। दूर्वा अमरत्व 'ब्रह्मावर्त' । का प्रतीक है। दृष्टिसृष्टिवाद-अद्वैतवेदान्तियों का एक सिद्धान्त 'विवर्त(२) इसके अन्य प्रकारों में देवी के रूप में दूर्वा का ही वाद' है, जिसके अनुसार ब्रह्म नित्य और वास्तविक सत्ता पूजन बताया गया है । दुर्वा के पूजन में फूल, फल आदि है तथा नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है । इसी मत का प्रयोग किया जाता है । दो मन्त्र बोले जाते हैं, जिनमें को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टिसृष्टिवाद' का सिद्धान्त एक यह है : 'हे दूर्वे ! तू अमर है, तेरी देव तथा असुर उपस्थित किया गया है, जिसके अनुसार माया अर्थात् प्रतिष्ठा करते हैं, मुझे सौभाग्य, सन्तान तथा सुख प्रदान नाम-रूप मन की वृत्ति है । इसकी सृष्टि मन ही करता है कर।' ब्राह्मणों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को पृथ्वी पर गिरे और मन ही देखता है । ये नाम-रूप उसी प्रकार मन हुए तिलों तथा गेहूँ के आटे का बना पक्वान्न खिलाना ___ अथवा वृत्तियों के बाहर की कोई वस्तु नहीं हैं, जिस चाहिए। यदि भाद्रपद मास की अष्टमी को ज्येष्ठा या प्रकार जड़ चित्त के बाहर की कोई वस्तु नहीं है । इन मल नक्षत्र हो तो यह व्रत नहीं करना चाहिए और न सर्य वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है। के कन्या राशि पर स्थित होने और न अगस्त्योदय हो देव-यह हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । इसमें एक चुकने पर। उच्चतम कल्पना निहित है। इसकी व्युत्पत्ति यास्क के दूलनवास-सतनामी सम्प्रदाय के एक सन्त-महात्मा। इस निरुक्त के अनुसार 'दान, दीपन, द्योतन, धु-स्थान में होने' सम्प्रदाय का आरम्भ कब और किसके द्वारा हआ यह तो आदि के अर्थ पर है । इस प्रकार 'देव' शब्द विश्व की ठीक ज्ञात नहीं है, किन्तु सतनामियों और औरंगजेब के प्रकाशमय और कल्याणकारी शक्तियों का प्रतीक है । बीच की लड़ाई में हजारों सतनामी मारे गये थे। इससे वास्तव में यह विश्व के मूल में रहने वाली अव्यक्त मल प्रतीत होता है कि यह मत यथेष्ट प्रचलित था और सत्ता के विविध व्यक्त रूपों का प्रतीक है। वेदों में ईश्वस्थानविशेष में इसने सैनिक रूप धारण कर लिया था। रीय शक्ति के विभिन्न रूपों की कल्पना 'देव' के रूप में सं० १८०० के लगभग जगजीवन साहब ने इसका पुनरु- की गयी है। वेद की स्पष्ट उक्ति है "एक सद् विप्रा बहुधा द्वार किया। इनके शिष्य दुलनदास हए जो कवि भी थे। वदन्ति, अग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।" [ सत्ता एक है। ये जीवनभर रायबरेली में निवास करते रहे। विद्वान् लोग उसको विविध प्रकार से अग्नि, यम, मातदृढस्यु (आगस्ति)-(अगस्त्य के वंशज) इनका उल्लेख रिश्वा आदि देवताओं के रूप में कहते हैं। ] जैमिनीय ब्राह्मण (३.२३३) में विभिन्दुकीयों के यज्ञकार्य पुरुषसूक्त के १७ वें मन्त्र "अद्भ्यः संभृतः ..." काल के उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है। तन्मय॑स्य देवत्वमाजानमग्रे" के अनुसार परमेश्वर ने दुभीक-ऋग्वेद (२.१४.३) में एक मनुष्य अथवा दैत्य का मनुष्यशरीर आदि को रचा है, अत : मनुष्य भी दिव्य कर्म नाम, जिसका इन्द्र ने वध किया था। करके देव कहलाते हैं और जब ईश्वर की उपासना से , Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ देवको-देवता विद्या, विज्ञान आदि अत्युत्तम गुणों को प्राप्त होते हैं तब कृष्ण का यह पर्याय भागवतों में बहत प्रचलित है। उन मनुष्यों का नाम भी देव होता है, क्योंकि कर्म से 'ईश्वर' अथवा 'ब्रह्म' के रूप में इसका प्रयोग होता है : उपासना और ज्ञान उत्तम हैं। इसमें ईश्वर की यह आज्ञा "एको देवो देवकीपुत्र एव ।” है कि जो मनुष्य उत्तम कर्म में शरीर आदि पदार्थों को देवजनविद्या-शतपथ ब्राह्मण (१३.४,३,१०) तथा लगाता है वह संसार में उत्तम सुख पाता है और जो छान्दोग्य-उपनिषद् ( ७.१,२,४,२,१.७,१ ) में गिनाये परमेश्वर की प्राप्तिरूप मोक्ष की इच्छा करके उत्तम कर्म गये विज्ञानों में से यह एक विज्ञान है। इसको देवविज्ञान उपासना और ज्ञान में पुरुषार्थ करता है, वह उत्तम 'देव' ___ अथवा धर्मविज्ञान कहा जा सकता है। कहलाता है। देवता-'देवता' शब्द देव का ही वाचक स्त्रीलिङ्ग है, भागवतों ( वैष्णवों) द्वारा देव शब्द का अर्थ वही हिन्दी में पुंल्लिङ्ग में इसका प्रयोग होता है । मूलतः ३३ देवता माने गये है --१२ आदित्य, ८ वसु, ११ रुद्र, लगाया जाता है जो हिब्रू शब्द 'एलोहीम' का है । यह शब्द कभी-कभी तो सर्वश्रेष्ठ ईश्वर का अर्थ और कभी द्यावा और पृथ्वो । किन्तु आगे चलकर देवमण्डल का उनके मन्त्रवर्ग के देवों, जैसे ब्रह्मा आदि का अर्थ व्यक्त विस्तार होता गया और संख्या ३३ करोड़ पहुँच गयी। करता है । ये भी पूजा के पात्र होते हैं किन्तु इनकी पूजा देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है। पहले श्रद्धामात्र है, उपासना नहीं है । भागवत अनन्य होते हैं, वे स्थानक्रम से-(१) धुस्थानीय ( ऊपरी आकाश में बहुदेवों की उपासना नहीं करते। रहने वाले ), (२) अन्तरिक्षस्थानीय ( मध्य आकाश वैदिक देवमण्डल में बहुत से देवताओं की गणना है में रहने वाले) और ( ३) पृथ्वीस्थानीय ( पृथ्वी पर रहने वाले ); दूसरे परिवारक्रम से, यथा आदित्य, वसु, जो स्थानक्रम से तीन भागों में विभक्त है-(१) पृथ्वी रुद्र आदि । तीसरे वर्गक्रम से, यथा इन्द्रावरुण, मित्रास्थानीय, (२) अन्तरिक्षस्थानीय और (३) व्योमस्था वरुण आदि । चौथे समूहक्रम से, जैसे सर्वदेवाः आदि । नीय । इसी प्रकार परिवारक्रम से देवों के तीन वर्ग हैं ___ ऋग्वेद के सूक्तों में विशेष रूप से देवताओं की (१) द्वादश आदित्य, (२) एकादश रुद्र और (३) अष्ट वसु । स्तुतियों की अधिकता है। स्तुतियों में देवताओं के नाम इनमें द्यौ और पृथिवी दो और जोड़ने से तेतीस मुख्य देव अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, होते हैं। पुनः वृद्धिक्रम से तेतीस कोटि देवता माने जाते हैं । विश्वेदेवाः, सरस्वती, ऋतु, मरुत्, त्वष्टा, ब्रह्मणस्पति, जहाँ-जहाँ कोई विभूतितत्त्व पाया जाता है, वहाँ 'देव' सोम, दक्षिणा, ऋजु, इन्द्राणी, वरुणानी, द्यौ, पृथ्वी, की कल्पना की जाती है। पूषा आदि है। जो लोग देवताओं की अनेकता देवको-कृष्ण की माता का नाम देवकी तथा पिता का नहीं मानते वे इन सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मानाम वसुदेव है । देवकी कंस की बहिन थी। कंस ने पति वाचक लगाते हैं। जो लोग अनेक देवता मानते हैं वे भो सहित उसको कारावास में बन्द कर रखा था, क्योंकि इन सब स्तुतियों को परमात्मापरक मानते हैं और कहते उसको ज्योतिषियों ने बताया था कि देवकी का कोई पुत्र है कि ये सभी देवता और समस्त सष्टि परमात्मा की ही उसका वध करेगा । कंस ने देवकी के सभी पुत्रों का वध किया, किन्तु जब कृष्ण उत्पन्न हुए तो वसुदेव रातों भारतीय गाथाओं और पुराणों में इन देवताओं का रात उन्हें गोकुल ग्राम में नन्द-यशोदा के यहाँ छोड़ आये। मानवीकरण अथवा पुरुषीकरण हुआ। फिर इनकी मूर्तियाँ देवकी के बारे में इससे अधिक कुछ विशेष वक्तव्य ज्ञात बनने लगीं । इनके सम्प्रदाय बने और पूजा होने लगी। नहीं होता है । छा० उपनिषद् में भी देवकीपुत्र कृष्ण (घोर पहले सब देवता त्रिमूर्ति-ब्रह्मा, विष्णु और शिव में आङ्गिरस के शिष्य ) का उल्लेख है। परिणत हुए थे, अनन्तर देवमण्डल और पूजापद्धति का देवकीपुत्र-कृष्ण का यह मातृपरक नाम छान्दोग्य उप- विस्तार होता गया। निरुक्तकार यास्क के अनुसार निषद् ( ३.१७,६) में पाया जाता है। महाभारत के देवताओं की उत्पत्ति आत्मा से ही मानी गयी है, यथा अनुसार देवकी के पिता देवक थे। "एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति ।" , Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवता अर्थात् एक अद्वय आत्मा के ही सब देवता प्रत्यंग रूप हैं । देवताओं के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि "तिस्रो देवता" अर्थात् देवता तीन है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश । किन्तु ये प्रधान देवता हैं, जो सृष्टि, स्थिति एवं संहार के नियामक हैं । इनके अतिरिक्त और भी देवताओं की कल्पना की गयी है और महाभारत ( शान्तिपर्व ) में इनका वर्णक्रम भी स्पष्ट किया गया है, यथा आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विवाश्च मरुतस्तथा । अश्विनौ तु स्मृती शूद्रौ तपस्यु समास्थितौ ।। स्मृतास्त्वङ्गिरसो देवा ब्राह्मणा इति निश्चयः । इत्येतत् सर्वदेवानां चातुर्वर्ण्यं प्रकीर्तितम् ॥ [ आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुद्गण वैश्य देवता, अश्विन् गण शूद्र देवता तथा आंगिरसगण ब्राह्मण देवता हैं । ] शतपथ ब्राह्मण में भी देवताओं का वर्णक्रम इसी प्रकार माना गया है । देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में तेतीस देवता प्रधान कहे गये हैं, क्षेष सभी देवता इनको विभूतिरूप है । इनकी संख्या निर्धारण करते हुए कहा गया है : तिस्रः कोट्यस्तु रुद्राणामादित्यानां दश स्मृताः । अग्नीनां पुत्रपौत्रं तु संख्यातुं नैव शक्यते ॥ [ एकादश रुद्रों की विभूति तीन कोटि देवता हैं, द्वादश आदित्यों की विभूति दस कोटि देवता है। किन्तु अग्निदेव के पुत्र और पौत्रों की तो गणना करना असंभव है] पुनः अक्षपाद ने इन की संख्या ३३ करोड़ तक मानी है। निरुक ( दैवतकाण्ड) के अनुसार देवता तीन हैं: स्थानीय, पृथ्वीस्थानीय एवं आन्तरिक्ष । इनमें अग्नि का स्थान पृथ्वी है, वायु एवं इन्द्र का स्थान अन्तरिक्ष है। सूर्य का स्थान द्युलोक है । इस प्रकार देवताओं की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं कहा जा सकता, अतः देवता असंख्य हैं । देवता साक्षात् एवं परोक्ष शक्ति के कारण नित्य और नैमित्तिक दो प्रकार के होते हैं। इनमें नित्य देवता वे हैं जिनका पद नित्य एवं स्थायी रूप में माना जाता है, यथा वसु, रुद्र, इन्द्र, आदित्य एवं वरुण ये नित्य देवता हैं । इनके पदसमूह केवल अपने ब्रह्माण्ड में ही नित्य नहीं हैं, अपितु प्रत्येक ब्रह्माण्ड में इन पदों (स्थानों) की नित्य रूप से सत्ता आवश्यक मानी जाती है । ये पद तो नित्य ३२७ होते हैं, पर कल्प मन्वन्तरादि के परिवर्तन के अनन्तर कोई भी विशिष्ट देवता अपने पद से उन्नति कर उससे उच्च स्थान भी प्राप्त कर सकता है । कभी-कभी इन पदाधिकारी देवताओं का पतन भी हो जाता है। महा भारत के अनुसार राजा नहुष ने कठिन तपस्या के प्रभाव से इन्द्रपद प्राप्त कर लिया था, किन्तु इस पद की प्राप्ति के अनन्तर यह अहंकारी हो गया। ऋषियों से अपनी शित्रिका वहन कराते समय वह महर्षि भृगु द्वारा शापित होने पर सर्प हो गया । इनमें नैमित्तिक देवता वे होते हैं, जिनका पद किसी निमित्त विशेष के कारण निर्मित होता है, और उस निमित्त के नष्ट हो जाने पर वह पद जाने पर वह पद (स्थान) भी समाप्त हो जाता है । इस प्रकार ग्रामदेवता, वास्तुदेवता, वनदेवता आदि नैमित्तिक देवकोटि के अन्तर्गत आते हैं । जिस प्रकार गृहदेवता की स्थापना गृहनिर्माण के समय की जाती है, एवं उस गृहदेवता की स्थापना के समय से लेकर जब तक वह गृह बना रहता है, तब तक उस गृहदेवता का पद स्थायी रहता है। गृह नष्ट होने पर उस देवता का स्थान भी नष्ट हो जाता है । इस प्रकार उद्भिज, स्वेदज, अण्डज एवं जरायुज चतुविध जीवों की जिस देश में जिस प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न होती हैं, उनके रक्षार्थ वैसा ही स्वतन्त्र देवता का पद बनाया जाता है। स्थावर पदार्थों में भी नदी, पर्वत आदि तथा अनेक प्रकार के धातु आदि खनिज पदार्थों के चालक और रक्षक पृथक् देवता होते हैं । इस तरह चौदों भुवनों के विराट् पुरुष की विभूतिरूप होने के कारण इनके अन्तर्गत जितने भी पदार्थ है उन सभी की दैवी शक्तियाँ नियामिका हैं । इस प्रकार नित्य और नैमित्तिक भेदों से देवताओं के अनेक नाम और रूप सिद्ध होते हैं। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से भी देवता तीन प्रकार के माने जाते हैं, यथा उत्तम, मध्यम और अधम । उत्तम देवताओं में पार्थिव शरीरान्तर्गत अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों के अधिकारों की पूर्णता के साथ विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोषों के अधिकारों की मुख्यता रहती है। इसी प्रकार मध्यम श्रेणी के देवतावर्ग को भी प्रथम तीन ( अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय) कोषों के अधिकार होते हैं परन्तु विज्ञानमय तथा आनन्दमय Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवताध्याय-देवमुनि कोषों के अधिकारों की गौणता रहती है । अधम श्रेणी के देवदासी-वैभवशाली हिन्दू मन्दिरों में स्त्रियों का नर्तकी देवताओं के अधिकारों की तोव्रता केवल अन्नमय और के रूप में रखा जाना भारत में प्रचलित था, जो देवमूर्ति प्राणमय कोषों में ही रहती है। सत्यलोकस्थ देव रूपस्थ के सामने नाचती गाती थीं। इन्हें देवदासी अथवा ऋषियों को पाँचों कोषों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त रहता 'देवरतिआल' कहते थे। मानभाउ संप्रदायी लोगों के अपयश है । वैतालिक क्षुद्र देवता एवं अनेक नैमित्तिक देवता इसी का सच्चा या झूठा कारण एक यह भी बतलाया जाता श्रेणी के समझे जाते हैं। इसी प्रकार प्रेतलोकगत जीव है कि वे छोटी-छोटी लड़कियों को खरीदकर उन्हें भी दैवी शक्तिसम्पन्न होते हैं, परन्तु इनकी दशा अधिक देवदासी बनाते थे। यह प्रथा अब विधि द्वारा निषिद्ध उन्नत नहीं होती। ये केवल एक भूलोक से ही संश्लिष्ट और बन्द है। रहकर अन्नमय, प्राणमय एवं मनोमय कोषों को किञ्चित् देवनक्षत्र-तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.५,२, ६७) में देवसंकुचित और विकसित करने में समर्थ होते हैं। ये अल- नक्षत्र चौदह चान्द्र स्थानों को कहते हैं। ये दक्षिण में क्षित रहकर भी प्राणमय कोष की सहायता से अनेक स्थूल है। दूसरे यमनक्षत्र कहलाते हैं, जो उत्तर में हैं। पदार्थों को गिराने तथा उठाने के कार्य करते हैं। यह देवपाल-कृष्ण यजुर्वेदीय काठक गृह्यसूत्र पर इन्होंने एक निश्चित है कि केवल मनुष्यों के समक्ष कुछ दैवी शक्तियाँ वृत्ति लिखी है। रखने के कारण प्रेत देवयोनि में परिगणित होते हैं। देवप्रयाग-यहाँ भागीरथी (गङ्गोत्तरी से आने वाली अन्यथा देवलोकों में इनकी गति नहीं होती है । गङ्गा की धारा ) और अलकनन्दा ( बदरीनाथ से आने वाली गङ्गा की धारा) का संगम है। संगम से ऊपर ध्यान से देखा जाय तो समस्त दैवी जगत् के सम्बन्ध रघुनाथजी, आद्य विश्वेश्वर तथा गङ्गा-यमुना की में अध्यात्म भावना के द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा मूर्तियाँ हैं। यहाँ गृद्धाचल, नरसिंहाचल तथा दशरथासकता है। ज्ञानी के लिए समस्त सृष्टि देवमय है। चल नामक तीन पर्वत हैं। इसे प्राचीन सुदर्शनक्षेत्र कहते दे० 'देव' । हैं। यात्री यहाँ पितृश्राद्ध, पिण्डदान आदि करते हैं। देवताध्याय-सामवेदीय पाँचवाँ ब्राह्मण 'देवताध्याय' कह- यहाँ से बदरीनाथ को सीधा मार्ग जाता है। लाता है । सायण ने इसका भाष्य लिखा है। इसमें देवता देवबन्द-सहारनपुर जिले में मुजफ्फरनगर से १४ मील सम्बन्धी अध्ययन है। पहले अध्याय में सामवेदीय देव- दूर देवबन्द स्थान है। यहाँ पर दुर्गाजी का मन्दिर है, ताओं का बहुत प्रकार से प्रकीर्तन है। दूसरे अध्याय में समीप ही देवीकुण्ड सरोवर है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी से वर्ण और वर्णदेवताओं का विवरण है। तीसरे अध्याय में आठ दस दिन तक यहाँ मेला लगता है। यहाँ पहले वन इन सबकी निरुक्ति का विचार है। था, जिसे 'देवीवन' कहते थे। उसी से इस नगर का देवताध्याय ब्राह्मण-दे० 'देवताध्याय' । नाम देवबन्द पड़ा। यह एक शक्तितीर्थ है। अब यहाँ देवतापारम्य-आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ । इसके । मुस्लिम धर्म और संस्कृति की विशेष शिक्षा देनेवाला रचनाकाल का ठीक ज्ञान नहीं होता, परन्तु रामानुज महाविद्यालय भी स्थापित हो गया है। के जीवनकाल के उत्तरार्द्ध में यह रखा जा सकता है। देवभाग श्रौतर्ष-शतपथ ब्राह्मण ( २.४, ४, ५) में देव भाग श्रौतर्ष को सृञ्जयों एवं कुरुओं का पारिवारिक देवतासरा-बंगाल से लेकर मिर्जापुर (उ० प्र०) तक पुरोहित कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण (७.१ ) में इन्हें के क्षेत्र में एक जनजाति भुइया या भुइयाँ ( सं० भूमि ) गिरिज बाभ्रव्य को यज्ञीय बलिदान की विधि सिखलाने बसती है। उसके अपने पुरोहित होते हैं, जिन्हें देवरी वाला कहा गया है (-पशोविभक्तिः) तथा तैत्तिरीय कहते हैं तथा पूजास्थल को 'देवतासरा' कहते हैं। इनमें ब्राह्मण में सावित्र अग्नि का अधिकारी विद्वान् बतलाया चार देवताओं की विशेष पूजा होती है। वे हैं-दासुम गया है। पात, बामोनी पात, कोइसर पात तथा बोराम । देवमुनि-पञ्चविंश ब्राह्मण ( २५.१४, ५) में 'देवमुनि' देवत्रात-आश्वलायन श्रौतसूत्र के ग्यारह भाष्यकारों में तुर का एक विरुद है। अनुक्रमणी में ये एक ऋग्वेदीय से देवत्रात भी एक हैं। ऋचा (१०.१४६ ) के रचयिता कहे गये हैं। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवयात्रोत्सव-देवशयनोत्थान देवयात्रोत्सव-दे० नीलमत पुराण, पृ० ८३-८४, पद्य १०१३-१०१७ । देवालयों में कुछ निश्चित तिथियों को जाना चाहिए। जैसे विनायक के मन्दिर में चतुर्थी को, स्कन्द के मन्दिर में षष्ठी को, सूर्य के मन्दिर में सप्तमी को, दुर्गाजी के मन्दिर में नवमी को, लक्ष्मीजी के मन्दिर में पञ्चमी को, शिवजी के मन्दिर में अष्टमी को अथवा चतुर्दशी को, नागों के मन्दिर में पञ्चमी, द्वादशी अथवा पूर्णिमा को । पूर्णिमा को समस्त देवों के मन्दिरों में यात्रोत्सव मनाये जा सकते हैं। राजनीतिप्रकाश, पृ० ४१६-४१९ ( ब्रह्मपुराण से उद्धत ) के अनुसार देवालयों में वैशाख मास से प्रारम्भ कर छः मास तक प्रतिवर्ष ये उत्सव किये जाने चाहिए, यथा प्रथम मास में ब्रह्माजी के लिए, द्वितीय में देवताओं के लिए तथा तृतीय में गणेशजी के लिए । इसी प्रकार अन्यान्यों के लिए भी जानना चाहिए। देवयान-वैदिक साहित्य के अनुसार इस शब्द का अर्थ 'देवत्व का पथ दिखाने वाला मार्ग' है। इसका अन्य शाब्दिक अर्थ है 'किसी देवता का वाहन ।' जैसे देवयान देवताओं का पथ दिखलाता है उसी प्रकार पितृयान पितरों का पथ दिखलाता है। ऋग्वेद की एक ऋचा में देवयान का सम्बन्ध अग्नि से जोड़ा गया है जो देवी पुरोहित है तथा देवता और मनुष्यों के मिलन का माध्यम है। देवों के पथ या जिस पथ से यज्ञ पदार्थ आकाश को पहुँचता था, आगे चलकर वह यज्ञकर्ता का मार्ग बन जाता था, जिस पर चलकर वह देवों के लोक में पहुँचता था। यह विचार शव के दाहकर्म से लिया गया जान पड़ता है। आगे चलकर उपनिषदों में तथा अन्य साम्प्रदायिक मतों में देवयान के अनेक स्थल या विरामस्थान निर्णीत किये गये, जिन पर क्रमशः अग्रसर होता हुआ मनुष्य अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है। ___ कुलालिकाम्नायतन्त्र के अनुसार शाक्तों के तीन यान हैं : दक्षिणे देवयानन्तु पितृयानन्तु उत्तरे । मध्यमे तु महायानं शिवसंज्ञा प्रगीयते ।। इसके अनुसार देवयान का प्रचार दक्षिण में, पितृयान का उत्तर में और महायान का मध्यदेश में प्रतीत होता है। देवव्रत-(१) चतुर्दशी के दिन गुरुवार हो तथा मघा नक्षत्र हो तो व्रती को उपवास रखते हुए भगवान् महेश्वर का पूजन करना चाहिए। इससे दीर्घायु, धन और यश की वृद्धि होती है।। (२) आठ दिनों तक नक्त, दो वस्त्र सहित एक गौ, सुवर्ण के चक्र तथा त्रिशूल का दान करना चाहिए। उस समय यह मन्त्र उच्चरित होना चाहिए : "शिवकेशवौ प्रसीदेताम् ।" यह संवत्सरव्रत है। इसके आचरण से घोर पापों का नाश हो जाता है। (३) इस व्रत में वेदों का पूजन भी बताया गया है। ऋग्वेद ( इसका आत्रेय गोत्र और अधिपति चन्द्रमा है ), यजुर्वेद ( इसका काश्यप गोत्र है और देवता रुद्र है ), सामवेद ( भारद्वाज गोत्र है, देवता इन्द्र है ) का पूजन करना चाहिए। साथ ही अथर्ववेद का भी पूजन करना चाहिए। उनकी आकृतियों का भी निर्माण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, २.९१५-१६ ( देवीपुराण से ) । देवराजाचार्य-एक विशिष्टाद्वैतवादी आचार्य, जो विक्रम की लगभग तेरहवीं शताब्दी में हए थे । सुदर्शनाचार्य के गरु और वरदाचार्य के ये पिता थे। इन्होंने 'बिम्बतत्त्वप्रकाशिका' नामक एक प्रबन्ध में अद्वैतवादियों के प्रतिबिम्बवाद का खण्डन किया है । यह पुस्तक अभी प्रकाशित नहीं हुई है। देवल-(१) काठकसंहिता (१२.११) में देवल नामक एक ऋषि का उल्लेख है। इस नाम के एक प्राचीन वेदान्ताचार्य भी थे। (२) देवल एक स्मतिकार भी हए हैं, जिनके नाम से देवलस्मृति प्रसिद्ध है। यह स्मृति आठवीं शती में लिखी गयी थी। देवल(तीर्थ)-उत्तर प्रदेश के पीलीभीत नगर से २३ मील पर बीसलपर बस्ती है। यहाँ से १० मील पूर्वोत्तर गढ़गजना तथा देवल के प्राचीन खंडहर हैं। इन खंडहरों से वराह भगवान् की एक प्राचीन मूर्ति मिली है जो देवल के मन्दिर में स्थापित है। स्थानीय किंवदन्ती के अनुसार महर्षि देवल का आश्रम यहीं था। देवल ऋषि-दे० 'देवल'। देवलस्मृति-दे० 'देवल' ।। देवशयनोत्थानमहोत्सव-जिस दिन भगवान विष्ण सोते है अथवा जागते हैं उस दिन विशेष व्रत और महोत्सव करने का विधान है । आषाढ़ शुक्ल एकादशी (हरिशयनी) को विष्णु सोते और कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान) ४२ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० देवसमाज-देवासुरसंग्राम को जागते हैं । वास्तव में यहाँ विष्णु सूर्य के एक रूप में पूजित होते हैं। वर्षा ऋतु में मेघाच्छन्न होने के कारण ये सोये हुए माने जाते तथा शरद् ऋतु आने पर और आकाश स्वच्छ होने पर जागृत समझे जाते हैं। देवसमाज-आधुनिक सुधारक ईश्वरवादी आन्दोलनों में 'देवसमाज' का भी उल्लेख किया जा सकता है। इसके संस्थापक ने पहले ईश्वरवादी 'ब्राह्मसमाज' की तरह अपना संप्रदाय आरम्भ कर पीछे ईश्वरवादिता का एकदम त्याग कर दिया। यह समाज बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ। देवस्वामी-ये बौधायन श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार है। देवहार-उत्तर भारत में आदिम देव-देवियों की पूजा आज भी प्रचलित है। इन देवता तथा देवियों का साधारण नाम 'ग्राम या ग्राम्य देवता' है, जिसे आधुनिक भाषा में 'गांवदेवता' या 'गाँवदेवी' कहते हैं। कभी-कभी उन्हें 'दिह' कहते हैं तथा देवस्थान को 'देवहार' कहते हैं । 'देवहार' से कभी-कभी गाँव के सभी देव-देवियों का बोध होता है। लोकधर्म का य: आज भी आवश्यक अंग है। देवाचार्य-द्वैताद्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय के आचार्य । इनका जन्म तैलङ्ग देश में हुआ था। वे सम्भवतः बारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वर्तमान थे। निम्बार्कसम्प्रदाय का विश्वास है कि वे विष्णु के हाथ में स्थित कमल के अवतार थे। उन्होंने कृपाचार्य से वेदान्त की शिक्षा ली, परन्तु कृपाचार्य कौन थे, इसका कुछ पता नहीं लगता। देवाचार्य के ग्रन्थों से मालूम होता है कि उन्होंने शाङ्करमत तथा निम्बार्कमत का विस्तृत अध्ययन किया था। देवाचार्य के दो ग्रन्थ मिलते है-'वेदान्त- जाह्नवी' तथा 'भक्तिरत्नाञ्जलि', इन ग्रन्थों में देवाचार्य ने निम्बार्क मत तथा भक्ति का प्रतिपादन और शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उनका मत वही है जो निम्बार्क का है। देवापि आष्टिषेण-(ऋषिषेण का वंशज) इसका उल्लेख ऋग्वेद की एक ऋचा (१०.९८) तथा निरुक्त (२.१०) में हुआ है । अन्य ग्रन्थ के अनुसार देवापि तथा शन्तनु भाई थे जो कुरु राजकुमार थे। देवापि ज्येष्ठ था किन्तु उसके रोगात होने के कारण शन्तनु ने ही राज्याधिकार प्राप्त किया । फिर १२ वर्षों तक वर्षा न हुई, ब्राह्मणों ने इस अनावृष्टि का कारण बड़े भाई के होते छोटे का राज्या- रोहण बताया और तब शन्तनु ने देवापि को राज्य दे दिया । देवापि ने इसे अस्वीकार किया तथा छोटे भाई के पुरोहित का कार्यभार ग्रहण कर वर्षा करायी। बृहद्देवता में भी यही कथा है (७.१४८), किन्तु इसमें बड़े भाई के राज्याधिकारी न होने का कारण इसका चर्मरोगी होना बताया गया है। रामायण, महाभारत तथा परवर्ती ग्रन्थ इस कथा का और भी विस्तार करते हैं। महाभारत (५. ५०-५४) के अनुसार देवापि के राज्य न पाने का कारण उसका कुष्ठरोगी होना था जबकि दूसरी कथा में उसका युवावस्था से ही संन्यासी हो जाना कारण था। महाभारत में उसे प्रतीप का पुत्र कहा गया है तथा उसके भाइयों का नाम बालीक एवं आष्टिषेण । ऋग्वेद की ऋचा में देवापि द्वारा शन्तनु के लिए यज्ञ करने का वर्णन है। यहाँ शन्तनु को औलान कहा गया है । यहाँ दोनों का भ्रातृत्व सम्बन्ध नहीं जान पड़ता तथा यह भी नहीं जान पड़ता कि देवापि ब्राह्मण नहीं था। कुछ विद्वानों के मतानुसार, जिनका मत निरुक्त पर आधारित है, वह क्षत्रिय था, किन्तु इस अवसर पर बृहस्पति की कृपा से वह पुरोहित के कार्य करने का अधिकारी हो सका था। देवाराम-तमिल पद्यों का संग्रह (तीन ग्रन्थों का एक में संकलन) 'तेवाराम' या 'देवाराम' कहलाता है, जिसका अर्थ है 'दैवी उपवन' । इसके संकलनकर्ता का नाम था नम्बि-अण्डर-नम्बि जो वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलनरेश रामराज (९८५-१०१८) के समकालीन थे। रामराज की सहायता से नम्बि ने 'देवाराम' के पद्यों को द्रविड गीतों में परिवर्तित कर दिया। देवासुरसंग्राम-(१) देवता और असुर दोनों प्रजापति की सन्तान है । उन लोगों का आपस में युद्ध हुआ। देवता लोग हार गये । असुरों ने सोचा कि निश्चय ही यह पृथ्वी हमारी है। उन सब लोगों ने सलाह की हम लोग पृथ्वी को आपस में बाँट लें और उसके द्वारा अपना निर्वाह करें। उन लोगों ने वृषचर्म (मानदण्ड, नपना) लेकर पूर्वपश्चिम नापकर बाँटना शुरू किया। देवताओं ने जब सूना तो उन्होंने परामर्श किया और बोले कि असुर लोग पृथ्वी बाँट रहे हैं, हम भी उस स्थान पर पहुँचें। यदि हम लोग पृथ्वी का भाग नहीं पाते हैं तो हमारी क्या दशा होगी? देवताओं ने विष्णु को आगे किया और जाकर Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव्यान्वोलन-देवीपाटन कहा कि हम लोगों को भी पृथ्वी का अधिकार प्रदान करो। रूपों का वर्णन पाया जाता है। देवी, महादेवी, पार्वतो, असूयावश असुरों ने उत्तर दिया कि जितने परिमाण के हैमवती आदि इसके साधारण नाम हैं। शिव की शक्ति स्थान में विष्णु व्याप सके उतना ही हम देंगे। विष्ण के रूप में देवी के दो रूप हैं-(१) कोमल और ( २) वामन थे। देवताओं ने इस बात को स्वीकार किया। भयङ्कर । प्रायः दूसरे रूप में ही इसकी अधिक पूजा होती वे आपस में विवाद करने लगे कि असुरों ने हम लोगों है । कोमल अथवा सौम्य रूप में वह उमा, गौरी, पार्वती, को यज्ञ भर के लिए ही स्थान दिया है। फिर देवताओं ने हैमवती, जगन्माता, भवानी आदि नामों से सम्बोधित विष्णु को पूर्व की ओर रखकर अनुष्टुप् छन्द से परिव्रत किया होती है। भयङ्कर रूप में इसके नाम हैं-दुर्गा, काली, तथा बोले, तुमको दक्षिण दिशा में गायत्री छन्द से, पश्चिम श्यामा, चण्डी, चण्डिका, भैरवी आदि । उग्र रूप की दिशा में त्रिष्टुप् छन्द से और उत्तर दिशा में जगती छन्द पूजा में ही दुर्गा और भैरवी की उपासना होती है, से परिवेष्टित करते हैं। इस तरह उनको चारों ओर जिसमें पशुबलि तथा अनेक वामाचार की क्रियाओं का छन्दों से परिवेष्टित करके उन्होंने अग्नि को सन्मुख रखा।। विधान है। दुर्गा के दस हाथ हैं, जिनमें वह शस्त्रास्त्र छन्दों के द्वारा विष्णु दिशाओं को घेरने लगे और देव- धारण करती है। वह परमसुन्दरी, स्वर्णवर्ण और सिंहगण पूर्व दिशा से लेकर पूजा और श्रम करते-करते आगे वाहिनी है। वह महामाया रूप से सम्पूर्ण विश्व को चलने लगे। इस तरह उन्होंने समस्त पथ्वी प्राप्त कर ली। मोहित रखती है। चण्डीमाहात्म्य के अनुसार इसके (२) देवासुर संग्राम क्रमशः अब नैतिक प्रतीक बन निम्नाङ्कित नाम है-१. दुर्गा २. दशभुजा ३. सिंहगया है । सत्य-असत्य अथवा न्याय-अन्याय के संघर्ष को वाहिनी ४. महिषमर्दिनी ५. जगद्धात्री ६. काली ७. भी देवासुर संग्राम कहा जाता है । मुक्तकेशी ८. तारा ९. छिन्नमस्तका १०. जगद्गौरी । देव्यान्दोलन-(देवी को झलाना) यह व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया अपने पति शिव से देवी को अनेक नाम मिले हैं, जैसे को किया जाता है। उमा तथा शङ्कर की प्रतिमाओं को बाभ्रवी, भगवती, ईशानी, ईश्वरी, कालञ्जरी, कपालिनी, केसर आदि सुगन्धित वस्तुओं से चचित करके तथा कौशिकी, महेश्वरी, मृडा, मृडानी, रुद्राणी, शर्वाणी, शिवा, दमनक पादप से विशेष रूप से पूजित करके झूले में त्र्यम्बकी आदि। अपने उत्पत्तिस्थानों से भी देवी को झुलाना तथा रात्रि में जागरण करना चाहिए। नाम मिले हैं, यथा कुजा (पृथ्वी से उत्पन्न), दक्षजा (दक्ष देव्या रथयात्रा-पंचमी, सप्तमी, नवमी, एकादशी अथवा से उत्पन्न)। अन्य भी अनेक नाम हैं-कन्या, कुमारी, तृतीया तिथि को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। राजा अम्बिका, अवरा, अनन्ता, नित्या, आर्या, विजया, ऋद्धि, लोग ईंटों या पाषाणों का एक ढाँचा अथवा मन्दिर सती, दक्षिणा, पिङ्गा, कर्बुरी, भ्रामरी, कोटरी, कर्णमुक्ता, आदि बनाकर उसमें देवी की प्रतिमा पधराते थे। फिर पद्मलांछना, सर्वमङ्गला, शाकम्भरी, शिवदूती, सिंहस्था । सुवर्णसूत्रों, हाथोदाँतों तथा घण्टियों की बन्दनवार से तपस्या करने के कारण इसका नाम अपर्णा तथा कात्यासजे हुए रथ के मध्य भाग में मूर्ति को स्थापित कर अपने यनी है। उसे भूतनायकी, गणनायकी तथा कामाक्षी या प्रासाद की ओर शोभायात्रा के रूप में ले जाते थे। कामाख्या भी कहते हैं। उसके भयङ्कर रूप के और भी सम्पूर्ण नगर, मकान, दरवाजे, सुन्दर प्रकार से सजाये अनेक नाम है-भद्रकाली, भीमादेवी, चामुण्डा, महाजाते थे। रात्रि को दीप प्रज्वलित किये जाते थे। इस काली, महामारी, महासुरी, मातङ्गी, राजसी, रक्तदन्ती प्रकार के आचरण से सुख, वैभव, ऋद्धि, सिद्धि तथा आदि । दे० 'दुर्गा' तथा 'चण्डी' । सन्तति का लाभ होता है, ऐसा लोग विश्वास करते थे। देवी उपनिषद्--एक शाक्त उपनिषद् । यह अथर्वशिरस् देवी-'देव' शब्द का स्त्रीलिङ्ग 'देवी' है। देवताओं की उपनिषद् के पाँच भागों में से अन्तिम है। तरह अनेक देवियों की सत्ता मानी गयी है । शाक्तमत का देवी उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से पचीसवाँ स्थान प्रचार होने पर शक्ति के अनेक रूपों की अभिव्यक्ति देवियों देवी उपपुराण का है। इस पुराण में शक्ति का माहात्म्य के रूपों में प्रचलित होती चली गयी। दर्शाया गया है। महाभारत और पुराणों में देवी के विविध नामों और देवीपाटन-~-यह एक शाक्त तीर्थ है । पूर्वी उत्तर प्रदेश में Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ देवीभागवत-दह बलरामपुर से १४ मील उत्तर गोंडा जिले में देवीपाटन ही वैदिक स्तवन हैं । वैदिक शाक्तजन सिद्ध करते हैं कि स्थान है। यहाँ पाटेश्वरी देवी का मन्दिर है। कहा जाता दसों उपनिषदों में दसों महाविद्याओं का ही वर्णन है । इस है कि महाराज विक्रमादित्य ने यहाँ पर देवी की स्थापना प्रकार शाक्तमत का आधार भी श्रुति ही सिद्ध होता है । की थी। यह भी कहा जाता है कि कर्ण ने परशुरामजी देवीस्तुति-प्राचीन इतिहासग्रन्थ महाभारत और रामासे यहीं ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था। नवरात्र के दिनों में यहाँ यण में देवी की स्तुतियाँ हैं। इसी प्रकार अद्भतरामाभारी मेला लगता है। यण में अखिल विश्व की जननी सीताजी का परात्पर देवीभागवत-श्रीमद्भागवत और देवीभागवत के सम्बन्ध शक्ति वाला रूप प्रत्यक्ष कराते हुए बहुत सुन्दर स्तुति में इस बात का विवाद है कि इन दोनों में महापुराण की गयी है। कौन सा है ? विषय के महत्त्व की दृष्टि से प्रायः दोनों देवेश्वराचार्य-संक्षेपशारीरक ग्रन्थ के रचनाकार और ही समान कोटि के प्रतीत होते हैं। श्रीमद्भागवत में शृंगेरी मठ के अध्यक्ष सर्वज्ञात्ममुनि ने अपने गुरु का विष्णुभक्ति का उत्कर्ष है और देवीभागवत में पराशक्ति नाम देवेश्वराचार्य लिखा है। टीकाकार मधुसुदन सरदुर्गा का उत्कर्ष दिखाया गया है। दोनों भागवतों में स्वती एवं रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य का अर्थ सुरेश्वराचार्य अठारह-अठारह हजार श्लोक हैं और बारह ही स्कन्ध हैं। किया है । किन्तु इन दोनों के काल में बहुत अन्तर है। देवीभागवत के पक्ष में यही निर्बलता है कि जिन प्रमाणों से देवोपासना-देवताओं की उपासना हिन्दू धर्म का एक उसका महापुराणत्व प्रतिपादित होता है वे वचन उप विशिष्ट अंग है। साधारणतया प्रत्येक हिन्दू किसी न पुराणों और तन्त्रों से उद्धृत होते है। उधर श्रीमद् किसी इष्ट देवता की उपासना अथवा पूजा करता है । भागवत के लिए महापुराण ही प्रमाण उपस्थित करते हैं। परन्तु हिन्दू देवकल्पना ईश्वर से भिन्न नहीं होती। दे० 'देवीभागवत उपपुराण' । प्रत्येक देव अथवा देवता ईश्वर की किसी न किसी शक्ति देवीभागवत उपपुराण-शाक्तों का धार्मिक-अनुशासन का प्रतीक मात्र है। इसलिए देवोपासना वास्तव में ईश्व रोपासना ही है। देवताओं की मूर्तियाँ होती है परन्तु सम्बन्धी ग्रन्थ । कुछ विद्वानों के मतानुसार यह उपपुराण है। देवोपासना मूर्तिपूजा नहीं है । मूर्ति तो एक माध्यम है। देवीभक्तों का कहना है कि यह उपपुराण नहीं है, अपितु इसके द्वारा देवता का ध्यान किया जाता है। उपासना महापुराणों में इसे पाँचवाँ स्थान प्राप्त है । इसकी रचना, की पूरी अर्हता उस समय होती है जब देवत्व की पूरी ऐसा लगता है, भागवत पुराण के पश्चात् तथा भागवतव्याख्याकार श्रीधर स्वामी ( १३४३ वि० ) के पहले अनुभूति के साथ देवता की अर्चना की जाती है : 'देवो भूत्वा देवं यजेत् । हुई थी। देश-ऐतरेय ब्राह्मण के एक परिच्छेद एवं वाजसनेयी संहिता देवीमाहात्म्य--'हरिवंश' की दो स्तुतियों एवं मार्कण्डेय में इस शब्द का प्रयोग बहाँ पाया जाता है जहाँ सरस्वती पुराण के एक खण्ड से गठित यह ग्रन्थ देवी के शक्तिशाली की पाँच सहायक नदियों के नाम बताये गये हैं। ऋचाकार्यों का विवरण एवं उनकी दैनिकी व वार्षिकी पूजा द्रष्टा ऋषि ने सरस्वती को मध्यदेश में स्थित बताया है । विधियों का वर्णन उपस्थित करता है। इसका अन्य नाम मध्यदेश की भौगोलिक स्थितियाँ यजुर्वेद में दी गयी हैं । 'चण्डीमाहात्म्य' है। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त देवीयामलतन्त्र-शाक्त परम्परा की वाममार्गी शाखा का एक आदि का देश रूप में निर्देश है। ग्रन्थ । कश्मीरा शद विद्वान् आभनवगुप्त एव क्षमराज धार्मिक अर्थ में यज्ञीय भमि अथवा धार्मिक क्षेत्र को ने देवीयामल तथा अन्य तन्त्रों से अपने ग्रन्थों में प्रचुर देश कहा जाता है। उद्धरण दिये हैं । ये दोनों विद्वान् ९४३ वि० के लगभग दार्शनिक अर्थ में वैशेषिक के अनुसार नव द्रव्यों में से हए थे, इसलिए देवीयामल तन्त्र इससे पहले की 'देश' एक है। इसका सामान्य अर्थ है गति अथवा प्रसार । रचना है। देहु-महाराष्ट्र के भागवत सम्प्रदाय में विष्णु का नाम वहाँ देवीसूक्त-देव्यथर्वशीर्ष, देवीसूक्त और श्रीसूक्त शक्ति के की बोली में विट्ठल या विठोवा है। इसके मुख्य केन्द्र Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहयाचार्य-द्रमिलाचार्य (द्रविडाचार्य) पण्ढरपुर, आलन्दी एवं देहु हैं, यद्यपि सारे प्रदेश में भाग- साम का रचयिता कहा गया है । अनुक्रमणी उसे एक बतमन्दिर बिखरे पड़े हैं । 'देहु' भागवत सम्प्रदाय के ऋषि तथा ऋग्वेद के एक सूक्त ( ८.९६ ) का रचनाकार प्रमुख तीर्थों में से है। बताती है। दोड्याचार्य-वेदान्तदेशिक वेङ्कटनाथ की कृति 'शतदूषणी' द्यौ-आकाशीय देवपरिवार की मान्यता, जिसका अधिष्ठान के टोकाकार । 'चण्डमारुत' आदि टीकाएँ उनकी बनायी द्यौ' है, भारोपीय काल से आरम्भ होती है। 'द्यौं' हुई हैं । वे रामानुज संप्रदाय के अनुयायी और अप्पय्य की स्तुति ऋग्वेद में पृथ्वी के साथ 'द्यावापृथिवी' दीक्षित के समसामयिक थे । उनका काल सोलहवीं के रूप में की गयी है। पृथ्वी से अलग ‘द्यौ' की एक शताब्दी कहा जा सकता है। वाधूलकुलभूषण श्रीनिवा- भी स्तुति नहीं है, जबकि पृथ्वी की अलग एक स्तुति है। साचार्य उनके गुरु थे। गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् इन ऋचाओं में द्यो एवं पृथ्वी को देवताओं के पिताउन्हें 'महाचार्य' की उपाधि मिली । उनका जन्मस्थान माता कहा गया है ( ७.५३,१) एवं वे सत्रों में अपने शोलिङ्कर है । वेदान्ताचार्य के प्रति उनकी प्रगाढ़ भक्ति बालकों के साथ ऋत के स्थान पर आसीन होने के लिए थी। उनके ग्रन्थों के नाम इस प्रकार है-चण्डमारुत, आमंत्रित किये जाते है । वे स्वर्गीय परिवार के घटक हैं अद्वैतविद्याविजय, परिकरविजय, पाराशर्यविजय, ब्रह्म- ( दैव्यजन, ७.५३.२ )। वे सूर्य एवं विद्युत् रूपी विद्याविजय, ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास, वेदान्तविजय, सद्विद्या- अग्नि के पिता हैं (पितरा, ७.५३,२;१.१६०,३ या विजय और उपनिषन्मङ्गलदीपिका। मातरा, १.१५९,३ एवं १.१६०,२)। पिता-माता दोलोत्सव-यह उत्सव भिन्न-भिन्न तिथियों में भिन्न-भिन्न के रूप में वे सभी जीवों की रक्षा करते हैं तथा धन, देवताओं के लिए मनाया जाता है । पद्मपुराण ( ४.८०. कीर्ति एवं राज्य का दान करते हैं। ऋग्वेद में द्यौ का ४५-५० ) के अनुसार कलियुग में फाल्गुन मास की चतु- जो चित्र अङ्कित है उसके अनुसार पिता द्यौ प्रेमपूर्वक दशी के दिन आठवें पहर अथवा पूर्णिमा और प्रतिपदा के माता पृथ्वी पर झुककर वर्षा के रूप में अपना बीज दान मिलन के समय यह व्रतोत्सव मनाया जाता है । कृष्ण करता है, जिसके फलस्वरूप पृथिवी फलवती होती है । भगवान् को झूले में दक्षिणाभिमुख बैठे हुए देखकर मनुष्य ऋग्वेद (६.७०,१-५ ) में वर्षा की उपमा मधु एवं पापों के संघात से मुक्त हो जाता है । चैत्र शुक्ल तृतीया दुग्ध से दी गयी है। गौरी के दोलोत्सव का दिन है। रामचन्द्रजी का भी द्रप्स-ऋग्वेद एवं परवर्ती ग्रन्थों में द्रप्स का अर्थ 'घुट' दोलोत्सव मनाया जाता है। है । सायण के अनुसार इसका अर्थ 'मोटी बूंद' है जिसका मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या, द्वारका तथा कुछ अन्य प्रतिलोम शब्द 'स्तोक' है । इस प्रकार प्रायः 'दधिद्रप्स' स्थानों में भगवान् राम और कृष्ण का दोलोत्सव समारोह का उल्लेख आता है । इसका प्रयोग तैत्तिरीय संहिता के साथ मनाया जाता है। ( ३.३,९१ ) में 'सोम की मोटी बूंद' के रूप में है। द्वचणुक-वैशेषिक दर्शन का अणवादी सिद्धान्त है, उसके दो सन्दर्भो में, राथ के विचार से इसका अर्थ ध्वज है अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमाणु क्रियाशील होते हैं जबकि गोल्डनर इसका अर्थ धूल लगाते हैं। मैक्समूलर और एक-दूसरे से मिलने लगते है । दो परमाणुओं के ने एक परिच्छेद में इसका अर्थ 'वर्षा की बँद' लगाया है। मिलने से एक व्यणुक बनता है तथा तीन घणुक मिलकर द्रव्य--वैशेषिक मतानुसार नव द्रव्य है-पृथ्वी, जल, एक त्र्यणुक बनाते हैं । यही पदार्थ की लघुतम इकाई है। अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा (असंख्य) द्युतान मारुत-मरुत् के वंशज एक देवता का नाम । एवं मन । इन्हीं से मिलकर संसार के सारे पदार्थ वाजसनेयी संहिता ( ५.२७ ) एवं तैत्तिरीय संहिता बनते हैं। ( ५.५,९,४) में उसके आमन्त्रण करने का उल्लेख मिळाचार्य ( द्रविडाचार्य )-एक प्राचीन वेदान्ती । इन्होंहै । काठक सहिता में भी उसका उल्लेख आया है । शत- ने छान्दोग्य उपनिषद् पर अति बृहद् भाष्य लिखा था । पथ ब्राह्मण ( ३.६,१,१६ ) में उसके नाम का अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् पर भी इनका भाष्य था, ऐसा वाय है, जबकि पञ्चविंश ब्राह्मण ( ६.१,७) में उसे प्रमाण मिलता है। माण्डूक्योपनिषद् के (२.३२; Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ २.२० ) भाष्य में शङ्कर ने इनका 'आगमविद्' कहकर उल्लेख किया है और बृहदारण्यक ( पृ० २९७, पूना सं० ) भाष्य में उनको 'सम्प्रदायविद्' कहा है । शंकर ने जहाँ भी विद्याचार्य का उल्लेख करना आवश्यक समझा वहाँ सम्मान के साथ किया है। उनके मत का खण्डन भी नहीं किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि द्रविडाचार्य का सिद्धान्त उनके प्रतिकूल नहीं था छान्दोग्य उपनिषद् में जो 'तस्वमसि' महावाक्य का प्रसंग आया है, उसकी व्याख्या में विचार्य ने 'व्याधसंहिता' से राजपुत्र की आख्यायिका का वर्णन किया है। इस पर आनन्दगिरि कहते हैं कि "तत्त्वमस्यादिवाक्य अद्वैत का समर्थक है " यह मत आचार्य द्रविड को अङ्गीकृत है । रामानुज सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी विद्याचार्य नामक एक प्राचीन आचार्य का उल्लेख मिलता है । कुछ विद्वानों का मत है कि ये द्रविडाचार्य शङ्करोक्त द्रविडाचार्य से भिन्न थे। इन्होंने पाञ्चरात्रसिद्धान्त का अवलम्बन करके विभाषा में ग्रन्थ रचना की थी। यामुनाचार्य के 'सिद्धि त्रय' में इन्हीं आचार्य के विषय में यह कहा गया है कि "भगवता बादरायणेन इदमर्थमेव सूत्राणि प्रणीतानि, विवृतानि च ....... भाष्यकृता ।" यहाँ पर 'भाष्यकृत्' शब्द से द्रविडाचार्य का ही उल्लेख है। किसी किसी का मत है कि द्रविडसंहिताकार आलवार शठकोप अथवा वकुलाभरण भी वैश्यव प्रत्यों में विवार्य नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों 'द्रविडों' की परस्पर भिन्नता के सम्बन्ध में अब तक कोई सिद्धान्त नहीं स्थिर हो सका है । सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेपशारीरक' में ( ३.२२१ ) ब्रह्मनन्दिग्रन्थ के द्रविडभाग्य से जिन वचनों को उत किया है, वे रामानुज द्वारा उद्धृत द्रविडभाष्यवचनों से अभिन्न दीख पड़ते हैं । इसीलिए किसी-किसी के मत से शर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध द्रविडाचार्य और रामानुज सम्प्र दाय में प्रसिद्ध द्रविडाचार्य एक ही व्यक्ति हैं, भिन्न नहीं । द्राक्षाभक्षण - द्राक्षाओं (अंगूर) का आश्विन मास में पहलेपहल सेवन द्राक्षाभक्षण उत्सव कहलाता है । कृत्यरत्नाकर ( पृ० ३०३ ३०४) पुराण को उद्धृत करते हुए कहता ब्रह्मपुराण है कि जिस समय समुद्रमन्थन हुआ उस समय क्षीरसागर से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, किन्तु शीघ्र ही वह लता में परिवर्तित हो गयी। उस समय देवगण पूछने लगे कि अरे, यह कौन है ? हम लोग प्रसन्नतापूर्वक इसे देखेंगे द्राक्षाभक्षण-द्र पद ( हन्त ! द्रक्ष्यामहे वयम् ) और उसी समय उन्होंने लता को 'द्राक्षा' नाम से सम्बोधित किया। यही इस शब्द की प्रसिद्ध व्युत्पत्ति है जब अंगूर परिपक्व हों उस समय पुष्पों, सुगन्धित द्रव्यों तथा खाद्य पदार्थों से लता का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त दो बालक तथा दो वृद्ध पुरुषों का सम्मान किया जाना चाहिए। अन्त मे नृत्य तथा गान का अनुष्ठान विहित है । ड्रामिड-वेदान्तसूत्रों पर इनका भाष्य था दे० 'द्रविडा चार्य' । । द्राविडभाव्य शिवज्ञानयोगी द्वारा रचित द्राविडभाष्य एक बृहद् ग्रन्थ है, जो तमिल भाषा में है और 'शिवज्ञानबोध' पर लिखा गया है । इस ग्रन्थ को 'द्राविडमहाभाष्य' भी कहते हैं । द्राविड बंद-नम्मालवार के ग्रन्थ वेदों के प्रतिनिधि माने जाते हैं । इनकी सूची निम्नांकित है : (१) तिरुविरुत्तम ऋग्वेद (२) तिरुवोयमोलि सामवेद (३) तिरुवाशिरियम यजुर्वेद (४) पेरियतिस्वन्यादि अथर्ववेद उपर्युक्त चारों ग्रन्थ 'द्राविड वेद' कहे जाते है। ब्रह्मायणीत सूत्र सामवेदीय चार श्रौतसूत्रों में से तीसरा लाट्यायनश्रौतसूत्र से इसका भेद बहुत थोड़ा है । यह सूत्र सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्ध रखता है। इसका दूसरा नाम 'वसिष्ठसूत्र' हे मध्य स्वामी ने इसका भाष्य लिखा है। रुद्रस्कन्द स्वामी ने 'ओगावसारसंग्रह' नामक निवन्ध में उस भाष्य का और परिष्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसुत्रदीप नाम की वृत्ति लिखी है । द्र – यह एक काष्ठपात्र का नाम है, जिसका उपयोग विशेष कर सोमयज्ञों (०९.१,२,६५,६.९८, २) में होता था। तैत्तिरीयब्राह्मण में इसका प्रयोग केवल 'काष्ठ' के अर्थ में हुआ है। पद - ( १ ) काष्ठस्तम्भ अथवा स्तम्भ मात्र के अर्थ में ऋक् ( १.२४, १३:४,३२,२३) तथा परवर्ती ग्रन्थों में (अ० ० ६.६३,५:११५,२;१९.४७,९ वा०सं० २०.२०) बहुधा यह प्रयुक्त है । इस प्रकार यज्ञयूपों (स्तम्भों ) को भी द्रुपद कहते थे। शुनःशेष ऐसे ही तीन दुपदों से बाँधा गया या कुछ उदाहरणों में चोरों को दण्ड देने के लिए ऐसे ही स्तम्भों में बाँध दिया जाता था । , Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोण-द्वारका ३३५ (२) महाभारत के अनुसार पञ्चाल देश के राजा का भोजन का विधान है । कृष्णपक्ष की सप्तमी को भी उपवास नाम द्रुपद था, जिसकी पुत्री द्रौपदी थी। यह महाभारत आदि करना पुण्यकारी है। के प्रमुख पात्रों में है। द्वादशीव्रत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को प्रारम्भ द्रोण-लकड़ी की नांद, जिसका उपयोग विशेष कर सोमरस होता है और एक वर्ष तक अथवा जीवन पर्यन्त चलता रखने के पात्र के रूप में (ऋक्० ९.३,१;१५,७२८,४; है। इसमें एकादशी को उपवास तथा द्वादशी को विष्णु ३०,४,६७,१४) बतलाया गया है । लड़की के बृहत् पात्र का पुष्पादि के उपचार सहित पूजन होता है। ऐसा को द्रोणकलश (त० सं० ३.२,१,२; वाज० सं० १८.२१; विश्वास है कि यदि एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण १९.२७; ऐ० ब्रा० ७.१७,३२; शत० ब्रा० १.६,३,१६ किया जाय तो पापों से शुद्धि होती है। यदि जीवन पर्यन्त आदि) कहा जाता था। यज्ञवेदी कभी-कभी द्रोणकलश की। इस व्रत का आचरण किया जाय तो मनुष्य श्वेतद्वीप प्राप्त आकृति की बनायी जाती थी। करता है । यदि कृष्ण तथा शुक्ल दोनों पक्षों की द्वादशियों द्वादशमासर्भवत-कार्तिकी पूर्णिमा (कृत्तिका नक्षत्र युक्त) को व्रताचरण किया जाय तो स्वर्ग की उपलब्धि होती है। को इस व्रत का आरम्भ होता है । इसमें नरसिंह भगवान् यदि जीवनपर्यन्त इस व्रत का आचरण किया जाय तो के पूजन का विधान है। मृगशिरा नक्षत्रयुक्त मार्गशीर्ष विष्णुलोक को प्राप्ति होती है। की पूर्णिमा को भगवान राम का पूजन होना चाहिए। द्वादशलक्षणी-मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन पुष्य नक्षत्रयुक्त पौष की पूर्णिमा को बलरामजी का पूजन है, इस कारण इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं। बारह करना चाहिए । मघा नक्षत्रयुक्त माघी पूर्णिमा को वराह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह पूर्वमीमांसा शास्त्र भगवान् का पूजन, फाल्गुनी नक्षत्रों से युक्त फाल्गुनपूर्णिमा 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाता है। को नर तथा नारायण का पूजन और इस प्रकार से अन्य द्वादशस्तोत्र--मध्वाचार्य रचित यह एक स्तोत्र ग्रन्थ का पूर्णिमाओं को अन्य देवों का श्रावणी पूर्णिमा तक पूजन नाम है। होना चाहिए। द्वापर-चतुर्युगी का तीसरा युग। इसका शाब्दिक अर्थ है द्वादशसप्तमीव्रत-चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ कर प्रत्येक विचारद्वन्द्व' अथवा 'दुविधा'। इस युग के अन्त में मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन वर्ष भर भगवान् अनेक द्वन्द्व अथवा संघर्ष-सामाजिक, राजनीतिक, सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों एवं षडक्षर मन्त्र ‘ओं नमः धार्मिक, दार्शनिक, वैचारिक आदि उत्पन्न हो गये थे। सूर्याय' से पूजन होना चाहिए । इस व्रत के अनुष्ठान से युगपुरुष भगवान् कृष्ण ने उनका समाधान श्रीमद्अनेक गम्भीर रोगों, जैसे कुष्ठ, जलोदर तथा रक्तामाशय भगवद्गीता में प्रस्तुत किया। दे० कृतयुग' । से मुक्ति मिलती है तथा सुस्वास्थ्य प्राप्त हो जाता है। द्वारका-यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से है, जिनकी द्वादशादित्यव्रत-मार्गशीर्ष शक्ल द्वादशी को इस व्रत का सूची निम्नांकित है : आरम्भ होता है। इसमें द्वादश आदित्यों (धाता, मित्र, अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका । अर्यमा, पूषा, शक्र, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वान्, सविता पुरी द्वारवती चैव सप्तता मोक्षदायिकाः ।। तथा विष्णु) का पूजन होता है । व्रत के अन्त में सुवर्ण का भगवान् कृष्ण के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण दान विहित है । इससे सवितृलोक की उपलब्धि इसका विशेष महत्त्व है। महाभारत के वर्णनानुसार कृष्ण होती है। का जन्म मथुरा में कंस तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए द्वादशाहसप्तमी-यह व्रत माघ शुक्ल सप्तमी को प्रारम्भ हुआ । इस कार्य को पूरा करने के पश्चात् वे द्वारका होता है। एक वर्ष तक सप्तमी को उपवास तथा भगवान् (काठियावाड़) चले गये । आज भी गुजरात में स्मार्त ढंग की सूर्य के भिन्न-भिन्न नामों से पूजन का विधान है। माघ कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणमें वरुण नाम से, फाल्गुन में तपन नाम से, चैत्र में धाता छोड़राय' के है, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित है जिसने नाम से तथा इसी प्रकार से अन्य मासों में विभिन्न नामों ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें जरासंध से भय से कृष्ण से पूजन करना चाहिए । आने वाली अष्टमी को ब्राह्मण- द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडों के प्रति भक्त का ऋण चुकाना - यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर ( अहमदाबाद के समीप ) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यजनादि किये जाते हैं । तीर्थयात्रा में यहाँ आकर गोपीचन्दन लगाना और चक्राङ्कित होना विशेष महत्त्व का समझा जाता है । यह आगे चलकर कृष्ण के नेतृत्व में यादवों की राजधानी हो गयी थी । यह चारों धामों में एक धाम भी है । कृष्ण के अन्तर्धान होने के पश्चात् प्राचीन द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी । केवल भगवान् का मन्दिर समुद्र ने नहीं डुबाया । यह नगरी सौराष्ट्र ( काठियावाड़) में पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है । द्वारकानाथ (१) कृष्ण का एक स्वामी' | मथुरा से पलायन करने के ने द्वारका अपनी राजधानी बनायी थी मुख्य थे अतः वे द्वारकानाथ कहलाये । द्वारकामठ शङ्कराचार्य भारतव्यापी धर्मप्रचारयात्रा करते हुए जब गुजरात आये तो द्वारका में एक मठ स्थापित कर अपने शिष्य हस्तामलकाचार्य को उसके आचार्यपद पर बैठाया | शृंगेरी तथा द्वारका मठों का शिष्यसम्प्रदाय 'भारती' के उपनाम से प्रसिद्ध है । पर्याय 'द्वारका के बाद वृष्णि यादवों कृष्ण वृष्णिगण के द्वार इस शब्द का प्रयोग केवल उपमा के रूप में ऐतरेय ब्राह्मण (१.३०) में हुआ है, जहाँ विष्णु को देवों का द्वार कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (२.१३, ६) में भी ' द्वारप' का प्रयोग उपर्युक्त उपमावाचक अर्थ में हुआ है। द्वारकानाथ द्वीपव्रत अनुसार उपनयन आदि संस्कार करने से मनुष्य द्विज होता है जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते । वेदपाठाद्भवेद् विप्रः ब्रह्मज्ञानाच् च ब्राह्मणः ॥ [ मनुष्य जन्म के समय शूद्र होता है, फिर संस्कार करने से द्विज कहलाता है । वेद पढ़ने से वह विप्र और ब्रह्म का ज्ञानी होने से ब्राह्मण होता है । ] द्वितीयाभद्राव्रत - यह व्रत भद्रा या विष्टि नामक करण पर आश्रित है, यह मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को प्रारम्भ होता है। एक वर्ष तक भद्रा देवी की पूजा करने का इसमें विधान है। इसमें निम्नांकित मन्त्र का जप होता है भद्रे भद्राय भद्रं हि चरिष्ये व्रतमेव ते । निर्विघ्नं कुरु मे देवि ! कार्यसिद्धिख भावव ॥ व्रती को भद्रा करण के आरम्भ में भद्रा देवी की लोहमयी, पाषाणमयी, काष्ठमयी अथवा रागरञ्जित प्रतिमा स्थापित कर पूजनी चाहिए। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य की मनोभिलाषाएँ तथा करणीय कर्म उस समय भी पूर्ण होते हैं, जब कि वे भद्रा काल में आरम्भ किये गये हों। भद्रा अथवा विष्टि को अधिकांश अवसरों पर एक भयानक वस्तु के रूप में देखा अथवा समझा जाता है । दे० स्मृतिकौस्तुभ ५६५-५६६ दिल कार्तिक मास में दो बलों वाले धान्य भोजन के लिए निषिद्ध हैं, जैसे अरहर (तूर), राजिका, माष ( उड़द), मुद्ग, मसूर, चना तथा कुलित्थ इनका भोजन में परित्याग 'दिल' कहलाता है। दे० निर्णयसिन्धु १०४१०५॥ द्विराषाढ - विष्णु भगवान् आषाढ शुक्ल एकादशी को शयन करते हैं यह प्रसिद्ध है। जब सूर्य मिथुन राशि पर हों और अधिक मास के रूप में उस समय दो आषाढ़ हों तब विष्णु द्वितीय आषाढ के अन्त वाली एकादशी के उपरान्त ही शयन करेंगे। दे० जीमूतवाहन का कालविवेक, १६९१७३ निर्णयसिन्धु १९२ समयमख ८३ ॥ द्वीपप्रत चैत्र शुक्ल से आरम्भ कर प्रत्येक मास में सात दिन व्रती को सप्त द्वीपों का क्रमशः पूजन करना चाहिए । क्रम यह होगा - ( १ ) जम्बू, (२) शाक, (३) कुश, (४) क्रौञ्च, (५) शाल्मलि, (६) गोमेद और (७) पुष्कर । यह व्रत एक वर्ष तक आचरणीय है। व्रती को एक शाम भूमि पर शयन करना चाहिए। विश्वास किया जाता है द्विज - (१) प्रथम तीन वर्णों का एक विरुद 'डिज' ( द्विजन्मा) है, किन्तु यह शब्द विशेष कर ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है । अथर्ववेद ( १९.७१, १ ) के एक अस्पष्ट वर्णन को छोड़कर इसका प्रयोग वैदिक साहित्य में नहीं हुआ है। धर्मसूत्र और स्मृतियों में इसका प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'दो जन्म वाला' अर्थात् ऐसा व्यक्ति जिसके दो जन्म होते हैं: (१) शारीरिक और (२) ज्ञानमय शारीरिक जन्म माता-पिता से होता है। और ज्ञानमय जन्म गुरु अथवा आचार्य से । स्मृतियों के Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस धन्यवत अथवा धन्यप्रतिपदावत कि वर्ष के अन्त में रजत, फल आदि वस्तुओं के दान से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। द्वैतवादरायण के पूर्व ही वेदान्त के अनेक आचायों ने आत्मा एवं ब्रह्म के सम्बन्ध में अपने मत प्रकाशित किये थे। इनमें से तीन सिद्धान्त प्रसिद्ध हैत अद्वैत और द्वैताद्वैत ( भेदाभेद ) । द्वैतमत के संस्थापक औडुलोमि हैं । उनके मतानुसार आत्मा वहा से बिल्कुल भिन्न है, जब तक कि वह मोक्ष प्राप्त कर ब्रह्म में विलीन नहीं हो जाता । वेदान्त के अतिरिक्त सांख्य, न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा को प्रकृति अथवा ब्रह्म से स्वतन्त्र तत्त्व माना गया है और इस प्रकार द्वैत अथवा त मत का समर्थन हुआ है। द्वैताद्वैतमत- यह एक प्रकार का भेदाभेदवाद ही है । इस के अनुसार ति भी सत्य है और अद्वैत भी इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क हो गये हैं। ब्रह्मसूत्र में भी द्वैताद्वैतवाद तथा उसके आचार्य का नाम मिलता है। दसवीं शताब्दी में आचार्य भास्कर ने भेदाभेदवाद के अनुसार वेदान्तसूत्र की व्याख्या की । यह व्याख्या ब्रह्मपरक है, शिव या विष्णुपरक नहीं ग्यारहवीं शताब्दी में निम्बार्क स्वामी ने ब्रह्मसूत्र की विष्णुपरक व्याख्या करके द्वैताद्वैत मत अथवा भेदाभेदवाद की स्थापना की । आचार्य निम्बार्क के मतानुसार ब्रह्म जीव और जड़ अर्थात् चेतन और अचेतन से पृथक् और अपृथक् है इस पृथक्त्व और अयक्त्व के ऊपर ही उनका दर्शन निर्भर है । जीव और जगत् दोनों ब्रह्म के परिणाम हैं । जीव ब्रह्म से अत्यन्त भिन्न एवं अभिन्न है । जगत् भी इसी प्रकार भिन्न और अभिन्न है ताईतवाद का यही सार है। ताईतसिद्धान्तसेका सुन्दरभट्ट रचित 'द्वैताद्वैतसिद्धान्तसेतुका' देवाचार्य रचित वेदान्तव्याख्या 'सिद्धान्त जाह्नवी' का भाष्य है । ध धनत्रयोदशी कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी का एक नाम । व्यापारी लोग इस दिन वाणिज्य सामग्री को परिष्कृत, सुसज्जित कर धन के देवता की पूजा का त्रिदिनव्यापी उत्सव आरम्भ करते हैं, नये-पुराने आर्थिक वर्ष का लेखा४३ जोखा तैयार किया जाता है और इस दिन नयी वस्तु का क्रय-विक्रय शुभ माना जाता है । आयुर्वेद के देवता धन्वन्तरि का यह जन्मदिन है, इसलिए चिकित्सक वैद्य लोग आज धन्वन्तरिजयन्ती का उत्सव मनाते हैं । धनपति ३३७ शरदिग्विजय (माधवाचार्यकृत) के एक भाष्यकार थे । धनसंक्रान्तियत यह संक्रान्ति है एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, जिसमें सुवर्णखण्ड पड़ा हो, निम्नांकित मन्त्र बोलते हुए दान करना चाहिए : 'हे सूर्य ! प्रसीदतु भवान् ।' व्रत के अन्त में एक सुवर्णकमल तथा धेनू दान में देनी चाहिए। विश्वास किया जाता है कि इससे व्रती जन्मजन्मान्तरों तक सुख, समृद्धि, सुस्वास्थ्य तथा दीर्घायु प्राप्त करता है। धन्ना (धना ) - वैष्णवाचार्य स्वामी रामानन्द के कुछ ऐसे भी शिष्य हो गये हैं, जिन्होंने किसी सम्प्रदाय की स्थापना या प्रचार नहीं किया, किन्तु कुछ पदरचना की है। धन्ना ऐसे ही उनके एक शिष्य थे । धनावासिव्रत (१) श्रावण पूर्णिमा के पश्चात् प्रतिपदा को यह व्रत आरम्भ होता है, एक मास तक चलता है, नील कमलों से विष्णु तथा संकर्षण की पूजा होती है । साथ ही घृत तथा सुन्दर नैवेद्य भगवच्चरणों में अर्पित करना चाहिए। भाद्रपद मास की पूर्णिमा से तीन दिन पूर्व उपवास रखना चाहिए । व्रत के अन्त में एक गौ का दान विहित है । - (२) इसमें एक वर्ष पर्यन्त भगवान् वैधवण (कुबेर) की पूजा होती है । विश्वास है कि इसके परिणामस्वरूप अपार सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। धनी धर्मदास - मध्ययुगीन सुधारवादी आन्दोलनों में जिन सन्त कवियों ने योगदान किया है, धनी धर्मदास उनमें से एक हैं । इनके रचे अनेक पद पाये जाते हैं । धन्यव्रत अथवा धन्यप्रतिपदाव्रत - मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है । उस दिन नक व्रत करना चाहिए तथा विष्णु भगवान् का (जिनका अग्नि नाम भी है) रात्रि को पूजन करना चाहिए। प्रतिमा के सम्मुख एक कुण्ड में हवन किया जाता है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ धनुर्वेद-धरणीव्रत तदनन्तर यावक तथा घृतमिश्रित खाद्य ग्रहण करना धनुष्कोटि-सेतुबन्ध रामेश्वरम् क्षेत्र का एक तीर्थ । होता है। इसी प्रकार का आचरण कृष्ण पक्ष में भी धनुष्कोटि के लिए रेल जाती है। यहाँ मीठे जल का करना चाहिए । चैत्र से आठ मास तक इसका अनुष्ठान अभाव है, छाया भी नहीं है। यहाँ से जहाज चार घंटे होना चाहिए । व्रतान्त में अग्नि देव की सुवर्ण की प्रतिमा में लङ्का पहुँच जाते हैं। रेल के डब्बे जहाज पर चढ़ा का दान किया जाता है । इस व्रत से दुर्भाग्यशाली व्यक्ति दिये जाते हैं, जो उधर उतार लिये जाते हैं। इस अन्तभी सुखी, धन-धान्यादि से समृद्ध तथा पापमुक्त हो जाता है। रीप का एक सिरा बंगाल की खाड़ी तथा दूसरा सिरा धनुर्वेद-मधुसूदन सरस्वती ने अपने ग्रन्थ 'प्रस्थानभेद' में महोदधि कहलाता है। यहां यात्री स्नान, श्राद्ध, पिण्डलिखा है कि यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, इसमें चार पाद दान तथा स्वर्ण के बने धनुष का दान भी करते हैं। यहाँ हैं, यह विश्वामित्र का बनाया हुआ है । पहला दीक्षा पाद ३६ बार स्नान करने को विधि है। हाथ में बाल का है, दूसरा संग्रह पाद है, तीसरा सिद्ध पाद है और चौथा। पिण्ड, कुश लेकर कृत्या नामक दानवी से समुद्रस्नान की प्रयोग पाद। पहले पाद में धनुष का लक्षण और अनुमति मांगी जाती है । बालू का पिण्ड समुद्र में डालकर अधिकारी का निरूपण है । जान पड़ता है कि यहाँ धनुष स्नान किया जाता है। शब्द का अभिप्राय चारों प्रकार के आयुधों से है, क्योंकि धन्वन्तरि-ये विष्णु के २४ अवतारों में हैं और समुद्रआगे चलकर आयुध चार प्रकार के कहे गये हैं : (१) मंथन के समय अमृतकुम्भ लेकर उत्पन्न हुए थे। धन्वमुक्त, (२) अमुक्त, (३) मुक्तामुक्त, (४) यन्त्रमुक्त । मुक्त आयुध चक्रादि हैं। अमुक्त खड्गादि हैं । मुक्तामुक्त लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का शल्य और उस तरह के अन्य हथियार हैं। यन्त्रमुक्त आयुर्वेद शास्त्र प्रकाशित किया था, जिसमें एक सहस्र बाण आदि हैं । मुक्त को अस्त्र कहते हैं और अमुक्त को अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीशस्त्र । ब्राह्म, वैष्णव, पाशुपत, प्राजापत्य और आग्नेय कुमारों ने पढ़ा, अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा और आदि भेद से नाना प्रकार के आयध है। साधिदैवत और इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने पढ़ा । धन्वन्तरि से सुनकर सश्रत समन्त्र चतुर्विध आयुधों पर जिनका अधिकार है वे क्षत्रिय- मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। काशी पुरी में धन्वन्तरि कुमार होते हैं और उनके अनुवर्ती जो चार प्रकार के नामक एक राजा भी हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद का अच्छा होते हैं वे पदाति, रथी, गजारोही और अश्वारोही हैं। प्रचार किया था। इन सब बातों के अतिरिक्त दीक्षा, अभिषेक, शकून और धन्वी-एक बृत्तिकार का नाम । सामवेद की राणायनीय मङ्गल आदि सभी का प्रथम पाद में वर्णन किया गया है। शाखा से सम्बन्धित द्राह्यायण श्रौतसूत्र अथवा वसिष्ठ___आचार्य का लक्षण और सब तरह के अस्त्र-शस्त्रादि सूत्र पर मध्व स्वामी ने भाष्य रचा है । रुद्रस्कन्द स्वामी के विषय का संग्रह द्वितीय पाद में दिखाया गया है। ने इस भाष्य का 'औद्गात्रसारसंग्रह' नाम के निबन्ध तीसरे पाद में गुरु और विशेष-विशेष साम्प्रदायिक शस्त्र, में संस्कार किया है। धन्वी ने इस पर छान्दोग्यसूत्रदीप उनका अभ्यास, मन्त्र, देवता और सिद्धिकरणादि वणित नामका वृत्ति लिखी है। हैं । चौथे पाद में देवार्चना, अभ्यासादि और सिद्ध अस्त्र धरणीधरतीर्थ-यह वैष्णव तीर्थ है और अलीगढ़ से २२ शस्त्रादि के प्रयोगों का निरूपण है। मील तथा मथुरा से १८ मील मध्य में अवस्थित है। धनुष-ऋग्वेद में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। इसका वर्तमान नाम वेसवाँ है। कहा जाता है कि यह वैदिक कालीन भारतीयों का यह प्रमुख आयुध रहा है। पृथ्वी का नाभिस्थल है । महर्षि विश्वामित्र ने यहाँ यज्ञ दाह क्रिया में अन्तिम कार्य मृतक के दायें हाथ से धनुष किया था। सुना जाता है कि धरणीधरकुण्ड की खुदाई को हटाया जाना होता था। के समय बहुत-सी शालग्राम शिलाएँ निकली थीं जिससे धनुषतीर्थ-श्रीनगर (गढ़वाल) में जिस स्थान पर अलक- अवश्य ही यह प्राचीन तीर्थस्थल सिद्ध होता है। नन्दा धनुषाकार हो गयी है वह धनुषतीर्थ कहा जाता धरणीवत-कार्तिक शुक्ल एकादशी को उपवास करके इस है । यहाँ स्नान करना पुण्यकारक है । व्रत का प्रारम्भ किया जाता है। इसमें भगवान् नारायण Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णा (धरना)-धर्म का पूजन होता है । मूर्ति के सम्मुख चार कलश स्थापित [श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा का सन्तोष होते हैं जो महासागरों के प्रतीक माने गये हैं । कलशों के यही साक्षात् धर्म के चार लक्षण (पहचान, कसौटी) केन्द्र में नारायण की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। कहे गये हैं। ] प्राचीन भारतीय इन चारों को धर्मानुकूल रात्रि में जागरण करना चाहिए। इस व्रत का आचरण मार्ग का निदर्शक मानते हैं। इनमें से प्रथम दो किसी न प्रजापति, अनेक राजा गण तथा पृथ्वी देवी ने किया था, किसी रूपान्तर से सभी धर्मों में प्रमाण माने जाते हैं । शेष इसीलिए इस व्रत का नाम धरणीव्रत पड़ा। दो, सदाचार और आत्मतुष्टि को सारा सभ्य संसार धर्णा ( धरना)-अनशन पूर्वक किसी उद्देश्य का आग्रह प्रमाण मानता है, परन्तु अपनी परिस्थिति के अनुकूल । करना । किसी राजाज्ञा के विरोध में अथवा किसी महान् भारतीय लोकवर्ग में भी जहाँ श्रुति-स्मृति से विरोध रहा उद्देश्य की सिद्धि के लिए लोग 'धर्णा' करते थे। जब है, जैसा चार्वाक सरीखे नास्तिक आचार्यों की प्रवृत्ति से कोई ब्राह्मण धर्णा के फलस्वरूप मर जाता था तो वह प्रकट है, वहाँ जैनों की तरह अपनी-अपनी श्रुति और ब्रह्मराक्षस (भूतों की एक योनि) होता था और उसकी स्मृति का प्रमाण ग्रहण होता रहा है, उसमें केवल सदायज्ञादि से पूजा की जाती थी। ऐसा ही एक ब्रह्म ससराम ___चार और आत्मतुष्टि मूल में रहे हैं। के निकट चयनपुर में है, नाम है 'हर्ष ब्रह्म' या हर्ष बाबा। स्मृतियों में धर्मोपदेश का साधारण क्रम यह है कि कहा जाता है कि ये कनौजिया ब्राह्मण थे और सालिवाहन पहले साधारण धर्म वर्णन किया गया है, जिसे जगत् के नामक राजा के पुरोहित थे। रानी उनको पसन्द नहीं सब मनुष्यों को निर्विवाद रूप से मानना उचित है, जिसके करती थी, उसने राजा से यह कहकर कि यह ब्राह्मण पालन से मनुष्यसमाज की रक्षा होती है। यह धर्म आपको राज्य से वंचित करना चाहता है, उसकी भूमि आस्तिक और नास्तिक दोनों पक्षों को मान्य होता है । आदि छिनवा ली। उसे राजा ने निष्कासित कर दिया। फिर समाज की स्थिति के लिए जीवन के विविध फलतः ब्राह्मण राजभवन के सामने धर्णा करके मरने के व्यापारों और अवस्थाओं के अनुसार वर्णों और आश्रमों बाद ब्रह्म हुआ। क्योंकि तपस्या करके वह मरा था, के कर्तव्यों का धर्म रूप से निर्देश किया जाता है । इसको इसलिए प्रेतयोनि में भी बहत प्रभावशाली माना विशिष्ट धर्म कहते हैं। इस विभाग में भी प्रत्येक वर्ण के जाता है। भिन्न-भिन्न आश्रमों में प्रवेश करने और बने रहने के धर्म-किसी वस्तु की विधायक आन्तरिक वृत्ति को उसका । विधि और निषेध वाले नियम होते हैं। इन नियमों का धर्म कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का व्यक्तित्व जिस वृत्ति पर आरम्भ गर्भाधान संस्कार से होता है और अन्त अन्त्येष्टि निर्भर है वही उस पदार्थ का धर्म है । धर्म की कमी से तथा श्राद्धादि से माना जाता है। थोड़े-बहुत हेर-फेर के उस पदार्थ का क्षय होता है । धर्म की वृद्धि से उस पदार्थ साथ सारे भारत में इन संस्कारों के नियम निवाहे जाते की वृद्धि होती है। बेले के फल का एक धर्म सुवास है, है । संयमी जीवन संस्कारों को सम्पन्न करता है और उसकी वृद्धि उसकी कली का विकास है, उसकी कमी से संस्कार का फल होता है शरीर और जीवात्मा का फल का ह्रास है। धर्म की यह कल्पना भारत की ही उत्तरोत्तर विकास । धर्म सन्मार्ग का पहला उपदेश है, विशेषता है। वैशेषिक दर्शन ने धर्म की बड़ी सुन्दर उन्नति के लिए नियम है, संयम उस उपदेश वा नियम वैज्ञानिक परिभाषा "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" । का पालन है, संस्कार उन संयमों का सामूहिक फल है इस सूत्र से की है। धर्म वह है जिससे ( इस जीवन और किसी विशेष देश-काल और निमित्त में विशेष का) अभ्युदय और ( भावी जीवन में ) निःश्रेयस की प्रकार की उन्नत अवस्था में प्रवेश करने का द्वार है। सिद्धि हो। परन्तु यह परिभाषा परिणामात्मिका है। सब संस्कारों का अन्तिम परिणाम व्यक्तित्व का विकास इसकी सामान्य परिभाषा यह है : है। 'संयम-संस्कार-विकास" अथवा "संयम-संस्कारवेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । अभ्युदय-निश्रेयस" यह धर्मानुकूल कर्त्तव्य का क्रियात्मक एतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।। रूप है । ये सभी मिलकर संस्कृति का इतिहास बनाते हैं । (मनु. २.१२) धर्म यदि आत्मा और अनात्मा की विधायक वृत्ति है तो Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० धर्मघटवान-धर्मशास्त्र संस्कृति उसका क्रियात्मक रूप है; धर्मानुकूल आचरण का वैष्णवचिह्न कण्ठी-तिलक आदि भी धारण करते रहे, जो शिष्य सन्तों में अब भी प्रचलित हैं। धर्म आत्मा और अनात्मा का, जीवात्मा और शरीर । धर्मप्राप्ति व्रत-आषाढ़ी पूर्णिमा के पश्चात् प्रतिपदा से यह व्रत प्रारम्भ होता है। धर्म के रूप में भगवान् विष्णु का विधायक है; संस्कार हर जीवात्मा और हर शरीर का विकास करने वाला है। धर्म व्यक्ति की तरह समाज की पूजा एक मास तक होती है। मासान्त में पूर्णिमा सहित तीन दिन तक उपवास तथा सुवर्ण का दान का भी विधायक है : 'धर्मो धारयति प्रजाः' । संस्कार विहित है। समाज का विकास करने वाला है, उसे ऊँचा उठाने वाला धर्मराज अध्वरीन्द्र-'वेदान्तपरिभाषा' नामक लोकप्रिय है । दोष, पाप, दुष्कृत अधर्म हैं। इन्हें दूर करने का साधन ग्रन्थ के प्रणेता । सप्रसिद्ध अद्वैतवादी ग्रन्थरचयिता नसिंहासंस्कार है । अज्ञान अधर्म है, इसे दूर करने वाले शिक्षादि संस्कार हैं। भारत में धर्म और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध श्रम स्वामी उनके परम गुरु थे। नृसिंहाश्रम स्वामी के रहा है। शिष्य वेङ्कटनाथ थे और वेङ्कटनाथ के शिष्य धर्मराज । नृसिंहाश्रम सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे, धर्म के अन्य वर्गीकरण भी पाये जाते हैं : नित्य, इसलिए धर्मराज का स्थितिकाल सत्रहवीं शताब्दी होना नैमित्तिक, काम्य, आपद्धर्म आदि । नित्य वह धार्मिक सम्भव है। धर्मराज अध्वरीन्द्र के ग्रन्थों में वेदान्तपरिभाषा कार्य है जिसका करना अनिवार्य है और जिसके न करने प्रधान है। यह अद्वैत सिद्धान्त का अत्यन्त उपयोगी से पाप होता है। नैमित्तिक धर्म को विशेष अवसरों पर प्रकरण ग्रन्थ है। इसके ऊपर बहुत-सी टीकाएँ हुई हैं । करना आवश्यक है। काम्यधर्म वह है जो किसी विशेष उद्देश्य भिन्न-भिन्न स्थानों से इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो की सिद्धि के लिए किया जाता है परन्तु जिसके न करने चुके हैं । अद्वैत वेदान्त का रहस्य समझने में इसका अध्यसे कोई दोष नहीं होता। आपद्धर्म वह है जो संकट यन बहुत उपयोगी है। इसके सिवा उन्होंने गङ्गेशोपाकी स्थिति में सामान्य और विशिष्ट धर्म को छोड़कर ध्याय कृत 'तत्त्वचिन्तामणि' नामक नव्य न्याय के ग्रन्थ करना पड़ता है। शास्त्र के नियमानुकूल आपद्धर्म का पर 'तभूषामणि' नाम की टीका भी लिखी है। उसमें पालन करने से दोष नहीं होता है। पूर्ववत्तिनी दस टीकाओं के मत का खण्डन किया गया है । धर्मघटदान-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ कर चार मास धर्मराजपूजा-इस व्रत में दमनक पौधे से धर्म का पूजन तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है । जो पुण्यों का इच्छुक होता है । इसके लिए दे० 'दमनकपूजा ।' हो उसे प्रति दिन वस्त्र से आच्छादित, शीतल जल से परि- धर्मव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को यह व्रत प्रारम्भ होता पूर्ण कलश का दान करना चाहिए। है। उस दिन उपवास करते हए धर्म का पूजन करना धर्मदास-कबीरपथ सम्प्रदाय के शिक्षक व पथ प्रदर्शक चाहिए। घी से हवन का विधान है । एक वर्ष तक इसका कबीरपंथी साधु ही होते हैं। ये साधु दो स्थानों के अनुष्ठान होता है। व्रत के अन्त में गाय का दान विहित है। इससे सुस्वास्थ्य, दीर्घायु, यश की प्राप्ति तथा पापों महन्तों से शासित होते हैं। एक की गद्दी कबीरचौरा मठ ( वाराणसी, उ० प्र०) है तथा दूसरे की छत्तीसगढ़ से छुटकारा होता है। धर्मशास्त्र-साधारण बोलचाल में 'श्रुति' शब्द से समस्त (मध्य प्रदेश)। कबीरचौरा मठ वाले सन्त अपना प्रारम्भ वैदिक साहित्य का ग्रहण होता है। इसके साथ विभेदमहात्मा सुरतगोपाल से तथा छत्तीसगढ़ वाले 'धर्मदास' नामक महात्मा से मानते है। छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) वाचक 'स्मृति' शब्द का प्रयोग होता है जिससे 'धर्मशास्त्र' में कबीरपन्थ के प्रसार का श्रेय धर्मदास को ही प्राप्त है। का बोध होता है। वेद के चार उपाङ्गों में से धर्मशास्त्र एक है। धर्मशास्त्र वेदाङ्गीय सूत्रग्रन्थों का आनुषङ्गिक महात्मा धर्मदास पहले निम्बार्कीय वैष्णव थे। कबीर विस्तार है। इस अर्थ में ही धर्मसूत्र धर्मशास्त्र के प्राथके उपदेशों से प्रभावित होकर इन्होंने 'धर्मदासी शाखा' मिक अङ्ग हैं। विशिष्ट अर्थ में स्मृति शब्द से धर्मशास्त्र का प्रचारात्मक नेतृत्व ग्रहण कर लिया, साथ ही वे के उन्हीं ग्रन्थों का बोध होता है जिनमें प्रजा के लिए Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मषष्ठो-धान्यसंक्रान्तिव्रत ३४१ उचित आचार-व्यवहारव्यवस्था और समाज के शासन रीय आरण्यक ( ५.४,३३ ) में धवित्र की चर्चा हुई के निमित्त नीति और सदाचार सम्बन्धी नियम स्पष्टता- है। इसका अर्थ यहाँ 'पंखा' है, जो चमड़े का बना होता पूर्वक दियं रहते हैं। धर्मशास्त्र के विविध स्तरों की सूची था और यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने के लिए इसका प्रयोग में धर्मसूत्र, स्मृति, भाष्य, निबन्ध आदि सम्मिलित है। होता था। म० म० पाण्डुरङ्ग वामन काणे ने अपने 'धर्मशास्त्र के धात्रीनवमी-कार्तिक शक्लपक्ष की नवमी। इस दिन आँवले इतिहास' (जि०१ ) में धर्मशास्त्र के अन्तर्गत शुद्ध राज- के पेड़ का ब्रह्मा के रूप में पूजन होता है और उसके नीचे नीति के ग्रन्थों ( अर्थशास्त्र ) को भी सम्मिलित कर बैठकर भोजन करने का विधान है । आँवले (आमलक) का लिया है। एक नाम 'धात्री फल' है। विश्वास यह है कि चाहे माता धर्मषष्ठी-आश्विन कृष्ण षष्ठी को इसका प्रारम्भ होता भले ही अप्रसन्न हो जाय किन्तु आमलकी नहीं अप्रसन्न है। इसमें धर्मराज की पूजा विहित है। होती। उसके दैवीकरण के आधार पर यह व्रत प्रचधर्मसूत्र-'कल्प' वेदाङ्ग के अन्तर्गत सत्र ग्रन्थ चार प्रकार लित हुआ है। के हैं, जिनका धार्मिक तथा व्यावहारिक जीवन में बड़ा धात्रीव्रत-फाल्गुन मास के दोनों पक्षों की एकादशी को महत्त्व है। ये हैं श्रौत, गृह्य, धर्म तथा रचना विषयक । इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें आमलक के फलों धर्मसूत्र पाँच हैं : (१) आपस्तम्ब, (२) हिरण्यकेशी, (३) से स्नान का विधान है। दे० पद्मपुराण, ५.५८.१.११ । बौधायन, (४) गौतम और (५) वसिष्ठ । ये धर्मसूत्र यज्ञों भगवान् वासुदेव को धात्रीफल अत्यन्त प्रिय है । इसके का वर्णन न कर आचार-व्यवहार आदि का वर्णन करते भक्षण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । है। धर्मसूत्रों में धार्मिक जीवन के चारों वर्णों (ब्राह्मण, धान्यसप्तक-सात प्रकार के धान्यों के संयोग को 'धान्यक्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) तथा चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, सप्तक' कहा गया है। इनमें जौ, गेहूँ, धान, तिल, कंग गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) का वर्णन है। साथ ही (भयप्रद बीज), श्यामाक तथा चीनक की गणना है । निम्नलिखित विशेष विषय भी हैं-राजा, व्यवहार के दे० हेमाद्रि, १.४८। कृत्यरत्नाकर, ७० के अनुसार चीनक नियम, अपराध के नियम, विवाह, उत्तराधिकार, अन्त्येष्टि के स्थान पर 'देवधान्य' का उल्लेख है। गोभिलस्मृति क्रियाएँ, तपस्या आदि । प्रारम्भ में विशेष धर्मसूत्रों का (३.१०७) के अनुसार सात धान्यों के नाम भिन्न ही हैं । प्रयोग अपनी-अपनी शाखा के लिए ही किया जाता था, विष्णुपुराण, १.६.२१-२२; वायु, ८.१५०-१५२ तथा किन्तु पीछे उनमें से कुछ सभी द्विजों द्वारा प्रयुक्त होने मार्कण्डेय, ४६.६७-६९ ( वेंकटेश्वर संस्करण ) ने सत्रह लगे । आचारिक विधि का मूल आधार है वर्णव्यवस्था के धान्यों के नाम गिनाये हैं तथा व्रतराज (पृ० १७) ने अनुकूल कर्त्तव्यपालन । व्यवहार अथवा अपराध की अठारह धान्य बतलाये है । धार्मिक कार्यों के लिए ये धान्य विधियों पर भी इस वर्णव्यवस्था का प्रभाव है। विभिन्न (अनाज) पवित्र माने जाते हैं। वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्ड हैं। हिंसा के धान्यसप्तमो-शुक्ल पक्षीय सप्तमी को धान्यसप्तमी कहा अपराधों में ब्राह्मण की अपेक्षा इतर वर्ण वालों को एक जाता है। इस तिथि को सूर्यपूजन, नक्त पद्धति का अनुही प्रकार के अपराध करने पर कड़ा दण्डविधान है। सरण, सप्त धान्यों तथा रसोई के पात्र एवं नमक के इसके विपरीत लोभ के अपराधों में वर्णोत्कर्षक्रम से दान का विधान है। इससे व्रती स्वयं की तथा सात पीढ़ियों ब्राह्मण के लिए अधिक कड़े दण्ड का विधान है। तक की रक्षा कर लेता है। धर्मावाप्तिवत-यह व्रत आषाढी पूर्णिमा के उपरान्त प्रति- धान्यसंक्रान्तिव्रत-दोनों अयन दिवसों अथवा विषुव पदा से प्रारम्भ होकर एक मास तक चलता है । धर्म के दिवसों को इस व्रत का आरम्भ होता है । एक वर्ष पर्यन्त रूप में भगवान हरि का पूजन होता है। इससे समस्त इसका अनुष्ठान किया जाता है । केसर से अष्टदल कमल कामनाओं की पूर्ति होती है। की आकृति बनाकर प्रत्येक दल की, सूर्य के आठ नामों धवित्र-यज्ञाग्नि को उद्दीप्त करने का उपकरण (व्यजन)। को लेकर, पूर्वाभिमुख बढ़ते हुए स्तुति की जाती है । शतपथ ब्राह्मण ( १४.१,३,३०; ३,१,२१ ) तथा तैत्ति- इसमें सूर्य का पूजन होता है, तदनन्तर एक प्रस्थ धान्य Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ धाना-धूप किसी ब्राह्मण को अर्पित किया जाता है ( इसीलिए है। ऋग्वेद के दशम मण्डल, ११२.९ तथा १५५.१ इसका नाम धान्यसंक्रान्ति है)। प्रतिमास इस व्रत की के मन्त्रों द्वारा उबले हुए तिल तथा तंडुलों से होम करना आवृत्ति होनी चाहिए। चाहिए। धाना-इसका प्रयोग बहुवचन में ही होता है। ऋग्वेद धारावत-(१) समस्त उत्तरायण काल में इस व्रत का (१.१६.२०; ३.३६, ३; ५२,५; ६.२९,४) तथा परवर्ती विधान है । इसमें दुग्धाहार विहित है। पृथ्वी की धातुवैदिक साहित्य में इसका 'अन्न के दानों' के अर्थ में प्रतिमा का दान करना चाहिए। इसके रुद्र देवता हैं। उल्लेख हुआ है । कभी-कभी वे भूने जाते थे (भृज्ज) तथा । इस व्रत के आचरण से व्रती सीधा रुद्रलोक को जाता है। नियमित रूप से सोमरस के साथ मिलाये जाते थे। कृत्यकल्पतरु के अनुसार यह संवत्सरव्रत है। हेमाद्रि घामव्रत-धाम का अर्थ है गृह । इसमें गृह का दान होता इसे फुटकर व्रतों में गिनते हैं। है इसलिए इसको धामव्रत कहते हैं। सूर्य इसका देवता है । (२) चैत्र के प्रारम्भ में ही इस व्रत का आरम्भ होता इस व्रत में फाल्गुन की पूर्णमासी को प्रारम्भ करके तीन है। इसमें भगवन्नाम के साथ जल की धारा मुंह में दिन उपवास करने का विधान है। इसके उपरान्त एक गिरायी जाती है । एक वर्ष तक इसके अनुष्ठान का सुन्दर गृह का दान देना चाहिए। इससे दानी का सूर्य- विधान है। व्रतान्त में नये जलपात्र का दान करना लोक में वास होता है। चाहिए । इस व्रत के आचरण से व्रती पराधीनता से मुक्त धार (धारा)-मध्य प्रदेश का प्राचीन नगर और तीर्थ होकर सुख तथा अनेक वरदान प्राप्त करता है। स्थान । यह इतिहासप्रसिद्ध भोजराज की धारा नगरी धिषणा-सोम तैयार करने में प्रयुक्त कोई पात्र तथा स्वतः है। यहाँ बहत से प्राचीन ध्वंसावशेष पाये जाते हैं। सूखे हुए सोम का भी पर्याय । एक उपमा द्वारा यह कहा जाता है, गुरु गोरखनाथ के शिष्य राजा गोपीचन्द की द्विवाची शब्द दो लोक 'आकाश एवं भूमि' का वाचक राजधानी भी धारा ही थी। यहाँ जैन मन्दिर भी हैं, है । हिलब्रण्ट के मतानुसार इसका व्यक्तिवाची अर्थ पृथ्वी, पार्श्वनाथजी की स्वर्णमति है। हिन्दू मन्दिर भी बहुत द्विवाची अर्थ आकाश तथा पृथ्वी और त्रिवाची बहुबचन से हैं । में इसका अर्थ पृथ्वी, वायुमण्डल एवं आकाश है। कुछ परिच्छेदों में इसका अर्थ 'वेदो' हैं । वाजसनेयी (७.२६) भोज परमार के समय यहाँ एक प्रसिद्ध 'सरस्वती एवं तैत्तिरीय (३.१,१०,१) संहिताएं इसका अर्थ 'लकड़ी मन्दिर' का निर्माण हुआ था। इसका मुस्लिम आक्रमण का चिकना पटरा' (फलक) व्यक्त करती हैं जिस पर सोम कारियों ने मस्जिद में परिवर्तन कर दिया। मन्दिर का को कुटा जाता था (अधिषवणफलके)। पिशेल के मताअभिलेख आज भी सुरक्षित है। भोज के समय इसकी नुसार 'धिषणा' अदिति एवं पृथ्वी की तरह धन की बड़ी ख्याति थी। उनके दिवंगत होने पर यह श्रीहीन हो गयी : देवी है। 'अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती। धो-इसका प्रयोग ऋग्वेद (१.३, ५, १३५, ५, १५१, पण्डिता खण्डिता सर्वे भोजराजे दिवं गते ।' ६,१८५; ६.२.३; ८,४०, ५) में प्रार्थना या स्तुति के धारणपारणवतोद्यापन-चातुर्मास्य की एकादशी अथवा रूप में हुआ है । एक कवि अपने को ऐसी ही एक स्तुति वर्षा के प्रथम मास अथवा अन्तिम मास में इस व्रत का (ऋ० २.२८,५) का बुनकर रचयिता कहता है। 'धी' आरम्भ होता है। उपवास (धारण) प्रथम मास में तथा की भी देवता के रूप में कल्पना की गयी है। पारण (भोजन ) दूसरे मास में करने का विधान है। मनु के कहे हुए धर्म के दस लक्षणों में एक 'धी' भी भगवान् नारायण तथा लक्ष्मीजी की प्रतिमाओं को एक है। इसका सामान्य अर्थ है तर्क, बुद्धि । जलपूर्ण कलश पर विराजमान करके रात्रि के समय घोति-ऋग्वेद के अनेक परिच्छेदों में इसका प्रायः वही उनका चरणामत लेना चाहिए । पुष्प, तुलसीदलादि अर्थ है जो 'धी' (स्तुति) का है। से पूजन तथा 'ओं नमो नारायणाय' नामक मन्त्र का धूप-एक सुगन्धित काष्ठ एवं ग्रन्धद्रव्यों का मिश्रण । १०८ बार जप करना चाहिए। अर्घ्य देने का विधान पूजा के षोडशोपचारों में इसकी गणना है। देवार्चन में Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूमकेतु-धेनुव्रत ३४३ धूमदान (धूप जलाना) एक आवश्यक उपचार है । भविष्य- को समान सम्मान देकर मिलाने वाला है, चारों वर्गों पुराण में कुछ सुगन्धित पदार्थों के सम्मिश्रण से निर्मित का, और विशेष कर शद्रों का त्यौहार है। धूपों का उल्लेख है, यथा अमृत, अनन्त, यक्ष, धूप, विजय धृतराष्ट्र-(१) एक सर्प-दैत्य, जिसका पितृबोधक नाम धूप, प्राजापत्य आदि । इसके साथ-साथ दस भागों ऐरावत ( इरावन्त का वंशज) है जिसका उल्लेख (दशांग) की धूप का भी उल्लेख मिलता है । कृत्यकल्पतरु अथर्ववेद (१.१०,२९) तथा पञ्चविंश ब्राह्मण में हुआ है के अनुसार विजय नामक धूप आठ भागों से बनती है। (२५.१५,३)। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जिसका राष्ट्र भविष्यपुराण (१,६८,२८-२९ ) के अनुसार विजय सर्व- दृढ़ता से स्थिर हो अथवा जिसने राष्ट्र को दृढता से श्रेष्ठ धूप है, जाती सर्वोत्तम पुष्प, केसर सर्वोत्तम सुग 14 पुस, कसर सवात्तम सुग- पकड़ा हो।' न्धित द्रव्य, रक्त चन्दन सर्वोत्तम प्रलेप, मोदक अर्थात् (२) महाभारत के एक प्रमुख पात्र, दुर्योधन आदि लडड सर्वोत्तम मिष्टान्न है। धप को मक्खियों तथा पिस्सुओं कौरवों के पिता। ये पाण्डु के भाई थे। किन्तु पाण्डु को नष्ट करने वाली एक रामबाण औषध के रूप में के क्षय रोग से मृत होने के कारण पाण्डवों की अवयउद्धृत किया गया है, (गरुडपुराण, १,१७७,८८-८९) । धूप स्कता में ये ही राजा बने। इनके पुत्र दुर्योधन आदि के विस्तृत विवरण के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर, ७७-७८; पाण्डवों को राज्य लौटाने के पक्ष में नहीं थे। इसीलिए स्मृतिचिन्ता०, १,२०३ तथा २,४,६५ । बाण भट्ट की महाभारत युद्ध हुआ। धृतराष्ट्र और सञ्जय के संवाद के कादम्बरी (प्रथम भाग, अनुच्छेद ५२) में कथन है कि रूप में श्रीमद्भगवद्गीता का प्रणयन हुआ है, जो महाभगवती चण्डिका के मन्दिर में गग्गल की पर्याप्त मात्रा भारत का एक अंग है। से युक्त धूप जलायी गयी थी। पतिव्रत-इस व्रत में शिवजी की प्रतिमा को पंचामृत में धूमकेतु-अथर्ववेद ( १९.९,१० ) में धूमकेतु मृत्यु का एक प्रतिदिन स्नान कराया जाता है। पंचामृत में दधि, विरुद वर्णित है । जिमर इसका अर्थ उल्का लगाते हैं जो दुग्ध, घृत, मधु, गन्ने के रस अथवा शर्करा का मिश्रण ह्विटने के मत में असम्भव है। लैनमन इससे चिता के होता है । एक वर्ष तक यह व्रत चलता है । व्रतान्त में एक धुआँ का अर्थ करते हैं । ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार यह धेनु का पञ्चामृत तथा शंख सहित दान करना चाहिए। पुच्छल तारे का नाम है। यह संवत्सरवत है । इससे भगवान् शिव का लोक प्राप्त धूमावती-तन्त्रशास्त्र के अनुसार दस महाविद्याओं में से होता है । दे० कृत्यकल्पतरु, ४४४; हेमाद्रि, २.८६५ में एक धमावती हैं। ये विधवा कहलाती हैं। मतियों में पाठभेद है। इसके अनुसार शिव अथवा विष्णु की इनका इसी रूप में अङ्कन हुआ है। प्रतिमा को स्नान कराना चाहिए, इससे शिव अथवा धूर्तस्वामी-आपस्तम्ब सूत्र के एक भाष्यकार। इन्होंने विष्णु-लोक प्राप्त होता है। बौधायन श्रौतसूत्र का भी भाष्य लिखा है। धेनु-धेनु का अर्थ ऋग्वेद (१.३२,९ सहवत्सा) तथा घलिगन्वन-होलिका दहन के दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा परवर्ती साहित्य (अ० वे० ५.१७, १८,७,१०४, १०:० को होलिकाभस्म का वन्दन होता है, जिसे धूलिवन्दन सं० २.६,२,३; मैत्रायणी सं० ४.४,८; वाजस० सं० कहते हैं । इस दिन श्वपच (चाण्डाल) तक से गले मिलने १८,२७; शत० ब्रा० २.२,१२१ आदि) में 'दूध देने वाली की प्रथा है। लोग रङ्ग खेलते हैं, आम्रमजरी का गाय' है । इसका पुरुषवाचक शब्द वृषभ है । धेनु का प्राशन करते हैं, परस्पर भोजन कराते हैं, गाना-बजाना, अर्थ केवल स्त्री है। सम्पत्तिसंग्रह और दान दोनों में उत्सव, नाच आदि होता है। भली भाँति से मनोरञ्जन धेनु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। के उपाय किये जाते हैं। गालियाँ बकने और मद्य सेवन धेनुव्रत--जिस समय गौ वत्स को जन्म दे रही हो उस की कुप्रथा भी चल पड़ी थी, जो अब सुधारकों के प्रभाव समय प्रभूत मात्रा में स्वर्ण एवं उस गौ का दान करे । से कम हो चली है। होली और फाग में वर्षों के वैर को व्रती यदि उस दिन केवल दुग्धाहार करे तो उच्चतम लोक जला देते हैं, धूल में उड़ा देते हैं । यह त्यौहार सब वर्गों को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ धैवर-नकुल धैवर-धैवर का अर्थ मछुवा अथवा एक जाति का सदस्य का यह प्रधान चिह्न है । उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में बाणों है (धीवर का वंशज) । धैवर का उल्लेख यजुर्वेद (वाज० के छूटने तथा ध्वज पर गिरने का वर्णन है । सं० ३०.१६; तै० ब्रा० ३.४,१५, १) के पुरुषमेध प्रकरण (२) देवताओं के चिह्न (निशान) अर्थ में भी ध्वज का में उद्धृत बलिपशु की सूची में है। प्रयोग होता है । प्रायः उनके वाहन ही ध्वजों पर प्रतिधौतपाप (हत्याहरण)-नैमिषारण्य क्षेत्र का एक तीर्थ ।। ष्ठित होते हैं, यथा विष्णु का गरुडध्वज, सूर्य का अरुणनैमिषारण्य-मिषरिख से एक योजन (लगभग आठ मील) ध्वज, काम का मकरध्वज आदि । पर यह तीर्थ गोमती के किनारे है। यहाँ स्नान करने से ध्वजनवमी-पौष शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान वजनी समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, ऐसा पुराणों में वर्णन मिलता किया जाता है । इस तिथि को 'सम्बरौ' कहा जाता है। है । ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, रामनवमी तथा कार्तिकी पूर्णिमा इसमें चण्डिका देवी का पूजन होता है जो सिंहवाहिनी को यहाँ मेला लगता है। हैं एवं कुमारी के रूप में ध्वज को धारण करती हैं। ध्यानबदरी-उत्तराखण्ड का एक वैष्णव तीर्थ । हेलंग मालती के पुष्प तथा अन्य उपचारों के साथ राजा को स्थान से सड़क छोड़कर बायीं ओर अलकनन्दा को पुल से भगवती चण्डिका के मन्दिर में ध्वजारोहण करना चाहिए। पार करके एक मार्ग जाता है । इस मार्ग से छः मील जाने इसमें कन्याओं को भोजन कराने का विधान है। स्वयं पर कल्पेश्वर मन्दिर आता है, जो 'पञ्च केदारों' में से उपवास करने अथवा एकभक्त रहने की भी विधि है। पञ्चम केदार माना जाता है। यही 'ध्यानबदरी' का ध्वाजवत-गरुड़, तालवृक्ष, मकर तथा हरिण भगवान् मन्दिर है । इस स्थान का नाम उरगम है। वासूदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के क्रमशः ध्वजध्यानबिन्दु उपनिषद्-योगसम्बन्धित उपनिषदों में से एक चिह्न है । उनके वस्त्र तथा ध्वजों का वर्ण क्रमशः पीत, ध्यानबिन्दु उपनिषद् भी है। यह पद्य बद्ध है तथा चूलिका नील, श्वेत तथा रक्त है। इस व्रत में चैत्र, वैशाख, उपनिषद् की अनुगामिनी है। ज्येष्ठ तथा आषाढ़ में प्रतिदिन क्रमशः गरुड़ आदि ध्वजध्रव-(१) सूत्र ग्रन्थों में ध्रुव से उस तारे का बोध होता चिह्नों का उचित वर्ण के वस्त्रों तथा पुष्पों से पूजन होता है जिसका प्रयोग विवाह संस्कार में वधू को स्थिरता के है। चौथे मास के अन्त में ब्राह्मणों का सम्मान तथा उचित प्रतीक के रूप में दर्शन कराने के लिए होता है । मैत्रायणी रंगों से रंजित वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। चार-चार उपनिषद् में ध्रुव का चलना (ध्रुवस्य प्रचलनम्) उद्धृत है, मासों में इस प्रकार इस व्रत का तीन बार अनुष्ठान किन्तु इसका 'ध्रुव तारे की चाल' अर्थ न होकर किसी किया जाता है। इसके अनुष्ठान से विभिन्न लोकों की विशेष घटना से अभिप्राय है। प्राप्ति होती है । व्रताचरण के समय के हिसाब से व्रतकर्ता (२) पौराणिक गाथाओं में ऐतिहासिक पुरुष उत्तान- का लोकों में निवास होता है। यदि किसी व्यक्ति ने बारह पाद के पुत्र ध्रुव से इस तारे का सम्बन्ध जोड़ा गया है। वर्ष तक व्रत किया हो तो विष्णु भगवान् के साथ सायुज्य भगवान् विष्णु ने अपने भक्त ध्रुव को स्थायी ध्रुवलोक । मुक्ति प्राप्त होती है। विष्णुधर्म०, ३, १४६१-१४ में इसे प्रदान किया था। चतुमूर्तिवत बतलाया है, उसी प्रकार हेमाद्रि, २. ८२९ध्रवक्षेत्र-एक तीर्थ का नाम, जो मथुरा के पास ८३१ में भी। यमुना के तट पर स्थित 'ध्रुव टीला' कहलाता है । यहाँ निम्बार्क सम्प्रदाय की एक गुरुगद्दी है।। नकुल-(१) नकुल (नेवला) का उल्लेख अथर्ववेद (६.१३. ध्रुवदास-राधावल्लभी वैष्णव सम्प्रदाय के एक भक्त कवि, ९.५) में सांप को दो टुकड़ों में काटने और फिर जोड़ जो १६वीं शताब्दी के अन्त में हए थे। इनके रचे अनेक देने में समर्थ जन्तु के रूप में किया गया है। इसके सर्पग्रन्थ (वाणियाँ) है, जिनमें 'जीवदशा' प्रधान है। विष निवारण के ज्ञान का भी उल्लेख है (ऋग्वेद, ८.७, ध्वज-(१) ऋग्वेद (७.८५,२:१०.१०३,११) में यह २३)। यजुर्वेदसंहिता में इस प्राणी का नाम अश्वमेधीय शब्द पताका के अर्थ में दो बार आया है। वैदिक युद्धों बलिपशुओं की तालिका में है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकुलीशपाशुपत-नक्षत्र ३४५ (२) पाण्डवों में से चौथे भाई का नाम नकुल है। पर आश्रित रहना चाहिए, तदनन्तर तिलमिश्रित खाद्य नकूलीश पाशपत-नकलीश शब्द में 'ल' को 'न' वर्णादेश) पदार्थों से व्रत की पारणा एक वर्ष पर्यन्त करनी चाहिए । माधवाचार्य (चौदहवीं शती वि० का पूर्वार्द्ध) अपने 'सर्व- नक्तवत-एक दिवारात्रि का व्रत । उस तिथि को इसका आचदर्शनसंग्रह' में तीन शैव सम्प्रदायों का वर्णन करते हैं- रण करना चाहिए जिस दिन वह तिथि सम्पूर्ण दिन तथा नकुलीश पाशुपत, शैवसिद्धान्त एवं प्रत्यभिज्ञा । उनके अनु- रात्रि में व्याप्त रहे (निर्णयामृत, १६-१७)। नक्त का सार आचार्य नकुलीश शङ्कर द्वारा वर्णित पाँच तत्त्वों की तात्पर्य है 'दिन में पूर्ण उपवास किन्तु रात्रि में भोजन ।' शिक्षा देते हैं-कार्य, कारण, भोग, विधि तथा दुःखान्त, नक्तव्रत एक मास, चार मास अथवा एक वर्ष तक बढ़ाया जैसा कि 'पञ्चार्थविद्या' नामक ग्रन्थ में बतलाया गया है। जा सकता है। श्रावण से माघ तक नक्त व्रत के लिए 'लकुलिन्' का अर्थ है जो लकुल ( गदा ) धारण करता दे० लिङ्गपुराण (१.८३.३-५४); एक वर्ष तक नक्त व्रत हो। पुराणाख्यानों के अनुसार शिव योगशक्ति से एक के लिए दे० नारदपुराण (२.२.४३)। मृतक में प्रवेश कर गये तथा यह उनका लकुलीश अवतार नक्षत्र-नक्षत्रों का वैदिक यज्ञों और अन्य धार्मिक कृत्यों के कहलाया। यह घटनास्थल कायावरोहण या कारोहण साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष शास्त्र को ( कायारोहण ) कहलाता है जो गुजरात के लाट प्रदेश वेदाङ्ग माना जाता है। नक्षत्र शब्द की उत्पत्ति अस्पष्ट में है। लकुली द्वारा (जो सम्भवतः प्रथम शताब्दी ई० में है। इसके प्राथमिक अर्थ के बारे में भारतीय विद्वानों पञ्चाध्यायी के रचयिता थे) स्थापित सिद्धान्तों से ही पर- के विभिन्न मत हैं। शतपथ ब्राह्मण (२.१, २,१८-१९) वर्ती 'शैवसिद्धान्त' का जन्म हुआ। इसका विच्छेद 'न + क्षत्र' ( शक्तिहीन ) कर उसकी व्याख्या एक कथा के आधार पर करता है। निरुक्त . इस प्रधान शाखा में माधवाचार्य के मतानुसार शिव इसकी उत्पत्ति नक्षु (प्राप्ति करना ) धातु से मानता है के साथ जीवात्मा के एकत्व प्राप्त करने की साधना की और इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मण का अनुकरण करता है । जाती है । पवित्र मन्त्रोच्चारण, ध्यान तथा सभी कर्मों से मुक्ति द्वारा पहले 'संविद्' (वेदना) प्राप्त की जाती है। ऑफ्रेख्ट तथा वेबर इसे 'नक्त + त्र' (रात्रि के संरक्षक) से बना मानते हैं तथा आधुनिक लोग 'नक् + क्षत्र' साधक योगाभ्यास से फिर अनेक रूप धारण करने तथा शव से सन्देश प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त करता है । गीत, (रात्रि के ऊपर अधिकार) इसका अर्थ करते हैं, जो अधिक मान्य लगता है और इस प्रकार इसका वास्तविक नृत्य, हास्य, प्रेम सम्बन्धी संकेतों को जगाने, विमोहितावस्था में बोलने, राख लपेटने तथा मन्दिरों के फूलों को अर्थ 'तारा' ज्ञात होता है । __ ऋग्वेद के सूक्तों में इसका प्रयोग 'तारा' के रूप में धारण करने एवं पवित्र मन्त्र 'हुम्' के दीर्घ उच्चारण से हुआ है। परवर्ती संहिताओं में भी इसका यही अर्थ है, धार्मिक भक्ति भावना जगायी जाती है। कालामुखों की जहाँ सूर्य और नक्षत्र एक साथ प्रयुक्त हैं, अथवा सूर्य, विधि (आचार) नकुलीश पाशुपत विधि से मिलती चन्द्र तथा नक्षत्र या चन्द्र तथा नक्षत्र अथवा नक्षत्र अकेले जुलती है। प्रयुक्त है। किन्तु इसका अर्थ कहीं भी आवश्यक रूप से नक्कीरदेव-इनका जीवनकाल पाँचवीं या छठी शताब्दी 'चन्द्रस्थान' नहीं है। किन्तु ऋग्वेद में कम-से-कम तीन है। इस काल के तमिल शैवों के बारे में बहुत ही कम नक्षत्र 'चन्द्रस्थान' के अर्थ में प्रयुक्त हैं। तिष्य का ज्ञात हुआ है । उनका कोई साहित्य प्राप्त नहीं है । नक्कीर प्रयोग चन्द्रस्थान के रूप में नहीं ज्ञात होता, किन्तु अघाओं देव तमिल लेखक थे, जिन्होंने केवल एक प्रसिद्ध ग्रन्थ (बहबचन) तथा अर्जुनियों (द्विवचन ) के साथ इसका 'तिरुमुरुत्तुप्पदइ' लिखा है । यह पद्य में है तथा 'मुरुइ' दूसरा ही अर्थ होता है। हो सकता है कि यहाँ वे परवर्ती अथवा 'सुब्रह्मण्य' नामक देवता के सम्मान में रचा 'चन्द्रस्थान' हों जिन्हें मधा ( बहुवचन ) तथा फल्गुनी गया है। (द्विवचन) कहा जाता हो। नामों का परिवर्तन ऋग्वेद में नक्तचतुर्थी-मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का प्रारम्भ स्वतंत्रता से हुआ है। लुडविग तथा जिमर ने ऋग्वेद में होता है, इसके देवता विनायक है। व्रती को नक्त भोजन नक्षत्रों के २७ सन्दर्भ देखे हैं, किन्तु यह असंभव जान Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ नक्षत्र-तिथि-वार-ग्रह-योगसम्बन्धी व्रत पड़ता है और न तो रेवती (सम्पन्न) तथा पुनर्वसु (पुनः श्रोणा या श्रवण, श्रविष्ठा या धनिष्ठा, शतभिषक् या शतसम्पत्ति लाने वाला) नाम ही, जो अन्य ऋचा में प्रयुक्त। भिषा, प्रोष्ठपदा या भाद्रपदा (पूर्व एवं उत्तर), रेवती, है, नक्षत्रबोधक हैं। अश्वयुजौ तथा अप (अव)भरणी, भरणी या भरण्या । नक्षत्र-चन्द्रस्थान के रूप में परवर्ती संहिताओं में नक्षत्रों का स्थान-वैदिक साहित्य में यह कुछ निश्चित अनेक परिच्छेदों में चन्द्रमा तथा नक्षत्र वैवाहिक सूत्र में नहीं है, किन्तु परवर्ती ज्योतिष शास्त्र उनका निश्चित बाँधे गये हैं। काठक तथा तैत्तिरीय संहिता में नक्षत्र- स्थान बतलाता है। स्थानों के साथ सोम के विवाह की चर्चा है, किन्तु उसका नक्षत्र तथा मास-ब्राह्मणों में नक्षत्रों से मास की (सोम का) केवल रोहिणी के साथ ही रहना माना गया तिथियों का बोध होता है । महीनों के नाम भी नक्षत्रों के है। चन्द्रस्थानों की संख्या दोनों संहिताओं में २७ नहीं नाम पर बने हैं : फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, कही गयी है। तैत्तिरीय में ३३ तथा काठक में कोई श्रावण, प्रौष्ठपद, आश्वयुज, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष निश्चित संख्या उद्धृत नहीं है । किन्तु तालिका में इनकी (तैष्य), माघ । वास्तव में ये चान्द्र मास ही हैं। किन्तु संख्या २७ ही जान पड़ती है. जैसा कि तैत्तिरीय संहिता चान्द्र वर्ष का विशेष प्रचलन नहीं था। तैत्तिरीय ब्राह्मण या अन्य स्थानों पर कहा गया है । २८ की संख्या अच्छी के समय से इन चान्द्र मासों को सूर्यवर्ष के १२ महीनों के तरह प्रमाणित नहीं है । तैत्तिरीय ब्राह्मणों में 'अभिजित्' (जो ३० दिन के होते थे) समान माना जाने लगा था। नवागन्तुक है, किन्तु मैत्रायणी संहिता तथा अथर्ववेद की नक्षत्रकल्प-अथर्ववेद के एक शान्तिप्रकरण का नाम तालिका में इसे मान्यता प्राप्त है। सम्भवतः २८ ही 'नक्षत्रकल्प' है। इस कल्प में पहले कृत्तिकादि नक्षत्रों की प्राचीन संख्या है और अभिजित् को पीछे तालिका से अलग पूजा और होम होता है । इसके पश्चात् अद्भुत-महाशान्ति, कर दिया गया है, क्योंकि वह अधिक उत्तर में तथा अति निऋतिकर्म और अमृत से लेकर अभय पर्यन्त महाशान्ति मन्द ज्योति का तारा है । साथ ही २७ अधिक महत्त्वपूर्ण के निमित्तभेद से तीन तरह के कर्म किये जाते हैं। संख्या ( ३४३४३) भी है। ध्यान देने योग्य है कि चीनी 'सीऊ' तथा अरबी 'मानासिक' (स्थान) संख्या में नक्ष नक्षत्रकल्पसूत्र-नक्षत्रकल्प को ही नक्षत्रकल्पसूत्र भी कहते २८ हैं। वेबर के मत से २७ भारत की अति प्राचीन हैं। दे० 'नक्षत्रकल्प' । नक्षत्र-संख्या है। नक्षत्र-तिथि-वार-ग्रह-योगसम्बन्धी व्रत-हेमाद्रि ( २.५८८संख्या का यह मान तब सहज ही समझ में आ जाता ५९०, कालोत्तर से ) संक्षेप में कुछ विशेष ( लगभग है जब हम यह देखते हैं कि महीने (चान्द्र) में २७ या १६ ) पूजाओं का उल्लेख करते हैं, जो किन्हीं विशेष २८ दिन (अधिकतर २७) होते थे । लाट्यायन तथा निदा- नक्षत्रों का किन्हीं विशेष तिथियों, सप्ताह के विशेष दिनों नसूत्र में मास में २७ दिन, १२ मास का वर्ष तथा वर्ष के साथ योग होने से की जाती हैं। उनमें से कुछ उदाहमैं ३२४ दिन माने गये हैं। नाक्षत्र वर्ष में एक महीना रण यहाँ दिये जाते हैं : यदि रविवार को चतुर्दशी हो और जुड़ जाने से ३५४ दिन होते हैं । निदानसूत्र में नक्षत्र तथा रेवती नक्षत्र हो अथवा अष्टमी और मघा नक्षत्र का परिचय देते हुए सूर्य (सावन) वर्ष में ३६० दिनों का एक साथ पड़ जायँ तो मनुष्य को भगवान् शिव की होना बताया गया है, जिसका कारण सूर्य का प्रत्येक नक्षत्र आराधना करनी चाहिए तथा स्वयं तिलान्न खाना के लिए १३३ दिन व्यय करना है (१३ x २७४३६०)। चाहिए। यह आदित्यव्रत है, जिससे व्रती अपने पुत्र तथा नक्षत्रों के नाम-कृत्तिका, रोहिणी, मगशीर्ष या मग- बन्धु-बान्धवों के साथ सुस्वास्थ्य प्राप्त करता है। यदि शिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, तिष्य या पुष्य, आश्लेषा, मघा, चतुर्दशी को रोहिणी नक्षत्र हो, अथवा अष्टमी चन्द्र फाल्गुनी, फल्गू या फल्गुन्य अथवा फल्गुन्यौ (दो नक्षत्र, सहित हो तो वह चन्द्रव्रत कहलाता है। उस दिन पूर्व एवं उत्तर), हस्त, चित्रा, स्वाती या निष्ट्या, भगवान् शिव का पूजन किया जा सकता है। उन्हें नैवेद्य विशाखा, अनुराधा, रोहिणी, ज्येष्ठाग्नि या ज्येष्ठा, के रूप में दुग्ध तथा दधि अर्पित किया जाना चाहिए । विकृतौ या मूल, आषाढा (पूर्व एवं उत्तर), अभिजित्, व्रती स्वयं भी दुग्धाहार करे। उससे उसे सुख, समृद्धि, Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रदर्श-नगरकीर्तन ३४७ स्वास्थ्य तथा सन्तानोपलब्धि होती है। जब गुरुवार को जिनसे उनकी पूजा की जानी चाहिए। इससे प्राप्त होने रेवती नक्षत्र हो और चतुर्दशी हो अथवा अष्टमी पुष्य वाले पुण्य एवं फलों की भी चर्चा की गयी है। नक्षत्रयुक्त हो तो यह 'गुरुव्रत' होता है । व्रती को गुरुव्रत के नक्षत्रवादावली-यह अप्पय दीक्षित द्वारा रचित व्याकरणसमय कपिला गौ का दूध तथा ब्राह्मी नामक ओषधि का ग्रन्थ है । इसे 'पाणिनितन्त्रनक्षत्रवादमाला' भी कहते हैं । रस सेवन करना चाहिए । इससे मनुष्य वाग्मी, शूर होता यह ग्रन्थ क्रोडपत्र के समान है। इसमें सत्ताईस सन्दिग्ध है। विष्णुधर्मसूत्र ( अध्याय ९०.१-१५) उस समय के विषयों पर विचार किया गया है ।। कृत्य बतलाता है जब मार्गशीर्ष मास से कार्तिक मास तक की पूर्णिमाओं को वही नक्षत्र हों जिनके नाम से नक्षत्रविधिवत-यह व्रत मृगशिरा नक्षत्र को प्रारम्भ होता मासारम्भ होता है । दे० दानसागर, पृ० ६२२-६२६, जहाँ है । इसमें पार्वती के पूजन का विधान है। उनके चरणों विष्णुधर्म० को उद्धृत किया गया है। की समानता मूल नक्षत्र से की गयी है। उनकी गोद की रोहिणी तथा अश्विनी से, उनके घुटनों तथा अन्य नक्षत्रदर्श-यजुर्वेद में उद्धत पुरुषमेध की बलिसूची में अवयवों की अन्य नक्षत्रों से तुलना की गयी है । प्रत्येक 'नक्षत्रदर्श' नामक एक ज्योतिषाचार्य का उल्लेख है। नक्षत्र में व्रती की उपवास रखना चाहिए। उस नक्षत्र की शतपथब्राह्मण में इस शब्द से एक नक्षत्र के चुनाव समाप्ति के समय व्रत की पारणा का विधान है । पृथक्करने का बोध होता है, जिसमें सुषुप्त यज्ञाग्नि को पुनः पृथक् नक्षत्रों को पृथक्-पृथक् भोजन ब्राह्मणों को कराना जागृत किया जाता था । चाहिए। देवताओं को भी विभिन्न नक्षत्रों के समय नक्षत्रपुरुषव्रत-यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है। भिन्न-भिन्न नैवेद्य तथा पुष्प अर्पित किये जाने चाहिए। इसमें भगवान वासुदेव की प्रतिमा के पूजन करने का इसके फलस्वरूप व्रती सौन्दर्य तथा सौभाग्य उपलब्ध विधान है। कुछ नक्षत्र, जैसे मूल, रोहिणी, अश्विनी करता है। आदि का सम्मान करना चाहिए, जब भगवान् के चरण, नगरकीर्तन-गाते-बजाते हए नगर में धार्मिक शोभायात्रा जंघा तथा घुटनों का क्रमशः पूजन किया जा रहा हो । करने को नगरकीर्तन कहा जाता है। महाप्रभु चैतन्य पर इसी प्रकार भगवान् के विग्रह के किस अङ्ग के साथ मध्व, निम्बार्क तथा विष्णुस्वामी के मतों का बड़ा प्रभाव किस नक्षत्र का नामाल्लेख हो यह भी निश्चित किया था । वे जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति के गीत (भजन) गया है । व्रतान्त में भगवान् हरि की प्रतिमा को गुड़ से भरे बड़े प्रेम से गाया करते थे। उन्होंने माध्व आचार्यों हुए कलश में विराजमान करके दान में देना चाहिए। से भी आगे बढ़कर विचारों तथा पूजा में राधा को स्थान इसके साथ वस्त्रों से आवृत पलंग भी दान में देना दिया। वे अधिक समय अपने अनुयायियों को साथ चाहिए। व्रती को अपनी सहधर्मिणी की दीर्घायु तथा लेकर राधा-कृष्ण की स्तुति (कीर्तन) करने में बिताते चिरसंग के लिए भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए। व्रती को चाहिए कि तैल तथा लवण रहित भोजन ग्रहण करे। थे। उसमें (कीर्तन में ) वे भक्तिभावना का ऐसा रस मिलाते थे कि श्रोता भावविभोर हो जाते थे । प्रायः वे नक्षत्रपूजाविधि-इस व्रत में नक्षत्रों के स्वामियों के रूप कीर्तनियों की टोली के साथ बाहर सड़क पर पंक्ति बाँधे में देवगण का कटी हुई फसल से पूजन होना चाहिए। गाते हए निकल पड़ते थे तथा इस संकीर्तन को नगरअश्विनीकुमार, यम तथा अग्नि क्रमशः अश्विनी, भरणी कीर्तन का रूप देते थे । इस विधि का उनके मत के प्रसार तथा कृत्तिका नक्षत्रों के स्वामी हैं। इनके पूजन से व्रती में बड़ा योग था। आज भी अनेक भक्त मण्डलियाँ नगरदीर्घायु, स्वातन्त्र्य, दुर्घटनाजन्य मृत्यु से मुक्ति, सुख- कीर्तन करती देखी जा सकती है । दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय समृद्धि प्राप्त करने में समर्थ होता है। दे० वायुपुराण, भी अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए नगरकीर्तन ८०.१-३९; हेमाद्रि, २.५९४-५९७; कृत्यरत्नाकर, ५५७-। का सहारा लेते हैं। वे भजन गाते हुए नगर की सड़कों ५६० । उपर्युक्त ग्रन्थ नक्षत्रों के स्वामियों, उन पुष्पों पर निकलते हैं। आर्यसमाज जैसा सुधारवादी समाज तथा अन्यान्य सुगन्धित पदार्थों का उल्लेख करते हैं, भी नगरकीर्तन में विश्वास करता है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ नचिकेता-नदीस्तुति नचिकेता-तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.२.८) की प्रसिद्ध कथा में सिन्धु और भागीरथी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष उसे वाजश्रवस का पुत्र तथा गोतम (-गोत्रज) बताया गया तक इसका अनुष्ठान किया जाता है। प्रति मास सात दिन है। कठोपनिषद् (१.१) में नचिकेता का उल्लेख है । इस तक यह नियम अनवरत चलना चाहिए। जल में दूध उपनिषद् में उसे आरुणि औहालकि अथवा वाजश्रवस का मिलाकर समर्पण करना चाहिए तथा एक जलपात्र में पुत्र कहा गया है। कठोपनिषद् वाली नचिकेता की कथा दूध भरकर दान करना चाहिए। व्रतान्त में फाल्गुन मास में श्रेय और प्रेय के बीच श्रेय का महत्त्व स्थापित किया। में ब्राह्मण को एक पल चाँदी दान में देनी चाहिए । गया है। दे० हेमाद्रि, २.४६२ : उद्धृत करते हुए विष्णुधर्म, नजनाचार्य-वीरशैव मत के आचार्य । इनका उद्भव काल ३.१६३, १-७ को; मत्स्यपुराण, १२१, १४०-४१; वायु१८वीं शताब्दी था। इन्होंने 'वेदसारवीरशैवचिन्तामणि' पुराण, ४७.३८-३९ । उपर्युक्त पुराणों में गङ्गा की सात नामक ग्रन्थ की रचना की थी। धाराओं के पूजन का विधान है। नडाडुरम्मल आचार्य-वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल (२) हेमाद्रि, ५.१.७९२ (विष्णुधर्म० से एक श्लोक आचार्य वरद गुरु के पौत्र थे। सुदर्शनाचार्य के गुरु तथा । __ उद्धृत करते हुए) के अनुसार सरस्वती नदी की पूजा रामानुजाचार्य के शिष्य और पौत्र जो वरदाचार्य या करने से सात प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं। वरद गरु थे, उन्हीं के ये पौत्र थे। अतएव इनका समय नदोस्तति-दिव्य तथा पार्थिव दोनों जलों को ऋग्वेद में चौदहवीं शताब्दी कहा जा सकता है। वरदाचार्य ने अलग नहीं किया गया है । दोनों की उत्पत्ति एवं व्याप्ति 'तत्त्वसार' और 'सारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ रचे । एक-दूसरे में मानी गयी है। प्रसिद्ध 'नदीस्तुति' तत्वसार पद्य में है और उसमें उपनिषदों के धर्म तथा (ऋग्वेद, १०.७५) में उत्तर प्रदेश, पंजाब और अफदार्शनिक मत का सारांश दिया गया है। सारार्थचतुष्टय गानिस्तान की नदियों का उल्लेख है । तालिका गङ्गा से विशिष्टाद्वैतवाद का ग्रन्थ है । इसमें चार अध्याय है और प्रारम्भ होती है एवं इसका अन्त सिन्ध तथा उसकी चारों में चार विषयों की आलोचना है। पहले में स्वरूप- दाहिनी ओर से मिलने वाली सहायक नदियों से होता ज्ञान, दूसरे में विरोधी ज्ञान, तीसरे में शेषत्व ज्ञान चौथे है । सम्भवतः इस ऋचा की रचना गङ्गा-यमुना के मध्य में फलज्ञान की चर्चा है। देश में हुई जहाँ आजकल उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला नदीत्रिरात्रवत-इस व्रत का अनुष्ठान उस समय होता है है। सरस्वती तथा सिन्धु दो भिन्न नदियाँ हैं। पंजाब जब आषाढ़ के महीने में नदी में पूरी बाढ़ हो । उस की नदीप्रणाली की सबसे बड़ी नदी सिन्धु की प्रशंसा समय व्रती को चाहिए कि एक कृष्ण वर्ण के कलश में उसकी सहायक नदियों के साथ की गयी है। सिन्धु को नदी का जल भर ले और घर ले आये, दूसरे दिन प्रातः यहाँ एक राजा तथा उसकी सहायक नदियों को उसके नदी में स्नान कर उस कलश की पूजा करे। तीन दिन दोनों ओर खड़े सैनिकों के रूप में वर्णन किया गया है, जो वह उपवास करे अथवा एक दिन अथवा एक समय; एक उनको आज्ञा देता है। दीप सतत प्रज्वलित रखे, नदी का नामोच्चारण करते ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में अकेले सरस्वती की हए वरुण देवता का भी नाम ले तथा उन्हें अध्य, फल स्तति है, जिसे माता, नदी एवं देवी ( असुर्या ) का तथा नैवेद्य अर्पण करे, तदनन्तर भगवान् गोविन्द की रूप दिया गया है। कुछ विद्वान् सरस्वती-ऋचाओं प्रार्थना करे । इस व्रत का आचरण तीन वर्ष तक किया को सिन्धु सम्बन्धी बताते हैं, किन्तु यह सम्भव नहीं जाय । तदनन्तर गौ आदि का दान करने का विधान है। है। इसे धातु कहा गया है, जिसके किनारे सेनाध्यक्ष इससे सुख, सौभाग्य तथा सन्तान की प्राप्ति होती है। निवास करते थे, जो शत्रुविनाशक (पारावतों के नदीव्रत-(१) इस व्रत को चैत्र शुक्ल में प्रारम्भ करके नक्त घातक ) थे। सरस्वती के पूजने वालों को अपराध पद्धति से सात दिन आहार करते हुए सात नदियों- की दशा में दूर देश के कारागार में जाने से छूट हदिनी (अथवा नलिनी), ह्लादिनी, पावनी, सीता, इक्ष, मिलती थी। इसके तटवर्ती ऋषियों के आश्रमों में Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदोस्नान-नन्दानवमीव्रत ३४९ अनेक ऋचाओं की रचना हुई तथा अनेक यज्ञ हुए। तिथियाँ हैं । नन्दा का अर्थ है 'आनन्दित करने वाली' । सरस्वती को अच्छी ऋचाओं तथा अच्छे विचारों की इन तिथियों में व्रत करने से आनन्द की प्राप्ति होती है । प्रेरणादायी समझकर ही परवर्ती काल में इसे ज्ञान एवं नन्दादिविधि-रविवार के बारह नाम है, यथा नन्द, भद्र कला की देवी माना गया। पंजाब की दूसरी नदियों से इत्यादि । माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पड़ने सम्बन्ध स्थापित करते हुए इसे 'सात बहिनों वालो' अथवा वाला रविवार नन्द है। उस दिन रात्रि को भोजन करना सातों में से एक कहा गया है। चाहिए तथा सूर्य की प्रतिमा को घी में स्नान कराकर पार्थिव नदी होते हुए भी सरस्वती की उत्पत्ति स्वर्ग उस पर अगस्ति पुष्प चड़ाने चाहिए। तदनन्तर ब्राह्मणों से मानी गयी है । वह पर्वत (स्वर्गीय समुद्र) से निकलती को गेहूँ के पुए खिलाने चाहिए । है। स्वर्गीय सिन्ध ही उसकी माता है। उसे 'पावीरवी' नन्दादिव्रतविधि-इस व्रत का प्रति रविवार को अनुष्ठान (सम्भवतः विद्युत्पुत्री) भी कहा गया है तथा आकाश के ___ करना चाहिए । इसमें विधिवत् सूर्य की पूजा का विधान महान् पर्वत से उसका यज्ञ में उतरना बताया गया है। है। व्रती को सूर्यग्रहण के अवसर पर उपवास करते हुए सरस्वती की स्वर्गीय उत्पत्ति ही गङ्गा की स्वर्गीय महाश्वेता मन्त्र का जप करना चाहिए । तदनन्तर ब्राह्मणों उत्पत्ति की दृष्टिदायक है। अन्त में सरस्वती को सन्तान को भोजन कराना चाहिए। सूर्यग्रहण के दिन किये गये वाली तथा उत्पत्ति की सहायक कहा गया है । वध्रयश्व स्नान, दान तथा जप के अनन्त फल तथा पुण्य होते हैं। को दिवोदास का दान सरस्वती ने ही किया था। 'नदी नन्दादेवी–हिमालय में गढ़वाल जिले के बधाण परगने से स्तुति' सूक्त से पता लगता है कि वैदिक धर्म का प्रचार ईशान कोण की ओर 'नन्दादेवी' पर्वतशिखर है। यह मध्यदेश से पंजाब होते हुए अफगानिस्तान तक हुआ था। गौरीशङ्कर के बाद विश्व का सर्वोच्च शिखर है। नन्दा नदीस्तान-नदी में स्नान करना पुण्यदायक कृत्य माना देवी इसमें विराजती हैं । भाद्र शुक्ल सप्तमी को यहाँ की गया है। पवित्र नदियों के स्नान के पुण्यों के लिए (प्रति बारहवें वर्ष) यात्रा होती है। इसका आयोजन दे० तिथितत्त्व, ६२-६४; पुरुषार्थचिन्तामणि, १४४-१४५; गढ़वाल का राजकुटुम्ब करता है। नन्दराय के गृह में गदाधरपद्धति, ६०९। उत्पन्न हई नन्दादेवी ने असुरों को मारकर जिस कुण्ड में नन्दगाँव-व्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ । मथुरा से यह स्थान स्नान कर सौम्यरूपता पायी थी, वह यहाँ 'रूपकुण्ड' ३० मील दूर है। यहाँ एक पहाड़ी पर नन्द बाबा का कहलाता है। संप्रति इस कुण्ड के कुछ रहस्यों की खोज मन्दिर है। नीचे पामरीकुण्ड नामक सरोवर है । यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला हैं। भगवान् कृष्ण के नन्दानवमीव्रत-भाद्रपद कृष्ण पक्ष की नवमी (कृत्यकल्पपालक पिता से सम्बद्ध होने के कारण यह स्थान तीर्थ बन तरु द्वारा स्वीकृत) तथा शुक्ल पक्ष की नवमी (हेमाद्रि गया है। द्वारा स्वीकृत) नन्दा नाम से प्रसिद्ध हैं। वर्ष को तीन नन्दपण्डित-विष्णुस्मृति के एक टीकाकार । नन्दपण्डित भागों में विभाजित करके तीनों भागों में वर्ष भर भगवती ने विष्णुस्मृति को वैष्णव ग्रन्थ माना है, जो किसी वैष्णव दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। सप्तमी को एकभक्त (एक सम्प्रदाय, सम्भवतः भागवतों द्वारा व्यवहृत होता समय भोजन) तथा अष्टमी को उपवास करना चाहिए । रहा है। दूर्वा घास पर भगवान् शिव तथा दुर्गा की प्रतिमाओं को स्थापित करके जाती तथा कदम्ब के पुष्पों से उनका पूजन नन्दरामदास-महाभारत के प्रसिद्ध बँगला अनुवादक करना चाहिए । रात्रि को जागरण तथा भिन्न-भिन्न प्रकार काशीरामदास के पुत्र । काशीरामदास के पीछे उनके पुत्र . के नाटकादि तथा १०८ बार नन्दामन्त्र (ओं नन्दाय नमः) नन्दरामदास सहित दर्जनों नाम हैं, जिन्होंने महाभारत के के जप करने का विधान है। नवमी के दिन प्रातः अनुवाद की परम्परा जारी रखी थी। चण्डिका देवी का पूजन करके कन्याओं को भोजन कराना नन्दा-प्रतिपदा, पाठी तथा एकादशी तिथियाँ नन्दा चाहिए। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० नन्दापदद्वयव्रत-नम्नालवार तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। छ:-छ: मास के वर्ष के दो भाग करके प्रत्येक भाग में तीन दिन उपवास करते हुए दुर्गाजी के पृथक्-पृथक् नाम लेकर पृथक्-पृथक पुष्पों से पूजन करने का विधान है। इस व्रत के आचरण से व्रती स्वर्ग प्राप्त करता है और स्वर्ग से लौटकर शक्तिशाली राजा बनता है। नम्बापदद्वयव्रत-इस व्रत में भगवती दुर्गा की पूजा स्वर्णपादुकाओं, आम्रपल्लवों, दूर्वादलों, अष्टकाओं तथा बिल्वपत्रों से करनी चाहिए । एक मास तक यह अनुष्ठान चलता है। पादुकाओं को या तो किसी दुर्गाजी के भक्त को दान में दे देना चाहिए अथवा कन्या को। इस व्रत के आचरण से भक्त समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। नन्दावत-श्रावण मास की तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी अथवा पूर्णिमा को व्रतारम्भ करना चाहिए । एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है । व्रती नक्त पद्धति से आहार करता रहे । बारहों महीने भिन्न-भिन्न पुष्पों, नैवेद्यों तथा भिन्न-भिन्न नामों से देवी की पूजा करनी चाहिए। जप का मन्त्र यह है 'ओम् नन्दे नन्दिनि सर्वार्थसाधिनि नमः ।' सौ बार अथवा सहस्र बार इसका जप करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से विनिर्मुक्त होकर राजपद प्राप्त करता है। नन्दासप्तमी-मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है । यह तिथिव्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है। वर्ष के ४-४ मास के तीन भाग करके प्रत्येक भाग में पृथक्पृथक् पुष्प, धूप, नैवेद्यादि से भिन्न-भिन्न नाम उच्चारण कर सूर्य का पूजन करना चाहिए । पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास करने का विधान है। नन्दिकोश्वर-एक वैयाकरण का नाम । 'मुग्धबोध' नामक व्याकरण बोपदेव द्वारा रचा गया है। बंगाल में इसका प्रचार है। इसकी बहुत-सी टीकाएँ हैं, जिनमें से चौदह के नाम मिलते हैं। 'काशीश्वर' और 'नन्दिकोश्वर' ने इस पर अपने-अपने परिशिष्ट लिखे हैं । नन्दिकीश्वर का परिशिष्ट ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय हुआ। नन्दिकेश्वर-वीरशैव मत के एक आचार्य, जिनका प्रादुर्भाव अठारहवीं शती में हुआ। इन्होंने 'लिङ्गधारणचन्द्रिका' नामक पुस्तक बनायी, जो अर्धलिङ्गायत है। नन्दिकेश्वर उपपुराण-प्रसिद्ध उन्तीस उपपुराणों में से एक 'नन्दिकेश्वर उपपुराण' भी है। नन्दिग्राम-साकेत क्षेत्र के अन्तर्गत वैष्णव तीर्थ । अयोध्या से सोलह मील दक्षिण यह स्थान है। यहाँ श्री राम के वनवास के समय चौदह वर्ष का समय भरतजी ने तपस्या करते हए व्यतीत किया था। यहाँ भरतकूण्ड सरोवर और भरतजी का मन्दिर है।। नन्दिनीनवमीव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की नवमी को इस नन्दी-दिव्य (पवित्र) पशुओं में नन्दी की गणना की जाती है। नन्दी बैल शिव का वाहन है तथा धर्म के प्रतीक रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। शिवमन्दिरों के अन्तराल में प्रायः नन्दी की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। वास्तव में नन्दी (पशु) उपासक का प्रतीक है। प्रत्येक उपासक का प्रकृत्या पशुभाव होता है। पशुपति (शिव) की कृपा से ही उसके पाश (सांसारिक बन्धन) कटते हैं । अन्त में वह नन्दी (आनन्दयुक्त) भाव को प्राप्त होता है । नमः शिवाय-'पञ्चाक्षर' नामक शैव मन्त्र । लिङ्गायत मतानुसार किसी लिङ्गायत के शिशु के जन्म पर पिता-माता गुरु को बुलाते हैं। गुरु बालक के ऊपर शिवलिङ्ग बाँधता है, शरीर पर विभूति लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनाता है तथा उक्त रहस्यमय मन्त्र की शिक्षा देता है। शिशु इस मन्त्र का ज्ञान ग्रहण करने में स्वयं असमर्थ होता है। अतएव गुरु द्वारा यह मन्त्र केवल उसके कान में ही पढ़ा जाता है। नम्बि-आण्डार-नम्बि-ये महात्मा वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलवंशीय राजा राजराज (१०४२-१०७५ वि०) के समकालीन थे। इन्होंने तमिल ऋचाओं (स्तुतिओं) के तीन संग्रहों को एक में संकलित कर उसका नाम तेवाराम (देवाराम) अर्थात् 'दैवी माला' रखा तथा राजराज की सहायता से इन पदों को द्राविड संगीत में स्थान दिलाया। नम्मालवार-बारह तमिल आलवारों के नाम वैष्णव भक्तों में अति प्रसिद्ध हैं। ये अपने आराध्यदेव की मूर्ति को आँखों से देखने में ही आनन्द लेते थे तथा अपने स्तुतिगान के रूप में देवमूर्ति के सामने उसे उँडेलते थे। ये स्तुतिगान करते-करते कभी आत्मविभोर हो भूमि पर भी गिर जाते थे । तिरुमङ्ग तथा नम्मालवार इनमें सबसे बड़े माने गये हैं। नम्मालवार तो अति प्रसिद्ध हैं, ये आठवीं शताब्दी या उसके आस-पास हुए थे। दूसरे विद्वानों ने नम्मालवार Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयमणि नरबलि की विभिन्न तिथियाँ बतायी हैं। द्राविड वेदों के रचयिता भी नम्मालवार ही हैं । नयधुमणि - विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) ने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन किया है। उनके रचे ग्रन्थों में 'नयमणि' भी एक है । नयनादेवी - अम्बाला से आगे नंगल बाँध है, उससे १२ मील पहले आनन्दपुर साहब स्थान है । वहाँ से १० मील आगे मोटरबस जाती है । फिर १२ मील पैदल पर्वतीय चढ़ाई है । यहाँ नयना देवी का स्थान पर्वत पर है । यह सिद्धपीठ माना जाता है। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक यहाँ मेला लगता है । नयनार - शैव भक्तों को तमिल में नयनार कहा जाता है । तमिल शैवों में गायक भक्तों का व्यक्तिवाचक नाम ही प्रसिद्ध है। ये वैष्णव आलवारों के ही समकक्ष हैं, किन्तु इनकी कुछ विशेष उपाधि नहीं है। दूसरे धार्मिक नेताओं के समान ये सामूहिक रूप से 'नयनार' कहलाते हैं। किन्तु जब इनके अलग दल का बोध कराना होता है तो ये 'प्रसिद्ध तीन' कहे जाते हैं। । नयनाचार्य - एक वैष्णव वेदान्ती आचार्य इन्होंने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी थी । आचार्य वरद गुरु इनके ही शिष्य थे । नरकपूर्णिमा- प्रति पूर्णिमा अथवा मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को बतारम्भ करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। उस दिन व्रती उपवास, भगवान् विष्णु की पूजा तथा उनके नाम का जप करे अथवा भगवान् विष्णु के केशब से लेकर दामोदर तक बारह नामों का मार्गशीर्ष से प्रारम्भ कर वर्ष के वारहों मास तक क्रमशः जप करता रहे। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, खड़ाऊँ, छाता तथा एक जोड़ी वस्त्रों का दान करे । वर्षान्त में इतना करने में असमर्थ हो तो केवल भगवान् का नाम ले । इससे उसको सुख प्राप्त होगा तथा मृत्यु के समय भगवान् हरि का नाम स्मरण रहेगा, जिससे सीधा स्वर्ग प्राप्त होगा। नर-नारायण - ( १ ) मनुष्य (नर) और नारायण ( ईश्वर ) की सनातन जोड़ी ( युग्म ) ही नर-नारायण नाम से ३५१ अभिहित है । श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ४.६ ) में दोनों सखारूप से वर्णित हैं: द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिपप्यजाते । तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥ [ दो पक्षी साथ साथ सखाभाव से एक ही विश्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं उनमें से एक वृक्ष के फल खाता ( और भोगफल पाता ) है; दूसरा केवक साक्षी मात्र है । ] इस रूपक में परमात्मा तथा आत्मा के सायुज्य का सनातनत्व वर्णित है । ( २ ) असमदेशीय शाक्त धर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि अनेक लोगों ने इस धर्म को छोटी जातियों या समुदायों से उस समय ग्रहण किया जब असम की घाटी पश्चिम में कोच तथा पूर्व में अहोम राजाओं द्वारा शासित थी। कोन राजाओं में से एक 'नरनारायण' था जिसकी मृत्यु १६४१ वि० में ५० वर्ष के शासन के पश्चात् हुई । उसके शासन काल में कोचों की शक्ति चरम सीमा पर पहुँची थी। इसका कारण था उसका वीर भाई सिलाराम, जो उसका सेनापति था । नरनारायण स्वयं नम्र तथा अध्ययनशील प्रकृति का था तथा हिन्दू धर्म के प्रचार में बहुत योगदान करता था। अन्य राजाओं की भाँति वह भी शाक्त था तथा उसने कामाख्या देवी का मन्दिर फिर से बनवाया, जो मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया था । उसने धार्मिक क्रियाओं के पालनार्थ बङ्गाल से ब्राह्मण बुलाये । आज भी परवतिया गुसांई ( नवद्वीप का एक ब्राह्मण ) यहाँ का प्रमुख पुजारी है। मन्दिर में नरनारायण तथा उसके भाई की दो प्रस्तर मूर्तियां वर्तमान हैं। नर-नारायण आश्रम-बदरीनाथ के मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर नर-नारायण नामक ऋऋषियों का आश्रम है। विश्वास है कि यहाँ नर-नारायण विश्राम ( तपस्या ) करते हैं । नरबलि नरबलि अथवा नरमेध मूलतः एक प्रतीक अथवा रूपक था । इस का तात्पर्य था मनुष्य के अहंकार का परमात्मा के सम्मुख पूर्ण समर्पण। जब धर्म दुरूह और विकृत हो गया और आत्मसंयम के बदले दूसरों के माध्यम से पुण्यफल पाने की परम्परा चली तो अपने अहंकार के दमन के बदले मानव दूसरे मनुष्यों और पशुओं की बलि देने लगा। मध्य युग में यह विकृति बढ़ी हुई दृष्टिगोचर -- Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ नरमेध-नरसिंहपुराण होती है। पुराणों एवं तन्त्रों में, जो मध्यकाल के प्रार- नरसिंह आगम-रौद्रिक (शैव ) आगमों में से एक 'नरम्भिक चरण में रचे गये, अनेक स्थानों पर नरबलि की सिंह आगम' भी है। इसका दूसरा नाम 'शर्वोक्त' या चर्चा है। यह बलि देवी चण्डिका के लिए दी जाती 'सवेत्तिर' भी है। थी । कालिकापुराण में कहा गया है कि एक बार नर- नरसिंहचतुर्दशी-वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नरसिंहचतुर्दशी बलि देने से देवी चण्डिका एक हजार वर्ष तक प्रसन्न कहते हैं । यह तिथिव्रत है। यदि उस दिन स्वाती नक्षत्र, रहती हैं तथा तीन नरबलियों से एक लाख वर्ष तक । शनिवार, सिद्धि योग तथा वणिज करण हो, तो उसका मालतीमाधव नाटक के पाँचवें अंक में भवभूति ने इस फल करोडगुना हो जाता है। भगवान् नरसिंह इसके पूजा का वर्णन बड़े रोचक ढंग से उपस्थित किया है, देवता हैं । हेमाद्रि, २.४१-४९ ( नरसिंहपुराण से ) तथा जबकि अघोरी (अघोरघण्ट) द्वारा देवी चण्डिका के कई अन्य ग्रन्थों में इसे नरसिंहजयन्ती कहा गया है, लिए नायिका की बलि देने की चेष्टा की गयी थी। क्योंकि इसी दिन भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था । यह प्रथा क्रमशः निषिद्ध हो गयी । नरबलि मृत्युदण्ड उस दिन स्वाती नक्षत्र तथा सन्ध्या काल था। यदि यह का अपराध है । फिर भी दो चार वर्षों में कहीं न कहीं त्रयोदशी अथवा पूर्णिमा से विद्ध हो तो जिस दिन सूर्यास्त से इसका समाचार सुनाई पड़ जाता है। को चतुर्दशी हो वह दिन ग्राह्य है। वर्षकृत्यदीपिका संसार के कई अन्य देशों में नरबलि और नरभक्षण की (पृ० १४५-१५३ ) में पूजा का एक लम्बा विधान दिया प्रथाएँ अब तक पायी जाती रही है। हुआ है। नरमेध-इसका शाब्दिक अर्थ है वह मेध ( यज्ञ ) जिसमें नरसिंहत्रयोदशी-त्रयोदशी को पड़नेवाले गुरुवार के दिन नर ( मनुष्य ) की बलि दी जाती है। ब्राह्मण ग्रन्थों मे इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस दिन मध्याह्नोत्तर इस यज्ञ का वर्णन मिलता है। यह एक रूपकात्मक काल में भगवान नरसिंह की प्रतिमा को स्नान कराकर प्रक्रिया थी । धर्म के विकृत होने पर यह कभी कभी उनकी पूजा करनी चाहिए। इसमें उपवास रखना यथार्थवादी रूप भी धारण कर लेती थी। कलि में कलिवर्य अनिवार्य है। के अन्तर्गत गोमेध, नरमेध आदि सभी अवांछनीय क्रियाएँ नरसिंहद्वादशी-यह व्रत फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन वजित हैं । दे० 'नरबलि' ।। मनाया जाता है । इस दिन उपवास करते हुए नृसिंह भगनरवैबोध-गुरु गोरखनाथ के रचे ग्रन्थों में से 'नरवबोध' वान की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। श्वेत वस्त्र से भी एक है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के खोज आवृत एक जलपूर्ण कलश स्थापित करना चाहिए । इस विवरणों में इसका उल्लेख पाया जाता है । इसमें आध्या- पर भगवान् नृसिंह को स्वर्ण, काष्ठ अथवा बाँस की त्मिक बोध का विवेचन है। प्रतिमा पधरानी चाहिए। इसी दिन पूजनोपरान्त उस नरसाकेत-महात्मा चरणदास द्वारा रचे गये ग्रन्थों में प्रतिमा को किसी ब्राह्मण को दान में देना चाहिए। दे० से एक 'नर साकेत' भी है। हेमाद्रि, १.१०२९-३०, वाराहपुराण, ४१.१-७ तथा १४नरसिंह ( नृसिंह)-विष्णु के अवतारों में से नरसिंह अथवा १६ से उद्धृत । वाराहपुराण में कहा गया है कि यह व्रत नृसिंह चौथा अवतार है। यह मानव और सिंह का संयुक्त शुक्ल पक्ष में किया जाय; जबकि हेमाद्रि, १.१०२९ में विग्रह है । यह हिंसक मानव का प्रतीक है । दुष्टदलन में कृष्ण पक्ष में ही व्रत का विधान है। यह भेद क्षेत्रीय जान .हिंसा का व्यवहार ईश्वरीय विधान में ही है अतः भगवान् पड़ता है। विष्णु ने भी यह अवतार धारण किया। इस अवतार की नरसिंहपुराण--उन्तीस उपपुराणों में यह भी एक है। कथा बहुत प्रचलित है। विष्णु ने दैत्य हिरण्यकशिपु का नरसिंह मेहता (नरसी)-गुजरात के एक सन्त-कवि। सारे वध करने तथा भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ यह रूप धारण भारत में धार्मिक भावों को व्यक्त करने की आवश्यकता ने किया था। यह कथा वैदिक साहित्य तथा तैत्तिरीय सुबोध, सुललित और मनोहर वाङ्मय को जन्म दिया । आरण्यक ( १०.१.६ ) में भी उद्धृत है। पुराणों में हृदय के ऊँचे-ऊँचे और सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव और बुद्धि के तो यह विस्तार से कही गयी है । दे० 'अवतार' । सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार व्यक्त करने के लिए लोकभाषाओं Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरसिंहाष्टमी-नलनैषध को महात्माओं की वाणियों ने सुधारा और सँवारा । राम इन्हीं से अपने बालपन में रामायण की कथा सुनी थी, और कृष्ण, विट्ठल और पाण्डुरंग के गुणगान के माध्यम से जिसका प्रणयन स्वयं उन्होंने प्रौढावस्था में किया । इन भाषाओं की शब्दशक्ति अत्यन्त बढ़ गयी और विमर्श नरहरि-माण्डूक्योपनिषद् के एक भाष्यकार । की अभिव्यक्ति पर वक्ता का अच्छा अधिकार हो गया। नरहरिदास-दे० 'नरहरि'। धीरे-धीरे संस्कृत का स्थान प्रादेशिक भाषाओं ने लिया। नरहरि मालु-महाराष्ट्रीय भक्ति सम्प्रदाय के एक प्रसिद्ध विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में नरसी ( नरसिंह ) मेहता महात्मा । यद्यपि इनके द्वारा कहे गये तुकाराम सम्बन्धी सौराष्ट्र देश में हुए, जिन्होंने अपने भक्तिपूर्ण एवं दार्श- वृत्तान्त पर पूर्णतया विश्वास नहीं किया जा सकता, किन्तु निक पदों से गुजराती का भण्डार भरा। ये जूनागढ़ के कुछ मराठा लेखक इसका अनुसरण करते हैं । नरहरि मालु निवासी थे। इन्होंने राधाकृष्ण की प्रेमलीलाविष- 'भक्तिकथामृत' नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। यक तथा आत्मसमर्पण भाव की सुन्दर पदावली रची है। नरहरियानन्द-स्वामी रामानन्दजी के बारह प्रसिद्ध शिष्यों नरसिंहाष्टमी अथवा नरसिंहवत-राजा, राजकुमार अथवा में से नरहरियानन्द एक हैं । इनके बारे में 'भक्तमाल' में कोई भी व्यक्ति जो शत्रु का विनाश चाहता हो, इस व्रत बड़ी रोचक कथा उद्धृत है । एक दिन कुछ साधु-सन्तों का आचरण करे । अष्टमी के दिन वह अक्षत अथवा पुष्पों का भोजन पकाने के लिए कुल्हाड़ी लेकर ये लकड़ी जुटाने से अष्टदल कमल की रचना कर उस पर भगवान् नरसिंह चले । जब कहीं लकड़ी न मिली तो देवी के मन्दिर का की प्रतिमा विराजमान करे, तत्पश्चात् उसका पूजन करे ही एक भाग कुल्हाड़ी से काट डाला । देवी ने उनसे कहा तथा श्रीवृक्ष (बिल्व अथवा पीपल ?) की भी पूजा करे। कि यदि तुम मन्दिर को नष्ट न करो तो मैं आवश्यकतादे० हेमाद्रि, १.८७६-८८० (गरुडपुराण से)। पूर्ति भर की लकड़ी नित्य दिया करूंगी। देवी तथा नरनरसी मेहता-दे० 'नरसिंह मेहता'। हरियानन्द की यह घटना एक पुरुष देख रहा था। उसने नरसिंह यति-मुण्डकोपनिषद् के एक टीकाकार नरसिंह कुल्हाड़ी उठायी और वह भी देवी से नरहरियानन्द के यति भी हैं। समान ही लकड़ी प्राप्त करने चला । ज्यों ही उसने मन्दिर के द्वार पर कुल्हाड़ी चलायी तभी देवी ने अवतीर्ण हो उसे नरसिंहसम्प्रदाय-इस सम्प्रदाय के विषय में अधिक कुछ आहत कर दिया। फिर जब गाँव के लोग उसे लेने आये ज्ञात नहीं है । किन्तु मध्यकाल तक नरसिंह सम्प्रदाय प्रच तो उसे मरणासन्न पाया। देवी ने उसे फिर से जीवनदान लित रहा । विजयनगर की नरसिंह की एक प्रस्तर मूर्ति इस शर्त पर दिया कि वह नित्य नरहरियानन्द को लकड़ी इस बात को पुष्ट करती है कि विजयनगर राज्य इस पहुँचाया करेगा। सम्प्रदाय का पोषक था । पंजाब, कश्मीर, मुलतान क्षेत्रों नरैना-यह दादूपन्थ का एक प्रमुख केन्द्र है। दादूपन्थी भी में यह सम्प्रदाय प्राचीन काल में प्रचलित था। आज __ मुख्य रूप से गृहस्थ एवं संन्यासी दो भागों में विभक्त हैं। भी अनेक परिवार नरसिंह अवतार की ही पूजा-अर्चा गृहस्थ सेवक तथा संन्यासी ही दादूपन्थी कहलाते हैं। करते हैं । 'नरसिंह उपपुराण' तेलुगु में १३०० ई० के लग संन्यासी पाँच प्रकार के हैं--खालसा, नागा, उत्तराड़ी, भग अनुवादित हुआ था। इस सम्प्रदाय के आधारग्रन्थ विरक्त एवं खाकी । खालसा लोगों का केन्द्रस्थान 'नरैना' निम्नांकित हैं : है जो जयपुर से चालीस मील दूर है। (१) नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद्, (२) नृसिंहउत्तरतापनी- नळ नैषध-शतपथ ब्राह्मण (२.२,२,१-२) में उद्धृत 'नळ योपनिषद्, (३) नृसिंह उपपुराण और (४) नृसिंहसंहिता। नैषध' एक मानवीय राजा का नाम प्रतीत होता है, नरसिंहस्तोत्र-यह नरसिंह सम्प्रदाय का एक पारायण जिसकी तुलना उसकी विजयों के कारण यम (मृत्यु के ग्रन्थ है। देवता) से की गयी है। उसे दक्षिणाग्नि ( यज्ञ ) के तुल्य नरहरि-स्वामी रामानन्दजी की शिष्यपरम्परा में महात्मा माना गया है और अधिक सम्भव है कि वह दक्षिण भारत नरहरि छठी पीढ़ी में हुए थे। रामचरितमानस के प्रसिद्ध का नरेश हो, जैसा कि यम का भी दक्षिण दिशा से ही रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के ये गुरु थे । तुलसीदास ने सम्बन्ध है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ नवद्वीपधाम-नगरात्र नवद्वीपधाम-बंगाल का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान और प्राचीन दिग्विजय' में गाणपत्यों को छः शाखा-सम्प्रदायों में विभाविद्याकेन्द्र । चैतन्य महाप्रभु की जन्मभूमि होने से गौड़ीय जित किया गया है, जो गणपति के छ: रूपों की पूजा वैष्णवों का यह महातीर्थ है। कलकत्ता से ६६ मील करने के कारण उन रूपों के नाम से ही प्रसिद्ध हैं । उनमें दूर नवद्वीप है, यहाँ कई धर्मशालाएँ हैं। दर्शनार्थी को से 'नवनीतगणपति' भी एक है। निश्चित दक्षिणा देने पर मन्दिरों में दर्शनार्थ जाने दिया नवनीतधेनुदान-कार्तिकी अमावस्या को इस व्रत का जाता है । यहाँ बहुत से दर्शनीय स्थान हैं, जैसे धामेश्वर, अनुष्ठान होता है। इसमें ब्रह्मा और सावित्री की पूजा अद्वैताचार्य मन्दिर, गौरगोविन्द मन्दिर, शचीमाता-विष्णु- करनी चाहिए। धेनु के नवनीत का कुछ अन्य फलों, प्रिया मन्दिर आदि । यहाँ प्रति वर्ष बहुत बड़ा वैष्णव । सुवर्ण तथा वस्त्रों सहित दान करना चाहिए। समागम होता है। नवमीरथव्रत-आश्विन शुक्ल नवमी को उपवास तथा नवनक्षत्रशान्ति-नव नक्षत्रों के तुष्टीकरण के लिए उनकी दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। वस्त्रों, ध्वजा-पतापूजा करनी चाहिए। जन्मकालीन नक्षत्र जन्मनक्षत्र कह- काओं, झण्डियों, दर्पणों, पुष्पमालाओं से सज्जित और लाता है । चतुर्थ, दशम, षोडश, विंश, त्रयोविंश नक्षत्रों सिंहाकृति से मण्डित देवीजी के रथ की पूजा करनी को क्रमशः मानस, कर्म, सांघातिक, समुदय तथा वैनाशिक चाहिए। त्रिशूलधारिणी, महिषासुरमर्दिनी देवी की कहा जाता है । सामान्य जन के लिए उपर्युक्त षट् नक्षत्र सुवर्णप्रतिमा को रथ में विराजमान करना चाहिए। यह ही माननीय हैं, किन्तु राजाओं को तीन और अधिक त्रिशूल महिषासुर के शरीर में घुसा होना चाहिए। मानने चाहिए । उदाहरण के लिए, राज्याभिषेक के समय प्रधान सड़कों पर यह रथ निकालते हुए दुर्गाजी के मन्दिर का नक्षत्र, उसके राज्य पर शासन करने वाला नक्षत्र तथा तक रथ लाना चाहिए । आनन्द गीत, नृत्य, नाटकों, उसका वर्णनक्षत्र । यदि ये नक्षत्र पापग्रहों से प्रभावित माङ्गलिक वाद्यों से रात्रि में जागरण करने का विधान हों तो उसके परिणाम भी बुरे निकलते हैं। उपयुक्त है। दूसरे दिन प्रभात काल में देवी की प्रतिमा को स्नान धार्मिक कृत्यों से नक्षत्रों के कुप्रभावों को रोका जा सकता कराकर दुर्गाजी के भक्तों को भोजन कराना चाहिए। है अथवा कम किया जा सकता है। दुर्गाजी को पलंग, वृषभ तथा गौ का दान करना यह बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि वैखानस- चाहिए। गृह्यसूत्र, ४.१४; विष्णुधर्म०, २.१६६; नारद, १.५६, नवमी के व्रत-दे० कृत्यकल्पतरु, २७३-३०८; हेमाद्रि, ३५८-५९ तथा वराहमिहिर की योगयात्रा, ९.१-२ आदि १.८८७-९६२; कालनिर्णय २२९-२३०; तिथितत्त्व, ५९में इस बात में मतभेद है कि जन्म से कौन-कौन से नक्षत्र १०३; पुरुषार्थचिन्तामणि, १३९, १४२; व्रतराज, उपर्युक्त नामों को धारण करेंगे। ३१९-३५२ । अष्टमीविद्धा नवमी को प्राथमिकता देनी नवनाथ-नाथ सम्प्रदाय के अन्तर्गत आरम्भकालिक नौ चाहिए । तिथितत्त्व, ५९ तथा धर्मसिन्धु, १५ के अनुसार नाथ मुख्य कहे गये हैं। ये हैं गोरक्षनाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, चैत्र शुक्ल नवमी को समस्त योगिनियों में से भद्रकाली कारिननाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, को राजमुकुट पहनाया गया था। इसलिए सभी नवमियों भर्तनाथ ( भर्तृहरि ) और गोपीचन्द्रनाथ । को दुर्गाजी के भक्त को उपवास करके उनकी पूजा नवनीत-वैदिक ग्रन्थों में नवनीत शब्द प्रायः उद्धत हआ करनी चाहिए। है । ऐतरेय ब्राह्मण ( १.३ ) के अनुसार यह मक्खन का नवरत्न-वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसकी वह प्रकार है जो आन्तरिक पवित्रताकारक होता है, गणना शुद्धाद्वैत सम्प्रदाय के आधारभूत ग्रन्थों में की जबकि देवता 'आज्य' को, मनुष्य 'घृत' को तथा पितरजन जाती है । 'आयुत' को पसन्द करते हैं। तैत्तिरीय संहिता ( २.३, नवरात्र-शारदीय आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक १०,१) में इसका घृत तथा सपि नाम से भेद बताया और वासन्तिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक का गया है। समय 'नवरात्र' ( नौ रात ) कहलाता है। इसमें देवी के नवनीतगणपति-गणपति के उपासकों का एक वर्ग । 'शङ्कर- प्रीत्यर्थ उनकी स्तुति, पूजा, व्रत आदि किये जाते हैं । शार Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवरात्रि-नागदेवभट्ट ३५५ दीय नवरात्र में तो नवों दिन बड़ा ही उत्सव मनाया रूप धारण किया। न उसमें तत्त्वनिर्णय रहा, न तत्त्वजाता है। विशेष कर षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी निर्णय की सामर्थ्य । केवल तर्क-वितर्क का घोर विस्तार को देवी की पूजा का अति माहात्म्य है। देवी की प्रति- हुआ। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि प्रमाण के विशेष माओं का पूजन सारे देश में, विशेष कर वंगदेश में बड़ी अध्ययन का यह अद्भुत उपक्रम है। धूमधाम से होता है। नवरात्र में 'दुर्गासप्तशती' का नाक-जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण ( ३.१३, ५) में 'नाक' पाठ प्रायः देवीभक्त विशेषतया करते हैं । एक आचार्य का नाम है। सम्भवतः ये नाक, शतपथ नवरात्रि-दे० 'नवरात्र'। ब्राह्मण (१२.५, २, १,), बृहदारण्यक उपनिषद् ( ६.४, नवव्यूहार्चन-शुक्ल पक्ष की किसी एकादशी अथवा ४) तथा तैत्तिरीय उपनिषद् ( १.९, १) में उद्धृत आषाढ़ अथवा फाल्गुन की संक्रान्ति के दिन इस व्रत का नाक मौद्गल्य ( मुद्गल के वंशज ) से अभिन्न है । अनुष्ठान किया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु की नाक्र-यजुर्वेद संहिता में उद्धृत अश्वमेध यज्ञ सम्बन्धी पूजा की जाती है। किसी सुन्दर स्थल पर ईशानमुखीय बलिपशु तालिका में नाक्र नामक एक जलीय जन्तु का भगवान् विष्णु का मण्डप बनाना चाहिए। मण्डप में द्वार नामोल्लेख भी है। सम्भवतः इस पशु का नाक अर्थ तथा इसके मध्य में कमल की आकृति अंकित होनी है, जिसे पीछे संस्कृत में 'नक' कहा गया । चाहिए। देवताओं के अष्ट आयुधों को आठों दिशाओं नाग-शतपथ ब्राह्मण में यह शब्द एक बार ( ११.२, ७, में अंकित करना चाहिए । यथा वज्र, शक्ति, गदा ( यम- १२) महानाग के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । बृहदारण्यक राज की ) खङ्ग, वरुणपाश, ध्वज, गदा ( कुबेर की) उपनिषद् ( १,३, २४ ) तथा ऐतरेय ब्राह्मण ( ८.२१) और त्रिशूल ( शिवजी का)। भगवान् वासुदेव, संकर्षण, में स्पष्ट रूप से इसका अर्थ 'सर्प' है। सूत्रों में पौराणिक नारायण तथा वामन ( जो भगवान् के ही व्यूह है ) के 'नाग' का भी उल्लेख है जिसकी पूजा होती थी। नाग लिए होम करना चाहिए। अथवा सर्प-पूजा हिन्दू धर्म का एक अङ्ग है जो अन्य कई नवान्नभक्षण-नयी फसल आने पर नव धान्य का ग्रहण धर्मों में भी किसी न किसी रूप में पायी जाती है। चपकरना नवान्नभक्षण कहलाता है। सूर्य के वृश्चिक राशि लता, शक्ति और भयंकरता के कारण नाग ने मनुष्य का के १४ अंश में प्रवेश करने से पूर्व इसका अनुष्ठान होना ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। कई जातियों और वंशों ने 'नाग' को अपना धर्मचिह्न स्वीकार किया है। चाहिए। दे० कृत्यसारसमुच्चय, २७ । नीलमत कुछ जातियों में नाग ( सर्प ) अवध्य समझा जाता है। पुराण ( पृ० ७२, पद्य ८८०-८८८ ) में इस समारोह का नामतृतीया-(१) यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को वर्णन मिलता है। इसमें गीत, संगीत, वेदमन्त्रादि का आरम्भ होता है और तिथिव्रत है। यह एक वर्ष तक उच्चारण तथा ब्रह्मा, अनन्त ( शेष ) तथा दिक्पालों का चलता है। प्रतिमास गौरी के बारह नामों में से एक पूजन होना चाहिए। नाम लेते हुए उनका पूजन करना चाहिए । नाम ये हैं-वादक, बौद्ध और जन नयायिकों के बीच गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, क्रान्ति, सरस्वती, विक्रम की पांचवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी मंगला, वैष्णवी, लक्ष्मी, शिवा और नारायणी। ऐसा तक बराबर विवाद चलता रहा। इससे खण्डन-मण्डन विश्वास है कि इससे स्वर्गप्राप्ति होती है। के अनेक ग्रन्थ बने । चौदहवीं शताब्दी में गङ्गेश उपा- (२) भगवान महेश्वर की अर्धनारीश्वर रूप में पूजा ध्याय हुए, जिन्होंने 'नव्य न्याय' की नींव डाली। करनी चाहिए। इससे व्रती को कभी भी पत्नी वियोग प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें नहीं भोगना पड़ता । अथवा हरिहर की प्रतिमा का से और सबको किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर केशव से दामोदर तक बारह नाम लेते हुए पूजन प्रति ही भारी शब्दाडम्बर खड़ा किया गया। इस नव्य न्याय मास करना चाहिए। का आविर्भाव मिथिला में हआ। मिथिला से नवद्वीप नागदेवभट्ट-विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में ( नदिया ) में जाकर नव्य न्याय ने और भी विशाल सन्त चक्रधर ने मानभाउ सम्प्रदाय का जीद्धिार किया। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ नामद्वादशी-नागवत उनके पश्चात् सन्त नागदेव भट्ट हुए जो यादवराज राम- और अपने-अपने करतब दिखाते हैं। नागपञ्चमी के दिन चन्द्र और सन्त ज्ञानेश्वर के समकालीन थे । यादवराज नागपूजा ही यद्यपि इस त्योहार की मुख्यता है, तथापि रामचन्द्र का समय संवत् १३२८-१३६३ है। सन्त नाग- कुश्ती और मल्लों के खेल विशेष आकर्षण रखते हैं। देव भट्ट ने इस पन्थ का अच्छा प्रचार किया था। लड़कियाँ गुड़िया का खेल भी करती हैं और उनका किसी नामद्वादशी-मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का सरोवर अथवा नदी में प्रवाह कर देती है। अनुष्ठान होता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। नागपूजा-मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इस पूजा का अनुष्ठान यह तिथिव्रत है । व्रती को विष्णु भगवान् के बारह नामों होता है । स्मृतिकौस्तुभ (४२९) के अनुसार यह पूजा में से एक नाम लेना चाहिए, यथा नारायण नाम मार्ग- दाक्षिणात्यों में विशेष रूप से प्रचलित है। शीर्ष तथा पौष में, माधव नाम माघ में; इसी प्रकार से नागमैत्रीपञ्चमी-इस तिथि के व्रतकर्ता को कडुए तथा खट्टे कार्तिक तक दामोदर नाम । वर्ष के अन्त में बछड़े वाली पदार्थों का सेवन छोड़ देना चाहिए तथा नागप्रतिमाओं गौ, चन्दन, वस्त्रों आदि को दान में देना चाहिए। को दूध में स्नान कराना चाहिए। इस अनुष्ठान से नागों विश्वास किया जाता है कि इसके अनुष्ठान से व्रती विष्णु- से उसकी मैत्री हो जाती है। लोक को जाता है। नागवंशी-मध्य प्रदेश के मुआसी तथा नागवंशी अपने को नागनाथ-साथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से नागनाथ भी सर्पपूर्वजों के वंशज मानते हैं । बम्बई के नापित (नाऊ) एक हैं। इनके सम्बन्ध में ऐतिहासिक रूप से कुछ विशेष अपने को शेष (अनन्त, शेष) का वंशज बतलाते हैं। ज्ञात नहीं है। निमाड़ जिले के कुछ नागर ब्राह्मण अपने को ब्राह्मण पिता नागपञ्चमी-सर्पपूजा के त्योहारों में नागपञ्चमी सबसे प्रमुख तथा नाग माता से उत्पन्न मानते हैं । इसी कारण कुछ है। दक्षिण भारत में इसे 'नागरपञ्चमो' कहते हैं। यह ब्राह्मण उनका पकाया हुआ भोजन नहीं खाते । ये ब्राह्मण त्योहार श्रावण शुक्ल पञ्चमी को मनाया जाता है। इसे वर्षा- अपनी स्त्रियों को 'नागकन्या' कहते हैं । बरमा में कुछ ऋतु में मनाये जाने का कारण नागों की वर्षा देने की शक्ति ऐसे लोग हैं जो अपने को सर्प के अण्डे से उत्पन्न बतलाते से सम्बन्धित प्रतीत होता है। दक्षिण भारत में इस दिन है । गन्धमाली लोग काले नाग को अपना पूर्वज मानते सर्पविवरों पर फूल, सुगन्ध आदि चढ़ाते हैं तथा दूध ढारते है और इसी कारण नागपञ्चमी पर्व को विशेष रूप से हैं । वृक्षों के नीचे स्थापित नागमूर्तियों के दर्शन किये जाते मनाते है तथा उस दिन पका भोजन नहीं करते। मद्रास हैं । त्योहार के दिन इन मूर्तियों पर दूध, दही आदि चढ़ाया के वेल्लाल अपने को नागकन्या से उत्पन्न मानते हैं । जाता है । मध्यभारत में श्रावण मास के किसी विशेष ___छोटा नागपुर का शासक परिवार अपनी उत्पत्ति पुण्डरीक दिन एक पुरुष नागमन्दिर में जाकर वहाँ पिट्टा खाकर नाग से बतलाता है। इस प्रकार कई जातियाँ और वंश लौटता है। यदि ऐसा न किया जाय तो सारा परिवार अपने को नागवंशी कहते हैं और नागों की पूजा काले नागों से आक्रान्त किया जाता है, ऐसा विश्वास है। करते हैं। इस दिन घर की दीवारों पर नागचित्र अंकित कर उसकी नागवत-(१) कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुपूजा होती है तथा घर की बुढ़िया इस पूजा के प्रारम्भ ष्ठान किया जाता है। इस दिन उपवास करना चाहिए। होने की कथा सुनाती है। उत्तर प्रदेश के पर्वतीय भागों शेष, शङ्खपाल तथा अन्यान्य नागों का पुष्प, चन्दन आदि में इस दिन शिव की पूजा 'रिखेश्वर' के रूप में की जाती से पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल तथा मध्याह्न में दूध है । शिव को नागों से घिरा मानते हैं तथा उनके सिर पर से उनको स्नान कराना तथा दुग्ध पान कराना चाहिए। नागछत्र रहता है। तत्पश्चात् उनका पूजन करना चाहिए। फल यह होता है __ इस दिन नाग की पूजा दूध-लाजा से होती है। इसका कि सर्प कभी हानि नहीं पहुँचाते । उद्देश्य यह होता है कि नाग अथवा सर्प सन्तुष्ट होकर (२) पञ्चमी को नागमूर्तियों का कमलपत्रों, मन्त्रों तथा किसी जीवधारी को काटे नहीं। यह दिन मल्लों का खास पुष्पों से पूजन करते हुए घी, दूध, दही, मधु की धाराओं त्योहार होता है। अखाड़ों में पहलवान इकट्ठे होते हैं को छोड़ना चाहिए । इसके पश्चात् होम करना चाहिए। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरसेन- नाथमुनि इससे विषों से मुक्ति तो होती ही है, साथ ही पुत्र, पत्नी तथा सौभाग्य की भी उपलब्धि होती हैं। नागरसेन – एक देवविशेष का नाम उत्तर प्रदेश में काछी - । एक कृषक जाति है । ये मुख्यतः शाक्त होते हैं तथा दुर्गा के शीतला रूप की पूजा करते हैं । ये कुछ छोटे देवताओं की भी उपासना करते हैं, जो विपत्तियों से रक्षा करने तथा उनकी खेती को बढ़ाने वाले माने जाते हैं । ऐसे ही उनके छोटे देवों में से एक देवता 'नागरसेन' है यह बीमारियों का नियन्त्रण करता है । इसका सम्बन्ध भी नाग से ही जान पड़ता है । 1 नागा - यह संस्कृत 'नग्न' का तद्भव रूप है । प्राचीन अवधूत मुनि कपिल, दत्तात्रेय ऋषभदेव आदि के आदर्श पर चलनेवाले चतुर्थाश्रमी साधु-संत, जो त्याग की पराकाष्ठा के अनुरूप वस्त्र तक धारण नहीं करते, नागा कहे जाते हैं । मध्यकाल में अपनी परम्परा के रक्षार्थ ऐसे साधु 'जमात' के रूप में संगठित हो गये और इनके शस्त्रधारी दल बन गये, जो अपने मठ-मन्दिरों के रक्षार्थ खूनी संघर्ष से भी विमुख न होते थे। आगे चलकर ये लोग शैव-वैष्णव के रूप में स्ववर्ग के ही परस्पर शत्रु हो गये । अविवेकवश इनके पिछले युग में मराठा, निजाम, राजपूत, अवध के नवाब आदि के पक्ष से युद्धव्यवसायी के रूप में लड़ते हुए राजनीतिक पाशा पलट देते थे । आजकल नागा साधु वसनामो गुसांई, वैरागी, दादूपंथी आदि जमातों के अन्तर्गत रहते हैं और हरिद्वार, प्रयाग आदि के कुम्भमेलों में हाथी, घोड़े, छत्र, चमर, ध्वजा आदि से सज्जित होकर अपने राजसी अभियान का प्रदर्शन करते हैं । नागा साधु दे० 'नागा' । नागेश - नागेश भट्ट सत्रहवीं शताब्दी में हुए थे । ये शब्दाद्वैत के कट्टर प्रतिपादक हैं । इस सिद्धान्त का सर्वाङ्गीण विवेचन इन्होंने अपने ग्रन्थ ' वैयाकरणसिद्धान्तमंजूषा' में किया है । ये व्याकरण के उद्भट विद्वान् होते हुए साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, मन्त्रशास्त्र आदि के भी विचक्षण ग्रन्थकार थे। पतञ्जलि के महाभाष्य और भट्टोजि दीक्षित को सिद्धान्तकौमुदी पर रची गयी इनकी व्याख्याएँ गम्भीरता के कारण मौलिक ग्रन्थ जैसी ही मानी जाती हैं । नागेश, उपनाम नागोजी भट्ट काले महाराष्ट्रीय थे और शास्त्रचिन्तन में निमग्न रहने के कारण काशी से बाहर ३५७ न जाने का नियम ग्रहण किये हुए थे। इनको इस बीच जयपुर नरेश महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अग्रपण्डित के रूप में आमन्त्रित किया था, किन्तु इन्होंने इस संमान्य आतिथ्य को 'क्षेत्रसंन्यास' के कारण अस्वीकार कर दिया । नागेश्वर- काशी में शिव महादेव की पूजा 'नागेश्वर' के रूप में भी होती है। सर्प उनकी मूर्ति में लिपटे दिखाये जाते हैं । नाथदेव – सर्वप्रथम वेदान्ती भाष्यकार विष्णुस्वामी शुद्धाद्वैतवाद का प्रचार किया। उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलो चन थे । नाथद्वारा - मेवाड़ (राजस्थान) का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ । यहां का मुख्य मन्दिर श्रीनाथजी का है। यह वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान पीठ है । भारत के प्रमुख वैष्णव पीठों में इसकी भी गणना है । श्रीनाथजी के मन्दिर के आसपास ही नवनीतलालजी विट्ठलनाथजी, कल्याणरायजी, मदनमोहनजी और वनमालीजी के मन्दिर तथा महाप्रभु हरिरायजी की बैठक है । एक मन्दिर मीराबाई का भी है। श्रीनाथजी के मन्दिर में हस्तलिखित एवं मुद्रित ग्रन्थों का सुन्दर पुस्तकालय भी है । नाथद्वारा पीठ का एक विद्याविभाग भी है, जहाँ से सम्प्रदाय के प्रन्थों का प्रकाशन होता है । नायमुनि (वैष्णवाचार्य) - विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचायाँ की परम्परा का क्रम इस प्रकार माना जाता है - भगवान् श्री नारायण ने जगज्जननी श्री महालक्ष्मी को उपदेश दिया, दयामयी माता से वैकुण्ठपार्षद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे शठकोप स्वामी को उनसे नावमुनि को, नाथमुनि से पुण्डरीकाक्ष स्वामी को इनसे राममित्र को और राममिश्र से यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ । 'नाथमुनि' श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । ये लगभग ९६५ विक्रमाब्द में वर्तमान थे । इनके पुत्र ईश्वरमुनि छोटी अवस्था में ही परलोक सिधार गये। ईश्वरमुनि के पुत्र यामुनाचार्य थे। पुत्र की मृत्यु के बाद नाथमुनि ने संन्यास ले लिया और मुनियों की तरह विरक्त जीवन बिताने लगे। इसी कारण इनका नाम नाथमुनि पड़ा । कहते हैं कि उन्होंने योग में अद्भुत Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ नाथसम्प्रदाय . सिद्धियाँ प्राप्त की थीं और इसी कारण वे योगीन्द्र सम्बन्ध भी स्पष्ट है। योगी भस्म भी रमाते हैं, परन्तु कहलाते थे। भस्मस्नान का एक विशेष तात्पर्य है-जब ये लोग शरीर नायमुनि ने नम्मालवार तथा अन्य आलवारों की में श्वास का प्रवेश रोक देते हैं तो रोमकूपों को भी स्तुतियों को संग्रह कर एक-एक हजार छन्दों के चार वर्गों भस्म से बन्द कर देते हैं। प्राणायाम की क्रिया में यह में विभक्त किया तथा इन्हें द्रविड़गीतों के स्वर-ताल में महत्त्व की युक्ति है। फिर भी यह शुद्ध योगसाधना का बाँधा । सम्पूर्ण ग्रन्थ 'नालाभिर प्रबन्धम्' अथवा चार पन्थ है । इसीलिए इसे महाभारत काल के योगसम्प्रदाय हजार स्तुतियों का ग्रन्थ कहलाता हैं। त्रिचनापल्ली के की परम्परा के अन्तर्गत मानना चाहिए। विशेषतया श्रीरङ्गम् मन्दिर में नियमित रूप से इन स्तुतियों के गान इसलिए कि पाशुपत सम्प्रदाय से इसका सम्बन्ध हलका सा की व्यवस्था करने में भी ये सफल हए । यह प्रथा अन्य ही देख पड़ता है। साथ ही योगसाधना इसके आदि, मध्य मन्दिरों में भी प्रचलित हुई तथा आज बड़े-बड़े मन्दिरों और अन्त में है। अतः यह शैव मत का शद्ध योग सम्प्रमें इनकी प्रचारित शैली में स्तुतियों का पाठ होता है। दाय है। ये धार्मिक नेता एवं आचार्य भी थे । इनकी देखरेख में ___ इस पन्य वालों की योग साधना पातञ्जल विधि का विकसित रूप है । उसका दार्शनिक अंश छोड़कर हठयोग एक विद्यावंश का जन्म हुआ जिसके अन्तर्गत कई संस्कृत को क्रिया जोड़ देने से नाथपन्थ की योगक्रिया हो जाती तथा तमिल विद्वान् श्रीरङ्गम् में हुए। इस वर्ग का प्रधान कार्य 'नालाभिर प्रबन्धम्' का पठन था। अनेक है । नाथपन्थ में 'ऊर्ध्वरेता' या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे अधिक महत्त्व की बात है । मांस-मद्यादि सभी तामभाष्य इस पर रचे गये । 'न्यायतत्त्व' तथा 'योगरहस्य' नामक दो और ग्रन्थ इनके रचे कहे जाते हैं। सिक भोजनों का पूरा निषेध है । यह पन्थ चौरासी सिद्धों के तान्त्रिक वज्रयान का सात्त्विक रूप में परिपालक नाथसम्प्रदाय-जब तान्त्रिकों और सिद्धों के चमत्कार एवं प्रतीत होता है। अभिचार बदनाम हो गये, शाक्त मद्य, मांसादि के लिए। उनका तात्त्विक सिद्धान्त है कि परमात्मा केबल' है। तथा सिद्ध, तान्त्रिक आदि स्त्री-सम्बन्धी आचारों के उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे कारण घृणा की दृष्टि से देखे जाने लगे तथा जब इनकी चाहे जैसा सम्बन्ध माना जाय, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगी, तब इन यौगिक से उससे सम्मिलन ही कैवल्य मोक्ष या योग है। इसी क्रियाओं के उद्धार के लिए ही उस समय नाथ सम्प्रदाय जीवन में इसकी अनुभूति हो जाय, पन्थ का यही लक्ष्य का उदय हुआ। इसमें नव नाथ मुख्य कहे जाते हैं : गोरक्ष है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की नाथ, ज्वालेन्द्रनाथ, कारिणनाथ, गहिनीनाथ, चर्पटनाथ, साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भांति रेवणनाथ, नागनाथ, भर्तृनाथ और गोपीचन्द्रनाथ । के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर गोरक्षनाथ ही गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्ध है । दे० उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को 'गोरखनाथ' । परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना इस सम्प्रदाय के परम्परासंस्थापक आदिनाथ स्वयं करता है । काया उसके लिए वह यन्त्र है जिसके द्वारा शङ्कर के अवतार माने जाते हैं । इसका सम्बन्ध रसेश्वरों वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म-मरणसे है और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-मरण-व्याधि करते हैं । अतः इसे अनेक इतिहासज्ञ शैव सम्प्रदाय मानते और काल पर विजय पा जाता है। है । परन्तु और शवों की तरह ये न तो लिङ्गार्चन करते हैं इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन और न शिवोपासना के और अङ्गों का निर्वाह करते हैं। करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमन्दिर और के षट् कर्म ( नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति देवीमन्दिरों में दर्शनार्थ जाते है । कैला देवीजी तथा हिंग- और त्राटक ) करता है कि काया शुद्ध हो जाय । यह लाज माता के दर्शन विशेषतः करते हैं, जिससे इनका शाक्त नाथपन्थियों का अपना आविष्कार नहीं है। हठयोग पर Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नादबिन्दु उपनिषद्-नानकपन्थ लिखित 'धेरण्डसंहिता' नामक प्राचीन ग्रन्थ में वर्णित तत्त्वों का जनता में लोकभाषा द्वारा प्रचार किया, उनमें सात्त्विक योग प्रणाली का ही यह उद्धार नाथपंथियों ने गुरु नानक प्रमुख थे। कुछ अंशों में इनका मत कबीर से किया है। मिलता-जुलता है या नहीं यह अनिश्चित है। नानक ने इस मत में शुद्ध हठयोग तथा राजयोग की साधनाएँ अनेक हिन्दू तथा मुस्लिम महात्माओं का सत्संग किया । अनुशासित हैं। योगासन, नाड़ी ज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा पंजाबी के अतिरिक्त इन्हें संस्कृत, फारसी तथा हिन्दी का प्राणायाम द्वारा समाधि की प्राप्ति इसके मुख्य अंग हैं। भी ज्ञान था और इन्होंने सूफी संतों तथा हिन्दू सन्तों की शारीरिक पुष्टि तथा पंच महाभूतों पर विजय की सिद्धि के रचनाएँ पढ़ी थीं। इन्होंने सारे उत्तर भारत में घूमलिए रसविद्या का भी इस मत में एक विशेष स्थान है । घूमकर पंजाबीमिश्रित हिन्दी में उपदेश किया। मर्दाना इस पन्थ के योगी या तो जीवित समाधि लेते हैं या नाम का इनका एक शिष्य इनके भजन गाने के समय शरीर छोड़ने पर उन्हें समाधि दी जाती है । वे जलाये तीन तार वाला बाजा बजाता था। उन्होंने अनेक अनुनहीं जाते । यह माना जाता है कि उनका शरीर योग से यायी इकट्ठे किये तथा उनके लिए 'जपजी' पद्यों की एक ही शुद्ध हो जाता है, उसे जलाने की आवश्यकता नहीं। संग्रह तैयार किया। उनमें से अनेक गीतियाँ भगवान् की नाथपंथी योगी अलख (अलक्ष) जगाते हैं। इसी शब्द दैनिक प्रार्थना के निमित्त इकट्ठी की गयी थीं । कविता से इष्टदेव का ध्यान करते है और इसी से भिक्षाटन के क्षेत्र में नानक की कबीर से कोई तुलना नहीं, लेकिन भी करते हैं। इनके शिष्य गुरु के 'अलक्ष' कहने पर नानक की रचनाएँ सादी, साफ तथा विचारों को सरलता 'आदेश' कहकर सम्बोधन का उत्तर देते हैं । इन मन्त्रों से वहन करने में समर्थ हैं। दर्शन के दो ग्रन्थ भी का लक्ष्य वही प्रणवरूपी परम पुरुष है जो वेदों और ( संस्कृत में ) 'निराकारमीमांसा' तथा 'अद्भुतगीता' उपनिषदों का ध्येय है । नाथपंथी जिन ग्रन्थों को प्रमाण उनके रचे कहे जाते हैं। मानते हैं उनमें सबसे प्राचीन हठयोग सम्बन्धी ग्रन्थ उनके मत के अनुसार ईश्वर एक है, शाश्वत है घेरण्डसंहिता और शिवसंहिता है। गोरक्षनाथ कृत तथा हृदय से उसकी पूजा होनी चाहिए, न कि मूर्ति की। हठयोग, गोरक्षनाथ ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प, गोरक्ष सहस्र हिन्दुत्व एवं इस्लाम दो रास्ते है किन्तु ईश्वर एक ही नाम, चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, है। गहस्थ का जीवन संन्यास से अधिक स्तुत्य है । धर्म योगमार्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, विवेकमार्तण्ड, सिद्ध- के नैतिक पक्ष पर उन्होंने अधिक जोर डाला। अद्वैत सिद्धान्त पद्धति, गोरखबोध, दत्त गोरख संवाद, गोरख वेदान्त के अनेक विचार, ईश्वर की व्यक्तित्व सम्बन्धी नाथजी रा पद, गोरखनाथ के स्फुट ग्रन्थ, ज्ञानसिद्धान्त कहावतें भी नानक की शिक्षाओं में प्राप्त है । 'माया' का योग, ज्ञानविक्रम, योगेश्वरी साखी, नरबोध, विरह भ्रम होना तथा गुरु की महत्ता भी उन्होंने बतायी है। पुराण और गोरखसार ग्रन्थ भी नाथ सम्प्रदाय के प्रमाण- ईश्वर से एकत्व या ईश्वर में ही विलय अथवा अपने को ग्रन्थ हैं। खो देना मोक्ष है । नानक ने अपने पापों को स्वीकार नादबिन्दु उपनिषद्-यह योगवर्गीय एक उपनिषद् है।। करते हए अपने को एक छोटा मानव बताया तथा कभी इसकी रचना छन्दोबद्ध है तथा यह चूलिकोपनिषद् का ईश्वर का अवतार नहीं कहा । नानक के पश्चात् सिक्खों अनुकरण करती है। के नौ गरु हए जिनका वर्णन अन्य स्थानों में हआ है। नानक-सिक्ख धर्म के मूल संस्थापक गुरु नानक (१४६९- दे० 'सिक्ख' । १५३८ ई०) थे। वे लाहौर जिले के तलवण्डी नामक नानकपन्थ-गुरु नानक ने नानकपन्थ चलाया जो आगे स्थान के खत्री परिवार में उत्पन्न हुए थे। उनके जीवन चलकर दसवें गुरु गोविन्दसिंह के समय में 'सिवख मत' की कहानी अनेक जनमसाखियों में कही गयो है, किन्तु बन गया। शेष विवरण के लिए दे० 'नानक' शब्द । निश्चित रूप से कुछ विशेष ज्ञात नहीं हुआ है । इस्लाम नानकपन्थी-नानक के चलाये हए पंथ के अनुयायी नानककी आँधी के कुछ ठंडे पड़ने पर जिन भारतीय सन्त- पंथी कहलाते हैं। नानकपंथी सिक्खों से अपने को भिन्न महात्माओं ने हिन्दू धर्म के सारभूत (इस्लाम के अविरोधी) मानते हैं। जैसे कबीरपंथी अपने को सनातनी हिन्द्र Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानकपुत्रा-नामकरण कहते हैं, वैसे ही नानकपंथी भी कहते हैं । इनमें सिक्खों स्वत मनु के वंशज थे। परवर्ती संहिताओं एवं ब्राह्मणों की अपेक्षा विभेदवादी प्रवृत्ति बहुत कम है । ये गुरु नानक के अनुसार जब इनके पिता मनु ने अपनी सम्पत्ति पुत्रों में की मूल शिक्षाओं में विश्वास करते हैं। बाँटी तो नाभानेदिष्ठ को छोड़ दिया तथा उन्हें आङ्गिनानकपुत्रा-एक धार्मिक सम्प्रदाय, जो 'उदासी' कहलाता रसों की गौओं को देकर शान्त किया। ब्राह्मणों में नाभाहै। इसके प्रवर्तक गुरु नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे इसीलिए नेदिष्ठ की ऋचाए बार-बार उद्धृत हैं, किन्तु इनसे इसके माननेवालों को 'नानकपुत्रा' भी कहते हैं। ये इनके रचयिता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं होता। अपने को सनातनी हिन्दू समझते हैं और अपने को नानक- पुराणों में मानववंशी नाभानेदिष्ठ का अधिक विस्तृत वर्णन पंथ तथा सिक्ख धर्म से अलग मानते हैं । पाया जाता है। नानसम्बन्धर-प्राचीन तमिल शैव सन्त प्रायः कवि थे। नाभिकमलतीर्थ-यह थानेसर नगर के समीप है। कहा ये वैष्णव आलवारों के ही सदश शिव के भक्त थे । इनमें जाता है कि इसी स्थान पर भगवान् विष्णु की नाभि के तीन अधिक प्रसिद्ध है। तीनों में से पहले का नाम नान कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई थी। यहाँ पर यात्री सम्बन्धर है। ये सातवीं शताब्दी में हुए। विशेष विवरण स्नान, जप तथा विष्णु एवं ब्रह्मा का पूजन करके अनन्त 'तामिल शैव' शब्द में देखें। नानसम्बन्धर ने अनेक गीतों फल के भागी होते हैं । सरोवर पक्का बना हुआ है तथा और स्तुतियों की रचना की है। वहीं ब्रह्माजी सहित भगवान् विष्णु का छोटा सा नापित-इस शब्द का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (३.१,२,२) मन्दिर है। तथा कात्यायन श्रौत सूत्र (७.२,८,१३), आश्वलायन नाम-वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु गृह्यसूत्र (१.१७) आदि में हुआ है। किन्तु प्राचीन शब्द का चुनाव करना पड़ता है। दीक्षा के अन्तर्गत पाँच कार्य वप्ता है (ऋ० १०.१४२,४) जो 'वप' से बना है, जिसका होते हैं-(१) ताप (शरीर पर साम्प्रदायिक चिह्नाङ्कन), अर्थ है 'क्षौर क्रिया करना' अथवा 'बाल काटना' । मृतकों (२) पुण्ड्र (साम्प्रदायिक चिह्न का तिलक), (३) नाम को जलाये जाने के पहले क्षौर क्रिया होती है (अथर्व वेद, (सम्प्रदाय सम्बन्धी नाम ग्रहण करना), (४) मन्त्र (भक्ति५.१९,४)। धार्मिक कृत्यों में नापित का मुख्य और विषयक सूत्ररूप भगवन्नाम ग्रहण करना) और (५) याग आवश्यक स्थान है। वह पुरोहित का एक प्रकार से (पूजा)। भक्तिमार्ग में जप करने के लिए नाम का अत्यसहायक होता है। धिक महत्त्व है, विशेष कर कलियुग में । नाभाजी-नाभाजी की रचना 'भक्तमाल' अति प्रसिद्ध है। भगवान् के नाम की महिमा प्रायः सभी सम्प्रदायों में नाभाजी रामानन्दी वैष्णव थे और सन्त कवि अग्रदास के पायी जाती है। नाम और नामी में अन्तर न होने से शिष्य थे । उन्हीं की आज्ञा से नाभाजी ने भक्तमाल ग्रन्थ ईश्वर के किसी भी नाम से उसकी आराधना हो प्रस्तुत किया । नाभाजी उन दिनों हुए थे, जब गिरिधर- सकती है। जी वल्लभ संप्रदाय के अध्यक्ष थे तथा तुलसीदास जीवित नामकरण-हिन्दुओं के स्मार्त सोलह संस्कारों में से एक थे । इनका काल १६४२-१६८० ई० के मध्य है। 'भक्त- संस्कार । धर्मशास्त्र में नामकरण का बहुत महत्त्व है : माल' पश्चिमी हिन्दी का काव्य ग्रन्थ है तथा छप्पय छंद नामाखिलस्य व्यवहारहेतु शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु । में रचित है। यह 'सूत्रवत्' लिखा गया है तथा भाष्य के नाम्नव कीति लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म । बिना इसको समझना दुष्कर है। इस ग्रंथ में नाभाजी ने (बृहस्पति) सभी सम्प्रदायों के महात्माओं की स्तुति की है और अपने [निश्चित ही नाम समस्त व्यवहारों का हेतु है । शुभ भाव अत्यन्त उदार रखे हैं। भक्तों के समाज में इसका का वहन करने वाला तथा भाग्य का कारण है। मनुष्य बड़ा आदर हुआ है। नाम से ही कीर्ति प्राप्त करता है। इसलिए नामकरण की नाभाजी का शुद्ध नाम नारायणदास कहा जाता है। क्रिया बहुत प्रशस्त है। ] इस संस्कार का उद्देश्य है सोचनाभादास-दे० 'नाभाजी' । विचार कर ऐसा नाम रखना जो सुन्दर, माङ्गलिक तथा नाभानेदिष्ठ अथगा नाभाग विष्ट-ये सूर्यवंशी या वैव- प्रभावशाली हो । प्रायः चार प्रकार के नाम रखे जाते Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकीर्तन-नारदपञ्चरात्र ३६१ हैं--(१) नाक्षत्र नाम, (२) मासदेवतापरक नाम, (३) कारण विशेष पहचान होता था। ब्राह्मणों में दूसरा नाम कुलदेवतापरक नाम तथा (४) लौकिक नाम । जिनके पैतृक या मातृक होता था। यथा कक्षीवन्त औशिज बच्चे जीते नहीं वे प्रतीकारात्मक अथवा घृणास्पद नाम (उशिज नाम्नी उनकी माता), बृहदुक्थ वामनेय (वामनी भी रखते हैं। का पुत्र ), भार्गव मौद्गल्य ( पितृबोधक नाम )। कभीनामकरण संस्कार शिशु के जन्म के अनन्तर दसवें कभी स्त्री का नाम पति के नाम से सम्बन्धित होता थाअथवा बारहवें दिन किया जाता है। शिशु का गुह्यनाम उशीनराणी, पुरुकुत्सानी तथा मुद्गलानी आदि । जन्मदिन को ही रखा जाता है। विकल्प रूप से दो वर्ष नाम-रूप-दृश्य जगत् के संक्षिप्त वर्णन के लिए यह पद के भीतर नामकरण अवश्य करना चाहिए। जननाशौच प्रयुक्त होता है। संसार के सम्पूर्ण पदार्थ अपनी विविधता प्रयुक्त होता है। संसार के सम्पूण पदाथ बीत जाने पर घर आदि की सफाई की जाती है। तत्प में इन्हीं दोनों परिकल्पनाओं से जाने जाते हैं । ब्राह्मणों में श्चात् शिशु और माता को स्नान कराया जाता है । प्रार आख्यान है कि ब्रह्म नाम-रूपात्मक जगत् का विस्तार कर म्भिक धार्मिक कृत्य करने के पश्चात् माता शिशु को शुद्ध उसी में प्रविष्ट हो गया। इस प्रकार समस्त नाम-रूपावस्त्र से ढककर उसे पिता को सौंप देती है । तदनन्तर त्मक जगत् ब्रह्ममय है। परन्तु तात्त्विक रूप से ब्रह्म को प्रजापति, तिथि, नक्षत्र, नक्षत्रदेवता, अग्नि तथा सोम को जानने के लिए विविध नाम-रूपों को छोड़कर एकत्व की आहुतियाँ दी जाती हैं। पिता शिशु के श्वास-प्रश्वास को अनुभूति आवश्यक होती है। अतः उपनिषदों में प्रायः स्पर्श करके उसे सचेत करता है । इसके पश्चात् सुनिश्चित कहा गया है 'नापरूपे विहाय' ब्रह्म को समझो। नाम रखा जाता है। पिता शिशु के कान के पास कहता नारद-अथर्ववेद (५.१९,९,१२.४,१६,२४,४१) में नारद है : "हे शिशु, तुम कुलदेवता के भक्त हो, तुम्हारा नाम नामक एक ऋषि का नामोल्लेख अनेक बार हुआ है। अमुक है....आदि।" उपस्थित ब्राह्मण तथा स्वजन कहते ऐतरेय ब्राह्मण में हरिश्चन्द्र के पुरोहित (६.१३), सोमक हैं : "यह नाम प्रतिष्ठित हो।" इसके पश्चात् ब्राह्मण साहदेव्य के शिक्षक (७.३४ ) तथा आम्बष्ठय एवं भोजन तथा आशीर्वचन के साथ संस्कार समाप्त होता है। यधाश्रौष्टि को अभिषिक्त करने वाले के रूप में नारद युधाधाष्टि नामकीर्तन-नवधा (नव प्रकार की ) भक्ति में कीर्तन पर्वत से युक्त व्यवहृत हुए है । मैत्रायणी संहिता (१.८,८) का दूसरा स्थान है । गौराङ्ग महाप्रभु के समय से बंगाल में ये एक आचार्य और सामविधानब्राह्मण ( ३.९ ) में में 'नामकीर्तन' की मण्डलियाँ बड़े उत्साह से कीर्तन बृहस्पति के शिष्य के रूप में वर्णित हैं। छान्दोग्योपनिकरती आ रही हैं। आजकल नामकीर्तन का प्रचार षद (६.१, १ ) में ये सनत्कुमार के साथ उल्लिखित हैं। सभी धार्मिक सम्प्रदायों में दीख पड़ता है। पुराणों में नारद का नाम बारम्बार सङ्गीत विद्या के आचार्य के रूप में आया है। नारद नामक एक स्मृतिकार नामदेव-रामोपासक वैष्णवों में भक्तवर नामदेव का नाम भी हुए हैं । महाभारत में मोक्षधर्म के नारायणीय आख्यान आदर से लिया जाता है। इन्होंने महाराष्ट्र में रामोपा में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण है, जिसमें सना का विशेष प्रचार किया था । नामदेव का समय उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे १३वीं शती का अन्त एवं १४वीं का प्रारम्भ है । उनकी प्रश्न किया तथा उन्होंने नारद को 'पाञ्चरात्र' धर्म अनेक रचनाएँ सिक्खों के 'ग्रन्थ साहब' में उद्धृत है । सुनाया। नामप्रकार-गृह्यसूत्रों में बालकों के कई प्रकार के नारदकुण्ड-बदरीनाथ में तप्तकुण्ड से अलकनन्दा तक नाम रखने के अनेक नियम दिये गये हैं, किन्तु अधिक एक पर्वतशिला फैली हुई है। इसके नीचे अलकनन्दा के महत्त्वपूर्ण है गुह्य एवं साधारण नामों का अन्तर । ऋग्वेद किनारे पर नारदकुण्ड है जहाँ यात्री पुण्यार्थ स्नान तथा ब्राह्मणों में भी गुह्य नाम का उल्लेख है। शतपथ करते हैं । व्रज में गोवर्धन पर्वत के निकट भी एक नारदब्राह्मण में इन्द्र का एक गुह्यनाम अर्जुन है । शतपथ कुण्ड है। ब्राह्मण में एक अन्य नाम सफलताप्राप्ति के लिए ग्रहण नारदपरिवाजक उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। करने को कहा गया है। दूसरे नाम के धारण करने का तारदपञ्चरात्र-प्राचीन 'पाञ्चरात्र' सम्प्रदाय का प्रतिपा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ नारदपुराण-मारायण दक 'नारदपञ्चरात्र' नामक एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। नारदपञ्चरात्र और ज्ञानामृतसार से पता चलता है कि भागवत धर्म को परम्परा बौद्ध धर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो सकी। इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम कारण है। ___ कई वर्ष पहले इस ग्रन्थ का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। यह बहुलअर्थी ग्रन्थ है। इसमें कुछ भाग विष्णुस्वामियों तथा कुछ वल्लभों द्वारा जोड़ दिये गये जान पड़ते हैं। नारदपुराण-नारदीय महापुराण में पूर्व और उत्तर दो खण्ड हैं । पूर्व खण्ड में १२५ अध्याय हैं और उत्तर खण्ड में ८२ अध्याय । इसके अनुसार इस पुराण में २५,००० श्लोक होने चाहिए। बृहन्नारदीय पुराण उपपुराण है। कात्तिकमाहात्म्य, दत्तात्रेयस्तोत्र, पार्थिवलिङ्गमाहात्म्य, मृगव्याधकथा, यादवगिरिमाहात्म्य, श्रीकृष्ण- माहात्म्य, सङ्कटगणपतिस्तोत्र इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ नारदपुराण के ही अन्तर्गत समझी जाती हैं। यह वैष्णव पुराण है। विष्णुपुराण में रचनाक्रम से यह छठा बताया गया है । परन्तु इसमें प्रायः सभी पुराणों की संक्षिप्त विषयसूची श्लोकबद्ध दी गयी है। इससे जान पड़ता है कि इस महापुराण में कम से कम इतना अंश अवश्य ही उन सब पुराणों से पीछे का है। इसकी यही विशेषता है कि उक्त उल्लेख से अन्य पुराणों के पुराने संस्करणों का ठीक-ठीक पता लगता है और पुराण तथा उपपुराण का अन्तर भी मालूम हो जाता है। नारदभक्तिसूत्र-नारद और शाण्डिल्य के रचे दो भक्तिसूत्र प्रसिद्ध हैं जिन्हें वैष्णव आचार्य अपने निर्देशक ग्रन्थ मानते हैं । दोनों भागवत पुराण पर आधारित हैं। दोनों में से किसी में राधा का वर्णन नहीं है। नारदभक्तिसूत्र भाषा तथा विचार दोनों ही दृष्टियों से सरल है। नारदस्मृति-२०७-५५० ई० के मध्य रचे गये धर्मशास्त्रग्रन्थों में नारद तथा बृहस्पति की स्मृतियों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर नारद के दो संस्करण पाये जाते हैं, जिनमें से लघु संस्करण का सम्पादन तथा अनुवाद जॉली ने १८७६ ई० में किया था। १८८५ ई० में बड़े संस्करण का प्रकाशन भी जॉलो ने ही 'बिब्लिओथिका इण्डिका सीरीज' में किया था और इसका अंग्रेजी अनुवाद 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (जिल्द, ३३ ) में किया। याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन स्मृतियों की सूची पायी जाती है उसमें नारदस्मृति का उल्लेख नहीं है और न पराशर ही नारद की गणना स्मृतिकारों में करते हैं । किन्तु विश्वरूप ने वृद्ध-याज्ञवल्क्य के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें स्मृतिकारों में नारद का स्थान सर्वप्रथम है ( याज्ञ०, १.४-५ पर विश्वरूप की टीका )। इससे प्रकट होता है कि नारदस्मति की रचना याज्ञवल्क्य और पराशर स्मृतियों के पश्चात् हुई । नारदस्मृति का जो संस्करण प्रकाशित है उसके प्रथम तीन (प्रस्तावना के ) अध्याय व्यवहारमातृका ( अदालती कार्रवाई ) तथा सभा ( न्यायालय ) के ऊपर हैं। इसके पश्चात् निम्नलिखित वादस्थान दिये गये हैं : ऋणाधान ( ऋण वापस प्राप्त करता ), उपनिधि (जमानत ), सम्भूय समुत्थान (सहकारिता), दत्ताप्रदानिक (करार करके न देना), अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (सेवाअनुवन्ध भङ्ग), वेतनस्य अनपाकर्म ( वेतन का भुगतान न करना ), अस्वामिविक्रय ( विना स्वाम्य के विक्रय), विक्रीयासम्प्रदान ( बेचकर सामान न देना), क्रीतानुशय (खरीदकर न लेना), समयस्यानपाकर्म (निगम, श्रेणी आदि के नियमों का भङ्ग ), सीमाबन्ध ( सीमाविवाद ), स्त्रीपुंसयोग ( वैवाहिक सम्बन्ध ), दायभाग (पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार और विभाग ), साहस (बलप्रयोग-अपराध ), वाक्पारुण्य ( मानहानि, गाली), दण्डपारुष्य ( चोट और क्षति पहुँचाना), प्रकीर्णक (विविध अपराध )। परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य प्रमाण का निरूपण है। नारद व्यवहार में पर्याप्त सीमा तक मनु के अनुयायी हैं । नारायण-(१) महाभारत, मोक्षधर्म के नारायणीय उपाख्यान में वर्णन है कि नारद उत्तर दिशा की लम्बी यात्रा करते हए क्षीरसागर के तट पर जा निकले । उसके बीच श्वेतद्वीप था, जिसके निवासी श्वेत पुरुष नारायण अर्थात् विष्णु की पूजा करते थे। आगे उन लोगों की पवित्रता, धर्म आदि का वर्णन है । महोपनिषद् में कहा गया है कि नारायण अर्थात् विष्णु ही अनन्त ब्रह्म है, उन्हीं से सांख्य के पचीस तत्त्व उत्पन्न Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारायणतीर्थ-नालायिर प्रबन्धम् हुए एवं शिव तथा ब्रह्मा उनके आश्रित देवता हैं, जो सताये जाने के बाद एक शहतीर के नीचे दबाकर मारा उनकी ध्यानशक्ति से उत्पन्न हुए हैं। जाता है। कहते हैं कि यही विधि देवता को पसन्द है। __ नारायण तथा आत्मबोध उपनिषदों में नारायण का नारायणपुत्र-सामसंहिता के भाष्यकारों में से एक हैं। मन्त्र उद्धत है तथा इन उपनिषदों का मुख्य विषय ही नारायणबलि----रोग आदि की दुर्दशा या दुर्घटना में मृत नारायणमन्त्र है। यह मन्त्र है 'ओम् नमो नारायणाय' ।। व्यक्तियों की सद्गति के लिए किया जानेवाला विशेष पितयही मन्त्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का दीक्षामन्त्र भी है। कर्म, जिसके अन्तर्गत प्रेत के साथ कई देवता पूजे जाते (२) महाराष्ट्रीय सन्त नारायण । इनका नाम बाद में है और नारायण (शालग्राम) का पूजन, अभिषेक एवं होम समर्थ रामदास (१६०८-८१ ई० ) हो गया, जो स्वामी संपादित होता है। रामानन्दजी के भक्ति आन्दोलन से प्रभावित थे। ये कवि नारायणमन्त्रार्थ-यह आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ है। थे किन्तु इनकी रचनाएँ तुकाराम के सदृश साहित्यिक नहीं नारायण विष्णु-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी श्री अथवा हैं । इनका व्यक्तिगत प्रभाव शिवाजी पर विशेष था। लक्ष्मी एवं विष्णु के अतिरिक्त किसी अन्य देव की इनकी काव्यरचना का नाम 'दासबोध' है जो धार्मिक होने भक्ति या पूजा नहीं करते हैं । इनके आराध्यदेव है नाराकी अपेक्षा दार्शनिक अधिक है। यण, विष्णु । दे० 'नारायण ।' (३) भाष्यकार एवं वृत्तिकार नारायण । नारायण नाम नारायण सरस्वती-योगदर्शन के एक व्याख्याकार, जो के एक विद्वान् ने शाङ्खायनश्रौतसूत्र का भाष्य लिखा है। गोविन्दानन्द सरस्वती के शिष्य थे तथा 'मणिप्रभा' टीका ये नारायण तथा आश्वलायनसूत्र के भाष्यकार नारायण के रचयिता रामानन्द सरस्वती के समकालीन थे । इन्होंने दो भिन्न व्यक्ति हैं । तैत्तिरीय उपनिषद् के एक टीकाकार १६४९ वि० में योगशास्त्र का एक ग्रन्थ लिखा। का भी नाम नारायण है । श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणीयोपनि नारायणसंहिता-मध्व ने अपने भाष्य में ऋग्वेद, उपनिषद् षद् (यजुर्वेद की उपनिषदों) के एक वृत्तिकार का भी नाम तथा गीता के अतिरिक्त कुछ पुराणों एवं वैष्णव संहिताओं नारायण है । छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् (सामवेदीय) पर का भी उद्धरण दिया है। इन संहिताओं में 'नारायणभी नारायण ने टीका लिखी है। अथर्ववेदीय उपनिषद् संहिता' भी एक है। मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न एवं नृसिंहतापनी पर भी नारायण की टीकाएँ हैं। नारायण उपनिषद् ( नारायणोपनिषद्)-इस उपनिषद् में ___ उपर्युक्त उपनिषदों के टीकाकार तथा वृत्तिकार नारा प्रसिद्ध नारायणमन्त्र 'ओम् नमो नारायणाय' की व्याख्या यण एक ही व्यक्ति ज्ञात होते हैं, जो सम्भवतः ईसा की की गयी है। चौदहवीं शती में हुए थे । ये माधव के गुरु शङ्करानन्द के नारायणीय उपाख्यान-महाभारत के शान्तिपर्व, मोक्षधर्म बाद हुए थे। इन्होंने अपने भाष्यों में ५२ उपनिषदों का प्रकरण में नारायणीय उपाख्यान वणित है । दे० 'नारायण' । नाम लिखा है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध है। नारायणीयोपनिषद्-तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक नारायणतीर्थ-ब्रह्मानन्द सरस्वती के विद्यागुरु स्वामी याज्ञिकी' अथवा 'नारायणीयोपनिषद्' के नाम से विख्यात नारायण तीर्थ थे। है । इसमें मूर्तिमान् ब्रह्मतत्त्व का निरूपण है। शङ्गराचार्य नारायणदेव-(१) सूर्य देवता का पर्याय नारायणदेव है। ने इसका भाष्य लिखा है । सौर सम्प्रदाय में सूर्य ही नारायण अथवा जगदात्मा देव नारायणेन्द्र सरस्वती-सायणाचार्य के ऐतरेय तथा कौषीतकि और आराधनीय है। आरण्यकों के भाष्यों पर अनेक टीकाएँ रची गयी है। (२) 'बैगा' नामक गोंड़ों की अब्राह्मण पुरोहित जाति नारायणेन्द्र सरस्वती की भी एक टीका उक्त भाष्यों के कुलदेवता का नाम नारायणदेव है । जो सूर्य के प्रतीक पर है। या उनके समान माने जाते हैं । बैगा लोग अपने देवता के नालायिर प्रबन्धम्-नाथ मुनि ( यामुनाचार्य के पितामह यज्ञ में सूअर की बलि देते हैं। ऐसे यज्ञ विवाह, जन्म तथा तथा रामानुज सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य) ने नम्मालवार तथा मृत्यु जैसे अवसरों पर होते हैं। बलिपशु नाना प्रकार से अन्य आलवारों की रचनाओं का संग्रह किया तथा उसका Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ नासत्य-नासिकपंचवटी नाम रखा 'नालायिर प्रबन्धम्' अथवा 'चार सहस्र गीतों का संग्रह ।' इस पर अनेक भाष्य रचे गये हैं । नाथ मुनि ने इस ग्रन्थ के गीतों का पाठ तथा गान करना अपने अनु- यायियों का दैनिक कार्यक्रम बना दिया। नासत्य-(१) यह वैदिक युग्म देवता अश्विनौ का एक विरुद है। इनके दो विरुद हैं. 'दस्र' और 'नासत्य' । 'दस्र' का अर्थ है आश्चर्यजनक तथा 'नासत्य' का अर्थ है न + असत्य अर्थात् जो कभी असफल न हो। अश्विनी स्वास्थ्य और सत्य के देवता हैं। (२) उत्तरी ईरान स्थित प्रागैतिहासिक बोगाजकोई पट्टिका पर नासत्य का नाम मित्र, वरुण और इन्द्र के साथ प्रयुक्त हुआ है । उसमें नासत्य शब्द का गठन प्रकट करता है कि स का ह में भाषिक परिवर्तन तब तक नहीं हुआ था। इसलिए यह शब्द भारत-ईरानी काल का है। लघु अवेस्ता में हम दैत्य नाओन हेथ्य का नाम पाते हैं जो नासत्य की पदावनति के फलस्वरूप बना है। अतएव नासत्या (उ) निश्चय ही भारत-ईरानी अथवा पूर्व ईरानी देवता हैं। नासदीय सूक्त-ऋग्वेद में ज्ञानकाण्ड सम्बन्धी सृष्टिविज्ञान विषयक दो सूक्त हैं-नासदीय तथा पुरुषसूक्त । नासदीय सूक्त ऋग्वेद, १०.१२९ की प्रथम पंक्ति "नासदासीन्नो सदासीत् तदानीम्' के आरम्भिक शब्द नासद के आधार पर प्रस्तुत सूक्त का नासदीय नाम हुआ है। इसमें प्रकृति के विकास की दृष्टि से सृष्टि रचना का का उल्लेख है जिसका भावार्थ निम्नलिखित है : (नासदासीत्) जब यह कार्यसृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण अर्थात् जगत् बनाने की सामग्री वर्तमान थी । उस समय ( असत् ) शन्य नाम आकाश, अर्थात् (जो नेत्रों से देखने में नहीं आता) भी नहीं था, क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (नो सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सत्त्व गुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहलाता है, वह भी नहीं था । ( नासीद्रजः ) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमा) विराट् अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के विकास का स्थान है सो भी नहीं था। (किमा०) जो यह वर्तमान जगत् है, वह अनन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढक सकता और उससे अधिक व अथाह भी नहीं हो सकता। (न मृत्युः) जब जगन् नहीं था तब मृत्यु भी नहीं थी। अन्धकार की सत्ता भी नहीं थी, क्योंकि अन्धकार प्रकाश के अभाव का ही नाम है । तब प्रकाश की उत्पत्ति हुई नहीं थी। इसी महा अन्धकार से ढका हुआ यह सब कुछ (भावी विश्वसत्ता) चिह्न और विभागरहित (अज्ञेय तथा अविभक्त) एवं देश तथा काल के विभाग से शून्य स्थिति में सर्वत्र सम और विषम भाव से बिल्कुल एक में मिला हुआ फैला था। (तो भी) जो कुछ सत्ता थी वह शून्यता से ढकी हुई थी ( क्योंकि ) आकाशादि की उत्पत्ति नहीं हुई थी और किसी प्रकार का आकार नहीं था। (क्योंकि) आकार से ही सृष्टि का आरम्भ होता है । तपस् की महान् शक्ति से (उपर्युक्त असष्टि की दशा में) 'एक' की उत्पत्ति हुई। उस एक में पहले-पहल लीलाविस्तार की कामना उत्पन्न हुई। उस एक के मनन या विचार से यह कामना बीज के रूप में हुई। तदनन्तर ऋषियों ने विचार किया और अपने हृदय में खोजा तो पता चला कि यही कामना सत् और असत् को बाँधने का कारण हुई । इनकी विभाजक रेखा (सदसत् में विवेक करने की रेखा) तिर्यक् रूप से फैल गयी। फिर उसके ऊपर क्या था और नीचे क्या था? उत्पन्न करने वाला रेतस् अर्थात् बीज था, महावलवान् शक्तियाँ थीं। इधर जहाँ स्वच्छन्द क्रिया थी उधर परे ( क्रियाप्रणोदक भी ) महाशक्ति थी। सचमुच कौन जानता है और यहाँ कौन कह सकता है कि (यह सब) कहाँ से उपजा और इस विश्व की सृष्टि कहाँ से आयी । देवताओं की उत्पत्ति बाद की है और यह सृष्टि पहले प्रारम्भ हुआ । फिर कौन जान सकता है कि यह सब कैसे आरम्भ हुई। (वेद ने जो उपर्युक्त वर्णन किया है वह वेदों को ही कसे ज्ञात हुआ; यहाँ व्याज से वेदों का अनादि होना व्यंजित होता है)। जिससे विश्व की सृष्टि आरम्भ हुई उसने यह सब रचा है (अपनी इच्छाशक्ति से सृष्टि की प्रेरणा की है) या नहीं रचा है, अर्थात् उसकी प्रेरणा के बिना आप हो आप हो गया है। परम व्योम में जिसकी आँखें इस विश्व का निरीक्षण कर रही हैं वस्तुतः (इन दोनों बातों के रहस्य को) वही जानता है । या शायद वह भी नहीं जानता (क्योंकि उस निर्गुण और निराकार में सष्टि से पहले ज्ञान, इच्छा और क्रिया इन तीनों का भाव नहीं था)। नासिक पंचवटी-यह महाराष्ट्र का प्राचीन तीर्थस्थान है। नासिक और पञ्चवटी वस्तुतः एक ही नगर है। नगर के Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिक-निकुम्भपूजा ३६५ बीच से गोदावरी नदी बहती है। दक्षिण की ओर नगर वर्ष से बाहर अन्यान्य देशों में भी फैला। यह एक भारी का मुख्य भाग है उसे नासिक कहते है और उत्तरी भाग परिवर्तन था, धार्मिक क्रान्ति थी जिससे श्रुतियों और को पञ्चवटी । गोदावरी के दोनों तटों पर देवालय बने हुए स्मृतियों को लोग विल्कुल भूल गये और बौद्धों को है। पंचवटी से तपोवन और दूसरे तीर्थों का दर्शन करने राज्याश्रय मिल जाने से नास्तिक मत प्रबल हो गया । में सुविधा होती है। रावण ने यहीं से सीताहरण किया (२) सामान्य अर्थ में ईश्वर अथवा परमार्थ में विश्वास था । यहाँ बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर बारह वर्ष न करनेवाले को नास्तिक कहते हैं । के अन्तर से स्नानपर्व या कुम्भमेला होता है। नासिक से नास्तिकदर्शन-वेदों के प्रमाण को माननेवाले आस्तिक ७-८ कोस दूर ‘त्र्यम्बकेश्वर' ज्योतिलिङ्ग तथा नील पर्वत और न मानने वाले नास्तिक कहलाते हैं । चार्वाक, माध्यके उत्तुंग शिखर पर गोदावरी गंगा का उदगम स्रोत है। मिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं आर्हत ये छहः यह प्रदेश बड़ा रमणीक है। नास्तिक दर्शन हैं । दे० सर्वदर्शनसंग्रह नामक ग्रन्थ । नास्तिक-जो आस्तिक नहीं है वह 'नास्तिक' कहलाता है। नास्तिकमत-'नास्तिक दर्शन' शब्द में छ: नास्तिक दर्शन इसका शाब्दिक अर्थ है 'न + अस्ति । (कोई स्थायी सत्ता) गिनाये जा चुके है । विपरीत मतसहिष्णु भारत में आस्तिक नहीं है ] कहने वाला', अर्थात् जो मानता है कि 'ईश्वर और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का आदि काल से नहीं है। किन्तु हिन्दू धर्म की पारिभाषिक शब्दावली पूर्ण विकास होता चला आया है । आस्तिक तथा नास्तिक में 'नास्तिक' उसको कहते हैं जो वेद के प्रामाण्य को दोनों दलों की परम्परा और संस्कृति समान चली आयी नहीं मानता है (नास्तिको वेदनिन्दकः) । इस प्रकार बौद्ध, है । दोनों का इतिहास एक ही है। हाँ, प्रत्येक दल ने अर्हत, चार्वाक आदि सम्प्रदाय नास्तिक माने जाते हैं। स्वभावतः अपने इतिहास में अपना उत्कर्ष दिखाया है। नास्तिकता--(१) नास्तिक का परम्परागत अर्थ है 'जो ( विभिन्न नास्तिक मतों को नास्तिक दर्शनों के अन्तर्गत वेद की निन्दा करता है' ( नास्तिको वेदनिन्दकः ) । अतः देखिए।) वेद के प्रमाण में विश्वास न करना नास्तिकता है । ईश्वर नास्तिक हिन्द-दे० 'नास्तिक'। में विश्वास न करने से कोई नास्तिक नहीं होता । मीमांसा निकुम्भपूजा-(१) इस व्रत में चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को और सांख्य दोनों दर्शन ईश्वर के अस्तित्व की आवश्यकता उपवास तथा पूर्णिमा को हरि का पूजन करना चाहिए। नहीं समझते । फिर भी वे आस्तिक माने जाते हैं । पिशाचों की सेना के साथ निकुम्भ नामक राक्षस लड़ने के नास्तिकता तथा नास्तिकों की चर्चा वेदों में प्रचुर लिए जाता है। एक मिट्टी की प्रतिमा अथवा घास का मात्रा में है। नास्तिकों को यहाँ असुर योनि में गिना पुतला बनाकर प्रत्येक घर में मव्याह्न के समय स्थापित गया है । इनकी परम्परा अति पुरानी है या कम से कम करते हुए पुष्प तथा धूप, दीप, नैवेद्यादि से पूजन करना उतनी ही पुरानी है जितनी आस्तिकों की। महाभारत चाहिए । नगाड़े तथा सारङ्गी आदि वाद्ययन्त्र भी बजाने काल में भी नास्तिक थे । चार्वाक की चर्चा महाभारत में चाहिए। चन्द्रोदय के समय पुनः पूजन का विधान है। आयी है । जाबालि के कथन से पता चलता है कि रामायण पूजा के बाद एकदम तितर-बितर हो जाना चाहिए। काल में भी नास्तिक लोगों की संख्या अच्छी रही होगी। व्रती को चाहिए कि वह वाद्य, संगीत आदि से एक बड़ा बौद्धों और जैनों की चर्चा से कुछ लोग समझते हैं कि ये महोत्सव मनाये । जनता घास के बने हुए सर्प से खेले, जो अंश पीछे से मिलाये गये हैं अथवा इन ग्रन्थों की रचना लकड़ियों से घिरा हो। तीन-चार दिन बाद उस सर्प के ही पीछे हुई है । परन्तु यह धारणा भ्रान्त है । महाभारत टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ तथा उन टुकडों को एक वर्ष के बहुत पीछे महावीर जिन तथा गौतम बुद्ध के समय से तक रखा जाय । नीलमत पुराण (१० ६४, श्लोक ७८१नास्तिक मतों का प्रचार बढ़ा और धीरे-धीरे सारे देश में ७९० ) के अनुसार यह "चैत्रपिशाचवर्णनम्" है। राजा और प्रजा में व्याप गया। बौद्ध मत के आत्यन्तिक (२) आश्विन पूर्णिमा को (महिलाओं, बच्चों तथा वृद्धों प्रचार से आस्तिक धर्मों और वर्णविभाग का कुछ काल को छोड़कर) पुरुष लोग गृह के मुख्य द्वार के पास अग्नि के लिए ह्रास हो गया। नास्तिक मत का प्रभाव भारत स्थापित करके दिन भर निराहार रहकर उसका पूजन Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ करते हैं। पूर्णिमा को रुद्र तथा उमा, स्कन्द, नन्दीश्वर, रेवन्त का पूजन करना चाहिए। तिल, अक्षत तथा माष ( उरद) से निकुम्भ राक्षस के पूजन करने का विधान है । रात्रि को ब्राह्मणों को भोजन कराकर लोग स्वयं भी निरामिष भोजन करें, यह विधान है । इसके बाद रात्रि भर गीत, वाद्य, संगीत, नृत्यादि का आयोजन करें । दूसरे दिन आराम के साथ प्रभात काल में मिट्टी इत्यादि शरीर में पोतकर पिशाचों के समान बिना लज्जा अनुभव करते हुए खेलें - कूदें। मित्रों को भी मिट्टी, कीचड़ आदि मलते हुए अश्लील शब्दों का प्रयोग करें । मध्याह्न के पश्चात् वे स्नान करें यदि कोई पुरुष इस कामोत्सव में अपने आपको लिप्स नहीं करता तो वह पिशाचों से पीड़ित होता है। (३) चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को भगवान् शम्भु की तथा पिशाचों से घिरे निकुम्भ नामक राक्षस की पूजा होती है, उस दिन रात को लोगों को चाहिए कि वे पिशाचों से अपने बच्चों की रक्षा करें तथा वेश्याओं का नृत्य देखें । निक्षुभाषचतुष्टयगत निक्षुभा सूर्य नारायण की पत्नी का नाम है कृष्ण पक्ष की सप्तमी को निभा का व्रत किया जाता है । इसमें उपवास का विधान है। एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। इसमें सूर्य तथा उनकी पत्नी निक्षुभा की प्रतिमाओं का पूजन होता है। महिला व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक जायेंगी तथा जन्मान्तर में राजा को अपने पति के रूप में प्राप्त करेंगी । पुरुष लोग भी सूर्यलोक प्राप्त करेंगे । महाभारत का पाठ करने वाला एक पंडित एक वर्ष के अनुष्ठान के लिए बैठाना चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य तथा निक्षुभा की स्वर्णालङ्कारवस्त्र विभूषित प्रतिमाओं को महाभारत का पाठ करने वाले की पत्नी को दान में देना चाहिए । निशुभाकं सप्तमी - पष्ठी, सप्तमी, संक्रान्ति अथवा किसी रविवार के दिन इस व्रत का अनुष्ठान प्रारम्भ होता है और एक वर्ष तक चलता है । स्वर्ण, रजत अथवा काष्ठ की सूर्य तथा निशुभा (सूर्वपत्नी) की प्रतिमाओं को उपवास करते हुए घी इत्यादि पदार्थों से स्नान कराकर होम तथा पूजन करना चाहिए। सूर्यभक्तों को भोजन कराना चाहिए इस व्रत का फल यह है कि मनुष्य के समस्त संकल्प तथा इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा सूर्य और अन्य लोकों की प्राप्ति होती है । निक्षुभाकंचतुष्टयव्रत नित्या राधनविधि निगम - ज्ञान की वह पद्धति जो अन्ततोगत्वा साक्षात् अनुभूति पर आधारित है, निगम कहलाती है। इसीलिए स्वयं साक्षात्कृत (अनुभूत) वेदों को निगम कहते हैं। इससे भिन्न ज्ञान की जो पद्धति तर्फ प्रणाली पर अवलम्बित है वह आगम कहलाती है । इसीलिए दर्शनों को आगम कहते हैं । इस परम्परा में बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुखतः आगमिक हैं। हिन्दू धर्म-दर्शनपरम्परा निगमागम का समन्वय करती है । नियमपरिशिष्ट कात्यायनरचित अनेक पद्धति और परि शिष्ट ग्रन्थ यजुर्वेदीय श्रोत्रसूत्र के अन्तर्गत हैं। कई स्थलों पर इनमें 'निग्मपरिशिष्ट' एवं 'चरणव्यूह' ग्रन्थों का भी नामोल्लेख है । निघण्टु - वेद के अर्थ को स्पष्ट करने के सम्बन्ध में दो अति प्राचीन ग्रन्थ हैं। एक है निघण्टु तथा अन्य हैं यास्क का निरुक्त | निघण्टु शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः इस प्रकार से की जाती है 'निश्चयेन घटयति पठति शब्दान् इति निघण्टुः।' इसमें वैदिक पर्याय शब्दों का संग्रह है। इसके निघण्टु नाम पड़ने का एक कारण यह भी बतलाया जाता हैं कि इस कोश में उन शब्दों का संग्रह है जो मन्त्रार्थ के निगमक अथवा ज्ञापक हैं। इन शब्दों का रहस्य जाने बिना वेदों का यथार्थ आशय समझ में नहीं आ सकता । निघण्टु पांच अध्याओं में विभक्त है। प्रथम तीन अध्यायों में एकार्थक, चतुर्थ में अनेकार्थक तथा पञ्चम में देवतावाचक शब्दों का विशेष रूप से संग्रह किया गया है । इसी निघण्टु पर मास्क का निरुक्त लिखा गया है। निजगुणशिवयोगी- निजगुणयोगी अथवा निजगुण शिवयोगी एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं । ये वीरशैव सम्प्रदाय के एक आचार्य थे । इन्होंने 'विवेकचिन्तामणि' नाम का शैव विश्वकोश तैयार किया था इनका प्रादुर्भावकाल सत्रहवीं शती वि० है | नित्यपद्धति - आचार्य रामानुज रचित यह एक ग्रन्थ है । नित्यवाद — यह वेदान्त का एक सिद्धान्त है । इसके अनुसार वस्तुसत्ता स्थायी और निश्चल है। संसार में दिखाई पड़नेवाला परिवर्तन और विध्वंस प्रतीयमान अथवा अवास्तविक है । इस प्रकार वस्तुसत्ता की नित्यता में विश्वास रखनेवाला यह वाद है । नित्याराधनविधि - यह आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यातन्त्र-निम्बार्क ३६७ नित्यातन्त्र-एक तन्त्रग्रन्थ का नाम । सन्तान के रूप में अवतरित हों और फिर दोनों का गोकुल नित्यानन्वतन्त्र--एक तन्त्र का नाम । में विनिमय हुआ। कंस ने उस कन्या की टांग पकड़कर नित्यानन्दमिश्र-ये बहदारण्यक उपनिषद् के वृत्तिलेखक शिला पर ज्यों ही पटकना चाहा कि वह हाथ से छटकर थे । इनकी वृत्ति का नाम है 'मिताक्षरा' । आकाश में चली गयी तथा इन्द्र ने इसे अपनी बहिन माननित्यानन्वाश्रम-छान्दोग्य एवं केनोपनिषद् के एक वृत्ति- कर विन्ध्य पर्वत पर बैठा दिया। वहाँ देवी ने शुम्भ तथा लेखक का नाम । निशुम्भ नामक दो दैत्यों का वध किया और विष्णु के नित्यानन्द-चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सहयोगी । नित्यानन्द वचन के अनुसार उसका पूजन और सम्मान जगत् में पहले मध्व और पीछे चैतन्य के प्रभाव में आये । चैतन्य प्रचलित हो गया। सम्प्रदाय की व्यवस्था का कार्य इन्हीं के कन्धों पर था, निम्बसप्तमी-वैशाख शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ क्योंकि चैतन्य स्वयं व्यवस्थापक नहीं थे। चैतन्य के। होता है। एक वर्षपर्यन्त व्रत चलता है। इसमें सूर्य की परलोक गमन के बाद भी इन्होंने सम्प्रदाय की व्यवस्था पूजा का विधान है। कमल की आकृति बनाकर सूर्य सुरक्षित रखी तथा सदस्यों के आचरण के नियम बनाये । (खखोल्क) को स्थापित करना चाहिए । इसका मूल मन्त्र नित्यानन्द के बाद इनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के भार है : 'ओं खखोल्काय नमः' । बारह आदित्य, जय, विजय को सँभाला। चैतन्य स्वयं शङ्कराचार्य के दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। किन्तु शेष, वासुकि, विनायक, महाश्वेता तथा रानी सुवर्चला को सूर्य की प्रतिमा के सामने स्थापित किया जाना चाहिए नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने सरल जीवन यापन करने तथा सूर्य की प्रतिमा के सम्मुख शयन करना चाहिए। वाले तथा सरल अनुशासन वाले आधुनिक साधुओं के दल को जन्म दिया, जो वैरागी तथा वैरागिनी कहलाये। ये अष्टमी को पुनः सूर्यपूजन करने की विधि है । इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है। वैरागी रामानन्द के द्वारा प्रचलित वैरागी पन्थ के ढंग के थे। निम्बार्क-एक वैष्णव सम्प्रदायप्रवर्तक आचार्य । ये आन्ध्र नित्यानन्ददास-वि० सं० १६९२ में नित्यानन्ददास ने प्रदेश के एक विद्वान् भागवतधर्मी थे, जो व्रज में जा चैतन्य सम्प्रदाय के इतिहास पर प्रेमविलास नामक एक बसे थे । इन्होंने राधा की पूजा को मान्यता दी तथा छन्दोबद्ध ग्रन्थ लिखा। अपना एक सम्प्रदाय स्थापित किया । इनका समय नित्याह्निकतिलक तन्त्र-इस ग्रन्थ में शाक्कों के 'कुब्जिका- निश्चित नहीं है । निम्बार्क भेदाभेद दर्शन के मानने वाले सम्प्रदाय' के दैनिक क्रिया-कर्म का वर्णन मिलता है। थे। निम्बार्क का प्रारम्भिक नाम भास्कर था । अतः कुछ इसकी रचना १२९४ वि० के लगभग हुई थी। विद्वान् सोचते हैं कि निम्बार्क एवं भास्कराचार्य (९०० ई०), निद्रा-योगदर्शन के अनुसार जाग्रत् अवस्था से स्वप्न । जिन्होंने भेदाभेद भाष्य रचा, एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु अवस्था में जाने का नाम निद्रा है। किन्तु यह एक स्थूल यह असम्भव है कि एक ही व्यक्ति शुद्ध वेदान्ती भाष्य शारीरिक क्रिया है। मन इसमें क्रियाशील बना रहता है तथा साम्प्रदायिक वृत्ति लिखे । व्रज में राधा-उपासना और चेतना से शून्य नहीं होता है। के प्रचलन की घटना भास्कराचार्य के काफी पीछे की है निद्रा कालरूपिणी (दुर्गा)-दुर्गा के एक रूप को योगनिद्रा (लगभग ११०० ई०) । निम्बार्क रामानुज से काफी या निद्रा-कालरूपिणी कहते हैं। उसकी पूजा का सम्बन्ध प्रभावित थे तथा उन्हीं की तरह ध्यान पर अधिक जोर विष्णु-कृष्ण से है। हरिवंश में एक कथा वर्णित है देते थे । इनके अनुसार राधा कृष्ण की शाश्वत पत्नी हैं। कि कंस को मारने के लिए विष्ण पाताल लोक गये । वहाँ अपने पति के सदृश ही वे वृन्दावन में अवतरित हई तथा उन्होंने निद्रा-कालरूपिणी से सहायता माँगी तथा उसको उनकी विवाहिता पत्नी हुई । निम्बार्कों के कृष्ण विष्णु के वचन दिया कि तुमको मैं देवी का सम्मान दिलाऊँगा। अवतार मात्र नहीं हैं, वे ब्रह्म हैं तथा उन्हीं से राधा, उन्होंने उससे यशोदा की नवीं सन्तान के रूप में उसी दिन गोप या गोपी जन्म लेते हैं, जो उनके संग गोलोक में जन्म ग्रहण करने को कहा, जिस दिन वे देवकी की आठवीं लीला करते हैं। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ निम्बार्क (गण)-नियमयूथमालिका निम्बार्क ने इस प्रकार अपना सारा ध्यान कृष्ण तथा सीखी थी। इन्हीं नारदजी ने निम्बार्क को उपदेश दिया । राधा पर केन्द्रित किया है। परवर्ती अनेक सम्प्रदाय निम्बार्क ने अपने वेदान्तभाष्य में सनत्कुमार और नारद उनके ऋणी हैं। उन्होंने वेदान्तसूत्र पर एक संक्षिप्त के नाम का उल्लेख किया है। निम्बार्क ने साम्प्रदायिक भाष्य अथवा वृत्ति लिखी, जिसका नाम 'वेदान्तपारिजात- ढंग से जिस मत की शिक्षा पायी थी उसे अपनी प्रतिभा सौरभ' है तथा 'दशश्लोकी' नामक एक दस पद्यों की से और भी उज्ज्वल बना दिया। पुस्तिका रची है। इस सम्प्रदाय का भाष्य श्रीनिवास- निम्बार्कसम्प्रदाय की एक प्राचीन गुरुगद्दी मथुरा में रचित 'वेदान्तकौस्तुभ' है जो एक उच्च कोटि का यमुना के तटवर्ती ध्रुवक्षेत्र में है । वैष्णवों का यह पवित्र तार्किक ग्रन्थ है । बाद के आचार्यगण भी विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ तीर्थ माना जाता है। अब अन्यत्र भी प्रभावशाली लिखते आये हैं । इनकी उपासना विधि के निर्देशक ग्रन्थ गुरुगद्दियाँ स्थापित हो गयी हैं। इस सम्प्रदाय के लोग गौतमीय संहिता तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण का कृष्ण सम्बन्धी विशेषकर उत्तर भारत में ही रहते हैं। इस सम्प्रदाय भाग है, जो पीछे से निम्बार्कदर्शन के रूप में सम्भवतः की एक विशेषता यह है कि इसके आचार्यों ने अन्य मतों इस पुराण में जोड़ दिया गया है। 'शाण्डिल्यभक्तिसूत्र' के आचार्यों की तरह दूसरे मतों का खण्डन नहीं किया की भी निम्बार्क मत से ही उत्पत्ति मानी जा सकती है। है। केवल देवाचार्य के ग्रन्थ में शाङ्कर मत पर आक्षेप निम्बार्क (गण)-निम्बार्क द्वारा प्रवर्तित मत को मानने किया गया है। वाले निम्बार्क वैष्णव (गण) कहलाते हैं। इनमें गृहस्थ निम्बार्काचार्य-दे० 'निम्बार्क' । और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी निम्मप्पदास-एक कर्नाटकी भक्त का नाम । प्राकृत भाषाओं के संचालक आचार्य भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, में धार्मिक ग्रन्थों के लिखे जाने के आन्दोलन के प्रभाव से जो शिष्यों को मन्त्रोपदेश करते हुए कृष्णभक्ति का प्रचार कन्नड भाषा में भी ग्रन्थ रचे गये। निम्मप्पदास ने औरों करते रहते हैं । आचार्य और भक्तगण प्रायः भजन-ध्यान की तरह अपनी रचनाएँ (पद्य में ) कन्नड भाषा में एवं राधा-कृष्ण की युगल उपासना की ओर ही उन्मुख लिखी है। रहते हैं, दार्शनिक सिद्धान्त की अभिरुचि इनमें अधिक नियति-शाक्त मत के अनुसार प्राथमिक सष्टि के दूसरे नहीं पायी जाती। इसीलिए इनका समन्वय चैतन्य चरण में शक्ति के भूतिरूप का सामूहिक प्रकटन कूटस्थ संप्रदाय, राधावल्लभ संप्रदाय, प्रणामी संप्रदाय, धर्मदासी पुरुष तथा माया शक्ति के रूप में होता है। कूटस्थ पुरुष कबीर शाखा, रामानन्दीय, खालसादल आदि के साथ भी व्यक्तिगत आत्माओं का सामूहिक रूप है (मधुमक्खियों की सौहार्द के साथ होता आया है। व्रजमंडल, प्रयाग, काशी, तरह एकत्र हुआ) तथा माया विश्व का अभौतिक उपानेपाल, बंगाल, उड़ीसा, राजस्थान, द्वारका आदि में दान है । माया से नियति की उत्पत्ति होती है, जो सभी निम्बाकियों की गृहस्थ और विरक्त गुरुगद्दियाँ और मठ- वस्तुओं को नियमित करती है। फिर नियति से काल मन्दिर पाये जाते हैं। उत्पन्न होता है जो चालक शक्ति है । निम्बार्कसम्प्रदाय-यह सम्प्रदाय वैष्णव चतुःसंप्रदाय की नियम-योगदर्शन में निर्दिष्ट अष्टांग योग का द्वितीय घटक । एक शाखा है । दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। इसकी परिभाषा है : 'शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्याय-ईश्वरभेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्रायः एक ही है। इस मत के । प्रणिधानानि नियमाः । [शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान और ईश्वर का ध्यान ये नियम कहलाते हैं ।] सामान्य आचार्य निम्बार्क हो गये हैं परन्तु यह मत अति प्राचीन ___ अर्थ है 'स्वेच्छा से अपने ऊपर नियन्त्रण रखकर अच्छा है । इसे सनकादिसम्प्रदाय भी कहते हैं। ब्रह्मा के चार __ अभ्यास विकसित करना', जैसे स्नान, शुद्धाचार, शरीर को मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार थे। निर्मल बनाना, सन्तोष, प्रसन्नता, अध्ययन, उदासीनता ये चारों ऋषि इस मत के आचार्य कहे जाते हैं । छान्दोग्य आदि । उपनिषद् में सनत्कुमार-मारद की आख्यायिका प्रसिद्ध है। नियमयूथमालिका-अप्पय दीक्षित रचित 'नियमयूथउसमें कहा गया है कि नारद ने सनत्कुमार से ब्रह्मविद्या मालिका' रामानुज मत का दिग्दर्शन कराती है । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियोग-निरुक्त नियोग-इसका शाब्दिक अर्थ है 'नियोजन' अथवा 'योजना', स्वीकृति देते हैं। इस विरोध का इतना फल हुआ कि अर्थात पति की असमर्थता अथवा अभाव में ऐसी व्यवस्था शारीरिक आनन्द के लिए नियोग न कर पुत्र की कामनाजिससे सन्तान उत्पन्न हो सके । वैदिक काल से लेकर वश ही नियोग की प्रथा रह गयी । गर्भाधान के बाद दोनों ३०० ई० पू० तक विधवा के पति के साथ चिता पर (विधवा तथा नियोजित पति) अलग हो जाते थे। धीरेजलने का विधान नहीं था। उसके जीवन व्यतीत करने धीरे जब सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य न रही तो नियोग प्रथा के तीन मार्ग थे—(१) आजीवन वैधव्य, (२) नियोग भी बन्द हो गयी। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द द्वारा सन्तान प्राप्त करना और (३) पुनर्विवाह । सरस्वती ने नियोग का कुछ अनुमोदन किया परन्तु यह प्राचीन काल में नियोग अनेक सभ्यताओं में प्रचलित प्रथा पुनर्जीवित नहीं हुई। धीरे-धीरे विधवाविवाह के था। इसका कारण ढूँढना कठिन नहीं है। स्त्री प्रचलन से यह प्रथा बन्द हो गयी । जो विधवा वैधव्य की पति की ही नहीं बल्कि उसके परिवार की सम्पत्ति समझी कठोरता का पालन करने में असमर्थ हो उसके लिए पुनजाती थी और इसी कारण पति के मरने के बाद उसका विवाह करना उचित माना गया। इससे नियोग की प्रथा देवर (पति का भाई) उसे पत्नी के रूप में ग्रहण करता तथा सन्तानोत्पादन करता था। प्राचीन काल में ग्रहण निर्जला एकादशी-ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकाकिये गये 'दत्तक' पुत्र से नियोग द्वारा पैदा किया गया पुत्र दशी कहते हैं । इस दिन प्रातः से लेकर दूसरे दिन प्रातः श्रेष्ठ समझा जाता था। इसलिए उसे औरस के बाद तक उपवास करना चाहिए। इस दिन जलग्रहण भी दूसरा स्थान प्राप्त होता था। महाभारत तथा पुराणों के निषिद्ध है, केवल सन्ध्योपासना के समय किये गये आचअनेक नायक नियोग से पैदा हुए थे। मनों को छोड़कर । दूसरे दिन प्रातः शर्करामिश्रित जल से नियोग प्रणाली के अनुसार जब किसी स्त्री का पति परिपूर्ण एक कलश दान में देकर स्वयं जलपानादि करना मर जाता या सन्तानोत्पादन के अयोग्य होता था तो वह चाहिए। इससे बारहों द्वादशियों का फल तो प्राप्त होता अपने देवर या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी के साथ सहवास ही है, व्रती सीधा विष्णुलोक को जाता है । कर कुछ सन्तान उत्पन्न करती थी। देवर इस कार्य के निराकारमीमांसा-गुरु नानकरचित एक ग्रन्थ । यह संस्कृत लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। देवर अथवा सगोत्र के भाषा में रचा गया है। अभाव में किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से नियोग कराया जाता था। निरालम्ब उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। परवर्ती स्मतियों में नियोग द्वारा एक ही पुत्र पैदा निरुक्त-वेद का अर्थ स्पष्ट करने वाले दो ग्रन्थ अति करने की आज्ञा दी गयी, किन्तु पहले कुछ भिन्न अवस्था प्राचीन समझे जाते हैं, एक तो निघण्टु तथा दूसरा यास्क थी । कुन्ती ने अपने पति से बाधित हो नियोग द्वारा तीन का निरुक्त । कुछ विद्वानों के अनुसार निघण्टु के भी रचपुत्र प्राप्त किये थे। पाण्डु इस संख्या से सन्तुष्ट नहीं थे, यिता यास्क ही थे। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी किन्तु कुन्ती ने सुझाया कि नियोग द्वारा तीन ही पुत्र पैदा सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निरुक्त से शब्दों की व्युत्पत्ति किये जा सकते हैं। क्षत्रियों को अनेक पत्रों की कामना समझ में आती है और प्रसंगानुसार अर्थ लगाने में सुविधा हुआ करती थी तथा प्रागैतिहासिक काल में नियोग से होती है। असंख्य सन्तान पैदा करने की परिपाटी थी। वास्तव में वैदिक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए निरुक्त __३०० ई० पू० तक नियोग प्रथा प्रचलित थी। किन्तु की पुरानी परम्परा थी। इस परम्परा में यास्क का इसके बाद इसका विरोध आरम्भ हुआ। आपस्तम्ब, चौदहवां स्थान है। यास्क ने निघण्टु के प्रथम तीन बौधायन तथा मनु ने इसका विरोध किया। मनु ने इसे अध्यायों की व्याख्या निरुक्त के प्रथम तीन अध्यायों में पशुधर्म कहा है। वसिष्ठ तथा गौतम ने इसका केवल की है । निघण्टु के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या निरुक्त के इतना ही विरोध किया कि देवर के प्राप्त होने पर कोई अगले तीन अध्यायों में की गयी है। निघण्ट के पञ्चम स्त्री किसी अपरिचित से नियोग न करे । कौटिल्य एक अध्याय की व्याख्या निरुक्त के शेष छः अध्यायों में बूढ़े राजा को नियोग द्वारा एक नया पुत्र प्राप्त करने की Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० निरुवनपुराण-निशी जैसा कि कहा गया है, निरुक्त का उद्देश्य है व्युत्पत्ति । धारी और (२) सिंध। पहले के छः तथा दूसरे के तीन (प्रकृति-प्रत्यय) के आधार पर अर्थ का रहस्य खोलना। उपविभाग है । सिंघों की तीन शाखाएँ हैं-(१) मख्यतः दो प्रकार के अर्थ होते हैं-(१) सामान्य और खालसा, (२) निर्मल और (३) अकाली। निर्मल संन्या(२) विशिष्ट । सामान्य के चार भेद हैं-(१) कथित, सियों का दल है। इस दल के संस्थापक वीरसिंह उच्चरित अथवा व्याख्यात (२) उद्घोषित (महाभारतादि थे, जिन्होंने १७४७ वि० में इस शाखा को संगठित किया । में) (३) निर्दिष्ट अथवा विहित (धर्मशास्त्र में) (४) निर्मल पंथ-दे० 'निर्मल' । व्यत्पत्त्यात्मक । विशिष्ट का अर्थ है वैदिक शब्दों का निरोधलक्षण-वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसका व्यत्पत्त्यात्मक अर्थ अथवा व्याख्या करने वाले ग्रन्थ । पूरा नाम 'निरोधलक्षणनिवृत्ति' है। वेदाङ्गों में निरुक्त का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है। निर्वचन ग्रन्थ-निरुक्त के विषयों के निर्वचनलक्षण' तथा निरवनपराण-नाथपंथी योगियों द्वारा रचित एक ग्रन्थ 'निर्वचनोपदेश' दो विभाग हैं। का नाम । निर्वाण-यह मुख्यतः बौद्ध दर्शन का शब्द है, किन्तु निरूढपशुबन्ध-एक प्रकार का यज्ञ, जिसमें यज्ञस्तंभ आस्तिक दर्शनों में उपनिषदों के समय से इसका प्रयोग को जिस वृक्ष से काटते थे, उसको अभिषिक्त करते थे। हआ है। निर्वाण तथा ब्रह्मनिर्वाण दोनों प्रकार से इसका फिर बलिपशु को तेल व हरिद्रा मलकर नहलाते तथा विवेचन किया गया है। यह आत्मा की वह स्थिति है बलि के पूर्व घी से उसको अभिषिक्त करते थे। इसके जिसमें सम्पूर्ण वेदना, दुःख, मानसिक चिन्ता और संक्षेप पश्चात् उसको स्तम्भ से बाँध देते थे और विधि के अनु- में समस्त संसार लुप्त हो जाते हैं। इसमें आत्मतत्व की सार उसकी बलि देते थे। चेतना अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं नष्ट होता, किन्तु निर्गण-इसका अर्थ है गुणरहित । चरम सत्ता ब्रह्म के दो उसके दुःखमुलक संकीर्ण व्यक्तित्व का लोप हो जाता है। रूप हैं-निर्गुण और सगुण । उसके सगुण रूप से दृश्य निर्वाण उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है । जगत का विकास अथवा विवर्त होता है। किंतु वास्तविक निविद-सार्वजनिक वैदिक पूजा के अवसर पर देवों को वस्तुसत्ता तो निर्गुण ही होती है। गुणों के सहारे से जागृत तथा आमन्त्रित करने वाले मन्त्र का नाम । ब्राह्मणों उसका वर्णन अथवा निर्वचन नहीं हो सकता है। सम्पूर्ण में निविद का बार-बार उल्लेख आया है, जिसका समावेश विश्व में अन्तर्यामी होते हुए भी वह तात्त्विक दृष्टि से प्रपाठकों में हुआ है। ऋग्वेद के खिलों में निविदों का अतिरेकी और निर्गुण ही रहता है। एक पञ्चक ही संगृहीत है। किन्तु यह सन्देहात्मक निर्णयसिन्धु-यह कमलाकर भट्ट का सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। है कि ऋग्वेदीय काल में निविद जैसे सूक्तों के प्रयोग की यह उनको विद्या, अव्यवसाय तथा सरलता का प्रतीक प्रया थी, यद्यपि यह ऋग्वेद में पाया जाता है । ब्राह्मणों है। न्यायालयों में यह प्रमाण माना जाता है। निर्णय- में जो इसका क्रियात्मक अर्थ है वह यहाँ नहीं प्रयुक्त हुआ सिन्धु में लगभग एक सौ स्मृतियों और तीन सौ निबन्ध- है। परवर्ती संहिताओं में इस शब्द का प्रयोग क्रियात्मक कारों का उल्लेख हुआ है। यह ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में अर्थ में ही हुआ है। विभक्त है। इसमें विविध धार्मिक विषयों पर निर्णय निशो-अमानवीय आत्माओं में दैत्य एवं दानवों के अतिदिया गया है, जैसे वर्ष के प्रकार ( सौर, चान्द्र आदि ), रिक्त प्रकृति के कुछ भयावने उपादानों को भी प्राचीन चार प्रकार के मास, संक्रान्ति के कृत्य और दान, अधिक काल में दैत्य का रूप दे दिया गया था । अन्धेरी रात, मास, क्षयमास, तिथियाँ ( शुद्ध और विद्ध), व्रत, उत्सव, पर्वतगुफा, सघन वनस्थली आदि ऐसे ही उपादान थे। संस्कार, सपिण्ड सम्बन्ध, मूर्तिप्रतिष्ठा, मुहर्त, धाद्ध, 'निशी' रात के अन्धेरे का ही दैत्यीकरण है। प्राचीन अशौच, सतीप्रथा, संन्यास आदि। इसकी रचना काशी काल में और आज भी यह विश्वास किया जाता है कि में सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई थी। निशी ( दैत्य के रूप में) आधी रात को आती है, घर निर्मल-सिक्खों के विरक्त सम्प्रदाय का नाम । सिक्ख के स्वामी को बुलाती है तथा उसे अपने पीछे-पीछे चलने सम्प्रदाय मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है-(१) सहिज- को बाध्य करती है। उसे वन में घसीट ले जाती है तथा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चलदास-नीतिवाक्यामृत पाय काँटों में गिरा देती है। कभी-कभी ऊँचे पेड़ों पर चढा दर्शन के अनुसार उसे यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि देती है। उसकी पुकार का उत्तर देना बड़ा संकटमय सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा होता है; पुरुष के ऊपर कर्म होता है। का आरोप मिथ्या तथा भ्रममूलक है। जब यह ज्ञान निश्चलदास--एक दादूपन्थी सन्त, जो महात्मा दादुजी के । प्राप्त हो जाता है तब मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। शिष्य थे । ये कवि तथा वेदान्ती भी थे। इनकी रचनाएँ। जिस प्रकार भुने हुए चने से फिर पौधा नहीं उत्पन्न होता उत्कृष्ट है, और सबका आधार श्रुति-स्मृति और विशे- वैसे ही सांख्यबुद्धि से कर्मफल उत्पन्न नहीं होता। षतः अद्वैतवाद है। निश्चलदास के प्रभाव से दादूपन्थ परन्तु यह मार्ग सरल नहीं है। अतएव भक्तिमार्ग में, के सदस्यों ने अद्वैत सिद्धान्त को ग्रहण किया था। विशेषकर भागवत सम्प्रदाय में, यह बताया गया है कि निश्वास आगम-यह रोद्रिक आगम है। कर्म को भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिए और फल की निजी निश्वासतत्त्वसंहिता-यह ग्यारहवीं शताब्दी वि० का। कामना न करके उसे भगवान् के चरणों में अर्पित कर ग्रन्थ है, जो शाक्त जीवन के सभी अङ्गों के लिए विशद देना चाहिए । इस प्रकार कृष्णार्पणबद्धि से कर्म करने से नियमावली प्रस्तुत करता है। मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। निष्कलंकावतार-अठारहवीं शताब्दी वि० के उत्तरार्ध में निष्किरीय-वैदिक परोहितों की एक शाखा का नाम बुन्देलखण्ड के पन्ना नामक स्थान पर महात्मा प्राणनाथ निष्किरीय है जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण ने शिक्षा दी कि भारत के सारे धर्म मेरे ही व्यक्तित्व में (१२.५,१४ ) में हआ है । इसके द्वारा एक सत्र चलाया समन्वित है, क्योंकि मैं एक साथ ही ईसाइयों का मसीहा, गया था। मुसलमानों का महदो तथा हिन्दुओं का निष्कलंकावतार निषिद्ध तिथि आदि-कुछ निश्चित मासों, तिथियों, साप्ताहूँ। उन्होंने अपना धर्मसिद्धान्त 'कुलज्जम साहेब' हिक दिनों, संक्रान्तियों तथा व्रतों के अवसरों पर कुछ नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया है । दे० 'कूलज्जम साहेब' । निष्काम कर्म-मोक्ष की प्राप्ति के लिए भागवत धर्म में क्रियाएँ तथा आचार-व्यवहार निषिद्ध हैं। इनकी एक लम्बी सूची है। जीमूतवाहन के कालविवेक ( पष्ठ और विशेषकर भगवद्गीता में निष्काम कर्म का आदेश है। इसमें फल की इच्छा के बिना कर्म किया जाता है ३३४-३४५ ) में इस प्रकार के निषिद्ध क्रियाकलापों की एक सूची दी गयी है, किन्तु अन्त में यह भी कह तथा उपास्यदेव के चरणों में कर्म को समर्पित किया जाता है । देवता इसे ग्रहण करता है तथा अपनी स्वर्गीय प्रकृति दिया गया है कि ये क्रियाकलाप उन्हीं लोगों के लिए को उसके फल के रूप में देता है। फिर देवता उपासक निषिद्ध हैं, जो वेद, शास्त्र, स्मृति ग्रन्थ तथा पुराण जानते अथवा कर्म करनेवाले के हृदय में प्रवेश करता है तथा हैं । ऐसे अवसर कदाचित् असंख्य हैं, जिनका परिगणन भक्ति के गणों को जन्म देता है और अन्त में मोक्ष प्रदान असम्भव है। करता है। निहंग-सिक्खों को सिंघ शाखा के अकाली 'निहंग' भी निष्काम कर्म के पीछे दार्शनिक विचार यह है कि कहे जाते हैं। वास्तव में संस्कृत निःसंग का ही यह कर्म के फल-शुभाशुभ के अनुसार मनुष्य संसारचक्र प्राकृत रूप है, जिसका अर्थ है संग अथवा आसक्तिरहित । अथवा आवागमन में फँसता है। इसलिए जब तक कर्म नौनिवाक्यामृत-सोमदेव रि कृत राजनीति विषयक दशम से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं । शताब्दी का एक ग्रन्थ । यह ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र अव प्रश्न यह उठता है कि यह छुटकारा कैसे मिले । एक की शैली में लिखा गया है । सामग्री भी अधिकांशतः उसीः मार्ग यह है कि कर्म का पूरा परित्याग करके संसार से ग्रन्थ से ली गयी है । इसके अनुसार राजनीति का उद्देश्य संन्यास ले लेना चाहिए । इसका अर्थ है अक्षरशः नष्कर्म्य धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति है : “धर्मार्थकामफलाय का पालन । परन्तु गीता में कहा गया है कि ऐसा करना राज्याय नमः" [ उस राज्य को नमस्कार है, जिसका सम्भव नहीं । जब तक मनुष्य शरीरधारण करता है तब फल धर्म, अर्थ और काम है। ] इस ग्रन्थ में निम्नांकित तक वह कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए सांख्य विषयों पर विचार किया गया है : Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ नीतिशास्त्र-नीराजनविधि १. धर्मसमुद्देश १८. अमात्य बोध होता है । इसका स्त्रीलिंग रूप 'नीथा' केवल एक २. अर्थसमुद्देश १९. जनपद बार ही ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ हथियार है। ३. कामसमुद्देश २०. दुर्ग नीमावत-निम्बार्क सम्प्रदाय का ही अन्य नाम सधुक्कड़ी ४. अरिषड्वर्ग २१. कोश बोली में नीमावत है । दे० 'निम्बार्क' शब्द ।। ५. विद्यावृद्ध २२. बल नीराजनद्वादशी-कार्तिक शुक्ल द्वादशी को नीराजन ६. आन्वीक्षिकी २३. मित्र द्वादशी भी कहते हैं । रात्रि के प्रारम्भ होने के समय जब ७. त्रयी २४. राजरक्षा भगवान् विष्णु शयन त्याग कर उठ बैठते हैं, इस व्रत का ८. वार्ता २५. दिवसानुष्ठान आचरण किया जाता है । विष्णु की प्रतिमा के सम्मुख ९. दण्डनीति २६. सदाचार तथा अन्य देवगण, जैसे सूर्य, शिव, गौरी, पितरों के १०. मन्त्री २७. व्यवहार सम्मुख तथा गोशाला, अश्वशाला, गजशाला में भी दीप११. पुरोहित २८. विवाद माला प्रज्वलित की जानी चाहिए। राजा लोग भी १२. सेनापति २९. षाड्गुण्य समस्त राजचिह्नों को राजभवन के मुख्य प्राङ्गण में रख १३. चार ३०. युद्ध कर पूजें । एक धार्मिक तथा शुद्धाचरण करने वाली स्त्री १४. विचार ३१. विवाह अथवा वेश्या को राजा के सिर के ऊपर तीन बार दीपों १५. दूत ३२. प्रकीर्ण की माला धुमानी चाहिए। यह महाशान्तिप्रदायक (साधना१६. व्यसन ३३. ग्रन्थकर्ताप्रशस्ति परक) धार्मिक कृत्य है, जिससे रोग दूर होते हैं तथा धन१७. स्वामी ३४. पुस्तकदाता प्रशस्ति धान्य की अभिवृद्धि होती है। महाराज अजपाल ने सर्वनीतिशास्त्र-नीतिशास्त्र का प्रारम्भिक अर्थ राजनीति- प्रथम इस व्रत का आचरण किया था। इसका आचरण शास्त्र है, किन्तु परवर्ती काल में नीति का साधारण अर्थ प्रतिवर्ष होना चाहिए । आचरणशास्त्र किया जाने लगा तथा राजनीति इसका नीराजननवमी-कृष्ण पक्ष की नवमी ( कार्तिक मास ) एक भाग बन गया। शुक्रनीतिसार (१.५) में नीति की को नीराजननवमी कहते हैं। इसकी रात्रि में दुर्गाजी परिभाषा इस प्रकार से दी गयी है : तथा उनके आयुधों का पूजन होता है। दूसरे दिन प्रातः सर्वोपजीविक लोकस्थितिकृन्नीतिशास्त्रकम् । सूर्योदय के समय नीराजनशान्ति करनी चाहिए । दे० धर्मार्थकाममूलं हि स्मृतं मोक्षप्रदं यतः ।। नीलमत पुराण (पृ० ७६, श्लोक ९३१-९३३) । [नीतिशास्त्र सभी की जीविका का साधन, लोक की नीराजनविधि-यह एक शान्तिप्रद कर्म है। कार्तिक कृष्ण स्थिति सुरक्षित करने वाला, धर्म, अर्थ और काम का द्वादशी से शुक्ल प्रतिपदा तक इसका अनुष्ठान होता है । मूल और इस प्रकार मोक्ष प्रदान करने वाला है। ] यदि राजा इस विधि को करे तो उसे अपनी राजधानी आधुनिक अर्थ में नीतिशास्त्र प्राचीन धर्मशास्त्र का ही की ईशान दिशा में दीर्घाकार ध्वजाओं से सज्जित विशाल एक अङ्ग है। धर्म शब्द के अन्तर्गत ही नीति का भी समा मण्डप बनवाना चाहिए जिसमें तीन तोरण भी हों । इसमें वेश है । धर्म के सामान्य और विशेष अङ्ग में व्यक्तिगत देवगण की पूजा तथा होम करने का विधान है। यह तथा सामाजिक नीति अन्तनिहित है ।। धार्मिक कृत्य उस समय किया जाय जब सूर्य चित्रा नक्षत्र सामान्य नीति पर चाणक्यनीति, विदुरनीति, भर्तृहरि से स्वाती नक्षत्र की ओर अग्रसर हो रहा हो तथा जब नीतिशतक आदि कई प्रसिद्ध ग्रन्थ है। विशिष्ट अथवा तक वह स्वाती पर विद्यमान रहे । पल्लवों से आच्छादित, सामाजिक (वर्ण-आश्रमपरक) नीति पर धर्मशास्त्र का बहुत पञ्चवर्ण सूत्रों से आवृत, जलपूर्ण कलश स्थापित किया बड़ा अंश है। जाय । तोरण की पश्चिम दिशा में मन्त्रोच्चारण पूर्वक नीथ-यह एक प्रकार का गान था जो सोमयागों के अवसर हाथियों को स्नान कराया जाय । अश्वों का भी स्नान हो, पर गाया जाता था। 'नीथ' (चालक) गान के स्वर का तदनन्तर राजपुरोहित उन्हें (हाथियों को) भोजन-चारा बोध प्रथम अर्थ से तथा दूसरे अर्थ से स्तुति की ऋचा का खिलाये । यदि हाथी प्रसन्नतापूर्वक उस भोजन को ग्रहण Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीलकण्ठ-नीलतन्त्र ३७३ करते हैं तो राजा की विजय निश्चित है। यदि वे भोजन नीलकण्ठ भट्ट-शङ्करभट्ट के पुत्र और नारायण भट्ट के पौत्र । अस्वीकार करते हैं तो इसे महान् संकट की सूचना सम- इनका जीवनकाल १६१० और १६५० ई० के बीच रखा झना चाहिए । हाथियों की अन्य क्रियाओं से इसी प्रकार जा सकता है । इनके पिता शङ्करभट्ट प्रसिद्ध मीमांसक थे, के शकुन-अपशकुन समझ लेने चाहिए। तदनन्तर राज- उन्होंने शास्त्रदीपिका' पर भाष्य, 'विधिरसायनदूषण', चिह्नों का, जैसे छत्र तथा ध्वज का, पूजन होना चाहिए। 'मीमांसा बालप्रकाश' आदि ग्रन्थों की रचना की। जब तक सूर्य स्वाती नक्षत्र पर हो हाथियों तथा घोड़ों का द्वैतनिर्णय' और 'धर्मप्रकाश' ग्रन्थ भी इन्हीं द्वारा प्रणीत इसी प्रकार से सम्मान किया जाय । कोई कठोर शब्द थे। इनका धर्मशास्त्र पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भगवन्तभास्कर' उनके प्रति प्रयुक्त न हो और न उन्हें पीटा जाय । सशस्त्र बारह मयूखों में विभक्त है । ये मयूख है : १. संस्कार रक्षकों से मण्डप की निरन्तर सुरक्षा होती रहनी चाहिए। २. आचार ३. काल ४. श्राद्ध ५. नीति ६. व्यवहार राजज्योतिषी, पुरोहित, मुख्य पशुचिकित्सक तथा गज- ७. दान ८. उत्सर्ग ९. प्रतिष्ठा १०. प्रायश्चित्त ११. चिकित्सक को सर्वदा मण्डप के अन्दर रहना चाहिए। शुद्धि और १२. शान्ति । नीलकण्ठ भट्ट ने 'भगवन्तजिस दिन सूर्य स्वाती नक्षत्र से हटकर विशाखा नक्षत्र का भास्कर' की रचना भगवन्तदेव नामक बुन्देले राजा के स्पर्श करे उस दिन अश्वों तथा गजों को सजाकर उनके सम्मान में की थी। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त इन्होंने 'व्यवऊपर राजछत्र तथा राजखड्ग स्थापित करके मन्त्रोच्चा- हारतत्त्व' और 'दत्तकनिर्णय' का भी प्रणयन किया। रण तथा वाद्ययन्त्र बजाये जाने चाहिए। राजा स्वयं ___अपने पिता के समान ही ये प्रसिद्ध मीमांसक थे। धर्मअश्व पर सवार हो तथा कुछ देर बाद गज पर सवार शास्त्र में इनका अगाध प्रवेश था । इनका ग्रन्थ व्यवहारहोकर तोरणों में प्रविष्ट हो । उस समय राजा की सेना । मयूख हिन्दू विधि पर उच्च न्यायालयों द्वारा प्रामाणिक तथा नागरिक उसका अनुसरण करें । बाद में जुलूस राज माना जाता है। भवन तक जाय । नागरिकों का सम्मान कर उन्हें विस- नीलकण्ठ सूरि-महाभारत के टीकाकार । इनका जन्म जित किया जाय । यह धार्मिक कृत्य शान्तिपरक है । सूख- महाराष्ट्र देश में हुआ था । ये गोदावरी के पश्चिमी तट सौभाग्य की अभिवृद्धि तथा अश्वों तथा गजों की सुरक्षा पर कूर्पर नामक स्थान में रहते थे। इनका स्थितिकाल के लिए राजागण इस व्रत का आचरण करें। विशेष जान सोलहवीं शताब्दी है । ये चतुर्धर वंश में उत्पन्न हुए और कारी के लिए देखिए, कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा बृहस्पति इनके पिता का नाम गोविन्द सूरि था । इनकी महाभारतसंहिता, अध्याय ४४, अग्निपुराण, २६८,१६-३१ । टीका 'भारतभावदीप' नाम से विख्यात है। गीता की व्याख्या के आरम्भ में अपनी व्याख्या को सम्प्रदायानुसारी नीलकण्ठ-(१) आगमिक शवों के एक आचार्य, जिन्होंने बतलाते हुए इन्होंने शङ्कराचार्य एवं श्रीधर स्वामी की क्रियासार नामक संस्कृत ग्रन्थ रचा । यह ग्रन्थ 'शैवभाष्य' वन्दना की है । यद्यपि गीता की व्याख्या में इन्होंने कहींका संक्षिप्तीकरण है । इस ग्रन्थ का उपयोग लिङ्गायतों कहीं शाङ्करभाष्य का अतिक्रमण भी किया है तथापि में होता है। नीलकण्ठ १७वी शताब्दी के मध्यकाल में इनका मुख्य अभिप्राय अद्वैत सम्प्रदाय के अनुकूल ही है। हुए थे। 'भारतभावदीप' के अतिरिक्त इनकी और कोई कृति नहीं (२) एक नीलकण्ठ धर्मशास्त्र के निबन्धकार भी हैं, मिलती । परन्तु महाभारत को इस 'नीलकण्ठी' टीका ने जिन्होंने काशी में नीलकण्ठमयूख नामक बृहत् निबन्ध ही इनको अत्यन्त प्रसिद्ध बना दिया है। ग्रन्थ की रचना की। इसके 'संस्कारमयूख' और 'व्यव नोलज्येष्ठ-श्रावण मास की अष्टमी के दिन जब रविवार हारमयूख' बहुत प्रसिद्ध हैं। तथा ज्येष्ठा नक्षत्र हो उस समय इस व्रत का अनुष्ठान नीलकण्ठ दीक्षित-अप्यय दीक्षित के छोटे भाई के पौत्र । किया जाता है । इसके देवता मूर्य हैं। इसमें रविवार का अप्पय दीक्षित की मृत्यु के समय उनके ग्यारह पुत्र तथा दिन विशेष महत्त्वपूर्ण है, नक्षत्र की गणना तो बाद में है। नीलकण्ठ सम्मुख ही थे। उस समय उन्होंने सबसे अधिक नीलतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में जिन तन्त्रों का उल्लेख प्रेम नीलकण्ठ पर ही प्रकट किया । है उनमें नीलतन्त्र भी प्रमुख है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ नोलख उपनिषद् - यह एक शैव उपनिषद् है। नीलवृषदान - आश्विन अथवा कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसी दिन नीलवर्ण का साँड़ छोड़ा जाता है। नीलव्रत - इस व्रत में नक्त ( रात्रि में एक समय भोजन ) पद्धति से प्रति दूसरे दिन एक वर्ष तक भोजन ग्रहण करना चाहिए । यह संवत्सरव्रत है । वर्ष के अन्त में नील कमल तथा शर्करा से परिपूर्ण एक पात्र एवं वृषभ का दान करना चाहिए। इस व्रत से व्रती विष्णुलोक को प्राप्त करता है । नृग - ( १ ) राजा नृग की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है। भागवत पुराण के अनुसार नृग इक्ष्वाकु के पुत्र थे । वे दान के लिए प्रसिद्ध थे। एक बार उन्होंने ब्राह्मण की गाय को, जो उनके गोण्ड में मिल गयी थी, भूल से दूसरे ब्राह्मण को दान में दे दिया। ब्राह्मण ने राजा पर दोषारोपण किया । राजा ने दोनों ब्राह्मणों को बुलाया । दोनों में से कोई उस गाय के बदले दूसरी गाय लेने को तैयार न हुआ । राजा विवश था। जब वह मरा तो यमराज ने दण्डस्वरूप उसको गिरगिट का जन्म देकर संसार में भेजा। एक कुएँ में यह पड़ा रहता था । भगवान् कृष्ण का जब अवतार हुआ तब इसका उद्धार हुआ । (२) वेदान्त के प्रसिद्ध आचार्य बृहस्पतिमिश्र का आश्रयदाता नृग नामक तिरहुत का राजा था । " नृमेध नृमेधावेद (१०.८०, ३) में यह अग्नि के एक शिष्य ( रक्षित) का नाम है। इसका अन्य नाम सुमेधा था, जिसे ग्रिफि 'अबोध' बताते हैं तैत्तिरीय संहिता में नृमेध परुच्छेप का असफल प्रतियोगी है एवं पंचविंश ब्राह्मण (८.८, २१ ) में यह आङ्गिरस् गोत्रज तथा सामों का रचयिता कहा गया है। नृसिंह उपपुराण - नरसिंह सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक उपपुराण | नृसिहत्रयोदशी गुरुवार की त्रयोदशी को नृसिंहत्रयोदशी कहते है। यह भगवान् विष्णु के नृसिंह अवतार से सम्ब न्धित है। इस दिन उन्हीं का व्रत किया जाता है। नृसिंहपूर्वतापनीय उपनिषद्-नृसिंह सम्प्रदाय की दो उपनिषदें मुख्य आधारग्रन्थ हैं, वे हैं नृसिंह पूर्व एवं उत्तर तापनीय | नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद् के भी दो भाग हैं । प्रथम भाग में सिंह का राजमन्त्र तथा इसकी रहस्या नील उपनिषद्-नृसिंहावतार त्मक एकता का विवेचन है। दूसरे भाग में नृसिंहमंत्रराज तथा तीन अन्य दूसरे प्रसिद्ध वैष्णव मन्त्रों द्वारा यन्त्र बनाने का निर्देश है, जिसे कवच के रूप में कंठ, भुजा या जटा में पहना जाता है । नृसिंह सरस्वती - वेदान्तसार की टीका सुबोधिनी के रचयिता । यह टीका इन्होंने सं० १५१८ में लिखी थी । अतः इनका स्थितिकाल विक्रमी सत्रहवीं शताब्दी होना चाहिए। सुबोधिनी की भाषा बहुत सुन्दर है। इससे इनकी उच्चकोटि की प्रतिभा का परिचय मिलता है। इनके गुरु का नाम कृष्णानन्द स्वामी था । नृसिंहसंहिता - ( नरसिंहसंहिता) नरसिंह सम्प्रदाय के साहित्य में इस ग्रन्थ की गणना प्रमुखतया की जाती है । नृसिंहाचार्य ऐतरेय एवं कौषीतकि आरण्यकों पर शङ्करा चार्य के भाष्य है तथा उनके भाष्यों पर अनेक आचार्यो की टीकाएँ हैं । इनमें नृसिंहाचार्य की भी एक टीका है । नृसिंहाचार्य ने श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणी पर शङ्कर द्वारा रचे गये भाष्यों की भी टीका लिखी है। आपस्तम्बधर्मसूत्र पर नृसिंहाचार्य ने वृत्ति लिखी है। नृसिंहानन्द नाथ - दक्षिणमार्गी शाक्त विद्वानों की परम्परा में अप्पय दीक्षित के काल के पश्चात् दक्षिण ( तंजौर ) के ही तीन विद्वानों के नाम प्रसिद्ध हैं । ये तीनों गुरुपरम्परा का निर्माण करते हैं। ये है नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ तथा उमानन्द नाथ। ये तीनों उसी शाखा के हैं जिससे लक्ष्मीधर विद्यानाथ सम्बन्धित थे । नृसिंहावतार विष्णु का नृसिंहावतार हिरण्याक्ष के छोटे भाई हिरण्यकशिपु के वध एवं धर्म के उद्धार के लिए हुआ था । हिरण्यकशिपु अपने बड़े भाई के वध के कारण विष्णु से बहुत ही क्रुद्ध रहा करता था और उनको अपना बड़ा शत्रु समझता था। इधर ब्रह्माजी के वर के प्रभाव से इस दैत्य ने समस्त स्वर्ग के राज्य पर अधिकार करके वहाँ के देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया था। उस समय देवताओं द्वारा विष्णु की प्रार्थना की गयी, जिससे भगवान् ने प्रसन्न होकर देवताओं से कहा कि हिरण्य कशिपु जब वेद, धर्म तथा अपने भगवद्भक्त पुत्र पर अत्याचार करेगा, उस समय में नृसिंह रूप में आविर्भूत होकर उसका वध करूंगा। भागवत पुराण के अनुसार प्रह्लाद की आस्था को सत्य करने तथा समस्त विश्व में अपनी व्यापक सत्ता का परिचय देने के लिए भगवान् Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसिंहाश्रम-नैगम शाक्त ३७५ विष्णु न मृग और न मानव अर्थात् अपूर्व नृसिंह रूप मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंहतापनीय, इन चार को धारण कर स्तम्भ से ही प्रकट हो गये। इस स्वरूप को प्रधान आथर्वण उपनिषद् माना है। देखकर हिरण्यकशिपु के मन में किसी प्रकार का भय नहीं यह उपनिषद् भी नरसिंह सम्प्रदाय की है और नृसिंहहुआ। वह हाथ में गदा लेकर नसिंह भगवान् के ऊपर मन्त्रराज को प्रोत्साहित करती है, किन्तु विशेष रूप से प्रहार करने को उद्यत हो गया। किन्तु प्रभु ने तुरन्त ही। यह उपनिषद् साम्प्रदायिक विधि का निर्देश करती है। उसे पकड़ लिया और जिस प्रकार गरुड विषधर सर्प को इसमें नसिंह को परम ब्रह्म, आत्मा तथा ओम् बताया मार डालता है उसी प्रकार नसिंह रूपधारी भगवान् गया है। विष्ण ने उस दैत्यराज को अपने नखों द्वारा उसका हृदय नेत्रव्रत-चैत्र शक्ल द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता विदीर्ण कर मार डाला और सरलमति बालक प्रह्लाद की है। विवरण के लिए दे० 'चक्षवत' । रक्षा की। नेष्टा-एक यज्ञकर्म सम्पादक ऋत्विज् । यह नाम ऋग्वेद, नसिंहाश्रम-अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य । इनके गुरु तै० सं०, ऐ० ब्रा०, शतपथ ब्राह्मण, पंचविंश ब्रा० स्वामी जगन्नाथाश्रम थे। इनका जीवनकाल पन्द्रहवीं आदि में सोमयज्ञ के पुरोहितवर्ग के एक प्रधान सदस्य शताब्दी का उत्तरार्द्ध होना चाहिए। नृसिंहाश्रम स्वामी के रूप में प्रयुक्त हुआ है। उद्भट दार्शनिक और बड़े प्रौढ पण्डित थे। इनकी रचना नैगम शाक्त-इनको 'दक्षिणाचारी' भी कहते हैं । ऋग्वेद बहुत उच्च कोटि की और युक्तिप्रधान है। कहते हैं, के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में "इयं शुष्मेभिः" इन्हीं की प्रेरणा से अप्पय दीक्षित ने 'परिमल', 'न्याय- प्रभृति मन्त्रों में देवता रूप में महाशक्ति अथवा सरस्वती रक्षामणि' एवं 'सिद्धान्तलेश' आदि वेदान्त ग्रन्थों की का स्तवन है । सामवेद में वाचंयम व्रत में 'हुवा ईवाचम्" रचना की थी। इनके रचे हए ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इत्यादि तथा ज्योतिष्टोम में “वाग्विसर्जन स्तोम" आता इस प्रकार है : है। अरण्यगान में भी इसके गान हैं। यजुर्वेद (२.२) में (१) भावप्रकाशिका-यह प्रकाशात्म यति कृत पञ्चपा "सरस्वत्यै स्वाहा” मन्त्र से आहुति देने की विधि है। दिकाविवरण की टीका है। पाँचवें अध्याय के सोलहवें मन्त्र में पृथिवी और अदिति (२) तत्त्वविवेक (१६०४ वि० सं०)-यह ग्रन्थ अभी देवियों की चर्चा है । पाँचों दिशाओं से विघ्न-बाधानिवारण प्रकाशित नहीं है। इसमें दो परिच्छेद है। इसके ऊपर के लिए सत्रहवें अध्याय के ५५वें मन्त्र में इन्द्र, वरुण, उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की टीका यम, सोम, ब्रह्मा इन पाँच देवताओं की शक्तियों (देवियों) लिखी है। का आवाहन किया गया है । अथर्ववेद के चौथे काण्ड के तीसवें मुक्त में कथन है : (३) भेदधिक्कार-इसमें भेदभाव का खण्डन है। अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि (४) अद्वैतदीपिका-यह अद्वैत वेदान्त का युक्तिप्रधान अहम् आदित्यैरुत विश्वदेवः । ग्रन्थ है। अहं मित्रावरुणोभा बिमि (५) वैदिकसिद्धान्तसंग्रह-इसमें ब्रह्मा, विष्णु और अहम् इन्द्राग्नी अहम् अश्विनोभा । शिव की एकता सिद्ध की गयी है और यह बतलाया गया भगवती महाशक्ति कहती हैं, "मैं समस्त देवताओं के है कि ये तीनों एक ही परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र हैं। साथ हूँ । सबमें व्याप्त रहती हूँ।" केनोपनिषद् में (बहु शोभ(६) तत्त्वबोधिनी--यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत संक्षेप- मानामुमां हैमवतीम्) ब्रह्मविद्या महाशक्ति का प्रकट होकर शारीरक की व्याख्या है। ब्रह्म का निर्देश करना वर्णित है। देव्यथर्वशीर्ष, देवीसूक्त नृसिंहोत्तरतापनीय उपनिषद्-विद्यारण्य स्वामी ने 'सर्वो- और श्रीसूक्त तो शक्ति के ही स्तवन है। वैदिक शाक्त पनिषदर्थानुभूतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और सिद्ध करते है कि दशोपनिषदों में दसों माविद्याओं का नृसिंहोत्तरतापनीय नामक तीन उपनिषदों को आदि ब्रह्मरूप में वर्णन है। इस प्रकार शाक्त, मत का आधार अथर्ववेदीय उपनिषद् माना है। किन्तु शङ्कराचार्य ने भी श्रुति ही है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैमिषीय-न्याय देवीभागवत, देवीपुराण, मार्कण्डेयपुराण में तो शक्ति हुए चले जाओ; जहाँ इस चक्र को नेमि (परिधि) गिर का माहात्म्य ही है । महाभारत और रामायण दोनों में जाय उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं आश्रम देवी की स्तुतियाँ हैं और अद्भत रामायण में तो अखिल बनाकर ज्ञानसत्र करना । शौनक के साथ अठासी सहस्र विश्व की जननी सीताजी के परम्परागत शक्ति वाले रूप ऋषि थे । वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती की बहुत सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ की गयी है। प्राचीन पाञ्च- नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गयी और रात्र मत का 'नारदपञ्चरात्र' प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। वहीं वह चक्र भमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी गिरने से वह क्षेत्र 'नैमिष' कहा गया। इसी को 'नैमिषाहै । निदान, श्रुति, स्मृति में शक्ति की उपासना जहाँ-तहाँ रण्य' कहते हैं । पुराणों में इस तीर्थ का बहुधा उल्लेख उसी तरह प्रकट है, जिस तरह विष्णु और शिव की मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती उपासना देखी जाती है । इससे स्पष्ट है कि शाक्त मत थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र के वर्तमान साम्प्रदायिक रूप का आधार श्रुति-स्मृति है होते थे। और यह मत उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक साहित्य । वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष उसकी व्यापकता तो ऐसी है कि जितने सम्प्रदायों का वन की स्थिति सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र के वर्णन यहाँ अब तक किया गया है, बिना अपवाद के वे समीप भी मानी गयी है। सभी अपने परम उपास्य की शक्ति को अपनी परम नैष्कर्म्यसिद्धि-सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने उपास्या मानते हैं और एक न एक रूप में शक्ति की के पश्चात जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें 'नैष्कर्म्यउपासना करते हैं। __ सिद्धि' भी है । मोक्ष के लिए सभी कर्मों का संन्यास जहाँ तक शैव मत निगमों पर आधारित है, वहाँ तक (त्याग) आवश्यक है, इस मत का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में शाक्त मत भी निगमानुमोदित है। पीछे से जब आगमों किया गया है। के विस्तत आचार का शाक्त मत में समावेश हुआ, तब नैष्ठिक (ब्रह्मचारो)-आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते से जान पड़ता है कि निगमानुमोदित शाक्त मत का हुए गुरुकुल में स्वाध्यायपरायण रहने वाला ब्रह्मचारी दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग अथवा वैदिक शाक्त मत नाम (निष्ठा मरणं तत्पर्यन्तं ब्रह्मचर्येण तिष्ठति)। याज्ञवल्क्य पड़ा । आजकल इस दक्षिणाचार का एक विशिष्ट रूप का निर्देश है : "नैष्ठिको ब्रह्मचारी तु वसेदाचार्यबन गया है । इस मार्ग पर चलने वाला उपासक अपने सन्निधौ।" इसके विपरीत उपकुर्वाण ब्रह्मचारी सीमित को शिव मानकर पञ्चतत्त्व से शिव की पूजा करता है काल या प्रथम अवस्था तक गुरुकुल में पढ़ता था। और मद्य के स्थान में विजयारस का सेवन करता है। न्यग्रोध-न्यक् = नीचे की ओर, रोध = बढ़नेवाला वृक्ष । इसे विजयारस भी पञ्चमकारों में गिना जाता है। इस मार्ग । बरगद (वट) कहते हैं । इसकी डालियों से बरोहें निकल को वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है । कर नीचे की ओर जाती हैं तथा जड़युक्त खम्भों के रूप नैमिशीय (नेमिषीय)-नैमिषारण्य के वासियों को नैमिशीय में परिवर्तित होकर वक्ष के भार को सँभालती है। अथर्वअथवा नैमिषीय कहते हैं। काठक संहिता, कौषीतकि- वेद में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है । यज्ञ के चमस ब्राह्मण तथा छान्दोग्य उपनिषद में नैमिषीयों को विशेष इसके काष्ठ के बनते थे । निश्चय ही यह वैदिक काल में पवित्र माना गया है । अतएव महाभारत नैमिषारण्यवासी बड़े महत्त्व का वृक्ष था जैसा कि आज भी है । अश्वत्थ ऋषियों को ही प्रथमतः सुनाया गया था । (पीपल ) इसका सजातीय वृक्ष है, जिसका उल्लेख नैमिषारण्य-उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में गोमती नदी ऋग्वेद में हुआ है। न्यग्रोध और अश्वत्थ दोनों ही का तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थस्थल । कहा जाता है कि धार्मिक दृष्टि से पवित्र है । ये ही आदि चैत्य वृक्ष हैं। महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने इनकी छाया मन्दिर तथा सभामण्डप का काम देती थी। की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर विष्णु न्याय-याज्ञवल्क्यस्मृति में धर्म के जिन चौदह स्थानों की भगवान् ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते गणना है, उनमें न्याय और मीमांसा भी सम्मिलित है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायकणिका-न्यायनिबन्धप्रकाश ३७७ मीमांसा के द्वारा वेद के शब्दों और वाक्यों के अर्थों का इस पर उद्योतकर का वार्तिक (६०० ई०) प्रसिद्ध है। निर्धारण किया जाता है । न्याय (तर्क) के द्वारा वेद से इसके पश्चात् वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, उदयनाचार्य प्रतिपाद्य प्रमाणों और पदार्थों का विवेचन किया जाता आदि प्रसिद्ध विद्वान् हुए । बारहवीं शताब्दी के लगभग है। ऐतिहासिक दृष्टि से न्यायदर्शन के दो उद्देश्य रहे हैं : नव्य-न्याय का विकास हुआ। इस नये सम्प्रदाय के प्रसिद्ध एक तो वैदिक दर्शन का समन्वय और समर्थन, दूसरे आचार्य गङ्गेश उपाध्याय, रघुनाथ शिरोमणि, जगदीश वेदविरोधी बौद्ध आदि नास्तिक दर्शनों का खण्डन । भट्टाचार्य, गदाधर भट्टाचार्य आदि हए । पहले न्याय और वैशेषिक अलग-अलग स्वतन्त्र दर्शन न्यायकणिका-वाचस्पति मिश्र ने मण्डनमिश्र के 'विधिमाने जाते थे। न्याय का विषय प्रमाणमीमांसा और विवेक' पर न्यायकणिका नामक टीका की रचना की। वैशेषिक का पदार्थमीमांसा था। आगे चलकर न्याय एवं ग्रन्थ का निर्माणकाल लगभग ८५० ई० है। वैशेषिक प्रायः एक दार्शनिक सम्प्रदाय मान लिये गये। न्यायकन्दली-श्रीधर नामक बंगाल के लेखक ने ९९१ ई० इस दर्शन के अनुसार प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, में प्रशस्तपाद पर न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, यह वैशेषिक दर्शन का मान्य ग्रन्थ है। वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान-इन न्यायकल्पलता-जयतीर्थाचार्य (पन्द्रहवीं शताब्दी) का जन्म सोलह तत्त्वों के ज्ञान से निःश्रेयस अथवा मोक्ष की प्राप्ति दक्षिण भारत में हुआ था। इन्होंने न्यायकल्पलता की सम्भव है। जब इनके ज्ञान से दुःखजन्य प्रवत्ति, दोष रचना की। राघवेन्द्र स्वामी ने इस पर वृत्ति लिखी है। और मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाते है तब मोक्ष अथवा न्यायकुलिश-द्वितीय रामानुजाचार्य ने न्यायकुलिश नामक निःश्रेयस की उपलब्धि होती है। मुख्य प्रमाण चार है : ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ सम्भवतः कहीं प्रकाशित (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान और (४) शब्द नहीं हुआ है। (श्रुति)। इन प्रमाणों के द्वारा प्रमेय (जानने योग्य पदार्थ न्यायकुसुमाञ्जलि-उद्भट विद्वान् उदयन की प्रसिद्ध है-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ, बुद्धि, मन, रचना न्यायकुसुमाञ्जलि है। इसमें ईश्वर की सत्ता सिद्ध प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव (जन्म-जन्मान्तर), फल, दुःख की गयी है। यह ग्रन्थ छन्दोबद्ध है तथा ७२ स्मरणीय और अपवर्ग (मोक्ष) । न्यायदर्शन ईश्वर के अस्तित्व को पद्यों में है। प्रत्येक पद्य का गद्यार्थ रूप भी साथ ही साथ मानता है । इसके अनुसार ईश्वर एक तथा आत्मा अनेक दिया गया है। हैं । ईश्वर सर्वज्ञ तथा आत्मा (जीव) अल्पज्ञ है। ज्ञान । न्यायचिन्तामणि-ग्यारहवीं शताब्दी से न्याय लथा वैशेषिक आत्मा का एक गुण है। दर्शनों को एक ही दर्शन मानने अथवा एक में मिलाने का न्याय शास्त्र जगत् के स्वतन्त्र अस्तित्व (मन और प्रयास होने लगा। इस मत की पुष्टि बारहवीं शताब्दी विचार से पृथक् ) को मानता है । सृष्टि का उपादान के प्रसिद्ध आचार्य गङ्गेश की रचना 'न्याय (या तत्त्व)कारण प्रकृति तथा निमित्त कारण ईश्वर है। जिस प्रकार । चिन्तामणि' से होती है। • कुम्भकार मिट्टी से विविध प्रकार के बरतनों का निर्माण न्यायतत्त्व-नाथ मुनि (१००० ई०) की रचनाओं में करता है, उसी प्रकार सर्ग के प्रारम्भ में ईश्वर प्रकृति से 'न्यायतत्त्व' भी सम्मिलित है । यह न्यायदर्शन का प्रसिद्ध जगत के विभिन्न पदार्थों की सष्टि करता है । इस प्रकार ग्रन्थ है। न्याय एक वस्तुवादी दर्शन है जो जनसाधरण के लिए न्यायदीपावली-आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (बारहवीं सुगम है। शताब्दी ) के तीन ग्रन्थों में 'न्यायदीपावली' भी है। इन ___ इस दर्शन के मूल यद्यपि वेद-उपनिषद् में ढूँढे जा ग्रन्थों में अद्वैत मत का विवेचन किया गमा है। सकते हैं किन्तु इसके ऐतिहासिक प्रवर्तक गौतम थे । इनके न्यायदीपिका-वैष्णवाचार्य जयतीर्थ (पन्द्रहवीं शताब्दी) ने नाम से 'गौतमन्यायसूत्र' प्रसिद्ध है जो लगभग ५वीं-- न्यायदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में ४थी शताब्दी ई० पू० में प्रणीत जान पड़ते हैं। तीसरी माध्व मत का विवेचन है। शताब्दी के लगभग वात्स्यायन ने इन पर भाष्य लिखा। न्यायनिबन्धप्रकाश-गङ्गश के पुत्र वर्धमान (१२वीं शताब्दी) ४८ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ने न्यायवानिक की तात्पर्य टीका पर न्यायनिवस्थप्रकाश नामक व्याख्या लिखी है । न्यायनिर्णय -- महात्मा आनन्द गिरि शङ्कराचार्य के भाष्यों के टीकाकार हैं। उन्होंने वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य पर न्यायनिर्णय नाम की अपूर्व टीका लिखी है । न्यायपरिशुद्धि - इस नाम के दो ग्रन्थों का पता चलता है, पहला आचार्य रामानुजरचित तथा दूसरा आचार्य वेङ्कट नाथ का लिखा हुआ है । न्यायभाष्य - अक्षपाद गौतम प्रणीत न्यायसूत्र पर वात्स्या पन (५०० ई०) ने न्यायभाष्य प्रस्तुत किया है । न्यायमञ्जरी - जयन्त भट्ट (९०० ई०) ने न्यायमञ्जरी नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। यह न्यायदर्शन का विश्यकोश है । न्यायमकरन्द - अद्वैत वेदान्त मत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ । इसके रचयिता आनन्दबोध भट्टारकाचार्य थे। चितुवा चार्य ने, जो तेरहवीं शती में वर्तमान थे, न्यायमकरन्द की व्याख्या की है। इससे मालूम होता है कि आनन्द वोध बारहवीं छतो में हुए थे । न्यायमालाविस्तर पूर्व मीमांसा का माधवाचार्य रचित एक ग्रन्थ, जो जैमिनीयन्यायमालाविस्तर कहलाता है। इसी प्रकार से इनका रचा उत्तर मीमांसा का ग्रन्थ वैयासिकन्यायमाला है । ----- न्यायमुक्तावली - अप्पय दीक्षित रचित न्यायमुक्तावली मध्वमत का अनुसरण करती है। उन्होंने स्वयं ही इसकी एक टीका भी लिखी है । न्यायरक्षामणि- यह ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय की शाङ्कर सिद्धान्तानुसारिणी व्याख्या है। दीक्षित हैं । व्याख्याकार अप्पय न्यायरत्नमाला - ( १ ) पार्थसारथि मिश्र ( १३०० ई० ) ने कुमारिल के तम्बवार्तिक के आधार पर कर्ममीमांसा विषयक यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया है। नामक (२) आचार्य रामानुज ने न्यायरत्नमाला एक ग्रन्थ रचा है। निश्चित ही इस ग्रन्थ में विशिष्टाद्वैत की पुष्टि तथा शाङ्कर मत का खण्डन हुआ है । न्यायरत्नाकर - भट्टपाद कुमारिल के श्लोकवार्तिक पर यह टीका ( न्यायरत्नाकर) पार्थसारथि मिश्र ( १३०० ई० ) द्वारा प्रस्तुत हुई है । न्यायनिर्णय न्याय सूचीनिबन्ध कोतकर ( सातवीं शती) ने वात्स्या यन के न्यायभाष्य पर यह वार्तिक प्रस्तुत किया । इस पर अनेक निवन्ध विद्याभूषण एवं डा० कीम द्वारा लिखे गये हैं । डा० गङ्गानाथ झा ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है। न्यायवार्तिक तात्पर्य- वाचस्पति मिश्र द्वारा प्रस्तुत न्यायदर्शन पर यह टीका है जो उद्योतकर के वालिक के उपर लिखी गयी है । इस टीका की भी टीका उदयनाचार्यकृत तात्पयंपरिशुद्धि है। यतिका टीका- दे० 'न्यायवार्तिकतात्पर्य', दोनों समान हैं । न्यायवातिकतात्पयंपरिशुद्धि - उदयनाचार्यकृत यह न्यायवार्त्तिकतात्पर्य की टीका है । इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्यायकृत 'प्रकाश' है। स्वायविवरण- मध्वाचार्य प्रणीत न्यायविषयक एक ग्रंथ है। न्यायवृत्ति - अभवतिलक द्वारा न्यायवृत्ति त्यायदर्शन के सूत्रों पर रची गयी है । न्यायसार - भासर्वज्ञ (१०वीं शताब्दी) द्वारा रचित न्यायसार न्याय शास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस पर अठारह भाष्य पाये जाते हैं । न्यायसिद्धासन - विशिष्टाद्वैत दर्शन पर आचार्य रामानुजप्रणीत यह एक ग्रन्थ है । इस नाम का एक ग्रन्थ आचार्य वेङ्कटनाथ ने भी रचा था । न्यायसुधा - ( १ ) जयतीर्थाचार्य ( पन्द्रहवीं शताब्दी ) ने माध्यमत का विवेचन इस ग्रन्थ में किया है । यह ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' की टीका है। सम्भवतः यादवाचार्य ने इस पर कोई वृति लिखी थी जो अभी तक प्रकाशित नहीं है । (२) सोमेश्वर ( १४०० ई० ) ने कुमारिल भट्ट के 'तन्त्रवातिक' पर न्यायसुधा नामक टीका प्रस्तुत की। न्यायसूत्र - सम्भवतः पाँचवीं अथवा चौथी शताब्दी ई० पू० में अक्षपाद गौतम ने 'न्यायसूत्र' प्रस्तुत किया । इस पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है तथा इस पर अनेक टीकायें एवं वृत्तियाँ रची गयी हैं 'न्यायसूत्र' ही न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ है और इसके रचयिता गौतम ऋषि ही न्याय दर्शन के प्रवर्तक है। दे० 'न्याय' । न्यायसूचीनिबन्ध - वाचस्पति मिश्र रचित उन्हीं की न्यायवातिकतात्पर्य टीका का यह परिशिष्ट है। इसका रचनाकाल ८९८ वि० है । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायसूत्रभाष्य-पञ्चककार ३७९ न्यायसूत्रभाष्य-न्यायभाष्य का ही अन्य नाम न्यायसूत्र भाष्य है । इसे वात्स्यायन ने प्रस्तुत किया है । न्यायसूत्रवृत्ति-सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विश्वनाथ न्यायपञ्चानन ने गौतमप्रणीत न्यायसूत्र पर यह वृत्ति रची। न्यायस्थिति-न्यायस्थिति एक नैयायिक थे, जिनका उल्लेख विक्रम की छठी शताब्दी में हुए वासवदत्ता-कथाकार सुबन्धु ने किया है। न्यायामृत-सोलहवीं शताब्दी में व्यास राज स्वामी ने शाङ्कर वेदान्त की आलोचना न्यायामृत नामक ग्रन्थ द्वारा की। आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने इस पर न्यायामृतप्रकाश नामक भाष्य लिखा है। न्यायालङ्कार-श्रीकण्ठ ने १०वीं शताब्दी में यह न्यायविषयक ग्रन्थ प्रस्तुत किया। न्यायलीलावती-बारहवीं शताब्दी में वल्लभ नामक न्यायाचार्य ने वैशेषिक दर्शन सम्बन्धी इस ग्रन्थ को प्रस्तुत किया। 'न्यास-शाक्त लोग अपनी साधना में अनेक दिव्य नामों और बीजाक्षर मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। वे धातु के पत्तरों पर तथा घट आदि पात्रों पर मन्त्र तथा मण्डल खोदते है, साथ ही पूजा की अनेक मुद्राओं (अँगुलियों के संकेतों) का भी प्रयोग करते हैं, जिन्हें न्यास कहते हैं । इसमें मन्त्राक्षर बोलते हुए शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है और भावना यह रहती है कि उन अंगों में दिव्य शक्ति आकर विराज रही है । अंगन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास, महान्यास आदि इसके अनेक भेद हैं। पः परप्रियता तीक्ष्णा लोहितः पञ्चमो रमा। गुह्यकर्ता निधिः शेषः कालरात्रिः सूवाहिता ।। तपनः पालनः पाता पद्मरेणुनिरञ्जनः । सावित्री पातिनी पानं वीरतत्त्वो धनुर्धरः ।। दक्षपाश्वश्च सेनानी मरीचिः पवनः शनिः । उड्डीशं जयिनी कुम्भोऽलसं रेखा च मोहकः ।। मूलाद्वितीयमिन्द्राणी लोकाक्षी मन आत्मनः ।। पक्षवधिनी एकादशी-जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या अग्रिम प्रतिपदा को आक्रान्त करती है ( अर्थात् तिथिवृद्धि हो जाती है) तो यह पक्षवर्धिनी कहलाती है। इसी प्रकार यदि एकादशी द्वादशी को आक्रान्त करती है ( अर्थात् द्वादशी के दिन भी रहती है) तो वह भी पक्षवधिनी है। विष्णु भगवान् को सोने की प्रतिमा का उस दिन पूजन करना चाहिए । रात्रि में नृत्य, गान आदि करते हुए जागरण का विधान है । वैष्णव लोग ऐसे पक्ष की एकादशी का व्रत अगले दिन द्वादशी को करते हैं । दे० पद्म०, ६.३८ । पंक्तिदूषण ब्राह्मण-जिन ब्राह्मणों के बैठने से ब्रह्मभोज की पंक्ति दूषित समझी जाती है, उनको पंक्तिदूषण कहा जाता है। ऐसे लोगों की बड़ी लम्बी सूची है। हव्य-कव्य के ब्रह्मभोज की पंक्ति में यद्यपि नास्तिक और अनीश्वरवादियों को सम्मिलित करने का नियम न था तथापि उन्हें पंक्ति से उठाने की शायद ही कभी नौबत आयी हो, क्योंकि जो हव्य-कव्य को मानता ही नहीं, यदि उसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा तो वह ऐसे भोजों में सम्मिलित होना पसन्द न करेगा। पंक्तिदूषकों की इतनी लम्बी सुची देखकर यह समझा जा सकता है कि पक्तिपावन ब्राह्मणों की संख्या बहुत बड़ी नहीं हो सकती । ब्राह्मणसमुदाय के अतिरिक्त अन्य वणों में पंक्ति के नियमों के पालन में ढीलाई होना स्वाभाविक है। पंक्तिपावन ब्राह्मण-जिन ब्राह्मणों के भोजपंक्ति में बैठने से पक्ति पवित्र मानी जाती है, उनको पंक्तिपावन कहते हैं । इनमें प्रायः श्रोत्रिय ब्राह्मण (वेदों का स्वाध्याय और पारायण करनेवाले) होते है। संस्कार सम्बन्धी भोजों में पंक्तिपावनता ब्राह्मणों की विशेषता मानी जाती थी, परन्तु वह भी सामूहिक न थी। पंक्तिपावन ब्राह्मण पंक्तिदूषण की अपेक्षा बहुत कम होते थे। पञ्चककार-कच्छ, केश, कंघा, कड़ा और कृपाण धारण करना प्रत्येक सिक्ख के लिए आवश्यक है। 'क' अक्षर से प-यह व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का प्रथम अक्षर है। कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है : अतः परं प्रवक्ष्यामि पकाराक्ष रमव्ययम् । चतुर्वर्गप्रदं वर्ण शरच्चन्द्रसमप्रभम् ॥ पञ्चदेवमयं वर्ण स्वयं परम कुण्डली । पञ्चप्राणमयं वर्ण त्रिशक्तिसहितं सदा ।। त्रिगुणावाहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम् । महामोक्षप्रदं वर्ण हृदि भावय पार्वति ।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नलिखित नाम पाये जाते है : Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० प्रारम्भ होनेवाले ये ही पाँच शब्द (पदार्थ) पञ्चककार कहलाते हैं । पञ्चकृष्ण-मानभाउ सम्प्रदाय वाले जहाँ दत्तात्रेय को अपने सम्प्रदाय का संस्थापक मानते हैं वहीं वे चार युगों के एक-एक नये प्रवर्तक भी मानते हैं। इस प्रकार के 'कुल पाँच प्रवर्तकों की पूजा करते हैं। इन पांच प्रवर्तकों को वे 'पञ्चकृष्ण' कहते हैं । . पञ्चगव्य - गाय से उत्पन्न पाँच पदार्थों ( दूध, दही, घृत, गोवर, गोमूत्र ) के मिलाने से पञ्चगव्य तैयार होता है, जो हिन्दू शास्त्रों में बहुत ही पवित्र माना गया है । अनेक अवसरों पर इसका गृह तथा शरीर की शुद्धि के लिए प्रयोग करते हैं। प्रायश्वित्तों में इसका प्रायः पान किया जाता है। पञ्चग्रन्थी- सिक्खों की प्रार्थनापुस्तक का नाम पञ्चग्रन्थी है । इसमें ( १ ) जपजी (२) रहिरास (३) कीर्तन - सोहिला (४) सुखमणि और (५) आसा दीवार नामक पांच पुस्ति काओं का संग्रह है। पांचों में से प्रथम तीन का खालसा सिक्खों द्वारा नित्य पाठ किया जाता है। ये सभी पारायण के ग्रन्थ हैं । पञ्चघटपूर्णिमा- इस व्रत में पूर्णिमा देवी की मूर्ति की पूजा का विधान है। एकभक्त पद्धति से आहार करते हुए पाँच पूर्णिमाओं को यह व्रत करना चाहिए। व्रत के अन्त में पांच कलशों में क्रमशः दुग्ध, दधि, घृत, मधु तथा श्वेत शर्करा भरकर दान देना चाहिए। इससे समस्त मनोरथों की पूर्ति होती है । पञ्च तप अथवा पचान्ति तपस्था पाँच वैदिक अग्नियों की उपासना या होमक्रिया का परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। वैदिक पञ्चाग्नियों के नाम है दक्षिणाग्नि (अन्वाहार्यपचन), गार्हपत्य, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्य पञ्चदशी - अद्वैतवेदान्त सम्बन्धी यह ग्रन्थ विचारण्य स्वामी ( मानवाचार्य) द्वारा १४०७ वि० में रचा गया। यह अनुष्टुप् छन्द में श्लोकबद्ध] स्वतन्त्र रचना है। जैसा कि नाम से ही प्रकट है, यह पन्द्रह प्रकरणों में विभक्त है और प्रकरण ग्रन्थ है । इसमें प्रायः १५०० श्लोक हैं । पञ्चकृष्ण पञ्चपिण्डिकागौरीव्रत पञ्चदेवोपासना - अधिकांश विचारकों का कहना है कि आचार्य शङ्कर ने पञ्चदेवोपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी परमात्मा के इन पांचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर पूजा की जाती है। आचार्य ने पुराने पाञ्चराण पाशुपत, शाक्त आदि मतों को एकत्र समन्वित कर यह पञ्चदेव उपासना प्रणाली आरम्भ की । इसीलिए यह स्मार्त पद्धति कहलाती है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इस स्मार्त्त मत के मानने वाले समझे जाते हैं । पञ्चपटल - आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ । पञ्चपल्लव - पवित्र पश्च पल्लव हैं आम्र, अश्वत्थ, वट, प्लक्ष (पाकड़) और उदुम्बर ( गूलर) धार्मिक कृत्यों में इनका उपयोग कलश स्थापन में होता है । दे० हेमाद्रि, १.४७ । पञ्चतप ( पञ्चाग्नितप ) — हिन्दू तपस्या की एक पद्धति । इसमें तपस्वी चार अग्नियों का ताप तो सहन करता ही है। जो वह अपने चारों ओर जलाता है, पाँचवाँ सूर्य भी सिर पर तपता है। इसी को पञ्चाग्नि तपस्या कहते हैं। , पञ्चपादिका - वेदान्तसूत्र के पर रची गयी एक टीका वि०) इसके निर्माता थे । पञ्चविकादर्पण - अमलानन्द स्वामी अद्वैतमत के समर्थ विचारक थे । ये चौदहवीं शताब्दी वि० के प्रारम्भ में हुए थे । इन्होंने पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका की पञ्चपादिकादर्पण नाम से टीका लिखी है। इसकी भाषा प्राल और भावगम्भीर है। इससे अमलानन्द की महती विद्वत्ता का परिचय मिलता है । शांकर भाष्य के पाँच पादों शंकरशिष्य पद्मपाद (९०७ पचपादिकाविवरण पद्मपादाचार्य कुत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिकाविवरण नामक टीका की रचना अद्वैत वेदान्त के प्रखर विद्वान् महात्मा प्रकाशात्मयति ने की अद्वैत जगत् में यह टीका बहुत मान्य है। बाद के आचार्यों ने प्रकाशात्मयति ( प्रकाशानुभव इनका अन्य नाम था ) को आवश्यक प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है । पञ्चपादिकाविवरण नामक इनके ग्रन्थ द्वारा अद्वैतमत का, विशेष कर पद्मपादाचार्य के मत का अच्छा प्रचार हुआ । पञ्चपिण्ड गौरी- भाद्र शुक्ल तृतीया को यह व्रत गौरीव्रतकिया जाता है, इस दिन उपवास का विधान है। रात्रि के प्रारम्भ में गीली मिट्टी से गौरी की पाँच प्रतिमाएँ तथा इनसे पृथक् गौरी की प्रतिमा बनाकर स्थापित करनी चाहिए | रात्रि के प्रति प्रहर में प्रतिमाओं का मन्त्रोच्चारण करते हुए धूप, कपूर, घृत, दीपक, पुष्प, अयं तथा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चब्रह्म उपनिषद्-पञ्चरात्ररक्षा नैवेद्यादि से पूजन करना चाहिए। आनेवाले तीनों प्रहरों में मन्त्र, पुष्प, नैवेद्यादि में भिन्नता होनी चाहिए। दूसरे दिन प्रातः एक सपत्नीक ब्राह्मण को बुलाकर दान-दक्षिणा देकर उसका सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर गौरी की प्रतिमाओं को किसी हथिनी अथवा घोड़ी की पीठ पर विराजमान करके उन्हें किसी नदी, सरोवर अथवा कूप में विसर्जित कर देना चाहिए। पञ्चब्रह्म उपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । इसमें ब्रह्मतत्व का निरूपण उसके पाँच रूपों के द्वारा किया गया है । 1 पञ्चभङ्ग दल - पाँच वृक्ष, यथा आम्र, अश्वत्थ (पीपल), वट प्लक्ष तथा उदुम्बर की पत्तियां ही पञ्चभङ्ग दल हैं । दे० कृत्यकल्पतरु, शान्ति पर । यही पञ्चपल्लव कहे जाते हैं। सम्प्रदायभेद से पञ्चपल्लवों में कुछ हेरफेर भी हो जाता है, उदुम्बर और प्लक्ष के स्थान पर कुछ लोग पनस (कटहर ) और बकुल (मौलिथी) के पत्र ग्रहण करते हैं। ऊपर का वर्ग वेदसंप्रदायी है । पञ्च मकार तन्त्रशास्त्र में पचमकारों का अर्थ एवं उनके दान के फल आदि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ये तान्त्रिकों के प्राणस्वरूप है, इनके बिना साधक को किसी भी कार्य का अधिकार नहीं है। मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन नामक पाँच मकारों से जगदम्बिका की पूजा की जाती हैं। इसके बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता और तत्त्वविद् पण्डित गण इससे रहित कर्म की निन्दा करते हैं। पक्षमकार का फल महानिर्वाणतन्त्र के ग्यारहवें पटल में इस प्रकार है : मपान करने से अष्टैश्वर्य और परामुक्ति तथा मांस के भक्षण से साक्षात् नारायणत्व का लाभ होता है। मत्स्य भक्षण करते ही काली का दर्शन होता है। मुद्रा के सेवन से विष्णुरूप प्राप्त होता है। मैथुन द्वारा साधक शिव के तुल्य होता है, इसमें संशय नहीं । वस्तुतः पञ्चमकार मूलतः मानसिक वृत्तियों के संकेतात्मक प्रतीक थे, पीछे अपने शब्दार्थ के भ्रम से ये विकृत हो गये। तन्त्रों की कुख्याति का मुख्य कारण ये स्थूल पचमकार हो हैं । पञ्चमहापापनाशनद्वादशी - श्रावण की द्वादशी अथवा पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। व्रती को भगवान् के बारह रूपों का पूजन करना चाहिए। अमावस्या के दिन तिल, मूंग, गुड़ तथा अक्षत का नैवेध ३८१ बनाकर अर्पित करने का विधान है । पञ्च रत्नों को दान में देना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मनुष्य पाँच महा पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे इन्द्र, अहल्या, चन्द्र तथा बलि अपने महापापों से मुक्त हुए थे । पञ्चमहाभूतव्रत - चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इसमें पञ्च भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश) के रूप में भगवान् हरि की पूजा होती है । एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है । वर्ष के अन्त में वस्त्रों का दान करना चाहिए। पञ्चमीव्रत - मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को इसका अनुष्ठान किया जाता है। सूर्योदय होने पर व्रत सम्बन्धी कर्मों को प्रारम्भ कर देना चाहिए। सुवर्ण, रजत, पीतल, ताम्र या काष्ठ की लक्ष्मी जी की प्रतिमा अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर उनकी आकृति बनाकर चरणों से लगाकर मस्तक तक फूल, फल तथा अन्यान्य भक्ष्यभोज्य पदार्थों से पूजन करना चाहिए सपना नारियों को पुष्प, केसर तथा मिष्टान्नादि से सज्जित करके एक प्रस्थ अक्षत तथा घृत से पूरित पात्र को दान में देना चाहिए। मन्त्र यह है "श्रियो हृदयं प्रसीदतु ।" वर्ष के प्रत्येक मास में लक्ष्मी का पूजन भिन्न-भिन्न नामों से करने का विधान है । तदनन्तर लक्ष्मी की प्रतिमा का भी दान कर दिया जाय, ऐसा विधान है । - 1 पचमूर्ति चैत्र शुक्ल पञ्चमी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। इस दिन उपवास करते हुए भगवान् के आयुधों शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म और पृथ्वी की आकृतियाँ एक ही परिधि में चन्दन के लेप से खींचना तथा उनका पूजन करना चाहिए। प्रत्येक मास की पञ्चमी के दिन यह सब कृश्य होना चाहिए । वर्षान्त में पांच रंग के वस्त्रों का दान करना चाहिए। इसके अनुष्ठान से राजसूय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है । पञ्चरत्न -- पञ्च रत्न हैं-हीरक, विद्रुम, लहसुनिया, पद्मराग तथा मुक्ता ( कृत्यकल्पतरु, नैत्यकालिक काण्ड, ३६६) । हेमाद्रि (१.४७ ) के अनुसार पञ्च रत्नों में सुवर्ण, रजत, मोती, मूँगा तथा लाजावर्त सम्मिलित हैं । पञ्च रत्नों का afe कृत्यों में बहुधा उपयोग होता है । ये माङ्गलिक माने जाते हैं । पञ्चरत्नस्तव - यह अप्पय दीक्षित कृत स्त्रोत्र ग्रन्थ है । पञ्चरात्ररक्षा - आचार्य रामानुज कृत एक वैष्णव ग्रन्थ है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ पञ्चलाङ्गलव्रत-पञ्चाल बाभ्रव्य प्राचीन आचार्यों के पांच सिद्धान्तों का निरूपण है । पण्डित सुधाकर द्विवेदी और मिस्टर थीवो ने मिलकर इसे सम्पादित और प्रकाशित कराया है। पञ्चलाङ्गलवत-शिलाहार राजा गन्धारादित्य (शक सं० १०३२-१११०) के एक ताम्रपत्र में इस व्रत का उल्लेख है। वैशाख मास में चन्द्रग्रहण के समय यह व्रत किया गया था । मत्स्यपुराण (अध्याय २८३) में यह विस्तार से वर्णित है । किसी पुण्य तिथि, चन्द्र अथवा सूर्य ग्रहण के समय अथवा युगादि तिथि को पाँच काष्ठ के हल तथा पाँच ही सुवर्ण के हल और दस बैलों के सहित भूमि का दान करना ‘पञ्च लाङ्गल व्रत' कहलाता है। पञ्चविंश ब्राह्मण-सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थों में ताण्ड्य ब्राह्मण सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसमें पचीस अध्याय हैं इसलिए यह पञ्चविंश ब्राह्मण भी कहलाता है। इसके प्रथम अध्याय में यजुरात्मक मन्त्रसमूह है, दूसरे और तीसरे अध्याय में बहुस्तोम का विषय है। छठे अध्याय में अग्निष्टोम की प्रशंसा है । इस तरह अनेक प्रकार के याग-यज्ञों का वर्णन है । पूर्ण न्याय, प्रकृति-विकृतिलक्षण, मूल प्रकृति विचार, भावना का कारणादि ज्ञान, षोडश ऋत्विक्परिचय, सोमप्रकाशपरिचय, सहस्र संवत्सरसाध्य तथा विश्वसृष्टसाध्य सूत्रों के सम्पादन की विधि इसमें पायी जाती है। इनके सिवा तरह-तरह के उपाख्यान और इतिहास की जानने योग्य बातें लिखी गयी है। इस ग्रन्थ में सोमयाग की विधि और उस सम्बन्ध के सामगान विशेष रूप से हैं, साथ ही कौन सत्र एक दिन रहेगा, कौन सौ दिन रहेगा और साल भर रहेगा, कौन सौ वर्ष रहेगा और कौन एक हजार वर्ष रहेगा इस बात की व्यवस्थाएँ भी हैं । सायणाचार्य इसके भाष्यकार और हरिस्वामी वृत्तिकार हैं। पञ्चविधिसूत्र-ऋक् मन्त्रों को सामगान में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्र ग्रन्थ हैं। इनमें से एक का नाम 'पञ्चविधिसूत्र' है और दूसरे का 'प्रतिहारसूत्र'। ये ग्रन्थ कात्यायन के लिखे कहलाते हैं। पञ्चविधिसूत्र में दो प्रपाठक है। पञ्चशिख-सांख्ययोग के दो ऐतिहासिक आचायों का उल्लेख महाभारत में आता है, ये हैं पञ्चशिख एवं वार्षगण्य । पाञ्चरात्रों का विश्वास है कि उनके मत की दार्श- निक शिक्षाओं के प्रवर्तक पञ्चशिख थे, क्योंकि वैष्णव धर्म सांख्ययोग के सिद्धान्तों पर आधारित है। पञ्चसिद्धान्तिका-ज्योतिविद् वराहमिहिर का लिखा ज्यो- तिषशास्त्रविषयक एक ग्रन्थ । इसमें ग्रहगति सम्बन्धी पञ्चामृत-देवमूर्तियों पर पञ्चामृत चढ़ाने की प्रथा अति प्राचीन है। विविध पूजाओं के पश्चात् पञ्चामृत (दुग्ध, दधि, घृत, शर्करा एवं मधु) से मूर्ति को स्नान कराया जाता है तथा इसके बाद धातु के छिद्रित पात्र से दुग्ध-जल द्वारा अभिषेक करते हैं। पञ्चामृत स्नान कराते समय वेदमन्त्रों का अलग-अलग उच्चारण किया जाता है। शालग्राम को जिस पञ्चामत में नहलाते हैं उसे प्रसाद के रूप में भक्तजन ग्रहण करते हैं। पञ्चायतनपूजा-इस पूजा की प्रथा किसी विद्वान धार्मिक व्यवस्थापक की सूझ है। किन्तु किसने और कब इसे आरम्भ किया यह निश्चित रूप से कहना कठिन है । पञ्चायतन पूजा के रूप में पाँच देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य और गणेश) की नियमित पूजा स्मार्तों के लिए बतायी गयी है। अनेक विद्वानों का कथन है कि शङ्कराचार्य ने इस प्रथा का आरम्भ किया। कुछ इसको कुमारिल भट्ट द्वारा प्रवर्तित मानते हैं, जबकि अन्य इसे और भी प्राचीन बतलाते हैं । इतना स्पष्ट है कि पञ्चायतन पूजा उस समय प्रारम्भ हुई जब ब्रह्मा का महत्त्व कम हो चुका था एवं उपर्युक्त पाँच देवता प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। कुछ विद्वान् इसका आरम्भ सातवीं शताब्दी ई० से बतलाते हैं । पञ्चायतन के पाँचों देवताओं पर पाँच उपनिषदें इस काल में रची गयीं जो अथर्वशिरस् नाम से संगृहीत हैं । वे निश्चय ही साम्प्रदायिक उपनिषदें हैं। इस पूजापद्धति में अन्य देवताओं के ये प्रतिनिधि (पञ्चायतन) है। इसीलिए सामान्य हिन्दू पाँचों के साथ अन्य देवों की पूजा भी कर सकता है। पञ्चाल वाभ्रव्य-ऋक् संहिता के क्रमपाठ के प्रवर्तक आचार्य । प्रातिशाख्य (११.१३) में ये केवल 'वाभ्रव्य' कह गये हैं। प्रातिशाख्य से यह मालूम होता है कि कुरु-पञ्चाल लोग जैसे क्रमपाठ के चलाने वाले हुए, उसी तरह कोसलविदेह के लोग अर्थात् शाकल समुदाय वाले पदपाठ के प्रवर्तक थे । पदपाठ से शब्दों की ठीक विवेचना की रक्षा और क्रमपाठ से मन्त्रों के ठीक-ठीक क्रम की रक्षा अभिप्रेत है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चीकरण-पणि ३८३ पञ्चीकरण-शङ्कराचार्य रचित मौलिक लघु रचनाओं में इन्होंने अलंकारादि के उदाहरण के लिए केवल स्वरचित एक 'पञ्चीकरण' भी है । कविताओं का ही प्रयोग किया है। काव्य क्षेत्र में इनकी पञ्चीकरणवार्तिक-शाङ्करमत के आचार्यों में सबसे अधिक रचनायें भामिनीविलास, करुणालहरी, गङ्गालहरी आदि प्रतिष्ठाप्राप्त सुरेश्वराचार्य (पूर्वाश्रम में मण्डनमिश्र) ने के रूप में अत्यन्त मधर है । शाहजहाँ के दिल्ली दरवार जिन अनेक ग्रन्थों की, रचना की उनमें से पञ्चीकरण- में ये राजपण्डित भी रहे थे। वार्तिक भी एक है। पण्डितराज साहित्यशास्त्री के रूप में अधिक पक्षासाहब-सिक्ख तीर्थ पेशावर जाने वाले मार्ग पर तक्ष प्रख्यात है। किन्तु हृदय से ये करुणरसपूर्ण भक्त और शिला से एक स्टेशन आगे तथा हसन अब्दाल से दो मील धार्मिक प्रवृत्ति के थे । इनके ग्रन्थ भामिनीविलास, रसदक्षिण यह स्थान है। इस नाम की एक विचित्र कहानी है। गङ्गाधर और पाँच लहरी रचनाएँ इस बात की पुष्टि एक समय बली कन्धारी नामक फकीर ने इस जगह के आस- करती है। पास के जल को अपनी शक्ति से खींचकर पहाड़ के ऊपर पण्डिताराध्य-वीरशैवों (लिङ्गायतों) की उत्पत्ति के बारे अपने कब्जे में कर लिया । यह कष्ट गुरु नानक से न में विभिन्न मत है । परम्परा यह है कि यह सम्प्रदाय सहा गया । अन्त में उन्होंने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जल पांच संन्यासियों द्वारा स्थापित हआ, जो भिन्न-भिन्न युगों खींच लिया। जल को जाता देखकर वली कन्धारी पीर ने में शिव के मस्तक से उत्पन्न हुए माने जाते हैं । इनके नाम एक विशाल पर्वतखण्ड ऊपर से गिरा दिया । पर्वत को है—एकोराम, पण्डिताराध्य, रेवण, मरुल एवं विश्वाराध्य। आता देख गुरु नानक ने अपने हाथ का पञ्जा लगाकर ये अति प्राचीन थे। महात्मा वसव को इनके द्वारा स्थापित उसे रोक दिया। आज भी वह हाथ के पजे का निशान मत का पुनरुद्धारक माना जाता है । कुछ प्रारम्भिक प्रन्थों इस तीर्थ में विद्यमान है। वैशाख की प्रतिपदा को यहाँ में यह भी कहा गया है कि ये पांचों वसव के समकालीन मेला होता है। थे । उपर्युक्त नाम पाँच प्राचीन मठों के प्रथम महन्तों के पटलपाठ-किसी पट्ट, पत्र अथवा तख्ती पर जो तान्त्रिक हैं। पण्डिताराध्य नन्घल के निकट श्रीशैल मठ के प्रथम मन्त्र लिखे जाते हैं उनको 'पटल' कहते हैं। उनके पारायण महन्त (मठाधीश) थे। को पटलपाठ कहा जाता है । पटल किसी योग्य व्यक्ति पणि-ऋग्वेद में पणि नाम से ऐसे व्यक्ति अथवा समूह द्वारा ही अङ्कित होना चाहिए । अयोग्य पुरुष द्वारा तयार का बोध होता है जो धनी है किन्तु देवताओं का यज्ञ नहीं पटलादि का पढ़ना निषिद्ध है। करता तथा पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देता । अतएव यह पण्डित-यह एक विरुद है। 'पण्डित' का प्रयोग प्रथमतः । वेदमागियों की घृणा का पात्र है। देवों को पणियों के उपनिषदों में हुआ है (बृ० उ०३,४,१;६.४,१६,१७; छा० ऊपर आक्रमण करने को कहा गया है। आगे यह उल्लेख उ०, ६.१४,२; मुण्डक०, १.२,८ आदि) । इसका मूल अर्थ उनकी हार तथा वध के साथ हुआ है । कुछ परिच्छेदों में है 'जिसको पण्डा (सदसद्विवेकिनी बुद्धि) प्राप्त हो गयो पणि पौराणिक दैत्य हैं, जो स्वर्गीय गायों अथवा आकाहो' । यह विरुद ब्राह्मणों और अन्य वर्ण के विद्वानों के शीय जल को रोकते हैं। उनके पास इन्द्र की दूती सरमा नाम के पूर्व लगाने की प्रथा है। भेजी जाती है (ऋ० १०.१०८)। ऋग्वेद (८.६६,१०; पण्डितराज जगन्नाथ---पण्डितराज जगन्नाथ भट्रोजि ७.६,२) में दस्यु, मृधवाक् एवं ग्रथिन् के रूप में भी दीक्षित के गुरु शेषकृष्ण दीक्षित के पुत्र तथा वीरेश्वर इनका वर्णन है। दीक्षित के शिष्य थे। यह निश्चय करना कठिन है कि पणि कौन थे। राथ दर्शन, तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के गम्भीर के मतानुसार यह शब्द 'पण = विनिमय' से बना है तथा विद्वान् होने के साथ ही ये साहित्यशास्त्र के प्रमुख लक्षण पणि वह व्यक्ति है जो बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता। ग्रन्थकार और श्रेष्ठ काव्यरचयिता भी थे। संस्कृत इस मत का समर्थन जिमर तथा लडविग ने भी किया साहित्य के अपने प्रख्यात आलोचनाग्रन्थ रसगङ्गाधर में है। लडविग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ पण्ढरपुर-पत्रव्रत का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने सार्थ अरब, है । ग्रन्थ की शैली भी चुटकूलों जैसी विनोदपूर्ण, प्रश्नोपश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका में भेजते थे और तरमयी साथ ही गम्भीर चिन्तनबहल है। इसी लिए अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को यहाँ भाष्य शब्द के साथ 'महा' विशेषण सार्थक होता है। प्रस्तुत रहते थे। दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के (२) योगदर्शन के निर्माता ऋषि भी पतञ्जलि कहे आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है। किन्तु आवश्यक जाते है । महाभाष्यकार एवं योगदर्शनकार दोनों पतञ्जलि है, कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों एक है अथवा नहीं, ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों के बारे में और भी परन्तु दोनों एक हो सकते हैं । महाभाष्यकार पतञ्जलि कुछ सोचा जाय । इन्हें धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक दूसरी शती ई० पू० के प्रारम्भ में हुए थे। सूत्रशैली की व्यापारी कहा जा सकता है । ये आर्य और अनार्य दोनों रचनाएँ प्रायः इस काल तक और इसके आगे भी होती हो सकते हैं । हिलबैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित रही। अतः भाष्यकार योगसूत्रकार भी हो सकते हैं। पनियन जाति के तुल्य माना है, जिसका सम्बन्ध दहा दे० 'योगदर्शन' । (दास) लोगों से था । फिनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएं, लिपि, पताका-इस शब्द का पुराना प्रयोग अद्भूत ब्राह्मण में कला आदि ले गये। हुआ है । इसका वैदिक पर्याय 'केतु' है। धार्मिक कृत्यों पण्ढरपुर-महाराष्ट्र प्रदेश का प्रधान तीर्थ। महाराष्ट्र में देवताओं के रथ के प्रतीक रूप में पताका की स्थापना सन्तों के आराध्य भगवान् विष्णु यहाँ अधिष्ठित हैं जो होती है। विट्ठल कहे जाते हैं । भक्त पुण्डरीक की भक्ति से रीझकर पति-पाशुपत सम्प्रदाय में तीन तत्त्व प्रधान है-पति, भगवान् जब सामने प्रकट हए तो भक्त ने उनके बैठने के पशु और पाश । शिव ही पति है, मनुष्य उनके पशु है लिए ईंट (विट) धर दी (थल) । इससे भगवान् का नाम जो पाश (सांसारिक माया) से बंधे रहते हैं। 'पति' 'विट्ठल' पड़ गया है । देवशयनी और देवोत्थानी एकादशी अथवा शिव के अनुग्रह से ही पश् ( मनुष्य ) पाश को बारकरी सम्प्रदाय के लोग यहाँ यात्रा करने आते हैं। (सांसारिक बन्धन ) से मुक्त होता है । दे० 'पाशुपतयात्रा को ही वारी देना कहते हैं। भक्त पुण्डरीक इस सम्प्रदाय' । धाम के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं । संत तुकाराम, ज्ञानेश्वर, पति-पश-पाशम-पाशपत-सम्प्रदाय की तरह शव सम्प्रदाय में नामदेव, राँका-बांका, नरहरि आदि भक्तों की यह निवास का-बाका, नरहार आदि भक्ता का यह निवास- भी जीव मात्र पशु कहलाते हैं। उनके पति पशुपति अर्थात् भूमि रही है। पंढरपुर भीमा नदी के तट पर है, जिसे ___ महेश्वर शिव है । मल, कर्म, माया और रोधशक्ति ये यहाँ चन्द्रभागा भी कहते हैं । चार पाश हैं । स्वाभाविक अपवित्रता का नाम मल है, पतञ्जल काप्य-एक ऋषि का नाम, जिनका उल्लेख दो। जो दृक् और क्रिया शक्ति को ढके रहता है। धर्माधर्म बार बृहदारण्यक उपनिषद् (३.३,१; ७,१) में हुआ है । का नाम कर्म है । प्रलय में जिसके भीतर सभी कार्य समा वेबर के मतानुसार उनका नाम कपिल तथा पतञ्जलि जाते है और सृष्टि में जिससे सभी कार्य निकलते हैं, उसे (सांख्ययोग प्रणाली के प्रवर्तक) नामों का पूर्व रूप है, माया कहते हैं । पुरुष की गति में रुकावट डालनेवाले इसी से आगे चलकर दो दर्शनकार ऋषिनामों का विकास कर्म रोधशक्ति कहलाते हैं। हुआ। पत्रव्रत-यह संवत्सर व्रत है । एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान पतअलि-(१) संस्कृत व्याकरण के इतिहास में पतञ्जलि होता है। इसमें स्त्री एक पान, सुपारी तथा चूना का महाभाष्य महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । इस ग्रन्थ की किसी स्त्री या पुरुष को दान में दे देती है। वर्ष के अन्त महत्ता व्याकरण शास्त्र की उपादेयता के अतिरिक्त में सुवर्ण अथवा रजत का पान तथा चूने के रूप में तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक मोतियों का दान किया जाता है। ऐसी स्त्री न कभी एवं राजनीतिक दशाओं पर भी प्रकाश डालने के कारण दुर्भाग्यग्रस्त रहती और न उसके मुख से दुर्गन्ध आती है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथिकृत्-पद्मनाभतीर्थ (शोभन) ३८५ पथिकृत्-मार्ग बनाने वाला, नियम निर्धारित करने वाला। पदार्थमाला-सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में यह शब्द ऋग्वेद तथा अन्य संहिताओं में अनेक बार लौगाक्षिभास्कर ने न्याय (पूर्वमीमांसा) विषयक इस ग्रन्थ व्यवहत है । इसकी महत्ता आदि काल से ही पथ खोजने को लिखा। के कार्य से सम्बन्धित है। यह विशेषण अग्निदेव (तैत्ति० पदार्थवत--मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को यह व्रत प्रारम्भ सं०, शत० ब्रा०, कौषी० ब्रा०) के लिए बार-बार इसलिए किया जाता है । इस दिन उपवास रखते हुए दिक्पालों प्रयक्त हआ है कि प्रारम्भिक काल में आगे बढ़ने के लिए के साथ दसों दिशाओं का पूजन करना चाहिए । एक वर्ष आर्य अग्नि जलाते थे और उसके प्रकाश में बढ़ते थे । पूषा तक इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त में गोदान को भी पथिकृत् कहा गया है, क्योंकि वह पशुझुण्डों की करने का विधान है । इससे संकल्प की सिद्धि होती है । रक्षा करता था। ऋषियों को भी पथिकृत कहा गया है, पदार्थसंग्रह-आचार्य मध्व के शिष्य पद्मनाभाचार्य ने पदार्थजिन्होंने समाज को प्रथम ज्ञान का मार्ग दिखलाया। संग्रह नामक प्रकरण ग्रन्थ लिखा था, जिसमें मध्वाचार्य पद-(१) छन्द या श्लोक का चतुर्थांश । यह अर्थ इसके के मत का वर्णन किया गया है। पदार्थसंग्रह के ऊपर प्रारम्भिक अर्थ 'चरण' (पाद) से निकाला गया है, जो उन्होंने मध्वसिद्धान्तसार नामक व्याख्या भी लिखी थी। चौपायों के लिए व्यवहृत होता है और जिसके नाते एक इसका रचनाकाल १३वीं शताब्दी है। चरण चतुर्थांश हुआ। पद्मकयोग-(१) रविवार को यदि सप्तमीविद्धा षष्ठी पड़े तो (२) छन्द के चतुर्थांश के अर्थ में इसका प्रयोग ऋग्वेद पद्मकयोग होता है, जो सहस्र सूर्यग्रहणों के समान पुण्यसे ही होने लगा। पीछे भी इस अर्थ में इसका प्रयोग हआ शाली है । दे० व्रतराज, २४९ । है, किन्तु ब्राह्मणों में इससे 'शब्द' का भी बोध होता है। (२) सूर्य विशाखा नक्षत्र पर हो तथा चन्द्र कृत्तिका (३) सन्त कवियों के पूरे गीत अथवा भजन को भी नक्षत्र पर, तब पद्मक योग होता है । दे० हेमाद्रि का चतुलोकभाषा में पद कहा जाता है। धार्मिक क्षेत्र में ऐसे वर्गचिन्तामणि । पदों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। (३) जीमूतबाहन के 'कालविवेक' के अनुसार जब सूर्य पदकल्पतरु-वैष्णव गीतों का एक संग्रह । चैतन्य साहित्या- विशाखा नक्षत्र के तृतीय पाद में तथा चन्द्रमा कृत्तिका के न्तर्गत १८वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वैष्णवदास ने इस प्रथम पाद में हो तब पद्मक योग बनता है । ग्रन्थ की रचना की । यह छोटे-छोटे पदों (छन्दों) का पद्मनाभ-(१) विष्णु का एक पर्याय । इसका अर्थ है संग्रह है। 'जिसकी नाभि में कमल है।' कमल विश्व को सृष्टि और पदयोजनिका-शङ्कराचार्य कृत उपदेशसाहस्री पर स्वामी प्रज्ञा के विकास का प्रतीक है। पुराणों के अनुसार इसी रामतीर्थ ने पदयोजनिका नाम को टीका लिखी है । इसका कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है इसलिए ब्रह्मा को 'कमलरचनाकाल सत्रहवीं शताब्दी है । योनि' अथवा 'पद्ययोनि' भी क ते हैं। पदार्थ-पद (शब्द) का वाच्य या कथनीय आशय; वस्तुतत्त्व । (२) कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकारों में पद्मनाभ वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः हैं-(१) द्रव्य (२) भी एक है। गुण (३) कर्म (४) सामान्य (५) विशेष (६) समवाय । पद्मनाभ तीर्थ-आचार्य मध्व के शिष्य । इन्होंने मध्वरचित इन पदार्थों के सम्यक् ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त होता है । दे० अनुव्याख्यान की, जो वेदान्तसूत्र का पद्यमय विवरण है, 'वैशेषिक दर्शन' । टोका लिखी। यह 'संन्यास रत्नावली' नाम से प्रसिद्ध है। पदार्थकौमुदो-माध्व मतावलम्बी आचार्य वेदेश तीर्थ (१८ पद्मनाभ तीर्थ (शोभन)-आचार्य मध्व देहत्याग करते वीं शताब्दी) ने इस ग्रन्थ की रचना की। समय अपने शिष्य पद्मनाभ तीर्थ को रामचन्द्रजी की मूर्ति पदार्थधर्मसंग्रह-प्रशस्तपाद का पदार्थधर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ और शालग्राम शिला देकर कह गये थे कि तुम मेरे मत वैशेषिक दर्शन का भाष्य कहलाता है। परन्तु यह भाग्य का प्रचार करते रहना । गुरु के उपदेशानुसार पद्मनाभ ने नहीं, सूत्रों के आधार पर बना हुआ स्वतन्त्र ग्रन्थ है। चार मठ स्थापित किये । इनका पहला नाम शोभन भट्ट था। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ पद्मनाभद्वादशी-पंथ(पथ) ये बहुत बड़े विद्वान् थे और चालुक्य राजधानी कल्याण (१०) कायस्थोत्पत्ति ओर कायस्थस्थितिनिरूपण (११) में रहते थे। एक बार इनका शास्त्रार्थ मध्वाचार्य से हुआ। कालिञ्जरमाहात्म्य (१२) कालिन्दीमाहात्म्य (१३) शोभन भट्ट शास्त्रार्थ में हार गये और इन्होंने वैष्णवमत काशीमहात्म्य (१४) कृष्णनक्षत्रमाहात्म्य (१५) वेदारस्वीकार कर लिया। तब इनका नाम पद्मनाभाचार्य पड़ा। कल्प (१६) गणपतिसहस्रनाम (१७) गौतमीमाहात्म्य मध्वाचार्य के बाद ये ही आचार्य पदासीन हुए । पद्मनाभा- (१८) चित्रगुप्तकथा (१९) जगन्नाथ माहात्म्य (२०) चार्य ने मध्व के ग्रन्थों की टीकाएँ भी लिखीं और संप्र- तप्तमुद्राधारणमाहात्म्य (२१) तीर्थमाहात्म्य (२२) दाय का अच्छा विस्तार किया। ये तेरहवीं शताब्दी में त्र्यम्बकमाहात्म्य (२३) देविकामाहात्म्य (२४) धर्माख्यवर्तमान थे। माहात्म्य (२५) ध्यानयोगसार (२६) पंचवटीमाहात्म्य पद्मनाभद्वादशी-आश्विन शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का (२७) पायिनीमाहात्म्य (२८) प्रयागमाहात्म्य (२९) आरम्भ होता है। एक कलश की स्थापना करके उसमें फाल्गुनीकृष्ण-विजयामाहात्म्य (३०) भक्तवत्सलमाहात्म्य भगवान् पद्मनाभ (विष्णु) की प्रतिमा विराजमान की (३१) भस्ममाहात्म्य (३२) भागवतमाहात्म्य (३३) भीमाजाती है, उसका चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यादि माहात्म्य (३४) भूतेश्वरतीर्थमाहात्म्य (३५) मलमाससे पूजन होता है। दूसरे दिन उसे दान में दे दिया माहात्म्य (३६) मल्लादिसहस्रनाम स्तोत्र (३७) यमुनाजाता है। माहात्म्य (३८) राजराजेश्वरयोग कथा (३९) रामसहस्रपद्मपादिका- (पञ्चपादिका) शंकराचार्य के शिष्य पद्मपा नाम स्तोत्र (४०) रुक्माङ्गदकथा (४१) रुद्रहृदय (४२) दकृत एक दार्शनिक ग्रन्थ । इसके ऊपर प्रबोधपरिशोधिनी रेणुकामहस्रनाम (४) विकृतजननशान्तिविधान (४४) नाम की एक टीका है, जिसके रचयिता नरसिंहस्वरूप के विष्णुसहस्रनाम (४५) वृन्दावनमाहात्म्य (४६) वेङ्कटस्तोत्र शिष्य आत्मस्वरूप थे। ( ४७ ) वेदान्तसार शिवसहस्रनाम ( ४८ ) वेण्योपाख्यान ( ४९ ) बैतरणी व्रतोद्यापनविधि (५०) वैद्यनाथमाहात्म्य पद्मपुराण-इसके पाँच खण्ड है-(१) सृष्टिखण्ड (२) (५१) वैशाखमाहात्म्य (५२) शिवगीता (५३) शताश्वभूमिखण्ड (३) स्वर्गखण्ड (४) पातालखण्ड और (५) विजय ( ५४ ) शिवालयमाहात्म्य ( ५५ ) शिवसहस्रनाम उत्तरखण्ड । विष्णुपुराण की सूची के अनुसार पद्म पुराण स्तोत्र (५६) शीतलास्तोत्र (५७) शोशीपुरमाहात्म्य (५८) दूसरा पुराण है। देवीभागवत के अतिरिक्त, जिसके मत श्वेतगिरिमाहात्म्य (५९) सङ्घटनामाष्टक (६०) सत्योसे मार्कण्डेय पुराण दूसरा है, सब पुराण इसी को दूसरा पाख्यान (६१) सरस्वत्यष्टक (६२) सिन्धुरागिरिमाहात्म्य स्थान देते हैं और इस बात पर एकमत हैं कि पद्मपुराण (६३) सुदर्शनमाहात्म्य (६४) हनुमत्कवच (६५) हरिश्चमें ५४,००० श्लोक हैं। केवल ब्रह्मवैवर्तपुराण के मत से न्द्रोपाख्यान (६६) हरितालिकाव्रतकथा (६७) हर्षेश्वरइसमें ५९,००० श्लोक होने चाहिए । इसमें हिरण्मय पक्ष माहात्म्य (६८) होलिकामाहात्म्य इत्यादि । (सुनहरे कमल) से संसार की उत्पत्ति का वृत्तान्त वर्णित है, इसलिए इस पुराण को बधजन 'पद्म' कहते हैं । सष्टि- पद्मसंहिता-यह प्रायः सबसे प्राचीन संहिता मानी जाती खण्ड के ३६वें अध्याय में इसकी कथा है, जिसमें संसार है, जिसमें चार खण्ड हैं-ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद की उत्पत्ति का सविस्तर वर्णन है और इससे मत्स्यपुराण एवं चर्यापाद । केवल दो ही संहिताओं 'पद्म' तथा 'विष्णुकी उक्ति का समर्थन होता है। तत्त्व' में उपर्युक्त चार खण्डों का प्रतिपादन हुआ है। नीचे लिखी छोटी-छोटी पोथियाँ पद्मपुराण के अन्तर्गत अधिकांश संहिताएँ केवल क्रिया एवं चर्यापादों का ही मानी जाती हैं : वर्णन करती हैं। (१) अष्टमूर्तिपर्व (२) अयोध्यामाहात्म्य (३) पद्मावलो-चैतन्य संप्रदाय के महात्मा रूप गोस्वामी द्वारा उत्पलाख्यमाहात्म्य (४) कदलीपुरमाहात्म्य (५) रचित एक संस्कृत नाटक । कमलालयमाहात्म्य (६) कपिलगीता (७) पंथ (पथ)-यह शब्द धार्मिक सम्प्रदाय का द्योतक है। करवीरमाहात्म्य (८) कर्मगीता (९) कल्याणकाण्ड प्रायः निर्गणवादी सन्तों द्वारा चलाये गये सम्प्रदायों को Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्दरम्-परमहंस ३८७ पंथ कहते हैं। यथा कबीरपन्थ, नानकपन्थ, दादूपन्थ है। वर्ष के अन्त में श्राद्ध करना चाहिए, पाँच गायें. आदि । वस्त्र तथा जलपूर्ण कलश दान में देना चाहिए। दे० पन्दरम-तमिलनाडु के शैव मन्दिरों में ब्राह्मणेतर पुजारी हेमाद्रि, २.२५४ । को 'पन्दरम्' कहते हैं। इस देश के शैव मन्दिरों में साम्प्र- (३) भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर पुत्र प्राप्त करने की दायिक भिन्नता नहीं है । वे सभी हिन्दुओं, स्मार्तों, साधारण कामना से फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से द्वादशी तक केवल शवों, सिद्धान्तवादियों एवं लिङ्गायतों के लिए खुले रहते दुग्ध की वस्तुओं से पूजन (देवता स्नान, नैवेद्य, होम और है। इनमें पुजारी ब्राह्मण होते हैं, किन्तु कुछ छोटे मन्दिरों प्रसाद ग्रहण) करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ, ५१३में पन्दरम् ( अब्राह्मण शेव) लोग अचंक का कार्य ५१४; भागवतपुराण, ८.१६,२२-६२ । करते हैं। पर आगम-रौद्रिक आगमों में एक 'गर (वातुल) आगम', भी है। पन्ना-मध्य प्रदेश में स्थित एक भूतपूर्व रियासत का प्रसिद्ध परओति-सत्रहवीं शती में तमिल भाषा के भक्त कवि नगर और तीर्थस्थान । यहाँ भगवान् युगलकिशोर का परञ्जोति ने 'तिरुविल आडतपाणम' नामक धार्मिक ग्रन्थ एक मन्दिर और जगन्नाथ स्वामी के दो मन्दिर है। की रचना की। महात्मा प्राणनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर भी यहाँ स्थित है। परपक्षगिरिवत्र-निम्बार्क वैष्णव संप्रदाय का एक तर्कदे० 'कुलज्जम साहब' । कर्कश दार्शनिक ग्रन्थ, जिसमें अद्वैत वेदान्त के अध्यास, पम्पासर-इस तीर्थ का वर्णन वाल्मीकि रामायण में पाया मायावाद, जीवब्रह्मकयवाद आदि का सटीक खण्डन किया जाता है। भगवान् राम वनवास के समय शबरी के परा गया है। इसकी रचना वंगदेशवासी पं० माधवमुकुन्द मर्श से इस सरोवर के तट पर आये थे। इसके निकट ही ने माध्ववेदान्त से प्रभावित होकर की । माधवमुकुन्द सुग्रीव का निवास था। दक्षिण भारत की तुङ्गभद्रा नदी स्वभरामी शाखा के वैष्णव थे अतः इनका समय सत्रहवीं पार करके अनागुदी ग्राम जाते समय कुछ दूर पश्चिम शताब्दी संभव है। उक्त ग्रन्थ न्याय-वेदान्त के प्रौढ़ पहाड़ के मध्य भाग में एक गुफा मिलती है । उसके अंदर ज्ञाताओं के अध्ययन की सामग्री उपस्थित करता है। श्रीरङ्गजी तथा सप्तर्षियों की मूर्तियाँ हैं, आगे पूर्वोत्तर परब्रह्मोपनिषद-एक परवर्ती उपनिषद् । इसमें परब्रह्म पहाड़ के पास हो पम्पासरोवर है। स्नान करने के लिए (निर्गण) का निरूपण किया गया है। यात्री प्रायः यहाँ आते रहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है परमशिव-नवीं शताब्दी में उत्पन्न कश्मीर के वसुगुप्त कि पम्पासर वहाँ था, जहाँ अब हासपेट नगर है। नामक शिवभक्त ने एक नया धार्मिक अनुभव प्रचारित पयस्-वैदिक संहिताओं में 'पयस्' शब्द का गोदुग्ध अर्थ किया। उनके शिष्य कल्लट ने 'स्पन्दसूत्र' अथवा 'स्पन्दलिया गया है। कुछ प्रसंगों में इसे पौधों में पाया जाने कारिका' में त्रिक ( पति, पशु, पाश ) प्रणाली के अद्वैत वाला रस समझा गया है, जो उन्हें जीवन तथा बल प्रदान सिद्धान्त का उल्लेख किया है। स्पन्दशाखा में आत्मा करता है । कतिपय स्थलों पर यह स्वर्गीय जल का बोधक कठोर यौगिक साधना से ज्ञान प्राप्त करता है, जिससे परम है (ऋ० ० १.६५,५,१६६; ३.३३,१,४; ४.५७,८ शिव (विश्व के परमअधीश्वर) का अनुभव होता है तथा आदि) । शतपथ ब्राह्मण (९.५,१, ) में 'पयोवत' नाम जीवात्मा शान्ति में विलीन हो जाता है। परम शिव से दुग्ध पर ही जीवन धारण करने वाले व्रत का वास्तव में मूल परम तत्त्व का ही पर्याय है। उल्लेख है। परमशिवेन्द्र सरस्वती-महात्मा सदाशिवेन्द्र सरस्वती के पयोव्रत-(१) यज्ञानुष्ठान के लिए दीक्षित होने के पश्चात् गुरु का नाम । ये प्रसिद्ध धार्मिक नेता थे। केवल दुग्धाहार करने का विधान है। इसी को पयोव्रत परमसहिता-एक वैष्णव संहिता। इसमें वैष्णव सिद्धान्तों कहते हैं । (शतपथ० ९.५.१.१) तथा आचार का विशद वर्णन है। (२) प्रत्येक अमावस्या को यह व्रत करना चाहिए। परमहंस-चतुर्थ आश्रमी संन्यासियों की चार श्रेणियाँ इसमें केवल दुग्धाहार विहित है । एक वर्ष तक यह चलता कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस नामक होती हैं। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ परमहंसपरिव्राजकोपनिषत्-परशुराम वैराग्य और ज्ञान की उत्तरोत्तर तीव्रता के कारण यह परमानन्द सरस्वती-ब्रह्मानन्द सरस्वती के दीक्षागुरु परश्रेणीविभाजन किया गया है। परमहंस कोटि का संन्यासी मानन्द सरस्वती थे । सत्रहवीं शताब्दी के आसपास इनका सर्वश्रेष्ठ होता है। प्रादुर्भाव हुआ था। हंस शब्द सदसद्-विवेक की शक्ति से परिपूर्ण आत्मा परमार्थसार-प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त का यह संक्षिप्त सार है। का बोधक है । जिस पुरुष में आत्मा का परम विकास हो इसकी रचना ग्यारहवीं शती में कश्मीर के आचार्य अभिचुका है वह 'परमहंस' कहलाता है। नव गुप्त ने की थी। परमहंसपरिवाजकोपनिषद्-यह संन्यासाश्रम सम्बन्धी एक परमेश्वर आगम-यह रौद्रिक आगम है । 'मतङ्ग' इसका परवर्ती उपनिषद् है। उपागम है। परमहंसोपनिषद्-संन्यास आश्रम से सम्बन्धित एक उप- परमेश्वरतन्त्र-शाक्त साहित्य में तन्त्रों का स्थान बड़ा निषद् । संन्यासी को परमहंस भी कहते हैं इसलिए इसमें महत्त्वपूर्ण है। परमेश्वरतन्त्र लगभग ९०८ वि० की संन्यासाश्रम में प्रवेश के पूर्व की तैयारी, संन्यासी की रचना है। वेषभूषा, आवश्यकता, भोजन, निवास स्थान तथा कार्य परलोक-मानव जीवन के दो पक्ष है-इहलोक अथवा आदि का वर्णन है। सांसारिक जीवन और परलोक अथवा पारमार्थिक परमाणु-वैशेषिक मतानुसार द्रव्य नौ हैं। इनमें से प्रथम जीवन । परलोक अथवा परमार्थ व्यावहारिक जगत् से भिन्न चार परमाणु के ही विभिन्न रूप हैं। प्रत्येक परमाणु परि- है। कुछ लोग स्वर्ग को ही परलोक कहते हैं। वास्तव में वर्तनहीन, शाश्वत, अतिसूक्ष्म तथा अदर्शनीय होता लोक की कल्पना स्थानीय है, जो स्तर भेद दिखाने के है । परमाणु गंध, स्वाद, प्रकाश एवं उष्णता (पृथ्वी, जल, लिए की गयी है। व्यक्तिगत लाभ-हानि की चिन्ता छोड़वाय, अग्नि के प्रतिनिधि स्वरूप) के अनुसार चार कक्षाओं कर समष्टिगत जीवन के कल्याण के लिए कार्य करना ही में बँट जाते हैं। दो परमाणुओं के मिलने से एक द्वघणुक परमार्थ (बड़ा लाभ) है। तथा तीन द्वयणकों के मिलने से एक त्रसरेणु बनता है जो परबतिया गुसांई-परबतिया गसाँई कामाख्या देवी के प्रधान वस्तु की सबसे छोटी इकाई है, जिसका आकार गुणयुक्त पुजारी को कहते हैं । यह नदिया (नवद्वीप) का निवासी होता है तथा जिसे पदार्थ कहते हैं । बंगाली ब्राह्मण होता है। परमात्मा-वैशेषिक मतानुसार नित्य ज्ञान, नित्य इच्छा परशुराम-विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो और नित्य संकल्प वाला, सर्वसुष्टि को चलाने वाला वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है। परशु परमात्मा जीवात्मा से भिन्न है। अर्थात् परमात्मा और (फरसा) नामक शस्त्र धारण करने के कारण ये परशुराम जीवात्मा के भेद से आत्मा दो प्रकार का है। परमात्मा एक कहलाते हैं । जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य है, जीवात्मा अगणित हैं। परमात्मा जैसे पहले कल्प में भी कहे जाते हैं। इन्होंने राजा सहस्रार्जन कार्तवीर्य का सृष्टि रचता है वैसे ही इस कल्प में पृथिवी, स्वर्ग और वध किया था। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अन्तरिक्ष को रचता है। इससे सृष्टिकर्ता ईश्वर नित्य अनेक बार विनाश किया। इनका जन्म अक्षय तृतीया सिद्ध होता है । वैशेषिक मत में जीवात्मा और परमात्मा ( वैशाख शुक्ल तृतीया ) को हुआ था । अतः इस दिन व्रत दोनों अनात्मपदार्थों से अलग है, यह मनन से सिद्ध करने और उत्सव मनाने की प्रथा है । होता है। इस अवतार के प्रसङ्ग में ब्रह्म-क्षत्रसंघर्ष की चर्चा सांख्य दर्शन परमात्मा अथवा ईश्वर में विश्वास नहीं आती है। यह मान्यता कि परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी करता; केवल बह पुरुषबहुत्व को मानता है। योगदर्शन को क्षत्रियविहीन किया था, अतिरंजित जान पड़ती है। ईश्वर को आदि गुरु मानता है। वेदान्त के अनुसार पर- संसार की स्थिति एवं ब्रह्माण्डप्रकृति के अनुसार धर्म की मात्मा व्यवहार में भिन्न किन्तु वस्तुतः अभिन्न है। रक्षा तभी संभव है जब ब्रह्म और क्षत्र दोनों ही शक्तियाँ परमानन्द उपपुराण-यह उन्नीस उपपुराणों में से एक है। समता की भावना से परिपूर्ण रहें। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परशुरामजयन्तो-पराशरसंहिता ३८९ ब्रह्मशक्ति के बिना क्षत्रशक्ति पुष्ट नहीं होती और ऋग्वेद में शत्यातु तथा वसिष्ठ के साथ हुआ है जो संभक्षत्रशक्ति के बिना ब्रह्मशक्ति भी नहीं बढ़ सकती। दोनों वतः उनके चाचा तथा पितामह (क्रमशः ) थे। जिन सात को समता से ही संसार का कल्याण संभव है। ऋषियों को ऋग्वेदीय मन्त्रों के सम्पादन का श्रेय है उनमें परशुरामभार्गवसूत्र-इस ग्रन्थ में शानों के कौल सम्प्रदाय पराशर का नाम भी सम्मिलित है। की विभिन्न शाखाओं का विवरण पाया जाता है । कौल (२) पराशर नामक स्मृतिकार भी हुए हैं जिन्होंने मार्ग के अनुसार देवी की पूजा का विधान इसमें विस्तार- पराशरस्मृति की रचना की। वर्तमान युग के लिए यह पूर्वक समझाया गया है। स्मति अधिक उपयोगी मानी जाती है : "कलो पाराशरः परशुरामजयन्ती-वैशाख शवल तृतीया को यह जयन्तीव्रत स्मृतः ।" सम्बन्धी पूजन होता है। (३) महाभारत में भी पराशर की कथा आती है। ये परशुरामदेव-निम्बार्क वैष्णव परम्परा के मध्यकालिक व्यास के पिता थे। इसीलिए व्यास को पाराशर्य अथवा धर्मरक्षक प्रतापी संत, जिन्होंने अपने तपोबल से राज- पाराशरि कहा जाता है। स्थान में फकीरों के हिन्दूविरोधी धर्मोन्माद का पर्याप्त (४) वराहमिहिर के पूर्व पराशर एवं गर्ग प्रसिद्ध ज्योमात्रा में शमन किया। ये वैष्णवाचार्य हरिव्यासदेव के तिविद् हो चुके थे। स्वभरामदेव आदि प्रभावशाली द्वादश शिष्यों में छठे थे। (५) पराशर नामक एक प्राचीन वेदान्ताचार्य भी थे। इनका समय सोलहवीं शताब्दी का मध्यकाल है। इनकी रामानुज स्वामी के शिष्य कूरेश के पुत्र का नाम भी पराअध्यात्मशक्ति से प्रभावित होकर अनेक देशी नरेश धर्मपरायण शर था जिन्होंने रामानुज की आज्ञा से 'विष्णुसहस्रनाम' हो गये, जिनकी आस्था सुफी सन्तों की ओर जाने लगी पर भाष्य लिखा। थी। जयपुर से आगे आमेरमार्ग पर स्थित, भव्य 'परशु- पराशरमाधव--माधवाचार्य द्वारा रचित यह ग्रन्थ पराशररामद्वारा' नामक राजकीय स्मारक इसका प्रमाण है । 'पर- स्मृति के ऊपर एक निबन्ध है। स्मृतिशास्त्र की ऐसी शुरामसागर' नामक उपदेशात्मक रचना में इनकी कृतियों उपयोगी रचना सम्भवतः दूसरी नहीं है। पराशरस्मृति का संग्रह मिलता है जो राजस्थानीप्रभावित हिन्दी में है। में जिन विषयों पर, विशेष कर व्यवहार (न्याय कार्य) पर तीर्थराज पुष्कर में भी इनकी तपोभूमि है। वहाँ से कुछ प्रकाश नहीं डाला गया है उन सबको दूसरी स्मृतियों से दूर किसनगढ़ राज्य के सलीमाबाद स्थान में इन्होंने लेकर पराशरमाधव में जोड़ दिया गया है। किसी फकीर के प्रभाव को कुण्ठित कर वहाँ अपना वर्चस्व धर्मशास्त्र के अनुसार पराशरस्मृति की रचना कलियुग स्थापित किया था, तब से वह स्थान हिन्दू धर्मप्रचार का के लिए हुई, किन्तु आकार और विषय की दृष्टि से यह केन्द्र और परशुरामदेव के भक्तों की गुरुगद्दी हो गया । छोटी स्मृति है। इसका महत्त्व स्थापित करने तथा परआजकल भी इस गद्दी के उत्तराधिकारी वैष्णव रान्त म्परा को उचित सिद्ध करने के लिए माधव ने 'पराशरधर्मप्रचार में अग्रसर रहते हैं। माधवीय' का प्रणयन किया। सुदूर दक्षिण में हिन्दू विधि पराङकुश-विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के मान्य लेखक श्रीनिवास- पर यह प्रमाण ग्रन्थ माना जाता है । इसके मुद्रित संस्करण दास ने 'यतीन्द्रमतदीपिका' (पूना सं०, पृ० २) में अनेक में २३०० पृष्ठ पाये जाते हैं । वेदान्ताचार्यों का नामोल्लेख किया है उनमें पराश पराशरसंहिता (स्मृति)-स्मृतिशास्त्र में पराशरस्मृति अथवा आचार्य भी एक हैं। संहिता प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। इस संहिता का पराशर-(१) ऋग्वेद (७.१८.२१) में शत्यातु तथा वसिष्ठ प्रणयन कलियुग के लिए किया गया था। इसके प्रास्ताके साथ पराशर का भी उल्लेख है । निरुक्त ( ६.३० ) के विक इलोकों में लिखा है कि ऋषि लोग व्यास के पास अनुसार पराशर वसिष्ठ के पुत्र थे । किन्तु वाल्मीकिरामा- जाकर प्रार्थना करने लगे कि आप कलियुग के लिए यण में इन्हें शक्ति का पुत्र तथा वसिष्ठ का पौत्र कहा धर्मोपदेश करें। व्यासजी ऋषियों को अपने पिता पराशर गया है। गेल्डनर का मत है कि पराशर का उल्लेख के पास ले गये, जिन्होंने इस स्मृति का प्रणयन किया । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० परिकरविजय-परिव्राजक इसके प्रथम अध्याय में स्मृतियों (उन्नीस) की गणना की हैं। उनकी शिष्यपरम्परा का भी अच्छा साहित्य है। गयी है और कहा गया है कि मनु, गौतम, शंख-लिखित इनके अनुयायी वैष्णव हैं और गुजरात, राजस्थान, बुन्देलतथा पराशर स्मृतियाँ क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा खण्ड में अधिक पाये जाते हैं । दे० 'प्राणनाथ' । कलियुग के लिए प्रणीत हुई है। परिधिनिर्माण–परिधि का उल्लेख ऋग्वेद (पुरुषसूक्त) में परिकरविजय-यह दोहयाचार्य कृत एक ग्रन्थ है। पाया जाता है : “सप्तास्यासन् परिधयः" । परिक्रमा-संमान्य स्थान या व्यक्ति के चारों ओर उसकी ईश्वर ने एक-एक लोक के चारों ओर सात-सात दाहिनी तरफ से घूमना। इसको प्रदक्षिणा करना भी परिधियाँ ऊपर-ऊपर रची हैं ।] गोल वस्तु के चारों ओर कहते हैं जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है । प्रायः एक सूत के नाप का जितना परिमाण होता है उसको सोमवती अमावस को महिलाएं पीपल वृक्ष की १०८ परिधि कहते हैं । ब्रह्माण्ड में जितने लोक हैं, ईश्वर ने परिक्रमा करती है। इसी प्रकार दुर्गा वी की परिक्रमा उनमें एक-एक के ऊपर सात-सात आवरण बनाये हैं । एक की जाती है । पवित्र धर्मस्थानों, अयोध्या, मथुरा आदि समुद्र, दूसरा बसरेणु, तीसरा मेघमण्डल का वायु, चौथा पुण्यपरियों की परिक्रमा कार्तिक में समारोह से की जाती वृष्टिजल, पाँचवाँ वृष्टिजल के ऊपर का वायु, छठा है । काशी की पंचक्रोशो (२५ कोस की), व्रज में गोवर्धन अत्यन्त सूक्ष्म वायु जिसे धनञ्जय कहते हैं और सातवाँ पर्वत की सप्तकोशी, व्रजमंडल की चौरासी कोसी, नर्मदा सूत्रात्मा वायु जो धनञ्जय से भी सूक्ष्म है। ये सात जी की अमरकंटक से समुद्र तक छःमासी और समस्त परिधियाँ कहलाती है। भारतखण्ड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की परिभाषा--(१) किसी भी वैदिक यज्ञक्रिया को समझने विविध परिक्रमाएँ धार्मिकों में प्रचलित हैं। ब्रजभूमि में के लिए तीनों श्रौतसूत्रों के (जो तीनों वेदों पर अलग'डण्डौती' परिक्रमा भूमि में पद-पद पर दण्डवत् लेटकर अलग आधारित है) कर्मकाण्ड वाले अंश का अध्ययन वेदपूरी की जाती है । यही १०८-१०८ वार प्रति पद पर। विद्यार्थी के लिए आवश्यक होता था। इस कार्य के लिए आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है। कुछ और ग्रन्थ रचे गये थे, जिन्हें परिभाषा कहते हैं। परिणामवाद-परिणाम का शाब्दिक अर्थ है परिणति, इन परिभाषा ग्रन्थों में यह दिखाया गया है कि किस फलन, विकार अथवा परिवर्तन । जगत रचना के सम्बन्ध प्रकार तीनों वेदों के मत का किसी यज्ञ विशेष के लिए में सांख्य दर्शन परिणामवाद को मानता है। इसके अनु- उचित रूप से प्रयोग किया जाय । सार सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम (२) पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याकरण शास्त्र द्वारा अव्यक्त प्रकृति से स्वयं होता है। कार्य कारण में का एक व्यवस्थित नियमप्रयोजक ग्रन्थ परिभाषा अन्तनिहित रहता है, जो अनुकूल परिस्थिति आने पर कहलाता है। व्यक्त हो जाता है। यह सिद्धान्त न्याय के 'प्रारम्भवाद' परिभाषेन्दुशेखर-यह पाणिनीय सूत्रों पर आधारित व्याक अथवा वेदान्त के 'विवर्तवाद' से भिन्न है। रणशास्त्र के परिभाषा भाग के ऊपर नागेश भट्ट को एक परिणामी सम्प्रदाय वैष्णवों का एक उप सम्प्रदाय रचना है । 'परिणामी' अथवा 'प्रणामी' है। इसके प्रवर्तक महात्मा परिमल-शांकर भाष्य का उपव्याख्या ग्रन्थ । इसकी प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे। ये विशेषतः पन्ना रचता अप्पय दीक्षित ने स्वामी नसिंहाथम की प्रेरणा (बुन्देलखण्ड) में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना से की । ब्रह्मसूत्र के ऊपर शाङ्कर भाष्य की व्याख्या गुरु मानते थे। ये अपने को मुसलमानों का मेंहदी, भामती' है, भामती की टीका 'कल्पतरु' है और कल्पतरु ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार की व्याख्या 'परिमल' है। कहते थे । इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये । परिव्राजक-इसका शाब्दिक अर्थ सब कुछ त्यागकर परिसर्वधर्मसमन्वय इनका लक्ष्य था। इनका मत निम्बाकियों भ्रमण करने वाला है। परिव्राजक चारों ओर भ्रमण जैसा था। ये गोलोकवासी श्री कृष्ण के साथ सख्य-भाव करने वाले संन्यासियों (साध-संतों) को कहते है। ये रखने को शिक्षा देते थे। प्राणनाथजी की रचनाएँ अनेक संसार से विरक्त तथा सामाजिक नियमों से अलग रहते Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परुष्णी-पर्वताष्टमीव्रत हुए अपना समय ध्यान, शास्त्रचिन्तन, शिक्षण आदि में कहीं उल्लेख हुआ है । अतः इसका अर्थ प्रचलित पलाश व्यय करते हैं । ये वृक्षों के नीचे सोते तथा भिक्षा से (पत्र) की अपेक्षा पूर्वकाल का कोई वृक्ष होना चाहिये। भोजन प्राप्त करते हैं । परिव्राजक कब होना चाहिए, इस पर्णक-पुरुषमेध के बलिपदार्थों की सूची के अन्तर्गत यह सम्बन्ध में शास्त्रों में मतभेद है । साधारणतः ब्रह्मचर्य, व्यक्तिनाम वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ आश्रम क्रमशः पूरा करने के उल्लिखित है। महीधर के अनुसार इससे भिल्ल का बोध पश्चात परिव्राजक होने का विधान है। किन्तु उपनिषद् होता है । सायण के मतानुसार इससे मछली पकड़ने वाले काल से ही उत्कट वैराग्य वाले व्यक्ति के लिए यह प्रति- ऐसे व्यक्ति का बोध होता है, जो पानी पर एक पर्ण बन्ध नहीं था। उसके लिए विकल्प था : (विषसहित पत्ता) रखकर मछलियाँ पकड़ता है। किन्तु यदहरेव विरजेत् तदहरेव परिव्रजेत् । यह केवल शाब्दिक अटकलबाजी है। वेबर के मतानुसार [ जिस दिन वैराग्य हो, उसी दिन परिवाजक हो जाना इसका अर्थ पंख धारण करने वाला एक जंगली जीव है, चाहिए।] किन्तु यह अर्थ भी अनिश्चित है। पर्णय-ऋग्वेद की दो ऋचाओं (१.४३.८;१०.४८.२) में परुष्णी-रावी नदी का यह वैदिक नाम है। नदीस्तुति उद्धृत यह या तो किसी नायक का नाम है, जैसा कि (ऋग्वेद, १०.७५.५) तथा सूदास की विजय गाथा में लुविग सोचते हैं, अथवा दानव का, जो इन्द्र द्वारा परुष्णी नदी का उल्लेख है । यह नहीं कहा जा सकता विजित हुआ। कि सुदास की विजय में इसका क्या योग था, किन्तु पर्यङ्क-कौषीतकि उपनिषद् (१.५) में ब्रह्मा के आसन अधिकांश विद्वानों का मत है कि शत्र इसके प्रवाह की का नाम पर्यङ्क है । यह सम्भवतः दूसरे स्थानों पर प्रयुक्त दिशा बदलने के प्रयत्न में इसकी तेज धारा में बह आसन्दी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अर्थ शय्या गये । ऋग्वेद के आठवें मण्डल (८.७४.१५) में इसे नहीं है, जैसा कि उपनिषद् में प्रयुक्त है। सिंहासन के महानद कहा गया है। आगे चलकर इस नदी का नाम अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। इरावती (रावी) पड़ा, जिसका उल्लेख यास्क ने किया पर्वत-ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में पर्वत का गिरि के अर्थ है। पिशेल के मतानुसार 'परुष्णी' शब्द का ऊर्णा (ऊन) में प्रयोग हुआ है। संहिताओं में पर्वतों के पंखों का से सम्बन्ध है। उनका कहना है कि इसका नाम पुरुष + काल्पनिक वर्णन है । कौषीतकि उपनिषद् में दक्षिणी तथा ऊर्णा से गठित हुआ है । उत्तरी पर्वतों के नामोल्लेख हैं, जिनसे स्पष्टतः हिमालय पर्जन्य-यह एक वैदिक देवता का नाम है। ऋग्वेदीय एवं विन्ध्य पर्वतों का बोध होता है । अथर्ववेद में पर्वतों देवताओं को तीन भागों में बाँटा गया है : पार्थिव, पर ओषधि एवं अञ्जन की उत्पत्ति का उल्लेख है। वायवीय एवं स्वर्गीय । वायवीय देवों में पर्जन्य की पर्वतशिष्यपरम्परा---शङ्कराचार्य से संन्यासियों का दसनामी गणना होती है। प्रोफेसर स्] डर के मत से सातवें सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। उनके चार प्रमुख शिष्य थे और आदित्य का नाम पर्जन्य है, जो पहले द्यौ का ही एक उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हुए । इन दसों के विरुद था । पर्जन्य भी द्यौ एवं वरुण के सदृश वृष्टिदाता नाम से संन्यासियों के दस भेद हो गये । शङ्कराचार्य ने है। ऋग्वेद (५.८३) में पर्जन्य सम्बन्धी ऋचाएं ठीक चार मठ भी स्थापित किये थे, जिनके अधीन इन प्रशिष्यों उसी प्रकार की हैं जैसी मित्रावरुण अथवा वरुण के .. की शिष्यपरम्परा चली आती है । जोशीमठ के संन्यासी सम्बन्ध की। 'पर्वत' उपाधि धारण करते हैं। पर्ण-ऋग्वेद (१०.९७.५) में इसका उल्लेख अश्वत्थ के पर्वताष्टमीव्रत---चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन पर्वतों-हिमसाथ तथा अथर्ववेद (५.५.५) में अश्वत्थ एवं न्यग्रोध के वान्, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत, शृंगवान्, मेरु, माल्यसाथ हुआ है। इसकी लकड़ो से यज्ञ की स्थालियों के वान्, गन्धमादन पर्वतों तथा किम्पुरुषवर्ष एवं उत्तर कुरु ढक्कन, यज्ञ के अन्य उपादान जुह या यज्ञस्तम्भ तथा की पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल नवमी को उपवास स्रुव बनते थे। इसके छिलके (पर्णवल्क) का भी कहीं- करना चाहिए । एक वर्ष तक यह अनुष्ठान चलता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ पर्व-पवित्रारोपणवत वर्ष के अन्त में चांदी का दान करने का विधान है। दे० (वहने वाला) है, जो शोधक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका विष्णुधर्म०, ३.१७४.१-७ । शाब्दिक अर्थ है 'प्रवहमान' (शुद्ध होने या करने वाला)। पर्व-गन्ना, सरकण्डा, जुआर आदि के पौधों की गाँठों को पवित्र-कुश घास का बटा हुआ छल्ला, जो धार्मिक अनुष्ठान पर्व कहते हैं। इसका एक अर्थ शरीरस्थित मेरुदण्ड के समय अनामिका अँगुली में धारण किया जाता है। (रीढ़) का पोर भी होता है। काल के विभाजक ग्रहों की इसके द्वारा यज्ञ करने वाले तथा यज्ञीय सामग्री पर जल स्थिति भी इसका अर्थ है, यथा अमावस्या, पूर्णिमा, से अभिविञ्चन किया जाता है । सोना, चाँदी, ताँबा मिलासंक्रान्ति, अयनारम्भ । इसी आधार पर साममन्त्रों के कर बनाया गया छल्ला भी पवित्र कहलाता है। वस्त्र गीतिविभाग तथा महाभारत के कथाविभाग भी पर्व या ऊँन का छल्ला भी पवित्र कहा जाता है : 'पूतं पविकहलाते हैं। त्रेण इव आज्यम् ।' विशेष तिथियाँ. जयन्तियाँ, चतर्दशी. अष्टमी. एका- पवित्रारोपणवत-इस व्रत में किसी देवप्रतिमा को पवित्र दशी, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि भी पर्व कहलाते हैं। सूत्र अथवा जनेऊ पहनाना होता है। हेमाद्रि (चतुर्वर्गपर्व के दिन तीर्थयात्रा, दान, उपवास, जप, श्राद्ध, भोज, चिन्तामणि २.४४०-४५३ ) और ईशानशिवगुरुदेवपद्धति उत्सव, मेला आदि होते हैं। मधु-मांसादि के सेवन का उस आदि विस्तार से इसका उल्लेख करते हैं । पवित्रारोपण दिन निषेध है। हिन्दू, चाहे किसी पन्थ या सम्प्रदाय के उन त्रुटियों तथा दोषों के परिमार्जनार्थ है जो समयक्यों न हों, पर्व मनाते और तीर्थयात्रा करते हैं। असमय पूजा तथा अन्य धार्मिक कृत्यों में होते रहते हैं। पर्वभूभोजनव्रत-इस व्रत में पर्व के दिनों में खाली भूमि यदि प्रति वर्ष इस व्रत का आचरण न किया जाय तो उन पर भोजन किया जाता है । शिव इसके देवता हैं । इससे सब संकल्पों तथा कामनाओं की सिद्धि नहीं होती जो अतिरात्र यज्ञ के फलों को उपलब्धि होती है । व्रती को अभीष्ट है। यदि भिन्न-भिन्न देवों को पवित्र सूत्र पहनाना हो तो तिथियाँ भी भिन्न भिन्न होनी पलाल-अथर्ववेद (८.६.२) में इस का प्रयोग अनु-पलाल चाहिए । भगवान् वासुदेव को सूत्र पहनाने के लिए के साथ हुआ है । इस शब्द का अर्थ पुवाल है । इसके स्त्री श्रावण शक्ल द्वादशी सर्वोत्तम है । भिन्न-भिन्न देवगण का लिङ्ग रूप ‘पलाली' का उल्लेख अथर्ववेद (२८.२) में पवित्रारोपण निम्नोक्त तिथियों में करना चाहिए : प्रतिपदा जौ के भूसा के अर्थ में हुआ है। धार्मिक कृत्यों के लिए को कुबेर, द्वितीया को तीनों देव, तृतीया को भवानी, पलाल से मण्डप तैयार किया जाता है । सामान्यतः बाली चतुर्थी को गणेश, पंचमी को चन्द्रमा, षष्ठी को कार्तिकेय, रहित धान के सूखे पौधे को पलाल कहते हैं । सप्तमी को सूर्य, अष्टमी को दुर्गाजी, नवमी को मातृपवन-पवन (पवित्र करने वाला) का प्रयोग अथर्ववेद में । देवता, दशमी को वासुकि, एकादशी को ऋषिगण, अन्न के दानों को उसके छिलके से अलग करने के सहा द्वादशी को विष्णु, त्रयोदशी को कामदेव, चतुर्दशी को यक छलनी या सूप के अर्थ में हुआ है । गतिशील वायु के शिवजी, और पूर्णिमा को ब्रह्मा । अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया है। शिवजी को पवित्र धागा पहनाने की सर्वोत्तम तिथि है पवनव्रत-साठ व्रतों में यह भी है। माघ मास में इसका आश्विन मास के कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की अष्टमी या अनुष्ठान होता है। व्रती को इस दिन गीले वस्त्र धारण चतुर्दशी; मध्यम तिथि है श्रावण मास की तथा अधम है करना तथा एक गौ का दान करना चाहिए। इससे व्रती भाद्रपद की । मुमुक्षुओं को सर्वदा कृष्ण पक्ष में ही पवित्राएक कल्प तक स्वर्ग में वास करने के बाद राजा होता। रोपण करना चाहिए। सामान्य जन शुक्ल पक्ष में यह व्रत है । माघ बहुत ही ठण्डा मास है। यह एक प्रकार का कर सकते हैं। पवित्रसूत्र सुवर्ण, रजत, ताम्न, रेशम, कमलशीतसह तप है। नाल, दर्भ अथवा रुई के बने हों जिन्हें ब्राह्मण कन्याएँ पवमान-ऋग्वेद में इस शब्द का प्रयोग सोम के लिए हुआ कातें तथा काटकर बनायें। क्षत्रिय, वैश्य कन्याएँ (मध्यम) है जो स्वतः चलनी के मध्य से छनकर विशुद्ध होता है। अथवा शूद्र कन्याएँ ( अधम कोटि के सूत्र ) भी बना पश्चात अन्य संहिताओं के उल्लेखों में इसका अर्थ वायु उल्लेखा में इसका अर्थ वायु सकती हैं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशु-पाखण्डमत पवित्र सूत्र में शत ग्रन्थियाँ (सर्वोत्तम) हों, नहीं तो कम दो मील पर पशुपतिनाथजी का मन्दिर है। काठमांडू से कम आठ । पवित्र का तात्पर्य है यज्ञोपवीत, जो किसी विष्णुमती और बागमती नामक नदियों के संगम पर वस्तु के धागे या माला के द्वारा निर्मित हो सकता है। बसा हुआ है । पशुपतिनाथ बागमती नदी के तट पर हैं। महाराष्ट्र में इसे 'पोमवतेम' कहा जाता है। कुछ दूर पर नेपाल के रक्षक योगी मछंदरनाथ (मत्स्येन्द्रपशु (१)-पाशुपत सम्प्रदाय में पति, पशु और पाश तीन नाथ) का मन्दिर है। पशुपतिनाथ पञ्चमुखी शिवलिंग प्रधान तत्त्व है। पति स्वयं शिव है, पशु जीवगण हैं तथा रूप में हैं जो भगवान् शिव की पञ्चतत्त्व मूर्तियों में एक । पाश सांसारिक बन्धन है जिससे प्राणी बँधा रहता है। माने जाते हैं । महिषरूपधारी शिव का यह शिरोभाग है, पति (शिव) की कृपा से पशु (मनुष्य) पाश (सांसारिक इनका धड़ केदारनाथजी माने जाते हैं । नन्दी की विशाल बन्धन) से मुक्त होता है । दे० 'पाशुपत' । मूर्ति पास में है । कुछ दूर पर गुह्येश्वरी देवी का प्रसिद्ध (२) सभी जीवधारी, जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित है। मन्दिर है । ५१ पीठों में इसकी गणना है । शैव, शाक्त, यज्ञ के उपयोगी पाँच पशुओं का प्रायः उल्लेख हआ है- पाशुपत, तन्त्र, बौद्ध आदि सभी सम्प्रदायों का यहाँ अश्व, गौ, मेष (भेड), अज (बकरा) तथा मनुष्य । अथर्ववेद संगम है। (३.१०.६) तथा परवर्ती ग्रन्थों में सात घरेलू पशुओं का पशपतिसूत्र-पाशपत शवों का आधार ग्रन्थ पशपतिसूत्र उल्लेख है । पशुओं का वर्गीकरण 'उभयतोदन्त' एवं 'अन्य- अथवा पाशपत शास्त्र माना जाता है। किन्तु इसकी कोई तोदन्त' के रूप में भी हुआ है । दूसरा और भी विभाजन है : प्रति कहीं उपलब्ध नहीं हई है। प्रथम, हाथ से ग्रहण करने वाले (हस्तादान)-मनुष्य, हाथी, पहिसानिवारण-वैष्णव आचार्य मध्व ने यज्ञों में पशुबन्दर आदि । दूसरा, मुह से पकड़ने वाले (मुखादान)। हिंसा का विरोध किया था। दुराग्रही लोगों के संतोषार्थ अन्य प्रकार का विभाजन द्विपाद एवं चतुष्पाद का है। इन्होंने पशबलि के स्थान पर 'पिष्ट पश' या अन्न का पश मनुष्य द्विपाद है जो पशुओं में प्रथम है। मुँह से चरने बनाकर बलि देने का प्रचार किया। इसमें वैष्णव धर्म का वाले पशु प्रायः चतुष्पाद (चौपाये) होते हैं। पशुओं में जीवदया वाला भाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। एक मनुष्य ही शतायु होता है और वह इसीलिए पशुओं पश्वाचारभाव-शक्ति के उपासक तान्त्रिक लोग तीन का राजा है। बौद्धिक दृष्टिकोण से वनस्पतियों, पशुओं भावों का आश्रय लेते हैं । वे दिव्य भाव से देवता का एवं मनुष्यों में भेद ऐतरेय आरण्यक में विशद रूप से साक्षात्कार होना मानते हैं । वीर भाव से क्रिया की सिद्धि निर्दिष्ट है । मनुष्यों को छोड़कर पशुओं को वायव्य, आरण्य होती है, जिसमें साधक साक्षात् रुद्र हो जाता है । पशु एवं ग्राम्य तीन भागों में बाँटा गया है (ऋग्वेद)। भाव से ज्ञान सिद्धि होती है। इन्हें क्रम से दिव्याचार, पशुपति-पशुपति (पशुओं के स्वामी) का प्रयोग रुद्र के वीराचार तथा पश्वाचार भी कहते हैं। साधक पशभाव विरुद के रूप में अति प्राचीन साहित्य में मिलता है । से ज्ञान प्राप्त करके वीर भाव के द्वारा रुद्रत्व प्राप्त करता 'पशपति' पशुओं (मनुष्यों) के स्वामी है । पशु जीवधारी है. तब दिव्याचार द्वारा देवता की तरह क्रियाशील हो हैं जो संसार के पाश में जकड़े गये हैं। वे पशुपति को जाता है । इन भावों का मूल निस्सन्देह शक्ति है । कृपा से ही मुक्ति पा सकते हैं। दे० 'पाशुपत' । पाखण्डमत-पद्मपुराण के पाषण्डोत्पत्ति अध्याय में लिखा पशुपति उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में पशुपति उप- है कि लोगों को भ्रष्ट करने के लिए ही शिव की दुहाई देकर पुराण भी समाविष्ट है। निश्चय ही यह शैव उपपुराण पाखण्डियों ने अपना मत प्रचलित किया है। इस पुराण है। इसमें पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्तों और क्रियाओं का में जिसको पाखण्डी मत कहा गया है, तन्त्र में उसी को वर्णन पाया जाता है। शिवोक्त आदेश कहा गया है। बुद्ध अपने द्वारा उपदिष्ट पशपतिनाथ-नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित सम्प्रदाय के अतिरिक्त अन्य मत वालों को पाषण्डी अथवा प्रसिद्ध शैवतीर्थ । बिहार प्रदेश के मुजफ्फरपुर, रक्सौल पाखण्डी कहते थे। प्राचीन धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में इसका होते हुए नेपाल सरकार के अमलेखगंज, भीमफेदी, थान- अर्थ बौद्ध और जैन सम्प्रदाय है। न्याय और शासन के कोट होता हआ मार्ग काठमांडू जाता है। वहाँ से लगभग कर्तव्य निर्देशार्थ जहाँ कुछ विधान विधर्मी प्रजाओं के लिए ५० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ किया गया है, वहाँ उन्हें पाखण्डी, पाखण्डधर्मो कहा गया है । इसमें निन्दा का भाव नहीं, वेदमार्ग से भिन्न पथ या उसका अनुयायी होने का अर्थ है । धार्मिक संकीर्णतावश बोलचाल में अपने से भिन्न मत वाले को भी पाखण्डी कह दिया जाता है जैसे कि वैष्णवों के मत में तन्त्रशास्त्र पाखण्ड मत कहा गया है । पाञ्चरात्र मत - वैष्णव सम्प्रदाय का एक रूप । पाँच प्रकार की ज्ञानभूमि पर विचारित होने के कारण यह मत पाञ्चरात्र कहा गया है : 'रात्रं च ज्ञानवचनं ज्ञानं पञ्चविधं स्मृतम् ।' इस मत के सिद्धान्तानुसार सृष्टि को सद वस्तुएँ 'पुरुष, प्रकृति, स्वभाव, कर्म और देव' इन पांच कारणों से उत्पन्न होती है (गीता १८.१४) महाभारत काल तक इस मत का विकास हो चुका था । ईश्वर की सगुण उपासना करने की परिपाटी शिव और विष्णु की उपासना से प्रचलित हुई। फिर भी वैदिक काल में ही यह बात मान्य हो गयी थी कि देवताओं में विष्णु का एक श्रेष्ठ स्थान है । इसी आधार पर वैष्णव धर्म का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता गया और महाभारत काल में उसे 'पारा' मत्ता मिली। इस मत की वास्तविक नींव भगवद्गीता में प्रतिठित है, जिससे यह बात सर्वमान्य हुई कि श्री कृष्ण विष्णु के अवतार हैं । अतएव पाञ्चरात्र मत की मुख्य शिक्षा कृष्ण की भक्ति ही है । परमेश्वर के रूप में कृष्ण की भक्ति करने वाले उनके समय में भी थे, जिनमें गोपियाँ मुख्य थीं । उनके अतिरिक्त और भी बहुत से लोग थे । इस मत के मूल आधार नारायण हैं । स्वायम्भुव मन्वन्तर में "सनातन विश्वात्मा से नर नारायण, हरि और कृष्ण चार मूर्तियाँ उत्पन्न हुई । नर-नारायण ऋषियों ने बदरिकाश्रम में तप किया। नारद ने वहाँ जाकर उनसे प्रश्न किया। इस पर उन्होंने नारद को पाखरात्र धर्म सुनाया ।" इस धर्म का पहला अनुवायी राजा उपरिचर वसु हुआ। इसी ने पाञ्चरात्र विधि से पहले नारायण की पूजा की । चित्रशिखण्डी उपनामक सप्त ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र शास्त्र तैयार किया। स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि मरीनि अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों का विवेचन है। यह ग्रन्थ पहले एक , पाञ्चरात्रमत- पाणिनीयदर्शन लाख श्लोकों का था, ऐसा विश्वास किया जाता है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग है। दोनों मार्गों का यह आधार स्तम्भ है । दे० महाभारत शान्तिपर्व, ना० उ० । पाञ्चरात्र मतानुसार वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का श्री कृष्ण के चरित्र से अति घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसी आधार पर पञ्चरात्र का चतुर्व्यूह सिद्धान्त गठित हुआ है। 'व्यूह' का शाब्दिक अर्थ है 'विस्तार', जिसके अनुसार विष्णु का विस्तार होता है । वासुदेव स्वयं विष्णु हैं जो परम तत्त्व हैं । वासुदेव से संकर्षण ( महत्तत्व, प्रकृति), संकर्षण से प्रद्युम्न ( मनस् विश्वजनीन ) प्रद्युम्न से अनिरुद्ध ( अहंकार, विश्वजनीन आत्मचेतना) और अनिरुद्ध से ब्रह्मा (भ्रष्टा दृश्य जगत् के) की उत्पत्ति होती है। पाञ्चरात्र मत में वेदों को पूरा-पूरा महत्त्व तो दिया ही गया है, साथ ही वैदिक यज्ञ क्रियाएँ भी इसी तरह मान्य की गयी हैं। हाँ, यश का अर्थ अहिंसायुक्त वैष्णव यज्ञ है । कहा जाता है कि यह निष्काम भक्ति का मार्ग है, इसी से इसे 'ऐकान्तिक' भी कहते हैं। पाञ्चरात्रशास्त्र - दे० 'पाञ्चरात्र मत' | पाञ्चरात्रसंहिता आयमिक संहिताएँ १०८ कही जाती है। किन्तु संख्या दूने से भी अधिक है। इनमें धर्म और आचार का विस्तृत वर्णन है। इनके भी दो विभाग : पाञ्चरात्र और वैखानस किसी मन्दिर में पारा तथा किसी में वैखानस संहिताएँ प्रमाण मानी जाती हैं । पाणिनि - संस्कृत भाषा के विश्वविख्यात व्याकरण ग्रन्थनिर्माता । उक्त ग्रन्थ आठ अध्यायों में होने के कारण अष्टाध्यायी कहा जाता है, आठ अध्यायों के चार-चार के हिसाब से बत्तीस पाद हैं । इस ग्रन्थ पर कात्यायन, पतजलि, व्याडि आदि आचायों की व्याख्याएं है। पाणिनि का निवास स्थान तक्षशिला के पास शलातुर ग्राम था । इनके स्थितिकाल के विषय में विद्वानों का मतैक्य नहीं है । विभिन्न इतिहासकार इनका समय दशवीं शती और चौथी शती ई० पू० के बीच कहीं रखते हैं। पाणिनीयदर्शन - माधवाचार्यकृत 'सर्वदर्शनसंग्रह' में आस्तिक षड्दर्शनों के साथ चार्वाक, बौद्ध, आर्हत, पाशुपत, शैव, पूर्णप्रश, रामानुज, पाणिनीय और प्रत्यभिज्ञा इन नी दर्शनों का परिचयात्मक उल्लेख है । परन्तु पाणिनीय, -- Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डुकेश्वर-पारस्करगृह्यसूत्र ३९५ दर्शन का कोई मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। र्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के चरण धोये जाते हैं। कलशों संभवतः जिस प्रकार मीमांसा (विवेचन) को दार्शनिक रूप में कूप, निर्झर, सरोवर और सरिता का जल भरा जाना मिला उसी प्रकार व्याकरण की पद्धति को भी दर्शन का चाहिए । इस धार्मिक कृत्य से दुर्भाग्य, दारिद्रय, विघ्नरूप मिला होगा। किन्तु दर्शन के रूप में व्याकरण उतना बाधाएँ, रोग-शोक दूर होते हैं तथा यश एवं सन्तानादि विकसित नहीं हआ जितनी मीमांसा । की प्राप्ति होती है। पाण्डुकेश्वर-बदरीनाथधाम क्षेत्र में ध्यानवदरी से दो मील पापनाशिनी सप्तमी-शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिष्य (पुष्य) दूर स्थित एक शिवमन्दिर । कहा जाता है कि यह मूर्ति नक्षत्र में पड़े तो वह बड़ी पवित्र होती है। उस दिन सूर्यमहाराज पाण्डु द्वारा स्थापित की गयी थी। पाण्डु कुन्ती पूजन करना चाहिए। व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर और माद्री अपनी दोनों रानियों के साथ यहाँ तपस्या देवलोक को प्रस्थान करता है। हेमाद्रि के अनुसार यह करते थे । यहीं पाण्डवों का जन्म हुआ था। योग श्रावण कृष्णपक्ष में पड़ता है। पातञ्जल योग-अष्टाङ्ग योग ही पातञ्जल योग कहलाता पापनाशिनी एकादशो-फाल्गुन मास में जब बृहस्पतिवार है। इसके आठ अङ्ग है-(१) यम (२) नियम (३) हो तथा सूर्य कुम्भ अथवा मीन राशि पर स्थित हो, तथा आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा एकादशी पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो वह पापनाशिनो (७) ध्यान और (८) समाधि । इसी का नाम राजयोग कहलाती है। है। इसमें विश्लेषण और ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियों पापमोचनव्रत-ऐसा विश्वास है कि कोई व्यक्ति बिल्व वृक्ष का विषयों से निरोध किया जाता है। इसी आधार पर के नीचे बारह दिन तक निराहार बैठा रहे तो वह भ्रूणआगे चलकर कई योग-मार्गों हठयोग, लययोग आदि का हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है । इसके शिव देवता हैं। प्रवर्तन हुआ। दे० 'योगदर्शन'। पारमार्थिक-शङ्कराचार्य के अनुसार सत्ता के चार भेद है : पातालव्रत-यह चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को आरम्भ होता है। (१) मिथ्या अथवा अलीक, जिसके लिए केवल शब्द एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है । इसमें सप्त पातालों अथवा पद का प्रयोग मात्र होता है, किन्तु उसके समकक्ष (निम्न लोकों) के क्रमशः नाम लेते हए एक के पश्चात् पदार्थ नहीं है, जैसे आकाशकुसुम, शशविषाण, वन्ध्यापुत्र दूसरे की पूजा करनी चाहिए। रात में भोजन करने का आदि । (२) प्रातिभाषिक, जो भ्रम के कारण दूसरे के विधान है। वर्ष के अन्त में घर में दीप प्रज्वलित करके सदृश दिखाई पड़ने वाले पदार्थों में आरोपित है, किन्तु श्वेत वस्त्रों का दान करना चाहिए। वास्तविक नहीं, जैसे रज्जुसर्प, शुक्तिरजत आदि । (३) पादुकासहस्र-वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ रचित एक प्रार्थना । व्यावहारिक, जो संसार की सभी वस्तुओं में ठोस रूप से ग्रन्थ, जिसमें एक हजार पद्य है। काम में आती है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से अन्तिम विश्लेपादोदक-लिङ्गायतों के गुरु ( दीक्षागरु ) जब उनके घर षण में वास्तविक नहीं ठहरती है, धन-सम्पत्ति, पुत्र-कलत्र, आते हैं तब पादोदक नामक उत्सव होता है। इसमें गुरु समाज, राज्य, व्यापार आदि । (४) पारमार्थिक, जो के पाद (चरण) धोने की क्रिया होती है । कुटुम्ब के सभी प्रथम तीन से परे, आत्मा अथवा वस्तुसत्ता से सम्बन्ध लोगों, मित्र, परिवार वालों के साथ धर का प्रमुख व्यक्ति रखने वाली, ऐकान्तिक एवं अनिर्वचनीय है। वास्तव में गुरु के चरणों की षोडशोपचारपूर्वक पूजा करता है। फिर यही अद्वैत सत्ता है। चरणोदक का पान, सिर पर अभिषिञ्चन तथा घर में पारस्करगृह्यसूत्र-मुख्य तेरह गृह्यसूत्रों में पारस्कर गृह्यसूत्र छिड़काव होता है । दूसरे धार्मिक सम्प्रदायों में भी न्यूना- (अपर नाम कातीय गृह्यसूत्र) की गणना है। यह यजुर्वेधिक मात्रा में चरणोदक का महत्त्व है । दीय गृह्यसूत्र है। तीन काण्डों में इसका विभाजन हआ है। पादोदकस्नान-इस व्रत का अनुष्ठान उत्तराषाढ़ नक्षत्र में गृह्यसंस्कारों, वस्तुसंस्कारों तथा ऋतुयज्ञों का विस्तृत होता है। इसमें उपवास करने का विधान है। श्रवण वर्णन इसमें पाया जाता है । काशी संस्कृत सीरीज में कई नक्षत्र में भगवान् हरि के चरणों का स्नान कराने के बाद भाष्यों के साथ इसका प्रकाशन हुआ है, इसके प्रमुख भाष्य रजत, ताम्न अथवा मृत्तिका के चार कलशों में भगवान् संक- है--अमृत व्याख्या (ले० नन्द पण्डित), अर्थभास्कर (ले० , Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारावत-पाशपत भास्कर), प्रकाश (ले० वेद मिश्र), संस्कारगणपति (ले० रामकृष्ण), सज्जनवल्लभा (ले० जयराम), भाष्य (ले० कर्क), भाष्य (ले० गदाधर), भाष्य (ले० हरिहर), भाष्य (ले० विश्वनाथ), भाष्य (ले० वासुदेव दीक्षित)। पारावत-यजुर्वेदवणित अश्वमेध के बलिपशुओं को तालिका में पारावत (एक प्रकार के कबूतर) का नामो ल्लेख है। पाराशर-पराशर से प्रवर्तित गोत्र । पराशर की गणना गोत्रऋषियों में की गयी है। महाभारतकार व्यास भी पाराशर हैं क्योंकि उनके पिता का नाम पराशर था। दे० 'पाराशरस्मृति' । पाराशर उपपुराण-उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से पारा शर उपपुराण भी एक है। पाराशर(द्वैपायन)ह्रद-हरियाना प्रदेशवर्ती यह तीर्थस्थान बहलोलपुर ग्राम के समीप, करनाल से कैथल जानेवाली सड़क से लगभग छः मील उत्तर है। कहा जाता है कि महाभारतयुद्ध के मैदान से भागकर दुर्योधन इसी सरोवर में छिप गया था। यह भी कहा जाता है कि महर्षि पराशर का आश्रम यहीं था । फाल्गुन शुक्ल एकादशी को यहाँ बड़ा मेला होता है। पारिप्लव-पारिप्लव शब्द आख्यान के लिए व्यवहृत हुआ है, जिसका अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर पाठ किया जाता था तथा जो वर्षभर निश्चित काल के पश्चात् दुहराया जाता था। यह शतपथ ब्राह्मण (१३.१४,३,२-१५) तथा श्रौतसूत्रों में वर्णित है। पार्थसारथि मिश्र-मीमांसा दर्शन के कुमारिल भट्रकृत श्लोकवार्तिक की टीका 'न्यायरत्नाकर' की रचना पार्थसारथि मिश्र ने की है। पूर्व मीमांसा के ग्रन्थकारों में इनका स्थान बड़ा सम्माननीय है। इनका स्थितिकाल लगभग १३५७ वि० है। इनका 'शास्त्रदीपिका' आधुनिक शैली पर प्रस्तुत कर्ममीमांसा का ग्रन्थ है, जिसका अध्ययन प्राचीन ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक हुआ है। 'शास्त्रदीपिका' जैमिनि के पूर्वमीमांसासूत्र की टोका है । इनकी अन्य टीकाओं में 'तन्त्ररत्न', 'न्यायरत्नमाला' आदि प्रसिद्ध है। पार्वत-शङ्कर के प्रशिष्यों में, जो दसनामी संन्यासी के नाम से विख्यात हुए, पर्वत भी एक थे। इनकी शिष्यपरम्परा पार्वत कहलायी। दे० 'दसनामी' । पालोचतुर्दशीव्रत-भाद्र पद शुक्ल चतुर्दशी का व्रत है। यह तिथिव्रत है, वरुण इसके देवता है। एक मण्डल में वरुण की आकृति खींची जाय, समस्त वर्गों के लोग तथा महिलाएँ अर्घ्य दें, फल-फूल, समस्त धान्य तथा दधि से मध्याह्न काल में पूजन हो। इस व्रत के आचरण से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सौभाग्य प्राप्त करता है। पाश-(१) पाशुपत शैव दर्शन में तीन तत्त्व प्रमुख हैपति, पशु और पाश । पति स्वयं शिव हैं, पशु उनके द्वारा उत्पन्न किये हुए प्राणी हैं तथा पाश वह बन्धन है जिससे जीव (पशु) सांसारिकता में बँधा हुआ है । (२) ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में इसका अर्थ रस्सी है, जिसे बाँधने या कसने के काम में लाया जाता है। रस्सी तथा ग्रन्थि का उल्लेख एक साथ अथर्ववेद (९.३,२) में आया है । पाश का उल्लेख शत० वा० में मनु की नाव से बँधने वाली रस्सी के लिए हुआ है। वैदिक मन्त्रों में इसे वरुणपाश कहा गया है। पाशुपत-पाशुपत सम्प्रदाय शैव धर्म की एक शाखा है। सम्पूर्ण जैव जगत् के स्वामी के रूप में शिव की कल्पना इसकी विशेषता है। यह कहना कठिन है कि सगुण उपासना का नैव रूप अधिक प्राचीन है अथवा वैष्णव । विष्णु एवं रुद्र दोनों वैदिक देवता हैं। परन्तु दशोपनिषदों में परवा का तादात्म्य विष्णु के साथ दिखाई पड़ता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में यह तादात्म्य शङ्कर के साथ पाया जाता है। भगवद्गीता में भी "रुद्राणां शङ्करश्चास्मि' वचन है। यह निर्विवाद है कि वेदों से ही परमेश्वर के रूप में शङ्कर की उपासना प्रारम्भ हुई। यजुर्वेद में रुद्र की विशेष स्तुति है। यह यज्ञसम्बन्धी वेद है और यह मान्यता है कि क्षत्रियों में इस वेद का आदर विशेष है। धनुर्वेद यजुर्वेद का उपाङ्ग है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की है। अर्थात् यह स्पष्ट है कि क्षत्रियों में यजुर्वेद और शङ्कर की विशेष उपासना प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य है कि क्षत्रिय युद्धादि कठोर कर्म किया करते थे, इस कारण उनमें शङ्कर की भक्ति रूढ़ हो गयी। महाभारत काल में पाञ्चरात्र के समान तत्त्वज्ञान में भी पाशुपत मत को प्रमुख स्थान मिल गया। पाशुपत तत्त्वज्ञान शान्तिपर्व के २४९वें अध्याय में वर्णित है। महाभारत में विष्णु की स्तुति के वाद बहुधा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् पाशुपतव्रत शीघ्र ही शहर की स्तुति आती है। इस नियम के अनु सार नारायणीय उपाख्यान के समान पाशुपत मत का सविस्तर वर्णन महाभारत, शान्तिपर्व के २८० वें अध्याय में आया है । २८४वें अध्याय में विष्णु स्तुति के पश्चात् दक्ष द्वारा शङ्कर की स्तुति की गयी है। इस समय शङ्कर ने दक्ष को 'पाशुपतव्रत' बतलाया है। इस वर्णन से पाशुपत मत की कल्पना की गयी है। इस मत में पशुपति सब देवों में मुख्य हैं । वे ही सारी सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता हैं । पशु का अर्थ समस्त सृष्टि है, अर्थात् ब्रह्मा से स्थावर तक सब पदार्थ उनकी सगुण भक्ति करने वालों में कार्तिकेय स्वामी, पार्वती और नन्दीश्वर भी सम्मिलित किये जाते हैं । शङ्कर अष्टमूर्ति है, उनकी मूर्तियाँ हैं- महाभूत, सूर्य, चन्द्र और पुरुष । अनुशासन पर्व में उपमन्युचरित्र के साथ इस मत के विकास का घोड़ा आख्यान दृष्टिगोचर होता है । पाशुपत तथा पाञ्चरात्र मत में अति सामीप्य है। दोनों के मुख्य दार्शनिक आधार सांख्य तथा योग दर्शन हैं। शैव धर्म के सम्बन्ध में एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पाशुपत ग्रन्थों में लिङ्ग को अति अर्चनीय बतलाया गया है। आज भी संलिङ्गपूजक है। इसका प्रचलन कब से है, यह विवादास्पद है । पुरातत्त्वज्ञों के विचार से यह ईसा के पूर्व से चला आ रहा है। ऋग्वेद के शिश्नदेव शब्द से इसके प्रचार की शलक मिलती है। संभवतः भारत के आदिवासियों में प्रचलित धर्म से इसका प्रारम्भ माना जा सकता है । हिन्दुओं द्वारा लिङ्गार्चन मूर्तियों और मन्दिरों में पहले से ही प्रवर्तित था, किन्तु ब्राह्मणों द्वारा इसे ई० सन् के बाद मान्यता प्राप्त हुई । पाशुपत मत के गठन के समय तक लिङ्गपूजा को मान्यता मिल चुकी थी अथर्वशिरम् उपनिषद् में पाशुपत मत का विवरण है । तथा यह महाभारत में वर्णित पाशुपत प्रकरण का सम कालीन ही है । रुद्र पशुपति को इसमें सभी पदार्थों का प्रथम तत्त्व बताया गया है तथा वे ही अन्तिम लक्ष्य हैं। यहाँ पर पति, पशु और पाश तीनों का उल्लेख है तथा 'ओम्' के उच्चारण के साथ योग साधना को श्रेष्ठ बताया गया है । इसी समय की तीन और पाशुपत उपनिषदें हैं - अथर्वशिरस्, नीलरुद्र तथा कैवल्य । पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षेप में इस प्रकार हैं- जीव की संज्ञा 'पशु' है, अर्थात् जो केवल जैव स्तर पर इन्द्रियभोगों में लिप्त रहता है वह पशु है। भगवान् शिव पशुपति हैं । उन्होंने बिना किसी बाहरी कारण, साधन अथवा सहायता के इस संसार का निर्माण किया है। वे जगत् के स्वतन्त्र कर्त्ता हैं। हमारे कार्यों के भी मूल कर्त्ता शिव ही हैं । वे समस्त कार्यों के कारण हैं । संसार के मल- विषय आदि पाश हैं जिनसे जीव बँधा रहता है। इस पाश अथवा बन्धन से मुक्ति शिव की कृपा से प्राप्त होती है । मुक्ति दो प्रकार की है; सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमैश्वर्य की प्राप्ति द्वितीय भी दो प्रकार की है - शक्तिप्राप्ति और क्रिया-शक्तिप्राप्ति दृशक्ति से सर्वज्ञता प्राप्त होती है, क्रियाशक्ति से वांछित पदार्थ तुरंत प्राप्त होते हैं। इन दोनों शक्तियों की प्राप्ति ही परमेश्वर्य है । केवल भगवद्दासत्व की प्राप्ति मुक्ति नहीं बन्धन है । पाशुपत दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम तीन प्रमाण माने जाते हैं । धर्मार्थसाधक व्यापार को विधि कहते हैं । विधि दो प्रकार की होती है--व्रत और द्वार । भस्मस्नान, भस्मशयन, जप, प्रदक्षिणा, उपवास आदि व्रत हैं। शिव का नाम लेकर हहाकर हँसना, गाल बजाना, गाना, नाचना, जप करना आदि उपहार हैं । व्रत एकान्त में करना चाहिए । 'द्वार' के अन्तर्गत क्राथन ( जगते हुए भी गायनमुद्रा), स्पन्दन (वायु के झोंके के सदृश हिलना ), मन्दन ( उन्मत्तवत् व्यवहार करना) श्रृंगारण ( कामार्त न होते हुए भी कामातुर के सदृश व्यवहार करना), अवित्करण (अविकियों की तरह निषिद्ध व्यवहार करना) और अविद्भाषण ( अर्थहीन और व्याहत शब्दों का उच्चारण), ये छः क्रियाएँ सम्मिलित हैं । पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् - यह परवर्ती उपनिषद् है । पाशुपतमत दे० 'पाशुपत' । पाशुपतव्रत -- ( १ ) यह व्रत चैत्र मास में आरम्भ होता है । एक छोटा शिवलिङ्ग बनाकर उसे चन्दनमिश्रित जल से स्नान कराया जाता है । एक सुवर्णकमल के ऊपर शिवलिङ्ग स्थापित किया जाता है। तदनन्तर बिल्व पत्रों, कमलपुष्पों (श्वेत रक्त नोल) एवं अन्यान्य उपचारों से पूजन किया जाता है। यह व्रत चैत्र मास में प्रारम्भ होकर प्रति मास आयोजित होता है। वैशाख मास से प्रति मास क्रमशः हीरक, पन्ना, मोती, नीलम, माणिक्य, गोमेद, मूंगा, सूर्यकान्त तथा स्फटिक मणि से लिङ्गों का निर्माण होना चाहिए वर्ष के अन्त में एक गौ का दान ३९७ 1 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ पाशुपतशास्त्र-पिता तथा एक साँड़ का उत्सर्ग विहित है। यदि व्रती निर्धन वर्णित अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिहै तो एक ही मास इस व्रत का आचरण होना चाहिए। खित है। अनेक मन्त्र पढ़े जाते हैं जो "स मे पापं व्यपोहतु" से पिङ्गल-कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणिका के पश्चात् छन्द- . समाप्त होते हैं। ये मन्त्र शिवजी के नाना रूपों तथा शास्त्र के सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हए हैं। स्कन्दादि अनेक देवताओं को सम्बोधित हैं । दे० हेमाद्रि, परम्परा के अनुसार इन्होंने १ करोड ६ लाख ७७ हजार २.१९७-२१२ (लिङ्गपुराण से)। २ सौ १६ प्रकार के वर्णवृत्तों का प्रणयन किया । यह (२) चैत्र मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्टान अतिरञ्जना है। इसका तात्पर्य केवल यह है कि छन्दों की होना चाहिए । त्रयोदशी को ही एक सुयोग्य आचार्य को संख्या अगणित हो सकती है। सम्मानित करते हुए जीवनपर्यन्त पाशुपत व्रत करने का । पिङ्गलातन्त्र-'आगमतत्वविलास' में जिन तन्त्रों का नामोसंकल्प किया जाता है, अथवा १२ वर्ष, ६ वर्ष, तीन वर्ष, ल्लेख है, उनमें पिङ्गलातन्त्र भी है । पिण्ड--(१) पितरों को दिया जानेवाला आटे या भात एक वर्ष, एक मास अथवा केवल १२ दिन तक इस व्रत को करने का संकल्प लिया जाता है। घी तथा समिधाओं का गोला, जो विशेष कर अमावस्या को दिया जाता है से हवन तथा चतुर्दशी को उपवास करने का विधान है। और जिसका उल्लेख निरुक्त ( ३.४ ) तथा लाट्यायन पूर्णिमा को हवन, तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्र बोलते श्रौत्रसूत्र ( २.१०,४ ) में हुआ है। पिण्डदान श्राद्ध का हुए शरीर पर भस्म का लेप किया जाता है । मन्त्र है विशेष अङ्ग है। 'अग्निरिति भस्म' इत्यादि । (२) जीवों के शरीर को भी पिण्ड कहते हैं। यह विश्व का एक लघु रूप है, इसलिए कहा जाता है कि जो (३) कृष्ण पक्ष की द्वादशो से व्रती को एकभक्त पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में भी। पद्धति से आहार करना चाहिए, त्रयोदशी को अयाचित पिण्डपितृयज्ञ-पितरों के निमित्त दो यज्ञ किये जाते हैं; पद्धति से, चतुर्दशी को नक्क तथा अमावस्या को उपवास । प्रथम पिण्डपितृयज्ञ तथा दूसरा श्राद्ध । पहला यज्ञ अमावस अमावस्या के बाद वाली प्रतिपदा को सुवर्ण का साँड़ को किया जाता है तथा उसमें चावल ( भात ) का पिण्ड बनवाकर दान देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, २.४५५ ( गोलक ) पितरों को समर्पित किया जाता है। ४५७ (वह्निपुराण से) । पिण्डोपनिषद-यह परवर्ती उपनिषद् है । पाशुपत शास्त्र--पाशुपत शैवों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ पितामह-वेदाङ्ग ज्योतिष पर तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध है-प्रथम 'पाशुपतसुत्र' अथवा 'पाशुपतशास्त्र' है। इस ग्रन्थ की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। ऋग्ज्योतिष, दूसरा यजुर्योतिष तथा तीसरा अथर्वज्योतिष । अन्तिम के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिररचित पञ्चपाशुपत शेव-दे० 'पाशुपत' । सिद्धान्तिका में एक सिद्धान्त पैतामह नाम से भी दिया पाशुपतसिद्धान्त-पाशुपत एवं गैव सिद्धान्त दोनों समान ही हुआ है। हैं । दे० 'पाशुपत' । महाभारत के प्रसिद्ध पात्र भीष्म को भी पितामह कहते पाषाणचतुर्दशी-शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को, जब सूर्य है । क्योंकि वे कौरव-पाण्डवों के पिताओं के सम्मानित वृश्चिक राशि पर हो, आटे का पाषाण के समान ढेर पितातुल्य थे। बनाकर गौरी की आराधना करनी चाहिए। सन्ध्यो- पिता-ऋग्वेद तथा परवर्ती साहित्य में यह शब्द ( उत्पन्न परान्त भोजन का विधान है। करने वाला ) की अपेक्षा शिशु के रक्षक के अर्थ में अधिक पाष्य-ऋग्वेद के एक सन्दर्भ ( १.५६,६) में वृत्र की व्यवहृत हुआ है । ऋग्वेद में यह दयालु एवं भले अर्थों में हार के वर्णन में यह शब्द उद्धृत है । दूसरे सन्दर्भ ( ९. प्रयुक्त हुआ है । अतएव अग्नि की तुलना पिता से ( ऋ० १०२,२ ) में सोमलता को पेरने वाले पत्थरों को पाष्य १०.७,३ ) की गयी है। पिता अपनी गोद में ले जाता है कहा गया है। (१.३८,१ ) तथा अग्नि की गोद में रखता है ( ५.४. पिक-भारतीय पिक ( कोकिल ) यजुर्वेद संहिता में ३,७ ) । शिश पिता के वस्त्रों को खींचकर उसका ध्यान Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पितृपक्ष-पिपीतकद्वादशी ३९९ आकर्षित करता है, उसका आनन्दपूर्वक स्वागत करता पितृपक्ष-आश्विन कृष्ण पक्ष का नाम । इसमें पन्द्रह दिनों है (७.१०३.३ )। तक पितरों को पिण्डदान किया जाता है। एक प्रकार का यह कहना कठिन है कि किस सीमा तक पुत्र पिता की यह पूर्वपुरुषों का सामूहिक श्राद्ध है। इस पक्ष में ज्ञातअधीनता में रहता था एवं यह अधीनता कब तक रहती थी। अज्ञात सभी पितरों का स्मरण किया जाता है। पूर्वजों ऋग्वेद ( २.२९.५ ) में आया है कि एक पत्र को उसके की स्मृति सजीव रखने का यह एक धार्मिक साधन है। पिता ने जआ खेलने के कारण बहत तिरस्कृत किया तथा पितृभूति-कात्यायन श्रौतसूत्र के अनेक भाष्यकार एवं ऋज्राश्व को (ऋ० १.११६,१६,११७,१७) उसके पिता वृत्तिकारों में विशेष उल्लेखनीय पितभति भी है। ने अंधा कर दिया। पुत्र के ऊपर पिता के अनियन्त्रित पितृमेधसूत्र-यह गृह्यसूत्र है जो गौतम द्वारा रचित बतलाया अधिकार का यह द्योतक है । परन्तु ऐसी घटनाएँ क्रोधावेश जाता है। इसके टीकाकार अनन्तज्ञान कहते हैं कि ये में अपवाद रूप से ही होती थीं। गौतम न्यायसूत्र के रचयिता महर्षि गौतम ही हैं । इसके अतिरिक्त गौतम का एक और धर्मसूत्र है । उसका नाम भी इस बात का भी पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि पुत्र बड़ा गौतमधर्मसूत्र है। होकर पिता के साथ रहता था अथवा नहीं; उसकी स्त्री । पितयान-ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में पितयान उसके पिता के घर की सदस्यता प्राप्त करती थी अथवा (पितरों के मार्ग ) का 'देवयान' से भेद प्रकट होता है। नहीं; वह पिता के साथ रहता था या अपना अलग घर तिलक के मतानुसार देवयान उत्तरायण तथा पित्यान बनाता था। वृद्धावस्था में पिता प्रायः पुत्रों को सम्पत्ति दक्षिणायन से सम्बन्धित है। शतपथ ब्राह्मण के एक परिका विभाजन कर देता था तथा श्वशुर पुत्रवधू के अधीन च्छेद ( २.१.३,१-३) से वे यह निष्कर्ष निकालते हैं। हो जाता था। शतपथब्राह्मण में शनःशेप की कथा से वसन्त, ग्रीष्म एवं वर्षा पितरों की ऋतु है । देवयान का पिता की निष्टरता का उदाहरण भी प्राप्त होता है। प्रारम्भ वसन्त से तथा पितृयान का प्रारम्भ वर्षा से होता उपनिषदों में पिता से पुत्र को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त है । इसके साथ वे देव तथा यम नक्षत्र (तैत्तिरीय सं०,१५, करने पर जोर डाला गया है। २,६ ) का सम्बन्ध जोड़ते हैं। प्रकृत पुत्रों के अभाव में दत्तक पुत्र को गोद लेने की मरने के अनन्तर प्रेत अपने कर्मों के अनुसार इन दो प्रथा थी। स्वाभाविक पुत्रों के रहते हुए भी अच्छे व्यक्तित्व मार्गों में से किसी एक से परलोक को प्रस्थान करता है। वाले बालकों को गोद लेने की प्रथा थी। विश्वामित्र सामान्य लौकिक कर्म करने वाले पिल्यान से जाते है । यज्ञ द्वारा शुनःशेप का ग्रहण किया जाना इसका उदाहरण तथा अन्य निष्काम कर्म करने वाले देवयान से जाते है । है । साथ ही इस उदाहरण से इस बात पर भी प्रकाश पितृव्रत-(१) एक वर्ष तक प्रति अमावस्या को इस व्रत पड़ता है कि एक वर्ण के लोग अन्य वर्ण के बालकों को का अनुष्ठान होता है । व्रती केवल दुग्धाहार करता है । भी ग्रहण कर लेते थे। इस उदाहरण में विश्वामित्र का वर्ष के अन्त में श्राद्ध करके वस्त्र, जलपूर्ण कलश तथा क्षत्रिय तथा शुनःशेप का ब्राह्मण होना इसे प्रकट करता गौ दान में दी जाती है । इस व्रत से सौ पीढ़ियाँ तर गौ दान में दी जाती है । म त है। गोद लिये गये पुत्र को साधारणतः ऊँचा सम्मानित जाती हैं और व्रती विष्णु लोक को प्राप्त करता है। स्थान प्राप्त नहीं था। पुत्र के अभाव में पुत्री के पुत्र को (२) चैत्र कृष्ण प्रतिपद् से सात दिनों तक सात पितभी गोद लिया जाता था तथा उस पुत्री को पुत्रिका कहते गणों की पूजा करनी चाहिए, जो अग्निष्वात्त, बहिर्षद थे। अतएव ऐसी लड़कियों के विवाह में कठिनाई होती थी इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं । एक वर्ष अथवा बारह वर्ष जिसका भाई नहीं होता था, क्योंकि ऐसा बालक अपने तक इसका अनुष्ठान होता है। पिता के कूल का न होकर नाना के कुल का हो जाता था। पिपीतकद्वादशी-वैशाख शुक्ल की द्वादशी को पिपीतक परिवार में माता व पिता में पिता का स्थान प्रथम द्वादशी कहते हैं । इस तिथि को शीतल जल से भगवान था। दोनों को युक्त कर 'पितरौ' अर्थात् पिता और माता केशव की प्रतिमा को स्नान कराकर गन्धाक्षत, पुष्पादि यौगिक शब्द का प्रयोग होता था। उपचारों से पूजन किया जाता है। प्रथम वर्ष चार जल Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिप्पलाद-पीठ पूर्ण कलशों का दान, द्वितीय वर्ष आठ कलशों का दान, तथा पहाड़ों की चोटियों पर बलि प्रदान की जाती है। तृतीय वर्ष बारह कलशों का और चतुर्थ वर्ष सोलह दे० नीलमत पुराण, ५५-५६, श्लोक ६७४-६८१ । कलशों का दान विहित है। सुवर्ण की दक्षिणा देनी पिशाचमोचन--(१) मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी को यह व्रत चाहिए। इस द्वादशी का पिपीतक नाम इसलिए है कि किया जाता है। काशी में कपर्दीश्वर शिव के पास कुण्डइसी नाम के ब्राह्मण द्वारा यह प्रचारित हुई । दे० व्रतकाल- स्नान तथा उनका पूजन किया जाता है। वहीं भोजन विवेक, १९-२०; वर्षकृत्यकौमुदी, २५२-२५८ । वितरण का विधान है। प्रति वर्ष इस व्रत का अनुष्ठान पिप्पलाद-पिप्पलाद (पीपल के फल खाने वाले ) नामक होता है। व्रती पिशाच होने की स्थिति से मुक्त हो आचार्य का उल्लेख प्रश्नोपनिषद् में हुआ है । ये अथर्ववेद जाता है। की शाखा 'पैप्पलाद' के प्रवर्तक थे। (२) स्मृतिकौस्तुभ (१०८) के अनुसार इस दिन गङ्गा पिप्पलावशाखा-अथर्ववेद नौ शाखाओं में विभक्त है, में स्नान करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, जव जिनमें एक शाखा 'पैप्पलाद' है। इस शाखा की मूल कि चतुर्दशी मंगलवार को पड़े। व्रती इससे पिशाचयोनि संहिता की एक मात्र प्रतिलिपि कुछ काल पूर्व तक में पड़ने से मुक्त हो जाता है। भारत में बची थी और वह कश्मीर में थी, जहाँ से एक काशी में पिशाचमोचन नामक तीर्थ प्रसिद्ध है। भ्रान्त घटनावश वह जर्मनी पहुँच गयी। अब उक्त प्रति- पिष्टाशन व्रत-इस व्रत में प्रति नवमी को केवल आटे का लिपि के आधार पर यह संहिता भारत में मुद्रित हो आहार किया जाता है। महानवमी को इसका प्रारम्भ गयी है। केवल इसके प्रथम पृष्ठ का पाठ संदिग्ध है, होता है । नौ वर्ष तक यह चलता है। गौरी इसकी देवी क्योंकि उक्त प्रति मे वह खंडित हो गया है। हैं । इससे समस्त मनोवाञ्छाओं की पूर्ति होती है। पिप-ऋग्वेद के अनुसार इन्द्र का एक शत्रु । यह इन्द्र द्वारा पीठ-(१) किसी धार्मिक क्रिया के मुख्य आधारस्थान को बार-बार हराया गया था। पुरों (दुर्गी) का स्वामी होने पीठ कहते हैं । कुलालिकतन्त्र में पाँच वेदों, पाँच योगियों के कारण उसे दास तथा असुर कहा गया है । इस नाम और पाँच पीठों का उल्लेख है। उत्कल में 'उड्डियान', का अर्थ 'विरोधक' (विरोध करने वाला) है । जालन्धर में 'जाल', महाराष्ट्र में 'पूर्ण', श्रीशैल पर पिशङ्ग-पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५,३) में उल्लिखित नाग- 'पतङ्ग' और असम में 'कामाख्या', ये पाँच ही शानों यज्ञ के दो उन्नेता पुरोहितों में से एक का नाम के आदि पीठ हैं। बाद में जो ५१ पीठ हो गये, उनके पिशङ्ग है। होते हुए भी ये पाँच मुख्य माने जाते हैं। पिशाच-अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में उद्धृत असुरों में (२) प्राणिशरीर के अन्दर पाँच कोष होते हैं, जिनमें से एक वर्ग का नाम पिशाच है । तैनिरीय संहिता (२.४, अन्नमय कोष स्थलकोष कहा जाता है। शेष प्राणमय, १,१) में उनका सम्बन्ध राक्षसों और असुरों से बताया मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय ये चतुर्विध सूक्ष्म गया है तथा दोनों को मनुष्यों एवं पितरों का विरोधी कहा कोष है । इनमें अन्नमय कोष एक प्रकार का संयोजक गया है। अथर्ववेद (५,२५,९) में उन्हें क्रव्याद (कच्चा कोष है, जो स्थूल और सूक्ष्म कोषों के मध्य कड़ी का काम मांस भक्षण करने वाला) कहा गया है। सम्भवतः ये करता है। आनन्दमय कोष से समस्त दैवी लोकों का मानवों के शत्र थे तथा अपने उत्सवों पर नरमांस भक्षण सम्बन्ध रहता है। इसी प्रकार स्थूल अन्नमय कोष करते थे। उत्तर वैदिककाल में एक 'पिशाचवेद' अथवा (शरीरों) से जब देवताओं का सम्बन्ध स्थापित होता है, पिशाचविद्या' का भी प्रचलन था। तब अन्नमय कोषों या शरीरों में उनकी स्थिति के लिए पिशाचचतुर्दशी-चैत्र कृष्ण चतुर्दशी। इसमें भगवान् शङ्कर आधार निर्मित हो जाता है । उसे पीठ कहते हैं। यह का पूजन तथा रात्रि में उत्सव करने का विधान है। प्राणमय होता है। निकुम्भ नामक राक्षस इसी दिन भगवान् शङ्कर की पूजा प्राण की आकर्षण और विकर्षण दो शक्तियाँ हैं। करता है अतएव इस दिन निकुम्भ का भी सम्मान किया आकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है एवं विकर्षण जाता है तथा पिशाचों को गोशालाओं, नदियों, सड़कों शक्ति इसके विपरीत कार्य करती है। दोनों शक्तियाँ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठापुरम्-पुसवन ४०१ ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पिण्ड में विद्यमान रहती हैं। इन्हीं इसी सिद्धान्त के आधार पर विशाल भूभाग पर आकर्षण और विकर्षण के प्रभाव से समस्त ग्रह-उपग्रह अनेक तीर्थ एवं पीठ स्थानों का आविर्भाव माना गया अपने अपने स्थानों पर नियमित रहकर कार्यनिरत है। इसी प्रकार के दैव पीठ की सहायता से संसार में रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के समान रूप से स्थित होने समस्त देवी कार्य सम्पादित होते हैं । पर उनका जो आवर्त या चक्र बनता है, उसे पीठ (३) प्राचीन वैदिक उद्धरणों में पीठ शब्द स्वतन्त्र रूप कहते हैं। से व्यवहृत नहीं हुआ है, किन्तु यौगिक 'पीठसी' विशेजिस प्रकार मनुष्य को स्थिर रहने के लिए किसी षण के रूप में मिलता है । वाजसनेयी संहिता (३०.२१) स्थूल आधार की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार सूक्ष्म तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.४,१७,१) में पुरुषमेध के आनन्दमय कोष से सम्बन्धित देवताओं के लिए भी सक्षम हवनीय पदार्थों में इसका भी उल्लेख है। आधार पीठस्थल आवश्यक होता है और वह आधार पीठापुरम्-आन्ध्र प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान । यह यह पीठ ही है। 'पादगया क्षेत्र' है। पाँच प्रधान पिततीर्थ माने जाते इस प्रकार मन और मन्त्रादि द्वारा आकर्षण-विकर्षणा- हैं-१. गया (गयाशिरक्षेत्र) २. याजपुर-वैतरणी (उड़ीसा त्मक प्राणशक्ति की सहायता से सोलह प्रकार के दिव्य में नाभिगयाक्षेत्र) ३. पीठापुरम् (पादगयाक्षेत्र) ४. सिद्धस्थानों में पीठ की स्थापना कर अभीष्ट देवताओं का पुर ( गुजरात में मातृगयाक्षेत्र) ५. बदरीनाथ (ब्रह्मआवाहन किया जाता है। पीठ स्थल जितना पवित्र और कपाली) । बलसम्पन्न होगा उतने ही पवित्र और बलिष्ठ देवताओं पीठापुरम् में अधिकांश यात्री पिण्डदान करने आते का उस पर आवाहन किया जा सकता है। इसी प्रकार है । यहाँ कुक्कुटेश्वर शिवमन्दिर है । बाहर मधु स्वामी मति में भी जब तक पीठ की स्थिति रहती है, तभी तक का मन्दिर है। पास में माधवतीर्थ नामक सरोवर है। उस मूर्ति द्वारा दैवी कलाएँ और चमत्कार प्रकाश में आते पीपा-वैष्णवाचार्य स्वामी रामानन्द के शिष्यमंडल के है । पीठ को एक उदाहरण द्वारा भी ज्ञात किया जा प्रमुख व्यक्ति । इनका जन्म एक राजकुल में संवत् १४८२ सकता है। यथा आकर्षण और विकर्षण शक्ति युक्त दो वि० में हुआ था। 'भक्तमाल' ग्रन्थ में इनकी निश्छल पदार्थ एक दूसरे के सम्मुख रखे हों तो एक पदार्थ का भक्ति भावना का वर्णन हुआ है । आकर्षण दूसरे पदार्थ को अपनी ओर खींचेगा, एवं दोनों पीयूष-ऋग्वेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में गौ के बच्चा देने के की विकर्षण शक्ति दोनों को उससे विपरीत दिशा की बाद के प्रथम दूध को 'पीयूष' कहा गया है। इसकी तुलना ओर प्रेरित करेगी । दोनों वस्तुओं की पथक्-पृथक् दिशा सोमलता के रस से की गयी है। में गति होने पर एक प्रकार का आवतं अथवा चक्र बन पोलुपाक मत-परमाणुओं के बीच अन्तर की धारणा न जाता है। इसी तरह जिस देवता का आवाहन किया होने के कारण वैशेषिकों को 'पीलुपाक' नाम का विलक्षण जाता है उस दैवी शक्ति का प्राणों की सहायता से अन्न- मत ग्रहण करना पड़ा। इसके अनुसार घट अग्नि में पड़मय कोष से सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर प्राणों की कर इस प्रकार लाल होता है कि अग्नि के तेज से घट के आकर्षण शक्ति की सहायता से वह दैवी शक्ति आकर्षित परमाणु अलग-अलग हो जाते है और फिर लाल होकर हो जाती है, एवं प्राणों की विकर्षण शक्ति की विपरीत मिल जाते हैं। घड़े का यह बनना-बिगड़ना इतने सूक्ष्म किया के परिणामस्वरूप वह दैवी शक्ति विकर्षित होती है। काल में होता है कि कोई देख नहीं सकता। इस प्रक्रिया इस आकर्षण आर विकर्षण क्रिया के होने पर एक वत्ता- से होने वाले परिवर्तन को पीलुपाक मत कहते हैं। कार स्थल का निर्माण हो जाता है जिसे पीठ कहते हैं। पीलमती-अथर्ववेद (१८.२,४८) में पीलुमती को उदन्वती इस वृत्त के आभ्यन्तरीय पूर्ण स्थान पर आवाहित उस एवं प्रद्यौ नामक दो स्वर्गों के बीच का स्वर्ग कहा दैवी शक्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। क्योंकि गया है। इस आवत का मध्यगत समस्त स्थान आवाहित देवता का पुंसवन-गर्भवती स्त्री का एक धार्मिक संस्कार, जो पुत्र ही स्थान बन जाता है । संतान होने के लिए किया जाता था। इसका सर्वप्रथम Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पुजारी-पुत्र उल्लेख अथर्ववेद (६.२.१) में हआ है । यह यज्ञ पुत्रोत्पत्ति पुण्डरीकाक्ष-(१) विष्णु का एक पर्याय है। (२) तमिल की कामना से किया जाता था और गृह्यसूत्रों के समय देश के श्रीवैष्णवों में नाथ मुनि अति प्रसिद्ध हो गये हैं। तक इसकी गणना संस्कारों में होने लगी। आगे चलकर । इन्हीं के शिष्य पुण्डरीकाक्ष थे । इनके पश्चात् राम मिश्र यह संस्कार भ्रूग की पुष्टि के लिए ही किया जाने लगा। तथा उनके उत्तराधिकारी आचार्य यामुनाचार्य हए। पुजारी-देवालयों में मूर्ति की विधिवत् पूजा के लिए पुण्डरीकाक्ष तथा राम मिश्र के बारे में कुछ अधिक ज्ञात नियुक्त व्यक्ति । हिन्दू धर्म के विकासक्रम में बारहवीं से नहीं है । सोलहवीं शती तक अनेक बड़े-बड़े सम्प्रदाय स्थापित हुए, पुण्डरीकाक्ष स्वामी-विशिष्टाद्वैत वैष्णव परम्परा के एक किन्तु सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध से उत्तर तथा दक्षिण आचार्य । इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है : भगवान् भारत में ये सम्प्रदाय अवनति की ओर गतिमान् रहे। नारायण ने महालक्ष्मी को वैष्णव धर्म का उपदेश किया, असंख्य लोगों की आध्यात्मिक प्णस को मिटाने के लिए उनसे वैकुण्ठपार्पद विष्वक्सेन को उपदेश मिला, उनसे सामान्य पुजारियों ने लोकप्रिय धर्म का आन्दोलन आरम्भ शठकोप स्वामी को। इनके शिष्य नाथ मुनि हए और इनके किया। पुराने बिखरे हुए विचारों को समेट कर नाना देवी-शिष्य पुण्डरीकाक्ष स्वामी, इनके शिष्य राम मिश्र स्वामी देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गयी और उनकी पूजा थे और इनसे यामुनाचार्य को यह उपदेश प्राप्त हुआ । की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर धार्मिक भावना पण्ड-द्विज वैष्णवों की दीक्षा में पाँच संस्कार करने होते को जीवित रखा गया । उत्तरी भारत में स्मातं ब्राह्मण हैं। वे हैं ताप, पुण्ड, नाम, मन्त्र एवं याग । पुण्ड्र साम्प्रस्वयं मन्दिरों में जाकर अपनी शाखा के गृह्यसूत्रों के दायिक चिह्न को कहते हैं, जो दीक्षा लेने वाले के शरीर निर्देशानुसार देवतार्चन करते थे। किन्तु देवता की षोड- (ललाट) पर अंकित किया जाता है। शोपचार पूजा के लिए पुजारी रखे जाते थे जो निश्चित पण्यराज-शब्दाद्वैतवाद सिद्धान्त का सर्वप्रथम भर्तहरि समय पर विधिवत् पूजा कार्य किया करते थे । और फिर भर्तृमित्र ने प्रतिपादन किया । भर्तृहरि के प्रसिद्ध पणताम्बे-महाराष्ट्र का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल । मनमाड से ४१ ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' में इस सिद्धान्त का पूर्ण वर्णन है, मील दूर पुनताम्बा स्थान है, इसका प्राचीन नाम पुण्य- जिसकी व्याख्या पुण्यराज और हेलाराज की रचना में प्राप्त स्तम्भ है। यह गोदावरी के किनारे है। महायोगी चांग- होती है । देव, जो पीछे संत ज्ञानेश्वर के शरणापन्न हो गये थे, दीध पत्र-इसका प्रारम्भिक अर्थ लघु अथवा कनिष्ठ था। काल तक यहाँ रहे। यहाँ श्री बिठोवा का मन्दिर, विश्वे- 'पत्रक' रूप का व्यवहार प्यारभरे सम्बोधन में अपने से श्वर शिवमन्दिर और अनेक अन्य शिवमन्दिर निर्मित छोटे लोगों के लिए होता था। आगे चलकर इस शब्द है । बाजार में श्री वङ्कटेश मन्दिर भी है। की धार्मिक व्युत्पत्ति की जाने लगी-"पुत् = नरक से, पुण्डरीक-पुण्डरीक अथवा कमल भारत का दार्शनिक पुष्प त्र= बचाने वाला।" पुत्रों द्वारा प्रदत्त पिण्ड और श्राद्ध है । यह चेतना और ज्ञान के विकास का प्रतीक है। इस- से पिता तथा अन्य पितरों का उद्धार होता है, इसलिए वे लिए भारतीय साहित्य और कला के अनेक रूपों में इसका पितरों को नरक से त्राण देने वाले माने जाते हैं। उपयोग हुआ है। छान्दोग्य उपनिषद् में मानवहृदय से धर्मशास्त्र में बारह प्रकार के पुत्रों का उल्लेख पाया इसकी तुलना की गयी है। जाता है । मनुस्मृति ( अध्याय १, श्लोक १५८-१६०) के पुण्डरीकयज्ञप्राप्ति-इस व्रत में जल के स्वामी वरुण देव । अनुसार इनका क्रम इस प्रकार है : की पूजा की जाती है । इसका अनुष्ठान द्वादशी को होता १. औरस (पति द्वारा अपनी पत्नी से उत्पन्न) है। इससे पुण्डरीकयज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । दे० २. पुत्रिकापुत्र (दौहित्र) । हेमाद्रि, १.१२०४ । वनपर्व (३०.११७) के अनुसार यह ३. क्षेत्रज (अपनी पत्नी से दूसरे पुरुष द्वारा उत्पन्न) व्रत भी अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञों के समान पुण्यकारक ४. गूढज (पत्नी द्वारा पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष से है । आश्वलायन श्रौतसूत्र, उत्तराष्टक, ४.४ में पुण्डरीक- गुपचुप उत्पन्न) यज्ञ का वर्णन है। ५. कानीन (अविवाहित कन्या से उत्पन्न) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रकामव्रत-पुत्रप्राप्तिव्रत ४०३ ६. सहोढ (विवाह के समय गर्भवती कन्या से उत्पन्न) चचित करके, कलश में सुवर्ण रखकर स्थापित किया जाना ७. पौनर्भव (दुबारा विवाहित पत्नी से उत्पन्न) चाहिए । कलश के ऊपर ताम्रपात्र में गुड़ रखना चाहिए ८. दत्तक (पुत्राभाव में दूसरे परिवार से गृहीत) और भगवान् ब्रह्मा तथा मावित्री देवी की प्रतिमा रखी ९. क्रीत (दुसरे परिवार से खरीदा हुआ) जानी चाहिए। प्रातः यह कलश किसी ब्राह्मण को दान १०. स्वयंदत्त (माता-पिता से परित्यक्त एवं स्वयं । कर दिया जाय । उसी ब्राह्मण को स्वादिष्ठ भोजन करासमर्पित) कर व्रती लवणरहित भोजन करे । यह क्रिया एक वर्ष तक ११. कृत्रिम (स्वेच्छा से दूसरे परिवार से पुत्रवत् प्रतिमास की जाय । तेरहवें महीने में एक घतधेनु, गृहीत) सवस्त्र शय्या, सुवर्ण तथा रजत की क्रमशः ब्रह्मा एवं १२. अपविद्ध (पड़ा हुआ प्राप्त और परिवार में सावित्री की प्रतिमाएँ दान में दी जायें। श्वेत तिलों से पालित)। ये बारह प्रकार के पुत्र दो वर्ग में विभाजित थे ___ ब्रह्माजी के नाम की आवृत्ति करते हए हवन करना (१) मुख्य और (२) गौण । इनमें प्रथम दो मुख्य और शेष चाहिए । व्रती ( पुरुष या स्त्री ) समस्त पापों से मुक्त गौण हैं । सामाजिक दष्टि से गौण पत्रों का भी महत्त्व था। होकर सुन्दर पुत्र प्राप्त करते हैं। दे० कृत्यकल्पतरु, इससे सभी प्रकार की संतति का पालन-पोषण संभव ३७६-३७८; हेमाद्रि, २.१७३-१७४ ।। था और परिवार का समाजीकरण हो जाता था। सभी पुत्रवविधि-रविवार के दिन रोहिणी या हस्त नक्षत्र हो पुत्रों का परिवार में समान पद नहीं था। किन्तु आज- तो वह पुत्रद योग होता है । उस दिन उपवास रखते हुए कल केवल दो ही प्रकार के पुत्र मान्य हैं, औरस और सूर्य नारायण का पुष्प-फलादि से पूजन करना चाहिए । दत्तक । शेष क्रमशः या तो औररा में सम्मिलित हो गये व्रती को चाहिए कि वह सूर्य की प्रतिमा के सामने सोये (जैसे सहोढ और गूढज) अथवा लुप्त हो गये। तथा महाश्वेता मंत्र का जप करे ( मंत्र यह है-हाँ ह्रीं पुत्रकामवत-(१) भाद्रपद की पूर्णिमा को इस व्रत का सः ............ ) । दूसरे दिन करवीर के पुष्पों तथा रक्तअनुष्ठान होता है। पुत्ररहित मनुष्य पुत्रेष्टि यज्ञ करने चन्दन मिश्रित अर्घ सूर्य को तथा रविवार को समर्पित के पश्चात् गुहा में प्रविष्ट हो, जहाँ रुद्र निवास करते हैं। करे । तदनन्तर वह पार्वण श्राद्ध करे तथा मध्यम पिण्ड तदनन्तर रुद्र, पार्वती तथा नन्दी की सन्तुष्टि के लिए होम (तीन में से बीच वाला) स्वयं खाये । हेमाद्रि में इस व्रत तथा पूजन का विधान है । व्रती को उपवास करना चाहिए, ज मानती को पार करना चाहिए का उतना विशद वर्णन नहीं है जितना कृत्यकल्पतरु में। तत्पश्चात् सर्वप्रथम अपने सहायकों को भोजन कराकर पुत्रप्राप्तिव्रत-(१) वैशाख शुक्ल षष्ठी तथा पञ्चपी को वह सपत्नीक भोजन करे और गहा की परिक्रमा करके उपवास रखते हुए स्कन्द भगवान् की पूजा की जाती है । पत्नी को रुद्रविषयक दिव्य व्याख्यान सुनाये । व्रती को यह तिथिव्रत है और एक वर्ष पर्यन्त चलता है । स्कन्द के चाहिए कि वह पत्नी को तीन दिनों तक दूध तथा चावल चार रूप (नाम) हैं-स्कन्द, कुमार, विशाख तथा गुह । ही खाने को दे। इस व्रत से वन्ध्या पत्नी भी पुत्र प्राप्त इन नामों के अनुसार उपासना करने से पुत्रेच्छु, धर्मेच्छु करती है । व्रती को इस सबके बाद एक प्रादेश लम्बी अथवा स्वास्थ्य का इच्छुक अपनी कामनाओं को सफल सुवर्ण, रजत अथवा लौह की शिवप्रतिमा का निर्माण कर लेता है। कराकर पूजन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि में मूर्ति को (२) श्रावण पूर्णिमा को यह व्रत होता है । यह गरम कर एक पात्र में उसे रखकर एक प्रस्थ दूध से तिथिव्रत है तथा शाङ्करी ( दुर्गा ) देवता। पुत्रार्थी, उसका अभिषेक करे और उस अभिषिक्त दूध को पत्नी विद्यार्थी, राज्यार्थी तथा यशःकामी को इस व्रत का को पिलाये। दे० कृत्यकल्पतरु, ३७४-३७६; हेमाद्रि, आचरण करना चाहिए । देवीजी का सुवर्ण या रजत का २.१७१-७२ । खड्ग या पादुकाएं अथवा प्रतिमा निर्माण कराकर किसी (२) ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को इस व्रत का शुभ नक्षत्र में वेदी पर स्थापित किये जायें, उसी वेदी पर अनुष्ठान करना चाहिए । श्वेत अक्षतों से एक कलश को यव बोये जायँ तथा हवन हो। देवोजी को भिन्न-भिन्न परिपूर्ण करके उसे श्वेत वस्त्र से ढककर, श्वेत चन्दन से प्रकार के फल-फूल तथा अन्य पदार्थ अर्पित किये जायें । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ पुत्रवर्गविहार-पुत्रोत्पत्तिव्रत हेमाद्रि में विद्यामंत्र भी लिखा गया है। दे० हेमाद्रि, कर्पूर प्रतिमा को अर्पण कर पुष्पादि से षोडशोपचार पूजन २.२२०-२३३ । हो। तब पुरुषसूक्त के मंत्रों से हवन करना चाहिए । पुत्रवर्गविहार-प्राचीन विद्यापीठों में गुरुस्थल दो वर्गों में तदनन्तर पुत्राभिलाषी या पुत्रीकामी फलों का खाद्य विभाजित थे : (१) शिष्यवर्ग एवं ( २) पुत्रवर्ग। पदार्थ बनाकर पुल्लिङ्ग अथवा स्त्रीलिङ्ग नाम लेकर उसे गुरुकुलों में गुरु का परिवार तथा शिष्यवर्ग दोनों रहते थे, दान कर दे । एक वर्ष तक ऐसा करना चाहिए। इससे परन्तु दोनों के निवासस्थान एक दूसरे से भिन्न होते थे। व्रती की समस्त कामनाएं पूर्ण होती है। जिस स्थान में गु: का परिवार रहता था उसको पुत्रवर्ग- पुत्रीयसप्तमी-मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का विहार कहा जाता था। अनुष्ठान होता है। इस दिन सूर्य का पूजन विहित है। पुत्रवत-(१) दे० 'पुत्रकामव्रत', हेमाद्रि, २,१७१-७२।। उस दिन व्रती को 'हविष्यान्न' ग्रहण करना चाहिए । (२) प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर दुसरे दिन गन्धाक्षत-पुष्पादि से सूर्य का पूजन कर नक्त तारों के मन्द प्रकाश में पीपल वृक्ष का स्पर्श करना पद्धति से आहार करना चाहिए । एक वर्ष तक यह व्रत चाहिए । तदनन्तर तिलों से परिपूर्ण पात्र का दान किया चलता है । यह व्रत पुत्रप्राप्ति के लिए है। जाय । इससे समस्त पापों से मुक्ति होती है। पत्रीयानन्तवत-इस व्रत को मार्गशीर्ष मास में प्रारम्भ पुत्रसप्तमी-(१) माघ शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की सप्तमी कर एक वर्ष तक प्रतिमास उस नक्षत्र के दिन, जिससे को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दोनों सप्तमियों को मास का नाम पड़ता है, उपवास करते हुए विष्णु भगवान् तथा षष्ठी को उपवाग तथा हवन करने के पश्चात् सूर्य का पूजन करना चाहिए। विशेष रूप से भगवान के बारहों के पूजन का विधान है। यह एक वर्ष तक चलता है। अवयवों का पूजन होना आवश्यक है। प्रति मास एक इससे पुत्र, धन, यश तथा सुन्दर स्वाथ्य की प्राप्ति अवयव का क्रमशः पूजन करना चाहिए । यथा बायाँ होती है। घुटना मार्गशीर्ष में, कटि का वाम पार्श्व पौष में तथा (२) भाद्र शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी को संकल्प इसी प्रकार ब्रमशः । प्रति चार मास के एक भाग में तथा सप्तमी को उपवासपूर्वक विष्णु का नामोच्चारण विभिन्न वर्ण के पुष्प प्रयुक्त हों। गोमूत्र, गोदुग्ध तथा करते हुए उनका पूजन करना चाहिए । अष्टमी के दिन गोदधि का प्रति चार मासों के विभाग में स्नान, अनन्त गोपालमन्त्रों से विष्णु भगवान् का पूजन तथा तिलों से भगवान् के नाम का जप सम्पूर्ण महीनों में किया जाय हवन करने का विधान है । यह एक वर्ष पर्यन्त होता है । तथा उन्हीं के नाम लेते हुए हवन हो । व्रत के अन्त में वर्ष के अन्त में श्यामा गौ का जोड़ा दान दिया जाय । ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा देनी चाहिए। इससे इससे समस्त पापों का क्षय तथा पुत्रलाभ होता है। व्रती की समस्त पुत्र, धन, जीविका आदि कामनाएँ पूर्ण पुत्रिका-परवर्ती साहित्य में इस शब्द का व्यवहार 'पुत्र- होती हैं। हीन मनुष्य की पुत्री' के अर्थ में हुआ है। ऐसी पुत्री पुत्रेष्टि-पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पुत्रेष्टि' का विवाह इस करार के साथ किया जाता था कि उसका कहलाता है । पुत्रोत्पत्ति में जिस दम्पती को विलम्ब होता पुत्र अपने नाना का श्राद्ध करेगा तथा उसकी सम्पत्ति था वह पुष्टि यज्ञ करता था। दत्तक पुत्र के संग्रह के का उत्तराधिकारी होगा। यास्क के निरुक्त ( ३.५ ) में समय भी 'दत्तहोम' के साथ यह यज्ञ (पुष्टि ) किया भी इसे ऋग्वेद के आधार पर इसी अर्थ में लिया गया जाता था, क्योंकि जिस पुत्र का संग्रह किया जाता था, है । किन्तु ऋग्वेदीय परिच्छेदों का स्पष्ट अर्थ नहीं ज्ञात वह जिस कुल से आता था उससे उसका सम्बन्ध पृथक् होता तथा इस प्रथा के द्योतक वे नहीं जान पढ़ते । किया जाता था। इस यज्ञ का प्रयोजन यह दिखाना था पुत्रीयनत-भाद्रपद मास की पूर्णिमा के पश्चात् कृष्ण पक्ष कि दत्तक पुत्र का जन्म संग्रह करने वाले परिवार में की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । उस दिन हुआ है। उपवास का विधान है। एक प्रस्थ घृत में गोविन्द की पुत्रोत्पत्तिव्रत-यह नक्षत्रव्रत है। पुत्र प्राप्ति के लिए एक प्रतिमा को स्नान कराया जाय । तत्पश्चात् चन्दन, केसर, वर्ष तक प्रति श्रवण नक्षत्र को यमुना में स्नान करना Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म-पुराण ४०५ चाहिए। इससे वसिष्ठजी के समान पुत्र-पौत्र प्राप्त नगरकीर्तन की प्रणाली चलायी थी। तत्पश्चात् कर्नाटक होते हैं। देश में माध्वों द्वारा भक्तिपूर्ण गीत एवं भजनों की रचना पुनर्जन्म-सभी हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक सम्प्रदायों में होने लगी। उक्त कर्नाटकीय कविभक्तों में प्रथम अग्रगण्य इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है कि मनुष्य अपने वर्तमान पुरन्दरदास हुए हैं। इनके गीत दक्षिण देश में बहत जीवन के अच्छे एवं बुरे कर्मों के फलभोग के लिए पुनर्जन्म प्रचलित हैं। ग्रहण करता है। यह कारण-कार्यशृंखला के अनुसार परन्ध्रि-ऋग्वेद / ०११६१) में दम ठान्ट का उल्लेख होता है। योनियों का निर्धारण भी कर्म के ही आधार सम्भवतः एक स्त्रीनाम के रूप में हआ है । यह अश्विनों पर होता है। इसी को संसारचक्र (जन्म-मरणचक्र) भी। की संरक्षिका थी, जिन्होंने इसे एक पुत्र दिया था, जिसका कहते हैं। इसी लिए पुनर्जन्म से मुक्ति पाने के उपाय नाम हिरण्यहस्त था। जातिवाचक स्त्री के अर्थ में भी विविध आचार्यों ने अपने-अपने ढंग से बताये हैं। पुन- इसका प्रयोग हुआ है।। जन्म का सिद्धान्त कर्मसिद्धान्त (कार्यकारण-सम्बन्ध) पर पुरश्चरणसप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी रविवार को मकर अवलम्बित है । पुनर्जन्म का चक्र उस समय तक चलता के सूर्य में इस व्रत का अनुष्ठान होता है । सूर्य की प्रतिमा रहता है जब तक आत्मा की मुक्ति नहीं होती। का रक्त वर्ण के पुष्पों, अध्य तथा गन्धादि से पूजन करने पुनर्भ-दुबारा विवाह करने वाली स्त्री। अथर्ववेद में पुनर्भ का विधान है। पञ्चगव्य पान का भी विधान है। एक प्रथा का उल्लेख प्राप्त होता है ( ९.५.२८) । इसके वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। प्रति मास पुष्प, अनुसार विधवा पुनः विवाह करती थी तथा विवाह के धूप तथा नैवेद्य भिन्न-भिन्न हों। इससे व्रती समस्त अवसर पर एक यज्ञ होता था जिसमें वह प्रतिज्ञा करती दुरितों के कुफल से मुक्त होता है। 'पुरश्चरण' में पाँच थी कि अपने दूसरे पति के साथ मैं दूसरे लोक में पुनः क्रियाओं का समावेश रहता है, जैसे जप, पूजन, होम, एकत्व प्राप्त करूंगी। धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह के तर्पण, अभिषेक तथा ब्राह्मणों का सम्मान । लिए कुमारी कन्या ही उत्तम मानी जाती थी। पुन से पुराण-प्राच जन पुराण-प्राचीन काल की कथाओं का वोधक ग्रन्थ । यह उत्पन्न पुत्र को 'औरस' (अपने हृदय से उत्पन्न) न कह शब्द 'इतिहास-पुराण' द्वन्द्व समास के रूप में व्यवहृत कर पौनर्भव' (पुनभ से उत्पन्न) कहते थे। उसके द्वारा हुआ है । अकेले भी इसका प्रयोग होता है, किन्तु अर्थ दिया हुआ पिण्ड उतना पुण्यकारक नहीं माना जाता था वही है । सायण ने परिभाषा करते हुए कहा है कि पुराण जितना औरस के द्वारा । धीरे-धीरे स्त्री का पुनर्भू (पुन वह है जो विश्वसृष्टि की आदिम दशा का वर्णन करता है। विवाह) होना उच्च वर्गों में बन्द हो गया । आधुनिक पुराण नाम से अठारह या उससे अधिक पुराण ग्रन्थ युग में विधवाविवाह के वैध हो जाने से स्त्रियाँ पहले और उपपुराण समझे जाते हैं, जिनकी दूसरी संज्ञा ‘पञ्चपति के मरने पर दूसरा विवाह कर रही हैं, फिर भी लक्षण' है । विष्णु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य आदि पुराणों में पुराणों उनके साथ अपमानसूचक 'पुनर्भ' शब्द नहीं लगता । के पाँच लक्षण कहे गये हैं : वे पूरी पत्नी और उनसे उत्पन्न सन्तति औरस समझी सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । जाती है। वंशानुचरितं ज्ञेयं पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ पुनोग्रन्थ-यह कबीरपन्थ की सेवापुस्तिका है। [सर्ग वा सृष्टि का विज्ञान, प्रतिसर्ग अर्थात् सुष्टि का पुरन्दरदास-एक प्रसिद्ध कर्नाटकदेशीय भक्त । माध्व विस्तार, लय और फिर से सृष्टि, सृष्टि की आदि वंशासंन्यासियों में सोलहवीं शती के प्रारम्भ में गया के वली, मन्वन्तर अर्थात् किस-किस मनु का अधिकार कब महात्मा ईश्वरपुरी ने दक्षिण भारत की यात्रा की तथा तक रहा और उस काल में कौन-कौन सी महत्त्वपूर्ण वहाँ उन्होंने माध्वों को चैतन्य देव के सदृश ही अपने घटनाएँ हुई और वंशानचरित अर्थात् सूर्य और चन्द्रवंशी भक्तिमूलक गीतों एवं संकीर्तन से प्रभावित किया। राजाओं का संक्षिप्त वर्णन । ये ही पाँच विषय पुराणों में वंगदेश में चैतन्य महाप्रभु ने भी सर्वप्रथम संकीर्तन एवं मूलतः वणित हैं ।] Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पुराण पुराणसंहिता के रचयिता परम्परा के अनुसार महर्षि वेदव्यास थे। उन्होंने लोमहर्षण नामक अपने सूतजातीय शिष्य को यह संहिता सिखा दी। लोमहर्षण के छ: शिष्य हए और उनके भी शिष्य हुए। सम्भवतः इसो शिष्यपरम्परा ने अठारह पुराणों की रचना की । हो सकता है, वेदव्यास द्वारा प्रस्तुत पुराणसंहिता के अठारह विभाग रहे हों जिसके आधार पर इन शिष्यों ने अलगअलग पुराण निर्मित किये। फिर उनके परिशिष्ट स्वरूप अनेकों उपपराण रचे गये। विष्ण, ब्रह्माण्ड एवं मत्स्य आदि पुराणों की सृष्टिप्रक्रिया पढ़ने से प्रकट होता है कि सब पुराणों में एक ही बात है, एक जैसा विषय है। किसी पुराण में कुछ बातें अधिक है, किसी में कम । सब पुराणों का मूल एक ही है। एक पुराणसंहिता के अठारह भागों में विभक्त होने का कारण शिष्यपरम्परा की रुचि के अतिरिक्त और भी हो। सकता है । पुराणों के अनुशीलन से पता चलता है कि प्रत्येक ग्रन्थ का विशेष उद्देश्य है। मूल विषय एक होते हुए भी हर एक पुराण में किसी एक प्रसंग का विस्तार से वर्णन है। पुराण का व्यक्तिगत महत्त्व इसी विशेष प्रसंग में निहित होता है। यदि ऐसी बात न होता तो पञ्चलक्षण युक्त एक ही महापुराण पर्याप्त होता। सम्भव है कि मूल संहिता में इन विशेष उद्देश्यों का मूल विद्यमान रहा हो । परन्तु इस समय पुराणों पर भिन्न भिन्न सम्प्रदायों का बड़ा प्रभाव पड़ा हुआ दिखाई पड़ता है । ब्राह्म, शैव, वैष्णव, भागवत आदि पुराणों के नामों से ही प्रतीत होता है कि ये विशेष सम्प्रदायों के ग्रन्थ हैं। इतिहास से ऐसा निश्चित नहीं होता कि इन पुराणों की रचना के अनन्तर उक्त सम्प्रदाय चल पड़े अथवा सम्प्रदाय पहले से थे और उन्होंने अपने-अपने अनुगत पुराणों का व्यासजी की शिष्य परम्परा से निर्माण कराया। अथवा बाद में सम्प्रदायों के अनुयायी पण्डितों ने अपने सम्प्रदाय के अनुकूल पुराणों में कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन किये हैं। ___ अवतारवाद पुराणों का प्रधान अङ्ग है। प्रायः सभी पुराणों में अवतार प्रसङ्ग दिया हुआ है। शैवमतपरिपोषक पुराणों में भगवान् शङ्कर के नाना अवतारों की चर्चा है। इसी तरह वैष्णव प्रणाली में भी विष्ण के अगणित अवतार बताये गये हैं। इसी तरह अन्य पुराणों में अन्य देवों के अवतारों की चर्चा है । यह ध्यान रहे कि अवतारवर्णन वैदिक सूत्रों पर अवलम्बित है। शतपथ ब्राह्मण में (१.८.१.२-१०) मत्स्यावतार का, तैत्तिरीय आरण्यक (१.२३.१) और शतपथ ब्राह्मण में (१.४.३ ५) कूर्मावतार का, तैत्तिरीय संहिता (७.१.५.१), तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.१.३.५) और शत० ब्रा० में (१४.१.२.११) वराह अवतार का, ऋक् संहिता (१.१७) और शतपथ ब्राह्मण (१.२.५.१-७) में वामन अवतार का, ऐतरेय ब्रा० में राम-भार्गवावतार का, छान्दोग्योपनिषद् में (३.१७) देवकीपुत्र कृष्ण का और तैत्ति० आ० में (१०.१.६) वासुदेव कृष्ण का वर्णन है । अधिकांश वैदिक ग्रन्थों के मत से कूर्म, वराहआदि अवतारों की जो कथा कही गयी है वह ब्रह्मा के अवतार की कथा है। वैष्णव पुराण इन्हीं अवतारों को विष्णु का अवतार बताते हैं। भविष्य जैसे कई पुराण सौर पुराण हैं। उनमें सूर्य के अवतार गिनाये गये हैं। मार्कण्डेय आदि शाक्त पुराणों में देवी के अवतारों का वर्णन है। पुराण वेदों के उपाङ्ग कहे जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वेद के मन्त्रों में देवताओं की स्तुतियाँ मात्र हैं । ब्राह्मण भाग में कहीं कहीं यज्ञादि के प्रसङ्ग में कथा-पुराण का संक्षेप में ही उल्लेख है। परन्तु विस्तार के साथ कथाओं और उपाख्यानों का कहीं होना आवश्यक था । इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पुराणों की रचना हुई जान पड़ती है। अठारहों पुराणों का प्रधान उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि ब्रह्मा, विष्ण, शिव, सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना अथवा ब्रह्मा को छोड़कर शेष पाँच देवताओं की उपासना का प्रचार हो और इन पाँच देवताओं में से एक को उपासक प्रधान माने, शेष चार को गौण किन्तु प्रधान में अन्तनिहित। पुराणों के प्रतिपादन का समीकरण करने से पता चलता है कि परमात्मा के पाँचों भिन्न-भिन्न सगुण रूप माने गये हैं। सृष्टि में इनका कार्यविभाग अलगअलग है । ब्रह्मा की पूजा और उपासना आजकल देखी नहीं जाती है, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मा की उपासना का गणेश की उपासना में विलयन हो गया है। पुराणों की कथाओं में अनेक स्थलों पर भेद दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भेदों को साधारणतया कल्पभेद की कथा से पुराणवेत्ता लोग समझा दिया करते हैं। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराणमणि-पुरुष अठारह पुराणों की मान्य सूची निम्नाति है १. ब्रह्म पुराण १०. वराह पुरान २. पद्म पुराण ११. स्कन्द पुराण ३. विष्णु पुराण १२. मार्कण्डेय पुराण ४. शिव पुराण १३. वामन पुराण १४. कूर्म पुराण १५. मत्स्य पुराण ७. नारद पुराण १६. गरुड़ पुराण ८. अग्नि पुराण १७. ब्रह्माण्ड पुराण ९. ब्रह्मवैवर्त पुराण १८. लिङ्ग पुराण इन सब पुराणों का अलग-अलग परिचय नाम-अक्षरक्रम के अंदर लिखा गया है । इसको यथास्थान देखना चाहिए । पुराणमणि - यह इविड़ (तमिल) भाषा का एक निवन्ध ग्रन्थ है | ५. भागवत पुराण ६. वायु पुराण पुरावृत्त - अतीत की घटना । यह शब्द इतिहास ( इति + ह + आस = ऐसा वस्तुतः हुआ) का पर्याय है । परवर्ती संस्कृत साहित्य में इसका अर्थ पौराणिक कथा, आख्यानआख्यायिका कथा आदि सपला गया है। इसकी परि भाषा के अनुसार उपर्युक्त कथा या आख्यान में कर्तव्य लाभ, प्रेम तथा मोक्षादि का सारांश भी वर्णित है । (१) शंकराचार्य द्वारा स्वास्ति दसनामी संन्यासियों की एक शाखा । माध्व दैष्णव संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक संत हुए हैं, यथा गयानिवासी महात्मा ईश्वरपुरी। कुछ विद्वानों के विचार से ईश्वरपुरी जैसे वैष्णव सन्तों द्वारा जगनाथपुरी में अधिकांश भजन साधन किया गया था इसलिए उनका 'पुरी' उपनाम प्रसिद्ध हो गया । इसी प्रकार शाक्त संन्यासियों में भी 'पुरी' उपनामक महात्मा हो गये हैं । स्वामी तोतापुरी से परमहंस रामकृष्ण ने संन्यासदीक्षा ली थी अतः उनके मिशन या मठों के संन्यासी पुरी शाखा के सदस्य माने जाते हैं । (२) पुरो (जगनाथपुरी) हिन्दुओं के मुख्य तीथों में से एक है । यहाँ विष्णु के अवतार बलभद्र और कृष्ण का मन्दिर है, जिसे जगन्नाथ ( जगत् के नाथ) का मन्दिर कहते हैं । भारतप्रसिद्ध रथयात्रा का मेला यहीं होता है लाखों की संख्या में भक्त आकर यहां जगन्नाथजी का रथ स्वयं खींचकर पुण्य लाभ करते हैं। इसकी गणना चार धामों - वदरिकाश्रम, रामेश्वरम् जगन्नाथ पुरी ----- (पुरुषोत्तमधाम) और द्वारका में है दे० 'पुरुषोत्तम तीर्थ' (जगन्नाथपुरी) | पुरीशिष्यपरम्परा पुरी दसनामी संन्यासियों की एक शाखा है। शंकराचार्य के शिष्य त्रोटकाचार्य से पुरी शिष्यों की परम्परा प्रचलित मानी जाती है । पुरी, भारती और सरस्वती नामों की शिष्यपरम्परा श्रृंगेरी मठ (कुम्भकोणम्) के अन्तर्गत है। दे० 'दसनामी' । पुरीषिणी वेद (५.५३.९) में यह शब्द या तो नदी के अर्थ का द्योतक है, या अधिक सम्भवतः सरयू का विशेषण है, जो 'जल से पूरित बढ़ी हुई' या 'प्रस्तरखण्ड खींचती हुई' के अर्थ में प्रयुक्त है । पुरुष पुरुष' शब्द की व्युत्पत्ति 'पुरि शेते इति (पुर अर्थात् शरीर में शयन करता है) की गयी है। इस अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति पुरुष है किन्तु ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.८०) में आदि पुरुष की कल्पना विराट् पुरुष अथवा विश्वपुरुष के रूप में की गयी है। देवताओं (विश्व की विशिष्ट शक्तियों) ने इसी पुरुष के द्वारा पुरुषमेध किया, जिसके शरीर के विविध अङ्गों से संसार के सभी पदार्थ उत्पन्न हुए फिर भी यह पुरुष संसार में समाप्त नहीं हुआ, इसके अंश से यह सम्पूर्ण सृष्टि व्याप्त है; वह इसका अतिक्रमण कर अनेक विश्व ब्रह्माण्डों को अपने में समेटे हुए है । सृष्टि के मूल में स्थित मूल तत्त्व के अन्तर्यामी और अतिरेकी स्वरूप का प्रतीक पुरुष है। इसी सिद्धान्त को 'सर्वेश्वरवाद' कहते हैं । सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व में दो स्वतन्त्र और सनातन तत्व हैं - ( १ ) प्रकृति और (२) पुरुष | सांख्य पुरुषबहुत्व में विश्वास करता है। प्रकृति और पुरुष के सम्पर्क से विश्व का विकास होता है । प्रकृति नटी पुरुष के विलास के लिए अपनी लीला का प्रसार करती है । प्रकृति क्रियाशील और पुरुष निष्क्रिय किन्तु द्रष्टा होता है । इस सम्पर्क से जो भ्रम उत्पन्न होता है उसके कारण पुरुष प्रकृति के कार्यों का अपने ऊपर आरोप कर लेता है और इस कारण उनके परि णामों से उत्पन्न सुख-दुःख भोगता है । पुरुष द्वारा अपने स्वरूप को भूल जाना ही बन्ध है । जब पुरुष पुनः ज्ञान प्राप्त करके अपने स्वरूप को पहचान लेता है तब उसे कैवल्य ( प्रकृति से पार्थमय) प्राप्त होता है; प्रकृति संकुचित होकर अपनी लीला का संवरण कर लेती है और पुरुष मुक्त हो जाता है । - ४०७ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पुरुषन्ति यह नाम ऋग्वेद (१.११२.२३ ९,५८,३) में दो बार उल्लिखित है । पहले परिच्छेद में अश्विनौ द्वारा रक्षित तथा दूसरे में एक संरक्षक का नाम है, जो वैदिक गावकों को उपहार दान करता है। दोनों स्थानों पर यह नाम 'ध्वसन्ति' या 'ध्वच' नाम के साथ संयुक्त है। इन तीनों का जोड़ पुरुषवाचक है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से यह स्त्रीलिङ्ग भी हो सकता है। । पुरुषविशेष - योग प्रणाली में ईश्वर को 'पुरुषविशेष' की संज्ञा दी गयी है। यह पुरुष विशेष योग सिद्धान्त के मुख्य विचारों से शिथिलतापूर्वक संलग्न है वह विशेष प्रकार का आत्मा है जो सर्वज्ञ, शाश्वत एवं पूर्ण है तथा कर्म, पुनर्जन्म एवं मानविक दुर्बलताओं से परे है। वह योगियों का प्रथम शिक्षक है, वह उनकी सहायता करता है जो ध्यान के द्वारा कैवल्य प्राप्त करना चाहते हैं और उसके प्रति भक्ति रखते हैं किन्तु वह सृष्टिकर्ता नहीं कहलाता । उसका प्रकटीकरण रहस्यात्मक मन्त्र 'ओम्' से होता है । 1 1 पुरुषार्थ इसका शाब्दिक अर्थ है 'पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य । आजकल की शब्दावली में इसे 'मूल्य' कह सकते हैं । हिन्दू विचारशास्त्रियों ने चार पुरुषार्थ माने है - (१) धर्म (२) अर्थ (३) काम एवं (४) मोक्ष धर्म का अर्थ है जीवन के नियामक तत्त्व, अर्थ का तात्पर्य है जीवन के भौतिक साधन, काम का अर्थ है जीवन की वैध कामनाएँ और मोक्ष का अभिप्राय है जीवन के सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति प्रथम तीन को पवर्ग और अन्तिम को अपवर्ग कहते हैं। इन चारों का चारों आश्रमों से सम्बन्ध है | प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य धर्म का दूसरा गार्हस्थ्य धर्म एवं काम का तथा तीसरा वानप्रस्थ एवं चौया संन्यास मोक्ष का अधिष्ठान है। यों धर्म का प्रसार पूरे जीवनकाल पर है किन्तु यहाँ धर्म का विशेष अर्थ है अनुशासन तथा सारे जीवन को एक दार्शनिक रूप से चलाने की शिक्षा, जो प्रथम या ब्रह्माचर्याधम में ही सीखना पड़ता है। इन चारों पुरुषायों में भी विकास परिलक्षित है, यथा एक से दूसरे की प्राप्ति-धर्म से अर्थ, अर्थ से काम तथा धर्म से पुनः गोक्ष की प्राप्ति होती है। भावक दर्शन केवल अर्थ एवं काम को पुरुषार्थ मानता है । किन्तु चार्वाकों का सिद्धान्त भारत में बहुमान्य नहीं हुआ । पुरुषोत्तम गीता के अनुसार पुरुष की तीन कोटियाँ हैं --- पुरुषन्ति पुरुषोत्तमतीयं (१) क्षर पुरुष, जिसके अन्तर्गत चराचर नश्वर जगत् का समावेश है, (२) अक्षर पुरुष अर्थात् जीवात्मा, जो वस्तुतः अजर और अमर है और (३) पुरुषोत्तम, जो दोनों से परे विश्व के मूल में परम तत्व है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व का समाहार हो जाता है। पुरुषोत्तम तत्त्व की प्राप्ति ही जीवन का परम पुरुषार्थ है । पुरुषोत्तमतीर्थं ( जगन्नाथपुरी) - उड़ीसा के चार प्रसिद्ध तीर्थो, भुवनेश्वर, जगन्नाथ, कोणार्क तथा जाजपुर में जगन्नाथ का महत्वपूर्ण अस्तित्व है। इसे पुरुषोत्तम तीर्थ भी कहा जाता है । ब्रह्मपुराण में इसके सम्बन्ध में लगभग ८०० श्लोक मिलते हैं । जगन्नाथपुरी शंखक्षेत्र के नाम से भी विख्यात है । यह भारतवर्ष के उत्कल प्रदेश में समुद्र तट पर स्थित है । इसका विस्तार उत्तर में विराजमण्डल तक है । इस प्रदेश में पापनाशक तथा मुक्तिदायक एक पवित्र स्थल है। यह बेत से घिरा हुआ दस योजन तक विस्तृत है। उत्कल प्रदेश में पुरुषोत्तम का प्रसिद्ध मन्दिर है। जगन्नाथ की सर्वव्यापकता के कारण यह उत्कल प्रदेश बहुत पवित्र माना जाता है । यहाँ पुरुषोत्तम ( जगन्नाथ) के निवास के कारण उत्कल के निवासी देवतुल्य माने जाते हैं। ब्रह्मपुराण के ४३ तथा ४४ अध्याओं में मालवास्थित उज्जयिनी ( अवन्ती) के राजा इन्द्रद्युम्न का विवरण है। वह बड़ा विद्वान् तथा प्रतापी राजा था। सभी वेदशास्त्रों के अध्ययन के उपरान्त वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वासुदेव सर्वश्रेष्ठ देवता है। फलतः वह अपनी सारी सेना, पण्डितों तथा किसानों के साथ वासुदेवक्षेत्र में गया। दस योजन लम्बे तथा पाँच योजन चौड़े इस वासुदेवस्थल पर उसने अपना खेमा लगाया । इसके पूर्व इस दक्षिणी समुद्रतट पर एक वटवृक्ष था जिसके समीप पुरुषोत्तम की इन्द्रनील मणि की बनी हुई मूर्ति थी । कालक्रम से यह वालुका से आच्छत हो गयी और उसी में निमग्न हो गयी। उस स्थल पर झाड़ियाँ और पेड़ पौधे उग आये। इन्द्रद्युम्न ने वहां एक अश्वमेध यज्ञ करके एक बहुत बड़े मन्दिर ( प्रासाद) का निर्माण कराया | उस मन्दिर में भगवान् वासुदेव की एक सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित करने की उसे चिन्ता हुई। स्वप्न में राजा ने वासुदेव को देखा जिन्होंने उसे समुद्रतट पर प्रातःकाल जाकर कुल्हाड़ी से उगते हुए वटवृक्ष को काटने को कहा। राजा ने ठीक समय पर वैसा ही किया । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोत्तमतीर्थ उसमें भगवान् विष्णु (वासुदेव) और विश्वकर्मा ब्राह्मण के जगन्नाथपुरी तथा जगन्नाथ की कुछ मौलिक विशेषवेष में प्रकट हुए। विष्णु ने राजा से कहा कि मेरे ताएँ है। पहले तो यहाँ किसी प्रकार का जातिभेद सहयोगी विश्वकर्मा मेरी मूर्ति का निर्माण करेंगे। नहीं है, दूसरी बात यह है कि जगन्नाथ के लिए पकाया कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की तीन मूर्तियाँ बनाकर राजा गया चावल वहाँ के पुरोहित निम्न कोटि के लोगों से भी को दी गयीं । तदुपरान्त विष्णु ने राजा को वरदान दिया ले लेते हैं। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी कि अश्वमेध के समाप्त होने पर जहाँ इन्द्रद्युम्न ने स्नान अशुद्ध नही होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी किया है वह बाँध (सेतु) उसी के नाम से विख्यात होगा। है । इसकी तीसरी प्रमुख विशेषता रथयात्रा पर्व की जो व्यक्ति उसमें स्नान करेगा वह इन्द्रलोक को जायेगा महत्ता है, यह पुरी के चौबीस पर्वो में से सर्वाधिक महत्त्व और जो उस सेतु के तट पर पिण्डदान करेगा उसके २१ ।। का है। यह आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आरम्भ पीढ़ियों तक के पूर्वज मुक्त हो जायेंगे। इन्द्रद्यम्न ने इन तीन होता है। जगन्नाथजी का रथ ४५ फुट ऊँचा, ३५ मूर्तियों की उस मन्दिर में स्थापना की। स्कन्दपुराण के वर्गफुट क्षेत्रफल का तथा ७ फुट व्यास के १६ पहियों उपभाग उत्कलखण्ड में इन्द्रद्युम्न की कथा पुरुषोत्तममाहात्म्य से युक्त रहता है। उनमें १६ छिद्र रहते हैं और गरुड़के अन्तर्गत कुछ परिवर्तनों के साथ दी गयी है। कलंगी लगी रहती है । दूसरा रथ सुभद्रा का है जो १२ इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीन काल में पहियों से युक्त और कुछ छोटा होता है। उसका मकट पुरुषोत्तमक्षेत्र को नीलाचल नाम से अभिहित किया गया पद्म से युक्त है । बलराम का तीसरा रथ १४ पहियों से था और कृष्ण की पूजा उत्तरी भारत में होती थी । मैत्रा युक्त तथा हनुमान के मुकुट से युक्त है । ये रथ तीर्थयणी उपनिषद् (१.४) से इन्द्रद्युम्न के चक्रवर्ती होने का यात्रियों तथा मजदूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण पता चलता है। ७वीं शताब्दी ई० से वहाँ बौद्धों के गीतों से उत्सव मनाया जाता है। विकास का भी पता चलता है। सम्प्रति जगन्नाथतीर्थ __जगन्नाथमन्दिर के निजी भृत्यों की एक सेना है जो का पवित्र स्थल २० फुट ऊँचा, ६५२ फुट लम्बा तथा ३६ रूपों तथा ९७ वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। ६३० फुट चौड़ा है। इसमें ईश्वर के विविध रूपों के पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे जो अपने को १२० मन्दिर हैं, १३ मन्दिर शिव के, कुछ पार्वती के जगन्नाथ का भृत्य समझते थे । तथा एक मन्दिर सूर्य का है। हिन्दु आस्था के प्रायः काशी की तरह जगन्नाथधाम में भी पंच तीर्थ हैप्रत्येक रूप यहाँ मिलते हैं । ब्रह्मपुराण के अनुसार जगन्नाथ मार्कण्डेय, पट (कृष्ण), बलराम, समुद्र और इन्द्रद्युम्नपुरी में शवों और वैष्णवों के पारस्परिक संघर्ष नष्ट सेत् । इनमें से प्रत्येक के विषय में कुछ कहा जा सकता हो जाते हैं । जगन्नाथ के विशाल मन्दिर के भीतर चार है। मार्कण्डेय की कथा ब्रह्मपुराण में वर्णित है। खण्ड हैं । प्रथम भोगमन्दिर, जिसमें भगवान को भोग (अध्याय ५६.७२-७३) विष्णु ने मार्कण्डेय से जगन्नाथ के लगाया जाता है, द्वितीय रङ्गमन्दिर, जिसमें नृत्य-गान उत्तर में शिव का मन्दिर तथा सेतु बनवाने को कहा था। आदि होते हैं, तृतीय सभामण्डप, जिसमें दर्शक गण (तीर्थ- कुछ समय के उपरान्त यह मार्कण्डेयसेतु के नाम से यात्री) बैठते हैं और चौथा अन्तराल है। जगन्नाथ के विख्यात हो गया। ब्रह्मपुराण के अनुसार तीर्थयात्री मन्दिर का गुम्बज १९२ फुट ऊँचा और चक्र तथा ध्वज को मार्कण्डेयसेतु में स्नान करके तीन बार सिर झुकाना से आच्छन्न है। मन्दिर समुद्रतट से ७ फाग दूर है। तथा मन्त्र पढ़ना चाहिए। तत्पश्चात् उसे तर्पण करना यह सतह से २० फुट ऊँची एक छोटी सी पहाड़ी पर तथा शिवमन्दिर जाना चाहिए । शिव के पूजन में 'ओम् स्थित है। यह गोलाकार पहाडी है जिसे नीलगिरि नमः शिवाय' नामक मूल मन्त्र का उच्चारण अत्यावश्यक कहकर सम्मानित किया जाता है। अन्तराल की प्रत्येक है। अघोर तथा पौराणिक मन्त्रों का भी उच्चारण होना तरफ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का सबसे बड़ा है और चाहिए । तत्पश्चात् उसे वट वृक्ष को जाकर उसकी तीन भव्य है । प्रवेशद्वार पर एक बृहत्काय सिंह है।। इसीलिए बार परिक्रमा करनी चाहिए और मन्त्र से पूजा करनी इस द्वार को सिंहद्वार कहा जाता है। चाहिए। ब्रह्मपुराण (५७.१७) के अनुसार वट स्वयं ५२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोत्तमयात्रा-पुरोहित कृष्ण हैं । वह भी एक प्रकार का कल्पवृक्ष ही है । तीर्थ- उसी उत्सव के हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में भ्रमपूर्ण यात्री को श्री कृष्ण के समक्ष स्थित गरुड़ की पूजा करनी अतिरिक्त परिकल्पनाएँ अवांछनीय और अस्पृहणीय हैं। चाहिए और तब कृष्ण, सुभद्रा तथा संकर्षण के प्रति पुरुषोत्तमयात्रा-जगन्नाथपुरी में पुरुषोत्तम (विष्णु ) मन्त्रोच्चारण करना चाहिए। ब्रह्मपुराण (५७.४२-५०) भगवान् की बारह यात्राएँ मनायी जाती हैं। यथा श्री कृष्ण के भक्तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता स्नान, गुण्डिचा, हरिशयन, दक्षिणायन, पार्श्वपरिवर्तन, है। पुरी में समुद्रस्नान का बड़ा महत्व है पर यह भूलतः उत्थापनैकादशी, प्रावरणोत्सव, पुष्याभिषेक, उत्तरायण, पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्वपूर्ण है । तीर्थयात्री को दोलायात्रा, दमनक चतुर्दशी तथा अक्षय तृतीया । दे० इन्द्रद्युम्नसेतु में स्नान करना, देवताओं का तर्पण करना गदाधरपद्धति, कालसार, पृ० १८३-१९० । तथा ऋषि-पितरों को पिण्डदान करना चाहिए। पुरुषोत्तमसंहिता-यह वैष्णव संहिता है। आचार्य मध्वब्रह्मपुराण (अ० ६६) में इन्द्रद्युम्नसेतु के किनारे सात रचित वेदान्तभाष्य के संक्षिप्त संस्करण 'अनुभाष्य' का दिनों की गुण्डिचा यात्रा का उल्लेख है। यह कृष्ण, मुख्य अंश पुराणों तथा वैष्णव संहिताओं से उद्धृत है । संकर्षण तथा सुभद्रा के मण्डप में ही पूरी होती है । ऐसा इन वैष्णव संहिताओं में पुरुषोत्तमसंहिता आदि मुख्य हैं । बताया जाता है कि गुण्डिचा जगन्नाथ के विशाल मन्दिर पुरुषोत्तमाचार्य-द्वैताद्वैतवादी वैष्णवों के सैद्धान्तिक से लगभग दो मील दूर जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन भवन व्याख्याकार विद्वान् । इन्होंने निम्बार्क स्वामी के मत का है । यह शब्द सम्भवतः 'गुण्डी' से लिया गया है जिसका अनुसरण कर उसे परिपुष्ट किया है। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थ बँगला तथा उड़िया में 'मोटी लकड़ी का कुन्दा' 'वेदान्तरत्नमंजूषा' में निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' या होता है । यह लकड़ी का कुन्दा एक पौराणिक कथा के 'वेदान्तकामधेनु' की विस्तृत व्याख्या है। अनुसार समुद्र में बहते हुए इन्द्रद्युम्न को मिला था। पुरोडाश-यज्ञों में देवताओं को अर्पित किया जाने वाला पुरुषोत्तम क्षेत्र में धार्मिक आत्मघात का भी ब्रह्मपुराण पक्वान्न, जो मिट्टी के तवों पर सेका जाता था । ऋग्वेद में उल्लेख है। वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या ( ३.२८,२,४१,३,५२,२,४.२४,५,६.२३,६;८.३१,२ ) समुद्र में, इच्छा या अनिच्छा से, जगन्नाथरथ के मार्ग तथा अन्य संहिताओं में यज्ञ के रोट को 'पुरोडाश' कहा में, जगन्नाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्थल गया है । यह देवताओं का प्रिय भोज्य था। पर जो प्राण त्याग करता है वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त पुरोधा-(१) धार्मिक कार्यों का अग्रणी अथवा नेता । यह करता है। ब्रह्मपुराण (७०.३-४) के अनुसार यह तीन घरेलू पुरोहित के पद का बोधक है । गुना सत्य है कि यह स्थल परम महान् है। पुरुषोत्तम- (२) राजा की मन्त्रिपरिषद् के प्रमुख सदस्यों में तीर्थ में एक बार जाने के उपरान्त व्यक्ति पुनः गर्भ में इसकी भी गणना है। धार्मिक तथा विधिक मामलों में नहीं जाता। पुरोधा राजा का परामर्शदाता होता था। जगन्नाथतीर्थ के मन्दिर के सम्बन्ध में एक दोष यह पुरोहित-आगे अवस्थित अथवा पूर्वनियुक्त व्यक्ति, जो बताया जाता है कि उसकी दीवारों पर नृत्य करती हई धर्मकार्यों का संचालक और मंत्रिमण्डल का सदस्य होता युवतियों के चित्र हैं, जो अपने कटाक्षों से हाव-भाव प्रद- था। वैदिक संहिताओं में इसका उल्लेख है। पुरोहित शित करती हई तथा कामक अभिनय करती हई दिखायी को 'पुरोधा' भी कहते हैं । इसका प्राथमिक कार्य किसी गयी हैं। किन्तु ब्रह्मपुराण (अ० ६५) का कथन है कि राजा या संपन्न परिवार का घरेलू पुरोहित होना होता ज्येष्ठ की पूर्णिमा को स्नानपर्व मनाया जाता है । उस था। ऋग्वेद के अनुसार विश्वामित्र एवं बसिष्ठ त्रित्सु अवसर पर सुन्दरी वारविलासिनियाँ तबले और वंशी कुल के राजा सुदास के पुरोहित थे। शान्तनु के पुरोहित की ध्वनि और सुर पर पवित्र वेदमन्त्रों का उच्चारण देवापि थे। यज्ञ क्रिया के सम्पादनार्थ राजा को पुरोहित करती हैं । यह एक सहगान के रूप में श्री कृष्ण, बलराम रखना आवश्यक होता था। यह युद्ध में राजा की सुरक्षा तथा सुभद्रा की मूर्ति के समक्ष होता है । अतः ये चित्र एवं विजय का आश्वासन अपनी स्तुतियों द्वारा देता था, Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिकाबन्धन-पुष्पमुनि ४११ अन्न एवं सस्य के लिए यह वर्षाकारक अनुष्ठान कराता है। कुछ लोग इसका अर्थ सर्प करते हैं, परन्तु अधिक था । पुरोहितपद के पैतृक होने का निश्चित प्रमाण नहीं अर्थ मधुमक्खी है। है, किन्तु सम्भवतः ऐसा ही था। राजा कुरु श्रवण तथा पष्टिगु-ऋग्वेद (८.५१,१ ) की बालखिल्य ऋचा में उसके पुत्र उपम श्रवण का पुरोहित के साथ जो सम्बन्ध उद्धृत एक ऋषि का नाम । था उससे ज्ञात होता है कि साधारणतः पुत्र अपने पिता के पष्टिमार्ग-भागवत पुराण के अनुसार भगवान् का अनुग्रह पुरोहित पद को ही अपनाता था। प्रायः ब्राह्मण ही पुरोहित ही पोषण या पष्टि है। आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के होते थे । बृहस्पति देवताओं के पुरोहित एवं ब्राह्मण दोनों । आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। इसका मूल सूत्र कहे जाते हैं। ओल्डेनवर्ग के मतानुसार पुरोहित प्रारम्भ में उपनिषदों में पाया जाता है । कठोपनिषद् में कहा गया है होता होते थे, जो स्तुतियों का गान करते थे। इसमें सन्देह कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है उसी को अपना नहीं कि ऐतिहासिक युग में वह राजा की शक्ति का प्रति साक्षात्कार कराता है । वल्लभाचार्य ने जीव आत्माओं को निधित्व करता था तथा सामाजिक क्षेत्र में उसका बड़ा परमात्मा का अंश माना है जो चिनगारी की तरह उस प्रभाव था। न्याय व्यवस्था तथा राजा के कार्यों के महान् आत्मा से छिटके हैं। यद्यपि ये अलग-अलग हैं संचालन में उसका प्रबल हाथ होता था। तथापि गुण में समान हैं। इसी आधार पर वल्लभ ने पुलिकाबन्धन-यह व्रत कार्तिकी पूर्णिमा को पुष्कर क्षेत्र में अपने या पराये शरीर को कष्ट देना अनुचित बताया है। मनाया जाता है । इस दिन पुष्कर में बहुत बड़ा मेला पुष्टिमार्ग में परमात्मा को कृपा के शम-दमादि बहिरङ्ग लगता है । दे. कृत्यसारसमुच्चय, पृ० ७। साधन हैं और श्रवण, मनन, निदिध्यासन अन्तरङ्ग साधन । पुष्कर-(१) वैदिक साहित्य में पुष्कर नील कमल का नाम भगवान् में चित्त की प्रवणता सेवा है और सर्वात्मभाव है। अथर्ववेद में इसकी मधुर गन्ध का वर्णन है। यह मानसी सेवा है। आचार्य की सम्मति में भगवान् का तालाबों में उगता था जो पुष्करिणी कहलाते थे । 'पुष्कर अनुग्रह (कृपा) ही पुष्टि है । भक्ति दो प्रकार की हैस्रजो' अश्विनों का एक विरुद है । निरुक्त (५.१४) तथा मर्यादाभक्ति और पुष्टिभक्ति। मर्यादाभक्ति में शास्त्रशतपथ ब्राह्मण (६.४,२,२) के अनुसार पुष्कर का अर्थ विहित ज्ञान और कर्म की अपेक्षा होती है। भगवान् के जल है। अनुग्रह से जो भक्ति उत्पन्न होती है वह पुष्टिभक्ति कह(२) पुष्कर एक तीर्थ का भी नाम है जो राजस्थान लाती है। ऐसा भक्त भगवान् के स्वरूप दर्शन के अतिमें अजमेर के पास स्थित है । ब्रह्मा इसके मुख्य देवता है। रिक्त और किसी वस्तु के लिए प्रार्थना नहीं करता । वह यह एक बहुत बड़े प्राकृतिक जलाशय के रूप में है इसलिए अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण आत्मसमर्पण करता है। इसका नाम पुष्कर पड़ा । पुराणों के अनुसार यह तीर्थों इसको प्रेमलक्षणा भक्ति कहते हैं । नारद ने इस भक्ति का गुरु माना जाता है अतएव इसको पुष्करराज भी को कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठ बतलाया है। उनके कहते हैं। भारत के पंच तीर्थों और पंच सरोवरों में अनुसार यह भक्ति साधन नहीं, स्वतः फलरूपा है। इसकी गणना की जाती है। पंच तीर्थ है-पुष्कर, पष्पद्वितीया-कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इस व्रत का कुरुक्षेत्र, गया, गङ्गा एवं प्रभास तथा पंच सरोवर है प्रारम्भ होता है। यह तिथिवत है, एक वर्ष पर्यन्त चलता मानसरोवर, पुष्कर, बिन्दुसरोवर ( सिद्धपुर ), नारायण- है, अश्विनीकुमार इसके देवता हैं। दिव्य पूजा के लिए सरोवर (कच्छ) और पम्पा सरोवर ( दक्षिण )। इसका उपयुक्त पुष्पों का अर्पण प्रति शुक्ल पक्ष की द्वितीया को माहात्म्य निम्नाङ्कित है : करने का विधान है। व्रत के अन्त में सुवण के बने हए दुष्करं पुष्करे गन्तुं दुष्करं पुष्करे तपः । पुष्प तथा गौ का दान करना चाहिए। इससे व्रती पुत्र दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम् ।। तथा पत्नी सहित सुखोपभोग करता है । पुष्करसद्-कमल पर बैठा हुआ जन्तु । यह एक पशु का पुष्पमुनि-सामवेद की एक शाखा का प्रातिशाख्य पुष्पमुनि नाम है जो अश्वमेध के बलिपशुओं को तालिका में उद्धृत द्वारा रचित है । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ पुष्पसूत्र-पूना पुष्पसूत्र-गोभिल का रचा हुआ सामवेद का सूत्र ग्रन्थ । पुष्यस्नान-हेमाद्रि, बृहत्संहिता, कालिकापुराण के अनुइसके पहले चार प्रपाठकों में नाना प्रकार के पारिभाषिक सार यह शान्तिकर्म है। रत्नमाला में कहा गया है कि और व्याकरण द्वारा गढ़े हुए शब्द आये हैं, उनका मर्म जिस प्रकार चतुष्पदों में सिंह महान् शक्तिशाली है उसी समझना कठिन है। इन प्रपाठकों की टीका भी नहीं प्रकार समस्त नक्षत्रों में पुष्य शक्तिमान् है । इस दिन मिलती, किन्तु शेष अंश पर एक विशद भाष्य अजातशत्रु किये गये समस्त कार्यों में सफलता अवश्यम्भावी है, चाहे का लिखा हुआ है। ऋग्वेद की मन्त्ररूपी कलिका किस चन्द्रमा प्रतिकूल क्यों न हो। प्रकार सामरूप पुष्प में परिणत हुई-इस ग्रन्थ में बताया पुष्याभिषेक-जगन्नाथजी की बारह यात्राओं में से एक । गया है। दाक्षिणात्यों में यह झुल्ल सूत्र' के नाम से प्रसिद्ध प्रति वर्ष पौष मास की पूर्णिमा को पुष्य नक्षत्र के दिन है और कहते हैं कि यह वररुचि की रचना है। दामोदर यह उत्सव मनाया जाता है। पुत्र रामकृष्ण की लिखी इस पर एक वृत्ति भी है। पुष्यार्कद्वादशी-जब द्वादशी के दिन सूर्य पुष्य नक्षत्र में पुष्पाष्टमी-श्रावण शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का प्रारम्भ हो, जनार्दन का पूजन करणीय है। इससे समस्त दुरितों होता है। यह तिथिव्रत है, इसके देवता शिव हैं । यह का क्षय होता है। एक वर्ष पर्यन्त चलता है। प्रति मास भिन्न-भिन्न पुष्पों पूजा--(१) देवार्चन की दो विधियाँ हैं-(१) याग और का उपयोग करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के ही नैवेद्य (२) पूजा । अग्निहोत्र द्वारा अर्चन करना याग अथवा भिन्न-भिन्न नामों से शिवजी को अर्पण करने चाहिए। यज्ञ है। पत्र, पुष्प, फल, जल द्वारा अर्चन करना पुष्यद्वादशी-जब पुष्य नक्षत्र द्वादशी को पड़े तथा चन्द्रमा पूजा है। और गुरु एक स्थान पर हों और सूर्य कुम्भ राशि पर हो (२) किन्हीं निश्चित द्रव्यों के साथ देवताओं के अर्चन तब व्रती को ब्रह्मा, हरि तथा शिव की अथवा अकेले को पूजा कहते है । इसमें प्रायः पञ्चोपचारों का परिग्रहण वासुदेव की पूजा करनी चाहिए। है, यथा गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवेद्य । पुष्पों के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम हैं, जो प्रति देवी-देवता पुष्यव्रत-यह नक्षत्रव्रत है। सूर्य के उत्तरायण होने पर __ की पूजा में ग्राह्य अथवा अग्राह्य है। शिवनी पर केतकी शुक्ल पक्ष में ऋद्धि-सिद्धि का इच्छुक व्यक्ति कम से कम पुष्प नहीं चढ़ाया जाता, दुर्गाजी की पूजा में दूर्वा तथा एक रात्रि उपवास रखे तथा स्थालीपाक (बटलोई भर सूर्यपूजा में बिल्वपत्र निषिद्ध है । महाभिषेक में शिव तथा जी अथवा चावल दूध में) बनाये। तदनन्तर कुबेर (धन सूर्य को छोड़कर शङ्ख से हो जल चढ़ाया जाना चाहिए। के देवता) की पूजा करे। पकाये हए स्थालीपाक में से वैसे साधारणतः सभी देवों की पूजा अथवा व्रतों की विधि कुछ अंश, जिसमें शुद्ध नवनीत का मिश्रण हो, किसी के समान ही नियम हैं । दे० व्रतराज, ४७-४९ । ब्राह्मण को खिलाया जाय तथा उससे निवेदन किया जाय पूतक्रतु-पवित्र यज्ञ करनेवाला एक धार्मिक प्रश्रयदाता, कि वह 'समृद्धिर्भवतु' इस मन्त्र का प्रति दिन जप कर जो ऋग्वेद (८.६७,१७) में उल्लिखित है तथा स्पष्टतः और तब तक जप करे जब तक अगला पुष्य नक्षत्र न आ अश्वमेध का कर्ता जान पड़ता है। जाय । ब्राह्मणों की संख्या आने वाले पुष्य नक्षत्रों के क्रम पूतना-राक्षसी, जिसका वर्णन भागवत पुराण में पाया से बढ़ती जायेगी और यह वृद्धि पूरे वर्ष होगी। व्रती को जाता है । इसका वध कृष्ण ने अपने गोकुलवासकाल में केवल प्रथम पुष्य नक्षत्र के दिन उपवास करने की आवश्य- किया था। महाभारत में इसका उल्लेख नहीं है। कता है। इस व्रत के परिणाम से व्रती के ऊपर ऋद्धि पूतिका-सोमलता के स्थान पर व्यवहृत होने वाला एक तथा समृद्धियों की वर्षा होगी। पौधा । तैत्ति० सं० ( २.५,३,५ ) में इसका उल्लेख दही आपस्तम्ब धर्मसूत्र ( २. ८.२०.३-२२ ) में व्रत के जमाने के साधनरूप में हुआ है ।। निषिद्ध आचरणों की परिगणना की गयी है। कृत्यकल्प- पूना-इसका प्राचीन नाम पुण्यपत्तन था। मध्ययुगीन तरु (३९९-४००) ने उनकी विशद व्याख्या की है, हेमाद्रि मराठों और पेशवाओं के समय के अवशेष यहाँ पाये (२.६२८) ने भी ऐसा ही किया है। जाते हैं । मोटा और मूला नदियों के संगम के पास ही Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण-पूर्णावतार ४१३ देवमन्दिर है। नगर में भी श्रीराममन्दिर, लक्ष्मीनारायणमन्दिर तथा कई जैन मन्दिर है। पूना के आस-पास भी कुछ दर्शनीय स्थान हैं, जैसे पार्वतीमन्दिर, आलंदी, देह, खंडोवा आदि । काशी की भाँति पूना भी संस्कृत के अध्ययन-अध्यायन का केन्द्र है। आधुनिक विश्वविद्यालय तथा प्राच्य विद्यासंस्थान आदि की स्थापना यहाँ हुई है । पूर्णब्रह्म का पर्याय । सृष्टि, विकास, विवर्तन तथा अनंक अन्य परिवर्तनों और विकृतियों के होते हुए भी ब्रह्म की पूर्णता नष्ट नहीं होती है। कौषीतकि उपनिषद् ( ४.८) में अजातशत्रु ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। बहदारण्यक उपनिषद् में भी इस सिद्धान्त का प्रतिपादन है । उपनिषद्वाक्य है : पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। [ यह सारा बाह्य जगत् पूर्ण है, यह अन्तःजगत् भी। पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण विकसित हो रहा है। पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है ( यह विचित्र स्थिति है )]। पूर्णत्व-वस्तुसत्ता को प्रकट करने वाला एक गुण । दे० 'पूर्ण' । पूर्णमास-पूर्णचन्द्र दिवस अथवा पूर्णमासी पर्व के समय किया जाने वाला यज्ञ-उत्सव । यह पवित्र और आवश्यक कर्म था, इसकी स्मृति में दान, व्रत तथा अन्य पुण्य कार्य करने की प्रथा आज भी प्रचलित है । पूर्णावतार-विष्णु के अवतार प्रायः दो प्रकार के होते हैं, एक अंशावतार एवं दूसरा पूर्णावतार । कलाओं के विकास अथवा भेद से अंशावतार और पूर्णावतार के स्वरूप तथा कार्यों में पार्थक्य होता है । अंशावतार में परमेश्वर की नवीं कला से पंद्रह कलाओं तक का विकास होता है। पूर्णावतार में सोलहवीं कला का भी पूर्ण विकास रहता है । आंशिक और पूर्ण दोनों ही अवतार यद्यपि सभी जीवों के कल्याणसम्पादन के लिए होते हैं किन्तु पूर्णावतार में परमात्मा की आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध सत्ताओं की पूर्णता रहती है। अंशावतार की उपकारिता एवं उपयोगिता केवल एक- देशिक होती है। उदाहरणस्वरूप परशुराम, बुद्ध आदि को समझ सकते हैं, जिनकी कार्यकारिता एकमुखी अथवा एकदेशिक रही । पूर्णावतार भगवान् श्री कृष्ण समझे जाते हैं, जिनके कार्य बहुद्देशीय अथबा सत्तात्रय से परिपूर्ण एवं सभी देश और काल में पूर्ण थे। अंशावतार रूप में अवतरित परशुराम ने उद्दण्ड क्षत्रियों का बिनाश किया, किन्तु अराजकता समाप्त नहीं हो सकी, अतः तुरन्त ही रामावतार की आवश्यकता हुई। अतः ऐसा माना जा सकता है कि अंशावतारावतरित दैवी शक्तियाँ अपूर्ण रहती हैं। ये अवतार कुछ समय के लिए अव सकते हैं, किन्तु सार्वकालिक और सार्वत्रिक रूप में नहीं। इसी प्रकार भगवान् बुद्ध ने भी अहिंसावाद का मण्डन कर यज्ञीय हिंसा का भी खण्डन किया और यहाँ तक कि ईश्वर और वेद का भी खण्डन कर तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार सभी जीवों का कल्याण किया। किन्तु यह सब केवल सामयिक और एकदेशिक होने के कारण आगे चलकर समाप्त हो गया और इसकी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप भगवान् शिव को शंकराचार्य के रूप में प्रकट होकर वेद और यज्ञ का मण्डन तथा बौद्धमत को परास्त करना पड़ा । इसके विपरीत पूर्णावतार रूप में अवतरित भगवान् कृष्ण ने संसार का जो कल्याण किया, उसकी प्रतिक्रिया के लिए किसी अन्य अवतार की आवश्यकता नहीं हुई, यही पूर्णावतार की विशेषता है। सबसे महान् विशेषता यह है कि अंशावतारों में कला के आंशिक विकास के परिणामस्वरूप एक ही भाव की प्रधानता रहती है और दूसरे भाव एवं ज्ञान, विचार आदि की गौणता हो जाया करती है। किन्तु पूर्णावतार में इस प्रकार की कोई विशेष बात नहीं होती, ये कर्म, उपासना, ज्ञान; इन तीनों की लीला से पूर्णतया युक्त ही रहते हैं। पूर्णावतार को विशेषता यह है कि इसमें ऐश्वर्य एवं माधुर्य दोनों शक्तियों का पूर्ण रूप से समावेश रहता है । अंशावतार में दोनों शक्तियों की समानता नहीं होती, किसी में ऐश्वर्य का प्राधान्य तो किसी में माधुर्य का प्राधान्य रहता है। पूर्ण अवतारों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण उनकी वृत्तियाँ समान और पूर्ण सुन्दर होती हैं। इनमें आधिभौतिक पूर्णता होने के कारण ब्रह्मचर्य और सौन्दर्य की पूर्णता, आधिदैविक पूर्णता होने के कारण शक्ति और ऐश्वर्य की पूर्णता, आध्यात्मिक पूर्णता होने के कारण ज्ञान एवं ऐश्वर्य की पूर्णता का होना Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णाहुति-पूर्वमीमांसा स्वाभाविक है। इसी कारण भगवान् पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत तीनों सत्ताओं से परिपूर्ण थे। पूर्णाहति-यज्ञ समाप्त होने पर जो अन्तिम आहुति दी जाती है उसे पूर्णाहति कहते है। इसमें घृतपूर्ण नारियल, फूल, ताम्बूल आदि स्रुव में रखकर विस्तृत मन्त्रपाठ के साथ अग्नि में अर्पित किये जाते हैं। पूर्णिमावत-(१) समस्त पूर्णिमाओं को धूप, दीप, पुष्प, फल, चन्दन, नैवेद्यादि से पार्वती उमा की पूजा और सम्मान करना चाहिए । गृहस्वामिनी केवल रात्रि में भोजन करे, यदि वह समस्त पूर्णिमाओं को व्रत न कर सके तो कम से कम कातिकी पूर्णिमा को अवश्य करे। (२) श्रावणी पूर्णिमा को व्रतकर्ता उपवास रखे और इन्द्रिय निग्रह करके १०० बार प्राणायाम साधे। इससे वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा। (३) कार्तिकी पूर्णिमा के दिन महिलाएं अपने घर अथवा उद्यान की दीवार पर शिव तथा उमा की आकृ- तियाँ खींचें। तदनन्तर इन दोनों देवों की गन्धाक्षतपुष्पादि से पूजा करते हुए गन्ना अथवा गन्ने के रस से तैयार वस्तुएँ चढ़ाएँ। तिलरहित खाद्य पदार्थ नक्त विधि से खाये जायें। इस व्रत से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। पृथ्वीव्रत-इस व्रत में देवी के रूप में पृथ्वी का पूजन होता है। पूर्त-'पूर्त' या 'पूर्ति' शब्द ऋग्वेद (६.१६,१८; ८.४६, २१) तथा अन्य संहिताओं में उपहार का बोधक है, जो पुरोहित को सेवाओं के बदले में दिया जाता था। आगे चलकर 'इष्ट' के साथ इसका प्रयोग होने लगा, तब इसका अर्थ 'लोकोपकारी धार्मिक कार्य-कूप, बाग, तालाब, सड़क, धर्मशाला, पांथशाला निर्माण' आदि हो गया। इष्ट (यज्ञ) अदृष्ट फल वाला होता है; पूर्त दृष्ट फल वाला । धार्मिक क्रिया के ये दो प्रधान अङ्ग हैं। पूर्वपक्ष-तार्किक वाद में प्रतियोगी सिद्धान्त का यह पूर्व अथवा प्रथम प्रतिपादन है। उत्तर पक्ष इसका खण्डन करता है। पूर्वमीमांसा-षड्दर्शनों में अन्तिम युग्म 'मीमांसा' के पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा ये दो भाग हैं। पूर्वमीमांसा यथार्थतः दर्शन नहीं है; वास्तव में यह वेदों की छानबीन है, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है । यह वेद के प्राथमिक अंश अर्थात् यज्ञ भाग से सम्बन्ध रखता है, जबकि उत्तरमीमांसा उपनिषद भाग से। उपनिषदों का वेद के अन्तिम अंश से सम्बन्ध होने के कारण उत्तरमीमांसा को वेदान्त भी कहते हैं तथा पूर्वमीमांसा को कर्ममीमांसा कहते हैं। पूर्वमीमांसा में वेदोक्त धर्म के विषय की खोज तथा कर्म के विवेचन द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्य की स्थापना हुई है। यह प्रणाली यज्ञकर्ताओं के सहायतार्थ स्थापित हुई थी तथा आज तक सनातनी हिन्दुओं में द्विजों की मार्गदर्शक है। यह वेदान्त, सांख्य तथा योग के समान संन्यासधर्म की शिक्षा नहीं देती।। पूर्वमीमांसाशास्त्र (सूत्र) के प्रणेता जैमिनि ऋषि हैं । इस पर शबर स्वामी का भाष्य है। कुमारिल भट्ट के 'तन्त्रवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी इसकी व्याख्या के रूप में प्रसिद्ध हैं। माधवाचार्य ने भी 'जैमिनीय न्यायमालाविस्तर' नामक एक ऐसा ही ग्रन्थ रचा है। मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे उसे यज्ञविद्या भी कहते हैं। मीमांसा का तात्विक सिद्धान्त विलक्षण है। इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में होती है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है। यह केवल वेद अथवा उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है । इसके अनुसार मन्त्र ही देवता हैं, देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं। 'भाट्टदीपिका' में स्पष्ट कहा गया है कि फल के उद्देश्य से सब कर्म होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती है। कर्म और उनके प्रतिपादक वचनों (वेदमन्त्रों) के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। मीमांसकों और मैयायिकों में भारी मतभेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं। भेद इतना ही है कि सांख्याचार्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानते हैं और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पान्त में भी नष्ट न होने वाला कहते हैं। इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया कि यह उत्तरमीमांसा से पूर्व बना । 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वमीमांसासूत्र-पेरियतिरुवन्दादि ४१५ पूर्वमीमांसासूत्र-इसकी रचना ई० पू० पाँचवीं-चौथी गया है। इनका एक विरुद 'वैन्य' अर्थात् वेन का पुत्र है। शताब्दी में जैमिनि ऋषि द्वारा मानी जाती है । यह बारह इन्हें प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है । पुराणों में पृथु अध्यायों में विभक्त है। विविध विषय अधिकरणों में की कथा का विस्तार से वर्णन है। राज्य की उत्पत्ति के विभक्त हैं। सम्पूर्ण अधिकरणों की संख्या नौ सौ साप्त सम्बन्ध में यह कथा कही गयी है । ब्रह्मा ने राज्य संचा(९०७) है। प्रत्येक अधिकरण में कई सूत्र है। समस्त लन के लिए एक संहिता बनायी, परन्तु इसका उपयोग सूत्रों की संख्या दो हजार सात सौ पैंतालीस (२७४५) करने के लिए किसी पुरुष की बावश्यकता थी। विष्णु ने है । प्रत्येक अधिकरण में पाँच भाग होते हैं-(१) विषय अपने तेज से विराज की उत्पत्ति की। किन्तु विराज (२) संशय (३) पूर्व पक्ष (४) उत्तर पक्ष (५) सिद्धान्त । और उसके छः वंशजों ने राज्य करने से इन्कार कर ग्रन्थ के तात्पर्यनिर्णय के लिए (१) उपक्रम (२) उप- दिया । वेन अन्यायी राजा हुआ। क्रुद्ध ऋषियों ने राजसंहार (३) अभ्यास (४) अपूर्वता (नवीनता) (५) फल सभा में ही उसका वध कर दिया एवं उसकी दाहिनी (उद्देश्य) (६) अर्थवाद (माहात्म्य) और (७) उपपत्ति भुजा का मन्थन करके पृथु को उत्पन्न किया। पृथु ने (प्रमाणों द्वारा सिद्धि) ये सात बातें आवश्यक हैं। न्यायपूर्वक प्रजा पालन की प्रतिज्ञा की। विष्ण, देवपूर्वाचिक-सामवेद की राणायनीय संहिता के पूर्वाचिक ताओं, ऋषियों और दिक्षालों ने उनका राज्याभिषेक और उत्तराचिक दो भाग हैं। पहले भाग में ग्राम्यगीत किया । संसार ने पृथु की नर देवताओं में गणना की और एवं अरण्यगीत हैं, दूसरे भाग में ऊहगीत तथा उह्यगीत देवता के समान उनकी पुजा की। पृथु आदर्श राजा के संगृहीत हैं। प्रतीक माने जाते हैं। पूर्वाह-दिन के प्रथम अर्ध भाग का बोधक शब्द । देव पृथुश्रवा दौरेश्रवस-यह दूरेश्रवा का आत्मज था, कार्य के लिए यह काल उपयुक्त माना गया है। जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५.३) में नागयज्ञ पृथिवी (पृथिवि, पृथ्वी)-यह शब्द भूमि एवं विस्तीर्ण के के एक उद्गाता पुरोहित के रूप में हुआ है। अर्थ में ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है । पश्चात् इसका व्यक्ती पृथ्वीचन्द-सिक्खों के एक उपगुरु । खालसा संस्था की करण एक देवी के रूप में हो गया। इसका उपर्युक्त अर्थों उत्पत्ति से सिक्ख दो भागों में बँट गये : (१) सहिजमें प्रयोग अकेले तथा द्यौ (आकाश) के साथ 'द्यावा धारी तथा (२) सिंह । सहिजधारियों की छः शाखाएँ पृथ्वो' के रूप में हुआ है । इस रूप में चावा-पृथिवी समस्त देवताओं के जनक-जननी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार हुईं, जिनमें १७३८ वि० (लगभग) में गुरु रामदास के पृथिवी समुद्र की मेखला धारण करती है । शतपथ ब्रा० में पुत्र पृथ्वीचन्द ने 'मिन' नामक शाखा की नींव डाली। पृथिवी को 'सृष्टिज्येष्ठ' और 'प्रथमसृष्टि' कहा गया है। पृदाकु-अथववद में उद्धृत एक सप । अश्वमेध के बलिअथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त प्रसिद्ध है, इसमें पथिवी को माता पशुओं की तालिका में यह भी सम्मिलित है। अथर्ववेद और मनुष्यों को उसका पुत्र कहा गया है। पुराणों में पथिवी (१.२७,१) के अनुसार इसका चर्म विशेष मूल्यवान का पूरा व्यक्तीकरण या दैवीकरण हआ है। पथिवी प्रायः होता था। गोरूप में चित्रित है, वह ऋत और सत्य की साक्षी और पृश्नि-ऋग्वेद में वर्णित बादलरूपी गाय । मरुतों को रुद्र मानवचरित्र की निरीक्षिका है। तथा पृश्नि ( गौ ) का पुत्र कहा गया है। वास्तव में प्रातःकाल उठते ही धार्मिक हिन्दू पथिवी की निम्ना विभिन्न रंगों के झंझावाती बादलों का यह नाम है । ङ्कित मन्त्र से प्रार्थना करता है : पुषत्-अश्वमेध के बलिपशुओं की तालिका में उल्लिखित समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले । एक पशु । निरुक्त ( २.२ ) में इसका अर्थ 'चितकबरा विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे ।। हरिण' बताया गया है। पृथु (पृथि, पृथी)-आद्य व्यवस्थापक और शासक । पेरियतिरुवन्दादि-नम्म आलवार के ग्रन्थों में से, जो इनका विशेष करके कृषि के अनुसन्धाता तथा दोनों विश्वों चारों वेदों के प्रतिनिधि हैं, 'पेरियतिरुवन्दादि' अथर्ववेद (मनुष्य तथा पशुओं) के स्वामी के रूप में वर्णन किया का प्रतिनिधित्व करता है । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैङ्गराज-प्रकरणग्रन्थ पंङ्गराज-अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं में से एक जन्तु । पौल्कस-बृहदारण्यक उ० में इस शब्द का उल्लेख चाण्डाल यह पक्षी अर्थ का बोधक है किन्तु पक्षी के प्रकार का ज्ञान एवं घृणित जाति के सदस्यों के लिए हुआ है । स्मृतियों के इससे नहीं होता। अनुसार पुल्कस निषाद अथवा शूद्र पिता तथा क्षत्रियकन्या पैङ्गल उपनिषद् -एक परवर्ती उपनिषद् । का पुत्र है। इसकी गणना वर्णसंकर जातियों में की गयी पैठण-प्राचीन प्रतिष्ठान नगर, जो औरंगाबाद ( महा है । किन्तु पौल्कस एक जाति हो सकती है । संभवतः यह राष्ट्र ) से बत्तीस मील दूर है। यह शालिवाहन की वन्य जाति है, जो जंगली जन्तुओं को पकड़ने का काम कर राजधानी और महाराष्ट्र का प्राचीन विद्याकेन्द्र भी था। अपनी जीविका चलाती थी। यहीं संत एकनाथ का वासस्थान एवं उनके आराध्य पौष्करस-तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में उल्लिखित एक आचार्य । भगवान का मन्दिर है। कहते हैं कि यहीं गोदावरी के पौष्टिक-जीवन की पुष्टि के लिए किया हुआ धार्मिक नागघाट पर संत ज्ञानेश्वर ने भैंसे के मुख से वेदमन्त्रों कृत्य पौष्टिक कहलाता है। बृहत्संहिता में सांवत्सर का उच्चारण कराया था। प्रसिद्ध संत कृष्णदयार्णव ( ज्योतिषी) की योग्यता तथा सामर्थ्य की परिगणना का घर भी यहीं है। करते हुए बतलाया गया है कि उसे शान्तिक तथा पौष्टिक पैप्पलाद ( शाखा )-अथर्ववेद की एक प्राचीन शाखा । क्रियाओं में पारङ्गत होना चाहिए । दोनों कृत्यों में अन्तर इसके मन्त्रपाठ की हस्तलिखित प्रतिलिपि १९३० यह है कि पौष्टिक कार्यों में होम, यज्ञ, यागादि कृत्य आते वि० में कश्मीर से प्राप्त हई थी। शौनक शाखा से हैं जो दीर्घायु की प्राप्ति के लिए होते हैं; शान्तिक कृत्यों इसकी मन्त्रव्यवस्था में पर्याप्त अन्तर है। पैप्पलाद में होमादि का आयोजन दुष्ट ग्रहों के प्रभाव को दूर करने संहिता का आठवाँ तथा नवाँ भाग नया जान पड़ता है, तथा असाधारण घटनाओं, जैसे पुच्छल तारे के उदय, भूजो न तो सांख्यायन में, न किसी और वैदिक संग्रह में कम्प अथवा उल्काओं के पतन से होने वाले अनिष्ट उपलब्ध है । दे० 'पिप्पलाद' । के निवारणार्थ किया जाता है। निर्णयामृत, ४८ तथा पोक्रिपक्रोवइ-तमिल शैवों के चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में कृत्यकल्पतरु के नैत्यकालिक काण्ड, २५४ के अनुसार से एक 'पोक्रिपक्रोदइ' है। इसके रचयिता उमापति 'शान्ति' का तात्पर्य है धर्मशास्त्रानुसार भौतिक विपदाओं शिवाचार्य हैं, जो चौदह सिद्धान्तशास्त्रों में से आठ के के निवारणार्थ किये गये शास्त्रानुमोदित धार्मिक कृत्य । रचयिता हैं। पौष्करसंहिता-पाञ्चरात्र साहित्य में १०८ संहिताओं का पोंगलमास-तमिल प्रदेश का एक विशेष व्रतोत्सव । महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से पौष्कर, वाराह तथा ब्राह्म महाराष्ट्र के गणेशोत्सव, बङ्गाल के दुर्गोत्सव, उडीसा संहिताएँ सबसे प्राचीन हैं। किन्तु कुछ विद्वान् पद्मसंहिता की रथयात्रा के समान द्रविड प्रदेश में 'पोंगलमास' पर्व को तथा कुछ लक्ष्मीसंहिता को प्राचीन मानते हैं । का बड़े उत्साह से आयोजन किया जाता है। यह पौष्यजि-सामवेद की शाखापरम्परा में सुकर्मा के शिष्य उत्तर भारत की मकर संक्रान्ति या 'खिचड़ी' का दूसरा पौष्यजि माने जाते हैं। इनके हिरण्यनाभ और राजपुत्र कौशिक्य नाम के दो शिष्य थे। पौष्यजि ने पौरन्दरक्त--पुरन्दर (इन्द्र) का व्रत । पञ्चमी को इसका उन दोनों को पांच-पांच सौ सामगीतियाँ पढ़ायों। अनुष्ठान होता है । व्रती को तिल की गजक या तिलपट्टी हिरण्यनाभ के शिष्य प्राच्यसामग नाम से विख्यात हुए । से हाथी की आकृति बनाकर उसे सुवर्ण से अलंकृत करना प्रकरणप्रन्थ -- स्मृति साहित्य का एक व्यावहारिक प्रकार चाहिए तथा उस पर अंकुश सहित महावत भी बिठाना प्रकरण ग्रन्थ कहलाता है। इसकी रचना का उद्देश्य चाहिए । हाथी इन्द्र का वाहन है। उसको रक्त वस्त्र से मीमांसा के सिद्धान्तों को स्मृतिग्रन्थों में वर्णित क्रियाओं आच्छादित करके कर्णाभूषण तथा स्वच्छ धौत वस्त्रों सहित पर लागू करना था। यह मुख्यतः मीमांसा का ही एक दान में दे देना चाहिए। इससे व्रती इन्द्रलोक में बहुत अङ्ग है । प्रकरणग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं मुख्य स्मृतिसमय तक वास करता है। कौस्तुभ है । इसके रचयिता अनन्तदेव थे। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरणपञ्चिका-प्रकृतिपुरुषव्रत ४१७ प्रकरणपञ्चिका-प्रभाकर के शिष्य शालिकनाथ (७०० ई०) वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली वेदान्त का सुप्रसिद्ध प्रमाण द्वारा विरचित यह ग्रन्थ प्रभाकर की मीमांसाप्रणाली का ग्रन्थ है। इसकी विवेचनशैली बहुत युक्तियुक्त और अभिनव वर्णन प्रस्तुत करता है । प्राञ्जल है। इसमें गद्य में विचार करके पद्य में सिद्धान्तप्रकरिता-यजुर्वेद में उद्धृत पुरुषमेध का एक बलिजीव ।। निरूपण किया गया है । इसके ऊपर अप्पय्य दीक्षित की इसका ठीक अर्थ अनिश्चित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण में सायण सिद्धान्तदीपिका' नाम की एक वृत्ति है। ने इसका अर्थ 'मित्रों में फूट उत्पन्न कर देने वाला' प्रकाशानुभव-दे० 'प्रकाशात्ममुनि' । लगाया है, किन्तु मैकडॉनल तथा कीथ के मतानुसार प्रकृति-सांख्य शास्त्र में चार प्रकार से पदार्थों का निरूपण इसका अर्थ 'छिड़कने वाला' अथवा 'छानने वाला' यन्त्र किया गया है : (१) केवल प्रकृति (२) केवल विकृति, है, जिसका उपयोग यज्ञों में होता था। (३) प्रकृति-विकृति उभयरूप और (४) प्रकृति-विकृति दोनों प्रकाश-आचार्य वल्लभ के पुष्टिमार्गीय तीन संस्कृत ग्रन्थों से भिन्न । मूल प्रकृति केवल प्रकृति है, किसी की विकृति में एक तत्त्वदीपनिबन्ध है, जो उनके सिद्धान्तों का नहीं है। महत् से आरम्भ होनेवाले सात तत्त्व प्रकृति और संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ के साथ विकृति दोनों हैं । ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, पांच महाभूत और 'प्रकाश' नामक प्राञ्जल गद्य भाग एवं सत्रह संक्षिप्त मन ये सोलह केवल विकृति हैं। पुरुष न तो प्रकृति है, न रचनाएँ सम्मिलित हैं। विकृति है। प्रकाशात्ममुनि-बारहवीं शताब्दी के मध्य में आचार्य __महदादि सम्पूर्ण कार्यों का जो मूल है वह मूल प्रकृति रामानुज का आविर्भाव हुआ था और उन्होंने शाङ्कर मत है, उसके प्रधान, माया, अव्यक्त आदि नामान्तर हैं। का बड़े कठोर शब्दों में खण्डन किया। उस समय शाङ्कर प्रकृति का और कोई कारण नहीं है इसी लिए इसको मूल मत को पुष्ट करने की चेष्टा प्रकाशात्ममुनि ने की थी। प्रकृति कहा जाता है। इन्होंने पद्मपादाचार्यकृत पञ्चपादिका पर पञ्चपादिका- प्रकृति और पुरुष दोनों को सांख्य में अनादि माना विवरण नामक टीका की रचना की। अद्वैत जगत् में जाता है। इसी प्रकृति से सम्पूर्ण जगत् का विकास हुआ यह टीका बहुत मान्य है । बाद के आचार्यों ने प्रकाशात्म- है। प्रकृति की 'सत्-ता' (सदा होना) कारण (मूल) है; मुनि के वाक्य प्रमाण के रूप में उद्धृत किये हैं। परन्तु इससे कार्य जगत् उद्भूत हुआ है। इस सिद्धान्त को इन्होंने अपना परिचय कहीं नहीं दिया। ऐसा मालूम __'सत्कार्यवाद' कहते हैं । एक ही मूल प्रकृति से विश्व के होता है कि ये दसवीं शताब्दी के बाद और तेरहवीं विविध पदार्थ उत्पन्न होते हैं । इसका कारण है प्रकृति में शताब्दी के पहले हुए थे । इनका अन्य नाम प्रकाशानुभव तीन गुणों-सत्त्व, रज, तम का होना । विविध अनुपातों में भी था और इनके गुरु का नाम अनन्यानुभव था, ऐसा । इन्हीं के सम्मिश्रण से विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। इनके ग्रन्थ से पता चलता है। विकासप्रक्रिया उस समय प्रारम्भ होती है जब प्रकृति का प्रकाशात्मयति–दे० 'प्रकाशात्ममुनि'। पुरुष से सम्बन्ध होता है। किन्तु इस प्रक्रिया में ईश्वर प्रकाशात्मा-एक प्रसिद्ध वृत्तिकार । इन्होंने श्वेताश्वतर एवं का कोई भी हाथ नहीं है । पुरुष को प्रसन्न और मुग्ध . मैत्रायणीयोपनिषद् पर दार्शनिक वृत्तियाँ लिखी है। करने के लिए प्रकृति अपना कार्य प्रारम्भ करती है । जब प्रकाशानन्द-वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ग्रन्थ के रचयिता। पुरुष प्राज्ञ होकर अपना स्वरूप पहचान लेता है तब प्रकृति इनके गरु आचार्य ज्ञानानन्द थे। अप्पय्य दीक्षित संकुचित होकर अपनी लीला समेट लेती है । ने 'सिद्धान्तलेश' में इनके मत का उल्लेख किया है। ये प्रकृति-पुरुषव्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को यह प्रारम्भ होता विद्यारण्य के परवर्ती थे, क्योंकि वेदान्तसिद्धान्तमुक्ता- है। इसमें उपवास का विधान है। पुरुषसूक्त से गन्धादि वली में कहीं-कहीं इन्होंने 'पञ्चदशी' के पद्यों को उद्धृत सहित अग्निदेव का पूजन करना चाहिए । अग्नि तथा किया है। अतः इनका जीवन काल पन्द्रहवीं शताब्दी सोम के रूप में पुरुष तथा प्रकृति पूजे जाने चाहिए। वे होना चाहिए। इसके सिवा इनकी जीवन सम्बन्धी और ही वासुदेव तथा लक्ष्मी भी है। श्रीसुक्त से लक्ष्मी का कोई घटना नहीं कही जा सकती। पूजन होना चाहिए । सुवर्ण, रजत तथा ताम्र का दान Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ प्रगाथ-प्रणव करना चाहिए। व्रती को घी तथा दूध का ही आहार उत्पत्ति की तथा उसमें बीजारोपण किया। यह एक स्वर्णकरना चाहिए । एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। अण्ड बन गया, जिससे वे स्वयं ही ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ इससे व्रती की सभी सांसारिक इच्छाएँ पूर्ण होती हैं तथा के रूप में उत्पन्न हुए। किन्तु दूसरे मतानुसार (ऋग्वेद, अन्त में वह मोक्ष मार्ग का अधिकारी होता है। पुरुषसूक्त १०.८०) प्रारम्भ में पुरुष था तथा उसी से प्रगाथ-ऋग्वेदीय अष्टम मण्डल की विशिष्ट छन्दोबद्ध विश्व उत्पन्न हुआ। वह पुरुष देवता नारायण कहलाया, जो शतपथ ब्राह्मण में पुरुष के साथ उद्धृत है। इस रचना। ऐतरेय आरण्यक में यह नाम ऋग्वेद के उक्त प्रकार नारायण मनु के उपर्युक्त उद्धरण के ब्रह्मा के सदृश मण्डल के रचनाकारों को दिया गया है। कारण यह है कि प्रयाथ छन्द उनको अत्यन्त प्रिय था। है। किन्तु साधारणतः नारायण तथा विष्णु एक माने वस्तुतः प्रगाथ वैदिक छन्द का नाम है, जिसकी प्रथम जाते हैं। पंक्ति में बृहती अथवा ककुप और फिर सतोबृहती की फिर भी सृष्टि एवं भाग्य की रचना ब्रह्मा द्वारा हुई, मात्राएँ रखी जाती हैं। ऐसा विश्वास अत्यन्त प्राचीन काल से अब तक चला आया है। प्रजापति-वैदिक ग्रन्थों में वर्णित एक भावात्मक देवता, प्रजापतिव्रत-नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति ही प्रजापतिव्रत जो प्रजा अर्थात् सम्पूर्ण जीवधारियों के स्वामी हैं । ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का हिन्दू धर्म में महत्त्वपूर्ण उच्च स्थान है । प्रश्नोपनिषद् (१.१३ तथा १५) में यह कथन है : 'दिवस ही प्राण है, रात्रि प्रजापति का भोजन है। जो है । इन तीनों को मिलाकर विमूर्ति कहते हैं। ब्रह्मा सृष्टि करने वाले, विष्णु पालन करने वाले तथा शिव (रुद्र) लोग दिन में सहवास करते हैं, वे मानो प्राणों पर ही संहार करने वाले कहे जाते हैं । वास्तव में एक ही शक्ति आक्रमण करते है और जो लोग रात में सहवास करते हैं, वे मानो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। जो लोग प्रजाके ये तीन रूप है। इनमें ब्रह्मा को प्रजापति, पितामह, हिरण्यगर्भ आदि नामों से वेदों तथा ब्राह्मणों में अभिहित पतिव्रत का आचरण करते हैं, वे (एक पुत्र तथा एक किया गया है। इनका स्वरूप धार्मिक की अपेक्षा काल्प पुत्री के रूप में) सन्तानोत्पादन करते हैं।' निक अधिक है। इसी लिए ये जनता के धार्मिक विचारों प्रज्ञा–प्रकृष्ट ज्ञान या बुद्धि । अनुभूति अथवा अन्तर्दृष्टि को विशेष प्रभावित नहीं करते। यद्यपि प्रचलित धर्म में से वास्तविक सत्ता-आत्मा अथवा परमात्मा के सम्बन्ध विष्णु तथा शिव के भक्तों की संख्या सर्वाधिक है, किन्तु में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वास्तव में वही प्रज्ञा है। तीनों देवों; ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव को समान पद प्राप्त है, प्रज्ञान-प्रखर बुद्धि अथवा चेतना । दे० 'प्रज्ञा' । जो त्रिमूर्ति के सिद्धान्त में लगभग पांचवीं शताब्दी से ही प्रणव-पवित्र घोष अथवा शब्द (प्र + णु स्तवने + अप्) । मान्य हो चुका है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार प्रजापति की इसका प्रतीक रहस्यवादी पवित्र अक्षर 'ॐ' है और इसका कल्पना में मतान्तर है; कभी वे सृष्टि के साथ उत्पन्न पूर्ण विस्तार 'ओ३म्' रूप में होता है। यह शब्द ब्रह्म का बताये गये है, कभी उन्हीं से सष्टि का विकास कहा गया बोधक है; जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें स्थित है। कभी उन्हें ब्रह्मा का सहायक देव बताया गया है । रहता है और जिसमें इसका लय हो जाता है। यह विश्व परवर्ती पौराणिक कथनों में भी यही (द्वितीय) विचार नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ हैं इनकी अभिपाया जाता है। ब्रह्मा का उद्भव ब्रह्म से हुआ, जो प्रथम व्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से होती है । जितने भी वर्ण कारण है, तथा दूसरे मतानुसार ब्रह्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् (ओष्ठ्य व्यञ्जन) के बीच हैं, जबकि ब्रह्मा को · 'स्वयम्भू' या अज ( अजन्मा) उच्चरित होते हैं । इस प्रकार 'ओम्' सम्पूर्ण विश्व की कहते हैं। अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है । यह पवित्र सर्वसाधारण द्वारा यह मान्य विचार, जैसा मनु (१.५) और माङ्गलिक माना जाता है इसलिए कार्यारम्भ और में उद्धृत है, यह है कि स्वयम्भू की उत्पत्ति कार्यान्त में यह उच्चारित अथवा अङ्कित होता है । वाजप्रारम्भिक अन्धकार से हुई, फिर उन्होंने ने जल की सनेयी संहिता, तैत्तिरीय संहिता, मुण्डकोपनिषद् तथा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणव उपनिषद्-प्रत्यक्ष रामतापनीय उपनिषद् में 'ओम्' के अर्थ और महत्व का विशद विवेचन पाया जाता है। प्रणव उपनिषद् - एक परवर्ती उपनिषद्, जिसमें प्रणव का निरूपण और माहात्म्य पाया जाता है । प्रणवदर्पण - तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शती पूर्वार्ध में) द्वारा रचित यह ग्रन्थ विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन करता है । प्रणववाद- - इस सिद्धान्त के अनुसार शब्द अथवा नाद को ही ब्रह्म या अन्तिम तत्व मानकर उसकी उपासना की जाती है। किसी न किसी रूप में सभी योगसाधना के अभ्यासी शब्द की उपासना करते हैं। यह प्रणाली अति प्राचीन है। प्रणव के रूप में इसका मूल वेदमन्त्रों में वर्तमान है । इसका प्राचीन नाम 'स्फोटवाद' भी है । छठी शताब्दी के लगभग सिद्धयोगी भर्तृहरि ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय में 'शब्दाद्वैतवाद' का प्रवर्तन किया था । नाथ सम्प्रदाय में भी शब्द की उपासना पर जोर दिया गया है । चरनदासी पन्च में भी शब्द का प्राधान्य है। आधुनिक संतमार्गी राधास्वामी सत्संगी लोग शब्द को ही उपासना करते हैं। प्रणवोपासना-दे० 'प्रणववाद' | प्रणामी सम्प्रदाय - इसका शुद्ध नाम 'परिणामी सम्प्रदाय' है । इसके प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथजी परिणामवादी वेदान्ती थे, जो विशेष कर पन्ना (मध्य प्रदेश) में रहते थे । महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे। ये अपने को मुसल मानों का मेहेंदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे । इन्होंने मुसलमानों से शास्त्रार्थ भी किये थे। सर्वधर्म समन्वय इनका उद्देश्य था इनका मत राधाकृष्णोपासक निम्बार्कीय वैष्णवों से मिलताजुलता था। ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के सख्यभाव की उपासना का उपदेश देते थे । प्राणनाथजी ने उपदेशात्मक ग्रन्थ और सिद्धान्तात्मक वाणियाँ फारसी मिश्रित सपुक्कड़ी भाषा में रची हैं। इनकी शिष्य परम्परा का भी अच्छा साहित्य है । इनके अनुगामी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं । दे० 'प्राणनाथ' | प्रतिज्ञावादार्थ - श्रीवैष्णव अनन्ताचार्य द्वारा विरचित १६वीं शताब्दी का एक ग्रन्थ । प्रतिप्रस्थाता - ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ विधियों, पुरोहितों की संख्या तथा प्रकार में बहुत विविधता दिखाई पड़ती है । ४१९ विविध यज्ञों के लिए विविध नाम व गुणों वाले पुरोहित आवश्यक होते थे । जैसे चातुर्मास्य यज्ञ के लिए 'प्रतिप्रस्थाता' नामक पुरोहित की आवश्यकता होती थी । इसका शाब्दिक अर्थ है ' दुबारा स्थापना करने वाला ।' प्रतिष्ठा - ( १ ) विशेष प्रकार से स्थापना । मन्दिरों में मूर्तियों के पधराने को प्रतिष्ठा कहा जाता है । देवप्रतिष्ठा के अन्तर्गत प्राणप्रतिष्ठा का भी अनुष्ठान होता है । (२) अथर्ववेद (६.३२, ३८.८, २१ शाखा० आ० १२.१४) के एक परिच्छेद में इस शब्द का प्रयोग धर्म के किसी विशेष अर्थ में हुआ है। सम्भवतः इसका 'मन्दिर का गर्भगृह' अभिप्राय है । गृह अथवा वास अर्थ भी असंगत नहीं प्रतीत होता है। प्रतिष्ठा विधि - देवप्रतिष्ठा के समय, पर्व और आपत्काल में नियमित रूप से मूर्तियों का अभिषेक करना मन्दिरों में आज भी प्रचलित है। इसके नियम अनेक पद्धतियों में लिखे गये हैं जिन्हें पूजाविधि अथवा प्रतिष्ठाविधि कहते हैं। अभिषेक विशेषकर दुग्ध अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के जल, मधु, गव्य द्रव्य, दीमक के बिल की मिट्टी आदि से भी होता है । प्रतिसर्ग-पुराणों के अन्तर्गत उनके पक्ष लक्षण, विषय वा प्रक रण माने गये हैं: (१) सर्ग (सृष्टि) (२) प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि का विस्तार लय और फिर से सृष्टि (३) सृष्टि की आदि वंशावली ( ४ ) मन्वन्तर ( ५ ) वंशानुचरित । प्रतिसर्ग का शाब्दिक अर्थ है 'पुनः सृष्टि' अर्थात् विश्वसृष्टि के अन्तर्गत खण्डशः सृष्टि और प्रलय की परम्परा । प्रतिहर्ता - सोलह ऋत्विजों की तालिका में उत उद्गाता का सहायक पुरोहित । इसका उल्लेख कई संहिताओं तथा ब्राह्मणों में हुआ है किन्तु ऋग्वेद में यह शब्द नहीं पाया जाता । इसका कारण यह है कि तब तक यज्ञों का अधिक विस्तार नहीं हुआ था । प्रतिहारसूत्र - ऋक् मन्त्र को साम में परिणत करने की विधि के सम्बन्ध में सामवेद के बहुत से सूत्रग्रन्थ हैं । इनमें से एक का नाम पञ्चविधिसूत्र तथा दूसरे का प्रति हारसूत्र हैं । ये ग्रन्थ कात्यायन द्वारा रचित कहलाते हैं । प्रत्यक्ष — इन्द्रियों की सहायता से प्राप्त ज्ञान (प्रति + अक्ष आँखों (इन्द्रियों) के सामने) न्यायदर्शन में चार प्रमाणों के अन्तर्गत इसको प्रथम प्रमाण माना है । चावकि दर्शन में = Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञा-प्रदोषव्रत प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण मानते हुए अनुमान, उप- स्थानों के चारों ओर चलकर की जाती है। काशी में मान, शब्द आदि अन्य प्रमाणों का प्रत्याख्यान किया ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहाँ के जाता है। सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर प्रत्यभिज्ञा-तत्ता-इदन्तावगाही' ज्ञान; सुदीर्घकालिक प्रयास काशी धाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणासे बिछुड़े हुए को पहचानना । काश्मीर शैव मत में भक्त का __मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में हैं। मोक्ष शिव के साथ तादात्म्य अर्थात प्रत्यभिज्ञा नामक प्रदक्षिणा की प्रथा अति प्राचीन है। वैदिक काल से स्थिति पर निर्भर है। यह उस अवस्था का नाम है जब ही इससे व्यक्तियों, देवमूर्तियों, पवित्र स्थानों को प्रभावित भक्त को ध्यान में शक्ति के माध्यम से शिव की अनुभूति करने या सम्मानप्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। होती है । इस शब्द की व्युत्पत्ति है 'प्रति + अभि + ज्ञा', शतपथ ब्राह्मण में यज्ञमण्डप के चारों ओर साथ में जिसका अर्थ है जानना, पहचानना, स्मरण करना । प्रत्य जलता अङ्गार लेकर प्रदक्षिणा करने को कहा गया है। भिज्ञादर्शन के सन्दर्भ में इसका अर्थ है 'जीव और ब्रह्म गृह्यसूत्रों में गृहनिर्माण के निश्चित किये गये स्थान के चारों के तादात्म्य का ज्ञान'। ओर जल छिड़कते हुए एवं मन्त्र उच्चारण करते हुए तीन प्रत्यभिज्ञाकारिका-दसवीं शताब्दी में उत्पलाचार्य द्वारा बार घूमने की विधि लिखी गयी है। मनुस्मृति में विवाह विरचित यह ग्रन्थ सोमानन्दरचित 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ की। के समय वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा शिक्षाओं की व्याख्या उपस्थित करता है । करने का विधान बतलाया गया है। प्रत्यभिज्ञादर्शन-एक दार्शनिक सम्प्रदाय । इसके अनुयायी प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण तथा साधारण धार्मिक काश्मीरक शैव होते हैं । इसके अनुसार महेश्वर ही जगत् विचार सूर्य की दैनिक चाल से निर्गत हुआ है। जिस के कारण और कार्य सभी कुछ हैं । यह संसार मात्र शिव- तरह सूर्य प्रातः पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से मय है। महेश्वर ही ज्ञाता और ज्ञानस्वरूप हैं। घट चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार हिन्दू पटादि का ज्ञान भी शिवस्वरूप है। इस दर्शन के अनु धार्मिक विचारकों ने तदनुरूप अपने धार्मिक कृत्य को सार पूजा, पाठ, जप, तप आदि की कोई आवश्यकता बाधा विघ्न विहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने नहीं, केवल इस प्रत्यभिज्ञा अथवा ज्ञान की आवश्यकता है का विधान किया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणामन्त्रकि जीव और ईश्वर एक हैं। इस ज्ञान की प्राप्ति ही स्वरूप कहा भी गया है : “सूर्य के समान यह हमारा पवित्र मुक्ति है। जीवात्मा-परमात्मा में जो भेद दीखता है वह कार्य पूर्ण हो।" भ्रम है। इस दर्शन के मानने वालों का विश्वास है कि प्रदत्त-परम्परानुसार द्वापर युग के अन्त में आलवारों के जिस मनुष्य में ज्ञान और क्रियाशक्ति है, वही परमे- तीन आचार्य हए-पोइहे, प्रदन एवं पे । प्रदत्त का जन्म श्वर है। तिरुवन्नमलायी (श्रीअनन्तपुरम् ) नामक स्थान में प्रत्यभिज्ञाविशिनी-यह दसवीं शताब्दी के आचार्य अभि- हुआ था । नव गुप्त द्वारा लिखित ग्रन्थ है। यह 'प्रत्यभिज्ञाकारिका' प्रदिव-अथर्ववेद (१८.२.४८) में इसे तीसरा तथा सबसे पर लिखा गया भाष्य है। ऊँचा स्वर्ग कहा गया है, जिसमें पितृगण रहते हैं । प्रत्यभिज्ञाविवृतिविशिनी-आचार्य अभिनव गुप्त (१०वीं कौषीतकि ब्राह्मण (२०.१) में सात स्वर्गों की तालिका शताब्दी) द्वारा लिखित एक विस्तृत टीका, जो 'प्रत्य- में इसे पञ्चम कहा गया है। भिज्ञाकारिका' के ऊपर है। प्रदोषव्रत-त्रयोदशी को संध्याकाल के प्रथम प्रहर में इस प्रदक्षिणा-किसी वस्तु को अपनी दाहिनी ओर रखकर वत का अनुष्ठान होता है। जो इस समय भगवान शिव घूमना। यह षोडशोपचार पूजन की एक महत्त्वपूर्ण की प्रतिमा का दर्शन करता है तथा उनके चरणों में कुछ धार्मिक क्रिया है जो पवित्र वस्तुओं, मन्दिरों तथा पवित्र निवेदन करता है, वह समस्त संकटों और पापों से मुक्त Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनस् प्रद्युम्न-प्रबोधचन्द्रोदय ४२१ हो जाता है । इस व्रत में पूजा के अनन्तर एकभक्त (एक जाती है, जो बिल्कुल निष्क्रिय रहता है और उसे माँ (बिल्ली) बार भोजन) किया जाता है। अपने मुख में दबाकर चलती है (वैडाली धृति) । एतदर्थ प्रद्युम्न-महाभारत के नारायणीयोपाख्यान में वर्णित चतु- इन्हें 'मर्कट-न्याय' तथा 'मार्जार-न्याय' के हास्यास्पद नामों यूं हसिद्धान्त के अन्तर्गत वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से से भी लोग पुकारते हैं। दोनों के प्रति उपास्य देव की प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा की दृष्टि क्रमशः 'सहेतुक कृपा' तथा 'निर्हेतुक कृपा' को रहती उत्पत्ति मानी गयी है । सांख्यदर्शन में संकर्षण तथा अन्य है। इसकी तुलना पाश्चात्य धार्मिक विचारकों की 'सहतीन का निम्नाङ्कित तत्त्वों से तादात्म्य किया गया है : योगी कृपा' तथा 'स्वतः अनिवार्य कृपा' के साथ की जा वासुदेव : मूलतत्त्व (पर ब्रह्म) सकती है। संकर्षण : महत्तत्त्व प्रकृति जो व्यक्ति प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लेता है उसे 'प्रपन्न' प्रद्युम्न : अथवा शरणागत कहते हैं। प्रपत्ति मार्ग के उपदेशकों अनिरुद्ध : अहङ्कार का कहना है कि ईश्वर पर निरन्तर एकतान ध्यान केन्द्रित ब्रह्मा: भूतों के रचयिता। करना ( जिसकी भक्तिमार्ग में आवश्यकता है और जो वासुदेव कृष्ण का नाम है, संकर्षण अथवा बलराम मुक्ति का साधन है) मनुष्य की सर्वोपरि शान्त वृत्ति उनके भाई हैं, प्रद्यम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके और विवेक की तीव्रता से ही सम्भव है, जिसमें अधिकांश पौत्रों में से एक हैं। इनका एक सामूहिक पुञ्ज बना। मनुष्य खरे नहीं उतर सकते । इसलिए ईश्वर ने अपनी लिया गया और उसका 'व्यूह' नाम रख दिया गया है। करुणाशीलता के कारण प्रपत्ति का मार्ग प्रकट किया है, दे० 'व्यूह' । जिसमें बिना किसी विशेष प्रयास के आत्मसमर्पण किया प्रपञ्चमिथ्यात्वानुमानखण्डनटीका-यह माध्व वैष्णव जय- जा सकता है। इसमें किसी जाति, वर्ण अथवा वंश की तीर्थाचार्य द्वारा विरचित द्वैतवादी तार्किक ग्रन्थ है। अपेक्षा नहीं है । यद्यपि यह मार्ग दक्षिण भारत में प्रचइसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है। लित रहा है, किन्तु इसका प्रचार परवर्ती काल में उत्तर प्रपजचमिथ्यावादखण्डन-मध्वाचार्य द्वारा विरचित एक भारतीय गङ्गा-यमुना के केन्द्रस्थल में भी हआ तथा द्वैतवादी वेदान्त ग्रन्थ । इसके अवलम्ब से अनेकों पवित्र आत्माओं को ईश्वर का प्रपञ्चसारतन्त्र-इस नाम के दो ग्रन्थ हैं, प्रथम शङ्करा- दिव्य अनुग्रह प्राप्त हुआ (यथा चरणदासी संत )। चार्यकृत तथा दूसरा पद्मपादाचार्य कृत । ये अद्वैत वेदान्त इस विचार का और भी विकसित रूप 'आचार्याभिमान' के आधार पर उपासना का प्रतिपादन करते हैं। है । आचार्य मनुष्यों को ईश्वर का मार्ग प्रदर्शित करता है प्रपत्तिमार्ग-भक्तिमार्ग का एक विकसित रूप, जिसका अतः पहले उसी के सम्मुख आत्मसमर्पण की आवश्यकता प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में १३वीं शताब्दी में हआ । देवता होती है। के प्रति क्रियात्मक प्रेम अथवा तल्लीनता को भक्ति कहते प्रपन्न-जिस व्यक्ति ने प्रपत्तिमार्ग ग्रहण कर लिया हो, हैं, जबकि प्रपत्ति निष्क्रिय सम्पूर्ण आत्मसमर्पण है। उसे प्रपन्न कहते हैं । दे० 'प्रपत्तिमार्ग' ! दक्षिण भारत में रामानजीय वैष्णव विचारधारा की दो प्रपादान-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का प्रारम्भ शाखाएँ हैं : (१) बड़वकलइ (काजीवरम के उत्तर का होता है । सभी जनों को गर्मियों के चारों मासों में जल भाग )। यह शाखा भक्ति को अधिक प्रश्रय देती है। का दान (प्याऊ लगाना) करना चाहिए। इससे पितगण (२) तेन्कलइ (काजीवरम् के दक्षिण का भाग ), सन्तुष्ट हात ह । यह शाखा प्रपत्ति पर अधिक बल देती है। प्रपोथ-पञ्चविंश ब्राह्मण (८.४.१) में उल्लिखित एक बडक्कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना एक कपि- पौधे का नाम, जो सोम के स्थान पर व्यवहृत होता था। शिश से की जाती है जो अपनी माँ को पकड़े रहता है प्रबोधचन्द्रोदय-संस्कृत साहित्य का आध्यात्मिक नाटक । और वह उसे लेकर कूदती रहती है (वानरी धति)। तेन- नवीं-दसवीं शताब्दी तक वेदान्तीय ज्ञानचर्चा विद्वानों कलइ शाखा के सदस्यों की तुलना मार्जारशिशु से की तक ही सीमित थी। ग्यारहवीं शताब्दी में नाटक, Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ प्रबोधपरिशोधिनी-प्रभलिङ्गलीला न काव्यादि के रूप में भी वेदान्ततत्त्व को समझाने का बड़ा महत्त्व है । सायंकाल लिपे-पुते स्थल में दीप जलाकर प्रयास आरम्भ हुआ । खजुराहो के चन्देल राजा कीर्तिवर्मा विष्णु भगवान् को जगाया जाता है और ईख, सिंघाड़े, के सभापंडित कृष्णमिश्र ने ११२२ वि० के लगभग प्रबोध- झड़बेर आदि नये शाक-फल-कन्द भोग लगाये जाते हैं, चन्द्रोदय नामक नाटक की रचना की । इस ग्रन्थ में लेखक तुलसीपूजन होता है । धार्मिक जन प्रायः इस उत्सव के ने अपनी कवित्व शक्ति एवं दार्शनिक प्रतिभा का अच्छा बाद हो गन्ना, बेगन आदि का सेवन आरम्भ करते हैं । परिचय दिया है। प्रभाकर-पूर्वमीमांसा के इतिहास में सातवीं-आठवीं चन्द्रोदय' का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान रूपी शताब्दी में दो प्रसिद्ध विद्वान् हए : (१) कुमारिल, जिन्हें चन्द्रमा का उदय । वास्तव में यह संसार के प्रलोभन भट्ट कहते हैं और प्रभाकर, जिन्हें गुरु कहते हैं। दोनों और अज्ञान से जीवात्मा की मुक्ति का रूपक है । नाटक ने शाबर भाष्य की व्याख्या की है, किन्तु भिन्न-भिन्न के पात्र मन की सूक्ष्म भावनाएँ तथा वासनाएँ हैं । इसमें रूपों में, और इस भिन्नता के आधार पर दोनों के सम्प्रदाय दिखाया गया है कि किस प्रकार विष्णुभक्ति विवेक को 'गुरुमत' और 'भाट्ट मत' के नाम से प्रचलित हो गये। जागृत कर वेदान्त, श्रद्धा, विचार तथा अन्य सहकारी प्रभाकर का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'बृहती' शबरभाष्य का तदनुरूप तत्त्वों की सहायता से भ्रान्ति, अज्ञान, राग, द्वेष, लोभ भाष्य है, वे शबर की आलोचना नहीं करते । कुमारिल आदि को पराजित करती है। इसके पश्चात् प्रबोध अथवा का मत शबर से अनेक स्थलों पर भिन्न है। प्रभाकर का ज्ञान का उदय होता है। फलस्वरूप जीवात्मा ब्रह्म के समय ठीक ज्ञात नहीं होता, किन्तु ये एवं कुमारिल साथ अपने तादात्म्य का अनुभव करता है, सम्पूर्ण कर्मों आठवीं शती के प्रारम्भ में हुए थे। का त्याग कर संन्यास ग्रहण करता है। इसमें वैष्णवधर्म प्रभावत-मान्यता ऐसी है कि इस व्रत में कोई व्यक्ति अर्ध और अद्वैत वेदान्त का माहात्म्य दर्शाया गया है। पात्रों मास तक उपवास करके बाद में दो कपिला गौ दान के कथनोपकथन में बौद्ध, जैन, चार्वाक, कर्ममीमांसा, करता है, वह सीधा ब्रह्मलोक को जाता है और देवों द्वारा सांख्य, योग, न्याय दर्शन, कापालिक आदि सम्प्रदायों ___सम्मानित होता है । दे० मत्स्यपुराण,१०१.५४। का मनोरञ्जक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। प्रभास-पश्चिम भारत के सौराष्ट्र देश का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, प्रबोधपरिशोधिनी-पद्मपादाचार्य कृत पञ्चपादिका के ऊपर इसके साथ वैष्णव परम्पराएँ भी जुड़ गयी है । द्वादश प्रबोधपरिशोधिनी नाम की एक टीका नरसिंहस्वरूप के ज्योतिलिङ्गों में प्रथम सोमनाथ प्रभासक्षेत्र में हैं । यह स्थान शिष्य आत्मस्वरूप ने लिखी है। लकुलीश पाशुपत मत के शैवों का केन्द्रस्थल रहा है । प्रबोधव्रत-कार्तिक शुक्ल पक्ष में विष्णु तथा अन्यान्य इस स्थल के पास ही श्री कृष्ण को जरा नामक व्याध का देवों का चार मास बाद शय्या त्याग कर उठना प्रबोध बाण लगा था। यह शैव, वैष्णव दोनों का महातीर्थ है। कहलाता है। विश्वास यह है कि वर्षा में देवगण शयन इस स्थान को बेरावल, सोमनाथपाटण, प्रभास, प्रभासकरते हैं, वर्षा समाप्त होने पर निद्रा से उठते हैं। यह पट्टन (पत्तन) आदि कहते हैं। अवसर उत्सव का होता है। इसके पश्चात् ही मानवों के प्रभासमाहात्म्य-स्कन्दपुराण से उद्धृत इस प्रभासक्षेत्र के यात्रा, विजय, व्यवसाय आदि शुभ कर्म प्रारम्भ होते हैं। माहात्म्य में यहाँ के देवदर्शन-पूजन की फलश्रुति है। मादागासवराज प्रबोधसुधाकर-शङ्कराचार्य रचित एक उपदेश ग्रन्थ । प्रभुलिङ्गलीला-प्रसिद्ध कन्नड़ भाषा के लिङ्गायत ग्रन्थ प्रबोधिनी एकादशी-कार्तिक शुक्ल एकादशी। हरिशयिनी 'प्रभुलिङ्गलीला' का तमिल भाषा में शिवप्रकाश स्वामी एकादशी (आषाढ़ शु० ११) को विष्णु शयन करते हैं ने १७वीं शताब्दी में पद्यानुवाद किया, जो सभी शवों और चार मास बाद कार्तिक में प्रबोधिनी एकादशी को द्वारा समादृत है। यह पुराण कहलाता है तथा धार्मिक उठते हैं, ऐसा पुराणों का विधान है। विष्णु द्वादश आदि- इतिहास के साथ-साथ भजन-पूजन के नियमों का भी त्यों में एक हैं । सूर्य के मेघाच्छन्न और मेघमुक्त होने का इसमें सङ्कलन है। यह वसव के साथी अल्लाम प्रभु के यह रूपक है। प्रबोधिनी एकादशी का उत्सव बहुत ही जीवन पर विशेष कर आधारित है। इसके रचयिता प्रसिद्ध है । इस तिथि को व्रत रखा जाता है, उपवास का चामरस और रचनाकाल १५१७ वि० है । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमा-प्रयाग प्रमा-भ्रान्तिरहित यथार्थ ज्ञान की स्थिति अथवा चेतना को प्रमा कहते हैं। दे० 'प्रमाण' । प्रमाज्ञान -- वैशेषिक मतानुसार ज्ञान के दो भेद हैं-प्रमा और अप्रमा । यथार्थ ज्ञान प्रमा और अयथार्थ, भ्रान्त ज्ञान अप्रमा कहलाता है । प्रमाण - न्याय दर्शन का प्रमुख विषय प्रमाण है । यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। यथार्थ ज्ञान का जो साधन हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो सके, उसे प्रमाण कहा जाता है। गौतम ने यथार्थ ज्ञान के चार प्रमाण माने है(१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान, (३) उपमान और ( ४ ) शब्द | इनमें आत्मा, मन, इन्द्रिय और वस्तु का संयोग रूप जो प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है । इस ज्ञान के आधार पर लिङ्ग अथवा हेतु से जो ज्ञान होता है उसे अनुमान कहते हैं । जैसे हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहां अग्नि रहती है इसलिए धुआं को देखकर अग्नि की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। गौतम का तीसरा प्रमाण उपमान है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है । जैसे नील गाय गाय के समान होती है। जीवा प्रमाण है शब्द, जो आप्त वचन ही हो सकता है न्याय दर्शन में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गये हैं । मीमांसक और वेदान्ती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, सम्भव और अभाव ये चार और प्रमाण मानते हैं। नैयायिक इन्हें अपने चारों प्रमाणों के अन्तर्गत समझते हैं । प्रमाणपद्धति - यह माध्व संप्रदाय के स्वामी जयतीर्थाचार्य (१५वीं शताब्दी) द्वारा विरचित एक ग्रन्थ है । प्रमाणमाला - आनन्दबोध भट्टारकाचार्य (१२वीं शताब्दी) के तीन ग्रन्थ न्यायमकरन्द, प्रमाणमाला एवं न्यायदीपावली प्रसिद्ध हैं। तीनों में उन्होंने अद्वैत मत का विवेचन किया है। प्रमेय गौतम के मतानुसार प्रमाण के विषय अर्थात् जो प्रमाणित किया जाय उसको प्रमेय कहते हैं। न्यायदर्शन में प्रमेय वस्तु पदार्थ के अन्तर्गत है और उसके बारह भेद है - (१) आत्मा सब वस्तुओं को देखने वाला, भोग करने : वाला और अनुभव करने वाला । (२) शरीर : भोगों का आयतन या आधार। (३) इन्द्रियाँ भोगों के साधन । (४) अर्थ : वस्तु, जिसका भोग होता है । (५) मन भोग का ४२३ माध्यम । ( ६ ) बुद्धि : अन्तःकरण की वह भीतरी इन्द्रिय जिसके द्वारा सब वस्तुओं का ज्ञान होता है । ( ७ ) प्रवृत्ति : वचन, मन और शरीर का व्यापार (८) दोष जिसके द्वारा अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्ति होती है । ( ९ ) प्रेत्यभाव : पुनर्जन्म (१०) फल सुदुःख का संवेदन या अनुभव । (११) दु:ख पीड़ा, क्लेश (१२) अपवर्ग दुःख से अत्यन्त निवृत्ति अथवा मुक्ति । 1. इस सूची से यह न समझना चाहिए कि इन वस्तुओं के अतिरिक्त और प्रमाण के विषय या प्रमेय नहीं हो सकते प्रमाण के द्वारा बहुत सी बातें सिद्ध की जाती है। पर गौतम ने अपने सूत्रों में उन्हीं बातों पर विचार किया है, जिनके ज्ञान से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति हो सके । प्रमेयरत्नार्णव - बालकृष्ण भट्ट द्वारा रचित यह ग्रन्थ वल्लभाचार्य के पुष्टि सम्प्रदाय का है। इसका रचनाकाल १६५७ वि० के लगभग है । प्रमेय रत्नावली - आचार्य बलदेव विद्याभूषण द्वारा रचित यह ग्रन्थ गौडीय वैष्णवों के मतानुसार लिखा गया है । प्रमेयसागर श्रीष्णव मतावलम्बी यज्ञमूर्ति कृत यह ग्रन्थ तमिल भाषा में है । प्रयागङ्गा-यमुना के संगम स्थल प्रयाग को पुराणों (मत्स्य १०९.१५ स्कन्द, काशी० ७.४५ पद्म ६.२३. २७-३५ तथा अन्य) में 'तीर्थराज' ( तीर्थों का राजा ) नाम से अभिहित किया गया है। इस संगम के सम्बन्ध में ऋग्वेद के खिल सूक्त (१०.७५) में कहा गया है कि जहाँ कृष्ण (काले ) और श्वेत ( स्वच्छ ) जल वाली दो सरिताओं का संगम है वहाँ स्नान करने से मनुष्य स्वर्गारोहण करता है। पुराणोति यह है कि प्रजापति (ब्रह्मा) ने आहुति की तीन वेदियाँ बनायी थीं— कुरुक्षेत्र, प्रयाग और गया । इनमें प्रयाग मध्यम वेदी है। माना जाता है। कि यहाँ गङ्गा, यमुना और सरस्वती ( पाताल से आने वाली) तीन सरिताओं का संगम हुआ है । पर सरस्वती का कोई बाह्य अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता । मत्स्य (१०४.१२), कूर्म (१.३६.२७) तथा अग्नि (१११.६-७ ) आदि पुराणों के अनुसार जो प्रयाग का दर्शन करके उसका नामोच्चारण करता है तथा वहाँ की मिट्टी का अपने शरीर पर आलेप करता है वह पापमुक्त हो जाता है। वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग को प्राप्त होता है तथा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ प्रयाग देह त्याग करने वाला पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता। रान्त प्रलय करने पर भी प्रयाग नष्ट नहीं होता। उस यह केशव को प्रिय (इष्ट) है । इसे त्रिवेणी कहते हैं। समय प्रतिष्ठान के उत्तरी भाग में ब्रह्मा छद्म वेश में, विष्णु प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति वनपर्व (८७.१८-१९) में । वेणीमाधव रूप में तथा शिव वटवृक्ष के रूप में आवास यज् धातु से मानी गयी है । उसके अनुसार सर्वात्मा __करते हैं और सभी देव, गंधर्व, सिद्ध तथा ऋषि पापब्रह्मा ने सर्वप्रथम यहाँ यजन किया था (आहुति दी थी) शक्तियों से प्रयागमण्डल की रक्षा करते हैं। इसीलिए इसलिए इसका नाम प्रयाग पड़ गया । पुराणों में प्रयाग- मत्स्यपुराण (१०.४.१८) में तीर्थयात्री को प्रयाग जाकर मण्डल, प्रयाग और वेणी अथवा त्रिवेणी की विविध एक मास निवास करने तथा संयमपूर्वक देवताओं और व्याख्याएँ की गयी है । मत्स्य तथा पद्मपुराण के अनुसार पितरों की पूजा करके अभीष्ट फल प्राप्त करने का प्रयागमण्डल पाँच योजन की परिधि में विस्तृत है और विधान है। उसमें प्रविष्ट होने पर एक-एक पद पर अश्वमेध यज्ञ का इसी प्रकार क्षौर कर्म (शिरोमुंडन ) भी प्रयाग में पुण्य मिलता है। प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूसी) से सम्पन्न होने पर पापमुक्ति का हेतु माना गया है। बच्चों वासुकिसेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित और विधवाओं के क्षौर कर्म का विधान तो है ही, यहाँ है। यह तीनों लोवों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से तक कि सधवा पत्नियों के क्षौर कर्म का भी विधान विख्यात है। पदमपुराण (१.४३-२७) के अनुसार 'वेणी' 'त्रिस्थलीसेतु' के अनुसार मिलता है। वहाँ बताया गया क्षेत्र प्रयाग की सीमा में २० धनुष तक की दूरी में है कि सधवा स्त्रियों को अपने केशों की सुन्दर वेणी विस्तृत है । वहाँ प्रयाग, प्रतिष्ठान (झूसी) तथा अलर्क बनाकर, सभी प्रकार के केशविन्यास सम्बन्धी व्यंजनों से पुर (अरैल) नाम के तीन कूप हैं । मत्स्य (११०.४) और सजाकर पति की आज्ञा से ( वेणी के अग्र भाग का) अग्नि (१११.१२) पुराणों के अनुसार बहाँ तीन अग्नि क्षौर कर्म कराना चाहिए । तत्पश्चात् कटी हुई वेणी को कण्ड भी हैं जिनके मध्य से होकर गङ्गा बहती है । वन अंजली में लेकर उसके बराबर स्वर्ण या चाँदी की वेणी पर्व (८५.८१ और ८५) तथा मत्स्य० (१०४.१६-१७) में भी लेकर जड़े हाथ से संगम स्थल पर बहा देना चाहिए बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को 'वेणी' और कहना चाहिए कि सभी पाप नष्ट हो जायँ और अर्थात् दो नदियों (गङ्गा और यमुना) का संगम स्नान हमारा सौभाग्य उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहे। नारी के लिए कहते हैं । वनपर्व (८५.७५) तथा अन्य पुराणों में गङ्गा एक मात्र प्रयाग में ही क्षौर कर्म कराने का विधान है। और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन या प्रयाग में आत्महत्या करने का सामान्य सिद्धान्त के कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का अनुसार निषेध है। कुछ अपवादों के लिए ही इसको सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग । प्रोत्साहन दिया जाता है। ब्राह्मण के हत्यारे, सुरापान गङ्गा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणीसंगम को करने वाले, ब्राह्मण का धन चुराने वाले, असाध्य रोगी, 'ओंकार' नाम से अभिहित किया गया है । 'ओंकार' का शरीर की शुद्धि में असमर्थ, वृद्ध जो रोगी भी हो, रोग 'ओम्' परब्रह्म परमेश्वर की ओर रहस्यात्मक संकेत से मुक्त न हो सकता हो; ये सभी प्रयाग में आत्मधात करता है। यही सर्वसुखप्रदायिनी त्रिवेणी का भी सूचक कर सकते हैं। दे० आदिपुराण और अविस्मृति । है। ओंकार का अकार सरस्वती का प्रतीक, उकार गृहस्थ जो संसार के जीवन से मुक्त होना चाहता हो वह यमुना का प्रतीक तथा मकार गङ्गा का प्रतीक है । तीनों भी त्रिवेणीसंगम पर जाकर वटवृक्ष के नीचे आत्मघात क्रमशः प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षण (हरि के व्यूह) को कर सकता है । पत्नी के लिए पति के साथ सहमरण या उद्भत करने वाली हैं। इस प्रकार इन तीनों का संगम अनुमरण का विधान है, पर गर्भिणी के लिए यह विधान त्रिवेणी नाम से विख्यात है (त्रिस्थलीसेतु, पृष्ठ ८)। नहीं है। दे० नारदीय, पूर्वाद्ध', ७.५२-५३। प्रयाग में आत्म नरसिंहपुराण (६५.१७) में विष्णु को प्रयाग में घात करने वाले को पुराणों के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति योगमूर्ति के रूप में स्थित बताया गया है। मत्स्यपुराण होती है। कूर्म० (१.३६.१६-३९) के अनुसार योगी (१११.४-१०) के अनुसार रुद्र द्वारा एक कल्प के उप- गङ्गा-यमुना के संगम पर आत्महत्या करके स्वर्ग प्राप्त Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-प्रलयतत्व ४२५ करता है और पुनः नरक नहीं देख सकता। प्रयाग में और जब कोई इस सम्प्रदाय की दीक्षा लेता है तो उसे वैश्यों और शद्रों के लिए आत्महत्या विवशता की स्थिति पाँचों मन्त्रों का उच्चारण करना पड़ता है । में यदा-कदा ही मान्य थी। किन्तु ब्राह्मणों और क्षत्रियों प्रवज्या-संन्यास आश्रम । इसका प्रयोग संन्यास या भिक्षुके द्वारा आत्म-अग्न्याहति दिया जाना एक विशेष विधान धर्म ग्रहण करने की विधि के अर्थ में होता है। महाभारतके अनुसार उचित था। अतः जो ऐसा करना चाहें तो काल के पूर्व प्रव्रज्या का मार्ग सभी वर्गों के लिए खुला ग्रहण के दिन यह कार्य सम्पन्न करते थे, या किसी व्यक्ति था। उपनिषद् में जानश्रुति शूद्र को भी मोक्ष मार्ग का को मूल्य देकर डूबने के लिए क्रय कर लेते थे। उपदेश किया गया है और युवा श्वेतकेतु को तत्त्व प्राप्ति ( अलबरूनी का भारत, भाग २, पृ० १७०)। सामान्य का उपदेश मिला है। यद्यपि महाभारत काल में यह बात धारणा यह थी कि इस धार्मिक आत्मघात से मनुष्य जन्म मानी जाती थी तथापि यथार्थ में लोग समझने लगे कि और मरण के बन्धन से मुक्ति पा जाता है और उसे ब्राह्मण और विशेषतः चतुर्थाश्रमी ही मोक्ष मार्ग के पात्र स्थायी अमरत्व (मोक्ष) अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती है । महाभारत काल में प्रव्रज्या का मान बहुत बढ़ा हुआ है । इस धारणा का विस्तार यहाँ तक हुआ कि अहिंसा- जान पड़ता है। उन दिनों वैदिक धर्मियों को प्रव्रज्या वादी जैन धर्मावलम्बी भी इस धार्मिक आत्मधात को बहत कठिन थी। बौद्धों तथा जैनों ने उसको बहुत सस्ता प्रोत्साहन देने लगे। कुछ पुराणों के अनुसार तीर्थयात्रा कर डाला और बहुतों के लिए वह पेट भरने का साधन आरम्भ करके रास्ते में ही व्यक्ति यदि मृत्यु को प्राप्त हो मात्र हो गयी । और प्रयाग का नाम ले ले तो उसे बहुत पुण्यफल होता प्रलयतत्त्व-भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो है । अपने घर में मरते समय भी यदि व्यक्ति प्रयाग का जाना । प्रलय चार प्रकार के होते हैं : नैमित्तिक, नाम स्मरण कर ले तो ब्रह्मलोक को पहुँच जाता है और प्राकृतिक, आत्यन्तिक और नित्य । प्रथम प्रलय ब्रह्माजी का वहाँ संन्यासियों, सिद्धों तथा मुनियों के बीच रहता है। एक दिन समाप्त हो जाने पर रात्रि के प्रारम्भ काल में प्रवचन-इसका अर्थ मौखिक शिक्षा है ( शत० ब्रा० ११. होता है, उसे नैमित्तिक प्रलय कहते हैं। द्वितीय प्राकृतिक ५.७.१ ) । धर्म में प्रवचन का बड़ा महत्त्व है । आचार्य प्रलय तब होता है जब ब्रह्माण्ड महाप्रकृति में विलीन हो अथवा गुरु के मुख से जो वचन निकलते हैं उनका सीधा जाता है । तृतीय आत्यन्तिक प्रलय योगीजन ज्ञान के द्वारा प्रभाव श्रोता पर पड़ता है । अतः प्रायः सभी सम्प्रदायों में ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं । उत्पन्न पदार्थों का जो प्रवचन की प्रणाली प्रचलित है। अहर्निश क्षय होता रहता है, उसे नित्य प्रलय के नाम से प्रवर-इसका उपयुक्त अर्थ सूचना है, जिससे अग्नि को व्यवहृत करते हैं। इन चतुर्विध प्रलयों में से नैमित्तिक सम्बोधित कर यज्ञ के आरम्भ में उसे आवाहित करते थे। एवं प्राकृतिक महाप्रलय ब्रह्माण्डों से सम्बन्धित होते हैं किन्तु अग्नि को पुरोहित के पितरों के नाम से आमन्त्रित तथा शेष दो प्रलय देहधारियों से सम्बन्धित मितिक करते थे, इसलिए प्रवर का तात्पर्य पितरों की संख्या प्रलय के सम्बन्ध में विष्णुपुराण का मत निम्नलिखित है: हो गया। आगे चलकर एक वंश में प्रसिद्ध पितरों की __ ब्रह्मा की जानदवस्था में उनकी प्राणशक्ति की प्रेरणा जितनी संख्या होती थी वही उसका प्रवर माना जाता से ब्रह्माण्डचक्र प्रचलित रहता है, किन्तु उनकी निद्राथा। 'गोत्रप्रवरमञ्जरी' में इसका विस्तृत विवेचन है। वस्था में समस्त ब्रह्माण्ड निश्चेष्ट हो जाता है और उसकी प्रवर्तक-किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय को चलाने वाला। स्थिति जल-भुनकर नष्ट हो जाती है। नैमित्तिक प्रलय को मानभाउ सम्प्रदाय में इस शब्द का विशेष रूप से प्रयोग ब्राह्म प्रलय भी कहते हैं। उसमें ब्रह्माजी विष्णु के साथ हुआ है। इस सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक दत्तात्रेय कहे योगनिद्रा में प्रसुप्त हो जाते हैं। इस समय प्रलय में भी जाते है, साथ ही उनका कहना है कि चार युगों में से रहने की शक्ति रखने वाले कुछ योगिगण जनलोक में प्रत्येक में एक-एक स्थापक अथवा प्रवर्तक होते आये हैं। अपने को जीवित रखते हुए ध्यानपरायण रहते हैं। ऐसे इस प्रकार वे पाँच प्रवर्तक मानते हैं। पाँचों प्रवर्तकों को योगियों द्वारा चिन्त्यमान कमलयोनि ब्रह्मा ब्रह्मरात्रि को पञ्चकृष्ण भी कहते हैं। इनसे सम्बन्धित पाँच मन्त्र हैं व्यतीत कर ब्राह्म दिवस के उदय में प्रबुद्ध हो जाते हैं ५४ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ और पुनः समस्त ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं। इस प्रकार ब्रह्माजी के सौ वर्ष पूर्ण होने के अनन्तर ब्रह्मा भी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राकृतिक महाप्रलय का उदय होता है । इसी क्रम से ब्रह्माण्डप्रकृति अनादि काल से महाकाल के महान् चक्र में परिभ्रमणशील रहती आती है। इन प्रलयों का विस्तृत विवरण विष्णुपुराणस्थ प्रलयवर्णन में द्रष्टव्य है। अव्याकृत प्रकृति तथा उसके प्रेरक ईश्वर की विलीनता के प्रश्न को विष्णुपुराण सरल तरीके से स्पष्ट कर देता है : प्रकृतिर्या मयाख्याता पुरुषश्वाप्यभावेती व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी । लीयेते परमात्मनि ॥ [ व्यक्त एवं अव्यक्त प्रकृति और ईश्वर ये दोनों ही निर्गुण एवं निष्क्रिय ब्रह्मतत्त्व में विलीन हो जाते हैं । ] यही आधिदेवी सृष्टिरूप महाप्रलय है। जितने समय तक ब्रह्माण्डप्रकृति में सृष्टि-स्थितिलीला का विस्तार प्रवर्तमान रहता है, ठीक उतने ही समय तक महाप्रलयगर्भ में भी ब्रह्माण्डसृष्टि पूर्ण रूप से विलीन रहती है । इस समय जीवों की अनन्त कर्मराशियाँ उस महाकाश के आश्रित रहती हैं। प्रशस्तपाद - वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य । कणाद के सूत्रों के ऊपर सम्भवतः इन्हीं का पदार्थधर्मसंग्रह नामक ग्रन्थ भाष्य कहलाता है, यद्यपि इसे वैशेषिक सूत्रों का भाग्य मानना कठिन प्रतीत होता है। दूसरे भाष्यों की शैली के विपरीत यह ( पदार्थधर्म संग्रह ) वैशेषिकसूत्रों के मुख्य विषयों पर स्वतन्त्र व्याख्या जैसा है । स्वयं प्रशस्तपाद इसे भाष्य न कहकर 'पदार्थधर्मसंग्रह' संज्ञा देते हैं । इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय पदायों का वर्णन बिना किसी वाद-विवाद के प्रस्तुत किया गया है । कुछ सिद्धान्त जो न्यायवैशेषिक दर्शन में महत्त्व - पूर्ण स्थान रखते हैं, यथा सृष्टि तथा प्रलय का सिद्धान्त, संख्या का सिद्धान्त, परमाणुओं के आणविक माप के स्थिर करने में अणुओं की संख्या का सिद्धान्त तथा पीलुपाक का सिद्धान्त आदि सर्वप्रथम 'पदार्थधर्मसंग्रह' में ही उल्लिखित हुए हैं। ये सिद्धान्त कणाद के वैशेषिक सूत्रों में अनुपलब्ध है। 3 प्रशस्तपाद का समय ठीक-ठीक निश्चित करना कठिन प्रशस्तपाद प्रसाव समय पाँचवीं छठी शताब्दी है । अनुमानतः इनका होना चाहिए। प्रशास्ता वैदिक यज्ञ के पुरोहितों में से एक का नाम । छोटे यज्ञों में उसका कोई कार्य नहीं होता, किन्तु पशुयज्ञ तथा सोमयज्ञ में उसका उपयोग होता है । सोमयज्ञ में वह मुख्य पुरोहित होता का सामगान में सहायक रहता है । ऋग्वेद ( ४.९, ५, ६.७१, ५, ९,९५, ५) में उसे उपवक्ता भी कहा गया है यह नाम भी प्रशास्ता के अर्थ का द्योतक है तथा यह इसलिए रखा गया है कि उसके मुख्य कार्यों में से एक कार्य दूसरे पुरोहितों को प्रेष ( निदेश ) देना भी था । उसका अन्य नाम 'मैत्रावरुण' था, क्योंकि उसके द्वारा गायी जाने वाली अधिकांश स्तुतियां मित्र तथा वरुण के प्रति होती थीं। । सदृश प्रश्न --- जिज्ञासा अथवा वादारम्भ का वचन । प्रश्न का 'निश्चय' अर्थ ऐतरेय ब्राह्मण (५.१४) में कथित है। यजुर्वेद ( वा० सं० ३०.२० ० प्रा० २.४,६,१) में उत पुरुषमेध की बलितालिका में प्रश्नी, अभिप्रश्नी, प्रश्नविवाक् तीन नाम आये हैं । सम्भवतः ये न्याय- अभियोग के वादी प्रतिवादी तथा न्यायाधीश है । प्रश्नोपनिषद् - एक अथर्ववेदीय उपनिषद् उपनिषदों का कलेवर अधिकतर गद्य में है, किन्तु इसका गद्य प्रारम्भिक उपनिषदों से भिन्न लौकिक संस्कृत के निकट है। इसकी श्रेणी में मंत्रायणीय तथा माण्डूक्य को रखा जा सकता है । इसमें ऋषि पिप्पलाद के छ: ब्रह्मजिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के छ: मूल तत्त्वों पर प्रश्न किये हैं। इन्हीं छ प्रश्नों के समाधान रूप में यह प्रश्नोपनिषद् बनी है । प्रजापति से असत् और प्राण की उत्पत्ति, चिच्छक्तियों से प्राण की श्रेष्ठता, चिच्छक्तियों के लक्षण और विभाग, सुषुप्ति और तुरीयावस्था, ओंकार ध्याननिर्णय और षोडशेन्द्रियाँ; प्रश्नोपनिषद् के यही छः विषय हैं । शङ्कराचार्य, आनन्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि, भट्टभास्कर, रङ्गरामानुज प्रभृति अनेकों आचार्यों ने इस पर भाष्य व टीकाएँ रची हैं। प्रसाद -- ( १ ) प्रसन्नता अथवा कृपा, अर्थात् भक्त के ऊपर भगवान् की कृपा । कर्मसिद्धान्त के अनुसार सदसत्कर्मी का फल भोगना ही पड़ता है । किन्तु भक्तिमार्ग के अनुया - यियों का विश्वास है कि भगवत्कृपा के द्वारा पूर्व कर्मोंपाप आदि का क्षय हो जाता है। प्रपत्ति के पश्चात् भक्त का पूरा दायित्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसू-प्राच्य ४२७ वीरशैव मतावलम्बियों में जब बालक का जन्म होता का मधुसूदन सरस्वती द्वारा रचित एक ग्रन्थ भी है। इसमें है तो पिता अपने गुरु को आमन्त्रित करता है । गुरु सब शास्त्रों का सामञ्जस्य करके उनका अद्वैत में समाहार आकर अष्टवर्गसमारोह की परिचालना उस शिशु को दिखलाया गया है। इसकी रचना १६०७ वि० से पूर्व लिङ्गायत बनाने के लिए करता है। ये आठ वर्ग है- हुई थी। गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ एवं प्रह्लादकुण्ड-कहा जाता है कि पाताल से पृथ्वी का उद्धार प्रसाद, जो उसकी पाप से रक्षा करते हैं । शिव को प्राप्त करते हुए हिरण्याक्ष वध के पश्चात् वराह भगवान् यहाँ करने के मार्ग में लिङ्गायतों को छः अवस्थाओं के मध्य शिलारूप में स्थित हो गये । यहाँ गङ्गाजी में प्रह्लादकुण्ड जाना पड़ता है-भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण है । यहाँ पर स्नान करना पुण्यकारक माना जाता है। तथा ऐक्य । प्राकृत-(१) प्रकृति - संस्कृत भाषा के आधार पर व्यवहृत, (२) देवताओं को अर्पण किये गये नैवेद्य का नाम भी अथवा संस्कृत से अपभ्रंश रूप में निर्गत ( हेमचन्द्र )। प्रसाद है, उसका कुछ अंश भक्तों में बाँटा जाता है। यह अपठित साधारण जनता की बोलचाल की भाषा प्रसू-वैदिक ग्रन्थों के उल्लेखानुसार नयी घास या पौधे, थी। ग्रियर्सन ने प्राथमिक, माध्यमिक तथा तृतीय जो यज्ञ में प्रयुक्त होते थे। साधारणतया अब यह जननी प्राकृत के रूप में इस भाषा के तीन चरण दिखाये हैं । का पर्याय है। प्राथमिक का उदाहरण वैदिक काल के बाद की भाषा, प्रसूति-स्वायंभुव मनु और शतरूपा की पुत्री । विष्णुपुराण माध्यमिक का पालि तथा तृतीय का उदाहरण उत्तर के सातवें अध्याय में कथित है कि ब्रह्मा ने विश्वरचना के भारत की प्रादेशिक अपभ्रंश भाषाएँ है। पश्चात् अपने समान ही अनेक मानसिक पुत्र उत्पन्न किये, जो प्रजापति कहलाये। इनकी संख्या तथा नाम पर सभी (२) इसका दूसरा अर्थ है प्रकृति से उत्पन्न अर्थात् संस्कारहीन व्यक्ति । इसका प्रयोग असभ्य, जंगली या पुराण एकमत नहीं हैं। फिर उन्होंने स्वायम्भुव मनु को गँवार मानव के लिए होता है। जीवों की रक्षा के लिए उत्पन्न किया । मनु की पुत्री प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष के साथ हुआ जो अनेक प्राचीनयोगीपुत्र-प्राचीनयोग नामक कुल की एक महिला देवात्माओं के पूर्वज बने । के पुत्र, आचार्य, जो बृहदारण्यक उप० ( २.६.२ काण्व ) प्रस्तर-वैदिक ग्रन्थों के अनुसार यज्ञासन के लिए बिछायी की प्रथम वंशतालिका ( गुरुपरम्परा ) में पाराशर्य के हुई घास । शिष्य कहे गये हैं । छान्दोग्य ( ५.१३,१ ) तथा तैत्तिरीय प्रस्तोता-यज्ञ के उद्गाता पुरोहित का सहायक पुरोहित । उप० ( १.६,२) में एक 'प्राचीनयोग्य' ऋषि का उल्लेख यह साममन्त्रों का पूर्वगान करता था। मिलता है, यही पितबोधक शब्द शतपथ ब्रा० ( १०.६, प्रस्थानत्रय-वेदान्तियों की बोलचाल में उपनिषदों, भग १,५) तथा जैमिनीय उ० ब्रा० में भी मिलता है। वद्गीता तथा वेदान्तसूत्र को तत्त्वज्ञान के मूलभूत आधार- प्राची सरस्वती-कुरुक्षेत्र का तीर्थस्थल, जहाँ पर सरस्वती ग्रन्थ माना गया है। पश्चात ये ही प्रस्थानत्रय कहे जाने नदी पश्चिम से पूर्वाभिमुख बहती थी। अब तो यहाँ एक लगे । इन्हें वेदान्त के तीन स्रोत भी कहते हैं। इनमें जलाशय मात्र शेष है, आस-पास पुराने भग्नावशेष पड़े १२ उपनिषदें ( ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, हए हैं। सूनसान मन्दिर जीर्ण दशा में हैं। यात्री यहाँ तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बहदारण्यक, कौषीतकि तथा पिण्डदान करते हैं। श्वेताश्वतर ) श्रुतिप्रस्थान कहलाती हैं। दूसरा प्रस्थान प्राच्य-मध्य देश की अपेक्षा पूर्व के निवासी । ये ऐत० ब्रा० जिसे न्यायप्रस्थान कहते हैं, ब्रह्मसूत्र है। तीसरा प्रस्थान (८.१४ ) में जातियों की तालिका में उद्धृत हैं। इनमें गीता स्मृतिप्रस्थान कहलाता है । शङ्कराचार्य ने गीता के काशी, कोसल, विदेह तथा सम्भवतः मगध के निवासी लिए जहाँ-तहाँ 'स्मृति' शब्द का उल्लेख किया है। सम्मिलित थे । शत० ब्रा० में प्राच्यों द्वारा अग्नि को शर्व प्रस्थानत्रयी-दे० 'प्रस्थानत्रय' । के नाम से पुकारा गया है तथा उनकी समाधि बनाने की प्रस्थानभेद-ईश्वर की प्राप्ति के विभिन्न मार्ग। इस नाम प्रथा को अस्वीकृत किया गया है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ प्राच्यसामग-प्राणतत्त्व प्राच्यसामग-सामवेद की परम्परा में एक शाखा । हिरण्य- अपान, व्यान इत्यादि नामों से हृदय, नाभि, कण्ठादि नाभ के शिष्य 'प्राच्यसामग' नाम से विख्यात हुए। स्थानों में स्थित पञ्च स्थूल वायुओं का संचालन करती है । प्राजापत्य-(१) प्रजापति से उत्पन्न, अथवा प्रजापति इस दृश्य संसार के समस्त पदार्थों के दो भेद किये जा का कार्य । प्रजापति के लिए किये गये यज्ञ को भी प्राजा- सकते हैं, जिनमें प्रथम बाह्यांश एवं द्वितीय आन्तरांश है । पत्य कहते हैं। इनमें आन्तरांश सूक्ष्मशक्ति प्राण है एवं बाह्यांश जड़ (२) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्राजापत्य है। यह अंश बृहदारण्यकोपनिषद् में भी निर्दिष्ट है । विवाह है । इसकी गणना चार प्रशस्त प्रकार के विवाहों इसी विषय को बृहदारण्यकभाष्य और भी स्पष्ट कर में की जाती है । इसके अनुसार पति और पत्नी प्रजा देता है । यथाअर्थात् सन्तान के उद्देश्य से विवाह करते हैं और इस कार्यात्मक जड़ पदार्थ नाम और रूप के द्वारा शरीराबात की प्रतिज्ञा करते हैं कि धर्म, अर्थ और काम में वे वस्था को प्राप्त करता है, किन्तु कारणभूत सूक्ष्म प्राण एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करेंगे। यह आधुनिक उसका धारक है । अतः यह कहा जा सकता है कि यह 'सिविल मैरेज' ( सामाजिक अनुबन्धमूलक विवाह ) से सूक्ष्म प्राण शक्ति ही एकत्रीभूत स्थूल शक्ति (शरीर) मिलता जुलता है। के अन्दर अवस्थित रहकर उसकी संचालिका है। धार्मिक विवाह में पति और पत्नी की समता नहीं किन्तु इस सूक्ष्म शक्ति प्राण के द्वारा ही पञ्चीकरण से पृथ्वी, एकता स्थापित होती है। इसमें दो व्यक्तियों की समान जल, अग्नि आदि स्थूल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होती स्वतन्त्रता नहीं किन्तु एक का दूसरे में पूर्ण विलय है । इसके है। इसी सूक्ष्म प्राणशक्ति की महिमा से अणु-परमाणुओं लिए किसी अनुबन्ध की आवश्यकता नहीं होती । दे० 'विवाह'। के अन्दर आकर्षण-विकर्षण के द्वारा ब्रह्माण्ड की स्थितिप्राजापत्यवत-इस व्रत में कृच्छ के उपरान्त एक गौ दान दशा में सूर्य और चन्द्रमा से लेकर समस्त ग्रह-उपग्रह कर ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है । व्रतकर्ता भगवान् आदि अपने अपने स्थानों पर स्थित रहते हैं । समस्त जड़ शङ्कर के लोक को जाता है। पदार्थ भी इसी के द्वारा कठिन, तरल अथवा वायवीय प्राण-सूक्ष्म जीवनवायु के पाँच प्रकारों-प्राण, अपान, रूप में अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अवस्थित रह व्यान, उदान तथा समान में से एक । आरण्यकों तथा सकते हैं । इस प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि और उपनिषदों में यह विश्व की एकता का सर्वाधिक प्रयुक्त स्थिति के मूल में सूक्ष्म प्राणशक्ति का ही साम्राज्य है । संकेत कहा गया है । पाँचों में से कभी दो (प्राण-अपान; प्राणशक्ति की उत्पत्ति परमात्मा की इच्छाशक्ति से ही या प्राण-व्यान; या प्राण-उदान ) या अदल-बदलकर मानी जाती है, जो समष्टि और व्यष्टि रूपों से व्यवहृत तीन अथवा चार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु होती है। क्योंकि यह समस्त जगत् परमेश्वर के संकल्प जब ये सभी एक साथ प्रयुक्त होते हैं तब इनका वास्त मात्र से प्रसूत है अतः तदन्तर्वतिनी प्राणशक्ति भी परमेश्वर विक अर्थ निश्चित नहीं होता। व्यापक रूप में 'प्राण' __की इच्छा से उद्भूत है। ज्ञानेन्द्रिय या चेतना को प्रकट करता है । प्राण शब्द इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र आदि के माध्यम से सृष्टि का कभी कभी केवल श्वास का साधारण अर्थ बोध कराता है, विकास एवं ऋतु संचालन और उनका परिवर्तन आदि किन्तु इसका उचित अर्थ श्वास का आदान-विसर्जन है। प्राणशक्ति द्वारा ही होता है। 'प्राणायाम' क्रिया में यही भाव अभिप्रेत है । । सूर्य के साथ समष्टिभूत प्राण का सम्बन्ध होने पर प्राणतत्त्व-जिस आन्तरिक सूक्ष्म शक्ति द्वारा दृश्य जगत् में ऋतुपरिवर्तन, सस्यसमृद्धि का विस्तार एवं संसार की जीवात्मा का देह से सम्बन्ध होता है, उसे प्राण कहते हैं। रक्षा तथा प्रलयादि सभी कार्य समष्टि प्राण की शक्ति यह प्राणशक्ति ही स्थूल प्राण, अपान, व्यान, समान एवं से ही सम्पन्न होते रहते हैं। प्राण की इस धराधारिणी उदान नामक पञ्च वायु एवं उनके धनंजय, कृकल, कूर्म शक्ति को छान्दोग्य उपनिषद् अधिक स्पष्ट कर देती है । आदि रूप न होकर इन सबकी सञ्चालिका है। यथा-जिस प्रकार रथचक्र की नाभि के ऊपर चक्रदण्ड एक ही प्राणशक्ति पाँच रूपों में विभक्त होकर प्राण, (अरा) स्थित रहते हैं, उसी प्रकार प्राण के ऊपर समस्त Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणतोषिणीतन्त्र प्रातिशाख्य विश्व आधारित रहता है । प्राण का आदान-प्रदान प्राण द्वारा ही होता है। प्राण पितावत् जगत् का जनक, मातृवत् संसार का पोषक, भ्रातृवत् समानता का विधायक, भगिनीवत् स्नेह संचारक एवं आचार्यवत् नियमनकर्ता है । जिस प्रकार एक सम्राट अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को विभिन्न ग्राम, नगर आदि स्थानों पर स्थापित कर उनके द्वारा उन उन स्थानों का शासन कार्य कराता है, उसी प्रकार प्राण भी अपने अंश से उत्पन्न व्यष्टिभूत प्राणों को जीवशरीर के विभिन्न स्थानों पर प्रतिष्ठित कर शरीर के विविध कार्यों का संचालन कराता है। इस प्रकार यह सब प्राणशक्ति की क्रियाकारिता का ही परिणाम है, जिसके ऊपर चराचर जगत् का विकास आधारित है। प्राणतोषिणी तन्त्र-तान्त्रिक साहित्य के अन्तर्गत इस ग्रन्थ का संकलन समस्त शाक्त उपासना विधियों का संग्रह कर पं० रामतोष भट्टाचार्य ने १८२१ ६० में किया। प्राणनाथ परिणामी (प्रणामी ) सम्प्रदाय (एक वैष्णव उपसम्प्रदाय) के प्रवर्तक महात्मा प्राणनाथ परिणामवादी वेदान्ती थे, विशेषतः ये पद्मा में रहते थे। महाराज छत्रसाल इन्हें अपना गुरु मानते थे । ये अपने को मुसलमानों का मेहंदी, ईसाइयों का मसीहा और हिन्दुओं का कल्कि अवतार कहते थे। सर्वधर्मसमन्वय इनका लक्ष्य था । इनका मत व्रज के निम्बार्कय वैष्णवों से प्रभावित था । ये गोलोकवासी भगवान् कृष्ण के साथ सख्य भाव की उपासना करने की शिक्षा देते थे । इनके अनुयायी वैष्णव गुजरात, राजस्थान और बुन्देलखण्ड में अधिक पाये जाते हैं। दे० 'कुलज्जम साहब' तथा 'प्रणामी' । प्राणलिङ्ग - लिङ्गायतों के छः आध्यात्मिक विकासों में चतुर्थ क्रम पर प्राणलिङ्ग है। प्राणाग्निहोत्र उपनिषद् - परवर्ती उपनिषदों में से एक । इसका भाष्य १४वीं शताब्दी के अन्त में महात्मा शरानन्द तथा नारायण ने लिखा । प्राणायाम - प्राण ( श्वास ) का आयाम ( नियन्त्रण ) । मन को एकाग्र करने का यह मुख्य साधन माना जाता है। यौगिक प्रणाली में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अष्टाङ्गयोग ( राजयोग ) का यह चौथा अङ्ग है। हठयोग में प्राणायाम की प्रक्रिया का बड़ा विस्तार हुआ है। प्राणायाम के तीन प्रकार है : (१) पूरक ४२९ ( श्वास को भीतर ले जाकर फेफड़े को भरना ) (२) कुम्भक ( श्वास को भीतर देर तक रोकना) और (३) रेचक ( श्वास को बाहर निकालना) । दे० 'योगदर्शन' । प्रातः स्नान- प्रातःस्नान नित्य धार्मिक कृत्यों में आवश्यक माना गया है। मनुष्य को बड़े तड़के उठकर स्नान करना चाहिए । विष्णुधर्मोत्तर ( ६४.८ ) इस बात का निर्देश करता है कि प्रातःस्नान उस समय करना चाहिए जब उदीयमान सूर्य की अरुणिमा प्राची में छा जाये। स्नान का सामान्य मन्त्र है : गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । कावेरि नर्मदे सिन्धो अलेऽस्मिन् सन्निधि कुरु ॥ स्नान करते समय हिन्दू इस बात की भावना करता है कि भारत की समस्त नदियों के जल से वह पवित्र हो रहा है। प्रातिशाख्य- वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन विशेष विशेष ग्रन्थों द्वारा होता है उन्हें प्रातिशास्य कहते हैं । प्रातिशाख्यों में ही मूलतः शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं। प्राचीन काल में वेदों की सभी शाखाओं के प्रातिशाख्यों का प्रचलन था, परन्तु अब केवल ऋग्वेद की शाकल शाखा का शौनकरचित ऋक्प्रातिशाख्य, वाजसनेयी शाखा का कात्यायन रचित वाजसनेय प्रातिशाख्य, साम वेदीय शाखा का पुष्प मुनिरचित सामप्रातिशाख्य और अथप्रातिशाख्य की शौनकीय चतुरध्यायी उपलब्ध है । ऋक्प्रातिशाख्य में तीन काण्ड, छ: पटल और एक सौ तीन कण्डिकाएं हैं, इस प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उपलेख सूत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है । कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में आठ अध्याय है। पहले अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वरप्रक्रिया है । तीसरे से पांचवें अध्याय तक संस्कार है। छठे और सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं और आठवें अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम दिये गये हैं सामप्रातिशाख्य के रचयिता पुष्प मुनि है। इसमें दस प्रपाठक हैं । पहले दो प्रपाठकों में दशरात्र, संवत्सर, एकाह, अहीन सत्र प्रायश्चित्त और क्षुद्र पर्यानुसार सामसमूह की संज्ञाएँ संक्षेप से बतायी गयी हैं। तीसरे और चौथे प्रपाठक में साम में श्रुत, आर्हभाव और प्रकृत भाव " Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिवत-प्रायश्चित्त के सम्बन्ध से विध्यात्मक उपदेश हैं। पाँचवें प्रपाठक में वृद्ध और अवृद्ध भाव की व्यवस्था है। छठे प्रपाठक में यह व्यवस्था है कि सामभक्ति समूह कहाँ गाया जाय और कहाँ न गाया जाय । सातवें और आठवें प्रपाठक में लोप, आगम और वर्णविकार आदि के सम्बन्ध में उपदेश हैं। नवें प्रपाठक में भाव कथन है और दसवें तथा आगे के प्रपाठकों में कृष्टाकृष्ट निर्णय और प्रस्ताव के लक्षणादि बताये गये हैं । अथर्वप्रातिशाख्य के अन्तर्गत शौनकीय चतुरध्यायिका है, जिसमें (१) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय, और वृत्ति; (२) स्वर और व्यञ्जन का संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनि- धान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम; (३) संहिता प्रकरण; (४) क्रम निर्णय; (५) पद निर्णय और (६) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश ये छः विषय बताये गये हैं । प्रचलित है। इसकी कई व्युत्पत्तियां बतायी गयी है। निबन्धकारों ने इसका व्युत्पत्तिगत अर्थ 'प्रायः (= तप), चित्त' (= दृढ संकल्प) अर्थात् तप करने का दृढ संकल्प किया है । याज्ञवल्क्यस्मृति (३.२०६) की बालम्भट्टी टीका में एक श्लोकाद्ध उद्धृत है, जिसके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रायः = पाप, चित्त = शुद्धि' अर्थात् पाप की शुद्धि की गयी है (प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम्) । पराशरमाधवीय (२.१.३) में एक स्मृति के आधार पर कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह क्रिया है जिसके द्वारा अनुताप करने वाले पापी का चित्त मानसिक असन्तुलन से (प्रायशः) मुक्त किया जाता है। प्रायश्चित्त नैमित्तिकीय कृत्य है किन्तु इसमें पापमोचन की कामना कर्ता में होती है, जिससे यह काम्य भी कहा जा सकता है। प्रातिशाख्यों में से कुछ बहुत प्राचीन हैं तो कोई-कोई पाणिनीय सूत्रों के बाद के भी हैं। कई पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य के रचने वाले कात्यायन तथा पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार कात्यायन दोनों एक ही व्यक्ति हैं । वार्तिकों में जिस तरह उन्होंने पाणिनि की समालोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्यों में भी की है। इसी से निश्चय होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि के सूत्रों के बाद का है। प्रातिशाख्य में शिक्षा का विषय अधिक है और व्याकरण का विषय प्रासंगिक है। वास्तविक प्रातिशाख्य में व्याकरण के सम्पूर्ण लक्षणों का अभाव है, शिक्षा का विषय ही प्रातिशाख्यों की विशेषता है, यद्यपि वैज्ञानिक रीति से इस विषय के ऊपर शौनकीय शिक्षा में ही प्रतिपादन हुआ है। प्राप्तिवत-जो व्यक्ति एकभक्त पद्धति से एक वर्ष पर्यन्त आहारादि करता है और भोजनसहित जलपूर्ण कलश दान करता है, वह एक कल्प तक शिवलोक में वास करता है। प्रायश्चित्त-वैदिक ग्रन्थों में प्रायश्चित्ति और प्रायश्चित्त दोनों शब्द एक ही अर्थ में पाये जाते हैं । इनसे पापमोचन के लिए पार्मिक कृत्य अथवा तप करने का बोध होता है। परवर्ती साहित्य में 'प्रायश्चित्त' शब्द ही अधिक पाप ऐच्छिक और अनैच्छिक दो प्रकार के होते हैं, इसलिए धर्मशास्त्र में इस बात पर विचार किया गया है कि दोनों प्रकार के पापों में पायश्चित्त करना आवश्यक है या नहीं । एक मत है कि केवल अनैच्छिक पाप प्रायश्चित्त से दूर होते हैं और उन्हीं को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए; ऐच्छिक पापों का फल तो भोगना ही पड़ता है, उनका मोचन प्रायश्चित्त से नहीं होता (मनु ११.४५; याज्ञ० ३.२२६)। दूसरे मत के अनुसार दोनों प्रकार के पापों के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए; भले ही पारलौकिक फलभोग (नरकादि) मनुष्य को अपने दुष्कर्म के कारण भोगना पड़े। प्रायश्चित्त के द्वारा वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य हो जाता है (गौतम १९.७.१)। बहुत से ऐसे अपराध है जिनके लिए राजदण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का विधान धर्मशास्त्रों में पाया जाता है। जैसे-हत्या, चोरी, सपिण्ड से योनिसम्बन्ध, धोखा आदि । इसका कारण यह है कि राजदण्ड से मनुष्य के शारीरिक कार्यों पर नियन्त्रण होता है, किन्तु उसकी मानसिक शुद्धि नहीं होती और वह सामाजिक सम्पर्क के योग्य नहीं बनता । अतः धर्मशास्त्र में प्रायश्चित्त भी आवश्यक बतलाया गया है। प्रायश्चित्त का विधान करते समय इस बात पर विचार किया गया है कि पाप अथवा अपराध कामतः (इच्छा से) किया गया है अथवा अनिच्छा से (अकामतः); प्रथम अपराध है अथवा पुनरावृत्त । साथ ही परिस्थिति, समय, स्थान, वर्ण, वय, शक्ति, विद्या, धन हत्या, चोरी है कि राज किन्तु उर Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावरणषष्ठी - प्रेयमेध आदि पर भी विचार किया गया है । यदि परिषद् द्वारा विहित प्रायश्चित्त की अवहेलना कोई व्यक्ति करता था तो उसे राज्य दण्ड देता था। अब धर्मशास्त्र, परिषद् और जाति सभी के प्रभाव उठते जा रहे हैं, कुछ धार्मिक परिवारों को छोड़कर प्रायश्चित्त कोई नहीं करता । प्रायश्चित्त के ऊपर धर्मशास्त्र का बहुत बड़ा साहित्य है । स्मृतियों के मोटे तौर पर तीन विभाग है : आचार व्यवहार और प्रायश्चित्त। इसके अतिरिक्त बहुत से निबन्ध ग्रन्थ और पद्धतियाँ भी प्रायश्चित्तों पर लिखी गयी है। प्रावरणषष्ठी - यह शीतकाल में ओढ़ना दान करने की तिथि है । मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को देवों, दीनों तथा ब्राह्मणों को शीत निवारण के लिए कुछ वस्तुएं ( कम्बलादि) दान में देनी चाहिए। दे० गदाधरपद्धति, कालसार भाग, ८४ । प्रावरणोत्सव - मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को पुरुषोत्तम जगन्नाथ भगवान् की बारह यात्राओं में से एक यात्रा होती है । प्रियमेष- ऋग्वेद के प्रियमेषसूक्त (६.४५) में यह एक ऋषि का नाम है, जहाँ उनके परिवार प्रियमेधसः का अनेकों बार उल्लेख हुआ है । प्रियादास महाप्रभु चैतन्य द्वारा प्रचारित गौडीय सम्प्रदाय के अनुयायी एक महात्मा । नाभाजी कृत 'भक्तमाल' नामक संतों के ऐतिहासिक ग्रन्थ के ये सुप्रसिद्ध भाष्यकार हैं। इसमें इन्होंने ब्रजभाषा की प्रांजल शैली में कवित्तमयी रचना की है । इनका समय १८वीं शती है । भक्तसमाज में भक्तमाल और उसकी प्रियादासी व्याख्या वेदवाक्य मानी जाती है । प्रीतिव्रत - एक वैष्णव व्रत । इससे भगवान् विष्णु में रति और उनके लोक की प्राप्ति होती है जो व्यक्ति आपाड़ मास से चार मास तक विना तेल के स्नान करता है और इसके पश्चात् व्यंजन सहित सुस्वादु खाद्य पदार्थ दान में अर्पित करता है, वह विष्णुलोक को जाता है। प्रेत - वैदिक साहित्य में प्रेत ( देह से निर्गत) का मृत व्यक्ति अर्थ (शत० प्रा० १०.५.२.१३) होता है। पर वर्ती साहित्य में इसका अर्थ प्रेतात्मा (भूत-प्रेत ) होता हैं, जो अशरीरी होते हुए भी घूमता रहता है और जीव धारियों को कष्ट देता है । ४३१ प्रेतचतुर्दशी-कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को रात्रि में इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यदि संयोग से उस दिन मंगलवार तथा चित्रा नक्षत्र हो तो महान् पुण्य उपलब्ध होगा। शिव इसके देवता है। चतुर्दशी को उपवास करके शिवपूजनोपरान्त भक्तों को उपहारादि देकर भोजन कराया जाय; इस दिन गंगास्नान से मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त अपामार्ग की टहनी लेकर सिर पर फैरनी चाहिए तथा बाद में यम के नाम (कुल १४) लेकर तर्पण करना चाहिए । इसी दिन नदीतट पर, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के मन्दिरों में, स्वगृह में, चौरस्तों पर दीपमालिका प्रज्वलित की जाय। इस कृत्य को करने वाला अपने परिवार की २१ पीढ़ियों सहित शिवलोक प्राप्त करता है । इसी तिथि को परिवार के उन सदस्यों के लिए लुकाटियाँ जलायी जायँ जो शस्त्राघात से मरे हों और अन्यों के लिए अमावस्या के दिन । व्रतकर्ता इस दिन प्रेतोपाख्यान श्रवण करता है (उन पाँच प्रेतों की कथा जो एक ब्राह्मण को जंगल में मिले थे । 'संवत्सर प्रदीप' में इसका निर्देश है। दे० वर्षकृत्यकौमुदी, ४६१-४६७, यह भीष्म ने युधिष्ठिर को सुनायी थी ) जिसको सुनने तथा आचरण करने से मनुष्य प्रेतयोनि ( अशरीरी योनि) को घटा सकता है तथा प्रेतत्व से मुक्त भी हो सकता है । व्रती उन चौदह वनस्पतियों को ग्रहण करे जो 'कृत्यचिन्तामणि' की भूमिका ( पृ० १८ ) में निर्दिष्ट हैं । दे० राजमार्त्तण्ड, १३३८ - १३४५ । तिथितत्त्व, पृ० १२४ तथा रघुनन्दन के कृत्यतस्व में वे १४ वनस्पति परिगणित हैं । कदाचित् इसका प्रेतचतुर्दशी नाम इसलिए पड़ा है कि इस दिन प्रेतोपाख्यान' सुनना सुनाना चाहिए। प्रेमरस- यह वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गीय साहित्य से सम्ब न्धित, १६वीं शताब्दी के मध्य कृष्णदास द्वारा व्रजभाषा में रचा हुआ एक ग्रन्थ है। इसमें प्रेमरसरूपा भक्ति का विवेचन और वर्णन है । प्रेमविलास - गौडीय वैष्णव साहित्य सम्बन्धी १७वीं शताब्दी का ग्रन्थ । इसके रचयिता नित्यानन्ददास हैं । यह ग्रन्थ चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास प्रस्तुत करता है । प्रेमानन्द - स्वामीनारायणीय साहित्य में अनेकों कविताएँ गुजराती भाषा में 'प्रेमानन्द' द्वारा रचित प्राप्त हैं । प्रेयमेष-प्रियमेध के वंशज यह उन पुरोहितों का पैतृक नाम है, जिन्होंने त्र्यात्रेय उद्गम के लिए यज्ञ किया था । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्रोद्गीतागम-फलत्या इसका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण (८.२२) में है। यजुर्वेद उमा विहङ्गमः कालः कुब्जिनी प्रिय पावको । संहिता में इन्हें सभी यज्ञविद्याओं के ज्ञाता कहा प्रलयाग्निर्नीलपादोऽक्षरः पशुपतिः शशी ।। गया है। तीन प्रयमेधसों का उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण फूत्कारो यामिनी व्यक्ता पावनो मोहवर्द्धनः । (२.१९) में हुआ है। गोपथ ब्राह्मण (१.३.१५) में इन्हें निष्फला वागहङ्कारः प्रयागो ग्रामणीः फलम् ॥ भारद्वाज कहा गया है। फट-तान्त्रिक मन्त्रों का एक सहायक शब्द । इसका स्वयं प्रोद्गीत आगम-प्रोद्गीत का नाम उद्गीत भी है । यह __ कुछ अर्थ नहीं होता, यह अव्यय है और मन्त्रों के अन्त रौद्रिक आगमों में से एक है। में आघात या घात क्रिया के बोधनार्थ जोड़ा जाता है । प्रौढिवाद-किसी मान्यता को अस्वाभाविक रूप से, बल- यह अस्त्रबीज है । 'बीजवर्णाभिधान' में कहा गया है : पूर्वक स्थापित करना। यथा अद्वैत वेदान्तियों का 'फडत्वं शस्त्रमायुधम् ।' अर्थात् फट् शस्त्र अथवा आयुध अन्तिम वाद अजातवाद प्रौढिवाद. कहा जा सकता है, के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अभिचार कर्म में 'स्वाहा' क्योंकि यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के स्थान में इसका प्रयोग होता है। वाजसनेयी संहिता के रूप में कही जाय, चाहे दृष्टिसृष्टि या अवच्छेद अथवा (७.३) में इसका उल्लेख हुआ है : प्रतिबिम्ब के रूप में, अस्वीकार करता है और कहता है 'देवांशो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरि प्रता भनेन हतोऽसौ कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब विश्व ब्रह्म है। फट् ।' 'वेददीप' में महीधर ने इसका भाष्य इस प्रकार ब्रह्म अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही किया है : नहीं सकता, क्योंकि हमारे पास जो भाषा है, वह द्वैत की ही है, अर्थात् जो कुछ हम कहते हैं वह भेद के आधार "असौ द्वेष्यो हतो निहतः सन् फट् विशीर्णो भवतु । पर ही। 'त्रिफला विशरणे' अस्य विबन्तस्यैतद् रूपम् । फलतीति प्लक्ष प्रास्त्रवण-एक तीर्थस्थान का नाम, जो सर फट, डलयोरैक्यम् । स्वाहाकारस्थाने फडित्यभिचारे स्वती के उद्गम स्थान से चवालीस दिन की यात्रा पर । प्रयुज्यते।" था। इसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१०.१६.२२), फलतृतीया-शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस व्रत का आरम्भ कात्यायनश्रौतसूत्र (२४.६.७), लाट्यायनश्रौतसूत्र (१०. होता है। एक वर्ष पर्यन्त यह चलता है। देवी दुर्गा १७, ११,१४) तथा जैमिनीय-उपनिषद् ब्रा० (४.२६.१२) इसकी देवता हैं । यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए में हुआ है। ऋग्वेदीय आश्व० श्री० सू०, १२.६; शाला० विहित है । इसमें फलों के दान का विधान है परन्तु व्रती श्रौ० सू०, १३.१९,२४ में इस क्षेत्र को 'प्लक्ष-प्रस्रवण' स्वयं फलों का परित्याग कर नक्त पद्धति से आहार करता कहा गया है, जिसका अर्थ सरस्वती का उद्गम स्थान है तथा प्रायः गेहूँ के बने खाद्य तथा चने, मूंग आदि की है न कि इसके अन्तर्धान होने का स्थान । दालें ग्रहण करता है। परिणामस्वरूप उसे कभी भी सम्पत्ति अथवा धान्यादि का अभाव तथा दुर्भाग्य नहीं देखना पड़ता। फ-व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का द्वितीय अक्षर । काम फलत्यागवत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, अष्टमी, धेनुतन्त्र में इसका तत्त्व निम्नांकित है : द्वादशी अथवा चतुर्दशी को आरम्भ होता है, एक वर्ष फकारं शृणु चार्वङ्गि रक्तविद्युल्लतोपमम् । पर्यन्त चलता है। इसके शिव देवता हैं। एक वर्ष तक चतुर्वर्गप्रदं वर्ण पञ्चदेवमयं सदा ॥ व्रती को समस्त फलों के सेवन का निषेध है । वह केवल पञ्चपाणमयं वर्ण सदा त्रिगुण संयुतम् । १८ धान्य ग्रहण कर सकता है। उसे भगवान् शंकर, आत्मादितत्त्व संयुक्तं त्रिबिन्दु सहितं सदा ।। नन्दीगण तथा धर्मराज की सुवर्ण प्रतिमाएं बनवाकर १६ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम है : प्रकार के फलों की आकृति के साथ स्थापित करना फः सखी दुर्गिणी धूम्रा वामपाश्र्वी जनार्दनः । चाहिए । फलों में कूष्माण्ड, आम्र, बदर, कदली, उनसे जया पादः शिखा रौद्रो फेत्कारः शाखिनी प्रियः ।। कुछ छोटे आमलक, उदुम्बर, बदरी तथा अन्य फलों (जैसे Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलवत-फलाहारहरिप्रियव्रत ४३३ इमली) की त्रिधातु की आकृतियाँ बनवाकर धान्य के ढेर पर रखनी चाहिए । दो कलशों को जल से परिपूर्ण करके वस्त्र से आच्छादित किया जाय । वर्ष के अन्त में पूजा तथा व्रत के उपरान्त उपर्युक्त समस्त वस्तुएँ तथा एक गौ किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान में दे दी जायँ । यदि उपर्युक्त वस्तुओं को देने में व्रती असमर्थ हो तो केवल धातु के फलों, कलश तथा शिव एवं धर्मराज की प्रति- माएँ ही दान में दे दे। इस आयोजन से व्रती रुद्रलोक में सहस्रों युगों तक निवास करता है। फलवत-(१) आषाढ़ से चार मास तक विशाल फलों के उपभोग का त्याग (जैसे कटहल, कूष्माण्ड) तथा कार्तिक मास में उन्हीं फलों को सोने के बनवाकर एक जोड़ा गौ के साथ दान करना, इसको फलव्रत कहते हैं। इसके सूर्य देवता हैं। इसके आचरण से सूर्यलोक में सम्मान मिलता है । (२) कालनिर्णय, १४० तथा ब्रह्मपुराण के अनुसार भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा को व्रती को मौन व्रत धारण करते हुए तीन प्रकार के (प्रत्येक प्रकार के फलों में १६, १६) पके हुए फल लेकर उन्हें देवार्पण करके किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। फलषष्ठीवत-मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन, षष्ठी को एक सुवर्णकमल तथा एक सुवर्णफल बनवाना चाहिए। मध्याह्न काल में दोनों को किसी मृत्पात्र या ताम्रपात्र में रखना चाहिए। उस दिन उपवास रखते हुए फूल, फल, गन्ध, अक्षत आदि से उनका पूजन करना चाहिए। सप्तमी को पूर्व वस्तुएँ निम्नोक्त शब्द बोलते हुए दान कर देनी चाहिए 'सूर्यः मां प्रसीदतु' । व्रती को अगले कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक एक फल त्याग देना चाहिए। यह आचरण एक वर्ष तक हो, प्रत्येक मास में सप्तमी के दिन सूर्य के बारह नामों में से किसी एक नाम का जप किया जाय । इन आचरणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में सम्मानित होता है। फलसङ्क्रान्तिव्रत-सङ्क्रान्ति के दिन स्नानोपरान्त पुष्पादि से सूर्य का पूजन करना चाहिए। बाद में शर्करा से परिपूर्ण पात्र आठ फलों के सहित किसी को दान करना चाहिए । तदुपरान्त किसी कलश पर सूर्य की प्रतिमा रखकर पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए । फलसप्तमी-(१) भाद्र शुक्ल सप्तमी को उपवास रखते हुए सूर्य का पूजन, अष्टमी को प्रातः सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को खजूर, नारिकेल तथा मातुलुङ्ग फलों का दान किया जाय तथा ये शब्द बोले जायँ : 'सूर्यः प्रसीदतु' । व्रती अष्टमी को एक फल खाये तथा इन शब्दों का उच्चारण करे : 'सर्वाः कामनाः परिपूर्णा भवन्तु' । मन के सन्तोषार्थ वह और फल खा सकता है । एक वर्ष इस कृत्य का आचरण करना चाहिए। व्रती इससे पुत्र-पौत्र प्राप्त करता है। (२) भाद्र शुक्ल चतुर्थी, पञ्चमी तथा षष्ठी को क्रमशः अयाचित, एकभक्त तथा उपवास पद्धति से आहार करे । गन्धाक्षत, पुष्पादि से सूर्य का पूजन तथा सूर्यप्रतिमा जिस वेदी पर रखी जाय उसके सम्मुख रात्रि को शयन करे । सप्तमी के दिन पूजनोपरान्त फलों का नैवेद्य अर्पण किया जाय, ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय, तदनन्तर स्वयं भोजन करना चाहिए । यदि फलों का नैवेद्य अर्पण करने की क्षमता न हो तो गेहूँ या चावल के आटे में घी, गुड, जायफल का छिलका तथा नागकेसर मिलाकर, नैवेद्य बनाकर अर्पित किया जाय । यह क्रम एक वर्ष तक चलना चाहिए। व्रत के अन्त में सामर्थ्य हो तो सोने के फल, गौ, वस्त्र, ताम्रपात्र का दान किया जाय । व्रती निर्धन हो तो ब्राह्मणों को फल तथा तिल के चूर्ण का भोजन करा दे। इससे व्रती समस्त पापों, कठिनाइयों तथा दारिद्रय से दूर होकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है। (३) मार्गशीर्ष शुक्ल पञ्चमी को नियमों का पालन किया जाय, षष्ठी को उपवास, एक सुवर्णकमल, एक फल तथा शर्करा दान में दी जाय। दान के समय 'सूर्यः मां प्रसीदतु' मंत्रोच्चारण किया जाय । सप्तमी के दिन ब्राह्मणों को दुग्ध सहित भोजन कराया जाय । उस दिन से आने वाली कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक व्रती को कोई एक फल छोड़ देना चाहिए । सूर्य नारायण के भिन्न-भिन्न नाम लेकर उनका पूजन साल भर चलाना चाहिए । वर्ष के अन्त में सपत्नीक ब्राह्मण को वस्त्र, कलश, शर्करा, सुवर्ण का कमल तथा फलादि देकर सम्मान करना चाहिए। इससे व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक जाता है। फलाहारहरिप्रिय व्रत-विष्णुधर्मोत्तर ( ३.१४९.१-१०) के अनुसार यह चतुर्तिव्रत है। वसन्त में विषुव दिवस से तीन दिन के लिए उपवास प्रारम्भ कर वासुदेव भगवान की पूजा करनी चाहिए । तीन मास तक यह Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल्गुतीर्थ (सोमतीर्थ)-बकसर पूजा प्रतिदिन चलती है। तदनन्तर तीन मास तक केवल यह वररुचि की रचना है। इसके शेषांश में श्लोक दिये फलाहार करना चाहिए । इसके पश्चात् शरद् में विषुव के हुए है. दामोदर के पुत्र रामकृष्ण की लिखी इस पर एक तीन मास तक उपवास करना चाहिए। इसमें प्रद्युम्न के वत्ति भी है। पूजन का विधान है। इस समय यावक का आहार करना फेत्कारीतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' के चौसठ तन्त्रों की । चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को दान देना चाहिए। तालिका में द्वितीय क्रम पर 'फेत्कारीतन्त्र' है। इससे मनुष्य विष्णुलोक प्राप्त करता है । फल्गुतीर्थ ( सोमतीर्थ)-कुरुक्षेत्रमण्डल का पवित्र तीर्थ । यहाँ फलों का प्राचीन वन था, जो कुरुक्षेत्र के सात ब-व्यञ्जन वर्गों के पंचम वर्ग का तीसरा अक्षर । पवित्र वनों में गिना जाता था । यहाँ पर पितृपक्ष में कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य इस प्रकार है : तथा सोमवती अमावस्या के दिन बहुत बड़ा मेला लगता बकारं शृणु चावङ्गि चतुर्वर्गप्रदायकम् । है। कहा जाता है कि यहाँ श्राद्ध, तर्पण तथा पिण्डदान शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चदेवमयं सदा ॥ करने से गया के समान ही फल होता है। पञ्चप्राणात्मकं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ फाल्गुनमासकृत्य-यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त वार्षिक महोत्सव दक्षिण भारत के विशाल तथा छोटे-छोटे तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से नाम दिये हुए हैं : मन्दिरों में प्रायः फाल्गुन मास में ही आयोजित होते हैं । बो वनी भूधरो मार्गी चर्चरी लोचनप्रियः । प्रचेताः कलसः पक्षी स्थलगण्डः कपदिनी ॥ कुछ छोटी-छोटी बातों का यहाँ और उल्लेख किया जाता है । फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को लक्ष्मीजी तथा सीताजी पृष्ठवंशो भयामातुः शिखिवाहो युगन्धरः । सुखबिन्दुर्बलो चण्डा योद्धा त्रिलोचनप्रियः ॥ की पूजा होती है। यदि फाल्गुनी पूर्णिमा को फाल्गुनी सुरभिर्मुखविष्णुश्च संहारो वसुधाधिपः । नक्षत्र हो तो व्रती को पलंग तथा बिछाने योग्य सुन्दर षष्ठापुरं चपेटा च मोदको गगनं प्रति ।। वस्त्र दान में देने चाहिए। इससे सुभार्या की प्राप्ति होती है जो अपने साथ सौभाग्य लिये चली आती है। कश्यप पूर्वाषाढामध्यलिङ्गी शनिः कुम्भतृतीयको । तथा अदिति से अर्यमा की तथा अत्रि और अनसूया से बक दाल्भ्य-दल्भ का वंशज । छान्दोग्य उपनिषद में चन्द्रमा की उत्पत्ति फाल्गुनी पूर्णिमा को हुई थी। अतएव यह एक आचार्य का नाम है (१. २, १३, १२,१) । इन देवों की चन्द्रोदय के समय पूजा करनी चाहिए। अ० सं० के अनुसार (३०.२) वह धृतराष्ट्र के साथ यज्ञ पूजन में गीत, वाद्य, नृत्यादि का समावेश होना चाहिए। ___ सम्बन्धी विवाद करते हुए वणित है। फाल्गनी पूर्णिमा को ही दक्षिण भारत में 'उत्तिर' नामक बकपञ्चक-कार्तिक शुक्ल एकादशी ( विष्णप्रबोधिनी ) मन्दिरोत्सव का भी आयोजन किया जाता है । से पूर्णिमा तक के पाँच दिन 'बकपञ्चक' नाम से कहे फाल्गुनश्रवणद्वादशी-फाल्गुन में यदि द्वादशी को श्रवण ___जाते है। ऐसा माना जाता है कि इन दिनों बगुले भी मत्स्य नक्षत्र हो तो उस दिन उपवास करके भगवान हरि का का आहार नहीं करते। अतएव मनुष्य को कम-से-कम पूजन करना चाहिए । दे० नीलमत पुराण, पृ० ५२। इन दिनों मांस भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए। फुल्लसूत्र-सामवेद का एक श्रौतसूत्र । यह गोभिल की बकसर-(१) बिहार प्रदेश के शाहाबाद जिले में स्थित प्रसिद्ध रचना कहा जाता है। इस ग्रन्थ के पहले चार प्रपाठकों तीर्थस्थल । प्राचीन काल में यह स्थान सिद्धाश्रम कहा में नाना प्रकार के पारिभाषिक और व्याकरण द्वारा गठित जाता था। महर्षि विश्वामित्र का आश्रम यहीं था, जहाँ ऐसे शब्द आये हैं जिनका मर्म समझना कठिन है । इनकी राम-लक्ष्मण ने मारीच, सुबाह आदि को मारकर ऋषि टीका भी नहीं मिलती। किन्तु शेष अंश पर एक विशद के यज्ञ की रक्षा की थी। आज भी गङ्गा के तट पर भाष्य अजातशत्रु का लिखा हुआ है। ऋक् मन्त्ररूपी पुराने चरित्रवन का कुछ थोड़ा अवशेष बचा हुआ है, जो कलिका किस प्रकार सामरूप पुष्प में परिणत हुई, इस महर्षि विश्वामित्र का यज्ञस्थल है । बकसर में सङ्गमेश्वर, ग्रन्थ में यह बताया गया है । दाक्षिणात्यों में प्रसिद्धि है कि सोमेश्वर, चित्ररथेश्वर, रामेश्वर, सिद्धनाथ और गौरी Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकुलामावस्या-बदरीनाथ ४३५ शङ्कर नामक प्राचीन मन्दिर है, बकसर की पञ्चक्रोशी भी ये अपने प्राचीन विश्वासों एवं रिवाजों पर चलते देखे । परिक्रमा में सभी तीर्थ आ जाते हैं। जाते हैं जो द्रविडवर्ग से मिलते-जुलते हैं। (२) उन्नाव जिले में एक दूसरा बकसर शिवराजपुर से बंजारों का धर्म जादूगरी है और ये गुरु को मानते हैं । तीन मील पूर्व पड़ता है। यहाँ वाणीश्वर महादेव का मन्दिर इनका पुरोहित भगत कहलाता है। सभी बीमारियों का है। कहा जाता है कि दुर्गासप्तशती में जिन राजा सुरथ कारण इनमें भूत-प्रेत की बाधा, जादू-टोना आदि माना तथा समाधि नामक वैश्य के तप का वर्णन है उनकी तपः जाता है। इनके देवी-देवताओं की लम्बी तालिका में स्थली यहीं है। गङ्गादशहरा तथा कार्तिकी पूर्णिमा को प्रथम स्थान मरियाई या महाकाली का है (मातृदेवी का यहाँ पर मेला लगता है। सबसे विकराल रूप) । यह देवी भगत के शरीर में उतरती बकुलामावस्या-एक पितृव्रत । पौष मास की अमावस्या है और फिर वह चमत्कार दिखा सकता है । अन्य है गुरु को पितर लोगों को बकुलपुष्पों तथा शर्करायुक्त खीर से नानक, बालाजी या कृष्ण का बालरूप, तुलजा देवी तृप्त करना चाहिए। (दक्षिण भारत की प्रसिद्ध तुलजापुर की भवानी माता), शिव भैया, सती, मिठ्ठ भूकिया आदि। बग्गासिंह-राधास्वामी मठ, तरनतारन (पंजाब) के महन्त । __ मध्य भारत के बंजारों में एक विचित्र वृषभपूजा का सन्तमत या राधास्वामी पन्थ के आदि प्रवर्तक हुजूर प्रचार है। इस जन्तु को हतादिया (अवध्य ) तथा राधास्वामीदयालु उर्फ स्वामीजी के मरने पर ( संवत् बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं, क्योंकि बैलों का १९३५ ) उनका स्थान हुजूर महाराज अर्थात् रायसाहब कारवाँ ही इनके व्यवसाय का मुख्य सहारा होता है । सालिगराम माथुर ने ग्रहण किया, जो पहले इस प्रान्त लाख-लाख बैलों की पीठ पर बोरियाँ लादकर चलने वाले के पोस्टमास्टर जनरल थे। उन्हीं के गुरुभाई, अर्थात् 'लक्खी बंजारे' कहलाते थे। छत्तीसगढ़ के बंजारे स्वामीजी के शिष्य बाबा जयमलसिंह ने ब्यास में, बाबा 'बंजारी' देवी की पूजा करते हैं, जो इस जाति की बग्गासिंह ने तरनतारन में तथा बाबा गरीबदास ने दिल्ली मातृशक्ति की द्योतक है। सामान्यतया ये लोग हिन्दुओं में अलग-अलग गद्दियाँ चलायीं । के सभी देवताओं की आराधना करते हैं । बघौत-वनवासी जातियों-सन्थाल, गोंड आदि में यह बंजारी-दे० 'बंजारा'। विश्वास प्रचलित है कि बाघ से मारा गया मनुष्य भयानक बटेश्वर (विक्रमशिला)-विहार में भागलपुर से २४ मील भूत (प्रेतात्मा) बन जाता है । उसे शान्त रखने के लिए पूर्व गङ्गा के किनारे बटेश्वरनाथ का टीला और मन्दिर उसके मरने के स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण होता है है। मध्यकाल में यहाँ विक्रमशिला नामक विश्वविद्यालय जिसे 'बघौत' कहते हैं । यहाँ उसके लिए नियमित भेट था। उस समय यह पूर्वी भारत में उच्च शिक्षा की विख्यात पूजा की जाती है । इधर से गुजरता हुआ हर एक यात्री संस्था थी। यहाँ से दो मील दूर पर्वत की चोटी पर दुर्वासा एक पत्थर उसके सम्मान में इस स्थान पर रखता जाता ऋषि का आश्रम है । लगता है कि यहाँ का वट वृक्ष बोधिहै और यहाँ इस तरह पत्थरों का ढेर लग जाता है । हर वृक्ष का ही प्रतीक है और यह शैवतीर्थ बौद्धविहार का एक लकड़हारा यहाँ एक दीप जलाता है या आहुति देता अवशिष्ट स्मारक है। है ताकि क्रोधित भूत शान्त रहे । बदरीनाथ-उत्तर दिशा में हिमालय की अधित्यका पर मुख्य बंजारा-घुमक्कड़ कबायली जाति । संस्कृत रूप 'वाणिज्य- यात्राधाम । मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती कार। ये व्यापारी घूम-घूमकर अन्न आदि विक्रय वस्तु देश है और अखण्ड दीप जलता है जो अचल ज्ञानज्योति का भर में पहुँचाते थे। इनकी संख्या १९०१ ई० की भारतीय प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ है। जनगणना में ७,६५,८६१ थी। इनका व्यवसाय रेलवे प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का के चलने से कम हो गया है और अब ये मिश्रित जाति दर्शन अवश्य करे। यहाँ शीत के कारण अलकहो गये हैं। ये लोग अपना जन्मसम्बन्ध उत्तर भारत के नन्दा में स्नान करना अत्यन्त कठिन है। अलकनन्दा के ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण से जोड़ते हैं । दक्षिण में आज तो दर्शन ही किये जाते हैं । यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्ध-बराकुम्बा हैं । वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का इस सम्प्रदाय का साधुवर्ग पाँच शाखाओं में विभक्त हैगोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है । बदरी- (१) खालसा (२) नागा (३) उत्तराडी (४) विरक्त तथा नाय की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा (५) खाकी । इनमें से तीसरी शाखा की स्थापना पंजाब में में हैं । कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड बनवारीदास द्वारा हुई। इस वर्ग के साधु विद्याव्यसनी से निकालकर स्थापित की थी । सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके होते हैं जो अन्य साधुओं को पढ़ाते हैं, कुछ वैद्य होते हैं प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने जो चिकित्सा व्यवसाय करते हैं। इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की । शङ्कराचार्य बन्ध-संसार में लिप्त रहना । यह मोक्ष अथवा 'मुक्ति' की की प्रचारयात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति विलोम दशा है । बन्ध अज्ञान और आसक्तिमूलक होता को अलकनन्दा में फेंक गये। शङ्कराचार्य ने अलकनन्दा है। जब सदसत् का विवेक हो जाता है और साधक से पुनः बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर संसार से ( राग-द्वेष से ) निलिप्त होता है तब बन्ध से मूर्ति पुनः स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड छुटकारा मिल जाता है। से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की। बन्धन-(१) संसार में आसक्ति और आवागमन का चक्र । ___ मन्दिर में बदरीनाथजी की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति (२) अपराधों के लिए दण्ड का एक प्रकार, बन्धनागार है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ अथवा कारागार । दे० 'बन्ध' । में ले जायी जाती है । उद्धवजी के पास ही चरणपादुका बन्ध-(१) धर्मशास्त्र के अनुसार पितृसम्बन्ध से समस्त हैं । बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप सगोत्रियों को बन्धु कहा जाता है । ये दायाद से भिन्न ही श्रीदेवी और भूदेवी हैं। होते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि दायाद पैतृक सम्पत्ति बद्ध-पुनर्जन्म के सिद्धान्तानुसार आत्मा जन्म तथा मरण और पिण्डदान का अधिकारी होता है, परन्तु दायाद के की श्रृंखला में बँधा रहता है। जब तक ज्ञान अथवा भक्ति रहते हुए बन्धु इसका अधिकारी नहीं होता। द्वारा वह मुक्त न किया जाय । दैवी व्यक्तियों का आत्मा (२) तीन प्रकार के बन्धु बतलाये गये हैंतो नित्यमुक्त होता है, किन्तु साधारण मानवों के आत्मा १. आत्मबन्धु, २. पितृबन्धु और ३. मातृबन्धु । को चार भागों में विभक्त किया गया है-(क) बद्ध, जो जीवन सम्बन्धी वासनाओं से बँधे हुए हैं । ( ख ) मुमुक्षु, (३) सामान्यतः मित्र के अर्थ में भी ‘बन्धु' का प्रयाग मुक्ति की इच्छा वाले। (ग) केवल अनन्य भक्त, ईश्वर होता है। की भक्ति में तल्लीन रहने वाले और (घ) मक्त. जन्म- बभ्रुवाहन-नागकन्या चित्रांगदा से उत्पन्न अर्जुन का पुत्र, कर्म के बन्धनों से रहित । __जो मणिपूर का शासक था। यह अर्जन से भी अधिक बनजात्रा-महाप्रभु चैतन्य के तिरोधान के कुछ वर्ष पूर्व ही महात्मा रूप तथा सनातन कुछ शिष्यों के साथ बरसाना-व्रज को अधिष्ठाता देवता राधा का निवासस्थान । वृन्दावन में बस गये थे। इन्होंने भक्तिसिद्धान्त सम्बन्धी यह मथुरा से पैंतीस मील दूर है। इसका प्राचीन नाम अनेक ग्रन्थों की रचना के साथ ही व्रज के सभी पवित्र बृहत्सानु, ब्रह्मसानु अथवा वृषभानुपुर है । राधा श्री कृष्ण स्थानों को खोज निकाला । वे सब मथरा और वन्दावन के की ह्लादिनी शक्ति एवं निकुजेश्वरी मानी जाती है । आस-पास थे तथा उनका वर्णन वराहपुराण के 'मथरा- इसलिए राधा किशोरी के उपासकों का यह अति प्रिय माहात्म्य' में किया गया है । यही सब भक्त ऐसे व्यक्ति थे तीर्थ है। यहाँ भाद्र शुक्ल अष्टमी (राधाष्टमी) से चतुर्दशी जिन्होंने व्रजमण्डल के कृष्णलीला सम्बन्धी पवित्र स्थानों तक बहुत सुन्दर मेला होता है । इसी प्रकार फाल्गुन शुक्ल की यात्रा प्रचलित की। ८४ कोस तक विस्तृत उन ग्राम, अष्टमी, नवमी एवं दशमी को होली की आकर्षक लीला पर्वत, वन-उपवनों की यात्रा ही बनजात्रा कहलाती है। होती हैं। बनवारीदास-दादूपन्थ की एक संन्यासी शाखा के प्रवर्तक। बराकुम्बा-एक ग्रामीण भूमिदेवता। पृथ्वी माता की Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बराम-बलि उत्पादनशक्ति प्रति वर्ष फसलों की उपज से ह्रास को और कहीं-कहीं विष्णु के अवतारों में भी इनकी प्राप्त होती रहती है। इसे पुनः सञ्चित करने तथा गणना है। पृथ्वी को उर्वरा बनाने के लिए कृषक वर्ग में अनेक प्रकार बलरामदास-सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चालीस वर्षों की पूजाएँ की जाती हैं। नर्मदा-तापी की घाटी में रहने में बङ्गाल में चैतन्य मतावलम्बी अनेक प्रशस्तिकाव्यलेखक वाली 'पावरा' नामक जाति फसल कटने के पहले 'बरा- हुए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध कवि गोविन्ददास हैं । बलरामकुम्बा' और 'रानो काजल' ( देव-दम्पति) को अनाज दास इनके समकालीन थे, जिन्होंने एक महत्त्वपूर्ण स्तुतिसमर्पित करती हैं। ये देवदम्पति दो समीपी वक्षों पर ग्रन्थ की रचना की। वास करते हैं । विवाह के गीतों में भी इनके विवाह की बलाका-बलाका ( बगुला पक्षियों के झुण्ड ) का उल्लेख गाथा होती है। तैत्ति० सं० (६.२४,५ एवं वाजस० सं० २४.२२, २३) बराम-क्योंझर ( उड़ीसा प्रदेश) की जुआङ्ग नामक में अश्वमेध की बलितालिका के अन्तर्गत हआ है। वनवासी जाति का वनदेवता 'बराम' है। अपने इस बलात्कार-अनुचित रीति से बल का प्रयोग करके छीनासर्वश्रेष्ठ देवता की वे बहुत सम्मानपूर्वक पूजा करते हैं। झपटी, मारपीट, अत्याचार करना । धर्मशास्त्र में यह बरु-ऋग्वेदीय ब्राह्मणों (ऐत० ब्रा० ६.१५; कौ० वा. अपराधों में गिना गया है । स्त्रीप्रसङ्ग अथवा ऋण वसूल २५.८) के अनुसार बरु दशम मण्डल के ९६ संख्यक करने का अनुचित प्रकार भी बलात्कार कहलाता है । सूक्त के प्रवचनकर्ता हैं। धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र दोनों में वादों की सूची में इसकी बल-(१) श्री कृष्ण के बड़े भाई। दे० 'बलराम'। गणना है। (२) एक असुर का नाम, जिसका वध इन्द्र ने किया। बलाय-यजुर्वेद ( वाजस० सं० २४.३८, मैत्रा० सं० उनका एक नाम बलाराति इसी कारण हुआ है। ३.१४,१९) के अनुसार अश्वमेध यज्ञ के बलिपशुओं की बलदेव-(१) श्री कृष्ण के अग्रज, बलराम । __तालिका में उद्धृत एक अज्ञात पशु का नाम । (२) अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में पं० बलदेव बलि-(१) उपहार या नैवेद्य की वस्तु । बलि का उल्लेख विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के उपयोग के लिए वेदान्त- अनेकों बार ऋग्वेद (१.७०,९; ५.१.१० ८.१००.९ सत्र पर 'गोविन्दभाष्य' की रचना की। इनके दार्शनिक एक देवता के लिए; ७.६,५; १०.१७३,६ एक राजा के मत का नाम 'अचिन्त्यभेदाभेद' है। इसके अनसार ईश्वर लिए) तथा अन्य ग्रन्थों में हुआ है। बलि प्रदान इच्छातथा आत्मा का सम्बन्ध अचिन्त्य है अर्थात् इसकी नुसार किया जाता था। उसके ऐच्छिक स्वरूप की परिकल्पना नहीं की जा सकती। यह कहना भी कठिन है कि णति राजा की उत्पत्ति में हुई, जिसने नियमित रूप से बलि ईश्वर और प्रकृति का भेद सत्य है अथवा असत्य । (उत्पादन का एक भाग) लेना आरम्भ किया। इसके बलराम-नारायणीयोपाख्यान में वर्णित व्यूहसिद्धान्त के बदले में उससे प्रजावर्ग सुरक्षा प्राप्त करता था। इसी अनुसार विष्ण के चार रूपों में दूसरा रूप 'संकर्षण' प्रकार देवों को बलि देना स्वेच्छया होता था, जिसे वे (प्रकृति = आदितत्त्व) है । संकर्षण बलराम का अन्य नाम देवताओं द्वारा किये गये महान् अनुग्रह का देय 'कर' समहै जो कृष्ण के भाई थे। संकर्षण के बाद प्रद्यम्न तथा झते थे । यज्ञों में अनेक प्रकार की बलियों का वर्णन है। अनिरुद्ध का नाम आता है जो क्रमशः मनस् एवं अहंकार (२) प्रसिद्ध दानवराज । यह प्रह्लाद का पौत्र और के प्रतीक तथा कृष्ण के पुत्र एवं पौत्र हैं । ये सभी देवता के विरोचन का पुत्र था। इसने अपने गुरु शुक्राचार्य के मन्त्र रूप में पूजे जाते हैं । इन सबके आधार पर चतुर्ग्रह सिद्धान्त । और अपनी शक्ति से तीनों लोकों को जीत लिया। देवता की रचना हुई है। जगन्नाथजी की त्रिमूर्ति में कृष्ण, उससे त्रस्त थे, वे भगवान् विष्णु के पास अपनी रक्षा के सुभद्रा तथा बलराम तीनों साथ विराजमान हैं । इससे भी लिए गये । विष्णु दया करके कश्यप और अदिति से वामन बलराम की पूजा का प्रसार व्यापक क्षेत्र में प्रमाणित रूप में उत्पन्न हुए और तपस्वी ब्राह्मण का रूप धारण होता है। कर बलि के पास गये, जो दान के लिए प्रसिद्ध था। सामान्यतया बलराम शेषनाग के अवतार माने जाते हैं वामन ने बलि से तीन पग भूमि माँगी । बलि ने सहर्ष Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ बलि (बरि, बदगु)-बाणगंगा दान दिया । वामन ने तुरन्त अपना विशाल त्रिविक्रम रूप बहवच-'जिसमें बहत सी ऋचाएँ हों', यह ऋग्वेद का धारण कर एक चरण से सम्पूर्ण पृथ्वी और दूसरे से स्वर्ग पर्याय है। नाप लिया। तीसरे चरण के लिए स्थान नहीं था अतः बहवच उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । बलि ने अपनी पीठ नाप दी। विष्णु ने बलि को पाताल बाघजात्रा-भील तथा राजपूतों में व्याघ्र पूर्वज से जन्म का राजा बनाकर वहाँ भेज दिया और स्वर्ग देवताओं को ग्रहण करने की कथा प्रचलित है। इसका सम्बन्ध शिव वापस कर दिया । इसी को बलिछलन कहते हैं। पुराणों तथा दुर्गा से भी है। किन्तु पूजा अधिकांश पर्वतीय भाग में बड़े बिस्तार से यह कथा दी हुई है । दे० 'वामन'। में होती है। व्याघ्र का त्योहार नेपाल में 'बाघजात्रा' बलि (बरि, बेदगु)-बलि कन्नड़ शब्द है। इसका तमिल कहलाता है, जिसमें पुजारी (भक्त) लोग व्याघ्र के रूप में अनुवाद 'बरि' तथा तेलुगु 'बेदगु' है । इसका अर्थ है बाहरी नाचते हैं। जाति (अपने से भिन्न सांकेतिक चिह्न धारण करने वाली)। बाघदेव-बैनगङ्गा के किसानों में एक विचित्र कथा पायी टोने टोटके (जातीय चिह्न) में विश्वास रखने वाली एक जाती है। जब कोई व्यक्ति बाध द्वारा मारा जाता है जाति दक्षिण भारत में पायी जाती है। ये लोग एक तो उसकी पूजा बाघदेव के रूप में होती है। घर के विशेष प्रकार का सांकेतिक चिह्न धारण करते हैं। यह अहाते में एक झोपड़े के नीचे व्याघ्रप्रतिमा रखकर उसे चिह्न, जिस पर इस वर्ग का नामकरण होता है, किसी परि- पूजते हैं तथा प्रति वर्ष मृत्युदिवस मनाते समय उसकी चित पशु, मछली, पक्षी, पेड़, फल या फूल का होता है। विशेष पूजा होती है। वह पशु परिवार का सदस्य बन जो चिह्न धारण किया जाता है उसकी पूजा भी होती । जाता है। है। ये लोग वे सभी कार्य करते हैं जिनसे उस चिह्न बाघभैरों-नेपाल के गोरखा लोगों के मन्दिर विभिन्न (जानवर या पेड़ या मछली) की रक्षा हो तथा उसे चोट देवों के होते हैं तथा वे मिश्रित धर्म का बोध कराते हैं। न पहुँचे। इन्हीं मन्दिरों में एक मन्दिर बाघभैरों (व्याघ्र रूप में शिव) का है, जो मूल जातियों में बहुत लोकप्रिय है । बलिप्रतिपद्, रथयात्रावत-यह व्रत कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा बाण-(१) महाराज हर्षवर्धन के प्रसिद्ध राजकवि । इन्होंने को मनाया जाता है। इस दिन भगवान् विष्णु इन्द्र के सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 'चण्डीशतक' नामक लिए बलि से लक्ष्मी को हरण करके लाये थे। दीपावली काव्य लिखा, जो धार्मिक की अपेक्षा साहित्यिक अधिक की अमावस्या को उपवास रखना चाहिए। इसके अग्नि है। इसमें चण्डी (दुर्गा) की स्तुति है। बाण की तथा ब्रह्मा देवता है, दोनों को रथ में रखकर पूजा प्रसिद्ध साहित्यिक रचनाएँ हर्षचरित और कादम्बरी हैं करनी चाहिए । विद्वान् ब्राह्मण इस रथ को खींचकर व्रती जो संस्कृत गद्य का अनुपम आदर्श हैं । हर्षचरित के प्रारम्भ ब्राह्मण के घर तक ले जायें, तदनन्तर सारे नगर में रथ में बाण ने सूर्य की वन्दना की है और कादम्बरी के आरम्भ घुमाया जाय । ब्रह्मा की मूर्ति के दक्षिण पार्श्व में सावित्री में ब्रह्मा, विष्णु, शंकरात्मक, त्रिगुणस्वरूप परमात्मा की। की मूर्ति रहे । विभिन्न स्थानों पर रथ रोककर आरती, इससे प्रकट होता है कि बाण के समय में समन्वयात्मक दीपदान आदि किया जाय। जो इस रथयात्रा में भाग देवपूजा प्रचलित थी। लेते हैं, जो रथ खींचते हैं, जो दीप जलाते हैं, जो श्रद्धा (२) बलि का पुत्र प्रसिद्ध दानव राजा। इसकी पुत्री भक्ति प्रदर्शित करते हैं, वे सब लोग परलोक में उच्च ऊषा का गान्धर्वविवाह श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ स्थान प्राप्त करते हैं। चित्रलेखा की सहायता से हुआ था। बहुला-भाद्र कृष्ण चतुर्थी को बहुला व्रत किया जाता है। बाणगङ्गा-यह तीर्थस्थान ब्रह्मसर (कुरुक्षेत्र) सरोवर से यह गौ की वात्सल्य भावना और सत्यनिष्ठा के लिए लगभग तीन मील है और एक कच्ची सड़क इसे ब्रह्मसर विख्यात है। इस दिन गौओं की सेवा पूजा करके व्रती से मिलाती है। महाभारत के युद्ध में पितामह भीष्म इस को पकाये हुए जौ का सेवन करना चाहिए। इस व्रत के स्थान पर अर्जुन के बाणों से आहत होकर शरशय्या पर अनुष्ठान से सन्तति और सम्पत्ति का बाहुल्य होता है। गिरे थे। उस समम उनके पानी मांगने पर उनकी इच्छा Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादरायण-बार्हस्पत्य (नोति) शास्त्र से महारथी अर्जुन ने बाण मारकर जमीन से पानी बानी-सन्तों के रचे हुए पद्यात्मक उपदेश । रैदास, मलूकनिकाला, जिसकी धारा सीधे पितामह के मुख में गिरी। दास आदि अनेक सन्तों की बानियाँ प्रसिद्ध है । सोलहवीं यहाँ पर चारों ओर पक्के घाटों से युक्त सरोवर है तथा शताब्दी में महात्मा दादू ने अपनी शिक्षाएँ पद्य की भाषा एक छोटा सा मन्दिर भी है। में लिखीं जिन्हें 'बानी' कहते हैं । यह कृति ३७ अध्यायों बादरायण-उत्तर मीमांसा के प्रसिद्ध आचार्य । इनका रचा में विभाजित है, जिसमें ५००० पद्यों का संकलन है, जो 'वेदान्तसू.' या 'ब्रह्मसूत्र' ब्रह्ममीमांसा का एक वरिष्ठ प्रमुख धार्मिक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। स्तुतियाँ भी इसमें ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ की विशेषताओं से ज्ञात होता है कि सम्मिलित हैं। लालदास तथा रामसनेही सम्प्रदाय के इसकी रचना के पूर्व अनेक आचार्य इस दर्शन पर लिख प्रवर्तक रामचरन की शिक्षाएँ भी 'वानी' के रूप में चुके होंगे। सूत्रों में सात पूर्वाचार्यों का वर्णन प्राप्त होता संग्रहीत हैं। है। बादरायण चौथी या पांचवीं ई० पू० शताब्दी के बाबा लाल-बड़ोदा के पास इनका एक मठ है, जिसका पहले हए थे । बादरायण का शाब्दिक अर्थ है 'बदर का नाम है 'लाल बाबा का शैल'। ये निर्गण उपासक थे । वंशज' । सामविधान ब्राह्मण के अन्त में एक आचार्य का इतिहास में उल्लेख है कि संवत् १७०६ वि० में बाबा लाल नाम 'बदर' मिलता है। ऐसा समझा जाता है कि बाद- से दाराशिकोह की सात बार भेंट हुई और शाहजहाँ रायण और व्यास अभिन्न थे । की आज्ञा से दो हिन्दु दरवारियों ने बैठकर बाबा लाल बादामी (वातापीपुर)-पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल के उपदेश फारसी भाषा में लिख डाले। इनका नाम में यह नगर वातापी नामक असुर के अधीन था, जो 'नादिरुन्नुकात' रखा गया। ब्राह्मणों का परम शत्रु था। अगस्त्य ने इसका वध किया बाबालाली पंथ-निर्गुण निराकार के उपासक कबीर था। यह महाराष्ट्र के बीजापुर जिले में है। इसके पूर्वो- साहब के मत से प्रभावित अनेकों निर्गुणवादी पन्थ चले सर एक दुर्ग है, उसमें बायीं ओर हनुमानजी का मन्दिर, जिनमें से बाबालाली भी एक है, जो सरहिन्द में बाबा ऊपर जाने पर शिवमन्दिर, उससे आगे दो तीन और मंदिर लाल ने प्रचारित किया । दे० 'बाबा लाल' । इस पन्थ में मिलते हैं । दक्षिण की पहाड़ी पर पश्चिम ओर चार गुहा- मूर्तिपूजा वजित है। उपासना तथा पूजा का कार्य किसी मन्दिर हैं। तीन गुहाएँ स्मार्त धर्म की और एक जैन भी जाति का पुरुष कर सकता है, गुरु की उपासना पर धर्म को है। पहली गुहा में १८ भुजा वाली शिवमूर्ति, जोर दिया जाता है। रामनाम, सत्यनाम या शब्द का गणेशमूर्ति तथा गणों की मूर्तियाँ हैं। आगे विष्णु, लक्ष्मी योग और जप इनके विशेष साधन हैं। तथा शिवपार्वती की मूर्तियाँ हैं। पिछली दीवार में बार्हस्पत्य-(१) भौतिकवादी विचारकों की परम्परा इस महिषासुरमर्दिनी, गणेश तथा स्कन्द की मूर्तियाँ हैं। देश में प्राचीन काल से ही प्रचलित है । ये लोग वेदों में दूसरी गुहा में वामन, वराह, गरुडारूढ नारायण, शेषशायी विश्वास नहीं करते, इनको नास्तिक, चार्वाक, लोकायतिक नारायण की मूर्तियाँ तथा कुछ अन्य मूर्तियाँ हैं। तीसरी तथा बार्हस्पत्य आदि नामों से पुकारते हैं। बृहस्पति गुहा में अर्द्धनारीश्वर शिव, पार्वती, नृसिंह, नारायण, चार्वाकों के आचार्य माने जाते है, इसलिए चार्वाकों की वराह आदि की मूर्तियाँ हैं। जैन गुहा में जैन तीर्थङ्करों 'बार्हस्पत्य' उपाधि पड़ गयी है । दे० 'चार्वाक' । की मूर्तियाँ हैं। (२) वेदाङ्ग ज्योतिष का भाष्य और टिप्पणी सहित बाध-तर्क शास्त्र में वर्णित पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में अर्थ करनेवाले एक बार्हस्पत्य का उल्लेख प्रो० रामदास से एक । साध्याभाववान् पक्ष वाला हेतु बाध या बाधित गौड़ ने 'हिन्दुत्व' ग्रन्थ में किया है। पञ्चाङ्ग की रचनाकहलाता है । जैसे 'अग्नि ( पक्ष ) शीतल है ( साध्य )', विधि बार्हस्पत्य भाष्य से स्पष्ट हो जाती है। इस वाक्य में अग्नि का शीतल होना बाधित या असंभव है। बार्हस्पत्यतन्त्र-यह एक मिश्र तन्त्र है। बाध्व-ऐतरेय आरण्यक (३.२,३ ) में उद्धृत एक बार्हस्पत्य(नीतिशास्त्र-राजनीति की परम्परा में कथित आचार्य । शालायन आरण्यक (८.३ ) में इसका उच्चा- है कि सर्वप्रथम पितामह ने एक लाख पद्यों में दण्डनीति रण 'वात्स्य' है। शास्त्र की रचना की । उसका संक्षिप्त संस्करण दस हजार Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० बालकृष्ण-बाष्कल उपनिषद् पद्यों में विशालाक्ष ने किया। इसका भी संक्षिप्त रूप बाहु- समझी जाती है। इस कृति से उनका अद्वैतवादी होना दन्तक रचित है, जो पाँच हजार पद्यों का था। यह ग्रन्थ सिद्ध होता है। पूर्वमीमांसा के प्रौढ विद्वान् होते हुए भी भीष्म पितामह के समय में बार्हस्पत्यशास्त्र के नाम से उनका अन्तरंग भाव अद्वैतवादी रहा है। प्रसिद्ध था। यह इस समय उपलब्ध नहीं है। बालवत-वह स्त्री या पुरुष, जिसने पूर्व जन्म में किसी बाल कृष्ण-वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में कृष्ण भग- बालक की हत्या की हो अथवा समर्थ होने पर भी रक्षा वान् की उपासना बाल भाव में की जाती है, जो 'यशोदा- न की हो, वह निःसन्तान रह जाता है। ऐसे निःसन्तति उत्संगलालित' अर्थात् यशोदा मैया की गोद और आँगन व्यक्ति को वस्त्रों सहित कूष्माण्ड, वृषोत्सर्ग तथा सुवर्ण में दुलराये जाने वाले हैं । बाल कृष्ण की अनेकों शिशु- का दान करना चाहिए। इस व्रत के अनुष्ठान से सन्तान लीलाओं को भागवतपुराण के दशम स्कन्ध में प्रस्तुत की प्राप्ति होती है । दे० पद्मपुराण, ३.५-१४ तथा ३१किया गया है । कृष्ण का यह रूप बहुत लोकप्रिय है। ३२। बालकृष्ण दास-ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर जैसी लघु बालाजी-बाल कृष्ण का लोकप्रिय नाम, जिनकी पूजा धन उपनिषदों के शांकरभाष्य के ऊपर सरल व्याख्या के तथा उन्नति के देवता के रूप में वैष्णवों द्वारा, विशेष लेखक । मैत्रायणी उपनिषद् पर भी इनकी रची हुई कर वणिकों द्वारा की जाती है। बासिम (बरार) नामक वृत्ति है। स्थान पर इन बालाजी का एक रमणीक मन्दिर है। बालकृष्ण भट्ट-वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रन्थकार और उत्तर तथा पश्चिमी भारत के वणिकों में इनकी पूजा उपदेशक । इनका 'प्रमेयरत्नार्णव' नामक दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रचलित है। बहुत मूल्यवान् है। आन्ध्र प्रदेश के प्रसिद्ध देवता भगवान वेंकटेश्वर भी बालकृष्ण मिश्र-मानव श्रौतसूत्र के एक भाष्यकार । बालाजी या तिरुपति बालाजी कहे जाते हैं। तिरुपति बालकृष्णानन्द-छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् पर शङ्कराचार्य का अर्थ श्रीपति है। के भाष्य के ऊपर लिखी गयी अनेकों टीकाओं तथा वृत्तियों ___ अञ्जनीकुमार हनुमानजी का एक लोकप्रिय स्थानीय में बालकृष्णानन्द की वृत्ति भी सम्मिलित है।। नाम बालाजी है, जो राजस्थान के जयपुर जिले में बाँदीबाल गोपाल-गोपाल (कृष्ण) का बालरूप । कृष्ण के कुई से दक्षिण महँदीपुर की पहाड़ी में विराजमान हैं। प्रस्तुत रूप की उपासना में माता के वात्सल्य का एक इन बालाजी का स्थान चमत्कारी सिद्ध क्षेत्र माना प्रकार का दैवीकरण है । विविध प्रकार के कृष्णभक्ति जाता है। सम्प्रदायों के बीच बाल गोपाल के प्रति भक्ति का उदय बालातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' को तन्त्रसूची में उद्धृत विशेष कर स्त्रियों में हुआ । बाल गोपाल की पूजा का एक तन्त्र ग्रन्थ ।। मुख्यतः सारे भारत में प्रसार है । भागवत पुराण में बाल बालेन्दुवत अथवा बालेन्दुद्वितीया व्रत-चैत्र शुक्ल द्वितीया गोपाल का चरित्र विस्तार के साथ वणित है। सम्प्रदाय को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसके अनुसार किसी के रूप में इसका प्रचार सोलहवीं शताब्दी में वल्लभा नदी में सायंकाल स्नान करना विहित है। द्वितीया के चार्य और उनके अनुयायी शिष्यों द्वारा हुआ है। दे० चन्द्रमा के प्रतीक रूप एक बाल चन्द्रमा की आकृति बना'बालकृष्ण'। कर उसकी श्वेत पुष्पों, उत्तम नैवेद्य तथा गन्ने के रस से बालचरित-प्राचीन नाटककार भास ने प्रथम शती वि० बने पदार्थो से पूजा की जानी चाहिए। पूजनोपरान्त पू० में 'बालचरित' नामक नाटक लिखा, जो कृष्ण के व्रती स्वयं भोजन ग्रहण करे किन्तु उसे तेल में बने खाद्य बाल जीवन का चित्रण करता है। पदार्थों को नहीं खाना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त यह व्रत बालबोधिनी-यद्यपि आपदेव मीमांसक थे किन्तु उन्होंने चलता है। इसके आचरण से मनुष्य वरदान प्राप्त कर सदानन्द कृत 'वेदान्तसार' पर बालबोधिनी नामक टीका स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। लिखी है, जो नृसिंह सरस्वती कृत 'सुबोधिनी' और बाष्कल उपनिषद-ऋग्वेद की एक उपनिषद् । बाष्कल रामतीर्थ कृत 'विद्वन्मनोरञ्जिनी' की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट श्रति की कथा का सायणाचार्य ने भी उल्लेख किया है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाष्कल शाखा- बिल्वमङ्गल संप्रति ऋग्वेद की उसी की स्मृति इस इसके उपाख्यान के मेष का रूप धरकर गये। मेधातिथि ने बाष्कल शाखा का लोप हो गया है । बाष्कल उपनिषद् में बनी हुई है । सम्बन्ध में कहा जाता है कि इन्द्र कण्व के पुत्र मेधातिथि को स्वर्ग ले मेषरूपी इन्द्र से पूछा कि तुम कौन हो ? उन्होंने उत्तर दिया, 'विश्वेश्वर है तुमको सत्य के समुज्ज्वल मार्ग पर ले जाने के लिए मैंने यह काम किया है, तुम कोई आशंका मत करो।' यह सुनकर मेधातिथि निश्चिन्त हो गये विद्वानों का मत है कि बाष्कल उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों में से है । बाष्कलशाखा - वर्तमान समय में ऋग्वेद की शाकल शाखा के अन्तर्गत शैशिरीय उपशाखा भी प्रचलित हैं । कुछ स्थानों पर बाल शाखा का भी उल्लेख मिलता है। अन्य शाखाओं से बाष्कल शाखा में इतना अन्तर और भी है कि इसके आठवें मण्डल में आठ मन्त्र अधिक हैं । अनेक लोग इन्हें 'वालखिल्य मन्त्र' कहते हैं। भागवत पुराण (१२.६.५९ ) के अनुसार बाष्कलि द्वारा वालखिल्य शाखा अन्य शाखाओं से संकलित की गयी थी। बाहुदन्तकजनीति विषयक एक प्राचीन ग्रन्थ, जो 'विशा लाक्ष (इन्द्र) नीतिशास्त्र' का संक्षिप्त रूप और पाँच हजार पद्यों का था। यह भीष्म पितामह के समय में 'बार्हस्पत्य शास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध था । दे० 'बार्हस्पत्य' । बाह्रदन्तेय इन्द्र का एक पर्याय - बिठूर - कानपुर के समीप प्राय: पन्द्रह मील उत्तर गंगातट पर अवस्थित एक तीर्थ, जिसका प्राचीन नाम ब्रह्मावर्त था । बिठूर में गङ्गाजी के कई घाट हैं जिनमें मुख्य ब्रह्माघाट है । यहाँ बहुत से मन्दिर हैं, जिनमें मुख्य मन्दिर वाल्मीकेश्वर महादेव का है। यहाँ प्रति वर्ष कार्तिक की पूर्णिमा को मेला होता है। कुछ लोगों का मत है कि स्वायम्भुव मनु की यही राजधानी थी और भुव का जन्म यहीं हुआ था। अंग्रेजों द्वारा निर्वासित पूना के नानाराव पेशवा यहीं तीर्थवास करते थे। बिन्दु - (१) आद्य सृष्टि में चित् शक्ति की एक अवस्था, प्रथम नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है । (२) देहस्थित आज्ञाचक्र या भृकुटी का मध्यवर्ती कल्पित स्थान । अष्टांग योग के अन्तर्गत ध्यानप्रणाली में मनोवृत्ति को यहाँ केन्द्रित किया जाता है । इस स्थान से शक्ति का उद्गम होता है । ४४१ बिलाई माता -- एक ऐसी मातृदेवी की कल्पना, जो बिल्ली की तरह पहले सिकुड़ी रहकर पीछे बढ़ती जाती है । कुछ मूर्तियाँ ( और शिलाखण्ड भी ) आकार-प्रकार में बढ़ती रहती हैं, जैसे वह पत्थर जिसे 'बिलाई माता' कहते हैं । काशी में स्थित तिलभाण्डेश्वर ( तिलभाण्ड के स्वामी) शिवमूर्ति का दिन भर में तिल के दाने के बराबर बढ़ना माना जाता है । बिल्व-लक्ष्मी और शंकर का प्रिय एक पवित्र वृक्ष इसके नीचे पूजा-पाठ करना पुण्यदायक होता है । शिवजी की अर्चना में बिल्वपत्र ( बेलपत्र ) चढ़ाने का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनको यह अति प्रिय है। पूजा के उपादानों में कम से कम विल्वपत्र तथा गङ्गाजल अवश्य होता है । बित्यत्रिरात्र व्रत इस व्रत में ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त ज्येष्ठ की पूर्णिमा को सरसों मिले हुए जल से बिल्व वृक्ष को स्नान कराना चाहिए। तदनन्तर गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि से उसकी पूजा करनी चाहिए। एक वर्ष तक व्रती को 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना चाहिए। वर्ष के अन्त में बाँस की टोकरी में रेत या जौ, चावल, तिल इत्यादि भरकर उसके ऊपर भगवती उमा तथा शंकर की प्रतिमाओं की पुष्पादि से पूजा करनी चाहिए। विल्व वृक्ष को सम्बोधित करते हुए उन मन्त्रों का उच्चारण किया जाय जिनमें वैधव्य का अभाव, सम्पत्ति स्वास्थ्य तथा पुत्रादि की प्राप्ति का उल्लेख हो। एक सहस्र बिल्वपत्रों से होम करने का विधान है। चाँदी का बिल्ववृक्ष बनाकर उसमें सुवर्ण के फल लगाये जायें। उपवास रखते हुए त्रयोदशी से पूर्णिमा तक जागरण करने का विधान है। दूसरे दिन स्नान करके आचार्य का वस्त्राभूषणों से सम्मान किया जाय । १६, ८ या ४ सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय । इस व्रत के आचरण से उमा, लक्ष्मी, शची, सावित्री तथा सीता ने क्रमशः शिव, कृष्ण, इन्द्र, ब्रह्मा तथा राम को प्राप्त किया था । बिल्वमङ्गल -- विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के एक अनन्य भक्त संत श्री कृष्ण एवं राधा के प्रार्थनापरक इनके संस्कृत कवितासंग्रह 'कृष्णकर्णामृत' नामक ग्रन्थ का भक्तसमाज में बड़ा सम्मान है। इन्हीं कविताओं के कारण बिल्वमङ्गल चिरस्मरणीय हो गये । कुछ जनश्रुतियाँ कालीकट तथा ट्रावनकोर के निकट स्थित पद्मनाभ मन्दिर से इनका Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ बिल्वलक्षवत-बुधवत संबन्ध स्थापित करती हैं । सम्भवतः इनका जीवनकाल वे जनता को जो उपदेश देते थे वे सादी लोकभाषा में पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। गेय पद या भजन के रूप में होते थे. ताल-स्वरों पर उनके बिल्वलक्ष व्रत-यह व्रत श्रावण, वैशाख, माघ अथवा विचार कविता के रूप में निकलते थे। उनमें ऊँचे कवित्व कार्तिक में प्रारम्भ किया जाता है । प्रति दिन तीन सहस्र या साहित्यकला का अभाव है पर भाव गहरे और रहस्यबिल्व की पत्तियाँ एक लाख पूरी होने तक शिवजी पर पूर्ण हैं । उनके सारभूत दार्शनिक विचार ऐसे ही भजनों चढ़ायी जायँ । (स्त्री द्वारा स्वयं काती हुई बत्तियाँ जो घृत में प्रकट हुए हैं। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, एतदर्थ इन या तिल के तेल में डुबायी गयी हों, किसी ताम्र पात्र में रचनाओं को उनके एक शिष्य ने १६२७ वि० में 'बीजक' रखकर शिवजी के मन्दिर में अथवा गङ्गातट पर अथवा नामक संग्रह के अन्तर्गत संकलित किया। यह उनकी गोशाला में प्रज्वलित की जानी चाहिए । एक लाख अथवा छोटी रचनाओं का उपदेशात्मक ग्रन्थ है। एक करोड़ बत्तियाँ बनायी जाय। ये समस्त बत्तियाँ यदि बीरनाथ-शिला या प्रस्तर देवताओं के प्रतीक हैं या उनकी सम्भव हो तो एक ही दिन में प्रज्वलित की जा सकती सूक्ष्म शक्ति से व्याप्त रहते हैं; इस विश्वास के कारण अनेक हैं। किसी पूर्णिमा को इसका उद्यापन करना चाहिए।) प्रकारों से पाषाणखण्डों की पूजा देश भर में प्रचलित रही दे० वर्षकृत्यदीपिका, ३९८-४०३ । है। कई स्थानों में ऐसे शिलास्तम्भ लकड़ी के खम्भों के बिल्वशाखापूजा-यह व्रत आश्विन शुक्ल सप्तमी को रूप में बदले दिखाई देते हैं, जो लगातार तेल व घृत के किया जाता है। प्रदान से काले पड़ गये हैं। इन्हीं में एक पत्थर-देव बीरबिहारिणीदास-निम्बार्क सम्प्रदायान्तर्गत संगीताचार्य हरि- नाथ हैं, जिनकी पूजा कई प्रदेशों में आभीर वर्ग के लोग दास स्वामीजी के अनुगत एवं रसिकभक्त संत। ये पशुओं की रक्षा के लिए करते हैं। वास्तव में यह किसी वृन्दावन की लता-कुञ्जों में बाँकेविहारीजी की वजलीला यक्षपूजा अथवा वीरपूजा का विकसित रूप है।। का चिन्तन किया करते थे । संगीत की मधुर पदावलियों बीरभान-साध पन्थ के प्रवर्तक एक सन्त । इन्होंने सं० १७के साथ भगवान् की उपासना करना इनकी विशेषता थी। १५ वि० में यह पन्थ चलाया। दिल्ली से दक्षिण और इनकी रचनात्मक वाणी मुद्रित हो गयी है। सत्रहवीं पूर्व की ओर अन्तर्वेद में साध मत के लोग पाये जाते हैं। शताब्दी का उत्तरार्ध इनका स्थितिकाल है। संप्रति कबीर की तरह ये दोहरों और साखियों में उपदेश देते इनका उपासनास्थल यमुनाकूल की एकान्त शान्त निकुंजों थे। इनके बारह आदेश महत्त्व के हैं, जिनमें साधों का में 'टटियास्थान' कहलाता है। सदाचार प्रतिपादित होता है । बिहारीलाल (चौबे)-व्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि और उच्च बीरसिंह-सिक्ख खालसों के दो मुख्य विभाजन सहिजकोटि के काव्यकलाकार । इनका स्थितिकाल सत्रहवीं धारी तथा सिंह शाखाओं में हुए हैं। ये शाखाएँ पुनः शताब्दी का उत्तरार्ध है । ये कृष्ण के भक्त थे और इनकी क्रमशः छः तथा तीन उपशाखाओं में विभक्त हुई हैं । सिंह श्रृंगार रस की रचना 'बिहारी सतसई' हिन्दी साहित्य में शाखा की एक उपशाखा 'निर्मल' (संन्यासियों की शाखा) अपने अर्थगौरव के लिए अति प्रसिद्ध है । ‘सतसई' के कई के प्रवर्तक बीरसिंह थे, जिन्होंने इसकी स्थापना १७४७ भाष्यकारों ने सम्पूर्ण रचना का आध्यात्मिक अर्थ भी वि० में की थी। किया है। बुध (सौमायन)-पञ्चविंश ब्राह्मण के एक सन्दर्भ में बीज-जगत् का कारण, सूक्ष्मतम मूल तत्त्व । नाद, बिन्दु उद्धृत आचार्य, जो सोम के वंशज थे । पौराणिक परम्परा तथा बीज सृष्टि के आदि कारण हैं । इन्हीं के द्वारा सारी के अनुसार बुध भी सोम (चन्द्र) के पुत्र थे। इनका विवाह अभिव्यक्तियाँ होती है। साधना के क्षेत्र में बीज, किसी मनु की पुत्री इला से हुआ। इन दोनों के पुत्र पुरूरवा देवता के मन्त्र के सारभूत केन्द्रीय अक्षर को कहते हैं। हए जिनसे ऐल (चन्द्र) वंश चला। प्रायः आगमप्रोक्त मन्त्रों का प्रथम अक्षर 'बीजाक्षर' बुधवत-जब बुध ग्रह विशाखा नक्षत्र पर आये, व्रती को कहलाता है। एक सप्ताह तक 'एकभक्त' पद्धति से आहारादि करना बीजक-महात्मा कबीरदास सिद्ध कोटि के संत कवि थे। चाहिए । बुध की प्रतिमा काँसे के पात्र में स्थापित करक Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधाष्टमी-बुद्ध श्वेत मालाओं तथा गन्ध-अक्षत आदि से उसकी पूजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ का विवाह रामजनपद (कोलिय करनी चाहिए। पूजनोपरान्त उसे किसी ब्राह्मण को दे गण) की राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया । उन देना चाहिए। इस व्रताचरण से व्रतो की बुद्धि तीव्र हो- को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, उसका नाम राहुल रखकर कर शुद्ध ज्ञान प्राप्त करती है। उन्होंने कहा, 'जीवनशृंखला की एक कड़ी आज और बुधाष्टमी-शुक्ल पक्ष में बुधवार के दिन अष्टमी पड़ने पर गढी गयी।' यह व्रत किया जाता है। एकभक्त पद्धति से आहार करते एक दिन रात को माया और राहुल को सोते छोड़हुए जलपूर्ण आठ कलश, जिनमें सुवर्ण पड़ा हो, क्रमशः कर सिद्धार्थ कपिलवस्तु से बाहर निकल गये। इस आठ अष्टमियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के घटना को 'महाभिनिष्क्रमण' कहते हैं । ज्ञान और शान्ति साथ दान में दे देने चाहिए। वर्ष के अन्त में बुध की की खोज में सिद्धार्थ बहुत से विद्वानों और पण्डितों से मिले सुवर्णप्रतिमा दान में दी जाय । इस व्रत में प्रत्येक अष्टमी किन्तु उनको सन्तोष नहीं हुआ। आश्रमों, तपोवनों में के दिन ऐल पुरूरवा तथा मिथि एवं उसकी पुत्री उर्मिला घूमते हुए वे गया के पास उरुबेल नामक वन में जाकर की कथाएँ सुनी जाती हैं। घोर तपस्या करने लगे और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि या बुद्ध-बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तपस्वी महात्मा । इनका जन्म तो ज्ञान प्राप्त करूँगा, नहीं तो शरीर का त्याग कर हिमालयतराई के शाक्य जनपद (लुम्बिनीवन) में ५६३ दूंगा । छः वर्ष की कठिन तपस्या के पश्चात् उन्हें अनुभव ई०पू० हुआ था। शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी । हुआ कि शरीर को कष्ट देने से शरीर के साथ बुद्धि भी इनके पिता शुद्धोदन शाक्यों के गणमुख्य थे। इनकी माता क्षीण हो गयी और ज्ञान और दूर हट गया। अतः का नाम माया देवी था। इनका जन्मनाम सिद्धार्थ था । निश्चय किया कि मध्यम मार्ग का अनुसरण करना ही इनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा बहुत उच्च कोटि की उचित है। हुई। बाल्यावस्था से ही ये चिन्तनशील थे, संसार के एक दिन बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर जब वे चिन्तन दुःख से विकल हो उठते थे। जीवन की चार घटनाओं कर रहे थे, उन्हें जीवन और संसार के सम्बन्ध में सम्यक का इनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। ज्ञान प्राप्त हुआ । इस घटना को 'सम्बोधि' कहते हैं । इसी एक बार इन्होंने किसी अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति को देखा, समय से सिद्धार्थ बद्ध (जिसकी बद्धि जागत हो गयी जो वृद्धावस्था के कारण झुक गया था और लाठी के हो) कहलाये । अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि मैं अपने सहारे चल रहा था। पूछा कौन है ? उत्तर मिला वृद्ध, ज्ञान को दुःखी संसार तक पहुँचा कर उसे मुक्त करूँगा। जो सुन्दर बालक और बलिष्ठ जवान था, किन्तु बुढ़ापे बोधगया से चलकर वे काशी के पास ऋषिपत्तन मृगदाव से क्षीण और विकृत हो गया है। इसके पश्चात् एक (सारनाथ) में पहुँचे । यहाँ पर उन्होंने पञ्चवर्गीय पूर्वरुग्ण व्यक्ति मिला जो पीड़ा से कराह रहा था। पूछा शिष्यों को अपने धर्म का उपदेश प्रथम वार दिया । इस कौन है ? उत्तर मिला रोगी, जो कुछ ही क्षण पहले घटना को 'धर्मचक्रप्रवर्तन' कहते हैं। स्वस्थ और सुखी था। तदनन्तर सिद्धार्थ ने मृतक को बुद्ध ने अपने उपदेश में कहा, "दो अतियों का त्याग अर्थी पर लाते हुए देखा । पूछा कौन है ? उत्तर मिला ____ करना चाहिए । एक तो विलास का, जो मनुष्य को पशु मृतक, जो कुछ समय पहले जीवित और विलास में मग्न बना देता है और दूसरे कायक्लेश का, जिससे बुद्धि क्षीण था । अन्त में उन्हें एक गैरिक वस्त्र धारण किये हए हो जाती है । मध्यम भार्ग का अनुसरण करना चाहिए।" पुरुष मिला, जिसके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। इसके पश्चात् उन्होंने उन चार सत्यों का उपदेश किया, और चिन्ता का सर्वथा अभाव था। पूछा कौन है ? जिनको 'चत्वारि आर्य सत्यानि' कहते है। उन्होंने कहा, उत्तर मिला संन्यासी, जो संसार के सभी बन्धनों को "दुःख प्रथम सत्य है । जन्म दुःख है। जरा दुःख है । छोड़कर परिव्राजक हो गया है। त्याग और संन्यास की रोग दुःख है । मृत्यु दुःख है । प्रिय का वियोग दुःख है। भावना सिद्धार्थ के मन पर अपना प्रभाव गहराई तक अप्रिय का संयोग दुःख है। आदि । समुदय दूसरा सत्य डाल गयी। है । दुःख का कारण है तृष्णा । तृष्णा और वाराना से Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धजन्ममहोत्सव-बुद्धावतार ही सब दुःख उत्पन्न होते हैं। निरोध तीसरा सत्य है। समुदय अर्थात् दुःख के कारण तृष्णा का निरोध हो सकता है । जो स्थिति कारण से उत्पन्न होती है उसके कारण को हटाने से वह समाप्त हो जाती है । निरोध का ही नाम निर्वाण अर्थात् सम्पूर्ण वासना का क्षय है। निरोधगामिनी प्रतिपदा चौथा सत्य है। अर्थात् निरोध प्राप्त कराने वाला एक मार्ग है। वह है अष्टाङ्ग मार्ग अथवा मध्यमा प्रतिपदा ।" महात्मा बुद्ध प्रथम धर्मप्रवर्तक थे, जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए संघ का संघटन किया। सारनाथ में प्रथम संघ बना । बुद्ध ने आदेश दिया, "भिक्षुओ ! बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय, देव, मनुष्य और सभी प्राणियों के हित के लिए उस धर्म का प्रचार करो जो आदि मङ्गल है, मध्य मङ्गल है और अन्त मङ्गल है।" अस्सी वर्ष की अवस्था तक अपने धर्म का विभिन्न प्रदेशों में प्रचार करते हुए कुशीनगर में वे दो शालवृक्षों के बीच अपनी जीवनलीला समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो गये। इस घटना को 'महापरिनिर्वाण' कहते हैं। यद्यपि बुद्धदेव निरीश्वरवादी थे और वेदों के प्रामाण्य में विश्वास नहीं करते थे, पर उनके व्यक्तित्व का नैतिक प्रभाव भारतीय इतिहास पर दूरव्यापी पड़ा। जीवदया और करुणा को वे सजीव मूर्ति थे । आस्तिक परम्परावादी हिन्दुओं ने उनको विष्णु का लोकसंग्रही अवतार माना और भगवान् के रूप में उनकी पूजा की। पुराणों में जो अवतारों की सूचियाँ हैं उनमें बुद्ध भगवान् की गणना है । वर्तमान हिन्दू धर्म बुद्ध के सिद्धान्तों से प्रभावित है। हिन्दू पुराणों में बुद्ध भगवान् की कथा अन्य प्रकार से दी हुई है। दे० 'अवतार' तथा 'बुद्धावतार' । बुद्धजन्ममहोत्सव-वैशाख शुक्ल पक्ष में जब चन्द्र पुष्य नक्षत्र पर हो, उस समय बुद्ध की प्रतिमा शाक्य मुनि द्वारा कथित मन्त्रों का पाठ करते हुए स्थापित करनी चाहिए। लगातार तीन दिन उनकी पूजा करते हुए निर्धनों को नैवेद्यादि भेंट करना चाहिए । दे० नीलमत पुराण, पृ०६६-६७, श्लोक ८०९-८१६, जहाँ बुद्ध को विष्णु का अवतार बतलाया गया है। बुद्धद्वादशी-श्रावण शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस तिथि को भगवान् बुद्ध की प्रतिमा का गन्ध-अक्षतादि से पूजन करते हुए उनकी उपासना करनी चाहिए । महाराज शुद्धोदन ने इस व्रत को किया था, अतएव भगवान् विष्णु ने स्वयं उनके यहाँ जन्म लिया । दे० कृत्यकल्पतरु, ३३१-३३२; हेमाद्रि, १.१० ३७-१०३८; कृत्यरत्नाकर, २४७-२४८ । बुद्धावतार-विष्णु भगवान् का नवम अवतार । इस संबन्ध में भागवत, विष्णु आदि अनेक पुराणों में वर्णन आता है। विष्णु और अग्निपुराण के अनुसार देवताओं की रक्षा के लिए भगवान् माया-मोह स्वरूपी बुद्धावतार में शुद्धोदन राजा के पुत्र हुए। उन्होंने इस रूप में आकर देवताओं को पराजित करने वाले असुरों को माया से विमोहित कर वेदमार्ग से च्युत करने का उपदेश देना आरम्भ किया। माया-मोहावतारी भगवान् बुद्ध ने नर्मदा नदी के तट पर जाकर दिगम्बर, मुण्डित सिर आदि द्वारा विचित्र रूप वाले संन्यासी वेश में असुरों के समक्ष कहा : "आप लोग यह क्या कर रहे हैं ? इसके करने से क्या होगा ? यदि आपको मुक्ति (निर्वाण) की ही कामना है तो व्यर्थ में इतनी पशुहिंसा के यज्ञ-यागादि क्यों करते हैं ? निरर्थक कर्म करने से आप कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सकते । यह जगत् विज्ञानमय और निराधार है। इसके मूल में ईश्वरादि कुछ नहीं है । यह केवल भ्रम मात्र है, जिससे मोहित होकर जीव संसार में भ्रमित होता रहता है।" ऐसे मोहक चारु वचनों द्वारा बुद्ध ने समस्त असुरों को पथभ्रष्ट कर दिया। इस प्रकार बुद्धावतार के प्रसंग में विष्णुपुराण ने आधिदैविक कारण प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार कुछ आध्यात्मिक कारण भी बुद्धावतार से सम्बन्ध रखते हैं । बुद्ध के प्राकट्य के पूर्व देश भर में हिंसा का प्राबल्य था । वैदिक यज्ञ और ईश्वर के नाम के माध्यम से नर, पशु आदि विभिन्न जीवों की बलियाँ दी जाती थीं और लोग अन्धपरम्परया इस कार्य को ईश्वर की उपासना का रूप प्रदान करने लगे थे । इस प्रकार के भयंकर समय में बुद्ध को ईश्वर और यज्ञ के नाम पर किये जाने वाले जीवहत्या रूपी दुष्कर्म के अन्त के लिए ईश्वर और वेद का खण्डन करना पड़ा। जिस प्रकार विष का उपचार विष द्वारा ही किया जाता है, उसी प्रकार महात्मा बुद्ध ने भी हिंसा-पापरूपी विष का शमन नास्तिकतारूपी विष से किया। इस प्रयोग Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि-बुबु से तात्कालिक धर्मरक्षा हई एवं ज्ञानमूलक बौद्धधर्मोप- मौलिक गुण हैं-धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य । जब देश द्वारा जीवों की हिंसा से निवृत्ति अवश्य हो गयी। इसमें विकृति उत्पन्न होती है तो इसके गुण उलट कर भगवान बुद्ध के सम्बन्ध में अनेक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, अधर्म, अज्ञान, आसक्ति और दैन्य हो जाते हैं। स्मृति जिनमें विस्तार से इनका जीवन चरित्र वणित है । इन और संस्कार बुद्धि में स्थित होते हैं। अतः धार्मिक साधग्रन्थों का संस्कृत में निर्माण अधिकांश भारत में हुआ, नाओं में बुद्धि की पवित्रता पर बहुत बल दिया गया है। किन्तु विदेशों में अनेक भाषाओं में इनकी जीवनी लिखी बुद्धिवाद-विचार की एक दार्शनिक पद्धति, जो जगत की गयी, जैसे चीनी, तिब्बती, जापानी आदि में। इसके वास्तविकता को समझने में बुद्धि को सबसे अधिक महत्त्व साथ ही भगवान् बुद्ध के अनेक जन्मों की कथा भी देती है। यह प्रत्यक्ष को तो मानती ही है, अनुमान और कल्प-कल्पान्तरों के नामपूर्वक उपलब्ध होती है। इस उपमान का स्पष्ट विरोध नहीं करती, परन्तु शब्द और प्रकार अनेक कल्पों में कई योनियों में भ्रमण करने के ऐतिह्य का प्रत्याख्यान करती है। साथ ही यह कोई पश्चात् भगवान् बुद्ध माया देवी के गर्भ से (वर्तमान अलौकिक अथवा पारमार्थिक सत्ता अथवा मूल्य नहीं गोरखपुर के पास ) नेपाल की तराई के कपिलवस्तु मानती । भारत में इसके मूल प्रवर्तक चार्वाक, बौद्ध और नामक नगर में उत्पन्न हुए थे। भगवान् बुद्ध जीवन भर जैन न्यूनाधिक मात्रा में थे । वास्तव में, भारत में वस्तु भ्रमण करते हुए अपने परम पावन उपदेशपीयूष द्वारा अन्वेषण की दो परम्पराएँ थीं : (१) निगम ( अनुभूतिराजा से रंक तक सभी प्रकार के मनुष्यों का उपकार वादी) और (२) आगम (तर्क, युक्ति और बुद्धिवादी)। करते रहे। उनके उपदेश सरल और आचारपरक थे । मूलतः दोनों में समन्वय था, किन्तु मतवादियों ने एक उन्होंने संसार के सम्बन्ध में चार आर्य सत्य निर्धारित स्वतन्त्र 'बुद्धिवाद' खड़ा कर दिया। किये थे। उन्होंने बताया कि संसार में दुःख ही दुःख हैं । सांसारिक दुःखों के कुछ कारण भी है। इन कारणों बुद्धधवाप्तिवत-चैत्र मास की पूर्णिमा के उपरान्त इस व्रत को दूर किया जा सकता है। दुःख के निरोध का उपाय का आचरण किया जाना चाहिए। एक मास तक यह भी उन्होंने बताया। उनके मत में दुःख निरोध ही निर्वाण चलता है। इसमें नृसिंह भगवान् की पूजा की जाती है । है। अतिवाद दुःख का कारण है, अतएव मध्यम मार्ग हो इसमें सरसों से प्रति दिन हवन होता है। 'त्रिमधर' युक्त सेव्य है । इसके साथ ही उन्होंने अष्टांग मार्ग तथा दस खाद्य पदार्थों से ब्राह्मणभोजन कराया जाता है। वैशाखी शोलों का भी प्रचार किया । पूर्णिमा को सुवर्ण का दान विहित है । इससे शुद्ध बुद्धि प्राप्त होती है । महात्मा बुद्ध ने यद्यपि वर्णाश्रम धर्म की उपेक्षा कर डाली और धार्मिक जटिलता के भय से उन्होंने अधिदेव बढ़े अमरनाथ-कश्मीर के पूँछ नगर से चौदह मील दूर रहस्यों का निरादर किया, किन्तु उनका उपदेश उस ऊँची पहाड़ियों से घिरा यह मन्दिर है । पूरा मन्दिर एक समय के लिए जगत्-हितकारी था यह यथार्थ है। इस ही श्वेत पत्थर का बना हुआ है। जम्मू से पूँछ के लिए समय भी पृथ्वी पर करोड़ों लोग इस धर्म को मानते हैं । मोटर बसें चलती हैं। कहा जाता है कि यही प्राचीन बुद्धि-प्रकृति के विकास का प्रथम चरण महत् तत्त्व है । अमरनाथ तीर्थस्थान है । पहले लोग यहीं यात्रा करने आते इसमें बुद्धि, अहंकार और मनस् तीनों निहित हैं। महत् थे । यहीं पुलस्ता नदी है, जिसके तट पर महर्षि पुलस्त्य सार्वभौम है। इसी का मनोविकास रूप बुद्धि है। किन्तु का आश्रम था। दूसरे अमरनाथ उस समय बरफ के बुद्धि आध्यात्मिक चेतना अथवा ज्ञान नहीं; चैतन्य आत्मा कारण अगम्य थे । मार्ग का सुधार होने पर इनकी यात्रा का गुण माना गया है । अहंकार, मन और इन्द्रियाँ बुद्धि बाद में सुलभ हुई है । के लिए कार्य करती हैं; बुद्धि सीधे आत्मा के लिए कार्य बुबु-ऋग्वेद ( ६.४५,३१-३३) में बृबु का उल्लेख सहस्रकरती है । बुद्धि के मुख्य कार्य निश्चय और निर्धारण हैं। दाता, उदार दाता तथा पणियों के सिरमौर के रूप में इसका उदय सत्त्व गुण की प्रधानता से होता है। इसके हुआ है । शाङ्खायन श्रौत सूत्र (१६.११,११) के अनुसार Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ भारद्वाज ने बुबु तक्षा तथा प्रस्तोक सारञ्जय से दान प्राप्त किया। प्रतीत होता है, यह कोई पणि था, यद्यपि ऋग्वेद में इसका वर्णन ऐसे रूप में हुआ है जिसने पणि के सभी गुणों को त्याग दिया हो । यदि ऐसा है तो पणि का आशय सद्भावपूर्ण व्यापारी तथा बृबु एक वणिक् राजकुमार हो सकता है। वेबर के अनुसार इस नाम का सम्बन्ध बेबीलॉन से है । हो सकता है, बुबु के वंशजों ने वहाँ जाकर अपना उपनिवेश बसाया हो । बृहज्जाबाल उपनिषद् – एक परवर्ती उपनिषद् | बृहद्गौतमीयतन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों की तालिका में बृहत् गौतमीय तन्त्र भी उल्लिखित है । बृहती - प्रभाकर रचित कर्ममीमांसा विषयक एक ग्रन्थ, जो शबरस्वामी के भाष्य की व्याख्या है । विशेष विवरण के लिए दे० 'प्रभाकर' | बृहत्तपोव्रत - मार्गशीर्ष मास की प्रतिपदा बृहत्तपा कहलाती है, उस दिन यह व्रत आरम्भ होता है । इसके शिव देवता हैं । यह एक वर्ष से सोलह वर्ष तक चलता है । इससे समस्त पाप ब्राह्मणहत्या का पाप भी दूर हो जाता है। बृहत्संहिता महान् ज्योतिचिद् वराहमिहिर - विरचित ज्योतिष विषय का अति प्रसिद्ध ग्रन्थ । त्रिस्कन्ध ज्योतिष - संहिता अंश में विविध सांस्कृतिक वस्तुओं का वर्णन होता है । वह उसी प्रकार का एक आकरग्रन्थ है, जिससे भारतीय धर्मविज्ञान, मूर्तिशास्त्र तथा धार्मिक स्थापत्य पर काफी प्रकाश पड़ता है। वराहमिहिर का समय सन्दर्भउल्लेखों के अनुसार ४७५-५५० ई० है । बृहदारण्यक - शुक्ल यजुर्वेद का आरण्यक ग्रन्थ, जो शतपच ब्राह्मण ( १५.१-३ ) के समान है । दे० 'आरण्यक' | बृहदारण्यक वार्तिकसार-आचार्य शङ्कर रचित बृहदारण्यक उपनिषद् के भाष्य पर सुरेश्वराचार्य ने वातिक नामक व्याख्या लिखी है । प्रस्तुत ग्रन्थ में उसका श्लोकबद्ध संक्षिप्त सार है। इसके रचयिता माधवाचार्य अथवा विद्या रण्य स्वामी है। बृहदारण्यकोपनिषद् मुख्य उपनिषदों में दसवीं उपनिषद् बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य प्राचीन उपनिषदों में सर्वाधिक महत्त्व की हैं, इन्हीं दोनों में मुख्य दार्शनिक विचार सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से विकसित दृष्टिगोचर होते हैं। बृहदुक्थ - ऋग्वेद (५.१९.३) में अस्पष्ट रूप से कथिक एक -- बृहज्जाबाल उपनिषद्-बृह्मसंहिता पुरोहित का नाम पहु० के दो मन्त्रों ( १०.५४, ६, ५६, ७) में इन्हें ऋषि कहा गया है। ये ऐतरेय ब्रा० (८.२३) में दुर्मुख पाश्चाल के अभिषेककर्त्ता तथा शत० प्रा० (१३.२,२,१४) में वामदेव के पुत्र कहे गये हैं । पञ्चविंश ब्रा० (१४.९, ३७, ३८) में ये वामनेय (वामनी के वंशज ) के रूप में वर्णित है। बृहद्गरि - पञ्चविंश ब्राह्मण (८.१, ४) में कथित बृहद्गिरि उन तीन यतियों में एक है जो इन्द्र द्वारा वध के बाद भी जीवित हो गये थे। उनका एक साममन्त्र भी उसी ब्राह्मण में उद्धृत है (१३.४.१५-१७) । बृहद्गौरीव्रत भाद्र कृष्ण तृतीया को चन्द्रोदय के समय यह व्रत किया जाता है और केवल महिलाओं के लिए है। दोरली नामक वृक्ष मूल समेत लाकर बालू की वेदी पर स्थापित करना चाहिए । चन्द्र उदित हुआ देखकर महिला व्रती स्नान करे । कलश में वरुण की पूजा कर भगवती गौरी की विभिन्न उपचारों से पूजा करे। गौरी के नाम से एक धागा गले में लपेट लेना चाहिए। पाँच वर्ष तक यह क्रम चलता है । काशी के आसपास यह व्रत 'कज्जली तृतीया' के नाम से मनाया जाता है । - बृहद्देवता — ऋग्वेद से संबन्धित एक ग्रन्थ, जिसमें वैदिक आख्यान एवं माहात्म्य विस्तार से लिखे गये है। यह शौनकरचित बताया जाता है जो श्लोकबद्ध है। इसकी प्राचीनता सर्वमान्य है । इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक ऋचा के देवता का निर्देश किया जाय, किन्तु ग्रन्थकार ने इसे स्पष्ट करते हुए देवता सम्बन्धी एक विचित्र आख्यान भी दे दिया है। विश्वास किया जाता है कि यह ग्रन्थ निरुक्त के बाद बना है । कुछ लोग कहते हैं कि यह शौनक सम्प्रदाय के किसी अन्य व्यक्ति की रचना है। इसमें भागूरि, आश्व लायन, बलभी ब्राह्मण तथा निदानसूत्र का नाम भी मिलता है । बृहद्देवता ग्रन्थ शाकल शाखा के आधार पर नहीं बना है । इसमें शाकल शाखा का नाम कई बार आया है । बृहद्धर्म उपपुराणवह उन्तीस उपपुराणों में एक है। बृहद्ब्रह्मसंहिता एक वैष्णव आगम ग्रन्थ, जो तमिल देश में रचित माना जाता है । यह भी सम्भव है कि इसकी रचना उत्तर में हुई हो तथा इसमें दाक्षिणात्यों द्वारा प्रक्षेप हुआ हो। इसमें महात्मा शठकोप तथा रामानुज स्वामी - Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वसु-बृहस्पतिस्मृति ४४७ का उल्लेख ईश्वरसंहिता के सदृश है तथा द्रविड देश को वैष्णव भक्तों की भूमि कहा गया है । बृहद्वसु-वंश ब्राह्मण में उल्लिखित एक आचार्य का नाम । बृहद्यामल तन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्र सूची में इसका नाम वासठवें क्रम पर आता है । बृहन्नारदीय पुराण-उन्तीस उपपुराणों में परिगणित । सम्भवतः नारदीय महापुराण का यह परिशिष्ट है परन्तु आकार में बहुत विस्तृत है। बृहस्पति-(१) वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित एक देवता। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह नाम एक ग्रह (बहस्पति) का बोधक है, परन्तु इसके लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं है । पुराणों के अनुसार बृहस्पति देवताओं के गुरु और अध्यात्मविद्याविशारद ऋषि कहे जाते हैं । (२) चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति का नाम भी उल्लेखनीय है। उनके मतानुसार "न स्वर्ग है न अपवर्ग; परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला आत्मा भी नहीं है ।" ये बृहस्पति लोकायत (नास्तिक) दर्शन के पूर्वाचार्य समझे जाते हैं और अवश्य ही महाभारत से पहले के हैं । (३) बृहस्पति एक अर्थशास्त्रकार और स्मृतिकार भी हुए है। इनके ग्रन्थ खण्डित आकार में ग्रन्थान्तरों के उद्धरणों में ही पाये जाते हैं । बृहस्पतिसव–एक यज्ञ का नाम । तैत्तिरीय ब्राह्मण (२.७, १,२) के अनुसार इसके अनुष्ठान द्वारा कोई भी व्यक्ति वैभवसंपन्न पद प्राप्त कर सकता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (९.९,५) के अनुसार पुरोहित इस यज्ञ को वाजपेय के पश्चात् करता था और राजा वाजपेय के पश्चात् राजसूय यज्ञ करता था। शतपथ ब्राह्मण (५.२,१,१९) में बृहस्पतिसव को वाजपेय कहा गया है, किन्तु यह एकता प्राचीन नहीं जान पड़ती। बृहस्पतिस्मृति-धर्मशास्त्रों में बृहस्पतिस्मृति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। याज्ञवल्क्यस्मृति (१.४-५) में स्मृतिकारों की जो सूची दी गयी है उसमें बृहस्पति की गणना है। किन्तु पूर्ण स्मृति अब कहीं उपलब्ध नहीं होती। बूलर ने अपरार्क के निबन्ध से बृहस्पति के ८४ श्लोकों का संग्रह कर इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित कराया था (लिपजिक, १८७९)। डॉ० जाली ने कई स्रोतों से बहस्पति के ७११ श्लोकों का संकलन किया और इसका अंग्रेजी भाषान्तर 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (सं० ३३) में प्रकाशित किया था। बृहस्पति मनुस्मृति का घनिष्ठ रूप से अनुसरण करते हैं, किन्तु कतिपय स्थानों पर मन के विधिक नियमों की पूर्ति, विस्तार और व्याख्या भी करते हैं । निश्चित रूप से बृहस्पतिस्मृति मनु और याज्ञवल्क्य की परवर्ती है। यह या तो नारदस्मृति की समकालीन अथवा निकट परवर्ती है । इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें धन और हिंसामूलक (दीवानी और फौजदारी) विवादों का स्पष्ट भेद किया गया है : द्विपदो व्यवहारश्च धनहिंसासमुद्भवः । द्विसप्तधार्थमूलश्च हिंसामूलश्चतुर्विधः ।। (जीमूतवाहन की व्यवहारमातृका में उद्धृत) दूसरे, बृहस्पति ने इस बात पर जोर दिया है कि वाद का निर्णय केवल शास्त्र के लिखित नियमों के आधार पर न करके युक्ति और औचित्य के ऊपर करना चाहिए : केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो हि निर्णयः । युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ चौरोऽचौरो साध्वसाधु जायते व्यवहारतः । युक्तिं विना विचारेण माण्डव्यश्चौरतां गतः ॥ (याज्ञ०, २.१ पर अपरार्क द्वारा उद्धृत ) जिन विषयों पर बृहस्पति के उद्धरण पाये जाते हैं उनकी सूची निम्नाङ्कित है : (क) वाद (मुकदमे) के चतुष्पाद (ख) प्रमाण (चार प्रकार के तीन मानवीय : लिखित, भुक्ति तथा साक्षी और एक दिव्य ) १. लिखित (दस प्रकार के) २. भुक्ति (अधिकार--भोग) ३. साक्षी (बारह प्रकार के) ४. दिव्य (नौ प्रकार का) (ग) विवादस्थान (अठारह)ऋणादान, निक्षेप, अस्वामिविक्रय, सम्भूय-समुत्थान, दत्ताप्रदानिक, अभ्युपेत्याशुश्रूषा, वेतनस्य अनपाकर्म, स्वामिपालविवाद, संविद्व्यक्तिक्रम, विक्रीयासम्प्रदान, सीमाविवाद, पारुष्य (दो प्रकार का), साहस (तीन प्रकार का), स्त्रीसंग्रहण, स्त्री-पुन्धर्म, विभाग, द्यूतसमाह्वय और प्रकीर्णक ( नृपाश्रय व्यवहार )। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ बेलूर-बौद्धदर्शन बेलूर-कर्नाटक प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थ । पुराने मैसूर राज्य में बेलूर का विशिष्ट स्थान है। चैन्नकेशव मन्दिर यहाँ का मुख्य यात्रास्थल है। राजा विष्णुवर्धन होयसल ने इसकी प्रतिष्ठा की थी। यहाँ बहन से प्राचीन मन्दिर हैं । इसका पुराना नाम वेलापुर है। बोधगया (बुद्धगया)-अन्तरराष्ट्रीय ख्याति का बौद्धती । पितृतीर्थ गया से यह सात मील दूर है । यहाँ बुद्ध भगवान् का विशाल कलापूर्ण मन्दिर है । पीछे पत्थर का चबूतरा है जिसे बौद्ध सिंहासन कहते हैं। इसी स्थान पर बैठकर गौतम बुद्ध ने तपस्या की थी। यहीं बोधिवृक्ष ( पीपल ) के नीचे उन्हें ज्ञान ( संबोधि ) प्राप्त हआ था इसलिए यह 'बोधगया' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बौद्धों के उन चार प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थों में है जिनका सम्बन्ध भगवान् बुद्ध के जीवन से है। बहुसंख्यक बौद्ध यात्री यहाँ आते हैं। सनातनी हिन्दू यहाँ भी अपने पितरों को, विशेष कर भगवान बुद्ध को पिण्डदान करते हैं। बोधायन-यजुर्वेद सम्बन्धी बौधायनश्रौतसूत्र के रचयिता सम्भवतः बोधायन थे। प्रसिद्ध वेदान्ताचार्य के रूप में भी इनकी ख्याति अधिक है। जनश्रुति है कि 'ब्रह्मसूत्र' पर बोधायन की रची एक वृत्ति थी जिसके वचनों का आचार्य रामानुज ने अपने भाष्य में उद्धरण दिया है। जर्मन पण्डित याकोबी का मत है कि बोधायन ने 'मीमांसासूत्र' पर भी वृत्ति लिखी थी। 'प्रपञ्चहृदय' नामक ग्रन्थ से भी यह बात सिद्ध होती है और प्रतीत होता है कि बोधायननिर्मित 'बेदान्तवृत्ति' का नाम 'कृतकोटि' था। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी के समय उसकी प्रतिलिपि एक मात्र कश्मीर में उपलब्ध थी और वहाँ से आचार्य उसको कुरेश शिष्य की सहायता से कण्ठस्थ रूप में ही प्राप्त कर सके थे। बोधायनवृत्ति-दे० 'बोधायन ।' बोधार्यात्मनिर्वेद-भट्रोजि दीक्षित के समकालीन सदाशिव दीक्षित रचित एक अध्यात्मवादी ग्रन्थ । बौद्ध दर्शन-बौद्ध दर्शन की ज्ञानमीमांसा 'आगम' अर्थात् तर्क अथवा युक्ति के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों पर अवलम्बित है, इसमें 'निगम' का महत्त्व नहीं है। इस दर्शन का केन्द्रबिन्दु है 'प्रतीत्य समुत्पाद' (कार्यकारण सम्बन्ध ) का सिद्धान्त, जिसके अनुसार कार्य-कारणश्रृंखला से संसार के सारे दुःख उत्पन्न होते हैं और कारणों को हटा देने से कार्य अपने आप बन्द हो जाता है। इसकी तत्वमीमांसा के अनुसार संसार में कोई वस्तु नित्य नहीं है। सभी क्षणिक हैं । इस सिद्धान्त को क्षणिकवाद कहते हैं। कोई स्थायी सत्ता न होकर परिवर्तनसन्तान ही भ्रम से स्थायी दिखाई पड़ता है। बौद्ध अनीश्वरवाद और अनात्मवाद के सिद्धान्त इसी से उत्पन्न होते हैं । बौद्ध अनीश्वरवाद के अनुसार विश्व के मूल में ब्रह्म अथवा ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं है। विश्व प्रवहमान परिवर्तन है। इसका कोई कर्ता नहीं । ब्रह्म अथवा ईश्वर की खोज करना ऐसा ही है जैसे आकाश में ऐसी सुन्दरी तक पहुँचने के लिए सीढ़ी लगाना जो वहाँ नहीं है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के भीतर आत्मा की खोज भी व्यर्थ है। मनुष्य का व्यक्तित्व पाँच 'स्कन्धों' का संघात मात्र है, उसके भीतर कोई स्थायी आत्मा नहीं है। जिस प्रकार किसी गाड़ी के कलपुों को अलग-अलग कर देने के बाद उसके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता, उसी प्रकार स्कन्धों के विश्लेषण के बाद उनके भीतर कोई स्थायी तत्त्व नहीं मिलता। अनात्मवाद का प्रतिपादन करते हुए भी बौद्ध दर्शन कर्म, पुनर्जन्म और निर्वाण मानता है। परन्तु प्रश्न यह है कि जब कोई स्थायी आत्मतत्त्व नहीं है तो कर्म के सिद्धान्त से किसका नियन्त्रण होता है ? कौन पुनर्जन्म धारण करता है ? और कौन निर्वाण प्राप्त करता है ? बौद्ध धर्म में इसका समाधान यह है-"मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति के सब स्कन्ध-तथाकथित आत्मा आदि नष्ट हो जाते हैं । परन्तु उसके कर्म के कारण उन स्कन्धों के स्थान पर नये-नये स्कन्ध उत्पन्न हो जाते हैं। उनके साथ एक नया जीव ( जीवात्मा नहीं ) भी उत्पन्न हो जाता है। इस नये और पुराने जीव में केवल कर्मसम्बन्ध का सूत्र रहता है । कार्य-कारणशृङ्गला के सन्तान से दोनों जीव एफ से जान पड़ते हैं।" यही जन्म-मरण अथवा जन्म-जन्मान्तर का चक्र कर्म के आधार पर चलता रहता है। तृष्णा अथवा वासना रोकने से कर्म रुक जाता है और कर्म रुक जाने से जन्म-मरण का चक्र भी बन्द हो जाता है । जब सम्पूर्ण वासना अथवा तृष्णा का पूर्णतया क्षय हो जाता है तब निर्वाण प्राप्त होता है । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धधर्म बौधायनधमंसूत्र बौद्धधर्म - संसार के प्रमुख धर्मों में से यह एक है । मूलतः यह जीवन का एक दृष्टिकोण अथवा दर्शन था, धर्म नहीं, क्योंकि इसमें ईश्वर और धर्मविज्ञान के लिए कोई स्थान नहीं था । परन्तु भारत ही ऐसा देश है जहाँ ईश्वर के बिना भी धर्म चल सकता है। ईश्वर के बिना भी बौद्ध धर्म 'सद्धर्म' था। इसका कारण यह है कि यह अभौतिक परमार्थ 'निर्वाण' में विश्वास करता था और इसका आधार था प्रज्ञा, शील तथा समाधि । अपने मूल रूप में बौद्धधर्म बुद्ध के उपदेशों पर आधारित है । ये उपदेश मुख्यतः 'सूत्रपिटक' में संगृहीत हैं। उनका प्रथम उपदेश ( धर्मचक्र प्रवर्तन) सारनाथ में हुआ था । इसमें मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया गया है । यह दो अतियों - इन्द्रियविलास और अनावश्यक शारीरिक तप के बीच चलता है । बुद्ध ने कहा है : "हे भिक्षुओ ! परिव्राजक को इन दो अन्तों का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अन्त कौन हैं ? पहला तो काम या विषय में सुख के लिए अनुयोग करना । यह अन्त अत्यन्त दीन, ग्राम्य, अनार्य और अनर्थसंगत है। दूसरा है शरीर को क्लेश देकर दुःख उठाना । यह भी अनार्य और अनर्थसंगत है । हे भिक्षुओ ! तथागत ( मैं ) ने इन दोनों अन्तों का त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा ( मध्यम मार्ग) को जाना है।" यही चौथा आर्य सत्य था, जिसका उद्घोष बुद्ध ने धर्म की भूमिका के रूप में किया । इसके पश्चात् उन्होंने शेष आर्य सत्यों का उपदेश दिया । चार आर्य सत्य ( चत्वारि आर्यसत्यानि ) - (१) दुःख (२) समुदय (३) निरोध और ( ४ ) मार्ग ( निरोधगामिनी प्रतिपदा) पहला सत्य यह है कि संसार में दुःख है। फिर इस दुःख का कारण भी है। इसका कारण है तृष्णा ( वासना ) | के उत्पन्न तृष्णा होने की एक प्रक्रिया है। इसके मूल में है अविद्या अविद्या से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नाम रूप से षडायतन इन्द्रियाँ और मन ), पायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से भव भव से जाति (जन्म) जाति से जरा, मरण, रोग आदि दुःख उत्पन्न होते हैं । दुःख का इस प्रकार निदान हो जाने के पश्चात् उसके निरोध ( निर्वाण ) का मार्ग ढूँढना और उसका अनुसरण ५७ ४४९ करना चाहिए। इसी मार्ग को 'निरोपगामिनी प्रतिपदा' ( मध्यम ) कहते हैं । यह अष्टाङ्ग भी कहलाता है । आठ अङ्ग निम्नाङ्कित हैं : (१) सम्यक दृष्टि ( जीवन में यथार्थ दृष्टिकोण ), ( २ ) सम्यक् संकल्प ( यथार्थ दृष्टिकोण से यथार्थ विचार ), (३) सभ्य वाचा ( यथार्थ विचार से यथार्थ वचन ), (४) सम्यक् कर्मान्ति ( यथार्थ वचन से यथार्थ कर्म ), (५) सम्यक् आजीव ( यथार्थ कर्म से उचित जीविका ), (६) सम्यक व्यायाम ( उचित जीविका के लिए उचित प्रयत्न ), (७) सम्यक् स्मृति ( उचित प्रयत्न से उचित स्मृति ), (८) सम्यक् समाधि ( सम्यक् स्मृति से सम्यक् जीवन का संतुलन ) । बुद्ध ने 'दस शीलों' का भी उपदेश दिया, जिनमें दसों तो भिक्षुओं के लिए अनिवार्य हैं और उनमें से प्रथम पाँच गृहस्थों के लिए अनिवार्य हैं । दस शीलों की गणना इस प्रकार है : (१) जीवहिंसा का त्याग, (२) अस्तेय ( अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना ), (३) ब्रह्मचर्य ( मैथुन त्याग ), (४) सत्य ( झूठ का त्याग ), (५) मादक वस्तु का त्याग, ( ६ ) असमय भोजन का त्याग, (७) अभिनय, नृत्य, गान आदि का त्याग, (2) माल्य, सुगन्ध, अङ्गराग आदि का स्वाग, ( ९ ) कोमल शय्या का त्याग, (१०) सुवर्ण और रजत के परिग्रह का त्याग । बौधायन -- बुध अथवा बोध के वंशज एक आचार्य, जो वेदशाखा प्रवर्तक थे । इनके द्वारा श्रौत, धर्म तथा गृह्य सूत्र रचे माने जाते हैं । बौधायनगृह्यसूत्र स्मार्ती के लिए यह गृह्यसूत्र महत्वपूर्ण माना जाता है। इसमें स्मातों के कृत्यों का इतिहास दिया गया है । इसे कभी-कभी 'स्मार्तसूत्र' भी कहते हैं । इसके परिशिष्टों में स्मातों के धर्म की नियमावली दी हुई है। बौधायनधर्मसूत्र कृष्ण यजुर्वेद के तीन धर्मसूत्र प्रसिद्ध है: आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी तथा बौधायन । बौधायनधर्मसूत्र का कई स्थानों से मुद्रण हुआ है। १८८४ ई० में -- Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० डॉ० ल्याने लिपजिग से इसका प्रकाशन कराया। इसके पश्चात् आनन्दाश्रम प्रेस पूना से स्मृतिसंग्रह में यह प्रकाशित हुआ। १९०७ ई० में गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सोरीज, मैसूर में गोविन्द स्वामी की टीका और भूमिका के साथ इसका प्रकाशन हुआ । परन्तु पूरे ग्रन्थ का हस्तलेख अभी तक नहीं प्राप्त हुआ है। बौधायनशुल्व सूत्र शुल्बसूत्र दो उपलब्ध हैं - बौधायनशुल्वसूत्र तथा आपस्तम्बल्वसूत्र इन सूषों में पुराने समय की ज्यामिति तथा क्षेत्रमिति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। 'शुरुव' एक प्रकार का सूत्र (फीता ) होता था, जिससे यज्ञवेदियों के वर्ग क्षेत्र आदि की नाप-जोख करने की विधि इस सूत्र में प्रदर्शित है । बौधायनधौतसूत्र कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र बौधायनश्रौतसूत्र की पूरी प्रति मिलती नहीं है, जहाँ तक उपलब्ध है उसकी विषयसूची इस प्रकार है: पहले खण्ड में दर्शपूर्णमास, दूसरे में आधान, तीसरे में पुनराधान, चौथे में पशु पांचवें में चातुर्मास्य छठे में सोमप्रवर्ग, सातवें में एकादशी, पशु, आठवें में चयन, नवें में वाजपेय, दसवें में शुल्वसूत्र, ग्यारहवें में कर्मान्त सूत्र, बारहवें में द्वैधसूत्र, सूत्र, तेरहवें में प्रायश्चित्तसूत्र, चौदहवें में काठसूत्र पन्द्रहवें में सौत्रामणि सूत्र सोलहवें में अग्निष्टोम और सत्रहवें में धर्मसूत्र है। कपर्दी स्वामी केशव स्वामी, गोपाल, देव स्वामी, धूर्त स्वामी, भव स्वामी, महादेव वाजपेयी और सायण के लिखे इस सूत्र पर भाष्य हैं । 7 ब्रजविलास दे० 'व्रजविलास' । ब्रह्म ब्रह्म की सत्ता हिन्दू धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवस्था साहित्य और कला की आधारशिला है। जीवन के सभी अङ्ग प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित एवं अनुप्राणित हैं । इस शब्द का प्रादुर्भाव वेदों से ही दृष्टिगोचर होता है। सामान्य प्रयोगों में इसका अर्थ 'प्रार्थना', 'मन्त्र', 'शब्द' 'तेज', 'शक्ति', 'धन', 'सम्पत्ति' आदि है । किन्तु व्युत्पत्ति और दर्शन की दृष्टि से इसका अर्थ अधिक गम्भीर, व्यापक और अतिरेकी है । - " इस शब्द की व्युत्पत्ति 'बृह' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है प्रस्फुटित होना, प्रसरण, बढ़ना आदि। इसका बौधायनशुल्बसूत्र ब्रह्म सम्बन्ध बृहस्पति और वाचस्पति से भी है । वास्तव में उच्चारित शब्द की अन्तर्निहित शक्ति के विस्फोट और उपबृंहण से ही इन तीनों शब्दों का तादात्म्य है। इन अर्थों में 'बृहत्' होने की भावना की प्रधानता है, जिसका आशय है : 'ब्रह्म' सबसे बड़ा है, उससे बड़ा कोई नहीं । वही सर्वव्यापक, बृहत्तम अथवा महत्तम है । छान्दोग्य उपनिषद् के 'भूमा' शब्द में इसी अर्थ की अभिव्यक्ति हुई है, जिसका तात्पर्य सार्वभौम, सर्वव्यापक असीम और अनन्त सत्ता है । 1 सर्वप्रथम उपनिषदों में ब्रह्म का विवेचन हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् में एक संवाद के अन्तर्गत भृगु ने पिता वरुण से प्रश्न किया कि 'ब्रह्म' क्या है । वरुण ने उत्तर दिया "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्य तद् ब्रह्मेति ।" 1 [ जिससे ये समस्त भूत (जगत् के जड़ चेतन पदार्थ) जन्म लेते हैं, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय से जीते हैं और पुनः उसी में लौटकर पूर्णतः विलीन हो जाते हैं, उसी को सम्यक प्रकार से जानने की इच्छा करो। यही ब्रह्म है ।] 9 ब्रह्म का इसी प्रकार का निरूपण दूसरे शब्दों में छान्दोग्य उपनिषद् में पाया जाता है। इसमें ब्रह्म को 'वज्लान्' (तत् + ज++ अन्) कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म तज्ज, तल्ल और तदन है। वह 'तज्ज' है, क्योंकि समस्त भूत उसी से उत्पन्न होते हैं वह 'तरुल' है, क्योंकि सभी भूतों का लय उसी में होता है और वह 'तदन्' है, क्योंकि अपनी स्थिति के समय में सभी भूत उससे अनन अथवा प्राणन करते हैं । ब्रह्म में इन तीनों का समावेश है, इसलिए ब्रह्म का निरूपण 'तज्जलान्' सूत्र से किया जाता है । तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म को सच्चिदानन्द ( सत् + चित् + आनन्द) माना गया है। उसी में सब पदार्थों का अस्तित्व है, समस्त चैतन्य का स्रोत भी वही है और आनन्द का उद्गम भी । ब्रह्म को 'सत्यं शिवम् आनन्दम्' भी कहा गया है । वास्तव में 'तज्जलान्' ब्रह्म का 'तटस्थ' लक्षण हैं, अर्थात् यहाँ ब्रह्म का विचार बाह्य जगत् की दृष्टि से किया गया Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ है । ब्रह्म का 'स्वरूप' लक्षण 'सच्चिदानन्द' है, जिसमें ब्रह्म का विचार उसके स्वरूप की दृष्टि से किया गया है। और भी कई दृष्टियों से ब्रह्म के ऊपर विचार हुआ है। तैत्तिरीय उपनिषद् (आनन्दवल्ली) में अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द को ब्रह्म के पाँच कोष बतलाया गया है । अन्नमय कोष ब्रह्म का सबसे स्थूल (भौतिक) आवरण है। प्राणमय इससे सूक्ष्म, मनोमय प्राणमय से भी सूक्ष्म, विज्ञानमय (बौद्धिक) मनोमय से तथा आनन्दमय कोष विज्ञानमय कोष से सूक्ष्म है । परवर्ती पूर्ववर्ती से सूक्ष्म और उसका आधार है। ब्रह्म आनन्दमय से भी सूक्ष्म और सबका आधार है। कुछ विद्वान् ब्रह्म को आनन्दमय मानते है, परन्तु वह वास्तव में केवल आनन्दमय न होकर 'आनन्दघन' है । ब्रह्म की दो अवस्थाएँ हैं(१) पर ब्रह्म और (२) अपर ब्रह्म । अपने शुद्ध रूप में ब्रह्म निर्गुण और निविशेष है । उसका निर्वचन नहीं हो सकता । इस रूप में वह पर ब्रह्म है। परन्तु जब ब्रह्म माया में प्रतिबिम्बित होता है तब वह सगुण हो जाता है। इसमें गुण आरोपित होते हैं। यह रूप अपर ब्रह्म का है। इसी को सगुण ब्रह्म, ईश्वर, भगवान् आदि कहते हैं। शाङ्कर वेदान्त में ब्रह्म को अद्वैत ही कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म को न एक कह सकते हैं और न अनेक । वह दोनों निर्वचनों से परे अर्थात् अद्वैत है। ब्रह्म का वास्तविक निरूपण निषेधात्मक है। इसीलिए उसको 'नेति-नेति' (ऐसा नहीं, ऐसा नहीं) कहते हैं। ब्रह्मसूत्र और उसके विभिन्न भाष्यों में औपनिषदिक वचनों को ही लेकर ब्रह्म की व्याख्या की गयी है। बादरायण ने उपनिषद् के 'तज्जलान्' को लेकर ब्रह्म का लक्षण 'जन्माद्यस्य यतः' कहा है (ब्रह्मसूत्र, १.१.२)। यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। इसका अर्थ है "जिससे जन्म आदि सृष्टि की प्रक्रियाएँ होती है वह ब्रह्म है। इसके अनुसार ब्रह्म से ही सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है, इसलिए वह विश्व का मूल कारण है । ब्रह्म सृष्टि में अन्तयाप्त है, इसलिए वह अन्तर्यामी है तथा सम्पूर्ण सृष्टि का नियमन करता है । अन्त में सृष्टि का विलय ब्रह्म में ही होता है, अतः वह समस्त विश्व का साध्य भी है । वही सब कुछ है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। उपनिषदों में इसलिए कहा गया है : 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:' आदि। इसमें सन्देह नहीं कि जगत् का प्रादुर्भाव ब्रह्म से हुआ है । परन्तु ब्रह्म और जगत् में क्या सम्बन्ध है इसको लेकर भाष्यकार आचार्यों में मतभेद है। सांख्यदर्शन प्रकृतिवादी होने से प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण मानता है । न्याय-वैशेषिक ईश्वरवादी हैं अतः वे प्रकृति को सृष्टि का उपादान और ईश्वर को उसका निमित्त कारण मानते हैं । किन्तु वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है । अतः सृष्टि का उपादान और निमित्त कारण दोनों वही है। इस मत को 'अभिन्न निमित्तोपादान कारणवाद' कहते हैं। ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है, इस पर वेदान्त के सभी सम्प्रदायों का प्रायः ऐकमत्य है। परन्तु ब्रह्म, जीव और जगत का जो आपाततः भेद दिखाई पड़ता है उसका क्या स्वरूप है, इस सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है। भेद तीन प्रकार के होते हैं-(१) स्वगत (२) सजातीय और (३) विजातीय । यदि ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई भिन्न सत्ता स्वीकार की जाय तो जगत् से ब्रह्म का विजातीय भेद हो जायेगा । यदि स्वयं ब्रह्म ही एक से अधिक हो तो ब्रह्म का जगत् से सजातीय भेद होगा। यदि ब्रह्म विराट् पुरुष है और सम्पूर्ण विविध विश्व उसमें समाविष्ट है तो ब्रह्म का जगत् के साथ स्वगत भेद है। सभी वेदान्ती सम्प्रदाय ब्रह्म में विजातीय और सजातीय भेद का प्रत्याख्यान करते हैं। किन्तु विशिष्टाद्वैत आदि कुछ सम्प्रदाय स्वगत-भेद मानते हैं । ब्रह्म को पुरुषोत्तम मानने वाले प्रायः सभी भक्तिसम्प्रदाय स्वगत-भेद स्वीकार करते हैं। किन्तु अद्वैतवादी शाङ्कर स्वगत-भेद भी स्वीकार नहीं करते । ब्रह्म में किसी प्रकार का भेद, गुण, विकार आदि मानने को वे तैयार नहीं। इसलिए उनका ब्रह्म केवल ध्यान और अनुभव का पात्र है। धर्म या उपासना को दृष्टि से स्वगत भेदयुक्त सगुण ब्रह्म का स्वरूप ही उपयोगी है । वही ईश्वर है और भक्तों का आराध्य है । वह सर्वगुणसन्दोह और भक्तों का प्रेमपात्र है। वही संसार में अवतरित और लोक के मङ्गल में प्रवृत्त होता है। अद्वैतवादियों के लिए माया (दृश्य प्रपञ्च) मिथ्या है, परन्तु भक्तों के लिए वह वास्तविक और भगवान् की शक्ति (योगमाया) है। आचार्यों ने तर्क के आधार पर भी ब्रह्मवाद का समर्थन करने का प्रयास किया है । शङ्कराचार्य ने ब्रहा के Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ब्रह्म एव इदं सर्वम्-ब्रह्मगुप्त अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए मुख्यतः तीन प्रमाण ब्रह्मकोर्तनतरङ्गिणी-सदाशिव ब्रह्मेन्द्र (भट्रोजि दीक्षित के दिये हैं : समकालीन) रचित एक ग्रन्थ, जो अभी तक अप्रका(अ) संसार के सभी कार्यों और वस्तुओं का कोई न शित है। कोई मूल कारण होता है, जिससे वे उत्पन्न होते है । इस ब्रह्मकचं व्रत-(१) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इसका अनुमूल कारण का कोई कारण नहीं होता । वह अनादि, अज, ष्ठान होता है। इसमें उपवास तथा पञ्चगव्य प्राशन का सनातन कारण ब्रह्म है। विधान है। पञ्चगव्य की पाँच वस्तुएँ हैं-गोमूत्र, गोमय, (आ) संसार के पदार्थों और कार्यों में एक शृङ्खला गोदधि, गोघत और गोदुग्ध । किन्तु ये पाँचों पदार्थ और व्यवस्था दिखाई पड़ती है। यह अचेतन प्रकृति से विभिन्न रंगों की गौओं से लेने चाहिए। दूसरे दिन देवों संभव नहीं । अतः इसका आदि कारण चेतन ब्रह्म है। तथा बाह्मणों की पूजा करनी चाहिए। पूजनोपरान्त (इ) ब्रह्म के सर्वदा सर्वत्र वर्तमान (प्रत्यगात्मा) होने आहार करने का विधान है। इससे समस्त पापों का क्षय के कारण सभी को अनुभव होता है कि 'मैं हूँ। होता है। ब्रह्म और जीवात्मा के सम्बन्ध पर भी भारतीय दर्शनों में प्रचुर विचार हुआ है। इस चर्चा का आधार है उप (२) चतुर्दशी को उपवास रखते हुए पूर्णिमा को पञ्चनिषद्वाक्य 'तत्त्वमसि' । आचार्य शङ्कर आदि अद्वैतवादी गव्य प्राशन, तदनन्तर हविष्यान्न का आहार करना चाहिए। इसका अर्थ करते हैं, 'तू (आत्मा) वह (ब्रह्म) है । अतः एक वर्ष तक प्रति मास इसका अनुष्ठान होता है । वे ब्रह्म और जीवात्मा का अभेद मानते हैं। आचार्य (३) मास में दो बार अर्थात् अमावस्या तथा पूर्णिमा रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी होने के कारण ब्रह्म और के क्रम से इसका पाक्षिक अनुष्ठान करना चाहिए। जीव के बीच विशिष्ट अभेद (ऐक्य) मानते हैं। उनके ब्रह्मगुप्त-ब्रह्मगुप्त गणित-ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य हो अनुसार जीव और ब्रह्म के बीच अङ्ग और अङ्गी का गये है। प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने इनको 'गणकचक्रसम्बन्ध है । द्वैतवादी आचार्य मध्व उपनिषद्वाक्य की चूडामणि' कहा है और इनके मूलांकों को अपने 'सिद्धान्तव्याख्या करते हैं, 'तू (आत्मा) उसका (ब्रह्म का) है' और शिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्वब्रह्म और जीव के बीच सनातन भेद मानते हैं । वे ब्रह्म । प्रसिद्ध हैं, 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्डखाद्यक' । को जीव का स्वामी एवं आराध्य मानते हैं । निम्बार्क के खलीफाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद अरबी भाषा अनुसार दोनों में भेदाभेद सम्बन्ध है, अर्थात् उपासना के में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द लिए जीव और ब्रह्म में भेद है परन्तु तत्वतः अभेद है। हिन्द' और 'अल् अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक वल्लभाचार्य के विशुद्धादत के अनुसार ब्रह्म और जीवात्मा ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्डमें आत्यन्तिक अभेद नहीं, क्योंकि जीव अणु होने से खाद्यक' का। ब्रह्मगुप्त का जन्म शक ५१८ (६५३ वि०) उत्पन्न और विकृत होता है । महाप्रभु चैतन्य के अनुसार में हुआ था और इन्होंने शक ५५० (६८५ वि०) में ब्रह्म और जीव के बीच अचिन्त्य भेदाभेद का सम्बन्ध है। 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' की रचना की । इन्होंने स्थान-स्थान ब्रह्म में अचिन्त्य (अनिर्वचनीय) शक्तियाँ हैं जो भेद और पर लिखा है कि आर्यभट, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की अभेद दोनों में साथ प्रकट होती है; केवल भेद अथवा गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता, इसलिए अभेद मानना युक्त नहीं। भगवान् में दोनों का समाहार वे त्याज्य हैं और 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य है । इन विचारधाराओं ने धार्मिक जीवन के विविध होता है, इसलिए यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता मार्गों को जन्म दिया है। है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' की रचना ग्रहों ब्रह्म एव इदं सर्वम् -'ब्रह्म हो यह सम्पूर्ण विश्व है।' यह । का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की उपनिषदों (दे० मुण्डक उपनिषद् २.१.११) का एक प्रमुख आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त ने अद्वैत वेदान्त की भूमिका अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी प्रस्तुत की। चाहिए । ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित-ज्योतिष की Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-ब्रह्मदत्त वेदान्ताचार्य ४५३ रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के कभी-कभी प्रौढ और वृद्ध लोग भी छात्रजीवन का विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा। निवहि समय-समय पर करते थे, जैसा कि आरुणि (बृ० ब्रह्मचर्य-मूल अर्थ है 'ब्रह्म (वेद अथवा ज्ञान) को प्राप्ति का उ० ६.१.६) की कथा से ज्ञात होता है। आचरण ।' इसका रूढ प्रयोग विद्यार्थीजीवन के अर्थ में ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ स्त्रीचिन्तन, दर्शन, स्पर्श होता है । आर्य जीवन के चार आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्य । आदि का सर्वथा त्याग है । इस प्रकार से ही पठन, भजन, है जो विद्यार्थी जीवन की अवस्था का द्योतक है । ऋग्वेद ध्यान की ओर मनोनिवेश सफल होता है ।। के अन्तिम मण्डल में इसके अर्थों पर विवेचन हुआ है। ब्रह्मचारी-आर्यों द्वारा पालित चार आश्रमों में से निःसन्देह विद्यार्थीजीवन का अभ्यास क्रमशः विकसित प्रथम आश्रमी, जो ब्रह्मचर्य के नियमों के साथ विद्याहोता गया एवं समय के साथ-साथ इसके आचार कड़े ध्ययन में निरत रहता था। विशेष विवरण के लिए दे० होते गये, किन्तु इसका विशद विवरण परवर्ती वैदिक 'ब्रह्मचर्य'। साहित्य में ही उपलब्ध होता है। ब्रह्मचारी की प्रशंसा में ब्रह्मज्ञानी--ब्रह्म को जानने वाला । आत्मा अथवा ब्रह्म का कथित अथर्ववेद (११.५) के एक सूक्त में इसके सभी पूर्ण ज्ञान जिसने प्राप्त कर लिया है वही ब्रह्मज्ञानी है । गुणों पर प्रकाश डाला गया है । आचार्य द्वारा कराये गये वह सभी बन्धनों से मुक्त, मोक्ष का अधिकारी होता है । उपनयन संस्कार द्वारा बटुक का नये जीवन में प्रवेश, ब्रह्मण्यतीर्थ-मध्व मतावलम्बी आचार्य व्यासराज स्वामी मृगचर्म धारण करना, केशों को बढ़ाना, समिधा संग्रह के गुरु । इनका काल सोलहवीं शताब्दी है। करना, भिक्षावृत्ति, अध्ययन एवं तपस्या आदि उसकी ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका-सदाशिवेन्द्र सरस्वती के ग्रन्थों में साधारण चर्या वणित है । ये सभी विषय परवर्ती साहित्य 'ब्रह्मसूत्रवृत्ति' बहुत प्रसिद्ध है । यह ब्रह्मसूत्रों की शाङ्करमें भी दृष्टिगत होते हैं। भाष्यानुसारिणी वृत्ति है। इसका अध्ययन कर लेने पर विद्यार्थी आचार्य के घर में रहता है (आचार्यकुल शाङ्कर भाष्य समझना सरल हो जाता है । इस वृत्ति का वासिनः, ऐ० ब्रा० १.२३,२; अन्तेवासिनः, वही ३.११,५); नाम 'ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका' है। भिक्षा मांगता है, यज्ञाग्नि की देखरेख करता है (छा० ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा-'भामती' व्याख्याकार आचार्य वाचउ० ४.१०.२) तथा घर की रक्षा करता है (शत० ब्रा० स्पति मिश्र (९वीं शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा ३.६२.१५)। उसका छात्रजीवनकाल बढ़ाया जा सकता सुरेश्वराचार्य कृत ब्रह्मसिद्धि की टीका है। था । साधारणतः यह काल बारह वर्षों का होता था जो ब्रह्मतर्कस्तव-अप्पय दीक्षित का शैवमत प्रतिपादक ग्रन्थ कभी-कभी बत्तीस वर्ष तक हो सकता था। छात्रजीवना 'ब्रह्मतर्कस्तव' वसन्ततिलका वृत्तों में रचा गया है। इसमें रम्भ के काल निश्चय में भी भिन्नता है। श्वेतकेतु १२ भगवान् शिव की महत्ता बतलायी गयी है । वर्ष की अवस्था में इसे आरम्भ कर १२ वर्ष तक अध्य- ब्रह्मदत्त चेकितानेय-चेकितान के वंशज, ब्रह्मदत्त चैकितायन करता रहा (छा० उ० ५.१.२) । गृह्यसूत्रों में कहा नेय को वृहदारण्यकोपनिषद् (१.३,२६) में आचार्य कहा गया है कि प्रथम तीनों वर्गों को ब्रह्मचर्य आश्रम में रहना गया है । जैमिनीयोपनिषद् (१.३८,१) में उनका उल्लेख चाहिए। किन्तु इसका पालन ब्राह्मणों के द्वारा विशेष कर, अभिप्रतारी नामक कुरु राजा द्वारा संरक्षित आचार्य के क्षत्रियों द्वारा उससे कम तथा वैश्यों द्वारा सबसे कम रूप में हुआ है। होता था। दूसरे और तीसरे वर्ण के लोग ब्रह्मचर्य ब्रह्मवत्त वेदान्ताचार्य-शङ्कराचार्य के पूर्व ब्रह्मदत्त नामक (विद्यार्थीजीवन) के एक अंश का ही पालन करते थे एक अतिप्रसिद्ध वेदान्ती हो गये हैं। सम्भव है वे भी और सभी विद्याओं का अध्ययन न कर केवल अपने वर्ण वेदान्तसूत्र के भाष्यकार रहे हों। ब्रह्मदत्त के विचार से के योग्य विद्याभ्यास करने के बाद ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश 'जीव अनित्य है, एकमात्र ब्रह्म ही नित्य पदार्थ है।' इस कर जाते थे । क्षत्रियकुमार विशेष कर युद्ध विद्या का ही मत को वेदान्तदेशिकाचार्य ने अपने 'तत्त्वमुक्ताकलाप' अध्ययन करते थे । राजकुमार युद्धविद्या, राजनीति, धर्म की टोका सर्वार्थसिद्धि (२.१६) में उद्धृत किया है। तथा अन्यान्य विद्याओं में भी पाण्डित्य प्राप्त करते थे। ब्रह्मदत्त कहते हैं-"जीव तथा जगत् दोनों ही ब्रह्म से Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मद्वादशी-ब्रह्मयामल उत्पन्न होकर ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं।" इनकी सामग्री पायी जाती है । इसमें २४५ अध्याय और १४००० दृष्टि से उपनिषदों का यथार्थ तात्पर्य 'तत्त्वमसि' इत्यादि श्लोक हैं। पुराण के पञ्चलक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, महावाक्यों में नहीं है, किन्तु 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' मन्वन्तर तथा वंशानुचरित इसमें पाये जाते हैं। इसमें इत्यादि नियोगवाक्यों में है। इनके मत से साधक की प्रथम सष्टि का वर्णन, तदनन्तर सूर्य और चन्द्रवंश का किसी अवस्था में कर्मों का त्याग नहीं हो सकता। संक्षिप्त परिचय है। इसके पश्चात पार्वती का आख्यान और शङ्कराचार्य ने बृहदारण्यक (१.४.७) के भाष्य में मार्कण्डेय की कथा के अनन्तर कृष्णकथा (अ० १८० ब्रह्मदत्त के मत का उल्लेख किया है। इस मत में अज्ञान -२१२) विस्तार से दी हुई है। मरणोत्तर अवस्था का की निवृत्ति भावनाजन्य ज्ञान से होती है । औपनिषद ज्ञान वर्णन अनेक अध्यायों में पाया जाता है। सूर्यपूजा और मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। ब्रह्मदत्त कहते हैं : 'यद्यपि सूर्यमहिमा का वर्णन भी हुआ है (अ० २८-३३)। दर्शन देह के अवस्थितिकाल में देवता का साक्षात्कार हो सकता शास्त्र का भी विवेचन है। सांख्यदर्शन की समीक्षा दस है तथापि उनके साथ मिलन तभी संभव है जब देह न अध्यायों (२३४-२४४) में पायी जाती है। किन्तु इस रहे । प्रारब्ध कर्म उपास्य के साथ उपासक के मिलने में पुराण का सांख्य सेश्वर सांख्य है और ज्ञान के साथ भक्ति प्रतिबन्धक है।' ब्रह्मदत्त ध्यानयोगवादी थे, वे जीवन्मुक्ति का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। इसके अन्त में नही मानते । शङ्कराचार्य के मत से मोक्ष दृष्टफल है। धर्म की महिमा निम्नांकित प्रकार से गायी गयी है : ब्रह्मदत्त के मत से यह अदृष्टफल है। धमे मतिर्भवतु वः पुरुषोत्तमानां ब्रह्मद्वादशी-पौष शुक्ल द्वादशी को ज्येष्ठा नक्षा होने पर स ह्येक एव परलोक गतस्य बन्धुः । इस व्रत का आरम्भ होता है। यह तिथिव्रत है, देवता अर्थाः स्त्रियश्च निपुर्णरपि सेव्यमाना विष्णु हैं । एक वर्ष तक प्रति मास भगवान् विष्णु की नैव प्रभावमुपयन्ति नच स्थिरत्वम् ।। पूजा तथा उस दिन उपवास रखना चाहिए । प्रति मास विभिन्न वस्तुओं, जैसे घी, चावल तथा जौ का होम होना _ (ब्रह्मपुराण, २५५-३५) चाहिए। ब्रह्मबन्धु-आचारहीन, निन्दनीय ब्राह्मण । इस शब्द का ब्रह्मनन्दी-प्राचीन काल के एक वेदान्ताचार्य । इनका मत अयोग्य अथवा नाममात्र का पुरोहित अर्थ ऐतरेय ब्रा० मधसूदन सरस्वती ने 'संक्षेपशारीरक' की टीका (३. (७.२७) तथा छान्दोग्य उ० (६.१.१) में किया गया है। २१७) में उद्धृत किया है । इससे अनुमान किया जाता 'राजन्यबन्धु' से इसका साम्य द्रष्टव्य है। स्मृतियों में भी है कि शायद ये भी अद्वैत वेदान्त के आचार्य रहे होंगे। 'ब्रह्मबन्धु' का प्रयोग हुआ है, जहाँ इसका अर्थ है 'वह प्राचीन वेदान्त साहित्य में ब्रह्मनन्दी 'छान्दोग्यवाक्यकार' । व्यक्ति जो नाम मात्र का ब्राह्मण है, जिसमें ब्राह्मण के अथवा केवल 'वाक्यकार' नाम से प्रसिद्ध थे। गुण नहीं हैं और जो ब्राह्मण का केवल भाई-बन्धु है।' ब्रह्मपदशक्तिवाद-स्वामी अनन्ताचार्य कृत एक ग्रन्थ । इसमें ब्रह्मबिन्दु उपनिषद्-योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद् । रामानुज सम्प्रदाय के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। इस वर्ग की सभी उपनिषदें छन्दोबद्ध हैं, जिनमें यह ब्रह्मपत्रस्नान-ब्रह्मपुत्र नदी में, जिसे ऊपर की ओर सबसे प्राचीन है तथा संन्यासवर्गीय मैत्रायणी की समकालौहित्य भी कहा जाता है, चैत्र शुक्ल अष्टमी को स्नान लीन है। करने से विशेष पुण्य होता है। इस स्नान से समस्त पापों ब्रह्ममीमांसा-उपनिषदों के ब्रह्म सम्बन्धी चिन्तन का विकास का नाश हो जाता है। जैसा कि विश्वास है, उस दिन वेदान्त दर्शन में हुआ है, जिसे उत्तरमीमांसा, ब्रह्म सम्बन्धी वेदान्त दर्शन में दशा है जिसे उनासीमा ना समस्त नदियों तथा समुद्र का भी जल ब्रह्मपुत्र में वर्तमान परवर्ती जिज्ञासा अथवा ब्रह्ममोमांसा भी कहते हैं। रहता है। ब्रह्मयामल तन्त्र-यामल का अर्थ जोड़ा (युग्म) है। ऐसे ब्रह्मपुराण---इस पुराण का दूसरा नाम आदि ब्राह्म है। कुछ तन्त्रों में मूल देवता के साथ साथ उसकी शक्ति का यह वैष्णव पुराण है और इसमें विष्णु के अवतारों की भी निरूपण है। आठ यामल तन्त्र हैं, इनमें ब्रह्मयामल भी प्रधानता है। इसमें पुराण का मूल रूप और प्राचीनतम एक है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मरम्भा-ब्रह्मविद्याविजय ४५५ ब्रह्मरम्भा-दक्षिण भारत के 'श्रीशैल' नामक पवित्र पर्वत तीन दिनों तक तिलों के साथ पूजन करना चाहिए । साथ पर यह शाक्त तीर्थ है। स्थानीय लेखों (स्थलमाहात्म्य) ही अग्नि का पूजन कर प्रतिमा को तिल सहित किसी के आधार पर यह मल्लिकार्जुन का बनवाया हुआ बताया सपत्नीक गृहस्थ को दान कर देना चाहिए। इस व्रत के जाता है। चतुर्थ शताब्दी ई० पू० में चन्द्रगुप्त मौर्य की आचरण से व्रती ब्रह्मलोक को प्राप्त कर जीवनमुक्त हो पुत्री इसके देवता के प्रति अत्यन्त भक्ति रखती थी, वह जाता है। नित्य मन्दिर में मल्लिका (मल्लिकापुष्प) चढ़ाती थी। (२) द्वितीया के दिन किसी वैदिक (ब्रह्मचारी) को एक लेख से यह भी ज्ञात होता है कि बौद्ध विद्वान् नागा भोजनादि खिलाकर सम्मान किया जाना चाहिए। ब्रह्मा र्जन ने भिक्षुओं तथा संन्यासियों को यहाँ रहने के लिए की प्रतिमा को कमलपत्र पर विराजमान करके गन्ध, अक्षत, आमंत्रित किया तथा सभी धार्मिक पुस्तकों का यहाँ संग्रह पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए। इसके बाद धी किया । बौद्धधर्म के अवसान पर यह आश्रम हिन्दू मन्दिर तथा समिधाओं से हवन करने का विधान है। में परिवतित हुआ तथा यहाँ शिव तथा उनका शक्ति ब्रह्मलक्षणनिरूपण-स्वामी अनन्ताचार्य (सोलहवीं शताब्दी) माधवी या 'ब्रह्मरम्भा' की उपासना आरम्भ हुई । दक्षिण द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें रामानुज सम्प्रदाय के मत भारत में यह एक मात्र मन्दिर है, जहाँ सभी जातियों का प्रतिपादन हुआ है। अथवा वर्गों के पुरुष तथा स्त्रियाँ पूजा में भाग ले ब्रह्मलोक-पुराणों में ब्रह्माण्ड को सात ऊपरी तथा सात सकते हैं। निचले लोकों में बँटा हुआ बताया गया है। इस प्रकार ब्रह्मराक्षस-दे० 'ब्राह्म पुरुष ।' कुल चौदह लोक हैं। सात ऊपरी लोकों में सत्यलोक ब्रह्मषिदेश-ब्रह्मर्षियों के निवास का देश । इसकी परि- अथवा ब्रह्मलोक सबसे ऊपर है। यहाँ के निवासियों की भाषा और महिमा मनुस्मृति (२.१९-२०) में इस प्रकार मृत्यु नहीं होती। यह अपने निचले तपोलोक से १२०० दी हुई है : लाख योजन ऊँचा है। कुरुक्षेत्रञ्च मत्स्याश्च पञ्चालाः शूरसेनकाः । ब्रह्मविद्या-यह छान्दोग्य उपनिषद् (७.१,२,४;२,१७,१) एष ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ।। तथा बृहदारण्यक उपनिषद् ( १.४,२० आदि ) में एक एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । प्रकार की विद्या बतायी गयी है जिसका अर्थ है 'ब्रह्म का स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ॥ ज्ञान' । प्रत्येक महान् धर्म के दो बड़े भाग देखे जाते हैं : [ कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पञ्चाल, शूरसेन मिलकर ब्रह्मर्षिदेश पहला आन्तरिक तथा दूसरा बाह्य । पहला आत्मा है तो दूसरा शरीर । पहले भाग में चरम सत्ता (ब्रह्म) का ज्ञान है, जो ब्रह्मावर्त के निकट है। इस देश में उत्पन्न ब्राह्मण के पास से पृथ्वी के सभी मानव अपना-अपना चरित्र तथा दूसरे में धार्मिक नियमों का पालन, क्रियाएँ तथा उत्सवादि क्रियाकलाप निहित होते हैं । धर्म के पहले भाग सीखते रहें। ] को हिन्दूधर्म में 'ब्रह्मविद्या' कहते हैं तथा इसके जानने यहाँ के आचार-विचार आदर्श माने जाते थे। वालों को 'ब्रह्मवादी' कहते हैं । ब्रह्मवादी-प्राचीन काल में इसका अर्थ 'वेद की व्याख्या ब्रह्मविद्या उपनिषद-योग विद्या सम्बन्धी एक उपनिषद् । करने वाला' था । ब्राह्मण ग्रन्थों में 'ब्रह्मविद्' ब्रह्म (परम यह छन्दोबद्ध है। स्पष्टतः यह परवर्ती उपनिषद है। तत्त्व) को जानने वाले को कहा गया है। आगे चलकर ब्रह्मविद्याभरण-१५वीं शताब्दी के एक वेदान्ताचार्य अद्वैताइसका अर्थ 'ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है ऐसा कहने वाला' नन्द ने शाङ्करभाष्य के आधार पर ब्रह्मविद्याभरण नामक हो गया । वेदान्तवृत्ति लिखी है। इसमें ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों ब्रह्मवत-(१) किसी भी पवित्र तथा उल्लेखनीय दिन में की व्याख्या है । साथ ही इसमें पाशुपत धर्म के आवश्यक इस व्रत का अनुष्ठान हो सकता है । यह प्रकीर्णक व्रत है। नियमों का भी वर्णन हुआ है। इसमें ब्रह्माण्ड (गोल) की सुवर्ण प्रतिमा का लगातार ब्रह्मविद्याविजय-वेदान्तशास्त्री दोहयाचार्य द्वारा रचित एक Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ब्रह्मविद्यासमाज-ब्रह्मसर ग्रन्थ । दोहयाचार्य रामानुज स्वामी के अनुयायी तथा अप्पय दीक्षित के समकालीन थे। ब्रह्मविद्यासमाज-ब्रह्मविद्यासमाज या 'थियोसोफिकल सोसाइटी' की स्थापक श्रीमती ब्लावात्स्की थीं। इसकी स्थापना 'आर्य समाज' के उदय के साथ ही १८८५ ई० के लगभग हुई । इसका मुख्य स्थान अद्यार (मद्रास) में रखा गया। ब्राह्मसमाज' की तरह इसमें एक मात्र ब्रह्म की उपासना आवश्यक न थी, और न जाति-पाति या मतिपूजा का खण्डन आवश्यक था। आर्य समाज की तरह इसने हिन्दु संस्कृति और वेदों को अपना आधार नहीं बनाया और न किसी मत का खण्डन किया । इसका एक मात्र उद्देश्य विश्वबन्धुत्व और साथ ही गुप्त आत्मशक्तियों का अनुसन्धान और सर्वधर्म समन्वय है। इसके उद्देश्यों में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, राष्ट्र, प्रजाति, वर्ग में किसी तरह का भेदभाव न रखकर विश्व में बन्धुत्व की स्थापना मुख्यतया अभीष्ट है। अतः इसमें सभी तरह के धर्म-मतों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित हुए। पुनर्जन्म, कर्मवाद, अवतारवाद जो हिन्दुत्व की विशेषताएँ थीं वे इसमें प्रारम्भ से ही सम्मिलित थीं। गुरु की उपासना तथा योगसाधना इसके रहस्यों में विशेष सन्निविष्ट हुई। तपस्या, जप, व्रत आदि का पालन भी इसमें आवश्यक माना गया। इस तरह इसकी आधारशिला हिन्दू संस्कृति पर प्रतिष्ठित थी । श्रीमती एनीवेसेण्ट आदि कई विदेशी सदस्य अपने को हिन्दू कहते थे, उनकी उत्तरक्रिया हिन्दुओं की तरह की जाती थी। इस सभा की शाखाएँ सारे विश्व में आज भी व्याप्त हैं। हिन्दू सदस्य इसमें सबसे अधिक हैं । पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से जिनके मन में सन्देह उत्पन्न हो गया था, परन्तु जो पुनर्जन्म, वर्णाश्रम विभाग आदि को ठीक मानते थे, और न ब्राह्म- समाजी हो सकते थे न आर्यसमाजी, ऐसे हिन्दुओं की एक भारी संख्या ने थियोसोफिकल सोसाइटी को अपनाया और उसमें अपनी सत्ता बिना खोये सम्मिलित हो गये । भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में यह संस्था अधिक लोकप्रिय और व्यापक है। ब्रह्मवेद अथर्ववेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया, इसलिए इसका नाम अथर्ववेद हो गया। यज्ञ के ऋत्विजों में से ब्रह्मा के लिए अथर्ववेद का उपयोग होता था, अतः इसको 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। ग्रिफिथ ने इसके अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में ब्रह्मवेद कहलाने के तीन कारण कहे हैं । पहले का उल्लेख पर हुआ है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र है, टोटके हैं, आशीर्वाद हैं और प्रार्थनाएँ हैं, जिनसे देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है। मनुष्य, भूत, प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता और नष्ट किया जा सकता है । इन प्रार्थनात्मिका स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा जाता था। इन्हीं का ज्ञानसमुच्चय होने से इसका नाम ब्रह्म वेद पड़ा। ब्रह्मवेद कहलाने की तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बतलाते हैं और धर्म पालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ ब्रह्मवेद अपने दार्शनिक सुक्तों द्वारा ब्रह्मज्ञान सिखाता है और मोक्ष के उपाय बतलाता है। इसी लिए अथर्ववेद को अध्यात्मविद्याप्रद उपनिषदें बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण-यह वैष्णव पुराण समझा जाता है। इसके आधे भाग में तीन खण्ड हैं, ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड और गणपतिखण्ड; और आधे से कुछ अधिक में कृष्णजन्मखण्ड का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध है। इसकी श्लोकसंख्या १८ हजार है। स्कन्दपुराण के अनुसार यह पुराण सूर्य भगवान् की महिमा का प्रतिपादन करता है । मत्स्यपुराण इसमें ब्रह्मा की मुख्यता की ओर संकेत करता है। परन्तु स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णु की ही महत्ता प्रतिपादित मिलती है। निर्णयसिन्धु में एक 'लघु ब्रह्मवैवर्तपुराण' का वर्णन है, परन्तु वह सम्प्रति कहीं नहीं पाया जाता । दाक्षिणात्य और गौडीय दो पाठ इस पुराण के मिलते हैं । आजकल अनेक छोटे-छोटे ग्रन्थ ब्रह्मवैवर्तपुराण के अन्तर्गत प्रसिद्ध हैं, जैसे अलंकारदानविधि, एकादशीमाहात्म्य, कृष्णस्तोत्र, गंगास्तोत्र, गणेशकवच, गर्भस्तुति, परशुराम प्रति शङ्करोपदेश, बकुलारण्य तथा ब्रह्मारण्य-माहात्म्य, मुक्तिक्षेत्रमाहात्म्य, राधा-उद्धवसंवाद, श्रावणद्वादशीव्रत, श्रीगोष्ठीमाहात्म्य, स्वामिशैलमाहात्म्य, काशी-केदारमाहात्म्य आदि । ब्रह्मसर-( समन्तपंचक तीर्थ ) कुरुक्षेत्र का भारतप्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ । ब्रह्मसर का विस्तृत सरोवर ( जो अब कूरुक्षेत्र सरोवर के नाम से साधारण जन में प्रसिद्ध है) १४४२ गज लंबा तथा ७०० गज चौड़ा है। इसके भीतर दो Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मसम्प्रदाय-ब्रह्मसूत्रभाष्य ४५७ द्वीप हैं जिनमें प्राचीन मन्दिर तथा ऐतिहासिक स्थान हैं। श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है। दूसरे छोटे द्वीप में गरुड़ सहित भगवान् विष्णु का मन्दिर है अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है। इसके प्रथम जो पुल द्वारा श्रवणनाथ मठ से मिला हुआ है । एक बड़ा पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का पुल बड़े द्वीप के मध्य से होकर दक्षिणी तट से उत्तरी तट परिहार किया गया है । द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति को मिलाता है । इस द्वीप में आमों के बगीचे, प्राचीन दोषारोपण किया गया है। तृतीय पाद में ब्रह्म से तत्वों मन्दिर तथा भवनों के भग्नावशेष है। चन्द्रकूप का अति की उत्पत्ति कही गयी है और चतुर्थ पाद में भूतविषयक प्राचीन स्थान है । पुराणों में वर्णन मिलता है कि महा- श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है। भारत काल के पहले ब्रह्मसर नामक सरोवर महाराज तृतीय अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें कुरु ने निर्मित कराया था। (वामनपुराण, अध्याय २२, जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के श्लोक १४)। बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश किया गया है। इस सरोवर के आस-पास कुछ आधुनिक भवनों का चतुर्थ अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव निर्माण हो गया है, जैसे कालीकमली वाले की धर्मशाला, की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारश्रवणनाथ की हवेली, गौडीय मठ, कुरुक्षेत्र जीर्णोद्धार तम्य पर विचार किया गया है। ब्रह्मसूत्र पर सभी वेदासोसाइटी ( जिसे गीताभवन कहते हैं ), गीतामन्दिर, न्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका व वृत्तियाँ गुरुद्वारा और गुरु नानक की स्मृति में और एक गुरुद्वारा लिखी हैं। इनमें गम्भीरता, प्राञ्जलता, सौष्ठव और बन गया है। प्रसाद गुणों की अधिकता के कारण शाङ्कर भाष्य सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मसम्प्रदाय-माध्व सम्प्रदाय का एक नाम । स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है । ब्रह्मसावित्रीव्रत-भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत ब्रह्मसूत्र का अणुभाष्य-शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाका अनुष्ठान होता है। व्रती को तीन दिन तक उपवास चार्य (१४७९-१५३१ ई०) ने इसकी रचना को । ब्रह्मसूत्र करना चाहिए। यदि ऐसा करने की सामर्थ्य न हो तो (वेदान्तसूत्र) के मूल पाठ की तुलनात्मक व्याख्या पर ही त्रयोदशी को अयाचित, चतुर्दशी को नक्त पद्धति तथा वल्लभ का विशेष बल है। अतः सूत्रों का घनिष्ठ अनुसारी पूर्णिमा को उपवास रखा जाय । सुवर्ण, रजत अथवा होने के कारण, कुछ लोगों के विचार से वल्लभ का भाष्य मृन्मयी ब्रह्मा तथा सावित्री की प्रतिमाएँ वनवाकर उनका 'अनुभाष्य' कहलाता है । वे स्वयं कहते हैं : पूजन किया जाय । पूर्णिमा की रात्रि को जागरण तथा सन्देहवारकं शास्त्रं बुद्धिदोषात्तद्भवः । उत्सव करना चाहिए । दूसरे दिन प्रातः सुवर्ण की दक्षिणा सहित प्रतिमाएँ दान में दे दी जायँ । दे० हेमाद्रि, २.२५८ विरुद्धशास्त्रसंभेदाद् अङ्गश्चाशक्यनिश्चयः ।। २७२ (भविष्योत्तर पुराण से)। यह वट-सावित्रीव्रत के तस्मात्सूत्रानुसारेण कर्तव्यः सर्वनिर्णयः । समान है । केवल तिथि तथा सावित्री की कथा हेमाद्रि में अन्यथा भ्रश्यते स्वार्थान्मध्यमश्च तथाविधैः ।। कुछ विस्तार से बतलायी गयी है । ___ (अणुभाष्य, चौखम्बा सं०, पृ० २०) ब्रह्मसिद्धि-वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्रदीपिका-महात्मा शङ्करानन्द (विद्यारण्यस्वामी के शिष्य सुरेश्वराचार्य (भूतपूर्व मण्डन मिथ) द्वारा रचित यह शिक्षागुरु) ने, जो १४वीं शताब्दी में विशिष्ट अद्वैतवादी ग्रन्थ अद्वैत वेदान्त मत का समर्थक है। विद्वान् हो गये हैं, शाङ्कर मत को पुष्ट और प्रचारित ब्रह्मसूत्र-वेदान्त शास्त्र अथवा उत्तर ( ब्रह्म) मीमांसा का करने के लिए ब्रह्मसूत्रदीपिका नामक ग्रन्थ की रचना आधार ग्रन्थ । इसके रचयिता बादरायण कहे जाते की। इसमें उन्होंने बड़ी सरल भाषा में शाङ्कर मतानुसार है । इनसे पहले भी वेदान्त के आचार्य हो गये हैं, सात ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। आचार्यों के नाम तो इस' ग्रन्थ में ही प्राप्त हैं। इसका ब्रह्मसूत्रभाष्य (अनेक)-शंकराचार्य के पश्चाद्भावी सभी विषय है बह्म का विचार । ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय का प्रमुख वैदिक सम्प्रदायाचार्यों ने अपने-अपने मतों के स्थापनाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध नार्थ ब्रह्मसूत्र पर भाष्यों की रचना की है। उनमें विशिष्टा ५८ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ब्रह्मसूत्रभाष्यवार्तिक-ब्रह्माण्डपुराण द्वैतवादी आचार्य रामानुज के भाष्य को 'श्रीभाष्य' कहते नाभिकमल से ब्रह्मा की स्वयं उत्पत्ति हुई, हैं । आचार्य मध्व ( आनन्दतीर्थ ) का द्वैतवादी भाष्य ___ 'स्वयंभू' कहलाते हैं। घोर तपस्या के पश्चात् इन्होंने है । कहा जाता है, विष्णुस्वामी ने भी एक भाष्य रचा ब्रह्माण्ड की सृष्टि की थी । वास्तव में सृष्टि ही ब्रह्मा का था, अब उसके स्थान पर वल्लभाचार्य का 'अणुभाष्य' प्रच- मुख्य कार्य है । सावित्री इनकी पत्नी, सरस्वती पुत्री और लित है। 'वेदान्तपारिजातसौरभ' नाम से द्वैताद्वैतवादी हंस वाहन है । ब्राह्म पुराणों में ब्रह्मा का स्वरूप विष्णु के आचार्य निम्बार्क का सूक्ष्म भाष्य है। भेदाभेद मत के अनु- सदृश ही निरूपित किया गया है। ये ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, सार भास्कराचार्य (९०० ई०) ने भी ब्रह्मसूत्र पर भाष्य अज, महान् तथा सम्पूर्ण प्राणियों के जन्मदाता और रचा है। बलदेव विद्याभूषण ने गौडीय (चैतन्य) सम्प्र- अन्तरात्मा बतलाये गये हैं। कार्य, कारण और चल, अचल दाय का अचिन्त्य भेदाभेदवादी भाष्य बनाया है। रामा- सभी इनके अन्तर्गत है । समस्त कला और विद्या इन्होंने ही नन्दी वैष्णव सम्प्रदाय के 'आनन्दभाष्य' और 'जानकी- प्रकट की हैं। ये त्रिगुणात्मिका माया से अतीत ब्रह्म हैं । भाष्य' भी अब प्रकाशित हो गये हैं। शैव सम्प्रदाय का ये हिरण्यगर्भ हैं और सारा ब्रह्माण्ड इन्हीं से निकला है। अनुसारी 'श्रीकण्ठभाष्य' मध्यकाल में निर्मित हो गया था। यद्यपि ब्राह्म पुराणों में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ये अग्रगण्य म० म० पं० प्रमथनाथ तर्कभूषण ने कुछ समय पूर्व और प्रथम बने रहे, किन्तु धार्मिक सम्प्रदायों की दृष्टि 'शक्तिभाष्य' की रचना की है। से इनका स्थान विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि से ब्रह्मसूत्रभाष्यवार्तिक---आचार्य शङ्कर के शिष्य सुरेश्वरा- गौण हो गया, इनका कोई पृथक् सम्प्रदाय नहीं बन चार्य द्वारा रचित इस ग्रन्थ में केवलाद्वैतवादी शाङ्करमत पाया । ब्रह्मा के मन्दिर भी थोड़े ही हैं। सबसे प्रसिद्ध का प्रतिपादन हुआ है। ब्रह्मा का तीर्थ अजमेर के पास पुष्कर है । वृद्ध पिता की तरह ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास-विशिष्टाद्वैतवादी विद्वान् दोद्दय देवपरिवार में इनका स्थान उपेक्षित होता गया। वैष्णव महाचार्य द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रभाष्योपन्यास १६वीं शताब्दी और शैव पुराणों में ब्रह्मा को गौण प्रदर्शित करने के का ग्रन्थ है। बहुधा प्रयत्न पाये जाते हैं । विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा ब्रह्मसूत्रवृत्ति-सदाशिवेन्द्र स्वामी के रचे गये ग्रन्थों में की उत्पत्ति स्वयं विष्णु के सामने इनकी गौणता की ब्रह्मसूत्रवृत्ति बहुत लोकप्रिय है। इसके अध्ययन के बाद द्योतक है। मार्कण्डेय पुराण के मधु-कैटभवध प्रसंग में शाङ्करभाष्य को समझना सरल हो जाता है । इसका अन्य विष्णु का उत्कर्ष और ब्रह्मा की विपन्नता दिखायी नाम 'ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका' है। गयी है । ब्रह्मा की पूजामूर्ति के निर्माण का वर्णन मत्स्यब्रह्महत्या-इसका उल्लेख यजुर्वेद संहिताओं तथा ब्राह्मणों में पुराण (२५९.४०-४४) में पाया जाता है। अत्यन्त घृणित पाप के रूप में हुआ है । हत्यारे को 'ब्रह्महा' ब्रह्माणो-शक्ति को सामान्य पूजा में जगन्माताओं (विभिन्न कहा गया है । स्मृतियों में भी 'ब्रह्महत्या' महापातकों में देवों की पत्नियों) की पूजा होती है। ये माताएँ आठ है, गिनायो गयी है और इसके प्रायश्चित्त का विस्तत विधान जो आठ देवों से सम्बन्धित हैं। इनको 'अष्ट मातृका' भी किया गया है। कहते हैं । ब्रह्माणी का सम्बन्ध ब्रह्मा से है। ब्रह्मा-सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव ब्रह्माण्ड उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से एक ब्रह्माण्ड की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, भी है। क्योंकि वे विश्व के आद्य सष्टा, प्रजापति, पितामह तथा ब्रह्माण्डपुराण-अठारह महापुराणों में इसकी गणना है । हिरण्यगर्भ है । दे० प्रजापति। पुराणों में जो ब्रह्मा का रूप इसकी संक्षिप्त विषयसुची नारदीय पुराण में पायी जाती वणित मिलता है वह वैदिक प्रजापति के रूप का विकास है। इसमें १२००० (बारह सहस्र) के लगभग श्लोक है । है । प्रजापति की समस्त वैदिक गाथाएँ ब्रह्मा पर आरो- इसके अन्तर्गत 'ललितोपाख्यान' भी माना जाता है । इसी पित कर ली गयी हैं। प्रजापति और उनकी दुहिता की पुराण का अंश प्रसिद्ध रामचरित्र अध्यात्मरामायण' कही कथा पुराणों में ब्रह्मा और सरस्वती के रूप में वर्णित हई जाती है, किन्तु मूल पुराण या उसकी सूची में इसकी है। पुराणों के अनुसार क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु के चर्चा नहीं है। रामायण की कथा अन्य पुराणों में भी Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मानन्द-ब्रह्मोपासना ४५९ मिलती है, परन्तु अध्यात्मरामायण में यह कथा विस्तार ब्रह्मावर्त-(१) आधुनिक हरियाना प्रदेशस्थ प्राचीनतम और दार्शनिक दृष्टिकोण से कही गयी है। निम्नांकित पवित्र भभाग, जिसका शाब्दिक अर्थ ब्रह्म (वेद) का आवर्त अन्य छोटे-छोटे ग्रन्थ भी इसी पुराण से निकले बताये (घूमने या प्रसरण का स्थान) है। मनुस्मृति (२.१७) के जाते हैं : अनुसार कुरुक्षेत्र के आस-पास सरस्वती और दृषद्वती अग्नीश्वर, अञ्जनाद्रि, अनन्तशयन, अर्जुनपुर, अष्ट नदियों के बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता है। मनु नेत्रस्थान, आदिपुर, आनन्दनिलय, ऋषिपञ्चमी, कठोर (२.१८) के अनुसार इस देश के आचार को ही सार्व देशिक आचरण के लिए आदर्श माना गया है। गिरि, कालहस्ति, कामाक्षीविलास, कार्तिक, काबेरी, कुम्भकोण, गोदावरी, गोपुरी, क्षीरसागर, गोमुखी, चम्प (२) कानपुर से उत्तर गङ्गातटवर्ती बिठूर नामक कारण्य, ज्ञानमण्डल, तजापुरी, तारकब्रह्ममन्त्र, तुङ्ग तीर्थ का समीपवर्ती क्षेत्र भी ब्रह्मावर्त कहलाता है। संभभद्रा, तुलसी, दक्षिणामूर्ति, देवदारुवन, नन्दगिरि, नरसिंह, वतः यह पौराणिक तीर्थ है। लक्ष्मीपूजा, वेङ्कटेश, शिवगङ्गा, काञ्चो, श्रीरङ्ग, के माहात्म्य ब्रह्मावाप्तिवत-किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तथा गणेशकवच, वेङ्कटेशकवच, हनुमत्कवच आदि । के दिन इस व्रत का प्रारम्भ होता है। यह तिथिव्रत है । ब्रह्मानन्द-आपस्तम्बसूत्र के अनेक भाष्यकारों में से एक । इस दिन उपवास रखते हुए दस देवों की, जिन्हें 'अङ्गिरा' माण्डूक्योपनिषद् के एक वत्तिकार का नाम भी ब्रह्मा- कहा जाता है, एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए। नन्द है। ब्रह्मोद्य-शतपथ आदि ब्राहाणों में इसका अर्थ 'धार्मिक ब्रह्मानन्द सरस्वती-उच्च ताकिकतापूर्ण अद्वैतसिद्धि ग्रन्थ पहेली' है, जो वैदिक क्रियाओं के विभिन्न आयोजनों का के टीकाकार । ये मधुसूदन सरस्वती के समकालीन थे । आवश्यक भाग होती थी । जैसे अश्वमेध अथवा दशरात्र माध्व मतावलम्बी व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने मधु के अवसर पर इसका आयोजन होता था। कौषीतकि सूदन सरस्वती से अद्वैतसिद्धि का अध्ययन कर फिर उन्हीं ब्राह्मण (२७.४ ) में इस शब्द का रूप 'ब्रह्मवद्य' के मत का खण्डन करने के लिए 'तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ तथा तै० सं० ( २.५,८,३,) में 'ब्रह्मवाद्य' है, और की रचना की थी। इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्दजी सम्भवतः इन तीनों का एक ही अर्थ है-ब्रह्म संबन्धी ने अद्वैतसिद्धि पर 'लघुचन्द्रिका' नाम की टीका लिखकर रहस्यात्मक चर्चा | तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया। इसमें इन्हें पूर्ण ब्रह्मोपनिषद्-(१) 'ब्रह्म' के सम्बन्ध में एक रहस्यपूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। इन्होंने रामाचार्य की सभी आप सिद्धान्त, जो छान्दोग्योपनिषद् (३.११.३) के एक संवाद त्तियों का बहुत सन्तोषजनक समाधान किया । संसार का का विषय है, ब्रह्मोपनिषद् कहलाता है। मिथ्यात्व, एकजीववाद, निर्गुणत्व, ब्रह्मानन्द, नित्य- (२) संन्यास मार्गी एक उपनिषद् । इसका प्रारंभिक निरतिशय आनन्दरूपता, मुक्तिवाद-इन सभी विषयों का भाग तो कम से कम उतना ही प्राचीन है जितनी मंत्राइन्होंने दार्शनिक समर्थन किया है। ये अद्वैतवाद के एक यणी, किन्तु उत्तरभाग आरुणेय, जाबाल, परमहंस उपप्रधान आचार्य माने जाते है। इनका स्थितिकाल १७वीं निषदों का समसामयिक है। शताब्दी है । इनके दीक्षागुरु परमानन्द सरस्वती थे और ब्रह्मोपासना-(१) ब्रह्म के सम्बन्ध में विचार अथवा विद्यागुरु नारायणतीर्थ । चिन्तन । उपनिषदों तथा परवर्ती वेदान्त ग्रन्थों में इसी (इस टीकावली के आधार पर द्वैत-अद्वैत वादों का उपासना पद्धति का विवेचन हुआ है। तार्किक शास्त्रार्थ या परस्पर खण्डन-मण्डन अब तक (२) ब्राह्मसमाज के द्वितीय उत्कर्ष काल में महर्षि चला आ रहा है, जो दार्शनिक प्रतिभा का एक मनोरञ्जन देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उपनिषदों की छानबीन कर उनके कुछ ही है।) अंश समाज की सेवासभाओं के लिए १८५० ई० में ग्रन्थ ब्रह्मामृतवर्षिणी-महात्मा रामानन्द सरस्वती ( १७वीं के रूप में प्रकाशित कराये। इस ग्रन्थ का नाम 'ब्राह्मधर्म' शताब्दी) द्वारा रचित ब्रह्मास्त्र की एक टीका। रखा गया। इसमें ब्राह्म सिद्धान्त के वीज या चार सिद्धान्त Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० वचनों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इसमें ब्रह्मपासना, सेवा का क्रम, उपनिषदों के कुछ उद्धरण और कुछ धार्मिक प्रन्थों के उदरणों के साथ अन्त में देवेन्द्रनाथ द्वारा ब्राहा सिद्धान्त को व्याख्या की गयी है। ब्रह्मोदन पतकर्म के अन्तर्गत वेदसंहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों के पारायण में भाग लेनेवाले पुरोहितों के निवेश के लिए उबाला हुआ चावल ( ओदन) ब्रह्मोदन कहलाता या । इसके पकाने की विशेष विधि थी । ब्राह्मण - ब्रह्म = वेद का पाठक अथवा ब्रह्म = परमात्मा का ज्ञाता । ऋग्वेद को अपेक्षा अन्य संहिताओं में यह साधारण प्रयोग का शब्द हो गया, जिसका अर्थ पुरोहित है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (१०.९०) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है। वैदिक ग्रन्थों में यह वर्ष अत्रियों से ऊँचा माना गया है राजसूय यज्ञ में ब्राह्मक्षत्रिय को कर देता था, किन्तु इससे शतपथ में ब्राह्मण की श्रेष्ठता न्यून नहीं होती । इस बात को बार-बार कहा गया है कि क्षत्रिय तथा ब्राह्मण की एकता से ही सर्वाङ्गीण उन्नति हो सकती है। यह स्वीकार किया गया है कि कतिपय राजन्य एवं धनसम्पन्न लोग ब्राह्मण को यदि कदाचित् दबाने में समर्थ हुए हैं, तो उनका सर्वनाश भी शीघ्र ही घटित हवा है। ब्राह्मण पृथ्वी के देवता ( भूसुर ) कहे गये हैं, जैसे कि स्वर्ग के देवता होते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण में ब्राह्मण को दान लेने वाला (आदायी तथा सोम पीने वाला ( आपायी ) कहा गया हैं । उसके दो अन्य विरुद 'आवसायी' तथा 'यथाकामप्रयाप्य' का अर्थ अस्पष्ट है । पहले का अर्थ सब स्थानों में रहने वाला तथा दूसरे का आनन्द से घूमने वाला हो सकता है ( ऐ० ७.२९, २) शतपथ ब्रा० में ब्राह्मण के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए उसके अधिकार इस प्रकार कहे गये हैं: ( १ ) अर्चा ( २ ) दान ( ३ ) अजेयता तथा ( ४ ) अवध्यता । उसके कर्तव्य हैं : ( ५ ) ब्राह्मण्य ( वंश की पवित्रता ) (६) प्रतिरूपचर्या कर्तव्य पालन ) तथा ( ७ ) लोकपक्ति (लोक को प्रबुद्ध करना) । ब्राह्मण स्वयं की ही संस्कृत करके विश्राम नहीं लेता था, अपितु दूसरों को भी अपने गुणों का दान आचार्य अथवा पुरोहित के रूप में करता था। आचार्यपद से ब्रह्मोदन ब्राह्मण ब्राह्मण का अपने पुत्र को अध्ययन तथा याज्ञिक क्रियाओं में निपुण करना एक विशेष कार्य था ( शत० ब्रा० १,६, २,४ ) । उपनिषद् ग्रन्थों में आरुणि एवं श्वेतकेतु ( बृ० उ० ६,१,१ ) तथा वरुण एवं भृगु का उदाहरण है ( श० ० ११,६,१,१) । आचार्य के अनेकों शिष्य होते थे तथा उन्हें वह धार्मिक तथा सामाजिक प्रेरणा से पढ़ाने को बाध्य होता था । उसे प्रत्येक ज्ञान अपने छात्रों पर प्रकट करना पड़ता था । इसी कारण कभी कभी छात्र आचार्य को अपने में परिवर्तित कर देते थे, अर्थात् आचार्य के समान पद प्राप्त कर लेते थे । अध्ययनकाल तथा शिक्षणप्रणाली का सूत्रों में विवरण प्राप्त होता है । कराता था । भी हो सक 1 पुरोहित के रूप में ब्राह्मण महायज्ञों को साधारण गृह्ययज्ञ बिना उसको सहायता के थे, किन्तु महत्वपूर्ण क्रियाएँ (श्रीत ) उसके बिना नहीं सम्पन्न होती थीं क्रियाओं के विधिवत् किये जाने पर जो धार्मिक लाभ होता था उसमें दक्षिणा के अतिरिक्त पुरोहित यजमान का साझेदार होता था । पुरोहित का स्थान साधारण धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक भी होता वा वह राजा के अन्य व्यक्तिगत कार्यों में भी उसका प्रतिनिधि होता था। राजनीति में उसका बड़ा हाथ रहने लगा था । स्मृतिग्रन्थों में ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य ( षट्कर्म ) बताये गये हैं— पठन-पाठन, यजनयाजन और दानप्रतिग्रह | इनमें पठन, यजन और दान सामान्य तथा पाठन, याजन तथा प्रतिग्रह विशेष कर्तव्य हैं । आपद्धर्म के रूप में अन्य व्यवसाय से भी ब्राह्मण निर्वाह कर सकता था, किन्तु स्मृतियों ने बहुत से प्रतिवन्ध लगाकर लोग और हिसावाले कार्य उसके लिए वर्जित कर रखे हैं । ब्राह्मणों का वर्गीकरण इस समय देशभेद के अनु सार ब्राह्मणों के दो बड़े विभाग हैं : पञ्चगौड और पञ्चदक्षिण पश्चिम में अफगानिस्तान का गोर देश, पञ्जाब, जिसमें कुरुक्षेत्र सम्मिलित है, गोंड़ा-बस्ती जनपद, प्रयाग के दक्षिण व आसपास का प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, ये पाँचों प्रदेश किसी न किसी समय पर गौड़ कहे जाते रहे हैं । इन्हीं पाँचों प्रदेशों के नाम पर सम्भवतः सामूहिक नाम 'पञ्च गौड़' पड़ा आदि गौड़ों का उद्गम कुरुक्षेत्र है । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मणग्रन्थ-ब्राह्मपुरुष इस प्रदेश के ब्राह्मण विशेषत: गौड़ कहलाये । कश्मीर ने अर्थवाद के तीन भेद बतलाये हैं : गुणवाद, अनुवाद और पंजाब के ब्राह्मण सारस्वत, कन्नौज के आस-पास और भूतार्थवाद । ब्राह्मणों के उपनिषद् भाग में ब्रह्मतत्त्व के ब्राह्मण कान्यकुब्ज, मिथिला के ब्राह्मण मैथिल तथा के विषय में विचार किया गया है । आख्यान भाग में उत्कल के ब्राह्मण उत्कल कहलाये। प्राचीन ऋषिवंशों, आचार्यवंशों और राजवंशों की कथाएँ नर्मदा के दक्षिणस्थ आन्ध्र, द्रविड़, कर्नाकट, महाराष्ट्र वर्णित हैं। और गर्जर, इन्हें 'पञ्च द्रविड' कहा गया है। वहाँ के प्रत्येक वैदिक सहिता के पृथक्-पृथक् ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध है । उपर्युक्त दसों के ऋग्वेद संहिता के दो ब्राह्मण हैं-ऐतरेय और कौषीतकि, अनेक अन्तविभाग हैं । ये सभी या तो स्थानों के नाम से यजुर्वेदसंहिता के भी दो ब्राह्मण है-कृष्ण यजुर्वेद का प्रसिद्ध हए, या वंश के किसी पूर्वपुरुष के नाम से प्रख्यात; तैत्तिरीय ब्राह्मण और शुक्ल यजुर्वेद का शतपथब्राह्मण । अथवा किसी विशेष पदवी, विद्या या गुण के कारण सामवेद की कौथमीय शाखा के ब्राह्मण ग्रन्थ चालीस नामधारी हए । बड़नगरा, विशनगरा, भटनागर, नागर, अध्यायों में विभक्त हैं, जो अध्यायसंख्याक्रम से पञ्चविंश माथुर, मूलगांवकर इत्यादि स्थानवाचक नाम हैं, वंश के ब्राह्मण ( ताण्ड्य ब्राह्मण ), षड्विंशब्राह्मण, अद्भुत पूर्व पुरुष के नाम, जैसे--सान्याल ( शाण्डिल्य ), ब्राह्मण और मन्त्र ब्राह्मण कहलाते हैं। सामवेद की नारद, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, काश्यप, गोभिल ये जैमिनीय शाखा के दो ब्राह्मणग्रन्थ हैं : जैमिनीय ब्राह्मण नाम वंश या गोत्र के सूचक हैं। पदवी के नाम, जैसे और जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण । इनको क्रमशः आर्षेय चक्रवर्ती, वन्द्योपाध्याय, मुख्योपाध्याय, भट्ट, फडनवीस, ब्राह्मण और छान्दोग्य ब्राह्मण भी कहते हैं । सामवेद कुलकर्णी, राजभट्ट, जोशी ( ज्योतिषी), देशपाण्डे की राणायनीय शाखा का कोई ब्राह्मण उपलब्ध नहीं इत्यादि । विद्या के नाम, जैसे चतुर्वेदी, त्रिवेदी, शास्त्री, है। अथर्ववेद की नौ शाखाएँ हैं, किन्तु एक ही ब्राह्मण पाण्डेय, पौराणिक, व्यास, द्विवेदी इत्यादि । कर्म या गुण उपलब्ध है-गोपथब्राह्मण । यह मुख्यतः दार्शनिक के नाम, जैसे दीक्षित, सनाढय, सुकुल, अधिकारी, ब्राह्मण है। वास्तव्य, याजक, याज्ञिक, नैगम, आचार्य, भट्टाचार्य ब्राह्मणसर्वस्व-वङ्गदेश के धर्मशास्त्री हलायुध भट्ट द्वारा इत्यादि । रचित एक ग्रन्थ । ब्राह्मण (ग्रन्थ)-ब्रह्म = यज्ञविधि के ज्ञापक ग्रन्थ । वैदिक ब्राह्मणप्राप्ति-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक इस व्रत साहित्य में संहिताओं के पश्चात् ब्राह्मणों का स्थान आता है। ये वेद-साहित्य के अभिन्न अङ्ग माने गये है। आपस्तम्ब के अनुष्ठान का विधान है। इसमें तिथिक्रम से चार देव; श्रौतसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र, बौधायनगृह्यसूत्र, कौशिकसूत्र इन्द्र, वरुण, बम तथा कुबेर की गन्ध-अक्षतादि से पूजा होती है, क्योंकि ये चारों भगवान् वासुदेव के ही चार आदि में ब्राह्मणों को वेद कहा गया है । वेदों का वह भाग जो विविध वैदिक यज्ञों के लिए वेदमन्त्रों के प्रयोग रूप हैं । इसमें हवन भी विहित है । जो वस्त्र इन चारों के नियमों, उनकी उत्पत्ति, विवरण, व्याख्या आदि करता दिन भगवान् को भेंट किये जायें वे क्रमशः रक्त, पीत, है और जिसमें स्थान-स्थान पर सुविस्तृत दृष्टान्तों के रूप कृष्ण तथा श्वेत वर्ण के हों। एक वर्ष तक यह व्रत चलता में परम्परागत कथाओं का समावेश रहता है, 'ब्राह्मण' है। व्रती इससे प्रलयकाल तक स्वर्ग का भोग करता है । कहलाता है। इनके विषय को चार भागों में बाँटा जा हेमाद्रि, २. ५००-५०१ के अनुसार यह चतुर्मूर्ति व्रत है। सकता है : (१) विधिभाग (२) अर्थवादभाग ( ३ ) ब्राह्मण्यावाप्ति-ज्येष्ठ पूर्णमासी को सपत्नीक ब्राह्मण को उपनिषद्भाग और (४) आख्यानभाग । भोजन कराकर वस्त्रादि प्रदान कर गन्धाक्षतादि से उसका विधिभाग में यज्ञों के विधान का वर्णन है। इसमें पूजन-सम्मान किया जाय । इससे व्रती सात जन्मों तक अर्थमीमांसा और शब्दों की निष्पत्ति भी बतायी गयी केवल ब्राह्मण के घर में ही जन्म लेता है। है। अर्थवाद में यज्ञों के माहात्म्य को समझाने के लिए ब्राह्मपुरुष-जो लोग अस्वाभाविक मृत्यु से मरते हैं, विशेष प्ररोचनात्मक विषयों का वर्णन है। मीमांसाकार जैमिनि कर जिनकी हत्या होती है, उनके प्रेतात्मा बदला लेने की Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ब्राह्मसमाज-ब्राह्मीप्रतिपदलाभवत भावना से तथा क्रोध से भरे रहते हैं । ऐसे प्रेतों के अनेक इतना विस्तृत कर दिया है कि उसके सदस्य मुसलमान और भेद है, इनमें एक जाति ब्राह्मण प्रेतों की है जिसे ईसाई भी हो सकते हैं । पादरियों द्वारा प्रचारित पाश्चात्य ब्रह्मराक्षस, ब्राह्मदैत्य, ब्राह्मपुरुष तथा प्रचलित भाषा में शिक्षा के फल से हिन्दू शिक्षित समाज जो अपनी संस्कृति 'ब्रह्म' कहते हैं। ये मारे गये ब्राह्मण होते हैं। दक्षिण और आचार-विचार से विचलित हो रहा था और जो भारत को मान्यतानुसार ब्राह्मपुरुष कंजूस ब्राह्मण शायद कभी-कभी पथभ्रष्ट होकर अपने पुरातन क्षेत्र से प्रेतात्मा को कहते हैं, जो अपने धन को बढ़ाने या एकत्र निकल कर विदेशी संस्कृति के क्षेत्र में बहक जाता था, करने के दुःख में मरा होता है । ऐसा दैत्य अपने घर में उसकी सामयिक रक्षा की गयी। ऐसा वर्ग बहुत उत्सुकताही चक्कर लगाता है तथा उस व्यक्ति पर आक्रमण कर पूर्वक ब्राह्मसमाज के अपने मनोनुकूल दल में सम्मिलित देता है जो उसका धन खर्च करता है, उसके वस्त्र पहनता हो गया । है या ऐसा काम करता है जो उसे पसन्द न हो। राजा राममोहन राय के बाद महर्षि देवेन्द्रनाथ ब्राह्मसमाज--नवशिक्षित लोगों की एक धार्मिक संस्था । ठाकुर ब्राह्मसमाज के नेता हुए ।ये कुछ अधिक परम्पराउपनिषदों में जिसकी चर्चा है उसी एक ब्रह्म (परमात्मा) वादी थे, इसलिए इनके अनुयायी अपने को 'आदिब्राह्म' की उपासना को अपना इष्ट रखकर राजा राममोहन राय कहते थे । केशवचन्द्र सेन ने इनको अधिक सुधारवादी ने कलकत्ता में ब्राह्मसमाज की स्थापना की। इसके अन्तर्गत और सरल बनाकर 'नव ब्राह्मसमाज' का रूप दिया । इनके बिना किसी नबी, पैगम्बर, देवदूत आचार्य या पुरोहित को समय (संवत् १८९५-१९४०) में ब्राह्मसमाज का प्रचार अपना मध्यस्थ माने, सीधे अकेले ईश्वर की उपासना अधिक व्यापक हो गया। देश में प्रार्थनासमाज आदि ही मनुष्य का कर्तव्य माना गया। ईसाई महात्मा ईसा को अनेक नामों से । इसकी स्थापना हुई और बड़ी संख्या में और मुसलमान मुहम्मद साहब को मध्यस्थ मानते हैं और हिन्दू लोग इसके अनुयायी हो गये। ब्राह्मसमाज की यही उनके धर्म की नींव है। इस बात में ब्राह्मसमाज स्थापना से राष्ट्ररक्षा के एक महान् उद्देश्य की पूर्ति हुई, उनसे आगे बढ़ गया । पुनर्जन्म का कोई प्रमाण न होने से अर्थात् राजा राममोहन राय की दूरदर्शिता ने बंगाल में जन्मान्तर का प्रश्न ही न छेड़ा गया। परमात्मा की हिन्दूसमाज की बहुत बड़ी रक्षा की और नवशिक्षित प्राप्ति के सिवा कोई परलोक नहीं माना गया । निदान, लोगों को विधर्मी होने से उसी प्रकार बचा लिया, जिस 'मुसलमान और ईसाइयों से कहीं अधिक सरल और तर्क- प्रकार आर्यसमाज ने पश्चिमोत्तर भारत में हिन्दुओं को संगत यह मत स्थापित हुआ। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर बचाया। सबमें ब्रह्म ही स्थित माना गया । मूर्तिपूजा और बहुदेव ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त अरब मुसलमान ज्योतिष विद्या के पूजा का निषेध हुआ । परन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म को सबमें लिए बहुलांश में भारत के ऋणी है । ७७१ ई० में भारत का स्थित जानकर अन्य सभी मतों को सहन किया गया । एक दूतमण्डल खलीफा के आदेश से बगदाद पहुँचाया गया। अपने मन्तव्यों में इस समाज ने वर्णाश्रम व्यवस्था, उसके एक विद्वान् सदस्य ने अरबों को 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' छत-छात, जात-पात, चौका आदि कुछ न रखा। जप, उनकी भाषा में सिखाया। यह ग्रन्थ संस्कृत में सन् ६१८ तप, होम, व्रत, उपवास आदि के नियम नहीं माने । ई० में महान् गणितज्योतिर्विद् ब्रह्मगुप्त द्वारा रचा गया श्राद्ध, प्रेतकर्म का झगड़ा ही नहीं रखा । उपनिषदों को था। इसे अरब लोग 'अलसिन्दहिन्द' कहते थे। इसी भी आधारग्रन्थ की तरह माना गया; प्रमाण की तरह के आधार पर इब्राहीम इब्न हबीब अल दुजारी ने 'जिज' नहीं। साथ ही संसार की जो सब बातें बुद्धिग्राह्य समझी (ज्योतिष सारणी) के सिद्धान्त निकाले । समकालीन याकूब गयीं, उनको लेने में ब्राह्मसमाज को कोई आपत्ति न इब्न तारिक ने भी इसी 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' के आधार थी । ब्राह्मसमाज कुरान, इजील, वेदादि सभी धर्मग्रन्थों पर 'तरकीब अल अफलाक' की रचना की। को समान सम्मान देता है और संसार के सभी अच्छे ब्राह्मीप्रतिपब्लाभवत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का धर्मशिक्षकों का समान समादर करता है। इस प्रकार आरम्भ होता है । इसमें उपवास का विधान है। इस दिन ब्राह्मसमाज ने हिन्दू संस्कृति की सीमाबद्ध मर्यादा को रंगीन चूर्ण से अष्टदल कमल बनाकर उस पर ब्रह्मा की Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ-भक्तलीलामृत प्रतिमा स्थापित करके उसका पूजन करना चाहिए । प्रथम भकत' लोग यदा-कदा शिष्यों के घर जाते हैं तथा उनसे चार दलों में पूर्व की ओर से ऋग्वेद तथा अन्य वेद; कुछ दक्षिणा या दण्ड वसूल करते हैं। यही इस सम्प्रदाय दक्षिण-पूर्व स्थल से मध्य बिन्दु वाले चार दलों पर वेद की जीविका होती है। (२) दुसाध नामक निम्न श्रेणी के अङ्ग, धर्मशास्त्र, पुराण तथा न्यायविस्तर की स्थापना की जाति उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में पायी जाती है । करनी चाहिए। प्रतिमास की प्रथम तिथि को वर्ष भर ये लोग राहु की पूजा करते हैं तथा बर्ष में एक बार राहु उपर्युक्त ग्रन्थों की पूजा की जाय । वर्ष के अन्त में गौ का की प्रसन्नता के लिए यज्ञ करते हैं। राहपूजा बीमारियों दान विहित है । इस आचरण से व्रती परम वैदिक विद्वान् से मुक्ति या किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए की जाती हो जाता है, यदि यह बारह वर्ष तक आचरण किया जाय है । इस यज्ञ के पुरोहित को 'भकत' कहते हैं, जो उनकी तो व्रती ब्रह्मलोक की प्राप्ति करता है। जाति का ही होता है । उसे 'चतिया' भी कहते हैं। भकतसेवा-असम प्रदेश के वैष्णवों में महात्मा हरिदास को उनके अनुयायी कृष्ण का अवतार मानते हैं, किन्तु इसके भ-व्यञ्जन वर्गों के पञ्चम वर्ग का चतुर्थ अक्षर । कामधेनु- साथ ही वे अन्य महात्मा शंकरदेव को भी विष्णु का तन्त्र में इसका स्वरूप निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है : अवतार मानते हैं । उनमें 'भकतसेवा' की प्रथा है जिसके भकारं शृणु चार्वङ्गि स्वयं परमकुण्डली। अनुसार ब्राह्मण अपने यजमानों अथवा शिष्यों से सब महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभम् ।। प्रकार का दान ग्रहण करते हैं। पञ्चप्राणमयं वर्ण पञ्चदेवमयं सदा ॥ भक्तमाल-विष्णुभक्तों का चरित्र वर्णन करने वाले तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम पाये जाते हैं : भाषा ग्रन्थों में भक्तमाल (वैष्णव भक्तों की माला) महत्त्वभः क्लिन्नो भ्रमरो भीमो विश्वमूतिनिशा भवम् । पूर्ण प्रामाणिक रचना है । यह साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है । द्विरण्डो भूषणो मूलं यज्ञसूत्रस्य वाचकः ॥ चारों सम्प्रदायों और उनकी शाखाओं की महान् विभूनक्षत्रं भ्रमणा दीप्तिर्वयो भूमिः पयोनभः । तियों के जीवन की झांकियां इसमें उदारतापूर्वक प्रस्तुत नाभिर्भद्रं महाबाहुविश्वमूर्तिविताण्डकः ॥ हुई हैं । इसके रचयिता संत नारायणदास उपनाम नाभाजी प्राणात्मा तापिनी बचा विश्वरूपी च चन्द्रिका । स्वयं रामानन्दी वैष्णव थे । ये जयपुर के तीर्थस्थल भीमसेनः सुधासेनः सुखो मायापुरं हरः ॥ गलताजी के महात्मा कवि अग्रदासजी के शिष्य थे और भक्त-भक्तिमार्ग के सिद्धान्तानुसार भक्त उसे कहते हैं। उन्हीं की आज्ञा से इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी। जिसने ईश्वर के भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित नाभाजी उस समय हुए थे, जब तुलसीदास जीवित थे, कर दिया हो । साधारण आत्माओं को चार भागों में प्रायः १५८५ तथा १६२३ ई० के मध्य । विभक्त किया गया है : (१) बद्ध, जो इस जीवन की सम- भक्तमाल व्रजभाषा के छप्पय छन्दों में रचित है, स्याओं से बँधा है। (२) मुमुक्षु, जिसमें मुक्ति की चेतना किन्तु बिना भाष्य के यह समझा नहीं जा सकता । इस पर जागृत हो, किन्तु उसके योग्य अभी नहीं है । (३) भक्त लगभग एक सौ तिलक (टीका) ग्रन्थ हैं। इनमें गौडीय अथवा केवली, जो मात्र ईश्वर की ही उपासना में लीन संत प्रियादासजी की पद्य टीका एवं अयोध्या के महात्मा हो, पवित्र हृदय का हो और जो भक्ति गुण के कारण रूपकलाजी की टीका प्रसिद्ध हैं । भक्तमाल में दो सौ मुक्ति के मार्ग पर चल रहा हो और (४) मुक्त, जो भग- भक्तों का चमत्कारपूर्ण जीवनचरित्र ३१६ छप्पय छन्दों वत्-पद को प्राप्त कर चुका हो । में वर्णित है । भक्तों का पूरा जीवनवृत्त इसमें नहीं दिया भकत-(१) संस्कृत शब्द भक्त का अपभ्रंश, जो अशिक्षित गया है, केवल उतना ही अंश है, जिससे भक्ति की महिमा ग्रामीण जनों में धार्मिक उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। प्रकट हो । यथा असम प्रदेश के गृहस्थ वैष्णवों का सम्बन्ध किसी न भक्तलीलामृत-भक्तिविषयक मराठी ग्रन्थों में महीपति किसी देवस्थान से होता है, जिसके गुसाई उनको धर्म- द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । शिक्षा दिया करते हैं । इन गुसाइयों को 'भकत' कहते हैं। उनके ग्रन्थों में से 'भक्तलीलामृत' की रचना १७७४ ई० Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '*** में हुई, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध है यह 'भक्तमाल' के ढंग की ही रचना है । भक्तविजय - महीपतिरचित मराठी भाषा का भक्तिविषयक ग्रन्थ । रचनाकाल १७६२ ई० है । भक्ति - भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ सेवा करना या भजना है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्टदेव के प्रति आसक्ति नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है; इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है । व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है । गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है । भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि में आनन्द का अनुभव सभी उपादान वेदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं । वैष्णवभक्ति की गंगोत्तरी विष्णुसूक्त ही है । ब्राह्मण साहित्य में कर्मकाण्ड के प्रसार के कारण भक्ति का स्वर कुछ मन्द पड़ जाता है, किन्तु उपनिषदों में उपासना की प्रधानता से निर्गुण भक्ति और कहीं-कहीं प्रतीकोपासना पुनः जागृत हो उठती है । छान्दोग्योपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् आदि में विष्णु, शिव, रुद्र, अच्युत, नारायण, सूर्य आदि की भक्ति और उपासना के पर्याप्त संकेत पाये जाते हैं । वैदिक भक्ति की पयस्विनी महाभारत काल तक आतेआते विस्तृत होने लगी वैष्णव भक्ति की भागवतधारा का विकास इसी काल में हुआ । यादवों की सात्वत शाखा में प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का उत्कर्ष हुआ । सात्वतों ने ही मथुरा-वृन्दावन से लेकर मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्णाटक होते हुए तमिल (वि) प्रदेश तक प्रवृत्तिमूलक, रागात्मक भागवत धर्म का प्रचार किया। अभी तक वैष्णव अथवा शैव भक्ति के उपास्य देवगण अथवा परमेश्वर ही थे महाभारत काल में वैष्णव भागवत धर्म को एक ऐतिहासिक उपास्य का आधार कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व में मिला । कृष्ण विष्णु के अवतार माने गये और धीरे-धीरे ब्रह्म से उनका तादात्म्य हो गया । इस प्रकार नर देणारी विष्णु की भक्ति जनसाधारण के - भक्तविजय भक्ति लिए सुलभ हो गयी। इससे पूर्व यह धर्म ऐकान्तिक, नाराणी, सात्वत आदि नामों से पुकारा जाता था । कृष्णवासुदेव भक्ति के उदय के पश्चात् यह भागवत धर्म कह लाने लगा । भागवत धर्म के इस रूप के उदय का काल लगभग १४०० ई० पू० है । तब से लेकर लगभग छठीसातवीं शताब्दी तक यह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। बीच में दीव-शाक्त सम्प्रदायों तथा शाङ्कर वेदान्त के प्रचार से भागवत धर्म का प्रचार कुछ मन्द पड़ गया । परन्तु पूर्व-मध्य युग में इसका पुनरुत्थान हुआ । भागवत धर्म का नवोदित रूप इसका प्रमाण है। रामानुज, मध्व आदि ने भागवत धर्म को और पल्लवित किया और आगे चलकर एकनाथ, रामानन्द, चैतन्य, वल्लभाचार्य आदि ने भक्तिमार्ग का जनसामान्य तक व्यापक प्रसार किया। मध्ययुग में सभी प्रदेशों के सन्त और भक्त कवियों ने भक्ति के सार्वजनिक प्रचार में प्रभूत योग दिया । मध्ययुग में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवतित हुए (१) श्रीसम्प्रदाय ( रामानुजाचार्य द्वारा प्रचलित ) (२) ब्रह्मसम्प्रदाय ( मध्वाचार्य द्वारा प्रचलित ) (३) रुद्रसम्प्रदाय (विष्णु स्वामी द्वारा प्रचलित) और (४) सनका - दिसम्प्रदाय (निम्बार्काचार्य द्वारा स्थापित ) । इन सभी सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसंन्यास का खण्डन कर भगवान् की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का इति हास भागवत पुराण के माहात्म्य में इस प्रकार दिया हुआ है : उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता । क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता ॥ तत्र धोरकलेर्योगात् पाखण्ड खण्डिताङ्गका । दुर्बलाई चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्यताम् ॥ वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी । जाताहं युवती सम्यक् प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम् ।। ( १.४८-५०) [ मैं वही ( जो मूलतः यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लायी गयी थी) द्रविड प्रदेश में ( रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति मार्ग-भक्तिरत्नावली महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण) हुआ । गुजरात में बृद्धा हो (७.५.२३-२४) में नवधा भक्ति का वर्णन है । उपर्युक्त गयी । वहाँ घोर कलिपुग (म्लेच्छ-आक्रमण) के सम्पर्क से छः में तीन-श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये पाखण्डों द्वारा खण्डित अङ्गवाली में दुर्बल होकर बहुत है। पाश्चरात्र संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवतधर्म चार दिनों तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो खण्डों में विभक्त है : (१) ज्ञानपाद ( दर्शन और धर्मगयी। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर विज्ञान ) (२) योगपाद (योगसिद्धान्त और अभ्यास) सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और सम्यक प्रकार से (३) क्रियापाद ( मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना) सुन्दर हो गयी हूँ। ] इसमें सन्देह नहीं कि मध्ययुगीन (४) चर्यापाद ( धार्मिक क्रियाएँ )। रागात्मिका भक्ति का उदय तमिल प्रदेश में हुआ। परन्तु भक्ति के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। उसके पूर्ण संस्कृत रूप का विकास भागवत धर्म के मूल इस पर सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीमद्भागवत पुराण । स्थल वृन्दावन में ही हुआ, जिसको दक्षिण के कई सन्त इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, भगवद्गीता, आचार्यों ने अपनी उपासनाभूमि बनाया । पाञ्चरात्रसंहिता, सात्वतसंहिता, शाण्डिल्यसूत्र, नारदीय भागवत धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं : सृष्टि के भक्तिसूत्र, नारदपञ्चरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्व संहिता; रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, उत्पादक एक मात्र भगवान् हैं। इनके अनेक नाम हैं, वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं। जिनमें विष्णु, नारायण, वासुदेव, जनार्दन आदि मुख्य हैं। वे अपनी योगमाया प्रकृति से समस्त जगत की उत्पत्ति भक्तिमार्ग-सगुण-साकार रूप में भगवान् का भजन-पूजन करते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, शिव आदि अन्य देवता प्रादुर्भुत करना। मोक्ष के तीन साधन हैं; ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग होते हैं । जीवात्मा उन्हों का अंश है, जिसको भगवान् का और भक्तिमार्ग । इन मार्गों में भगवद्गीता भक्तिमार्ग को सायुज्य अथवा तादात्म्य होने पर पूर्णता प्राप्त होती है। सर्वोत्तम कहती है । इसका सरल अर्थ यह है कि सच्चे समय-समय पर जब संसार पर संकट आता है तब भग- हृदय से संपादित भगवान् की भक्ति पुनर्जन्म से उसी वान् अवतार धारण कर उसे दूर करते हैं। उनके दस प्रकार मोक्ष दिलाती है, जैसे दार्शनिक ज्ञान एवं निष्कामप्रमुख अवतार है जिनमें राम और कृष्ण प्रधान हैं । महा- योग दिलाते है। गीता ( १२.६-७ ) में श्रीकृष्ण का भारत में भगवान् के चतुर्व्यह की कल्पना का विकास कथन है : “मुझ पर आश्रित होकर जो लोग सम्पूर्ण कर्मों हुआ । वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध चार तत्त्व को मेरे अपर्ण करते हुए मुझ परमेश्वर को ही अनन्य भाव चतुव्यूह हैं, जिनकी उपासना भक्त क्रमशः करता है । वह के साथ ध्यानयोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव में क्रमशः उत्तरो- मुझमें चित्त लगाने वाले ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मत्य तर लीन होता है, परन्तु वासुदेव नहीं बनता; उन्हीं का रूप संसार-सागर से उद्धार कर देता हूँ।" अंश होने के नाते उनके सायुज्य में सुख मानता है । बहुत से अनन्य प्रेमी भक्तिमार्गी शुष्क मोक्ष चाहते ही निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि और उससे भाव की शुद्धि नहीं। वे भक्ति करते रहने को मोक्ष से बढ़कर मानते हैं। होती है । भक्ति ही एक मात्र मोक्ष का साधन है। भग- उनके अनुसार परम मोक्ष के समान परा भक्ति स्वयं फलवान् के सम्मुख पूर्ण प्रपत्ति ही मोक्ष है । रूपा है, वह किसी दूसरे फल का साधन नहीं करती है। भागवत उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र भक्तिरत्नाकर-अठारहवीं शती के प्रारम्भ में नरहरि चक्र वर्ती ने चैतन्य सम्प्रदाय का इतिहास लिखा था, जिसका के शाङ्कर भाष्य (२.४२) में पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से नाम भक्तिरत्नाकर है। उपासना करते हुए भक्त भगवान को प्राप्त करता है। भक्तिरनामृतसिन्धु-चैतन्य सम्प्रदाय के विख्यात आचार्य 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति बतलायी गयी है- रूप गोस्वामा ( १६वीं शता) द्वारा राचत इस ग्रन्थ में (१) स्मरण (२) कीर्तन (३) वन्दन (४) पादसेवन (५) संस्कृत भाषा में भगवान् की स्तुतियों का संग्रह है। अर्चन और (६) आत्मनिवेदन । भागवत पुराण भक्तिरत्नावली-यह माध्व संप्रदाय का ग्रन्थ है । रचना Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ भक्तिरत्नाजलि-भगवद्गीता काल १५वीं शती है। इसके रचयिता विष्णुपुरी हुआ है। आगे चलकर परमात्मा के ऐश्वर्य अर्थ में महात्मा हैं। इसका विलय हो गया और परमात्मा को 'भगवान्' कहा भक्तिरत्नाञ्जलि-द्वैताद्वैत वैष्णव मत के विद्वान् लेखक जाने लगा। देवाचार्य द्वारा रचित यह ग्रन्थ निम्बार्कीय सिद्धान्त तथा भगत-वनवासी जाति में उग्र स्वभाव के देवों को शान्त भक्ति का प्रतिपादन और शाङ्कर मत का खण्डन करने व पूजा करने का कार्य जो करता है, उसे भगत करता है। (सं०-भक्त) कहते हैं। भगतों की प्रतिष्ठा के कारण है भक्तिरसामृतसिन्धु-चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी समय-समय पर इनमें देवी का आवेश, उसके प्रभाव से द्वारा रचित 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में भक्ति की व्याख्या, बड़बड़ाने तथा हिलने, मुँह से गाज निकालने, कच्चा उत्कृष्टता तथा वैष्णवमत की साधना का सर्वांगीण विचार मांस खाने तथा भूत-भविष्य की बातों का बखान करना । किया गया है। इस ग्रन्थ की टीका जीव गोस्वामी ने गृहदेवों की स्थापना, पारिवारिक तथा कौटुम्बिक धार्मिक लिखी है। रूप और जीव दोनों महात्मा चाचा-भतीजे, कृत्यों का प्रतिपादन, फसल की वृद्धि करना, बीमारों को परम संत और उच्च कोटि के ग्रन्थकार थे। अच्छा करना आदि भगत के काम है । भक्तिरसायन-(१) मधुसूदन सरस्वती (अद्वैत सम्प्रदाय भगवत्-इसका शाब्दिक अर्थ है 'भग (छः प्रकार के ऐश्वर्य) के दिग्गज विद्वान्) द्वारा लिखित यह ग्रन्थ भक्ति सम्बन्धी से युक्त'। यह ईश्वर का एक विशेषण है। पुरुषवाचक लक्षणग्रन्थ है। इससे उनकी भगवद्रसज्ञता और भावुकता अर्थ में यह 'भगवान्' बोला जाता है और स्त्रीवाचक का परिचय मिलता है। अर्थ में भगवती (देवी)। (२) कन्नड़ भाषा में महात्मा सहजानन्द द्वारा भगवती–देवी मात्र: 'भगवान' की शक्ति अथवा पत्नी। भक्तिरसायन नामक ग्रन्थ रचा गया है, जो शैव संप्रदाय । उमा का एक नाम भगवती भी है। विषयक है। भगवद्गीता-महाभारत के दार्शनिक और परमोच्च ज्ञान भक्तिवाद-मोक्ष के तीन साधनों (कर्म, ज्ञान तथा भक्ति) सम्बन्धी अंशों में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा अति प्रसिद्ध भगमें से यह तीसरा साधन है। यह सबसे सहज साधन है।। वद्गीता है। भीष्मपर्व में यह उद्धृत है। इसके रचनादे० 'भक्तिमार्ग'। काल को लेकर नव शिक्षाधारियों में बड़ा मतभेद है। भक्तिसागर-महात्मा चरणदासजी द्वारा रचित एक इसमें स्वयं कहा गया है कि यह कुरुक्षेत्र में महाभारत ग्रन्थ । युद्धारम्भ के ठीक पहले कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद भक्तिसिद्धान्त-जीव गोस्वामी द्वारा रचित ग्रन्थ । के रूप में उच्चरित हुई थी। यही विश्वास हिन्दुओं में भग-द्वादश आदित्य देवताओं में से एक। इस शब्द का आज तक प्रचलित है। न्यायाधीश तैलङ्ग और भण्डारसाधारण अर्थ है 'देने वाला', 'बाँटने वाला'। ऋग्वेद में कर के विचार से यह ईसा पू० चौथी शताब्दी में रची इस देवता की विधर्ता, विभक्ता, भगवान् इत्यादि उपा गयी। किन्तु आधुनिक विद्वान् इसे ई० की प्रथम या धियाँ पायी जाती हैं । वास्तव में यह समृद्धि और ऐश्वर्य दूसरी शताब्दी को रचना बताते हैं । गीता का प्रायः सात का देवता है। वरुण के साथ ही इसका उल्लेख पाया सौ श्लोकों वाला वर्तमान आकार सम्भवतः पीछे स्थिर जाता है । उषा भग की बहिन (भगिनी) है, जो स्वयं हुआ, किन्तु मूल उपदेश रूप में यह महाभारतजागृति और समृद्धि की देवी है। यास्क (निरुक्त, कालीन ही है। गीता भारतीय धर्म पर अतुल प्रभाव १२.१३) के अनुसार भग सूर्य का वह रूप है जो पूर्वाह्न डालने वाला ग्रन्थ है। यहाँ ऐसी कोई भी रचना नहीं है की अध्यक्षता करता है। प्राचीन ईरानी भाषा में भग जो हिन्दूविचारकों के द्वारा इतनी प्रशंसित हो जितनी (बघ) 'अहुरमज्द' का एक विशेषण है। स्लोवानिक गीता है। इसकी अनेक पाश्चात्य विचारकों तथा विद्वानों (यूरोपीय आर्य) भाषा में ईश्वर का एक नाम भग (बोगु) ने भी उच्च प्रशंसा की है। विश्व की सभी भाषाओं में है। इस देवता का व्यक्तित्व स्पष्ट और विकसित नहीं इसके असंख्य संस्करण अनुवाद के रूप में प्रकाशित हैं। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवविषयम्-भजन ४६७ जो क्रान्तिकारी विचार गीता उपस्थित करती है वह भारतीय और कतिपय विदेशी भाषाओं में विशाल साहित्य यह है कि अन्य सम्प्रदाय केवल उन्हीं लोगों को मोक्ष का की रचना हुई है। आश्वासन देते हैं जो गृहस्थी (सांसारिकता) का त्याग कर भगवदविषयम-यह नम्भ आलवार के 'तिरुवोपमोलि' नामक संन्यास ग्रहण कर लेते हैं, जब कि गीता उन सभी स्त्री ग्रन्थ पर किसी अज्ञात लेखक द्वारा तमिल भाषा में रचित पुरुषों को मोक्ष का आश्वासन देती है जो गृहस्थ हैं, एक भाष्य है। ए. गोविन्दाचार्य ने इसके कुछ अंशों का सांसारिक कर्मों में तल्लीन हैं। उपर्युक्त विचार ने ही इस अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ को लोकप्रिय बना दिया है। यह साधारण लोगों भगवद्भावक-छान्दोग्य तथा केन उपनिषदों के अनेकाकी उपनिषद् है। नेक टीकाकारों में से भगवद्भावक भी एक हैं। गीता में मोक्ष के तीन साधन कहे गये हैं। पहला भातिन भगतानी-नाचने गाने वाली एक जाति की ज्ञान मार्ग, जो उपनिषदों में, सांख्य दर्शन में तथा और लड़कियों को ब्यङ्गयात्मक भाषा में भगतिन या भगतानी भी स्पष्ट रूप में बौद्ध व जैन दर्शनों में चर्चित है। (भक्त की पत्नी) कहते हैं। इस जाति की लड़कियाँ इस दूसरा है कर्म मार्ग । यह हिन्दू धर्म का सबसे प्राचीन रूप पेशे में प्रवेश के पूर्व नाम मात्र के लिए किसी बूढ़े संन्यासी है-अपने कर्तव्यों का पालन, जिसे संक्षेप में 'धर्म' कहते से विवाह कर लेती है, जो अपनी इस पत्नी को सभी हैं । आरम्भ में ऐसे धर्मों या कर्तव्यों में यज्ञों का महत्त्व प्रकार के सम्बन्धों की छूट देने के लिए डेढ़ दो रुपया दक्षिणा था, किन्तु जाति, अवस्था, परिवार व सामाजिक कर्तव्य प्राप्त कर लेता है। कभी-कभी ऐसे वर के अभाव में उन भी इसमें सम्मिलित थे। गीता का कर्मसिद्धान्त, जिसे स्त्रियों का विवाह गणेश या किसी भी देवता की प्रतिमा कर्मयोग कहते हैं, यह है कि धर्मग्रन्थों में वर्णित कर्म के साथ कर देते हैं। विवाह के बिना इस पेशे में प्रवेश का प्रतिपादन केवल क्षणिक सुख या स्वर्ग ही दिला । करना वे पाप समझती है। सकता है, जबकि निष्काम भाव से किये जाने से यही भगववाराधन क्रम-आचार्य रामानुज द्वारा रचित एक कर्मसम्पादन मोक्ष दिला सकता है। तीसरा मार्ग भक्ति ग्रन्थ । मार्ग है । सम्पूर्ण चित्तवृत्ति से परमात्मा का प्रेमपूर्वक भगवान्-परमेश्वर का एक गुणवाचक नाम । भगवान्, भजन-पूजन करना मोक्ष का साजन है। परमेश्वर, ईश्वर, नारायण, राम, कृष्ण, ये सभी पर्याययह महत्त्वपूर्ण है कि गीता सभी उपासकों को धर्म वाची शब्द माने जाते हैं, जो विष्णु की कोटि के हैं । शास्त्रों द्वारा अनुमोदित हिन्दू धर्म के पालन करने का भग' (छः विशेषताओं) से यक्त होने के कारण परमेश्वर आदेश करती है; जातिधर्म, परिवारधर्म, पितृपूजा के को भगवान कहते हैं। वे हैं जगत् का समस्त ऐश्वर्य पालन का आदेश देती है। गीता वर्णव्यवस्था की विरोधी (सामर्थ्य), समस्त धर्म, समस्त यश, समस्त शोभा, समस्त नहीं, जैसी कि कुछ लोगों की धारणा है । किन्तु यह गुण ज्ञान और समस्त वैराग्य (निर्गुण-निर्लेप स्थिति)। और स्वभाव के आधार पर उसका अनुमोदन करती है। ह। भङ्ग-मदकारक पौधा, जिसकी पत्तियाँ पीसकर पी जाती भी इस प्रकार गीता ने हिन्दू धर्म के सभी महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों हैं । भङ्ग का उल्लेख अथर्ववेद (११.६,१५) में भी हुआ की परिभाषा प्रस्तुत की और उनका परिष्कार किया है। ऋग्वेद (९.६१, १३) में भङ्ग सोमलता का विरुद है; उसके समय तक जीवन में जो अन्तविरोध उत्पन्न हो है; सम्भवतः अपनी मादकता के कारण । कुछ विद्वान् गये थे उनका परिहार करके समुच्चय और समन्वय का भङ्ग और सोम का अभेद मानते हैं। मार्ग प्रशस्त किया है। भजन-इसका शाब्दिक अर्थ है 'ईश्वर की उपासना करना गीता पर मध्य काल के प्रायः सभी आचार्यों ने भाष्य या उसको प्राप्त होना।' प्रचलित प्रकार के धार्मिक गीतों और टीकाएँ लिखी हैं। इनमें 'शाङ्करभाष्य, रामानुज- के लिए कीर्तन तथा भजन नाम आता है। 'भजन' कीर्तन भाष्य, मधुसूदनी टीका, लोकमान्य तिलक का गीता- तथा कथन से रूप तथा प्रणाली में भिन्न, लय, राग रहस्य, ज्ञानेश्वरी आदि बहुत प्रसिद्ध है। गीता के ऊपर एवं तुकबन्द होते है। ये भक्तिविषयक किसी विषय से Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ भट्ट (कुमारिल)-भद्रकालीन संबन्धित रहते हैं। उत्तर भारत में सूर, तुलसी, कबीर व्यापार है। इनके अतिरिक्त उन्होंने 'तत्त्वकौस्तुभ' और तथा मोरा के भजन अधिक प्रचलित हैं। 'वेदान्ततत्त्वविवेक टीकाविवरण' नामक दो वेदान्त भट्ट (कुमारिल)-दे० 'कुमारिल' । ग्रन्थ भी रचे थे। इनमें से केवल तत्त्वकौस्तुभ प्रकाशित भट्ट (दिनकर)-कर्ममीमांसा के १७वीं शताब्दी में उत्पन्न हुआ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन किया गया है। कहा एक आचार्य । इन्होंने पार्थसारयि मिश्र की शास्त्रदीपिका जाता है कि शेष कृष्ण दीक्षित से अध्ययन के नाते मानसपर 'भाद्र दिनकर' नामक भाष्य रचा है। कार तुलसीदासजी इनके गुरुभाई थे। भट्टोजि शुष्क भट (नीलकण्ठ)-(१) १५वीं या १६वीं शताब्दी में वैयाकरण के साथ ही सरस भगवद्भक्त भी थे । व्याकरण उत्पन्न, शाक्त मत के आचार्य । इन्होंने 'देवी भागवत के सहस्रों उदाहरण इन्होंने राम-कृष्णचरित्र से ही निर्मित उपपुराण' के ऊपर तिलक नामक व्याख्या रची है । (२) किये हैं। 'मयूख' नामक धर्मशास्त्र निबन्ध के प्रसिद्ध रचयिता। भद्र आगम--यह एक शैव आगम है । दे० 'नीलकण्ठ भट्ट' । भद्रकालो-काली के सौम्य या वत्सल रूप को राख्या या भट्ट (भास्कर मिश्र)-स्मार्त साहित्य के निपुण लेखक ___भद्रकाली कहते हैं, जो प्रत्येक बंगाली गाँव की रक्षिका भट्ट भास्कर मिश्र के कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता, होती है । महामारी आरम्भ होने पर इसके सम्मुख प्रार्थना आरण्यक एवं उपनिषदों पर रचे गये भाष्य वैदिक साहित्य व यज्ञ किये जाते हैं । काली को उदार रूप में सभी जीवों के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। भट्टजी तेलुगु प्रदेश के रहने वाले की माता, अन्न देने वाली, मनुष्य व जन्तुओं में उत्पादन थे तथा तैत्तिरीय संहिना की आत्रेय शाखा के अनुयायी शक्ति उत्पन्न करने वाली मानते हैं । इसकी पूजा फल-फूल, थे। इस संहिता का भाष्य इन्होंने ११८८ ई० में दुग्ध, पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले पदार्थों से ही की जाती रचा था। है । इसकी पूजा में पशुबलि निषिद्ध है। भट्टोजिदीक्षित-चतुर्मुखी प्रतिभाशाली सुप्रसिद्ध वैयाकरण । भद्रकालीनवमी-चैत्र शुक्ल नवमी को इस व्रत का अनुइनकी रची हुई सिद्धान्तकौमुदी, प्रौढमनोरमा, शब्द- __ष्ठान होता है । इसमें उपवास तथा पुष्पादिक से भद्रकाली कौस्तुभ आदि कृतियाँ दिगन्तव्यापिनी कीतिकौमुदी का देवी की पूजा का विधान है। विकल्प से समस्त मासों की विस्तार करने वाली हैं। वेदान्त शास्त्र में ये आचार्य नवमियों को भद्रकाली देवी की पूजा होनी चाहिए। दे० अप्पय दीक्षित के शिष्य थे। इनके व्याकरण के गुरु नीलमतपुराण, ६३, श्लोक ७६२-६३ । 'प्रक्रियाप्रकाशकार शेष कृष्ण दीक्षित थे । भट्रोजिदीक्षित भद्रकालीपूजा-राजा-महाराजाओं के शान्तिक-पौष्टिक कर्मों की प्रतिभा असाधारण थी। इन्होंने वेदान्त के साथ ही के लिए 'राजनीतिप्रकाश' में इस पूजा के लिए अनुरोध धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना आदि पर भी मर्मस्पर्शी किया गया है। इसका विधान ठीक उसी प्रकार है जैसा ग्रन्थ रचना की है। एक बार शास्त्रार्थ के समय उन्होंने भद्रकालीव्रत में कहा गया है। पण्डितराज जगन्नाथ को म्लेच्छ कह दिया था। इससे भद्रकाली व्रत-(१) कार्तिक शुक्ल नवमी को इस व्रत का पण्डितराज का इनके प्रति स्थायी वैमनस्य हो गया और आरम्भ होता है। उस दिन उपवास रखा जाता है। उन्होंने 'मनोरमा' का खण्डन करने के लिए 'मनोरमा- इसकी भद्रकाली (अथवा भवानी) देवी हैं। एक वर्ष तक कुचमर्दिनी' नामक टीकाग्रन्थ की रचना की। पण्डित- प्रति मास की नवमी को देवीजी का पूजन होता है । राज उनके गुरुपुत्र शेष वीरेश्वर दीक्षित के पुत्र थे। वर्ष के अन्त में किसी ब्राह्मण को दो वस्त्र दान में दिये भट्टोजिदीक्षित के रचे हुए ग्रन्थों में वैयाकरणसिद्धान्त- जाते हैं । इसके आचरण से समस्त कामनाओं की सिद्धि कौमुदी और प्रौढमनोरमा अति प्रसिद्ध हैं । सिद्धान्तकौमुदी होती है। जैसे रोगों से मुक्ति, पुत्रलाभ तथा यश की पाणिनीय सूत्रों की वृत्ति है और मनोरमा उसकी व्याख्या। उपलब्धि । तीसरे ग्रन्थ शब्दकौस्तुभ में इन्होंने पातञ्जल महाभाष्य (२) आश्विन शुक्ल नवमी को प्रासाद की किसी के विषयों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया है। चौथा ग्रन्थ प्राचीर (बाहरी दीवार) अथवा किसी वस्त्र के टुकड़े पर वैयाकरणभूषण है। इसका प्रतिपाद्य विषय भी शब्द- भद्रकाली की मूर्ति बनाकर आयुधों (ढाल, तलवार आदि) , Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रविधि-भरत ४६९ सहित देवी का उपवासपूर्वक पूजन होता है। इस व्रत से मनुष्य समृद्धि तथा सफलताएँ प्राप्त करता है। भद्रनारायण-गोभिलगृह्यसूत्र (सामवेदीय) के एक वृत्तिकार। भद्रविधि-भाद्र शुक्ल षष्ठी को पड़ने वाला रविवार भद्र कहलाता है। उस दिन व्रती को 'नक्तविधि' से आहार करना चाहिए अथवा उपवास रखना चाहिए । मालती के फूल, चन्दन, विजय धूप तथा पायस को (नैवेद्य के रूप में) मध्याह्न काल में सूर्य की पूजा में अर्पण करना चाहिए। यह वारव्रत है। व्रतोपरान्त ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए । इस व्रत से व्रती सूर्यलोक को प्राप्त करता है। भद्रा-सात करणों में एक करण । प्रति दिन के पञ्चाङ्ग का एक अवयव करण है, जो तिथि का आधा भाग होता है । भद्रा को विष्टि भी कहते हैं । भद्रा नाम के विपरीत इसमें शुभ कर्म वर्जित है। विभिन्न राशियों के अनुसार यह तीनों लोकों में विचरण करती है और 'मृत्युलोके यदा भद्रा सर्वकार्यविनाशिनी' होती है। भद्राचल-महाराष्ट्र प्रदेश में गोदावरी के तट पर स्थित सुरम्य तीर्थस्थान। यहाँ भगवान् श्री राम का प्राचीन मंदिर है। इसकी यहाँ बहुत प्रतिष्ठा है। कहा जाता है, इसे समर्थ गुरु रामदास ने स्थापित किया था। भद्राविधि-कार्तिक शुक्ल तृतीया के दिन व्रती को चाहिए कि गोमूत्र तथा यावक (जौ से बनायी हुई लपसी) का सेवन करने के बाद नक्तविधि से आहार करे। प्रति मास के क्रम से इस व्रत को वर्ष भर चलाना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से एक कल्प तक गौरीलोक में वास होता है। भवासप्तमी-शुक्ल पक्ष की सप्तमी को हस्त नक्षत्र हो तो वह तिथि भद्रा कहलाती है। यह तिथिव्रत है। इसके सूर्य देवता हैं । व्रतेच्छु व्यक्ति को चतुर्थी तिथि से क्रमशः एकभक्त, नक्त, अयाचित तथा उपवास का आचरण करना चाहिए । फिर सूर्यप्रतिमा को घृत, दुग्ध तथा गन्ने के रस से स्नान कराकर षोडशोपचार पूजन करके प्रतिमा के समीप अमूल्य रत्न विभिन्न दिशाओं में रख देने चाहिए। व्रती इस व्रत के आचरण से सूर्यलोक और अन्त में ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है। भरत-(१) अभिजात क्षत्रिय वर्ग का एक वेदकालीन कबीला। ऋग्वेद तथा अन्य परवर्ती वैदिक साहित्य में भरत एक महत्त्वपूर्ण कुल का नाम है । ऋग्वेद के तीसरे और सातवें मण्डल में ये सुदास एवं त्रित्सु के साथ तथा छठे मण्डल में दिवोदास के साथ उल्लिखित हैं। इससे लगता है कि ये तीनों राजा भरतवंशी थे। परवर्ती साहित्य में भरत लोग और प्रसिद्ध हैं। शत० ब्रा० (१३.५.४) अश्वमेध यज्ञकर्ता के रूप में भरत दौष्यन्ति का वर्णन करता है । एक अन्य भरत शतानीक सामाजित का उल्लेख मिलता है, जिसने अश्वमेध यज्ञ किया। ऐत० ब्रा० (८.२३,२१) भरत दौष्यन्ति को दीर्घतमा मामतेय एवं शतानीक को सोमशुष्मा वाजप्यायन द्वारा अभिषिक्त किया गया वर्णन करता है। भरतों की भौगोलिक सीमा का पता उनकी काशी विजय तथा यमुना और गङ्गा तट पर यज्ञ करने से चलता है । महाभारत में कुरुओं को भरतकुल का कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि ब्राह्मणकाल में भरत लोग कुरु-पञ्चाल जाति में मिल गये थे। भरतों की याज्ञिक क्रियाओं का पञ्चविंश ब्रा० (१४.३, १३; १५.५,२४) में बार-बार उल्लेख आता है। ऋग्वेद (२.७.१,५; ४.२५.४,५.१६,१९; तै० सं० २.५,९,१; शत० ब्रा० १.४,२,२) में भारत अग्नि का उल्लेख आया है। रॉथ महाशय इस अग्नि से भरतों के योद्धा रूप की अभिव्यक्ति मानते हैं, जो सम्भव नहीं। ऋचाओं (ऋ० १.२२,१०; १.४२,९; १.८८,८; २.१,११; ३,८; ३.४,८ आदि) में भारती देवी का उल्लेख है जो भरतों की दैवी रक्षिका शक्ति है। उसका सरस्वती से सम्बन्ध भरतों को सरस्वती से सम्बन्धित करता है। इस महाद्वीप का भरतखण्ड तथा देश का भारतवर्ष नामकरण भरत जाति के नाम पर ही हआ है । ऋषभदेव के पुत्र भरत अथवा दौष्यन्ति भरत के नाम पर देश का नाम भारत होने की परम्परा परवर्ती है। (२) अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्रों में द्वितीय भरत कैकेयी से उत्पन्न हुए थे। राम के वन जाने पर ये उनको वापस लाने के लिए चित्रकूट गये थे। उनके वापस न आने पर उनकी खड़ाऊँ राजसिंहासन पर रखकर उनकी ओर से ये राज्य का शासन करते रहे। चौदह वर्ष का वनवास समाप्त होने पर जब राम अयोध्या वापस आये तब भरत ने उनको राज्य समर्पित कर दिया। (३) गान्धर्व वेद के चार प्रसिद्ध प्रवर्तकों में से एकः नाट्य उपवेद के आचार्य, इनका 'भरतनाट्यशास्त्र' संगीत Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० भरत स्वामी-भत मित्र काव्यकला का मौलिक ग्रन्थ है। संस्कृत के सभी नाटक- भर्तृप्राप्तिवत-नारदजी ने इस व्रत की महिमा उन अप्सकार भरत मुनि के अनुशासन पर चलते और इससे 'नट' राओं को सुनायी थी, जो भगवान् नारायण को पति रूप में भी भरत कहे जाते हैं । पाना चाहती थीं। वसन्त शुक्ल द्वादशी को इसका भरत स्वामी-सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य में भट्टभास्कर अनुष्ठान होता है । इस दिन उपवास रखकर हरि तथा मिश्र एवं भरत स्वामी नामक दो वेदभाष्यकारों का लक्ष्मी का पूजन करना चाहिए। दोनों की चाँदी की उल्लेख किया है । सामसंहिता के भाष्यकारों में भी भरत । प्रतिमाएँ बनवाकर तथा कामदेव का अङ्गन्यास विभिन्न स्वामी का नामोल्लेख हुआ है। नामों से मूर्ति के भिन्न भिन्न अवयवों में करना चाहिए। द्वितीय दिवस किसी ब्राह्मण को मूर्तियों का दान कर भरथरीवैराग्य-सत्रहवीं शताब्दी में स्वामी हरिदास देना चाहिए। विख्यात महात्मा हए हैं। इनके रचे ग्रन्थ 'साधारण भनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध नव नाथों में से सिद्धान्त', 'रस के पद', 'भरथरीवैराग्य' कहे जाते हैं। इनका उपासनात्मक मत चैतन्य महाप्रभु के मत से मिलता एक । गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तृनाथ, गोपीचन्द्र जुलता है। ये सभी अब तक जीवित और अमर माने जाते हैं । कहते हैं कि कभी-कभी साधकों को इनके दर्शन हो जाया भरद्वाज-ऋग्वेदीय मन्त्रों की शाब्दिक रचना जिन ऋषि करते हैं। परिवारों द्वारा हुई है उनमें सात अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। भरद्वाज ऋषि उनमें अन्यतम है। ये छठे मण्डल के भत प्रपञ्च-वेदान्त के एक भेदाभेदवादी प्राचीन व्याऋषिरूप में विख्यात है ( आश्वला० गृ० सू० ३.४,२; ख्याता । इन्होंने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी शांखा० गृ० सू० ४.१२; बृहद्देवता ५.१०२, जहाँ इन्हें भाष्य रचना की थी। भर्तप्रपञ्च का सिद्धान्त ज्ञान-कर्मबृहस्पति का पौत्र कहा गया है) । पञ्च० ब्रा० ( १५. समुच्चयवाद था। दार्शनिक दृष्टि से इनका मत द्वैता द्वत, भेदाभेद, अनेकान्त आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध था। ३-७ ) में इन्हें दिवोदास का पुरोहित कहा गया है। दिवोदास के साथ इनका सम्बन्ध काठक सं० ( २.१०) इसके अनुसार परमार्थ एक भी है और नाना भी; वह से भी प्रकट होता है जहाँ इन्हें प्रतर्दन को राज्य देने ब्रह्मरूप में एक है और जगद्रूप में नाना है। इसी लिए वाला कहा गया है । ऋषि तथा मन्त्रकार के रूप में इस मत में एकान्ततः कर्म अथवा ज्ञान को स्वीकार न कर दोनों की सार्थकता मानी गयी है। भर्तप्रपञ्च प्रमाणभरद्वाज का उल्लेख अन्य संहिताओं तथा ब्राह्मणों में समुच्चय वादी थे। इनके मत में लौकिक प्रमाण और प्रायः हुआ है । रामायण और महाभारत में भी भारद्वाज ( गोत्रज ) ऋषि का उल्लेख महान् चिन्तक और ज्ञानी वेद दोनों ही सत्य हैं । इसलिए उन्होंने लौकिक प्रमाणके रूप में हुआ है। गम्य भेद को और वेदगम्य अभेद को सत्य रूप में माना है। इसी कारण इनके मत में जैसे केवल कर्म मोक्ष का भरुकच्छ--पश्चिम समुद्र का तटवर्ती प्राचीन और प्रसिद्ध साधन नहीं हो सकता, वैसे ही केवल ज्ञान भी मोक्ष का तीर्थ । इसका शुद्ध नाम भृगुकच्छ है । सूरर और बड़ोदा साधन नहीं हो सकता । मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान-कर्मके मध्य नर्मदा के उत्तर तट पर यह स्थान है । यहाँ समुच्चय ही प्रकृष्ट साधन है । महर्षि भृगु ने गायत्री का पुरश्चरण और अनेक तपस्याएँ की भर्तमित्र-जयन्त कृत 'न्यायमञ्जरी' (१० २१२,२२६ ) थीं । गरुड ने भी यहाँ तपस्या की थी। प्राचीन काल में तथा यामुनाचार्य के 'सिद्धित्रय' (पृ० ४-५ ) में इनका यह प्रसिद्ध बंदरगाह था। नामोल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि ये भर्तद्वादशीव्रत-चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनु- भी वेदान्ती आचार्य रहे होंगे। भर्तृमिश्र ने मीमांसा ष्ठान होता है । एकादशी को उपवास कर द्वादशी को पर भी ग्रन्थ रचना की थी। कुमारिल ने श्लोकवार्तिक विष्णु भगवान् की पूजा करनी चाहिए । प्रति मास विष्णु में ( १.१.१.१०; १.१.६.१३०-१३१ ) इनका उल्लेख के बारह नामों से केशव से दामोदर तक एक एक लेना किया है। पार्थसारथि मिश्र ने न्यायरत्नाकर में ऐसा ही चाहिए । यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। आशय प्रकट किया है। कुमारिल कहते हैं कि भर्तमित्र Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्तृ यज्ञ-भविष्यपुराण ४७१ प्रभति आचार्यों के अपसिद्धान्तों के प्रभाव से मीमांसा वे एक नाम 'महादेव' में आत्मसात हो गये । यथा-भव शास्त्र लोकायतवत हो गया। विशिष्टाद्वैतवादी ग्रन्थों में तथा शर्व अग्नि के भयानक रूप को ( यज्ञ वाले क्षेमकारी उल्लिखित भर्तमित्र और श्लोकवातिकोक्त मीमांसक भर्तृ- रूप को नहीं ) कहते थे, जो बाद में रुद्र के गुण माने मित्र एक ही व्यक्ति थे या भिन्न, इसका निर्णय करना जाकर उनके ही पर्याय बन गये। कठिन है । परन्तु कुमारिल की उक्ति से मालूम होता है भवदेव मिश्र-पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त अथवा सोलहवीं कि ये दो पृथक् व्यक्ति थे । मुकुल भट्ट ने 'अभिधावृत्ति- के आरम्भ में वेदान्ताचार्य भवदेव मिश्र हुए थे । इन्होंने मातृका' में भी भर्तमित्र का नाम निर्देश किया है वेदान्तसूत्र पर एक टीका निर्मित की, जिसका नाम (पृ० १७)। वेदान्तसूत्रचन्द्रिका है। भर्तृयज्ञ-कात्यायनसूत्र के अनेक भाष्यकार तथा वृत्तिकार भवानी ( भुइयन)-भव (शिव) की पत्नी देवी, उमा, हुए हैं। उनमें से भर्तयज्ञ भी एक है। गौरी अथवा दुर्गा के ही पर्याय भवानी तथा भुइयन हैं। भर्तृहरि-भर्तृहरि का नाम भी यामुनाचार्य के ग्रन्थ में भवानीयात्रा-चैत्र शुक्ल अष्टमी को यह यात्रा की जाती उल्लिखित हआ है । इनको वाक्यपदीयकार से अभिन्न है। इसमें भवानी की १०८ प्रदक्षिणाएँ तथा जागरण मानने में कोई अनुपपत्ति नहीं प्रतीत होती । परन्तु इनका करना चाहिए । दूसरे दिन भवानी की पूजा का विधान है। कोई अन्य ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है । वाक्य- भवानीव्रत-(१) तृतीया के दिन व्रती को पार्वतीजी की पदीय व्याकरण विषयक ग्रन्थ होने पर भी प्रसिद्ध दार्श- प्रतिमा पर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि चढ़ाने चाहिए । निक ग्रन्थ है। अद्वैत सिद्धान्त ही इसका उपजीव्य है, एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष के अन्त इसमें सन्देह नहीं है । किसी-किसी आचार्य का मत है कि में गौ का दान विहित है (पद्मपुराण)। भर्तृहरि के 'शब्दब्रह्मवाद' का ही अवलम्बन करके (२) यदि कोई स्त्री या पुरुष वर्ष भर पूर्णमासी तथा आचार्य मण्डनमिश्र ने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ का निर्माण अमावस्या के दिन उपवास रखकर वर्ष के अन्त में सुगकिया था। इस पर वाचस्पति मिश्र की ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा न्धित पदार्थों सहित पार्वतीजी की प्रतिमा का दान करता नामक टीका है। उत्पलाचार्य के गुरु, कश्मीरीय शिवा- है तो वह भवानी के लोक को प्राप्त करता है। (लिङ्गद्वैत के प्रधान आचार्य सोमानन्दपाद ने स्वरचित 'शिव- पुराण)। दृष्टि' ग्रन्थ में भर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद को विशेष रूप (३) पार्वतीजी के मन्दिर में तृतीया को नक्त पद्धति से समालोचना की है। शान्तरक्षित कृत तत्त्वसंग्रह, से आहारादि करना चाहिए। एक वर्ष के अन्त में गौ अविमुक्तात्मा कृत इष्टसिद्धि तथा जयन्त कृत न्यायमञ्जरी का दान विहित है । (मत्स्यपुराण) में भी शब्दाद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है। उत्पल भविष्यपुराण-अठारह पुराणों में से एक शैव पुराण । तथा सोमानन्द के वचनों से ज्ञात होता है कि भर्तृहरि इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि इसमें भविष्य में होने तथा तदनुसारी शब्दब्रह्मवादी दार्शनिक गण 'पश्यन्ती' वाली घटनाओं का वर्णन है। इसमें मुसलमानों, अग्रेजों वाक् को ही शब्दब्रह्मरूप मानते थे। यह भी प्रतीत होता और मौनों (मंगोल आदि जातियों) के आक्रमणों का भी है कि इस मत में पश्यन्ती परा वारूप में व्यवहृत होती वर्णन पाया जाता है। इसमें इतनी आधुनिक घटनाओं के थी । यह वाक् विश्व जगत् की नियामक तथा अन्तर्यामी वर्णन बाद में ऐसे जोड़ दिये गये कि इस पुराण का सन्तुलन चित्-तत्त्व से अभिन्न है। ही शिथिल हो गया। नारदपुराण के अनुसार इसके पाँच भव-शतपथ ब्राह्मण के कथनानुसार अग्नि को प्राच्य पर्व हैं-(१) ब्राह्मपर्व -(२) विष्णुपर्व (३) शिवपर्व लोग शर्व तथा वाहीक लोग भव कहते थे । किन्तु अथर्व- (४) सूर्यपर्व और (५) प्रतिसर्ग पर्व । इसमें श्लोकों की वेद में भव तथा शर्व रुद्र के समकक्ष देवता हैं, जबकि संख्या चौदह हजार है । मत्स्यपुराण के अनुसार श्लोकों वाजसनेयी संहिता के अनुसार भव तथा शर्व रुद्र के की संख्या साढ़े चौदह हजार है । कुछ असंगतियों के होते पर्याय है । रुद्र तथा शिव के अनेक पर्याय तथा विरुद हुए भो भविष्यपुराण ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पहले अलग-अलग देबों के नाम थे, किन्तु कालान्तर में है। इसमें मग ब्राह्मणों के शकद्वीप से आने का वर्णन Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ भस्मजाबालउपनिषद्-भागवतपुराण पाया जाता है । भगवान् कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग भागवततात्पर्यनिर्णय-भागवतपुराण के व्याख्यारूप में हो गया था। उनकी चिकित्सा करने के लिए गरुड मध्वाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । यह माध्वमत (द्वैतवाद) शकद्वीप से मग ब्राह्मणों को यहाँ लाये, जिन्होंने सूर्य का प्रतिपादन करता है। मन्दिर में सूर्य की उपासना करके उनका कुष्ठ रोग भागवतदेवालय-भागवत सम्प्रदाय के मन्दिरों को देवालय अच्छा कर दिया। सूर्योपासना का विशेष वर्णन इस कहते हैं, जिनमें कृष्ण या विष्णु के अन्य अवतारों की पुराण में पाया जाता है। कलि में स्थापित अनेक राज मूर्तियाँ स्थापित होती हैं। वंशों का इतिहास भविष्य पुराण में वर्णित है। इसमें भागवतधर्म-दे० 'भक्ति' और 'भागवत' । उद्भिज्ज विद्या का भी वृत्तान्त है जो आधुनिक विज्ञान की भागवत पुराण-यह पाँचवाँ महापुराण है । इस पुराण का दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पूर्ण नाम श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसमें बारह स्कन्ध, भस्मजाबाल उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । ३३५ अध्याय और कुल मिलाकर १८,००० श्लोक है । भाई गुरदास की वार-सोलहवीं शती के अन्त में भाई श्रीमद्भागवत का प्रतिस्पर्धी देवीभागवत नाम का पुराण है। गुरुदास हुए थे । ये चौथे, पाँचवें तथा छठे सिक्ख गुरुओं इसमें भी १८,००० श्लोक एवं द्वादश स्कन्ध है। शाक्त के समकालीन थे । इन्होंने सिक्खधर्म को लेकर एक काव्य । इसी को महापुराण मानते हैं। दोनों के नाम में भी श्रीमत् ग्रन्थ रचा, जिसका नाम 'भाई गुरुदास को वार' है। और देवी का अन्तर है । श्रीमान् विष्णु की उपाधि है, इसका आंशिक अंग्रेजी अनुवाद, मैकोलिफ महोदय ने। इसलिए श्रीमद्भागवत का अर्थ है वैष्णव भागवत । नारद किया है। तथा ब्रह्म पुराण में भागवत के जितने लक्षणों का निर्देश भाई मणिसिंह-सिक्खों के अन्तिम गुरु गोविन्दसिंह को है वे श्रीद्भागवत में पाये जाते हैं। नारदपुराण में आस्था हिन्दू धर्म के ओजस्वी कृत्यों की ओर अधिक थी। श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषयसूची तथा पद्मपुराण में खालसा पन्थ की स्थापना के पूर्व उन्होंने दुर्गाजी की महात्म्य का वर्णन किया गया है। इन दोनों के अनुसार आराधना की थी। इस समय उन्होंने मार्कण्डेय पुराण में श्रीमद्भागवत ही महापुराण सिद्ध होता है। उद्धत दुर्गास्तुति का अनुवाद अपने दरबारी कवियों से मत्स्यपुराण के मतानुसार भी यही महापुराण ठहरता कराया। खालसा सैनिकों के उत्साहवर्द्धनार्थ वे इस रचना है । परन्तु मत्स्यपुराण में कथित एक लक्षण श्रीमद्भागवत तथा अन्य हिन्दू कथानकों का प्रयोग करते थे। उन्होंने में नहीं मिलता। उसमें लिखा है कि शारद्वत कल्प में जो और भी कुछ ग्रन्थ तैयार कराये, जिनमें हिन्दी ग्रन्थ मनुष्य और देवता हुए उन्हीं का विस्तृत वृत्तान्त भागवत अधिक थे, कुछ फारसी में भी थे । गुरुजी के देहत्याग के में कहा गया है। किन्तु प्रचलित श्रीमद्भागवत में शारद्वत बाद भाई मणिसिंह ने उनके कवियों और लेखकों के द्वारा कल्प का प्रसङ्ग नहीं है। किन्तु उसी के जोड़ में पाद्म कल्प अनुवादित तथा रचित ग्रन्थों को एक जिल्द में प्रस्तुत को कथा वणित की गयी है । इसलिए जान पड़ता है कि कराया, जिसे 'दसवें गुरु का ग्रन्थ' कहते हैं। किन्तु इसे मत्स्यपुराण में या तो शारद्वत कल्प की चर्चा प्रक्षिप्त है या कट्टर सिक्ख लोग सम्मानित ग्रन्थ के रूप में स्वीकार नहीं शारद्वत और पाद्म दोनों एक ही कल्प के दो नाम हैं, या करते हैं । इस ग्रन्थ का प्रयोग गोविन्दसिंह के सामान्य मत्स्यपुराण में वणित भागवत प्रचलित श्रीमद्भागवत श्रद्धालु शिष्य सांसारिक कामनाओं की वृद्धि के लिए करते नहीं है। हैं, जबकि धार्मिक कार्यों में 'आदि ग्रन्थ' का प्रयोग भक्ति शाखा का, विशेष कर वैष्णव भक्ति का यह होता है। उपजीव्य ग्रन्थ है। इसको 'निगम तरु का स्वयं गलित भागवत उपपुराण-कुछ शाक्त विद्वानों के अनुसार उन्तीस अमृत-फल' कहा गया है । जिस प्रकार वेदान्तियों ने गीता उपपुराणों में भागवत पुराण की भी गणना है। परन्तु । को प्रसिद्ध प्रस्थान मानकर उस पर भाष्य लिखा है वैष्णव लोग इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके उसी प्रकार वैष्णव आचार्यों ने भागवत को वैष्णवधर्म का अनुसार 'भागवत पुराण ही नहीं, अपितु महापुराण है। मुख्य प्रस्थान मानकर उस पर भाष्यों और टीकाओं की दे० 'भागवत पुराण'। रचना की है। वल्लभाचार्य ने भागवत को व्यास की Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवतभावार्थदीपिका-भाट्टदिनकर ४७३ 'समाधिभाषा' कहा है। इस पर उनकी 'सुबोधिनी' पाण्डुलिपि वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय टीका प्रसिद्ध है। भागवत का चैतन्य सम्प्रदाय और में उपलब्ध है । रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी है । वल्लभ सम्प्रदाय दोनों पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। दोनों भागवतव्याख्या-विष्णुस्वामी सम्प्रदाय का एक सम्मानित सम्प्रदायों ने भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों का विस्तृत आधारग्रन्थ। इस सम्प्रदाय के संस्थापक विष्णुस्वामी दक्षिण निरूपण किया है । ऐसे ग्रन्थों में आनन्दतीर्थ कृत 'भाग- भारत के निवासी थे। उन्होंने गीता, वेदान्तसूत्र तथा वततात्पर्यनिर्णय' और जीव गोस्वामी के 'षट् सन्दर्भ' बहुत भागवत पुराण पर व्याख्याएँ रची थीं, जो अब प्राप्त नहीं प्रसिद्ध हैं । भागवत के अनुसार एक ही अद्वैत तत्त्व जगत् हैं। इनके भागवत सम्बन्धी ग्रन्थ का उल्लेख श्रीधर स्वामी के व्यापार-सृष्टि, स्थिति और लय के लिए विभिन्न ने अपनी टीका (१.७ ) में किया है। इसका रचनाअवतार धारण करता है । भक्ति ही मोक्ष का मुख्य साधन काल १३वीं शताब्दी माना जा सकता है। है । इसके बिना ज्ञान और कर्म व्यर्थ हैं। भागवतामृत-महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन गोस्वामी भागवतभावार्थदीपिका-पन्द्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न श्रीधर द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें चैतन्य सम्प्रदाय के स्वामी द्वारा विरचित भागवत पुराण की सुप्रसिद्ध टीका। आशयानुसार श्री कृष्ण की वजलीलाओं का वर्णन किया वैष्णवों द्वारा यह टीका अति सम्मानित है। श्रीधर गया है । स्वामी काशी में मणिकर्णिका घाट के समीप 'नरसिंहचौक' भाग्यक्षद्वादशी-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त द्वादशी को हरिहर में रहते थे तथा जनश्रुति के अनुसार पुरी के गोवर्धन भगवान् की प्रतिमा का पूजन करना चाहिए। इसमें अर्ध मठ से सम्बद्ध थे। इन्होंने भागवत पुराण को बोपदेव की मूर्ति हरि तथा शेष अर्ध मूर्ति हर (शिव) का प्रतिनिधित्व रचना स्वीकार नहीं किया है । इन्होंने यह व्याख्या अद्वैत- करती है। तिथि चाहे द्वादशी हो या सप्तमी, दोनों दिन वादी दृष्टि से की है, फिर भी सभी वैष्णवाचार्य इनको समान फल मिलता है। इसी प्रकार नक्षत्र चाहे पूर्वाप्रामाणिक व्याख्याकार मानते हैं। फाल्गुनी हो या रेवती अथवा धनिष्ठा, वही फल होता है। भागवतमाहात्म्य-पद्यपुराण और स्कन्दपुराण के अंश रूप इस कृत्य से मनुष्य पुत्र, पौत्र तथा राज्य प्राप्त करता है । में दो भागवतमाहात्म्य पाये जाते हैं। उनमें पद्मपुराणीय पूर्वाफाल्गनी भाग्य के नाम से पुकारा जाता है, क्योंकि माहात्म्य अधिक प्रचलित है। यह भागवत पुराण की इसका अधिपति भग देवता है। 'ऋक्ष' का अर्थ है नक्षत्र रचना से बहुत पीछे रचा गया। इसमें उद्धृत एक (भाग्य + ऋक्ष, भाग्यक्ष)। कथा से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुराण दक्षिण भागीरथी-सगर के प्रपौत्र राजा भगीरथ ने अपने देश में रचा गया था। इस कथा में भक्ति एक स्त्री के ६०,००० पूर्वजों (सगर के पुत्रों) को, जो कपिल के शाप रूप में अवतरित होकर कहती है कि मैं द्रविड देश में से भस्म हो गये थे, तारने के लिए देवनदी गङ्गा को उत्पन्न हुई थी, कर्णाटक में बड़ी हुई, महाराष्ट्र में मेरा स्वर्ग से पृथ्वी पर तथा पृथ्वी से पाताल की ओर ले जाने कुछ-कुछ पोषण हुआ और गुजरात में वृद्ध हो गयी। फिर के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के प्रयत्न से पृथ्वी मैं घोर कलियुग के योग से पाखण्डों द्वारा खण्डित-अंगिनी पर आने के कारण गङ्गा को भागीरथी कहते हैं। दे० और दुर्बल होकर ज्ञान-वैराग्य नामक अपने पुत्रों के साथ रामायण, १.३८.४४ ।। बहुत दिनों तक मन्दता में पड़ी रही । सम्प्रति वृन्दावन भागरि-ऋग्वेद शाखा का एक ग्रन्थ बृहद्देवता है, जिसमें पहुँच कर नवीना, सुरूपिणी और सम्यक् प्रकार से परि- वैदिक आख्यानादि विस्तार से लिखे गये हैं। यह ग्रन्थ पूर्ण हो गयी हूँ (१.४८-५०)। शौनक द्वारा रचित बताया जाता है। कुछ लोग इसे भागवतसम्प्रदाय—दे० 'भागवत' । शौनक सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति, भागुरि और आश्वलायन भागवतलीलारहस्य-महाप्रभु वल्लभाचार्य रचित एक की रचना बतलाते हैं। अप्रकाशित ग्रन्थ । भाट्टदिनकर-यह भट्ट दिनकर रचित (१६०० ई०) पार्थभागवतलघुटीका-विष्णुस्वामी संप्रदाय के साहित्य में सारथि मिश्र के 'शास्त्रदीपिका' ग्रन्थ की टीका है। यह इसकी गणना होती है। यह वरदराजकृत ह तथा इसकी पूर्वमीमांसा विषयक ग्रन्थ है। ६० Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ भाद्रदीपिका-भारत भाट्टदीपिका-सत्रहवीं शताब्दी में उत्पन्न पूर्वमीमांसा के थी)। इसकी पूजा में गान तथा जंगली नाचों का समा आचार्य खण्डदेव द्वारा जैमिनिसूत्रों के वार्तिक पर रचित वेश है।। व्याख्या ग्रन्थ । इसमें शब्द का देवत्व अर्थात् 'वेदमन्त्र ही। भानुदास-सोलहवीं शताब्दी के महाराष्ट्रीय भकों में देवता हैं' इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। भानुदास की गणना होती है। इनके रचे अभङ्गों (पदों) भातपात-एक पंक्ति में बैठकर समान कुल के लोगों द्वारा के कारण इनकी प्रसिद्धि है। कच्चा भोजन करना । यह विचारधारा बहुत प्राचीन है। पुराणों और स्मृतियों में हव्य-कव्यग्रहण के सम्बन्ध में __ भानुव्रत-सप्तमी के दिन यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस ब्राह्मणों की एक पंक्ति में बैठने की पात्रता पर विस्तार दिन नक्तविधि से आहार करना चाहिए। सूर्य इसके देवता है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होता है। वर्ष से विचार हआ है। मनुस्मति (३.१४९) में लिखा है कि के अन्त में गौ तथा स्वर्ण के दान का विधान है। इस धर्मज्ञ पुरुष हव्य (देवकर्म) में ब्राह्मण की उतनी जाँच न कृत्य से व्रती स्वर्ग लोक जाता है । करे, किन्तु कव्य (पितृकर्म) में आचार-विचार, विद्या, कुल, शील की अच्छी तरह जाँच कर ले । एक लम्बी सूची भानुसप्तमी-यदि रविवार के दिन सप्तमी पड़े तो उसे अपातयता की दी हुई है । प्रसङ्ग से जान पड़ता है कि भानुसप्तमी कहा जाता है। दे० गदाधरपद्धति, पृ० मनुस्मृति के समय तक द्विज मात्र एक दूसरे के यहाँ ६१०। इस दिन उपवास, व्रत तथा सूर्यपूजन का भोजन करते थे। विचारवान् व्यक्ति यह देख लेते थे कि विधान है। जिसके यहाँ हम भोजन करते हैं, वह स्वयं सच्चरित्र है, भामतो-शांकर भाष्य की एक विख्यात व्याख्या, जो मूल उसका कुल सदाचारी है और उसके यहाँ छूत वाले रोगी के समान अपना गौरव रखती है। इसके रचयिता दार्शतो नहीं है। जब अधिक संख्या में लोग खाने बैठते थे निकपंचानन वाचस्पति मिश्र (नवीं शताब्दी) थे। शाङ्कर तब भी इसका विचार होता था । पंक्ति का विचार हव्य- मत को समझने के लिए इसका अध्ययन अनिवार्य समझा कव्य में ब्राह्मणों के अन्तर्गत चलता था। देखादेखी पंक्ति जाता है। अद्वैतवाद का यह प्रामाणिक ग्रन्थ है। ग्रन्थ का ऐसा ही नियम और वर्गों में भी चल पड़ा। जिसे के नामकरण को एक कथा है । वाचस्पति मिश्र की पत्नी अपाङ्क्तेय या पंक्ति से बाहर कर देते थे वह फिर पतित का नाम भामती था। ग्रन्थ प्रणयन के समय वह मिश्रसमझा जाता था । बड़े भोज उन्हीं लोगों में सम्भव थे जी की सेवा करती रही, परन्तु वे स्वयं ग्रन्थ रचना में जो एक ही स्थान के रहनेवाले, एक ही तरह का काम इतने तल्लीन रहते थे कि उसको बिल्कुल भूल गये । ग्रन्थ या व्यवसाय करते थे और जिनकी परस्पर नातेदारियाँ समाप्ति पर भामती ने व्यंग्य से इसकी शिकायत की। थीं। विवाह भी इसी प्रकार समान कर्म और वर्ण, समान वाचस्पति ने उसको सन्तुष्ट करने के लिए ग्रन्थ का नाम कुलशील वालों में होना आवश्यक था। इसीलिए भात- 'भामती' रख दिया। पाँत का जन्म हो गया। भारत-इस देश का प्राचीन नाम भारत है। इस नामभादू-बाग्दी नाम की एक वनवासी जाति मध्य भारत करण की कई परम्पराएँ हैं। एक बहप्रचलित परम्परा तथा पश्चिम बङ्गाल में बसती है । यह सनातन हिन्दू धर्म है कि दुष्यन्तकुमार और चक्रवर्ती राजा भरत के नाम तथा पशु एवं प्रकृति की पुजारी है। इस जाति के लोग पर इस देश का नाम भारत अथवा भारतवर्ष पड़ा। मनसा देवी को पूजा करते हैं, जिसकी प्रतिमा सारे ग्राम दूसरी परम्परा श्रीमद्भागवत और जैन पुराणों में मिलती में घुमायो जाती है। अन्त में एक तालाब में मूर्तिविसर्जन है। इसके अनुसार ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत के, जो करते हैं। ये एक नारी साधुनी की मूर्ति को भी घुमाते आगे चलकर बड़े महात्मा और योगी हो गये थे, नाम हैं, जिसकी उपाधि 'भादू' है। इसके बारे में कहा जाता पर इस देश का नाम भारत पड़ा। परन्तु अधिक सम्भव है कि यह पचेत के राजा की पुत्री थी तथा अपनी जान पड़ता है कि भरतवर्ग (कबीले) के नाम पर, जो जाति की भलाई के लिए इसने अविवाहितावस्था राजनीति, धर्म, विद्या और कला सभी में अग्रणी था, में ही अपना जीवन दान कर दिया था ( मर गयी इस देश का नाम भारत पड़ा। इस देश की सन्तति और Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतभावदीप-भारती ४७५ संस्कृति भी उसके नाम पर भारती कहलायो । विष्णुपुराण । __ है, तथापि मुख्य अभिप्राय अद्वैत सम्प्रदाय के अनुकूल ही है । में भारत की सीमा इस प्रकार दी हुई है : भारत संहिता-महर्षि जैमिनि को पूर्वमीमांसा दर्शन के उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । अतिरिक्त भारतसंहिता का भी रचयिता कहते हैं। इसका वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥ एक अन्य नाम 'जैमिनिभारत' है। भारतधर्ममहामण्डल-१९वीं शताब्दी के आरम्भ में ईसाई मत [ हिमालय से समुद्र तक के उत्तर-दक्षिण भूभाग का के प्रभाव ने हिन्दू विचारों पर गहरा आघात किया, जिसने नाम भारत है, इसमें भारती प्रजा रहती है । ] इसमें मौलिक सिद्धान्तों पर पड़े आघातों के अतिरिक्त प्रतिक्रियासंतति की कल्पना सांस्कृतिक है, प्रजातीय नहीं। भार रूप में हिन्दू मात्र की एकता को जन्म दिया। इसके फलतीय परम्परा ने रक्त और रङ्ग से ऊपर उठकर सदा स्वरूप 'भारतधर्ममहामण्डल' जैसी संस्थाओं की स्थापना भावनात्मक एकता पर बल दिया है। हुई और हिन्दुत्व की रक्षा के लिए संघटनात्मक प्रयत्न भारत की संस्कृति अति प्राचीन है। इसकी परम्परा होने लगे । महामण्डल का मुख्य अधिष्ठान काशी में है। में सृष्टि का वर्णन सबसे निराला है । फिर मन्वन्तर और इसके संस्थापक वंगदेशीय स्वामी ज्ञानानन्दजी थे। महाराजवंशों का वर्णन जो कुछ है वह भारतवर्ष के भीतर मण्डल के मुख्य तीन उद्देश्य रखे गये : (१) हिन्दुत्व की का है। चर्चा विविध द्वीपों और देशों की है सही, परंतु एकता और उत्थान (२) इस कार्य के सम्पादन के लिए राजवंशों का जहाँ कहीं वर्णन है उसकी भारतीय सीमा उपदेशकों का संघटन और (३) हिन्दूधर्म के सनातन तत्त्वों निश्चित है। महाभारत के संग्राम में चीन, तुर्किस्तान के प्रचारार्थ उपयुक्त साहित्य का निर्माण । अब मण्डल आदि सभी पास के देशों की सेना आयी दीख पड़ती है, महिलाशिक्षण कार्य की ओर अग्रसर है । पाण्डवों और कौरवों की दिग्विजय में वर्तमान भारत के भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज-राजा राममोटन गा बाहर के देश भी सम्मिलित थे, परन्तु कर्मक्षेत्र भारत की संस्थापित धर्मसुधारक समिति । ब्राह्मसमाज आगे चलकर पुण्यभूमि ही है। इसके पर्वत, वन, नदी-नाले, वृक्ष, दो समाजों में बँट गया : आदि ब्राह्मसमाज एवं भारतपल्लव, ग्राम, नगर, मैदान, यहाँ तक कि टीले भी पवित्र वर्षीय ब्राह्मसमाज । यह घटना ११ नवम्बर सन् १८६६ तीर्थ हैं । द्वारका से लेकर प्राग्ज्योतिष तक, बदरी-केदार की है, जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्राह्मसमाज के से लेकर कन्याकुमारी या धनुष्कोटि तक, अपितु सागर मन्त्री बने । आदि ब्राह्मसमाज देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा तक आदि सीमा और अन्त सीमा, तीर्थ और देवस्थान हैं। व्यवस्थापित नियमों को मान्यता देता था, और भारतवर्षीय यहाँ के जलचर, स्थलचर, गगनचर, सबमें पूज्य और ब्राह्मसमाज के विचार अधिक उदार थे। इसमें साधारण पवित्र भावना वर्तमान है। लोग देश से प्रेम करते है। प्रार्थना तथा स्तुतिपाठ के साथ-साथ हिन्दू, ईसाई, हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजते हैं। मुस्लिम, जोरोष्ट्रियायी तथा कनफ्यूशियस के ग्रन्थों का भी भारतीय हिन्दू परम्परा अपना आरम्भ सृष्टिकाल से पाठ होता था। केशवचन्द्र ने इसे हिन्दू प्रणाली की सीमा से ही मानती है। उसमें कहीं किसी आख्यान से, किसी चर्चा ऊपर उठाकर मानववादी धर्म के रूप में बदल दिया। से, किसी वाक्य से यह सिद्ध नहीं होता कि आर्य जाति फलतः भारतवर्षीय ब्राह्मसमाज की सदस्यता देश के कहीं बाहर से इस देश में आयी । अर्थात् परम्परानुसार कोने-कोने में फैल गयी तथा आदि ब्राह्मसमाज इसकी ही इस भारत देश के आदिवासी आर्य है। तुलना में सीमित रह गया । परन्तु ब्राह्मसमाज जितना भारतभावदीप-नीलकण्ठ सूरि (सोलहवीं शताब्दी) महाभारत सुधारवादी बना, उतना ही अपनी मूल परम्परा से दूर के प्रसिद्ध टीकाकार हैं । इस टीका का नाम भारतभाव- होता गया, इसकी जीवनी शक्ति क्षीण होती गयी और दीप है । इसके अन्तर्गत गीता की व्याख्या में अपनी टीका यह सूखने लगा । दे० 'ब्राह्मसमाज' ।। को सम्प्रदायानुसारी ( परम्परागत ) बतलाते हुए इन्होंने भारती-(१) सरस्वती का एक पर्याय । भारती का संबन्ध स्वामी शङ्कराचार्य एवं श्रीधरादि की वन्दना की है । इस वैदिक भरतों से प्रतीत होता है। भरतों के सांस्कृतिक व्याख्या में कहीं-कहीं शाङ्करभाष्य का अतिक्रमण भी हुआ अवदान का व्यक्तीकरण ही भारती है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ भारतीतीर्थ-भावना उपनिषद् (२) शङ्कर के दसनामी संन्यासियों की एक शाखा होता है कि उन्होंने विष्णुकृत 'धर्मसूत्र' के ऊपर एक 'भारती' है। भारती उपनाम के संन्यासी कुछ उच्च टीका लिखी थी । श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में प्रसिद्ध भारुचि श्रेणी में गिने जाते हैं । दसनामियों की तीर्थ, आश्रम एवं और धर्मशास्त्रकार भारुचि एक माने जाय, तो इनका सरस्वती शाखाओं में केवल ब्राह्मण ही दीक्षित होते हैं, समय नवीं शताब्दी के प्रथमार्ध में माना जा सकता है। अतएव ये पवित्र उपनाम हैं। भारती शाखा में ब्राह्मणों भार्गव-भग के वंशज या गोत्रोत्पन्न । यह अनेक ऋषियों के साथ ही अन्य वर्ण भी दीक्षित होते हैं, इसलिए यह का पितबोधक नाम है. जिनमें च्यवन ( शतपथ ब्राह्मण, उपनाम आधा ही पविः माना जाता है। ४ १,५,१; ऐतरेय ब्राह्मण, ८.२१ ) तथा गृत्स्मद भारतीतीर्थ-चौदहवीं शताब्दी के मध्य में महात्मा भारती- (कौषीतकि ब्राह्मण, २२.४) उल्लेखनीय हैं । अन्य भार्गवों तीर्थ के शिष्य विद्यारण्य स्वामी ने 'पञ्चदशी' नामक का भी उनके व्यक्तिगत नामों के बिना ही उल्लेख हुआ वेदान्त विषयक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ प्रस्तुत किया । है (तैत्तिरीय संहिता, १.८,१८,१; शाङ्खायन आरण्यक यह प्रसादगुणपूर्ण अनुष्टुप् छन्दों के पंद्रह प्रकरणों में ६.१५; ऐतरेय ब्राह्मण, ८.२, १, ५; प्रश्नोपनिषद्, १.१; रचा गया है। पञ्चविंशब्राह्मण, १२.२, २३, ९, १९, ३९ आदि)। भारतो यति-पांख्य दर्शन के आचार्य, जो चौदहवीं शती के शुक्राचार्य, मार्कण्डेय, परशुराम आदि ऋषि भार्गव ( भृगुप्रारंभ में हुए । इन्होंने वाचस्पतिमिश्रविरचित 'सांख्यतत्व वंशज ) हैं। ( मृत्पात्र पकाने के कारण कुम्भकार भी कौमुदी' पर 'तत्त्वकोमुदी व्याख्या' नामक टीका रची। भार्गव कहलाता है । वनवासकाल में पाण्डव इसके घर में भारती शिष्यपरम्परा-भारती, सरस्वती एवं पुरी उप टिके थे।) नामों की शिष्यपरम्परा शंकराचार्य के शृंगेरी मठ के अन्तर्गत है । दे० 'भारती' ।। भार्गव उपपुराण-यह उन्तीस उपपुराणों में से एक है । भारद्वाज-भरद्वाज कुल में उत्पन्न ऋषि । ये यजुर्वेद की भार्या-परवर्ती काल में इसका पत्नी अर्थ प्रचलित हुआ है। एक श्रौत एवं गृह्य शाखा के सूत्रकार थे । तैत्तिरीय प्राति 'सेंटपीटर्सवर्ग' के शब्दकोश के अनुसार सर्वप्रथम यह शाख्य में इनका उल्लेख आचार्य के रूप में तथा पाणिनि शब्द ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त हुआ है ( ७.९.८ ) जहाँ के अष्टाध्यायीसूत्रों में वैयाकरण के रूप में हुआ है। इसका अर्थ गृहस्थी की एक सदस्या है, जिसका भरण करना आवश्यक है। शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य की इससे विदित होता है कि ऋषि भारद्वाज शिक्षाशास्त्री, दो स्त्रियों को इसी शब्द से अभिहित किया गया है वैयाकरण, श्रौत एवं गृह्य सूत्रकार भी थे। (बृहदारण्यकोपनिषद्, ३.४, १; ४.५, १)। आगे चलभारद्वाजगृह्यसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र । कर पत्नी के अर्थ में ही इसका प्रयोग होने लगा। भारद्वाजश्रौतसूत्र-कृष्ण यजुर्वेद का श्रौतसूत्र, जो भारद्वाज द्वारा रचित है। भावत्रय-शक्ति की आराधना करने वाले तान्त्रिक लोग तीन भारभूतेश्वरवत-आश्विन पूर्णिमा के दिन काशी में भारत भावों (अवस्थाओं) का आश्रय लेते हैं; 'दिव्य भाव' से देवता भूतेश्वर शंकरजी की पूजा का विधान है। का साक्षात्कार होता है । 'वीर भाव' से क्रिया सिद्धि होती भारुचि-आचार्य रामानुज कृत वेदार्थसंग्रह में (पृ० १५४) है । 'पशु भाव' से ज्ञानसिद्धि होती है। इन्हें कम से दिव्याप्राचीन काल के छ: वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है, चार, वीराचार और पश्वाचार भी कहते हैं। पशुभाव जिनमें भारुचि भी हैं। श्रीनिवासदास ने 'यतोन्द्रमत से ज्ञान प्राप्त करके वीरभाव द्वारा रुद्रत्व पद प्राप्त किया दीपिका' में भी इनका उल्लेख किया है। भारुचि के ___ जाता है। दिव्याचार द्वारा साधक के अन्दर देवता की विषय में विशेष परिज्ञान नहीं है । विज्ञानेश्वर की मिता तरह क्रियाशीलता हो जाती है। इन भावों का मूल निःसन्देह शक्ति है। क्षरा ( याज्ञ० १.१८ और २.१२४ ), माधवाचार्य कृत पराशरस्मृति की टीका ( २.३, पृ० ५१०) एवं सर- भावना उपनिषद्-यह शाक्त उपनिषद् है। इसका स्वतीविलास (प्रस्तर १३३ ) प्रभृति ग्रन्थों में धर्म- रचना काल ९०० तथा १३५० ई० के बीच रखा जा शास्त्रकार भारुचि का नाम उपलब्ध होता है। प्रतीत सकता है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाविवेक भास्कराचार्य भावनाविवेक महान कर्मकाण्डी] मण्डन मिश्र द्वारा विरचित पूर्वमीमांसा का एक ग्रन्थ भावप्रकाशिका विवरणटीका अद्वैत सम्प्रदाय के विद्वान् नृसिंहाश्रम द्वारा रचित भावप्रकाशिका प्रकाशात्मयतिकृत 'पञ्चपादिकाविवरण' की टीका है । भावानन्द - नाभादासजी के 'भक्तमाल' में वर्णित सन्त व भक्तों में भावानन्द का उल्लेख है। किन्तु केवल एक पथ में उनकी रामभक्ति के उल्लेख के सिवा उनका और कुछ वर्णन प्राप्त नहीं होता । भावार्थ रामायण - सोलहवीं सत्रहवीं शती के मध्य उत्पन्न एक महाराष्ट्रीय भक्त ने इस ग्रन्थ की रचना की थी । भाषापरिच्छेद न्याय-वैशेषिक दर्शन विषयक एक पद्यात्मक प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसकी रचना १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वंगदेशीय विश्वनाथ पञ्चानन द्वारा हुई थी। इसके पद्य अनुष्टुप् छन्द में हैं, इसलिए व्यवहार में इसका नाम 'कारिकावली' प्रसिद्ध है । भाषावृत्ति यह पाणिनि मुनि की अष्टाध्यायी पर अवलम्बित एक व्याकरण ग्रन्थ है । इसके रचयिता पुरुषोत्तमदेव नामक एक वैयाकरण थे। पुरुषोत्तम द्वारा रचित एक उपयोगी कोशग्रन्थ 'हारावली' नाम से प्रसिद्ध हैं । भाष्य- धार्मिक, दार्शनिक या सैद्धान्तिक सूत्रग्रन्थों पर जो समालोचनात्मक अथवा व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनको भाष्य कहते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है कहने लायक अथवा स्पष्ट करने लायक : सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र वाक्यैः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥ भाष्याचार्य स्वामी रामानुज के परम गुरु और यामुनाचार्य के गुरु का (गुणवाचक) नाम भाष्याचार्य है। भासवंश-त्याय दर्शन के एक आचार्य इन्होंने न्यायसार नामक ग्रन्थ लिखा जिसके ऊपर अष्टादश टीकाएँ रची गयी हैं । भास्कर - काश्मीर शैव मत के एक आचार्य, जो ११वीं शताब्दी में उत्पन्न हुए । इन्होंने 'शिवसूनवार्तिक' लिखा है यह ग्रन्थ वसुगुप्त रचित 'शिवसूत्र' पर वार्तिकों के रूप में प्रस्तुत हुआ है । भास्करपूजा - सूर्य भगवान् विष्णु के दक्षिण नेत्र हैं । इसलिए विष्णु के रूप में सूर्य का पूजन करना चाहिए। रथ के पहिये के समान मण्डल बनाकर उसमें सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य पर चढ़ाये हुए फूल प्रतिमा से हटाने के बाद व्रती को अपने शरीर पर धारण नहीं करने चाहिए। तिथितत्त्व ३६ पु० नि० १०४ । बृहत्संहिता ( ५७.३१-५७ ) में इस बात का निर्देश मिलता है कि किसी देवता की प्रतिमा फँसी बनायी जाय। मूर्ति निर्माण एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि मूर्ति के चरणों से वक्ष तक का भाग नग्न न रहने पाये, अपितु किसी वस्त्र से आच्छादित रहे । में ४७७ भास्करप्रियासप्तमी - जब सूर्य सप्तमी को एक राशि से संक्रमण कर द्वितीय राशि पर पहुंचते हैं तब वह सप्तमी महाजया कहलाती है। यह तिथि, सूर्य को बहुत प्रिय है। उस दिन स्नान, दान, जप, होम, देवपूजा, पितृतर्पण इत्यादि करने से करोड़ों गुना पुण्य प्राप्त होता है । भास्कर मिश्र - यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का एक छोटा भाष्य भास्कर मिश्र ने लिखा है। इन्होंने तैतिरीय आरयक का भी एक भाष्य रचा है । भास्करराय अठारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ इनका स्थितिकाल कहा जाता है। मे दक्षिणमार्गी शाक्त तथा देवी के परम उपासक थे नृसिंहानन्दनाथ भास्करानन्दनाथ तथा उमानन्दनाथ ने मिलकर एक छोटी सी गुरुपरम्परा स्थापित की । भास्करानन्दनाथ इनमें सबसे महान् थे। वे ही भास्करराय के नाम से अभिहित किये जाते हैं। ये तर नरेश के सभापण्डित थे। शाक्त साधनाप्रणाली को इन्होंने आर्या छन्दों में विद्वत्तापूर्ण ढंग से लिखा है, जिसका नाम है 'वरिवस्यारहस्य' । इस पर स्वयं इनका एक भाष्य भी है। इन्होंने वामकेश्वर तन्त्र, त्रिपुरा, कौल एवं भावना (शाक्त) उपनिषद्, ललिता सहस्रनाम, महा एवं जाबाल उपनिषद् तथा ईश्वरगीता की व्याख्याएँ भी रची हैं । भास्करव्रत -कृष्ण पक्ष की षष्ठी को यह सूर्य का व्रत किया जाता है । यह तिथिव्रत है। इसके अनुसार षष्ठी को उपवास तथा सप्तमी को 'सूर्यः प्रसीदतु' वचन के साथ विधिपूर्वक पूजन होना चाहिए । इस कृत्य से व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करता है । भास्कराचार्य – नवीं दसवीं शताब्दी के मध्य में वेदान्तसूत्रों का एक उल्लेखनीय भाष्य रचा गया, जिसके कर्त्ता थे - Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ भास्करानन्दनाथ-भीमद्वादशी भास्कराचार्य या भट्ट भास्कर । इसकी महत्ता इनके भेदाभेद सं० ६.४,९,३; मैत्रा० सं० ४.६,२; शत० ब्रा० ४.१, दर्शन के कारण है। इन्होंने शङ्कर का नाम तो नहीं ५,१४) से आरम्भ होती है जहाँ भेषज-अभ्यास करने के लिया है किन्तु अपने भाष्य में उन पर बराबर आक्षेप किये कारण अश्विनों की निन्दा की गयी है । इस निन्दा का हैं । उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्जलि ग्रन्थ में भास्कराचार्य कारण यह है कि अपने इस व्यवसाय के कारण उन्हें बहुत का विरोध किया है। अधिक लोगों के पास जाना पड़ता है (यहाँ इतर जातियों निम्बार्क का भी एक अन्य नाम भास्कर था और उनका के घृणित लगाव या छूआ-छूत की ओर संकेत है)। भी दार्शनिक मत भेदाभेद है । इससे भास्कराचार्य तथा ऋग्वेद की एक ऋचा में एक भिषक् अपने पौधों तथा निम्बार्क के एक होने का भ्रम होता है। किन्तु प्रथम उनकी आरोग्यशक्ति की प्रशंसा करता है (१०.९७) । के वेदान्त का विशुद्ध भाष्यकार तथा द्वितीय के साम्प्रदायिक अश्विनों द्वारा पंगु (ऋ० १.११२,८; १०.३९,३), अंधे वृत्तिकार होने के कारण दोनों का पार्थक्य स्पष्ट प्रतीत (ऋ० १.११६, १७) को अच्छा करने, वृद्ध च्यवन तथा होता है । निम्बार्क अवश्य भास्कर से परवर्ती आचार्य हैं. पुरन्धि के पति को युवा बनाने, विश्वपाला को लौहपाद क्योंकि राधा की उपासना ११०० ई० के बाद ही व्रज- (आयसी जङ्घा) प्रदान करने के चमत्कारों का वर्णन प्राप्त मण्डल में प्रचलित हुई, जो भास्कराचार्य के समय के बहत होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण न होगा कि वैदिक आर्य बाद की घटना है। शल्य चिकित्सा भी करते थे। वे अपने घावों पर सादी भास्करानन्दनाथ-दे० 'भास्करराय' । (एक पदार्थ से तैयार) औषध का प्रयोग भी करते थे। भिक्षा-शतपथ ब्राह्मण (११.३,३,६), आश्वलायन गृह्यसूत्र उनकी शल्य चिकित्सा तथा औषधज्ञान का विकास हो (१.९), बृहदारण्यकोपनिषद् ( ३. ४, १; ४.४, २६ ) में चुका था। अथर्ववेद के ओषधि वर्णन में वनस्पति तथा भिक्षा को ब्रह्मचारी के कर्तव्यों में कहा गया है । अथर्ववेद जादमन्त्र का भी उल्लेख है, चिकित्सा और शरीर(११.५.९) में याचना से प्राप्त पदार्थ को भिक्षा कहा विज्ञान का भी वर्णन है । ऋग्वेद में भेषजों के व्यवसाय गया है। छान्दोग्य ( ८.८.५ ) में भी इसका उपर्युक्त के प्रमाण (९.११२) प्राप्त हैं। पुरुषमेध के बलिपशुओं अर्थ है, किन्तु वहाँ इसका शुद्ध उच्चारण सम्भवतः में भिषक् का भी नाम आता है (वा० सं० ३०.१०%; आभिक्षा है। तै० ब्रा० ३.४,४,१)। भिक्षु-भिक्षा माँगकर जीवन यापन करने वाला संन्यासी। भीमचन्द्र कवि-वीर शैव मतावलम्बी एक विद्वान् । आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य संसार इन्होंने १३६९ ई० में 'वसव पुराण' का अनुवाद तेलुगु से विरक्त होकर परमात्मा के चिन्तन में ही अपने को समर्पित भाषा में किया था। कर देता है । उस दशा में देहरक्षा के लिए भिक्षा माँगने भीमद्वादशी-(१) सर्वप्रथम इसकी कथा श्री कृष्ण ने भर को ही ऐसा व्यक्ति गृहस्थों के सम्पर्क में आता है। द्वितीय पाण्डव भीम को सुनायी थी। उसके बाद यह ऐसा परमात्मचिन्तनपरायण संन्यासी भिक्षु कहा जाता तिथि इसी नाम से विख्यात हो गयी। इससे पूर्व इसका है । दरिद्र या अभावग्रस्त होकर मांगने वाला व्यक्ति भिक्षु नाम कल्याणी था। मत्स्य पुराण ( ६९,१९-६५ ) नहीं, याचक कहलाता है। संसारत्यागी बौद्ध संन्यासी और पद्मपुराण २.२३ में इसका विशद विवेचन किया भी भिक्षु कहे जाते हैं। गया है, जिसका अधिकांश भाग कृत्यकल्पतरु (३५४भिक्षुक उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद्, जिसका सम्बन्ध ३५९) ने उद्धृत किया है तथा हेमाद्रि ( व्रतखण्ड संन्यासाश्रम से है। १०४४-१०४९ पद्म से ) ने भी उद्धृत किया है। भिषक्-यह शब्द सभी वेदसंहिताओं में साधारणतः व्यव- माघ शुक्ल दशमी को स्नान करके शरीर पर घी लगाकर हृत हुआ है । प्रारम्भिक वैदिक ग्रन्थों में भिषककर्म भगवान् विष्णु की 'नमो नारायणाय' मन्त्र से पूजा करनी असम्मानित नहीं था। अश्विनीकुमार, वरुण तथा रुद्र चाहिए । भगवान् के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों का उनके सभी भिषक् कहे गये हैं। परन्तु धर्मसूत्रों में इस कार्य विभिन्न नामों (यथा केशव, दामोदर आदि) से पूजन की निन्दा हुई है। यह घृणा यजुर्वेद की कुछ सं० (तै० करना चाहिए। गरुड, शिव तथा गणेश के पूजन के Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकादशी-भीष्माष्टमी ४७९ साथ एकादशी को पूर्ण उपवास करना चाहिए । द्वादशी भीष्मपञ्चक-कार्तिक शुक्ल एकादशी से पांच दिन तक को किसी नदी में स्नान करके घर के सामने मण्डप व्रती को तीनों कालों में पंचामृत और पञ्चगव्य शरीर में बनाना चाहिए । तदनन्तर एक जलपूर्ण कलश को, जिसकी लगाकर चन्दनमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए और तली में छोटा सा छेद हो, किसी तोरण में लटका कर यव, अक्षत तथा तिलों से पितृतर्पण । पूजन के समय 'ओं स्वयं रात भर खड़े होकर उसकी एक-एक बूंद को अपनी नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र का १०८ बार जप करना हथेली पर गिरते रहने देना चाहिए और प्रत्येक बूंद के चाहिए। हवन के समय षडक्षर मन्त्र ‘ओं नमो विष्णवे' साथ भगवान् का नाम लेते रहना चाहिए । तदन तर द्वारा घृतमिश्रित यव तथा अक्षतों से आहुतियाँ देनी चार ऋग्वेदी ब्राह्मणों द्वारा होम, चार यजुर्वेदी ब्राह्मणों चाहिए। यह क्रम पाँच दिनों तक चलना चाहिए। प्रथम से रुद्रजाप तथा चार सामवेदी ब्राह्मणों से सामगान दिन से पांचवें दिनों तक क्रमशः हरि के चरण, घुटने, कराना चाहिए । बारहों विद्वान् ब्राह्मणों को अंगूठियाँ नाभि, कन्धे तथा सिर का कमल, बिल्वपत्र, भृङ्गारक, तथा वस्त्र देकर सम्मानित करना चाहिए। दूसरे दिन (चतुर्थ दिन) बाण, बिल्व तथा जया एवं मालती से प्रातः गौएँ दान में दी जानी चाहिएँ, तदनन्तर यजमान पूजन करना चाहिए। शरीर की शुद्धि के लिए व्रती कहे, "केशव प्रसन्न हों, विष्णु शिव के तथा शिव विष्णु को एकादशी से चतुर्दशी तक क्रमशः गोमय, गोमूत्र, के हृदय है।" उसे देवविषयक इतिहास-पुराण भी सुनना गोदुग्ध तथा गोदधि का सेवन करना चाहिए। पञ्चम चाहिए । दे० गरुड० १.१२७ । दिवस ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दान-दक्षिणा से (२) माघ शुक्ल द्वादशी को पुलस्त्य ऋषि ने विदर्भ- सन्तुष्ट करना चाहिए । इस व्रत के आचरण से वह पापनरेश भीम को, जो नल की पत्नी दमयन्ती के पिता थे, मुक्त हो जाता है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार इस इसका माहात्म्य वर्णन किया था। व्यवस्था तथा विधि व्रत को ब्रह्माजी ने श्री कृष्ण को सुनाया था। पुनः दूसरी वही है जो अभी वणित हुई है। व्रती इस व्रत के बार शरशय्या पर सोये हुए भीष्मजी ने इसे श्री कृष्ण आचरण से समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । यह व्रत को सुनाया था। वाजपेय तथा अतिरात्र यज्ञ से भी श्रेष्ठ है। भीष्मस्तवराज-पितामह भीष्म के अन्तिम प्रयाण के भीमैकादशी-माघ शुक्ल एकादशी पुष्य नक्षत्र युक्त अथवा समय पाण्डवों के साथ श्रीकृष्ण जब उनके निकट पहुँचे बिना पुष्य नक्षत्र के ही बड़ी पवित्र मानी जाती है तथा तब भीष्म ने बड़े ओजस्वी, दार्शनिक और आध्यात्मिक भगवान् विष्णु को यह बहुत प्रिय है। पद्मपुराण, ६.२३९.- वचनों से श्रीकृष्ण की स्तुति की थी। भगवान् की २८ में धौम्य ऋषि के द्वारा भीमसेन को इसका माहात्म्य ____ अलौकिक महिमा और परात्पर स्वरूप का इसमें निरूपण बतलाया गया है। हुआ है अतएव यह 'स्तवराज' कहा जाता है। यह स्तव भगवान् के दिव्य नाम-रूपों की व्याख्या है इसलिए भीष्म-कुरुवंशी राजा शान्तनु और गङ्गा के पुत्र । अपने पिता का विवाह सत्यवती के साथ संभव बनाने के लिए यह भगवद्गीता और विष्णुसहस्रनाम के समकक्ष महा भारत के पंचरत्नों में अन्यतम गिना जाता है। आजीवन ब्रह्मचर्य रखने की भीषण प्रतिज्ञा इन्होंने की थी, अतः ये भीष्म कहलाये । मौलिक नाम देवव्रत था। भीष्माष्टमी-माघ शुक्ल अष्टमी भीष्म पितामह का महाभारत में वर्णित कौरव-पाण्डवों के पितामह भीष्म __ महाप्रयाण दिन है। इस तिथि को अखंड ब्रह्मचारी भीष्म का नाम सभी साक्षर लोग जानते हैं। अनेक धार्मिक, को जल दान तथा श्राद्ध किया जाता है। जो लोग इस दार्शनिक तथा राजनीतिक तथ्यों की सूक्ष्म बातें भीष्म के व्रत को करते हैं, वे वर्ष भर के समस्त पापों से मुक्त द्वारा कही गयी है जिनका उपदेश उन्होंने विशेष कर होकर सुख सौभाग्य प्राप्त करते हैं। जिस व्यक्ति के पिता युधिष्ठिर को दिया था। शान्तिपर्व में भीष्म के नाम से जीवित हों वह भी भीष्म को जल दान, तर्पणादि कर राजनीति, समाजनीति तथा धर्मनीति का विशद और सकता है (समयमयूख, ६१)। यह तिथि सम्भवतः विस्तृत वर्णन है । अनुशासन पर्व, १६७.२८ पर आधारित है। भुजबल Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० भुवनेश्वर-भूतवीर निबन्ध, १० ३६४ में दो श्लोक आये हैं जिन्हें तिथितत्त्व, पुट है, जो रामभक्ति पर कृष्णभक्ति का प्रभाव प्रकट निर्णयसिन्धु आदि ने उद्धृत किया है : करता है। इधर इसकी कई प्रतियाँ अयोध्या, रोवाँ आदि शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम् । से प्राप्त हुई है। संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ।। भूखड़-उत्तर भारत में भटकने वाले शैव योगियों का वर्ग। वैयाघ्रपद्य गोत्राय सांकृतिप्रवराय च । यह औघड़ योगियों की ही एक शाखा है जिसे गोरखनाथ अपुत्राय ददाम्येतत् सलिलं भीष्मवर्मणे ।। के एक शिष्य ब्रह्मगिरि ने गुजरात में स्थापित किया था। ब्राह्मण तक भी भीष्म पितामह जैसे आदर्श क्षत्रिय ब्रह्मगिरि ने अपने सम्प्रदाय की पाँच शाखाएँ बनायीं : को जलदान करना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते हैं। रूखड़, सूखड़, भूखड़, कूकड़ तथा गूदड़ । प्रथम दो संख्या भुवनेश्वर-कटक और जगन्नाथपुरी के मध्यस्थित उड़ीसा में अधिक हैं। भूखड़ तथा कूकड़ अपने भिक्षापात्रों में का प्रसिद्ध तीर्थस्थान। यह स्थान प्राचीन उत्कल की राज- धूपादि सुगन्धित पदार्थ नहीं जलाते, जब कि अन्य ऐसा धानी था और अब भारत के स्वतन्त्र होने पर उड़ीसा की ___करते हैं । गूदड़ संन्णसियों के महापात्र हैं। इनका प्रिय राजधानी हो गया है। भुवनेश्वर काशी की तरह ही उच्चारण 'अलख' शब्द है। औघड़ों का एक छठा वर्ग शिवमन्दिरों का नगर है । इसे 'उत्कल-वाराणसी', 'गुप्त- अखड़ कहलाता है । काशी' भी कहते हैं। पुराणों में इसे 'एकाम्रक्षेत्र' कहा भूत-जो व्यतीत, विगत बीता या हो चुका है। अव्यक्त गया है। भगवान् शङ्कर ने इस क्षेत्र को प्रकट किया से स्थूल जगत् के विकास में घनीभूत हुए वर्गीकृत तत्त्वों इससे इसे 'शाम्भव-क्षेत्र' भी कहते हैं। यहाँ लिङ्गराज को भी (स्थिर के अर्थ में) भूत कहते हैं, जैसे आकाश, वायु, और मुक्तेश्वर के मन्दिर अपने धार्मिक स्थापत्य के लिए अग्नि, जल और क्षिति । उत्पन्न होकर विद्यमान प्राणी प्रसिद्ध हैं। ये मन्दिर नागर स्थापत्य शैली के सर्वोत्तम और सूक्ष्म शरीरधारी (प्रेत) आत्मा भी भूत कहे जाते हैं। नमूने हैं। भूतडामर तन्त्र-शाक्तों के तन्त्र साहित्य में इस ग्रन्थ का भुवनेश्वरयात्रा-'गदाधरपद्धति' के कालसार भाग, १९०- विषय जादू-टोना है । १९४ में भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं का वर्णन किया भूतपूरीमाहात्म्य-हारीतसंहिता का एक अंश भूतपुरीगया है, यथा प्रथमाष्टमो, प्रावारषष्ठी, पुष्यस्नान, आज्य माहात्म्य है । भूतपुरी पेरुम्बुदूर का नाम है, जहाँ रामानुज कम्बल आदि । स्वामी का जन्म हुआ था। भूतपुरीमाहात्म्य में स्वामीजी भुवनेश्वरी-शाक्त उपासना सिद्धान्त के अनुसार दस महा- की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन है । विद्याएँ मानी गयी हैं। निगम जिसे विराट विद्या कहते भूतभैरवतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत चौसठ तन्त्रों हैं, आगम उसे ही महाविद्या कहते हैं। दक्षिण तथा वाम की सूची में इस तन्त्र की भी गणना है। दोनों मार्ग वाले तान्त्रिक दसों विद्याओं की उपासना भूतमात्र्युत्सव-ज्येष्ठ मास की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक करते हैं। ये महाविद्याएँ हैं-महाकाली, उग्रतारा, इस व्रत का अनुष्ठान होता है। दे० हेमाद्रि, २.३६५षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगला- ३७० । 'उदसेविका' के ही तुल्य यह भी है। राजा भोज मुखी, मातङ्गी और कमला। के ग्रन्थ सरस्वतीकण्ठाभरण ( श्लोक ९४ ) के अनुसार भुवनेश्वरीतन्त्र-मिथ तन्त्रों में से एक 'भुवनेश्वरी तन्त्र' यह एक होली के जैसा जलक्रीडा उत्सव है । भ्रातृभाण्डा, भी है। भूतमाता तथा उदसेविका एक ही उत्सव के तीन नाम भुशुण्डिरामायण-रामोपासक सम्प्रदाय के अनेकानेक है । दे० हेमाद्रि, २.३६७। ग्रन्थों में भुशुण्डिरामायण भी एक है। कुछ विद्वानों का भूतवीर-ऐतरेय ब्राह्मण (७.२९) में उद्धृत पुरोहितों के मत है कि यह अध्यात्मरामायण से पहले लिखी एक परिवार का नाम, जो जनमेजय द्वारा काश्यपों को जा चुकी थी। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका रचनाकाल निकालकर, उनके स्थान पर नियुक्त किये गये थे। १३०० ई० के आस-पास है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक काश्यपों के एक परिवार असितमगों ने पुनः जनमेजय की नहीं कहा जा सकता। इसके भीतर माधुर्य भाव का गहरा कृपा प्राप्त की तथा भूतवीरों को बाहर निकलवा दिया। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतानि भृगुव्रत 1 भूतानि - 'भूत' का बहुवचन समस्त जीवजगत् के लिए प्रायः इसका प्रयोग होता है। चतुर्व्यूहान्तर्गत विष्णु के पाँच रूपों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं । अन्तिम रूप ब्रह्मा की उत्पत्ति चतुर्थ व्यूह अनिरुद्ध से होती है, जो सम्पूर्ण दृष्ट जगत् (भूतानि) के स्रष्टा है। भूति-शक्ति की एक विशेष अवस्था । प्रारम्भिक सृष्टि की प्रथमावस्था में शक्ति दो रूपों में जागती है (जैसे कि इसके पूर्व नींद में रही हो ) १ क्रिया ( कार्य ) तथा भूति ( होना ) । भूतेश्वर - भूतों ( जीवों ) के ईश्वर - शिव बोलचाल में भूत का अन्य अर्थ 'प्रेत' है प्रेत उन आत्माओं में है जो किसी घोर कर्मवश मृत्यु की प्राप्त हो भटकते रहते हैं । प्रेत श्मशान में निवास करते हैं। इस प्रकार शिव उन सभी भूतों के स्वामी हैं जो श्मशानों के निवासी हैं । जिस समय शिव ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय भूत प्रेत उनके साथ होते हैं और वे विद्रोही दैत्यों को पददलित करते रहते हैं। ताण्डव में शिव की देवी ( शक्ति ) उनका अनुकरण करती हैं । भूदेवी - पृथ्वी माता को हो मानवीकरण द्वारा देवी का रूप दिया गया है । उनके दो स्वरूप हैं : ( १ ) दयालु और (२) ध्वंसक ये दयालु रूप में सभी की माता तथा अन्नदा कहलाती हैं। बंगाल में उन्हें भूदेवी, धरती, मायी, वसुन्धरा, अम्बवाची, वसुमती एवं ठकुरानी आदि नामों से पुकारते हैं । धार्मिक हिन्दू नित्य प्रातः नींद से उठकर भूदेवी की स्तुति करके ही अपना पैर नीचे रखते हैं । भगवान् विष्णु की योगमाया के दो रूप लीलादेवी और भूदेवी उनके अगल-बगल विराजमान होते हैं। आगमसंहिताओं के अनुसार इन तीन मूर्तियों के रूप में विष्णुपूजा की जाती है । - भूभाजनतयह संवत्सरत है। यदि कोई व्यक्ति पितरों को नैवेद्य अर्पण करने के बाद एक वर्ष तक खाली भूमि पर ( न तो थाली में और न किसी केला इत्यादि के पसे पर ) भोजन करता है तो यह समस्त पृथ्वी का सम्राट् बनता है । भूमिव्रत शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को सूर्यपूजन करके पवित्र मृतिका, बालुका या नर्मदा के पद्म से शिवमूर्ति ( लिङ्ग ) का निर्माण करना चाहिए। उस समयउ पवास भी करना चाहिए। पूजन में भक्त को केसर, पुष्प, घृतमिश्रित ६१ ४८१ पायस (खीर) तथा कुछ उपहारादि का समर्पण करना चाहिए । इस व्रत से व्रती राजा के समान प्रभुत्व प्राप्त करता है । राजा को ही इस व्रत का आचरण करना चाहिए । भृगु वैदिक ग्रन्थों में बहुचर्चित एक प्राचीन ऋषि वे - । वरुण के पुत्र ( शत० ० ११.६.१.१० आ० ९.१ ) कहलाते हैं तथा पितृबोधक 'वारुणि' उपाधि धारण करते हैं ( ऐ० ब्रा० ३.३४ ) । बहुवचन ( भृगवः ) में भृगुओं को अग्नि का उपासक बताया गया है । स्पष्टतः यह प्राचीन काल के पुरोहितों का एक ऐसा समुदाय था जो सभी वस्तुओं को भृगु नाम से अभिहित करते थे । कुछ सन्दर्भों में इन्हें एक ऐतिहासिक परिवार बताया गया है ( ऋ० वे० ७.१८, ६, ८.३.९,६, १८ ) । यह स्पष्ट नहीं है कि 'दाशराज्ञ युद्ध' में भृगु पुरोहित थे या योद्धा । परवर्ती साहित्य में भृगु वास्तविक परिवार है जिसके अनेक विभाजन हुए हैं। भृगु लोग कई प्रकार के याज्ञिक अवसरों पर पुरोहित हुए हैं, जैसे अग्निस्थापन तथा दशमेय ऋतु के अवसर पर कई स्थलों पर वे आंगिरसों से सम्बन्धित है। भूलन बावा- मध्य प्रदेश में कुछ विचित्र देवदेवियों की मान्यता है । भूलन बाबा उनमें से एक ग्रामदेवता हैं । विश्वास किया जाता है कि इसके प्रभाव से लोग अपनी चीजें भूलने नहीं पाते हैं। इनकी मनौती न करने पर भूल बहुत होती है और जहाँ-तहाँ चीजें छूट जाती हैं । खोज करने पर वस्तु प्राप्ति होते ही इस देवता की पूजा होती है । भूसुरानन्द छान्दोग्य तथा केनोपनिषद पर अनेक टीकाएँ हैं । उनमें से भूसुरानन्द की भी एक टीका है । - भृगु ( स्मृतिकार ) – प्रसिद्ध धर्मशास्त्रीय ग्रंथ 'मनुस्मृति' की रचना मनु महाराज के आदेश से महर्षि भृगु ने की । भृगुवल्ली तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं शिक्षावल्ली, - आनन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली। दूसरे और तीसरे भाग को मिलाकर 'वारुणी' उपनिषद् भी कहते है । भृगुव्रत - यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ होता है । यह तिथिव्रत है । भृगुपदवाचक बारह देवों का इसमें पूजन होता है, जिनको यज्ञ का समर्पण किया जाता है । एक वर्षपर्यन्त यह अनुष्ठान चलता है ( प्रत्येक कृष्ण Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ भेडाघाट-भैरवतन्त्र पक्षीय द्वादशी को)। व्रत के अन्त में गौ का दान भेदाभेद सिद्धान्त का प्रतिपादन आगे चलकर भास्कराचार्य विहित है। ने किया। वैष्णवों में भेदाभेदसम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य भेड़ाघाट-मध्य प्रदेश में जबलपुर से पश्चिम १२ मील निम्बार्काचार्य हुए हैं । दूर नर्मदाजी का भेड़ाघाट है। कहते हैं, यह महर्षि भग भेदोज्जीवन-आचार्य व्यासराजकृत भेदोज्जीवन नामक ग्रन्थ की तपोभूमि है। तपःस्थान विद्यमान है । नर्मदा के उनके द्वारा लिखे तीन ग्रन्थों में से एक है। इसमें माध्वउत्तर तट पर बानगङ्गा नदी का संगम है। पास में मत का प्रतिपादन किया गया है । श्रीकृष्णमन्दिर और एक छोटी पहाड़ी पर गौरीशङ्कर का भैमी एकादशी-माघ शुक्ल एकादशी को जब मृगशिरा मन्दिर है । इस मन्दिर के चारों ओर वृत्ताकार में चौसठ- नक्षत्र हो तब यह व्रत किया जाता है। उस दिन व्रती को योगिनीमन्दिर विद्यमान है। इन दोनों मन्दिरों का उपवास रखकर द्वादशी के दिन षट्तिली' होना चाहिए । निर्माण त्रिपुरी के कलचुरि राजाओं के समय में हुआ था। षट्तिली का तात्पर्य है तिलमिश्रित जल से स्नान, तिल भेड़ाघाट से थोड़ी दूर पर 'धुआँधार' प्रपात है। यहाँ को पीसकर उससे शरीर मर्दन, तिलों से ही हवन तथा नर्मदा का जल ४० फुट ऊपर से गिरता है। प्रपात के तिल मिश्रित जल का पान, तिलों का दान और तिलों आगे नर्मदा का प्रवाह संगमरमर की चट्टानों के मध्य से का ही भोजन । यदि कोई व्यक्ति इस एकादशी को, जो बहता है । ये चट्टानें दर्शनीय और विश्वविख्यात हैं। 'भीमतिथि' कहलाती है, उपवास रखता है तो वह विष्णुलोक भेद-एक असुर का नाम । अथर्ववेद (१२.४ ) में प्राप्त करता है। भेद का उल्लेख एक बुरे अन्त को प्राप्त करने वाले व्यक्ति भैरव-शिव का नाम, जिसका अर्थ भयावना होता है । के अर्थ में हुआ है। क्योंकि उसने इन्द्र को एक गाय प्रारम्भिक अवस्था में यह शब्द त्रिदेवों में अन्तिम देवता ( वशा ) देने से इन्कार कर दिया था। उसका अधार्मिक शिव का वाचक था । यद्यपि यह शब्द प्राचीन है चरित्र उसे अनार्य दल का नेता मानने को बाध्य करता है। किन्तु शिव की भैरव के स्वरूप में पूजा नयी है । शिव के भेददर्पण-तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थ, जो भैरव रूप के संप्रति आठ अथवा बारह प्रकार हैं। उनमें विशिष्टाद्वैत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन विशेष प्रचलित हैं कालभैरव, जिनका वाहन श्वान (कुत्ता) करता है। है । इनकी शक्ति का नाम भैरवी है। भैरव के ग्रामीण भेदधिक्कारसक्रिया-एक अद्वैतवेदान्तीय टीकाग्रन्थ, जो रूप भैरों है। ये मुख्यतः कृषकों के देवता हैं । भैरों नारायणाश्रम स्वामी ने अपने गुरु नृसिंहाश्रम के 'भेद- की पूजा वाराणसी तथा बम्बई में और उत्तर तथा मध्य धिक्कार' ( जो भेदवाद का खण्डन है ) पर लिखा है। भारत के किसानों में प्रचलित है । मध्य भारत में कमर में स्वयं इस टीका की भी टीका उन्होंने लिखी और उसका साँप लपेटे एक मृदङ्गवादक के रूप में या केवल एक नाम रखा 'भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला' । लाल पत्थर के रूप में इनकी पूजा दूधदान से होती है । भेदधिक्कारसत्क्रियोज्ज्वला-दे० 'भेदधिक्कारसत्क्रिया। शहरों में मादक पेयों द्वारा इनकी पूजा होती है। गांव के भेदाभेद-बादरायण के पूर्व ही जीवात्मा तथा ब्रह्म के कृषक तथा शहरों में जोगी (नाथ) इनके भक्त होते हैं। सम्बन्ध के विषय में तीन सिद्धान्त वर्तमान थे । आश्मरथ्य भैरवजयन्ती-कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी के अनुसार आत्मा न तो ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है और कालाष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। उस दिन उपवास न बिल्कुल अभिन्न । यह पहला सिद्धान्त था जिसे 'भेदा- रखकर जागरण करना चाहिए । रात्रि के चार प्रहर तक भेद' कहते हैं। दूसरा है औडुलोमि का 'द्वैतसिद्धान्त', भैरव के पूजन, जागरण तथा शिवजी के विषय में कथाएँ जिसके अनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है और सुननी चाहिए। इससे व्रती पापमुक्त होकर सुन्दर शिवमोक्ष के समय ब्रह्म में मिलकर एकाकार हो जाता है । भक्त बन जाता है। काशीवासियों को यह व्रत अवश्य इसे सत्यभेद भी कहते हैं। तीसरे सैद्धान्तिक हैं काशकृत्स्न। करना चाहिए। इनके अनुसार आत्मा ब्रह्म से किंचित् भी भिन्न नहीं है। भैरवतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों की इसे 'अद्वैतसिद्धान्त' कहते हैं। आश्मरथ्य द्वारा स्थापित सूची में भैरवतन्त्र भी एक है । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैरवयामलतन्त्र-भैमवत ४८३ भैरवयामलतन्त्र-शाक्त साहित्य का प्रमुख तन्त्र । इसका इससे व्रती सूखोपभोग करता हआ स्वर्ग प्राप्त करता है। उल्लेख वामकेश्वर, कुलचूडामणि तन्त्र एवं आगमतत्त्व- भोज (राजा)-उज्जयिनी के प्रसिद्ध परमार राजा । धारा विलास में हआ है । वामकेश्वर इस तन्त्र का एक भाग है। इनकी दूसरी राजधानी थी। ये विद्या, कला और कवियों भैरवी-देवी के रौद्र रूप को भैरवी (भयानक) कहते हैं। के गणग्राही पारखी थे। व्याकरण, दर्शन काव्यकला यह भैरव ( शिव ) रौद्ररूप की स्त्री शक्ति है। शाक्त आदि पर इनके रचे अनेक विख्यात ग्रन्थ हैं । योगसूत्र पर मतावलम्बी लोग भैरवी की गणना दस महाविद्याओं में रची हुई योगमार्तण्ड नामक इनकी टीका अथवा वृत्ति करते हैं। एक बहुमान्य कृति है। यह बहत सरल भाषा में योग भैरवीचक्र-दे० 'वाममार्ग' । की व्याख्या करती है। भैरवतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित तन्त्रों में भौमवारव्रत-स्कन्दपुराण के अनुसार यह व्रत प्रत्येक एक तन्त्र । मङ्गलवार को करना चाहिए और एक शर्करापूरित भैरो (भैरवनाथ)-हिन्दुओं की धार्मिक नगरी काशी की। ताम्रपात्र दान करना चाहिए । इस प्रकार एक वर्ष व्रत रक्षा छः सौ देवताओं द्वारा, जिनके मन्दिर नगर में करते हए अन्तिम मंगलवार को एक गोदान करना बिखरे हुए हैं, होती है। विश्वेश्वर अथवा शिव इस नगरी चाहिए। मंगल देखने में सुन्दर एवं पृथ्वी के पुत्र कहे के राजा है। विश्वेश्वर के मुख्य दैवी नगररक्षक ( कोत- जाते हैं तथा उनका उपर्युक्त व्रत सौन्दर्य, रूप एवं धन वाल ) भैरोनाथ है, जिनका मन्दिर उनके स्वामी के प्राप्त कराता है। मन्दिर से एक मील से भी अधिक दूर उत्तर में स्थित भौमवत-(१) भौमवार को जब स्वाती नक्षत्र हो उस है। विश्वनाथजी को आज्ञानुसार वे देवों एवं मानवों पर दिन व्रती को नक्तपद्धति से आहार करना चाहिए। यह शासन करते है, वे सभी दुष्टात्माओं से नगर की रक्षा क्रम सात बार चलना चाहिए। मङ्गल ग्रह की प्रतिमा के लिए नियुक्त है । अतः ऐसे दुष्टों को नगर से बाहर बनवाकर उसे किसी ताम्रपात्र में स्थापित कर तथा रक्त करना उनका कर्तव्य है। भैरोनाथ अपनी आज्ञाओं का वस्त्र से आच्छादित करके केसर का अङ्गराग के समान पालन एक विशाल प्रस्तरगदा ( दण्ड ) से कराते हैं, जो मूर्ति पर लेप करना चाहिए । पुष्प, नैवेद्यादि अर्पित करके चार फुट लम्बी है एवं चाँदी से उसका ऊपरी भाग मढ़ा किसी ब्राह्मण को प्रतिमा दान में देनी चाहिए और देते हुआ है। इसकी पूजा रविवार तथा मंगलवार को होती समय निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए : है । भैरोनाथ श्वान ( कुक्कुर ) की सवारी करते हैं, जो “यद्यपि त्वं कुजन्मा असि तथापि प्राज्ञाः त्वां 'मङ्गल' देवमति के सामने मन्दिर में प्रवेश करते ही दृष्टिगोचर इति कथयन्ति।" 'कूजन्मा' शब्द में श्लेष अलङ्कार है होता है। जिसके दो अर्थ हो सकते हैं; अमंगलकारी दिन में उत्पन्न भोगसंक्रान्तिव्रत-संक्रान्ति के दिन एक साथ सधवा स्त्रियों एवं पृथ्वी से उत्पन्न । मङ्गल की बाह्याकृति रक्त वर्ण की है को उनके पतियों के साथ बुलाकर उन्हें केसर, काजल, अतएव ताम्र, रक्त वर्ण का वस्त्र तथा केसर जो उसके वर्ण सुरमा, सिन्दूर, पुष्प, इत्र, ताम्बूल, कपूर तथा फल प्रदान के अनुकूल हैं, प्रयुक्त किये जाते हैं। करना चाहिए । तदुपरान्त उन्हें भोजन कराकर वस्त्रों (२) मंगलवार को ही मङ्गल का पूजन होना चाहिए। का जोड़ा देना चाहिए । एक वर्ष तक प्रति संक्रान्ति के प्रातःकाल मंगल के नामों का जप किया जाय (कुल २१ दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है । व्रत के अन्त में सूर्य नाम हैं, यथा, मंगल, कुज, लोहित, सामवेदियों के पक्षकी पूजा करके किसी ऐसे ब्राह्मण को जौ दान करना पाती, यम आदि) और त्रिभुजात्मक आकृति खींचकर उसके चाहिए जिसकी स्त्री जीवित हो। इससे व्रती कल्याण मध्य में एक छिद्र बनाकर केसर अथवा रक्त चन्दन के प्राप्त करता है। लेप से प्रत्येक कोण पर तीन नाम (आर, वक्र, कूज) भोगावाप्तिव्रत-इस व्रत में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा के अङ्कित कर दिये जायँ । भारद्वाज गोत्र में उज्जयिनी नामक बाद प्रतिपदा से तीन दिन तक हरि का पूजन तथा पलङ्ग प्राचीन नगर में मङ्गल का जन्म हुआ था। उनका वाहन पर बिछाये जाने वाले वस्त्रों का दान किया जाता है। मेष है। यदि कोई व्यक्ति जीवनपर्यन्त इस व्रत Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ का आचरण करता है तो सुख-समृद्धि, पुत्र-पौत्रादि प्राप्त करके ग्रहों के दिव्य लोक को प्राप्त होता है ।. वर्ष कृत्यदीपिका, ४४३-४५१ में भौमवार व्रत का विशद विवेचन मिलता है। दे० 'भौमवारव्रत' । भौमितैत्तिरीय संहिता (५.५,१८,१) में उद्धृत अश्व मेधयज्ञ की बलिपशुतालिका का एक पशु भौमि है। इसकी पहचान अब कठिन है। भ्रातृद्वितीया - ( १ ) कार्तिक शुक्ल द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । इसका नाम यमद्वितीया भी है, क्योंकि प्राचीन काल में यमुना ने अपने भाई यम को इसी दिन भोजन कराया था। कुछ अधिकारी ग्रन्थों, जैसे कृत्यतत्त्व, ४५३; व्रतार्क, व्रतराज, ९८ १०१ में दो कृत्यों का सम्मिलित विधान ही वर्णित है यम का पूजन तथा किसी भी व्यक्ति का अपनी बहिन के यहां भोजन । (२) यम से सम्बद्ध होने के कारण यह दिन भाई के लिए अनिष्टकारी भी समझा जाता है। अतः विशेष कर उत्तर भारत में बहिनें इस तिथि को अपने भाई को यम की दृष्टि से बचाने के लिए झूठा शाप देकर उसको मृत घोषित कर देती हैं । यह यम को धोखा देने वाला एक अभिचार कृत्य है। कंटक और कुश तोड़कर प्रत्येक शाप के साथ फेंका जाता है । भ्रूणहत्या --- (१) भ्रूणहत्या ( गर्भ की हत्या) एक प्रकार का पातक कहा गया है। इसका उल्लेख परवर्ती संहिताओं (मंत्रा० [सं० ४.१ ९ का० सं० ३१.७ कपिष्ठल संहिता) में सबसे बड़े अपराध के रूप में हुआ है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि आलोचक विद्वानों का पुत्रीवध सम्बन्धी मत कितना भ्रमपूर्ण है। (२) वेदपाठी ब्रह्मचारी भी भ्रूण कहा गया है । म म—व्यञ्जन वर्णों के पञ्चम वर्ग का पाँचवाँ अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है : मकारं शृणु चाङ्गि स्वयं परमकुण्डली । तरुणादित्यसंकाशं चतुर्वर्गप्रदायकम् || पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा ॥ तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम है : भौमि मकरसंकान्ति मकर म काली क्लेशितः कालो महाकालो महान्तकः । वैकुण्ठो वसुधा चन्द्री रविः पुरुषः ॥ कालभद्रो जया मेधा विश्वदा दोप्तसंज्ञकः । जठरश्च भ्रमा मानं लक्ष्मीर्मातोप्रबन्धनी ॥ विषं शिवो महावीरः शशिप्रभा जनेश्वरः । प्रमत्तः प्रिय रुद्रः सर्वाङ्ग वह्निमण्डलम् | मातङ्गमालिनी बिन्दुः श्रवणा भरथो वियत् ।। - एक जलचर प्राणी, जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला में श्रृंगारोपादान माना गया है। यजुर्वेद संहिता (१० ५.५,१३,१ मंत्रा०३. १४, १६ वाज० २४.३६) में उद्धृत अश्वमेघ यज्ञ के पशुओं की सूची में मकर भी उल्लि खित है। मकर गङ्गा का वाहन है यह अत्यन्त कामुक प्राणी है, इसलिए कामदेव की ध्वजा पर काम के प्रतीक रूप में इसका अडून होता है और कामदेव का विरुद 'मकरध्वज' है । मकरसंक्रान्ति धार्मिक अनुष्ठानों एवं स्पोहारों में मकरसंक्रान्ति बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। ७० वर्ष पहले यह १२ मा १३ जनवरी को होती थी किन्तु अब कुछ वर्षो से १३ या १४ जनवरी को होने लगी है । संक्रान्तिका अर्थ है एक राशि से उसकी अग्रिम राशि में सूर्य का प्रवेश। इस प्रकार जब धनु राशि से सूर्य मकर में प्रवेश करता है तो मकरसक्रान्ति होती है। इस प्रकार १२ राशियों की १२ संक्रान्तियाँ हैं । ये सभी पवित्र मानी गयी हैं । मकरसंक्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ होने के कारण इस संक्रान्ति का पुण्यफल विशेष माना गया है । - मत्स्यपुराण के अनुसार संक्रान्ति के पहले दिन दोपहर को केवल एक बार भोजन करना चाहिए । संक्रान्ति के दिन दाँतों को शुद्धकर तिलमिश्रित जल में स्नान करना चाहिए। फिर पवित्र एवं संयमी ब्राह्मण को तीन पात्र (भोजनीय पदार्थों से भरकर ) तथा एक गौ यम, रुद्र एवं धर्म के निमित्त दान करना चाहिए। धनवान् व्यक्ति को वस्त्र, आभूषण, स्वर्णघट आदि भी देना चाहिए । निर्धन को केवल फल-दान करना चाहिए । तदनन्तर औरों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए। इस पर्व पर गङ्गा स्नान का बड़ा माहात्म्य है। संक्रान्ति पर देवों तथा पितरों को दिये हुए वान को भगवान् सूर्य दाता को अनेक भावी जन्मों में लौटाते रहते हैं । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकुटआगम-मङ्गल ४८५ स्कन्दपुराण मकरसक्रान्ति पर तिलदान एवं गोदान को अधिक महत्त्व प्रदान करता है । मकुट आगम-यह एक रौद्रिक आगम है । मख-ऋग्वेद के सन्दर्भो में (९.१०१,१३) मख व्यक्ति- वाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त है, किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि वह कौन व्यक्ति था। सम्भवतः यह किसी दैत्य का बोधक । है । अन्य संहिताओं में भी मखाध्यक्ष के रूप में यह उद्धृत है। इस का अर्थ ब्राह्मणों में भी स्पष्ट नहीं है (शत० ब्रा० १४.१,२,१७)। परवर्ती साहित्य में मख यज्ञ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है ।। मग-विष्णुपुराण (भाग २.४,६९-७०) के अनुसार शाकद्वीपी ब्राह्मणों का उपनाम । पूर्वकाल में सीथिया या ईरान के पुरोहित 'मगी' कहलाते थे । भविष्यपुराण के ब्राह्मपर्व में कथित है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब, जो कुष्ठरोग से ग्रस्त थे, सूर्य की उपासना से स्वस्थ हुए थे। कृतज्ञता प्रकट करने के लिए उन्होंने मुलतान में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। नारद के परामर्श से उन्होंने शकद्वीप की यात्रा की तथा वहाँ से सूर्यमन्दिर में पूजा करने के लिए वे मग पुरोहित ले आये । तदनन्तर यह नियम बनाया गया कि सूर्यप्रतिमा की स्थापना एवं पूजा मग पुरोहितों द्वारा ही होनी चाहिए। इस प्रकार प्रकट है कि मग शाकद्वीपी और सूर्योपासक ब्राह्मण थे। उन्हीं के द्वारा भारत में सूर्यदेव की मूर्तिपूजा का प्रचार बढ़ा । इनकी मूल भूमि के सम्बन्ध में दे० 'मगध' । मगध-ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः मगध में बसनेवाली आर्यशाखा मग थी। इसीलिए इस जनपद का नाम 'मगध' (मगों को धारण करनेवाला प्रदेश) पड़ा। इन्हीं की शाखा ईरान में गयी और वहाँ से शकों के साथ पुनः भारत वापस आयी। यदि मग मूलतः विदेशी होते तो भारत का पूर्वदिशा स्थित प्रदेश उनके नाम पर अति प्राचीन काल से मगध नहीं कहलाता । यह एक जाति का नाम है, जिसको वैदिक साहित्य में नगण्य महत्त्व प्राप्त है । अथर्ववेद (४.२२,१४) में यह उद्धृत है, जहाँ ज्वर को गन्धार, मूजवन्त (उत्तरी जातियों) तथा अङ्ग और मगध ( पूर्वी जातियों ) में भेजा गया है। यजुर्वेदीय पुरुषमेध की तालिका में अतिक्रुष्ट (हल्ला करने वाली) जातियों में मगध भी है। मगध को व्रात्यों (पतितों) का देश भी कहा गया है। स्मृतियों में 'मागध' का अर्थ मगध का वासी नहीं बल्कि वैश्य (पिता) तथा क्षत्रिय (माता) की सन्तान को मागध कहा गया है। ऋग्वेद में मगध देश के प्रति जो धणा का भाव पाया जाता है वह सम्भवतः मगधों का प्राचीन रूप कीकट होने के कारण है। ओल्डेनवर्ग का मत है कि मगध देश में ब्राह्मणधर्म का प्रभाव नहीं था। शतपथ ब्राह्मण में भी यही कहा गया है कि कोसल और विदेह में ब्राह्मणधर्म मान्य नहीं था तथा मगध में इनसे भी कम मान्य था । वेबर ने उपर्युक्त घृणा के दो कारण बतलाये हैं; (१) मगध में आदिवासियों के रक्त की अधिकता (२) बौद्धधर्म का प्रचार । दूसरा कारण यजुर्वेद या अथर्ववेद के काल में असम्भव जान पड़ता है, क्योंकि उस समय में बौद्ध धर्म प्रचलित नहीं था। इस प्रकार ओल्डेनवर्ग का मत ही मान्य ठहरता है कि वहाँ ब्राह्मणधर्म अपूर्ण रूप में प्रचलित था। यह संभव जान पड़ता है कि कृष्णपुत्र साम्ब के समय में अथवा तत्पश्चात आने वाले कुछ मग ईरान अथवा पाथिया से भारत में आये हों। परन्तु मगध को अत्यन्त प्राचीन काल में यह नाम देने वाले मग जन ईरान से नहीं आये थे, वे तो प्राचीन भारत के जनों में से थे। लगता है कि उनकी एक बड़ी संख्या किसी ऐतिहासिक कारण से ईरान और पश्चिमी एशिया में पहुँची, परन्तु वहाँ भी उसका मूल भारतीय नाम मग 'मगी' के रूप में सुरक्षित रहा। आज भी गया के आस-पास मग ब्राह्मणों का जमाव है, जहाँ शकों का प्रभाव नहीं के बराबर था। मङ्गल-(१) 'आथर्वण परिशिष्ट' द्वारा निर्दिष्ट तथा हेमाद्रि, २.६२६ द्वारा उद्धृत आठ मांगलिक वस्तुएँ, यथा ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सर्षप, शुद्ध नवनीत, शमी वृक्ष, अक्षत तथा यव । महा०, द्रोणपर्व (८२,२०-२२) में माङ्गलिक वस्तुओं की लम्बी सूची प्रस्तुत की गयी है। वायुपुराण (१४.३६-३७) में कतिपय माङ्गलिक वस्तुओं का परिगणन किया गया है, जिनका यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व स्पर्श करने का विधान है-यथा दूर्वा, शुद्ध नवनीत दधि, जलपूर्ण कलश, सवत्सा गौ, वृषभ, सुवर्ण, मृत्तिका, गाय का गोबर, स्वस्तिक, अष्ट धान्य, तैल, मधु, ब्राह्मण कन्याएँ, श्वेत पुष्प, शमी वृक्ष, अग्नि, सूर्यमण्डल, चन्दन तथा पीपल वृक्ष । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ मङ्गलचण्डिकापूजा-मठ (२) मङ्गल एक ग्रह का नाम है । तत्सम्बन्धी व्रत सुवासिनी-संमान, १६ दीपकों से देवी की नीराजना और के लिए दे० 'भौमवत' । रात्रि को जागरण का विधान है । वैधव्य निवारण, पुत्रों मङ्गलचण्डिकापूजा-वर्षकृत्यकौमुदी (५५२.५५८) में की प्राप्ति तथा समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिए मङ्गला इस व्रत की विस्तृत विधि प्रस्तुत की गयी है। मङ्गल- की प्रार्थना की जाती है। दूसरे दिवस गौरीप्रतिमा का चण्डिका' को ललितकान्ता भी कहा जाता है। उसकी विसर्जन होता है। पूजा का मन्त्र ( ललितगायत्री) है : मङ्गलाष्टक-व्रत के लिए निमन्त्रित महिलाओं को जो नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकाय तु धीमहि । आठ द्रव्य वितरित किये जाते हैं उन्हें मङ्गलाष्टक कहते तन्नो ललिता कान्ता ततः पश्चात् प्रचोदयात् ॥ हैं। जैसे केसर, नमक, गुड़, नारियल, पान, दूर्वा, सिन्दूर अष्टमी तथा नवमी को देवी का पूजन होना चाहिए। तथा सुरमा। वस्त्र के टुकड़े अथवा कलश पर पूजा की जाती है। जो मङ्गल्यसप्तमी अथवा मङ्गल्यवत-सप्तमी के दिन वर्गाकार मङ्गलवार को इसकी पूजा करता है उसकी समस्त मण्डल बनाकर उस पर हरि तथा लक्ष्मी विराजमान किये मनोवाञ्छाएँ पूरी होती हैं। जाते हैं, पुष्पादि से उनकी पूजा की जाती है। मृत्तिका, मङ्गलचण्डी-मङ्गलवार के दिन चण्डो का पूजन होना। ताम्र, रजत तथा सुवर्ण के चार पात्रों को तैयार रखा चाहिए, क्योंकि सर्व प्रथमशिवजी ने और मङ्गल ने जाता है तथा चार मिट्टी के कलश, जो नमक, चीनी, तिल, इनकी पूजा की थी। सुन्दरी नारियाँ मङ्गलवार को सर्व- पिसी हल्दी से परिपूर्ण तथा वस्त्रों से ढके हों, तैयार रहते प्रथम इनकी पूजा । करती हैं बाद में सौभाग्येच्छु सर्व- हैं । आठ पतिव्रता, सधवा, पुत्रवती नारियाँ समादृत की साधारण चण्डी का पूजन करते हैं । जाती हैं तथा उन्हें दान-दक्षिणा देकर सम्मानित किया मङ्गलदीपिका-दोय महाचार्य के शिष्य सुदर्शन गुरु ने जाता है । उन्हीं पतिव्रताओं की उपस्थिति में भगवान् हरि महाचार्य कृत 'वेदान्तविजय' की 'मङ्गलदीपिका' नामक से मङ्गल्य ( कल्याणकारी जीवन ) के लिए पार्थना की व्याख्या लिखी है। यह ग्रन्थ कहीं प्रकाशित नहीं जाती है । तदनन्तर महिलाओं को विदा किया जाता है । हुआ है। अष्टमी को पुनः हरि का पूजन तथा आठ महिलाओं का मङ्गलव्रत-आश्विन, माघ, चैत्र अथवा श्रावण कृष्ण पक्ष । सम्मान कर तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का की अष्टमी को वह व्रत प्रारम्भ करके शुक्ल पक्ष की पारण किया जाता है । इसके पालन से प्रत्येक जन चाहे अष्टमी तक जारी रखा जाता है। इसमें अष्टमी को एक- वह स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रङ्क, अपनी मनःभक्त पद्धति से आहार तथा कन्याओं और देवी के भक्तों कामनाओं की पूर्ति होते हुए देखता है । को भोजन कराने का विधान है। नवमी को नक्त, दशमी मञ्जूषा-(१) मलय देशवासी वरदपुत्र पण्डित आनीय को अयाचित तथा एकादशी को उपवास विहित है। ने शांखायन श्रौतसूत्र का एक भाष्य किया है। इसमें से इसकी पुनः दो आवृत्तियाँ होनी चाहिए। प्रति दिन दान, नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाष्य नष्ट हो गया उपहार, होम, जप, पूजा तथा कन्याओं को भोजन है । दास शर्मा ने मञ्जषा लिखकर इन तीन अध्यायों का कराना चाहिए । बलि, नृत्य तथा नाटक करते हुए रात्रि- भाष्य पूरा किया है। जागरण भी करना चाहिए। देवी के अठारह नामों का (२) शब्दाद्वैत के उद्भट प्रतिपादक नागेश भट्ट सत्रहवीं जप भी इसमें विहित है । शताब्दी में हुए हैं। इन्होंने अपने मत का सर्वांगीण मङ्गलागौरीव्रत-विवाहोपरान्त समस्त विवाहित महिलाओं प्रतिपादन 'मञ्जूषा' नामक ग्रन्थ (वैयाकरण सिद्धान्तरत्नद्वारा श्रावण मास में प्रति मङ्गलवार को इस व्रत का मञ्जूषा) में किया है। आयोजन किया जाना चाहिए। पाँच वर्ष तक इसका मठ-छात्रावास या अतिथिनिवास । धार्मिक साधु-सन्तों अनुष्ठान चलता है । यह व्रत महाराष्ट्र में अधिक प्रचलित के निवास तथा बालकों के शिक्षणालय के रूप में विभिन्न है । ब्रत करने वाली महिलाएं मध्याह्न काल में मौन संप्रदायों के मठ बनाये जाते हैं । इन मठों में किसी विशेष धारण करके भोजन करती हैं। १६ प्रकार के पुष्प, १६ सम्प्रदाय का मन्दिर, देवमूर्ति, धार्मिक, ग्रन्थागार एवं Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणिदर्पण-मण्डूक ४८७ महन्त ( मठाधीश ) और अनेक शिष्य होते है । मठों के शिष्यत्व ग्रहण कर संन्यासी हो गये और सुरेश्वराचार्य के अधीन भूमि, सम्पत्ति आदि भी होती है, जिससे उनका नाम से ख्यात हुए । संन्यासी सुरेश्वर गुरु के साथ देश भ्रमण खर्च चलता है। साथ ही मठों के गृहस्थ लोग चेला भी करते रहे और जय शङ्कर ने शृंगेरी मठ की स्थापना की होते हैं जो प्रत्येक वर्ष उन मठों को दान देते हैं। तब उनको वहाँ का आचार्य बनाया। शृंगेरी मठ की ___ मठ प्राचीन बौद्ध विहारों के अनुकरण पर बने जान प्राचीन परम्परा से ऐसा जान पड़ता है कि वे बहुत दिनों पड़ते हैं, क्योंकि बुद्ध पूर्व संन्यासियों में मठ बनाने की प्रथा नहीं थी। संन्यास ग्रहण करने के पूर्व मण्डन मिश्र ने आपस्तम्बीय मणिदर्पण-आचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ । मण्डनकारिका, भावनाविवेक और काशीमोक्षनिर्णय मणिप्रभा-पतञ्जलि के योगदर्शन का १६वीं शताब्दी के नामक ग्रन्थों की रचना की थी। संन्यास के बाद इन्होंने अन्त का एक व्याख्या ग्रन्थ । इसके रचयिता गोविन्दानन्द तैत्तिरीयश्रुतिवार्तिक, नैष्कर्म्यसिद्धि, इष्टसिद्धि या स्वासरस्वती के शिष्य रामानन्द सरस्वती हैं। राज्यसिद्धि, पश्चीकरणवात्तिक, बृहदारण्यकोपनिषद्द्वात्तिक, मणिमान्-शङ्कराचार्य एवं मध्वाचार्य के शिष्यों में लघुवात्तिक, वात्तिकसार और वात्तिकसारसंग्रह आदि परस्पर घोर प्रतिस्पर्धा व्याप्त रहती थी। मध्व अपने को ग्रन्थ लिखे । सुरेश्वराचार्य ने संन्यास लेने के बाद शाङ्कर वायु का अवतार कहते थे तथा शङ्कर को महाभारत में मत का ही प्रचार किया और अपने ग्रन्थों में प्रायः उसी उद्धृत एक अस्पष्ट व्यक्ति मणिमान् का अवतार मानते मत का समर्थन किया। थे । मध्व ने महाभारत की व्याख्या में शङ्कर की मण्डल-गोलाकार या कोणाकार चक्र । शाक्त मतावलम्बी उत्पत्ति सम्बन्धी धारणा का उल्लेख किया है। मध्व के रहस्यात्मक यन्त्रों तथा मण्डलों का प्रयोग करते हैं, जो पश्चात् उनके एक प्रशिष्य पण्डित नारायण ने मणि- धातु के पत्रों पर चित्रित या लिखित होते हैं । कभी-कभी मञ्जरी एवं मध्वविजय नामक संस्कृत ग्रन्थों में मध्व घटों पर ये यन्त्र एवं मण्डल अंकित होते हैं । साथ ही वणित दोनों अवतारों ( मध्व के वायु अवतार एवं शङ्कर अंगुलियों की धार्मिक मुद्राएँ, हाथों के धार्मिक कार्यरत के मणिमान् अवतार ) के सिद्धान्त की स्थापना गम्भीरता संकेत (जिसे न्यास कहते हैं) भी इन पात्रों या घटों पर से की है। उपर्यत माध्व ग्रन्थों के विरोध में ही 'शङ्कर- निर्मित होते हैं। ये यन्त्र, मण्डल एवं मूद्रायें देवी को दिविजय' नामक ग्रन्थ की रचना हुई जान पड़ती है। उस पात्र में आमन्त्रित करने के लिए बनायी जाती हैं । मणिमञ्जरो-माध्व सम्प्रदाय का एक विशिष्ट ग्रन्थ । मण्डलब्राह्मण उपनिषद्-यह परवर्ती उपनिषद् है । रचनाकाल १४१७ वि० है । कृष्णस्वामी अय्यर ने इसका मण्डक-वर्षाकालिक जलचर, जिसकी टर्र-टर्र ध्वनि की संक्षिप्त कथासार लिखा है । दे० 'मणिमान्'। तुलना बालकों के वेदपाठ से की जाती है। संभवतः मणिमालिका-अप्पय दीक्षित रचित लघु पुस्तिका । शव इसीलिए एक वेदशाखाकार ऋषि इस नाम से प्रसिद्ध थे । विशिष्टाद्वैत पर हरदत्त प्रभूति आचार्यों के सिद्धान्त का ऋग्वेदीय प्रसिद्ध मण्डूकऋचा (७.१०३ तथा अ० वेद अनुसरण करनेवाला यह एक निबन्ध है। ४.१५,१२) में ब्राह्मणों की तुलना मण्डूकों की वर्षाकालीन मण्डन भट्ट-आश्वलायन श्रौतसूत्र के ग्यारह भाष्यकारों ध्वनि से की गयी है, जब ये पुनः वर्षा ऋतु के आगमन में से मण्डनभट्ट भी एक हैं। के साथ कार्यरत जीवन आरम्भ करने के लिए जाग पड़ते मण्डन मिश्र-नर्मदा तटवर्ती प्राचीन माहिष्मती नगरी के हैं । कुछ विद्वानों ने इस ऋचा को वर्षा का जादू मन्त्र निवासी मीमांसक विद्वान् । मण्डन मिश्र अपने समय के माना है। जल से सम्बन्ध रखने के कारण मेढक ठंडा सबसे बडे कर्मकाण्डी थे, उनके गुरु कुमारिल भट्ट ने ही करने का गुण रखते हैं, एतदर्थ मृतक को जलाने के शङ्कराचार्य को मण्डन मिश्र के पास शास्त्रार्थ करने के पश्चात् शीतलता के लिए मण्डूकों को आमन्त्रित करते हैं लिए भेजा था। (ऋग्वेद १०.१६,१४)। अथर्ववेद में मण्डूक को शङ्कराचार्य ने मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में परास्त ज्वराग्नि को शान्त करने के लिए आमन्त्रित किया गया किया । मण्डन मिश्र शास्त्रार्थ की शर्त के अनुसार उनका है (७.११६) । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ मण्डूकीयकथा-मथुरा मण्डूकीय कथा-ऋग्वेद के परिशिष्ट ब्राह्मण ग्रन्थ में मण्डूक त्रिपुरासुर के साथ भगवान् शङ्कर के युद्ध का विस्तृत या मण्डकीय की कथा मिलती है। मण्ड़कियों की कथा वर्णन इसमें पाया जाता है । पितरों का वर्णन भी विस्तार ऋक्प्रातिशाख्य में भी है। से मिलता है। व्रतों का वर्णन अधिक विस्तार से ५५-१०२ मतङ्ग उपागम-यह परमेश्वर आगम पर आश्रित एक अध्यायों में है। प्रयाग (१०३-११२ अ०), काशी (१८०उपागम है। १८५ अध्याय) और नर्मदा (१८७ से १९४ अ०) के मतसहिष्णुता-मत सहिष्णुता हिन्दुत्व की विशेषता है। भौगोलिक वर्णन और माहात्म्य दोनों पाये जाते हैं। यह सर्वधर्मसाम्य में विश्वास रखता है। वास्तव में मत्स्य पुराण की कई विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता यह भारतीय धर्म परम्परा मतसहिष्णुता के ऊपर टिकी हुई है कि इसमें सभी पुराणों की विषयानुक्रमणी दी गयी है। इसमें धार्मिक समता अथवा सभी धर्मों के सह है। दूसरी विशेषता ऋषियों का वंश वर्णन है। तीसरी अस्तित्व का भाव निहित है। विशेषता राजधर्म का विशद वर्णन है। चौथी विशेषता मतसारार्थसंग्रह-अप्पय दीक्षित रचित वेदान्त विषय का प्रतिमालक्षण अर्थात विभिन्न देवताओं की मूर्तियों के ग्रन्थ । इसमें श्रीकण्ठ, शङ्कर, रामानुज, मध्व प्रभृति निर्माण का विधान है। आचार्यों के मतों का संक्षिप्त परिचय कराया गया है। मत्स्यावतार-विष्णु के दस अवतारों में से मत्स्यावतार मतिमानुष-रामानुजाचार्य रचित एक ग्रन्थ । प्रथम है। इसका आविर्भाव प्रलय काल में सृष्टिबीजों की मत्स्यजयन्ती-चैत्र शुक्ल पंचमी को इस व्रत का अनुष्ठान रक्षा के निमित्त होता है, क्योंकि नैमित्तिक प्रलय में होता है । इसी दिन भगवान् मत्स्य के रूप में अवतरित समस्त सृष्टि जलमग्न हो जाती है । दे० तैत्तिरीय संहिता हुए थे। इसलिए भगवान् विष्णु की मत्स्यावतार रूपिणी ७.१.५.१।। प्रतिमा का पूजन किया जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ-हठयोग के विशिष्ट पुरस्कर्ता आचार्य मत्स्यद्वादशी-मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को इस व्रत के (मछन्दरनाथ)। ये नाथ सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य आदिपूर्व नियमों का पालन तथा एकादशी को उपवास करना नाथ के शिष्य थे । इतिहासवेत्ता आदिनाथ का समय चाहिए । द्वादशी के दिन व्रती को मन्त्रोचारण करते हए विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ मृत्तिका लानी चाहिए। उसे आदित्य को समर्पित कर दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं। इसलिए शरीर पर लगाकर स्नान करना चाहिए। इसमें नारायण आदिनाथ के शिष्य एवं गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के पूजन का विधान है। चार जलपूर्ण, पुष्पयुक्त कलशों की स्थिति आठवीं शताब्दी (विक्रम) का अन्त या नवीं को तिलपूर्ण पात्रों से आच्छादित कर चार समुद्रों का छादित कर चार समुद्री का शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है। नेपाल के लोग उनमें आवाहन करना चाहिए। सुवर्ण की मत्स्यावतार अधिकांशतः मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ के भक्त हैं। रूपिणी प्रतिमा बनाकर उसका पूजन किया जाना चाहिए। मत्स्येन्द्रनाथ (पाटन)-गोंडा जिले में पाटन अथवा देवीपाटन रात्रिजागरण करना चाहिए । अन्त में चारों कलशों का नामक स्थान प्रसिद्ध देवीपीठ है। इसमें बहुत से प्राचीन ब्राह्मणों को दान करना चाहिए। इससे गम्भीर पापों तथा नवीन मन्दिर हैं, जिनमें बौद्ध मन्दिर भी है। का भी नाश हो जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ किंवा मीननाथ का मन्दिर अति आकर्षक मत्स्यपुराण-यह शैव पुराण है। इसकी श्लोक संख्या है । यह शिवालय के ढंग का है । इसकी चमक-दमक बहुत नारदीय पुराण के अनुसार पंद्रह हजार है । किन्तु रेवा- ही निराली है। पास में स्तुपाकार मन्दिर है । बड़े-बड़े माहात्म्य, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त पुराण और स्वयं वृक्षों से इसकी शोभा बढ़ जाती है। यहाँ का श्रीराधामत्स्यपुराण के अनुसार यह संख्या चौदह हजार है । मत्स्य- मन्दिर भी आकर्षक है। मन्दिरों में भारतीय मुस्लिम पुराण को मौलिक और सबसे प्राचीन माना जाता है। स्थापत्य का मिश्रण पाया जाता है ।। इसमें २९० अध्याय है तथा अन्तिम अध्याय सपूर्ण मत्स्य- मथुरा-वैष्णव हिन्दू भक्तों का पवित्र तीर्थस्थान । इसके पुराण का सूचीपत्र है। सम्बन्ध में कोई वैदिक उद्धरण नहीं मिलता । फिर भी मत्स्यावतार का वर्णन इस पुराण का मुख्य विषय है। ईसा के लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व से ही इसका माहात्म्य Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा ४८९ रहा है। पाणिनि तथा कात्यायन ने इसका उल्लेख किया है। पतञ्जलि के महाभाष्य में वासुदेव के द्वारा कंस-वध होने की चर्चा की गयी है। आदिपर्व (२२१.४६) में मथुरा की प्रसिद्धि गायों के संदर्भ में चचित है । वायु पुराण (८८.१८५) के अनुसार भगवान् राम के अनुज शत्रुघ्न ने मधु नामक राक्षस के पुत्र लवणासुर का वध इसी स्थल पर किया और तदुपरान्त मथुरा नगर की स्थापना की। रामायण (उत्तर काण्ड ७०.६-९) से विदित होता है कि मथुरा को सुन्दर तथा समृद्ध बनाने में शत्रुघ्न को बारह वर्ष लगे थे। घट जातक में मथुरा को 'उत्तर मथुरा' कहा गया है। कंस और वासुदेव की कथा भी महाभारत तथा पुराणों में थोड़े-थोड़े अन्तर के साथ मिलती है । ह्वेनसांग का कथन है कि उसके समय में वहाँ अशोकराज द्वारा बनवाये गये तीन बौद्ध स्तूप, पाँच बड़े मन्दिर तथा २० संघाराम २००० बौद्ध भिक्षुओं से भरे हुए थे। मथरा के धार्मिक माहात्म्य का उल्लेख पुराणों में मिलता है । अग्निपुराण (११.८-९) से यह आश्चर्यजनक सूचना मिलती है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा नगर में शैलष के तीन करोड़ पुत्रों को मार डाला था। लगभग २००० वर्षों से मथुरापुरी कृष्ण उपासना तथा भागवत धर्म का केन्द्र रही है । वराहपुराण में मथुरा तथा इसके अवान्तर तीर्थों के माहात्म्य के सम्बन्ध में सहस्रों श्लोक मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन आदि का प्रभुत मात्रा में उल्लेख मिलता है । पद्मपुराण (आदि खण्ड २९.४६-४७) के अनुसार मथुरा से युक्त यमुना मोक्ष देती है। वराह पुराण के अनुसार विष्णु (कृष्ण) को संसार में मथुरा से अधिक प्रियस्थल कोई भी नहीं है, क्योंकि यह उनकी जन्मभूमि है । यह मनुष्य मात्र को मुक्ति प्रदान करती है (१५२. ८-११)-हरिवंश पुराण (विष्णु पर्व ५७.२-३) में मथुरा को लक्ष्मी का निवास स्थान तथा कृषि-उत्पादन का प्रमुख स्थल कहा गया है। मथुरा का परिमण्डल २० योजन माना गया है । उसके मध्य सर्वोत्तम मथुरापुरी अवस्थित है (नारदीय उत्तर, ७८. २०-२१) । मथुरा के बाह्यान्तर स्थलों में अनेक तीर्थ हैं । उनमें से कुछ प्रमुख तीर्थों का विवरण यहाँ दिया जायगा। वे हैं मधु, ताल, कुमुद, काम्य, बहुल, भद्र, खादिर, महावन, लोहजंघ, वित्व, भान्डिर और वृन्दावन । इसके अतिरिक्त २४ उपवनों का भी उल्लेख यत्र-तत्र मिलता है पर पुराणों में नहीं । वृन्दावन मथुरा के पश्चिमोत्तर ५ योजन में विस्तृत था। (विष्णु पुराण ५.६.२८-४० तथा नारदीय उत्तरार्द्ध ( ८०.६,८ और ७७ )। यह श्रीकृष्ण के गोचारण क्रीड़ा की स्थली थी। इसे पद्मपुराण में पृथ्वी पर वैकुण्ठ का एक भाग माना गया है। मत्स्य० (१३.३८ ) राधा का वृन्दावन में देवी दाक्षायणी के नाम से उल्लेख करता है। वराहपुराण (१६४.१ ) में गोवर्धन पर्वत मथुरा से दो योजन पश्चिम बताया गया है । यह अब प्रायः १५ मील दूर है । कूर्म० (१.१४-१८) के अनुसार प्राचीन काल में महाराज पृथु ने यहाँ तपस्या की थी। पुराणों में मथुरा से सम्बद्ध कुछ विवरण भ्रामक भी हैं। उदाहरणार्थ हरिवंश (विष्णुपर्व १३.३ ) में तालवन गोवर्धन के उत्तर यमुना तट पर बताया गया है, जबकि यह गोवर्धन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। गोकुल वही है जिसे महावन कहा गया है । जन्म के समय श्री कृष्ण इसी स्थल पर नन्द गोप के घर में लाये गये थे । तदुपरान्त कंस के भय से उन्होंने स्थान परिवर्तन कर दिया और वृन्दावन में रहने लगे। महावीर और बद्ध के समय में भी मथुरा धार्मिक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध थी। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि यहाँ हयूलिज (कृष्ण) की पूजा होती थी। शक-क्षत्रपों, नागों और गुप्तों के समय के बहतेरे धार्मिक अवशेष यहाँ पाये गये हैं। मुसलिम विध्वंसकारियों के आक्रमण के बाद भी मथुरा जीवित रही। १६वीं शताब्दी में मथुरा और वृन्दावन पुनः विष्णुभक्ति साधना के केन्द्र हो गये थे। वृन्दावन चैतन्य भक्ति-साधना का केन्द्र बन गया था। यहाँ के गोस्वामियों में सनातन, रूप, जीव, गोपाल भट्ट, और हरिवंश की अच्छी ख्याति हुई। चैतन्य महाप्रभु के समसामयिक स्वामी वल्लभाचार्य ने प्राचीन गोकुल के अनुकरण पर महावन से एक मील दक्षिण नवीन गोकूल की स्थापना की और उसे अपनी भक्ति-साधना का केन्द्र बनाया । औरंगजेब ने मथरा के प्राचीन मन्दिरों को ध्वस्त कर के उसी स्थिति को पहुँचा दिया जिस स्थिति को काशी के मंदिरों को पहुँचाया था। इतना होने पर भी मथुरा के माहात्म्य में न्यूनता नहीं आयी। सभापर्व (३१९,२३-२५) के अनुसार कंस-वध कुपित से Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० मथुरानाथ-मधु होकर जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध) से अपनी गदा फेंकी कलश का दान करके, ब्राह्मणों को भोजन कराकर तथा थी, जो मथुरा में श्रीकृष्ण के सामने गिरी। जहाँ वह दक्षिणा देकर यजमान स्वयं नमक रहित भोजन करे। त्रयोगिरी उस स्थल को गदावसान कहा गया है। पर इसका दशी के दिन उपवास, द्वादशी को केवल एक फल खाकर उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। भगवान् विष्णु की पूजा और उन्हीं के सम्मुख खाली मथुरानाथ-सोलहवीं शताब्दी के अन्त के एक वंगदेशस्थ भूमि पर शयन करना चाहिए। यह क्रम एक वर्ष तक नैयायिक । इन्होंने गङ्गेश उपाध्याय रचित तत्त्वचिन्ता- चलना चाहिए । वर्ष के अन्त में एक गौ तथा वस्त्र दान मणि नामक तार्किक ग्रन्थ पर तत्त्वालोक-रहस्य नामक देकर सफेद तिलों से हवन करना चाहिए। इस व्रत के भाष्य लिखा। इनका अन्य नाम 'मथुरानाथी' भी है। आचरण से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर पुत्र, पौत्र, मथुरानाथी-दे० 'मथुरानाथ' । मथुरानाथ के नाम से । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करता हुआ भगवान् विष्णु में नैयायिकों का एक सम्प्रदाय चला, जो मथुरानाथी कह- लीन हो जाता है। लाता है। मदनमहोत्सव-चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का अनुमयुराप्रदाक्षणा-मथुरा का परिक्रमा धामिक क्रिया है। ष्ठान होता है । मध्याह्न काल में कामदेव की मूर्ति अथवा इसी प्रकार मथुरामण्डल के अन्यान्य पवित्रस्थल-वृन्दावन, चित्र का निम्नांकित मन्त्र से पूजन करना चाहिए । "नमः गोवर्धन, गोकुल आदि की प्रदक्षिणा भी परम पावन मानी कामाय देवाय, देव देवाय मूर्तये । ब्रह्म-विष्णु-सुरेशानां जाती है। भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक मथुरा मनः क्षोभ कराय वै ।' मिष्ठान्न खाद्य पदार्थ प्रतिमा के भी है सम्मुख रखना चाहिए । गौ का जोड़ा दान में दिया जाय। कार्तिक शुक्ल नवमी को यह प्रदक्षिणा की जाती है। पत्नियाँ अपने पतियों का, कामदेव का रूप समय कर मथुरामाहात्म्य-रूपगोस्वामी द्वारा संस्कारित-संपादित पूजन करें। रात्रि को जागरण, नृत्योत्सव, रोशनी तथा मथुरामाहात्म्य वराह पुराण का एक भाग है । इसमें मथुरा नाटकादि का आयोजन किया जाना चाहिए। यह प्रति और वृन्दावन तथा उनके समीपवर्ती सभी पवित्र स्थानों वर्ष किया जाना चाहिए। इस आचरण से व्रती शोक, के वर्णन हैं। सन्ताप तथा रोगों से मुक्त होकर कल्याण, यश तथा मदनचतुर्दशी-यह कामदेव का व्रत है । इस चतुर्दशी को सम्पत्ति प्राप्त करता है। 'मदनभञ्जी' भी कहा जाता है। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को मदुरा-दक्षिण भारत (तमिलनाडु) का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान इसका अनुष्ठान किया जाता है । इसमें कामदेव की सन्तुष्टि जिसे दक्षिण की मथुरा कहते हैं। द्रविड स्थापत्य की के लिए गीत, नृत्य तथा शृङ्गारिक शब्दों से उनका पूजन सुन्दर कृतियों से शोभित मन्दिर यहाँ वर्तमान हैं । होता है। चौदहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के बीच मदनत्रयोदशी-देखिए 'अनङ्गत्रयोदशौ' तथा 'कामदेव दक्षिण भारत में रचे गये शैव साहित्य में दो स्थानीय त्रयोदशी' । कृत्यरत्नाकर, १३७ (ब्रह्मपुराण को उद्धृत धार्मिक कथासंग्रह अति प्रसिद्ध है । इस बीच परज्जोति ने करते हए) कहता है कि समस्त त्रयोदशियों को कामदेव 'तिरुविलआदतपुराणम्' तथा काञ्जीअप्पर एवं उनके गुरु की पूजा की जानी चाहिए। शिवज्ञान योगी ने 'काञ्चीपुराणम्' रचा। प्रथम ग्रन्थ मदनद्वादशी-चैत्र शुक्ल द्वादशी को इस तिथिवत का अनु- मदुरा के तथा द्वितीय काजीवरम् के लौकिक धर्म-कथाष्ठान होता है । ताँबे की तश्तरी में गुड़, खाद्य पदार्थ तथा नकों का प्रतिनिधित्व करता है। ये दोनों ग्रन्थ बहुत सुवर्ण रखकर जल, अक्षत तथा फलों से परिपूर्ण लोकप्रिय हैं। कलश के ऊपर स्थापित कर देना चाहिए तथा कामदेव मधु-कोई भी खाद्य या पेय मीठा पदार्थ । विशेष कर पेय और उसकी पत्नी रति की आकृतियाँ बना देनी चाहिए। के लिए यह शब्द ऋग्वेद में व्यवहृत है। स्पष्ट रूप से इनके सम्मुख खाद्य पदार्थ रखकर प्रेमपूर्ण गीत गाने __ यह सोम अथवा दुग्ध तथा इनसे कम शहद के लिए व्यवहृत चाहिए । भगवान् हरि की मूर्ति को कामदेव समझ कर है । (ऋ० ८.४,८ । यहाँ 'सारध' विशेषण द्वारा अर्थ स्नान करा कर पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन उस को स्पष्ट किया गया है।) परवर्ती साहित्य में Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधु-मधुसूदन सरस्वती - मधुका अर्थ शहद ही सबसे अधिक निश्चित है। मधुपर्क का उपयोग पूजन, श्राद्ध आदि धार्मिक कृत्यों में होता है । मधुपे - (पिके वंशज) शतपय० (११.७.२८) तथा कौषीतकि उपनिषदों ( १६.९) में उद्धृत मधु एक आचार्य का नाम है। मधुब्राह्मण मधुब्राह्मण किसी रहस्यपूर्ण सिद्धान्त की उपाधि है, जिसका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण ( ४.१, ५, १८, १४.१.४, १३) तथा बृह० उप० (२.५,१६) में हुआ है। मधुर कवि - तमिल वैष्णवों में बारह आलवारों के नाम बड़े सम्मानपूर्वक स्मरण किये जाते हैं। इनके परम्परागत क्रम में मधुरकवि का छठां स्थान है । दे० 'आलवार' | मधुरत्रय-- तीन वस्तुएँ मधुर नाम से प्रसिद्ध हैं - घृत, मधु और शर्करा । व्रतराज, १६, के अनुसार घृत, दुग्ध तथा मधु मधुरत्रय कहलाते हैं। पूजोपचार में इनका उपयोग किया जाता है । 1 मधुवन -- व्रजमण्डल के बारह वनों में प्रथम व्रजपरिक्रमा के अन्तर्गत भी यह सर्वप्रथम आता है। यह स्थान मथुरा से ४-मील दूर है यहाँ कृष्णकुण्ड तथा चतुर्भुज, कुमार कल्याण और ध्रुव के मन्दिर हैं। लवणासुर की गुफा और वल्लभाषायणी की बैठक है। यहाँ भाद्रकृष्ण ११ को मेला लगता है । मधुश्रावणी - ' कृत्यसारसमुच्चय' ( पृ० १०) के अनुसार श्रावण शुक्ल तृतीया को मनुधावणी कहते हैं । मधुसूदन पूजा शाख शुक्ल द्वादशी को इसका अनुष्ठान होता है । इसमें भगवान् विष्णु का पूजन विहित है । व्रती इस व्रत से अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त करता हुआ चन्द्रलोक में निवास करता है । मधुसूदन सरस्वती - अद्वैत सम्प्रदाय के प्रधान आचाय और ग्रन्थ लेखक इनके गुरु का नाम विश्वेश्वर सरस्वती और जन्म स्थान बङ्गदेश था । ये फरीदपुर जिले के कोटलिपाड़ा ग्राम के निवासी थे । विद्याध्ययन के अनन्तर ये काशी में आये और यहां के प्रमुख पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया । इस प्रकार विद्वन्मण्डली में सर्वत्र इनकी कीर्तिकौमुदी फैलने लगी । इसी समय इनका परि चय विश्वेश्वर सरस्वती से हुआ और उन्हीं की प्रेरणा से ये दण्डी संन्यासी हो गये । मधुसूदन सरस्वती मुगल सम्राट शाहजहाँ के समकालीन थे। कहते हैं कि इन्होंने माध्य पंडित रामराज स्वामी के ४९१ ग्रन्थ 'न्यायामृत' का खण्डन किया था। इससे चिढ़कर उन्होंने अपने शिष्य व्यास रामाचार्य को मधुसूदन सरस्वती के पास वेदान्तशास्त्र का अध्ययन करने के लिए भेजा। व्यास रामाचार्य ने विद्या प्राप्त कर फिर मधुसूदन स्वामी के हो मत का खण्डन करने के लिये 'तरङ्गिणी' नामक ग्रन्थ की रचना की । इससे ब्रह्मानन्द सरस्वती आदि ने असन्तुष्ट होकर तरङ्गिणी का खण्डन करने के लिए 'लघुचन्द्रिका' नामक ग्रन्थ की रचना की । मधुसूदन सरस्वती बड़े भारी योगी थे। वीरसिंह नामक एक राजा की सन्तान नहीं थी । उसने स्वप्न में देखा कि मधुसूदन नामक एक यति हैं और उनकी सेवा से पुत्र अवश्य होगा । तदनुसार राजा ने मधुसूदन का पता लगाना प्रारम्भ किया। कहते हैं कि उस समय मधुसूदन जी. एक नदी के किनारे भूमि के अन्दर समाधिस्व थे । राजा खोजते खोजते वहाँ पहुँचा । स्वप्न के रूप से मिलतेजुलते एक तेजःपूर्ण महात्मा समाधिस्थ दीख पड़े । राजा ने उन्हें पहचान लिया । वहाँ राजा ने एक मन्दिर बनवा दिया कहा जाता है कि इस घटना के तीन वर्ष बाद मधुसूदनजी की समाधि टूटी। इससे उनकी योग सिद्धि का पता लगता है किन्तु वे इतने विरक्त थे कि समाधि खुलने पर उस स्थान को और राजा प्रदत्त मन्दिर और योग को छोड़ कर तीर्थाटन के लिए चल दिये । मधुसूदन के विद्यागुरु अद्वैतसिद्धि के अन्तिम उल्लेखानुसार माधव सरस्वती थे । इनके रचे हुए निम्नलिखित ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है १. सिद्धान्तविन्दु यह शङ्कराचार्य कृत दशश्लोकी की व्याख्या है उसपर ब्रह्मानन्द सरस्वती ने रत्नावली नामक निबन्ध लिखा है । २. संक्षेप शारीरक व्याख्या - यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत 'संक्षेप शारीरक' की टीका है। २. अद्वैतसिद्धि यह अद्वैत सिद्धान्त का अति उच्च कोटि का ग्रन्थ है । ४. अद्वैतरत्न रक्षण इसमें द्वैतवाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना की गयी है। --- ५. वेदान्तकल्पलतिका - यह भी वेदान्त ग्रन्थ ही है । ६. गूढार्थदीपिका - यह श्रीमद्भगवद्गीता की विस्तृत टीका है। इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं। ७. प्रस्थानभेद--- इसमें सब शास्त्रों का सामञ्जस्य Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ मभ्यदेश-मध्यसम्प्रदाय करके उनका अद्वैत में तात्पर्य दिखलाया गया है। यह दिया । अन्तिम ग्रन्थ ( भागवत पुराण ) इनके धार्मिक निबन्ध संक्षिप्त होने पर भी अद्भुत प्रतिभा का द्योतक है। जीवन पर छा गया। प्रशिक्षण के पूर्ण होने के पहले ही ८. महिम्नस्तोत्र की टीका-इसमें सुप्रसिद्ध महिम्न- ये शाङ्कर मत से अलग हो गये । और अपना द्वैतवादी स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का शिव और विष्णु के पक्ष में सिद्धान्त स्थापित किया जो प्रधानतया भागवत पुराण पर व्याख्यार्थ किया गया है। इससे उनके असाधारण विद्या आधुत था। इनके अनेक अनुयायी उद्भट विद्वान् हो गये हैं। कौशल का पता लगता है। इनका धार्मिक सिद्धान्त रामानुज से बहुत कुछ मिलता९. भक्ति रसायन-यह भक्ति सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ जुलता है किन्तु दर्शन स्पष्टतः द्वैतवादी है। वे बड़ी है । अद्वैतवाद के प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी वे उच्च कोटि तीक्ष्णता से जीव एवं ईश्वर का भेद करते हैं और इस प्रकार के कृष्णभक्त थे, यह इस रचना से सिद्ध है । शङ्कर से विष्णु स्वामी को छोड़कर अन्य वेदान्तियों की मधूकव्रत-फाल्गुन शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान अपेक्षा अत्यन्त दूर खड़े हो जाते हैं। ईश्वरवाद के सिवा होता है । उस दिन महिलाएं उपवास करके मधूक वृक्षपर। इनका सिद्धान्त बहुत कुछ भागवत सम्प्रदाय के समान है। गौरी पूजन करती हैं और उनसे अपने सौभाग्य, सन्तान, इनके धर्म चिन्तन का केन्द्र कृष्ण की भक्तिपूर्ण उपासना वैधव्य के निवारण की प्रार्थना करती हैं। सधवा है जैसा कि भागवत की शिक्षा है। किन्तु राधा का नाम ब्राह्मणियों को बुलाकर उन्हें पुष्प, सुगन्धित द्रव्य, वस्त्र इस सम्प्रदाय में नहीं लिया जाता है। यहाँ सभी अवतारों तथा स्वादिष्ठ खाद्य पदार्थ देकर उनका सम्मान किया का आदर है। माध्व सम्प्रदाय में शिव के साथ पांच मुख्य जाता है। इसके आचरण से सुस्वास्थ्य तथा सौन्दर्य की देवताओं ( पञ्चायतन ) की पूजा भी मान्य है। आचार्य उपलब्धि होती है । भविष्योत्तर पुराण (१६.१-१६) में । मध्व के प्रमुख ग्रन्थ वेदान्तसूत्र का भाष्य तथा अनुख्यान इसे मधूक तृतीया नाम से सम्बोधित किया गया है। हैं । इनके अतिरिक्त अनेक ग्रन्थ इन्होंने रचे जिनमें मुख्य मध्यदेश-मनुस्मृति (२.२१) के अनुसार मध्यदेश (बीच है-गीताभाष्य, भागवत तात्पर्य निर्णय, महाभारत तात्पर्य के देश) की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्या निर्णय, दशोपनिषदों पर भाष्य, तन्त्रसार संग्रह आदि । चल, पश्चिम में विनशन (राजस्थान की मरुभूमि में सर मध्वतन्त्रमुखमर्दन-अप्यय दीक्षित कृत यह ग्रन्थ शैवमत स्वती के लुप्त होने का स्थान) तथा पूर्व में गङ्गा-यमुना के विषयक है। इसमें मध्व सिद्धान्त का खण्डन किया सङ्गम स्थल प्रयाग तक विस्तृत है। वास्तव में यह मध्य गया है। देश आर्यावर्त का मध्य भाग है। 'मध्यदेश' शब्द वैदिक मध्वभाष्य-दे० 'मध्व' । संहिताओं में नहीं मिलता है । परन्तु ऐतरेय ब्राह्मण में । मध्वविजय-मध्वाचार्य के एक प्रशिष्य श्री नारायण ने इसकी झलक मिलती है । इसमें कुरु, पञ्चाल, वत्स तथा आचार्य की मृत्यु के पश्चात् दो संस्कृत ग्रन्थ 'मणिमञ्जरी' उशीनर देश के लोग बसते थे। आगे चलकर अन्तिम दो एवं 'मध्वविजय' लिखे। इनमें दो अवतारों का सिद्धान्त वंशों का लोप हो गया और मध्यदेश मुख्यतः कुरु-पञ्चालों भली-भाँति स्थापित हुआ है। प्रथम ग्रन्थ के अनुसार का देश बन गया । बौद्ध साहित्य के अनुसार मध्यदेश शङ्कर मणिमान् नामक (महाभारत में वर्णित) विशेष देव पश्चिम में स्थूण (थानेश्वर) से लेकर पूर्व में जंगल (राज __ के अवतार तथा दूसरे ग्रन्थ के अनुसार मध्वाचार्य वायुदेव महल की पहाड़ियों) तक विस्तृत था । । के अवतार थे। मध्व-माध्व वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक मध्व अथवा मध्वसम्प्रदाय-मध्वाचार्य द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागमध्वाचार्य थे। जो दक्षिण कर्णाटक के उदीपी नामक ___वत पुराण पर आधृत होने वाला पहला सम्प्रदाय है। इसकी स्थान में उत्पन्न हुए थे । इन्होंने तेरहवीं शताब्दी के __ स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई। प्रारम्भ में अपने सम्प्रदाय की स्थापना की। बाल्यावस्था मध्व की मृत्यु के ५० वर्ष बाद जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के में ही ये संन्यासी हो गये तथा प्रथम शाङ्करमत की दीक्षा प्रमुख आचार्य हुए। इनके भाष्य, जो मध्व के ग्रन्थों पर रचे ग्रहण की। वेदान्त सम्बन्धी ग्रन्थों के अतिरिक्त इन्होंने गये हैं, सम्प्रदाय के सम्मानित ग्रन्थ हैं। चौदहवीं शताब्दी ऐतरेयोपनिषद्, महाभारत तथा भागवत पुराण पर ध्यान के उत्तरार्ध में विष्णुपुरी नामक माध्व संन्यासी ने भागवत के Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्वसिद्धान्तसार-मनु भक्ति विषयक सुन्दर स्थलों को चुनकर 'भक्तिरत्नावली' के प्रवर्तक) द्वारा विरचित एक ग्रन्थ मनविरक्तकरन मक ग्रन्थ लिखा। यह भागवत भक्ति का सर्वश्रेष्ठ परिचय गु-का है । इसमें उनके ज्ञानोपदेशों का संग्रह है। देता है । लोरिय कृष्णदास ने इसका बंगला में अनुवाद मनस्-सांख्य दर्शन के सिद्धान्तानुसार प्रकृति से महत् किया है। अथवा बुद्धि (व्यक्ति की विचार एवं निश्चय करने वाली शक्ति) की उत्पत्ति होती है। इस तत्त्व से अहङ्कार की एक परवर्ती माध्व सन्त ईश्वरपुरी ने चैतन्यदेव को उत्पत्ति होती है। फिर अहङ्कार से मनस् की उत्पत्ति होती इस संप्रदाय में दीक्षित किया। इस नये नेता (चैतन्य) ने माध्व मत का अपनी दक्षिण की यात्रा में अच्छा प्रचार है । यह सूक्ष्म अंग व्यक्ति को समझने की शक्ति देता है किया (१५०९-११)। उन्होंने मावों को अपनी शिक्षा तथा बुद्धि को वस्तुओं के सम्बन्ध में प्राप्त किये गये ज्ञान एवं भक्तिपूर्ण गीतों से प्रोत्साहित किया। इन्होंने उक्त की सूचना देता है । यह बुद्धि द्वारा निर्णीत विचारों का सम्प्रदाय में सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगर-कीर्तन का प्रचार पालन कर्मेन्द्रियों द्वारा कराता है। वैशेषिक दर्शन के किया । चैतन्यदेव की दक्षिण यात्रा के कुछ ही दिनों बाद अनुसार नवद्रव्यों में मनस् नवां द्रव्य है। इसके द्वारा कन्नड भाषा में गीत रचना आरंभ हई। कन्नड गायक आत्मा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान के सम्पर्क में आता है । भक्तों में मुख्य थे पुरन्दरदास । प्रसिद्ध माध्व विद्वान् पाञ्चरात्र के व्यूहसिद्धान्त में प्रद्युम्न को मनस् तत्त्व कहा व्यासराज चैतन्य के समकालीन थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ । गया है। लिखे जो आज भी पठन-पाठन में प्रयुक्त होते हैं। मनसा-शक्ति के अनेक रूपों में से मनसा नामक देवी की अठारवीं शताब्दी में कृष्णभक्ति विषयक गीत व स्तुतियों पूजा बंगाल में बहुत प्रचलित है। इनकी प्रशंसा के गीत की रचना कन्नड में तिम्मप्पदास एव मध्वदास ने की। ना भी पर्याप्त संख्या में रचे गये हैं, जिनका साहित्यिक नाम इसी समय चिदानन्द नामक विद्वान प्रसिद्ध कन्नड ग्रन्थ' 'मनसामंगल' है। ये सर्पो की माता मानी जाती हैं और 'हरिभक्ति रसायन' के रचयिता हए। मध्व के सिद्धान्तों इनकी पूजा से सर्पो का उपद्रव शान्त रहता है। का स्पष्ट वर्णन कन्नड काव्य-ग्रन्थ 'हरिकथासार' में हआ मनसावत-ज्येष्ठ शुक्ल की हस्त नक्षत्र युक्त नवमी अथवा है । मध्वमत के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कन्नडी बिना हस्त नक्षत्र के भी दशमी को स्नुही के वृक्ष में हुआ । माध्व संन्यासी शङ्कर के दशनामी संन्यासियों की शाखा पर मनसा देवी का पूजन करना चाहिए। हेमाद्रि में ही परिगणित है। स्वयं मध्व एवं उनके मुख्य शिष्य (चतुर्वर्ग चिन्तामणि, प्रथम ६२१ ) के अनुसार मनसा तीर्थ (दसनामियों में से एक) शाखा के थे । परवर्ती अनेक देवी की पूजा आषाढ़ कृष्ण पंचमी को होनी चाहिए। माध्व 'पुरी' एवं 'भारती' शाखाओं के सदस्य हए। मनसा श्रावण कृष्ण एकादशी को भी पूजी जाती है। मध्वसिद्धान्तसार-मध्वाचार्य के शिष्य पद्मनाभाचार्य ने देखिए, मनसा देवी तथा मनसा मंगल की कथा के लिए माध्व मत का वर्णन 'पदार्थसंग्रह' नामक ग्रन्थ में किया ए० सी० सेन की 'बंगाली भाषा तथा साहित्य' (प० है। ‘पदार्थसंग्रह' के ऊपर उन्होंने 'मध्व सिद्धान्त सार' नामक व्याख्या भी लिखी। मनावी-काठक संहिता ( ३०.१) तथा शतपथ ब्राह्मण मनभाऊ सम्प्रदाय-दे० 'दत्त सम्प्रदाय' । (१.१,४,१६) में मनु की स्त्री को मनावी कहा गया है । मनवाल महामुनि-श्री वैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य। मनीषा पञ्चक-स्वामी शङ्कराचार्य विरचित एक उपदेशाइनका अन्य नाम राम्यजामातमुनि था। स्थिति काल त्मक लघु पद्य रचना। इसके पाँच शार्दूलविक्रीडित छन्दों १४२७-१५०० वि० के मध्य था। ये श्री वैष्णवों की । में धार्मिक और आध्यात्मिक उपदेश दिये गये हैं। दक्षिणी शाखा 'तेङ्गले' के नेता थे । वेदान्तदेशिक के मनु-मनु को वैदिक संहिताओं (ऋ० १.८०,१६,८.६३, पश्चात् इन्होंने श्रीरङ्गम् में वेदान्त शिक्षा प्रचलित रखी। १;१०.१००,५) आदि; अ०वे० १४.२,४१; तैत्ति० सं० इनके भाष्य विद्वत्तापूर्ण तथा बहु युक्त है। १.५,१,३;७.५,१५,३,६,७,१;३,३,२,१;५.४,१०,५;६.६, मनविरक्तकरन गुटका-संत चरनदास (चरनदासी पन्थ ६,१; का० सं०८१५; शतपथ ब्राह्मण १.१,४,१४ जै० Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनु का श्रौतसूत्र मनुस्मृति मनुस्मृति स्मृतियों में यह प्राचीनतम तथा सर्वाधिक मान्य हैं । इसमें समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र सभी का समावेश है। अतः सामाजिक व्यवस्था का यह आधारभूत ग्रन्थ है। परम्परा के अनुसार इसके रचयिता मनु थे, जो आदि व्यवस्थापक माने जाते हैं। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना कठिन है कि यह एक काल में तथा एक व्यक्ति के द्वारा प्रणीत हुई । इतना कहा जा सकता है कि मानव परम्परा में धर्मशास्त्र का प्रणयन हुआ। मनु के प्रथम उल्लेख ऋग्वेद (१.८०, १६, १.११४,२;२.३३,१३) में पाये जाते है। वे मानव जाति के पिता माने गये हैं । एक ऋषि प्रार्थना करते हैं कि वे मनु के पैतृक मार्ग से व्युत न हों (मानः पथः पित्र्यान्मा नवादधि दूरं नष्ट परावतः । ऋग्वेद ८.३०, ३) एक दूसरी वैदिक परम्परा के अनुसार मनु प्रथम यज्ञकर्ता थे (ऋग्वेद १०.६३,७) तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों के अनु भगवद्गीता (१०६) भी मनुओं का उल्लेख करती करती है । मनु नामक अनेक उल्लेखों से प्रतीत होता है। सार मनु का कथन भेषज है- 'यद्वै किञ्च मनुरवदत्तदभे कि यह नाम न होकर उपाधि है । मनु शब्द का मूल मन् धातु (मनन करना) से भी यही प्रतीत होता है । मेधातिथि, जो मनुस्मृति के भाष्यकार हैं, मनु को उस व्यक्ति की उपाधि कहते हैं, जिसका नाम प्रजापति है। वे धर्म के प्रकृत रूप के ज्ञाता थे एवं मानव जाति को उसकी शिक्षा देते थे । इस प्रकार यह विदित होता है कि मनु एक उपाधि है। मनुरचित मानव धर्मशास्त्र' भारतीय धर्मशास्त्र में आदिम व मुख्य ग्रंथ माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ मानव धर्मशास्त्र के अवतरण आये हैं वे सूत्र रूप में हैं। और प्रचलित मनुस्मृति के श्लोकों से नहीं मिलते। वह सूत्रग्रन्थ 'मानव धर्मशास्त्र' अभी तक देखने में नहीं आया । वर्तमान मनुस्मृति को उन्हीं मूल सूत्रों के आधार पर लिखी हुई कारिका मान सकते हैं। वर्तमान सभी स्मृतियों में यह प्रधान समझी जाती है। दे० 'मनुस्मृति' । मनु का श्रौतसूत्र मनुरचित मानव श्रौतसूत्र विशेष प्रसिद्ध हैं । इसके वर्ण्यविषयों में प्रथम अध्याय में प्राक्सोम, दूसरे में अग्निष्टोम, तीसरे में प्रायश्चित्त, चौथे में प्रवर्ग्य, पाँचवें में दृष्टि, छठें में चयन, सातवें में वाजपेय, आठवें में अनुग्रह, नवें में राजसूय, दसवें में शुल्वसूत्र और ग्यारहवें अध्याय में परिशिष्ट है। अग्निस्वामी बालकृष्ण मिश्र और कुमारिलभट्ट इसके भाष्यकार हैं। जम्' । तै० सं० २-२-१०-२ - मनुर्वै यत्किञ्चावदत्तभेषजम्भैषजतायें ।' ताण्डय ब्राह्मण (२३,१६,१७) और शतपथ ब्राह्मण में मनु और जलप्लावन की कथा पायी जाती है । निरुक (अ० ३) में मनु को स्मृतिकार के रूप में स्मरण किया गया है। महाभारत स्वायम्भुव मनु (शान्ति २१. १२ ) । प्राचेतसमनु ( शान्ति, ५७.४३ ) और कहीं केवल मनु का उल्लेख करता है। गौतम, आपस्तम्ब तथा वसिष्ठ धर्मसूत्रों में मनु को प्रमाणरूप में उद्धृत किया गया है। अन्यत्र महाभारत (शान्ति, ५७.४३ ) में कहा गया है कि ब्रह्मा ने एक लक्ष श्लोकों का धर्मशास्त्र बनाया। इसमें प्रतिपादित धर्मों का प्रवर्तन स्वायम्भुव मनु ने किया इन पर आधारित शास्त्रों का प्रवर्तन उशना और बृहस्पति ने किया। नारदस्मृति की भूमिका के गद्यभाग में कथन है कि मनु ने एक लक्ष श्लोक एक सहस्र अस्सी अध्याय और चौबीस प्रकरणों में धर्मशास्त्र की रचना की। मनु ने इसको नारद को दिया, जिन्होंने इसे बारह सहस्र श्लोकों में संक्षिप्त किया। नारद ने इसको मार्कण्डेय को दिया, जिन्होंने इसका आकार आठ हजार श्लोकों तक सीमित किया । मार्कण्डेय से यह धर्मशास्त्र सुमति भार्गव को प्राप्त हुआ, जिन्होंने इसे चार सहस्त्र श्लोकों में निबद्ध किया। संभवतः मनु का प्रायः वही वर्तमान रूप है । काशी प्रसाद जयसवाल ( मनू एण्ड याज्ञवल्क्य) के अनुसार 7 , ४९४ उ० प्रा० ३.१५,२ आदि) में ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव था जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं । वैदिककालीन जलप्लावन की कथा के नायक मनु ही हैं (काठ० सं० ११.२) । मनु को विवस्वान् ( ऋ० ८.५२, १ ) या वैवस्वत (अ० ० ८.१०,२४) विवस्वन्त (सूर्य) का पुत्र सार्वणि ( सवर्णा का वंशज ) एवं सांवण (ऋ० वे० ८.५१, १ ) ( संवरण का वंशज ) कहते हैं प्रथम नाम पौराणिक है, जबकि दूसरे नाम ऐतिहासिक हैं । सावण को लुड्विग तुर्वसुओं का राजा कहते हैं, किन्तु यह मान्यता सन्देहपूर्ण है । पुराणों में मनु को मानव जाति का गुरु तथा प्रत्येक मन्वन्तर में स्थित कहा गया है। वे जाति के कर्त्तव्यों (धर्म) के ज्ञाता है। --- - Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोरथतृतीया-मनोरथपूर्णिमा ४९५ शुङ्गकाल (द्वितीय शती ई०पू०) में सूमति भार्गव ने मनु- ही प्रयुक्त करना चाहिए । उसी प्रकार कुछ निश्चित पुष्प स्मृति का वर्तमान संस्करण प्रस्तुत किया। इसमें बारह जैसे मल्लिका, करवीर, केतकी) तथा नैवेद्य भी, जिसका अध्याय और दो सहस्र छः सौ चौरानबे श्लोक हैं। विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, प्रयुक्त किये जाने ___ मनु के धर्मशास्त्र को सम्मान देते हुए कहा गया है कि चाहिए । व्रत के अन्त में आचार्य को शय्यादान करना मनु के विरोध में लिखी गयो स्मृति मान्य नहीं हो सकती। चाहिए। इसके अतिरिक्त चार बालक तथा बारह कन्याओं मनु ने इस धर्मशास्त्र में दो समस्याओं का समाधान उप- को भोजन और दक्षिणा से सम्मानित करना चाहिए । स्थित किया है। प्रथमतः इसकी रचनाकर उन्होंने इस आचरण से व्रती के सारे मनोरथों की सिद्धि होती है। वैदिक विचारों की रक्षा की । दुसरे, इसके द्वारा एक ऐसे मनोरथद्वादशी--इस व्रत में फाल्गुन शुक्ल एकादशी को उपसमाज की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें प्रजातीय और वास, तदन्तर द्वादशी को हरि का पूजन-हवनपूर्वक मनोरथव्यक्तिगत विवाद न्यूनतम हों और व्यक्ति का अधिकतम पूर्ति की उनसे प्रार्थना की जाती है। वर्ष को चार-चार विकास सम्भव हो सके तथा एक सहकारी स्वस्थ समाज महीने के तीन भागों में विभाजित कर प्रति भाग में भिन्नकी स्थापना हो सके । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनु भिन्न पुष्पों, धूपों नैवेद्यादिकों का प्रयोग किया जाता है । ने समाज को वर्ण (मनुष्य की प्रकृति) और आश्रम प्रति मास दक्षिणा दी जाती है। व्रत के अन्त में विष्णु (संस्कृति) के आधार पर संगठित किया। वर्ण विभिन्न की सुवर्णप्रतिमा बनवाकर दान में दे दी जाती है । बारह जातियों और वर्गों का समन्वय था । मनु के अनुसार चार ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन कराया जाता है तथा कलशों वर्ण थे, कोई पञ्चम वर्ण नहीं था। प्रत्येक वर्ण के उत्कर्ष का दान किया जाता है । और अपकर्ष के मार्ग खुले थे। व्यक्तिगत जीवन चार मनोरथद्वितीया -इस व्रत में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आश्रमों में विभक्त था जिनमें होता हुआ मनुष्य चार पुरु- दिन में वासुदेव का पूजन किया जाता है। द्वितीया के षार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सके। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर नक्कपद्धति से चन्द्रास्त से पूर्व मनुस्मृति के महत्त्व को देखकर अनेक धर्मशास्त्रियों ने आहार करने का विधान है। इस पर व्याख्याएँ लिखीं, जिनमें मेधातिथि, गोविन्दराज मनोरथसंक्रान्ति-एक वर्ष तक प्रत्येक संक्रान्ति के दिन और कुल्लूक बहुत प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त नारायण, गुड़ सहित जलपूर्ण कलश तथा वस्त्र किसी सद्गृहस्थ को राघवानन्द, नन्दन और रामचन्द्र की टीकाएं भी उल्लेख- दान में देना चाहिए। इसके देवता सूर्य हैं । इस आचरण नीय है । मनु पर असहाय और उदयाकर के उद्धरण भी से व्रती समस्त कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करता है तथा पाये जाते हैं। संभवतः भोजदेव और भागुरि ने भी मनु पापमुक्त होकर सीधा सूर्यलोक चला जाता है। पर टीकायें लिखीं। मनोरथपूर्णिमा-यह व्रत कार्तिक पूर्णिमा को प्रारम्भ होता ति के अतिरिक्त अन्य स्मृतियाँ भी मनु के नाम है। वर्ष भर प्रति पूर्णिमा को उदय होते हुए चन्द्रमा का से प्रचलित थीं। याज्ञवल्क्य स्मति के भाष्यकार विश्वरूप पूजन तथा नक्त विधि से आहार किया जाता है। प्राकृऔर विज्ञानेश्वर, स्मृतिचन्द्रिका, पराशरमाधवीय आदि तिक नमक का एक वृत्त बनाकर चन्द्रमा का पूजन किया ग्रन्थ वृद्धमनु के अनेक वचन उद्धृत करते हैं । इसीप्रकार जाता है। कार्तिक मास में पूर्ण चन्द्रमा कृत्तिका अथवा बृहन्मनु के वचन मिताक्षरा तथा अन्य ग्रन्थों में पाये रोहिणी का, मार्गशीर्ष मास में मृगशिरा तथा आर्द्रा जाते हैं। नक्षत्र का तथा अन्य मासों में इसी प्रकार का होना मनोरथतृतीया-चैत्र शुक्ल तृतीया को बीस भुजाधारिणी चाहिए । किन्तु फाल्गुन, श्रावण तथा भाद्रपद में कम से गौरी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का कम एक नक्षत्र अथवा तीनों का एकाधिक मेल होना अनुष्ठान होना चाहिए । व्रती को दन्तधावन करने के चाहिए। उन दिनों सधवा नारियों का सम्मान करना लिए निश्चित वक्षों की शाखाओं (जम्ब, अपामार्ग, खदिर) चाहिए । व्रत के अन्त में कुछ आसनों का जो कुसुम्भका ही उपयोग करना चाहिए । शरीर पर उद्वर्तन करने रञ्जित हों, दान किया जाना चाहिए। इससे व्रती सौन्दर्य, के लिए निश्चित प्रलेप अथवा यक्षकर्दम (केसरचन्दन) वरदान और सुख-सम्पत्ति प्राप्तकर स्वर्ग प्राप्त करता है । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ मनोरवसर्पण-मन्दारषष्ठी मनोरवसर्पण-शतपथ ब्रा० (१८,१,८) में यह उस पर्वत लित हुआ था। शायद बङ्गाली तान्त्रिकों ने ही इस का नाम है, जिसपर जाकर मनु की नाव ठहरी थी। प्रथा का प्रथम प्रचार किया । उनकी देखा ( देखी) महाभारत में इसका नाम 'नौबन्धन' है। अथर्ववेद में भारत के नाना स्थानों तथा नाना सम्प्रदायों में इस प्रकार शन' (१९.३९.८) का उल्लेख है । कुछ विद्वानों मन्त्रगुरु की प्रथा चल पड़ी होगी। का मत है कि यह शब्द मनोरवसर्पण की ओर ही संकेत मन्त्रब्राह्मण-सामवेदीय छठे ब्राह्मण का नाम मन्त्रब्राह्मण करता है। परन्तु अधिकांश विद्वान् इस विचार से सहमत है। इसमें दस प्रपाठक हैं। गृह्य यज्ञकर्म के प्रायः सभी नहीं हैं। मन्त्र इस ग्रन्थ में संगृहीत है। इसे उपनिषद्ब्राह्मण, मन्त्र-वैदिक संहिताओं मे गायक के विचारों की उपज, संहितोपनिषद् ब्राह्मण वा छान्दोग्यब्राह्मण भी कहते हैं । ऋचा, छन्द, स्तुति को मन्त्र कहा गया है। ब्राह्मणों में इसमें सामवेद पढ़नेवालों की रोचकता के लिए सम्प्रदायऋषियों के गद्य या पद्यमय कथनों को मन्त्र कहा गया प्रवर्तक ऋषियों की कथा लिखी गयो है । इसी ब्राह्मण के है। साधारणत: किसी भी वैदिक सूक अथवा यज्ञोय आठवें से लेकर दसवें प्रपाठक तक के अंश का नाम निरूपणों को मन्त्र कहते हैं, जो ऋक्, साम और यजुष् 'छान्दोग्योपनिषद' प्रसिद्ध है। कहलाते हैं। ये वेदों के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् मन्त्रमहोदधि-महीधर ने १६४६ वि० सं० में 'मन्त्र भाग से भिन्न हैं। किसी देवता के प्रति समर्पित सूक्ष्म महोदधि' नामक कर्मकाण्ड की पुस्तक लिखी जो शाक्त प्रार्थना को भी मन्त्र कहते हैं, यथा, शैव सम्प्रदाय का तथा शैव दोनों सम्प्रदायों में मान्य है। मन्त्र 'नमः शिवाय' और भागवत सम्प्रदाय का 'नमो मन्त्रराज ( नरसिंह कृत)-नरसिंह सम्प्रदाय का साम्प्र. भगवते वासुदेवाय' । शाक्त और तान्त्रिक सम्प्रदायों में दायिक मन्त्र, जो अनुष्टुप् छन्द में है, 'मन्त्रराज' कहलाता अनेक सुक्ष्म और रहस्यमय वाक्यों, शब्दखण्डों और है । इसकी रचना नृसिंह द्वारा हुई थी तथा इसके साथ अक्षरों का प्रयोग होता है। उन्हें भी मन्त्र कहते हैं और और भी चार लघु मन्त्र हैं। विश्वास किया जाता है कि उनसे महान् शक्तियाँ और मन्त्रराजतन्त्र-'आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तालिका में 'मन्त्रराजतन्त्र' का उल्लेख हआ है। मन्त्रकण्टकी-परम्परागत मान्यता है कि ऋषि, छन्द, मन्त्रार्थमञ्जरी-यह राघवेन्द्र स्वामी कृत सत्रहवीं शताब्दी देवता और विनियोग के बिना जाने वेदमन्त्रों का पढ़ना का एक ग्रन्थ है । इसमें मन्त्रों की अर्थ-पद्धति का निरूपण या पढाना दोषप्रद है । किस छन्द को किस ऋषि ने प्रकट किया गया है। किया, वह मन्त्र किस छन्द में है, अर्थात् वह कैसे पढ़ा मन्त्रिका उपनिषद् --यह परवर्ती उपनिषद् है । जायगा, उस मन्त्र में किस देवताविषयक वर्णन है और मन्थी-वैदिक संहिताओं में सोमरस एवं सक्तु का घोल उस मन्त्र का प्रयोग किस काम में होता है, इन बातों को मन्थी कहा गया है । इसका उपयोग यज्ञों में होता था । बिना जाने जो मन्त्रों का प्रयोग करते हैं वे 'मन्त्र कण्टको' मन्वारषष्ठी-माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान कहलाते हैं। होता है । पंचमी को व्रती अत्यन्त लघु आहार करता है, मन्त्रकृत-ऋग्वेद (९.११४,२) तथा ब्राह्मणों (ऐतरेय षष्ठी को उपवास करते हुए मन्दार की प्रार्थना करता है । ६.१,१; पञ्च० १३.३,२४; तैत्ति० आ० ४.१) में मन्त्र अगले दिन वह मन्दार वृक्ष ( अर्क-आक का वृक्ष ) पर कृत ऋषिबोधक शब्द है । जिन ऋषियों को वेदों का केसर लगाता है तथा ताम्रपात्र में काले तिलों से अष्टदल साक्षात्कार हुआ था उनको मन्त्रकृत् कहते हैं। कमल बनाता है । तदनन्तर मन्दार कुसुमों से प्रति दिशा मन्त्र कोश-शाक्त साहित्य से सम्बन्धित यह अठारहवीं की ओर अग्रसर होता हुआ सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से शताब्दी के उत्तरार्ध की रचना है। पूजन करता है एवं मध्य में हरि भगवान् की कल्पना मन्त्रगुरु-साम्प्रदायिक देवमन्त्रों का प्रथम उपदेश करने करते हुए पूजन करता है । एक वर्ष तक प्रति शुक्ल पक्ष वाला मन्त्रगुरु कहा जाता है। आज भारत में मन्त्रगुरु की सप्तमी को इसी क्रम से पूजन चलता है । व्रत के अन्त का जो प्रचार है वह तान्त्रिकों के प्राधान्य काल में प्रच- में एक कलश में सुवर्ण की प्रतिमा डालार उसे दान कर Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दार सप्तमी-मराठा भक्त ४९७ दिया जाता है । स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक मन्दार भी दूर-दूर तक फैली । इस नघे देवता सम्बन्धी एक महत्त्वहै। अन्य है पारिजात, सन्तान, कल्पवृक्ष तथा हरिचन्दन । पूर्ण साहित्य की उत्पत्ति प्रारम्भिक बंगला में हुई। इस मन्दार सप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'शून्य पुराण' ( रामाई पण्डित होता है । पञ्चमी को हलका आहार किया जाता है। कृत-११ वीं शताब्दी) एवं लाउसेन नामक मैन अग्रिम दिन ब्राह्मणों को मन्दार के आठ पुष्प खिलाये (बंगाल) के राजा का नाम आता है, जिसने धर्म की पूजा जाते हैं। इसके देवता सूर्य है। शेष क्रिया पूर्वोक्त व्रत के ही की और जिसके वीरतापूर्ण कार्यों की प्रसिद्धि-गा समान होती है। हई । इन कथाओं के आधार पर 'धर्ममङ्गल' आदि नामों मन्वन्तर-सृष्टि की आयु के माप के लिए हिन्दू मान्यता में से बंगला की मङ्गल काव्य माला का प्रारम्भ हुआ, जो युग, मन्वन्तर एवं कल्प तीन मुख्य मान उल्लिखित १२ वीं शताब्दी से लिखी जाने लगी। मंगल काव्य के हैं । कल्प के वर्णन में युगों ( चार ) का भी वर्णन किया सबसे प्रथम लेखक मयूर भट्ट माने जाते हैं। जा चुका है । यहाँ मन्वन्तर के बारे में लिखा जा रहा है। मराठा भक्त-महाराष्ट्र देश के वैष्णव भागवत उपनाम से चार युगों । कृत, वेता, द्वापर एवं कलि ) का एक जाने जाते है, किन्तु यह ज्ञात नहीं है कि भागवत पुराण महायुग ( ४,३२०००० वर्ष ), ७१ महायुगों का एक का व्यवहार यहाँ कब आरंभ हुआ। चौदहवीं शताब्दी में मन्वन्तर एवं १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है ! भागवत धर्म का प्रचलन यहाँ अधिक विस्तृत हो गया। मन्वादि तिथि-कुल १४ मन्वन्तर हैं । चार युगों को यहाँ का तत्कालीन समस्त लोक साहित्य स्थानीय भाषा मिलाकर ४३२०००० वर्षों का एक महायुग बनता है। ( मराठी ) में है। अतएव महाराष्ट्र के भागवतों और प्रत्येक मन्वन्तर में ७१ महायुगों से कुछ अधिक वर्ष होते तमिल तथा कन्नड भागवतों में बड़ा अन्तर है। यहाँ हैं। वर्ष के अन्तर्गत उक्त मन्वन्तरों का आरम्भ जिन भक्ति-आन्दोलन का प्रारंभ ज्ञानेश्वर नामक सन्त कवि से तिथियों को होता है वे मन्वादि तिथि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । एक परम्परा के अनुसार इनका उल्लेख भक्तमाल में है। चूंकि ये तिथियाँ अत्यन्त पुनीत हैं, उन दिनों हुआ है । ये विष्णुस्वामी के शिष्य थे । श्राद्धादि का अनुष्ठान किया जाना चाहिए। दे० मन्वादि ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता पर आधारित मराठी कविता तिथियों के लिए तथा चौदह मन्वन्तरों के नाम तथा उनके में १०,००० पद्यों का एक ग्रन्थ लिखा जिसे 'ज्ञानेश्वरी' वर्णन के लिए विष्णुधर्मोत्तर. अध्याय प्रथम, श्लोक कहते हैं (१३४७ वि०)। इससे अद्वैत ज्ञान की १७-१८९ । ध्वनि निकलती है, किन्तु यह योग साधना का भी उपदेश मयूर-सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उत्पन्न एक कवि जो देता है। लेखक अपने को गोरखनाथी शिष्य परंपरा के महाराज हर्षवर्धन के राजकवि बाण के विपक्षी थे। . संत निवृत्तिनाथ का शिष्य बतलाते हैं। ज्ञानेश्वर ने २८ इनका 'सूर्यशतक' संस्कृत काव्य का अनूठा ग्रन्थ अभंगों के एक संग्रह 'हरिपाठ' की भी रचना की। है। यह स्रग्धरा छन्द एवं गौडीय रीति में रचा गया है। ये मराठी पद्य में रचित अद्वैत शैवदर्शन की कृति 'अमृताएक परिपक्व कवि की रचना होने के साथ ही यह नुभव' के भी लेखक हैं। इस प्रकार संत ज्ञानेश्वर सूर्य देवता के तत्कालीन ईश्वरत्व का पूर्णतया दिग्दर्शन भागवत होने के साथ, शिव तथा विष्णु की भक्ति करने कराता है। कहा जाता है कि मयूर कवि को कुष्ठ रोग वाले तथा शङ्कराचार्य के भी दार्शनिक अनुयायी थे। हो गया था, जो सूर्यशतक की रचना और पाठ करने से ज्ञानेश्वर के बाद दूसरा प्रसिद्ध नाम भक्त नामदेव का छूट गया। अतएव यह काव्य साहित्यिक और धार्मिक आता है। परम्परानुसार दोनों कम से कम एक बार दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। मिले थे। भक्त माल के अनुसार नामदेव ज्ञानेश्वर के मयूर भट्ट-तान्त्रिक बौद्ध धर्म के अवसान ने बङ्गाल शिष्य थे। किन्तु रामकृष्ण भण्डारकर दोनों के समयों में तथा उड़ीसा के हिन्दू धर्म पर पर्याप्त प्रभाव डाला । बौद्ध १०० वर्ष का अन्तर बतलाते हैं। नाम देव के कुछ पदों त्रिरत्न-बुद्ध, धर्म एवं संघ-से एक नये हिन्दू देवता की का 'गुरु ग्रन्थ साहब' में उद्धरण यह प्रकट करता है कि कल्पना हुई, जिसका नाम धर्म पड़ा । धर्म ठाकुर की भक्ति इनका मराठा देश तथा पञ्जाब में समान आदर था ! Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ मरिचसप्तमी-मरुत इनके पदों में इसलाम का प्रभाव भी परिलक्षित है। रुक्माबाई (रुक्मिणी), राधा, सत्यभाभा तथा लक्ष्मी-की गुरुदासपुर जिले (पंजाब ) में घुमन नामक स्थान पर प्रतिमाएँ अलग-अलग मन्दिरों में इनकी बगल में स्थापित नामदेव के नाम पर एक मन्दिर मिर्मित है। हैं (सभी एक साथ एक मन्दिर में नहीं हैं । मराठा भक्ति तीसरे प्रसिद्ध मराठा भक्तगायक त्रिलोचन थे। ये आन्दोलन में राधा का स्थान प्रमुख नहीं है। इन नामदेव के समकालीन थे। इनके बाद मराठा भक्तों में मन्दिरों में महादेव, गणपति तथा सूर्य की स्थापना भी एकनाथ (मृत्यु काल १६०८ ई०) का नाम आता है, जो हुई है। लक्ष्मी को देवी मानते हुए इन पांचों देवों की पैठन में रहते थे । ये जातिवाद के विरोधी थे। इन्होंने पूजा होती है। इन भक्तों ने जातिवाद का समर्थन नहीं भागवत पुराण का मराठी पद्य में अनुवाद किया, जिसे किया, फिर भी महाराष्ट्र के भागवत मन्दिरों में कोई 'एकनाथी भागवत' कहते हैं। इनके २६ अभङ्गों का जातिच्युत प्रवेश नहीं करता रहा है । 'हरिपाठ' नामक संग्रह तथा चतुःश्लोकी भागवत भी मरिचसप्तमी-चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान प्रसिद्ध है। संत तुकाराम ( १६०८-४९ ई०) व्यापारी थे होता है । इसमें सूर्य का पूजन किया जाता है। ब्राह्मणों एवं बिठोवा ( पंढरीनाथ ) के भक्त थे। इनके अभङ्ग को निमन्त्रित करके १०० काली मिर्चे निम्नलिखित बड़े ही भावपूर्ण हैं। मन्त्र 'ओम् खखोल्काय स्वाहा' बोलते हुए उन्हें खाने को महात्मा नारायण (१६०८-८९ ई०), जिनका परवर्ती दी जाती हैं। इससे व्रती को अपने प्रिय व्यक्तियों का नाम समर्थ रामदास हो गया था, कविता के क्षेत्र में साहि विछोह सहन नहीं करना पड़ता। राम तथा सीता एवं त्यिक रूप से उतने प्रसिद्ध न थे, किन्तु व्यक्तिगत रूप से नल तथा दमयन्ती ने भी इस व्रत को किया था। महाराज शिवाजी पर १६५० ई० के पश्चात् इनका बड़ा प्रभाव था। इनका 'दासबोध' ग्रन्थ धार्मिक की अपेक्षा मरुत-ऋग्वेद में मरुतों की स्तुति सम्बन्धी कुल ३३ दार्शनिक अधिक है । इनके नाम पर आज भी एक सम्प्रदाय ऋचाएं (पाँचवें मण्डल में ११+पहले में ११ तथा 'रामदासी' प्रचलित है। इनके अनुयायी साम्प्रदायिक शेष संहिता में ११ = ३३) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य चिह्न धारण करते हैं तथा अपना एक रहस्यमय मन्त्र ऋचाओं में उनका उल्लेख अन्य देवों के साथ हुआ है, विशेषकर इन्द्र के साथ । इनका इन्द्र के साथ सामीप्य रखते हैं । सतारा के समीप सज्जनगढ़ इनका मुख्य केन्द्र है । यहाँ रामदासजी की समाधि, रामचन्द्रजी का मन्दिर वृत्रयुद्ध के समय सहायक के रूप में हुआ है। ऋग्वेदीय तथा रामदासीजी का मन्दिर तथा रामदासी सम्प्रदाय का सामग्री के अनुसार मरुतों का निम्नलिखित वर्णन प्रस्तुत मठ है। किया जा सकता है : अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ में श्रीधर नामक एक वे विद्युत् के अट्टहास से उत्पन्न होते हैं, आकाश के पंडित कवि बड़े ही प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने मराठी में रामा- पुत्र है, नायक हैं, पुरुष हैं, भाई हैं, साथ-साथ पढे हैं. यण एवं महाभारत की कथाएँ पद्यबद्ध की। इनका सभी एक अवस्था व मन के हैं, रोदसी से घनिष्ठ रूप से प्रभाव सीधे धार्मिक नहीं है, किन्तु इनके कथानकों का सम्बन्धित है, अग्नि की जिह्वा सदश चमकते हैं तथा सर्प स्वरूप धार्मिक है। इसी शताब्दी में पीछे महीपति हुए। की चमक रखते हैं, विद्य त् को अपने मुट्ठी में रखते हैं इनके द्वारा भक्तों तथा साधुओं की जीवनियाँ लिखी गईं। और विद्य त की माला धारण करते हैं, सुनहरे इनके ग्रन्थ हैं सन्त लीलामृत, भक्तविजय एवं कथासारा- आभूषण भुजाओं तथा घुट्टियों पर धारण करते हैं, जिनके मृत । मराठी भाषाभाषी भागवतों द्वारा इस प्रकार सर्व- द्वारा वे तारों भरे आकाश सदृश द्युतिमान होते हैं, चितविदित भक्ति आन्दोलन का गठन हुआ। भागवतपुराण कबरे घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विद्य त् के रथ पर के सिवा इनका सारा साहित्य मराठी में है। इनके देवता सवारी करते हैं तथा वायु को अपने ध्रुव गन्तव्य के लिए विट्ठलनाथ या बिठोवा हैं। बिठोवा विष्णु का मराठी जोतते हैं, बछड़ों की भांति क्रीड़ारत हैं, वन्य पशुओं जैसे नाम है । इसके केन्द्र है पण्ढरपुर, आलन्दि, एवं देहु ।। भयावह है, बिजली, आँधी तथा तूफान से पहाड़ों को भी किन्तु सारे महाराष्ट्र देश में इनके छोटे-मोटे मन्दिर हिला देते है, कुहासा बोते हैं, आकाश का धन दुहते हैं, बिखरे हुए हैं। बिट्ठल की अनेक पत्नियों ( शक्तियों)- सूर्य की आँखों को अपनी बूदों की झड़ी से ढक देते हैं, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुत्वत-मर्दाना बादलों के साथ अन्धकार की सृष्टि करते हैं, वे पृथ्वी इसके प्रथम महन्त मरुल थे। इनका वीरशंव परम्परा में को गीला कर देते हैं, गरते हुए कुओं को दुहते हैं, आकाश अति उच्च और संमानित स्थान है । के गायक है, जो इन्द्र की शक्ति उत्पन्न करते हैं तथा मालाराध्य-अवन्तिकापुरी के सिद्ध श्वर लिङ्ग से, जो अपने वंशी-वादन द्वारा पर्वतों को स्वच्छ कर देते है, भगवान् शिव का वामदेव रूप है, महात्मा मरुलाराध्य अहि तथा शम्बर के मारने में इन्द्र की सहायता करते है प्रकट हुए थे। कहते हैं कि वे अवन्ती के राजा के साथ तथा सभी आकाशीय विजयों में इन्द्र का साथ देते हैं मतभेद हो जाने से वल्लारी (कर्नाटक) जिले के एक गाँव (ऋ० ३.४७, ३-४; १.१०० आदि) । सब सन्दर्भो को में जाकर बस गये थे। दे० 'महल'। जोड़ने से प्रतीत होता है कि मरुत इन्द्र के साथी है तथा आकाश के योद्धा हैं । वे अपने कन्धों पर भाले, पैरों में र मरैज्ञानसम्बन्ध-अरुलनन्दी के शिष्य मरै ज्ञानसम्बन्ध थे। म पदत्राण, छाती पर सुनहरे आभूषण, रथों पर शानदार ये शूद्र वर्ण में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने 'शैव समयनेऋ' वस्तुएँ, हाथों में विद्युत् तथा सिर पर सुनहरे मुकुट धारण नामक ग्रन्थ की रचना की। ये १३वीं शताब्दी में मद्रास करते हैं। क्षेत्र के अन्तर्गत वर्तमान थे । उपर्यक्त विवरण से स्पष्ट है कि मरुत झंझावात के मर्कटात्मज भक्ति-शैव आगमों के अनुसार भक्ति दो देवता हैं। उनके स्वभाव का विद्युत्, विद्युत्-गर्जन, प्रकार की है। प्रथम मार्जारात्मज भक्ति और दूसरी मर्कआंधी तथा वर्षा के रूप में वर्णन किया गया है । अन्धड़- टात्मज भक्ति । प्रथम भक्ति वह है जहाँ जीवात्मा की तुफान में अनेक बार बिजली चमकती है, अनेकानेक बार दशा देवता की कृपा के भरोसे पर निर्भर होती है, जैसे गर्जन होता है, आंधी चलती है तथा वर्षा की झड़ी लगी कि मार्जारशिशु तबतक असहाय होता है, जबतक उसकी माँ रहती है। इस प्रकार के वर्णनार्थ बहुवचन का प्रयोग उसे मुँह में नहीं पकड़ती, अर्थात् बच्चा निराश्रय पड़ारहता आवश्यक है । वृत्र के मारने में मरुत् ही इन्द्र के सहायक है। स्वतः निष्क्रिय रहने वाले ऐसे प्राण की इस भक्ति को थे। यह आश्चर्य है कि इन्द्र ने अपने मण्डल से बाहर अधम कहा गया है (सा भक्तिः अधमा) । दूसरे प्रकार की जाकर रुद्रमण्डल में अपने मित्र एवं सहायक ढूँढ़े, क्योंकि भक्ति में जीवात्मा स्वयं भी भजन-पूजन करते हुए ईश्वररुद्र के पुत्र (गण) होने के कारण मरुत् रुद्रिय कहलाते हैं। प्राप्ति के लिए देवता का सहारा भी लाभ कर सकता मरुतव्रत-चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान है। जैसे वानर या मर्कटशिशु अपनी माँ को कसकर होता है । षष्ठी को उपवास किया जाता है। ऋतुओं का पकड़े रहता है और माँ जरा सा सहारा उसे देते हुए उछसप्तमी को पूजन किया जाता है । व्रती घिसे हुए चन्दन लती-कूदती रहती है। से सात पंक्तियाँ तथा प्रति पंक्ति में सात मण्डल बनाता उक्त दोनों प्रकारों में द्वितीय-मर्कटात्मज-भक्ति है। प्रथम पंक्ति में वह सात नाम एक ज्योति से सप्त में आत्मा स्वतः कार्यशील होता है, सचेष्ट, होता है, ज्योति तक लिखता है। प्रति पंक्ति में इसी प्रकार भिन्न- जबकि प्रथम-मार्जारात्मज-भक्ति में आत्मा स्वयं अकर्मण्यभिन्न नाम लिखे जाते हैं। उनचास दीपक प्रज्वलित किए होता है, वह पूर्ण रूप से देवकृपा पर निर्भर रहता है । जाते हैं। घृत से होम तथा एक वर्ष तक ब्राह्मणों को इस प्रकार यह हेय है, जबकि मकटात्मज भक्ति श्रेष्ठ है । भोजन कराने का इसमें विधान है। व्रत के अन्त में गौ परन्तु कई भक्ति सम्प्रदायों (यथा श्रीवैष्णवों में मार्जातथा वस्त्रों का दान विहित है । यह व्रत स्वास्थ्य, सम्पत्ति, रात्मज भक्ति ही श्रेष्ठ भानी जाती है, जिसमें भक्त अपने पुत्र, विद्या तथा स्वर्ग प्रदान कराता है। कहा जाता है, जीवन को भगवान् पर पूर्णतः छोड़ देता है। इन सम्प्रमरुद्गण सात अथवा ४९ है। दे० ऋग्वेद, ५.५२.१७; दायों में मर्कटात्मज भक्ति को छोटी मानते हैं, जिसमें तैत्तिरीय संहिता २.११.१ 'सप्त गणा व मरुत्' । भक्त भगवान् पर आधा ही भरोसा रखता है और आधे माल--वीरशैव सम्प्रदाय की संचालन व्यवस्था पर्याप्त में अपने अभिमान को पकड़े रहता है । इन सम्प्रदायों के महत्वपूर्ण है। इसके पाँच आदि मठ हैं। इनमें चौथा अनुसार पूर्ण प्रपत्ति' ही भक्ति की उत्तम कोटि है। स्थान उज्जिनि, बेल्लारी सीमा (मैसूर) के मठ का है। मर्दाना-गुरु नानक के एक शिष्य का नाम, जो गुरुजी Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० की सेवा में रहकर साथ-साथ घूमता था और जब वे अपने पदों को गाते थे तब वह सितार बजाता था । मलमासकृत्य मलमास के कृत्य अन्तर्वर्ती मास ( पहले के उत्तरार्ध और दूसरे के पूर्वार्ध) में करने चाहिए । उसके मध्य निषिद्ध कृत्यों के लिए देखिए 'अधिमास । मलूकदास - निर्गुण भक्ति शाखा के एक रामभक्त कवि एवं संत । उनका जीवन-काल सं० १६३१-१७३९ वि० माना जाता है । इन्होंने रामभक्ति विषयक अनेक पद्यों और भजनों की रचना की। मलूकदास ने एक अलग पन्थ भी चलाया । यों कहा जाय कि उनकी शिष्यपरम्परा मलूकदासी कहलायी, तो अधिक युक्तियुक्त होगा । इनका साधनास्थल या गुरुगद्दी प्रयाग के समीप कड़ा मानिकपुर में है। मलूकदासी— दे० 'मलूकदास' । मल्लद्वादशी - मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । यमुना के तट, तट गोवर्द्धन पहाड़ और भाण्डीर वट वृक्ष के नीचे गोपाल कृष्ण ग्वाल बालों, जो सब पहलवान थे, के साथ कुश्ती लड़ते थे। इसी प्रसंग में उक्त तिथि को समस्त मल्लों ने सर्वप्रथम पुष्पों से, दूध से, दही से तथा उत्तमोत्तम खाद्यपदार्थों से भगवान् कृष्ण की पूजा तथा सम्मान किया था। एक वर्ष तक प्रति द्वादशी को इसका अनुष्ठान होना चाहिए। इसे अरण्यदादशी या व्यनद्वादशी भी कहा गया जब कि समस्त स्वाल बालों तथा मल्लों ने एक-दूसरे को अपने विविध खाद्य पदार्थ चखाये थे । इस व्रत के परिणामस्वरूप सुस्वास्थ्य, शक्ति, समृद्धि तथा अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । मल्लनाग - एक प्रसिद्ध प्राचीन नैयायिक । विक्रम की सातवीं शताब्दी में कवि सुबन्धु ने सुप्रसिद्ध श्लेषकाव्य वासवदत्तम् में मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योस्कर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। महलनाराध्य - दक्षिण भारत के एक शांकरवेदान्ती आचार्य | इनका जन्म कोटी वंश में हुआ था और इन्होंने अ रत्न अभेदरत्न नामक दो प्रकरण ग्रन्थ लिखे । इनका जन्म सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में हुआ था । इन्होंने 'अद्वैतरत्न' के ऊपर 'तत्त्वदीपन' नामक टीका लिखी है । मल्लनाराध्य ने द्वैतवादियों के मत का खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी । मलमासकृत्य महत् मल्लनायें - वीरशैव सम्प्रदाय के १८वीं शताब्दी के आचार्य । इन्होंने भाषा में 'वीर शैवामृत' नामक ग्रन्थ रचा । मल्लारिमहोत्सव - मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। महलारि की पत्नी म्हाळसा (कदाचित् मदालसा का अपभ्रंश) थी । मल्लारि के पूजन में हल्दी का चूर्ण मुख्य पदार्थ है जो महाराष्ट्र में भण्डारा के नाम से प्रसिद्ध है। महकारि का पूजन या तो प्रति रविवार या शनिवार अथवा पष्ठी को होना चाहिए। पूजनविधि ब्रह्माण्ड पुराण, क्षेत्रखण्ड के मल्लारिमाहात्म्य से गृहीत है। मल्लिकार्जुन - दक्षिण भारत के श्रीशैल पर्वत पर स्थित शंकरजी का प्रसिद्ध मन्दिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इसकी गणना है । वोरश्वाचार्य श्रीपति पण्डिताराध्य की उत्पत्ति मल्लिकार्जुन लिङ्ग से ही मानी जाती है । इनका माहारम्य शिवपुराण, शतरुद्र [सं० ४१.१२ में वर्णित है। मल्लिकार्जुन जङ्गम-काशी में भगवान् विश्वाराध्य का वीर संस्थान 'जङ्गमबाड़ी लाम के नाम से प्रसिद्ध है। इस मठ के मल्लिकार्जुन अङ्गम नामक शिवयोगो को काशीराज जयनन्ददेव ने विक्रम सं० ६३१ में प्रबोधिनी एकादशी के दिन भूमिदान किया था। इस कृत्य का ताम्रशासन लगभग पौने चौदह सौ वर्षों का पुराना उक्त मठ में सुरक्षित है । दे० 'जङ्गमबाड़ी' । महाकौतसूत्र - सामवेद सम्बन्धी एक श्रौतसूत्र 'मशकश्रोत सूत्र' नाम से विख्यात है । मसान - एक प्रकार का श्मशानवासी प्रेत । मसान का अन्य नाम तोला है । यह बालकों तथा अविवाहितों का असन्तुष्ट मृत आत्मा होता है। मसान का साधारण अर्थ श्मशान भूमि में भटकने वाला प्रेत है। ये लोकविश्वासानुसार मनुष्यों को हानि नहीं पहुँचाते तथा इनकी स्थिति अस्थायी होती है। कुछ समय के बाद इनका जन्मान्तर हो जाता है तथा ये नया जन्म ले लेते हैं । कहा जाता है, कभीकभी ये दूसरे भूतों के समाज से निष्कासित हो जङ्गलों व एकान्त प्रदेश में भालू या अन्य वन्य पशु के रूप में भटकते फिरते हैं। महत् - ( १ ) सांख्य मतानुसार प्रकृति से उसके प्रथम विकार महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है । जगत् रचना का यह वह सूक्ष्म तत्व है जो विचार एवं निर्णय करने वाले तत्व का निर्माण करता है । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ महत्तमव्रत-महाज्येष्ठी (२) संमान्य अथवा विशाल के अर्थ में 'महत्' नपुं- श्मशान में शवासन पर बैठते हैं और चिताभस्म लगाते सकलिंग विशेषण है। पुंलिंग में यह 'महान्' और स्त्री- है । काल को नष्ट कर जो स्वयं मृत्यु को जीतने वाले लिंग में 'महती' होता है । कर्मधारय और बहुब्रीहि समास (मृत्युञ्जय) है उनको महाकाल कहा गया है। इनका में यह 'महा' बनकर उत्तरपद के साथ मिल जाता है। प्रसिद्ध मन्दिर 'महाकाल निकेतन' उज्जयिनी में है और कतिपय समस्त पदों में यह निन्दा या अशुभ अर्थ प्रकट ये द्वादश ज्योतिलिंगों में गिने जाते हैं। करता है, यथा : महातैल (रुधिर), महाब्राह्मण (महापात्र) महाकाली-शाक्त मतानुसार दस महादेवियों में से प्रथम महामांस (नरमांस), महापथ (मृत्युमाग), महानिद्रा महाकाली हैं। इनके शक्तिमान अधीश्वर महाकाल रुद्र हैं। (मृत), महायात्रा (मृत्यु), महासंवैद्य (यम), महाशंख महाकौलज्ञानविनिर्णय-दसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का एक (नरमुंड) तान्त्रिक ग्रन्थ । "शंखे तैले तथा मांसे वैद्ये ज्योतिषि के द्विजे । महाकौशीतकि-कौशीतकि का नाम शाङ्खायन ब्राह्मण में यात्रायां पथि निद्रायां महच्छब्दो न दीयते ।।" अनेक बार आया है । इसीलिए शाङ्खायन ब्राह्मण के भाष्यमहत्तमव्रत-भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को इस व्रत का अनुष्ठान कार ने इसे 'कौशीतकि ब्राह्मण' कहा है। इसी भाष्य में होता है। यह तिथिव्रत है। भगवान् शिव की अनेक स्थानों पर 'महाकौशीतकि ब्राह्मण' नाम भी जटाओं से मण्डित तथा पञ्च मुखयुक्त सुवर्ण-रजत की आया है। प्रतिमा का कलश में रखकर पूजन किया जाता है । पंचा महाक्रतु (यज्ञक्रतु)-भारतीय कर्मकाण्ड अथवा याज्ञिक कार्यों में अश्वमेध यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृत्य है। मृत में स्नान कराकर पुष्पादि चढ़ाते हुए १६ फल भगवान् की सेवा में अर्पित किए जाते हैं । व्रत के अन्त में गौ का इसकी गणना महाक्रतु या यज्ञक्रतु नाम से होती है। दान किया जाता है। इसके आचरण से व्रती दीर्घायु महागणपति-गाणपत्य सम्प्रदाय के छ: उपसम्प्रदायों में तथा राज्य प्राप्त करता है। प्रथम 'महागणपति' है। महागणाधिपति सम्प्रदाय-गाणपत्य सम्प्रदाय का प्रथम उपमहत्विज-महत्त्विज चार प्रधान पुरोहितों का सामूहिक नाम है । विशिष्ट यज्ञों में होता, उद्गाता, अध्वर्यु तथा सम्प्रदाय । महागणाधिपति के उपासक उन्हें महाब्रह्मा या स्रष्टा मानते हैं । प्रलय के बाद महागणपति ही रह जाते ब्रह्मा मिलकर महत्विज कहलाते हैं। है और आरम्भ में वे ही फिर से सृष्टि करते हैं । महर्षि वेदमन्त्रों के प्रकटकर्ता या विधि निर्धारक ऋषि महाचतुर्थी-भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी यदि रविवार या कहे जाते हैं। किसी महान् ऋषि को महर्षि कहते हैं। भौमवार को पड़े तो वह महाचतुर्थी कहलाती है। उस दे० 'महाब्राह्मण'। दिन गणेश जी की पूजा करने से कामनाओं की सिद्धि महा उपनिषद्-एक परवर्ती संक्षिप्त वैष्णव उपनिषद् । इसमें कथित है कि नारायण (विष्णु) ही शाश्वत ब्रह्म है; उन्हीं महाचैत्री-चैत्री पूर्णिमा को बहस्पति और चन्द्रमा यदि चित्रा से सांख्य वर्णित पचीस तत्व उत्पन्न हुए हैं, शिव तथा नक्षत्र में एक साथ पड़ जायें तो वह महाचैत्री कहलाती है। ब्रह्मा उनके मानस पुत्र तथा आश्रितदेवता है। वैष्णव महाजयासप्तमी-जब सूर्य शुक्ल पक्ष की सप्तमी को दूसरी उपनिषदों में यह सर्वप्राचीन मानी जाती है। राशि पर पहुँचता है, तो वह तिथि ‘महाजया सप्तमी' महाकार्तिको-कार्तिक की पूर्णमासी को चन्द्रमा और बृहः कहलाती है । उस दिन स्नान, जप, होम तथा देवताओं स्पति यदि कृत्तिका नक्षत्र में हों तब यह तिथि महाकार्तिकी की पूजा करने से करोड़ों गुना पुण्य मिलता है। यदि कही जाती है। चन्द्र रोहिणी में भी हो सकता है। इस उसी दिन सूर्य की प्रतिमा को दूध या घी से स्नान कराया दिन सोमवार का योग इस पर्व को बहुत श्रेष्ठ बना जाय तो मनुष्य सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है। यदि उस देता है। दिन उपवास किया जाय तो मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है। महाकाल (शिव)-शिव के अनेक रूपों में से एक प्रलयंकर महाज्येष्ठी-ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र हो, रूप। इस स्वरूप में शिव मुण्डों की माला पहनते हैं। बृहस्पति तथा चन्द्रमा भी उसी नक्षत्र में हों तथा सूर्य Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ रोहिणी नक्षत्र में हो तो वह तिथि महाज्येष्ठी कहलाती है। इस दिन दान, जप करने से महान् पुण्यों की प्राप्ति होती है । महातन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उल्लिखित ६४ तन्त्रों की सूची में यह भी एक तन्त्र है । महातपोद्यतानि अनेक छोटे-छोटे विधि-विधानों का इसी शीर्षक में यत्र-तत्र वर्णन किया जा चुका है। इसलिए यहाँ पृथक परिगणन नहीं किया जा रहा है । महातृतीया - माथ अपना चैत्र मास की तृतीया को 'महातृतीया कहते हैं। इसकी गौरी देवता है। मनुष्य इस दिन उनके चरणों में गुड़-धेनु अर्पित करे तथा स्वयं गुड़ न खाये । इस आचरण से उसे अत्यन्त कल्याण तथा आनन्द तो प्राप्त होता ही है, साथ ही मरणोपरान्त वह गौरी लोक प्राप्त करता है।[ गुड़-धेनु के विस्तृत वर्णन के लिए देखिये मत्स्यपुराण, ८४ ] । - - महात्मा ( महात्मन् ) दर्शनशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग सर्वातिशयी तथा ऐकान्तिक आत्मा अथवा विश्वात्मा के लिए होता है । किसी सन्त अथवा महापुरुष के लिए आदरार्थ भी इसका प्रयोग किया जाता है । महादान महादान संख्या में दस या सोलह है। इनमें स्वर्णदान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इसके पश्चात् भूमि, आवास, ग्राम- कर के दान आदि का क्रमश: स्थान है । स्वर्णदान सबसे मूल्यवान् होने से उत्तम माना गया है। इसके अन्तर्गत 'तुलादान' अथवा 'तुलापुरुषदान' है । सर्वा धिक दान देने वाला तुला के पहले पलड़े पर बैठकर दूसरे पलड़े पर समान भार का स्वर्ण रखकर उसे ब्राह्मणों को दान करता था । बारहवीं शताब्दी में कन्नौज के एक राजा ने इस प्रकार का तुलादान एक सौ बार तथा १४वीं शताब्दी के आरंभ में मिथिला के एक मन्त्री ने एक बार किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग हर्षवर्धन शीलादित्य के प्रत्येक पांचवें वर्ष किये जाने वाले प्रयाग के महादान का वर्णन करता है। यज्ञोपवीत के अवसर पर या महायशों के अवसर पर धनिक पुरुष स्वर्ण निर्मित नौ, कमल के फूल, आभूषण, भूमि आदि यज्ञान्त में ब्राह्मणों को दान कर देते हैं । आज भी महादानों का देश में अभाव नहीं है । सभी बड़े तीर्थों में सत्र चलते हैं जहाँ नित्य ब्राह्मणों, संन्यासियों एवं पंगु, लुंज व्यक्तियों को भोजन महातन्त्र-महाद्वादशी दिया जाता है । ग्राम-ग्राम में प्रत्येक हिन्दू परिवार में ऐसे ब्राह्मणभोज नाना अवसरों पर कराये जाते हैं। प्रथम शताब्दी के उपवदात्त के गुहाभिलेख से ज्ञात है कि वह एक लाल ब्राह्मणों को प्रतिवर्ष १ लाख गौ १६ ग्राम, विहार-भूमि, तालाब आदि दान करता था । सैकड़ों राजाओं ने असंख्य ब्राह्मणों का वर्षो तक और कभी कभी आजीवन पालन-पोषण किया। आज भी मठों, देवालयों के अधीन देवस्व अथवा देवस्थान की करहीन भूमि पड़ी है, जिससे उनके स्वामी मठाधीश लोग बड़े धनवानों में गिने जाते हैं । महादेव (शिव) - त्रिमूर्ति के अन्तर्गत शिव सर्वाधिक लोकप्रिय देवता हैं । गाँवों में इन्हें महादेव कहते हैं और प्रमुख देवता के रूप में उनका पूजन एक गोल पत्थर के (अर्ध्यपात्र) के बीच में होता है । उनके पवित्र वाहन 'नन्दी' की मूर्ति (जो धर्म की प्रतीक है) भी सम्मुख निर्मित होती है। उनकी पूजा प्रधान रूप से सोमवार को होती है क्योंकि वे सोम, ( स + उमा - सोम), पार्वती से संयुक्त माने जाते हैं। उनके प्रति कोई पशु बलि नहीं होती है। विश्व पत्र, चावल, चन्दन, पुष्प द्वारा उनके भक्त उनकी अर्चा करते हैं। ग्रीष्म काल में उनके ऊपर तीन पैरों वाली एक टिखटी के सहारे मिट्टी के पात्र की स्थापना करते हैं। जिसके नीचे छिद्र होता है जिससे बूंद-बूंद कर समस्त दिन मूर्ति पर जल पड़ा करता है । वर्षा न होने पर कभी कभी ग्रामवासी महादेव को जलपात्र में निमग्न कर देते हैं। ऐसा विश्वास है कि शिव को जल में निमग्न करने से वर्षा होती है । - । महादेव सरस्वती स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती के शिष्य । इन्होंने तत्त्वानुसन्धान नामक एक प्रकरण ग्रन्थ लिखा । इस पर इन्होंने अद्वैतचिन्ताकौस्तुम नाम की टीका भी लिखी । तत्त्वानुसन्धान बहुत सरल भाषा में लिखा गया है। इनका स्थितिकाल १८वीं शताब्दी था । महादेवी ( शिवपत्नी) - शिव की शक्ति का नाम । हजारों नाम व रूपों में ये विश्व को दीप्त करती हैं । प्रकृति तथा वसन्त ऋतु की आत्मा के रूप में दुर्गा तथा अनन्तता की मूर्ति के रूप में काली पूजित महादेवी होती है । महाद्वादशी - भाद्रपद की श्रवण नक्षत्रयुक्ता द्वादशी इस नाम से विख्यात है । इस दिन उपवास तथा विष्णु का पूजन करने से अनन्त पुण्यों की उपलब्धि होती है । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावा महानन्दा नवमी-महाफलवत ५०३ विष्णु धर्मोत्तर ( १.१६१.१-८ ) में लिखा है कि यदि है। कुछ विद्वान् भारती को इसका संकलनकार या भाद्रपद शुक्ल पक्ष की द्वादशी बुधवार को पड़े और उस टिप्पणी लेखक ही मानते हैं। इस प्रकार यह ग्रन्थ और दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह अत्यन्त महती (बड़ी से बड़ी) प्राचीन हो सकता है। यह दो भागों में है, किन्तु इसका होती है। इसके अतिरिक्त आठ अन्य भी पवित्र महा- प्रथम भाग ही प्रकाशित एवं अनूदित है । द्वादशियाँ है, जिन्हें जया, जयन्ती, उन्मीलिनी, वेञ्जुला, इसके प्रथम तथा द्वितीय अध्याय प्रास्ताविक हैं। तीसरे त्रिस्पृशा आदि कहा जाता है । में ब्रह्म के ध्यान-चिन्तन का कथोपकथन है । शेष अध्याय महानन्दा नवमी-माघ शुक्ल नवमी को महानन्दा कहते न केवल विधिवत् पूजा अपितु चरित्र, परिवार तथा विसर्जन हैं । यह तिथि व्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान सम्बन्धी क्रियाओं का विवरण उपस्थित करते हैं। इनमें होता है । दुर्गा इसकी देवता हैं। वर्ष को चार-चार मासों चक्रपूजा तथा पञ्चमकार-महिमा भी सम्मिलित है।। के तीन भागों में बांटकर प्रति भाग में भिन्न-भिन्न प्रकार महानुभांव--इस पन्थ को मानभाऊ सम्प्रदाय या दत्तात्रेय के पुष्प, धूप, नैवेद्य देवी जी को भिन्न-भिन्न नामों से सम्पदाय भी कहते हैं। इसका वर्णन अन्यत्र दत्तात्रेय । अर्पण किये जाते हैं । इससे मनुष्य की कामनाएं पूरी होती सम्प्रदाय के रूप में हुआ है । दे० 'दत्तात्रेय-सम्प्रदाय' । हैं तथा उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महानुभाव पंथ-मानभाऊ सम्प्रदाय का ही शुद्ध रूप महानुमहानवमी-(१) यह दुर्गा-पूजा का उत्सव है। इसके लिए भाव पन्थ है । दे० 'दत्ता० सम्प्रदाय' ।। देखिए कृत्यकल्पतरु ( राजधर्म ) पृ० १९१-१९५ तथा महापौर्णमासीव्रत-प्रत्येक मास की पौर्णमासी को इस व्रत राजनीतिप्रकाश पृ० ४३९-४४४ । का अनुष्ठान विहित है। एक वर्ष तक इसमें हरि का (२) आश्विन शुक्ल अथवा कार्तिक शुक्ल अथवा मार्ग- पूजन होता है। इस दिन छोटी वस्तु का भी दान महान् शीर्ष शुक्ल नवमी को यह व्रत आरम्भ होता है। यह पुण्य प्रदान करता है। तिथि व्रत है। दुर्गा इसकी देवता हैं। एक वर्षपर्यन्त महाप्रलय निरूपण-निर्गणवादी संत साहित्य में इस ग्रन्थ इसका अनुष्ठान होता है । पुष्प, धूप तथा विभिन्न स्नानो- की गणना होती है। इसकी रचना १८वीं शताब्दी में पकरण समर्पित किये जाते हैं । कुछ मासों में कन्याओं को महात्मा जगजीवन दास द्वारा हुई, जो 'सतनामी' भोजन कराया जाता है। इससे व्रती देवीलोक को प्राप्त साधु थे । करता है। महाप्रसाद-संस्कार पूर्वक देवता को अर्पित नैवेद्य । वैष्णव महानाग-महानाग का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (११.२,७, लोग जगन्नाथजी के भोग लगे हुए भात को महाप्रसाद १२) में हुआ है, जहाँ यह विशुद्ध पौराणिक नाम है। कहते हैं । कहीं कहीं बलि-पशु के मांस को भी महाप्रसाद महानारायणोपनिषद्-वैष्णव साहित्य (सामान्य) में इसकी कहा गया है। भी गणना होती है। रचना-काल वि० पू० दूसरी शताब्दी महाफल द्वादशी-विशाखा नक्षत्र युक्त पौष कृष्ण एकादशी है । इसमें वासुदेव को विष्णु का एक स्वरूप कहा गया को इस व्रत का प्रारम्भ होता है । विष्णु इसके देवता हैं । है, जिससे यह प्रकट होता है कि उस समय भी कृष्ण एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान विहित है। शरीर की किसी न किसो अर्थ में विष्णु के रूप माने जाते थे। यह ___शुद्धि के लिए कतिपय मासों में कुछ वस्तुएँ प्रयुक्त की उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा की है। जानी चाहिए तथा प्रति द्वादशी को क्रमशः इन वस्तुओं महामिरष्ट-यज्ञ दक्षिणा का वृषभ, जो यजुर्वेद संहिता में से एक वस्तु दान में दी जाय, जैसे-धी, तिल, चावल। (तैत्तिरीय संहिता १.८,९,१, का० सं० १५.४,९; मैत्रा० इस व्रत से व्रती को मरणोपरान्त विष्ण लोक की प्राप्ति सं० २.६,५) में राजसूय की दक्षिणा के रूप में उल्लि- होती है। खित है। महाफलवत-एक पक्ष, चार मास अथवा एक वर्ष तक महानिर्वाणतन्त्र-बहु प्रचलित, प्रसिद्ध तन्त्रग्रन्थ । इसके व्रती को प्रतिपदा से पूर्णिमा तक केवल एक वस्तु का रचयिता राजामोहन राय के गुरु हरिहरानन्द भारती कहे निम्नोक्त क्रम से आहार करना चाहिए। क्रम यह हैजाते हैं और इस प्रकार इसका रचनाकाल १९वीं शताब्दी दुग्ध, पुष्प, समस्त खाद्य पदार्थ नमक को छोड़कर, तिल, Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ महाफल सप्तमी-महाभारत दुग्ध, पुष्प, वनस्पति, बेल का फल, आटा, बिना पकाया इसे उत्पन्न किया तथा बहुत दिनों तक इसे अपने कण्ठ में हुआ खाद्य पदार्थ, उपवास, दूध में उबाले हुए शर्करा पहने रखा । यहाँ कृष्णा नदी का उद्गम होने से यह रममिश्रित चावल, जौ, गोमूत्र तथा जल जिसमें कुश डुबाये णीकस्थल हो गया है। पहले यहाँ बम्बई प्रदेश को ग्रीष्महुए हों। इन समस्त दिनों में निश्चित विधि-विधान का कालीन राजधानी थी। यहाँ महाबलेश्वर रूप से भगवान् ही आचरण करना चाहिए। व्रत से एक दिन पूर्व तीन शङ्कर, अतिबलेश्वर रूप से भगवान् विष्णु और कोटीसमय स्नान, उपवास, वैदिक मन्त्रों तथा गायत्री मन्त्र का श्वर रूप से भगवान् ब्रह्मा निवास करते हैं। यहाँ पाँच जप करना चाहिए। इस आचरण से विभिन्न प्रकार के नदियों का उद्गम है : सावित्री, कृष्णा, वेण्या, ककुद्मती पुण्य-फल प्राप्त होते हैं और व्रती सीधा सूर्यलोक (कोयना) और गायत्री । पास ही महारानी अहल्याबाई जाता है। का बनवाया रुद्रेश्वरमन्दिर है। मुद्रतीर्थ, चक्रतीर्थ, हंसमहाफल सप्तमी-रविवार को सप्तमी तिथि तथा रेवती तीर्थ, पितृमुक्ति तीर्थ, अरण्यतीर्थ, मलापकर्षतीर्थ आदि नक्षत्र होने पर अशोक वृक्ष की कलियों से दुर्गा जी की अनेक तीर्थ स्थल है। प्रति वर्ष बहत बड़ी संख्या में यहाँ पूजाकर कलियों को प्रसाद रूप में खा लेना चाहिए। यात्री एकत्र होते हैं। महाफाल्गुनी-फाल्गुन मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा और महावसवपुराण-वीर शैव आचार्यों ने जो ग्रन्थ कन्नड में बहस्पति दोनों यदि पूर्वा या उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में लिखे अथवा अनूदित किये, उनमें अधिकतर पुराण ही हों तब यह तिथि महाफाल्गुनी कही जाती है। इसमें हैं। महावसव पुराण अथवा महवसवचरित्र की रचना भगवान् विष्णु की पूजा का विधान है। १४५० वि० के लगभग सिगिराज ने की थी। इसके महाफेत्कारी तन्त्र-'आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों तेलुगु तथा तमिल अनुवाद भी प्राप्त होते हैं । की सूची में 'महाफेकारी' भी एक तन्त्र है। महाब्राह्मण-(१) बृहदारण्यक उपनिषद् ( २.१,१९,२२) में इसका उल्लेख हुआ है। यह एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण महाबलीपुरम्--सुदूर दक्षिण भारत का एक तीर्थ । समुद्र के ग्रन्थ है। किनारे यह प्रसिद्ध स्थान है । ७ वीं शती में इसे सर्वप्रथम (२) महाब्राह्मण 'महापात्र' ब्राह्मणों को भी कहते हैं पल्लवराज नरसिंहवर्मा ने बसाया था । यहाँ पत्थर काट जो मृतक की शय्या, वस्त्राभूषण तथा एकादशाह का कर लंगूर के समान बन्दरों का एक समूह बनाया गया है, भोजन ग्रहण करते हैं। इसी के मध्य शिव मन्दिर है । गणेश, विष्णु, वामन, वराह आदि अन्यान्य देवताओं के भी मन्दिर और मूत्तियाँ महाभद्राष्टमी-पौष शुक्ल पक्ष की अष्टमी यदि बुधवार हैं । ये मन्दिर पल्लव वंश के नरेशों द्वारा बनवाये गये को पड़े तो वह महाभद्राष्टमी कहलाती है तथा अत्यन्त थे, जो स्थापत्य की कला में अपनी विशेषता के लिए पुनीत मानी जाती है। शिव इसके देवता हैं । जगत्प्रसिद्ध हैं। इन मदिरों को रथ कहते हैं। सप्तरथ महाभागवत उपपुराण-कुछ विद्वानों द्वारा प्रसिद्ध उपनामक युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, गणेश तथा पुराणों में से एक महाभागवत भी माना जाता है। वैष्णव द्रौपदी के मंदिर बड़े प्रसिद्ध हैं। समुद्र के जल से । इसको उपपुराण मानने के लिए तैयार नहीं होते । वे प्रच्छालित पर्वत बाहुओं को काटकर बनाये गये ये मंदिर लोग श्रीमद्भागवत को महापुराण मानते हैं । दे० अपनी सुन्दरता और मनमोहकता के लिए विश्व 'श्रीमद्भागवत'। प्रसिद्ध हैं। महाभाद्री-भाद्रपद मास की पूर्णिमासी को चन्द्रमा और महाबलेश्वर-कोंकण देशस्थ पश्चिमी घाट के गोकर्ण नामक बृहस्पति दोनों भाद्रपदा नक्षत्र में यदि स्थित हों तब यह तीर्थस्थान में महाबलेश्वर का प्रसिद्ध मन्दिर है, जो तिथि महाभाद्री कही जाती है । इस दिन धर्मकृत्य महान द्राविड शैली में काले आग्नय पत्थरों से निर्मित है। इसमें पुण्य प्रदान करते हैं। 'आत्मा' नामक प्रसिद्ध लिङ्ग स्थापित है। इसके बारे में महाभारत-पुराणों की शैली पर निर्मित सांस्कृतिक और कहा जाता है कि ब्रह्मा की सृष्टि से क्रोधित हो शिव ने धार्मिक इतिहास ग्रन्थ, जिसमें भरतवंशज कौरव और Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य ५०५ पाण्डवों का चरित्र लिखा गया है। इसकी रचना के तीन तथ्य है, जो कहानी में बना रहा, यद्यपि स्वाभाविक रूप क्रम कहे जाते हैं : प्रथम क्रम में मूल भारत आख्यान की से यह आगे चलकर अग्रहणीय समझा जाने लगा। इस रचना कृष्ण द्वैपायन व्यास ने ८८०० श्लोकों में की थी। काल ( प्रथम अवस्था ) की एक समस्या कृष्ण का देव इसका परिवर्धित दूसरा संस्करण भारत संहिता नाम से रूप में उत्थान है, जिनका एक विरुद वासुदेव था। कुछ बादरायण व्यास ने २४००० श्लोकों में अपने शिष्यों को विद्वानों का विश्वास है कि आदि ( प्रथम ) भारत में पढ़ाने के लिए किया । आगे चलकर जममेजय और वैश- कृष्ण केवल एक मानव थे तथा परवर्ती काल में ही उन्हें दैवी पायन के संवाद रूप का विस्तृत संकलन महाभारत नाम रूप मिला। दूसरों का मत है कि महाभारत कृष्ण में से एक लाख श्लोकों में सौति ने शौनक आदि ऋषियों को ___सदा देवता रहे हैं। सुनाते हुए संपादित किया । हरिवंश खिलपर्व इसका प्रचलित महाभारत १८ पर्यों में विभक्त है। इन पर्वी परिशिष्ट माना जाता है। के अवान्तर भी एक सौ छोटे पर्व हैं जिन्हें पर्वाध्याय कहते __ आधुनिक आलोचक इस महाग्रन्थ को वेदव्यास और हैं। पर्व निम्नांकित है : उनके शिष्य-प्रशिष्यों की रचना न मानकर बाद के अनेक १. आदिपर्व २. सभापर्व ३. वनपर्व ४. विराटपर्व संशोधक-संपादक पौराणिक विद्वानों का संकलन या संग्रह ५. उद्योग पर्व ६. भीष्म पर्व ७. द्रोण पर्व ८. कर्ण पर्व कहते हैं। उनके विचार में भारत नामक महाकाव्य मूलतः ९. शल्य पर्व १०. सौप्तिक पर्व ११. स्त्री पर्व १२. वीरगाथा रूप में था। कालान्तर में जनसाधारण के धर्म शान्ति पर्व ( आपद्धर्मपर्वाध्याय, मोक्षधर्मपर्वाध्याय ) ज्ञान का प्रमाण होने तथा विविध हिन्दू सम्प्रदायों के । १३. अनुशासन पर्व १४. आश्वमेधिक पर्व १५. आश्रमउत्थान का वर्णन उपस्थित करने के कारण उसकी महत्ता वासिक पर्व १६ कौशल पर्व १७. सहाप्रास्थानिक पर्व बढ़ गयी। विद्वान् इस महाकाव्य के मिश्रण या परिवर्ध और १८. स्वर्गारोहण पर्व । नात्मक तीन कालों पर एकमत हैं । (क) भारत महाकाव्य की साधारण काव्यमय रचना : महाभारत का खिल अथवा परिशिष्ट पर्व हरिवंश दसवीं से पांचवीं अथवा चौथी शताब्दी ई० पू० के बीच । उपपुराण के नाम से ख्यात है जिसमें भगवान् कृष्ण के वंश (ख) इस महाकाव्य का वैष्णव आचार्यों द्वारा साम्प्र का वर्णन है। इसी में विष्णुपर्व भी है और शिवचर्या भी है दायिक काव्य में परिवर्तन : दूसरी शताब्दी ई० पू० ।। और साथ ही साथ अद्भुत भविष्य पर्व भी है जो पर्वा(ग) महाभारत का वैष्णव ईश्वरवाद, धर्म, दर्शन, ध्याय में १० वा पर्व गिना जाता है। विष्णु पर्व में राजनीति, विधि का विश्वकोश बन जाना : ईसा की पहली अवतारों का वर्णन है और कृष्ण द्वारा कंस के मारे तथा दूसरी शताब्दी। जाने की कथा है। इसमें जैनों के तीर्थङ्कर नेमिनाथ वा प्रथम अवस्था में प्रस्तुत महाभारत के विषयों पर । अरिष्टनेमि को कृष्ण की ज्ञाति से सम्बद्ध गिनाया गया दृष्टिपात करने से हम उसकी धार्मिक विशेषताओं को है। इसके भविष्य वर्णन से और जैनियों की चर्चा से बहतों समझ सकते हैं, यद्यपि नये तथ्यों के मेल को उनसे अलग को अनुमान होता है कि महाभारत की एक लाख की करना बड़ा कठिन है। उसमें ईश्वरवाद है, किन्तु देवी संख्या पूरी करने के लिए यह परिशिष्ट बहुत ही बाद में अवतार तथा आत्मा का सिद्धान्त नहीं है। तीन मुख्य मिलाया गया । जैनियों का भी हरिवंश पुराण है देवता, इन्द्र, ब्रह्मा, और अग्नि हैं। धर्म तथा काम देवता जो इस हरिवंश से बिलकुल भिन्न है। इसमें नेमिनाथ की के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं । कृष्ण भी हैं किन्तु मानव या कथा मुख्य है और उसी के प्रसंग में श्री कृष्ण और उनके देवता के रूप में, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। वंश का भी विवरण दिया गया है। है । महाभारत के समाज में जातिवाद का पूर्ण अभाव है। महाभाष्य-पाणिनि मुनि के अष्टाध्यायी नामक व्याकरण स्त्रियों को पर्याप्त स्वाधीनता है । साधारण नियम के ग्रन्थ पर पतञ्जलि का महाभाष्य उस काल की रचना है, विपरीत ब्राह्मण योद्धा का कार्य करते हैं। हिन्दू अभी __ जब शुङ्गों द्वारा बैदिक धर्म का पुनरुद्धार हो रहा था। शाकाहारी नहीं हुए थे । द्रौपदी का बहपतित्व ऐतिहासिक ल्याकरण प्रन्थ होने के साथ-साथ यह ऐतिहासिक, राज Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ महाभूत-महायज्ञ स्पष्टीकरण के लिए धर्म शब्द का साधारण रूप से और यज्ञ शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है । नीतिक, भौगोलिक एवं दार्शनिक महत्त्व रखता है। रचना-काल वि० पू० १०० सं० के लगभग है। महाभूत-जिन तत्त्वों से सृष्टि ( स्थूल ) की रचना हुई है उन्हें 'महाभूत' कहते हैं । पञ्च महाभूतों के सिद्धान्त को सांख्य दर्शन भी मानता है एवं वहाँ इसके दो विभाजनों द्वारा उसका और भी सूक्ष्म विकास किया गया गया है । वे दो विभाजन हैं : (१) तन्मात्रा ( सूक्ष्मभूत ) तथा (२) महाभत ( स्थल भूत )। दूसरे विभाग में पाँच महाभूत हैं-पृथ्वी, जल, तेज ( अग्नि ), वायु और आकाश ।। महामाघी-जब सूर्य श्रवण नक्षत्र का तथा चन्द्रमा मधा नक्षत्र का हो तो यह तिथि महामाधी कहलाती है। 'पुरुषार्थचिन्तामणि' ( ३१३-३१४ ) के अनुसार जब शनि मेष राशि पर हो, चन्द्र तथा वृहस्पति सिंह राशि पर हों तथा सूर्य श्रवण नक्षत्र में हो तो यह योग महामाघी कहा जाता है । इस पर्व पर प्रयाग में त्रिवेणी संगम अथवा अन्य पवित्र नदियों तथा सरोवरों में प्रातः काल माघ मास में स्नान करना समस्त महापापों का नाशक है। यज्ञ और यहायज्ञ एक ही अनुष्ठान हैं, फिर भी दोनों में किञ्चिद् भेद है। यज्ञ में फलरूप आत्मोन्नति के साथ व्यष्टि का सम्बन्ध जुड़ा रहता है। अतः इसमें स्वार्थ पक्ष प्रबल है। पर महायज्ञ समष्टि-प्रधान होता है । अतः इसमें व्यक्ति के साथ जगत्कल्याण और आत्मा का कल्याण निहित रहता है । निष्काम कर्मरूप औदार्य से इसका अधिक सम्बन्ध है। इसलिए महर्षि भरद्वाज ने कहा है कि सुकौशलपूर्ण कर्म ही यज्ञ है और समष्टि सम्बन्ध से उसी को महायज्ञ कहते हैं। तमिलनाडु में 'मख' वार्षिक मन्दिरोत्सव होता है तथा बारह वर्षों के बाद 'महामख' मनाया जाता है । उस समय कुम्भकोणम् नामक स्थान में एक भारी मेला लगता है । जहाँ 'महामघ' नामक सरोवर में स्नान किया जाता है । इस विशाल मेले की तुलना प्रयाग के कुम्भ से की जा सकती है। दक्षिण भारत में यह मेला 'ममंघम' नाम से प्रसिद्ध है तथा उस समय होता है जब पूर्ण चन्द्र मघा नक्षत्र का हो और बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित हो । यह आश्चर्यजनक बात ही कही जायगी कि मध्यकाल का कोई भी धर्मग्रन्थ महामखम् उत्सव तथा कुम्भ मेले के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं करता। इतना अवश्य ज्ञात है कि सम्राट हर्षवर्द्धन प्रति पाँच वर्षों के बाद प्रयाग के विस्तृत क्षेत्र में त्रिवेणीसंगम के पश्चिमवर्ती तट पर, जहाँ आजकल भी माघ में मेला लगता है, अपने राजकोष को ब्राह्मणों, भिक्षुओं तथा निर्धनों में वितरित करता था। महायज्ञ--शास्त्रों में प्राणिमात्र के हितकारी पुरुषार्थ को यज्ञ कहा गया है । धर्म और यज्ञ वस्तुतः कार्य और कारण रूप से एक दूसरे के पर्यायवाची है। वैज्ञानिक यज्ञ और महायज्ञ को परिभाषित करते हुए महर्षि अंगिरा ने इस प्रकार कहा है : व्यक्तिसापेक्ष व्यष्टि धर्मकार्य को यज्ञ तथा सार्वभौम समष्टि धर्मकार्य को महायज्ञ कहते है । वस्तुतः शास्त्रों में जीव स्वार्थ के चार भेद बताये गये है-स्वार्थ, परमार्थ, परोपकार और परमोपकार । तत्त्वज्ञों के अनुसार जीव का लौकिक सुख-साधन स्वार्थ है और पारलौकिक सुख के लिए कृत पुरुषार्थ को परमार्थ कहते हैं। दूसरे जीवों के लौकिक सुख साधन एकत्र करने का कार्य परोपकार और अन्य जीवों के पारलौकिक कल्याण कराने के लिए किया गया प्रयत्न परमोपकार कहलाता है । स्वार्थ और परमार्थ यज्ञ से तथा परोपकार और परमोपकार महायज्ञ से सम्बद्ध है । महायज्ञ प्रायः निष्काम होता है और साधक के लिए मुक्तिदायक होता है। स्मृतियों में पञ्चसुना दोषनाशक पञ्च महायज्ञों का जो विधान किया गया है, वह व्यष्टि जीवन से सम्बद्ध है । उसका फल गौण होता है । वस्तुतः पञ्चमहायज्ञ उसकी अपेक्षा उच्चतर स्तर रखता है । उसका प्रमुख लक्ष्यरूप फल विश्वजीवन के साथ एकता स्थापित कर आत्मोन्नति करना है। वे पञ्चमहायज्ञ-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, नृयज्ञ तथा भूतयज्ञ है। मनु के अनुसार अध्ययन-अध्यापन को ब्रह्मयज्ञ, अन्न-जल के द्वारा नित्य पितरों का तर्पण करना पितृयज्ञ, देव-होम देवयज्ञ, पशु-पक्षियों को अन्नादि दान भूतयज्ञ तथा अतिथियों की सेवा नृयज्ञ है । इन पंचमहायज्ञों का यथाशक्ति विधिवत् अनुष्ठान करने वाले गृहस्थ को पंचसुना दोष नहीं लगते । इन कर्मों से विरत Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोगी-महालक्ष्मीपूजा ५०७ रहने वाले का जीवन व्यर्थ है । अध्ययन और दैवकर्म में प्रवृत्त रहने वाला व्यक्ति चराचर विश्व का धारणकर्ता बन सकता है। देवयज्ञ की अग्न्याहुति सूर्यलोक को जाती है जिससे वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से प्रजा का उद्भव होता है । अतएव मनुष्य को ऋषि, देवता, पित, भूत और अतिथि सभी के प्रति निष्ठवान् होना चाहिए, क्योंकि ये सब गृहस्थ से कुछ-नकुछ चाहते हैं । अतः गृहस्थ को चाहिए कि वह वेदशास्त्रों के स्वाध्याय से ऋषियों को, देवयज्ञ द्वारा देवताओं को, श्राद्ध रूप पिण्ड-जलदान के द्वारा पितरों को, अन्नद्वारा मनुष्यों को और बलिवैश्वदेव द्वारा पशु-पक्षी आदि भूतों को तृप्ति प्रदान करे। इन पञ्च महायज्ञों को नित्य करने वाला गहस्थ अपने सभी धार्मिक सामाजिक, सांस्कृतिक कतव्यों को पूर्ण करता है एवं समस्त विश्व से अपनी एकात्मता का अनुभव करता है। महायोगी-ध्यान, योग और तपस्या-भारत की ये प्राचीन साधनाएँ सभी धार्मिक सम्प्रदायों को मान्य रही हैं । शिव इनके प्रतीक है, अतः वे महायोगी माने जाते हैं। सिन्धु घाटी के प्राचीन सभ्यतास्मारकों में शिव का ध्यानयोगी के रूप में मूर्त आकार प्राप्त हुआ है। उनका योगी रूप बुद्ध से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। एलिफैण्टा गुहा में शिव के महायोगी रूप का पाया जाना इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणों और बौद्धों की, जहाँ तक योग और ध्यान का सम्बन्ध है, समान परम्पराएं थीं। महार-हिन्दुओं के अस्पृश्य वर्ग की एक जाति का, जो चर्मकार कहलाती है, महाराष्ट्र में प्रचलित नाम । विठ्ठल या विढोबा (विष्णु) के पण्ढरपुर स्थित मन्दिर में महार लोगों का प्रवेश निषिद्ध था। इस मन्दिर के ठीक सामने सड़क को दूसरी ओर महार लोगों का मन्दिर है, जिसे चोखा मेला नामक एक महार भक्त ने बनवाया था। उसकी कविता आज भी सजीव है तथा उसके कुछ अंश अति सुन्दर हैं। महाराजवत-शुक्ल या कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आर्द्रा नक्षत्र को अथवा पूर्वाभाद्रपद तथा उत्तराभाद्रपद को आती हो तो वह भगवान् शिव को अत्यन्त आनन्ददायिनी हो जाती है । पूर्ववर्ती त्रयोदशी को संकल्प कर चतुर्दशी को मृत्तिका, पञ्चगव्य, तदनन्तर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। तदुपरान्त १००० बार शिवसंकल्प सूक्त (यज्जाग्रतो दूरम्० ) का प्रथम तीन वर्ण वाले लोग तथा 'ओम् नमः शिवाय' मंत्र का शूद्र लोग जप करें। भगवान शिव तथा पार्वती की प्रतिमाओं को पञ्चामृत, पञ्चगव्य, गन्ने के रस से स्नान कराने के बाद कस्तूरी, केसर आदि सुगन्धित पदार्थों का उन पर प्रलेप किया जाय । दीपों को प्रज्ज्वलित कर उन्हें पंक्तिबद्ध रख देना चाहिए । एक सहस्र बिल्व पत्रों से शिव संकल्प मंत्र अथवा 'त्र्यम्बकं यजामहे'" "का पाठ करते हए होम करना चाहिए। तदनन्तर शिव जी को निश्चित मंत्रों से अर्घ्य दान करना चाहिए। व्रती रात भर जागरण तथा पाँच, दो या कम से कम एक गौ का दान करे । पंचगव्य प्राशन के बाद व्रती को मौन रखकर भोजन करन चाहिए। इस व्रत के आचरण से समस्त विघ्न-बाधाएँ दूर होती है तथा व्रती श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। महारामायण-ऐसा एक प्रवाद है कि वाल्मीकीय रामायण आदि रामायण नहीं है। आदि रामायण भगवान शङ्कर की रची हुई बहुत बड़ी पुस्तक थी जो अब उपलब्ध नहीं है। इसका नाम महारामायण बतलाया जाता है । इसको सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था। इसमें तीन लाख पचास हजार श्लोक हैं और सात काण्डों में विभक्त है । विलक्षणता यह है कि साथ ही साथ उसमें वेदान्त वर्णन है और नवरसों में उसका विकास दिखाया गया है। महारौरव-तप्त घोर नरकों में से एक नरक। इसमें 'रुरु' के काटने से रुदन और क्रन्दन की प्रधानता रहती है। गरुडपुराण में इसका विस्तृत वर्णन पाया जाता है। महालक्ष्मी पूजा-इस व्रत के विषय में मतभेद है। 'कृत्यसारसमुच्चय', पृ० १९ तथा 'अहल्याकामधेनु' कहते हैं कि भाद्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का प्रारम्भ कर आश्विन कृष्ण अष्टमी को ( पूर्णिमान्त ) समाप्त करना चाहिए। यह व्रत १६ दिनों तक चलना चाहिए। इसमें प्रतिदिन लक्ष्मी जी की पूजा तथा कथा सुनी जाती है । महाराष्ट्र में महालक्ष्मी की पूजा आश्विन शुक्ल अष्टमी को मध्याह्न के समय मुवती नवोढाओं द्वारा होती है तथा रात्रि समस्त विवाहिता नारियाँ एक साथ इकट्ठी Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ महालक्ष्मी-महावीर होकर पूजन में सम्मिलित होती हैं। वे अपने हाथों में खाली कलश ग्रहण कर उसमें ही अपने श्वास-प्रश्वास खींचती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रकार से अपने शरीर को झुकाती हैं। पुरुषार्थचिन्तामणि ( १० १२९-१३२) में इसका लम्बा वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार यह व्रत स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए है। महालक्ष्मी-ऋषियों ने सष्टि विद्या की मूल कारण तीन महाशक्तियाँ-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली- स्वीकार किया है इनसे हो क्रमशः सष्टि, पालन और प्रलय के कार्य होते हैं। एक ही अज पुरुष की अजा नाम से प्रसिद्ध महाशक्ति तीन रूपों में परिणत होकर सृष्टि, पालन और प्रलय की अधिष्ठात्री बन जाती है। महालक्ष्मीव्रत-सूर्य के कन्या राशि में आने से पूर्व भाद्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत को आरम्भ करना चाहिए और अग्रिम अष्टमी को ही (१६ दिनों में) पूजा तथा व्रत समाप्त कर देना चाहिए । सम्भव हो तो व्रत ज्येष्ठा नक्षत्र को प्रारम्भ किया जाना चाहिए। १६ वर्षों तक इस व्रत का आचरण होना चाहिए । यहाँ स्त्री पुरुषों के लिए १६ की संख्या अत्यन्त प्रधान है, जैसे पुष्पों और फलों इत्यादि के लिए भी १६ की संख्या का ही विधान है। व्रती को अपने दाहिने हाथ में १६ धागों का १६ गाँठों वाला सूत्र धारण करना चाहिए। इस व्रत से लक्ष्मी जी व्रत करने वाले का तीन जन्मों तक साथ नहीं छोड़तीं। उसे दीर्घायु, स्वास्थ्यादि भी प्राप्त होता है । महालया-आश्विन मास का कृष्ण पक्ष महालया कहलाता है। इस पक्ष में पार्वण श्राद्ध या तो सभी दिनों में या कम से कम एक तिथि को अवश्य करना चाहिए। दे० तिथितत्त्व, १६६; वर्षकृत्यदीपिका, ८० । महावन-व्रजमंडल में मथुरा से चार कोस दूर यमुना पार का एक यात्रा स्थल, जिसे पुराना गोकुल कहते हैं। यहाँ नन्दभवन है । पहले नन्दजी यहीं रहते थे। चिन्ताहरण, यमलार्जुनभङ्ग, वत्सचारणस्थान, नन्दकूप, पूतनाखार, शकरासुरभङ्ग, नन्दभवन, दधिमन्थनस्थान, छठीपालना, चौरासीखम्भों का मन्दिर (दाऊजी की मूर्ति), मथुरानाथ, श्यामजी का मन्दिर, गायों का खिड़क, गोबर के टीले दाऊ जी और श्रीकृष्ण की रमणरेती, गोपकप तथा नारद टोला आदि इसके अन्तर्गत यात्रियों के लिए दर्शनीय स्थान हैं। मध्यकीला में यहाँ के क्षत्रिय राजा और उसकी राजधानी एवं दुर्ग को मुसलमान आक्रमणकारियों ने नष्टभ्रष्ट कर दिया था। इन ध्वंसावशेषों में ही उपयुक्त स्थान पूजा-यात्रास्थल माने जाते हैं। महाविद्या-(१) रहस्यपूर्ण ज्ञान, प्रभावशाली मन्त्र और सिद्ध स्तोत्र या स्तवराज महाविद्या कहे जाते हैं। अथर्वपरिशिष्ट के नारायण, रुद्र, दुर्गा, सूर्य और गणपति के सूक्त भी महाविद्या कहे गये हैं। (२) नियम (वेद) जिसे विराट् विद्या कहते हैं आगम (तन्त्र) उसे ही महाविद्या कहते हैं। दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वाले दस महाविद्याओं की उपासना करते हैं। ये हैं-महाकाली, उग्रतारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैखी, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला। महावीर-(१) जैनियों के चौबीसवें तीर्थङ्कर और जैनधर्म के अन्तिम प्रवर्तक । वास्तव में ऐतिहासिक जैनधर्म के ये ही प्रवर्तक माने जाते हैं। इनका जन्म ५९९ ई० पू० लिच्छविगणसंघ की ज्ञात्रिशाखा में वैशाली के पास कुण्डिनपुर में हुआ। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। सिद्धार्थ एक सामान्य गणमुख्य थे। महावीर का बाल्यावस्था का नाम वर्धमान था। वे प्रारम्भ से ही चिन्तनशील और विरक्त थे । सिद्धार्थ ने वर्धमान का विवाह यशोदा नामक युवती से कर दिया। उनकी एक कन्या भी उत्पन्न हुई। परन्तु सांसारिक कार्यों में उनका मन नहीं लगा। जब ये तीस वर्ष के हुए तब किसी बुद्ध अथवा अर्हत ने आकर इनको ज्ञानोपदेश देकर यति धर्म में दीक्षित कर दिया। इसी वर्ष वे मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी को परिवार और सांसारिक बन्धनों को छोड़कर वन में चले गये। यहाँ पर संसार के दुःखों और उनसे मुक्ति के मार्ग पर इन्होंने विचार करना प्रारम्भ किया, घोर तपस्या का जीवन बिताया। बारह वर्षों तक एक आसन से बैठे हुए अत्यन्त सूक्ष्म विचार में मग्न रहे। इसके अन्त में उन्हें सन्यक ज्ञान प्राप्त हुआ, सर्वज्ञता की उपलब्धि हुई। __ संसार, देव, मनुष्य, असुर, सभी जीवधारियों की सभी अवस्थाओं को वे जान गये। अब वे जिन (कर्म के ऊपर विजयी) हो गये। इसके अनन्तर अष्टादश गुणों में युक्त तीर्थङ्कर हो गये तथा तीस वर्षों तक अपने सिद्धान्तों का Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावंत-महाशान्तिविधि प्रचार करते रहे। वे महावीर विरुद से प्रसिद्ध हुए। कर नैवेद्य अर्पित करने का विधान है। इसके उपरान्त बहत्तर वर्ष की अवस्था में महावीर ने अपना अन्तिम आचार्य तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को सुवर्ण तथा वस्त्र दान उपदेश दिया और निर्वाण को प्राप्त हुए । करना चाहिए । सोलह वर्षों तक उपवास, नक्त, अयाचित उनका निर्वाण कार्तिक कृष्ण अमावस्या का मल्लगण विधियों से थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ इस व्रत का की दूसरी राजधानी पावा (कुशीनगर से १२ मील दूर आचरण किया जाना चाहिए। इससे दीर्घायु, सौन्दर्य, देवरिया जिला में) में हआ। मल्लों ने उनके निर्वाण के सौभाग्य की प्राप्ति होती है चाहे व्रती स्त्री हो या पुरुष । उपलक्ष्य में दीपमालिका जलायी। पावा जैनों का पवित्र (४) इस व्रत के अनुसार प्रति पूर्णमासी को उपवास तीर्थस्थान है। पटना जिले की पावा न गरी कल्पित है। तथा हरि का सकल (सावयव, साकार) ब्रह्म के रूप में पटना (पाटलिपुत्र) मगधसाम्राज्य की राजधानी थी। पूजन विहित है तथा अमावस्या को (निराकार, निखयव) इस जिले में मल्लगण (अथवा किसी भी गण) का होना ब्रह्म का पूजन होता है। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता असंभव था। ऐसा लगता है कि जब मूल पावा को मुस- है। व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर स्वर्ग प्राप्त करता लमानों ने भ्रष्ट कर दिया तब जैनियों ने पटना में दूसरी है। यदि यह व्रत १२ वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु पावापुरी कल्पित कर ली । दे० 'वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ'। लोक को प्राप्त होता है। दे० विष्णुधर्म ०३.१९८,१-७ । (२) हनुमान का एक नाम । भगवान् राम के सहायक (५) कृष्ण तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी या चतुर्दशी और सेनानायक के रूप में इनकी रामायणान्तर्गत कथा को नक्त विधि से आहार करते हुए शिव जी का पूजन से हिन्दू मात्र सुपरिचित है । वीरतापूर्ण कृतियों के कारण करना चाहिए । यह व्रत एक वर्ष तक चलता है। इससे ही इनका नाम 'महावीर' पड़ा। इनकी पूजा उत्तरभारत में सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त होती है। दे० हेमाद्रि २.३९८ प्रचलित है। रोट तथा मिठाई, पुष्पादि सहित इनको (लिङ्ग पुराण से)। चढ़ाते हैं । पशुबलि आदि इनकी पूजा में वजित है। दे० महाशक्ति-सृष्टि की उत्पादिका पालिका तथा संहारिका 'हनुमान' । महाशक्तियाँ तीन है-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महावत-(१) इस व्रत के अनुसार माघ अथवा चैत्र में महाकाली । दे० 'महालक्ष्मी' । 'गडधेनु' का दान करना चाहिए तथा द्वितीया के दिन महाशान्ति विधि-अथर्ववेद के नक्षत्रकल्प में प्रथम शान्तिकेवल गड का आहार करना चाहिए। इससे गोलोक कृत्य कृत्तिकादि नक्षत्रों की पूजा और होम बतलाया गया की प्राप्ति होतो है । 'गुड़धेनु' के लिए देखिए मत्स्य है। उसके पश्चात् अमृत से लेकर अभयपर्यन्त महाशान्ति पुराण, ८२ । के निमित्तभेद से तीस प्रकार के कर्म बतलाये गये हैं, (२) चतुर्दशी अथवा शुक्लाष्टमी जब श्रवण नक्षत्र- यथा-दिव्य, अन्तरिक्ष और भूमिलोक के उत्पातों की अमत युक्त हों उस समय उपवास के साथ व्रत का आरम्भ नाम की महाशान्ति, गतायु के पुनजीवन के लिए वैश्वदेवी करना चाहिए । यह तिथिवत है। शिव इसके देवता हैं। महाशान्ति, अग्निमय निवृत्ति के लिए और सब तरह की यह व्रत राजाओं द्वारा आचरणीय है। कामना प्राप्ति के लिए आग्नेयी महाशान्ति, नक्षत्र और (३) कार्तिक की अमावस्या अथवा पूर्णिमा के दिन ग्रह से भयार्त्त रोगी के रोगमुक्त होने के लिए भार्गवी मनुष्य को नियमों के आचरण का व्रत लेना चाहिए। महाशान्ति, ब्रह्मवर्चस चाहने वाले के वस्त्रशयन और नक्तपद्धति से आहार करना चाहिए तथा धृतमिश्रित अग्निज्वलन के लिए ब्राह्मी महाशान्ति, राज्यश्री चाहने पायस खाना चाहिए । चन्दन तथा गन्ने के रस के प्रयोग वाले के लिए बार्हस्पत्य महाशान्ति, प्रजा, पशु और धन का भी इसमें विधान है। प्रतिपदा के दिन उपवास रखते लाभ के लिए प्राजावत्यमहाशान्ति, शुद्धि चाहने वालों हए आठ या सोलह शैव ब्राह्मणों को भोजनार्थ निमन्त्रित के लिए सावित्री महाशान्ति, छन्द और ब्रह्मवर्चस् चाहने करना चाहिए। शिव इसके देवता हैं। शिव जी की। वालों के लिए गायत्री महाशान्ति, सम्पत्ति चाहने वाले प्रतिमा को पञ्चगव्य, घृत, मधु तथा अन्याण्य वस्तुओं से और अभिचारक से अभिनयमाण व्यक्ति के लिए आंगिस्नान कराना चाहिए । अन्त में उष्ण जल से स्नान करा- रसी महाशान्ति, विजय, बल, पुष्टिकामी और परचक्रो Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० छेदनकासी के लिए ऐन्द्री महाशान्ति और अद्भुत विकारनिवारण और राज्य कामना के लिए माहेन्द्री महाशान्ति इत्यादि । महाशेफनग्न महाभारत में प्रथम बार लिङ्ग-पूजा का वर्णन प्राप्त होता है । अनेकानेक लिङ्गवाचक शब्दों के साथ (१३.१४,१५७) में 'महाशेफनग्न' का उल्लेख हुआ है । इसका अर्थ है 'नग्न लिङ्ग' । महाश्वेताप्रिय विधि रविवार को सूर्य ग्रहण होने पर यह व्रत आचरणीय है । एकभक्त, नक्त अथवा उपवास रखने के बाद महाश्वेता ( तथा सूर्य ) का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती अत्युच्च स्थान प्राप्त कर लेता है। महाश्वेता मन्त्र है— ह्रीं ह्रीं सः ( कृत्य कल्पतरु, ९ तथा हेमाद्रि, २.५२१ ) । महाषष्ठी कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य वृश्चिक राशि पर हो तथा भौमवार का दिन हो तो वह महाषष्ठी कहलाती हैं । व्रतो को पंचमी के दिन उपवास रखना चाहिए और षष्ठी को अग्निपूजन कर अग्निमहोत्सव का आयोजन करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए | इससे समस्त दुरितों का क्षय अवश्यम्भावी है । महाष्टमी - आश्विन शुक्ल अष्टमी (नवरात्र) को महाष्टमी कहते हैं । इस दिन दुर्गा का विशेष प्रकार से पूजन होता है । — महासप्तमी - इस व्रत के अनुसार माघ शुक्ल पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास का विधान है । इस अवसर पर करवीर के पुष्पों तथा लाल चन्दन के लेप से सूर्य का पूजन करना चाहिए । वर्ष को माघ मास से चार-चार महीनों के तीन भागों में बांटा जाय तथा प्रत्येक भाग में भिन्न-भिन्न रंग के पुष्प, भिन्नभिन्न प्रकार का नैवेद्य तथा धूप प्रयुक्त किया जाय । व्रत के अन्त में रथ का दान विहित है । --- महासरस्वती तीन महाशक्तियों में से एक यं ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं । दे० "महालक्ष्मी' | महासंहिता वैष्णव संहिता का नाम, जो एक आगम है। मध्वाचार्य ने अपने ग्रन्थों में महासंहिता से अनेक उद्धरण लिए हैं । - महासिद्धसारतन्त्र - यह तन्त्र पर्याप्त पीछे का रचा जान पड़ता है। इसमें १९२ नामों की सूची है जो तीन विभागों में घंटी है। प्रत्येक में ६४ नाम है। विभाजनों के नाम महाशेफनग्न-महीवास है : विष्णुक्रान्त, रथक्रान्त एवं अश्वक्रान्त । सूची पर्याप्त नवीन है क्योंकि इसमें महानिर्वाणतन्त्र भी सम्मिलित है । १९२ नामों की सूची में वामकेश्वर की सूची से मिलते केवल १० नाम हैं । महास्वामी - सामसंहिता के एक भाष्यकार का नाम । महिम्नः स्तोत्र - शंकरजी की महिमा का उपस्थापक, उच्च कोटि का स्तोत्रग्रन्थ यह गन्धर्वराज पुष्पदन्त की रचना | कही जाती है। महिम्न स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक की शिव विष्णुपरक व्याख्या मधुसूदन सरस्वती ने रची है जो निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है | महिष एक असुर का नाम, जो तमोगुण का प्रतीक है | दुर्गा अपनी शक्ति से इसी का छेदन करती हैं । सर्व प्रथम दुर्गा विषयक वर्णन महाभारत में प्राप्त होता है ( ४.६ ) जिसमें दुर्गा को महिषर्मादनी ( महिष को मारने वाली ) कहा गया है । --- महिषघ्नीपूजा - आश्विन शुक्ल अष्टमी को इसका अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गा देवी की पूजा होती है । महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा जी की प्रतिमा को हरिद्रायुक्त जल में स्नान कराकर चन्दन तथा केसर का प्रलेप किया जाता है । कन्याओं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा प्रदान की जाती है और दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। इससे व्रती की समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। महिषी - राजा की पत्नियों में से सर्वप्रथम पटरानी, अभिषिक्त महारानी परवर्ती साहित्य में इसका उल्लेख प्रचुर हुआ है । कदाचित् ऋग्वेद में भी यह शब्द इसी अर्थ के साथ व्यवहुत हुआ है । ५.२,२५.३७, ३) अश्वमेध आदि यज्ञों में राजा के साथ वही प्रमुख भाग लेती थी। महीदास - ब्राह्मण-ग्रन्थों के एक संकलनकर्ता । ऐतरेय आरण्यक के पाँच ग्रन्थ आजकल पाये जाते हैं । इनमें से हर एक का नाम आरण्यक है। दूसरे के उत्तरार्ध के शेष के चार परिच्छेद वेदान्त ग्रन्थों में गिने जाते हैं । इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है । दूसरे और तीसरे भाग को महीदास ऐतरेय ने संकलित किया। विशाल के उर ( हृदय ) से और इतरा के गर्भ से महीदास का जन्म हुआ । माता के उपाधि पायी। नामानुसार उन्होंने नामानुसार उन्होंने ऐतरेय की Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीधर-मागरि ५११ महीधर-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार । (२) यदि कोई 'दक्षिणामूर्ति' को प्रति दिन पायस तथा इस संहिता पर सायणाचार्य का भाष्य नहीं मिलता। घी वर्ष भर अर्पित करे, व्रत के अन्त में उपवास करे, उन्वट-महीधर भाष्य ही अधिक प्रचलित है। महीधर ने जागरण करे तथा दान में भूमि, गौ तथा वस्त्र दे तो उसे १६४९ वि० में मन्त्रमहोदधि नामक दक्षिणमार्गी शाक्त नन्दी (शिवजी का गण) पद प्राप्त होता है। दक्षिणामूर्ति शाखा सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ भी लिखा। इसका उपयोग शिवजी का ही एक रूप है । शङ्कराचार्य का रचित एक सारे भारत में शाक्त एवं शैव समान रूप से करते हैं। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र भी प्रसिद्ध है। स्वयं ग्रन्थकार की रची इस पर टोका भी है। महेश्वराष्टमी-मार्गशीर्ष शुक्लाण्टमी को इस व्रत का महीपति-अठारहवीं शताब्दी के एक महाराष्ट्रीय भक्त, प्रारम्भ होता है । लिङ्गरूप शिव का अथवा शिवजी की जिन्होंने अपनी शक्ति भक्तों व सन्तों की जोवनी लिखने मूर्ति का अथवा कमल पर शिवजी का पूजन तथा दुग्ध में लगायी। इनके लिखे ग्रन्थ हैं---सन्तलीलामृत, और घृत से मूर्ति को स्नान कराना चाहिए। व्रत के अन्त (१७३२ ), भक्तविजय (१७७९ ), कथासारामृत में गौ का दान विहित है। एक वर्ष तक यह क्रम चल ( १७३२ ), भक्तलीलामृत ( १७३४ ) तथा सन्तविजय । मके तो अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है तथा व्रती आदि। शिवलोक को जाता है। महीम्नस्तव-विशेष शैव साहित्य में इसकी गणना होती महोत्सव व्रत-प्रति वर्ष चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को शिवजी की मति को दूध-दही आदि से स्नान कराकर पूजन है। ग्रन्थ का सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद आर्थर करना चाहिए तथा सुगन्धित द्रव्यों का प्रलेप करना एवलॉन ने किया है। चाहिए। इस अवसर पर शिवमूर्ति के समक्ष दमनक पत्रों महेन्द्रकृच्छ-कार्तिक शुक्ल षष्ठी से केवल दुग्धाहार करते का समर्पण विहित है । चावल के आटे के दीपक बनाकर हुए दामोदर भगवान् का पूजन करना चाहिए। दे० शिवजी के सम्मुख प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। भाँति-भांति हेमाद्रि, २.७६९-७७० । के खाद्य पदार्थों को नैवेद्य के रूप में समर्पण कर शंख. महेश-(१) शिव का एक पर्याय । इसका शाब्दिक अर्थ है घंटा. घडियाल, नगाड़े बजाये जाते हैं और अन्त में महान् ईश्वर । शिवजी की रथयात्रा निकाली जाती है। (२) लिङ्गायत लोग आध्यात्मिक उन्नति की कई महोदधि अमावस्या-चतुर्दशी युक्त मार्गशीर्ष मास की अवस्थाएँ मानते हैं । महेश इनमें तीसरी अवस्था है। उनका क्रम इस प्रकार है। यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । __ शिव, भक्ति, महेश, प्रसाद, प्राणलिङ्ग, शरण एवं महोपनिषद-एक परवर्ती उपनिषद् । श्वेतदीप में नारद को ऐक्य । भगवान् के दर्शन होने और दोनों के संभाषण का वर्णन महेश्वर-तमिल तथा वीरशैव गण आजकल अपने को इसमें किया गया है। इसके अन्तर्गत कहा गया है कि 'महेश्वर' कहते हैं, पाशुपत नहीं; यद्यपि उनका सम्पूर्ण नारद का बनाया हुआ पाञ्ज रात्र शास्त्र है और उन्होंने धर्म महाभारत के पाशुपत सिद्धान्त पर आधारित है। ही भागवत भक्ति की अवतारणा की। महेश्वर नाम शिव का है। माकरी सप्तमी-माघ कृष्ण सप्तमी को, जब सूर्य मकर महेश्वरव्रत-(१) फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का राशिपर हो, माकरी सप्तमी कहते है। इस दिन व्रत का प्रारम्भ होता है । उस दिन उपवास रखकर शिव जी की विधान है। प्रातःकाल गंगा आदि नदियों में स्नान कर पूजा करनी चाहिए । व्रत के अन्त में गौ का दान विहित सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। है । यदि इस व्रत को वर्ष भर किया जाय तो पौण्डरीक मागरि-यजुर्वेद ( वाजसनेयी संहिता ३०.१६; तैत्तिरीय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है । यदि व्रती प्रति मास की ब्राह्मण ३.४,१२१ ) में उद्धृत पुरुषमेध का एक बलिपशु । दोनों चतुर्दशियों को इस व्रत का आचरण करे तो उसके इसका अर्थ स्पष्टतः शिकारी या सम्भवतः मछुवा प्रतीत सब संकल्प पूरे होते हैं । होता है। यह शब्द मुगारि (पशुओं का शत्रु) का विद्रूप है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ माघ-कृत्य-माण्डूकायनी माघकृत्य-माघ मास में कुछ महत्त्वपूर्ण व्रत होते हैं, यथा महान् पुण्य प्रदाता माघ स्नान गंगा तथा यमुना के संगम तिल चतुर्थी, रथसप्तमी, भीष्माष्टमी, जो इस सूची में स्थल का माना जाता है । विस्तृत जानकारी के लिए दे० पृथक् ही उल्लिखित हैं । कुछ छोटे-छोटे विषय यहाँ प्रकट पद्मपुराण, ५ (जिसमें माघ स्नान के माहात्म्य को ही किए जा रहे हैं । माघ शुक्ल चतुर्थी उमा चतुर्थी कही वर्णन करने वाले २८०० श्लोक, अध्याय २१९ से २५० जाती है, क्योंकि इस दिन पुरुषों और विशेष रूप से तक प्राप्त होते हैं); हेमाद्रि, ५.७८९-७९४ आदि । स्त्रियों द्वारा कुन्द तथा कुछ अन्यान्य पुष्पों से उमा का माणिक्क वाचकर-तमिल शैवों में माणिक्क वाचकर का पूजन होता है । साथ ही उनको गुड़, लवण तथा यावक नाम प्रमुख है। तिरुमूलर के समान इन्होंने भी आगमों भी समर्पित किए जाते हैं। व्रती को सधवा महिलाओं, की शब्दावलियों का व्यवहार किया है। ये ९०० ई० के ब्राह्मणों तथा गौओं का सम्मान करना चाहिए । माघ लगभग हुए थे और असंख्य गेय पदों की रचना कर कृष्ण द्वादशी को यम ने तिलों का निर्माण किया और गये है जो छोटे और बड़े दोनों प्रकार के हैं जिन्हें तिरुदशरथ ने उन्हें पृथ्वी पर लाकर खेतों में बोया, तदनन्तर वाचकम् (श्रीवचन ) कहते हैं । माणिक्क मदुरा के देवगण ने भगवान् विष्णु को तिलों का स्वामी बनाया ।। शिक्षित एवं लब्धप्रतिष्ठ सम्पन्न व्यक्ति थे। बाद में एक अतएव मनुष्य को उस दिन उपवास रखकर तिलों से सन्त के उपदेश से प्रभावित हो गये, उनके शिष्य बन गये भगवान् का पूजन कर तिलों से ही हवन करना चाहिए। तथा संन्यासी जीवन बिताना प्रारम्भ किया। इन्होंने तदुपरान्त तिलों का दान कर तिलों को ही खाना चाहिए। अपनी विद्या व संस्कति के बल से पूर्ववर्ती सभी विद्वानों माघी सप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान की रचनाओं का लाभ उठाया । कविता के विषय, शैली, होता है। अरुणोदय काल में मनुष्य को अपने सिर पर छन्दों पर इनका अधिकार देखते हए ज्ञात होता है कि सात बदर बृक्ष के और सात अर्क वृक्ष के पत्ते रखकर ये महाकवि थे । इन्होंने रामायण, महाभारत, पुराणों, किसी सरिता अथवा स्रोत में स्नान करना चाहिए। तद- आगमों तथा प्राचीन तमिल साहित्य का प्रयोग अपनी दन्तर जल में सात बदर फल, सात अर्क के पत्ते, अक्षत, कविता के विषय चयन व वर्णन में भरपूर किया है । तिल, दूर्वा, चावल, चन्दन मिलाकर सूर्य को अर्घ्य देना इन्होंने ग्रामीण एवं स्थानीय प्रथाओं तथा घरेलू कहानियों चाहिए तथा उसके बाद सप्तमी को देवी मानते हए नम- को पद्यबद्ध किया, विशेषकर उन कथाओं को जो शिव के स्कारकर सूर्य को प्रणाम करना चाहिए। कुछ आकर पवित्र चरित्र से सम्बन्धित थीं। सबके ऊपर उन्होंने अपनी ग्रन्थों के अनुसार माघ स्नान तथा इस स्नान में कोई प्रतिभा को निखारा । आगमों को ये शिवोक्त कहते अन्तर नहीं है, जब कि अन्य ग्रन्थों के अनुसार ये दोनों हैं । ये अद्वैत वेदान्त और शंकराचार्य के मायावाद को पृथक्-पृथक् कृत्य हैं। अंगीकार नहीं करते थे। माघस्नान-माघ मास में बड़े तड़के गंगाजी अथवा अन्य __ माण्डवगढ़-दक्षिण मालवा स्थित शैव तीर्थ । परमार किसी पवित्र धारा में स्नान करना परम प्रशंसनीय माना राजाओं के समय में यह समृद्ध नगर था। यहाँ मुञ्ज के गया है। इसके लिए सर्वोत्तम काल ब्राह्म मुहर्त है जब समय के बने भवनों और अनेक धार्मिक स्थलों के अवनक्षत्र दर्शनीय रहते हैं। उससे कुछ कम उत्तम काल वह शेष पाये जाते हैं। यहाँ रेवाकुण्ड है। सोनद्वार की ओर है जब तारागण टिमटिमा रहे हों किन्तु सूर्योदय न हुआ नीलकण्ठेश्वर शिव-मन्दिर है। प्राचीन राम मन्दिर है । हो। अधम काल सूर्योदय के बाद स्नान करने का है। उसके पास ही आल्हा के हाथ की साँग गड़ी हुई है । माघ मास का स्नान पौष शुक्ल एकादशी अथवा पूर्णिमा माण्डार्य मान्य-ऋग्वेद में मान के वंशज एक ऋषि का से आरम्भ कर माघ शुक्ल द्वादशी या पूर्णिमा को समाप्त नाम माण्डार्य मान्य मिलता है। बहुत सम्भव है कि होना चाहिए। कुछ लोग इसे संक्रान्ति से परिगणन अगस्त्य से ही इसका आशय हो । करते हुए स्नान करने का सुझाव उस समय का देते हैं जब माण्डूकायनि-मण्डूक का वंशज । माण्डूकायनि का उल्लेख सूर्य माघ मास में मकर राशि पर स्थित हो । समस्त नर- शतपथब्राह्मण ( २०.६,५,९) बृ. उ. (६.५,४ ) में एक नारियों को इस व्रत के आचरण का अधिकार है। सबसे आचार्य के रूप में हुआ है । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डूक्य उपनिषद्-माधवाचार्य ५१३ माण्डूक्य उपनिषद्-अथर्ववेदी उपनिषदों में इसकी गणना चार नाम पाए जाते हैं: (१) गनेत्तिया (सं० = गणयिहोती है। इसका छोटा सा ही आकार है परन्तु सबसे त्रिका) (२) कञ्चनिया (३) माता (मालिका) तथा (४) प्रधान समझी जाती है। मैत्रायणीयोपनिषद् से कुछ सूत्र । (२) देवी का भी एक पर्याय माता है। शीतला तुल्यता होने से प्रायः लोग इसे उसके बाद की रचना (चेचक की बीमारी) को भी माता कहते हैं। यह धोर समझते हैं । गौडपादाचार्य ने इसके ऊपर कारिकाएँ एवं रोग के लिए भययुक्त प्रशंसात्मक उपाधि है। शङ्कर ने भाष्य रचा है। विज्ञानभिक्षु ने 'आलोक' नाम मातृका तन्त्र-'आगमतत्त्व विलास' में उद्धृत तन्त्रों की की व्याख्या की है । आनन्दतीर्थ, मथुरानाथ शुक्ल व्यास- सूची में एक तन्त्र का नाम । तीर्थ और रङ्गरामानुज आदि ने भाष्य टीका, क्षुद्र भाष्य मातृदत्त-हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र पर भाष्य रचने वाले लिखा है तथा नारायण, शङ्करानन्द, ब्रह्मानन्द सरस्वती एक विद्वान् । राघवेन्द्र आदि ने इस पर वृत्तियाँ भी लिखी हैं। मातनवमीव्रत-भविष्योत्तर के अनुसार आश्विनकृष्ण माण्डूक्यकारिका-माण्डूक्य उपनिषद् की कारिकाएँ गौड- नवमी को यह व्रत माता (जननी) के प्रीत्यर्थ किया पादाचार्य ने लिखी हैं। गौडपादाचार्य शङ्कर के गुरु के जाता है । इस दिन विशेषतया माता और उसके तुल्य गुरु थे। गौडपाद ने वेदान्त सूत्र पर कोई भाष्य नहीं संमान्य चाची, दादी, मौसी आदि के निमित्त श्राद्ध-तर्पण लिखा किन्तु इनकी कारिकाएँ अद्वैत तथा मायावाद का किया जाता है। मबसे प्रारम्भिक जीवित आधार होने से बड़ी ही महत्त्व- मातृवध-इस कृत्य को कौशी० उप० ( ३.१ ) में जघन्य पूर्ण है । इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक एक टीका अपराध कहा गया है । इसका प्रायश्चित्त सत्य ज्ञान से भो मिलती है। परवर्ती आचार्यों ने इस कारिका को किया जा सकता है। परवर्ती धर्मशास्त्र साहित्य में भी प्रमाण रूप से स्वीकार किया है । मातृवध बहुत बड़ा अपराध और पाप माना गया है। माण्डूक्यभाष्य-माण्डूक्य उपनिषद् का यह भाष्य शङ्करा मातव्रत-(१) अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया चार्य द्वारा लिखा गया है । जाता है । यह तिथि व्रत है । मातृ देवता (माता देवियाँ) माण्डूक्योपनिषद्कारिका-दे० 'माण्डूक्य कारिका' । ही इस अवसर पर पूजी जाती हैं । ममुष्य को इस दिन मातङ्गी-शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं में से एक उपवास रखकर भक्तिपूर्वक मातृ देवताओं से अपराधों की 'मातङ्गो' है। क्षमा-याचना करनी चाहिए। वे कल्याण तथा स्वास्थ्य मातरिश्वा-(१) ऋग्वेद के वर्णनानुसार अग्नि तथा सोम प्रदान करती हैं। आकाश से नीचे पृथ्वी पर आये। मातरिश्वा अग्नि को (२) आश्विन मास की नवमी को राजा तथा सभी दूर से लाया (ऋ० ३.९,५; ६.७,४)। मातरिश्वा का वर्णों के अनुयायी मात देवताओं की ( जो अनेक है ) अर्थ ऋग्वेद में विद्य त् अथवा (अन्य मत से) आँधी है। पूजा कर सफलताएँ प्राप्त करें। इस व्रत के करने से अथर्ववेद के बाद इसका आँधी ही साधारण अर्थ हो गया जिसके बच्चे मर जाते हों या केवल एक ही सन्तान हो, है । यदि मान लें कि आंधी एवं विद्य त एक साथ ही वह स्त्री सन्तान वाली हो जाती हैं। अंधड़ के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तो ऋग्वेद के अर्थ माधव-वाजसनेयी संहिता के भाष्यकारों में से एक माधव का पूर्णतया समन्वय हो जाता है । इस प्रकार मातरिश्वन थे। साम संहिता के भाष्यकारों में भी एक माधव हए को अग्नि का आँधी के गुणों के साथ विद्य त् वाला स्वरूप हैं । उपरोक्त दोनों माधव एक हैं या नहीं, कुछ नहीं कहा कहा जाना उचित है । यह वैदिक पुराकथा 'प्रोमिथियस्' जा सकता । दे० 'माधवाचार्य' । की यूनानी पुराकथा से मिलता-जुलती है। माघवस्वामी-सामवेद की राणायनीय शाखा से सम्बन्धित (२) ऋग्वेद (८.५२,२) के बालखिल्य सूक्त में मात- द्राह्यायण श्रौतसुत्र अथवा वशिष्ठसूत्र का भाष्य माधव रिश्वन को मेध्य तथा पृवध्र के साथ यज्ञ करने वाला __स्वामी ने किया है। कहा गया है। माधवाचार्य-प्रसिद्ध वेद व्याख्याता सायणाचार्य के भाई माता-(१) माला (जपार्थ) के लिए प्राचीन साहित्य में एवं विद्यातीर्थ के शिष्य । विद्यातीर्थ की मृत्यु के पश्चात् Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ माधवी-माध्वमत इन्होंने संन्यास आश्रम में भारती तीर्थ एवं शङ्करानन्द से मठ के शङ्कराचार्य की गद्दी पर सुशोभित हुए थे। इस भी शिक्षा ली। इनका स्थिति काल प्रायः चौदहवीं प्रकार सौ वर्ष से भी अधिक आ{ लाभकर उन्होंने अपनी शताब्दी था। कुछ लोगों का कहना है कि इनका जन्म सं० जीवन यात्रा समाप्त की । सिद्धान्ततः विद्यारण्य स्वामी १३२४ वि० में तुङ्गभद्रा नदी के तटवर्ती हाम्पी नगर में शङ्कराचार्य के अनुयायी थे । उनकी गगना अद्वैत सम्प्रदाय हुआ था। 'पराशरमाधव' नामक ग्रन्थ में इन्होंने अपना के प्रधान आचार्यों में होती है । परिचय देते हुए पिता का नान मायण, माता का श्रीमती माधवी-माधवी अथवा ब्रह्मरम्भा शिव की शक्ति का एवं दो भाइयों का नाम सायण व भोगनाथ बताया है। पर्याय है। ___ माधवाचार्य विजय नगर राज्य के संस्थापकों में थे। माधवीय धातुवृत्ति-विजयनगर राज्य के स्थापक माधवासं० १३९२ वि० के लगभग विजयनगर के सिंहासन पर चार्य द्वारा विरचित यह एक व्याकरण ग्रन्थ है । इसकी महाराज वीर बुक्क को अभिषिक्त कर वे उनके प्रधान रचना पाणिनीय धातुसूत्रों के अनुसार हुई है जिसमें अष्टामन्त्री बने। वे उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ एवं प्रबन्धपटु ध्यायीस्थ संपूर्ण सूत्रों का संनियोजन धातु गणानुसार कर थे । उन्होंने ही यवन राज्यों को स्वायत्त कर विजयनगर दिया गया है। दे० 'माधवाचार्य। राज्य की सीमावृद्धि की। सुप्रसिद्ध विशिष्टाद्वैताचार्य माध्यन्दिनी-याज्ञवल्वय के पिता ( या गुरु ) का नाम वेदान्तदेशिकाचार्य उनके समकालीन और बालसखा थे । वाजसन था। इसलिए शुक्ल यजुर्वेद का नाम वाजसनेयी उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ संहिता हो गया । जाबालादि १५शिष्यों ने उनसे यह वेद निम्नांकित हैं। पढ़ा, जिनमें माध्यन्दिन मुख्य थे । वाजसनेयी संहिता की १. माधवीय धातुवृत्ति--यह व्याकरण ग्रन्थ है। माध्यन्दिनी शाखा ही आजकल प्रचलित है। २. जैमिनीय न्यायमाला और उसकी टीका 'विवरण' । __ सामवेद की भी एक माध्यन्दिन शाखा है । इस शाखा यह पूर्वमीमांसा सम्बन्धी ग्रन्थ है। का पुष्पमुनि द्वारा रचित सामप्रातिशाख्य उपलब्ध है। ३. पराशरमाधवीय-यह पराशर संहिता के ऊपर माध्यन्दिन और काण्व दोनों शाखाओं का शतपथ ही एक निबन्ध है। ब्राह्मण ग्रन्थ है । माध्यन्दिनी शाखा के शतपथ ब्राह्मण में ४. सर्वदर्शनसंग्रह-इसमें समस्त दर्शनों का पृथक्- चौदह काण्ड है । यह सौ अध्यायों में तथा अड़सठ प्रपाठकों पृथक् सार संगृहीत किया गया है। में विभक्त है । इसमें कुल मिलाकर चार सौ अड़तीस ५. विवरणप्रमेयसंग्रह । यह श्री पद्मपादाचार्यकृत पञ्चपा ब्राह्मणों पर विचार हुआ है। यह ब्राह्मण फिर सात दिका विवरण के ऊपर एक प्रमेय प्रधान निबन्ध है । हजार छ: सौ चौबीस कण्डिकाओं में विभक्त है। ६. सूत संहिता की टीका : स्कन्दपुराणान्तर्गत सुत माध्व-दे० 'मध्व' एवं 'मध्व सम्प्रदाय' । संहिता अद्वैत वेदान्त का निरूपण करती है। इस पर माध्व ( माध्वाचार्य)-दे० 'मध्व सम्प्रदाय' । माधवाचार्य ने विशद टीका लिखी है। माध्वमत-द्वैतवाद अथवा स्वतन्त्रास्वतन्त्रवाद के प्रमुख इसके अतिरिक्त ७. पञ्चदशी ८. अनुभूति प्रकाश आचार्य श्री मध्व हैं और इसी से द्वैतवाद का दूसरा नाम ९. अपरोक्षानुभूति की टीका १०. जीव सुक्तिविवेक माध्वमत है । सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार माध्व मत ११. ऐतरेयोपनिषद्दीपिका, १२. तैत्तिरीयोपनिषद्दीपिका के आदि गुरु ब्रह्मा हैं। ब्रह्मसूत्र में विशिष्टाद्वैतवाद, १३. छान्दोग्योपनिषद्दीपिका १४. वहदारण्यक वात्तिक भेदाभेदवाद और अद्वैतवाद का उल्लेख मिलता है, परन्तु सार १५. शङ्कर-दिग्विजय १६. 'कालमाधव' नामक ग्रन्थ द्वैतवाद का कोई उल्लेख नहीं मिलता। अवश्य ही विशिलिखकर माधवाचार्य ने प्रमाणित कर दिया कि वे एक ष्टाद्वैतवाद और भेदाभेदवाद भी द्वैतवाद के ही अन्तर्गत साथ ही कवि, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, तत्त्वनिष्ठ, महान् हैं । सांख्य मत भी द्वैतवाद ही है । परन्तु मध्वाचार्य का लोक संग्रही और पूर्ण त्यागी संन्यासी (विद्यारण्य नामक) स्वतन्त्रास्वतन्त्रवाद इनसे बिलकुल भिन्न है। सांख्य के थे । जैसे वे सफल राज्यसंस्थापक थे, वैसे ही संन्यासियों द्वैतवाद में दो पदार्थ है पुरुष और प्रकृति । ये दोनों नित्य में भी अग्रगण्य थे। संन्यास ग्रहण के पश्चात् वे शृंगेरी और सत्य हैं । माध्वमत मैं जीव और ब्रह्म नित्य और दो Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्वसम्प्रदाय मानवसृष्टि पृथक् पदार्थ पदार्थ हैं । रामानुज स्वामी जीव और ब्रह्म का स्वगत भेद स्वीकार करते हैं, परन्तु सजातीय और विजातीय भेद नहीं मानते। ब्रह्म स्वतंत्र है, जीव अस्वतंत्र है ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव है। सेवक कभी सेव्य वस्तु से अभिन्न नहीं हो सकता। भेदाभेदवाद भी विशिष्टाद्वैतवाद के समान ही है । अतएव माध्वमत से ये सब भिन्न हैं । मध्वाचार्य से पहले इस मत का कोई उल्लेख नहीं मिलता । अवश्य ही उन्होंने पुराणादि का अनुसरण करके ही इस मत को स्थापित किया। मालूम होता है, मध्याचार्य का स्वतंत्रास्यतंत्रवाद वैष्णवों के भक्तिवाद का फल है। जिन दिनों शाङ्करमत और भक्तिवाद का देश में संघर्ष चल रहा था, उन्हीं दिनों माध्वमत का उद्भव हुआ । घात-प्रतिघात के फलस्वरूप माध्वमत शाङ्करमत का विरोधी बन गया। इस मत में शाङ्करमत का बहुत तीव्र भाषा में खण्डन किया गया है। यह मत भी वैष्णवों के चार प्रमुख मतों में एक है । मध्वाचार्य के मत से ब्रह्म सगुण और सविशेष है। जीव अणु परिमाण हैं, वह भगवान् का दास हैं । वेद नित्य और अपौरुषेय हैं । पाञ्चरात्रशास्त्र का आश्रय जीव को लेना चाहिए प्रपञ्चसत्य है यहाँ तक मध्य का रामानुज से ऐकमत्य है । किन्तु पदार्थनिर्णय में दोनों में भेद है। मध्य के अनुसार पदार्थ दो प्रकार का है— स्वतंत्र और अस्वतन्त्र अशेष सद्गुण युक्त भगवान् विष्णु स्वतंत्र तत्त्व हैं । जीव और जड़ जगत् अस्वतंत्र तत्त्व हैं। मध्वपूर्णरूप से द्वैतवादी है। वे कहते हैं, जीव भगवान् का दास है, दास यदि स्वामी से साम्य का बोध करे तो स्वामी उसे दण्ड देते हैं। 'अहं ब्रह्मास्मि' के बोध पर भगवान् जीव को नीचे गिरा देते हैं । परमसेव्य भगवान् की सेवा के अतिरिक्त जीव को और कुछ नहीं करना चाहिए । स्वतन्त्र तत्त्व भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करना ही एक मात्र पुरुषार्थ है वह परम पुरुषार्थ भग वान् के दिव्य गुणों के स्मरण-चिन्तन के बिना नहीं प्राप्त हो सकता । 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों को सुनने से वैसा स्मरण, चिन्तन नहीं हो सकता। अङ्कन, भजन और नामकरण के द्वारा ही वह सुलभ होता है। निर्वाणमुक्ति तो कहने भर की वस्तु है । सारुप्य, सालोक्य आदि मुक्ति ही परमार्थ है । इन्हीं बातों को हृदय में रखकर मध्वाचार्य ने स्वतन्त्र स्वतन्त्रवाद की स्थापना की । माध्व सम्प्रदाय दे० 'मध्व सम्प्रदाय' । मानव (१) मनु के वंशज ( ऐ० वा० ५।१४,२ ) मानव कहलाये । नाभानेदिष्ट और शयत के लिए यह पितृबोधक शब्द है। पुराणों में वर्णित सूर्य अथवा इक्ष्वाकु का वंश मानव वंश था । ५१५ ( २ ) मनु के नाम से प्रचलित धर्मशास्त्र भी 'मानव धर्मशास्त्र' कहलाता है। मानव उपपुराण- उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक है। मानव गृह्यसूत्र - कृष्ण यजुर्वेदीय एक गृह्यसूत्र मानव-गृह्यसूत्र है। यह मनु द्वारा रचित माना जाता है। इस पर अष्टावक्र की वृत्ति है । मानवधर्मशास्त्र - दे० 'मनुस्मृति' । - | मानवश्रौतसूत्र कृष्ण यजुर्वेदीय एक श्रौतसूत्र यह मनुरचित माना जाता है एवं विशेष प्रसिद्ध है । इसमें पहले अध्याय में प्राक् सोम, दूसरे में अग्निष्टोम तीसरे में प्रायश्चित्त, चौथे में प्रवयं पाँचवें में दृष्टि, छठे में चयन, सातवें में वाजपेय, आठवें में अनुग्रह, नवें में राजसूय, दसवें में शुल्व सूत्र और ग्यारहवें अध्याय में परिशिष्ट , 3 | अग्निस्वामी बालकृष्ण मिश्र और और कुमारिल भट्ट इसके भाष्यकार हैं। मानवसृष्टिमानवसृष्टि इस सम्बन्ध से पद्म राण में उल्लेख है कि ७ 'प्रजासृष्टि' के प्रारम्भ में प्रजापति ने ब्राह्मण की सृष्टि की ब्राह्मण आत्मतेज से अग्नि और सूर्य की तरह । उद्दीप्त हो उठे । इसके बाद सत्य, धर्म, तप, ब्रह्मचर्य, आचार और शौच आदि ब्रह्मा से उत्पन्न हुए । इन सब के पश्चात् देव, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, उरग, यक्ष, रक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मनुष्य की सृष्टि हुई। हिन्दू धर्मावलम्बियों की धारणा है कि मानवसृष्टि आर्यावर्त में ही हुई और यहीं से सारे संसार में फैली। बाह्मणों के अदर्शन से ( अर्थात् वैदिक संस्कार कराने वालों के न मिलने से अथवा लोप होने से ) यह सृष्टि भ्रष्ट हो गई। अतः म्लेच्छ हो गयी ये ही म्लेच्छ जातियाँ हजारों वर्ष तक जङ्गली रहीं। फिर धीरे धीरे स्वाभाविक रीति से इनका विकास हुआ। भारतेतर देशों की, विशेयतः पश्चिम की मानवजाति की यही कहानी है। इसी कारण वे अपने को आज भी आर्य कहते हैं। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ मानवाचकम् [कडदान-तमिल शैवों में मानवाचकम कडन्दान एक आचार्य हुए हैं। ये मेयकण्डदेव के शैव थे तथा इन्होंने 'उष्मे विलesम्' नामक सिद्धान्त प्रस्थ लिखा । यह ग्रन्थ चौदह तमिल शैव सिद्धान्त ग्रन्थों में से एक है। इसमें ५४ छन्दों में प्रश्नोत्तर के रूप में सिद्धान्त की मुख्य शिक्षाओं का वर्णन हुआ है। मानसतीचं महत्व - सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना भी तीर्थ है, सब प्राणियों पर दया करना भी तीर्थ है और सरलता भी तीर्थ है । दान तीर्थ है, मन का संयम तीर्थ है, संतोष भी तीर्थ कहा जाता है । ब्रह्मचर्य परम तीर्थ और प्रिय वचन बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान तीर्थ है, धैर्य तोर्थ है; तप को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थों में भी सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है अन्तःकरण की आत्यन्तिक विशुद्धि | जिसने इन्द्रिय-समूह को वश में कर लिया है वह मनुष्य जहाँ भी निवास करता है वहीं उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं । ध्यान के द्वारा पवित्र तथा ज्ञानरूपी जल से भरे हुए, रागद्वेष रूपी मल को दूर करने वाले मानसतीर्थ में जो पुरुष स्नान करता है वह परम गति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है । मानसोल्लास - ( २ ) सुरेश्वराचार्य या ( पूर्वाश्रम के ) मण्डन मिश्र कृत मानसोल्लास को दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिक भी कहते हैं । (२) यह राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसकी रचना कल्याणी के चालुक्य वंशी राजा चतुर्थ सोमेश्वर ने की थी । माया- शंकराचार्य के अनुसार सम्पूर्ण वेदान्त एक वाक्य में कहा जा सकता है ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मव नापर: ।' [ ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या है; जीव भी ब्रह्म ही है, अन्य नहीं ।] इस प्रकार केवल एक तत्त्व ब्रह्म ही जगत् में प्रतिभासित है । अपनी ही जिस शक्ति से ब्रह्म संसार में प्रतिभासित होता है वह माया है। माया शुद्ध भ्रम अथवा ज्ञान का अभाव नहीं है । यह भावरूपा ह | इसको न सत्य कह सकते हैं और न असत्य; यह दोनों का युग्म है ( सत्यानृते मिथुनीकृत्य ) यह सत्य इसलिए नहीं है कि केवल ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है; इसको असत्य भी नहीं कह सकते, क्योंकि इसी के द्वारा ब्रह्म जगत् में प्रतिभासित होता है । वास्तव में यह दोनों से विलक्षण है ( सदसद् विलक्षण ) । यह शक्तिरूपा है । इसको अध्यास मानवाचकम् कन्दान-मायाखण्डन टीका ( आरोप ) भी कहते हैं । जिस प्रकार भ्रम के द्वारा शुक्ति ( सीप ) में रजत ( चाँदी ) का आरोप हो जाता है। उसी प्रकार माया के कारण ब्रह्म में जगत् का आरोप हो जाता है । जब वास्तविक ज्ञान ( प्रमा ) उत्पन्न होता है। तो भ्रान्ति दूर हो जाती है । माया के दो कार्य हैं - (१) आवरण और ( २ ) विक्षेप । आवरण से मोह उत्पन्न होता है जिसके कारण जीवात्मा में ब्रह्म और जगत् के बीच भ्रम उत्पन्न होता है और यह जगत् को सत्य समझने लगता है। विक्षेप के कारण ब्रह्म जगत् में प्रतिभासित होता है जब ब्रह्म अविद्या में विक्षिप्त होता है तो जीव बन जाता है और जब माया में विक्षिप्त होता है तो ईश्वर कहलाता है । शाङ्करमत में माया के निम्नांकित लक्षण है : - ( १ ) यह सांख्य की प्रकृति के समान जड़ है किन्तु न तो ब्रह्म से स्वतंत्र है और न वास्तविक (२) यह शक्तिरूपा ब्रा की सहवर्तनी और उस पर सर्वथा अवलम्बित है (३) यह अनादि है (४) यह सत् और असत् से विलक्षण है (६) यह वर्तमात्र हैं, किन्तु इसकी व्यावहारिक सत्ता है (७) यह अध्यास ( आरोप ) और भ्रान्ति है; इसकी सत्ता उसी समय तक है जब तक जीवात्मा भ्रम में रहता है (८) वह विज्ञान ( वास्तविक ज्ञान ) से दूर करने योग्य है ( विज्ञान निरस्या) और (९) इसका आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म हैं। रामानुजाचार्य ने शङ्कर के इस मायावाद का घोर खण्डन किया है । वे माया को ईश्वर की वास्तविक शक्ति मानते हैं जिसके द्वारा वह जगत् की सृष्टि करता है । वे सृष्टि को मिथ्या न मानकर उसे वास्तविक और ईश्वर की लीला भूमि मानते हैं । मायातन्त्र' आगमतत्त्व विलास में उत तन्त्रों की सूची में से एक तन्त्र । मायावादशाङ्करमतानुसार सम्पूर्ण प्रपक्ष की सत्यत्वप्रतीति अध्यास या माया के ही कारण है । इसी से अद्वैतवाद को अध्यासवाद या मायावाद कहते हैं । दे० 'माया ।' मायावादखण्डन टीका - स्वामी जयतीर्थाचार्य ने 'मायावाद खण्डन टीका' रची। इसमें इन्होंने मध्व के मतों का ही विवेचन किया है । यह पन्द्रहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है । मायाशक्ति माया (विश्व) सृष्टि के अभौतिक उपादान का नाम है। इससे नियति की उत्पत्ति हुई जो सभी Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्कण्डेय-मालती माधव पदार्थों को नियमित करती है। नियति से काल तथा काल तक उनका पूजन करना चाहिए। इससे पूजक 'जातिसे गुणशरीर की उत्पत्ति होती है। स्मर'-पूर्व जन्म की घटनाओं को स्मरण रखनेवाला-हो मार्कण्डेयक्षेत्र-(गङ्गा-गोमतीसंगम )। वाराणसी-गाजी- जाता है तथा उस लोक को पहुंच जाता है जहाँ से फिर पुर के बीच कैथी बाजार के पास यह तीर्थ स्थल पड़ता संसार में लोटने की आवश्यकता नहीं पड़ती (अनुशासन, है। यहीं पर मार्कण्डेय महादेव का मन्दिर है। यह क्षेत्र अध्याय १०९, बृ० सं० १०४.१४-१६)। मार्गशीर्ष की मार्कण्डेय जी की तपोभूमि बतलायी जाती है। यात्री पूर्णिमा को चन्द्रमा की अवश्य पूजा की जानी चाहिए मन्दिर में भी ठहर सकते हैं। शिवरात्रि को यहाँ मेला क्योंकि इसी दिन चन्द्रमा को सुधा से सिञ्चित किया गया लगता है । मन्दिर से प्रायः दो फलाँग की दूरी पर गंगा था। इस दिन गौओं को नमक दिया जाय, तथा माता, में गोमती नदी मिलती है। यहाँ सन्तान प्राप्ति के लिए बहिन, पुत्री और परिवार की अन्य स्त्रियों को एक-एक अनुष्ठान-पूजन शीघ्र फलदायक होता है । जोड़ा वस्त्र प्रदान कर सम्मानित करना चाहिए। इस मार्कण्डेय पुराण-यह महापुराणों में से एक है। मार्कण्डेय मास में नृत्य-गीतादि का आयोजन कर एक उत्सव भी ऋषि द्वारा प्रणीत होने के कारण इसका यह नाम पड़ा। किया जाना चाहिए । मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को ही दत्तात्रेय जयन्ती मनायी जानी चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का मत्स्यपुराण, ब्रह्म वैवर्तपुराण, नारदीय पुराण, भागवत नैत्य कालिक काण्ड, ४३२-३३; कृत्यरत्नाकर, ४७१-७२ । पुराण आदि के अनुसार मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार नौ मार्जारी भक्ति-शैव आगमों के अनुसार जीवात्मा की सौ श्लोक होने चाहिए । परन्तु उपलब्ध पोथियों में केवल अवस्था देवता की दया पर ठीक उसी तरह आश्रित होती है छः हजार नौ सौ श्लोक पाये जाते हैं। इसके प्रारम्भिक अध्यायों में मरणोत्तर जीवन को विस्तृत कथा कही गयी जिस प्रकार बिल्ली के बच्चों का जीवन अपनी माँ की दया पर आधारित होता है । बिल्ली अपने मुंह से जब तक है । इस पुराण का मुख्य अंश 'चण्डी सप्तशती' है, जिसका नवरात्र में पाठ होता है। इस सप्तशती का अंश ७८वें न पकड़े, वे असहायावस्था में एक ही स्थान में पड़े रहते अध्याय से ९०वें अध्याय तक है । मार्कण्डेय पुराण का यही है । इसी तरह परमेश्वर पर पूर्णतः अवलम्बित भक्त है। अंश अलग प्रकाशित पाया जाता है । ब्रह्मवादिनी मदालसा इसकी विलोम वानरी भक्ति है, जिसमें बन्दर के का पवित्र जीवनचरित भी इसमें वर्णित है ! मदालसा ने बच्चे की तरह जीवात्मा अपनी ओर से भी आराध्य को शैशव में ही अपने पुत्र को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया, कुछ पकड़ कुछ पकड़ने का प्रयास करता है । दे० मर्कटात्मज भक्ति । जिसके राजा होने पर भी जीवन में ज्ञान और योग का। मार्तण्ड सप्तमी-पौष शुक्ल सप्तमी को इसका अनुष्ठान सुन्दर समन्वय रहा। होता है । उस दिन उपवास करने का विधान है । 'मार्तण्ड' शब्द का उच्चारण करते हुए उस अवसर पर सूर्य का मार्गशीर्षकृत्य-यह सम्पूर्ण मास अत्यन्त पवित्र माना जाता है । मास भर बड़े प्रातः काल भजन मण्डलियाँ भजन तथा पूजन करना चाहिए । व्रतो को अपने शुद्धीकरण के लिए गोमूत्र या गोमय या गोदुग्ध या गोदधि लेना चाहिए । कीर्तन करती हुई निकलती है । गीता (१०.३५) में स्वयं अग्रिम दिन सूर्य का 'रवि' नाम लेकर पूजन करना चाहिए। भगवान् ने कहा है 'मासाना मार्गशीर्षोऽहम् ।' यहाँ इस इस प्रकार उसे दो दिनों के लिए हर मास यह आचरण एक मास से सम्बद्ध कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों का उल्लेख किया वर्ष तक करना चाहिए । एक दिन किसी गौ को घास जा रहा है । सतयुग में देवों ने मार्गशीर्ष मास की प्रथम तिथि को ही वर्ष प्रारम्भ किया। इसी मास में कश्यप या ऐसा ही कोई खाद्य पदार्थ देना चाहिए। इससे सूर्य ऋषि ने सुन्दर कश्मीर प्रदेश की रचना की। इसलिए लोक की प्राप्ति होती है। इसी मास में महोत्सवों का आयोजन होना चाहिए । मार्ग- मालती माधव-संस्कृत भाषा का नाटक जिसमें कापालिक शीर्ष शुक्ल १२ को उपवास प्रारम्भ कर प्रति मास की सम्प्रदाय के क्रिया-कलापों का वर्णन पाया जाता है। द्वादशी को उपवास करते हए कार्तिक की द्वादशी को नाटक का मुख्य पात्र कापालिक सन्यासी अघोरघण्ट था, पूरा करना चाहिए। प्रति द्वादशी को भगवान विष्ण के जो राजधानी के वामुण्डा मन्दिर का पुजारी तथा एक केशव से दामोदर तक १२ नामों में से एक-एक मास बड़े शैव ती श्रीशैल से सम्बन्धित था। कपाल कूण्डला Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ 1 अघोरघण्ट की शिष्या सन्यासिनी थी जो देवी को उपासिका थी । दोनों योगाभ्यास करते थे । उनके विश्वास शाक्त विचारों से भरे थे वे नरबलि (देवी के अर्पणा ) के अभ्यासी थे, इत्यादि । इस प्रकार आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाकवि भवभूति रचित इस नाटक में तत्कालीन शैव विश्वासों तथा अनेकानेक धार्मिक क्रियाओं, शाक्तों की अद्भुत शक्ति आदि का अभिनव वर्णन प्राप्त होता है । देवी को जाग्रत करने के लिए शाक्तयोग का साधन देवी को सबसे ऊंचे चक्र पर चढ़ाने की चेष्टा, चक्र के अन्दर के केन्द्र व रेखाएँ, उनके आश्चर्यपूर्ण फल आदि सभी बातें इस नाटक में प्राप्त होती हैं । मालिनीतन्त्र - ' आगम तत्त्वविलास' के ६४ तन्त्रों की सूची में उद्धृत एक तन्त्र । मालिनीविजय तन्त्र दस शताब्दी के पूर्व इसकी रचना मानी जानी चाहिए, क्योंकि कश्मीर के शव आचार्य अभिनवगुप्त (१०५७) ने अपने ग्रन्थ में इसका उद्धरण दिया है । माशक (मशक) सूत्र ग्रन्थ -- सामवेद के जितने सूत्र ग्रन्थ हैं उतने किसी वेद के देखने में नहीं आते । पञ्चविंश ब्राह्मण का एक श्रौतसूत्र है और एक गृह्यसूत्र । पहले श्रौतसूत्र का नाम 'माशक' है। लाट्यायन ने इसको 'मशकसूत्र' लिखा है। कुछ लोगों की राय में इन ग्रन्थों का नाम कल्पसूत्र है । 3 मास - चन्द्रमा की एक भूचक्रारिक्रमा के आधार पर 'मास' से महीने का बोध होता है । मास के प्रसिद्ध सीमा - दिन अमावस्या तथा पूर्णमासी हैं। यह निश्चित नहीं ज्ञात होता कि एक अमावस के अन्त से दूसरी अमावस ( अमान्त मास ) या एक पूर्णिमा के अन्त से दूसरी पूर्णिमान्त तक मास गणना होती थी उत्तर भारत में पूर्णिमान्त प्रथा प्रचलित है और दक्षिण भारत में अमान्त प्रथा जाकोबी फाल्गुन की पूर्णिमा से वर्षारम्भ होना मानते हैं ओल्डेनबर्ग प्रथम चन्द्र को ही वर्ष का आरम्भ बिन्दु समझते हैं । मास के तीस दिन होते थे क्योंकि वर्ष मे १२ मास और ३६० दिन कहे गये है। सूत्रों में मास अलग-अलग संख्यक दिनों के लिये उद्धृत हैं । । मासक्षपोर्ण मासीयत कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। इस अवसर पर व्रती को नक्त पद्धति से मालिनीतन्त्र-मासोपवासव्रत आहार करना चाहिए। नमक से एक वृत्त बनाकर तथा उसे चन्दन के लेप से चर्चित करके चन्द्रमा को दस नक्षत्रों सहित पूजना चाहिए - यथा कार्तिक मास में जब चन्द्रमा कृत्तिका तथा रोहिणी से युक्त हो, मार्गशीर्ष मास में जब मृगशिरा तथा आर्द्रा से युक्त हो, और इसी प्रकार से आश्विन मास तक । सधवा महिलाओं को गुड़, सुन्दर खाद्यान्न, घृत दुग्धादि देकर सम्मानित करना चाहिए। तदनन्तर स्वयं हविष्यान्न ग्रहण करना चाहिए। व्रत के अन्त में सोने से रंगे हुए (जरी के काम वाले) वस्त्र दान में देने चाहिए । मासव्रत - मार्गशीर्ष मास से कार्तिक मास तक बारहों मास व्रती को निम्न वस्तुएँ दान करनी चाहिए- नमक, घी, तिल, सप्त धान्य, आकर्षक वस्त्र, गेहूं जल पूर्ण कलश, कपूर सहित चन्दन, मक्खन, छाता, शर्करा अथवा गुड़ के लड्डू | वर्ष के अन्त में गौ का दान तथा दुर्गा जी, ब्रह्मा जी सूर्य नारायण अथवा विष्णु भगवान् का पूजन करना चाहिए । , मासोपवास व्रत - समस्त व्रतों में यह महान् और प्राचीन व्रत है । नानाघाट शिलालेख के अनुसार रानी नायनिका ( नागनिका) ने ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में इस व्रत का आचरण किया था। दे० ए० एस० डब्ल्यू ० आई० जिल्द ५ ० ६० | इसका वर्णन अग्नि (२०५.१-१८), गरुड (१.१२२.१-७), पद्म० (६.१२१-१५-५४) ने किया है। अग्निपुराण में इसका संक्षिप्त वर्णन मिलता है, अतएव उसी का यहाँ वर्णन किया जा रहा है । व्रती को वैष्णव व्रतों का आचरण करने ( जैसे द्वादशी ) के लिए गुरु की आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिए। अपनी शक्ति तथा आत्मबल देखकर आश्विन शुक्ल एकादशी को व्रत आरम्भ कर ३० दिनों तक निरन्तर व्रत रखने का संकल्प करना चाहिए | तपस्वी साधु या यति या विधवा ही इस व्रत का आचरण करे, गृहस्थ नहीं । गन्ध पुष्प आदि से दिन में तीन बार विष्णु का पूजन करना चाहिए । विष्णु के स्तोत्रों तथा मंत्रों का पाठ एवं उनका ही मनन- चिन्तन करना चाहिए । व्यर्थ की बकवास, सम्पत्ति का मोह तथा ऐसे व्यक्ति के स्पर्श का भी त्याग करना चाहिए जो नियमों का पालन न कर रहा हो। तीस दिन तक किसी मन्दिर में ही निवास करना चाहिए। तीनों दिन व्रत कर लेने के बाद द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर, Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिष्मती ( माहेश्वर )-मांस दक्षिणा देकर तथा तेरह ब्राह्मणों को वस्त्रों के जोड़े, आदि से अन्ततक अपने सूत्रों में किया है । इन प्रत्याहारों आसन, पात्र, छाता, खड़ाऊँ की जोड़ी प्रदान कर स्वयं से सूत्रों की रचनाओं का अत्यन्त लाघव हो गया है । व्रत को पारणा करनी चाहिए। विष्णु भगवान् की माहेश्वर सूत्र निम्नलिखित हैं : प्रतिमा किसी पर्यङ्क पर स्थापित कर उनको वस्त्रादि (१) उण । (२) ऋलुक । (३) ए ओङ् । (४) धारण कराने चाहिए। अपने गुरु को पर्यङ्क पर बैठाकर ऐ औच् । (५) हयवरट् । (६) लण् । (७) बमङणनम् । ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र दान में देने चाहिए। जिस स्थान प्रभा । (९) घढधष । (१०) जबगडदश् । (११) पर ऐसा व्रती तीस दिन निवास करता है वह पवित्र हो जाता। खफछठथचटतम् । (१२) कपम् । ( १३ ) शषसर् । है । इस व्रत के आचरण से न केवल व्रती अपने आपको (१४) हल् । बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी विष्णु लोक ले जाता है। यदि किसी प्रकार व्रत काल में व्रती मूछित हो मांस-सजीव प्राणियों और निर्जीव फल आदि का भीतरी जाय तो उसे दुध, शुद्ध नवनीत, फलों का रस देना कोमल द्रव्य ( गूदा ) जो छेदन-भेदन द्वारा खाने के काम चाहिए । ब्राह्मणों की आज्ञा से उपर्युक्त बस्तुओं को लेने आता है । प्राणियों के मांस का उपयोग भक्षणार्थ हिंसक से व्रत खण्डित नहीं होता है। पशु और असभ्य कोल-भील आदि लोगों में प्रचलित था। शत्र वधाभिलाषी क्षत्रिय, सैनिक और राजा लोग भी माहिष्मती ( महेश्वर )-विख्यात शैव तीर्थ तथा नर्मदा युद्ध शिक्षार्थ पशु वध करते हए मांस खाने लगते थे । तट का प्रसिद्ध धार्मिक नगर । यह कृतवीर्य के पुत्र सहस्रार्जुन राजा विशेष कर हिंसक जन्तुओं का शिकार वनवासी की राजधानी थी । आद्य शंकराचार्यजी से शास्त्रार्थ करने प्रजा और ग्राम्य पशुओं के रक्षार्थ ही करते थे । इन लोगों वाले मण्डन मिश्र भी यहीं के रहने वाले थे। यहाँ में मांसभक्षण की प्रवृत्ति आक्रमण और युद्ध के समय कालेश्वर और बालेश्वर के शिव मन्दिर हैं। नगर के उग्रता प्रकाश के विचार से उचित या वैध मानी जाती पश्चिम मतङ्ग ऋषि का आश्रम तथा मातङ्गेश्वर मन्दिर थी। मांस भक्षण असभ्य, अशिक्षित, मूढ़ लोगों में है । पास ही भर्तृहरि गुफा और मंगला गौरी मन्दिर है। स्वभावतः प्रचलित था । काल क्रम से इनकी देखा-देखी नर्मदा के द्वीप में बाणेश्वर मन्दिर है। वहीं सिद्धेश्वर और सभ्य क्षत्रिय या द्विज भी लौल्यवश इधर प्रवृत्त हो जाते रावणेश्वर लिङ्ग भी है। पञ्चपुरियों की गणना में थे। किंतु प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसभक्षण निषिद्ध महेश्वरपुर की गणना आती है। यहाँ अनेक मन्दिर हैं । ठहराया गया है । फिर भी इस प्रवृत्ति का निःशेष निरोध जगन्नाथ, रामेश्वर, बदरीनाथ, द्वारकाधीश, पंढरीनाथ, सहसा कठिन देखकर शास्त्रकारों ने याज्ञिक कर्मकाण्ड के परशुराम, अहल्येश्वर आदि । यह पुरी गुप्त काशी भी कही आवरण से इसको प्रयाससाध्य या महँगा बना दिया । जाती है। नियम बन गये कि मांस खाना हो तो लंबे यज्ञानुष्ठान के माहेश्वर-यह शैवों के सम्प्रदाय विशेष की उपाधि है। द्वारा पशुबलि देकर प्रसाद-यज्ञ शेष रूप-में ही ऐसा इसका शाब्दिक अर्थ है 'महेश्वर ( शिव ) का भक्त । किया जा सकता है । पूर्वमीमांसा शास्त्र में यह 'परिसंख्या माहेश्वर उपपुराण-यह उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से विधि' का सिद्धान्त कहलाता है। मांसभक्षण से निवृत्त होना ही इसका आशय है । माहेश्वर सम्प्रदाय-महाभारत काल में पाशुपत मत प्रधान धार्मिक रूप से वेदमन्त्रों ने पशुमांस भक्षण का स्पष्ट रूप से प्रचलित था। माहेश्वर तथा शैव आदि उसके निषेध किया है और अहिसा धर्म की प्रशंसा की है। 'परम अन्तर्गत उपसम्प्रदाय थे। माहेश्वर सम्प्रदाय में महेश- धर्म श्रुति विदित अहिंसा" वाली तुलसीदासजी की उक्ति मूर्ति की उपासना होती है। अन्य आचार सामान्य शैवों निराधार नहीं है। “मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि" जैसा ही होता है। प्रसिद्ध वेदवाक्य है । "यजमानस्य पशून् पाहि', ( यजु० माहेश्वर सूत्र-चौदह माहेश्वर सूत्रों के आधार पर अष्टा- १.१), "अश्वम् अविम् ऊर्णायु मा हिसीः।" ( यजु० ध्यायी में पाणिनि ने प्रत्याहार बनाये हैं, जिनका प्रयोग १३.५०), "मा हिंसिष्टं द्विपदो मा चतुष्पदः ।" (अथर्व० Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ११. २), "मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।" ( यजु० ३६.१८ ) आदि वचनों के प्रकाश में धार्मिक दृष्टि से मांसभक्षण की अनुज्ञा नहीं है। कुछ तथाकचित सुधारक या पंडितमन्य आलोचक ऋग्वेद की दुहाई देकर गोवध और तन्मासभक्षण को वैध ठहराते हैं । ऐसे लोग वैदिक रहस्यार्थ से वंचित और अबोध हैं । ऋग्वेद में प्रातः शान्तिपाठ के ए गोसूक्त का उदात्त निर्देश है "दुहामश्विभ्यां पयो अन्ये वर्धतां सौभगाय ।" ( १.१६,४२७ )" "अद्धि तृणमध्ये विश्वेदानीं पिव शुद्धमुदकमाचरन्ती ।" ( १.१६४.४० ) । प्रत्येक विवाह विधि में यह मंत्र वर की ओर से पढ़ा जाता है "माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्याममृतस्य नाभिः । मा गामनागामदिति वधिष्ट ।” ( ८.१०१.१५ ) । ऋग्वेद की उक्त स्पष्ट गो आदि पशुवध तथा मांसभक्षणविरोधी आज्ञाओं के होते हुए यह कहना कि वैदिक काल के हिन्दुओं में धर्मविहित गोवध या मांसभक्षण प्रचलित था, सरासर दुःसाहस और अनैतिहासिक है। संभवतः यह एक षडयन्त्र था जिसमें विधर्मी शासकों द्वारा स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ पाश्चात्य लेखकों को फुसलाकर उनसे वेदमन्त्रों की ऐसी अनर्थकारी व्याख्यायें लिखवायी गयीं । कुछ वैदिक कूट पहेलियों जैसे वाक्यों ने इन लोगों की व्यामोहित भी कर डाला। मांसभक्षण और पशुवध के सम्बन्ध में वेद का यह कठोर आदेश है : यः पौरुषेयेण ऋविधा समङ्क्ते यो अश्वेन पशुना यातुधानः । यो अनाया भरति क्षीरमने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥ (ऋ. १०.८७.१६ ) या आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये ऋषिः । गर्भान् ( अण्डान् ) खादन्ति केशवास्तान् इतो नाशयामसि || ( अथर्व ० ८.६.२३ ) सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृशरौदनम् । पूर्तेः प्रवर्तितं तद् नैतद् वेदेषु दृश्यते ॥ ( महा० शान्ति० २६५.९ ) मित्र - आदित्य वर्ग का वैदिक देवता । वरुण के साथ इसका सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि स्वतंत्र रूप से केवल एक सूक्त (ऋग्वेद ३.५९) में इसकी स्तुति मिलती है। मित्र का सबसे बड़ा गुण यह माना गया है कि वह अपने 4 मित्र शब्दों का उद्घोष करता हुआ ( ब्रुवाणः ) लोगों को एक दूसरे से सम्मिलित करता है ( वातयति) और अनिमेष दृष्टि से ( अनिमिषा ) कृषकों की रखवाली करता है। मित्र मनुष्यों को प्रेरित कर उनको कार्यों में लगाता है, जिन्हें वे मंत्री और सहकारिता द्वारा पूरा करें वह देवी मित्र और सन्धि का देवता है वह अपने गुणों की मानवों में उतारता है। मित्र के बारे में प्रायः वे ही बातें कही गयी हैं जो वरुण के बारे में प्रसिद्ध है। वह स्वर्ग तथा पृथ्वी का धारण करने वाला, लोकदेवता, स्वर्ग और पृथ्वी से बड़ा, निनिमेष मानवों की ओर देखने वाला, राजाओं के समान जिसके व्रतों ( आज्ञाओं) का पालन होना चाहिए, दयालुता का देवता, सहायक, दानी, स्वाथ्यवर्द्धक समृद्धि दाता आदि है। मित्र सूर्योदय अथवा दिन का देवता है, वरुण सूर्यास्त अथवा रात्रि का मित्र दिन के नैतिक जीवन का संरक्षक है, वरुण रात्रि के नैतिक जीवन का । मित्र तथा वरुण के नाम विकलर द्वारा 'बोगाज - कोई' ( लघु एशिया, ईराक ) की तख्ती पर ( १४०० ई० पू० ) लिखित अभी कुछ वर्ष पूर्व प्राप्त हुए हैं। ओल्डेनबर्ग के मतानुसार ये देवता ईरानी हैं । अन्य विद्वानों के अनुसार ये भारतीय हैं। यदि ये वैदिक माने जायें तो इनकी उपर्युक्त स्थिति से प्राचीन काल के भारत तथा लघु एशिया के सम्बन्धों की पुष्टि होती है तथा यह भी पता चलता है कि भारतीय आर्यों की एक शाखा इसी मार्ग ( बोगाज-कोई) से अपने पश्चिमी निवास की ओर अग्रसर हुई थी । बोगा कोई अभिलेख के मित्र एवं वरुण की सहयोगिता का उल्लेख पारसियों के 'अवेस्ता' में 'मिश्र तथा अहुर' के नामों से हुआ है । परवर्ती अवेस्ता के मिश्र अहुर तथा ऋग्वेदीय मित्र वरुण के जोड़े यह सिद्ध करते हैं कि यह मान्यता भारत-ईरानी के पूर्व की है। योगाज कोई अभिलेख भी पुष्टि 'अस्सिल' प्रत्यय द्वारा जोड़े जाने वाले मित्र तथा वरुण से करता है। अवेस्ता में 'मित्र' का अर्थ सिप है तथा ऋग्वेद में यह 'मित्रता' अर्थ का योतक है। एकता टूटने इस बात की जैसे जेनस का अर्थ है " द्वार का मित्र वह देवता है जो सत्य भाषण, स्वीकृतियों, वचनों, सन्धियों में जान पड़ता है कि मित्र प्रारम्भ में सन्धि का देवता था, देवता " । इस प्रकार मनुष्य मनुष्य के बीच सचाई की देख-रेख Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र-भू-काश्यप-मीमांसा शास्त्र ५२१ करता था। सत्य अन्तप्रकाश है तथा प्रकाश बाहरी (२) मिश्र का अर्थ 'श्रेष्ठ' भी होता है । 'आर्यमिश्रा' सत्य है। यह नहीं जान पड़ता कि मित्र में कौन सा श्रेष्ठ लोगों के लिए सम्बोधन के रूप में संस्कृत ग्रन्थों में विचार पहले प्रविष्ट हुआ । सम्भवतः उसमें नैतिक गुणों प्रयुक्त होता है। की ही प्राथमिकता ज्ञात होती है। मिहिर-ईरानी देवता "मिथ्र" को ही संस्कृत में मिहिर मित्र का भौतिक रूप प्रकाश था जो कुछ आगे-पीछे कहते हैं। दूसरी शताब्दी ई० पू० में उत्तर भारत में मान्य हुआ । कुछ विद्वान् मित्र की एकता सूर्य से स्थापित इस शब्द का प्रवेश हुआ । क्रमशः आगे चलकर भारतीय करते हैं और इस प्रकार मित्र एवं वरुण से 'सूर्यप्रकाश सौर सम्प्रदाय में यह पूजनीय रूप से समाविष्ट हो गया। एवं उसे घेरने वाला वृत्ताकार आकाश' अर्थ को सम्भवतः वास्तव में वैदिक 'मित्र' देवता प्राचीन काल में ईरान स्थापना होती है। के पारसियों में भी मिथ्र नाम से पूज्य था। आगे चलकर तीसरी मान्यता में मित्र युद्ध का देवता है (मिह्यश्त मिथ्र का परिवर्तित रूप मिहिर भारत में भी प्रचलित हो के अनुसार) । बाद में मिथ्रवाद या मिथ्र की पूजा रोमन गया । मिहिर और मित्र दोनों आदित्य के पर्याय माने साम्राज्य में फैली । योद्धा, देवता, स्पष्टवादिता, ईमानदारी सीथे मार्ग का अनुसरण आदि सैनिकों के गुणों के साथ वह मोनापंथ-सिक्खों के 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग युद्ध का देवता माना जाने लगा। मिथ्रवाद का काल हैं। सहिजधारियों के भी अनेक पन्थ हैं। इनमें एक है पश्चिमी देशों में १०० से ३०० ई० तक रहा। एक मीना पन्थ । इसे गुरु रामदास के पुत्र पृथ्वीचन्द ने समय था जब यह कहना कठिन था कि मिथ्रवाद तथा चलाया था । दे० 'सिक्ख सम्प्रदाय' । रवीष्टिवाद में से कौन विजयी होगा। मीमांसक-मीमांसा शास्त्र के विद्वानों को मीमांसक कहते मित्र-भू-काश्यप-कश्यप का वंशज । यह वंश ब्राह्मण में । हैं। कर्म मीमांसा दर्शन की स्थापना इसके लिए हई थी उद्धृत एक आचार्य का नाम है जो विभाण्डक काश्यप का कि श्रोत तथा गृह्यसूत्रों में बतायी हुई सारी बातों का शिष्य था । पालन सन्देहरहित विश्वासपूर्ण नियमों के अनुसार हो । मित्रसप्तमी-मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी मित्रसप्तमी कह- बड़े बड़े श्रौत यज्ञों के अवसरों पर उस उद्देश्य की रक्षा लाती है । यह तिथिव्रत है। मित्र (सूर्य) इसके देवता हैं। के लिए विद्वान् मीमांसक निर्देशार्थ उपस्थित रहते थे। षष्ठी को मित्र की प्रतिमा को उसी प्रकार स्नान कराना मीमांसा-दे० 'पूर्वमीमांसा'। चाहिए जैसे कार्तिक शुक्ल ११ को विष्णु भगवान् की मीमांसान्यायप्रकाश-आपदेव सुप्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् प्रतिमा को कराया जाता है। सप्तमी को उपवास (फलों थे। उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पूर्वमीमांसा का का सेवन किया जा सकता है) तथा रात्रि को जागरण प्रारम्भिक और प्रामाणिक प्रकरण ग्रन्थ है। रचनाकाल करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के पुष्पों तथा स्वादिष्ट १६३० ई० है । इसे आपदेवी भी कहते हैं। सरल होने खाद्यान्नों से सूर्य का पूजन करना चाहिए। निर्धनों के कारण इसका प्रचार तथा प्रयोग प्रचुर हुआ है। अनाथों तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए । अष्टमी मोमांसावृत्ति-उपवर्ष नामक वृत्तिकार द्वारा पूर्व और को अभिनेताओं तथा नर्तकों को रुपयों का वितरण करना उत्तर दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्ति ग्रन्थ लिखे गये चाहिए । दे० नीलमत पुराण, पु० ४६-४७ (श्लोक ५६४- थे । शङ्कराचार्य (ब. सू. ३.३.५३) कहते हैं कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसावृत्ति में कहीं-कहीं पर शारीरक सूत्र पर मिश्र-(१) संयुक्त अथवा मिला हुआ। मिश्र तन्त्र आठ लिखित वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है । ये उपवर्षाहैं । इन के दो गुण हैं: देवी की उपासना के सम्बन्ध में चार्य शबरस्वामी से पहले हुए थे। शिक्षा देना, एवं पार्थिवसुख के साथ ही मक्ति का मार्ग मीमांसाशास्त्र-विशिष्टाद्वैतवादी वैष्णव आचार्यों के मत भी प्रदर्शित करना। इस प्रकार इनमें दो लक्ष्यों का से पूर्वोत्तर रूपात्मक मीमांसा शास्त्र एक ही है । वे मिश्रण है । इसके विपरीत समय या शुभ (उच्च) तन्त्र दोनों के सूत्रपाठों में प्रथम कर्म मीमांसा के 'अथातो केवल 'मुक्ति' का ही मार्गदर्शन कराते हैं। धर्मजिज्ञासा' से लेकर ब्रह्म मीमांसा के 'अनावृत्तिः Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ मीराबाई मुक्तिद्वार-सप्तमी शब्दात्' इस अन्तिम सूत्र तक बीस अध्यायों का एक ही मकुन्दराज-मराठी भाषा के विवेकसिन्धु नामक ग्रन्थ में वेदार्थ-विचार करने वाला मीमांसा दर्शन मानते हैं और वेदान्त की व्याख्या करने वाले एक विद्वान् सन्त । इनके उसके तीन काण्ड बतलाते हैं। उन काण्डों के नाम हैं : ग्रन्थ का उल्लेख देवगिरि के राजा जैत्रपाल के शासनधर्ममीमांसा, देवमीमांसा, ब्रह्ममीमांसा । धर्ममीमांसा काल में १२वीं शताब्दी के अन्त में हुआ है तथा इसे नामक प्रथम काण्ड आचार्य जैमिनि द्वारा प्रणीत है। मराठी का सबसे प्राचीन ग्रन्थ कहा गया है । इस ग्रन्थ की उसमें बारह अध्याय हैं और उसमें धर्म का सांगोपांग विवेचन किया गया है। देवमीमांसा नामक द्वितीय काण्ड मुकुन्दराम-बँगला भाषा के प्राचीन संमानित कवि । इन्होंने काशकृत्स्नाचार्य ने बनाया था और उसके चार अध्यायों में बंगला में एक कलात्मक महाकाव्य रचा (१६४६ ई०) देवोपासना का रहस्य परिस्फुटित किया गया है। ब्रह्म जिसका नाम 'चण्डी मङ्गल' है । यह शाक्त पंथी ग्रन्थ है। मीमांसा नामक तृतीय काण्ड के रचयिता है बादरायणमुनि। और 'मंगल' काव्यों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इन्होंने चार अध्यायों में ब्रह्म का पूर्ण विमर्श करके अपना मुक्तानन्द-स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अनुयायी संत । सिद्धान्त अच्छी तरह स्थापित किया है। कर्म, उपासना मुक्तानन्द जी ने गुजराती भाषा में अनेक भजन व पद और ज्ञान इन तीनों काण्डों से युक्त सम्पूर्ण शास्र का रचे हैं। नाम है मीमांसाशास्र । इस सम्पूर्ण मीमांसा शास्र की मुक्ताफल-वोपदेव पण्डित द्वारा रचित 'मुक्ताफल' भागवत्ति भगवान् बोधायनाचार्य ने बनायी थी। वतपुराण पर आधारित है। इसमें उक्त पुराण की शिक्षाएँ ___ अन्य आचार्यों के मतानुसार दो स्वतन्त्र मीमांसा- संगृहीत हैं । इसका रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का शास्र हैं: (१) पूर्व मीमांसा, जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड का प्रथम चरण है। विवेचन है और (२) उत्तर मीमांसा, जिसमें वेदान्त मुक्ताबाई-पन्द्रहवीं शताब्दी के महाराष्ट्रीय भक्तों में दर्शन या ब्रह्म का निरूपण है । दे० 'पूर्वमीमांसा' । मुक्ताबाई का नाम उल्लेखनीय है । इनके अभङ्ग आदर के मीराबाई-जोधपुर के मेड़ता राजकुल की कृष्णभक्त साथ पढ़े और गाये जाते हैं।। राजकुमारी । इनका ब्याह मेवाड़ के युवराज के साथ मुक्ताभरण व्रत-भाद्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारंभ हआ । इनके ससुर प्रसिद्ध वीर राणा कुम्भा थे । राणा होता है । यह तिथिव्रत है । शिव तथा उमा उसके देवता कुम्भा की मृत्यु के पहले ही उनके पति की मृत्यु हो । हैं। शिवप्रतिमा के सम्मुख एक धागा रखा जाता है । गयी। विधवा मीराबाई के साथ उनके पति के भाई का उसके उपरान्त आवाहन से प्रारम्भ कर शिव जी का व्यवहार निर्दय था। मीरा ने चित्तौड़ त्याग दिया तथा षोडशोपचार पूजन किया जाता है। शिव जी का आसन सन्त रैदास (रामानन्दीय) की शिष्या बन गयीं और आगे मुक्ताओं तथा रत्नों से जटित होना चाहिए। उपचारों के चलकर कृष्ण की उच्च कोटि की उपासिका हुई । इनके बाद उस धागे को कलाई में बाँध लिया जाता है। तदकृष्ण भक्ति सम्बन्धी गीत लोकप्रसिद्ध है। गुजराती में नन्तर ११०० मण्डल (मराठी में माण्डे, हिन्दी में बाटियाँ) भी इनके बहुत से गीत पाये जाते हैं, जिनमें से कुछ में तथा वेष्टिकाएं (जलेबियाँ) दान में देनी चाहिए। इससे उत्कट प्रेम के तत्त्व निहित हैं। मीराबाई का स्थिति पुत्रों की आयु दीर्घ होती है । काल १६वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।। मुक्ति-संसार के जन्ममरण-बन्धन से छुटकारा । दे० मोक्ष । मुकुन्द-छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् के अनेक वत्तिकार मुक्तिकोपनिषद-मक्तिकोपनिषद् में १०८ उपनिषदों की तथा टीकाकारों में से मुकून्द भी एक है। नामावली दी हुई है जो महत्त्वपूर्ण है। इसमें मोक्ष का मकुन्दमाला-केरल प्रान्त के प्रसिद्ध शासक कूलशेखर विवेचन विशेषरूप से किया गया है । एक प्रधान अलवार (परम वैष्णव) हो गए हैं। उन्होंने मुक्तिद्वार सप्तमी-जब सप्तमी हस्त अथवा पुष्प नक्षत्र 'मुकुन्दमाला' नामक एक अत्यन्त भक्तिरसपूर्ण, साहित्यिक युक्त हो तब इस व्रत का आचरण करना चाहिए। आक स्तोत्र ग्रन्थ की रचना की है। भक्तसमाज में इसका बहुत के वृक्ष को प्रमाण करके उसकी टहनी की दातुन से दाँत आदर है। साफ करने चाहिए। उस अवसर पर स्नान-पूजन करने के Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखबिम्ब आगम-मुजे ५२३ बाद हवन का भी आयोजन होना चाहिए। आँगन को विषयों का जिस ग्रन्थ में वर्णन हो, वह मुख्य तन्त्र कहगौ के गोबर तथा रक्त चन्दन से लोपकर वहाँ अष्टदल लाता है। विशेष विवरण 'तन्त्र' शब्द की व्याख्या कमल बनाकर पूर्व की ओर से प्रारम्भकर प्रति देवता में देखें। का कमल के दलों पर आह्वान करना चाहिए। तदनन्तर मचकुन्दतीर्थ (धौलपुर)--राजस्थान के पूर्वी प्रवेशद्वार मन्त्रों को बोलकर षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। धौलपुर से तीन मील पर सुरम्य पर्वत श्रृंखला में स्थित व्रती उस दिन उपवास करे । वह षट् रसों (लवण, मिष्ठ, राजर्षि मुचुकुन्द की गुफा। देवकार्य से निवृत्त होकर अम्ल, तिक्त, कटु, कसैला) में से एक ही रस का सेवन मुचुकुन्द श्रमनिवारणार्थ इस गुफा में शयन कर रहे थे । करे । दो-दो मास तक एक रस लेने के बाद अगले दो देवताओं ने उनको वर दिया था कि तुम्हारी निद्रा भंग मास तक दूसरा रस लेना चाहिए। इसी प्रकार बारह करने वाला भस्म हो जायगा। कालयवन से भयाक्रान्त महीने में छः रसों का सेवन करना चाहिए। तेरहवें मास होकर श्रीकृष्ण उसको मथुरा से यहाँ तक भगा लाये व्रत की पारणा हो तथा व्रती कपिला गौ का दान करे । और अपना पीताम्बर राजा पर डालकर स्वयं गुफा में इस व्रत से व्रती मोक्ष प्राप्त करता है। छिप गये। कालयवन ने कृष्ण के धोखे से सोते हए मुखबिम्ब आगम-एक रौद्रिक आगम है, जो 'मुखबिन्ब' मुचकुन्द को लात मारी और राजा की दृष्टि पड़ते ही अथवा 'मुखयुग्बिम्ब' नाम से प्रसिद्ध है। वह जलकर भस्म हो गया । पश्चात् श्री कृष्ण ने दिव्य मुखयुग्बिम्ब आगम-दे० 'मुखबिम्ब आगम' । दर्शन देकर राजा को बदरिकाश्रम में जाने की आज्ञा दी। मुखलिङ्ग--मुख की आकृति से अङ्कित लिंग को मुखलिङ्ग मुचकुन्द ने गुफा से बाहर आकर यज्ञ सम्पन्न किया और कहते हैं । एक से लेकर पञ्चमुख तक के लिङ्ग पाये जाते वे उत्तराखंड चले गये। इस पर्वतीय स्थली को गन्धहैं। अमूर्त शिवतत्त्व को मूर्त अथवा मुखर रूप देने का मादन कहते हैं । मुचुकुन्द के यज्ञस्थान पर एक सरोवर यह प्रयास है । शिव की पूजा-अर्चा लिङ्ग के रूप में अति है जिसमें चारों ओर पक्के घाट तथा अनेक देवमन्दिर प्राचीन काल से चली आ रही है। न केवल भारत वरन् हैं । ऋषिपञ्चमी और बलदेवछठ को यहाँ भारी मेला वृहत्तर भारत में भी इसका प्रचलन था । हिन्द चीन के होता है। दिल्ली-बम्बई राष्ट्रीय मार्ग से केवल एक मील प्रदेश चम्पा में शिव सम्प्रदाय का प्रचार बहुत अधिक दूर होने के कारण पर्यटक यात्रियों के लिए यह दर्शनीय था। यहाँ के मन्दिरों के भग्नावशेषों में अनेक ऐसी वेदि- स्थल होता जा रहा है। काएं उपलब्ध होती हैं जिनके मध्य अवश्य कभी लिङ्ग वाराहपुराण में मथुरामंडल का विस्तार बीस योजन स्थापित रहे होंगे। ये सभी लिङ्ग साधारण आकृति के कहा गया है और इसी के साथ मुचुकुन्दतीर्थ तथा पवित्र बेलनाकार ऊारी सिरे पर गोल हैं। यहाँ के लिङ्गों में कुण्ड का माहात्म्य वर्णन किया गया है। इस तीर्थ से मुखलिङ्ग भी थे । इसका प्रमाण पोक्लोन गरई के मन्दिर प्राय २-३ कोस दूर मथुरामण्डल के दक्षिण छोर पर में उपस्थित मुखलिङ्ग से होता है। लिङ्ग में मुख अंकित यमुना की सहायक नदी चम्बल बहती है। इसकी पुण्यहै जो मुकुट तथा राजा के अन्य आभूषणों से सुसज्जित है। शालिता का स्मरण कालिदास ने भी अपने मेघ को कराया मुखवत-इस व्रत के अनुसार एक वर्ष के लिए ताम्बूल हैं क्योंकि यह नदी अतिथि सत्कार के लिए काटे गये (मुखवास) का परित्याग करना पड़ता है। वर्ष के अन्त कदलीवृक्षों में से निकलकर बहती थी। में एक गौ का दान विहित है। इससे व्रती यक्षों का स्वामी बन जाता है। मञ्ज--एक प्रकार की लम्बी घास जो दस फुट तक बढ़ती मुख्यतन्त्र-तन्त्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है-आगम, है । ऋग्वेद में अन्य घासों के साथ इसका उल्लेख हुआ यामल और मुख्य तन्त्र । सृष्टि, लय, मन्त्रनिर्णय देवताओं है। उसी ग्रन्थ में (१.१६१,८) मुञ्ज सोम को छानने के के संस्थान, यन्त्र-निर्णय, तीर्थ, आश्रम धर्म, कल्प, ज्योतिष ___ काम में आने वाली कही गयी है। अन्य संहिताओं तथा संस्थान, व्रत कथा, शौच और अशौच, स्त्री-पुरुष लक्षण, ब्राह्मणों में मुञ्ज का प्रायः उल्लेख हुआ है। जहाँ इसे राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक खोखला (सुषिर) तथा आसन्दी में व्यवहृत कहा गया है। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ मुण्डकोपनिषद्-मूलगौरीव्रत (शत० १२.८,३,६) । मुञ्ज को ही मेखला बनती है जिसे मुनि-ऋग्वेद की एक ऋचा में मुनि का अर्थ संन्यासी है, ब्रह्मचारी और तपस्वी धारण करते हैं। जो देवेषित अलौकिक शक्ति रखता है। एक मंत्र में उसे मज की मेखला (कधनी) पहनना दाह, तृष्णा, विसर्प लम्बे केशों वाला कहा गया है । ऋग्वेद (८.१७,१४) में अत्र, मूत्र, बस्ति और नेत्र के रोगों में लाभकारी इन्द्र को मुनियों का मित्र कहा गया है । अथर्ववेद (१.७४) होता है। में देवमुनि का उद्धरण है । उपनिषदों में (बृ० उ० ३.४, 'दाह तृष्णाविसस्रिमूत्रबस्त्याक्षि रोगजित् । १;४.४,२५ तै० आ० २.२० ) मुनि और निग्रही दोषत्रयहरं वृष्यं मौखलमुञ्जमुच्यते ॥ वर्णित हैं, जो अध्ययन, यज्ञ, तप, व्रत एवं श्रद्धा द्वारा (भावप्रकाश) ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। मण्डकोपनिषद-अन्य उपनिषदों की अपेक्षा की अथर्ववेदीय मुनिमार्ग-मानभाऊ सम्प्रदाय का एक नाम 'मुनिमार्ग' भी उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्वप्रकाश ही उनका है । मुनिमार्ग का आशय दत्तात्रेय द्वारा चलाये गये पन्थ उद्देश्य है । शङ्कराचार्य ने मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्न और नृसिंह से है । दे० 'दत्तात्रेय सम्प्रदाय' । तापिनी इन चारों उपनिषदों को प्रधान आथर्वण उपनिषद् मुनि लक्षण-ब्रह्म के चिन्तन के लिए जो मौन धारण माना है । ब्रह्म क्या है ? उसे किस प्रकार समझा जाता है, करता है, उसे मुनि कहते हैं। जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार किस प्रकार प्राप्त किया जाता है, इस उपनिषद में इन्हीं हो जाता हैं वही श्रेष्ठ मुनि और वही ब्राह्मण है। मुनि विषयों का वर्णन है। शङ्कराचार्य, रामानुजाचार्य, आन- प्रायः भाषण नहीं करता, मौन हो उसका व्याख्यान है । न्दतीर्थ, दामोदराचार्य, नरहरि आदि के इस उपनिषद् मुमुक्ष-मोक्ष का इच्छुक, संसार के जन्म-मरण से छूटने पर भाष्य व टीकाएँ हैं। का अभिलाषी । अमरता के सन्दर्भ में साधारण आत्मा के मुण्डमालातन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत ६४ तन्त्रों चार प्रकार हैं-(१) बद्ध वह है जो जीवन के सुख-दुखादि की सूची में मुण्डमालातन्त्र भी सम्मिलित है। से बँधा हुआ है तथा मुक्ति मार्ग पर आरूढ़ नहीं है, (२) मुद्गल-ऋग्वेद के अनेक भाष्यकार हैं । मुद्गल का नाम मुमुक्षु-जिसमें मोक्ष की इच्छा जाग्रत हो चुकी है, किन्तु भी उनमें सुना जाता है। अभी इसके योग्य नहीं है । इसे 'जाग्रत बद्ध' कहा जा मुद्गल उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से एक मुद्गल है। सकता है, (३) केवली या भक्त, जो शुद्ध हृदय से देवो यह गाणपत्य सम्प्रदाय के उपपुराणों में परिगणित है। पासना में भक्ति पूर्वक तल्लीन है और (४) मुक्त जो सभी मुद्गल पुराण-दे० 'मुद्गल उपपुराण' । दोनों एक ही हैं। वासनाओं और बन्धनों से मुक्त है। मुद्रा-(१) अंगुलियों, हाथ अथवा शरीर की गति अथवा मुरारिमिश्र-काप्तीय गृह्य (ग्रन्थ) के अनेक भाष्यकारों में भङ्गियों द्वारा भाव व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। मुरारिमिश्र भी एक है। शाक्त लोग देवी को प्रतीक आधार (किसी पात्र) में उता- मुरुह-मुरुह को सुब्रह्मण्य (स्वामी कार्तिकेय) भी कहते हैं। रने के लिए पात्र के ऊपर यन्त्र मण्डल के साथ पूजा- इस देवता की प्रशंसा में 'तिरुमुरुहत्तुप्पदै' नामक एक ग्रन्थ विषयक मुद्राएँ (उँगलियों के सकेत आदि) अङ्कित करते नक्कीर देव नामक तमिल शैव आचार्य ने लिखा है। है । गोरखनाथी सम्प्रदाय के साधु हठयोग की क्रिया में मूलगौरीव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान आश्चर्यजनक शारीरिक आसन, शरीरशोधन के लिए होता है। इस दिन तिलमिश्रित जल से स्नान करना प्राणायाम तथा अनेकानेक श्वास एवं ध्यान आदि को चाहिए। सुन्दर फलों से शिव तथा गौरी का चरणों से यौगिक मुद्रा को संज्ञा से अभिहित करते हैं। अनेकानेक प्रारम्भ कर मस्तकपर्यन्त पूजन करना चाहिए। बारह मुद्राएँ भारतीय कला, नृत्य आदि में व्यवहृत होती आयी मासों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पों की भेंट चढ़ानी है-यथा :अभय मुद्रा, वरदमुद्रा, ध्यानमुद्रा, भूस्पर्शमुद्रा चाहिए । भिन्न प्रकार के तरल पदार्थ तथा खाद्य पदार्थ आदि । अर्पण करने चाहिए। विभिन्न नामों से गौरी का अलग (२) वामाचार में मञ्च मकारों-मद्य, माँस, मत्स्य, पूजन होना चाहिए। व्रती को कम से कम एक फल का मुद्रा और मैथुन में इसकी गणना है। त्याग करना चाहिए। व्रत के अन्त में उसे पर्यङ्क पर Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलचारी-मगशिरावत ५२५ बिछाने के वस्त्र, स्वर्णनिर्मित वृष तथा गौ का दान करना कराया गया है, जहाँ इसका अर्थ जंगली जन्तु व्याघ्र, सिंह चाहिए । भगवान शिव ने चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी से आदि हैं। विवाह किया था । अग्निपुराण, १७८.१-२० । (२)ऐतरेय ब्राह्मण (३.३३,५) में सायण भाष्यानुसार मलचारी-सामवेद की शाखा परम्परा में लोगाक्षि के चार 1 चार यह मृगशिरा नक्षत्र है। शिष्यों में से एक मूलचारी भी हुए हैं। ___ (३) आगे चलकर मृग का अर्थ प्रायः हरिण हो मूल प्रकृति-सांख्योक्त सत्त्व, रजस् और तमस् तीनों गुणों गया। मृगचर्म अथवा हरिण की छाल ब्रह्मचारियों तथा के एकत्रित होने से मूल प्रकृति का निर्माण होता है, जो तपस्वियों के आसन के काम आती है। भौतिक वस्तुओं का सूक्ष्म (अदृश्य) उपादान है। शाक्त मुगयु-संहिताओं तथा ब्राह्मणों में मृगयु आखेटक (शिकारी) मतानुसार देवी मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व (सृष्टि) का बोधक है, किन्तु इसका प्रयोग कम ही हुआ है । वाजसशक्ति का विलास है। नेयी संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में पुरुषमेध यज्ञ की मूलशङ्कर-(१) शिव के आदि अव्यक्त रूप को 'मलशङ्कर' बलि के लिए उन पुरुषों को लेते थे जो अपनी जीविका कहते हैं । स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मछली पकड़कर तथा शिकार द्वारा करते थे। इनमें मूलशङ्कर था। विशेष वर्णन के लिए दे० 'दयानन्द' तथा मागरि, कैवर्त, पौजिष्ट, दाश एवं मैनाल आदि मछए 'आर्यसमाज'। बन्द एवं आनन्द के नाम से प्रसिद्ध है । पिछले दो भी किसी मलस्तम्भ-सामान्य शैव साहित्य में इसकी गणना होती श्रेणी के मछए ही थे। वैदिक काल के आरम्भ में भी है। यह ग्रन्थ मराठी भाषा में मुकुन्दराज द्वारा लिखा आर्य पूरे शिकारी न थे। शिकार का कारण भोजन मनोगया था। रंजन तथा वन्य पशुओं से खेती की रक्षा करना था। मूलाधार-शाक्त मत में ध्यान तथा योगाभ्यास के द्वारा । शिकार में बाणों का प्रयोग होता था। प्रारम्भिक काल शक्ति (देवी) को मूलाधार सुषुम्ना नाडी के छः पर्यों में में जाल एवं गढ़ों का प्रयोग स्वाभाविक था। पक्षियों को सबसे निचला पर्व या चक्र से ऊपर उठाते हुए चार चक्रों जाल से ही पकड़ा जाता था । पाश, निधा, जाल आदि के मार्ग से आज्ञा (मूमध्य) तथा फिर सहस्रार चक्र तक नाम आते हैं। पक्षी पकड़ने वाले को 'निधापति' कहते थे । ले जाते है। इस विद्या को 'श्रीविद्या' कहते हैं। इसकी गढ़ों द्वारा ऋष्य (एक प्रकार का हरिण) पकड़े जाते थे शिक्षा केवल शुभ अथवा समय तन्त्रों से प्राप्त होती है। तथा उस शिकारी का नाम ऋष्पद था। सूअर को दौड़ा शाक्क मतानुसार शरीर में अनेक क्षुद्र प्रणालियाँ अथवा कर पकड़ते थे। शेर के लिए भी गड्ढा खोदते थे या रहस्यमय शक्ति के सूत्र हैं। उन्हें नाड़ी कहते हैं। सबसे शिकारियों द्वारा घेरकर पकड़ते थे। सायण ने कहा है महत्त्वपूर्ण सुषुम्ना है। इससे सम्बन्धित छः केन्द्र अथवा कि धैवर वह है जो तालाब की मछली जाल द्वारा छानता चक्र है, जो मानुषिक देह में एक के ऊपर दूसरे रूप में स्थित है, दाश तथा शौष्कल बंसी = बाद्रिश द्वारा, मार्गार हाथ है । इनको 'कमल' भी कहते हैं। सबसे नीचे का चक्र द्वारा, आनन्द बाँधकर, पर्णक पानी में जहरीला पत्ता मूलाधार कमर के नीचे है। उसके चारों ओर शक्ति सर्प डालकर मछली पकड़ते थे। सदश साढ़े तीन घेरों में सोयी हुई है। इस मुद्रा में उसे मृगशिरा व्रत-श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को इस व्रत का अनुकुण्डलिनी कहते हैं। शाक्त योग द्वारा उसे जगाया तथा ष्ठान होता है । शिव जी ने यज्ञ के तीन मुखों को अपने सबसे ऊपरी चक्र तक ले जाया जा सकता है। मध्य की बाण से, जिसमें तीन काँटे या शल लगे थे, इसी दिन प्रणालियाँ एवं केन्द्र आधार का कार्य करते है । ये ही चक्र बींध दिया था। वही मृग रूप माना गया । व्रती को तथा केन्द्र दीक्षित शाक्तों की आश्चर्यपूर्ण शक्तियों के मिट्टी का हरिण रूप वाला मृगशिरा नक्षत्र बनवाना आधार हैं। चाहिए । तदन्तर उसे कन्द मूल-फल तथा आटे में अलसी मृग-(१) मृग से साधारणतः वन्य पशु का बोध होता है। मिलाकर बनाया गया नैवेद्य मृगशिरा को अर्पण कर कभी-कभी 'भीम' भयंकर विरुद से इसके गुणों का बोध पूजना चाहिए। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगेन्द्र आगम-मेना (मेनका) मगेन्द्र आगम-एक महत्त्वपूर्ण आगम । यह कामिकागम शत्रुओं का दमन करने वाली है । वह मुझ धारण करने (प्रथम आगम) का प्रथम भाग, अथवा ज्ञान भाग है। वाले की सम्यक् रक्षा करे और कभी अप्रसन्न न हो । ] मृगेन्द्र संहिता-श्रीकाण्ठाचार्य ने मृगेन्द्र संहिता की वृत्ति प्राकृतिक वातावरण में रहने वाले बटुक और तपएवं अघोर शिवाचार्य ने इसकी व्याख्या लिखी है। स्वियों को स्फूर्ति देने और रोगों से बचाने में मेखला मृत्यु-ऋग्वेद (७.७९,१२) तथा परवर्ती साहित्य में मृत्यु अद्भुत समर्थ होती है। इसीलिए इसे मन्त्र में ऋषियों को भयसूचक कहा गया है । एक सौ एक प्रकार की मृत्यु की बहिन ( स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम् ) कहा गया है। कही गयी है, जिनमें वृद्धावस्था की स्वाभाविक के सिवा दे० 'मुञ्ज' । मृत्यु के एक सौ प्रकार हैं । पूरे वैदिक साहित्य में जोवन- मेघपाली तृतीया-आश्विन शुक्ल तृतीया को स्त्री तथा काल एक सौ वर्षों का वर्णित है। वृद्धावस्था के पहले पुरुष दोनों के लिए मेघपाली नामक लता के पूजन का मरण (पुरा जरसः) निश्चित जीवनकाल के पहले मरने विधान है । इस लता के पत्ते पान के पत्तों के समान (सुरा आयुषः) के समान था। दूसरी तरफ बृद्धावस्था में होते हैं तथा यह प्रायः उद्यानों, पहाड़ियों एवं ग्रामीण शक्ति क्षीण हो जाने की बुराई का भी अनुभव किया मार्गों में पायी जाती है । इसका पूजन भिन्न-भिन्न प्रकार गया है (ऋग्वेद १.७१,१०,१७९,१)। अश्विनों के चम- के फलों तथा अंकुर निकले हुए सप्त धान्यों से करना त्कारों में से एक वृद्ध च्यवन को पुनः नवयुवक तथा चाहिए । इस आचरण से समस्त पापों का नाश हो जाता शक्तिशाली बनाना था । अथर्ववेद में आयुष्य-प्राप्ति तथा है, विशेष रूप से व्यापारियों के उन पापों का जो कम मृत्यु से मुक्ति के अनेक मन्त्र है। शव को गाड़ने तथा तौलने या नापने से होते रहते हैं । जलाने दोनों प्रकार की प्रथा थी। किन्तु गाड़ना कम मेधाजनन-एक वैदिक संस्कार । इसका अर्थ है मेधा पसन्द किया जाता था। प्रायः शव की दाहक्रिया होती (= प्रज्ञा ) उत्पन्न करना। यह जातकर्म ( जन्म के थी। मृत्यु के बाद पुनः इस जगत में आकर जीवनचक्र समय किये गये धार्मिक कृत्य ) और उपनयन के अवसर को दुहराना आर्यों को मान्य था । ऋग्वेद का कथन है पर किया जाता था । सावित्री ( गायत्री मन्त्र) के साथ कि बुरे कार्य करने वालों के लिए बुराइयाँ प्रतीक्षा करती मेधाजनन संस्कार होता था। हैं, किन्तु अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों के समय से नरक के मेधातिथि-(१) ऋग्वेदीय वाष्कल उपनिषद् में एक दण्ड की कल्पना चल पड़ी। ब्राह्मण ग्रन्थ ही (शत० ब्रा० उपाख्यान है कि इन्द्र मेष का रूप धरकर कण्व के पुत्र ११.६,१; जै० ब्रा० १.४२-४४) सबसे पहले अच्छे या मेघातिथि को स्वर्ग ले गये। मेधातिथि ने मेषरूपी इन्द्र बुरे कार्यों का परिणाम स्वर्ग या नरक के रूप में से पूछा "तुम कौन हो" ? उन्होंने उत्तर दिया "मैं विश्वेबताते हैं। श्वर हूँ; तुमको सत्य के समुज्ज्वल मार्ग पर ले जाने के मेखला-(१)मूंज की बनी करधनी को मेखला कहते लिए मैंने यह काम किया है; तुम कोई आशंका मत है। इसको ब्रह्मचारी उपनयन के समय और तपस्वी सदा ___ करो।" यह सुनकर मेघातिथि निश्चिन्त हो गये। साधारण करते हैं । यह ऋत अथवा नैतिकता की रक्षिका (२) मनुस्मृति के प्रसिद्ध भाष्यकार का नाम है। मानी गयी है। मेध्य-मेधा (स्मृति शक्ति) के लिए हितकारी; पवित्र; श्रद्धायाः दुहिता तपसोऽधिजाता स्वसा ऋषीणां भूत- शुद्ध करके ग्राह्य अर्थात् 'यज्ञ में आहुति करने योग्य' । कृता बभूव । अथर्व ६.१३३.४ शुद्ध अथवा पवित्र पदार्थ मेध्य समझा जाता है। ऋस्य गोप्ती तपश्चरित्री ध्नतीरक्षः सहमाताः अरातीः ।। (१) ऋग्वेद (८.५२,२ ) में एक यज्ञकर्ता का सा मा समन्तमभिपर्येहि भद्रे धस्तेि सुभगे मा ऋषाम । नाम मध्य है। शाङ्खायन श्रौतसूत्र में भूल से इसको [ मेखला श्रद्धा की कन्या, तप से उत्पन्न, ऋषियों प्रस्कण्व काण्व का संरक्षक पृषध्रमेध्य मातरिश्वा समझा की बहिन तथा भूतों ( जीवधारियों) की उत्पादिका है। गया है। वह ऋत ( सुव्यवस्था) की रक्षा करने वाली, तप का मेना ( मेनका )-(१) मेना या मेनका का उल्लेख आचरण करने वाली, राक्षसों का हनन करने वाली, ऋग्वेद ( १.५१,१३ ) तथा ब्राह्मणों में वृषणस्व की पुत्री Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेयकण्डदेव-मैत्रायणीयोपनिषद् ५२७ या कदाचित् स्त्री के रूप में हुआ है। उनके साथ सम्ब- मेरुतन्त्र में कुछ अत्यन्त आधुनिक शब्दों के व्यवहार से जान न्धित कथा का उल्लेख कहीं भी नहीं है । पड़ता है कि तन्त्रों का निर्माण काफी पीछे तक होता रहा है। (२) हिन्दु पराकथा में मेना हिमालय की पत्नी मेषसंक्रान्ति-यह हिन्दुओं के कालविभाजक मुख्य पर्यों में और पार्वती की माता का नाम है। से एक है। इस पर्व पर गङ्गास्नान, जल कलश, पंखा एवं सत्तू आदि का दान और भक्षण किया जाता है । प्राचीन मेयकण्डदेव-तमिल शैव अपने धार्मिक ज्ञानार्थ आगम समय में इस पर्व का महत्त्व विषुव दिन ( समानरात्रिग्रन्थों पर निर्भर रहते थे, किन्तु तेरहवीं और चौदहवीं दिन ) के कारण था। धार्मिक विचार से सूर्य का मेष शती में वहाँ कुछ तीक्ष्ण बुद्धिवाले विचारक हुए, जो राशि में इसी दिन प्रवेश होता है। किन्तु पृथ्वी की तमिल भाषा के कवि भी थे । उन्हीं में एक मेयकण्ड थे जो अयन-गति में प्रति वर्ष अन्तर पड़ते जाने के कारण संप्रति तमिल शैव धर्म के स्रोत समझे जाते हैं । तेरहवीं शताब्दी रात्रि-दिन के समान होने वाली घटना इस संक्रान्ति से के प्रारम्भ में इनका जन्म शूद्र कुल में मद्रास से उत्तर प्रायः २३ दिन पूर्व होने लगी है। इसीलिए सूर्य का पेन्नार नदी के तटपर हुआ था। उन्होंने शैव आगम के उत्तर गोल गमन संबन्धी विभाजन भी इसी समय होने १२ सूत्रों का संस्कृत से तमिल में अनुवाद किया । इस लगा है। इस प्रकार २३ दिन पूर्व होने वाली ऐसी सब ग्रन्थ का नाम 'शिव ज्ञान बोध' था, जिसमें इन्होंने कुछ संक्रान्तियों को "सायन संक्रान्ति" कहते हैं। तमिल में टिप्पणियाँ तथा समानताओं का एक गद्यखण्ड मैत्रायणीय-कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा है। अपने तर्कों की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया । ये प्रसिद्ध मैत्रायणीयगृह्यसूत्र-यजर्वेद के गृह्यसूत्रों में मैत्रायणीय अध्यापक थे तथा इनके अनेक शिष्य थे। इनके सबसे प्रसिद्ध अध्यापक थ तथा इनक अनक शिष्य था इनक सबस प्रासद्ध गृह्यसूत्र भी प्राप्त होता है। शिष्य अरुलनन्दीदेव तथा मनवाचकम् कदण्डान थे। मैत्रायणी ब्राह्मण-बौधायन शुल्बसूत्र में ( ३२१८) उद्अरुलनन्दी के शिष्य मरैज्ञानसम्बन्ध (शूद्र ) थे तथा घत एक वैदिक ग्रन्थ का नाम, जो मैत्रायणी शाखा के उनके ब्राह्मण शिष्य उमापति थे । इस प्रकार मेयकण्ड, अरुलनन्दी, मरैज्ञानसम्बन्ध तथा उमापति मिलकर मैत्रायणीय यजर्वेद पद्धति-यजुर्वेद सम्बन्धी कर्मकाण्ड का 'चार सनातन आचार्य' के नाम से विख्यात हैं। इस नाम का एक ग्रन्थ प्राप्त हुआ है। मेरुतन्त्र-यह सुप्रसिद्ध तन्त्र शिव-पार्वती-संवाद रूप से मैत्रायणी शाखा-यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा भी मिलती ३५ प्रकाशों में पूर्ण हुआ है । शिव द्वारा उपदिष्ट १०८ है। इसके मन्त्रसंकलन में पाँच काण्ड हैं । बहत सम्भव तन्त्रों में इसका स्थान सबसे ऊँचा है ( माला के सुमेरु के है कि ये यजुर्वेद की भिन्न-भिन्न शाखाओं के संहिता समान ), इसलिए इसका नाम मेरुतन्त्र हो गया। यह भी ग्रन्थों से संकलित किये गये हो। कहा गया है कि जलन्धर के भय से मेरु पर्वत पर गये मैत्रायणीसंहिता-यजुर्वेद के मैत्रायणीय शाखा की मंत्राहए देवता और ऋषियों के प्रति शिवजी ने इसका उपदेश यणी संहिता है । इसमें कुछ ब्राह्मण अंश भी प्रस्तुत किया किया था। यह दक्षिण और वाम दोनों मार्ग वालों को गया है। एक समान मान्य है। मैत्रायणीयोपनिषद्-कृष्ण यजुर्वेद की एक उपनिषद् । मेरुतन्त्र ही संस्कृत गंथों में ऐसा ग्रन्थ है जहाँ इसकी रचना सम्भवतः गीता के काल की अथवा भारत के रहने वालों के लिए 'हिन्दू' शब्द का व्यवहार उससे कुछ बाद की है। महाभारत के दो अध्यायों हआ है । यहाँ 'हीन' तथा 'दुष' दो शब्दों से हिन्दू की व्यत्पत्ति बतायी गई है । 'हीन' का अर्थ 'अधम', 'नीच'. मैत्रायणी, माण्डूक्य ये तीनों उपनिषदें अपने ओमनिरू'गो' और 'दुष' निन्दा और नष्ट करने के अर्थ में आता पण के सिद्धान्त के कारण एक-दूसरी के बहुत निकट है। है। "जो कुछ निन्दा के योग्य है उसे नष्ट करने वाला, धार्मिक विचारों की उन्नति या विकास की दृष्टि से अथवा उसकी निन्दा करने वाला हिन्दू है।" यही तन्त्र- अकेली मैत्रायणी ही गंभीर गुण सम्पन्न है । मैत्रायणी में कार का अभिप्राय है जो काफिर कहने वालों का जबाब है। सांख्य तथा योग के पर्याप्त दार्शनिक तत्त्व है। चलिका. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ उपनिषद् जो पूर्णतया योगदर्शन पर अवलम्बित है, मैत्रायणी से गहरा सम्बन्ध रखती एवं उसकी समकालीन है। हिन्दू त्रिमूर्ति का सर्वप्रथम उल्लेख मैत्रायणी के दो परिच्छेदों में हुआ है। प्रथम में इन तीनों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को निराकार ब्रह्म का रूप माना गया है तथा दूसरे में इन्हें दार्शनिक रूप दिया गया है वे अदृश्य प्रकृति के आधार हैं। इस प्रकार एक महत् तत्त्व तीन रूपों में प्रकट हुआ है--सत्व, रजस् एवं तमस् । विष्णु सत्त्व, ब्रह्मा रजस् एवं शिव तमस् हैं । मंत्रावरुण - श्रीतयज्ञों (सोमसाध्यों) का एक पुरोहित । ब्राह्मण काल में यज्ञों का रूप विस्तृत हो गया तथा तदनुकूल पुरोहितों की संख्या बढ़ गयी। नये नये पद बनाये गये और अलग-अलग यज्ञों के लिये अलग-अलग पुरोहित निश्चित हुए। मैत्रावरुण भी एक पुरोहित का नाम था जो सौमित्रि यज्ञों में सहायता कार्य का करता था। सोमयज्ञों में १६ पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। इसमें से मैत्रावरुण भी एक होता था । मंत्रावरुणि ऋषि अगस्त्य का एक नाम जैसा कथित है, मित्र तथा वरुण ने स्वर्गीय अप्सरा उर्वशी को देखकर अपना-अपना तेज एक पानी के घड़े में डाल दिया । इस धड़े से ही अगस्त्य की उत्पत्ति हुई। दो पिता, मित्र एवं वरुण के कारण इनका पितृबोधक नाम मैत्रावरुणि हो गया । मंत्रे - शिव के चार पाशुपत शिष्यों में से एक का नाम मैत्रेय है । उदयपुर से १४ मील दूर एक लिङ्गजी के प्राचीन मन्दिर में एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें यह सन्देश है कि शिव भड़ींच (गुजरात) प्रान्त में अवतरित होकर हाथ में एक लकुल धारण करेंगे । इस स्थान का नाम कायावरोहण है। चित्र प्रशस्ति के अनुसार शिव लाट देश के कारोहण ( कायावरोहण सम्प्रति कर्जण ) नामक स्थान में पाशुपत मत के प्रचारक रूप से अवतरित हुए। वहाँ उनके चार शिष्य भी मनुष्य शरीर में प्रकट हुए थे कुशिक, गार्ग्य, कोरूष्य एवं मैत्रेय भूतपूर्व बड़ौदा राज्य में करवर वह स्थान है जहां आज भी लकुलीश का मन्दिर स्थित है । मैत्रेयी - बृहदारण्यक उपनिषद् (२, ४, १४,५, २ के अनुसार याज्ञवल्क्स्य की दो पत्नियों में से एक का नाम मैत्रेयी या संन्यास लेने के समय याज्ञवल्क्य ने अपनी सम्पत्ति को दोनों पत्नियों में बाँटने का आयोजन किया। इस मैत्रावरुण मोक्ष अवसर पर मैत्रेयी ने बड़ा मौलिक प्रश्न पूछा "क्या इस सम्पत्ति को लेने पर मैं संसार के दुःखों से मुक्त होकर अमर पद प्राप्त कर सकूँगी ?" नकारात्मक उत्तर मिलने पर उसने भी सम्पत्ति का त्याग कर निवृत्ति और श्रेय का मार्ग ग्रहण किया। मंत्र यी उपनिषद्-यह एक परवर्ती उपनिषद् है। मैनाक- मेनका (मेना, पार्वती की माता) का वंशज एक पर्वत, जो हिमालय का पुत्र कहा गया है। यह तैत्तिरीय आरण्यक (१.३२, २) में उद्धृत है। इसे मैनाग भी पढ़ते हैं। पुराणों के अनुसार इन्द्र के वज्र के भय से मैना दक्षिण समुद्र में निमग्न होकर रहने लगा है । मेहर यह विन्ध्य प्रदेश का एक शक्ति पीठस्थान है। मैहर -- । का शुद्धरूप 'मातृगृह' (देवी का गृह ) है | सतना स्टेशन से २२ मील दक्षिण मैहर है। यहाँ एक पहाड़ी पर शारदा देवी का मन्दिर है । स्थानीय जनश्रुति है कि ये सुप्रसिद्ध वीर आल्हा की आराध्यदेवी हैं। यह सिद्ध पीठ माना जाता है । पर्वत पर ऊपर तक जाने के लिये ५६० सीढ़ियाँ बनी हैं। प्राचीन विशाल मन्दिर को यवन आक्रमणकारियों ने तोड़ दिया था। उसके स्थान पर एक छोटा आधुनिक मन्दिर है। एक प्रस्तर फलक पर प्राचीन मन्दिर का स्थापना-अभिलेख सुरक्षित है। इसके अनुसार एक विद्वान् पण्डित ने अपने स्वर्गगत पुत्र की स्मृति में शारदा मन्दिर का निर्माण कराया था। मोक्ष - किसी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति या छुटकारा। जीवात्मा के लिये संसार बन्धन है यह कर्म के फल स्वरूप अथवा आसक्ति से उत्पन्न होता है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्धन उत्पन्न करते हैं । अतः मोक्ष का साधन कर्म नहीं है। इसका उपाय है ज्ञान अथवा विद्या (अध्यात्म विद्या) । साधक को जब सत्य का ज्ञान हो जाता है कि उसके और विश्वात्मा के बीच अभेद है, विश्वात्मा अर्थात् परब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है; संसार कल्पित, मायिक और मिथ्या है; संसार में सुखदुःख जन्म-मरण भी कल्पित और मिथ्या है, तब उसके ऊपर कर्म-फल और संसार का प्रभाव नहीं पड़ता और वह इनके बन्धनों से मुक्त हो जाता है । परन्तु यह निषेधात्मक स्थिति न होकर विशुद्ध और पूर्ण आनन्द को स्थिति है। भक्तिमार्गी सम्प्रदायों में भक्ति द्वारा प्रसन्न भगवान् के प्रसाद से मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षकारणतावाद य स्वीकार की गयी है जिसमें नित्य भगवान् की अत्यन्त सन्निधि प्राप्त होती है । मोक्षकारणतावाद - अनन्ताचार्यकृत एक ग्रन्थ का नाम । मोक्षधर्म - ( १ ) मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना अथवा धार्मिक कृत्यों को मोक्षधर्म कहा जाता है। ( २ ) महाभारत के बारहवें पर्व ( शान्तिपर्व) के अन्तगंत मोक्षधर्म पर्वाच्याय है। इसके उत्तरार्द्ध में कृष्ण की शिक्षाएँ संकलित हैं । इसमें कुछ ऐसे स्थल हैं जो अत्युतम एवं मौलिक हैं । मोक्षधर्म के समान ही महाभारत के पाँचवें 'उद्योगपर्व' छठे ( भीष्मपर्व ) एवं चौदहवें 'अश्वमेधपर्व के कुछ उपदेशपूर्ण अंश हैं, जो क्रमशः सनत्सुजातीय, भगवद्गीता और अनुगीता कहलाते हैं । मोक्षधर्म तथा ये तीनों अपने स्वतन्त्र रूप में पृथक् ग्रन्थ हैं । मोक्षधर्म पर्वाध्याय - दे० 'मोक्षधर्म' | मोक्षशास्त्र इसके अन्तर्गत वेदों का ज्ञानकाण्ड और उपा सनाकाण्ड आते हैं। समस्त दर्शन तथा सम्पूर्ण मोक्ष साहित्य, योगवासिष्ठ आदि इसी में गिने जाते हैं । विशेष विवरणार्थ दे० 'महाविद्याएँ' । मौन (१) मन की एकाग्रता के लिए एक धार्मिक अथवा यौगिक साधना, जिसमें वचन का संयम किया जाता है। (२) मुनि के वंशज मौन अनोवीन का पितृबोधक नाम, जिसका उद्धरण कौषीतकि ब्राह्मण (२३.५) में मिलता है। । मौन व्रत - ( १ ) श्रावण मास की समाप्ति के बाद भाद्रपद प्रतिपदा से सोलह दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए तो दुर्वांकुरों को लेकर उनमें सोलह ग्रन्थियाँ लगाकर दाहिने हाथ में (महिलाएँ बायें हाथ में) रखे । सोलहवें दिन जल लाने, गेहूँ पीसने, नैवेद्य तैयार करने से लेकर भोजन ग्रहण करने तक मौन धारण करना चाहिए। शिवप्रतिमा को जल, दुग्ध, दधि, घृत, मधु शर्करा से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। तदनन्तर पुष्पादि अर्पण करना चाहिए तथा यह प्रर्थना करनी चाहिए "शिवः प्रसीदतु म । इस आचरण से सन्तानोपलब्धि होती है तथा सारी कामनाएँ पूरी होती हैं । (२) मौन व्रत का अभ्यास आठ छः अथवा तीन मास तक या एक मास, आधा मास अथवा १२, ६, ३ दिन तक या एक ही दिन तक किया जाय मौन की शपथ लेने से, ६७ ५२९ कहा जाता है कि सर्व कामनाएँ तथा संकल्प पूरे होते हैं। (मौनं सर्वार्थसाधनम् ) । मौन व्रत धारण करने वाले को भोजन करते समय भी 'हम्' जैसा शब्द तक नहीं करना चाहिए। उसे मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्रकार की हिंसा न करनी चाहिए। व्रत की समाप्ति के उपरान्त चन्दन का शिवलिङ्ग बनवाकर गन्धाक्षतादि से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर सुवर्ण का घण्टा तथा अन्यान्य धातुओं के बने हुए घण्टे घण्टियाँ मन्दिर में सभी दिशाओं में लटका देने चाहिए। ब्राह्मणों तथा शिवभक्तों को इस अवसर पर स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। व्रती को किसी ताम्रपान में शिवलिङ्ग रखकर उसे सिर पर धारण कर सड़कों पर होते हुए शिवमन्दिर तक जाकर मन्दिर की प्रतिमा के दक्षिण पार्श्व में लिङ्ग स्थापित करके उसकी पुनः पूजा करनी चाहिए। इससे व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है । मौसल पर्व -- यह महाभारत का १६वाँ पर्व है । इसमें यदुवंश का नाश, अर्जुन द्वारा यादवशून्य द्वारका को देखकर दुखी होना, अपने मामा वसुदेव का सत्कारपूर्वक सुरापान, सभा में यदुवंशी वीरों का आत्यन्तिक विनाश देखना, राम और कृष्णादि प्रधान प्रधान यदुवंशियों का शरीरसंस्कार करके द्वारका से बाल, वृद्ध, वनिताओं को लाते समय राह में घोर विपत्ति में पड़ जाना, गाण्डीव का पराभव तथा सब दिव्यास्त्रों की विफलता, यादव कुलाङ्ग नाओं का अपहरण, पराक्रम की अनित्यता देख अत्यन्त दुःखी हो युधिष्ठिर के पास लौटना एवं व्यास के वाक्यानुसार संन्यास लेने की 'अभिलाषा करना मौसल पर्व के विषय हैं। इसमें ८ अध्याय एवं ३२० श्लोक हैं। इस पर्व में निर्वेद और संन्यास के उत्तम उपदेश हैं । दे० 'महाभारत' । य य-अन्तःस्थ वर्णों का प्रथम अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है : कारं शृणु नाङ्ग चतुष्कोणमयं सदा । पलालधूमसंका स्वयं परमकुण्डली | पञ्चप्राणमयं वर्णं पञ्चदेवमयं सदा । विशक्तिसहितं वर्णं विविन्दुसहितं तथा ॥ प्रणमामि सदा वर्णं मूर्तिमन्मोक्षमव्ययम् ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० यक्ष-यजुर्वेद तन्त्रशास्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं : यो वाणी वसुधा वायुविकृतिः पुरुषोत्तमः । युगान्तः श्वसनः शीघ्रो धूमाचिः प्राणिसेवकः ।। शङ्खाभ्रमो जटी लीला वायुवेगी यशस्करी । सङ्कर्षणः क्षमा बाणो हृदयं कपिला प्रभा ।। आग्नेय आपकस्त्यागो होमो यानं प्रभा मखम् । चण्डः सर्वेश्वरी धूमश्चामुण्डा सुमुखेश्वरी ।। त्वगात्मा मलयो माता हंसिनी भृङ्गिनायकः । तेनमः शोधको मीनो धनिष्ठानङ्गवेदिनी ।। मेष्टः सोमः पक्तिनामा पापहा प्राणसंज्ञकः ।। यक्ष-एक अर्ध देवयोनि । यक्ष (नपुंसकलिङ्ग) का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसका अर्थ है 'जादू की शक्ति अतएव सम्भवतः यक्ष का अर्थ जादू की शक्तिवाला होगा और निस्सन्देह इसका अर्थ यक्षिणी है । यक्षों की प्रारम्भिक धारणा ठीक वही थी जो पीछे विद्याधरों की हई। यक्षों को राक्षसों के निकट माना जाता है, यद्यपि वे मनुष्यों के विरोधा नहीं होते, जैसे राक्षस होते हैं। (अनुदार यक्ष एवं उदार राक्षस के उदाहरण भी पाये जाते हैं, किन्तु यह उनका साधारण धर्म नहीं है।) यक्ष तथा राक्षस दोनों ही 'पुण्यजन' (अथर्ववेद में कुबेर की प्रजा का नाम) कहलाते हैं। माना गया है कि प्रारम्भ में दो प्रकार के राक्षस होते थे; एक जो रक्षा करते थे वे यक्ष कहलाये तथा दूसरे यज्ञों में बाधा उपस्थित करने वाले राक्षस कहलाये । यक्षों के राजा कुबेर उत्तर के दिक्पाल तथा स्वर्ग के कोषाध्यक्ष कहलाते हैं । यक्षकर्दम-एक प्रकार का अङ्गराग, जो यक्षों को अत्यन्त प्रिय था। इसका निर्माण पाँच सुगन्धित द्रव्यों के सम्मिश्रण से होता है। धार्मिक उत्सवों और देवकार्यों में इसका विशेष उपयोग होता है । इसके घटक द्रव्य केसर, कस्तूरी, कपूर, कक्कोल और अगरु चन्दन के साथ घिसकर मिलाये जाते हैं : कुंकुमागुरु कस्तूरी कर्पूरं चन्दनं तथा । महासुगन्धमित्युक्तं नामतो यक्षकर्दमः ॥ यच-एक कल्पित भूतयोनि । संभवतः 'यक्ष' का ही यह एक प्राकृत रूप है । दरद प्राचीन आर्य जाति है जो गिलगित के इर्द-गिर्द कश्मीर एवं हिन्दुकुश के मध्य निवास करती है । यह दानवों में विश्वास करती है तथा उन्हें 'यच' कहती है । यच बड़े आकार के होते है, प्रत्येक के एक ही आँख ललाट के मध्य होती है। जब वे मानववेश धारण करते हैं तो उन्हें उनके उलटे पैरों से पहचाना जा सकता है। वे केवल रात को ही चलते हैं तथा पहाड़ों पर राज्य करते हुए मनुष्यों को खेती को हानि पहुँचाते हैं । वे प्रायः मनुष्यों को अपनी दरारों में खींच ले जाते हैं । किन्तु लोगों के इस्लाम धर्म ग्रहण करने से उन्होंने उन पर से अपना स्वामित्व भाव त्याग दिया है तथा अब कभी-कभी ही मनुष्यों को परेशान करते हैं। वे सभी क्रूर नहीं होते, विवाह के अवसर पर वे मनुष्यों से धन उधार लेते है तथा उसे धीरे-धीरे ऋण देनेवाले की अज्ञात अवस्था में ही पूरा चुका देते हैं । ऐसे अवसर पर वे मनुष्यों पर दयाभाव रखते हैं। इनकी परछाई यदि मनुष्य पर पड़े तो वह पागल हो जाता है। यजमान-यज्ञ करनेवाला। कोई भी व्यक्ति, जो स्वयं यज्ञ करता है, यज्ञ का व्ययभार वहन करता है अथवा ऋत्विक् या पुरोहित की दक्षिणा चकाता है, यजमान कहलाता है। सामान्य अर्थ में प्रश्रयदाता, आतिथेय, कुलपति अथवा किसी भी सम्पन्न व्यक्ति को यजमान कहते है । यजुर्योतिष-संस्कारों एवं यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहतों पर निश्चित समयों और निश्चित अवधियों के अन्दर होनी चाहिए। मुहूर्त, समय एवं अवधि का निर्णय करने के लिए एक मात्र ज्योतिष शास्त्र का अवलम्ब है । ज्योतिवेदांग पर अति प्राचीन तीन पुस्तकें मिलती है-- ऋग्ज्योतिष, यजुर्योतिष और अथर्वज्योतिष । 'यजुर्योतिष' इनमें पश्चात्कालिक रचना कही जाती है । यजर्वेद-यह द्वितीय वेद है। इसकी रचना ऋग्वेदीय ऋचाओं के मिश्रण से हुई है, किन्तु इसमें मुख्यतः नये गद्य भाग भी हैं। इसके अनेक मन्त्रों में ऋग्वेद से अन्तर पाया जाता है, जो परम्परागत ग्रन्थ के प्रारम्भिक अन्तर अथवा यजुः के यजनप्रयोगों के कारण हो गया है। यह पद्धतिग्रन्थ है जो पौरोहित्य प्रणाली में यज्ञक्रिया को सम्पन्न करने के लिए संगृहीत हुआ था। पद्धतिग्रन्थ होने के कारण यह अध्ययन का सुप्रचलित विषय बन गया । इसकी अनेक शाखाओं में से आजकल दो संहिताएँ मिलती हैं; प्रथम तैत्तिरीय तथा द्वितीय वाजसनेयी। इन्हें कृष्ण एवं शुक्ल यजुर्वेदीय संहिता भी कहते हैं। तैत्तिरीय संहिता अधिक प्राचीन है । दोनों में सामग्री प्रायः एक है, Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यजुष (स्)-यज्ञ किन्तु क्रम में अन्तर है । शुक्ल यजुर्वेदसंहिता अधिक क्रमबद्ध इस समस्या का अन्य अधिक बोधगम्य उत्तर यह है है तथा इसमें ऐसे अंश है जो कृष्ण यजुर्वेद में नहीं है। कि वाजसनेय याज्ञवल्क्य का पितृ (गुरु)बोधक नाम है, क्योंकि वे 'वाजसन' ऋषि के वंशज थे तथा तैत्तिरीय तैत्तिरीय संहिता अथवा कृष्ण यजुर्वेद ७ काण्डों, ४४ तित्तिर से बना है जो यास्क के एक शिष्य का नाम है । प्रश्नों या अध्यायों, ६५१ अनुवाकों अथवा प्रकरणों तथा वेबर इस वेद के सबसे बड़े आधुनिक विद्वान् माने जाते हैं। २१९८ कण्डिकाओं (मन्त्रों) मे विभक्त है। एक कण्डिका उनका मत है कि कितनी भी यह कथा अतर्कपूर्ण हो किन्तु में नियमतः ५५ शब्द होते हैं। वाजसनेयी संहिता ४० इसके भीतर एक सत्य छिपा हुआ है; कृष्ण यजुर्वेद विभिन्न अध्यायों, ३०३ अनुवाकों एवं १९७५ कण्डिकाओं में गद्य-पद्य शैलियों का अपरिपक्व एवं क्रमहीन ग्रन्थ है। विभक्त है। गोल्डस्टूकर का मत है कि इसका ऐसा अनगढ़ रूप इस इस वेद का विभाजन दो संहिताओं में क्योंकर हआ, कारण है कि इसमें मन्त्र एवं ब्राह्मण भाग स्पष्टता से इसका ठीक उत्तर ज्ञात नहीं है। परवर्ती काल में इस अलग नहीं है, जैसा कि अन्य वेदों में है। ब्राह्मणों से नाम की व्याख्या करने के लिए एक कथा का आविष्कार सम्बन्धित स्तुतियाँ तथा सामग्री यहाँ मन्त्रों से मिल-जल हुआ, जो विष्णु तथा वायु पुराणों में इस प्रकार कही ___ गयी है । यह दोष शुक्ल यजुर्वेद में दूर हो गया है । गयी है : यजुषस्)-पद्यात्मक ऋचाओं से भिन्न गद्यात्मक वेदमन्त्र। इसका शाब्दिक अर्थ है यज्ञ, पूजा, श्रद्धा, आदर आदि । वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने अपने २७ शिष्यों को। वेद का वह भाग, जिसका सम्बन्ध यज्ञ, पूजा आदि से यजुर्वेद पढ़ाया । शिष्यों में सबसे मेधावी याज्ञवल्क्य है यजुप (स) कहलाता है। यजुर्वेद का यह नाम इसलिए थे। इधर वैशम्पायन के साथ एक दुःखपूर्ण घटना घटी है कि इसके मन्त्र यज्ञक्रियाओं के अवसर पर उच्चरित कि उनकी भगिनी की सन्तान उनकी घातक चोट से मर होते हैं। गयी । पश्चात् उन्होंने अपने शिष्यों को इसके प्रायश्चित्त यज्ञ-यजन, पूजन, संमिलित विचार, वस्तुओं का वितरण । के लिए यज्ञ करने को बुलाया । याज्ञवल्क्य ने उन अकु- बदले के कार्य, आहुति, बलि, चढ़ावा, अर्प आदि के अर्थ शल ब्राह्मणों का साथ देने से इन्कार कर दिया तथा में भी यह शब्द व्यवहृत होता है। यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों परस्पर झगड़ा आरम्भ हो गया। गुरु ने याज्ञवल्क्य को और श्रौतसूत्रों में यज्ञविधि का बहुत विस्तार हुआ है। जो विद्या सिखायी थी, उसे लौटाने को कहा। शिष्य ने यज्ञ वैदिक विधानों में प्रधान धार्मिक कार्य है। यह इस उतनी ही शीघ्रता से यजुः ग्रन्थ को वमन कर दिया जिसे संसार तथा स्वर्ग दोनों में दृश्य तथा अदृश्य पर, चेतन उसने पढ़ा था । विद्या के कण भूमि पर कृष्ण वर्ण के रक्त तथा अचेतन वस्तुओं पर अधिकार पाने का साधन है। से सने हुए गिर पड़े । दूसरे शिष्यों ने तित्तिर बनकर उस जो इसका ठीक प्रयोग जानते हैं तथा विधिवत् इसका उगले हुए ग्रन्थ को चुग लिया। इस प्रकार वेद का वह सम्पादन करते हैं, वास्तव में वे इस संसार के स्वामी हैं। भाग जो इस प्रकार ग्रहण किया गया, नाम से तैत्तिरीय तथा यज्ञ को एक प्रकार का ऐसा यन्त्र समझना चाहिए जिसके रंग से कृष्ण हो गया । याज्ञवल्क्य खिन्न होकर लौट गये और सभी पुर्जे ठीक-ठीक स्थान पर बैठे हों; या यह ऐसी सूर्य की घोर तपस्या आरम्भ की और उनसे वह यजुः ग्रन्थ जंजीर है जिसकी एक भी कड़ी कम न हो; या यह ऐसी प्राप्त किया जो उनके गुरु को भी अज्ञात था। सूर्य ने वाजी सीढ़ी है जिससे स्वर्गारोहण किया जा सकता है; या यह ( अश्व ) का वेश धारण कर याज्ञवल्क्य को उक्त ग्रन्थ एक व्यक्तित्व है जिसमें सारे मानवीय गुण हैं। दिया था। अतएव वेद के इस भाग के पुरोहित 'वाजिन्' यज्ञ सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। सृष्टि की कहलाते हैं, जबकि संहिता वाजसनेयी तथा शुक्ल (श्वेत) उत्पत्ति यज्ञ का फल कही जाती है जिसे ब्रह्मा ने किया कहलाती है, क्योंकि यह सूर्य ने दी थी। याज्ञवल्क्य ने था। होमात्मक यज्ञ का विस्तार आहवनीय अग्नि से यह वेद सूर्य से प्राप्त किया, इसका उल्लेख कात्यायन ने होता है, जिसमें यज्ञ की सभी सामग्री छोड़कर स्वर्ग भेजी भी किया है। जाती है-मानो यज्ञ एक निसेनी का निर्माण करता है, Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ यज्ञमूर्ति-यतिधर्मसमुच्चय जिसके द्वारा यज्ञ करने वाला देवों तक यज्ञ की सामग्री अथवा अजिन (मगचर्म) । धागा अथवा सूत्र अर्थ नहीं है। पहुँचा सकता है तथा स्वयं भी उनके निवासों तक पहुँच इसे यज्ञोपवीत इसलिए कहते थे कि यह यज्ञ करने की सकता है। योग्यता अथवा अधिकार प्रदान करता था। यज्ञमति-एक अद्वैतवादी प्रौढ विद्वान्, जो रामानुज के (२) आगे चलकर इसका अर्थ 'पवित्र सूत्र' हो गया, समकालीन हुए हैं। कहा जाता है कि रामानुज स्वामी की जो 'यज्ञोपवीत' के प्रतीक अथवा प्रतिनिधि रूप में धारण बढ़ती हुई ख्याति को सुनकर यज्ञमूर्ति श्रीरङ्गम् में आये । किया जाने लगा । उपनयन संस्कार में ब्रह्मचारी को उनके साथ रामानुज का १६ दिनों तक शास्त्रार्थ होता यह पवित्र सूत्र प्रथम बार धारण करने को दिया जाता रहा, परन्तु कोई एक दूसरे को हराता हुआ नहीं दीख है। इस पवित्र सूत्र अथवा यज्ञोपवीत का इतना महत्त्व पड़ा। अन्त में रामानुज ने 'मायावादखण्डन' का अध्ययन बढ़ा कि पूरा उपनयन संस्कार ही यज्ञोपवीत कहलाने किया और उसकी सहायता से यज्ञमूर्ति को परास्त किया । लगा। यज्ञमूर्ति ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। तबसे उनका यज्ञोपवीत त्रिवृत (तीन लड़ों का) होता है । ब्राह्मण देवराज नाम पड़ा। उनके रचित 'ज्ञानसार' तथा 'प्रमेयसागर' नामक दो ग्रन्थ तमिल भाषा में मिलते हैं। बालक के लिए कपास का, क्षत्रिय के लिए क्षौम (अलसी सूत्र का) और वैश्य के लिए ऊन का यज्ञोपवीत होना यज्ञसप्तमी-यदि ग्रहण के पश्चात् आने वाली माघ की चाहिए। परन्तु सामान्यतः कपास का यज्ञोपवीत सभी सप्तमी हो तथा विशेष रूप से उस दिन संक्रान्ति हो तो व्रती को केवल एक बार हविष्यान्न खाकर रहना के लिए चलता है। यह बायीं भुजा के ऊपर से दाहिनी भुजा के नीचे लटकता है। प्रथम बार आचार्य निम्नांचाहिए। उसे उस दिन वरुण को प्रणाम करना चाहिए कित मन्त्र के साथ ब्रह्मचारी (उपनेय) को यज्ञोपवीत पहतथा भूमि पर, दर्भासन पर, बैठना चाहिए। द्वितीय दिवस नाता है : प्रातः एवं सायं वरुण का यज्ञ करना चाहिए। इस व्रत का बड़ा ही विशाल कर्मकाण्ड शास्त्रों में वर्णित है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । माघ की सप्तमी को वरुणदेव को, फाल्गुन की सप्तमी को आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।। सूर्य को, चैत्र की सप्तमी को अंशुमाली (सूर्य का पर्याय पर्वी के अवसर पर अथवा धार्मिक कार्य के समय भी वाची शब्द) को तथा अन्य मासों में भी इसी प्रकार सूर्य नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। तब इसी मन्त्र का वाचक नामों को सम्बोधित करते हुए यज्ञों का पौष मास प्रयोग होता है। तक आयोजन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में सोने का यति-एक प्राचीन कुल का नाम, जिसका सम्बन्ध भृगुओं रथ जिसमें सात घोड़े जुते हों तथा जिसके मध्य में सूर्य से ऋग्वेद के दो परिच्छेदों में बतलाया गया है (८.३.०६. की प्रतिमा विराजमान हो तथा जो बारह मास के १८)। यहाँ यति लोग वास्तविक व्यक्ति जान सूर्य के बारह नामों का प्रतिनिधित्व करने वाले बारह पड़ते हैं । दूसरी ऋचा में (१०.७२.७) वे पौराणिक दीख ब्राह्मणों से घिरा हो, बनवाकर उनका पूजन और पड़ते हैं । यजुर्वेद संहिता (तै० सं० २.४,९,२;६.२,७,५; सम्मान करना चाहिए। तदनन्तर वह रथ एक गौ सहित ___ का० सं० ८.५; १०.१० आदि) तथा अन्य स्थानों में यति आचार्य को प्रदान करना चाहिए। निर्धन व्यक्ति ताँबे का एक जाति है, जिसे इन्द्र ने किसी बुरे क्षण में सालावक रथ बनवाये। इस व्रत से व्रती विशाल साम्राज्य का (लकड़बग्धों) को खिला दिया था। ठीक-ठीक इसका क्या राजा होता है । हेमाद्रि के अनुसार वरुण का अर्थ यहाँ अर्थ है, ज्ञात नहीं । यति का उल्लेख भृगु के साथ सामवेद सूर्य है । __ में भी मिलता है। यज्ञोपवीत-(१) यज्ञोपवीत का अर्थ है 'यज्ञ के अवसर यतिधर्मसमुच्चय-वैष्णव संन्यासी दसनामी शैव संन्यापर ऊपर से लपेटा (धारण किया) हुआ वस्त्र' । इसका सिओं से भिन्न होते हैं। वैष्णवों में ब्राह्मण ही लिये सर्वप्रथम उल्लेख तैत्तिरीय ब्राह्मण (३. १०.९.१२) में जाते हैं जो त्रिदण्ड धारण करते हैं, जबकि दसनामी एकहुआ है। यहाँ स्पष्ट ही इसका अर्थ है वासः (वस्त्र) दण्डी होते हैं। दोनों सम्प्रदायों को त्रिदण्डी एवं एक Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतीन्द्रमतदीपिका-यम ५३३ दण्डी के अन्तर से पहचानते हैं । रामानुज के शिष्य यादव- यन्त्र-(१) नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद् के द्वितीय खण्ड में प्रकाश ने विदण्डियों के कर्तव्य पर एक ग्रन्थ रचा है एक यन्त्र बनाने का निर्देश है, जो नृसिंह के मन्त्रराज जिसका नाम यतिधर्मसमुच्चय है । तथा तीन और वैष्णव मन्त्रों से बनता है । इस यन्त्र को यतीन्द्रमतदीपिका----श्रीवैष्णव मत का सिद्धान्तबोधक गले, भुजा या शिखा में पहनते हैं, जिससे शक्ति मिलती है। एक उपयोगी संक्षिप्तसार ग्रन्थ । इसमें अनेकों ऐसे (२) शाक्तों के द्वारा विभिन्न देवताओं के रहस्यात्मक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हआ है जो आगमसंहिताओं में यन्त्रों की रचना, पूजाविधि और प्रयोग करना पर्याप्त नहीं प्राप्त होते । इसके रचयिता श्रीनिवास तथा रचना प्रचलित हैं । ये यन्त्र एवं मण्डल किसी धातुपत्र, भोजकाल १६५७ ई० के लगभग है। पत्र या मृत्तिकावेदी पर बनते हैं। साथ ही उन पर यदु--(१) यदू के वंश का भागवतधर्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेकानेक मुद्राएँ अथवा अक्षरन्यास निर्मित किये जाते भागवत सम्प्रदाय का एक नाम सात्वत सम्प्रदाय मी है। हैं, फिर उनमें देवता का आवाहन एवं पूजन मुख्य मन्त्र के सात्वत नाम पड़ने का कारण है इसका यदुवंश से द्वारा होता है। सम्बन्धित होना। सर्वप्रथम इस धर्म का प्रचार यदुओं यम-यम के पूर्वजों एवं सम्बन्धियों का ज्ञान अनिश्चित में ही हुआ। कूर्मपुराण में कथा है कि यदुवंश के एक है। एक वर्णन के अनुसार ( ऋ० १०.१७.१-२) यम प्राचीन राजा सत्वत् ने, जो अंशु का पुत्र था, इस सम्प्रदाय एवं उनकी बहिन यमी विवस्वान् एवं सरण्यु की सन्तान की विशेष उन्नति की । इसके पुत्र सात्वत ने नारद से हैं । विवस्वान् स्पष्टतः प्रकाश का देवता है, चाहे उसे भागवत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। इसी यदुवंशी उदीयमान सूर्य माने, प्रभापूर्ण आकाश माने या केवल भागवतधर्मप्रचारक के नाम पर इस सम्प्रदाय का नाम सूर्य मानें; अन्तर सामान्य पड़ता है । सरण्यु को सूर्या सात्वत पड़ा। अथवा उषा मान सकते हैं। विवस्वान् एवं सरण्यु कम(२) समाज की आवश्यकतानुसार अधिकांश ब्राह्मण और से-कम दो युगलों के माता-पिता अवश्य हैं । वे हैं यमक्षत्रिय अपने-अपने कार्य छोड़कर वैश्यों के गार्हस्थ्य धर्म का यमी तथा दो अश्विनौ । पालन करने लगे थे। इस प्रकार के कर्मसाकर्य के उदाहरण __ यम तथा यमी को चन्द्रमा एवं उषा के रूप में माना यदु थे। ये क्षत्रिय ययाति के पुत्र थे, किन्तु राज्याधिकार गया है, क्योंकि दोनों ही दिन व रात के गुणों में सम्मिलित न मिलने से पशुपालन आदि करने लगे। नन्द आदि हैं एवं दोनों की प्रेमकथा एक विवाह में समाप्त होती यादव ऐसे ही गोपाल थे। है ( ऋ० १०.८५.८-९)। इस आकाशीय, मानवीकृत (३) राजा ययाति ने छोटे पुत्र पुरु को राज्याधिकारी प्रेमव्यापार को हम उषःकालीन, पीले व हलके पड़ने बनाते हुए अपनी आज्ञा न मानने के कारण यदु आदि चार वाले चन्द्रमा में, जो अन्त में उषा में विलीन हो जाता पुत्रों को राज्यभ्रष्ट होने का शाप दिया था। विश्वास है, देख सकते हैं। किया जाता है, यदु आदि राजकुमार निर्वासित होकर आधुनिक दजला-फरात घाटी के देश पश्चिमेशिया चले एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार यम तथा यमी गये । आर्यावर्त से बाहर उस देश में इन्होंने अपना-अपना जलगन्धर्व एवं जल-अप्सरा की सन्तान हैं। राज्यतन्त्र स्थापित किया। वर्तमान जार्डन नदी और भारत-ईरानी काल से ही माना यम विवस्वान् का पुत्र जूडाई साम्राज्य यदुवंशी राज्यतन्त्र का ही पश्चाद्वर्ती जाता है, क्योंकि यह यिम, वीवन्ह्वन्त (पारसी देव) के अवशिष्ट स्मारक प्रतीत होता है। प्रभासपट्टन और पुत्र के तुल्य है। यम तथा यमी 'यिम' एवं 'यिमेह' से द्वारका बन्दरगाहों के मार्ग से यादवों का आवागमन मिलते-जुलते हैं। यमी एक ऋग्वेदीय मन्त्र (१०.१०) से वर्तमान आर्यावर्त में होता रहता था। उस देश में की सम्बन्धित है तथा 'यिमेह' लघु अवेस्ता (पारसी धर्मग्रन्थ) जा रही पुरातात्त्विक खोजों से इस तथ्य पर और अधिक के एक कथन 'बुन्दहिस' से । यम वैवस्वत (ऋ० १०.प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। १४,१) का एक अन्य रूप मनु वैवस्वत (४.१) के रूप में Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ प्राप्त होता है । निस्सन्देह दोनों का जन्म दो पौराणिक कचाओं से होता है। वे हमें मनुष्य के जीवन के आदिव भविष्य का परिचय देते हैं। ऋग्वेदीय धारणानुसार मनुष्यजाति के शीर्षस्थान पर आदि पुरुष मनु । जो प्रथम यज्ञ करने वाले थे (ऋ० १०.६३.७) हैं, या यम हैं जो पृथ्वी से स्वर्ग तक के पथ का अनुसन्धान कर चुके थे (ऋ० १० १४.१ -२) । यम एवं यमी को मानवजाति का माता-पिता मान सकते हैं । भाईबहिन का ॠग्वेदीय कथनोपकथन ( १०.१० ) इस प्रकार के सम्बन्ध की नैतिकता पर प्रकाश डालता है । यमी इस बात पर जोर देती है कि यम ही एक मात्र पुरुष है और विश्व को बसाने के प्रयोजनार्थ मानवसन्तानों की आवश्यकता है। दूसरी ओर यम भाई-बहिन के संयोग पर नैतिक आपत्ति उपस्थित करता है । जान पड़ता है कि यम एवं यमी प्रारम्भिक अवस्था में प्राकृतिक उपादानों के मानवीकरण के रूप थे, यथा चन्द्र तथा उषा एवं आकाश तथा पृथ्वी । यम के दो सन्देशवाहक कुत्ते हैं जो 'सरमा' के पुत्र होने के कारण सारमेय कहलाते हैं। उनका वर्णन (० १०.१४.१०-१२) बार आंखों, चौड़ी नाक, भूरे रंग वाले रूप में किया गया है । ये पृथ्वी से स्वर्ग के पथ की रक्षा करते हैं, मृत्यु के पात्रों को चुनते हैं तथा स्वर्गीय यात्रा में उनकी देख-भाल करते हैं । पौराणिक यम मृत्यु के देवता है, जिनका महिष (भैसा) वाहन है । उनके दो रूप हैं: यमराज और धर्मराज । यमराज रूप से वे दुष्ट मनुष्यों को दण्ड देकर नरकादि में भेजते हैं, धर्मराज के रूप में धर्मात्मा मनुष्य को स्वर्गादि में भेजकर पुरस्कृत करते हैं। यमचतुर्थी - शनि के दिन चतुर्थी हो और भरणी नक्षत्र हो तो यम का पूजन होना चाहिए। यम भरणी नक्षत्र का स्वामी है । इस व्रत से सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं । यमदीपदान कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को सायंकाल गृह के बाहर दीपों की पंक्ति प्रज्वलित की जानी चाहिए। इससे दुर्घटना जन्य ( अकाल ) मृत्यु रुक जाती है । यमद्वितीया भविष्योत्तर पुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमराज के प्रीत्पर्य यह व्रत किया जाता है। बहिनें इसको अपने भाइयों की मृत्यु के देवता से रक्षाप्राप्ति के लिए करती हैं । इस त्यौहार दिन बहिनों के के -- ----- यमदीपदान-यमुना घर जाकर भोजन करने, उनसे टीका लगवाने एवं उन्हें उपहार देने का प्रचार लगभग सम्पूर्ण भारत में है । इसे 'भैयादूज' या 'भ्रातृद्वितीया' भी कहते हैं । यमद्वितीया के दिन यम की बहिन और सूर्यपुत्री यमुना में स्नान करने का विधान है। इससे यमराज प्रसन्न होते हैं। इस पर्व पर मथुरा मे यमुनास्नान करने का भारी मेला होता है । यमल – यमल का अर्थ है जोड़ा । युग्म देवता तथा उनकी शक्ति की एकता ( यौन संयोग ) इससे सूचित होती है । यमल शब्द से ही 'वामल' बना है, जो शिव-पार्वती जैसे युग्म देवताओं के संवाद रूप में विरचित ग्रन्थ है । यमादर्शनत्रयोदशी मार्गशीर्ष मास की त्रयोदशी को सप्ताह के पुनीत दिनों में ( रविवार और मंगलवार छोड़कर ) मध्याह्न से पूर्व ही तेरह ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए। उन्हें तिल का तेल शरीर मर्दन के लिए तथा गर्म जल स्नान के लिए दिया जाय, तदनन्तर उन्हें अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराया जाय और यह कार्य एक वर्ष तक प्रति मास हो तो इस आचरण से व्रती को कभी भी यमराज का मुख नहीं देखना पड़ेगा । यमुना - एक प्रसिद्ध और पवित्र नदी यह यमुना ( युग्म में से एक ) इसलिए कही जाती है कि यह गङ्गा के समानान्तर बहती है । इसका उल्लेख ऋग्वेद में तीन बार हुआ है। ऋग्वेदानुसार (७.१८.१९) त्रित्सु एवं सुदास ने शत्रुओं के ऊपर यमुनातट पर महान् विजय प्राप्त की थी। हॉपकिन्स का यह मत कि यहाँ यमुना परुष्णीका अन्य नाम है, अग्राह्य है, क्योंकि त्रिमुओं का राज्य यमुना व सरस्वती के बीच में स्थित था । अथर्ववेद ( ४.९.१०) में यमुना के अन का उल्लेख त्रिककुद (क कुद ) के साथ हुआ है । ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्रा० के अनुसार भरतों की ख्याति यमुना तट की विजय से हुई । अन्य ब्राह्मण भी यमुना को उद्धृत करते हैं । मन्त्रपाठ (२.११.१२) में सात्य लोग इसके तट पर निवास करने वाले कहे गये है। पुराणों के अनुसार यम (सूर्य) की पुत्री होने के कारण यह नदी यमुना कहलाती है भारत की साठ पवित्र नदियों में इसकी गणना है --- गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति । कावेरि नर्मदे सिन्धोजलेऽस्मिन्सन्निधि कुरु ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमुनास्नानतर्पण-याज्ञिको भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण के सम्पर्क के कारण याज्ञवल्क्य आश्रम-बिहार प्रदेश के दरभंगा-सीतामढ़ी मार्ग इसका महत्त्व बहुत बढ़ गया है, जिस प्रकार राम के के बीच रमौल ग्राम पड़ता है। यहाँ शिवमन्दिर है, इसी सम्पर्क से सरयू नदी का । के पास गौतमकुण्ड और वटवृक्षों का वन है। यहाँ पर यमुनास्नानतर्पण-इस व्रत के अनुसार यमुनाजल में खड़े महर्षि याज्ञवल्क्य का आश्रम बतलाया जाता है। होकर यमराज के भिन्न-भिन्न नामों के साथ तिलमिश्रित जल याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्र-धर्मशास्त्र (विधि) में मानवधर्मकी तीन-तीन अञ्जलियों से उनका तर्पण करना चाहिए। शास्त्र ( मनुस्मति ) के पश्चात् दूसरा स्थान याज्ञवल्क्ययाग-(१) देवता को सामग्री अर्पण करना, अर्थात् यज्ञकर्म । धर्मशास्त्र का है। इसका दूसरा नाम है याज्ञवल्क्यस्मति । इसमें अग्नि, जल, देवमूर्ति, अतिथि अथवा अन्तरात्मा को दे० 'याज्ञवल्क्यस्मति' । उपहार चढ़ाया जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में कई प्रकार के याज्ञवल्क्यस्मृति-मानव धर्मशास्त्र (मनुस्मृति) अन्य सभी अग्निसाध्य यागों का वर्णन है। (२) इसी प्रकार वैष्णव स्मृतियों का आधार है। इसके बाद दूसरा स्थान याज्ञउपासक किसी प्रथम गुरु का चुनाव कर उससे दीक्षा लेता वल्क्यस्मृति का है । इस स्मृति में तीन अध्याय हैं; आचार, है। दीक्षान्तर्गत पाँच कृत्य हैं : (१) ताप ( साम्प्रदायिक व्यवहार और प्रायश्चित्त । इनमें निम्नांकित विषय हैं: चिह्न का शरीर पर अङ्कन ) (२) पुण्ड्र ( साम्प्रदायिक चिह्न को ललाट आदि पर चन्दन से बनाना ) (३) नाम (१) आचाराध्याय-वर्णाश्रमप्रकरण, स्नातक · व्रत ( अपना साम्प्रदायिक नाम ग्रहण करना ) (४) मन्त्र प्रकरण, भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण, द्रव्यशुद्धि प्रकरण, दान ( आराध्य देव का मन्त्र ग्रहण करना ) एवं (५) याग । प्रकरण । ( देवता की पूजा )। (२) व्यवहाराध्याय-प्रतिभू प्रकरण, ऋणादान प्रकयाज्ञवल्क्य-(१) यजुर्वेद के शाखाप्रवर्तक ऋषि । इनका रण, निक्षेपादि प्रकरण, साक्षिप्रकरण, लेख्यप्रकरण, दिव्य उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों के प्रश्न पर एक प्रकरण, दायभाग, सीमाविवाद, स्वामिपाल विवाद, महान् अधिकारी विद्वान के रूप में मिलता है। बहदा अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, संविद्व्यतिक्रम, रण्यक उपनिषद् में इन्हें दर्शन का अधिकारी विद्वान वेतनादान, द्यूतसमाह्वय, वाक्पारुष्य, दण्डपारुष्य, साहस, माना गया है । ये उद्दालक आरुणि के शिष्य थे जिन्हें एक विक्रीयासम्प्रदान, सम्भूय समुत्थान, स्तेय एवं स्त्रीसंग्रह विवाद में इन्होंने हरा दिया था। बृहदारण्यक उपनिषद् प्रकरण । में इनकी दो पत्नियाँ-मैत्रेयी तथा कात्यायनी का उल्लेख है। (३) प्रायश्चित्ताध्याय-अशौच, आपत्कर्म, वानप्रस्थ, साथ हो यहाँ याज्ञवल्क्यकृत वाजसनेयी शाखा ( शुक्ल यति, अध्यात्म, ब्रह्महत्या प्रायश्चित्त, सुरापान प्रायश्चित्त, यजर्वेद ) का भी उल्लेख है। आश्चर्य की बात है कि सुवर्णस्तेय प्रायश्चित्त, स्त्रीवध प्रायश्चित्त एवं रहस्ययाज्ञवल्क्य शतपथ ब्राह्मण तथा शाङ्खायन आरण्यक को प्रायश्चित्त प्रकरण । छोड़कर किसी भी वैदिक ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं हैं । कहा जाता है कि ये विदेह के रहने वाले थे, परन्तु जनक याज्ञवल्क्यस्मृति पर कई भाष्य और टीकाएँ लिखी की सभा में इनकी उपस्थिति होते हुए भी उद्दालक से गयी हैं, जिनमें 'मिताक्षरा' सबसे प्रसिद्ध है। हिन्दू विधि में मिताक्षरा का सिद्धान्त बंगाल को छोड़सम्बन्ध (जो कुरु-पश्चाल के थे ) होने के कारण इनका कर समग्र देश में माना जाता रहा है। बंगाल में 'दायविदेहवासी होना संदेहात्मक लगता है। भाग' मान्य रहा है। (२) स्मृतिकार के रूप में भी याज्ञवल्क्य प्रसिद्ध हैं। इनके नाम से प्रख्यात 'याज्ञवल्क्यस्मृति' धर्मशास्त्र का याज्ञिको-तैत्तिरीय आरण्यक का दसवाँ प्रपाठक याज्ञिकी एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। स्पष्टतः यह परवर्ती ग्रन्थ है। या नारायणीयोपनिषद् के नाम से विख्यात है। सायणाइसका विकास याज्ञवल्क्य के धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय में हुआ। चार्य ने याज्ञिकी उपनिषद् पर भाष्य रचा है और विज्ञान्यायव्यवस्था एवं उत्तराधिकार के सम्बन्ध में हिन्दू नात्मा ने इस पर स्वतंत्र वृत्ति और 'वेदविभूषण' नाम विधि के अन्तर्गत इस स्मृति का मुख्य स्थान है। की अलग व्याख्या लिखी है। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यातुधान-यामुनाचार्य याज्ञिकी अथवा नारायणीय उपनिषद् में मूर्तिमान् ब्रह्मतत्त्व का विवरण है। शङ्कराचार्य ने इसका भाष्य लिखा है। यातुधान-मनुष्येतर उपद्रवी योनियों में राक्षस मुख्य हैं, इनमें यातु ( माया, छल-छद्म ) अधिक था इसलिए इनको यातुधान कहते थे । ऋग्वेद में इन्हें यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुँचाने वाला कहा गया है । इनके पास प्रभूत शक्ति होती है एवं रात को जब ये घूमते हैं (रात्रिञ्चर ) तो अपने क्रव्य ( शिकार ) को खाते हैं, बड़े ही घृणित आकार के होते हैं तथा नाना रूप ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते हैं। ऋग्वेद में रक्षस् एवं यातुधान में अन्तर किया गया है, किन्तु परवर्ती साहित्य में दोनों पर्याय हैं । ये दोनों प्रारम्भिक अवस्था में यक्षों के समकक्ष थे। किन्तु रामायण-महाभारत की रचना के पश्चात् राक्षस अधिक प्रसिद्ध हुए। राक्षसों का राजा रावण राम का प्रबल शत्रु था। महाभारत में भीम का पुत्र घटोत्कच राक्षस है, जो पाण्डवों की ओर से युद्ध करता है। विभीषण, रावण का भाई तथा भीमपुत्र घटो- त्कच भले राक्षसों के उदाहरण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि असुरों की तरह ही राक्षस भी सर्वथा भय की वस्तु नहीं होते थे। यात्रा ( रथयात्रा या रथोत्सव )-प्राचीन काल से ही देवताओं की यात्राएँ बड़ी प्रसिद्ध है। कालप्रिय नाथ की यात्रा के अवसर पर भवभूति का प्रसिद्ध नाटक 'महावीरचरित' मञ्च पर खेला गया था। 'यात्रातत्त्व' नामक ग्रंथ रघुनन्दन द्वारा बंगाल में रचा गया था। इस ग्रन्थ में विष्णु ( जगन्नाथजी) सम्बन्धी बारह उत्सव वर्णित हैं। मुरारि कवि द्वारा रचित 'अनर्घराघव' नाटक पुरुषोत्तमयात्रा के समय ही रंगमंच पर खेला गया था। देवयात्राविधि के लिए दे० कृत्यकल्पतरु, पृ० १७८-८१ (ब्रह्मपुराण से)। यादवगिरिमाहात्म्य-नारद पुराण में उद्धृत यह अंश दत्तात्रेय सम्प्रदाय ( मानभाउ सम्प्रदाय ) का वर्णन करता है। यादवप्रकाश-रामानुज स्वामी के प्रारम्भिक दार्शनिक शिक्षागुरु । यादवप्रकाश शङ्कर के अद्वैतमत को मानने वाले थे और रामानुज विशिष्टाद्वैत को । अतएव गुरु-शिष्य में अनेक बार विवाद हुआ करता था। अन्त में रामानुज ने गुरु पर विजय प्राप्त की और उन्हें वैष्णव मतावलम्बी बना लिया । इनका लिखा हुआ वेदान्तसूत्र का यादवभाष्य अब दुर्लभ है। धीवैष्णव सम्प्रदाय के संन्यासियों पर इनका अन्य ग्रन्थ यतिधर्मसमुच्चय है । इनका अन्य नाम गोविन्द जिय भी था। स्थितिकाल ११वीं शताब्दी था। ये कांची नगरी के रहने वाले थे। यान-(१) साधक के परलोक प्रयाण के दो मार्ग या प्रकार । उपनिषदों और गीता (८,२३-२८) में इनका विवेचन भली प्रकार हुआ है। (२) बौद्ध उपासकों में तीन साधनामार्ग प्रचलित हैं : हीनयान, महायान और वज्रयान । महायान के श्रेष्ठ तन्त्र 'तथागतगुह्यक' से पता लगता है कि रुद्रयामल में जिसे वामाचार या कौलाचार कहा गया है, वही महायानियों का अनुष्ठेय आचार है। इसी सम्प्रदाय से कालचक्रयान या कालोत्तर महायान तथा वज्रयान की उत्पत्ति हई। नेपाल के सभी शाक्त बौद्ध वज्रयान सम्प्रदाय के अनुयायी हैं । यामल-तन्त्र शास्त्र तीन भागों में विभक्त है : आगम, यामल और मुख्य । जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्यकृत्यक्रम, सूत्र, वर्ण भेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं। वास्तव में यामल शब्द यमल से बना है जिसका अर्थ 'जोड़ा' होता है ( अर्थात् देवता तथा उसकी शक्ति का परस्पर रहस्यसंवाद)। यामलतन्त्र आठ हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी, उमा, स्कन्द, गणेश तथा ग्रहपरक हैं। यामुनाचार्य-श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक प्रधान आचार्य नाथमुनि थे (९६५ वि० )। उनके पुत्र ईश्वरमुनि तथा इनके पुत्र यामुनाचार्य थे। ईश्वरमुनि की मृत्यु बहुत ही अल्पावस्था में हो गयी। यामुनाचार्य तब दस वर्ष के बालक थे। इनका जन्स १०१० वि० में वीरनारायणपुर या मदुरा में हुआ था। ये अपने गुरु श्रीमद्भाष्याचार्य से शिक्षा लेने तथा १२ वर्ष की अवस्था में ही स्वभाव की मधुरता एवं बुद्धि की प्रखरता के बल पर पांडय राज्य के प्रभावशाली व्यक्ति मान लिये गये। नाथमुनि पुत्र के मृत्युशोक से संन्यासी हो रङ्गनाथ के मन्दिर में रहने लगे थे । फिर भी वे अपने पौत्र का हितचिन्तन करते रहते थे। मृत्यु के समय उन्होंने अपने शिष्य राममिश्र से कहा Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यामुनाचार्य-यास्क ५३७ 'देखना, कहीं यामुनाचार्य विषयभोग में फंसकर अपने है, सत्यसङ्कल्प एवं असीम सुखसागर है। ईश्वर पूर्ण कर्तव्य को न भूल जाय । इसका भार मैं तुम्हारे ऊपर है, जीव अणु है । जीव अंश है, ईश्वर अंशी है। मुक्त छोड़ता हूँ।' जीव ईश्वरभाव को प्राप्त नहीं होता। जगत् ब्रह्म का इन्हीं राममिश्र की शिक्षा से प्रभावित होकर यामुना परिणाम है । ब्रह्म ही जगत् के रूप में परिणत हुआ है। चार्य रङ्गनाथ के सेवक हो गये । उन्होंने अपने दादा का जगत् ब्रह्म का शरीर है, ब्रह्म जगत् का आत्मा है । आत्मा छोड़ा हुआ सच्चा धन प्राप्त कर लिया, पश्चात् अपना और शरीर अभिन्न हैं । अतएव जगत् ब्रह्मात्मक है । शेष जीवन भगवत्सेवा तथा ग्रन्थप्रणयन में बिताया। यास्क-वैदिक संज्ञाओं के व्युत्पत्तिरचयिता या प्रसिद्ध उन्होंने संस्कृत में चार ग्रन्थ लिखे हैं-स्तोत्ररत्न, सिद्धि- निरुक्तकार । वैदिक शब्दों के परिज्ञान के लिए इनका त्रय, आगमप्रामाण्य और गीतार्थसंग्रह। इनमें सबसे निरुक्त बहुत उपयोगी है । इनका जीवनकाल दसवीं शती प्रधान सिद्धित्रय है । यह गद्य और पद्य में लिखा गया ई० पू० के लगभग था । निरुक्त तीसरा वेदाङ्ग माना है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन जाता है । यास्क ने पहले 'निघण्टु' नामक वैदिक शब्दकिया है। कोश तैयार किया था, निरुक्त एक प्रकार से उसी की यामुनाचार्य रामानुज स्वामी के परम गुरु थे । यामुना टीका है । इससे वैदिक शब्दों का व्युत्पत्तिपरक अर्थ प्रकट चार्य का रामानुजाचार्य पर बड़ा प्रेम था। उन्होंने होता है । निघण्टु और निरुक्त में इतना अधिक विषय साम्य है कि सायणाचार्य ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिमृत्युकाल में रामानुज का स्मरण किया, परन्तु उनके का में निघण्टु को भी निरुक्त कहा है । निरुक्त अध्ययन पहुँचने के पूर्व ही वे नित्यधाम को पहुँच गये । करने के लिए वैयाकरण होना आवश्यक है । व्याकरण सिद्धान्त : विशिष्टाद्वैत' शब्द दो शब्दों के मिलने से शास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बड़ा महत्त्व है । निरुक्त के बना है-विशिष्ट और अद्वैत । विशिष्ट का तात्पर्य है अपने विषय निम्नांकित हैंचेतन और अचेतनविशिष्ट ब्रह्म, और अद्वैत का मतलब वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ । है अभेद या एकत्व । अतएव चेतनाचेतन विभाग विशिष्ट धातोस्तथार्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।। ब्रह्म के अभेद या एकत्व के निरूपण करने वाले सिद्धान्त निरुक्त में तीन काण्ड हैं-(१) नघण्टुक ( २) का नाम विशिष्टाद्वैतवाद है। यामुनाचार्य ने इन्हीं नैगम और ( ३ ) दैवत । इसमें परिशिष्ट मिलाकर कुल सिद्धान्तों की स्थापना अपने ग्रन्थों में की है। चौदह अध्याय हैं । यास्क ने शब्दों को धातुज माना है शाङ्कर मतानुयायी सुरेश्वराचार्य के विचार से ज्ञान स्व और धातुओं से व्युत्पत्ति करके उनका अर्थ निकाला है। प्रकाश है, अखण्ड है, कूटस्थ है, नित्य है, ज्ञान ही आत्मा यास्क ने वेद को ब्रह्म कहा है और उसको इतिहास, है, ज्ञान ही परमात्मा है, ज्ञान निष्क्रिय है, ज्ञान में भेद ऋचाओं और गाथाओं का समुच्चय माना है ( तत्र नहीं है, ज्ञान आपेक्षिक नहीं है । यामुनाचार्य इस मत को ब्रह्मेतिहासमिश्रं ऋमिथं गाथामिथं च भवति ) । जब अवैदिक मानते हैं। उनके मत में ज्ञान आत्मा का धर्म यास्क ने अपना निरुक्त रचा उस समय तक अनेक वैदिक है । शावर मत में आत्मा ज्ञानस्वरूप है परन्तु यामुना शब्दों के अर्थ अस्पष्ट और अज्ञात हो चुके थे । अपने एक चार्य के मत में आत्मा ज्ञाता है। ज्ञातृत्व शक्ति आत्मा पूर्ववर्ती निरुक्तकार के मत का उल्लेख करते हुए उन्होंने की है, ज्ञान सक्रिय है, शङ्कर के मत में ज्ञान निष्क्रिय लिखा है, "वैदिक ऋचाएँ अस्पष्ट, अर्थहीन और परस्पर है । यामुन के मत में ज्ञान सविशेष है, शाङ्कर मत में विरोधाभास वाली हैं।" इससे यास्क सहमत नहीं थे। निर्विशेष है । यामुन के मत में ज्ञान आपेक्षिक है, शाङ्कर इनके पूर्व सत्रह निरुक्तकार हो चुके थे । यास्ककृत निरुक्त मत में ज्ञान स्वप्रकाश है। के प्रसिद्ध टीकाकार दुर्गाचार्य हुए । अपने टीकाग्रन्थ पर __ यामुन के मत में श्रुति ही आत्मप्रतिपत्ति का प्रमाण उन्होंने एक निरुक्तवातिक भी लिखा जो अब उपलब्ध है। ईश्वर पुरुषोत्तम है तथा जीव से श्रेष्ठ है । जीव नहीं है। दर्गाचार्य के अतिरिक्त बर्बरस्वामी, स्कन्द कृपण है और दुःख-शोक में डूबा रहता है; ईश्वर सर्वज्ञ महेश्वर और वररुचि ने भी निरुक्त पर टीकाएँ लिखी है। ६८ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ युगादिव्रत सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग का प्रारम्भ क्रमशः वैशाख शुक्ल ३ कार्तिक शुक्ल ९, भाद्र कृष्ण १३ तथा माघ की अमावस्या को हुआ था । इन दिनों में उपवास, दान, तप, जप तथा होमादि का आयोजन करने से साधारण दिनों से करोड़ों गुना पुण्य होता है। वैशाख शुक्ल तृतीया को नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन और लवणधेनु का दान, कार्तिक शुक्ल नवमी को शिव तथा उमा का पूजन और तिलधेनु का दान, भाद्र कृष्ण त्रयोदशी को पितृगण का सम्मान, माघ की अमावस्या को गायत्रीसहित ब्रह्माजी का पूजन और नवनीतधेनु के दान करने का विधान है। इन कृत्यों से कायिक, वाचिक, मानसिक सभी प्रकार के पापों का क्षय हो जाता है । युगान्तश्राद्ध - चारों युग क्रमशः निम्नोक्त दिनों में समाप्त होते हैं—सिंह संक्रान्ति पर सत्ययुग, वृश्चिक संक्रान्ति पर त्रेता, वृष संक्रान्ति पर द्वापर तथा कुम्भ की संक्रान्ति पर कलियुग समाप्त होता है इन संक्रान्तियों के आरम्भिक दिनों में पितृगणों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध करना चाहिए। --- युगावतारव्रत भाद्र कृष्ण प्रयोदशी को द्वापर युग का आरम्भ हुआ था । उस दिन शरीर में गोमूत्र, गोमय दुर्वा तथा मृत्तिका मलकर नदी अथवा सरोवर के गहरे जल में स्नान करना चाहिए। इस आचरण से गया में किये गये श्राद्ध का पुण्य प्राप्त होगा । साथ ही भगवान् विष्णु की प्रतिमा को घी, दूध तथा शुद्ध जल से स्नान कराना चाहिए इस कृत्य से विष्णुलोक प्राप्त होता है । युधिष्ठिर महाभारत के नायकों में समुज्ज्वल चरित्र वाले ज्येष्ठ पाण्डव। वे सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात है। अनेकानेक धर्म सम्बन्धी प्रश्न एवं उनके उत्तर युधिष्ठिर के मुख से महाभारत में कहलाये गये हैं । शान्तिपर्व में सम्पूर्ण समाजनीति, राजनीति तथा धर्मनीति युधिष्ठर और भीष्म के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है । यूप-यज्ञ का स्तम्भ, जिसमें बलिपशु बाँधा जाता था । आगे चलकर सभी प्रकार के यज्ञस्तम्भों और स्वतन्त्र धार्मिक स्तम्भों के अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग होने लगा । यूपारोहण - वाजपेय यज्ञ सोमयज्ञों के अन्तर्गत है । इसमें रथदौड़ की मुख्य क्रिया होती थी। इसकी एक क्रिया यूपारोहण अर्थात् यज्ञयूप पर चढ़ना भी है । इसमें गेहूं के आटे से बने हुए चक्र को, जो सूर्य का प्रतीक माना जाता - युगादिप्रयोग (दर्शन) है, धूप के सिरे पर रखते हैं। यज्ञ करने वाला सीढ़ी की सहायता से इस पर उप पर चढ़कर चक्र को पकड़ते हुए मन्त्रोच्चारण करता है - 'हे देवी, हम सूर्य पर पहुँच गये हैं। भूमि पर उतरकर वह लकड़ी के सिहासन पर बैठता और अभिषिचित किया जाता है। योग ( दर्शन ) - धार्मिक साधना का प्रसिद्ध मार्ग । यह दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ और इस दर्शन के रचयिता पतंजलि ये दीर्घ काल तक महाभाष्यकार पतंजलि (दूसरी शताब्दी ई० पू० ) को योगसूत्र का प्रणेता समझा जाता रहा है, इसी कारण यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थ को सभी दर्शनों के सूत्रों से प्राचीन मान लिया था । किन्तु सूत्रों में महाभारत एवं योग सम्बन्धी उपनिषदों के भी विचारों का विकसित रूप पाये जाने के कारण तथा इसके अन्तर्गत बौद्ध विज्ञानवाद की आलोचना होने के कारण यह मान लिया गया है कि इसके रचयिता अन्य कोई पतञ्जलि हैं एवं उनकी तिथि ईसवी चौधी शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती । गम्भवतः सांख्यकारिका की महान लोक प्रियता ने योगसूत्र लिखने की प्रेरणा दी हो। विज्ञानवाद तथा योगाचार मत का ३०० ई० के लगभग उदित होना इस बात की पुष्टि करता है कि योगसूत्र इसके बाद का है, क्योंकि योग का इनमें बहुत बड़ा स्थान है । योगदर्शन की पदार्थप्रणाली में सांख्य के २५ तत्त्व स्वीकृत हैं तथा वह ईश्वर को इनमें २६ वें तत्त्व के तौर पर जोड़ता है । इसलिए यह 'सेश्वर सांख्य' कहलाता है, जबकि कपिल सांख्य को 'निरीश्वर सांख्य' कहते हैं । किन्तु योग की विशेषता इन तत्वों पर माथापच्ची न करते हुए साधना प्रणाली का अभ्यास तथा ईश्वरभक्ति है, क्योंकि इसका लक्ष्य आत्मा को कैवल्य पद प्राप्त कराना है । योगसाधक सतत अभ्यास करते हुए वित्त की क्रियाओं पर सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है ( योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः) । इसके साधन है नैतिक आचरण, तपश्चरण, शारीरिक तथा मानसिक व्यायाम, फिर केन्द्रित ध्यान तथा गहरा चिन्तन | इनके द्वारा प्रकृति एवं आत्मा का अन्तर्ज्ञान एवं अन्त में कैवल्य प्राप्त होता है। अष्टाङ्ग योग के आठ अंग निम्नांकित है(१) यम (२) नियम (३) आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा (७) ध्यान और (८) समाधि इसको राजयोग भी कहते हैं। यह सभी मनुष्यों के लिए उन्मुक्त Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगउपनिषद-योगवासिष्ठ है, यहाँ तक कि जातिच्युत भी इसका अभ्यासी हो सकता ये अभ्यास बाहरी साधन कहलाते हैं । इस बाहरी योगाहै । योग अभ्यास करने वाले संन्यासी योगी कहलाते हैं। भ्यास से मनुष्य चेष्टाशून्य हो जाता है। इस अवस्था को पतञ्जलि के सूत्रों पर वाचस्पति मिश्र, व्यास मुनि, योगनिद्रा' ( योग में निद्रा या लय ) कहते हैं जो मुक्ति विज्ञानभिक्षु, भोजराज, नागेशभट्ट आदि विद्वानों की अवथा कैवल्यावस्था के पूर्व की अवस्था है। . व्याख्या, टीका, वृत्तियाँ आदि प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। योगपाद-शैव आगओं की तरह संहिताओं में चार योग उपनिषद्-विषयानुसार विभाजन करने पर उपनिषदों प्रकरण होते हैं : के वेदान्त, योग, संन्यास, शैव, वैष्णव, गाणपत्य आदि अनेक (१) ज्ञानपाद : दार्शनिक ज्ञान प्रकार हो जाते है । योगविषयक उपनिषदों में योगा- (२) योगपाद : योग की शिक्षा व अभ्यास नुशासन के प्राचीन छ: अंगों पर विचार किया गया है (३) क्रियापाद : मन्दिर तथा प्रतिमाओं का निर्माण (आगे चलकर वे आठ हो गये-अष्टांग योग) तथा पवित्र (४) चर्यापाद : धार्मिक क्रियाएँ । 'ओम' पर ध्यान केन्द्रित करने पर उनमें विशेष बल दिया योगमत-भारत में योग विद्या से सम्बन्ध रखने वाले अनेक गया है। ये ग्रन्थ मैत्रायणी तथा चलिका के पीछे सम्प्रदाय प्रचलित हैं। उनमें प्रमुख है 'नाथ सम्प्रदाय' रचे गये हैं, किन्तु वेदान्तसूत्र एवं योगसूत्रों के पूर्व के हैं। जिसका वर्णन पिछले अक्षरक्रम में हो गया है । योग का __ योग सम्बन्धी उपनिषदें पद्यबद्ध हैं तथा चूलिका की दूसरा साधक है 'चरनदासी पन्थ' । इसका भी वर्णन किया अनुगामी हैं । इनमें सबसे प्राचीन है 'ब्रह्मबिन्दु' जो मैत्रा जा चुका है। योगमत के अन्तर्गत शब्दाद्वैतवाद भी आता यणीकालीन है । क्षुरिका, तेजोबिन्दु, ब्रहाविद्या, नादबिन्दु, है, क्योंकि किसी न किसी रूप में सभी योग मतावलम्बी योगशिखा, योगतत्त्व, ध्यानबिन्दु, अमृतबिन्दु इस वर्ग की शब्द की उपासना करते हैं। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन मुख्य उपनिषदें हैं, जो संन्यासवर्गीय उपनिषदों तथा महा है । प्रणव के रूप में इसका मूल तो वेदमन्त्रों में हो भारत के समकालीन हैं। केवल इस वर्ग की 'हंस' पर वर्तमान है । इसका प्राचीन नाम प्रणववाद अथवा स्फोटवर्ती अनिश्चित तिथि की रचना है। वाद है । इसका वर्णन आगामी पृष्ठों में किया जायगा। योगक्षेम-(१) 'प्राप्ति (योग) और उसकी रक्षा (क्षेम) ।' वर्तमान काल का शब्दध्यानवादी राधास्वामी पन्थ भी यह कल्याण और मंगल का पर्याय है । राजसूय यज्ञ करने ध्यानयोग का ही एक प्रकार है। के पूर्व राजा अपना पुनरभिषेक कराता था। इसकी योगराज-काश्मीर शैवाचार्यों में योगराज एक विद्वान थे। क्रियाएँ 'ऐन्द्र महाभिषेक' से मिलती-जुलती होती थीं इन्होंने अभिनवगुप्त कृत 'परमार्थसार' (काश्मीर शववाद और 'योगक्षेम' इसकी एक क्रिया हुआ करती थी। राजा पर लिखे गये १०५ छन्दों के एक ग्रन्थ) का भाष्य पुरोहित को अपनी विजय के लिए उपहार देता था और प्रस्तुत किया है। इनके 'परमार्थसारभाष्य' का अंग्रेजी समिधा हाथ में लेकर तोन पद उत्तर-पूर्व दिशा में चलता अनुवाद डा. बार्नेट ने प्रस्तुत किया है। था ( यह इन्द्र की अपराजित दिशा है ) जिसका आशय योग-ोम (प्राप्ति और उसकी रक्षा) की कामना होता था। योगवात्तिक-सोलहवीं शताब्दी के मध्य विज्ञानभिक्षु ने (२) योगक्षेम अर्थशास्त्र में भी प्रयत हुआ है। याज्ञ- योगसूत्रों की एक व्याख्या लिखी जो 'योगवार्तिक' कहवल्क्यस्मति के अनुसार 'अलब्धलाभो योगः' अर्थात लाती है। अप्राप्त की प्राप्ति योग है और 'लब्धपरिपालनं क्षेमः' योगवासिष्ठ रामायण--प्रचलित अद्वैत वेदान्तीय ग्रन्थों में अर्थात जो प्राप्त हो गया हो उसका परिपालन अथवा 'योगवासिष्ठ रामायण' का विशिष्ट स्थान है। यह रक्षा क्षेम कहलाता है। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में रचे गये संस्कृत ग्रन्थों में से योगनिद्रा-यौगिक साधना में अनेक क्रम या दशाएँ बाहरी एक है। यह अध्यात्मरामायण के समानान्तर है, क्योंकि साधन के रूप में सम्पादित होती है । अनेक आसन, श्वास इसमें राम और वसिष्ठ के संवाद रूप में वेदान्त के तथा निःश्वास की गणना ( प्राणायाम) तथा दृष्टि को सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। यह बड़ा विशालनासिका के अग्र स्थान पर केन्द्रित करना ( नासाग्रदृष्टि ) काय ३२,००० पद्यों का ग्रन्थ है। इसमें अद्वैत वेदान्त Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० योगसारसंग्रह-योनिऋक को शिक्षा के साथ सांख्य के विचारों का मिश्रण भी प्राप्त सिद्धिप्राप्त महात्मा भी योगीश्वर कहे जाते हैं। है। योग की महत्ता पर भी इसमें बल दिया गया है। योगेश्वरवत अथवा योगेश्वरद्वादशी-कार्तिक शुक्ल एकाइसकी रचनातिथि १३०० ई० के लगभग अथवा और दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। चार जलपूर्ण पूर्व हो सकती है। कलश, जिनमें रत्न पड़े हों, सफेद चन्दन चचित हो तथा योगसारसंग्रह-सोलहवीं शताब्दी के मध्य आचार्य विज्ञान- चारों ओर श्वेत वस्त्र लिपटा हो एवं जो तिलपूर्ण ताम्रभिक्षु द्वारा रचित एक उपयोगी योगविषयक ग्रन्थ । पात्रों से ढके हों, पात्रों में सुवर्ण पड़ा हो, ऐसे चारों योगसूत्र-पतञ्जलि मुनि द्वारा रचित योगशास्त्र की मौलिक कलश चार महासागरों के प्रतीक होते है। एक पात्र के कृति । विद्वानों ने इसका रचना काल चौथी शताब्दी मध्य में भगवान् हरि की प्रतिमा (जो योगेश्वर है) ई० माना है । यह योग उपनिषदों के बाद की रचना है। स्थापित कर पूजी जानी चाहिए। रात्रि को जागरण का विशेषार्थ दे० 'योग (दर्शन')। विधान है। द्वितीय दिवस चारों कलशों को चार ब्राह्मणों योगसूत्रभाष्य-यह भाष्य ७वीं या ८वीं शताब्दी में रचा को दान में दे देना चाहिए तथा सुवर्ण प्रतिमा किसी गया है। कुछ लोग इसके लेखक का नाम वेदव्यास बताते पांचवें ब्राह्मण को देकर पाँचों ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन हैं। परन्तु इस वेदव्यास तथा महाभारत के रचयिता वेदव्यास कराकर दक्षिणादि से सन्तुष्ट करना चाहिए । इसका नाम को एक नहीं समझना चाहिए। इस भाष्य का अंग्रेजी धरणीव्रत भी है। व्रती इस व्रत के फलस्वरूप समस्त अनुवाद तथा परिचय उड्स् महोदय ने लिखा है। उन्होंने पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है। इसकी दार्शनिक शैली की प्रशंसा की है। योनि-(१) जीवों की विभिन्न जातियाँ योनि कहलाती हैं। योगिनी-भारतीय लोककथाओं में योगी प्रायः जादूगर इनका वर्गीकरण पुराण आदि में ८४,००,००० प्रकार के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। जादू की ऐसी शक्ति रखने- का बतलाया जाता है। जल, स्थल, वायु, आकाशचारी वाली साधिका स्त्री 'योगिनी' (जादूगरनी) के रूप में सभी प्राणी (स्थावर पेड़-पौधे भी) इनमें सम्मिलित है। वणित है । शिवशक्तियाँ अथवा महाविद्याएँ भी योगिनी के (२) स्त्रीतत्त्व का प्रतीक, मातृत्व का बोधक अङ्ग । रूप में कल्पित की गयी हैं। योगिनियों की चौसठ संख्या प्रागैतिहासिक युग के पंजाब तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के बहुत प्रसिद्ध है । चौसठ योगिनियों के कई प्राचीन मन्दिर लोगों के धर्म में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान था। उत्पत्तिहैं जिनमें भेड़ाघाट ( त्रिपुरी-जबलपुर ), खजुराहो आदि स्थान होने के कारण यह आदरणीय और पूजनीय माना के मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं। जाता था। शाक्त धर्म में इसका बहुत महत्त्व बढ़ा, योगिनीतन्त्र-वाममार्गी शाक्त शाखा का १६वीं शताब्दी योनिचिह्न शक्ति का प्रतीक और सृष्टि का मूल बन गया। का यह ग्रन्थ दो भागों में उपलब्ध है। पहला भाग सभी अनेक रूपों में इसकी अभिव्यक्ति और कला में अंकन तान्त्रिक विषयों का वर्णन करता है, दूसरा भाग वास्तव हुआ। कामाख्या पीठ में योनि की पूजा होती है। में 'कामाख्यामाहात्म्य' है। इस पर वाममार्ग का विशेष लिङ्गोपासना में भी लिङ्ग का आधार योनि ही है। प्रभाव है। शिवमन्दिरों में लिङ्ग योनि में ही प्रतिष्ठित रहता है। योगी-योगमत पर चलने वाले, योगाभ्यास करने वाले योनि ऋक-सामवेद के आचिक ग्रन्थ तीन है : छन्द, आरव्यक्ति योगी कहलाते हैं। प्रायः हठयोगियों के लिए प्यक और उत्तर । उत्तराचिक में एक छन्द की, एक स्वर साधारण जनता में यह शब्द प्रयुक्त होता है । की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर योगीश्वर-शिव का पर्याय । कुछ योगी अपनी भयावनी एक-एक सूक्त बना दिया गया है। इन सूक्कों का व्यूच क्रियाओं का अभ्यास श्मशान भूमि में करते है तथा नाम रखा गया है। इसी तरह की समान भावापन्न दो-दो भूत योनियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं। ऋचाओं की समष्टि का नाम प्रगाथ है। चाहे त्र्यच हो शिव इन योगियों के भी स्वामी है अर्थात् योगीश्वर चाहे प्रगाथ, इनमें प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द हैं तथा योग का अभ्यास भी करते हैं। आर्चिक में से लिया गया है। इसी आचिक छन्द से एक Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौवराज्याभिषेक-रघुनाथदास ५४१ ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं रक्तसप्तमी-मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी का रक्तसप्तमी नाम को मिलाकर यूच बनता है और इसी प्रकार प्रगाथ है । इस तिथिव्रत में रक्त कमलों से सूर्य की अथवा भी। इन्हीं कारणों से इममें जो पहली ऋचाएँ हैं वे श्वेत पुष्पों से सूर्यप्रतिमा की पूजा विहित है। सूर्य की सब योनि ऋक् कहलाती हैं और आचिक भी योनिग्रन्थ प्रतिमा पर रक्त चन्दन से प्रलेप लगाना चाहिए। इस पूजन के नाम से प्रसिद्ध है। में सूर्य को दाल के बड़े और कृशरा (चावल, दाल तथा मसालों से बनी खिचड़ी) अर्पित करने का विधान है। योनि ऋक् के बाद ही उसी के बराबर की दो या पूजन के उपरान्त रक्तिम वस्त्रों के एक जोड़े का दान एक ऋक् जिसके उत्तर दल में मिले उसका नाम उत्तरा करना चाहिए । चिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तर है । एक ही अध्याय का बना हुआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन रक्षापञ्चमी-भाद्र कृष्ण पञ्चमी को रक्षापञ्चमी कहते हैं । करने योग्य हो, आरण्यक कहलाता है। सब वेदों में एक इस दिन काले रंग से सों की आकृतियाँ खींचकर उनका एक आरण्यक होता हैं । योनि, उत्तर और आरण्यक इन्हीं पूजन करना चाहिए। इससे व्रती तथा उसकी सन्तानों तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आचिक अर्थात् ऋक को सर्यों का भय नहीं रहता। समूह है। रक्षाबन्धन-श्रावण पूर्णिमा के दिन पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वादात्मक कर्म । रक्षा वास्तव में रक्षायौवराज्याभिषेक-अनेक प्रमाणों से यौवराज्याभिषेक की सुत्र है जो ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा वास्तविकता सिद्ध होती है। इसमें राजा अपने योग्यतम जाता है। यह धर्मबन्धन में बाँधने का प्रतीक है, (सम्भवतः ज्येष्ठ) पुत्र का अभिषेक करता था। महा इसलिए रक्षाबन्धन के अवसर पर निम्नांकित मन्त्र भारत, रामायण, हर्षचरित, बृहत्कथा, कल्पसूत्र आदि में पढ़ा जाता है : यौवराज्याभिषेक का वर्णन पाया जाता है। यह अभिषेक येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग के समय (पौषी तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।। पूर्णिमा को) होता था। [जिस (रक्षा के द्वारा) महाबली दानवों के राजा बलि (धर्मबन्धन में) बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधता हैं। हे रक्षे, चलायमान न हो, चलायमान न हो।] मध्य र-अन्तःस्थवर्णी का दूसरा अक्षर । कामधेनुतन्त्र (पटल युग में ऐतिहासिक कारणों से रक्षाबन्धन का महत्त्व ६) में इसका स्वरूप निम्नांकित बतलाया गया है : बढ़ गया । देश पर विदेशी आक्रमण होने के कारण स्त्रियों रेफञ्च चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वय संयुतम् । का मान और शील संकट में पड़ गया था, इसलिए बहिनें रक्तविद्युल्लताकारं पञ्चदेवात्मकं सदा ॥ भाइयों के हाथ में 'रक्षा' या 'राखी' बाँधने लगी, जिससे पञ्चप्राणमयं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ।। वे अपनी बहिनों की सम्मानरक्षा के लिए धर्मबद्ध हो तन्त्रशास्त्र में इसके अधोलिखित नाम कहे गये हैं : जायँ । रो रक्तः क्रोधिनी रेफः पावकस्त्वोजसो मतः । रघुनन्दन भट्टाचार्य-बंगाल के विख्यात धर्मशास्त्री रघुप्रकाशादर्शनो दीपो रक्तकृष्णापरं बली ।। नन्दन भट्टाचार्य (१५००ई०) ने अष्टाविंशतितत्त्व नामक भुजङ्गेशो मतिः सूर्यो धातुरक्त: प्रकाशकः । ग्रन्थ की रचना की, जिसमें स्मार्त हिन्दू के कर्तव्यों की अप्यको रेवती दासः कुक्ष्यशो वह्निमण्डलम् ।। विशद व्याख्या है। यह ग्रन्थ सनातनी हिन्दुओं द्वारा उग्ररेखा स्थलदण्डो वेदकण्ठपला पुरा । अत्यन्त सम्मानित है। प्रकृतिः सुगलो ब्रह्मशब्दश्च गायको धनम् ।। रघुनाथदास-महाप्रभु चैतन्य के छः प्रमुख अनुयायी भक्तों श्रीकण्ठ ऊष्मा हृदयं मुण्डी त्रिपुरसुन्दरी । में रघुनाथदास भी एक थे। ये वृन्दावन में रहते थे सबिन्दुयोनिजो ज्वाला श्रीशैलो विश्वतोमुखी ।। और अपने शेष पाँच सहयोगी गोस्वामियों के साथ चैतन्य Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ रघुनाथ भट्ट-रणछोर राय मत के ग्रन्थ लेखन तथा साम्प्रदायिक क्रियाओं का रूप निर्मित है-सत्त्व ( प्रकाश ), रजस् (शक्ति) तथा तैयार करने में लगे रहते थे। ये गोस्वामी गण भक्ति, तमस् (जड़ता) । प्रकृति में ये अमिश्रित, सन्तुलित रहते हैं दर्शन, क्रिया (आचार ) पर लिखते थे, भाष्य रचते थे, तथा उससे उत्पन्न पदार्थों में विभिन्न परिमाणों में मिल सम्प्रदाय सम्बन्धी काव्य तथा प्रार्थना लिखते थे। ये जाते हैं । मैत्रायणी उपनिषद् में एक महत् सत्य के तीन ग्रन्थ सम्प्रदाय की पूजा पद्धति एवं दैनन्दिन जीवन पर रूप विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव को क्रमशः सत्त्व, रजस् एवं प्रकाश डालने के लिए लिखे जाते थे। इन लोगों ने मथुरा ___ तमस् के रूप में दर्शाया गया है। जगत् में सारी क्रिया एवं वृन्दावन के आस-पास के पवित्र स्थानों को ढूँढा तथा और गति रजस् के ही कारण होती है। उनका 'मथुरामाहात्म्य' में वर्णन किया और एक यात्रा- रज्जबदास-महात्मा दादू दयाल के शिष्य एक दादूपन्थी पथ (वनयात्रा) की स्थापना की, जिस पर चलकर सभी कवि रज्जबदास हुए हैं। इन्होंने 'बानी' नामक उपदेशात्मक पवित्र स्थलों की परिक्रमा यात्री कर सकें । इन लोगों ने भजनों का संग्रह लिखा है। वार्षिक 'रासलीला' का अभिनय भी आरम्भ किया। रटन्ती चतुर्दशी-माघ कृष्ण चतुर्दशी। यह तिथिव्रत है। यम की आराधना इस व्रत में की जाती है। अरुणोदय रघुनाथ भट्ट-महाप्रभु चैतन्य के छः शिष्यों एवं वृन्दावन काल में स्नान कर यम के चौदह नाम (कृत्यतत्त्व, ४५०) में बस जाने वाले गोस्वामियों में से एक । ये रघुनानदास लेकर उनका तर्पण करना चाहिए । गोस्वामी के भाई थे । दे० 'रघुनाथदास' । रणछोर राय-(१) गुजरात प्रदेश के द्वारका धाम और रघुवीरगद्य-आचार्य वेङ्कटनाथ (१३२५-१४२६ वि०) ने। डाकौर नगर में प्रतिष्ठित भगवान् कृष्ण की दो मूर्तियों के अपने तिरुपाहिन्द्रपुर के निवासकाल में रघुवीरगद्य नामक नाम । इन स्थानों में रणछोरजी के भव्य मन्दिर अत्यन्त स्तोत्र ग्रन्थ लिखा । यह तमिल भाषा में है। भगवद्भक्ति आकर्षक बने हुए हैं। इनमें सहस्रों यात्रियों का नित्य इसमें कूट-कूटकर भरी गयी है। आगमन होता रहता है । भक्तजनों में प्रसिद्धि है कि मध्यरङ्गपञ्चमी-फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी को रङ्गपञ्चमी कहा काल में डाकौर निवासी 'बोढ़ाणा' नामक भील के प्रेमानजाता है । इसी दिन शिव को रङ्ग अर्पित किया जाता है राग से आकृष्ट होकर श्री कृष्ण द्वारका त्याग कर यहाँ और रङ्गोत्सव प्रारम्भ हो जाता है। चले आये थे। पंडों ने द्वारका से आकर बोढ़ाणा को रङ्गनाथ-(१) श्रीरङ्गम् में भगवान् रङ्गनाथ का मन्दिर सताया, इस पर भगवान् ने उसके ऊपर पंडों का अपने है । तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने जब श्री- बदले का ऋण एक तराजू में सोने से तुलकर चुकाया था। रङ्गम् पर अधिकार कर लिया तब यहाँ का मन्दिर भी सोने के रूप में भी बोढ़ाणा की पत्नी की केवल नाक की उन्होंने अपवित्र कर डाला। इस काल में रङ्गनाथ की बाली थी, जो मूर्ति के समान भारी हो गयी थी। इसकी मूर्ति मुस्लिम शासन से निकलकर दक्षिण भारत के कई स्मृति में आजकल भी डाकौर के मन्दिर में विभिन्न वस्तुओं स्थानों में घूमती रही । जब पुनः यहाँ हिन्दू राज्य स्थापित के तुलादान होते रहते हैं। भक्त का 'ऋण छुड़ाने' के हो गया, श्रीरङ्गम् में इसकी पुनः स्थापना वेदान्ताचार्य कारण इन भगवान् का नाम 'रणछोर राय' प्रसिद्ध हो वेङ्कटनाथ की उपस्थिति में हुई । आज भी उनके रचित गया है। मन्त्र मन्दिर की दीवारों पर लिखे हए पाये जाते हैं । (२) भागवत पुराण के अनुसार मथुरा पुरी पर काल(२) रङ्गनाथ ब्रह्मसूत्रों को शाङ्कर भाष्यानुसारिणी यवन और जरासन्ध की दो दिशाओं से चढ़ाई होने पर वृत्ति के रचयिता है। इनका स्थितिकाल सत्रहवीं श्री कृष्ण ने रातोंरात समस्त यादवों को द्वारकापुरी में शताब्दी था। भेज दिया। फिर दोनों सेनाओं को व्यामोहित कर उनके रङ्गरामानुज-इन वैष्णवाचार्य की स्थिति १८वीं शताब्दी आगे-आगे वे बहुत दूर निकल भागे । उन्हें पकड़ने के लिए में मानी जाती है। इन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदान्तभाष्य कालयवन पीछा करने लगा। श्री कृष्ण ने उसे एकान्त में पर व्याख्या ग्रन्थावली वैष्णवों के प्रयोगार्थ लिखी है। ले जाकर एक राजा के द्वारा भस्म करा दिया तथा जरारजस्-प्रकृति तथा उससे उत्पन्न पदार्थ तीन गुणों से सन्ध की सेना के सामने से जंगल-पहाड़ों में छिपते हुए Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणथम्भौर-रथक्रान्त ५४३ द्वारका जा निकले। इस घटना की स्मृति में भक्तजनों ने तथा विद्रुम ( मूंगा ) । धामिक कृत्यों में पञ्च रत्नों का प्रेमलांछनपूर्वक उनको ( रण + छोड़ ) रणछोर राय नाम प्रयोग भी होता है, वे हैं : सोना, चाँदी, मोती, मूंगा, से विख्यात कर दिया। माणिक्य; मतान्तर से सोना, हीरा, नीलम, पुखराज, रणथम्भौर--राजस्थान में सवाई माधोपुर से कुछ दूर पर मोती। यह किला है। किले के भीतर गणेशजी का विशाल मति रत्नी-रत्नों के जैसा सम्मान पाने वाला। यह उन लोगों है । पर्वत पर अमरेश्वर, शैलेश्वर, कमलधार और फिर का विरुद है जो राज्य के पारिषद ( वरिष्ठ सदस्य ) होते आगे एक प्रपात के पास झरनेश्वर और सीताजी के थे । तैत्तिरीय सं० (१.८.९.१) तथा तैत्ति० प्रा० (१.७. मन्दिर हैं। सामने (चरणों में से ) पानी बह कर दो ३.१) में दी हुई रत्नियों की सूची में पुरोहित, राजन्य, कुण्डों में क्रमशः जाता है । वह जल पहले कुण्ड में काला, महिषी ( पटरानी ), बावाता (प्रियरानी), परिवृक्ति फिर दूसरे कुण्ड में आकर सफेद हो जाता है । ( परित्यक्ता ), सेनानी, सूत ( सारथि ), ग्रामणी ( ग्रामरत्नत्रयपरीक्षा-अप्पय दीक्षितरचित यह ग्रन्थ श्रीकण्ठ मत प्रमुख ), छत्री ( छत्रधारक ), संगृहीता ( कोषाध्यक्ष ), (शैव सिद्धान्त) से सम्बन्धित है। इसमें हरि, हर और भागधुग ( राजस्व अधिकारी ) तथा अक्षावाप (द्यूताशक्ति की उपासना की मीमांसा की गयी है। अध्यक्ष ) सम्मिलित हैं। शत० ब्रा० में क्रम इस प्रकार रत्नप्रभा-आचार्य गोविन्दानन्द कृत शारीरक भाष्य को है : सेनानी, पुरोहित, महिषी, सूत, ग्रामणी, छत्री, प्रसिद्ध टीका। शाङ्करभाष्य की टीकाओं में यह सबसे संगृहीता, भागधुग्, अक्षावाप, गोविकर्तन ( आखेटक ) सरल है। तथा पालागल ( सन्देशवाहक ) । मैत्रायणी संहिता की रत्नषष्ठी-ग्रीष्म ऋतु का एक व्रत, जो षष्ठी तिथि को सूची इस प्रकार है : ब्राह्मण (पुरोहित ), राजन्य, सम्पादित होता था। भास के चारुदत्त और शूद्रक के महिषी, परिवृक्ति, सेनानी, संगृहीता, छत्री, सुत, मृच्छकटिक नाटक के 'अहं रत्नषष्ठीम् उपोषिता' कथन वैश्य, ग्रामणी, भागदुध, तक्षा, रथकार, अक्षवाप तथा गोविकत । उपर्युक्त नामों से ठीक-ठीक पता नहीं चलता में संभवतः इसकी ओर ही संकेत है। रत्नहवि-राजसूय या सोम यज्ञ का कार्यक्रम फाल्गुन के कि राजकुल तथा राजभवन के कर्मचारियों के अतिरिक्त प्रथम दिन से प्रारम्भ होता था। इसकी अनेकानेक उनमें राजा के व्यक्तिगत सेवक ही थे या जनता के प्रतिक्रियाओं में अभिषेचनीय, रत्नहवियाँ तथा दशपेय महत्त्व निधि भी। कुछ तो इनमें अवश्य ही जनता के प्रतिनिधि थे, जैसे ब्राह्मण, राजन्य, ग्रामणी, तक्षा आदि । पूर्ण हैं । यह बारह दिन लगातार किये जाने वाले यज्ञों राज्याभिषेक और राजसूय के अवसरों पर रत्नियों का का समूह है, जो राजा के 'रत्नों' के गहों में भी धार्मिक और राजनीतिक महत्त्व होता था। सिद्धान्ततः होता था। माना जाता था कि राजशक्ति इन्हीं के हाथ में है। रत्न वैदिक राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत राजा के मुख्य परा मानो राजशक्ति का प्रतीक था। इसे ये सब राज्याभिषेक मर्शदाता 'रत्न' (या रत्नी) कहे जाते थे, जिनमें सेनानी, के अवसर पर राजा को सौंपते थे । सुत, पटरानी, पुरोहित, श्रेष्ठी, ग्रामप्रधान आदि गिने- रथकार-रथ बनाने वाला । वैदिक काल में इसकी गणना चुने व्यक्ति होते थे। राजसूय के कुछ होम इन लोगों के राजा के रत्नियों में होती थी। रथ के सैनिक तथा व्यावहाथों से भी सपन्न होते थे। विक्रमादित्य और अकबर के हारिक महत्त्व के कारण समाज में रथकार का ऊचा मान 'नवरत्न' ऐसी ही राज्यव्यवस्था के अंग जैसे थे। वर्तमान था। राज्याभिषेक के अवसर पर रथकार भी उपस्थित भारतशासन द्वारा दी जानेवाली सर्वोच्च पदवी 'भारत होता था और राजा उससे भी रत्न ( राज्याधिकार के रत्न' उक्त वैदिक प्रथा की स्मृति जैसी है। प्रतीक) की याचना करता था। रत्न (नव अथवा पञ्च)-व्रतराज, १५ (विष्णुधर्मोत्तर से) । रथक्रान्त-(१) महासिद्धसार नामक शाक्त ग्रन्थ में १९२ नव रत्नों का उल्लेख करता है, यथा मोती, सुवर्ण, वैदूर्य, ग्रन्थों की सूची लिखित है, जो ६४ के तीन खण्डों में पद्मराग ( माणिक्य ), पुष्पराग । पुखराज ), गोमेद विभक्त हैं। इन तीन खण्डों के नाम हैं विष्णुक्रान्त, रथ(हिमालय से प्राप्त रत्न ), नीलम, गारुत्मत (पन्ना) क्रान्त तथा अश्वक्रान्त । यह सूची यथेष्ट आधुनिक है, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनवमी-रम्भातृतीया क्योंकि इसमें महानिर्वाणतन्त्र भी सम्मिलित है तथा १९२ में से केवल १० ही वामकेश्वर तन्त्र की सूची से मिलते हैं। (२) रथक्रान्त एक प्राचीन महाद्वीप (संभवतः अफ्रीका) का नाम है। रथनवमी-आश्विन की शुक्ल नवमी अथवा कृष्ण पक्ष की नवमी ( हेमाद्रि ) को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर उपवास रखते हुए दुर्गाजी की आराधना या पूजा करनी चाहिए । दर्पणों, चौरियों, वस्त्रों, छत्र, मालाओं से सज्जित रथ में महिष (भैंसा) पर विराजी हुई दुर्गाजी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए और रथ को नगर की मुख्य-मुख्य सड़कों पर घुमाकर दुर्गाजी के मन्दिर तक ले जाना चाहिए। रात्रि को नृत्य-गान करते हुए जागरण करना चाहिए। दूसरे दिन दुर्गाजी की प्रतिमा को स्नान कराकर रथ को दुर्गाजी को भेंट कर देना चाहिए। रथयात्रा-किसी देवता की प्रतिमा को रथ में स्थापित कर उसका जुलूस निकालना रथयात्रा कहलाता है। हेमाद्रि, कृत्यरत्नाकर, भविष्यपुराण दुर्गा देवी, सूर्य, ब्रह्माजी आदि की रथयात्रा कावर्णन करते है, जिसे 'पजाप्रकाश' ने भी उद्धृत किया है। गदाधरपद्धति में पुरुषोत्तम की बारह यात्राओं तथा भुवनेश्वर की चौदह यात्राओं का वर्णन है । हेमाद्रि के मत से यह उत्सव लोगों की समृद्धि तथा सुस्वास्थ्य के लिए मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में आयोजित होना चाहिए । रथसप्तमी-माघ शुक्ल सप्तमी । इस तिथिव्रत के सूर्य देवता है। षष्ठी की रात्रि को व्रत का संकल्प कर नियमों के आचरण की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। सप्तमी को उपवास करना चाहिए। सारथि और घोड़ों के सहित बनाये गये सुवर्ण के रथ को मध्याह्न काल में वस्त्रों से सज्जित कर एक मण्डप में स्थापित कर देना चाहिए । तदनन्तर केसर, पुष्पादिक से रथ का पूजन करना चाहिए। पूजनोपरान्त सूर्य भगवान् की सुवर्ण या अन्य वस्तु की प्रतिमा बनवाकर रथ में स्थापित करनी चाहिए। तदनन्तर मन्त्रोच्चारण करके रथ तथा सारथि सहित सूर्य की पूजा की जानी चाहिए । पूजा में ही अपनी मनःकामना भी अभिव्यक्त कर देनी चाहिए। उस रात्रि को गीत-संगीत, नृत्यादि करते हुए जागरण करना चाहिए । दूसरे दिन प्रातः स्ना- नादि से निवृत्त होकर दान-दक्षिणा देने के बाद अपने गरु को सुवर्ण का रथ दे देना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण में भगवान् कृष्ण ने युधिष्ठिर को कम्बोजनरेश यशोधर्मा की कथा सुनायी है। वृद्ध यशोधर्मा का पुत्र अनेक रोगों से ग्रस्त था । इस व्रत के आचरण से वह समस्त रोगों से मुक्त होकर चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि मन्वन्तर के प्रारम्भ में सूर्य ने इसी तिथि को रथ प्राप्त किया था, अतएव इसका नाम रथसप्तमी पड़ा। रथाङ्कसप्तमी-माघ शुक्ल षष्ठी को इस व्रत के अनुष्ठान का प्रारम्भ होता है । इस व्रत में उपवास तथा गन्धाक्षत पुष्पादि से सूर्य की पूजा का विधान है । इस दिन सूर्य की प्रतिमा के सम्मुख ही शयन करना चाहिए। सप्तमी को भी सूर्यपूजन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है। यह क्रिया प्रति मास चलनी चाहिए। वर्ष के अन्त में सूर्य की प्रतिमा को रथ में स्थापित करके उसका जुलूस निकालना चाहिए । भविष्यपुराण (१.५९.१-२६) में इसे 'रथसप्तमी' बतलाया गया है । रम्भातृतीया-(१) ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । व्रत रखने वाले को पूर्वाभिमख होकर पञ्चाग्नियों (यथा गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, सभ्य, आहवनीय तथा ऊर्ध्वस्थ सूर्य) के मध्य में बैठना चाहिए । ब्रह्माजी तथा देवी, जो महाकाली, महालक्ष्मी, महामाया तथा सरस्वती स्वरूपा है, सम्मुख विराजमान होनी चाहिए। चारों दिशाओं में होम करना चाहिए। देवी के पूजन के समय आठ पदार्थ, जो 'सौभाग्याष्टक' के नाम से प्रसिद्ध हैं, प्रतिमा के सम्मुख रखने चाहिए । सायंकाल में प्रार्थनामन्त्रों के साथ भगवती रुद्राणी की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । तदनन्तर व्रतकर्ता एक सपनोक सद्गृहस्थ को सम्मानित करे तथा शूर्प (सूप या छाज) में रखे नैवेद्य को सधवा महिलाओं में वितरित कर दे। यह व्रत सामान्यतः स्त्रियोपयोगी है। (२) इस व्रत का यह नाम इसलिए पड़ा कि सर्वप्रथम रम्भा नाम की अप्सरा ने स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए इसका आचरण किया था। मार्गशीर्ष शुक्ल को यह व्रत किया जाता है । एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए तथा भिन्न-भिन्न नामों से प्रति मास पार्वती देवी की पूजा आराधना करनी चाहिए; यथा पार्वती मार्गशीर्ष में, Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रम्भात्रिरात्रव्रत-रसेश्वर ५४५ पर गिरिजा पौष में । इस अवसर पर भिन्न-भिन्न प्रकार के भगवती के चरणों को सर्वप्रथम प्रणाम निवेदन कर उनके पदार्थ बनाने चाहिए तथा उन्हें खाना चाहिए। भिन्न-भिन्न नाम लेकर मस्तक के मुकूट तक सभी अवयवों रम्भात्रिरात्रवत-ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का को प्रणाम निवेदन करना चाहिए और इसी प्रकार पूजा प्रारम्भ होता है। तीन दिनपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना करनी चाहिए । माघ से कार्तिक तक प्रति मास बारह में चाहिए। यह व्रत स्त्रियों के लिए है। सर्वप्रथम स्नानादि से एक वस्तु का त्याग करना चाहिए । बारह वस्तुएं ये से निवत्त होकर व्रती स्त्री को केले के पौधे की जड़ में हैं-नमक, गुड़, तवराज, मधु, पानक, जीरक, दुग्ध, पर्याप्त जल छोड़ना चाहिए तथा पौधे के चारों ओर धागा दधि, घी, मजिका (रसाला अथवा शिखरिणी), धान्यक लपेटना चाहिए । चाँदी का केले का पौधा और उस पर (धनियाँ), शर्करा । मास के अन्त में त्यक्त वस्तु को एक पात्र सोने के फल बनवाकर पूजना चाहिए। त्रयोदशी को नक्त में भरकर तथा एक अन्य सुन्दर खाद्य पदार्थ रखकर दान विधि से एवं चतुर्दशी को अयाचित विधि से आहार करके करना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौरी की सुवर्ण प्रतिमा पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। वर्ष भर उस वृक्ष को का दान करना चाहिए। इस व्रत के परिणामस्वरूप सींचना चाहिए। इस अवसर पर उमा तथा शिव एवं पाप, शोक तथा रोगों से पूर्ण रूप से मुक्ति मिलती है। कृष्ण तथा रुक्मिणी को भी पूजा करनी चाहिए। त्रयो- रस के पद-वृन्दावनस्थ हरिदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक दशी से पूर्णिमा तक क्रमशः १३,१४ तथा १५ आहुतियों स्वामी हरिदासजी रचित पदों का संग्रह, जो ब्रजभाषा में से हवन करना चाहिए । इस व्रत के आचरण से पुत्र तथा माधुर्यभाव की उपासना का निरूपण करता है । रचनाकाल सौन्दर्य की प्राप्ति होती है तथा वैधव्य से मुक्ति मिलती सोलहवीं शती का मध्य या अन्त है। है। रम्भा का अर्थ कदली अर्थात् केला है। इसीलिए इस रसविद्या-गोरखनाथी योगमत में जहाँ योगासन, नाडीज्ञान, व्रत में कदली से सम्बद्ध कार्यों का विधान है। षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि प्राप्ति का रविवारवत-रविवार को नक्त विधि से आहार करना मुख्य उद्देश्य है, वहाँ शारीरिक पुष्टि तथा पञ्चमहाभूतों पर चाहिए अथवा पूर्ण उपवास रखना चाहिए। इस अवसर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी विशेष स्थान पर आदित्यहृदय अथवा महाश्वेता मन्त्र का जप करना है। इस रसविद्या अथवा रसायन के द्वारा अभ्यासी की चाहिए। इससे व्रती की मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं। मानसिक स्थितियों को प्रभावित किया जाता है। इसके सूर्य देवता हैं। स्मृतिकौस्तुभ (५५६,५५७) तथा रसा-ऋग्वेद के तीन परिच्छेदों (१.१.२; ५.५३.९:१०. वर्षकृत्यदीपिका (४२३-४३६) में इस व्रत का बड़े विस्तार ७५.६) में रसा उस जलधारा (नदी) का नाम है जो के साथ वर्णन किया गया है। भारत की उत्तर-पश्चिम दिशा में बहती थी । अन्य स्थान रविव्रत-(१) माघ मास में रवि के दिन तीन बार सूर्य पर (ऋग्वेद ५.४१.१५,९.४१.६;१०.१००,१-२) यह नाम का पूजन करना चाहिए । एक मास के इस आचरण से पौराणिक धारा का है जो पृथ्वी के सिरे पर है । कुछ छः महीने का पुण्य प्राप्त होता है। विद्वान् रसा का समानार्थक शब्द अवेस्ता का 'रन्हा' बत(२) माघ मास में रविवार के दिन व्रतारम्भ करके लाते हैं । किन्तु यह शब्द प्रारम्भिक रूप से जल के गुणों प्रति रविवार को सूर्य का पूजन करना चाहिए । एक वर्ष का बोधक है जो सरस्वती या किसी भी नदी के लिए पर्यन्त इस व्रत के अनुष्ठान का विधान है। इस बीच कुछ व्यवहृत हो सकता है। वैदिक युग की राज्य-सीमा में निश्चित वस्तुओं का ही आहार करना चाहिए अथवा रसा नामक नदी पश्चिम में, गङ्गा पूर्व में, उत्तर में हिमाक्रमशः कुछ निश्चित वस्तुओं का खाने में त्याग करना च्छादित पर्वत तथा दक्षिण में सिन्धु आता है। चाहिए। रसेश्वर-मध्यकालीन शवों के दो मुख्य सम्प्रदाय थे: रसकल्याणिनी-माघ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरंभ पाशुपत तथा आगमिक एवं इन दोनों के भी पुनर्विभाजन होता है। दुर्गा इसकी देवता हैं। मधु तथा चन्दन से थे। पाशुपत के छः विभाग थे, जिनमें छठा वर्ग 'रसेश्वरों' दुर्गाजी को स्नान कराकर सर्वप्रथम प्रतिमा के दक्षिण का था। माधव ने इस (रसेश्वर) वर्ग का वर्णन 'सर्वभाग का, तदनन्तर वाम भाग का पूजन करना चाहिए। दर्शनसंग्रह' में किया है। यह उपसम्प्रदाय अधिक दिनों Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ तक न चल सका । इसका अनोखा सिद्धान्त यह था कि शरीर को अमर बनाये बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता और यह अमर शरीर केवल रस ( पारव) की सहायता से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे शिव व पार्वती के सर्जनात्मक मिलन के फलस्वरूप ही उत्पन्न मानते थे । दिव्य शरीर प्राप्त करने के बाद भक्त योगाभ्यास से परम तत्त्व का आन्तरिक ज्ञान प्राप्त करता है तथा इस जीवन से 'मुक्त हो जाता है। अनेक प्राचीन आचार्य तथा ग्रन्थ इस मत से सम्बन्धित कहे गये हैं । पदार्थनिर्णय के सम्बन्ध में प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर दोनों दर्शनों का मत प्रायः समान है। रसेश्वर दर्शन के अनुयायी शिवसूत्रों को प्रमाण मानते हैं । ये शङ्कराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के पोषक हैं । विक्रम की दसवीं शताब्दी में सोमानन्द ने शिवदृष्टि नामक ग्रन्थ लिखकर इस मत की अच्छी व्याख्या की । रहस्यप्रायश्चित्त-धर्मशास्त्र के तीन मुख्य विषयों में एक विषय प्रायश्चित्त है, अन्य दो हैं व्यवहार ( दण्ड या न्याय प्रक्रिया ) और आचार ( धार्मिक प्रथा ) । प्रायश्चित्त अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जिनमें 'रहस्यप्रायश्चित्त' (गुप्त प्रायश्चित्तों) का भी वर्णन आया है। ये उन अपराधों के शमनार्थ किये जाते हैं जो खुले तौर पर किसी को ज्ञात न हों । 7 राक्षस वैदिक कालीन राक्षसों की कल्पना का आधार मानव के हानिप्रद रहस्यात्मक अनुभव थे । यथा सर्दी के अनुभव, अंधकार, सूखा, बीमारी आदि की उत्पत्ति में किसी न किसी राक्षसी शक्ति की कल्पना की गयी । मानवों के दुःख एवं विपत्तियाँ असंख्य हैं, उन्हीं के अनुसार राक्षस भी असंख्य हैं, जो उनके कारण हैं । इस प्रकार वैदिक काल में प्रत्येक भय, प्रत्येक बीमारी, विपत्ति शारीरिक कष्ट का कारण कोई न कोई राक्षस या यातु (जादू) होता था । राक्षसों को कच्चा मांस, मनुष्य का मांस पशु एवं घोड़ों का मांस भक्षण करने वाला कहा गया है । वे अन्धकार में उन्नति करते हैं तथा यज्ञों को भ्रष्ट करने में आनन्दानुभव करते हैं। नैतिक गुणों की दृष्टि से राक्षस तथा जादूगर समान है। वे मूर्ख हैं, स्तुति से घृणा करने वाले हैं, बुरा करने वाले हैं, धूर्त है, चोर-डाकू हैं, झूठे हैं । राक्षस अंधेरे को प्यार करते हैं तथा अनेक रात्रि - पक्षियों, यथा उलूक, कपोत, गृद्ध, चील के रूप में दीख रहस्यप्रायश्चित राघवेन्द्रपति पड़ते हैं तथा रहस्यात्मक बोलियाँ बोलते हैं। राक्षसियों भी होती हैं जो संख्या में देवियों से अधिक हैं और राक्षसों के समान ही दुष्ट तथा क्लेश देनेवाली होती हैं । यज्ञ का देवता अग्नि तथा मध्याकाश के नियुताग्नि का देवता इन्द्र राक्षसों के शत्रु हैं । इसलिए अनेक विरुदों के साथ उन्हें राक्षसों को मारनेवाला, दबा देने वाला, टुकड़ाटुकड़ा कर देने वाला कहा गया है। निस्सन्देह प्रकाश व अन्धकार का युद्ध सृष्टि में चला आ रहा है। रात में विचरने वाले राक्षस, जो यज्ञों को नष्ट करते हैं तथा अच्छे व्यक्तियों को हानि पहुँचाते हैं, बुराई तथा पाप के प्रतिरूप हैं । उनका स्थान है तलहीन अन्धकार का खड्ड । इसमें वे इन्द्र के तीक्ष्ण वज्र द्वारा मारे जाते हैं । राक्षस अपने स्थान को लौट जाते हैं । जो व्यक्ति उनके जैसे गुणों वाले हैं, वे भी वहीं जाते हैं। यहां नरक का संकेत है । पुराणों और संस्कृत साहित्य में बहुत सी मानवजातियों को राक्षस कहा गया है। राक्षस शब्द आगे चलकर अनैतिक अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। दुष्ट और शत्रु भी राक्षस कहे जाने लगे । राघवदासाचार्य वीरराघवदासाचार्य श्रीवैष्णव वरदाचार्य के शिष्य थे | उनके पिता का नाम नरसिंह गुरु था । वाधूल वंश में उनका जन्म हुआ था। उन्होंने 'तत्त्वसार' पर 'रत्नप्रसारिणी' नामक टीका लिखी है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है । राघवद्वावशी ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर राम तथा लक्ष्मण की सुवर्ण प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिए चरणों से प्रारम्भ कर भगवान् के शरीरावयवों का भिन्न-भिन्न नामों को लेते हुए पूजन करना चाहिए। प्रातः काल रामलक्ष्मण के पूजन के उपरान्त एक लोटा में घी भरकर दान करना चाहिए । इस आचरण से व्रती युगों तक स्वर्ग में निवास करता है । इससे पापों का क्षय होता है। यदि व्रती निष्काम रहता है तो उसे मोक्ष की उपलब्धि होती है । -- राघवाचू-- वीरशैवाचार्य राघवाचू हरिहर के शिष्य थे । ये १४वीं शताब्दी में हुए ये तथा इन्होंने 'सिद्धराय' नामक एक कर्नाटकी पुराण लिखा है । राघवेन्द्रपति — इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद् की वृत्ति, बृहदा - रण्यक उपनिषद् की खण्डाप्रवृत्ति एवं माण्डूक्योपनिषद् की Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राघवेन्द्रस्वामी-राज्यद्वादशीव्रत ५४७ वृत्ति लिखी है। राघवेन्द्रपति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक भाई-बन्धु, जो कर्मणा अथवा पदेन राजन्य नहीं होते थे, ही व्यक्ति हैं यह रहा नहीं जा सकता। राजन्यबन्धु कहलाते थे। कुछ ऐसा ही दृष्टिकोण 'ब्रह्मराघवेन्द्र स्वामी-माध्व मतावलम्बी संत एवं ग्रन्थकार । बन्धु' के लिए भी है। इन्होंने जयतीर्थाचार्य की टीका पर वृत्ति लिखी है। राजमार्तण्ड-योगसूत्र की यह व्याख्या धारा नगरी के जयतीर्थ के प्रधान-प्रधान सब ग्रन्थों पर इन्होंने वृत्ति __ महाराज भोजने (१०१०-५५ ई०) लिखी थी। यह बहुत लिखी है। इनके ग्रन्थों के नाम हैं तत्त्वोद्योतटीका स्पष्ट तथा सरल है। योगशास्त्राभ्यासी सम्प्रदाय में वृत्ति, न्यायकल्पलतावृत्ति, तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति, भावद्वीप, इसका भी विशेष महत्त्व है। वादावलीटीका, मन्त्रार्थमञ्जरी, तत्त्वमंजरी और गीता राजयोग-योगमार्ग का एक सम्प्रदाय । यह हठयोग से विवृति । इन्होंने ईश, केन, प्रश्न, मुण्डक, छान्दोग्य तथा भिन्न है। हठयोग में शारीरिक क्रियाओं द्वारा चित्तवत्तितैत्तिरीय उपनिषदों के खण्डार्थ प्रस्तुत किये । इनके ग्रन्थों निरोध की प्रक्रिया पर बल दिया जाता है। राजयोग में की भाषा सरल है। ये सम्भवतः सत्रहवीं शताब्दी में बौद्धिक अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है। वर्तमान थे। राघवेन्द्र यति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं। राजराजेश्वरव्रत-बुधवार को स्वाती नक्षत्रयुक्त अष्टमी राजकर्ता ( राजकृत् )-यह विरुद अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों हो तो उस दिन उपवास करना चाहिए। उस दिन भगवान् में उनके लिए व्यवहृत है जो स्वयं राजा नहीं होना चाहते । शिव को अनेक स्वादिष्ठ खाद्यान्न, मिष्टान्न तथा नैवेद्य थे, किन्तु दूसरों को राजा बनाने में समर्थ थे । ये राजा अर्पण करने चाहिए। व्रती शिवपूजन के पश्चात् आचार्य के अभिषेक में सहायता करते थे। शतपथ ब्रा० में सूत, को हार, मुकुट, करधनी, कर्णाभरण, अंगूठियाँ, हाथी ग्रामणी (ग्रामप्रमुख ) आदि इनमें सम्मिलित है । अथवा घोड़े का दान दे । इस कृत्य से वह असंख्य वर्षों के राजसूय तथा राज्याभिषेक दोनों में राजकर्ता (बहवचन = लिए कुबेर के समान पद प्राप्त करने में समर्थ होता है । राजकर्तारः) का बड़ा महत्त्व था। 'राजराज' का अर्थ है कुबेर, जो शिवजी के मित्र है । राजगृह-गया जिले (बिहार) में स्थित प्राचीन तीर्थ कदाचित् राजराजेश्वर का अर्थ भी शिव अथवा कुबेर हो और राजा जरासन्ध की राजधानी । यह सनातनधर्मी, (जो यक्षों के स्वामी है)। बौद्ध, जैन तीनों का पुण्यस्थल है । पाटलिपुत्र की स्थापना राजराजेश्वरीतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की चौसठ तन्त्रों से पूर्व राजगृह ही मगध की राजधानी थी। पुरुषोत्तम की सूची में राजराजेश्वरीतन्त्र भी उद्धृत है। मास में बहुत यात्री यहाँ आते हैं। यहाँ दर्शन करने योग्य राज्ञीस्नापन-चैत्र कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनु ठान स्थान भी पर्याप्त हैं। इनमें ब्रह्मकुण्ड, केदारनाथ, सीताकुण्ड, होता है । कश्मीर प्रदेश में अनुमानतः चैत्र कृष्ण पञ्चमी से वैतरणी, वानरीकुण्ड, सोनभण्डार आदि प्रसिद्ध है। भूमि का 'रजस्वलाव्रत' रखा जाता है । उसके बाद प्रत्येक राजन्यबन्धु-राजन्यबन्धु का अर्थ राजन्य ही है किन्तु घर में सधवा महिलाएँ पुष्पों और चन्दन के प्रलेप से भूमि मूल्यांकन में राजन्यबन्धु राजन्य से घटकर है। शतपथ का मार्जन-शोधन करती हैं। उसके पश्चात् ब्राह्मण लोग ब्रा० में जनक को राजन्यबन्धु कहा गया है, जिन्होंने सौषधिमिश्रित जल से भूमि का सिंचन करते हैं। ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। प्रवाहण जैवलि राज्यद्वादशीव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल की दशमी को इस व्रत को भी बृह० उप० में राजन्यबन्धु कहा गया है। शत- का संकल्प लेना चाहिए तथा एकादशी को उपवास करते । क एक आर पारच्छद (१०.५.२.१० ) में, जहाँ हुए विष्णु का पूजन करना चाहिए। अच्छे खाद्यान्नों से पुरुषों के स्त्रियों से अलग खाने की चर्चा है, राजन्य- होम करना चाहिए। इस व्रत में रात्रि को जागरण का बन्धु को तब तक घृणात्मक नहीं दर्शाया गया है जब तक विधान है। नृत्य तथा गीत इस अवसर पर अवश्य होने कि वास्तव में कोई ब्राह्मण किसी राजकुमार के प्रति घृणा चाहिए । एक वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। न व्यक्त करे । फिर चारों वर्गों के वर्णन में ( शत० १.१. समस्त द्वादशियों को पूर्ण रूप से मौन धारण करना ४.१२ ) वैश्य को राजन्यबन्धु के पहले स्थान प्राप्त है जो चाहिए । कृष्ण पक्ष की द्वादशी को भी उसी प्रकार के विचित्र है । ऐसा लगता है कि राजन्य (क्षत्रिय ) के वे विधि-विधानों का पालन करना चाहिए, केवल भगवान् Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ राज्यव्रत-राणायनीय की पूजा को छोड़कर, जो रक्तिम वस्त्र धारण करने के राज्य-(१) अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में नियमित उपरान्त होगी। इस अवसर पर जलाये जाने वाले दीपकों रूप से इसका अर्थ 'साम्राज्यशक्ति' अथवा 'प्रभुता' है। में तेल भरना चाहिए, घी नहीं। इस व्रत के आचरण से शतपथ ब्रा० के अनुसार ब्राह्मण इसके अधिकार के अन्दर व्रती घाटियों का राजा होता है। वह तीन वर्षों में नहीं आते और राजसूय यज्ञ में राजा का पद बढ़ जाता मण्डलेश्वर (प्रान्तीय राज्यपाल ) तथा १२ वर्षों में पूर्ण था। वाजपेय यज्ञ में सम्राट् का पद उच्च होता था। राजा बन जाता है। एतदर्थ सम्राट् राजा से श्रेष्ठ होता था। राजसूय यज्ञ के राज्यव्रत-ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को वायु, सूर्य तथा चन्द्रमा वर्णन के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण राज्य, साम्राज्य, का पूजन करना चाहिए । किसी पवित्र स्थल पर प्रातः भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठय तथा माहाराज्य काल वायु का पूजन करना चाहिए, मध्याह्न काल में आदि शब्दों का प्रयोग करता है । ये राज्य के कई अग्नि में सूर्योपासना तथा जल में सूर्यास्त के समय चन्द्रो- प्रकार थे। पासना करनी चाहिए । एक वर्ष तक इस व्रत का (२) राज्य के कर्तव्यों में धर्म का संस्थापन मुख्य अनुष्ठान होना चाहिए । इस आचरण से व्रती को स्वर्ग है । कौटिल्य ने राज्य (राजा) के इस कर्तव्य पर बड़ा की प्राप्ति होती है। यदि इसका आचरण लगातार तीन बल दिया हैवर्षों तक किया जाय तो हजारों वर्ष तक स्वर्ग में निवास तस्मात्स्वधर्मभूतानां राजा न व्यभिचारयेत् । होता है। स्वधर्म संदधानो हि प्रेत्य चेह च नन्दति ।। राज्याप्तिसप्तमी-कार्तिक शुक्ल दशमी को इस व्रत का व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः । प्रारम्भ होता है। विश्वेदेवों ( क्रतु, दक्ष आदि ) के रूप त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति ॥ में भगवान् केशव का मण्डल बनाकर या ( स्वर्ण या रजत [राजा इस बात को देखे कि प्रजा अपने स्वधर्म से विचकी) मूर्ति रूप में स्थापित कर पूजन करना चाहिए । लित तो नहीं हो रही है। इस कर्तव्य का पालन करता वर्ष के अन्त में स्वर्ण का दान करना चाहिए । इससे हआ राजा इस लोक और परलोक में सुखी रहता है । जब विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। इसके अनन्तर व्रती राज्य ( लोक ) में आर्य मर्यादा सुव्यवस्थित रहती है, सर्वोत्तम ब्राह्मणों से युक्त राज्य का राजा हो जाता है। वर्णाश्रम धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है और धर्मशास्त्र राजशेखरविलास-वीरशैव मत सम्बन्धी यह कन्नड भाषा ( त्रयी ) में विहित नियमों से देश सुरक्षित रहता है तब का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता षडक्षरदेव हैं । रचना प्रजा प्रसन्न रहती है और कभी क्लेश को नहीं प्राप्त काल १६वीं शताब्दी है। होती।] राजसूय-वेदकालीन सोमयज्ञ । परवर्ती साहित्य में यह राणक-कर्ममीमांसा के आचार्य सोमेश्वरकृत 'न्यायसुधा राजनीतिक यज्ञ अथवा राजाओं का अभिषेक संस्कार आभषक सस्कार का ही अन्य नाम 'राणक' है। इसका रचनाकाल १४०० माना गया है। सूत्रों में इसका विशद वर्णन है किन्तु ई० के लगभग है। ब्राह्मणों में इसकी मुख्य रूपरेखा प्राप्त होती है। यजुर्वेद- राणायनीय-सामवेद संहिता के तीन संस्करण पाये जाते संहिता में इसमें प्रयोग किये जाने वाले मन्त्र सुरक्षित हैं। है-(१) कौथमी (२) जैमिनीय तथा ( ३ ) राणाराजसूय की मुख्य क्रियाएँ निम्नांकित थीं: यनीय । राणायनीय का प्रचार महाराष्ट्र में है । इस शाखा राजा को उसके पदानुसार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित की भी उपशाखाएं बतायी जाती हैं; राणायनीय, शाक्षयकिया जाता था तथा उसे सम्राचिह्न धनुष-बाण दिये ___णीय, सत्यमुद्गल, मुद्गल, मरास्वन्व, दाङ्गन, कौथुम, जाते थे । वह अभिषिञ्चित होता था, किसी राजन्य के गौतम और जैमिनीय । राणायनीय संहिता में पूर्वाचिक साथ कृत्रिम युद्ध करता था। वह आकाश में ऊपर उछल- एवं उत्तराचिक दो विषय हैं। पूर्वाचिक में ग्रामगेयगान कर अपने को एकछत्र शासक प्रदर्शित करता था। फिर और अरण्यगान दो विभाग हैं। उत्तराचिक में ऊहगान व्याघ्रचर्म पर चरण रखता और इस प्रकार सिंह सदृश तथा उह्यगान, दो विभाग हैं। इस संहिता में जितने मंत्र शक्ति तथा महत्त्व प्राप्त करता था। हैं, पाठ भेद के साथ सभी ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि-राधासुधानिधि ५४९ रात्रि-ऋग्वेद ( १०.७०.६) में रात्रि एवं उषा को निम्बार्क मत के अनुयायी थे। फिर भी गीतगोविन्द में अग्नि का रूप कहा गया है । वे एक युग्म देवत्व की राधा प्रेयसी है, जबकि निम्बार्क राधा को कृष्ण की रचना करती हैं। दोनों आकाश (स्वर्ग) की बहिन स्वकीया पत्नी मानते हैं। यद्यपि राधा-सम्प्रदाय के तथा ऋत की माता हैं । रात्रि के लिए केवल एक ऋचा पर्याप्त प्रमाण प्राप्त नहीं होते है, किन्तु अनुमान है ( १०.१२.७ )। लगाया जाता है कि भागवत पुराण के आधार पर वृन्दामैकडॉनेल के अनुसार रात्रि को अन्धकार का प्रति- वन में राधा की पूजा ११०० ई० के लगभग आरम्भ योगी रूप मानकर 'चमकीली रात' कहा गया है । इस हुई । फिर यह बंगाल तथा अन्य प्रदेशों में फैली । इस प्रकार प्रकाशपूर्ण रात्रि घने अन्धकार के विरोध में खड़ी अनुमान को ऐतिहासिक तथ्य मान लें तो जयदेव की होती है। राधा सम्बन्धी कविता तथा निम्बार्क एवं विष्णुस्वामी राधा-महाभारत में कृष्ण की कथा के साथ राधा का सम्प्रदायों का राधावाद स्पष्ट रूप से समझा जा सकता उल्लेख नहीं हुआ है । न तो भागवत गण और न माध्व है। तब यह सम्भव है कि निम्बार्क ने अपने राधावाद ही राधा को मान्यता देते हैं । वे भागवत पुराण के बाहर को वृन्दावन में विकसित उस समय किया हो जब नहीं जाते हैं। किन्तु सभी परवर्ती सम्प्रदाय, जो अन्य विष्णुस्वामी अपने सिद्धान्त का दक्षिण में प्रचार कर रहे कुछ महापुराणों को महत्त्व देते हैं, राधा को मान्यता ___ हों। दे० 'राधावल्लभीय' । देते हैं। राधावल्लभ (सम्प्रदाय)-(राधा के प्रिय) कृष्ण का उपाभागवत पुराण में एक गोपी का कृष्ण इतना सम्मान सक एक प्रेममार्गी सम्प्रदाय, जिसकी स्थापना देवबन्द करते हैं कि उसके साथ अकेले घूमते हैं तथा अन्य (सहारनपुर) के पूर्वनिवासी गोस्वामी हरिवंशजी ने वृन्दागोपियाँ उसके इस भाग्य को देखकर यह अनुमान करती वन में की। है कि उस गोपी ने पूर्व जन्म में अधिक भक्ति से कृष्ण की राधावल्लभीय-गोस्वामी हरिवंश उपनाम हितजी आरम्भ आराधना की होगी। यही वह स्रोत है जिससे राधा नाम में माध्वों तथा निम्बार्की के घनिष्ठ सम्पर्क में थे। किन्तु की उत्पत्ति होती है । यह शब्द 'राध्' धातु से निर्मित है, उन्होंने अपना नया सम्प्रदाय सन् १५८५ ई० में स्थापित जिसका अर्थ है सोच-विचार करना, संपन्न करना, आनन्द किया, जिसे राधावल्लभीय कहते है। इस सम्प्रदाय का या प्रकाश देना। इस प्रकार राधा 'उज्ज्वल आनन्द देने सबसे प्रमुख मन्दिर वृन्दावन में वर्तमान है, जो राधा के वाली' है। इसका प्रथम कहाँ उल्लेख हुआ, यह कहना। वल्लभ (प्रिय) कृष्ण का मन्दिर है । संस्थापक के तीन ग्रन्थ कठिन है। एक विद्वान् के मत से राधा का प्रथम उपलब्ध होते हैं-राधासुधानिधि ( १७० संस्कृत छन्दों उल्लेख 'गोपालतापनीयोपनिषद्' में हुआ है जहाँ 'राधा' में), चौरासी पद तथा स्फुट पद (हिन्दो)। इस प्रकार का वर्णन है और वह सभी राधा-उपासक सम्प्रदायों हितजी ऐसे भक्त हैं जो राधा को कृष्ण से उच्च स्थान द्वारा आदृत है । आचार्य निम्बार्क का सम्प्रदाय राधा को देते हैं । सम्प्रदाय के एक सदस्य का मत है कि कृष्ण राधा सर्वप्रथम और सर्वोपरि मान्यता देता है। विष्णुस्वामी के सेवक या दास है, वे संसार की सुरक्षा का काम कर संप्रदाय भी राधा को स्वीकार करता है । परम्परागत सकते हैं, किन्तु राधा रानी जैसी बैठी रहती हैं । वे (कृष्ण) मध्व, विष्णुस्वामी, फिर निम्बार्क क्रमबद्ध भागवत वैष्णवों राधा के मंत्री हैं। राधावल्लभीय भक्त राधा की पूजाके आचार्य हैं । मध्व राधा का वर्णन नहीं करते । विष्णु- आराधना द्वारा कृष्ण की कृपा प्राप्त करना अपना लक्ष्य स्वामी-साहित्य बहुत कुछ मध्व से मिलता-जुलता है, जब मानते हैं। कि निम्बार्क ने राधा को विशेषता देकर नया उपासना- राधाष्टमी-भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को क्रम चलाया । मध्व के पूर्व उत्तर भारत में राधा सम्बन्धी राधा अष्टमी कहते हैं । राधा भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में गीत गाये जाते थे तथा उनकी पूजा भी होती थी, सप्तमी को उत्पन्न हुई थीं। अष्टमी को राधा का पूजन क्योंकि जयदेव का गीतगोविन्द बारहवीं शताब्दी के अन्त करने से अनेक गम्भीर पाप नष्ट हो जाते है। की रचना है। बंगाल में माना जाता है कि जयदेव राधासुधानिधि-राधावल्लभीय सम्प्रदाय का एक स्तोत्र Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० राधास्वामी मत-राम ग्रन्थ । यह संस्कृत का पद्यात्मक मधुर काव्य है जिसमें राधा- उदासीनता अवश्य है । यह सुधारवादी सम्प्रदाय है । जी की प्रार्थना की गयी है । दे० 'राधावल्लभीय'। राधास्वामी पन्थ केवल निर्गुण योगमार्ग का साधक कहा राधास्वामी मत-उपनाम 'सन्तमत' । इसके प्रवर्तक हुजूर जा सकता है । राधास्वामी दयाल थे, जिन्हें आदरार्थ स्वामीजी महाराज राम-विष्णु के भक्तों को वैष्णव कहते हैं, साथ ही विष्णु कहा जाता था। जन्मनाम शिवदयालुसिंह था। इनका के दो अवतारों ( राम तथा कृष्ण ) के प्रति भक्ति रखने जन्म खत्री वंश में आगरा के महल्ला पन्नीगली में विक्रम वाले भी वैष्णव धर्मावलम्बी ही माने जाते हैं । राम सम्प्रसं० १८७५ की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को १२॥ बजे रात दाय आधुनिक भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त हो रहा है। में हुआ । छः सात वर्ष की अवस्था से ही ये कुछ विशेष वाल्मीकि रामायण में राम का ऐश्वर्य स्वरूप तथा चरित्र लोगों को परमार्थ का उपदेश देने लगे। इन्होंने किसी बहुत ही उच्च तथा आदर्श नैतिकता से भरपूर है । परगुरु से दीक्षा नहीं ली, हृदय में अपने आप परमार्थज्ञान __वर्ती कवियों, पुराणों और विशेष कर भवभूति ( आठवीं का उदय हुआ। १५ वर्षों तक लगातार ये अपने घर की __शताब्दी का प्रथमार्द्ध) के दो संस्कृत नाटकों ने राम के भीतरी कोठरी में बैठकर 'सुरत शब्दयोग' का अभ्यास करते चरित्र को और अधिक व्याप्ति प्रदान की। इस प्रकार रहे । बहुत से प्रेमी सत्संगियों के अनुरोध और बिनती पर रामायण के नायक को भारतीय जन ने विष्णु के अवतार आपने संवत् १९१७ की वसन्तपञ्चमी से सार्वजनिक उप- की मान्यता प्रदान की। इस बात का ठीक प्रमाण नहीं देश देना प्रारम्भ किया और तब से १७ वर्ष तक लगातार है कि राम को विष्णु का अवतार कब माना गया, किन्तु सत्सङ्ग जारी रहा । इस अवधि में देश-देशान्तर के बहुत कालिदास के रघुवंश काव्य से स्पष्ट है कि ईसा की आरसे हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ जैन, कोई-कोई ईसाई, सब म्भिक शताब्दियों में यह मान्यता हो चुकी थी। वायुमिलकर लगभग ३००० स्त्री-पुरुषों ने सन्तमत या राधा- पुराण में राम के दैवी गुणों का वर्णन है। १०१४ ई० में स्वामी पंथ का उपदेश लिया। इनमें दो-तीन सौ के अमितगति नामक जैन लेखक ने राम का सर्वज्ञ, सर्वव्याप्त लगभग साधु थे। स्वामीजी महाराज ६० वर्ष की अव- और रक्षक रूप में वर्णन किया है। स्था में सं० १९३५ वि० में राधास्वामी लोक को पधारे । यद्यपि राम का देवत्व मान्य हो चुका था परन्तु रामआप का स्थान 'हुजूर महाराज' राय सालिगराम बहा उपासक कोई सम्प्रदाय इस दीर्घ काल में था, इस बात दुर माथुर ने लिया, जो पहले उत्तर-प्रदेश के पोस्टमास्टर का प्रमाण नहीं मिलता। किन्तु यह मानना पड़ेगा कि जनरल थे। इन्हीं के गुरुभाई जयमलसिंह ने ब्यास ११वीं शताब्दी के बाद रामसम्प्रदाय का आरम्भ हो (पंजाब ) में, बाबा बग्गासिंह ने तरनतारन में और चुका था। तेरहवीं शताब्दी में उत्पन्न मध्व, जो एक बाबा गरीबदास ने दिल्ली में अलग-अलग गद्दियाँ स्थपित वैष्णव सम्प्रदाय के स्थापक थे, हिमालय के बदरिकाश्रम की । परन्तु मुख्य गद्दी आगरे में तब तक रही जब तक से राम की मूर्ति लाये, तथा अपने शिष्य नरहरितीर्थ को हुजूर महाराज सद्गुरु रहे। इनके बाद महाराज साहब उड़ीसा की जगन्नाथ पुरी से राम की आदि मूर्ति लाने को पंडित ब्रह्मशंकर मिश्र गद्दी के उत्तराधिकारी हुए। इनके भेजा (लगभग १२६४ ई० में)। हेमाद्रि (तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् श्री कामताप्रसाद सिन्हा उपनाम सरकार साहब उत्तरार्द्ध ) ने रामजन्मोत्सव का वर्णन करते हुए उसकी गाजीपुर में रहे और बुआजी साहिबा स्वामीबाग की देख तिथि चैत्र शुक्ल नवमी का उल्लेख किया है। आज भारत रेख करती रहीं। सरकार साहब के उत्तराधिकारी सर के प्रत्येक नागरिक की जिह्वा पर रामनाम व्याप्त है, आनन्दस्वरूप 'साहबजी महाराज' हए जिन्होंने आगरा चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या सम्प्रदाय का हो । जब में दयालबाग की स्थापना की। दो व्यक्ति मिलते हैं तो एक-दूसरे का स्वागत 'राम राम' इस प्रकार पन्थ की स्थापना के ७० वर्षों के भीतर कहकर करते हैं। बच्चों के नामों में 'राम' का सर्वाधिक मुख्य गद्दी के अतिरिक्त सात गद्दियाँ और चल पड़ी। इस प्रयोग भारत में हुआ है। मृत्युकाल तथा दाहसंस्कार पर पन्थ में जाति-पाति का बन्धन नहीं है । हिन्दू संस्कृति का राम का ही स्मरण होता है । विरोध अथवा बहिष्कार तो नहीं है, परन्तु उसकी ओर से रामभक्ति से सम्बन्ध रखनेवाला साहित्य परवर्ती है । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामोत्तरतापनीय उपनिषद् रामचरितमानस रामपूजा के अनेक पद्धतिग्रन्य है। सात्वत संहिता इनमें से एक है । अध्यात्मरामायण में जीवात्मा एवं राम का तादात्म्य सम्बन्ध दिखाया गया है। इसका १५वाँ प्रकरण 'रामगीता' है। भावार्थ रामायण एकानाथ नामक महाराष्ट्रीय भक्तरचित १६वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। मद्रास से एक अन्य रामगीता प्रकाशित हुई है जो बहुत ही आधुनिक है। इसके पात्र राम और हनुमान् हैं तथा इसमें १०८ उपनिषदों की सामग्री का उपयोग हुआ है । राम सम्प्रदाय का महान् उच्च ग्रन्थ है रामचरितमानस जिसे वाल्मीकीय रामायण के हिन्दी प्रतिरूप गोस्वामी तुलसीदास ने प्रस्तुत किया है । भगवद्गीता तथा भागवत पुराण जैसे कृष्णसम्प्रदाय के जैसे लिए हैं, वैसे ही तुलसीदासकृत रामचरितमानस तथा वाल्मीकि रामायण रामसम्प्रदाय के लिए पारायण ग्रन्थ हैं । रामानुजाचार्य की परम्परा में स्वामी रामानन्द ने १४वीं शताब्दी में 'रामावत' उपनामक रामसम्प्रदाय की स्थापना की । की हदास नामक एक सन्त ने रामानन्द से अलग होकर 'खाकी' सम्प्रदाय प्रचलित किया। दे० 'श्रीराम' । रामोत्तरतापनीय उपनिषद् - राम सम्प्रदाय की यह उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों के परिच्छेदों के गठन से बनी है। और परवर्ती काल की है। रामकृष्ण - ( १ ) कर्ममीमांसा के एक आचार्य ( १६०० वि०) जिन्होंने पार्थसारथि मिश्र द्वारा रचित 'शास्त्रदीपिका' की 'सिद्धान्तचन्द्रिका' नामक टीका लिखी । (२) विद्यारण्य के एक शिष्य का नाम भी रामकृष्ण था, जिन्होंने 'पञ्चदशी' की टीका लिली । रामकृष्ण दीक्षित लाट्यायन श्रौतसूत्र ( सामवेद ) के एक भाष्यकार । साममन्त्रों पर जो सामवेद का व्याकरण ग्रन्थ है और जिसका एक नाम 'सामलक्षणम् प्रातिशाख्य- सूत्रम्' भी है, उस पर रामकृष्ण दीक्षित ने वृत्ति लिखी है। रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के निकटस्थ दक्षिणेश्वर के स्वामी रामकृष्ण परमहंस प्रसिद्ध शाक्त महात्मा थे। इनके एक गुरु तोतापुरी दसनामी संन्यासियों की शाखा के थे । ये उच्च कोटि के साधक संत थे । कहते हैं कि स्वयं भगवती दुर्गा ने दर्शन देकर इनको कृतार्थ किया था। इनके नाम को अमर किया इनके योग्य शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप रामकृष्ण परमहंस के नाम ५५१ पर न केवल भारतव्यापी वरन् विश्वव्यापी 'मिशन' कार्यरत है जो अनेकानेक क्षेत्रों में, देश व विदेशों में अपनी सेवाएँ वितरित कर रहा है। इस मिशन की देख-रेख में शैक्षणिक संस्थाएँ, औषधालय, पुस्तकालय, अनाथालय एवं साधनाश्रम, मठ आदि चल रहे हैं। रामकृष्ण - महाराष्ट्र के भागवत लोग आज भी प्राचीन भागवत मन्त्र 'ओम् नमो भगवते वासुदेवाय' का प्रयोग करते हैं, जबकि सार्वजनिक प्रयोग में विष्णुस्वामी मन्त्र 'राम कृष्ण हरि' ही प्रचलित है । रामगीता दे० 'राम' | रामचन्द्र गृह्यसूत्र पद्धति - रामचन्द्र नामक एक विद्वान् ने नैमिषारण्य में रहकर शांखायनगृह्यसूत्र का एक भाग्य रचा है। इसे रामचन्द्रगृह्यसूत्र पद्धति कहते हैं । रामचन्द्रतीर्थ - आनन्दतीर्थ (वैष्णवाचार्य मध्यमेवेद संहिता के कुछ अंशों का श्लोकबद्ध भाष्य किया था। रामचन्द्रतीर्य ने उस भाष्य की टीका लिखी है । रामचन्द्र दोलोत्सव – चैत्र शुक्ल तृतीया को इस उत्सव का विधान है। रामचन्द्रजी की प्रतिमा झूले में विराजमान कर उसे एक मास तक झुलाना चाहिए। जो लोग राम की प्रतिमा को झूला झूलते हुए देखते हैं उनके सहस्रों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं । रामचरन - कवीर की शिक्षाओं से प्रभावित होकर अनेक छोटे-मोठे सम्प्रदाय स्थापित हुए। इनमें 'रामसनेही' सम्प्रदाय भी एक है । इसके संस्थापक थे महात्मा रामचरन, जिनका स्थितिकाल १८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध कहा जाता है । रामचरन ने अपनी शिक्षाओं और भजनों का संग्रह 'बानी' नाम से लिखा है। रामचरितमानस यह रामसम्प्रदाय का पवित्र पठनीय और प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसकी रचना लगभग १५८४ ई० में काशी में गोस्वामी तुलसीदास ने की। इसकी भाषा अवधी है, किन्तु इस पर व्रजभाषा और भोजपुरी का भी प्रभाव है । इसकी अधिकांश सामग्री वाल्मीकीय रामायण से ली गयी है परन्तु इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा का सारांश संगृहोत और प्रतिपादित है । रामचरितमानस में निबन्ध रूप से भगवान् राम का चरित्र वर्णित है । इसमें सात सोपान अथवा काण्ड हैं( १ ) बालकाण्ड ( २ ) अयोध्याकाण्ड ( ३ ) अरण्य - काण्ड ( ४ ) किष्किन्धाकाण्ड (५) सुन्दरकाण्ड Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ रामजयन्ती-रामनवमी (६) लंकाकाण्ड (७) उत्तरकाण्ड । रामचरितमानस वेदान्तसार के प्रणेता स्वामी सदानन्द सोलहवीं शताब्दी मूलतः काव्य है किन्तु इसका उद्देश्य है भारतीय धर्म और में वर्तमान थे। नृसिंह सरस्वती ने सं० १५९८ विक्रमी दर्शन का प्रतिपादन करना । इसलिए इसमें उच्च दार्श- में वेदान्तसार की पहली टीका लिखी थी, रामतीर्थ निक विचार, धार्मिक जीवन और सिद्धान्त-वर्णाश्रम, उनके परवर्ती थे। अतः उनका स्थितिकाल सत्रहवीं अवतार, ब्रह्मनिरूपण और ब्रह्मसाधना, सगुण-निर्गुण, शताब्दी होना चाहिए। उनके गुरु स्वामी कृष्णतीर्थ थे । मूर्तिपूजा, देवपूजा, गो-ब्राह्मण रक्षा, वेदमार्ग का मण्डन, स्वामी रामतीर्थ ने 'संक्षेपशारीरक' के ऊपर 'अन्वयार्थ अवैदिक और स्वच्छन्द पन्थों की आलोचना, कुशासन की प्रकाशिका' एवं शङ्कराचार्यकृत 'वेदान्तसार' पर 'विद्वन्मनोनिन्दा, कलियुगनिन्दा, रामराज्य की प्रशंसा आदि विषयों रञ्जिनी' नाम की टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। इसी प्रकार पारिवारिक उन्होंने एक टीका मैत्रायणी उपनिषद् पर भी लिखी है । सम्बन्ध और प्रेम, पातिव्रत, पत्नीव्रत, सामाजिक व्यवहार, (२) अध्यात्म ज्ञान और त्याग-वैराग्य के लिए नैतिक आदर्श आदि का विवेचन भी इसमें यत्र-तत्र भरा प्रसिद्ध आधुनिक काल के एक आदर्श संन्यासी । ये पंजाब पड़ा है। मध्ययुग में जब चारों ओर से हिन्दू धर्म के में उत्पन्न और तीर्थराम नाम से प्रसिद्ध गणित के ऊपर विपत्तियों के बादल छाये हुए थे और वेद तथा ____ अध्यापक थे। विरक्त अवस्था में ये रामतीर्थ या 'राम शास्त्रों का अध्ययन शिथिल पड़ गया था, तब इस एक बादशाह' कहलाते थे। देश-विदेश में पर्यटन करते हुए ग्रन्थ ने उत्तर भारत में हिन्दू धर्म को सजीव और अन्त में ये उत्तराखण्ड में तपस्या करने लगे और इसी क्रम अनुप्राणित रखा । लोकभाषा में होने से सर्वसाधारण पर में गंगाप्रवाह में ब्रह्मलीन हो गये। इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ा। महाभारत की तरह रामदास-(१) महाराष्ट्र के भक्तों में प्रसिद्ध संत, रामाइस ग्रन्थ ने भी एक प्रकार से संहिता का रूप धारण नन्दी मत से प्रभावित और कवि महात्मा नारायण हुए। किया। धार्मिक और सामाजिक विषयों पर यह उदाहरण पीछे इनका नाम समर्थ रामदास पड़ा। स्थितिकाल का काम देने लगा। इसकी लोकप्रियता का रहस्य था १६०८ से १६८१ ई० तक था। इनकी कविता सामान्य इसकी समन्वय की नीति । इसलिए सभी धार्मिक सम्प्रदायों लोगों द्वारा उतनी ग्राह्य नहीं हई, जितनी विचारशील ने इसका आदर किया। इस एक ग्रन्थ ने जितना लोक- ज्ञानियों द्वारा आदत हुई। १६५० ई० के बाद महाराज मङ्गल किया है उतना बहुत से पन्थ और सम्प्रदाय भी। शिवाजी पर इनका बड़ा प्रभाव हो गया था। 'दासबोध' मिलकर नहीं कर पाये। नामक इनकी पुस्तक धार्मिक से अधिक दार्शनिक है। रामजयन्ती-भगवान् राम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को रामदासी नामक एक लघु सम्प्रदाय इनके नाम से प्रचलित हुआ था, इसलिए यह जयन्ती चैत्र शुक्ल नवमी को मनायी है । इसका अपना साम्प्रदायिक चिह्न तथा पवित्र मन्त्र है। जाती है। इस अवसर पर व्रत, पूजा, कीर्तन, मङ्गल- केन्द्र है इसका सतारा के निकट सज्जनगढ़, जहाँ रामदासवाद्य, नाच, गान आदि होता है। जी की समाधि, रामचन्द्रजी का मन्दिर एवं रामदासी रामटेक-वनवास के समय राम के टिकने का स्थान या मठ है । वहाँ इस सम्प्रदाय के अनेक साधु रहते हैं । पड़ाव । यह एक तीर्थ है। नागपुर से रामटेक स्टेशन (२) सिक्खों के दस गुरुओं में से तीसरे गुरु रामदास २६ मील है। वहाँ से बस्ती एक मील है। पास में राम- थे। ये अमरदास के शिष्य थे। इन्होंने अनेक पद लिखे हैं गिरि नामक पर्वत है। ऊपर श्रीराममन्दिर है। सामने जो 'ग्रन्थ साहब' में संगृहीत है । वराह भगवान् की मूर्ति है। दो मील पर रामसागर रामदासी पंथ-दे० 'रामदास' । तथा अम्बासागर नामक दो पवित्र सरोवर हैं। इनके रामनवमी-चैत्र शुक्ल नवमी को रामनवमी कहते हैं । किनारे कई मन्दिर हैं। रामटेक में एक जैनमन्दिर भी इसी दिन भगवान राम का जन्म हुआ था। इस दिन है। कुछ विद्वानों का मत है कि कालिदास के मेघदूत का वैष्णव मन्दिरों में राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। रामगिरि यही है । दे० मिराशी : 'कालिदास' । बहत से तीर्थों में इस तिथि को मेला भी लगता है, अयोध्या रामतीर्थ स्वामी-(१) वेदान्तसार के टीकाकार। पुरी में विशेष समारोह होता है। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामनाथ शेव- रामराज्य रामनाथ शेव त्रिपुरा ग्रामवासी पं० रामनाथ विग्रन्थविशारद ने सन्देहभूमिका नामक एक पुस्तक लिखी है । शिवपुराण की विषयसूची का यह एक मात्र साधन है । रामनामले बनवत - इस व्रत का प्रारम्भ रामनवमी को अथवा किसी भी दिन किया जा सकता है । श्री राम का नाम एक लक्ष या एक कोटि बार लिखा जाता है । राम के नाम का एक भी अक्षर महापातकों को नष्ट करने में समर्थ है (एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्) | इस व्रत के अनुसार लिखित रामनाम का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। राम के नाम में अद्भुत चमकार भरे हुए हैं, इस कारण १०८ या १००० बार रामनामजपने का प्रचलन हो गया है । दे० व्रतराज, ३३०३३२ । - रामपूर्वतापनीयोपनिषद् - इस उपनिषद् के पर्यालोचन से जान पड़ता है कि इसकी रचना के समय या इससे पूर्व रामोपासक सम्प्रदाय प्रचलित था। इसमें राम को अवतारब्रह्म माना गया है तथा "रां रामाय नमः" यह मन्त्र कहा गया है। इसमें एक रहस्यमय यन्त्र भी अंकित है जो मुक्ति तथा आनन्ददायक कहा गया है । एक पवित्र शब्द भी लिखा गया है, जो पवित्र मन्त्र का वाहक है। रामभक्त - तमिल देश में आज कोई विशिष्ट रामभक्त सम्प्रदाय नहीं है, किन्तु वहाँ ' रामभक्तों' अर्थात् साधुओं की भरमार है, जो राम के भजन ध्यान से ही मुक्ति प्राप्ति का विश्वास करते हैं। ये वहाँ के प्राचीन रामभक्त सम्प्रदाय के अवशेष हैं । राम भार्गवावतार - ऐतरेय ब्राह्मण में राम भार्गवावतार का वर्णन है। पुराणों के अनुसार राम ( भार्गव ) विष्णु के प्रसिद्ध अवतारों में से हैं, जो परशुराम भी कह लाते हैं । राम मिश्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य जो नाथ मुनि के प्रशिष्य तथा पुण्डरीकाक्ष के शिष्य थे । राम मिश्र के उपदेश के प्रभाव से यामुनाचार्य राजसम्मान छोड़कर रङ्गनाथजी के सेवक हो गये थे । एक तरह से संन्यासी यामुनाचार्य के ये गुरु थे । राममिश्र के बारे में विशेष बातें नहीं ज्ञात हैं । - राममोहन राय - बङ्गाल के प्रकाण्ड विद्वान्, सुधारक और ब्रह्मसमाज के आदि प्रवर्तक सं० १८०५ वि० में एक ब्राह्मण जमींदार के घर हुगली जिले के राधानगर में ७० ५५३ राजा राममोहन राय का जन्म हुआ। आरम्भ में इनकी शिक्षा पटना में अरबी-फारसी के माध्यम से हुई इस्लाम का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, फिर इन्होंने काशी में संस्कृत का पूरा अध्ययन किया। एक ओर वेदान्तदर्शन का अध्ययन तथा दूसरी ओर मूफी मत का अध्ययन करने के फलस्वरूप ये ब्रह्मवादी हो गये, मूर्तिपूजा के विरोधी तो प्रारम्भ से ही थे । बाईस वर्ष की अवस्था से अंग्रेजी पढ़कर ये ईसाइयों के सम्पर्क में आ गये । ईसाई धर्म के मूल तत्त्व को समझने के लिए इन्होंने यूनानी और इब्रानी भाषाएँ पढ़ीं और ईसाइयों के त्रित्ववाद और अवतारवाद का खण्डन किया। अन्त में जाति-पांति, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद आदि हिन्दू मन्तव्यों के विरुद्ध प्रचार करने और एक ब्रह्म की उपासना करने के लिए सं० १८८५ वि० के भाद्रपद मास में इन्होंने 'ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। पहले इस संस्था में राममोहन राय साधारण सदस्य की तरह सम्मिलित हुए । वास्तव में ये ही उसके प्राण थे। तीन वर्ष पश्चात् ये दिल्ली के बादशाह की ओर से राजा की उपाधि और दौत्य कर्म का अधिकार लेकर इंग्लैंड गये। वहीं सं० १८९० वि० की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को ज्वरग्रस्त होकर ब्रिस्टल में शरीर छोड़ा। इसी नगर में उनकी समाधि बनी हुई है। रामरंजा पंथ - सिक्खों में सहिजधारी और सिंह दो सम्प्रदाय हैं । इनके भी अनेक पंथ हैं । सहिजधारियों के छ: पंथ हैं तथा सिंहों के तीन । रामरंजा पंथ सहिजधारियों की एक शाखा है । इस पंथ के चलाने वाले गुरु हरराय के पुत्र रामराय थे | रामराज्य - हिन्दू राजनीति में राम को आदर्श राजा एवं वेण को अधम माना गया है। आज भी अच्छी राजव्यवस्था के लिए 'रामराज्य' शब्द का प्रयोग होता है। महात्मा गान्धी उसी रामराज्य की कल्पना भारतीयों के समक्ष रखा करते थे । संक्षेप में रामराज्य की कल्पना गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस रामायण में इस प्रकार की है : भौतिक तापा । दैहिक दैविक रामराज्य सपनेहुँ नहि व्यापा ॥ [ राम के राज्य में दैहिक, दैविक तथा भौतिक तीनों Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ प्रकार के दुःख किसी को स्वप्न में भी नहीं हुए । ] पूरे विवरण के लिए दे० रामचरितमानस, उत्तर काण्ड । रामराव शिवखों के गुरु हरराय के पुत्र का नाम रामराय था। इन्होंने रामरंजा पंथ (सहिजचारियों की एक शाखा ) चलाया । देखिए 'रामरंजा ।' रामलीला रामायणकथा का नाटकीय रूप । उत्तर भारत के प्रमुख गांवों तथा नगरों में शारदीय दुर्गोत्सव के समय रामलीला प्रदर्शित होती है। रामलीला का प्रचलन गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्रारम्भ किया था। इसमें रामायण के मुरूप-मुख्य स्थल रामजन्म, यज्ञरक्षा, स्वयंवर, वनगमन, सूर्पणखा नासिका कर्त्तन, सीताहरण, राम सुग्रीव-मैत्री सीता की खोज, राम-रावण युद्ध, भरतमिलाप, रामराजसिंहासनप्राप्ति आदि दृश्य नाट कीय ढंग से दिखाये जाते है। समस्त भारत में काशी एवं रामनगर की रामलीलायें प्रसिद्ध हैं। रामलीला की प्रत्येक घटना के प्रदर्शन के लिए यहाँ अलग-अलग स्थान बने हुए हैं। रामलीला की व्यवस्था भूतपूर्व काशीनरेश की ओर से होती है। 1 रामविजय - महाराष्ट्र भक्तों में सन्त श्रीधर ( १६७९ - १७२८ ) भी प्रसिद्ध हैं । इनकी लोकप्रिय रचना है 'रामविजय' । रामसनेही सम्प्रदाय इसके प्रवर्तक महात्मा रामचरन है । सम्प्रदाय की स्थापना १६५० ई० के लगभग हुई। रामचरन ने अनेक बानियाँ एवं पद रचे हैं। इस सम्प्रदाय के तीसरे गुरु दूल्हाराम ने १०,००० पद एवं ४,००० दोहे रचे थे। इनके प्रार्थनामन्दिर रामद्वारा कहलाते हैं जो अधिकांश राजस्थान में पाये जाते हैं। पूजा में गान तथा शिक्षा सम्मिलित हैं। इनका मुख्य केन्द्र शाहपुर है, किन्तु ये जयपुर, उदयपुर तथा अन्य स्थानों में भी रहते हैं । इनके अनुयायी गृहस्थों में नहीं है। अतएव यह सम्प्रदाय अवनति पर है और केवल कुछ साधुओं का वर्ग मात्र रह गया है । -- रामाई पण्डित - मयूर भट्ट की व्याख्या में 'धर्म' नामक सम्प्रदाय का उल्लेख किया गया है । यह सम्प्रदाय बौद्ध तांत्रिकवाद का अवशेष था । इस सम्प्रदाय का पहली प्राप्त रचना ' शून्य पुराण' है जिसके रचयिता रामाई पण्डित हैं । यह ११वीं शताब्दी की रचना है । रामाई रामराय रामानन्द पण्डित ने इसमें 'धर्म सम्प्रदाय' के धार्मिक दर्शन एवं यज्ञादि का वर्णन किया है। देखिए 'मयूर भट्ट । रामाचार्य - माध्य मतावलम्बी आचार्य व्यासराज इनके गुरु थे । रामाचार्य ने 'तरङ्गिणी' नामक वेदान्त व्याख्या में अपना कुछ परिचय दिया है। इनके विद्वान् पिता का नाम विश्वनाथ था, जन्म व्यासकुल के उपमन्यु गोत्र में हुआ था । ये गोदावरी के तट पर अंधपुर नामक गाँव में रहते थे । बड़े भाई का नाम नारायणाचार्य था । कहते हैं, अपने गुरु की आज्ञा से इन्होंने मधुसूदन सरस्वती का विद्याशिष्यत्व ग्रहण किया और उनके अद्वैतमत का तात्पर्य जानकर बाद में अद्वैतमत का खण्डन किया । इससे इनका काल सत्रहवीं शताब्दी ज्ञात होता है । इन्होंने न्यायामृत की टीका 'तरङ्गिणी' के नाम से लिखी थी । तरङ्गिणी से इनके अपूर्व पाण्डित्य का पता लगता है। इसमें इन्होंने अद्वैत मत का खण्डन और माध्व मत का प्रतिपादन किया है । ब्रह्मानन्द सरस्वती ने तरङ्गिणीकार रामाचार्य के मत का खण्डन करने के लिए 'अद्वैतसिद्धि' पर 'लघुचन्द्रिका' नामक टीका लिखी है। रामाज्ञाप्रवन - गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में एक 'रामाज्ञाप्रश्न' भी है। यह पद्यों का सङ्कलन है, जिसका प्रयोग यात्रारंभ अथवा किसी महत्वपूर्ण कार्य को आरम्भ करते समय शकुन के रूप में करते हैं। इसकी सामग्री रामचन्द्रजी का जीवनचरित है जो सात काण्डों में है । शकुन का विचार एक पथ को चुनकर ( बिना देखे ) करते हैं। गोस्वामीजी के एक मित्र पंडित गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रहलादघाट पर रहा करते थे । रामाज्ञा प्रश्न उन्हीं के अनुरोध से रचित माना जाता है । रामानन्द — उत्तर भारत में रामभक्ति को व्यापक रूप देने वाले वैष्णव महात्मा । इनके पूर्व अनेक वैष्णव भक्त हो चुके हैं, जिनमें नामदेव तथा त्रिलोचन महाराष्ट्र प्रान्त में एवं सदन तथा बेनी आदि उत्तर भारत में प्रसिद्ध रहे हैं। किन्तु वास्तविक रामोपासक सम्प्रदाय स्वामी रामानन्द से प्रचलित माना जाता है। इनका नाम आधुनिक हिन्दू धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, किन्तु दुर्भाग्यवश इनके बारे में बहुत कम वृत्तान्त ज्ञात है। इनके जीवनकाल की विभिन्न तिथियाँ प्रस्तावित हैं किन्तु अब इन्हें समय की निश्चित सीमा में बांधना सम्भव हो गया है। इनके एक राजकुलीन शिष्य पीपा १४२५ ई० में पैदा हुए। दूसरे Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानन्ददिविजय-रामानुज शिष्य कबीर १४४० से १५१८ ई० तक रहे। स्पष्ट है कि कबीर रामानन्द के सबसे पीछे के शिष्य नहीं थे । अतएव यह बहुत कुछ सत्य होगा यदि रामानन्द का काल १४०० से १४७० ई० तक मान लिया जाय । किसी भी तरह १० वर्ष का हेरफेर भूल माना जा सकता है। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म प्रयाग में हुआ, किन्तु नैष्ठिक संन्यासी के रूप में अपने जीवन का अधिकांश भाग इन्होंने काशी में व्यतीत किया। सभी परम्पराएँ मानती हैं कि वे रामानुज सम्प्रदाय के सदस्य थे तथा उनके अनुयायो आज भी श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के साम्प्रदायिक चिह्न के विकसित रूप का प्रयोग करते है । अतः कहा जा सकता है कि उनका सम्बन्ध श्रीसम्प्रदाय से भी था। श्रीवैष्णव विष्णु के सभी अवतारों एवं उनको पत्नियों ( शक्तियों) के देवत्व को स्वीकार करते हैं । परन्तु कृष्णावतार के अति प्रसिद्ध और पूर्ण होते हुए भी राम एवं नरसिंह अवतार का इनके बीच अधिक आदर है । इसलिए यह ध्यान देने योग्य है कि रामानन्द ने स्वतन्त्र रूप में केवल राम, सीता तथा उनके सेवकों की पूजा को ही विशेषतया अपनाया। उनके तथा उनके शिष्यों के मध्य राम नाम का प्रयोग ब्रह्म के लिए होता है। इनका गुरुमन्त्र श्रीवैष्णवमन्त्र ( नारायणमन्त्र) नहीं है, अपितु 'रां रामाय नमः है'। तिलक भी श्रीवैष्णव नहीं है । फलतः इनके सम्प्रदाय का नामकरण करना कठिन है । रामानन्द श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत होते तो उन्हें त्रिदण्डी कहा जाता । किन्तु वे त्रिदण्डी नहीं थे, जैसे कि श्रीवैष्णव होते हैं। श्रीवैष्णवों के सदश वे भोजन के सम्बन्ध में कठोर आचारी भी नहीं थे। पुराने समय से ही देखा जाता है कि एक ऐसा भी सम्प्रदाय था जो अपनी मुक्ति केवल 'राम' की भक्ति में मानता था एवं प्राप्त उल्लेखों के अनुसार इसे उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण का ही माना जा सकता है । यदि ऐसा मान लें कि यह रामसम्प्रदाय दक्षिण के तमिल देश का था तथा श्रीवैष्णवों से सम्बन्धित था तथा रामानन्द इससे सम्बन्धित थे, तो पहेली सुलझ जाती है। रामानन्द इसे ग्रहण कर दक्षिण से उत्तर आये होंगे तथा 'राम' में मुक्ति लाभ का आदर्श एवं राममन्त्र अपने साथ लाये होंगे। संभव है, रामानन्द 'अध्यात्मरामायण' तथा 'अगस्त्यसुतीक्ष्णसंवाद' भी अपने साथ लाये हों । यद्यपि प्रमाण पक्का नहीं है कि वे ही इन ग्रन्थों को इधर लाये थे, किन्तु इन ग्रन्थों का उनके शिष्यों द्वारा बड़ा आदर एवं प्रयोग हुआ है । तुलसीदास के रामचरितमानस के ये ही स्रोत हैं। अगस्त्यसुतीक्षणसंवाद का उपयोग आज भी रामानन्दी वैष्णव करते हैं, क्योंकि यह संवाद रामानन्द की जीवनी के साथ प्रकाशित हुआ है। रामानन्द रामानुजविरचित श्रीभाष्य पढ़ने के अभ्यासी थे, यद्यपि यह श्रीवैष्णवों के लिए रचा गया था। कारण यह है कि इसका स्पष्ट ईश्वरवाद सभी ईश्वरवादियों के अनुकूल था । रामानन्द के शिष्य एवं अनुयायी भी इसी भाष्य को आदर से पढ़ते रहे हैं, क्योंकि कोई भी रामानन्दी वेदान्त भाष्य प्रचलित नहीं हुआ। रामानन्द के धार्मिक आन्दोलन में जाति-पाँति की छूट थी । शिष्यों को ग्रहण करने में वे जाति का विचार नहीं करते थे, जो एकदम नयी दिशा थी। उनके शिष्यों में न केवल एक-एक शूद्र, जाट एवं जातिबहिष्कृत पाये जाते हैं बल्कि एक मुसलमान तथा एक स्त्री भी उनकी शिष्य थी । उनका एक पद उनके शिष्यों में नहीं, बल्कि सिक्खों के ग्रन्थ साहब में प्राप्त होता है। यह बहुमान्य है कि रामानन्द विशिष्टाद्वैत वेदान्तमत को मानने वाले थे । उनकी शिक्षा सगुण-निर्गण एकेश्वरवाद का समन्वय करती थी, जो कबीर, तुलसी, नानक तथा अन्य रामानन्द के अनुयायी सन्तों में देखने में आती है । भारत में रामानन्दी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है। रामानन्वदिग्विजय-यह स्वामी रामानन्द के जीवनवृत्तान्त पर प्रकाश डालने वाला एक काव्य ग्रन्थ है। रामानन्द सरस्वती-वेदान्तसूत्र पर 'ब्रह्मामृतवर्षिणी' टीका के लेखक (१६वीं शताब्दी के अन्त में ) । इन्होंने योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक प्रसिद्ध वृत्ति रची है। इनका एक और ग्रन्थ 'विवरणोपन्यास' है जो पद्मपादाचार्य कृत ‘पञ्चपादिका' पर प्रकाशात्मयति के लिखे हुए विवरण नामक ग्रन्थ पर एक निबन्ध है । ये रत्नप्रभाकार गोविन्दानन्द स्वामी के शिष्य थे । अपने गुरु की भाँति ये भी रामभक्त थे । इनका स्थिति काल १७वीं शताब्दी था। रामानुज-आचार्य रामानुज का जन्म १०७४ वि० में दक्षिण भारत के भूतपुरी ( वर्तमान पेरेम्बुपुरम् ) नामक स्थान में हुआ था। ये काञ्ची नगरी में यादवप्रकाश के पास वेदान्त का अध्ययन करने गये। इनका वेदान्त का Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामानुज ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि कभी-कभी इनके ही नाम पर 'रामानुज दर्शन' के नाम से विख्यात होगा। तर्कों का उत्तर देना यादवप्रकाश के लिए कठिन हो जाता मैसूर के राजा विट्टिदेव की सहायता से रामानुज ने था। इनकी विद्या की ख्याति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। श्रीवैष्णव मत का प्रचार करने के लिए ७४ शिष्य नियत यामुनाचार्य इन्हीं दिनों गुप्त रूप से आकर इन्हें देख गये किये । इस प्रकार सारा जीवन भजन-साधन तथा धर्मऔर इनकी प्रतिभा से बड़े प्रसन्न हुए। यामुनाचार्य की प्रचार में व्यतीत कर आचार्य ने ११९४ वि० में दिव्यधाम तीन इच्छाएँ जीवन में अपूर्ण रह गयी थीं जिन्हें वे अपनी को प्रस्थान किया। मृत्यु के पहले रामानुज को बताना चाहते थे, किन्तु इनके यतिराज रामानज ने अपने मत की पुष्टि के लिए पहुँचने के पूर्व ही वे दिवंगत हो गये थे। उनकी तीन 'श्रीभाष्य' के अतिरिक्त वेदान्तसंग्रह, वेदान्तदीप, वेदान्तउँगलियाँ मुड़ी रह गयी थीं। लोगों ने इसका कारण वे सार, वेदान्ततत्त्वसार, गीताभाष्य, गद्यत्रय, भगवदाराधनतीनों प्रतिज्ञाएँ बतायीं, जो इस प्रकार थीं-(१) ब्रह्मसूत्र क्रम की भी रचना की। इसके अतिरिक्त अष्टादशरहस्य, का भाष्य लिखना, (२) दिल्ली के तत्कालीन सुलतान के कण्टकोद्धार, कूटसन्दोह, ईशावास्योपनिषद्भाष्य, गुणरत्नयहाँ से श्रीराममूर्ति का उद्धार करना तथा (३) दिग्वि कोश, चक्रोल्लास, दिव्यसूरिप्रभावदीपिका, देवतास्वारस्य, जयपूर्वक विशिष्टाद्वैत मत का प्रचार करना। रामानुज ने न्यायरत्नमाला, नारायणमन्त्रार्थ, नित्यपद्धति, नित्याज्यों ही इन्हें पूरा करने का वचन दिया त्यों ही उनकी राधनविधि, न्यायपरिशुद्धि, न्यायसिद्धान्ताञ्जन, पञ्चपटल, उँगलियाँ सीधी हो गयीं । यामुनाचार्य का अन्तिम संस्कार पञ्चरात्ररक्षा, प्रश्नोपनिषद् व्याख्या, मणिदर्पण, मतिमानुष, कर वे सीधे काञ्ची चले आये । यहाँ महापूर्ण स्वामी से मुण्डकोपनिषद् व्याख्या, योगसूत्रभाष्य, रत्नप्रदीप, रामव्यासकृत वेदान्तसूत्रों के अर्थ के साथ तीन हजार गाथाओं पटल, रामपद्धति, रामपूजापद्धति, राममन्त्र पद्धति, का उपदेश भी प्राप्त किया। वैवाहिक जीवन से ऊबकर वे रामरहस्य, रामायणव्याख्या, रामार्चापद्धति, वार्तामाला, संन्यासी हो गये थे। विशिष्टाद्वैत भाष्य, विष्णुविग्रहशंसनस्तोत्र, विष्णुसंन्यास लेने पर रामानुज स्वामी की शिष्यमण्डली सहस्रनाम भाष्य, वेदार्थसंग्रह, वैकुण्ठगद्य, शतदूषणी, बढ़ने लगी। उनके बचपन के गुरु यादवप्रकाश ने भी शरणागति गद्य, श्वेताश्वतरोपनिषद् व्याख्या, संकल्पउनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया तथा यतिधर्मसमुच्चय सूर्योदय टीका, सच्चरित्र रक्षा, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों नामक ग्रन्थ की रचना की। अनेक शिष्य उनके पास की भी रचना की। किन्तु यह पता नहीं लगता कि कौन आकर वेदान्त का अध्ययन करते थे । उन्हीं दिनों यामुना- सा ग्रन्थ कब लिखा गया। उन्होंने अपने ग्रन्थों में शाङ्कर चार्य के पुत्र वरदरङ्ग काञ्ची आये तथा आचार्य से श्री- मत का जोरदार खण्डन करने की चेष्टा की है। रङ्गम् चलकर वहाँ का अध्यक्षपद ग्रहण करने की प्रार्थना रामानुज ने यामुनाचार्य के सिद्धान्त को और भी की। रामानुज उनकी प्रार्थना स्वीकार कर श्रीरङ्गम् में विस्तृत करके सामने रखा है। ये भी तीन ही मौलिक रहने लगे। उन्होंने यहाँ फिर गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली। पदार्थ मानते हैं-चित ( जीव ). अचित ( जड समह ) गोष्ठीपूर्ण ने योग्य समझ कर उन्हें मन्त्ररहस्य बता दिया और ईश्वर या पुरुषोत्तम । स्थूल-सूक्ष्म, चेतन-अचेतनऔर आज्ञा दी कि वे किसी को मन्त्र न दें। रामानुज को विशिष्ट ब्रह्म ही ईश्वर है। अनन्त जीव और जगत् जब यह ज्ञात हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से मनुष्य मुक्त उसका शरीर है । वही इस शरीर का आत्मा है। ब्रह्म हो सकता है तो वे मन्दिर की छत पर चढ़कर चिल्ला- सगुण और सविशेष है। उसकी शक्ति माया है । ब्रह्म चिल्लाकर सैकड़ों नर-नारियों के सामने मन्त्र का उच्चारण अशेष कल्याणकारी गुणों का आलय है। उसमें निकृष्ट करने लगे। गुरु ने इससे क्रुद्ध हो उन्हें नरक जाने का कुछ भी नहीं है। सर्वेश्वरत्व, सर्वशेषित्व, सर्वकर्माशाप दिया। इस पर रामानुज ने कहा कि गुरुदेव, यदि राध्यत्व, सर्वफलप्रदत्व, सर्वाधारत्व, सर्वकार्योत्पादकत्व, मेरे नरक जाने से हजारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाय। समस्त द्रव्यशरीरत्व आदि उसके लक्षण हैं। वह सूक्ष्म तो मुझे वह नरक स्वीकार है । रामानुज की इस उदारता चिदचिद्विशेष रूप में जगत् का उपादान कारण है, सङ्कल्पसे प्रसन्न हो गरुने कहा-'आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे विशिष्ट रूप में निमित्त कारण है । जीव और जगत उसका Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण - रामावतार शरीर है। वह सृष्टि-स्थिति-संहारकर्ता है; पर व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार भेद से वह पाँच प्रकार का है; शख, चक्र, गदा, पद्यधारी चतुर्भुज है श्री भू और लीला देवी सहित है; किरीटादि भूषणों से अलंकृत है । जगत् जड़ है और ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म ही जगत् का उपादान और निमित्त कारण है । वह जगत् रूप में प्रकट होकर भी विकाररहित है जगत सत् है, मिथ्या नहीं है। जीव भी ब्रह्म का शरीर है । ब्रह्म और जीव दोनों चेतन हैं । ब्रह्म विभु है, जीव अणु है । ब्रह्म पूर्ण है, जीव खण्डित है । प्रत्येक शरीर में जीव भिन्न है । भगवान् के दासत्व की प्राप्ति ही मुक्ति है। वैकुण्ठ में श्री, भू, लीला देवियों के साथ नारायण की सेवा करना ही परम पुरुषार्थ कहा जाता है मुक्ति विद्या अर्थात् उपासना द्वारा प्राप्त होती है । उपासनात्मक भक्ति ही मुक्ति का श्रेष्ठ साधन है। ध्यान और उपासना आदि मुक्ति के साधन हैं । सब प्रकार से भगवान् के शरण हो जाना प्रपत्ति का लक्षण है। नारायण विभु हैं, भूमा है, उनके चरणों में आत्मसमर्पण करने से जीव को शान्ति मिलती है। उनके प्रसन्न होने पर मुक्ति मिल सकती है। सब विषयों को त्याग कर उनकी ही शरण लेनी चाहिए। रामायण - संस्कृत का वाल्मीकि रामायण प्राचीन भारत के दो महाग्रन्थों में से एक है । महाभारत के वनपर्व में रामोपाख्यान का वर्णन करने के पहले कहा गया है कि 'राजन् ! पुराने इतिहास में जो कुछ घटना हुई है वह सुनो' ( अध्याय २७३, श्लोक ६ ) । इस स्थान पर पुरातन शब्द से विदित होता है कि महाभारत काल में रामायणी कथा पुरातनी कथा हो चुकी थी। इसी तरह द्रोणपर्व में लिखा है : 'अपि चार्य पुरा गीतः इलोको वाल्मीकिना भुवि ।' इन बातों से स्पष्ट है कि महाभारत की घटनाओं से सैकड़ों वर्ष पहले वाल्मीकि रामायण की रचना हो चुकी होगी । वाल्मीकि के ही कथनानुसार ( बालकाण्ड, सर्ग ४ ) उन्होंने रामायण में २४,००० श्लोक रचे जो पाँच सौ सर्गों में बँटे थे । आजकल इसके तीन प्रकार के पाठ प्रचलित हैं : औदीच्य, दाक्षिणात्य और प्राच्य (गौडीय) | इन तीनों में पाठभेद तो है ही पर किसी में न तो २४००० श्लोक हैं और न ५०० सर्ग । इसका साहित्यिक एवं धार्मिक महत्व सर्वाधिक है। यह पहला महाकाव्य है। ५५७ इसीलिए इसे आदिकाव्य भी कहते हैं तथा इसके कवि को आदिकवि कहते हैं इसका ही अनुकरण परवर्ती संस्कृत कवियों ने किया । कालिदास का रघुवंश महाकाव्य एवं भवभूति का उत्तररामचरित नाटक इसी ग्रन्थ पर आधारित हैं । आज भी लाखों भारतवासी इसका पाठ करते और सुनते हैं । मध्यकाल में स्थानीय भाषाओं में इसके रूपान्तर आरम्भ हुए। सबसे महत्त्वपूर्ण 'रामचरित - मानस' तुलसीदासकृत हिन्दी में बना जो उत्तर भारत के निवासियों के लिए परम पवित्र ग्रन्थ है । रामलीला आज देश के कोने-कोने में प्रचलित है, जिसके द्वारा रामचरित्र के विशिष्ट रूप जनता के सामने रखे जाते हैं । भारतीय जनजीवन तथा विचारों पर जितना प्रभाव इस ग्रन्थ का है उतना शायद ही किसी ग्रन्थ का प्रभाव पड़ा हो । राम के आदर्श चरित्र का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि राम की पूजा विष्णु के अवतार के रूप में हुई, जिसके मुख्य प्रचारक १२वीं शताब्दी के रामानुज तथा १४वीं शताब्दी के रामानन्द थे । ७०० वि० पूर्व से लेकर १३० वि० पू० तक के बीच विभिन्न विद्वानों ने रामायण का रचना काल माना है । ऊपर इसकी महाभारत की अपेक्षा प्राचीनता कही गयी है । सभी विद्वानों के प्रमाणों पर भली भांति विचार करने से रामायण को प्रायः चौथी शताब्दी वि० पू० के मध्य वर्तमान रूप में प्रस्तुत हुआ माना जा सकता है । किन्तु इसमें दूसरी शती वि० तक कुछ परिवर्तन तथा परिवर्तन होता रहा। रामायणव्याख्या - यह रामानुज रचित एक ग्रन्थ है । रामाचपद्धति यह वैष्णवाचार्य रामानुज रचित एक ग्रन्थ है । रामावत सम्प्रदाय - स्वामी रामानन्द ने रामावत सम्प्रदाय की स्थापना की ये रामानुज स्वामी की श्रीवैष्णवपरम्परा में हुए थे । | परन्तु इन्होंने मध्ययुग की नयी परिस्थिति में अपने सम्प्रदाय को उदार बनाया। इन्होंने धर्म में जाति-पांति का बन्धन ढीला किया और इसका द्वार सभी के लिए खोल दिया । रामावत सम्प्रदाय में सवर्ण, वर्णेतर स्त्री, मुसलमान आदि सभी दीक्षित थे । इस सम्प्रदाय का मन्त्र था 'रां रामाय नमः ।' रामावतार - विष्णु के अवतारों के क्रम में रामावतार सप्तम माना जाता है । भगवान् का यह अवतार चिर काल से Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ रामेश्वरम् रुक्मिणी चली आ रही अव्यवस्था को व्यवस्था में परिणत करने के रामोपासक सम्प्रदाय-श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द लिए हुआ था। परशुरामावतार के समय क्षात्र और स्वामी ने वैष्णव धर्म के संरक्षण के लिए अपूर्व प्रयत्न ब्राह्म शक्तियों का सामञ्जस्य समाप्त हो गया था। अतः किया। इन्होंने रामोपासक सम्प्रदाय की स्थापना की धार्मिक व्यवस्था सुदृढ नहीं रह गयी थी। ब्राह्मण वंश में जिसके सबसे बड़े प्रचारक तुलसीदास हए। भी रावण जैसे अत्याचारी निशाचरों का जन्म होने लगा राम्य जामाता मुनि-राम्य जामाता मुनि (१३७०-१४४३) था । अतएव त्रेता युग के समय भगवत्शक्ति के अवतार को मतवाल मुनि भी कहते हैं। श्रीरङ्गम की (श्रीवैष्णव) की आवश्यकता प्रतीत हुई। यह अवतार क्षत्रिय वर्ण में शाखा के अध्यक्ष वेदान्तदेशिक के विरोध में इस सम्प्रदाय इसलिए हुआ कि उस समय क्षत्रिय कुल के लिए परम के अन्तर्गत दो और शाखाएँ आरम्भ हुई जो क्रमशः आदर्श मानवचरित्र निर्माण की आवश्यकता थी, जिससे उत्तरी तथा दक्षिणी शाखाएँ कहलाती है । इनमें से दक्षिणी कि चरित्र निर्माण के साथ ही राक्षसावस्था को सम्प्राप्त शाखा या 'तेलङ्गइ' के नेता थे राम्य जामाता मुनि । ये ब्राह्मणशक्ति को नष्ट कर, क्षात्रशक्ति के साथ ब्रह्मशक्ति वेदान्तदेशिक के पश्चात श्रीरङ्गम में शिक्षक थे। इनके का धर्मानुकूल सामञ्जस्य किया जा सके । इसीलिए भगवान् भाष्य तथा विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ पर्याप्त प्रयोग में आते हैं। रामरूप में क्षत्रियवंश में अवतरित हुए । इसी प्रकार भगवान् इन उत्तरी तथा दक्षिणी शाखाओं के नेताओं के समय से की शक्ति महामाया ने भी आदर्श पातिव्रत की रक्षा के श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की शाखाओं का अन्तर बढ़ता गया। लिए एवं सतीत्वधर्म संरक्षणार्थ सीता के रूप में अवतार इनके ग्रन्थ हैं 'तत्त्वनिरूपण' तथा 'उपदेशरत्नमाला' । ग्रहण क्यिा था । विस्तृत चरित्र के लिए दे० 'रामायण' । रासलीला-कृष्णभक्ति में आनन्द की उत्कट अभिव्यक्ति के रामेश्वर-(१) एक शवाचार्य ( १७५० ई०)। इन्होंने लिए कृष्ण के बालचरितों का अनुकरण करना रासलीला 'शिवायन' नामक ग्रन्थ रचा है। है। इसमें मण्डलनृत्य किया जाता है । महाप्रभु चैतन्य के (२) रामेश्वर (म् ) प्रसिद्ध शैव तीर्थस्थान. जो दक्षिण रूप तथा सनातन आदि छः अनुयायी वृन्दावन में निवास समुद्र के सेतुबन्ध पर स्थित है । कहते हैं, इनकी स्थापना करते थे । अनेक ग्रन्थों की रचना के साथ ही साथ इन भक्तों भगवान् राम ने की। ने रासलीला का वार्षिक उत्सव भी प्रारम्भ किया। इसमें रामेश्वरम्-रामसेतु नामक रेतीले टीले का सिलसिला कृष्ण के साथ गोपियों के नृत्य का प्रदर्शन ही मुख्य होता रामेश्वरम् द्वीप से लेकर मन्नार की खाड़ी से होता हुआ है। बीच में कृष्ण तथा उनके चारों ओर मण्डलाकार श्रीलङ्का के तट तक चला गया है। इसकी लम्बाई ३० गोपियों का समूह मिलकर एक मण्डल का निर्माण करता मील है । कहा जाता है कि रामायण के नायक श्री राम है । भगवान् के सायुज्य में नृत्य द्वारा रस ( प्रेम ) का ने जब बन्दर तथा भालुओं की सेना के साथ लङ्का के परिपाक करना इसका मुख्य उद्देश्य है । भागवतपुराण राजा रावण पर आक्रमण करना चाहा तो समुद्र पार (रासपञ्चाध्यायी ) में भगवान कृष्ण के रास का रहस्यमय करना सेना के लिए कठिन जान पड़ा। राम ने यहाँ पर वर्णन है। एक पुल बनवाया जो आज भी भग्नावस्था में पड़ा है। राहु-राहु का ( जो सूर्य को ढक लेता है ) प्रसंग अथर्वभारतीय तट से लेकर श्रीलङ्का के तट तक समुद्र का वेद के एक सूक्त (१९.९.१० ) में आता है। पाठ अनिउथला होना और वह भी एक सीध में, इस विश्वास को श्चित है, किन्तु अर्थ राहु (अन्धकार) ही है। परवर्ती पुष्ट करता है। यह भारतवर्ष का अन्तिम दक्षिणी छोर ज्योतिष में राहु सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक है। यह है जो समुद्र को स्पर्श करता है । इसी परम्परा के अनुसार दुष्ट ग्रह माना जाता है। रामचन्द्रजी ने इस स्थान पर शंकरजी की मूर्ति स्थापना की रुक्मिणी-विदर्भ देश के राजा भीष्मक की पुत्री, जिसने थी। रामकथा से सम्बन्धित होने से रामेश्वरम् हिन्दुओं का शिशुपाल के बदले द्वारकानाथ कृष्ण का स्वयंवरण किया प्रमुख तीर्थ स्थान हो गया है तथा देश के कोने-कोने से ____ और उनकी पटरानी हुई। पण्ढरपुर ( महाराष्ट्र ) के तीर्थयात्री यहाँ आते हैं। यहाँ का विशाल रामेश्वरम् विलमन्दिर में विट्ठल (विष्णु ) की रानियों अथवा मन्दिर द्राविड़ शैली के मन्दिरों में अग्रगण्य है। पत्नियों की मूर्तियाँ उनके पास ही स्थापित हुई है। इनमें Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मिण्यष्टमी-रुद्रप्रयाग ५५९ से रुक्माबाई ( रुक्मिणी ) भी एक है। लक्ष्मी के रूप में इनकी पूजा होती है। रुक्मिण्यष्टमी-मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी । प्रथम वर्ष व्रतकर्ता ( महिला) एक द्वार वाला मिट्टी का मकान बन- वाये, जिसमें गृहस्थोपयोगी सभी वस्तुएँ-धान, घी आदि रखकर कृष्ण-रुक्मिणी, बलराम-रेवती, प्रद्य्म्न-रति, अनि- रुद्ध-उषा तथा वसुदेव-देवकी की प्रतिमाएँ बनवायी जाय। सूर्योदय के समय इन प्रतिमाओं का पूजन कर सायं चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए। दूसरे दिन किसी कन्या को वह घर दान कर देना चाहिए। द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्ष उसी घर में और कोष्ठ, प्रकोष्ठ बनवाकर जोड़ देने चाहिए तथा बाद में उन्हें भी कन्याओं को दान कर देना चाहिए । पञ्चम वर्ष पाँच द्वारों वाला तथा षष्ठ वर्ष छ: द्वारों वाला मकान बनवाकर कन्या को दान कर देना चाहिए। सप्तम वर्ष सप्त द्वारों वाला मकान बनवाकर, चूने से पुतवाकर, उसमें एक पलङ्ग बिछाकर उस पर वस्त्र भी बिछाना चाहिए। एक जोड़ा खड़ाऊँ, दर्पण, ओखली ( उलूखल ), मूसल, रसोई के पात्र भी रखने चाहिए। तदनन्तर कृष्ण-रुक्मिणी तथा प्रद्युम्न का उपवास एवं जागरण करते हुए पूजन करना चाहिए । द्वितीय दिवस यह अन्तिम मकान किसी सपत्नीक ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। इसके साथ एक गौ भी देनी चाहिए। इस व्रत के आचरण के उपरान्त व्रती शोकरहित रहेगा तथा स्त्री व्रती को पुत्राभाव का शोक नहीं सहना पड़ेगा। उनकी गणना त्रिदेवों ( त्रिमूर्ति ) में शिव अथवा महेश के रूप में होने लगी। ___ रुद्र रुद्रों (बहुवचन), रुद्रियों तथा मरुतों के पिता हैं। रुद्र तथा मरुतों में पारिवारिक समानता है, क्योंकि पिता और पुत्रगण दोनों सोने के आभूषण धारण करते हैं, धनुष-बाण इनके आयुध हैं, रोग दूर करने में ये समर्थ हैं । रुद्र का वर्णन कभी-कभी इन्द्र के साथ भी हुआ है, किन्तु दोनों में अन्तर है। रुद्र को केवल एक बार वज्रबाहु कहा गया है, जबकि इन्द्र सदा वज्रबाहु हैं। बिजली की कौंध और चमक, बादल का गर्जन एवं इसके पश्चात् जलवर्षण इन्द्र का कार्य है। परन्तु जब वज्रपात से मनुष्य अथवा पशु मरता है तो यह रुद्र का कार्य समझना चाहिए। इन्द्र का वज्र सदा उपकारी है, रुद्र का आयुध विध्वंसक है। परन्तु रुद्र के भयंकर विध्वंस के पश्चात गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इस लिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याणकारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है । अन्य देवों द्वारा किये गये अपकार को दूर करने के लिए भी उनसे प्रार्थना की गयी है। पुराणों में रुद्र के शिवरूप की महत्ता अधिक बढ़ी, यद्यपि उनका विध्वंसक रूप शिव के अन्तर्गत समाविष्ट रहा। एकादश रुद्रों और उनके गणों की विशाल कल्पना पुराणों में पायी जाती है । रुद्र पशपति अथर्वशिरस् पाशुपत उपनिषद् है । यह महाभारत के पाशुपत प्रसंगों की समसामयिक है । इसके अनुसार रुद्र-पशुपति सभी वस्तुओं के परम तत्त्व अर्थात् स्रोत तथा अन्तिम लक्ष्य भी हैं। पति, पशु एवं पाश का भी इसमें उल्लेख हुआ है । 'ओम्' के आधार पर योगाभ्यास करने का आदेश है । शरीर पर भस्म लगाना पाशुपत नियम या ब्रत का पालन बताया गया है। रुद्र-वैदिक काल में रुद्र साधारण देवता थे। उनकी स्तुति के केवल तीन सूक्त पाये जाते हैं। रुद्र की व्युत्पत्ति रुद् धातु से है जिसका अर्थ 'हल्ला करना' अथवा 'चिल्लाना' है । 'रुद्' का अर्थ लाल होना अथवा चमकना भी होता है। रुद्र प्रकृति की उस शक्ति के देवता हैं जिसका प्रतिनिधित्व झंझावात और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है । रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है। परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी वेदों में वर्णित है। वे केवल ध्वंस और विनाश के ही देवता नहीं, स्वास्थ्य और कल्याण के भी देवता हैं । अतः रुद्र की कल्पना में शिव के तत्त्व निहित थे, इसलिए रुद्र को बहुत शीघ्र महत्त्व मिल गया और रुद्रप्रयाग-उत्तराखण्ड का एक पावन तीर्थ । यहाँ अलकनन्दा और मन्दाकिनी का संगम है। यहाँ से केदारनाथ तथा बदरीनाथ के मार्ग पृथक् होते हैं। केदारनाथ को पैदल मार्ग जाता है और बदरीनाथ को मोटर-सड़क जाती है । देवर्षि नारद ने संगीत विद्या की प्राप्ति के लिए यहाँ शङ्करजी की आराधना की थी। हृषीकेश से रुद्रप्रयाग ८४ मील है । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० रुद्रमाहात्म्य-रूपगोस्वामी रुद्रमाहात्म्य-चारों वेदों में रुद्र की स्तुतियाँ हैं । वाजसनेयी संहिता के शतरुद्रिय में शिव, गिरीश, पशुपति, नीलग्रीव, शितिकण्ठ, भव, शर्व, महादेव इत्यादि नाम वर्तमान हैं। अथर्वसंहिता में महादेव, पशुपति आदि नाम आये हैं । मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण में जिस प्रकार रुद्रदेव की उत्पत्ति वर्णित है उसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण और शाङ्खायन ब्राह्मण में भी वर्णित है। रुद्रयामल तन्त्र-यामल तन्त्रों को व्याख्या हो चुकी है। यामलों में 'रुद्रयामल' भी एक है। रुद्रव्रत-(१) ज्ये' ठ मास के दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इन चारों दिन व्रत रखने वाले को पञ्चाग्नि तप करना चाहिए। चौथे दिन सायं काल के सयय सुवर्ण की गौ दान में देनी चाहिए । इस व्रत के रुद्र देवता हैं। (२) वर्ष भर एकभक्त पद्धति से आहार करके अन्त में सुवर्ण के वृषभ तथा तिलधेनु का दान करना चाहिए। । यह संवत्सरवत है। शङ्कर भगवान् इसके देवता हैं। इसके आचरण से पाप तथा शोक दूर होते हैं तथा व्रती शिवलोक प्राप्त कर लेता है। (३) कार्तिक शुक्ल तृतीया से इस व्रत का आरम्भ होता है । एक वर्ष तक इसमें नक्त विधि से गोमूत्र तथा यावक का आहार करना चाहिए। यह संवत्सरव्रत है। गौरी तथा रुद्र इसके देवता हैं। वर्षान्त में गौ का दान करना चाहिए। इस व्रत से व्रती एक कल्प तक गौरीलोक में निवास करता है। रुद्रसम्प्रदाय और सनकसम्प्रदाय । इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन वेदान्त है। रुद्रदेव ने बालखिल्य ऋषियों को जो उपदेश किया था, वही उपदेश शिष्यपरम्परा से चलता हुआ विष्णुस्वामी को प्राप्त हुआ। अतएव इधर सर्वप्रथम वेदान्तभाष्यकार विष्णुस्वामी ने ही शुद्धाद्वैतवाद का प्रचलन किया। कहते हैं कि उनके शिष्य का नाम ज्ञानदेव था। ज्ञानदेव के शिष्य नाथदेव और त्रिलोचन थे। इन्हीं की परम्परा में वल्लभाचार्य का आविर्भाव हआ। कहते हैं कि दक्षिण भारत में विष्णुस्वामी पाण्डयविजय राज्य के राजगुरु देवेश्वर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। इनके पूर्वाश्रम का नाम देवतनु था। इन्होंने वेदान्तसूत्रों पर 'सर्वज्ञसूक्त' नामक भाष्य लिखा था। कहते हैं कि इनके बाद दो विष्णुस्वामी और हुए, इसी से इन्हें 'आदि विष्णुस्वामी' कहते हैं। रुद्रसंहिता-शिवमहापुराण के सात खण्ड हैं। इसका ता. दूसरा खण्ड रुद्रसंहिता है। रुद्रसंहिता में सष्टिखण्ड, सतीखण्ड, पार्वतीखण्ड, कुमारखण्ड, युद्धखण्ड नामक पाँच खण्ड हैं। द्राक्ष-लिङ्गायतों में बच्चे के जन्म के साथ ही उसका अष्टवर्ग संस्कार होता है। इसमें 'रुद्राक्ष धारण' भी है। ये संस्कार आठों पापों से रक्षा पाने के लिए कवच का कार्य करते हैं । रुद्राक्ष का पवित्र वृक्ष हिमालय के नेपाल प्रदेश में होता है। उसके फल की गुठली ही रुद्राक्ष है, जिसमें अगल-बगल कुछ रेखा या खाँचे बने रहते हैं । उन्हें मुख कहा जाता है। साधारणतः पंचमुखी रुद्राक्ष पहनने या माला बनाने में प्रयुक्त होते हैं। एकादश मुखी रुद्राक्ष शंकरस्वरूप होते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष ऋद्धिसिद्धिदाता शिवस्वरूप होता है, अत्यन्त भाग्यशाली व्यक्ति को ही यह सुलभ है। नेपाल के पशुपतिनाथमन्दिर में एकमुखी रुद्राक्ष और दक्षिणावर्त शंख के दर्शन कराये रुद्रलक्षव्रत-इस व्रत के अनुसार एक लाख दीपकों के, जिनमें गौ के घी में डुबायी हई रुई की उतनी ही बत्तियाँ पड़ी हों, शिवप्रतिमा के सम्मुख समर्पण करने का विधान है । दीपकों के समर्पण से पूर्व ही शिव का षोडशोपचार पूजन कर लेना चाहिए। व्रत का आरम्भ कार्तिक, माघ, वैशाख या श्रावण मासों में से किसी में भी करना चाहिए तथा उसी मास में उसकी समाप्ति भी होनी चाहिए । इस व्रत से व्रती सम्पत्ति, पुत्रादि के अतिरिक्त उन समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है जिनकी वह कामना करता है। रुद्रसम्प्रदाय-शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णव धर्म के चार प्रधान सम्प्रदाय समुन्नत हुए-श्रीसम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय, जाते हैं। सरु-यजुर्वेद में यह अश्वमेध के बलिपशु के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो एक प्रकार का हरिण है । ऋग्वेद में रुरुशीर्षा बाणों का उल्लेख है, जिसका अर्थ है हरिण के सींग की नोक वाले बाण । रूप गोस्वामी-चैतन्य महाप्रभु के एक शिष्य । ये पहले बंगाल Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपनवमी-रेणुकातीर्थ मुसलमान सूबेदार के यहाँ कार्य करते थे। इन्होंने तथा कुछ सुवर्ण रखकर किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। चैतन्यदेव के देवोपम चरित्र और पवित्र धर्ममत से उस दिन एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए । मुग्ध होकर संसार का त्याग कर महाप्रभु का शिष्यत्व यह संक्रान्तिव्रत है। इस व्रत का परिणाम सौ अश्वमेध ग्रहण कर लिया । क्रमशः ये उस सम्प्रदाय के आश्रय यज्ञों के समान होता है तथा सौन्दर्य, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य, और भूषण स्वरूप हो गये । पहले से ही ये प्रकाण्ड विद्वान् समृद्धि तथा स्वर्ग तो प्राप्त होता ही है। थे। इन्होंने चैतन्य के तिरोभाव से प्रायः आठ वर्ष पूर्व रूपसत्र-फाल्गुनी पूर्णिमा के उपरान्त जब चैत्र कृष्ण 'विदग्धमाधव' नाटक की रचना की, जिसकी महाप्रभु ने अष्टमी मूल नक्षत्रयुक्त हो, उस समय इस व्रत का बड़ी प्रशंसा की। इसके अतिरिक्त इन्होंने ललितमा- आयोजन करना चाहिए। इसमें नक्षत्रों, नक्षत्रपतियों, धव, उज्ज्वलनीलमणि, दानकेलिकौमुदी, बन्धुस्तवावली, वरुण, चन्द्र तथा विष्णु का पूजन विहित है। इन सब अष्टादश लीलाकाण्ड, पद्यावली, गोविन्दविरुदावली, देवताओं के लिए होम करना चाहिए तथा अपने गुरु का मथुरामाहात्म्य, नाटकलक्षण, लघुभागवतामृत, भक्तिरसा- सम्मान करना चाहिए। दूसरे दिन उपवास का विधान मृतसिन्धु, व्रजविलासवर्णन और कड़चा नामक ग्रन्थों की है। भगवान् केशव के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों में चरणों रचना की। इन ग्रन्थों से इनकी विद्वत्ता का परिचय से प्रारम्भ कर मस्तक तक भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को आरोमिलता है। उज्ज्वलनीलमणि अलंकारशास्त्र का प्रामा- पित करते हुए उनकी पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल णिक और प्रसिद्ध ग्रन्थ है। भक्तिरसामृतसिन्धु में पूर्णिमा को इस व्रत का सत्रावसान होता है । व्रत के अन्त भक्ति की व्याख्या तथा वैष्णव मत की साधना का विचार में भगवान् विष्णु की पूजा पुष्प-धूपादि से करनी चाहिए। किया गया है। इनके भतीजे जीव गोस्वामी ने इसकी गुरु को इस अवसर पर दान-दक्षिणा देनी चाहिए तथा टीका लिखी है। रूप गोस्वामी का 'रिपुदमन विषयक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस व्रत से व्रती रागमय कोण' नामक बँगला ग्रन्थ भी मिलता है। रूप स्वर्ग लोक जाता है तथा बाद में जन्म लेने के पश्चात और सनातन ने जिस मत का बीजारोपण किया उसे राजा बनता है । चैत्र शुक्ल अष्टमी के इसी व्रत के लिए जीव ने विकसित किया और बलदेव विद्याभूषण ने उसे देखिए बु० सं० (१०४. ६-१३), जिसमें उपवास तथा पूर्णता प्रदान की। नारायण एवं नक्षत्रों की पूजा का उल्लेख है । रूपनवमी-मार्गशीर्ष शुक्ल की नवमी को इस व्रत का रूपावाप्ति-(१) पाँच तिथियों को दस विश्वेदेवों की पूजा प्रारम्भ होता है । इसकी चाण्डिका देवता है। व्रती को करने से स्वर्गोपलब्धि होती है। नवमी के दिन उपवास या नक्त या एकभक्त पद्धति से आहार (२) यह मास का व्रत है । फाल्गुन पूर्णिमा के पश्चात् करना चाहिए। आटे का त्रिशूल तथा चाँदी का कमल बना- चैत्र की प्रतिपदा से चैत्र की पूर्णिमा तक इसका अनुष्ठान कर उसे सर्व पापनाशिनी दुर्गाजी को समर्पित कर देना करना चाहिए। इसमें शेषशायी भगवान् की प्रतिमा के चाहिए। पौष तथा उसके पश्चात वाले मासों में भिन्न-भिन्न पूजन का विधान है। इस अवसर पर एकभक्त पद्धति प्रकार के कृत्रिम पशु बनाकर उन्हें भिन्न-भिन्न धातू- से आहार करना चाहिए । पृथ्वी पर शयन करना चाहिए, पात्रों में रखना चाहिए। तदनन्तर वे देवी को भेंट कर किसी पालने या झूले पर नहीं । तीन दिन उपवास रखते दिये जाँय । इस व्रत के आचरण से व्रती असंख्य वर्षों तक हुए चैत्र की पूर्णिमा को पूजन के उपरान्त एक जोड़ा चन्द्रलोक में वास करने के बाद सुन्दर राजा बनता है। वस्त्र तथा चाँदी का दान करना चाहिए। इससे रूप रूप का तात्पर्य है शिल्पियों या कलाकारों द्वारा बनायी अर्थात् सौन्दर्य की उपलब्धि होती है। गयी कोई वस्तु अथवा आकृति, जो किसी पशु से ममता रेणुकातीर्थ-(१) हिमाचल प्रदेश का पर्वतीय तीर्थ । शिमला रखती हो। जिन देवताओं का ऊपर उल्लेख आया है से नाहन और दहादू जाकर गिरिनदी को पार करके वे या तो दुर्गाजी हों या मातृदेवता । पैदल रेणुकातीर्थ जाने का मार्ग है। दहादू से रेणुकारूपसंक्रान्ति-संक्रान्ति के दिन व्रती को तैल मर्दन के तीर्थ दो फलाँग के लगभग है। यहाँ रेणुका झील और साथ स्नान करना चाहिए। उसके अनन्तर पात्र में घी परशुरामताल है । परशुरामजी तथा उनकी माता Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ रेणुकाजी का मन्दिर है । एक धर्मशाला है, जो अरक्षित है। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा पर मेला लगता है। रेणुका झील के पास यमदग्निपर्वत है । (२) आगरा-मथुरा के मध्य यमुनातीर पर स्थित वर्तमान 'नकता' स्थान रेणुकाक्षेत्र कहा जाता है। रेवणनाथ - नाथ सम्प्रदाय के नव नाथों में से छठे रेवणनाथ थे। रेवणाराध्य - वीरशैव मत सृष्टि के आरम्भकाल से प्रचलित माना जाता है । प्रत्येक युग में इसके जो आचार्य हुए हैं। उनके नाम 'सुप्रबोधागम' आदि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । कलियुग के आरम्भ में भी पाँच शैवाचार्य हुए हैं । उनमें पहला नाम रेवणाराध्य का है । सम्भवतः ये ही बहल्ली मठ के प्रथम आचार्य थे । रेवा - नर्मदा नदी का एक नाम, जो केवल एक बार उत्तर वैदिक साहित्य में व्यवहृत हुआ है । यह शतपथ ब्रा० ( १२.८, १,१७ ) में प्राप्त है तथा निश्चित रूप से एक मनुष्य का नाम है जो रेवा ( नर्मदा ) के उस पार रहता था । पाणिनि ( ४.२.८७ ) के एक वार्तिक में 'महिष्मत्' शब्द की व्युत्पत्ति 'महिष' शब्द से की गयी है । महिष्मत् स्पष्टतः नर्मदातट पर स्थित माहिष्मती नगरी थी। रघुवंश (६.४३ ) में अनूप देश की राजधानी माहिष्मती रेवा पर स्थित बतलायी गयी है । स्कन्दपुराण का एक भाग रेवाखण्ड कहलाता है, जो रेवा ( नर्मदा ) की उत्पत्ति और उसके किनारे स्थित तीर्थों का विस्तृत वर्णन करता है । दे० 'नर्मदा' | रेवासागर संगम — दक्षिण गुजरात का समुद्रतटवर्ती एक तीर्थ यह विमलेश्वर से १३ मील दूर है। रेवा( नर्मदा ) सागरसंगम तीर्थ पर प्रकाशस्तम्भ (लाइटहाउस) और उसके पास 'हरि का धाम' नाम का स्थान है । नर्मदा (रेवा ) के सागर से मिलने के कारण ही इसका महत्त्व है । रेवास- सोलह शताब्दी वि० के पूर्वार्ध में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। ये कबीर के समकालीन तथा स्वामी रामानन्द के मुख्य शिष्यों में से थे। जाति के ये चमार थे। मीराबाई ने इनका दर्शन किया और अपना गुरु बनाया था। अपने पदों में मीराबाई ने दो-तीन बार इनका उल्लेख किया है। रैदास के भी रचे कुछ पद हैं । इनके अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते है। इस सम्प्र रेवणनाथ - रोमहर्षण दाय की परम्परा १५७० ई० के लगभग इन्हीं से आरम्भ हुई रोगविधि - रविवार के दिन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र हो तो सूर्य का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है। अर्क के फूलों से सूर्य की पूजा करनी चाहिए। इस दिन पायस तथा अर्क के फूलों का भोजन विहित है । रात्रि को भूमि पर शयन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है। रोचरोच—यह कतिपय व्रतों का नाम है यथा मासोपवास, ब्राह्म रोष काल रोच आदि। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ करके एक मास या एक वर्ष तक व्रत का आयोजन करना चाहिए। विष्णुधर्म० ( ३.२२२-२२३ ) इनका वर्णन करता है। अध्याय २२४ में स्त्रियों के अनिश्चित चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार समस्त अधर्म तथा बुराई की जड़ स्त्रियों है किन्तु साथ ही वे धर्म, अर्थ तथा काम की साधक हैं। रत्न के समान उनकी रक्षा करनी चाहिए ( श्लोक २५-२६) । रोटक - श्रावण शुक्ल के प्रथम सोमवार को इस व्रत का आरम्भ होता है । यह व्रत साढ़े तीन महीनों तक चलना चाहिए । कार्तिक मास की चतुर्दशी को उपवास रखते हुए बिल्वपत्रों से शिव पूजन करना चाहिए। इस अवसर पर पाँच रोट (लोहे अथवा मिट्टी के तवे पर सेंके गये गेहूँ के पाँच रोट) तैयार करने चाहिए; एक नैवेद्य के लिए, दो ब्राह्मणों के लिए, एक प्रसाद वितरणार्थ तथा एक व्रती के लिए। इस व्रत में शिवजी का पूजन विहित है। पांच वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। व्रत के अन्त में दो सुवर्ण या रजत के रोटों का दान करना चाहिए इसका नाम विश्वरोटक व्रत भी है । रोमहर्षण महर्षि वेदव्यास के एक सूतजातीय रोमहर्षण नामक शिष्य विख्यात हुए, जिन्हें 'लोमहर्षण' भी कहते हैं। महामुनि ने पुराणसंहिता प्रथमतः इन्ही को पढ़ायी । रोमहर्षण के छः शिष्य हुए, उनके नाम सुमति अग्निवर्चा, मित्रयु शांसपायन, अकृतप्रण और सावण थे। इनमें से कश्यपवंशीय अकृतव्रण, सार्वाण और शांसपायन ने रोमहर्षण से पढ़कर मूलसंहिता के आधार पर एक-एक पुराणसंहिता की रचना की । इन्हीं चार संहिताओं का सार संग्रह करके अन्य पुराणसंहिताएँ रची गयी । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोहिणी-ल रोहिणी-चतुयंह सिद्धान्त में चार देवता आते हैं। उनमें वासुदेव (कृष्ण) के बाद संकर्षण का स्थान है। ये वासुदेव के बड़े भाई थे। संकर्षण का अर्थ है 'अच्छी प्रकार से खींचा गया'; क्योंकि ये अपनी माँ के गर्भ से खींच लिये गये थे तथा रोहिणी के गर्भ में रखे गये थे। रोहिणी से ही अन्त में संकर्षण की उत्पत्ति हुई । रोहिणी वसुदेव की बड़ी पत्नी थी। रोहिणीचन्द्रशयन-मत्स्य पुराण (५७) में इस व्रत का उल्लेख बड़े विस्तार से है (श्लोक १-२८ तक) तथा पद्म पुराण (४. २४, १०१-१३०) में भी लगभग उसी प्रकार के श्लोक आये हैं। यहाँ चन्द्रमा के नाम से भगवान् विष्णु की पूजा वर्णित है । यदि पूर्णिमा के दिन सोमवार हो अथवा रोहिणी नक्षत्र हो तो व्रती को पञ्चगव्य तथा सरसों के उबटन के साथ स्नान करने के बाद ऋग्वेद का मंत्र “आप्यायस्व” (१.९१.१६) १०८ बार बोलना चाहिए तथा शूद्र व्रती को यह बोलना चाहिए-"सोमाय नमः विष्णवे नमः" । व्रती को फल तथा फलों से भगवान् की पूजा करके सोम का नामोच्चारण करते हुए रोहिणी को प्रणाम करना चाहिए। व्रती को इस अवसर पर गोमूत्र का पान करना चाहिए, २८ विभिन्न पुष्प चन्द्रमा को अर्पित करने चाहिए। यह व्रत एक वर्ष तक चलना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यकोपयोगी वस्त्र तथा चन्द्रमा और रोहिणी की सुवर्ण प्रतिमाओं के दान का विधान है। इस समय यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि हे विष्णो! जिस प्रकार आपको, जो सोमरूप है, छोड़कर रोहिणी कहीं नहीं जाती, उसी प्रकार समृद्धि मुझे छोड़कर कहीं न जाये । इससे सौन्दर्य, स्वास्थ्य, दीर्घाय के साथ-साथ व्रती चन्द्रलोक प्राप्त करता है। कृत्यकल्पतरु तथा हेमाद्रि इसे चन्द्ररोहिणीशयन भी बतलाते हैं । रोहिणीद्वादशी-श्रावण कृष्ण एकादशी को लोग (स्त्री या पुरुष) किसी सरोवर इत्यादि के समीप गाय के गोबर से एक मण्डल बनाकर उसमें चन्द्रमा तथा रोहिणी की आकृतियाँ खींचकर उनका पूजन करें तथा नैवेद्य अर्पण करें; बाद में उसे किसी ब्राह्मण को दे दें। तत्पश्चात् द्वादशी को कहीं स्थिर तथा गहरे जल में प्रविष्ट होकर चन्द्रमा तथा रोहिणी में अपना ध्यान केन्द्रित करें और पानी में खड़े-खड़े माष (उड़द की दाल) की एक सहस्र छोटी-छोटी गोलियाँ तथा घृत मिश्रित पाँच लड्डुओं को खायें। इसके बाद घर लौटकर किसी ब्राह्मण को भोजन तथा वस्त्र दान करना चाहिए। यह क्रिया प्रति वर्ष होनी चाहिए। रोहिणीस्नान--यह भी नक्षत्रवत है। व्रती तथा उसके पुरोहित को रोहिणी तथा कृत्तिका नक्षत्र के दिन उपवास करना चाहिए । इस अवसर पर व्रती को पाँच कलश जल से स्नान कराया जाना चाहिए। स्नान करने के समय व्रती चावलों की ढेरी पर खड़ा रहे जो दूधवाले वृक्षों (वट-पीपल आदि) की छोटी-छोटी शाखाओं, प्रियङ्ग के श्वेत पुष्पों तथा चन्दन से सज्जित हो । व्रती को विष्णु, चन्द्र, वरुण, रोहिणी तथा प्रजापति की पूजा करनी चाहिए; घृत तथा अन्यान्य धान्यों से समस्त देवों का उद्देश्य करके होम करना चाहिए । इसके साथ व्रती को सींग में मढ़ा हआ रत्न भी धारण करना चाहिए। सींग में मिट्टी, घोड़े के बाल तथा खुर से बने तीन भागों को धारण करना विहित है। इससे पुत्र, सम्पत्ति तथा यश की उपलब्धि होती है। रोहिण्यष्टमी-भाद्र कृष्ण पक्ष को रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी जयन्ती कहलाती है । यदि अर्ध रात्रि के एक पल पूर्व तथा एक पल पश्चात् रोहिणी और अष्टमी विद्यमान रहें तो यह काल अत्यन्त पुनीत है, क्योंकि यह वही काल है जब भगवान् कृष्ण अवतीर्ण हुए थे । उस दिन उपवास करते हुए भगवान् का पूजन करने से पूर्व के एक सहस्र जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। एक सहस्र एकादशीव्रतों की अपेक्षा यह रोहिण्यष्टमी व्रत कहीं अधिक श्रेष्ठ है । रौद्रविनायक याग-यदि गुरुवार को एकादशी तथा पुष्य नक्षत्र हो अथवा शनिवार के दिन एकादशी हो और रोहिणी नक्षत्र हो तो इस दिन रौद्रयाग का आयोजन किया जाना चाहिए। इससे पुत्रादि की प्राप्ति के साथ अनेक वरदानों की प्राप्ति होती है । ल-यह अन्तःस्थ वर्णों का तीसरा अक्षर है । कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है : लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम् ।। पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ।। आत्मादितत्त्व सहितं हृदि भावय पार्वति ।। तन्त्रशास्त्र में इसके कई नाम दिये हुए हैं : Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ लकुल-लक्षेश्वरीव्रत लश्चन्द्रः पूतना पृथ्वी माधवः शक्रवाचकः । लकुलोश पाशुपत-लकुलीश पाशुपतों के सिद्धान्त का वर्णन बलानुजः पिनाकीशो व्यापको मांससंज्ञकः ।। 'सर्वदर्शनसंग्रह' में सायणाचार्य ने किया है, जिसका सार खड्गी नागोऽमृतं देवी लवणं वारुणीपतिः । शिखा वाणी क्रिया माता भामिनी कामिनी प्रिया। जीव मात्र ‘पशु' हैं। शिव 'पशुपति' है । भगवान् ज्वालिनी वेगिनी नादः प्रद्युम्नः शोषणो हरिः । - पशुपति ने बिना किसी कारण, साधन या सहायता के इस विश्वात्ममन्त्री बली चेतो मेरुगिरिः कला रसः ।। संसार का निर्माण किया, अतः वे स्वतन्त्र कर्ता हैं । हमारे लकुल-वायुपुराण के एक प्रकरण में पाशुपतों के उप- कर्मों के भी मूल कर्ता परमेश्वर हैं। अतः पशुपति सब संप्रदाय लकुलीश का उल्लेख प्राप्त होता है । कल्पों की कर्मों के कारण है । दे० 'पाशुपत' । गणना के बाद युगों का वर्णन आता है, जो कल्प के लक्षणार्द्रा व्रत-भाद्र कृष्ण अष्टमी को आर्द्रा नक्षत्र होने विभाग है। युग कुल अट्ठाईस है तथा शिव प्रत्येक में पर यह व्रत करना चाहिए । सर्वप्रथम उमा तथा शिव की अवतार लेने की प्रतिज्ञा करते हैं। अन्तिम वक्तव्य यह प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराना चाहिए, तदनन्तर है कि जब कृष्ण वासुदेव का अवतार ग्रहण करेंगे तब गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन करना चाहिए। अर्घ्य, धूप, शिव अपनी योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर अरक्षित गेहूँ के आटे के मत्स्य आकृति वाले ३२ प्रकार के खाद्य एक मृतक शरीर में प्रवेश करेंगे तथा लकुली नामक पदार्थ, जो पाँच प्रकार के रसों (दधि, दुग्ध, घृत, मधु, संन्यासी के रूप में दिखाई पड़ेंगे । कुशिक, गार्ग्य, मित्र तथा शर्करा) से युक्त हों तथा मोदक अर्पण करने चाहिए । कौरुष्य उनके शिष्य होंगे। ये पाशुपत योग का अभ्यास तत्पश्चात् सुवर्ण, उपर्युक्त देवमूर्तियाँ तथा उत्तमोत्तम खाद्य अपने शरीर पर भस्म लगाकर करेंगे। पदार्थ दान में देना चाहिए। इस व्रत से समस्त पापों का एकलिङ्गजी (उदयपुर) के समीप एक पुराने मन्दिर नाश तो होता ही है, साथ ही सौन्दर्य, सम्पत्ति, दीर्घायु के अभिलेख से यह पता चलता है कि शिवावतार भड़ोंच तथा यश भी प्राप्त होता है। देश में हुआ तथा शिव एक लाठी (लकुल) अपने हाथ में लक्षनमस्कारव्रत-आश्विन शुक्ल एकादशी से विष्णु भगधारण करते थे। उस स्थान का नाम कायारोहण था। वान् को एक लाख नमस्कार अर्पण करना चाहिए । चित्रप्रशस्ति का मत है कि शिव का अवतार कारोहण पूर्णिमा तक व्रत की समाप्ति हो जानी चाहिए। इस (कायारोहण), लाट प्रदेश, में हुआ। वहाँ पाशुपत मत को अवसर पर भगवान् विष्णु का मन्त्र 'अतो देवाः' (ऋ० भली भाँति पालन करने के लिए शरीरी रूप धारण कर १. २२. १६-२१) उच्चारण करना चाहिए। चार शिष्य भी आविर्भूत हुए । वे थे कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य लक्षप्रदक्षिणावत-इस व्रत में भगवान् विष्णु की एक तथा मैत्रेय । भूतपूर्व बड़ौदा राज्य का 'करजण' वह स्थान लाख प्रदक्षिणाएँ करने का विधान है। चातुर्मास्य के कहलाता है । यहाँ लकुलीश का मन्दिर भी वर्तमान है। प्रारम्भ के समय इसे आरम्भ कर कार्तिक की पौर्णमासी लकुलीश-लकुलीश सिद्धान्त पाशुपतों का ही एक विशिष्ट को समाप्त कर देना चाहिए । मत है । इसका उदय गुजरात में हुआ। वहाँ इसके दार्श- लक्षवतिव्रत-कार्तिक, वैशाख अथवा माघ में इस व्रत का निक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही आरम्भ होता है । सर्वोत्तम मास वैशाख है। तीन मास के विकास हो चुका था, इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों अन्त में पौर्णमासी को यह व्रत समाप्त होना चाहिए। की नयी शिक्षाओं को नहीं माना । यह मत छठी से नवीं इस अवसर पर ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु तथा लक्ष्मी, शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका शिव एवं उमा की प्रतिमाओं के सम्मुख प्रतिदिन सहस्र था । शिव के अवतारों की सूची जो वायुपुराण से लिङ्ग बत्तियों वाले दीपक प्रज्वलित करने चाहिए। और कूर्म पुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख लक्षहोम-यह शान्तिव्रत है, इसमें किसी भी इष्ट देव के करती है। वहाँ लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख है, जो लिए एक लाख आहुति देने का विधान है। गुजरात के झरपतन नामक स्थान में है। यह सातवीं लक्षेश्वरीव्रत-उसी प्रकार से यह व्रत होता है जैसे शताब्दी की बनी हुई है। 'कोटेश्वरीव्रत' पहले बतलाया गया है। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण देशिक-लक्ष्मीसंहिता ५६५ लक्ष्मण देशिक-११वीं शताब्दी के एक शाक्त विद्वान् । चार मास तक श्रीधर तथा श्री, कार्तिक से आगे के चार इनका रचा हुआ 'शारदातिलक' नामक तन्त्र ग्रन्थ शाक्तों मास तक केशव तथा भूति का पूजन करना चाहिए। के लिए अत्यन्त प्रामाणिक माना जाता है। पूर्णिमा को रात्रि के समय चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए। लक्ष्मणसेन–बङ्गाल का प्रसिद्ध सेनवंशी राजा (१२२७- चार मास वाले प्रति भाग में शरीर की संशुद्धि के लिए १२५० वि०)। यह हिन्दू धर्म व साहित्य का बहुत बड़ा भिन्न प्रकार के द्रव्यों, यथा पञ्चगव्य, दर्भयुक्त जल तथा संरक्षक था। किसी-किसी के मतानुसार निम्बार्काचार्य सूर्य की किरणों से उष्ण किये हए जल का प्रयोग किया इसके प्रश्रय में भी रहे थे। 'गीतगोविन्द' के रचयिता जाना चाहिए। भक्त कवि जयदेव इसकी राजसभा में रहते थे। लक्ष्मीपूजन-कार्तिक की अमावस्या को दीपावली पर्व के लक्ष्मी-ऋग्वेद के पुरुषसुक्त में इनका वर्णन पाया जाता अवसर पर लक्ष्मी के पूजन का विधान है। है : 'श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च इषाण ।' [ हे परमेश्वर, लक्ष्मीप्रदवत-हेमाद्रि ( २. ७६९-७७१ ) के अनुसार यह अनन्त शोभास्वरूप श्री और अनन्त शुभ लक्षणों से युक्त कृच्छ्र व्रतों में है । कार्तिक कृष्ण सप्तमी से दशमी तक व्रती लक्ष्मी दोनों आपकी पत्नी हैं । अर्थात् जैसे स्त्री पति की को क्रमशः दुग्ध, बिल्वपत्र, कमलपुष्प तथा विस ( कमलसेवा करती है, उसी प्रकार आपकी सेवा आप ही को नाल ) का आहार करना चाहिए। एकादशी को उपवास प्राप्त होती है, क्योंकि आप ही ने सब जगत् को शोभा करने का विधान है। इन दिनों केशव की पूजा करनी और शुभ लक्षणों से युक्त कर रखा है। ] आगमसंहि- चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । ताओं के रहस्य का विश्लेषण करने से प्रकट होता है कि लक्ष्मीव्रत-(१) प्रति पञ्चमी को उपवास करते हुए लक्ष्मी का पजन करना चाहिए। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता ही परमात्मा है, जो अभिन्न हैं । केवल सृष्टि के समय वे है। व्रत के अन्त में सुवर्णकमल तथा गौ का दान विहित भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होते हैं। है। इससे व्रती प्रति जन्म में धन-सम्पत्ति प्राप्त करके लक्ष्मीधर-(१) लक्ष्मीधर पहले शाक्त आचार्य थे और विष्णुलोक प्राप्त करता है। दक्षिण मार्ग का अनुगमन करते थे। इनका दीक्षानाम (२) इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को उबला हुआ चावल विद्यानाथ था। ये तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तथा घृताहार करना चाहिए। चतुर्थी को गृह से बाहर वारङ्गल ( आन्ध्र ) में रहते थे। इन्होंने प्रसिद्ध स्तोत्र कमल के पुष्पों से भरे किसी सरोवर में स्नान करना 'सौन्दर्यलहरी' का भाष्य रचा है। इन्होंने सौन्दर्य- चाहिए तथा कमल में ही लक्ष्मीजा का पूजन करना लहरी को शङ्कराचार्य की रचना माना है, जबकि विद्वानों । चाहिए । पञ्चमी को मन्त्रोच्चारण करते हए कमलपुष्पों को इस मत में सन्देह है । सौन्दर्यलहरी के ३१वें श्लोक को लक्ष्मीजी के चरणों में अर्पित किया जाय। पंचमी को की व्याख्या में इन्होंने ६४ तन्त्रों की सूची उपस्थित की पूर्व प्रकार से ही स्नान करके सुवर्ण का दान करना है जो 'वामकेश्वर तन्त्र' की सूची से उद्धत है। साथ ही चाहिए। यह क्रिया वर्ष भर चलनी चाहिए। दो और सूचियाँ 'मिश्र' तथा 'समय' तन्त्रों की उपस्थित लक्ष्मीयामलतन्त्र-यामल शब्द की व्याख्या हो चुकी है । की हैं, जिनमें क्रमशः आठ तथा नौ नाम हैं। आठ यामल तन्त्रों में लक्ष्मीयामल भी एक है। दे० (२) प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार, जो कान्यकुब्ज प्रदेश के 'यामल' । गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक' ( सन्धि लक्ष्मीश देवपुर-माध्व मत के आचार्य लक्ष्मीश देवपुर ने और युद्ध के मंत्री) थे। इन्होंने 'कृत्यकल्पतरु' नामक १८१७ वि० में 'जैमिनिभारत' नामक ग्रन्थ की रचना बृहत् निबन्ध ग्रन्थ की रचना की। की। इसमें यद्यपि युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का वर्णन है, लक्ष्मीनारायणव्रत-फाल्गुन की पूर्णिमा को इस व्रत का तथापि इस ग्रन्थ का उद्देश्य कृष्ण की महिमा का वर्णन अनुष्ठान होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन करना और वैष्णव धर्म का महत्त्व दिखाना है। भागों से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा के दिन लक्ष्मीनारा- लक्ष्मीसंहिता-पाञ्चरात्र साहित्य का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । यण का एक साल तक पूजन करना चाहिए। आषाढ़ से संहिताएँ १०८ हैं, किन्तु इनके रचनाकाल के निर्धारण में Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ बड़ी कठिनाई है । कुछ विद्वानों द्वारा पुष्कर, वाराह तथा ब्राह्मसंहिताओं को सबसे प्राचीन माना जाता है । आर्यगर महोदय लक्ष्मीसंहिता को अति प्राचीन मानते हैं तथा पद्म को भी प्राचीन बतलाते हैं । आयंगर के मत को गोपालाचार्यस्वामी भी स्वीकार करते हैं । लगध- ज्योतिष के लेखक लगध हैं। 'बार्हस्पत्य' लेख से यह जान पड़ता है कि लगध कदाचित् बर्बरदेशीय मानते थे । परन्तु वेदाङ्गज्योतिष के किसी श्लोक से, भाव से या किसी अन्तः साक्ष्य से लगध का विदेशी होना सिद्ध नहीं होता । लघुचन्द्रिका — द्वैत मतावलम्बी (माध्व) व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने स्वामी मधुसूदन सरस्वती से अद्वैत सिद्धान्त की शिक्षा ग्रहण कर फिर उन्हीं के मत का खण्डन करने के लिए तरङ्गिणी नामक ग्रन्थ की रचना की । इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्द स्वामी ने अद्वैतसिद्धि पर लघुचन्द्रिका नाम की टीका लिखकर तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया । - लघुटीका - तमिल शैवाचार्य शिवज्ञान योगी ( मृत्युकाल १७८५ ई० ) ने तमिल शैव सिद्धान्त के आधार ग्रन्थ 'शिवज्ञानबोध' पर दो तमिल भाष्य रचे। एक बड़ा, जिसे 'द्राविड भाष्य' तथा दूसरा छोटा, जिसे 'लघु टीका' कहते है । लघुबृहन्नारदीय पुराण- यह एक छोटा ग्रन्थ है, जो सम्भ वतः उपपुराणों में भी नहीं गिना जा सकता । लघुसांख्यसूत्रवृत्ति अठारहवीं शताब्दी के मध्य में नागेश भट्ट ने 'सांख्यप्रवचनभाष्य' की 'लघुसांख्यसूत्रवृत्ति' नामक वृत्ति लिखी । नागेश भट्ट महान् वैयाकरण होने के साथ ही सकलशास्त्रपारंगत विद्वान थे। साहित्य, योग, सांख्य, धर्मशास्त्र, तन्त्र, वेदान्त -- सभी विषयों पर उनकी मर्मस्पर्शी रचनाएँ प्राप्त हैं। ――― ललित आगम - रौत्रिक आगमों में से एक 'ललित आगम' भी है। ललितकान्ता देवी व्रत तिथितत्त्व (पु० ४१, कालिकापुराण 'को उद्घृत करते हुए) के अनुसार 'मङ्गलचण्डिका' ही ललितकान्ता देवी के नाम से पुकारी जाती हैं, जिनकी दो भुजाएँ हैं, गौर वर्ण है तथा जो रक्तिम कमल पर संस्थित हैं, आदि। इस देवी की पूजा से सौन्दर्य और समृद्धि प्राप्त होती है । - लव- ललिताव्रत ललिता दक्षिण भारत के दक्षिणमार्गी शाकों के मत से ललिता सुन्दरी देवी ने जो आँखों को चौंधिया देने वाली आभा से युक्त हैं, चण्डी का स्थान ले लिया है। इनके यज्ञ, पूजा आदि की पद्धति चण्डी के समान ही है । चण्डी (दुर्गा) - पाठ के स्थान पर ललितोपाख्यान, ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ होता है । ये तीनों ग्रन्थ ब्रह्माण्ड पुराण से लिये गये हैं । ललितोपाख्यान में देवी द्वारा भण्डासुर तथा अन्य दैत्यों के वध का वर्णन है। ललिता की पूजा में पशुबलि निषिद्ध है। ललितातन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में ललितातन्त्र भी उद्धृत है। ललितात्रिशती — देवी के तीन सौ नामों का संग्रह | दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में चण्डी के स्थान पर ललिता की उपासना करने वाले भक्त देवी की पूजा के समय इसी का पाठ करते हैं। इस पर शंकराचार्यकृत भाष्य भी उपलब्ध होता है । दे० 'ललिता' । ललिताव्रत - माघ शुक्ल तृतीया के दिन मध्याह्न काल में तिल तथा आवले का उबटन शरीर में लगाकर किसी नदी में स्नान करना चाहिए तथा पुष्पादि से ललिता देवी का पूजन करना चाहिए। ताम्रपात्र में जल, सुवर्ण का टुकड़ा तथा अक्षत डालकर किसी ब्राह्मण के सम्मुख रख देना चाहिए। ब्राह्मण उसी पात्र का जल मंत्रोच्चारण करते हुए व्रती के ऊपर छिड़के। महिला व्रती को सुवर्ण का दान करना चाहिए तथा ऐसे जल का सेवन करना चाहिए जिसमें कुश पड़ा हो । रात्रि को देवी में ही ध्यान केन्द्रित करते हुए भूमि पर शयन करना चाहिए। दूसरे दिन ब्राह्मणों तथा एक सधवा नारी का सम्मान किया जाय। यह व्रत वर्ष भर के लिए है जिसमें देवी के भिन्नभिन्न नाम बारहों महीनों में प्रयुक्त होते हैं ( जैसे ईशानी प्रथम मास में, ललिता आठवें में गौरी बारहवें मास में ) । स्त्री व्रती को शुक्ल तृतीया को उपवास करते हुए क्रमश: बारह वस्तुओं का आहार करना चाहिए, जैसे कुशों से पवित्र किया हुआ जल, दूध, घृत इत्यादि व्रत के अन्त में एक ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी का सम्मान किया जाना चाहिए । इससे पुत्र, सौन्दर्य तथा स्वास्थ्य प्राप्त होने के साथ साथ कभी भी वैधव्य प्राप्त नहीं होता। भविष्योत्तर पुराण, अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण आदि ग्रन्थों में ललितातृतीया का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि चैत्र Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललिताषष्ठी-लिङ्ग ५६७ शुक्ल तृतीया को ही भगवान् शिव ने गौरी के साथ वर्णन है। इस ग्रन्थ पर रामकृष्ण दीक्षित, सायण और विवाह किया था । मत्स्य पुराण (६०.११ ) के अनुसार अग्निस्वामी के अच्छे भाष्य हैं। सती का नाम ही ललिता है, क्योंकि अखिल ब्रह्माण्ड में वे लालदास-मेव जाति के अन्तर्गत लालदास नाम के एक सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी है। ब्रह्माण्ड पुराण के अन्त निर्गुण उपासक सन्त जिला अलवर (राजस्थान) में हो (अध्याय ४४) में ललितासम्प्रदाय पर एक पृथक् विभाग गये हैं। इनकी मृत्यु १७०५ वि० में हुई। इनकी शिक्षाओं ही लिखा गया है। तथा पदों का संग्रह 'बानी' कहलाता है । इनसे ही लालललिताषष्ठी-यह व्रत अधिकांशतः महिलाओं के लिए है। दासी पंथ प्रचलित हुआ। लालदासी आचार्य अपने प्रारभाद्र शुक्ल षष्ठी को बाँस के पात्र में नदी की बालू लाकर म्भिक आचार्य के समान ही विवाहित होते हैं । इस सम्प्रउसके पाँच गोल-गोल लड्डू से बनाकर उनके ऊपर भिन्न- दाय की पूजा में केवल रामनाम का जप सम्मिलित है। भिन्न प्रकार के २८ या १०८ पुष्पों, फलों तथा भाँति- लालदासी पंथ कबीरदास की शिक्षाओं से प्रभावित जान भाँति के खाद्य पदार्थों से ललिता देवी की पूजा करनी पड़ता है। चाहिए। उस दिन अपनी सखियों के साथ महिला बिना लालदासी पंथ-दे० 'लालदास' । आँख बन्द किये जागरण करे तथा सप्तमी के दिन वह लालदेव-चौदहवीं शताब्दी में एक अध्यात्मज्ञानी वृद्धा, समस्त खाद्य किसी देवीभक्त को दे दिया जाय । तदनन्तर जिसका नाम लालदेद था, कश्मीर में हो गयी है। उसकी कन्याओं तथा पाँच या दस ब्राह्मण पत्नियों को भोजन सरल बानियाँ कश्मीर की सुखद घाटी में बहुलता से प्रयुक्त कराकर 'ललिता देवी प्रसीदतु में' मन्त्रोच्चारण करते होती है। कश्मीरी भाषा में उसके पद लोकप्रिय हैं। हुए उन्हें विदा कर दिया जाय। ग्रियर्सन ने उसके कुछ छन्दों का अंग्रेजी अनुवाद किया है। लवणदान-मार्गशीर्ष पूर्णिमा को यदि मृगशिरा नक्षत्र हो तब लावण्यगौरीव्रत-चैत्र शुक्ल पञ्चमी के दिनों इस व्रत का यह व्रत करना चाहिए । चन्द्रोदय के समय एक प्रस्थ भूमि अनुष्ठान होता है । पञ्चाङ्गानुसार यह व्रत तमिलनाडु में का (क्षार) लवण किसी पात्र में रखकर, जिसका केन्द्र अधिक प्रचलित है। सूवर्ण से युक्त हो, किसी ब्राह्मण को दान दे दिया जाय। लावण्यवत-कार्तिकी पूर्णिमा के उपरान्त प्रतिपदा को इस कृत्य से सौन्दर्य तथा सौभाग्य की उपलब्धि होती है। वस्त्र के टुकड़े पर प्रद्युम्न की आकृति बनवाकर अथवा लवणसंक्रान्तिव्रत-संक्रान्ति के दिन स्नान के उपरान्त उनकी मूर्ति बनवाकर उसका पूजन करना चाहिए। उस केसर के लेप से अष्टदल कमल की आकृति बनानी दिन नक्त विधि से आहार करना चाहिए । मार्गशीर्ष मास चाहिए। उसके मध्य में सूर्य की प्रतिमा का पूजन करना के प्रारम्भ होते ही तीन दिनों तक उपवास करना चाहिए चाहिए तथा उसके सम्मुख एक पात्र में लवण तथा गुड़ तथा प्रद्युम्न महाराज का पूजन करना चाहिए। हवन रखना चाहिए । बाद में वह पात्र लवणादि सहित दान में घृताहतियाँ दी जानी चाहिए । ब्राह्मणों को मुख्य रूप कर देना चाहिए। वर्ष भर यह कार्यवाही चलनी से लवण वाला भोजन कराना चाहिए । अन्त में एक प्रस्थ चाहिए । व्रत के अन्त में सुवर्ण की सूर्यप्रतिमा बनवाकर नमक, एक जोड़ा वस्त्र, सुवर्ण तथा काँसे का पात्र दान लवणपूर्ण पात्र तथा एक गौ सहित दान कर देना चाहिए। में देना विहित है। यह मासवत है, इसलिए एक मास तक यह संक्रान्तिव्रत है। चलना चाहिए। इससे सौन्दर्य तथा स्वर्ग की प्राप्ति लाट्यायनसूत्र-सामवेदीय दूसरा श्रौतसूत्र । यह कौथुमी होती है। शाखा के अन्तर्गत है। यह ग्रन्थ भी पञ्चविंश ब्राह्मण का ही लिङ्ग-प्रतीक अथवा चिह्न । अव्यक्त अथवा अमूर्त सत्ता अंग है । उसके बहुत से वाक्य इसमें आये हैं । इसके पहले का स्थूल प्रतीक ही लिङ्ग है। इसके माध्यम से अव्यक्त प्रपाठक में सोमयाग के साधारण नियम हैं। आठवें और सत्ता का ध्यान किया जाता है। महाभारत, शान्तिपर्व नवें अध्याय के कुछ अंश एकाह याग की प्रणाली पर है। के पाशुपत परिच्छेदों में शिवलिङ्ग के प्रति अति श्रद्धानवें अध्याय के शेषांश में कुछ दिवसों तक चलने वाली भक्ति प्रदर्शित की गयी है। किन्तु पूर्ववर्ती साहित्य में श्रेणी के यज्ञों का वर्णन है। दसवें अध्याय में सूत्रों का इसका उल्लेख नहीं मिलता। (ऋग्वेद में 'शिश्नदेवाः' Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ लिङ्गवत-लिङ्गायत शब्द मिलता है, किन्तु लिङ्ग शिश्न नहीं है; यह ज्योति व्यापक रूप से प्रचलित थी और आकार तथा विधि के अथवा प्रकाश का प्रतीक है।) संप्रति सभी शैवसम्प्रदाय थोड़े-बहुत भेद के साथ सारे संसार के मूर्तिपूजक लिङ्गलिङ्ग की पूजा करते हैं। पूजन करते थे। मिस्र में, यूनान में, बाबुल में, असुर देश में, लिङ्गायत सम्प्रदाय में लिङ्ग का बहुत अधिक महत्त्व इटली में, फ्रांस तथा अमेरिका में, अफ्रीका में, तथा पॉलिहै। अष्टवर्ग, जो लिङ्गायतों का एक संस्कार है, बच्चे के नेशिया द्वीपों में लिङ्गपूजा होती थी। मक्का की मस्जिद जन्म के बाद पापों से उसकी रक्षा के लिए किया जाता में आज भी एक पत्थर अथवा लिङ्ग है, जिसे मुसलमान है। लिङ्ग भी अष्टवर्गों में से एक है । प्रत्येक लिङ्गायत यात्री चमते हैं। वह स्वयं मुहम्मद साहब के हाथों वहाँ गले में लिङ्ग धारण करता है । रखा गया है। हिन्दू-भारत में तो शिवपूजा और लिङ्गलिङ्गवत-ये सब व्रत कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी से प्रारम्भ पूजा अनादि काल से परम्परागत रही है। होते हैं। इनमें शिवजी का पूजन होता है। इस अवसर किन्तु लिङ्गपूजा शिश्नपूजा नहीं है, जैसा कि बहुत से पर नक्त विधि से आहार करना चाहिए । चावल के आटे लोग समझते हैं। 'शिश्नोदर परायण' को हिन्दू धर्म में से एक अरनि जितना बड़ा शिवलिङ्ग बनाया जाय, इस घृणित समझा जाता है । ऋग्वेद में 'शिश्नदेव' इसी घणित लिङ्ग पर एक प्रस्थ तिल चढाना चाहिए। मार्गशीर्ष अर्थ में प्रयुक्त है । लिङ्ग वास्तव में प्रतीक मात्र है। यह शक्ल चतुर्दशी को शिवलिंग पर केसर का प्रलेप करना निश्चल, स्थिर तथा दृढ़ ज्ञानस्कन्ध का प्रतीक है । भारत चाहिए। इस विधि से प्रति मास वर्ष भर भिन्न-भिन्न में अनेक लिङ्गों की स्थापना हुई है, जिनमें द्वादश ज्योतिप्रकार के प्रलेप, धूप तथा नैवेद्यादि का प्रयोग करना लिङ्ग विशेष प्रसिद्ध हैं। चाहिए। इससे गम्भीर से गम्भीर पातकी पविा होकर लिङ्गायत-वीर शैवों का अन्य नाम लिंगायत भी है। इस रुद्रलोक प्राप्त कर लेता है । लिंग का निर्माण पवित्र भस्म सम्प्रदाय की उत्पत्ति कर्नाटक के समुद्रतट पर तथा महासे, सुखे गौ के गोबर से, रेणु से या स्फटिक पाषाण से राष्ट्र देश में १२वीं शताब्दी के मध्य हई । यद्यपि वीर किया जा सकता है, किन्तु सर्वोत्तम लिङ्ग तो नर्मदा के शैव अथवा वीर माहेश्वर अपने सम्प्रदाय को अति प्राचीन उद्गम वाले पर्वत की रज से ही निर्मित हो सकता है। मानते हैं। कर्नाटक में सैकड़ों वर्षों तक या तो शव थे लिङ्गधारी-शैवों में भगवान शिव की अनन्य और प्रगाढ़ या दिगम्बर जैन । इस नये सम्प्रदाय की स्थापना शैव भक्ति करने वाले वीर माहेश्वर या वीर शैव हैं, जिन्हें धर्म की निश्चित सुव्यवस्था के लिए तथा जैनियों को लिङ्गायत भी कहते हैं। पाशुपतों या शैवों में लिङ्गी वा अपने सम्प्रदाय में लेने के लिए हुई। सम्प्रदाय की दो लिङ्गधारी तथा अलिङ्गी वा साधारण लिडार्चन करने मुख्य विशेषताएँ हैं-(१) मठों की प्रधानता तथा (२) वाले, ये दो प्रकार हैं । लिङ्गधारी ही लिङ्गायत कहलाते धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में प्रत्येक लिंगायत का हैं जो मांस-मत्स्यादि का परित्याग करते हैं। समानाधिकार। लिङ्गपुराण-अठारह महापुराण में से ग्यारहवाँ पुराण । वीर शवों की साम्प्रदायिक व्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। लिङ्ग तथा कूर्म पुराणों शैव वर्ग के हैं जो वैष्णव वर्गीय इनके पाँच प्रारम्भिक मठ थे जिनके महन्त पाँच अग्नि तथा गरुड पुराण जैसी विशेषताएँ रखते हैं। संन्यासी थे : इनमें आगमों और तन्त्रों की शिक्षाओं का भी समावेश है मठ प्रदेश प्रथम महन्त और इन ग्रन्थों का प्रसंग भी यथास्थान आया है। दोनों १. केदारनाथ हिमालय प्रदेश एकोराम में कुछ परिवर्तन तथा परिवर्धन के साथ शिव के २८ २. श्रीशैल तैलंग प्रदेश पण्डिताराध्य अवतारों तथा उनके शिष्यों का वर्णन (वायु से लिया ३. बलेहल्ली पश्चिमी मैसूर रेवण गया) उपस्थित है । लिङ्गपुराण में ओंकार के रहस्यमय ४. उज्जयिनी बेलारी सीमा मरुल अर्थ पर विशेष विचार किया गया है। ५. वाराणसी उत्तर प्रदेश विश्वाराध्य लिङ्गपूजा--पुरातत्त्व के विद्वानों का कहना है कि लिङ्ग- प्रत्येक लिंगायत ग्राम में एक मठ होता है जो किसी न पूजा किसी समय, विशेषतः ईसा के पूर्व सारे संसार में किसी आदि मठ से सम्बन्धित होता है। जङ्गम एक जाति है Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गार्चनव्रत-लीलाचरित जिसके सभी लिङ्गायत गुरु सदस्य होते हैं । प्रत्येक लिङ्गायात को किसी न किसी मठ से सम्बन्धित होना चाहिए तथा उसका एक गुरु होना चाहिए। लिङ्गायत शिव को ही सर्वेश्वर मानते हैं तथा एकमात्र शिव की पूजा करते हैं । वे शिव की पूजा दो प्रकारों से करते हैं; अपने गुरु जङ्गम की पूजा तथा गले में लटकने वाले छोटे लिङ्ग की पूजा । जब बच्चा पैदा होता है तो पिता अपने गुरु को बुलाता है, वह बच्चे की रक्षा के लिए अष्टवर्ग संस्कार करता है । इसके आठ विभाग हैं— गुरु, लिङ्ग, विभूति, रुद्राक्ष, मन्त्र, जङ्गम, तीर्थ और प्रसाद इस संस्कार से बालक लिङ्गायत बन जाता है। प्रत्येक लिङ्गायत को एक गुरु स्वीकार करना होता है । इस अवसर पर एक संस्कार होता है, इसमें पाँच पात्रों का प्रयोग होता है जो पाँचों आदि विहारों के आदिमहन्तों का प्रतिनिधित्व करते हैं । चार पात्र वेदी के एकएक कोने पर तथा मध्य में वह रखा जाता जिससे गुरु का सम्बन्ध होता है । दीक्षा लेने वाला जिस मठ से अपना सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है उसके महन्त प्रतिनिधि पात्र को केन्द्र में रखता है। है के प्रत्येक लिङ्गायत दिन में दो बार भोजन के पूर्व पूजा करता है। वह अपने गले से लिङ्ग लेकर हथेली पर रखता है तथा बताये गये ढंग से पूजा व ध्यान में लीन हो जाता है। जब गुरु चेले के घर आते हैं तब पादोदक संस्कार होता है, जिसमें उस परिवार के सभी लोग बन्धु बान्धव समेत सम्मिलित होते हैं और गृहस्वामी गुरु के चरणों की पूजा षोडशोपचारपूर्वक करता है । जनम के दो अर्थ है एक तो जाति का सदस्य और दूसरा जो जङ्गमाभ्यास करता है। केवल दूसरा ही पूजनीय होता है । बहुत से जङ्गम विवाह करते तथा जीविकोपा र्जन करते हैं, किन्तु अभ्यासी जङ्गम ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । उनकी शिक्षा किसी मठ में होती है तथा वे दीक्षित होते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं। प्रथम गुरुस्थल जनम वे है जो पारिवारिक संस्कारों के कराने की शिक्षा लेकर गुरु का कार्य करते हैं । पाँचों मठों का नाम भी गुरुस्थल है। दूसरा वर्ग है विरक्त जङ्गमों का, इनके लिए विशेष मठ होते हैं जहां इन्हें दार्शनिक शिक्षा दा जाती ७२ ५६९ है । इन मठों को षट्स्थल मठ कहते हैं क्योंकि यहाँ शिव के साथ एकत्व प्राप्त करने के छः स्थलों की शिक्षा दी जाती है । लिङ्गायतों में दो वर्ग हैं-- एक पूर्ण लिङ्गायत, दूसरे अर्ध लिङ्गायत । अर्ध लिंगायतों की पूजा अपूर्ण तथा जातिभेद बहुत ही कड़ा है। पूर्ण लिंगायत अन्तर्जातीय विवाह नहीं करते किन्तु भोजन सभी के साथ कर लेते हैं । पूर्ण लिंगायत शव को जलाते हैं । ये शाकाहारी होते है बालविवाह इनमें वर्जित है किन्तु विधवाविवाह होता है । वीरशैवों को यह शिक्षा दी जाती है कि वे इसी जन्म में सिखाये हुए ध्यान की छः अवस्थाओं से होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं उनके अभ्यास में भक्ति का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । । लिङ्गायत साहित्य अधिकांश कन्नड तथा संस्कृत में है । किन्तु कुछ महत्वपूर्ण प्रन्थ तेलुगु भाषा में भी हैं। एक अति प्राचीन ग्रन्थ है 'पंडिताराध्य का जीवन' । इसे सोमनाथ ने संस्कृत तथा तेलुगु मिश्रित भाषा में लिखा है । अन्य ग्रन्थ बसवपुराण, श्रीकरभाष्य ( वेदान्तसूत्र का भाष्य ), सूक्ष्म आगम पूर्ण लिङ्गायत हैं। लिङ्गायतों में प्रचलित महत्त्वपूर्ण कन्नड भाषा की शिक्षाएँ 'वचन' कह लाती हैं। कुछ कन्नडही पुराण भी इस सम्प्रदाय के हैं जिनमें राघवारचित 'सिद्धराम' बहुत प्रसिद्ध है । लिङ्गानव्रत शनिवारयुक्त कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को इस - व्रत का अनुष्ठान होता है। उस दिन शिवजी के एक सौ नामों का जप करना चाहिए। प्रदोषकाल में पञ्चामृत से स्नान कराकर लिङ्ग रूप में शिवजी का पूजन करना चाहिए । स्कन्दपुराण (१.१७.५९-९१ ) इस व्रत का वर्णन करता है। श्लोकसंख्या ७५-८९ में शिवजी के १०० नाम गिनाये गये हैं । लिङ्गार्चनी शाखा - यों तो सभी शैव लिङ्गार्चन करते हैं, किन्तु प्रगाढ़ शिवभक्तों का सम्प्रदाय वीर माहेश्वर या वीर व अपने अङ्ग पर निरन्तर लिङ्ग धारण करने के कारण लिङ्गायत कहलाता है। प्रति दिन दो बार लिङ्गार्चन करने के कारण इस शाखा को लिङ्गार्चनी शासा भी कहा गया है । लीलाचरित -मानभाउ पन्थ या दत्त सम्प्रदाय का एक प्राचीन ग्रन्थ लीलाचरित है । इनके सभी ग्रन्थ मराठी में Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० लीलाशक-लोहाभिसारिकाकृत्य हैं । अपने साहित्य को गुप्त रखने लिए साम्प्रदायिकों ने नाम कृष्णपाद मिलता है। जन्म भी दक्षिण में ही हुआ ग्रन्थ लेखन के लिए एक भिन्न लिपि का भी उपयोग था। इन्होंने रामानुजाचार्य का मत समझाने के लिए किया है। दो ग्रन्थों की रचना की-तत्त्वत्रय' और 'तत्त्वशेखर' । लोलाशुक-विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के चौदहवीं-पन्द्रहवीं 'तत्त्वत्रय' में चित् तत्त्व या आत्मतत्त्व, अचित् या जड़ शती के एक आचार्य बिल्वमङ्गल हो गये हैं। इनका ही तत्त्व और ईश्वर तत्त्व का निरूपण करते हुए रामानुजीय दूसरा नाम लोलाशक है। इन्होंने 'कृष्णकर्णामृत' नामक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कहीं-कहीं पर अन्य बड़े ही मधुर भक्तिरसपूर्ण काव्यग्रंथ की रचना की है। मतों का खण्डन भी किया गया है। इस ग्रन्थ पर बर्बर लुम्बिनी (कानन)-यह मूलतः बौद्ध तीर्थ है। अब यहाँ मुनि का भाष्य भी मिलता है। स्थानीय लोग देवी की पूजा करते हैं। यह बुद्ध की माता लोकायतदर्शन-लोक एवं आयत, अर्थात् 'लोकों' जनों में माया देवी का आधुनिक रूप है। यह स्थान नेपाल की 'आयत' फैला हुआ दर्शन ही लोकायत है । इसका दूसरा तराई में पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-नौतनवाँ लाइन के अर्थ वह दर्शन है जिसकी सम्पूर्ण मान्यताएँ इसी भौतिक नौतनवाँ स्टेशन से २० मील उत्तर है और गोरखपुर-गोंडा जगत् में सीमित हैं। यह भौतिकवादी अथवा नास्तिक लाइन के नौगढ़ स्टेशन से १० मील है। नौगढ़ से यहाँ दर्शन है । इसका अन्य नाम चार्वाक दर्शन भी है। विशेष तक पक्का मार्ग भी बन गया है । गौतम बुद्ध का जन्म विवरण के लिए दे० 'चार्वाक दर्शन' । यहीं हुआ था। यहाँ के प्राचीन विहार नष्ट हो चुके हैं। लोचनदास-चैतन्य सम्प्रदाय के इस प्रतिष्ठित कवि ने एक अशोकस्तम्भ है जिस पर अशोक का अभिलेख सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में 'चैतन्यमङ्गल' उत्कीर्ण है। इसके अतिरिक्त समाधिस्तुप भी है, जिसमें बुद्ध नामक काव्य ग्रन्थ की रचना की । की मूर्ति है । नेपाल सरकार द्वारा निर्मित दो स्तूप और लोपा-तैत्तिरीय संहिता (५.५९.१८.१) में लोपा अश्वमेध हैं । रुम्मिनदेई का मन्दिर तथा पुष्करिणी दर्शनीय है। यज्ञ की बलितालिका में उद्धृत है। इसे सायण ने एक लोक-ऋग्वेद आदि संहिताओं में लोक का अर्थ विश्व है। प्रकार का पक्षी, सम्भवतः श्मशानशकुनि' (शवभक्षी तीन लोकों का उल्लेख प्रायः होता है। 'अयं लोकः' कौवा) बतलाया है। (यह लोक) सर्वदा 'असौ लोकः' (परलोक अथवा स्वर्ग) के लोपामुद्रा-ऋग्वेद (१.१७९.४) की एक ऋचा में लोपाप्रतिलोम अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लोक का कभी-कभी मुद्रा का उल्लेख अगस्त्य की स्त्री के रूप में जान पड़ता स्वर्ग अर्थ भो किया गया है। वैदिक परिच्छेदों में अनेक है। यह प्रबुद्ध महिला स्वयं ऋषि थी। विभिन्न लोकों का उल्लेख हुआ है । लौकिक संस्कृत में लोमश ऋषि-लोमश ऋषि को 'लोमशरामायण' का प्रायः तीन लोकों का ही उल्लेख मिलता है : (१) स्वर्ग रचयिता माना जाता है। ये अमर समझे जाते हैं। रचयिता माना जाता है। अमर: (२) पृथ्वी और (३) पाताल । लोहाभिसारिकाकृत्य-जो राजा विजयेच्छु हो उसे आश्विन लोकव्रत-चैत्र शुक्ल पक्ष में इस व्रत का प्रारम्भ होता है। शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी तक यह धार्मिक कृत्य करना सात दिनों तक निम्न वस्तुओं का क्रमशः सेवन करना चाहिए। सोने, चाँदी अथवा मिट्टी की दुर्गाजी की चाहिए-गोमूत्र, गोमय, दुग्ध, दधि, घृत तथा जल प्रतिमा का पूजन इसमें होता है । इस अवसर पर अस्त्रजिसमें कुश डूबा हुआ हो। सप्तमी को उपवास का विधान शस्त्र तथा राजत्व के उपकरण (छत्र, चँवर आदि) का है । महाव्याहृतियों (भूः भुवः स्वः) का उच्चारण करते भी मन्त्रों से पूजन किया जाना चाहिए। जनश्रुति है कि हुए तिलों से हवन करना चाहिए। वर्ष के अन्त में वस्त्र, लोह नाम का एक राक्षस था। देवताओं ने उसके काँसा तथा गौ दान की जानी चाहिए। इस व्रत से व्रती शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । आज जितना भी लोहा को राजत्व प्राप्त होता है। मिलता है वह उसी के शरीर के अवयवों से निर्मित्त हुआ लोकाचार्य-विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय में लोकाचार्य वेदान्ता- है। लोहाभिसार का तात्पर्य यह है कि लोहे के अस्त्रचार्य के ही समसामयिक और विशिष्ट विद्वान् हुए है। शस्त्रों को आकाश में घुमाना ( लोहाभिसारोऽस्त्रभृतां इनका काल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी और पिता का राज्ञां नीराजनो विधि:-अमरकोश)। जिस समय Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहिताहि-वज्र ५७१ विजयेच्छु राजा आक्रमण के लिए प्रयाण करता था, उस आरण्यक में भी एक लौहित्य या लोहिक्य नामक आचार्य समय उसके शरीर को पवित्र जल से अभिषिञ्चित किया का उल्लेख है। जाता था, अथवा दीपों की पंक्तियों को नाराजना के रूप (२) ब्रह्मपुत्र के ऊपरी प्रवाह का नाम लौहित्य है । में उसके चारों ओर घुमाया जाता था। यह कार्य उस भारत के पवित्र नदों में इसकी गणना है । पूर्वोत्तर समय लोहाभिसारिक कर्म कहलाता था। उद्योगपर्व सीमान्त में यह प्रवाहित होता है । दे० 'लौहित्यस्नान' । (१६०.९३) में 'लोहाभिसारो निर्वृत्तः' वाक्य मिलता है। लौहित्यस्नान-ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान करने को लौहित्यनीलकण्ठ व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इसमें अस्त्र- स्नान कहते हैं । ब्रह्मपुत्र भारत का पवित्र नद है। इसमें शस्त्रों के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके उनकी आरती स्नान करना पुण्यदायक माना जाता है। दे० 'ब्रह्मपुत्रउतारते हुए देवताओं से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की स्नान' । जाती है। लोहिताहि-लोहित + अहि (लाल साँप) । एक प्रकार के सप का नाम है जिसका उल्लेख यजुःसंहिता के अश्वमेध व-अन्तःस्थ वर्णों का चौथा अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके यज्ञ की बलितालिका में हुआ है। स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है : लौगाक्षि-सामवेद शाखा परम्परा के अन्तर्गत पौष्यञ्जि वकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीमोक्षमव्ययम् । के शिष्य लौगाक्षि सामवेद के शाखाप्रवर्तकों में थे । पञ्चप्राणमयं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। इनके शिष्य ताण्ड्यपुत्र राणायनीय, सुविद्वान्, मूलचारी ििबन्दुसहितं वर्णमात्मादि तत्त्वसंयुतम् । आदि थे। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्यल्लतामयम् ।। लोगाक्षिकाठकगृह्यसूत्र-यजुर्वेदीय गृह्यसूत्रों में लौगाक्षि चतुर्वर्गप्रदं वर्णं सर्वसिद्धिप्रदायकम् । काठकगृह्यसूत्र भी सम्मिलित है, इस पर देवपाल की एक त्रिशक्तिसहितं देवि त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ वृत्ति प्राप्त होती है। वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया लौगाक्षिभास्कर-वैशेषिक तथा न्याय की संयुक्त शाखा का अनुमोदन जिन वैशेषिक तथा नैयायिक आचार्यों के ग्रन्थों कुन्दपुष्पप्रभां देवीं द्विभुजां पङ्कजेक्षणाम् । से हुआ, उनमें लौगाक्षिभास्कर प्रसिद्ध दार्शनिक हुए हैं। शुक्लमाल्याम्बरधरां रत्नहारोज्ज्वलां पराम् ।। ये १६५७ वि० के लगभग वर्तमान थे । कर्ममीमांसा पर साधकाभीष्टदां सिद्धां सिद्धिदां सिद्धसेविताम् । इनका एक ग्रन्थ 'अर्थसंग्रह' और न्याय-वैशेषिक मत पर एवं ध्यात्वा वकारंतु तन्मन्वं दशधा जपेत् ।। अन्य ग्रन्थ ‘पदार्थमाला' प्रसिद्ध है। वंशब्राह्मण--एक ब्राह्मण ग्रन्थ । परिचय सहित यह ग्रन्थ लौरिय कृष्णदास-पन्द्रहवी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्पन्न बर्नेल साहब ने मंगलौर से (सन् १८७३-१८७६,१८७७ एक बंगाली कवि । इन्होंने 'भक्तिरत्नावली' का अनुवाद में) प्रकाशित किया था। बँगला में बड़ी योग्यता से किया है। 'भक्तिरत्ना- वगलामुखी-शाक्त मतानुसार दस महाविद्याओं (मुख्य वली' स्वामी विष्णपुरी द्वारा रचित मध्वमत सम्बन्धी देवियों) में एक महाविद्या । 'शाक्तप्रमोद' के अन्तर्गत दसों ग्रन्थ है तथा इसका विषय है भगवद्गीता के भक्तिविषयक महाविद्याओं के अलग-अलग तन्त्र हैं, जिनमें इनकी कथाएँ, सुन्दरतम स्थलों का संग्रह । ध्यान और उपासना विधि दी हुई है । लौ सेन-दे० 'मयूर भट्ट' । वचन-प्रचलित लिङ्गायत मत के अन्तर्गत संग्रहीत प्रारलोहित्य-(१) लोहित के वंशज, जैमिनीय उपनिषद् म्भिक कन्नड उपदेश बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हें वचन ब्राह्मण के अनेक आचार्यों का पितृबोधक नाम, जिसके कहते हैं । इनमें से कुछ स्वयं आचार्य वसव द्वारा रचित अनुसार लौहित्य कुल का रोचक अध्ययन किया जा सकता है तथा अन्य परवर्ती महात्माओं के हैं। है । यथा कृष्णदत्त, कृष्णरात, जयक, त्रिवेद कृष्णरात, वज्र-(१) इन्द्र देवता का भख्य अस्त्र, जो ऋषि दधीचि दक्ष जयन्त, पल्लिगुप्त, मित्रभृति प्रभृति नाम । शाङ्खायन की अस्थियों से निर्मित क ा जाता है। यह अस्त्र चक्राकार गया है: Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ और तीक्ष्ण कोणों से युक्त होता है। इसके अनेक नाम हैं, यथा - अशनि, अभ्रोत्य, बहुदार, भिदिर या छिदक, दम्भोति, जसुरि, ह्रादिनी, कुलिंग, पवि षट्कोण, शम्भ एवं स्वरु । 7 (२) अनिरुद्ध का पुत्र उसकी माता अनिरुद्ध की पत्नी सुभद्रा अथवा दैत्यकुमारी उषा कही जाती है । यादवों के विनाश के पश्चात् और द्वारका के जलमग्न हो जाने पर वही अन्त में मथुरामण्डल का राजा बनाया गया था। वज्रसूची उपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । कहा जाता है, यह किसी बौद्ध तार्किक (अश्वघोष ) की रची हुई है। वजुली (द्वादशी) कई प्रकार की द्वादशियों में से एक द्वादशी । वञ्जुली उस द्वादशी को कहते हैं जो सूर्योदय से आरम्भ होकर अगले सूर्योदय तक विद्यमान रहे तथा उस दिन भी थोड़ी देर रहे। अतएव यह सम्भव है कि द्वादशी को उपवास करके द्वादशी में ही दूसरे दिन व्रत की पारणा कर ली जाय । दूसरी तिथि में पारणा करने की आवश्यकता नहीं है । उस दिन भगवान् नारायण की सुवर्णप्रतिमा का पूजन किया जाय। इसका माहात्म्य तथा पुण्य सहस्र राजसूय यज्ञों से भी अधिक माना जाता है । वटसावित्रीवत पेष्ठ मास की अमावस्या को सधवा महि वाएँ सौभाग्य रक्षार्थ यह व्रत करती है। इसमें विविध प्रकार से वटवृक्ष का पूजन किया जाता है और पति के स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य की कामना की जाती है । वत्स - कण्व के वंशज अथवा पुत्र वत्स का ऋद में गायक के रूप में उल्लेख हुआ है। पञ्चविशब्राह्मण के अनुसार उन्हें अपनी वंशशुद्धता मेधातिथि के सम्मुख प्रदर्शित करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी तथा उसमें वे सफल निकले। शाङ्खायन श्रौतसूत्र में उन्हें तिरिन्दर पारशव्य से प्रभूत दान पानेवाला कहा गया है । आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है । वत्स एक उपगोत्र ( वत्स गोत्र ) के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। वत्सद्वादशी-कार्तिक कृष्ण द्वादशी । इस दिन बछड़े वाली गौ का चन्दन के लेप, माला, अर्ध्यसे उरद की दाल के बड़ों का नैवेद्य बनाकर सम्मान करना चाहिए। उस दिन व्रती तेल का पका हुआ अथवा कड़ाही में हुआ भोजन एवं गी के दूध, घी, दही तथा मक्खन का परि त्याग करे और बछड़ों को छुट्टा दूध पीने दिया जाय । -- । वज्रसूची उपनिषद्-वरयतापनीयोपनिषद् वत्सराधिपपूजा वर्ष के स्वामी का पूजन चैत्र मास में जिस दिन नया वर्ष प्रारम्भ होता हैं उस दिन का वार ही वर्ष का स्वामी होता है उसी दिन वर्ष के स्वामी का पूजन होना चाहिए । वन - शङ्कर के अनुयायी दसनामी संन्यासियों मेंसे वन भी एक वर्ग है। ये गोवर्धन मठ (जगन्नाथपुरी) के अन्तर्गत आते हैं। वरचतुर्थी - मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी । यह तिथिव्रत है । प्रति मास की चतुर्थी को गणेश का पूजन करना चाहिए। उस दिन क्षार तथा लवण का त्यागकर एकभक्त विधि से भोजन करना चाहिए। यह व्रत चार साल तक चलना चाहिए | किन्तु द्वितीय वर्ष नक्त विधि से, तृतीय वर्ष अयाचित विधि से तथा चतुर्थ वर्ष उपवास के साथ व्रत करने का विधान है । वरदगुरु — आचार्य वरदगुरु पन्द्रहवीं शती में हुए थे । वे वेंकटनाथ के पुत्र तथा नगनाराचार्य के शिष्य थे । उनका दूसरा नाम प्रतिवादिभयङ्करम् अस्नन था । तार्किक होने के कारण उनका यह नाम पड़ा । वरदगुरु ने वेंकटनाथ की प्रशंसा में 'सप्ततिरत्नमालिका' नामक काव्य की रचना की। नगनाराचार्य ने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी है। वरदगुरु वेङ्कटनाथ के अनन्य भक्त और नगनाराचार्य के उपयुक्त शिष्य एवं विशिष्टाद्वैत मत के समर्थक थे । उन्होंने 'तत्त्वत्रयचुलुकसंग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें रामानुज स्वामी के सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है। वरचतुर्थी गाथ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। वरद (विनायक या गणपति) की चतुर्थी एवं पञ्चमीको कुन्दपुष्पों से पूजा करनी चाहिए, ऐसा 'समयप्रदीप' का लेख है । जबकि 'कृत्यरत्नाकर' और 'वर्षकृत्यकौमुदी' कहते हैं कि 'वरचतुर्थी' के दिन व्रतारम्भ करके पञ्चमी के दिन कुन्दपुष्पों से गणेश का पूजन करना चाहिए । यही पञ्चमी श्री पञ्चमी है । 'वर' का तात्पर्य है विनायक । वरदतापनीयोपनिषद् — इसका अन्य नाम गणपतितापनीयोपनिषद् भी है । यह गाणपत्य मत की उपनिषद् है । इसमें गणेश को ही परब्रह्म मानकर उनका एक मन्त्रराज लिखा गया है तथा उसकी व्याख्या नरसिंहतापनीयोपनिषद् के अनुकरण पर की गयी है। रचनाकाल की दृष्टि से इसको नवीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरदनायकसूरि-वराहपुराण ५७३ वरदनायक सूरि-ये आचार्य वरदगुरु के पश्चात् उत्पन्न नामक एक व्याकरण ग्रन्थ के रचयिता भी कहे जाते हैं । हुए थे। क्योंकि इन्होंने 'चिदचिदोश्वरतत्त्वनिरूपण' महाभाष्य के पहले पाणिनीय सूत्रों पर कात्यायन मुनि नामक अपने ग्रन्थ में वरदगुरु के 'तत्त्वत्रयचुलुक' का ने वार्तिक लिखे हैं । इन्होंने अपने वार्तिक में पाणिनि के उल्लेख किया है । सम्भवतः ये १६वीं शती में हुए थे। अनेक सूत्रों की स्वतंत्र समालोचना की है । इसका विशेष वरदनायक ने अपने ग्रन्थ में जीव, जगत् और ईश्वर के उद्देश्य यही है कि सूत्रों का अर्थ और तात्पर्य खुल जाय । सम्बन्ध पर विचार किया है। इनका विचार भी रामानुज ये वार्तिककार कात्यायन ही वररुचि थे। कथासरित्सागर स्वामी के विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। में लिखा है कि पार्वती के शाप से वत्सराज उदयन की वरदराज-वरदराज विष्णुस्वामी मतावलम्बी थे। इन्होंने राजधानी कौशाम्बी में कात्यायन वररुचि का जन्म भागवत पुराण की एक टीका लिखी है । इसकी एक दो सौ हआ था। वर्ष पुरानी पाण्डुलिपि संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वरलक्ष्मीव्रत-श्रावण पूर्णिमा के दिन जब शुक्र ग्रह पूर्व के पुस्तकालय में है। किन्तु इसकी परीक्षा नहीं हुई है। में उदय हो उस समय व्रती को अपने घर की उत्तर-पूर्व इनका समय अनिश्चित है। दिशा में एक मण्डप बनाना चाहिए तथा उसमें कलश वरदा चतुर्थी--माघ शुक्ल चतुर्थी। गौरी इसको देवता की स्थापना करनी चाहिए। कलश पर वरलक्ष्मी का हैं । विशेष रूप से महिलाओं के लिए इस व्रत का महत्त्व आवाहन करके उनका 'श्रीसूक्त' के मन्त्रों से पूजन करना है । हेमाद्रि, १. ५३१ में इसका नाम गौरीचतुर्थी है जो चाहिए । दे० 'साम्राज्यलक्ष्मीपीठिका' का पृ० १४७सही प्रतीत होता है। निर्णयसिन्धु (पृ० १३३) के अनु- १४९ (भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीच्यूट पूना, १९२५-२६ सार भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी वरदा चतुर्थी है । पुरुषार्थ- का प्रतिलेख सं० ४३)। चिन्तामणि (पृ० ९५) के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी वराटिकासप्तमी-किसी भी सप्तमी के दिन इस व्रत का वरदा चतुर्थी है । अनुष्ठान किया जा सकता है। मनुष्य उस दिन ऐसे भोजन वरदाचायं-वरदार्य या वरदाचार्य रामानुजाचार्य के भानजे पर निर्भर रहे जो तीन कौड़ियों में खरीदा जा सके । उस और शिष्य तथा 'श्रुतप्रकाशिका' टीकाकार सुदर्शनाचार्य खरीदी हुई वस्तु का खाना चाहे उसके लिए उचित हो के गरु थे । वे लगभग तेरहवीं शती विक्रमी में विद्यमान या न हो । इसके सूर्य देवता है। इसके पुण्य तथा फल थे । 'तत्त्वनिर्णय' ग्रन्थ में अपना गोत्र उन्होंने वात्स्य नहीं बताये गये हैं। और पिता का नाम देवराजाचार्य लिखा है । वरदाचार्य ने वराहद्वादशी-माघ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान 'तत्त्वनिर्णय' नामक प्रबन्ध में विष्णु को ही परब्रह्म सिद्ध होता है। भगवान् विष्णु के ही एक रूप वराह इसके किया है । यह ग्रन्थ सम्भवतः अप्रकाशित है । देवता हैं। एकादशी को संकल्प तथा पूजन करके एक वरदोत्तरतापनीय उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसका कलश में सोने की वराह भगवान् की मूर्ति रख देनी सम्बन्ध गाणपत्य मत से है। चाहिए। तदनन्तर उनकी पूजा कर रात्रि में मण्डप में बरनवमी-इस व्रत के अनुसार प्रत्येक नवमी को आटे का । जागरण किया जाय । द्वितीय दिवस वह प्रतिमा किसी आहार नौ वर्षपर्यन्त करना चाहिए । दुर्गा इसको देवता विद्वान् तथा सदाचारी को दान में दे दी जाय। इसके हैं। इससे समस्त मनःकामनाएं पूरी होती हैं। यदि परिणामस्वरूप इसी जीवन में सौभाग्य, सम्पत्ति, सौन्दर्य, व्रती प्रति नवमी को बिना पका हुआ भोजन जीवनपर्यन्त सम्मान, पुत्रादि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है । करे तो इहलोक तथा परलोक में अनन्त पुण्यों तथा वराहपुराण-यह वैष्णव पुराण है । इसमें वराह अवतार फलों की प्राप्ति होती है। की कथा का विशेष रूप से वर्णन है और यह वराह वररुचि-सामवेद का गोभिलकृत श्रौतसूत्र पुष्पसूत्र है । द्वारा पृथ्वी को सुनाया गया था। संभवतः नामकरण का इसे दाक्षिणात्यों में फुलुसूत्र कहते है और इसे वररुचि की यही कारण हो सकता है । पुराणों के अनुसार इसमें २४ रचना बतलाते है । तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर वररुचि का सहस्र श्लोक होने चाहिए, किन्तु उपलब्ध प्रतियों में भाष्य था जो अब नहीं मिलता है। वररुचि प्राकृतप्रकाश केवल १० सहस्र श्लोक पाये जाते हैं। इसके दो संस्करण Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ मिलते हैं - (१) गौडीय और (२) दाक्षिणात्य । इनमें प्रथम अधिक प्रसिद्ध है। इस पुराण में विष्णु के अनेक व्रतों का विस्तृत वर्णन है, विशेषकर द्वादशीव्रत का । प्रत्येक मास की शुक्ल द्वादशी का सम्बन्ध विष्णु के अव तारविशेष से जोड़ा गया है। इस पुराण के दो आख्यान बहुत प्रसिद्ध हैं -- मथुरामाहात्म्य (अ० १५२-१७२) तथा नाचिकेतोपाख्यान ( अ० १९३ - २१२ ) । दूसरे आख्यान में नचिकेता की यमलोकयात्रा के सम्बन्ध में स्वर्ग तथा नरक का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । वराहमिहिर खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के प्राचीन लेखक वराहमिहिर नाम से ही ये मिहिर (सूर्य) के भक्त सिद्ध होते हैं । इन्होंने पञ्चसिद्धान्तिका, बृहज्जातक आदि के साथ ही प्रसिद्ध ग्रन्थ बृहत्संहिता की रचना की । इसके अनुसार सूर्य की प्रतिमा ईरानी शैली में निर्मित होती थी। इन्होंने इन मूर्तियों तथा इनके मन्दिरों की स्थापना तथा मग ब्राह्मणों द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करने आदि के नियम बतलाये है। इनका समय पांचवीं छठी शती का मध्य भाग इन्हीं की ग्रहगणना से सिद्ध होता है । इससे इनका विक्रमादित्य के नवरत्नों में होना प्रमाणित नहीं होता। वराहसंहिता वैष्णव संहिताओं में वराहसंहिता सबसे प्राचीन मानी जाती है। ---- वराहावतार विष्णु के दस अवतारों में तृतीय स्थान वराहावतार का है । भगवान् ने पाताल लोक से पृथ्वी के उद्धार के लिए यह अवतार धारण किया था। इस अवतार के प्रसंग में भागवत पुराण के अनुसार जय और विजय नामक भगवान् के द्वारपाल सनत्कुमारादि ऋषियों के शाप के कारण विष्णुलोक से च्युत होकर दैत्य योनि में उत्पन्न हुए। उनमें से एक का नाम हिरण्याक्ष था, जिसने पृथ्वी पर अधिकार प्राप्तकर उसे रसातल में छिपा रखा था । अतः भगवान् ने उसका वध करके पृथ्वी का उद्धार किया। यह कथानक इस अवतार से सम्बन्धित है । वरिवस्यारहस्य दक्षिणमार्गी शाक्त ग्रन्थ अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में तओर के राजपण्डित भास्करराय द्वारा यह रचा गया। इसका विषय शाक्त उसासना पद्धति है। यह आर्या छन्द में लिखा गया है। वरुण - वैदिक देवों में वरुण का स्थान सबसे अधिक प्रभावशाली है । इनका प्रभाव भारत-ईरानी काल में बढ़ गया --- वराहमिहिर वरुण था तथा 'अहुरमज्द' वरुण का ही ईरानी प्रतिरूप प्रतीत होता है । कुछ लोग इनका प्रभाव भारत-यूरोपीय काल से मानते हैं तथा इनका सम्बन्ध यूनानी 'औरनॉज' से स्थापित करते हैं । कतिपय प्राच्यविद्याविशारद चन्द्रमा में वरुण का भौतिक आधार मानते हैं । वरुण आदित्यों में सात (वें) है तथा प्रो० ओल्डेनबर्ग ने उनको सूर्य, चन्द्र तथा पञ्चग्रहरूप बतलाया है। ऋग्वेद में वरुण का मित्र से उतना ही सामीप्य है जितना अवेस्ता में 'अहुर मज्द' का 'मित्र' से दोनों नाम वरुण एवं मित्र बोगाजकोई (ईराक) के अभिलेख में उद्धृत हैं (१४०० ई० पू.) प्रागैतिहासिक काल में यूनानी जियस ( द्यौस्) तथा औरनोज के जो गुण प्रकाश तथा घेरना कहे गये हैं, वे भारतीय वरुण देवता में पाये जाते हैं । साधारण लोग वरुण का सम्बन्ध जल से स्थापित करते हैं तथा इस प्रकार वरुण को वर्षा करने वाला देवता भी कहते हैं । मित्र और वरुण का युग्म (वैदिक मित्रावरुण) तो भारतईरानी काल से ही प्रचलित है । दे० पीछे 'मित्र' । - वरुण और नीति — ऋग्वेद (८.८६) में वरुण द्वारा की गयी ऋत की व्यवस्था का वर्णन है। यह व्यवस्था भौतिक, नैतिक और कर्मकाण्डीय हैं । वरुण पापों की चेतावनी तथा दण्ड देने के लिए रोग भी उत्पन्न कर देते हैं। वरुण की स्तुति पाप तथा दण्डों से मुक्ति पाने के लिए (ऋ० ७. ८६. ५ आदि) की जाती थी। वरुण को दयालु देवता और जीवन तथा मृत्यु का देवता भी कहा गया है । वरुण की मैत्री तथा दया प्राप्त करने के लिए दास्यभक्ति की आवश्यकता होती है (ऋ० ७. ८६. ७) तथा इससे वरुण के कोपभाजन उनके कृपापात्र हो जाते हैं । उनके नियमों के सामने निर्दोष व्यक्ति प्रसन्नचित्त खड़े रहते हैं । वरुण की इच्छा ही धर्मविधि है । वरुण के धर्म परिवर्तित नहीं होते। उनका एक चारित्रिक विरुव धृतव्रत है (जिनके व्रत दृढ हैं) । वरुण का साम्राज्य पक्षियों की उड़ान से भी दूर, समुद्र तथा पहाड़ों की पहुँच के बाहर तक फैला हुआ है। सबसे ऊँचे आकाश (स्वर्ग) में वे सहस्र द्वारों वाले प्रासाद में सिंहासनारूढ हैं, विश्व पर शासन करते हैं तथा मनुष्यों के कार्यों पर दृष्टि रखते हैं स्वर्ग भी उन्हें धारण नहीं Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुणगृहोत-वर्ण ५७५ कर सकता, अपितु तीनों स्वर्ग तथा तीनों भूलोक उनके भीतर निहित है। वे सबको धारण करने वाले है (ऋ० ८. ४१. ३७)। वे सर्वव्यापी हैं तथा कोई उनसे दूर नहीं भाग सकता । वे विश्व में होने वाली सभी गुप्त से गुप्त बातों को जानते हैं । वे सर्वज्ञ हैं, प्रत्येक आँख की पलक के गिरने का उन्हें ज्ञान है।' वरुण को प्रसन्न करने के लिए ऐसी ही अनेक स्तुतियाँ वेदों में कही गयी हैं । वे अपने भक्तों को प्रसन्नता व रक्षा का वर देते हैं। वरुणगृहीत-वरुणगृहीत (वरुण से ग्रहण किया हुआ) का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में बहुशः हुआ है । वरुण से गृहीत होने पर मनुष्य को जलोदर का रोग होता है। पापों के फलभोग के लिए वरुण द्वारा दिया गया यह दण्ड है। वरुणवत-(१) यदि कोई व्यक्ति रात्रि भर जल में खड़ा रहे तथा दूसरे दिन प्रातः एक गौ का दान करे तो वह वरुणलोक प्राप्त कर लेता है। (२) विष्णुधर्म० ( ३.१९५.१-३ ) के अनुसार भाद्र- पद मास के प्रारम्भ से पूर्णिमा तक वरुण का पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक जलधेनु, एक छाता, दो वस्त्र तथा एक जोड़ी खड़ाऊँ का दान किया जाय । 'जलधेनु' शब्द अनुशासनपर्व ( ७१.४१ ) तथा मत्स्य पुराण ( ५३.१३ ) में आता है। वर्ची-ऋग्वेद में यह इन्द्र के एक शत्रु का नाम है। उसे दास तथा शम्बर का साथी भी (४.३०.१५) कहा गया । है। वह पार्थिव शत्रु एवं असुर है। सम्भवतः उसका सम्बन्ध वृचीवन्त से है। वर्ण-चार श्रेणियों में विभक्त भारत का मानववर्ग । यह सामाजिक संस्था है। इसका अर्थ है प्रकृति के आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में अपनी वृत्ति ( व्यवसाय ) का चुनाव करना । इस सिद्धान्त के अनुसार समाज में चार ही मूल वर्ग अथवा वर्ण हो सकते हैं । वे है (१) ब्राह्मण (बौद्धिक कार्य करने वाला) (२) क्षत्रिय ( सैनिक तथा प्रशासकीय कार्य करने वाला (३) वैश्य ( उत्पादक सामान्य प्रजा वर्ग ) और (४) शूद्र ( श्रमिक वर्ग) । वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धान्त हैं। एक मत के अनुसार इसकी उत्पत्ति प्राकृतिक श्रमविभाजन के आधार पर हुई । श्रमविभाजन पहले व्यक्तिगत था जो पोछे पैतक हो गया। दूसरे मत के अनुसार वर्ण दैवी व्यवस्था है । विराट् पुरुष ( विश्वपुरुष ) के शरीर के चार अङ्गों से चार वर्ण उत्पन्न हुए : मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से राजन्य (क्षत्रिय ), जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुआ । वास्तव में यह सामाजिक श्रम अथवा कार्य विभाजन का रूपकात्मक वर्णन है। तीसरे मत के अनुसार वर्ण का आधार प्रजाति है और वर्ण का अर्थ रंग है। आर्य श्वेत और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे। इस रंगीन अन्तर के कारण पहले आर्य और अनार्य अथवा शूद्र दो वर्ण बने । फिर आर्यों में ही तीन वर्ण हो गये-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । परन्तु आर्यों के भीतर हो तीन वर्ण अथवा रंग कैसे हुए, इसकी व्याख्या इस मत से नहीं होती। वर्ण की उत्पत्ति का चौथा मत दार्शनिक है। संसार में जितते भी भेद हैं वे सांख्यदर्शन के अनुसार तीनों गुणों-सत्त्व, रज तथा तम-के न्यूनाधिक्य के कारण बने हैं। सामाजिक विभाजन भी इसी के ऊपर आधारित है। जिसमें सत्त्वगुण (ज्ञान अथवा प्रकाश) की प्रधानता है वह ब्राह्मण वर्ण है। जिसमें रजोगुण (क्रिया अथवा शक्ति) की प्रधानता है वह क्षत्रिय वर्ण है। जिसमें रजस्तमः (अन्धकार-लोभ-मोह) के मिश्रण की प्रधानता है वह वैश्य वर्ण है और जिसमें तमः (अन्धकार, जड़ता) की प्रधानता है वह शूद्र वर्ण है । वास्तव में दार्शनिक सिद्धान्त ही मौलिक सिद्धान्त है । परन्तु वर्ण के ऐतिहासिक विकास में उपर्युक्त सभी तत्त्वों का हाथ रहा। पहले आर्यों में ही वर्ण विभाजन था किन्तु वह व्यक्तिगत और मुक्त था; वर्ण परिवर्तन संभव और सरल था। ज्यों ज्यों आर्येतर तत्त्व समाज में बढ़ता गया त्यों त्यों शूद्रों की संख्या तो बढ़ती गयी किन्तु उनका सामाजिक स्तर गिरता गया। साथ ही जो वर्ण शूद्र के जितना ही निकट और उससे सम्पृक्त था वह उतना ही सामाजिक मूल्यांकन में नीचे खिसकता गया । वर्णों के पैतृक होने का एक कारण तो पैतृक व्यवसाय का स्थायित्व था, परन्तु दूसरा कारण प्रजातीय भेद भी हो सकता है। फिर भी वर्ण का एक वैशिष्ट्य था। इसमें सहस्रों जातियों और उपजातियों को चार पूरक और परस्पर सहकारी वर्गों में बाँटने का प्रयास किया गया है। यह जातिप्रथा से भिन्न संस्था है। वर्ण सैद्धान्तिक अथवा वैचारिक संस्था है, जबकि जाति का आधार जन्म अथवा प्रजाति है । वर्ण संयोजक है, जाति विभाजक है। वर्गों के कर्तव्य अथवा कार्य का विभाजन सैद्धान्तिक Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ वर्णविलासतन्त्र-वर्णाश्रमधर्म है और इसका पूरा विवरण धर्मशास्त्र में पाया जाता है। है। इससे विचित्र वृत्तिसंकर की स्थिति उत्पन्न हो गयी ब्राह्मण के कर्तव्य है (१) पठन (२) पाठन (३) यजन है। कार्य विशेष के लिए अयोग्यता और भ्रष्टाचार का (४) याजन (५) दान और (६) प्रतिग्रह । इनमें पाठन, अधिकांश में यही कारण है। याजन और प्रतिग्रह ब्राह्मण के विशेष कार्य हैं । क्षत्रिय के वर्णविलासतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में सामान्य कर्तव्य है पठन, यजन और दान; उसके विशेष एक तन्त्र 'वर्णविलास' भी है। कर्तव्य है प्रजारक्षण, प्रजापालन और प्रजारंजन । वैश्य वर्णव्यवस्था-मानवसमूह की आवश्यकताओं को देखते के सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो क्षत्रिय के हैं । उसके विशेष हुए उसके चार विभाजन हुए। सबसे बड़ी आवश्यकता कर्तव्य हैं कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य । शूद्र के भी शिक्षा की थी, इसके लिए ब्राह्मण वर्ण बना । राष्ट्र की सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो अन्य वर्गों के, परन्तु उनका रक्षा, प्रजा की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम अनुष्ठान वह वैदिक मंत्रों की सहायता के बिना कर सकता में कुशल, बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय था। पीछे इस पर भी प्रतिबन्ध लगने लगे । उसका विशेष वर्ण की उत्पत्ति हुई। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक कर्तव्य अन्य तीन वर्गों की सेवा है । कर्तव्यों में अपवाद आवश्यक वस्तु थी जीविका । अन्न के बिना प्राणी जी और आपद्धर्म स्वीकार किये गये हैं। आपत्काल में नहीं सकता था, पशुओं के बिना खेती नहीं हो सकती अपने से अवर वर्ण के कर्तव्यों से जीविका चलायी जा थी। वस्तुओं की अदलाबदली बिना सबको सब चीजें मिल सकती है। परन्तु उसमें कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, नहीं सकती थीं। चारों वर्गों को अन्न, दूध, घी, कपड़ेजिससे मूल वृत्ति की रक्षा हो सके। लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिएं । इन वस्तुओं का उपजाना, वर्ण के उत्कर्ष और अपकर्ष का सिद्धान्त भी धर्म- तैयार करना, फिर जिसकी जिसे जरूरत हो उसके पास शास्त्रों में माना गया है। जब वर्ण तरलावस्था में था तो पहुँचाना, यह सारा काम प्रजा के एक सबसे बड़े समुदाय शूद्र से ब्राह्मण और ब्राह्मण से शूद्र होना दोनों संभव के सिर पर रखा गया । इसके लिए वैश्यों का वर्ण बना। थे । परन्तु वर्ण ज्यों-ज्यों जन्मगत होता गया त्यों-त्यों किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये वर्णपरिवर्तन कठिन होता गया और अन्त में बन्द हो। सभी वैश्य हुए । शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को, छोटेगया। फिर भी सिद्धान्ततः आज भी मान्य है कि सत्कर्मों मोटे कामों में सहायक और सेवक की आवश्यकता थी । से जन्मान्तर में वर्ण का उत्कर्ष हो सकता है। धावक व हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोनेवाले की, ___ मध्ययुग में, विशेष कर दक्षिण में, एक विचित्र सिद्धान्त पशु चरानेवाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने, का प्रचलन हो गया कि कलियुग में दो ही वर्ण हैं-(१) बरतन माजने वाले की, कपड़े धोनेवाले की आवश्यकता ब्राह्मण और (२) शद्र (कलावाद्यन्तसंस्थितिः); क्षत्रिय थी। ये आवश्यकताएँ शूद्रों ने पूरी की। इस प्रकार और वैश्य नहीं हैं । ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक कर्म प्रजासमुदाय को सभी आवश्यकताएँ प्रजा में पारस्परिक काण्ड और संस्कारों के बन्द हो जाने कारण वैश्यों और कमविभाग से पूरी हुई । दे० 'वर्ण' । क्षत्रियों की कई जातियाँ शद्रवर्ण में परिगणित होने वर्णव्रत-यह चतुमूर्तिव्रत है, जो चैत्र से प्रारम्भ होकर लगीं। धीरे-धीरे दक्षिण में दो ही वर्ण ब्राह्मण और आषाढ़ मास से भी आगे जारी रहता है। जो व्रती उपब्राह्मणेतर माने जाने लगे। परन्तु उत्कीर्ण अभिलेखों ___ वास रखते हुए भगवान् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा तथा समसामयिक साहित्य से पता लगता है कि व्यवहार अनिरुद्ध की पूजा कर क्रमशः यज्ञोपयोगी सामग्री ब्राह्मण में क्षत्रिय और वैश्य वर्ण अपने को क्षत्रिय और वैश्य को, युद्धोपयोगी क्षत्रिय को, व्यापारोपयोगी वैश्य को तथा ही मानते रहे और समाज ने उनकी इस मान्यता को स्वी- शारीरिक शिल्पोपयोगी शूद्र को दान करता है वह इन्द्रकार भी किया। लोक प्राप्त करता है। ___ आधुनिक युग में वर्णगत व्यवसायों के सम्बन्ध में विज्ञान वर्णाश्रमधर्म-वर्णव्यवस्था का आधार कर्मविभाग और तकनीकी विज्ञान के कारण क्रान्तिकारी परिवर्तन था, उसी प्रकार व्यक्ति की जीवनव्यवस्था का रूप हआ है। वर्ण और व्यवसाय का सामंजस्य टूट सा चला आश्रमविभाग था। जीवन की पहली अवस्था में अच्छ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' वर्धमान उपाध्याय-वल्लभसम्प्रदाय ५७७ गहस्थ होने की शिक्षा लेना अनिवार्य था। प्रत्येक वर्ण वर्धापनविधि-इस कृत्य का अर्थ है जन्मोत्सव के क्रियाका सदस्य जीविका की आवश्यक शिक्षा इसी अवस्था कलाप । किसी शिशु के लिए यह प्रति मास जन्म वाली या आश्रम में पाता था । वेदादि शास्त्रों के अतिरिक्त, तिथि के दिन होनी चाहिए, किन्तु किसी राजा के क्षत्रिय शस्त्रास्त्र विद्या और वैश्य कारीगरी, पशुपालन, सम्बन्ध में वर्ष में केवल एक बार होनी चाहिए। इस कृषि आदि का काम भी सीखता था। शूद्र भी अपनी अवसर पर सोलह देवियों (कुमुदा, माधवी, गौरी, रुद्राणी, जीविका के अनुकूल गुणों का अभ्यास करता था। साथ । पार्वती आदि) की नील अथवा केसर से एक वृत्त में ही सबको चरित्र की शिक्षा इसी समय मिलती थी। इस __ आकृतियाँ खींची जाँय, जिनके मध्य में सूर्य की भी आकृति आश्रम में ही कर्मविभाग पर ध्यान देना आरम्भ हो । रहे। इस अवसर पर बच्चे को स्नान कराकर बाँस की जाता था। सोलह टोकरियों में मूल्यवान् पदार्थ, खाद्य पदार्थ, फल-फल दूसरी अवस्था अथवा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर भरकर उक्त देवियों को अर्पण करने चाहिए । पश्चात् एक तो मनुष्य अपने-अपने भिन्न-भिन्न कर्म करता ही था। एक देवी के नाम से एक-एक टोकरी का ब्राह्मणों वानप्रस्थाश्रम तपस्या का आश्रम था, भोगविलास का तथा सधवा स्त्रियों को दान कर देना चाहिए । दान करते नहीं । संन्यासाश्रम में भी तपस्या ही थी। इस तरह गृहस्थ । समय देवियों से प्रार्थना की जाय कि कुमुदा आदि देवियाँ के सिवा शेष तीनों आश्रमी अपने भोजनाच्छादन के लिए हमारे पुत्र को स्वास्थ्य, सुख तथा दीर्घायु प्रदान करें। यद्यपि गृहस्थ के भरोसे रहते थे, तथापि उनकी आवश्यक देवी की पूजा में उच्च स्वर से वैदिक मंत्रों का उच्चारण ताएं बहुत थोड़ी होती थीं । नियमतः वे थोड़ा पहनते थे, करना चाहिए । गीत, नृत्यादि मांगलिक कार्यों का भी थोड़ा खाते थे। उनका जीवन समाज पर बोझ नहीं विधान है। इन सब कृत्यों के बाद बच्चे के माता-पिता अपने सम्बन्धियों के साथ भोजन करें । राजा के विषय प्रतीत होता था। में इन्द्र तथा लोकपालों के नाम से हविष्यान्न की गृहस्थाश्रम के अधिकारी चारों वर्गों के लोग थे। आहुतियाँ दी जाँय । ब्रह्मचर्याश्रम के तीन वर्ण के लोग (शूद्र को छोड़कर) तथा वर्षव्रत-चैत्र शक्ल नवमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता वानप्रस्थाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय है। हिमवान्, हेमकूट, शृंगवान्, मेरु, माल्यवान्, गन्धथे । संन्यासाश्रम के अधिकारी केवल ब्राह्मण थे। इस मादन आदि वर्षपर्वतों की पूजा इस दिन करनी चाहिए । प्रकार आश्रम के हिसाब से सबसे बड़ी संख्या गृहस्थों की उपवास का भी विधान है । व्रत के अन्त में जम्बू द्वीप थी। उनके बाद ब्रह्मचारी थे, वानप्रस्थ उनसे कम और का चाँदी का मण्डल दान में दिया जाय। इससे समस्त संन्यासी उनसे भी कम । फिर तपस्या का जीवन इतना मनःकामनाओं की पूर्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लोकप्रिय नहीं था और ममता छोड़ संसार त्यागकर वल्लभ सम्प्रदाय -वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभासन्यासी होना तो सबसे कठिन था । इसीलिए इन आश्रमों चार्य (१४७९-१५३१ ई० ) तैलङ्ग ब्राह्मण थे, इनका में लोग अपनी-अपनी श्रद्धानुसार प्रवेश करते थे। यही जन्म काशी की ओर हुआ। पिता लक्ष्मण भट्ट विष्णुस्वामी बात थी कि वैश्य और क्षत्रिय ब्रह्मचर्याश्रम के अधि सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आरम्भ में आचार्य वल्लभ कारी होते हुए भी कम ही उस आश्रम में जाते थे । संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर वर्षों तक तीर्थाटन करते रहे __ वर्णाश्रमों के विशिष्ट धर्म सूत्रग्रन्थों में, स्मृतियों में, तथा विद्वानों के साथ शास्त्र चर्चा करने में समय बिताते पुराणों में, तन्त्रों में और महाभारत में भी प्रसंगानुसार रहे । कृष्णदेव (विजयनगर के राजा, १५०९-२९ ई०) की जहाँ-तहाँ विस्तार से बतलाये गये हैं। राजसभा में इनके द्वारा स्मार्त विद्वानों को हराने की वर्धमान उपाध्याय-न्याय दर्शन के एक आचार्य। इन्होंने घटना विशेष उल्लेखनीय है। इनके जीवन की अनेक उदयनाचार्य विरचित 'तात्पर्यपरिशुद्धि' की टीका लिखी घटनाओं के बारे में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है, न यह ज्ञात है जिसका नाम 'प्रकाश' है। इसका पूरा नाम 'न्याय- है कि किस कारण इन्होंने इस सम्प्रदाय की स्थापना निबन्धप्रकाश' है । यह १२वीं शती की रचना है। की, क्योंकि इनका प्राचीन विष्णुस्वामी सम्प्रदाय से Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ वल्लभी श्रुति-वसन्तपञ्चमी सम्बन्ध था। वल्लभ अग्निदेव के अवतार कहे जाते हैं, पुराण की टीका) (३) तत्त्वदीपनिबन्ध ( यह उनके इनका कोई भी मानव गुरु ज्ञात नहीं है । इन्होंने अपने मत सिद्धान्तों पर रचित दार्शनिक ग्रन्थ है )। इसके साथ की शिक्षा सीधे कृष्ण भगवान से प्राप्त की, ऐसा विश्वास 'प्रकाश' नामक पद्यभाग तथा अन्य कुछ लघु ग्रन्थ प्रचलित है । जान पड़ता है कि कृष्ण के परम ब्रह्म होने, हैं जिनमें 'सिद्धान्तरहस्य' प्रसिद्ध है। गिरिधरजी तथा राधा के उनकी सहमिणी होने तथा सर्वोच्च स्वर्ग बालकृष्ण भट्ट ने क्रमशः 'शुद्धाद्वैतमार्तण्ड' तथा 'प्रमेयगोलोक में उनके लीला करने का सिद्धान्त निम्बार्क से रत्नार्णव' जैसे वेदान्त ग्रन्थ लिखे हैं। ये दोनों सम्प्रदाय उनको मिला होगा। के उद्भट विद्वान् थे तथा इनके उपर्युक्त संस्कृत ग्रन्थ वे अपने दार्शनिक सम्प्रदाय को शुद्धाद्वैत कहते हैं, बड़े ही तर्कपूर्ण है। बाद के ग्रन्थकारों में गोस्वामी किन्तु इनका अद्वैत शङ्कराचार्य के अद्वैतवाद के सदश पुरुषोत्तमजी सबसे प्रसिद्ध हैं । इस सम्प्रदाय द्वारा वात्सल्य शुष्क नहीं है । यह नाम शाङ्कर अद्वैत के विरोध के कारण एवं मधुर भाव की भक्ति का बहुत प्रचार हुआ। दिया हुआ है। वल्लभ का मार्ग भक्तिमार्ग है। इनके वल्लभी श्रुति-कहते हैं कि वल्लभी और सत्यायनी नामक अनुसार भक्ति साध्य है, साधन नहीं, क्योंकि भक्ति दो वेदशाखा ग्रन्थ (यजुर्वेदीय) और भी हैं। बृहद्देवता ज्ञान से श्रेष्ठ है तथा सच्चा भक्त मुक्ति नहीं चाहता; वह में वल्लभी श्रुति का नाम आया है। सुरेश्वराचार्य एवं कृष्ण का सायुज्य तथा लीला में सम्मिलित होना चाहता सायणाचार्य ने भी इसका उल्लेख किया है। है। वल्लभ के मतानुसार भक्ति ईश्वर की कृपा से वल्लभोत्सव-वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य वल्लभ मिलती है। इस सम्प्रदाय में ईश्वर की कृपा के लिए के सम्मान में उनके जन्मदिन के उत्सव के आयोजन 'पुष्टि' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह शब्द तथा इसका को वल्लभोत्सव कहते हैं । जनश्रुति के अनुसार इनका प्रयोग भागवत पुराण के एक उल्लेखनुसार हुआ है जन्म १४७९ ई० में हुआ था तथा इन्होंने अनेक ग्रन्थों का (वहाँ २.१०.४ में अनुग्रह को पोषण कहा गया है)। निर्माण कर योग तथा तपस्या से भिन्न भक्तिमार्ग का इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त संक्षिप्त रूप में ये हैं-श्री आन्दोलन चलाया। इनके समस्त सिद्धान्त भागवत पुराण कृष्ण परब्रह्म हैं, वे सत्ता, ज्ञान, आनन्द रूप हैं तथा पर आश्रित हैं। यह जन्मोत्सव वैशाख कृष्ण एकादशी केवल वे ही एक मात्र तत्त्व हैं । उन्हीं से भौतिक जगत्, को होता है। जीवात्मा तथा देवों की उत्पत्ति होती है, यथा अग्नि से वश अश्व्य-अश्विनों का आश्रित एक व्यक्ति, जो ऋग्वेद चिनगारियों की । जीव अणु हैं तथा ब्रह्मानुरूप है । जब तीनों में बह बार वर्णित है। शांखायन श्रौतसूत्र में भी उसे गुणों ( सत्त्व, रजस्, तमस् ) का उलटफेर होता है तो पृथुश्रवा कानीत से दान पाने वाला कहा गया है। वह उनका आनन्द ढक जाता है तथा वे केवल सत्ता तथा वेदकालीन एक राज्य का प्रसिद्ध ऋषि भी है (ऋ० अल्प ज्ञान रखते हुए दिखाई पड़ते हैं। ८.४६) जो अपने वश' नाम से अनेक बार उद्धृत मुक्त आत्मा कृष्णलोक (गोलोक) को जाते हैं जो हुआ है। विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा के स्वर्गों से ऊपर है । वे कृष्ण के वसन्तपञ्चमी-(१) माघ शुक्ल पञ्चमी को वसन्तपंचमी विशुद्ध दैवी स्वरूप को प्राप्त करते हैं। का त्यौहार मनाते हैं। इस दिन सरस्वतीपूजा के अतिरिक्त इनके मन्दिरों में दिन में आठ बार पूजा (सेवा) होती नवान्न प्राशन, प्रीतिभोज, गाना-बजाना आदि उत्सव होते है । सम्प्रदाय का मन्त्र है 'श्रीकृष्णः शरणं मम' । सम्प्रदाय हैं । वसन्त ऋतु का स्वागत किया जाता है। जान पड़ता की एक परम्परा यह है कि गुरु का पद वल्लभाचार्य के पुत्र है कि कभी इसी ममय वसन्त ऋतु का आगमन होता था। गोस्वामी विट्ठलनाथ तथा उनके वंशजों को ही प्राप्त है। (२) प्राचीन समय में वैदिक अध्ययन का सत्र श्रावणी वल्लभाचार्य के ग्रन्थ विद्वत्तापूर्ण हैं । वे ही इस सम्प्रदाय पूर्णिमा (उपाकर्म) से प्रारम्भ होकर इसी तिथि को समाप्त के आधार या प्रमाण माने जाते हैं। उनमें ये मुख्य हैं : (उत्सर्जन) होता था। इस दिन सरस्वती पूजन करना (१) वेदान्तसूत्र का अणुभाष्य (२) 'सुबोधिनी' (भागवत इसी का स्मारक अवशेष है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तोत्सव वसिष्ठ वसन्तोत्सव - वसन्त ऋतु का उत्सव वसन्तोत्सव नाम से प्रचलित है। इसके बारे में वायुपुराण (६.१०-२१) में बड़ा रोचक तथा विशद वर्णन मिलता है। मालविकाग्निमित्र तथा रत्नावली नामक नाटकों की प्रस्तावना में बतलाया गया है कि ये दोनों नाटक वसन्तोत्सव के उपलक्ष्य में अभिनीत हुए थे। मालविकाग्निमित्र के तीसरे अजू में बतलाया गया है कि लाल अशोक के फूलों की सौगात लोगों ने अपने प्रिय जनों के पास भेजी थी तथा उच्च घराने की महिलाएँ अपने पतियों के साथ झूले में बैठा करती थीं। निर्णयसिन्धु इसे चैत्र कृष्ण प्रतिपदा ( पूर्णिमा की गणना करते हुए) को बतलाता है जबकि पुरुषार्थ चिन्तामणि इसे माप शुक्ल पञ्चमी ( निर्णयामृत का अनुसरण करते हुए) को बतलाता है। पारिजातमंजरी नाटिका, प्रथम अङ्क के अनुसार चैत्र की परिवा को वसन्तोत्सव होता है । दसव - वीर व सम्प्रदाय के संस्थापक बसव थे, ऐसा कुछ इतिहास के विद्वान् मानते हैं । वसव चालुक्य राजा बिज्जल के प्रधान मंत्री थे । किन्तु फ्लीट के मतानुसार अब्लुर के एकान्तद रामाय्य, जिनका जीवनचरित्र एक प्रारम्भिक आलेख में प्राप्त है, इस सम्प्रदाय के संस्थापक थे । वसव को इसका पुनरुद्धारक कह सकते हैं। वसवपुराण - तेलुगु में छन्दोबद्ध रूप में रचित १३वीं शताब्दी का यह ग्रन्थ वीर शैव सम्प्रदाय का निरूपण करता है । इसके रचयिता पालकुर्की के सोमनाथ है। इसका कन्नड अनुवाद भीमचन्द्र कवि द्वारा हुआ है। वसवशाखा - वसव की परम्परा के लिङ्गायत सुधारवादी वर्ग के माने जाते हैं । इसका आरम्भ वसव से समझा जाता है और आधार वसवेश्वर पुराण है । इस पुराण में लिखा है कि जब भूमण्डल पर वीर शैवमत का ह्रास हो रहा था, देवर्षि नारद की प्रार्थना पर परमेश्वर ने अपने गण नन्दी को उसके उद्धार के लिए भेजा । नन्दीश्वर ने बागेवाड़ी में जन्म लिया और उनका नाम 'वराव' रखा गया। कन्नड में वसव शब्द वही है जो हिन्दी में 'बसह' और संस्कृत में वृषभ है। वसवेश्वर ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया, क्योंकि उन्हें सूर्य की कार न थी । वे बागेवाड़ी से कल्याण आये नामक राजा था और वसवेश्वर के मामा मन्त्री थे। बलदेव की मृत्यु के बाद वसवेश्वर मन्त्री हो उपासना स्वीजहाँ बिज्जल बलदेव उसके ५७९ गये । वसवेश्वर वीरशैवों के पक्षपाती थे। उन्होंने उन पर बहुत कुछ राजस्व व्यय किया, जिससे राजा रुष्ट हो गया । उसने उन्हें कैद करना चाहा। राजा और मन्त्री युद्ध छिड़ गया। राजा हार गया और सन्धि हुई । राजा मन्त्री फिर यथावत् स्थित हुए में । तदनन्तर वसव ने वर्णान्तर विवाह का प्रचार किया । चमार और ब्राह्मण में विवाह सम्बन्ध कराया। इस पर राजा ने हरलइया चमार और मधुवइया ब्राह्मण की आँखें निकलवा लीं। इससे वसव का उद्देश्य सफल न हुआ । इस पर रुष्ट होकर वसवेश्वर ने षड़यन्त्र रचा और राजा का वध करवा दिया । कुछ लोगों का अनुमान है कि लिङ्गायतों के मूलाचार्य 'वसवेश्वर थे। यह कथन अनेक कारणों से भ्रमपूर्ण है। पहले तो 'बसवपुराण' जो मूलतः तेलुगु और फिर कन्नड में लिखा गया, अब से सात सौ वर्ष से अधिक पुराना ग्रन्थ नहीं हो सकता । इसे बादरायण व्यास की रचना कहना तो अशक्य है । इसी में वीरशैव मत का प्राचीन होना और उसके ह्रास की अवस्था स्वीकार की गयी है । वसव को वीरशैवों का पक्षधर कहा गया है । डा० फ्लीट का कहना है कि बसव नहीं, बल्कि एकान्तद रामाथ्य वीरशय मत के प्रवर्तक थे । बसवेश्वर ने लिङ्ग धारण करने की विशेषता स्थिर रखी, परन्तु वीरशैवों के अनेक मन्तव्यों के विपरीत मत चलाया। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का खण्डन किया, ब्राह्मणों का महत्त्व अस्वीकार किया, वेदों को नहीं माना, भगवान् शिव के सिवा किसी देवी-देवता को मानना अस्वीकार किया, जन्मान्तर को असिद्ध ठहराया, प्रायश्चित्त और तीर्थयात्रा को व्यर्थ बताया, सगोत्र विवाह को विहित बताया अन्त्येष्टि क्रिया को अनावश्यक और शौचाशौच के विचार को भ्रमात्मक ठहराया, विधवा विवाह प्रचलित किया। इनके अनुयायी भी अपने को वीर शैव और लिङ्गायत कहते हैं । परन्तु आचार-विचार में इतना अधिक भेद होने से प्राचीन वीरशैव वा पाशुपत शैवों में और पन्थी लिङ्गायतों में पार्थस्य सहज में हो सकता है। बसवेश्वर सम्प्रदाय यह एक सुधारक वीरशैव सम्प्रदाय है । दे० 'वसव शाखा' । वसिष्ठवैदिक परम्परा में सबसे बड़े ऋषि-पुरोहितों में वसिष्ठ माने गये हैं। ऋग्वेद का सातवा मण्डल इनके Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० वसिष्ठधर्मसूत्र-वाक्यार्थ द्वारा संकलित कहा जाता है, क्योंकि इस मण्डल में वसिष्ठ वसिष्ठसंहिता-यह एक शाक्त ग्रन्थ है। वसिष्ठसंहिता एवं उनके वंशजों का उल्लेख प्रायः हुआ है, यद्यपि इसके अथवा महासंहिता में शान्ति, जप, होम, बलि, दान बाहर भो छिटफुट इनका नामोल्लेख पाया जाता है। आदि पर ४५ अध्याय हैं । इसमें नक्षत्र, वार आदि ज्योवसिष्ठ से एक निश्चित व्यक्ति का ही बोध हो, ऐसा तिष-विषयक प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। दे० संभव प्रतीत नहीं होता । फिर भी यह अस्वीकार करना ___अलवर कैटेलोंग एक्सट्रैक्ट, ५८२ ।। आवश्यक नहीं कि एक ऐतिहासिक वसिष्ठ थे, क्योंकि क्याकि वसुगुप्त--काश्मीर शैव सिद्धान्त के एक प्रवर्तक आचार्य । एक ऋचा (ऋ. ७.१८.७) में उनकी रचना का स्पष्ट इन्होंने ९०७ वि० के लगभग शिवसूत्रों की रचना की बांध होता है तथा उनके द्वारा दस राजाओं के विरुद्ध जिनका उद्देश्य आगमों की द्वैतवादी (लगभग) शिक्षाओं सुदास की सहायता करना प्रकट होता है। वसिष्ठ के के स्थान पर अद्वैत दर्शन को स्थान दिलाना था। कहना जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उनकी विश्वामित्र से न होगा कि उस समय काश्मीर शैव सिद्धान्त पर द्वैतवादी प्रतिद्वन्द्विता थी। विश्वामित्र निश्चित रूप से एक समय आगमों का ही प्रभाव था। कहते हैं कि शिवसूत्रों का सुदास के पुरोहित थे (ऋ० ३.३३.५३)। किन्तु उन्हें ज्ञान वसुगुप्त को भगवान् शंकर से प्राप्त हुआ था। वसुउस पद से च्युत होना पड़ा और उन्होंने सुदास के विरो- गुप्त से कल्लटाचार्य ने और कल्लट से भास्कराचार्य ने धियों का पक्ष ग्रहण कर सुदास के अनेक मित्र राजाओं का इस दार्शनिक तत्त्व को ज्ञात किया । नाश कराया । ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के संघर्ष का वसुदेव-कृष्ण के पिता। ये यादवों की वृष्णि शाखा के अन्तविवरण नहीं मिलता। वसिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा विश्वा- गत थे । इनको कंस की बहिन देवकी ब्याही थी। कंस ने मित्र की शत्रुता का प्रमाण यहाँ प्राप्त है, जबकि विश्वा- शत्रुतावश इन दोनों को कारागार में डाल रखा था। मित्र ने भाषण में विशेष पटुता प्राप्त की तथा सुदास के वहीं कृष्ण का अवतार हुआ। वसुदेव के पुत्र होने के सेवकों द्वारा शक्ति की हत्या करायी (शाट्यायनक ७.३२ कारण ही कृष्ण वासुदेव कहलाते हैं । पर अनुक्रमणी की टिप्पणी द्रष्टव्य)। इस घटना का वसुव्रत-(१) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में पाया जाता है। पञ्च- होना चाहिए । आठ वसुओं की. (ये वास्तव में भगवान् विश ब्राह्मण में भी वसिष्ठ के पुत्र के मारे जाने तथा वासुदेव के ही रूप है) एक वृत्त में आकृतियाँ खींचकर या सौदासों पर विश्वामित्र की विजय का उलख है । सुदास उनकी प्रतिमाएँ बनाकर इस दिन उपवास करते हुए के न रहने पर विश्वामित्र ने पुनः अपना पद प्राप्त कर इनका पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक गौ का लिया तथा वसिष्ठ ने अपने पुत्रवध के बदले सौदासों को दान विहित है। इससे धन-धान्य की प्राप्ति के साथ वसुकिसी युद्ध में पराजित कराया । लोक की प्राप्ति होती है। आठ वसु ये हैं-धर, ध्रुव, सोम, आपः, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभाष । इसके वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वसिष्ठ के अनेक लिए दे० अनुशासन पर्व (१५.१६-१७)। उद्धरण सूत्रों, महाभारत, रामायण आदि में प्राप्त होते हैं (२) प्रभूत सुवर्ण के साथ एक गौ का, जबकि वह ब्याने जहाँ वसिष्ठ तथा विश्वामित्र संघर्ष करते हए वणित है । के योग्य हो, दान करना चाहिए तथा उस दिन केवल इन वैदिक आख्यानों की श्रृंखला में पुराणों में वसिष्ठ की दुग्धाहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती अनेक कथाएँ णित हैं । परम पद मोक्ष प्राप्त करता है तथा फिर उसे इस संसार वसिष्ठधर्मसूत्र-एक प्रसिद्ध धर्मसूत्र, जो मुख्यतः ऋग्वेदीय में जन्म नहीं लेना पड़ता। हेमाद्रि (२.८८५) के अनुसार संप्रदाय द्वारा अधीत होता है, किन्तु अन्य वैदिक शाखानु- गर्भजननी अवस्था वाली गौ का दान महत्त्वपूर्ण होता है यायी भी इसे प्रयोग में लाते हैं । ऋग्वेदीय कल्प के श्रोत- (उसे उभयतोमुखी कहा जाता है)। सूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध नहीं है। किन्तु वे अवश्य रहे वाक्यार्थ-वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतहोंगे । यह अन्य धर्मसूत्रों से विषय और शैली दोनों में भेद है। मीमांसकों के मत में नियोग अथवा प्रेरणा ही मिलता-जुलता है। वाक्यार्थ है-अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाकोवाक्य (संवाद)-वाजसन ५८१ सब वाक्यों से कही जाती है। चाहे माक्षात्, चाहे ऐसे अर्थ वाचस्पति मिश्र ने वेदान्तसूत्र के शांकरभा'य पर वाले दूसरे वाक्यों के सम्बन्ध द्वारा । नैयायिकों के मत से भामती, सुरेश्वरकृत ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, कई पदों के सम्बन्ध से निकलने वाला अर्थ ही वाक्यार्थ सांख्यकारिका पर तत्त्वकौमुदी, पातञ्जल दर्शन पर है। परन्तु वाक्य में जो पद होते हैं, वाक्यार्थ के मूल तत्त्ववैशारदी, न्यायदर्शन पर न्यायवार्तिकतात्पर्य, पूर्वकारण वे ही हैं। न्यायमञ्जरी में पदों में दो प्रकार को मीमांसा पर न्यायसूचीनिबन्ध, भाट्ट मत पर तत्त्वबिन्दु शक्ति मानी गयी है; अभिधा शक्ति, जिससे एक-एक पद तथा मण्डन मिश्र के विधिविवेक पर न्यायकणिका अपने-अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य नामक टीकाओं की रचना की। इनके अतिरिक्त खण्डनशक्ति, जिससे कई पदों के सम्बन्ध का अर्थ सूचित होता कुठार तथा स्मृतिसंग्रह नामक पुस्तकों के रचयिता का है। धार्मिक विधियों का अर्थ अथवा तात्पर्य निकालने में नाम भी वाचस्पति मिश्र ही मिलता है। परन्तु यह कहना इस सिद्धान्त से बहुत सहायता मिलती है। कठिन है कि इन दोनों के लेखक भी ये ही थे या कोई वाकोवाक्य (संवाद)-वैदिक ग्रन्थों के कुछ विशेष कथनोपकथन अंशों को ब्राह्मणों में दिया हुआ नाम । एक स्थान वाचस्पति मिथ ने यों तो छहों दर्शनों की टीकाएँ में (शत० ब्रा० ४. ६.९२०) ब्रह्मोद्य को वाकोवाक्य लिखी हैं और उनमें उनके सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से कहा गया है। कुछ विद्वान् वाकोवाक्य से 'इतिहास-पुराण' समर्थन किया है, तो भी इनका प्रधान लक्ष्य शाङ्कर के किसी आवश्यक भाग का प्रकट होना बतलाते हैं । सिद्धान्त ही है। इनके ग्रन्थों में पर्याप्त मौलिकता पायी छान्दोग्य उपनिषद् में यह स्पष्ट ही तर्कशास्त्र के अर्थ जाती है । शाङ्कर सिद्धान्त के प्रचार में इनका बहुत बड़ा में प्रयुक्त हुआ है। हाथ रहा है, इनकी भामती टीका अद्वैतवाद का प्रामाणिक वाक्-वैदिक देवमण्डल में वाक् का बड़ा महत्त्व है। यह ग्रन्थ है। ये केवल विद्वान् ही नहीं थे, उच्च कोटि के एक भावात्मक देवता है। शत० ब्रा० (४.१. ३. १६) साधक भी थे। इन्होंने अपना प्रत्येक ग्रन्थ भगवान् को में इसको चार भागों में बांटा गया है-मानवों की, ही समर्पित किया है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि पशुओं को, पक्षियों (वयांसि) तथा छोटे रेंगने वाले कीड़ों सुरेश्वराचार्य ने ही वाचस्पति मिश्र के रूप में पुन: जन्म की (क्षुद्रं सरीसृपम्)। इन्द्र को वाक् या ध्वनियों का लिया था। अन्तर समझने वाला कहा गया है। तुणव, वीणा तथा वाजपेय-एक श्रौतयज्ञ, जो शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दुन्दुभि बाजों की ध्वनियों का भी वर्णन पाया जाता है । केवल ब्राह्मण या क्षत्रियों द्वारा ही करणीय है। यह यज्ञ कुरु-पंचालों की वाक् शक्ति को विशेष स्थान प्राप्त था। राजसूय से श्रेष्ठ है । अन्य ग्रन्थों के मत से यह पुरोहित कौषो० ब्रा० में उत्तरदेशीय वाक् की विशेषता का वर्णन के लिए बृहस्पति सत्र का एवं राजा के लिए राजसूय का है । इसीलिए लोग वहाँ भाषा का अध्ययन करने जाते पूर्वकृत्य है । इसका एक आवश्यक अंग रथों की दौड़ है थे । दूसरी ओर वाक् की बर्बरता को त्यागने का निर्देश जिसमें यज्ञकर्ता विजयी होता है। हिलब्रण्ट ने इसकी हुआ है । वाक् का एह-एक विभाग दैवी एवं मानुषी था। तुलना ओलेम्पिक खेलों के साथ की है, किन्तु इसके ब्राह्मण को दोनों का ज्ञाता कहा गया है। आर्य तथा लिए प्रमाणों का अभाव है। यह यज्ञ प्रारम्भिक रथदौड़ ब्राह्मण बाक का भी उल्लेख हुआ है, जिससे अनार्य भाषाओं से ही विकसित हुआ जान पड़ता है, जो यज्ञ के रूप मे के विरुद्ध संस्कृत का बोध होता है। दिव्य शक्ति की सहायता से यज्ञकर्ता को सफलता प्रदान वाचस्पति मिश्र-अद्वैताकाश के एक देदोप्यमान नक्षत्र, जो करता है । एगेलिंग का कथन ठीक जान पड़ता है कि यह भामतीकार नाम से भी विख्यात है। मिथिला में नवीं यज्ञ ब्राह्मण द्वारा पुरोहित पद ग्रहण करने का पूर्वसंस्कार शती में इनका जन्म हुआ। बाद के सभी आचार्यों ने इनके था तथा राजाओं के लिए राज्याभिषेक का पूर्वसंस्कार । वाक्य प्रमाण रूप में ग्रहण किये हैं। शाङ्कर भाष्य पर वाजसन-याज्ञवल्क्य के पिता। इन्हीं के नाम पर याज्ञरची इनकी 'भामती' टीका अद्वैतमत को समझने का वल्क्य द्वारा संकलित शुक्ल यजुर्वेद का नाम वाजसनेयी अनिवार्य साधन है। संहिता पड़ा। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाजसनेयीसंहिता-वादरिमत वाजसनेयी संहिता-यजुर्वेद के वर्णन में इस संहिता वातवन्त-पञ्चविंश ब्राह्मण में उद्धृत एक ऋषि का नाम । का वर्णन किया जा चुका है । दे० 'यजुर्वेद' । उन्होंने तथा दृति ने एक सत्र किया था, किन्तु किसी वाजसनेय प्रातिशाख्य-इसके रचयिता कात्यायन हैं । कुछ विशेष समय पर उसे बन्द कर देने के कारण उन्हें दुःख विद्वानों का मत है कि पाणिनिसूत्रों के वार्तिककार उठाना पड़ा तथा उनके वंशज वातवन्त दार्तयों की अपेक्षा कात्यायन तथा उपर्युक्त कात्यायन एक हो व्यक्ति हैं। कम उन्नतिशील हुए। अपने वार्तिक में जिस तरह उन्होंने पाणिनि की तीव्र वातुल आगम-रौद्रिक आगमों में से एक। इसका अन्य आलोचना की है, उसी तरह प्रातिशाख्य में भी की है। नाम परआगम है। इसमें लिङ्गायत सम्प्रदाय सम्बन्धी इससे प्रमाणित होता है कि वाजसनेय प्रातिशाख्य पाणिनि अधिक उल्लेख प्राप्त है। के सूत्रों के बाद का है। इसमें आठ अध्याय हैं। पहले वात्सीपुत्र-वत्स गोत्र की महिला के पुत्र । बृहदारण्यक अध्याय में संज्ञा और परिभाषा है। दूसरे में स्वर प्रक्रिया उपनिषद् की अंतिम वंशसूची में इनका उल्लेख हुआ है। है। तीसरे से पाँचवें अध्याय तक संस्कार हैं। छठे और ये पाराशरीपत्र के शिष्य थे। काण्व तथा माध्यन्दिन सातवें अध्याय में क्रिया के उच्चारण भेद हैं । आठवें शाखा के अनुसार ये भारद्वाजीपुत्र के शिष्य थे। अध्याय में स्वाध्याय अर्थात् वेदपाठ के नियम हैं । इस वात्स्यायन-(१) वत्स गोत्र में उत्पन्न और तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में शाकटायन, शाकार्य, गाय, काश्यप, दाल्भ्य, आरण्यक में उद्धृत एक आचार्य का नाम । जातुकर्ण, शौनक, उपाशिवि, काण्व, माध्यन्दिन आदि (२) गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन मुनि ने भाष्य पूर्वाचार्यों की चर्चायें हैं। लिखा है। हेमचन्द्र ने न्यायसूत्र पर भाष्य रचने वाले वाणिज्यलाभवत-इस व्रत में मूल तथा पूर्वाषाढ़ नक्षत्रों वात्स्यायन और चाणक्य को एक ही व्यक्ति माना है, के दिन उपवास करने का विधान है। व्रती को पूर्वाभि- किन्तु यह बात अप्रमाणित है। विद्वानों ने इनकी स्थिति मुख बैठकर चार कलशों के जल से, जिनमें शंख, मोती, पाँचवीं शती में ठहरायी है। नरकुल की जड़ें तथा सुवर्ण पड़ा हो, स्नान करना चाहिए। वाद-किसी दार्शनिक मत के प्रतिपादन को वाद कहा तदनन्तर वह विष्णु, वरुण तथा चन्द्रमा की अपने आँगन जाता है । वाद के प्रतिपादन के लिए पूर्व पक्ष का खण्डन में पूजा करे । उपर्युक्त देवों के सम्मान में घृत से होम तथा उत्तर पक्ष का समर्थन आवश्यक है। करना चाहिए। अन्त में नीले वस्त्रों का, चन्दन का, वादनक्षत्रमाला-अप्पय दीक्षित कृत एक मीमांसा विषयक मदिरा का तथा श्वेत पुष्पों का दान किया जाय । इस ग्रन्थ । इसमें पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा के सत्ताईस आचरण से व्यापारिक सफलता प्राप्त होती है, समुद्र विषयों का विचार किया गया है। यात्राओं में तथा कृषि के कार्यों में व्रतकर्ता कभी असफल । वादरिमत-आचार्य वादरि के मत का उल्लेख ब्रह्मसूत्र नहीं होता। और मीमांसासूत्र दोनों में पाया जाता है । अनुमान होता वाणी-दादपंथ के प्रवर्तक महात्मा दादु दयाल द्वारा है कि ये ब्रह्मसूत्रकार और मीमांसासूत्रकार से प्राचीन थे रचित 'सबद' और 'वाणी' अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें और इनके मत का देश में काफी प्रभाव था। बादरायण इन्होंने संसार की असारता और ईश्वर(राम) भक्ति के ने अपने मत के समर्थन में और मीमांसासूत्रकार जैमिनि उपदेश सबल छन्दों द्वारा दिये हैं। कविता की दृष्टि से ने पूर्वपक्ष के रूप में खण्डन के लिए इनके मत को उद्धृत भी इनकी रचना मनोहर एवं यथार्थभाषिणी है। किया है । इससे ज्ञात होता है कि ये मीमांसक आचार्य वासरशन-वायु की रशना - मेखला पहनने वाले, सर्वस्व- थे । यत्र-तत्र इनके मतों का जो उल्लेख पाया जाता है उनसे त्यागी नग्न मुनिजन । ऋग्वेद तथा तैत्तिरीय आरण्यक में निम्नलिखित बातें ज्ञात होती हैं : ऋषि-मुनियों के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। नग्न (१) आचार्य वादरि के मतानुसार यद्यपि परमेश्वर रहने वाले दिगम्बर मुनियों की परम्परा इसी मूल से महान है, फिर भी प्रादेश मात्र हृदय द्वारा अर्थात् मन विकसित प्रतीत होती है। द्वारा उसका स्मरण हो सकता है। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादावली-वामनपुराण ५८३ (२) इनके मतानुसार गतिश्रुतिबल से कार्यब्रह्म अर्थात् है। इन्हें गौतम का पुत्र कहा गया है। बृहद्देवता में सगुण ब्रह्मा को ही प्राप्ति होती है और अमानव पुरुष ही वामदेव के बारे में दो असंगत कथाएँ वणित हैं । यद्यपि ब्रह्म की प्राप्ति करा सकते हैं ।। वामदेव अथर्ववेद (१८.३.१५ १६) तथा प्रायः ब्राह्मणों में (३) इनके मत में ज्ञानी पुरुष के शरीरादि नहीं होते; उल्लिखित है, किन्तु यहाँ उन्हें पूर्व कथाओं का नायक मुक्त पुरुष निरिन्द्रिय एवं शरीरहीन होते हैं । नहीं कहा गया है। (४) इनके मत में वैदिक कर्म करने का सबको वामनजयन्ती-भाद्र शुक्ल द्वादशी को वामनजयन्ती मनायी अधिकार है। जाती है । विष्णु के अवतार वामन भगवान् इसी दिन मध्याह्न काल में उत्पन्न हुए थे और उस दिन श्रवण नक्षत्र वादावली-स्वामी जयतीर्थाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों में से था । इस दिन उपवास का विधान है । यह व्रत समस्त एक ग्रन्थ वादावली है। व्यासराज स्वामी ने इसी का पापों को दूर करता है । भागवत पुराण में कहा गया है अवलम्बन कर माध्व सिद्धान्त का न्यायामृत नामक ग्रन्थ कि वामन भगवान् द्वादशी को प्रकट हुए थे और उस दिन लिखा है। श्रवण नक्षत्र तथा अभिजित् मुहूर्त था। इस तिथि को वादिहंसाम्बुजाचार्य-इनका अन्य नाम द्वितीय रामानुजा विजया द्वादशी भी कहा जाता है । चार्य है। ये वेङ्कटनाथ के मामा और गुरु थे ! इनके पिता वामनद्वादशी-चैत्र मास की द्वादशी को इस व्रत का अनुका नाम पद्मनाभाचार्य था। द्वितीय रामानुजाचार्य ने ष्ठान होता है । विष्णु इसके देवता हैं । उस दिन उपवास न्यायलिश नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ सम्भवतः रखना चाहिए । भगवान् के चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है। इसमें प्रायः बारह विषयों पर्यन्त उनके सभी शरीरावयवों की भिन्न-भिन्न नाम पर विचार किया गया है, जो निम्नांकित है : (१) लेकर पूजा करनी चाहिए । यज्ञोपवीत, छत्र, पादुका तथा सिद्धार्थव्युत्पत्त्यादिसमर्थन (२) स्वतः प्रामाण्यनिरूपण (२) माला युक्त वामन भगवान की प्रतिमा को एक कलश में ख्यातिनिरूपण (४) स्वयंप्रकाशवाद (५) ईश्वरानुमान- स्थापित कर द्वितीय दिवस उसका दान कर देना चाहिए। भङ्गवाद (६) वेदाद्यतिरिक्तात्मयाथार्थ्यवाद (७) समाना- इस व्रत से पुत्रहीन लोग पुत्र प्राप्त करते हैं । अन्य भी धिकरणवाद (८) सत्कार्यवाद (९) संस्थानसामान्यसम- जो कोई धनादि की इच्छा करते हैं वह अवश्य पूर्ण होती र्थनवाद (१०) मुक्तिवाद (११) भावान्तराभाववाद तथा है । कुछ अधिकृत ग्रन्थों के अनुसार वामन एकादशी को (१२) शरीरवाद। प्रकट हुए थे, जबकि बहुतों के अनुसार वे द्वादशी को ही वानप्रस्थ-जीवन के चार आश्रमों (विश्रामस्थलों) में से प्रकट हुए थे। इन सब बातों के लिए दे० निर्णयसिन्ध, तीसरा । इस आश्रम को वन में बिताने का आदेश है । इसमें शरीर तथा मन को विविध प्रकार के अनुशासन में __ वामनपुराण-अठारह महापुराणों में एक वामन पुराण भी रखकर धार्मिक कार्यों के लिए तैयार करते हैं । इसका है । वैष्णव पुराण होने के कारण इसमें विष्णु के विभिन्न उद्देश्य ब्रह्मचिन्तन के लिए चरित्र की पवित्रता, अपरिग्रह अवतारों की कथाएँ हैं किन्तु वामन अवतार की प्रधानता और शुद्ध सात्विक भाव प्राप्त करना है। इसके लिए है । वामन पुराण में दस हजार श्लोक हैं तथा पंचानवे अध्याय हैं। यौगिक क्रिया द्वारा शरीर तथा मन का निग्रह किया इस महापुराण में शैव सम्प्रदाय का वर्णन भी मिलता जाता है। यह आश्रम संन्यास का पूर्व रूप है । दे० है। इसमें शिव, शिवमाहात्म्य, शैवतीर्थ, उमाशिव विवाह. 'आश्रम' । गणेश की उत्पत्ति, कार्तिकेयजन्म और उनके चरित्र का वामकेश्वर तन्त्र-आगमतत्त्वविलास में उद्धृत ६४ वर्णन पाया जाता है । इस पुराण की प्रकृति समन्वयात्मक तन्त्रों में एक वामकेश्वर भी है। इस ग्रन्थ में भी ६४ है । करकचतुर्थी तथा कायज्वली व्रतकथा, गङ्गामानसिक तन्त्रों की तालिका प्रस्तुत हुई है। स्नान, गङ्गामाहात्म्य, दधिवामनस्तोत्र, वराहमाहात्म्य, वामदेव-कुछ ऋग्वेदीय सक्तों के संकलयिता सप्तर्षियों में से वेङ्कटगिरि माहात्म्य इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ एक । ऋग्वेद के चौथे मण्डल का ऋषि इनको माना जाता वामनपुराणान्तर्गत कहलाती हैं। १४०। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ वामन अवतार विष्णु के दस अवतारों में से वामन अवतार पाँचवाँ है वामन का शाब्दिक अर्थ है बौना भगवान् ने यह अवतार असुरों से पृथ्वी को देवों को दिलाने के लिए लिया था। इस कथा का मूल सर्वप्रथम ऋग्वेद के विष्णुसूक्त में पाया जाता है । शतपथ ब्राह्मण में वामनअवतार का संक्षिप्त वर्णन है। वामनपुराण में उसी को विस्तृत रूप दे दिया गया है । वामनपुराण से यह मालूम होता है कि भगवान् विष्णु ने कई बार वामन रूप धारण किया था । त्रिविक्रम नामक वामनावतार में उन्होंने धुन्धु नामक असुर को ढककर तीन ही चरणों में सारे भुवन को वश में कर लिया । इसी प्रकार अन्य वामन अवतारों में विष्णु ने अपने प्रिय देवों की निर्बलता पर दया करके अपनी माया से असुरों को ठगकर उनसे पृथ्वी, स्वर्ग, लक्ष्मी आदि को छुड़ाया । वामन की प्रसिद्ध कथा बलि के सम्बन्ध में है । वाममार्ग वाम सुन्दर सरग, रोचक उपासनाभागं । --- = शाक्तों के दो मार्ग है- दक्षिण (सरल) और वाम (मधुर)। पहला वैदिक तान्त्रिक तथा दूसरा अवैदिक तान्त्रिक सम्प्रदाय है । भारत ने जैसे अपना वैदिक शाक्त मत औरों को दिया, वैसे ही जान पड़ता है कि उसने वामाचार औरों से ग्रहण भी किया । आगमों में वामाचार और शक्ति की उपासना की अद्भुत विधियों का विस्तार से वर्णन हुआ है। 'चीनाचार' आदि तन्त्रों में लिखा है कि वसिष्ठ देव ने चीन देश में जाकर बुद्ध के उपदेश से तारा का दर्शन किया था । इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं । एक तो यह कि चीन के शाक तारा के उपासक थे और दूसरे यह कि तारा की उपासना भारत में चीन से आयी। इसी तरह कुलालिकाम्नायतन्त्र में मगों को ब्राह्मण स्वीकार किया गया है । भविष्यपुराण में भी मगों का भारत में लाया जाना और सूर्योपासना में साम्ब की पुरोहिताई करना वर्णित है । पारसी साहित्य में भी पीरे-मगाँ' अर्थात् मगाचार्य की चर्चा है मगों की उपासनाविधि में मद्य मांसादि के सेवन की विशेषता थी। प्राचीन हिन्दू और बौद्ध तन्त्रों में शिव-याक्ति अथवा बोधिसत्व-यशक्ति के सामन प्रसंग में पहले सूर्यमूर्ति की भावना का भी प्रसंग है । वयानी सिद्धों, वाममागियों और मगों के पंचमकार सेवन की तुलना की जाय तो पता लगेगा कि किसी काल में लघु एशिया से लेकर चीन तक मध्य एशिया और भारत आदि दक्षिणी एशिया में शाक्रमत का एक न एक रूप में प्रचार रहा होगा । कनिष्क के समय में महायान और वज्रयान मत का विकास हुआ था और बौद्ध शाक्तों के द्वारा पञ्चमकार की उपासना इनकी विशेषता थी । वामाचार अथवा वाममार्ग का प्रचार बंगाल में अधिक व्यापक रहा । दक्षिणमार्गी शाक्त वाममार्ग को हेय मानते हैं । उनके तन्त्रों में वामाचार की निन्दा हुई है । वामनावतार - वामाचार , वैदिक दक्षिणमार्गी वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले थे। अवैदिक बौद्ध आदि वामाचारी चक्र के भीतर बैठकर सभी एक जाति के सभी द्विज या ब्राह्मण हो जाते थे । वामाचार प्रच्छन्न रूप से वैदिक दक्षिणाचार पर जब आक्रमण करने लगा तो दक्षिणाचारी वर्णाश्रम धर्म के नियम टूटने लगे, वैदिक सम्प्रदायों में भी जाति-पाँति तोड़ने वाली शाखाएँ बन गयीं। वीर शैवों में बसवेश्वर का सम्प्रदाय, पाशुपतों में लकुलीश सम्प्रदाय, शैवों में कापालिक, वैष्णवों में बैरागी और गुसाई इसी प्रकार के सुधारकदल पैदा हो गये। वैरागियों और वसवेश्वर पन्थियों के सिवा सभी सुधारक दल मद्यमांसादि सेवन करने लगे । कोई गृहस्थ ऐसा नहीं रह गया जिसके गृहदेवता या कुलदेवताओं में किसी देवी की पूजा न होती हो । वाममार्ग बाहर से आया सही, परन्तु शाक्त मत और समान संस्कृति होने के कारण यहाँ खूब घुल-मिलकर फैल गया । दे० ' वामाचार' तथा 'वामाचारी' | वाममार्गी शेव - अवैदिक पंचमकारों का सेवन करने वाले, जाति-पांति का भेद भाव न रखने वाले शाक्त वाममार्गी शैव कहलाते हैं । कापालिकों को इस कोटि में स्पष्ट रूप से रखा जा सकता है । वाममार्ग का प्रभाव परवर्ती सभी शाकों पर म्यूनाधिक हो गया था। परिभाषा इस प्रकार कही वामाचार -- वामाचार की जाती है : पञ्चतत्त्वं खपुष्पञ्च पूजयेत् कुलयोषितम् । वामाचारी भवेत्तत्र वामो भूत्वा यजेत् पराम् ॥ [पञ्चतत्त्व अथवा पञ्चमकार, खपुष्प अर्थात् रजस्वला के रज और कुलस्त्री की पूजा करे । ऐसा करने से वामाचार होता है । इसमें स्वयं वाम होकर परा शक्ति की पूजा करे।] चाण्डाली, चर्मकारी, माती, मत्स्याहारिणी, Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामाचारी-वायु (वात) ५८५ मद्यकी, रजकी, क्षीरकी और धनवल्लभा ये आठ स्त्रियाँ कुलयोगिनी हैं। ये ही समस्त सिद्धियों की देने वाली हैं। वामाचारी-शक्ति की उपासना चार रूपों में होती है : (१) मन्दिर में सर्वसाधारण द्वारा देवी की पूजा (२) चक्र- पूजा (३) साधना या योगाभ्यास तथा (४) अभिचार (जादू-मन्त्र)। इनमें दूसरी प्रणाली अर्थात् 'चक्रपूजा' प्रमुख पद्धति है। चक्रपूजकों को वामाचारी भी कहते हैं। इसमें समान संख्यक पुरुष तथा स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के होते हैं और समीपी सम्बन्धी भी हो सकते हैं (यथा पति, पत्नी, माँ, बहिन, भाई) एकान्त में मिलते हैं, विशेष कर रात को, और एक गोलाई में बैठ जाते हैं। देवी का प्रतिनिधित्व एक यन्त्र या मूर्ति द्वारा होता है जिसे मध्य में रखा जाता है । मन्त्रोच्चारण के साथ पञ्चमकारों का सेवन होता है। वायवीय संहिता--शिवपुराण में कुल सात खण्ड हैं। इसमें सातवाँ खण्ड वायवीय संहिता है । इसके दो भाग है पूर्व और उत्तर। वायुपुराण-यह प्राचीनतम महापुराणों में माना जाता है। बाणभट्ट ने कादम्बरी में इसका उल्लेख किया है (पुराणे वायुप्रलपितम्) । इसमें रुद्रमाहात्म्य भी सम्मिलित है । यह शैव पुराण है तथा शिव की प्रशंसा में लिखा गया है। इसमें पाशुपतयोग का महत्त्वपूर्ण वर्णन है जो अन्य पुराणों में नहीं मिलता। अठारह महापुराणों की तालिका में वायुपुराण तथा शिवपुराण दोनों साथ न होकर कोई एक गिना जाता है । परम्परानुसार इसमें २४ हजार श्लोक हैं, किन्तु ऐसी कोई पोथी अभी तक प्राप्त नहीं है। इस समय जो प्रति उपलब्ध है उसमें लगभग ११ सहस्र श्लोक हैं। इसमें चार खण्ड तथा ११२ अध्याय हैं। ये खण्ड पाद कहलाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं : (१) प्रकियापाद (२) अनुषङ्गपाद (३) उपोद्घातपाद और (४) उपसंहारपाद । प्रथम पाद में सृष्टिवर्णन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। इसके पश्चात् चतुराश्रमविभाग का विवेचन है। इस पुराण में भौगोलिक सामग्री प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। जम्बूद्वीप तथा अन्य द्वीपों का विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन है । खगोल का वर्णन भी उपलब्ध होता है । कतिपय अध्यायों में युग, यज्ञ, ऋषि, तीर्थादि का वर्णन है। वेद तथा वेद की शाखाओं का वर्णन सम्यक् हुआ है जो वैदिक साहित्य के अध्ययन के लिए उपयोगी है। प्रजापति, कश्यप तथा अन्य ऋषियों के वंशों का इतिहास पाया जाता है। आगे चलकर श्राद्ध का वर्णन और गयामाहात्म्य है। संगीत का वर्णन भी सुन्दर और मनोरंजक है। वायु में वंशानुचरित का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह पुराण साम्प्रदायिक होते हुए भी धार्मिक दृष्टि से उदार है। इसके कई अध्यायों में विष्णु तथा उनके विभिन्न अवतारों का भक्तिपूर्ण तथा सुन्दर वर्णन है। दक्ष प्रजापति ने जो शिव की स्तुति की है वह रुद्राध्याय का स्मरण दिलाती है। वायु (वात)-वैदिक देवताओं को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है: पार्थिव, वायवीय एवं आकाशीय। इनमें वायवीय देवों में वायु प्रधान देवता है। इसका एक पर्याय वात भी है । वायु, वात दोनों ही भौतिक तत्त्व एवं दैवी व्यक्तित्व के बोधक है किन्तु वायु से विशेष कर देवता एवं वात से आँधी का बोध होता है। ऋग्वेद में केवल एक ही पूर्ण सूक्त वायु की स्तुति में है (१.१३९) तथा वात के लिए दो हैं (१०.१६८,१८६)। वायु का प्रसिद्ध विरुद 'नियुत्वान्' है जिससे इसके सदा चलते रहने का बोध होता है। वायु मन्द के सिवा तीन प्रकार का होता है : (१) धूल-पत्ते उड़ाता हुआ (२) वर्षाकर एवं (३) वर्षा के साथ चलने वाला झंझावात । तीनों प्रकार वात के हैं जबकि वायु का स्वरूप बड़ा ही कोमल वर्णित है। प्रातःकालीन समीर (वायु) उषा के ऊपर साँस लेकर उसे जगाता है, जैसे प्रेमी अपनी सोयी प्रेयसी को जगाता हो। उषा को जगाने का अर्थ है प्रकाश को निमंत्रण देना, आकाश तथा पृथ्वी को द्युतिमान् करना। इस प्रकार प्रभात होने का कारण वायु है क्योंकि वायु ही उषा को जगाता है। इन्द्र एवं वायु का सम्बन्ध बहुत हो समीपी है और इस प्रकार इन्द्र तथा वायु युगलव का रूप धारण करते हैं । विद्युत् एवं वायु वर्षाकालीन गर्जन एवं तूफान में एक साथ होते हैं, इसलिए इन्द्र तथा वायु एक ही रथ में बैठते है-दोनों के संयुक्त कार्य का यह पौराणिक व्यक्तीकरण है । सोम की प्रथम घूट वायु ही ग्रहण करता है । वायु अपने को रहस्यात्मक (अदृश्य) पदार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है। इसकी ध्वनि सुनाई पड़ती है किन्तु Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ वारकरी (सम्प्रदाय)-वारिव्रत कोई इसका रूप नहीं देखता । इसकी उत्पत्ति अज्ञात है। एक बार इसे स्वर्ग तथा पृथ्वी की सन्तान कहा गया है (ऋ० ७.९.३) । वैदिक ऋषि वायु के स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों से सुपरिचित थे। वे जानते थे कि वायु ही जीवन का साधन है तथा स्वास्थ्य के लिए वायु का चलना परमावश्यक है । वात रोगमुक्ति लाता है तथा जीवनी शक्ति को बढ़ाता है । उसके घर में अमरत्व का कोष भरा पड़ा है । उपर्युक्त हेतुओं से वायु को विश्व का कारण, मनुष्यों का पिता तथा देवों का श्वास कहा गया है। इन वैदिक कल्पनाओं के आधार पर पुराणों में वायु सम्बन्धी बहुत सी पुराकथाओं की रचना हुई। वारकरी (सम्प्रदाय)--दक्षिण भारत के उदार भागवत सम्प्रदाय (शिव तथा विष्णु की एकता के सम्प्रदाय) की तीन शाखाएँ हो गयी है : (१) वारकरी सम्प्रदाय (२) रामदासी सम्प्रदाय और (३) दत्त सम्प्रदाय । वारकरी सम्प्रदाय वालों की विशेषता है तीर्थयात्रा। उनके प्रधान उपास्य पण्ढरपुर के भगवान् विट्ठल या बिठोवा हैं। वारव्रत-अग्निपुराण, अ० १८५; कृत्यकल्पतरु, ८-३४; दानसागर, पृ० ५६८-५७०; हेमाद्रि का चतुर्वर्गचिन्तामणि, १.५१७-५२१; कृत्यरत्नाकर, ५९३-६१०; स्मृ० कौ०, ५४९-५८८ तथा व्रतार्क जैसे ग्रन्थों में रविवार, सोमवार तथा मंगलवार के दिन व्रत करने का उल्लेख किया गया है। वाराणसी (बनारस)-काशी का दूसरा नाम । वरणा और असी के बीच बसने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। इसी का अपभ्रंश 'बनारस' है। प्राचीन काल में जनपद का नाम काशी था और वाराणसी उसकी राजधानी थी । अति प्राचीन काल से भारत की विद्या व धर्म की राजधानी गंगा के बायें तट पर बसी वाराणसी ही रही है। यह शिव की प्रिय नगरी और अनेकानेक धर्म व सम्प्रदायों की जननी है। शैव धर्म, जैन तीर्थङ्कर, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, वल्लभ, रामानन्द, कबीर, तुलसी आदि की यह कर्मभूमि रही है । गङ्गा का यहाँ दक्षिण से उत्तर को बहाव वाराणसी को और भी महत्त्व प्रदान करता है । गङ्गा के तट वर वाराणसी के घाट अपूर्व शोभा पाते हैं। इन पर नित्य स्नान करने वाले प्रातःकाल गंगा के सामने दूसरी ओर से निकलते हुए भगवान् भास्कर का दर्शनकर कृतार्थ हो जाते हैं। शिव तथा गंगा के अतिरिक्त वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं अनेकानेक हिन्दू सम्प्रदायों के यहाँ मन्दिर तथा मठ हैं। यदि इसे मन्दिरों की नगरी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। लगभग १५०० मन्दिर इस नगर में हैं। यहाँ का प्रत्येक मन्दिर, मठ, आश्रम यहाँ तक कि आचार्यों के घर एक-एक विद्यालय है । इस परम्परा का निर्वाह आज भी हो रहा है। आजकल तीन विश्वविद्यालयों-काशी हिन्दू विश्व विद्यालय, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ के अतिरिक्त अनेकानेक विद्यालय तथा महाविद्यालय यहाँ भरे हुए हैं। उपर्युक्त महत्ताओं के कारण काशी ( वाराणसी ) हिन्दू मात्र का प्रसिद्ध तीर्थ है । प्रत्येक हिन्दू की यह इच्छा होती है कि वह विश्वनाथ की इस प्यारी नगरी में ही मरे । प्रत्येक ग्रहण के अवसर पर सारे भारत की जनता इस नगरी में उमड़ आती है, गंगास्नान व काशी-विश्वेवर के दर्शन कर अपने को धन्य और कृतार्थ मानती है । दे० 'काशी' । वाराह अवतार-तैत्तिरीय ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में इस अवतार का वर्णन है। यह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसका वराहपुराण में विस्तृत वर्णन है । जब हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को चुराकर पाताल में रख दिया था तब विष्णु ने वराह रूप धारण कर अपने दाँतों से पृथ्वी का उद्धार किया। इस पौराणिक घटना के नाम पर इस कल्प का नाम ही श्वेत वाराहकल्प हो गया है । दे० 'वराहावतार'। वाराहो-प्रत्येक देवता की शक्तियों की उपासना का प्रचलन शाक्त धर्म की देन है। इस प्रकार वराह की शक्ति का नाम वाराही है । मूर्तियों में इसका अङ्कन हुआ है। वाराहीतन्त्र-आगमतत्त्वविलास में उत्धृत एक तन्त्र । इस तन्त्र से पता लगता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं। वाराहीतन्त्र में इन तन्त्रों का नाम उनकी श्लोकसंख्या सहित दिया हुआ है। वारिव्रत-यह मासवत है। प्रतीत होता है कि इसके देवता ब्रह्मा हैं । व्रती को चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, माघ अथवा पौष में अर्थात् चार मास अयाचित पद्धति से आहार करना चाहिए । व्रत के अन्त में वस्त्रों से ढका एक कलश, भोजन तथा तिलों से परिपूर्ण एक पात्र, जिसमें सुवर्ण खण्ड भी Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारण उपपुराण-वाल्मीकि ५८७ पड़ा हो, दान करना चाहिए। इतने कृत्यों के उपरान्त और भाई भृगु ऋषि थे । वरुण का नाम प्रचेत भी है, इसलिए व्रती ब्रह्माजी के लोक को प्राप्त होता है। वाल्मीकि प्राचेतस् नाम से विख्यात हैं। तैत्तिरीय उपनिवारुण उपपुराण-उन्तोस उपपुराणों में से एक वारुण षद् में वर्णित ब्रह्मविद्या वरुण और भृग के संवादरूप में उपपुराण भी है। है । इससे स्पष्ट है कि भृगु के अनुज वाल्मीकि भी परम वारुणी-चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को यदि शतभिषा नक्षत्र हो । ज्ञानी और तपस्वी ऋषि थे। उग्र तपस्या या बह्मचिन्तन (जिसके स्वामी वरुण देवता हैं) तो वह वारुणी कह- में देहाध्यास न रहने के कारण इनके शरीर को दीमक ने लाती है तथा इस पर्व पर गंगास्नान करने वाले को ढक लिया था, बाद में दीमक के वल्मीक (दह) से ये बाहर एक करोड़ सूर्यग्रहणों के बराबर पुण्य होता है । यदि उप- . निकले, तबसे इनका नाम वाल्मीकि हो गया। इनका युक्त योगों के अतिरिक्त उस दिन शनिवार भी हो तो यह आश्रम तमसा नदी के तट पर था। (भागवत) महावारुणी कहलाती है । यदि इन सबके अतिरिक्त शुभ एक दिन महर्षि ने प्रातःकाल तमसा के तट पर एक नामक योग भी आ जाय तो फिर यह 'महामहावारुणी' व्याध के द्वारा क्रौञ्च पक्षी का वध करने पर करुणार्द्र हो कहलाती है। उसे शाप दिया। शाप का शब्द अनुष्टप् छन्द में बन गया वारुणी उपनिषद्-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं । था। इसी अनुष्टुप् छन्द में मुनि ने नारद से सुनी राम पहला संहितोपनिषद् या शिक्षावल्ली है, दूसरे भाग को की कथा के आधार पर रामायण की रचना कर डाली । आनन्दवल्ली और तीसरे को भृगुवल्ली कहते हैं। इन उसे लव-कुश को पढ़ाया। लव-कुश ने उसे राम की राजसभा दोनों वल्लियों का संयुक्त नाम वारुणी उपनिषद् है। में गाया। इस पर वाल्मीकि प्रथम कवि तथा रामायण वार्षगण्य-प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी वि० में उत्पन्न, प्रथम महाकाव्य प्रसिद्ध हुआ । वाल्मीकि की और भी अनेक सांख्य दर्शन के एक आचार्य । ये प्रसिद्ध दार्शनिक थे । इनका रचनाएँ हैं किन्तु रामायण अकेले ही उन्हें सर्वदा के लिए रचा 'षष्टितन्त्र' सांख्य विषयक मौलिक रचना है । अमरत्व दे गयी है। वालखिल्य-(१) ऋग्वेद के समस्त सूक्तों की संख्या १०२८ (२) ये पुराणवणित वाल्मीकि त्रेतायुग में हुए थे और है । इनमें से ११ सूक्तों पर, जिन्हें 'वालखिल्य' कहते हैं, न प्राचेतस् वाल्मीकि से भिन्न प्रतीत होते हैं। परम्परागत तो सायणाचार्य का भाष्य है और न शौनक ऋषि की कथनानुसार इनका प्रारम्भिक जीवन निकृष्ट था । कहते हैं अनुक्रमणी में इनका उल्लेख पाया जाता है। प्रत्येक सूक्त कि ये रत्नाकर नामक दस्यु थे तथा जंगल में पथिकों में किसी दिव्य ईश्वरीय विभूति की स्तुति है और उस का बध कर उनका धन छीन लेते और अपने परिवार स्तुति के साथ-साथ व्याजरूप से सृष्टि के अनेक रहस्यों का भरण-पोषण किया करते थे। एक दिन उसी मार्ग से तथा तत्त्वों का उद्घाटन किया गया है। महर्षि नारद का आगमन हुआ। वाल्मीकि ने उनके साथ (२) देवगणों का एक ऐसा वर्ग जो आकार में भी वैसा ही व्यवहार करना चाहा। महर्षि ने उन्हें मना अँगूठे के बराबर होते हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर किया तथा कहा कि इन पापों के भागीदार तुम्हारे मातासे हुई है। इनकी संख्या साठ हजार है और ये सूर्य के रथ पिता, स्त्री या बच्चे होंगे या नहीं, जिनके लिए तुम यह के आगे-आगे चलते हैं। सब करते हो। वाल्मीकि को विश्वास न हुआ और वे वालखिल्यशाखा-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में १९९० नारद को एक वृक्ष के साथ बाँधकर अपने घर उपर्युक्त मन्त्र है । वालखिल्य शाखा का भी यही परिमाण है । इन जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने गये । किन्तु घर का कोई भी दोनों से चार गुना अधिक इनके बाह्मणों का परिमाण है : सदस्य उनके पापों का भागीदार होना न चाहता था। वे द्वे सहस्र शतन्यूनं मन्त्रा वाजसनेयके । वन में लौट आये, नारदजी को मुक्त कर उनके चरणों में तावत्त्वन्येन संख्यातं वालखिल्यं सशुक्रियम् । गिर गये और उनके उपदेश से अन्न-जल त्यागकर तपस्या ब्राह्मणस्य समाख्यातं प्रोक्तमानाच्चतुर्गुणम् ।। में निरत हुए। उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया। वाल्मोकि-(१) महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र दीमकों से बनाये टीले को 'वल्मीक' कहते हैं । उससे वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी निकलने के कारण इनका नाम वाल्मीकि प्रसिद्ध हो गया। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ वाल्मीकि रामायण-दे० 'रामायण' । वासिष्ठ उपपुराण - उन्तीस प्रसिद्ध उपपुराणों में से एक वासिष्ठ उपपुराण भी है। वासन्तिक नवरात्र चैत्र शुक्ल के आरम्भ से नौ दिनों तक चलने वाला पर्व । इन नवरात्रों में भी शारदीय नवरात्रों के सदृश ही पूजन उत्सव होते हैं यह मुख्यतः शात पर्व है और इसमें शक्ति अथवा दुर्गा की पूजा होती है । परन्तु इसके साथ वैष्णव पर्व भी जुड़ गया है। अन्तिम दिन रामनवमी को रामजन्मोत्सव मंङ्गल-वाद्य, नाच-गान आदि के साथ मनाया जाता है । वासुदेव द्वादशी आषाढ़ शुक्ल द्वादशी। इसमें भगवान् वासुदेव के शरीरावयवों की, चरणों से मस्तक तक उनके विभिन्न नामों तथा व्यूहों का उच्चारण करते हुए पूजा करनी चाहिए। एक पात्र में वासुदेव की सुवर्णप्रतिमा रखकर उसका पूजन किया जाना चाहिए। जलपात्र दो वस्त्रों से आच्छादित होना चाहिए। पूजन के उपरान्त उसका दान कर देना चाहिए। यह व्रत नारद द्वारा वसुदेव तथा देवकी को सूचित किया गया था, इसको करने से व्रती पुत्र अथवा राज्य, यदि उसने खो दिया हो, प्राप्त कर लेता है । साथ ही वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । विजया (दशमी) - ( १ ) आश्विन शुक्ल का अनुष्ठान विहित है। सूर्यास्त के समय, जबतारागण निकल रहे हों, उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अत्यन्त माना गया है। दे० स्मृतिकौस्तुभ दशमी को इस व्रत थोड़ी देर बाद का समस्त सिद्धियों तथा पुनीत तथा महत्त्वपूर्ण ३५३ ॥ (२) दिन के पंद्रह मुहतों में से यह ग्यारह मुहूर्त है । दे० स्मृतिकौस्तुभ, ३५३ । विजया द्वादशी (१) इस व्रत में भाद्रपद शुक्ल एकादशी को संकल्प करना चाहिए और श्रवण नक्षत्र युक्त द्वादशी को उपवास । इस अवसर पर भगवान् विष्णु की सुवर्ण की प्रतिमा को पीताम्बर पहनाकर उनका अर्ध्यादि से पूजन करना चाहिए | रात्रि को जागरण का विधान है। दूसरे दिन सूर्योदय के समय प्रतिमा का दान करना चाहिए। (२) फाल्गुन कृष्ण या शुक्ल एकादशी अथवा द्वादशी यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त हो तो वह विजया कहलाती है । (३) भाद्र शुक्ल एकादशी वा द्वादशी यदि बुधवार को पड़े तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह भी विजया वाल्मीकीय रामायण- वितस्तापूजा है । शुक्ल पक्ष में व्रत करने से स्वर्गोपलब्धि तथा कृष्ण पक्ष में व्रत करने से पाप क्षय होते हैं। । विजया यह नाम कई तिथियों के लिए प्रयुक्त होता है। यथा यदि रविवार को सप्तमी और रोहिणी नक्षत्र हो तो वह विजया कहलाती है गरुडपुराण के अनुसार द्वादशी या एकादशी श्रवण नक्षत्र से संयुक्त हो तो वह विजया कहलाती है। 'वर्षकृत्यकौमुदी' के अनुसार यदि विजया सप्तमी को सूर्य हस्त नक्षत्र में हो तो वह महामहाविजया कहलाती है । शुक्ल पक्ष की एकादशी को यदि पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह विजया कहलाती है। आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी भी विजया कही जाती है। इस दिन क्षत्रिय राजा अपराजिता देवी, शमी वृक्ष और अस्त्र-शस्त्रों का पूजन एवं विजययात्रा करते हैं । विजयाव्रतइन्द्र के वाहन ऐरावत हाथी तथा उच्चैःश्रवा नामक अश्व की पूजा इस व्रत में की जाती है । उच्चैःश्रवा इन्द्र का वाहन है। यह पर्व विजया दशमी को क्षत्रियों द्वारा मनाया जाता है । विजयायज्ञससमी माघ शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए । इसके देवता सूर्य हैं । एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होता है । प्रति मास सूर्य के विभिन्न नामों को प्रयुक्त किया जाय । १२ ब्राह्मणों को सम्मानित किया जाय। व्रत के अन्त में सुवर्ण की सूर्यमूर्ति एवं सारथि तथा रथ की प्रतिमाएँ बनवाकर अपने आचार्य को दे देनी चाहिए। विज्ञान - अन्तःकरण की उस चेतना का नाम, जिसके द्वारा अपने व्यक्तित्व का बोध होता है । इसका अर्थ 'अहङ्कार' से कुछ मिलता-जुलता है। विज्ञानवाद दर्शन के उस सिद्धान्त का नाम, जो मानता है कि वस्तुसत्ता 'विज्ञानरूप' है । विज्ञान के अतिरिक्त जगत् का कोई अस्तित्व नहीं हैं । यह बौद्ध योगाचार मत से मिलता-जुलता है । - वितस्तापूजा - भाद्रपद की दशमी से सात दिनों तक वितस्ता जो नदी (आजकल झेलम कहलाती है) में ही स्नान, उसी का जल पीना, उसके पूजन तथा ध्यान में मग्न होना चाहिए। कश्मीर भूमि में वितस्ता भगवती सती (पार्वती) का ही अवतार है । वितस्ता तथा सिन्धु के संगम पर विशेष पूजा का विधान है। वितस्ता के सम्मान में उत्सव Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या-विनयपत्रिका ५८९ मनाना चाहिए और अभिनेता तथा नर्तकों का सम्मान आचार्य को सुवर्ण दान कर स्वयं भोजन करना चाहिए। करना चाहिए। विद्यावाप्तिवत-माघ मास की कृष्ण प्रतिपदा को व्रत विद्या-दर्शन, धर्म और कला के अर्थों में 'विद्या' का आरम्भ कर एक मास तक उस का आयोजन करना प्रयोग होता है । दर्शन में विद्या का अर्थ है अध्यात्म चाहिए । इस अवसर पर तिलों से हयग्रीव की पूजा शास्त्र, अर्थात् आत्मज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली विद्या । करनी चाहिए, तिलों से ही हवन करना चाहिए । प्रथम धर्म में विद्या का अर्थ है त्रयी (तीन वेद), धर्मशास्त्र तीन दिन उपवास रखना चाहिए । यह एक मास का व्रत अथवा सामाजिक शास्त्र । पौराणिक तथा तान्त्रिक धर्म में है। इससे व्रती विद्वान् हो जाता है । (विष्णुधर्म०) विद्या का प्रयोग महादेवी, दुर्गा अथवा शक्ति के मन्त्र अर्थ विद्यावत-किसी मास की द्वितीया को अक्षतों से एक वर्गामें होता है । कला के क्षेत्र में विद्या का प्रयोग अनेक कार आकृति बनाकर उसके केन्द्र में अष्ट दल कमल कलाओं और शिल्पों के अर्थ में किया जाता है। अंकित किया जाय, उसके चारों ओर कमलहस्ता लक्ष्मी अर्थशास्त्र में चार विद्याएँ बतलायी गयी है-(१) की, जिसकी आठ शक्तियाँ (सरस्वती, रति, मैत्री, विद्या आन्वीक्षिकी (तर्क अथवा दर्शन) (२) त्रयी (तीन वेद) आदि) भी विद्यमान रहें, आकृति बनायी जाय । आठ (३) वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) और (४) दण्डनीति शक्तियों को एक-एक पँखुड़ी पर अङ्कित करना चाहिए। (आधुनिक राजनीति)। मनुस्मृति (७.४३) ने एक और तब 'सरस्वत्यै नमः' कहते हुए उन्हें प्रमाण करना विद्या (आत्मविद्या) जोड़ दी है। याज्ञवल्क्य स्मृति में चाहिए। कुछ अन्य देवगण, जैसे चारों दिशाओं के चार विद्या के चौदह स्थान बतलाये गये है-चार वेद, छः दिक्पाल तथा उनके मध्य वाली दिशाओं के भी दिक्पालों वेदाङ्ग, पुराण, न्याय, मीमांसा और स्मृति । कोई-कोई की आकृतियाँ और चार गुरुओं (व्यास, क्रतु, मनु, दक्ष) चार उपवेदों को भी जोड़कर अठारह विद्यास्थान बतलाते तथा वसिष्ठादि की आकृतियाँ मण्डल में स्थापित की जाँय । हैं । इसी प्रकार कोई तेतीस और कोई चौसठ विद्याएँ भिन्न-भिन्न पुष्पों से इन सबकी पूजा करनी चाहिए । (कलाएँ) मानते है। सर्वप्रथम ईशोपनिषद् में 'विद्या' श्रीसूक्त के मंत्रों, पुरुषसूक्त के मंत्रों तथा विष्णु के का प्रयोग अध्यात्म विद्या के रूप में हुआ है : लिए कहे गये मंत्रों से इनका पूजन करना चाहिए । व्रतोविद्याञ्च अविद्याञ्च यस्तद् वेद उभयं सह । परान्त एक गौ, जलपूर्ण कलश तथा चावलों एवं तिलों अविद्यया मृत्यु तीर्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ से परिपूर्ण अन्य पाँच पात्र अपने पुरोहित को दिये जाँय । [ जो विद्या (अध्यात्म) और अविद्या (भौतिक शास्त्र) (स्त्री व्रती द्वारा) पिसी हुई हल्दी तथा सुवर्ण किसी को साथ-साथ जानता है वह अविद्या से मृत्यु-संसार को सद्गृहस्थ को तथा भूखे को भोजन दिया जाय । व्रतकर्ता पारकर विद्या से अमृततत्त्व को प्राप्त करता है। अपने आचार्य से तथा आचार्य प्रतिमाओं के सम्मुख नागेश भट्ट ने इसी अर्थ में विद्या का प्रयोग किया विद्या देने की प्रार्थना करें। (गरुड०) है : “परमोत्तमपुरुषार्थसाधनीभूता विद्या ब्रह्मज्ञान- विधानसप्तमी-इसके सूर्य देवता हैं। व्रती को माघ शुक्ल स्वरूपा।" सप्तमी से व्रत का आरम्भ कर निम्नांकित बारह वस्तुओं विद्याप्रतिपद्वत-मास की प्रथम तिथि को यह व्रत करना में से केवल एक वस्तु का प्रति मास की सप्तमी को क्रमशः चाहिए । जो व्यक्ति धनार्थी या विद्यार्थी हो उसे धानों से आहार करना चाहिए : अर्क के पुष्यों का अग्रभाग, शुद्ध गौ एक वर्गाकार आकृति बनाकर भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का गोबर, मरिच, जल, फल, मूल (रक्तिम), नक्त विधि, का एक सहस्र या उससे कम पूर्ण रूप से खिले हुए उपवास, एकभक्त, दुग्ध, पवन और घृत । कालविवेक, वर्षकमलों से तथा दूध या खीर से पूजन करना चाहिए। कृत्यकौमुदी आदि इस व्रत को रविव्रत से ( जो माघ सरस्वती की प्रतिमा उनके पार्श्व में विराजमान की जाय। में प्रथम रविवार के दिन होता है ) पृथक् मानते हैं। चन्द्रमा भी वहाँ विद्यमान रहे। उस दिन अपने गुरु विनयपत्रिका-रामचरितमानस के प्रणेता गोस्वामी का सम्मान करना चाहिए । उस दिन तथा द्वितीया को तुलसीदास द्वारा रचित यह ग्रन्थ मुख्यतः राम के प्रति उपवास करके विष्णु का पूजन करना चाहिए । तदुपरान्त और गौणतः अन्य देवताओं के प्रति की गयी स्तुतियों का Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० - संग्रह है। आवेदनपत्र के रूप में ये स्तुतियाँ पद्यों में रची गयी हैं, अतः इस संग्रह का नाम विनयपत्रिका पड़ा । तुलसी साहित्य में रामचरितमानस के पश्चात् इसका दूसरा स्थान है । रचना में दास्य और दैन्य भाव की प्रधानता है । विभूतिद्वादशी – वैशाख, कार्तिक, मार्गशीर्ष, फाल्गुन अथवा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को इस व्रत का आरम्भ होता है। व्रती नियमों (अनिषिद्ध बातों का ) आचरण करे | एकादशी के दिन उपवास करते हुए जनार्दन (मूर्ति) का पूजन करे चरणों से प्रारम्भ कर सिरपर्यन्त भगवान् की प्रतिमा का क्रमशः पूजन करे । भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख कलश या किसी जलपूर्ण पात्र में सोने की मछली बनाकर रखी जाय, रात्रि को भगवान् की कथाएँ कहकर जागरण किया जाय । दूसरे दिन प्रातः काल निम्न शब्द बोलते हुए - "विष्णु भगवान् अपने महान् प्रकाश से कभी विमुक्त नहीं होते, उसी प्रकार आप मुझे संसार के शोक पडू से मुक्त करें", प्रार्थना करे। प्रतिमास वह दस अवतारों में से एक अबतार की प्रतिमा एवं दत्तात्रेय तथा व्यासजी की प्रतिमाओं का दान करे। उनके साथ द्वादशी को एक नील कमल का भी दान किया जाय । द्वादश द्वादशियों के व्रतों का आचरण करने के बाद अपने गुरु अथवा आचार्य को एक लवणाचल पर्योपयोगी समस्त वस्त्र, एक गौ (यदि व्रती राजा महाराज हो तो ) ग्राम या खेत ( गाँव का मुख्य खेत) तथा अन्यान्य ब्राह्मणों को गोएँ तथा वस्त्र दान में दिये जाँय | यह विधि तीन वर्षों तक चलनी चाहिए। इन आचरणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर कम से कम एक सौ पितरों का भी उद्धार कर लेता है। 'लवणाचल' दान के लिए दे० पा० वा० काणे धर्मशास्त्र का इति पङ्क हास, भाग २, पृ० ८८२ (मत्स्यपुराण, ८४. १-९) । विरूपाक्षव्रत - पौष शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसके अनुसार भगवान् शिव की एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में किसी ब्राह्मण को समस्त पदार्थ तथा एक ऊँट दान किया जाय । इससे समस्त राक्षसों के भय से तथा रोगों से मुक्ति मिलती है एवं सकल कामनाओं की पूर्ति होती है। विवर्त - अद्वैत वेदान्त का एक सिद्धान्त । ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध को समझाने के लिए इसका विकास हुआ । विभूतिद्वादशी-विशोक संक्रान्ति इसके अनुसार जगत् न ब्रह्म की सृष्टि है और न उसका परिणाम; जगत् ब्रह्म का विवर्त ( वृत्ताकार चक्रगति से उत्पन्न भ्रममात्र) है, इसलिए यह भ्रामक और अवास्तविक है | दे० 'अद्वैतवाद' तथा 'शङ्कर' । विशिष्टाद्वैत एक प्रकार के इस जैसे वेदान्त का सम्प्रदाय। इसका अर्थ है 'विशिष्ट (विशेषण युक्त) अद्वैत' । इसके प्रवर्तक आचार्य रामानुज थे । इस सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्म ऐकान्तिक होते हुए भी पुरुष (ईश्वर) है । उसके दो अंश (विशेषण) हैं - चित् ( जीवात्मा) और अचित् (जड़ जगत् ), जो वास्तविक और उससे भिन्न हैं । इन्हीं तीनों तत्वों ( तत्वत्रय) से विश्व संघटित है। इन तीनों में ऐक्य है किन्तु अभेद नहीं। जीवात्मा ईश्वर की कृपा से ही मुक्ति पा सकता है। इस मत का प्रतिपादन रामानुज द्वारा ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य में हुआ है । दे० 'रामानुज' । विशोकद्वादशी - आश्विन शुक्ल दशमी को रात्रि को व्रती संकल्प करे - " मैं कल एकादशी को उपवास करके भगवान् केशव की आराधना करूँगा और द्वादशी के दिन भोजन ग्रहण करूंगा।" उस दिन केशव की आपादमस्तक पूजा होनी चाहिए । एक मण्डल बनाकर उस पर चतुष्कोण वेदिका बनानी चाहिए। उस पर अनाज साफ करनेवाला नया सूप रखकर उसमें लक्ष्मी की, जिसे विशोका ( जो शोक रहित करती है) भी कहते हैं, स्थापना करके पूजा की जाय तथा प्रार्थना करते हुए कहा जाय कि हे विशोका देवी! हमारे शोकों का नाश करो, हमें समृद्धि तथा सफलता प्रदान करो। समस्त रात्रियों को ऐसा पानी पिया जाय जिसमें दर्भ पड़े हों। रात्रि में नृत्य तथा गान हो, ब्राह्मणों का सम्मान किया जाय। यह क्रिया प्रति मास चले । व्रत के अन्त में पर्यङ्क के उपयुक्त वस्त्र, गुड़धेनु तथा शूर्प का लक्ष्मीजी की मूर्ति के साथ दान करना चाहिए । मत्स्य - पुराण में इसका तथा गुड़धेनु का वर्णन है, जो इस व्रत का गौण भाग है। गुड़धेनु के लिए दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास २, पृ० ८८०-८१ । विशोकसंक्रान्ति-जब अयन के दिन अथवा विषुव के दिन व्यतीपात योग हो, तो व्रती को तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए तथा एकभक्त विधि से आहार करना चाहिए। तब यह सूर्य की सुवर्णप्रतिमा को पञ्चगव्य से स्नान कराकर गन्ध, पुष्पादि अर्पण कर दो रक्त वस्त्र पहनाये, तदनन्तर उसे ताम्रपात्र में रखकर सूर्य के Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वरूपव्रत-विष्णु भिन्न-भिन्न नामों से आपादमस्तक उनकी पूजा की आहार करना चाहिए । उस दिन देवों, पितरों तथा दर्भो जाय। यह क्रम एक वर्षपर्यन्त चलना चाहिए। वर्ष के की बनायी हुई विष्टि का पुष्पादि से पूजन किया जाय । अन्त में सूर्य के पूजन का विधान है । इस अवसर पर १२ इस अवसर पर विष्टि को कृशरा अर्थात् खिचड़ी का कपिला गौओं का अथवा निर्धन होने पर केवल एक गौ । नैवेद्य अर्पित करना चाहिए । काले वस्त्रों, काली गौ तथा का दान किया जाय। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है, काले कम्बल का दान इस अवसर पर किया जाय । विष्टि स्वास्थ्य तथा समृद्धि की सुरक्षा होती है। तथा भद्रा का एक ही अर्थ है। विश्वरूपव्रत-अष्टमी अथवा चतुर्दशी के दिन यदि शनि-विष्णु-आदित्य वर्ग के वैदिक देवताओं में एक । यद्यपि वार तथा रेवती नक्षत्र हो तो उस दिन इस व्रत का अनु- विष्णु की स्तुति में ऋग्वेद (१.१५४) का एक ही सूक्त ष्ठान करना चाहिए । शिवजी इसके देवता हैं। इस दिन पाया जाता है, किन्तु वह इतना सारगर्भित है कि उसके शिवलिङ्ग का महाभिषेक स्नान कराया जाय । कर्पूर को तत्त्वों से विष्णु को हिन्दू त्रिमूर्ति में आगे चलकर अङ्गराग की भाँति लगाया जाय, श्वेत कमल तथा अन्य प्रमुख स्थान मिला। उस विष्णुसूक्त में उनके तीन अनेक आभूषण चढ़ाये जायँ, धूप के रूप में कर्पूर जलाया चरणों ( त्रिविक्रम, उरुक्रम ) की विशेषता पायी जाती जाय, घी तथा खीर का नैवेद्य अर्पण किया जाय, कुशों है। ये बालसूर्य, मध्याह्नसूर्य तथा सायंसूर्य के तीन से भीगा हुआ जल पिया जाय तथा रात्रि को जागरण स्थान हैं। उनका उच्चतम स्थान मध्याह्न का है। इस किया जाय । इस अवसर पर आचार्य को गज अथवा स्थान का जो वर्णन पाया जाता है वह परवर्ती विष्णुलोक अश्व का दान करना चाहिए। इससे व्रती वह सब अथवा गोलोक का पूर्वरूप है। विष्णु का भक्त वहाँ प्राप्त कर लेता है जिसकी वह इच्छा करता है, जैसे पुत्र, पहुँच कर आनन्द का अनुभव करता है। वहाँ भूरिश्रृंग राज्य, आनन्दादि । इसी कारण इसका नाम है विश्वरूप गौएँ (रश्मियाँ) विचरती हैं और मधु की धाराएँ प्रवाहित (साहित्यिक अर्थ समस्त रूप)। होती हैं । विष्णु अपने चरण दयाभाव से उठाते हैं। उनका विष्टिवत अथवा भद्रावत-ज्योतिष ग्रन्थों में करणों का उद्देश्य है संसार को दुःख से मुक्त करने का और मानवों विवेचन किया गया है। प्रत्येक तिथि के आधे-आधे भागों के लिए पृथ्वी को उपयुक्त आवास बनाने का (ऋ० ६. को करण कहते हैं जो सब ग्यारह है। उनकी दो श्रेणियाँ ४९. १३) । वे संसार के रक्षक और संरक्षक दोनों हैं। है-चर तथा स्थिर, अर्थात् चलनशील और अचल। विष्णु कई रूप धारण करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में विष्ण प्रथम की कुल संख्या सात है जिनमें से एक विष्टि है। की कल्पना और विष्णुयागों का और विस्तार हुआ। पुराणों विष्टि किसी तिथि का अर्धाश होता है । ज्योतिष शास्त्र के में विष्णु सम्बन्धी कल्पनाओं, कथाओं और पूजा पद्धति ग्रन्थों ने इसे बुरे, दुष्ट, कपटी भूत-प्रेतादि के समान श्रेणी का अपरिमित विस्तार हुआ है। प्रदान की है। यह तीस घड़ियों का समवेत काल है जो त्रिमूर्ति की कल्पना में विष्णु का स्वरूप निखरा । ये असमानता पूर्वक उसके मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, कटि विश्वात्मा के विश्वरूप के सात्त्विक तत्त्व हैं, जिनका मुख्य तथा पूँछ ( क्रमशः ५, १, ११, ४, ६, ३ घड़ियों) में कार्य संयोजन, धारण, केन्द्रीकरण तथा संरक्षण है। विश्व विभाजित किया गया है। स्मृतिकौस्तुभ (५६५-५६६) में में जो प्रवृत्तिपा केन्द्र की ओर जाती हैं, ऐक्य की शक्ति इसे सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहिन बतलाया गया है । उत्पन्न करती हैं, अस्तित्व तथा वास्तविकता को दृढ तीन पग वाली विष्टि का मुख गधे का है । विष्टि साधा- करती हैं, प्रकाश और सत्य का निर्देश करती हैं, वे विष्णु रणतः ध्वंसात्मक स्वभाव वाली है अतएव किसी शुभ कार्य से उद्भूत होती हैं। विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति 'विष्लू' के आरम्भ के समय इसे त्यागना चाहिए। किन्तु शत्रुओं धातु से हुई है, जिसका अर्थ है सर्वत्र फैलना अथवा को नष्ट करने अथवा उन्हें विष इत्यादि देने के समय व्यापक होना । महाभारत (५. ७०; १३. २१४) के अनुयह बड़ी अनुकूल पड़ती है (बृ० संहिता ९९.४)। जिस सार विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, वे समस्त के स्वामी हैं, वे दिन विष्टि हो उस दिन उपवास करना चाहिए। यदि विध्वंसक शक्तियों का दमन करते हैं। वे इसलिए विष्णु विष्टि रात्रि में पड़े तो दो दिनों तक एकभक्त पद्धति से हैं कि वे सभी शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करते हैं । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ विष्णु के अनेक नाम है विष्णुसहस्रनाम में उनके एक सहस्र नामों की सूची प्रस्तुत की गयी है । इ ऊपर शङ्कराचार्य का भाष्य है, जिसमें नामों का अर्थ और रहस्य बतलाया गया है । विष्णु का प्रसिद्ध नाम 'हरि' है इसका अर्थ है (पाप और दुःख दूर करने वाला। ब्रह्मयोगी ने कलिसन्तरण उपनिषद् (२.१.२१५ ) के अपने भाष्य में इसकी व्याख्या इस प्रकार की है : 'जो अज्ञान (अविया) और इसके दुष्परिणाम का अपहरण करता है वह हरि है ।' विष्णु का दूसरा नाम शेषशायी अथवा अनन्तशायी है । जब विष्णु शयन करते हैं तो सम्पूर्ण विश्व अपनी अव्यक्त अवस्था में पहुँच जाता है। व्यक्त सृष्टि के अवशेष का ही प्रतीक 'शेष' है जो कुण्डली मारकर अनन्त जलराशि पर तैरता रहता है । शेषशायी विष्णु नारायण कहलाते हैं, जिसका अर्थ है 'नार (जल) में आवास करने वाला' । नारायण का दूसरा अर्थ भी हो सकता है; जिसमें समस्त नरों (मनुष्यों) का अयन (आवास) है ।' विष्णु की मूर्तियों में विष्णुसम्बन्धी सिद्धान्तों और कल्पनाओं का ही प्रतीक पाया जाता है । विष्णुमूर्तियाँ प्रतीकों के समूह हैं और साधक उनके किसी भी रूप का ध्यान कर सकता है । गोपाल उत्तरतापनीय उपनिषद् ( ४६. ४८, २१६ ) में विष्णुमूर्ति के मुख्य अङ्गों का वर्णन रहस्यमय रूप में विस्तार से प्राप्त होता है । विष्णु की चौबीस प्रकार की मूर्तियां पायी जाती हैं । इनका वर्णन पद्मपुराण के पातालखण्ड में पाया जाता है । इन मूर्तियों में विष्णु के विविध गुणों का प्रतीकत्व है । रूपमण्डन नामक ग्रन्थ में भी विष्णु की चौवीस मूर्तियों का वर्णन है, किन्तु पद्मपुराण से कुछ भिन्न विभिन्न । युगों में इन्हीं मूर्तियों (रूपों) में विष्णु का युगानुसारी अवतार होता है। पद्मपुराण और रूपमण्डन के अनुसार इन मूर्तियों की व्याख्या इस प्रकार है : १. केशव ( लम्बे केश वाले) २. नारायण ( शेषशायी, सार्वभौम निवास ) ३ माघव ( मायापति, ज्ञानपति) ४. गोविन्द (पृथ्वी के रक्षक ) ५. विष्णु ( सर्वव्यापक) ६. जनार्दन (भक्त पुरस्कर्ता) ७. उपेन्द्र (इन्द्र के भ्राता) विष्णुकाञ्ची- विष्णुत्रिमूर्तिव्रत ८. हरि (दुःख, दारिद्र्य, पाप आदि का हरण करने वाले) ९. वासुदेव ( विश्वान्तर्यामी ) १०. कृष्ण ( आकृष्ट करने वाले, श्याम ) इत्यादि । इन मूर्तियों के अतिरिक्त राम, परशुराम आदि की मूर्तियाँ भी प्रचलित हैं, जिनका उब्लेख उपर्युक्त उल्लेखों में नहीं है । उनके चार आयुओं और प्रमुख आभूषणों के अतिरिक्त पीताम्बर और यज्ञोपवीत भी प्रमुख उपकरण हैं। साथ ही चामर, ध्वज और छत्र का भी अङ्कन प्रतिमाओं में होता है। विष्णु के रथ और वाहन दोनों का उल्लेख मिलता है । उनका वाहन गरुड है जो वैदिक मन्त्रों की शक्ति, गति और प्रकाश का प्रतीक है, वह अपने पक्षों पर विष्णु को बहन करता है। विष्णु के पार्षदों में मुख्य विष्वक्सेन ( विश्वविजेता ) तथा अष्ट विभूतियाँ (योग से उपलब्ध होने वाली सिद्धियाँ) हैं । विष्णुकाची - तमिल प्रदेश का यह प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ है । शिवकाशी से अलग करने के लिए इसे विष्णुकाची कहा जाता है । कावेरी नदी दोनों को बीच से विभाजित करती है। शिवकाञ्ची से दो मील दूर विष्णुकाञ्ची है। यहाँ १८ विष्णुमन्दिर है। मुख्य मन्दिर देवराज स्वामी का हैं जिनको प्रायः वरदराज कहा जाता है। वैशाख पूर्णिमा को इस मन्दिर का ब्रह्मोत्सव होता है । यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा उत्सव है। एक मन्दिर में रामानुजाचार्य की प्रतिमा विराजमान है। यहीं महाप्रभु वल्लभाचार्य की बैठक भी । सप्त मोक्षपुरियों में कापी की भी गणना है । विष्णुत्रिमूर्तिवत विष्णु भगवान् के तीन रूप है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उनका अभिव्यक्तीकरण तीन रूपों में होता है । वे हैं वायु चन्द्र तथा सूर्य । तीनों रूप तीनों लोकों की रक्षा करते हैं। ये ही मनुष्य के शरीर में वात, पित्त तथा कफ के रूप में विद्यमान हैं। इसलिए भगवान् विष्णु के ये ही तीन स्पर्श करने योग्य रूप हैं । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को उपवास रखते हुए इनका पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल भोर में वायु का पूजन तथा मध्यान्ह काल में यव-तिलों से हवन करना चाहिए। सूर्यास्त के समय चन्द्रमा का जल में पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए (प्रत्येक शुक्ल पक्ष की तृतीया को इस व्रत Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुदेवकीव्रत-विष्णुप्राप्तिव्रत से आराधक स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। यदि वह लगातार करना चाहिए। श्रवण अथवा उत्तराषाढ़ नक्षत्र काल में तीन वर्षों तक इस व्रत का आचरण करे तो वह ५००० भगवान् गोविन्द तथा भगवान् विष्णु के तीन पगों की वर्षों तक स्वर्ग में वास करता है । आराधना करनी चाहिए, किन्तु दान और भोजन में विष्णुदेवकीव्रत-कार्तिक मास की प्रतिपदा से आरम्भ अन्तर हो जायगा । भाद्र मास में पूर्वाषाढ़ नक्षत्र के कर एक वर्ष तक यह व्रत करना चाहिए। पंचगव्य से समय, फाल्गुन मास में पूर्वाफाल्गुनी तथा चैत्र में उत्तराभगवान् वासुदेव को स्नान कराकर उसी को उस अवसर फाल्गुनी नक्षत्रों के समय उसी प्रकार की पूजा की जाय । पर प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए । बाण के फूलों, इन आचरणों से व्रती स्वास्थ्य, समृद्धि का लाभ करके चन्दन के प्रलेप तथा अत्यन्त स्वादिष्ठ नैवेद्य से पूजा अन्त में विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है। करनी चाहिए। एक मास तक किसी भी प्राणी को (यहाँ विष्णुपुराण-जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, यह वैष्णव तक कि पशु को भी) किसी प्रकार की क्षति न पहुँचायी पुराण है । प्रमुख पुराणों में इसकी गणना है । श्रीमद्भागवत जाय । इस अवसर पर असत्य भाषण, चौर्य, मांस तथा के पश्चात् लोकप्रियता में इसका दूसरा स्थान है। वैष्णव मधु-भक्षण एकदम निषिद्ध हैं। केवल भगवान् के ध्यान दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का इसमें प्रतिपादन हुआ है। में मग्न रहना चाहिए। शास्त्रों, यज्ञों तथा देवों की निन्दा आचार्य रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के ऊपर रचित श्रीभाष्य में का परित्याग करना चाहिए। प्रति दिन मौन रहकर विष्णुपुराण से अनेक उद्धरण दिये हैं। इससे इसका नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए। मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा दार्शनिक महत्त्व प्रकट होता है । यह छः खण्डों में विभक्त अन्य मासों में भी यही विधान रहेगा, केवल पुष्प, धूप है जिनको अंश कहते हैं। इसमें अध्यायों की संख्या १२६ तथा नैवेद्य ही परिवर्तित होते रहेंगे। देवकी एक सुन्दर है । आकार में यह श्रीमद्भागवत पुराण का एक तिहाई है। पुत्र चाहती थीं। अतएव विष्णु की पूजा करने के लिए प्रथम अंश में सृष्टिवर्णन, द्वितीय अंश में भूगोलवर्णन, इस व्रत का अनुष्ठान उन्होंने किया था । तृतीय अंश में आश्रम और वैदिक शाखावर्णन, चतुर्थ में विष्णुपञ्चक-कार्तिक मास के अन्तिम पाँच दिन विष्णु- इतिहास, पञ्चम में कृष्ण चरित्र और षष्ठ अंश में प्रलय पञ्चक कहलाते हैं। उन दिनों विष्णु तथा राधा की। और भक्ति का वर्णन पाया जाता है। इस पुराण में ज्ञान पञ्चोपचारों (गन्धाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) से पूजा और भक्ति का सुन्दर समन्वय मिलता है । विष्णु और करनी चाहिए। इससे समस्त पापों का नाश होता है शिव के अभेद का प्रतिपादन भगवान् कृष्ण के मुख से और व्रती सीधा विष्णुलोक जाता है। पूजा को कुछ कराया गया है-- विभिन्न पद्धतियों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है, यथा योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम् । एकादशी को पूजन, द्वादशी को गोमूत्रपान, त्रयोदशी को मत्तो नान्यदशेषो यत् तत् त्वं ज्ञातुमिहार्हसि ॥ दुग्धाहार, चतुर्दशी को दही का आहार तथा पूर्णिमा को अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः । केशव की आराधना करके सायंकाल पञ्चगव्य प्राशन वदन्ति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ॥ करना चाहिए अथवा तुलसीदलों से हरि का पूजन करना (विष्णुपुराण, ५,३३,४८-४९) चाहिए । दे० पद्मपुराण, ३.२३,१-३३ । विष्णुप्रबोध-कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी विष्णुपद अथवा विष्णुपदी-यह चार राशियों का नाम को भगवान् शय्या त्याग कर जाग जाते हैं। इस कारण है। यथा वृषभ, सिंह, वृश्चिक तथा कुम्भ । दे० कालनिर्णय, इस दिन को विष्णुप्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है। ३३२ । संध्या को सुसज्जित मण्डप में पत्र-पुष्प-फलों की प्रथम विष्णुपदवत-आषाढ़ मास म पूर्वाषाढ़ नक्षत्र क समय व्रत उपज से पूजन करते हुए विष्णु को जगाया जाता है। आरम्भ करना चाहिए। इस अवसर पर दुग्ध अथवा घृत दीपमाला जलायी जाती है। इसका नाम 'देवदीपावली' में रखे हुए भगवान् विष्णु के तीन पगों की पूजा करनी भी है। चाहिए। व्रती को केवल रात्रि के समय हविष्यान्न ग्रहण विष्णुप्राप्तिव्रत-इस व्रत में द्वादशी के दिन उपवास का ७५ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ विष्णुलक्षवतिव्रत-वृक्षोत्सवविधि विधान है। इस दिन 'नमो नारायणाय' का उच्चारण प्रारम्भ हो चुकती है और सूर्य मेघाच्छन्न रहता है। करके सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए । श्वेत पुष्पों से विष्णु विष्णु सूर्य का ही एक रूप है । सूर्य के मेघाच्छन्न होने की पूजा करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाय, के कारण यह विश्वास किया जाता है कि विष्णु शयन 'देवाधिदेव' धरा के आधार, हे आशुतोष ! इन पुष्पों को करने चले गये हैं। यह स्थिति प्रायः कार्तिक शुक्ल स्वीकार कर कृपा कर मेरे ऊपर प्रसन्न होइए।' व्रती एकादशी तक रहती है जब कि निर्मंघ स्वच्छ आकाश में को ज्वार, बाजरा (श्यामाक) का भोजन अथवा उस धान्य प्रबोध एकादशी के दिन देवोत्थान (विष्ण के जागरण) का का आहार करना चाहिए जो ६० दिनों में पककर तैयार उत्सव तथा व्रत मनाया जाता है । दे० 'प्रबोधएकादशी' । होता है तथा जो मसालों के साथ बो दिया गया है विष्णश्रंखलायोग-यदि द्वादशी एकादशी से संयुक्त हो (मिर्च, धनियाँ, जीरा आदि ) या धान अथवा जौ अथवा तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह विष्णुशृंखला नीवार (जंगली धान) का आहार करना चाहिए। तद कहलाता है । इस व्रत के आचरण से मनुष्य सारे पापों नन्तर व्रत की पारणा करनी चाहिए । इससे व्रती विष्णु से मुक्त होकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। लोक प्राप्त कर लेता है। वीरवत-नवमी के दिन व्रती को एकभक्त पद्धति से विष्णुलक्षवर्तिवत-किसी पवित्र तिथि तथा लग्न के आहार करके कन्याओं को भोजन कराकर सुवर्ण का समय रुई की धूल तथा तिनके आदि साफ करके चार कलश, दो वस्त्र तथा सुवर्ण दान करना चाहिए। एक अंगुल लम्बा धागा काता जाय। इस प्रकार पाँच धागों वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। प्रति को कातकर एक बत्ती बनायी जाय । इस प्रकार की एक नवमी को कन्याओं को भोजन कराया जाना चाहिए। लाख बत्तियाँ घी में भिगोकर किसी चाँदी या काँसे के इस व्रत से व्रती प्रत्येक जीवन में अत्यन्त रूपवान् होता पात्र में रखकर भगवान् विष्णु की प्रतिमा के पास ले है और उसे किसी शत्रु से भय आदि नहीं रहता। अन्त जानी चाहिए। इनको ले जाने का सबसे उचित समय में वह शिवजी की राजधानी प्राप्त कर लेता है । ऐसा कार्तिक, माघ या वैशाख मास है, वैशाख सर्वोत्तम है । प्रति लगता है कि इस व्रत के देवता या तो शिव हैं या उमा दिन एक सहस्र अथवा दो सहस्र बत्तियाँ विष्णु के सम्मुख अथवा दोनों ही है। प्रज्वलित की जाय । उपर्युक्त मासों में से किसी भी मास वीरासन-समस्त कृच्छव्रतों में वांछनीय आसन वीरासन की पूर्णिमा को व्रत समाप्त कर देना चाहिए। तदनन्तर कहा जाता है । हेमाद्रि, १.३२२ (गरुडपुराण को उद्धृत उद्यापन किया जाना चाहिए। आजकल दक्षिण भारत करते हुए) तथा २.९३२ । अघमर्षण व्रत में भी इसका में महिलाओं द्वारा इस व्रत का आयोजन किया जाता है। उल्लेख मिलता है। अघमर्षण का उल्लेख शंखस्मति, विष्णुशङ्करवत-इस व्रत में उसी विधि का अनुसरण १८.२ में आया है । इससे समस्त पापों का नाश होता है। करना चाहिए जो उमामहेश्वरव्रत के विषय में पीछे वृक्षोत्सवविधि-भारत में वृक्षारोपण को अत्यन्त महत्त्व कही गयी है। भाद्रपद अथवा आश्विन मास में मृगशिरा, दिया जाता है मत्स्यपुराण । (५९, श्लोक १-२०) । ठीक आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र के __वैसे ही पद्मपुराण (५.२४,१९२-२११) में वृक्षोत्सव के अवसर पर इस व्रत का आचरण करना चाहिए। यहाँ विधान के विषय में पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। संक्षेप में अन्तर केवल इतना है कि विष्णु को पीताम्बर धारण कराये उसकी विधि यह है कि सौंषधियों से युक्त जल से वृक्षों के जाँयगे तथा दक्षिणा में भी विष्णु को सुवर्ण तथा शंकर को उद्यानों को तीन दिन सींचा जाय । सुगन्धित चूर्ण से तथा मोती भेंट किये जायगे । वस्त्रों से वृक्षों का शृंगार करना चाहिए । सुवर्ण की बनी विष्णुशयनोत्सव-आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान् विष्णु हुई (कान छेदने वाली) सुई से वृक्षों को छेदकर उनमें का शयनोत्सव मनाया जाता है । यह उत्सव मलमास सुनहरी पेंसिल से सिन्दूर भर देना चाहिए । वृक्षों से बने अथवा पुरुषोत्तम मास में कदापि नहीं मनाया जाना मचानों पर सात या आठ सोने के फल लगाये जाँय तथा चाहिए। दे० निर्णयसिन्धु, १०२ । इस समय तक वर्षा वृक्षों के नीचे कुछ ऐसे कलश भी स्थापित किये जाँय Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्ताकत्यागविधि-वृन्दावनद्वादशी ५९५ जिनमें सुवर्णखण्ड पड़े हों। इन्द्र तथा लोकपालों के पर ब्राह्मण का कर्तव्य स्वस्तिवाचन करना है। जो लिए वनस्पतियों के निमित्त हवन करना चाहिए। व्यक्ति जीवनपर्यन्त बैंगन नहीं खाता वह सीधा विष्णु अतिथि, ब्राह्मणों को दूध से परिपूर्ण भोजन कराया लोक जाता है। जो व्यक्ति एक वर्ष या एक मास के जाय। इस अवसर पर जौ, काले तिल तथा सरसों से लिए इसका त्याग करता है उसे यम की राजधानी में हवन करना चाहिए। हवन में पलाश की समिधाएँ उपस्थित नहीं होना पड़ता। यह प्रकीर्णक व्रत है । प्रयुक्त की जायें। चौथे दिन व्रतोत्सव आयोजित हो। वृन्दावन-मथुरा से सात मील उत्तर यमुनातट पर वृक्षइससे व्रती अपनी समस्त मनःकामनाओं की पूर्ति होते । लता-कुञ्ज-कुटीरों से शोभायमान विख्यात वैष्णव तीर्थ । हुए देखता है । वृन्दावन का महत्त्व इसलिए है कि भगवान् कृष्ण ने यहीं मत्स्यपुराण (१५४.५१२) के अनुसार एक पुत्र दस पर गोचारण की अनेकों बाललीलाएँ तथा गोपियों के गहरे जलाशयों के समान है तथा एक वृक्ष का आरोपण साथ महारास की लीला की थी। पूर्व जन्म में जालदस पुत्रों के बराबर है। वराहपुराण (१७२.३६-३७) में न्धर की पत्नी वृन्दा थी। भगवत्कृपा से वह विष्णुकहा गया है कि जैसे एक अच्छा पुत्र परिवार की रक्षा प्रिया बन गयी। उसको विष्णु का वरदान मिला। करता है, उसी प्रकार एक वृक्ष', जिस पर फल-फूल लदे असंख्य गोपियों के रूप में वह व्रज में अवतरित हुई। हों, अपने स्वामी को नरक में गिरने से बचाता है। पाँच उसके नाम से ही विहारस्थल का नाम वृन्दावन पड़ा। आम के पौधे लगाने वाला कभी नरक जाता ही नहीं : यह संतों और भक्तों की सिद्ध भजनस्थली भी रही है। 'पञ्चानवापी नरकं न याति ।' विष्णुधर्म० (३.२९७- एक से एक बढ़कर गोपाल कृष्ण के हजारों मन्दिर यहाँ १३) के अनुसार 'एक व्यक्ति द्वारा पालित पोषित वृक्ष एक भक्तों की भावना के स्मारक बने हुए हैं । साधुओं के अखाड़े, पुत्र के समान या उससे भी कहीं अधिक महत्त्व रखता आश्रम, कुटी, कुंज, भजनाश्रम, रासमण्डल, ब्रजरज और है । देवगण इसके पुष्पों से, यात्री इसकी छाया में बैठकर, घाटों से इस स्थान की शोभा निराली हो गयी है। मनुष्य इसके फल-फूल खाकर इसके प्रति कृतज्ञता प्रकट आध्यात्मिक अर्थ में ब्रह्म और जीव के तादात्म्य की करते हैं । अतः वृक्षारोपण करने वाले व्यक्ति को कभी यह रासस्थली (अनुभवभूमि) है। बालकृष्ण की लीलानरक में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भूमि वृन्दावन कृष्णभक्तों तथा सभी वैष्णवों के लिए वृन्ताकत्यागविधि-वृन्ताक (बैगन या भंटा ) फल के अति आकर्षणपूर्ण पुण्य स्थल है। मुसलमानी आक्रमणभक्षण का पूरे जीवन के लिए अथवा एक वर्ष या छः मास कारियों ने इसके पूर्व गौरवशाली रूप को विकृत कर या तीन मास के लिए त्याग करना इस व्रत में विहित दिया था। किन्तु फिर अनेक सम्प्रदायों तथा उनके संरहै। इसमें एक रात्रि को भरणी अथवा मघा नक्षत्र के क्षकों के द्वारा इसके पुण्यस्थलों का उद्धार हुआ है। समय उपवास करना चाहिए । यमराज, काल, चित्रगुप्त, प्रसिद्ध चैतन्यानुयायी रूप तथा सनातन गोस्वामी आदि मृत्यु एवं प्रजापति को एक वेदी पर स्थापित कर उनकी वैष्णवों ने तो वृन्दावन को ही अपना कार्यस्थल बनाया । प्रार्थना करते हुए गन्ध, अक्षतादि से पूजन करना इन लोगों ने इसके माहात्म्य को और भी बढ़ाया। अनेकों चाहिए । तिल तथा घी से 'नीलाय स्वाहा, यमाय स्वाहा' कृष्णभक्त कवि, गायक, सन्त आदि के नामों से यह कहकर होम करना चाहिए और इसी प्रकार स्वाहा शब्द स्थान संबंधित है । अकबर के शासन काल में अनेक राजनीलकण्ठ, यमराज, चित्रगुप्त , वैवस्वत के साथ जोड़कर पूत राजाओं तथा अन्य भक्तों के दान से यहाँ अनेकों भव्य हवन करना चाहिए। इस तरह १०८ आहुतियाँ दी मन्दिर बने । इस निर्माण में उपर्युक्त चैतन्य सम्प्रदाय के जाँय । तदनन्तर सोने के बने हुए वृन्ताक, श्यामा गौ, गोस्वामी लोगों का बड़ा हाथ था। साँड, अंगूठियाँ, कान के आभूषण, छाता, पादुका, एक वृन्दावनद्वादशी-कार्तिक शुक्ल द्वादशी को वृन्दावनद्वादशी जोड़ी कपड़े तथा एक काले कम्बल का दान करना कहते हैं। इस व्रत के अनुष्ठान का प्रचार केवल चाहिए । ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए । इस अवसर तमिलनाडु में है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ वृषोत्सर्ग - 'वृष अथवा साँड़ का उत्सर्ग (त्याग) दान' । चैत्र या कार्तिक पूर्णिमा को अथवा रेवती नक्षत्र में साँड़ को छोड़ना वृषोत्सर्गव्रत कहलाता है। तीन वर्ष में एक चार ऐसा करना चाहिए। साँड़ भी तीन वर्ष की अवस्था का होना चाहिए। तीन वर्ष की अवस्था वाली चार या आठ गौएँ साँड़ के साथ छोड़ दी जानी चाहिए | सामान्य रूप से किसी पुरुष की मृत्यु के ग्यारहवें दिन साँड़ छोड़ने का प्रचलन है । गिरि - सुदूर दक्षिण के आन्ध्र देश का एक तीर्थस्थल । वह कालहस्ती से १५ मील दूर स्थित है। यहाँ काशीपेठ में काशीविश्वेश्वर शिव का मन्दिर है। यह मूर्ति काशी से लाकर स्थापित की गयी है। अन्नपूर्णा, कालभैरव, सिद्धविनायक आदि की मूर्तियाँ भी यहाँ दर्शनीय हैं । वेङ्कटेश्वर (तिरुपति) - आन्ध्र देशस्थ वेङ्कटाद्रि पर विराजमान भगवान् वेङ्कटेश्वर के मन्दिर में शिव और विष्णु की एकता आज भी प्रत्यक्ष है । यह मन्दिर तिरुपति पहाड़ी पर स्थित है। यह दक्षिण भारत का सर्वाधिक लोकपूजित और वैभवशाली तीर्थ है । पहले इसमें वैखानससंहिता के आधार पर पूजा होती थी, जबकि तमिल देश के अधिकांश मन्दिरों में पाञ्चरात्र संहिताओं के आधार पर पूजा होती थी। काञ्जीवरम् श्रीपेरुम्बुर के मन्दिरों में भी बैंकटेश्वर मन्दिर के समान वैखानससंहिता का अनुसरण होता था । बाद में रामानुज स्वामी ने वेंकटेश्वर में प्रच लित वैखानस विधि को हटाकर पाश्चरात्र विधि प्रचलित करायी थी। वेद तैत्तिरीय संहिता, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, मनुस्मृति नाट्यशास्त्र, अमरकोश आदि में 'वेद' शब्द की व्युत्पत्ति बतलायी गयी है । यह शब्द चार धातुओं से व्युत्पन्न होता है(१) विद् (ज्ञाने) (२) विद् (सत्तायाम् ) (३) विद् (लाभ) और (४) विद् (विचारणे) । 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'वेद' शब्द का निर्वचन निम्नांकित प्रकार से किया है "विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्वेषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः ।" [ जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं, अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते वृषोत्सर्ग-बंद हैं, उनको वेद कहते हैं । ] परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है वह सामान्य ज्ञान नहीं है, यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय मुख्यतः ईश्वरीय ज्ञान है, जिसका साक्षात्कार मानवजीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु (१.७) ने तो वेदों को सर्वज्ञानमय ही कहा है । 'वेद' शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक बाइ मय के अर्थ में होता था, जिसमें संहिता, ब्राह्मण, आरयक और उपनिषद् सभी सम्मिलित थे। कथित है - "मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्”, अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का नाम वेद है | यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् का भी समावेश है । किन्तु आगे चलकर 'वेद' शब्द केवल चार वेदसंहिताओं; ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया । ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अज होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये । सायणाचार्य ने तैत्तिरीय संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया है : " यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादी समाम्नाताः ।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण ( उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और ) आदि वेदमन्त्र ही हैं। इस वैदिक ज्ञान का साक्षात्कार, जैसा कि पहले कहा गया है, ऋषियों को हुआ था। जिन व्यक्तियों ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया वे ऋषि कहलाये, इनमें पुरुष स्त्रियाँ दोनों थे। वैदिक ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ उनको मन्त्र कहते हैं। मन्त्र तीन प्रकार के हैं- (१) ज्ञानार्थक (२) विचारार्थक और (३) सत्कारार्थक । इनकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से बतलायी गयी है : दिवादिगण की मन् धातु (ज्ञानार्थ प्रतिपादक ) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से 'मन्त्र' शब्द व्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है'मन्यते (ज्ञायते ) ईश्वरादेशः अनेन इति मन्त्रः' । इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं। तनादिगण की मन् धातु (विचारार्यक) में ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ - मन्यते ( विचार्यते ) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः', अर्थात् । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद ५९७ उल्लेख किया है : "तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन मनुष्यान विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजुःसामाथाख्यांश्चतुरो वेदान् पैल-वैशम्पायन-जैमिनिसुमन्तुभ्यः क्रमादुपदिदेश ।" । प्रत्येक वेद से जो वाङ्मय विकसित हुआ उसके चार भाग हैं-(१) संहिता (२) ब्राह्मण (३) आरण्यक और (४) उपनिषद । संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संगहीत हैं । ब्राह्मण में मन्त्रों की व्याख्या और उनके समर्थन में प्रवचन दिये हए है। आरण्यक में वानप्रस्थियों के उपयोग के लिए अरण्यगान और विधि-विधान हैं। उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गयी हैं । वैदिक अध्ययन और चिन्तन के फलस्वरूप उनकी कई शाखाएँ विकसित हुई, जिनके नाम पर संहिताओं के नाम पड़े। इनमें से कालक्रम से अनेक संहिताएँ नष्ट हो गयीं, परन्तु कुछ अब भी उपलब्ध हैं । ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं-(१) शाकल (२) वाष्कल (३) आश्वलायन (४) शांखायन और (५) माण्डूक्य । इनमें अब शाकल शाखा ही उपलब्ध है । शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व दो शाखाएँ हैं। माध्यन्दिन उत्तर भारत तथा काण्व महाराष्ट्र में प्रचलित है । कृष्ण यजुर्वेद की इस समय चार शाखाएँ उपलब्ध हैं : (१) तैत्तिरीय (२) मैत्रायणी (३) काठक और (४) कठ । सामवेद को दो शाखाएँ उपलब्ध हैं(१) कौथमी और (२) राणायनीय । अथर्ववेद की उपलब्ध शाखाओं के नाम पैप्पलाद तथा शौनक हैं। (चारों वेदों की जानकारी के लिए उनके नाम के साथ यथास्थान देखिए ।) २) वाकपद की पात्र जिसके द्वारा ईश्वर के आदेशों का विचार हो वह मन्त्र है । इस प्रकार तनादिगण की ही मन् धातु (सत्कारार्थक) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ 'मन्यते (सतक्रियते) देवताविशेषः अनेन इति मन्त्रः' है, अर्थात् जिसके द्वारा देवता विशेष का सत्कार हो वह मन्त्र है। वेदार्थ जानने के लिए तीनों व्युत्पत्तियाँ समीचीन जान पड़ती है। परन्तु सबको मिलाकर यही अर्थ निकलता है कि वेद वह है जिसमें ईश्वरीय ज्ञान का प्रतिपादन हो। वेदों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया हैत्रिविध और चतुर्विध। पहले में सम्पूर्ण वेदमन्त्रों को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है-(१) ऋक् (२) यजुष और (३) साम । इन्हीं तोनों का संयुक्त नाम त्रयी है। ऋक् का अर्थ है प्रार्थना अथवा स्तुति । यजुष का अर्थ है यज्ञ-यागादि का विधान । साम का अर्थ है शान्ति अथवा मंगल स्थापित करने वाला गान । इसी आधार पर प्रथम तीन सहिताओं के नाम ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद पड़े। वेदों का बहप्रचलित और प्रसिद्ध विभाजन चतुर्विध है। पहले वैदिक मन्त्र मिले-जुले और अविभक्त थे । यज्ञार्थ उनका वर्गीकरण कर चार भागों में बाँट दिया गया, जो चार वेदों के नाम से प्रसिद्ध हुएऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । ऋक्, यजुष् तथा साम को अलग-अलग करके प्रथम तीन वेद बना दिये गये। किन्तु गैदिक वचनों में इनके अतिरिक्त भी बहुत सामग्री थी, जिसका सम्बन्ध धर्म, दर्शन के अतिरिक्त लौकिक कृत्यों और अभिचारों (जादू-टोना आदि) से था। इन सबका समावेश अथर्ववेद में कर दिया गया। इस चतुर्विध विभाजन का उल्लेख वैदिक साहित्य में ही मिल जाता है : यस्मादचो अयातक्षन् यजुर्यस्मादपकषन् । सामानि यस्य लोमानि अथर्वाङ्गिरसो मुखम् । स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः । (अथर्व० १०.४.२०) परन्तु चारों वेदों का सम्यक् विभाजन और सम्पादन वेदव्यास ने किया। यास्क ने निरुक्त (१.२०) और भास्कर भट्ट ने यजुर्नेदभाष्य की भूमिका में इसका उल्लेख किया है । भाष्यकार महीधर ने और विस्तार से इसका "यन और ( वेद का चतुर्विध विभाजन प्रायः यज्ञ को ध्यान में रखकर किया गया था। यज्ञ के लिए चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है-(१) होता (२) अध्वर्यु (३) उद्गाता और (४) ब्रह्मा । होता का अर्थ है आह्वान करने वाला (बुलानेवाला)। होता यज्ञ के अवसर पर विशिष्ट देवता के प्रशंसात्मक मन्त्रों का उच्चारण कर उस देवता का आह्वान करता है । ऐसे मन्त्रों का संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम ऋग्वेद है। अध्वर्यु का काम यज्ञ का सम्पादन है। उसके लिए आवश्यक मन्त्रों का संकलन जिस संहिता में है उसका नाम यजुर्वेद है। उद्गाता का अर्थ है उच्च स्वर से गाने वाला, उसके उपयोग के लिए मन्त्रों का Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम सामवेद है । ब्रह्मा का काम अध्यक्षपद से सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करना है । वह चारों वेदों का ज्ञाता होता है । अथर्ववेद में अन्य तीनों वेदों की सामग्री से अतिरिक्त कुछ और भी है । अतः ब्रह्मा का विशिष्ट वेद अथर्वद है । वेद के प्रकारों के बारे में शतपथ ब्रा० में लिखा है कि अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद प्राप्त हुए हैं। मनुसंहिता के अनुसार तो ऋक्, यजुः और साममन्त्रों को ही त्रिवृद्वेद कहते हैं । मुण्डकोपनिषद् में ऋक् आदि चार वेदों को अपरा विद्या कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास और पुराणादि अपरा विद्या हैं । वेदों की नित्यता प्रमाणित करते हुए कहा जाता है कि ज्ञानरूप वेद प्रलय के समय भी ओंकार रूप में वर्तमान रहते हैं । ऐसे अनादि, अनश्वर और नित्य ब्रह्मवाक्य को सृष्टि की प्रथम अवस्था में रचित आदिविद्या कहा जाता है जो सकल प्रपंचविस्तारक है । मनुष्य द्वारा न रचे जाने और ईश्वरकृत होने के कारण ही वेदों को अपौरुषेय कहते हैं। ब्रह्मस्वरूप और नित्य ज्ञान का विस्तार वेदों द्वारा ही होता है। ऋषि लोग वेद के द्रष्टा मात्र हैं । वेद नित्य हैं इसलिए समाधिस्थ ऋषियों के अन्तःकरण में ही उनका प्रकाश होता है । ऋषियों को वेदों का ज्ञान प्रलयकालोपरान्त ब्रह्माजी से तपस्या द्वारा प्राप्त हुआ था । वेद की नित्यता इसलिए स्वीकार की जाती है कि वेद ज्ञानरूप हैं। वे ज्ञानरूप ईश्वर के हृदय में प्रलयदशा में स्थित रहते हैं। यह निष्क्रिय दशा परमात्मा की श्वासहीन योगनिद्रा है। ईश्वर की जाग्रत् अवस्था सृष्टि है और निद्रावस्था प्रलय । प्रलयोपरान्त जब प्रलयविलीन प्राणियों का संस्कार क्रियोन्मुख होता है तब भगवान् अपनी योगनिद्रा छोड़कर सृष्टि की इच्छा करते हैं। यह श्वासयुक्त सृष्टि की अवस्था उनकी सिसृक्षा कही जाती है । वेद में जो भगवान् की 'एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय' इच्छा व्यक्त की गयी है वह एकता से अनेकता की ओर उन्मुख होकर प्रजासृष्टि की ही इच्छा है । मनुसंहिता में कहा गया है कि सिसृक्षा से परमात्मा द्वारा जल की सृष्टि हुई; यह 'अप्' साधारण जल नहीं हो सकता । यह वस्तुतः समष्टि संस्कार रूप 'कारणवारि है। वैद परमात्मा सिक्षा से सर्वप्रथम इन संस्कारों को उद्ध करते हैं, फिर उनमें क्रियाशक्ति का बीज आरोपित करते है। यह क्रियाशक्ति परिपुष्ट होकर देदीप्यमान सूर्य की तरह चमकती है, जिससे ब्रह्माजी की उत्पत्ति होती है। यह सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था है। यह मनुष्य के मग और वाणी की पहुँच से बाहर है । यह मन और वाणी से परे ब्रह्माजी का सूक्ष्म शरीर ज्योतिर्मय कारणवारि में क्रियाशालिनी समष्टि प्राणशक्ति के रूप में स्थित रहता है । मुण्डकोपनिषद् के एक मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी शंकराचार्य ने बड़ा ही सुन्दर तर्क दर्शाया है कि भूतयोनि ब्रह्मतपस्या से उद्भूत है। इससे मूल तत्व (अन्न) विकसित होता है । फिर यह अव्याकृत प्रकृति (अन्न) समष्टि प्राणरूप हिरण्यगर्भ को उत्पन्न करती है । यह हिरण्यगर्भ श्रुतियों के अनुसार ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर ही है, जिसमें सृष्टिकारिणी क्रियाशक्ति विराजमान है। इससे मन, सत्य और लोक की सर्वप्रथम सृष्टि हुई ब्रह्मा के इस सूक्ष्म शरीर में सर्वप्रथम परमात्मा ने ज्ञानरूप वेदराशि का संचार किया। इसीलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है। जिस प्रकार ब्रह्माण्डप्रकृति में व्यापक प्राण ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर है और उसी के अंशभूत जगत् प्राणियों के प्राण हैं, उसी तरह समष्टि अन्तःकरण ही ब्रह्मा का स्वरूप माना जाना चाहिए । इस समष्टि व्यापक अन्तःकरण से व्यष्टि अन्तःकरण की स्थिति है। इसी लिए वाजसनेयी ब्राह्मणोपनिषद् में ब्रह्मा को 'अन्तःकरण' और 'मुक्ति' की संज्ञा दी गयी हैं । इसी तरह उन्हें 'मनो महान् मतिर्ब्रह्मा' कहा गया है। यहाँ मन शब्द मूलतः करणवाचक है, इसलिए ब्रह्मा को मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार इन चार तत्त्वों से युक्त चतुर्मुख कहा गया है। यह समष्टि अन्तःकरणरूपी ब्रह्मा का अंश ऋषिरूपी व्यष्टि में व्याप्त रहता है । जब ऋषि लोग तपस्या और योगसाधना के द्वारा समाधिस्थ हो जाते हैं उसी अवस्था में उन्हें सब वेदमंत्रों का साक्षात्कार होता है । बात यह है कि सामान्य रूप से इन्द्रियसापेक्ष व्यष्टि, व्यापक अन्तःकरण से विच्छिन्न होने के कारण अल्पज्ञ रहता है, पर जितेन्द्रिय योगी समष्टि अन्तःकरण के साथ मिलकर समाधिस्थ हो जाते हैं। वे सूक्ष्म रूप से बह्मा के साथ एकात्मा होने के Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद ५९९ कारण वेद का दर्शन करते हैं । अतएव ब्रह्मा के द्वारा वेद की प्राप्ति या ऋषियों के समाधिस्थ अन्तःकरण में वेद की उपस्थिति एक ही स्तर की बात है। साथ ही यह भी है कि अपौरुषेय वेद परमात्मा के जिस भाव से प्रकट होता है उसे ऋषि लोग भी समाधिस्थ होकर प्राप्त करते है। वस्तुतः जीव और ब्रह्म एक ही हैं। अविद्या के कारण केवल जीव देश, काल और वस्तु के द्वारा परमात्मा से अलग है और परमात्मा इन सब मायाराज्यों से परं है। पर समाधि की दशा में व्यष्टि अन्तःकरण समष्टि अन्तःकरण में विलीन हो जाता है और ब्रह्म तथा जीव में एकत्व की स्थिति आ जाती है। इसी दशा में वेद का ज्ञान होता है। निष्कर्ष यह है कि परमात्मा के निश्वास रूप प्रकाशित वेद, ब्रह्मा के हृदय तथा देवर्षियों या ब्रह्मर्षियों के अन्तःकरण में भी एक ही भूमि से प्राप्त होते हैं । इसलिए उन्हें अपौरुषेय कहा जाता है। प्रकृतिविलास और प्रकृतिलय के अनुसार परमात्मा के तीन भाव अध्यात्म, अधिदैव और अधिभत हैं। अध्यात्मभाव में मायातीत और मन-वाणी से अगोचर, निर्गुण, निष्क्रिय परब्रह्म आता है। अधिदैव भाव में माया का अधिष्ठाता, सृष्टि का कर्ता, उसकी स्थिति तथा प्रलय का संचालक ईश्वर है । अधिभूत भाव में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड स्वरूप विराट का रूप आता है। इन तीन भावों के अनुसार संसार भी त्रिगुणात्मक है। वस्तुतः कार्य- कारण का विस्तार मात्र होता है, अतएव दोनों में समान भावों की स्थिति होना स्वाभाविक है । कार्यब्रह्म में प्रकृति और पुरुष की लीला का पर्यवसान गुण और भावों की लीला के रूप में होता है । अतएव प्रकृति-पुरुष को आधार मानने वाले मुक्तिकामी साधक को प्रत्येक वस्तु में त्रिगुण और त्रिभाव देखना पड़ता है। इसी प्रकार ज्ञानराशि भी वही पूर्ण है जिसमें अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव तीनों भावों की पूर्णता हो। वेदों में भी आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों अर्थों का सन्निवेश है। स्मृतियों के अनुसार अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत-तीनों भावों से सम्पन्न अमृतमयी श्रुति ज्ञानी महात्मा के लिए ब्रह्मानन्द का आस्वादन कराती है। अतः वेद तीन अर्थों और तीन भावों से सम्पन्न है। आज के मनुष्यों की दृष्टि एकांगी है और इस दृष्टि की अपूर्णता के कारण भ्रमवश वे वेदमंत्रों का पूर्ण अर्थ नहीं लगा पाते। वे प्रायः इनके अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत में से किसी एक का ही अर्थ लगा लेते हैं। पर वेद की अपौरुषेयता के कारण यह सब अनर्गल है। वेद में तीनों भावों का एक साथ अर्थ लगाना चाहिए। बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार देवता और असुर दोनों ही प्रजापति के द्वारा उत्पन्न किये गये भाई हैं । असुर देवों के बड़े भाई और दोनों ही एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं। देवासुरसंग्राम इसी का परिणाम है । इस बात को ब्रह्म के तीनों भावों की भमिका पर रखकर देखना होगा । दैवी सम्पति वालों और आसुरी सम्पत्ति वालों का पारस्परिक संघर्ष इसका अधिभूत अर्थ कहा जायगा, और इसी तरह देवलोक में तमोगुणी असुरों तथा सत्त्वगुणी देवों का पारस्परिक संघर्ष अधिदैव अर्थभूत देवासुरसंग्राम है। तीसरे अध्यात्म के क्षेत्र में मानसिक कुमति और सुमति का द्वन्द्व आध्यात्मिक देवासुरसंग्राम है। इस प्रकार वेदमन्त्रों का तीनों भावों की दृष्टि से अर्थ लगाया जा सकता है। इस तरह वेद में त्रिगुण और त्रिभाव की पूर्णता है । इसलिए वेद को अपौरुषेय कहा जाता है। वेद को समझने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष नामक छः शास्त्रों के अंगों का अध्ययन आवश्यक है। इसके उपरान्त वैदिक सप्त दर्शनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। इनमें से एक के भी अभाव में साधक का ज्ञान अपूर्ण रहेगा । उपर्युक्त षडंग तथा सप्तदर्शन की तात्त्विक ज्ञानभूमि पर प्रतिष्ठित होकर ही मनुष्य वेदाध्ययन का अधिकारी बन सकता है। ज्ञानार्जन का अधिकारी होने पर उसे कर्म, उपासना और ज्ञान की सहायता से अपना चित्त निर्मल करना होगा, तभी नेद समझा जा सकता है । वेदों मे ऋषि, छन्द और देवता का उल्लेख आता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस ऋषि के द्वारा जो मन्त्र प्रकाशित हुआ वह उस मन्त्र का ऋषि कहा जाता है और जिन छन्दों में वे मन्त्र कहे गये हैं वे उन मन्त्रों के छन्द कहे जाते हैं । जिस मन्त्र से भगवान् के जिस रूप की उपासना की जाती है वह उस मन्त्र का देवता कहा जाता है। प्रत्येक वैदिक मन्त्र की शक्ति अलग-अलग होती है, इसलिए उसके छन्द का परिज्ञान होने से उस मन्त्र की आधिभौतिक शक्ति का पता चलता है । देवता Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ज्ञान से उसकी आधिदैविक शक्ति तथा ऋषि के ज्ञान से तैत्तिरीय संहिता में कुल सात अष्टक हैं जिनमें प्रत्येक अष्टक उसकी आध्यात्मिक शक्ति का पता चलता है । वेद के कर्म ७,८ अध्यायों का है। अध्याय को प्रश्न और अष्टक को और उपासना काण्ड के बीच इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि दैवी प्रपाठक भी कहा गया है। प्रत्येक अध्याय बहुत से अनुशक्तियों का स्वर्ग आदि फल प्रदान करने के लिए सकाम वाकों से युक्त है और पूरे ग्रंथ में अनुवाकों की संख्या साधना में आह्वान किया जाता है । ७०० है । इसमें अश्वमेध, अग्निष्टोम, ज्योतिष्टोम, राजचारों वेदों के विषयों का यत्किञ्चित वर्णन इस सूय, अतिरात्र आदि यज्ञों का वर्णन है और प्रजापति, प्रकार है । ऋग्वेदसंहिता के दस मण्डल हैं, जिनमें ८५ सोम आदि इसके देवता हैं। कृष्ण यजुःसंहिता के ब्राह्मण अनुवाक और अनुवाकसमूह में १०२८ सूक्त हैं। मण्डल, को तैत्तिरीय ब्राह्मण तथा आरण्यक को तैत्तिरीय आरण्यक अनुवाक और सूक्त वर्तमान खण्ड, परिच्छेद आदि के कहते हैं । इसके ज्ञानकाण्ड को तैत्तिरीय उपनिषद् कहते नामान्तर है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में २४, द्वितीय में हैं । इसके अतिरिक्त शाखाओं के अनुसार मैत्रायणीय ४, तृतीय में ५, चतुर्थ में ५, पंचम, षष्ठ और सप्तम में उपनिषद्, कठोपनिषद्, श्वेताश्वतर उपनिषद् तथा नारासे प्रत्येक में ६, अष्टम में १०, नवम में ७ और दशम यणोपनिषद् आदि का भी उल्लेख मिलता है। मण्डल में १२ अनुवाक निहित हैं। प्रत्येक मण्डल में सूकों शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी और माध्यन्दिनी संहिता की संख्या क्रमशः १९१, ४३, ६२,५८,८७, ७५, १०४, भी कहते हैं। इसके ऋषि याज्ञवल्क्य हैं। इस संहिता में १०३,११४ और १९१ है । सूक्तों के बहुत से भेद किये ४० अध्याय, २९० अनुवाक और अनेक काण्ड हैं। यहाँ है, यथा-महासूक्त, मध्यमसूक्त, क्षुद्रसूक्त, ऋषिसूक्त, दर्शपौर्णमास, अग्निष्टोम, वाजपेय, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य, छन्दःसुक्त और देवतासूवत । कुछ लोगों के अनुसार ऋग्वेद षोडशी, अश्वमेध, पुरुषमेध आदि यज्ञों का वर्णन है । वैदिक के मन्त्रों की संख्या १०४०२ से १०६२८ तक है, शब्द- युग के सामाजिक रीति-रिवाजों के वर्णन से युक्त इस वेद संख्या १५३८२६ और शब्दांशसंख्या ४३२००० है। की माध्यन्दिनी शाखा में 'शतपथ ब्राह्मण' भी सम्मिलित लेकिन इसमें मतभेद है। है । इसके दो भागों में कुल १४ काण्ड हैं, जिनमें बृहदामहाभाष्य में यद्यपि ऋग्वेद की २१ शाखाओं का रण्यकोपनिषद भी सम्मिलित है। अब पाँचशाखायें भी उपलब्ध नहीं हैं। सामवेद को सहस्र शाखाओं में से मात्र आसूरायणीय, लोगों का अनुमान है कि आजकल केवल शाकल शाखा ही वासूरायणीय, वार्तान्तवेय, प्राञ्जल, ऋग्वर्णभेदा, प्राचीनप्रचलित है। वाष्कल शाखा की मन्त्रसंख्या १०६२२। योग्य, ज्ञानयोग्य, राणायनीय नामों का ही उल्लेख मिलता और शाकल की १०३८१ है, परन्तु वेद का अधिकांश है । राणायनीय के नव भेद इस प्रकार हैं-शाटचायनीय, लुप्त हो जाने के कारण इस गणना में भी मतभेद है। सात्वल, मौद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लाङ्गल, कौथुम, ऋग्वेद के दो ब्राह्मण उपलब्ध हैं-ऐतरेय और कौषीतकि गौतम और जैमिनीय । ये सभी शाखाएँ लुप्त हो गयी है। या सांख्यायन । ऐतरेय ब्राह्मण में आठ पंजिकाएँ, प्रत्येक ____ अब केवल कौथुमी शाखा ही मिलती है। सामवेद के पूर्व पंजिका में पांच अध्याय और प्रत्येक अध्याय कई काण्डों से और उत्तर दो भाग हैं । पूर्व संहिता को छन्द आचिक युक्त है । ऋग्वेद के आरण्यक को ऐतरेय कहते हैं, यह और सप्तसाम नामों से भी अभिहित किया गया है । इसके पाँच आरण्यकों और अठारह अध्यायों से युक्त है। छः प्रपाठक है । सामवेद की उत्तर संहिता को उत्तराचिक यजुर्वेद के दो भाग है-शुक्ल और कृष्ण । इनमें कृष्ण या आरण्यगान भी कहा गया है। इसके ब्राह्मण भाग में यजुर्वेदसंहिता को तैत्तिरीय संहिता भी कहते हैं, जिसकी आर्षेय, देवताध्याय, अद्भुत, ताण्ड्य महाब्राह्मण, साम'चरणव्यूह' के अनुसार ८६ शाखाएँ थीं। महाभाष्य के विधान आदि आठ ब्राह्मण हैं। इनमें ज्ञानकाण्ड का छान्दोग्य अनुसार यजुः को १०१ तथा मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार और केनोपनिषद् प्रमुख हैं। १०९ शाखाएँ थीं, जिनमें आज मात्र १२ शाखायें और १४ अथर्ववेद की मंत्रसंख्या १२३०० है, जिसका अति न्यून उपशाखायें ही उपलब्ध हैं । मंत्रब्राह्मणात्मक कृष्णयजुर्वेद अंश आजकल प्राप्त है। इसकी नौ शाखायें पैप्पल, में कुल १८००० (अठारह हजार ) मन्त्र मिलते हैं। __ दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौत्न, ब्रह्मदावल, शौनक, दैवीदर्शनी Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा है । जिन कृतियों में याज्ञिक समाख्यातत्त्व, अनुष्ठानस्मारकत्व, स्तुतिरूपत्व, आमंत्रणोपेतत्व आदि भाव विद्यमान हों उन्हें मंत्र कहते हैं । इसके अतिरिक्त श्रुतिभाग को ब्राह्मण कहते हैं । सामान्यतः यज्ञ अनुष्ठान के साथ किसी देवता पर लक्षित की गयी श्रुतियाँ मन्त्र हैं और किसी कार्य विशेष में किस मन्त्र का प्रयोग होना चाहिए इसका उल्लेख करके मंत्र की व्याख्या जिन श्रुतियों में की गयी है वे ब्राह्मण है । ब्राह्मणभाग के तीन भेद-विधिरूप, अर्थवादरूप और उभयविलक्षण है । प्रभाकर ने विधि का लक्षण शब्दभावना और लिंगादि प्रयोग से किया है। ताकिकों ने तो इष्टसाधनता को ही विधि कहा है। विधि के चार प्रकार-उत्पत्ति, अधिकार, विनियोग और प्रयोग है । विधि के अवशिष्ट स्तुति-निन्दायुक्त वाक्यसमूह को अर्थवाद कहा गया है। अर्थवाद के तीन प्रकार गुणवाद, अनुवाद और भूतार्थवाद हैं। वेदान्त वाक्य विध्यर्थवाद से विलक्षण हैं पर वे अज्ञातज्ञापक होने पर भी अनुष्ठान के अप्रतिपादक है इसलिए उन्हें विधि नहीं कहते। सब विधियाँ उन्हीं में विलीन होती हैं, इसलिए वे अर्थवाद भी और चरणविद्या में से केवल शौनक शाखा (और पंपलाद शाखा ) ही आज रह गयी है। इसमें २० काण्ड हैं । अथर्ववेद शत्रुपीडन, आत्मरक्षा, विपनिवारण आदि कार्यों के मंत्रों से भरा पड़ा है। ऐसा मालूम पड़ता है कि वर्तमान तांत्रिक साधना इसी से उद्भूत है। अथर्ववेद के ब्राह्मण का नाम गोपथ है। इसके ज्ञानकाण्ड में बहत उपनिषदें थीं और आज भी जाबाल, कैवल्य, आनन्दवल्ली, आरुणेय, तेजोबिन्दु, ध्यानबिन्दु, अमृतबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, नादबिन्दु, प्रश्न, मुण्डक, अथर्वशिरस्, गर्भ, माण्डूक्य, नीलरुद्र आदि उपनिषदें पायी जाती है । _ अथर्ववेद के संकलन के विषय में तीन मत प्रचलित हैं। कुछ लोग अथर्वा और अंगिरा ऋषि के वंशधरों द्वारा, कुछ लोग भृगुवंशियों द्वारा और कुछ लोग अथर्वा ऋषि द्वारा ही इसका संकलन होना बतलाते हैं। ऋक्, साम, यजु और अथर्व में कुछ ऐसे सामान्य सूक्त मिलते हैं जिनसे एक ही वेद से वेदचतुष्टय के निर्माण की संभावना प्रबल हो जाती है। इस सम्बन्ध में सूतसंहिता में स्पष्ट लिखा है कि महर्षि वेदव्यास ने अम्बिकापति की कृपा से वेद के चार भाग किये, जिनमें ऋग्वेद प्रथम, यजुर्वेद द्वितीय, सामवेद तृतीय तथा अथर्ववेद चतुर्थ है। इन विभागों का एक मुख्य प्रयोजन यह है कि ऋग्वेद के द्वारा यज्ञीय होतृप्रयोग, यजुर्वेद से अध्वर्युप्रयोग, सामवेद से उद्गातृ- प्रयोग (ब्रह्मयजमान प्रयोग भी) और अथर्ववेद से शांतिक- पौष्टिक, आभिचारिक आदि यज्ञ, कर्म, देवता व उपासना के रहस्य तथा ज्ञान प्रतिपादक मन्त्रों का विधान होता है। इससे यज्ञप्रतिपादन में पर्याप्त सुविधा मिलती है। शाखाओं के सम्बन्ध में यद्यपि महर्षियों द्वारा निर्धारित इनकी संख्या में भेद है पर वाक्य में कोई विरोध नहीं है । अतः इस भेद का कोई तात्त्विक कारण नहीं है। __ मनुष्य को त्रिविध शुद्धि द्वारा मुक्ति प्रदान करने के लिए ही वेद का कर्म, उपासना और ज्ञान नामक तीन काण्डों में विभाग किया गया है, जो मंत्र, ब्राह्मण तथा आरण्यक वा उपनिषद् नाम से अभिहित हैं । मंत्र या संहिता में उपा- सना, ब्राह्मण में कर्म तथा आरण्यक में ज्ञान की प्रधानता है। उपनिषदें संहिता और ब्राह्मण में ही अन्तर्भूत है इसलिए वेद का विवरण तीन भागों में न करके मंत्र और ब्राह्मण इन दो भागों में ही किया जाता है। महर्षि आप- स्तम्ब और जैमिनि दोनों ने मंत्र और ब्राह्मण को वेद कुछ लोग ब्राह्मण भाग को परतः प्रमाण और संहिता भाग से भिन्न तथा न्यून बतलाते हैं। वस्तुतः वेद मन्त्रब्राह्मणात्मक हैं अतएव ब्राह्मण हर शाखा में हैं । ब्राह्मण भाग में संहिता के मन्त्रों के व्यवहार की क्रियाप्रणाली वर्णित है। कर्म. उपासना और ज्ञान भारतीय वैदिक शिक्षा के मूल आधार हैं और इन्हीं से वेद का वेदत्व है। वेद में उनकी आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सार्थकता तीनों सुरक्षित है। इसीलिए प्रत्येक शाखा में मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिषद् तीनों वर्तमान हैं। स्मृति के अनुसार प्रत्यक्ष या अनुमान से जो कुछ प्राप्त नहीं हो सकता वह वेद से प्राप्त हो जाता है । लौकिक प्रत्यक्ष या अनुमानातीत आध्यात्मिक ब्रह्मपद की प्राप्ति ब्राह्मण भाग की सहायता से ही संभव हो सकती है, क्योंकि उपनिषद् भी ब्राह्मण का भाग है। कर्म, उपासना और ज्ञान में जीव को ब्रह्म भाव में लाने की शक्ति है और इसी कारण वेद की पूर्णता तथा अपौरुषेयता सुरक्षित है । सत्, चित और आनन्द इन तीनों भावों की पूर्ण उपलब्धि से ही ब्रह्मभाव की उपलब्धि होती है। कर्म के द्वारा सद्भाव, उपासना के द्वारा आनन्द भाव तथा ज्ञान के द्वारा ७६ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ वेदत्रयी-वेदाचार चिद्भाव की प्राप्ति होती है। वेद के तीन काण्ड हैं। 'शाश्वत' कहलाते हैं। यही नाम महाभारत के संकलनउसके मन्त्रभाग को उपासना काण्ड, ब्राह्मणभाग को कर्ता, वेदान्तदर्शन के स्थापनकर्ता तथा पुराणों के व्यवकर्मकाण्ड तथा आरण्यक भाग को ज्ञानकाण्ड कहते हैं। स्थापक को भी दिया गया है। ये सभी व्यक्ति वेदव्यास इनमें से एक भी भाग के अभाव में वेद की अपौरुषेयता कहे गये हैं। विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि ये और पूर्णता खण्डित हो जाती है। भाग शब्द भागान्तर सभी एक ही व्यक्ति थे अथवा विभिन्न। भारतीय परम्परा का सूचक है इसलिए केवल मन्त्र ही वेद नहीं हो सकता, इन सबको एक ही व्यक्ति मानती है। महाभारतकार उसमें ब्राह्मण और तदन्तर्गत उपनिषद् की स्थिति भी व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले अनिवार्य है । प्रत्येक भाग में कर्म, उपासना और ज्ञान रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न का वर्णन न्यूनाधिक मात्रा में है, यद्यपि एक में किसी एक हुए थे। अतएव ये सांवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा पक्ष की ही प्रधानता रहती है। जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये । इनकी माता ने __ कुछ आधुनिक विचारकों ने ऋषि-मुनियों और राजाओं बाद में शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र का इतिहास ब्राह्मणों में देखकर उसे वेद कहना अस्वीकार हुए, जिनमें बड़ा चित्राङ्गद युद्ध में मारा गया और छोटा कर दिया है । उन्होंने यह भी कहा है कि इनसे अलग विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया। कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक कोई इतिहास या पुराण नहीं है। वास्तविक बात यह है तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया, किन्तु माता के कि पुराण वेद से भिन्न नहीं हैं । वेद की बातों को ही आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन पुराणों में सरल करके भिन्न भिन्न रूपों में उपस्थित रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये किया गया है । इनमें यत्र-तत्र प्राप्त होने वाले अन्तर्विरोध जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये, इनमें तीसरे विदुर भी तात्त्विक न होकर भाव की भिन्नता के कारण हैं । इस थे। पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है जो ब्रह्मा तरह पुराणों की रचना भावों के अनुसार हुआ करती है। या विष्णु के अवतार कहलाते हैं एवं पृथ्वी पर विभिन्न अतएव पुराणों को ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता । वाज- युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण सनेयी ब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार ऋक् आदि चार वेद, होते हैं। इतिहास, पुराण आदि सभी भगवान् के निःश्वासस्वरूप है। वेदव्रत-यह चतुर्मूर्तिव्रत है । मनुष्य को चैत्र मास से ऋग्वेद वेदत्रयी-प्रारम्भ में वेदमन्त्र अपने छान्दस् रूप में अविभक्त की पूजा करके नक्त विधि से आहार कर वेदपाठ श्रवण थे । उनमें पद्य और गद्य दोनों प्रकार की सामग्री सम्मि- करना चाहिए। ज्येष्ठ मास के अन्तिम दिन दो वस्त्र, लित थी। फिर धीरे-धीरे उनका वर्गीकरण करके तीन सुवर्ण, गौ, घी से परिपूर्ण काँसे के पात्र का दान विहित है। विभाग किये गये-ऋक्, यजु और साम । यही तीन आषाढ़, श्रावण तथा भाद्रपद मास में उसे यजुर्वेद की पूजा वेदत्रयी कहलाते हैं । पहले विभाग का अर्थ है स्तुति और श्रवण करना चाहिए । आश्विन, कार्तिक तथा मार्गअथवा प्रार्थना, दूसरे का अर्थ है यज्ञों में विनियोग करने शीर्ष में सामवेद की तथा पौष, माघ एवं फाल्गुन में समस्त वाले गद्यमय मन्त्र अथवा वाक्य और तीसरे विभाग का वेदों की पूजा एवं पाठ श्रवण करना चाहिए । वस्तुतः अर्थ है गान । वैदिक मन्त्रों को इन्हीं तीन मूल भागों में यह भगवान् वासुदेव की ही पूजा है जो समस्त वेदों के बाँटा जा सकता है। कुछ विद्वान् अथर्ववेद को इससे आत्मा हैं । यह व्रत १२ वर्षपर्यन्त आचरणीय है । इसके पृथक् समझते हैं किन्तु वास्तव में अथर्ववेद इन्हीं तीनों ___ आचरण से व्रती समस्त संकटों से मुक्त होकर विष्णुलोक से बना हुआ संग्रह है। यह वेद का चतुर्विध नहीं अपितु प्राप्त कर लेता है। त्रिविध विभाजन है। वेदसार वीरशैवचिन्तामणि-यह नजनाचार्य विरचित वेदव्यास-व्यास का अर्थ है 'सम्पादक' । यह उपाधि अनेक वीर शैव सम्प्रदाय का एक प्रमुख ग्रन्थ है। पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है, किन्तु विशेषकर वेदाचार-तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में विभक्त वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले हैं। कुलार्णवतन्त्र के मत से वेदाचार श्रेष्ठ है, वेदाचार से उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण वैष्णवाचार उत्तम है, वैष्णवाचार से शैवाचार उत्कृष्ट है, Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंदाज वेदान्तकौस्तुभ शैवाचार से दक्षिणाचार महान् है, दक्षिणाचार से वामाचार श्रेष्ठ है, वामाचार से सिद्धान्ताचार उत्तम है तथा सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार परम उत्तम है । प्राणतोषिणीधृत नित्यानन्दतन्त्र में लिखा है कि शिव पार्वती से कह रहे हैं : " हे सुन्दरि ! वेदाचार का वर्णन करता हूँ, तुम सुनो। साधक ब्राह्म मुहूर्त में उठे और गुरु के नाम के अन्त में आनन्दनाथ बोलकर उनको प्रणाम करे | फिर सहस्रदल पद्म में उनका ध्यान करके पञ्च उपचारों से पूजा करें और वाग्भव बीज का जप करके परम कलाशक्ति का ध्यान करे ।" महाराष्ट्र के वैदिकों में वेदाचार का प्रचार है । वेदाङ्ग – वेदों के सहायक शास्त्र, जिनकी संख्या छः है । वेदों के पाठ अर्थज्ञान, यज्ञों में उनकी उपयोगिता आदि जानने के लिए इन छः शास्त्रों की आवश्यकता होती है : ( १ ) शिक्षा ( २ ) कल्प ( ३ ) व्याकरण (४) निरुक्त (५) छन्द और (६) ज्योतिष जैसे मनुष्य के आंख, कान, नाक, मुख, हाथ और पाँव होते हैं वैसे ही वेदों के लिए आँख ज्योतिष है, कान निरुक्त है, नाक शिक्षा है, मुख व्याकरण है, हाथ कल्प हैं और पाँव छन्द हैं (पाणिनीय शिक्षा ४१-४२) । उच्चारण के सम्बन्ध में उपदेश शिक्षा है। यज्ञ यागादि कर्म सम्बन्धी विधि कल्प है । शब्दों के सम्बन्ध में विचार व्याकरण है और उनकी व्युत्पत्ति और अर्थ के सम्बन्ध में विचार निरुक्त है । वैदिक छन्दों के सम्बन्ध का ज्ञान छन्द अथवा पिङ्गल है । यज्ञ-यागादि करने के योग्य अयन ऋतु, संवत्सर, मुहूर्त का विचार और तत्सम्बन्धी ज्ञान ज्योतिष है । वेद के ज्ञान की पूर्ति इन विषयों का अलग अलग अध्ययन किये बिना नहीं हो सकती । (वेदाङ्गों का विस्तृत परिचय उनके नामगत परिचय में देखिए 1) वेदान्त यह शब्द 'वेद' और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है, अतः इसका वाक्यार्थ वेद अथवा वेदों IT अन्तिम भाग है । वैदिक साहित्य मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है, पहले का नाम है 'कर्मकाण्ड', दूसरे का नाम है 'ज्ञानकाण्ड', तीसरे का नाम है 'उपासनाकाण्ट' । साधारणतः वैदिक साहित्य के ब्राह्मण भाग को, जिसका सम्बन्ध यज्ञों से है, कर्मकाण्ड कहते हैं और उपनिषदें ज्ञानकाण्ड कहलाती हैं, जिसमें उपासना भी सम्मिलित है । अन्त शब्द का अर्थ क्रमशः 'तात्पर्य', 'सिद्धान्त' तथा ६०५ 'आन्तरिक अभिप्राय' अथवा मन्तब्य भी किया गया है। उपनिषदों के मार्मिक अध्ययन से पता चलता है कि उन ऋषियों ने, जिनके नाम तथा जिनका मत इनमें पाया जाता है, अन्त शब्द का अर्थ इसी रूप में किया है । उनके मत के अनुसार वेद वा ज्ञान का अन्त अर्थात् पर्यवसान ब्रह्मज्ञान में है । देवी-देव, मनुष्य, पशु-पक्षी, स्थावरजङ्गमात्मक सारा विश्वप्रपञ्च नाम रूपात्मक जगत् ब्रह्म से भिन्न नहीं; यही वेदान्त अर्थात् वेदसिद्धान्त है जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, जो कुछ नाम रूप से सम्बोधित होता है, उसकी सत्ता ब्रह्म की सत्ता से भिन्न नहीं। मनुष्य का एक मात्र कर्तव्य ब्रह्मज्ञान प्राप्ति, ब्रह्ममयता, ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति है। यही एक बात वेदों का मौलिक सिद्धान्त, अन्तिम तात्पर्य तथा सर्वोच्च सर्वमान्य अभिप्राय है। यही वेदान्त शब्द का मूलार्थ है । इस अर्थ में वेदान्त शब्द से उपनिषद् ग्रन्थों का साक्षात् बोध होता है । परवर्ती काल में वेदान्त का तात्पर्य वह दार्शनिक सम्प्रदाय भी हो गया जो उपनिषदों के आधार पर केवल ब्रह्म की ही एक मात्र सत्ता मानता है । कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसम्प्रदाय भी है, जैसे अ वाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैतवाद आदि । वेदान्तकल्पतरु - अद्वैत वेदान्त का एक ग्रन्थ, जिसकी रचना १२६० ई० के कुछ पूर्व अमलानन्द द्वारा हुई। ब्रह्मसूत्रभाष्य के ऊपर यह वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या है वेदान्तकल्पतरुपरिमल - ' भामती' - व्याख्या 'वेदान्तकल्पतरु' की यह अप्पयदीक्षित कृत टीका है। वेदान्तकल्पलतिका - स्वामी मधुसूदन सरस्वतीकृत वेदान्तविषयक एक ग्रन्थ । इसका रचनाकाल १५५० ई० के आसपास है । वेदान्तकारिकावली -- विशिष्टाद्वैत वेदान्ती बुच्चि वेङ्कटाचार्य ने वेदान्तकारिकावली ग्रन्थ की रचना की। इसमें रामानुजाचार्यसम्मत पदार्थों और सिद्धान्तों का सारांश लिखा गया है । यह ग्रन्थ पद्य में है । बुच्चि वेदाचार्य रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी थे । वेदान्तकौस्तुभ - निम्बार्क सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य श्रीनिवास विरचित वेदान्तसूत्र का तार्किक भाष्य । यह द्वैता - द्वैत सिद्धान्त का अधिकारी ग्रन्थ है रचना सुदीर्घ, गम्भीर तथा दार्शनिकों में बहु आदूत है । रचनाकाल लगभग १२वीं शताब्दी था । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ वेदान्तकोमा निम्बार्क सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य श्रीनिवासकृत 'वेदान्त कौस्तुभ' भाष्य की व्याख्या, जिसके रचयिता केशव काश्मीरी भट्ट है। इनका समय सोलहवीं शताब्दी का आरम्भिक काल या केशव काश्मीरी जितने उच्च कोटि के दार्शनिक और दिग्विजयी विद्वान् थे उससे अधिक कृष्ण भगवान् के गम्भीर उपासक थे। वेदान्तजाह्नवी-सातवादी वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार रची गयी वेदान्तसूत्र की एक टीका । इसके लेखक श्रीदेवाचार्य ने निम्बार्कमत का प्रतिपादन करते हुए प्रस्तुत ग्रन्थ में अर्द्धतवाद का खण्डन किया है। वेदान्ततस्वबोधनिम्बार्काचार्य विरचित ग्रन्थों में इसका नाम भी लिया जाता है । सम्भवतः इसके रचनाकार सम्प्रदाय के कोई परवर्ती आचार्य हैं । वेदान्ततस्वविवेक -भट्टोजिदीक्षित विरचित एक अद्वैतवेदान्त का ग्रन्थ । आचार्य दीक्षित सुप्रसिद्ध वैयाकरण होने के साथ ही मीमांसक और वेदान्ती भी थे। इन्होंने दो वेदान्तग्रन्थ लिखे हैं। इनमें वेदान्तकौस्तुभ तो प्रकाशित है, वेदान्ततत्वविवेक संभवतः अभी तक प्रकाशित नहीं है। वेदान्तदर्शन वह विद्या अथवा शास्त्र, जो वेद के अन्तिम अथवा चरम तत्त्व का विवेचन करता है, वेदान्तदर्शन कहलाता है । उपनिषदों के ज्ञान को एकत्र समन्वित करने के लिए महर्षि बादरायण ने 'ब्रह्मसूत्र' या 'वेदान्तसूत्र' लिखा। इसी को वेदान्तदर्शन कहा जाता है। उपनिषदों या वेदों के तत्वज्ञान को समन्वित करने वाली भगवदगीता भी है। कुछ लोगों के मत से वह स्वयं उपनिषद् है अतः ये तीनों वेदान्त के प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं। इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता इन तोनों को या इनमें से किसी एक को प्रधान मानकर चलने वाले दार्शनिकों के सिद्धान्त को वेदान्तदर्शन कहा जाता है । शंकर, भास्कर, रामानुज, निम्बार्क, मध्य, श्रीकण्ठ, श्रीपति, वल्लभ, विज्ञानभिक्षु और बलदेव 'ब्रह्मसूत्र' के प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं। ― इन सभी भाष्यकारों ने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या अपने अपने ढंग से की है । वेदान्तसूत्रों को बिना किसी भाष्य के समझना कठिन है । शङ्कर, निम्बार्क, रामानुज, मध्व एवं वल्लभ में से प्रत्येक को कुछ न कुछ लोग वेदान्त वेदान्तकौस्तुभप्रभा वेदान्तदर्शन सूत्र का सर्वश्रेष्ठ भाष्यकार कहते हैं। इनमें शाङ्कर भाष्य सबसे प्राचीन है । अतः प्रायः शंकर के दर्शन को ही बाद रायण का दर्शन माना जाता है। अपने देश तथा पाश्चात्य देशों में भी लोग शक्रूर के ही दर्शन को वेदान्तदर्शन मानते हैं । ब्रह्मसूत्र के सभी भाष्यकारों में इस बात पर मक्य है कि वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त ब्रह्मवाद है और इसकी सुन्दर तथा पर्याप्त अभिव्यक्ति 'ब्रह्मसूत्र' के प्रथम चार सूत्रों या चतुःसूत्री में हो गयी है। (१) 'जयातो ब्रह्मजि ज्ञासा' (२) 'जम्माद्यस्य यतः (२) 'शास्त्रयोनित्वात्' और (४) ' तत्तु समन्वयात्', ये ही चार सूत्र हैं । इनका अर्थ है - ( १ ) वेदान्त समझने के लिए 'ब्रह्म की जिज्ञासा' होनी चाहिए । (२) ब्रह्म वह है जो जगत् का मूल स्रोत, आधार तथा लक्ष्य है । जगत् उसी से बनता है, उसी में स्थित है तथा उसी में इसका लय भी होगा । ( 3 ) ब्रह्म को शास्त्र से ही अर्थात् उपनिषदों (वेदवचनों से ही जाना जा सकता है। (४) उपनिषदों का समन्वय वेदान्त की शिक्षा से होता है, अन्य दर्शनों की शिक्षा से नहीं । ब्रह्म का स्वरूप ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध, ब्रह्म और जीव का सम्बन्ध केवल ज्ञान से मुक्ति या भक्ति-कर्मसमुच्चित ज्ञान से मुक्ति, जीवन्मुक्ति या विदेह मुक्ति या सद्योमुक्ति आदि वेदान्तियों के मतभेद के मुख्य विषय हैं। ब्रह्मसूत्र का दार्शनिक मत निम्नलिखित है-ब्रह्म एक है तथा निराकार (अकल) है वह श्रुतियों का स्रोत हैं तथा सर्वज्ञ है, उसे केवल शास्त्रों के द्वारा जाना जा सकता है, वह सृष्टि का उपादान एवं अन्तिम कारण है, वह इच्छारहित है तथा क्रियाहीन है। उसके दृश्य कार्य लीला हैं । विश्व का, जिसकी उसके द्वारा समय समय पर सृष्टि होती है, आदि व अन्त नहीं है । शास्त्र भी शाश्वत है । देवता हैं तथा वे वेदविहित यज्ञों में दिये गये पदार्थों से अपना भाग प्राप्त करते हैं। जीवात्मा भी वास्तव नित्य, ज्ञानमय एवं सर्वव्याप्त है । यह ब्रह्म का ही अंश है; यह ब्रह्म है। इसका व्यक्तित्व केवल दृष्टिभ्रान्ति है । यज्ञ मनुष्य को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने में सहायता पहुँचाते हैं, मोक्ष केवल ज्ञान से ही प्राप्त होता है । ब्रह्म से कार्यों का फल प्राप्त होता है, और इसी कारण से पुनर्जन्म एवं उसी से मोक्ष भी मिलता है । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदान्तदेशिक-वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ६०५ वेदान्तसूत्रों को भाष्य के विना समझना बड़ा कठिन विद्वान् भी यह मानते हैं कि इसके सिद्धान्तों में सर्वत्र है। इसीलिए अनेक विद्वानों ने इस पर भाष्य प्रस्तुत ईश्वरतत्त्व विराजमान है। किये हैं। वे दो श्रेणियों में रखे जा सकते हैं : (१) जो वेदान्तपरिभाषा-धर्मराज अध्वरीन्द्र इस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के शङ्कराचार्य (७८८-८२० ई.) के मतानुगामी है एवं प्रणेता थे । यह अद्वैत सिद्धान्त का अत्यन्त उपयोगी जीवात्मा को ब्रह्मस्वरूप मानते हैं तथा एक अद्वैत तत्त्व को प्रकरण ग्रन्थ है। इसके ऊपर बहुत सी टीकाएँ हुई है स्वीकार करते हुए भौतिक जगत् को माया मात्र बतलाते और भिन्न भिन्न स्थानों से इसके अनेक संस्करण प्रकाहैं । (२) जो ब्रह्म को सगुण साकार मानते हैं, विश्व को शित हुए हैं । अद्वैत वेदान्त का रहस्य समझने के लिए न्यूनाधिक सत्य मानते हैं, जीवात्मा को ब्रह्म से भिन्न मानते इसका अध्ययन बहुत उपयोगी है। हैं । इस श्रेणी के प्रतिनिधि रामानुजाचार्य हैं जो ११०० वेदान्तपारिजातसौरभ-चार वैष्णव संप्रदायों के एक प्रधान ई० के लगभग हुए थे। ह्विटने ने इस प्रश्न पर विस्तृत आचार्य निम्बार्क का निर्विवाद रूप से एक ही दार्शनिक विवेचन किया है कि शङ्कर तथा रामानुज में से ग्रन्थ 'वेदान्तपारिजातसौरभ' प्राप्त है । यह वेदान्तसूत्र की कौन ब्रह्मसूत्र के समीप है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँ- सक्षिप्त व्याख्या है। श्रीनिवासाचार्य ने इसका विस्तृत चता है कि ब्रह्मसूत्र की शिक्षाओं तथा रामानुज के मतों भाष्य 'वेदान्तकौस्तुभ' नाम से लिखा है तथा उस में अधिक सामीप्य है, अपेक्षाकृत शङ्कर के। दूसरी तरफ पर काश्मीरी केशवाचार्य ने प्रभा नामक प्रखर व्याख्या वह शङ्कर की शिक्षाओं को उपनिषदों की शिक्षा के लिखी है। समीप ठहराता है । इस तथ्य की कल्पना वह इस बात से वेदान्तप्रदीप-रामानुजाचार्य द्वारा विरचित एक ग्रन्थ । करता है कि सूत्रों की शिक्षा भगवद्गीता से कुछ सीमा । इसमें इन्होंने यादवप्रकाश के मत का खण्डन किया है। तक प्रभावित है। यादवप्रकाश अद्वैतवादी आचार्य थे जिनके पास प्रारम्भ जीवात्मा तथा ब्रह्म के सम्बन्ध को लेकर तीन सिद्धान्त में रामानुज ने शिक्षा पायी थी । किंवदन्ती है कि यादवजो परवर्ती भाज्यों में पाये जाते हैं, वे बादरायण के पूर्व प्रकाश आगे चलकर रामानुज के शिष्य हो गये। वर्ती आचार्यों द्वारा ही स्थापित हैं। आश्मरथ्य के मता वेदान्तरत्न-निम्बार्काचार्य द्वारा केवल दस पद्यों में सूत्र नुसार न तो आत्मा ब्रह्म से भिन्न है, न अभिन्न है; इस ___रूप से विरचित 'वेदान्तरत्न' के अन्य नाम 'वेदान्तकामसिद्धान्त को भेदाभेद की संज्ञा दी गयी है। औडुलोमि के धेनु', 'दशश्लोकी' एवं 'सिद्धान्तरत्न' भी हैं। अनुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है; उस समय तक वेदान्तरत्नमञ्जूषा--पुरुषोत्तमाचार्य विरचित वेदान्तरत्नजब तक कि यह मोक्ष प्राप्त कर उसमें विलीन नहीं होता। मञ्जूषा वेदान्तकामधेनु या दशश्लोकी का भाष्य है। इस मत को सत्यभेद या द्वैतवाद कहते हैं । काशकृत्स्न इसमें निम्बार्कीय द्वैताद्वैत मत की व्याख्या की गयी है। के मतानुसार आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल अभिन्न है । इस वेदान्तविजय-दोद्दय भट्टाचार्य रामानुजदास कृत वेदान्तप्रकार वे अद्वैत मत के संस्थापक हैं। विजय, में रामानुजमत की पुष्टि की गयी है। वेदान्तदेशिक-एक प्रसिद्ध विशिष्टाद्वैती आचार्य । इनका वेदान्तसार-(१) सदानन्द योगीन्द्र द्वारा रचित (१६वीं शतो) अद्वैत वेदान्त का सुप्रचलित प्रकरण ग्रन्थ । यह सरल अन्य नाम था वेङ्कटनाथ (देखिए 'वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य') । मीमांसादर्शन अनीश्वरवादी कहा जाता है, क्यों होने के साथ ही लोकप्रिय भी है। नृसिंह सरस्वती ने इसकी सुबोधिनी नामक टीका लिखी है। रामतीर्थ स्वामी ने कि इसने कहीं भी परमात्मा को स्वीकार नहीं किया है ।। भी इसकी टीका लिखी है । किन्तु मातों को इससे बाधा नहीं पड़ती एवं वे सभी उपनिषद्वणित ब्रह्म को स्वीकार करते हैं। वेदान्त (२) रामानुजाचार्य की प्रमुख कृतियों में एक प्रसिद्ध देशिक ने अपनी 'सेश्वरमीमांसा' (जो जैमिनीय मीमांसा- ग्रन्थ वेदान्तसार है। सूत्रों की व्याख्या है) में दर्शाया है कि मीमांसाचार्य कुमा- वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली-इस ग्रन्थ के रचयिता हैं रिल भद्र ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा अन्य प्रकाशानन्द यति । इसकी विवेचनशैली बहुत युक्तियुक्त, Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ वेदान्तसूत्र-वेदि(वेदिका) पाण्डित्यपूर्ण और प्राञ्जल है । इसमें गद्य में विवेचना कृत वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम 'वेदान्तस्यमन्तक' है । यह करके पद्य में सिद्धान्त निरूपण किया गया है । इसके ऊपर गौडीय चैतन्य मतानुसार लिखा गया है। अप्पयदीक्षित की सिद्धान्तदीपिका नाम की वृत्ति है। वेदान्ताचार्य-वेदान्ताचार्यों की परम्परा का प्रारम्भ इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। बादरायण के ब्रह्मसूत्र रचनाकाल के बहुत पहले हो चुका वेदान्तसूत्र-वेदान्तसूत्र को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसके था। कहा जा चुका है कि बादरायण के पूर्व अनेक आचार्य रचयिता बादरायण व्यास हैं । इन्होंने उपनिषदों को समग्र वेदान्त के सम्बन्ध में विभिन्न मतों के मानने वाले हो दार्शनिक सामग्री का आलोचन कर इसकी रचना की, जो चुके थे। बादरायण ने केवल उन सबके मतों का अपने सूत्रों वेदान्त की प्रस्थानत्रयी' का दूसरा प्रस्थान है। यह में संकलन और समन्वय किया है। इन आचार्यों के नाम - चार अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय में चार स्थान-स्थान पर सूत्रों में आ गये हैं। इस परम्परा का पाद हैं । शङ्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मसूत्रों की अधिकरण क्रम आज तक चला आ रहा है। इस लम्बी परम्परा को संख्या १९१, बलदेवभाष्य के अनुसार १९.., श्रीकण्ठ के कालक्रम से तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं : अनुसार १८२, रामानुज के अनुसार १५६, निम्बार्क के (१) बादरायण के पूर्व के वेदान्ताचार्य-जिनमें बादरि, अनुसार १५१, वल्लभाचार्य के अणुभाष्य के अनुसार १६२ कार्णाजिनि, आत्रय, औडुलोमि, आश्मरथ्य, काशकृत्स्न, जैमिनि, काश्यप एवं बादरायणि के नाम हैं । और मध्व के अनुसार २२३ है । प्रचलित पाठ के अनुसार (२) बादरायण के पश्चात् एवं शङ्कर के पूर्व के ब्रह्मसूत्रों की सूत्रसंख्या ५५६ होनी चाहिए । वेदान्ताचार्य-शङ्कर ने अपने भाष्य में इनकी चर्चा की इसके प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है । इसमें है तथा दार्शनिक साहित्य में भी इनका जहाँ तहाँ उल्लेख ब्रह्म के सम्बन्ध में विभिन्न श्रुतियों का समन्वय किया मिलता है । ये हैं भर्तृप्रपंच, ब्रह्मनन्दी, टङ्क, गुहदेव, गया है। दूसरा अध्याय 'अविरोध' है, जिसमें अन्य दर्शनों भारुचि, कपर्दी, उपवर्ष, बोधायन, भर्तृहरि, सुन्दर पाण्ड्य, का खण्डन कर युक्ति और प्रमाणों से वेदान्तमत की स्था- द्रमिडाचार्य, ब्रह्मदत्त आदि । पना की गयी है। तीसरे अध्याय का नाम 'साधन' है । (३) शङ्कर के पश्चादवर्ती वेदान्ताचार्य-ये दो विभागों इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का प्रतिपादन है तथा मुक्ति में विभाजित हैं; शङ्करमतानुयायी तथा रामानुजमतानुके बहिरंग एवं अन्तरंग साधनों का विवेचन है । ब्रह्मसूत्र यायी । इन सभी आचार्यों का यहाँ वर्णन उपस्थित करना के चौथे अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, पुनरावृत्ति होगी। इनका परिचय यथास्थान देखिए । निर्गुणसगुण उपासना तथा मुक्त पुरुष का वर्णन है। वेदार्थसंग्रह-आचार्य रामानुज द्वारा रचित दार्शनिक वेदान्तसूत्रभाष्य-(१) ( अन्य नाम शारीरक भाष्य ) के ग्रन्थों में तीन अति महत्त्वपूर्ण है-(१) वेदार्थसंग्रह (२) रचयिता शङ्कराचार्य है। यह अद्वैत वेदान्त मत की श्रीभाष्य (वेदान्तसूत्र का भाष्य) और (३) गीताभाष्य । स्थापना करता है। वेदार्थसंग्रह में आचार्य ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि (२) आचार्य मध्वरचित वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम उपनिषदें शुष्क अद्वैत मत का प्रतिपादन नहीं करतीं । 'पूर्णप्रज्ञ भाष्य' है । यह द्वैतवाद का प्रतिपादक है। सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य ने वेदार्थसंग्रह की तात्पर्यदी(३) आचार्य रामानुज के वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम । पिका नामक टीका लिखी है। 'श्रीभाष्य है। वेदि (वेदिका)-यज्ञाग्नि या कलश आदि स्थापित करने का (४) निम्बार्काचार्य के संक्षिप्त वेदान्तसूत्र भाष्य या छोटा चबूतरा । वैदिक काल में यज्ञ खुले मैदान में यज्ञकर्ता विवृति का नाम 'वेदान्तपारिजात सौरभ' है। के घर के समीप आच्छादित मण्डप के नीचे होता था। (५) वल्लभाचार्यरचित वेदान्तसूत्रभाष्य को 'अणु- 'वेदि' शब्द उस क्षेत्र का बोधक है जिसके ऊपर यज्ञ क्रिया भाष्य' कहते हैं। इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का सम्पन्न होती थी। इसके ऊपर ( वेदि पर ) कुश बिछाये अन्त या १६वीं का प्रारम्भ है । जाते थे जिससे देवता आकर उस पर बैठे; फिर उस पर (६) आचार्य बलदेव विद्याभूषण (अठारहवीं शती) यज्ञसामाग्री-दुग्ध, घृत, अन्न, पिण्डादि रखे जाते थे। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदेश-वैदिकशाक्तमत वेदि पर ही यज्ञाग्नि प्रज्वलित कर यज्ञसामग्रियों का हवन मरण नामक स्थान पर मारा गया था। तैत्तिरीय आ० अध्वर्यु द्वारा होता था। इसकी निर्माणविधि शुल्बसूत्रों (१.२३.३) में भी इसकी चर्चा है। इनमें से एक व्यक्ति से निर्धारित होती है। वैखानसपुरुहन्ता कहा जाता था। वेदेश-आचार्य वेदेशतीर्थ मध्वमतावलम्बी हरिभक्त थे। वैखानसगृह्यसूत्र-यह कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र है । इन्होंने पदार्थकौमुदी, तत्त्वोद्योतटीका की वृत्ति, कठोपनिषद् वैखानसधर्मसूत्र-पाँच प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से एक । यह वृत्ति, केनोपनिषद् वृत्ति तथा छान्दोग्योपनिषद् आदि की वृत्ति सभी शाखाओं के लिए उपयोगी है । द्वितीय श्रेणी के विरचित की है। इनका समय प्रायः अठारहवीं शती था। धर्मसूत्रों में भी यह मुख्य समझा जाता है। वेश्यावत–वेश्याओं को अपने उद्धार के लिए गौओं, खेतों, वैखानससंहिता-आगमसंहिताएँ दो प्रकार की है, पाञ्चदेवोद्यान तथा सुवर्णादि का दान करना चाहिए तथा जिस रात्र और वैखानस । किसी वैष्णव मन्दिर में पाञ्चरात्र रविवार को हस्त, पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हो उस दिन वे तथा किसी में वैखानससंहिताएँ प्रमाण मानी जाती हैं। सौषधि युक्त जल से स्नान करें। स्नानोपरान्त कामदेव वैखानससंहिताएँ और उनमें भी विशेषतः भागवतका आपाद-मस्तक पूजन करें तथा कामदेव को विष्णु भग- संहिता नाम की एक विशेष संहिता हरि-हर की एकता वान् ही मानें । एक वर्ष के लिए विष्णुपूजा का नियम सम्पादन करने के लिए लिखी गयी जान पड़ती है। पालें, तेरहवें मास पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सुवर्णशृखला तथा वैतरणीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को वैतरणी तिथि कामदेव की प्रतिमा का दान करें। यह व्रत समस्त वेश्याओं कहा गया है । उस दिन व्रतकर्ता नियमों का पालन (कुछ के लिए उपयोगी है। अनङ्ग (प्रेम का देवता) ही इसका प्रतिषिद्ध आचरणों का त्याग) करे। रात्रि के समय एक देवता है । कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, २७-३१) में इस व्रत का श्यामा गौ की मुख की ओर से प्रारम्भ कर पूँछ तक के उल्लेख मिलता है। भाग की पूजा करनी चाहिए। उसके चरणों तथा सींगों वैकुण्ठ-आगमसंहिताओं के सिद्धान्तानुसार वैकुण्ठ सबसे को चन्दन से सुवासित जल से धोना तथा पौराणिक मन्त्रों ऊँचे स्वर्ग को कहते हैं। कोई जीवात्मा ज्ञानलाभ तथा से उसके शरीरावयवों की आराधना करनी चाहिए । चूंकि मोक्ष प्राप्ति ईश्वरकृपा के बिना नहीं कर सकता। ईश्वर- नरक लोक में मनुष्य गौ की सहायता से ही वैतरणी नदी कृपा और भक्ति से वह ईश्वर में विलीन नहीं होता, अपितु को पार करता है, अतएव यह एकादशी, जिसको गौ की वैकुण्ठ में ईश्वर का सायुज्य प्राप्त करता है। पूजा होती है, वैतरणी एकादशी कहलाती है। इस व्रत वैकुण्ठचतुर्वशी-(१) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी । इस दिन का आयोजन वर्ष के चार-चार मासों के तीन भागों में भगवान् विष्णु की पूजा रात्रि में की जानी चाहिए। दे० करना चाहिए । मार्गशीर्ष मास के प्रथम भाग में उबाला निर्णयसिन्धु, २०६। हुआ चावल, द्वितीय में पकाया हुआ जौ तथा तृतीय भाग (२) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को हेमलम्ब संवत्सर के में खीर अपित करनी चाहिए । कूल नैवेद्य का सवाया भाग समय भगवान् विश्वेश्वर ने ब्राह्म मुहूर्त में काशी के मणि- गौ को, सवाया भाग पुरोहित को तथा शेष भाग स्वयं कणिका तीर्थ में स्नान किया था। उन्होंने पाशुपत व्रत व्रती को ग्रहण करना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यङ्कोपभी किया था तथा उमा के साथ विश्वेश्वर की पूजा तथा योगी वस्त्र, सोने की गौ तथा एक द्रोण लोहा पुरोहित स्थापना भी की थी। को दान करना चाहिए । वैखानस-(१) वानप्रस्थ (तृतीय आश्रमी) के लिए प्रारंभ वैतानश्रौतसूत्र-अथर्ववेद का एक मात्र श्रौतसूत्र यही उपमें वैखानस शब्द का प्रयोग होता था। वैखानस 'विख- लब्ध है। नस्' से बना है, जिसका अर्थ नियमों का परम्परागत वैदिकशाक्तमत-निगमानुमोदित तान्त्रिक विधान ही वैदिक रचयिता है। गौतमधर्मसूत्र (३.२६) में उपर्युक्त अर्थ शाक्त मत, दक्षिण मार्ग अथवा दक्षिणाचार कहा जाता है। में यह शब्द व्यवहृत हुआ है। ऋग्वेद के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में "इयं शुष्मेभिः" (२) पौराणिक ऋषियों का समूह, जो पञ्चविंश ब्राह्मण प्रभृति मन्त्रों से पहले नदी का स्तवन है, फिर देवता रूप (१४.४.७) के अनुसार 'रहस्य देवमलिम्लुच' द्वारा मुनि- में महाशक्ति एवं सरस्वती का स्तवन है। सामवेद वाचं 10 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ वैतानसूत्र-वैरदेय यमव्रत में "हुवाइ वाम्' इत्यादि तथा ज्योतिष्टोम में में हुआ तथा इसी की रतह चीन आदि देशों से भारत में "वाग्विसर्जन" स्तोम आता है। अरण्यगान में भी इसके वामाचार का भी आगमन हुआ । गान है। यजुर्वेद के एक स्थल (२.२) में “सरस्वत्यै स्वाहा' वैतानसूत्र-अथर्ववेद के पांच सूत्र ग्रन्थ है-कौशिकसूत्र, मन्त्र से आहुति देने का विधान है, पाँचवें अध्याय के तानसूत्र, नक्षत्रकल्पसूत्र, आङ्गिरसकल्पसूत्र और शान्तिसोलहवें मन्त्र में पृथिवी और अदिति देवियों की चर्चा कल्पसूत्र । 'वैतानसूत्र' में अयनान्त निष्पाद्य, त्रयीविहित है। सत्रहवें अध्याय, मन्त्र ५५ में पाँचों दिशाओं से दर्शपूर्णमासयज्ञादि कर्मों के ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीध्र विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम, और होता इन चार ऋत्विजों के कर्तव्य बताये गये हैं। ब्रह्मा, इन पाँच देवताओं की शक्तियों (देवियों) का आवा- वैदिकसिद्धान्तसंग्रह-अद्वैत मतावलम्बी नृसिंहाश्रम सरहन किया गया है। अथर्ववेद के चौथे काण्ड के तीसवें स्वती के ग्रन्थों में यह रचना बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान सूक्त में (अहं रुद्रेभिः वसुभिः चरामि अहम् आदित्यै रुत रखती है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव की एकता सिद्ध विश्वदेवः) महाशक्ति कहती है कि मैं समस्त देवताओं के की गयी है और बतलाया गया है कि ये तीनों एक ही साथ हूँ, सबमें व्याप्त रहती हूँ। केनोपनिषद् में "बहु परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र हैं ।। शोभमाना उमा हैमवती" ब्रह्मविद्या महाशक्ति द्वारा प्रकट वैद्यनाथधाम-विहार प्रदेशस्थ प्रसिद्ध शैव तीर्थ । वैद्यनाथ होकर ब्रह्म निर्देश करना वर्णित है । अथर्वशीर्ष, देवीसूक्त द्वादश ज्योतिलिङ्गों में हैं। ५१ शक्तिपीठों में यह एक और श्रीसूक्त तो शक्ति के ही स्तवन हैं। वैदिक शाक्त पीठ भी है। कुछ लोग हैदराबाद के समीपस्थ परली घोषित करते हैं कि दशोपनिषदों में दसों महाविद्याओं का वैद्यनाथ को द्वादश ज्योतिलिङ्गों में मानते हैं। किन्तु ब्रह्मरूप में वर्णन है। इस प्रकार शाक्तमत का आधार "वैद्यनाथं चिताभूमौ" के अनुसार यही मुख्य वैद्यनाथ है । श्रुति ही है। इस स्थान का अन्य नाम देवघर है । अपनी कामनाओं को देवीभागवत, देवीपुराण, कालिकापुराण, मार्कण्डेयपुराण पूर्ण करने के लिए लोग मन्दिर में धरना देकर निर्जल शक्ति के माहात्म्य से ही व्याप्त हैं। महाभारत तथा पड़े रहते हैं। जो बराबर टिके रहते हैं उनकी कामना रामायण में देवी की स्तुतियाँ हैं और अद्भुत रामायण पूर्ण होती है । यहाँ दर्शनीय स्थान गौरीमन्दिर, कार्तिकेयमें तो अखिल विश्व की जननी सीताजी का परात्पर मन्दिर आदि हैं। शक्तिवाला रूप प्रकट करके बहुत सुन्दर स्तुति की गयी वैनायकीचतुर्थी-प्रत्येक चतुर्थी को यह व्रत होता है। इसमें है। प्राचीन पाञ्चरात्र मत का 'नारदपञ्चरात्र' प्रसिद्ध दिन में उपवास तथा रात में चन्द्रोदय के पश्चात् भोजन वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा करने की विधि है। विस्तार से कही गयी है । निदान, श्रुति-स्मृति में शक्ति की वैयासिकन्यायमाला-व्यास रचित ब्रह्मसूत्र के विषयों की उपासना जहाँ-तहाँ उसी प्रकार प्रकट है, जिस तरह विष्णु माला । आचार्य भारती तीर्थ शाङ्करमत के अनुयायी थे । और शिव की उपासना देखी जाती है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने इस मत की व्याख्या करने के लिए ही 'वैयासिकशाक्तमत के वर्तमान साम्प्रदायिक रूप का आधार श्रुति- न्यायमाला' की रचना की । शाङ्करमतानुसार ब्रह्मसूत्र का स्मृति हैं और यह मत उतना ही प्राचीन है जितना वैदिक तात्पर्य समझने के लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपयोगी माना साहित्य । उसकी व्यापकता तो इतनी है कि जितने सम्प्र- जाता है । यह ग्रन्थ सरल और सुबोध गद्य-पद्यों में लिखा दायों का वर्णन ऊपर किया गया है वे सब बिना अप- गया है। वाद के अपने उपास्य की शक्तियों को परम उपास्य वैरदेय-संहिताओं तथा ब्राह्मणों में इसका अर्थ ऐसा धन मानते हैं और एक न एक रूप में शक्ति की उपासना है, जो किसी मनुष्य का प्राण लेने के बदले में उसके सम्बकरते हैं। जहाँ तक शैवमत वेदबोधित नियमों पर धियों को देना पड़े। यह अर्थ आपस्तम्ब तथा बौधायन आधारित है, वहाँ तक शाक्तमत भी वैसा ही नियमानु शाक्तमत भा वसा ही नियमानु- सूत्रों में भी प्रयुक्त हआ है। दोनों ने ही क्षत्रिय की हत्या मोदित है। के लिए १००० गौएँ, वैश्य के लिए १०० गौएँ तथा शूद्र इस वैदिक शाक्तमत का प्रचार यहाँ से पार्श्ववर्ती देशों के लिए १० गौएँ हर्जाना निश्चित किया है तथा प्रत्येक Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैरागी-वैशेषिक ६०९ दशा में एक बैल भी देने का निर्देश किया है। यह अर्थ- को बाहर निकाला था। वैशाख शुक्ल सप्तमी को भगवान् दान 'वैरनिर्यातन' के लिए होता था। बुद्ध का जन्म हुआ था, अतएव सप्तमी से तीन दिन तक ऋग्वेद में (२.३२.४) एक व्यक्ति के बदले में १०० उनकी प्रतिमा का पूजन किया जाना चाहिए । यह विशेष गौओं के दान का निर्देश है। इसे शतदाय कहते थे ।। रूप से उस समय होना चाहिए जब पुष्य नक्षत्र हो । वैशाख निस्सन्देह यह मूल्य घटता-बढ़ता था। किन्तु ऐतरेय ब्राह्मण शुक्ल अष्टमी को दुर्गाजी, जो अपराजिता भी कहलाती में शुनःशेप के क्रय के बदले १०० गौओं का दाय वणित __ है, की प्रतिमा को कपूर तथा जटामांसी से सुवासित जल है । यजुर्वेद में पुनः ‘शतदाय' उद्धृत हुआ है । परवर्ती से स्नान कराना चाहिए । इस समय व्रती स्वयं आम के काल में हत्या के लिए दण्ड और प्रायश्चित्त दोनों का रस से स्नान करे।। विधान था। वैशाखी पूर्णिमा को ब्रह्माजी ने श्वेत तथा कृष्ण तिलों वैरागी-स्वामी रामानन्द ने जो सम्प्रदाय स्थापित किया का निर्माण किया था। अतएव उस दिन दोनों प्रकार के उसके संन्यासियों के लिए उन्होंने सरल अनुशासन तिलों से युक्त जल से व्रती स्नान करे, अग्नि में तिलों की (पवित्रता और आचार के सात्त्विक नियम ) निश्चित आहुति दे, तिल, मधु तथा तिलों से भरा हुआ पात्र दान किये। ये संन्यासी रामानन्दी वैष्णव वैरागी कहलाते हैं। में दे । इसी प्रकार के विधि-विधान के लिए दे० विष्णुये विरक्त साधु होते हैं तथा इनके मठ काशी, अयोध्या धर्म०, ९०.१० । भगवान् बुद्ध की वैशाखपूजा 'दत्थ चित्रकूट, मिथिला तथा अन्य स्थानों में हैं। गामणी' (लगभग १००-७७ ई० पू०) नामक व्यक्ति ने लंका वैशम्पायन-वेदव्यास के चार वैदिक शिष्यों में यजुर्वेद के में प्रारम्भ करायी थी । दे. वालपोल राहुल ( कोलम्बो, मुख्य अध्येता । महीधर ने अपने यजुर्भाष्य में लिखा है कि १९५६ ) द्वारा रचित 'बुद्धिज्म इन सीलोन', पृ० ८० । वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य आदि शिष्यों को वेदाध्ययन वैशालाक्षनीतिशास्त्र-राजनीति शास्त्र भारत का अति कराया । पीछे किसी कारण उन्होंने क्रुद्ध होकर याज्ञवल्क्य प्राचीन ज्ञान है। इस पर सर्वप्रथम प्रजापति ने दण्डसे अपना पढ़ाया हुआ वेद वापस माँगा । योगी याज्ञवल्क्य ने नीति नामक बृहदाकार पुस्तक लिखी, जो अब दुर्लभ है। विद्या को मूर्तिमती करके वमन कर दिया। वैशम्पायन ने उसी का संक्षिप्तीकरण वैशालाक्षनीतिशास्त्र है। यह भी अपने अन्य शिष्यों को इन वान्त यजुओं को ग्रहण करने प्राप्त नहीं है। पुनः इसका संक्षिप्तीकरण बाहुदन्तक की आज्ञा दी। उन्होंने तीतर बनकर उनको चुन लिया। नामक ग्रन्थ में हुआ जो भीष्म पितामह के समय में बाहइसीलिए इसका नाम 'तैत्तिरीय संहिता' पड़ा। प्राचीन स्पत्य शास्त्र के नाम से प्रसिद्ध था। मानवता के विकास काल के दो धनुर्वेद ग्रन्थों का उद्धरण बहुत प्राप्त होता है, के साथ जीवन में व्यस्तता बढ़ने लगी तथा व्यस्त जीवन वे हैं वैशम्पायन का धनुर्वेद तथा वृद्ध शाङ्गधर का धनुर्वेद। को देखते हुए क्रमशः ये ग्रन्थ संक्षिप्त होते ही गये । अष्टाध्यायी के सूत्रों में पाणिनि ने जिन पूर्व वैयाकरणों वैशालाक्ष ( विशाल आँखों वाले अर्थात शिव ) का नीतिका नामोल्लेख किया है उनमें वैशम्पायन भी एक हैं। शास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र वैशाखकृत्य-इस मास के कुछ महत्त्वपूर्ण व्रत, जैसे अक्षय- में वैशालाक्ष सिद्धान्तों को बहुधा उद्धृत किया है। तृतीया आदि का पृथक् वर्णन किया जा चुका है। कुछ वैशेषिक-वैशेषिक दर्शन का अस्तित्व विक्रम की पहली छोटे-मोटे तथ्यों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। इस शताब्दी में था। यह इससे भी प्राचीन हो सकता है । मास में प्रातः स्नान का विधान है। विशेष रूप से इस वैशेषिक सूत्रों के रचयिता कणाद काश्यप कहे जाते हैं। अवसर पर पवित्र सरिताओं में स्नान की आज्ञा दी गयी वैशेषिक तथा न्याय दर्शन साथ ही साथ विकसित हुए है । इस सम्बन्ध में पद्मपुराण (४.८५.४१-७०) का कथन तथा दोनों सूत्र एक दूसरे के बहुत ही निकट प्रसंग को है कि वैशाख मास में प्रातः स्नान का महत्त्व अश्वमेध ध्यान में रखते हुए लिखे गये हैं। वैशेषिक दर्शन पारयज्ञ के समान है। इसके अनुसार शुक्ल पक्ष की सप्तमी माणविक (अणुविज्ञानी) यथार्थवाद है। द्रव्यों के नव को गंगाजी का पूजन करना चाहिए, क्योंकि इसी तिथि प्रकार यहाँ माने गये हैं। पहले चार प्रकारों के परमाणु को महर्षि जह्न ने अपने दक्षिण कर्ण से गंगाजी कहे गये हैं। प्रत्येक परमाणु परिवर्तनहीन, नित्य, फिर Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० वैशेषिक-वैश्य भी अदृश्य तथा आकृतिहीन होता है। ये परमाणु चार वैशेषिक-न्याय-ग्यारहवीं शताब्दी के बाद न्याय तथा श्रेणियों में गंध, स्वाद, स्पर्श तथा ऊष्मा गुणों के कारण वैशेषिक वस्तुतः एक में मिल गये। दोनों का संयोग विभक्त किये गये हैं, जो क्रमशः पृथ्वी, जल, वायु तथा शिवादित्य के 'सप्तपदार्थनिरूपण' (११वीं शताब्दा) से अग्नि के गुण हैं । दो परमाणुओं से एक द्वयणुक' तथा तीन आरम्भ होता है। गंगेश उपाध्याय की 'न्यायचिन्तामणि' द्वयणुकों से एक व्यणुक ( त्रसरेणु ) बनता है। सबसे में इसी सम्मिलन के आदर्श का पालन हुआ है। यह छोटी इकाई यही है जो रूपवान् होती है तथा इसे पदार्थ १२वीं शताब्दी का बहुप्रयुक्त ग्रन्थ है। तेरहवीं शती के की संज्ञा दी गयी है। केशव के 'तर्कभाषा' तथा १५वीं शती के शङ्कर मिश्र के 'वैशेषिकसूत्रोपस्कार' में इसी संयोग की चेष्टा हुई है। पाँचवीं नित्य सत्ता आकाश है जो अदृश्य परमाणुओं को मूर्त पदार्थ में बदलने का माध्यम है। छठा सत्य काल १६०० ई० के लगभग न्याय-वैशेषिक की संयुक्त है । यह वह शक्ति है जो सभी कार्य तथा परिवर्तन करती शाखा से सम्बन्धित अन्नम् भट्ट, विश्वनाथ पश्चानन, है तथा दो समयों के अन्तर का आधार उपस्थित करती जगदीश तथा लौगाक्षिभास्कर नामक आचार्य हुए। है । सातवां सत्य दिक् या दिशा है। यह काल को बङ्गाल में नव्य न्याय की प्रणाली का प्रारम्भ वासुदेव संतुलित करती है। आठवाँ सत्य अगणित आत्माओं का सार्वभौम के द्वारा हुआ जो नवद्वीप (नदिया) में अध्यापक है। प्रत्येक आत्मा नित्य तथा विभु है। नवाँ सत्य (१४७०-१४८० ई०) थे । इनकी बौद्धिक स्वतंत्रता इनके है 'मनस्' जिसके माध्यम से आत्मा ज्ञानेन्द्रियों के शिष्य रघुनाथ शिरोमणि ने घोषित करायी। इस प्रकार स्पर्श में आता है। परमाणुओं की तरह प्रत्येक मन १७वीं शती के अन्त तक तर्क शास्त्र का उत्तराधिकार नित्य तथा रूपहीन है। कर्ममीमांसा तथा सांख्य की चलता आया । तरह प्रारम्भिक वैशेषिक भी देवमण्डल के अस्तित्व वैशेषिकसूत्रभाष्य-वैशेषिक सूत्र पर लिखा हुआ यह को स्वीकार करता है । सूत्र में छः पदार्थों के नाम हैं : प्रथम भाष्य है, जिसे प्रशस्तपाद (६५० वि० के लगभग) द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय । इन ने प्रस्तुत किया। इस भाष्य के अध्ययन के बिना वैशेषिक छहों का ज्ञान मोक्षदाता है। ६०० ई० के लगभग सूत्रों को समझना असम्भव है। प्रशस्तपाद नामक आचार्य ने वैशेषिक सूत्रों पर भाष्य वैशेषिकसूत्रोपस्कार---शङ्कर मिश्र द्वारा विरचित यह ग्रन्थ लिखा । ह्वेनसाँग ने 'दश पदार्थ' का अनुवाद किया, वैशेषिक सूत्र का उपभाष्य है। इसमें न्याय तथा वैशेषिक जिसे ज्ञानचक्र द्वारा चीनी भाषा में अनुवादित कहा। को एक में मिलाने का प्रयास हुआ । गया है। वैश्य-चार वर्णों में तीसरा स्थान वैश्य का है। इसका दसवीं शताब्दी के मध्य में दो उल्लेखनीय दार्शनिक प्रथम उल्लेख पुरुषसूक्त में हुआ है (ऋ० १०.९.१२) । वैशेषिक दर्शन के व्याख्याकार हुए। उनमें से प्रथम थे इसके पश्चात् अथर्ववेद आदि में इसका प्रयोग बहुलता से उदयन जो बहुत ही शक्तिशाली एवं स्पष्ट प्रतिभा के किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि वैश्य की दार्शनिक थे। इन्होंने प्रशस्तपाद भाष्य के समर्थन में उत्पत्ति विराट् पुरुष की जंघाओं से हुई। इस रूपक से किरणावली नामक ग्रन्थ रचा। इनका दूसरा ग्रन्थ है ज्ञात होता है कि वैश्य सामाजिक जीवन का स्तम्भ माना लक्षणावली। दूसरे ग्रन्थकार थे श्रीधर, जो दक्षिण- जाता था। वैदिक साहित्य में वैश्य की स्थिति का वर्णन पश्चिम वंग के निवासी थे। इन्होंने प्रशस्तपाद के भाष्य ऐतरेय ब्राह्मण (७.२९) करता है; वैश्य 'अन्यस्य बलिकृत्' की न्यायकन्दली नामक व्याख्या रची। यह ९९१ ई० (दूसरे को बलि देने वाला ), 'अन्यस्याद्य:' (दूसरे का के लगभग रची गयी। इसके बाद न्याय-वैशेषिक दोनों उपजीव्य) है। उस पर राजा द्वारा कर लगाया जाता संयुक्त दर्शन एकत्र हो गये । (आगे का विकास 'वैशेषिक- था। वैश्य साधारणतः कृषक, पशुपालक एवं व्यवसायन्याय' शब्द की व्याख्या में देखें।) वाणिज्य कर्ता होते थे। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार वैशेषिक दर्शन-दे० 'वैशेषिक' । वंश्यों की महत्त्वाकांक्षा ग्रामणी बनने को होती थी। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेष्णवतोषिणी-वैष्णवमत यह पद राजा की ओर से धनी वैश्यों को प्रदान किया का साधन है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति कही जाता था । वैश्यों के क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण पद प्राप्त करने गयी है-स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पादसेवन, अर्चन और का उदाहरण नहीं प्राप्त होता। आत्मनिवेदन, । भागवतपुराण से (७.५.२३-२४) श्रवण, धर्मसूत्रों और स्मृतियों में वैश्यों के सामान्य और दास्य और सख्य ये तीन प्रकार और मिलाकर नव प्रकार विशेष दो प्रकार के कर्तव्य बतलाये गये हैं । सामान्य की भक्ति मानी जाती है। सम्भवतः भागवतमत की अनेक कर्तव्य है, अध्ययन, यजन और दान । विशेष कर्तव्य है। शाखाओं का अस्तित्व शङ्करस्वामी के समय में भी रहा कृषि, गोरक्षा (गोपालन) और वाणिज्य । वैश्य वर्ण के होगा, किन्तु सबका मूल सिद्धान्त एक ही होने से शङ्करअन्तर्गत अनेक जातियों और उपजातियों का समावेश है। स्वामी ने शाखाओं की चर्चा नहीं की। वैष्णव सम्प्रदायों वैश्यों का शूद्रों के साथ अधिक सम्पर्क बढ़ने और के इतिहास से भी पता चलता है कि उनकी सत्ता का अन्यत्र धार्मिक कठोर आचार (कृच्छ्राचार) बढ़ने के कारण मूल अत्यन्त प्राचीन है, यद्यपि उनके मुख्य प्रचारक वा धीरे-धीरे बहुत-सी कृषि तथा गोपालन करने वाली आचार्य बाद के हैं। शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णवों के जातियों की गणना शूद्रों में होने लगी और केवल वाणिज्य चार सम्प्रदाय विशेष विकसित दिखलाई पड़ते हैं। श्रीवैष्णव करने वाली जातियाँ ही वैश्य मानी जाने लगी । धर्म- सम्प्रदाय, माध्व सम्प्रदाय, रुद्र सम्प्रदाय और सनकशास्त्रों के अन्तिम चरण में 'कलिवर्य' के अन्तर्गत यह सम्प्रदाय । इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन मत प्रतिपादित हुआ कि कलि में केवल दो वर्ण ब्राह्मण और वेदान्त है । पुराना साहित्य एक ही है, केवल व्याख्या शूद्र है, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं। ऐसा लगता है और बाह्याचार में परस्पर अन्तर होने से सम्प्रदाय भेद कि बीच में इन वर्गों में आचार के शिथिल हो जाने के उत्पन्न हो गये हैं । महाभारतकाल से लेकर आदि शङ्ककारण यह मान्यता प्रचलित हुई। राचार्य के समय तक पाञ्चरात्र और भागवत धर्म का रूप वैष्णवतोषिणी-चैतन्यदेव के शिष्य सनातन गोस्वामी समान ही रहा होगा । क्योंकि शङ्कराचार्य ने एक ही नाम द्वारा यह व्याख्या ग्रन्थ भागवत पुराण के दशम स्कन्ध पर से इनकी आलोचना की है। परन्तु इसके पश्चात् सम्भवृन्दावन में रचा गया। वैष्णवतोषिणी का अन्य नाम वतः समय-समय पर आचार्यों के सिद्धान्तों की भिन्न रोति दशमटिप्पणी भी है। से व्याख्या करने के कारण भागवत और पाञ्चरात्र की वैष्णवदास-चैतन्य सम्प्रदाय के प्रारम्भिक अठारहवीं शती शाखाएँ स्वतन्त्र बन गयीं, जो काल पाकर सम्प्रदायों के के एक वंगदेशीय आचार्य । इन्होंने 'पदकल्पतरु' नामक रूप में प्रकट हुई। ग्रन्थ रचा है। वैष्णव पुराणों में विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवैष्णवपुराण-विष्णु, भागवत, नारदीय, ब्रह्मवैवर्त, पद्म वंश और श्रीमद्भागवत में विष्णु, नारायण, यादव कृष्ण और गरुड वैष्णव पुराण हैं। और गोपाल कृष्ण के चरितों का कई पहलुओं से वर्णन है । वैष्णवमत-मुख्य रूप से विष्णु की उपासना करने का मार्ग। जैसा नाम से प्रकट है, श्रीमद्भागवत ही सब पुराणों में इसके अन्य नाम भागवतमत तथा पाश्चरात्रमत भी हैं। भागवत सम्प्रदाय का मुख्य ग्रन्थ समझा जाना चाहिए। भागवत सम्प्रदाय महाभारतकाल में भी वर्तमान था। प्राचीन भागवत सम्प्रदाय का अवशेष आज भी दक्षिण कहना चाहिए कि लगभग कृष्णावतार के समय ही पाञ्च- भारत में विद्यमान है। द्रविड, तैलङ्ग, कर्णाटक और महारात्रमत सात्वतों के भागवतमत में परिणत हो गया। राष्ट्र के बहुत से वैष्णव गोपीचन्दन की रेखा वाले ऊर्ध्वपरन्तु बौद्धों के जोर-शोर में प्रायः इस मत का भी ह्रास पुण्ड्र को मस्तक में धारण किये हुए प्रायः मिलते हैं। ये समझा जाना चाहिए । जो कुछ अवशिष्ट था उसका लोग नारदभक्तिसूत्र एवं शाण्डिल्यभक्तिसूत्रों के अनुयायी खण्डन शङ्कर स्वामी ने किया । 'नारदपञ्चरात्र' और हैं। इनकी उपनिषदें वासुदेव एवं गोपीचन्दन है। 'ज्ञानामृतसार' से पता चलता है कि भागवतधर्म की इनका पुराण भागवतपुराण है। महाराष्ट्र देश में इस परम्परा बौद्धधर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो पायी। सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य ज्ञानेश्वर समझे जाते हैं । जिस तरह इस मत के अनुसार हरिभजन ही परम कर्तव्य और मुक्ति योगमार्ग में ज्ञानेश्वर नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी माने Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ वैष्णवमताब्जभास्कर-व्रजवासीदास जाते हैं, उसी तरह भक्तिमार्ग में वे विष्णुस्वामी सम्प्रदाय गव्य से नदी में स्नान करना चाहिए। अष्टादश भुजा के शिष्य माने जाते हैं। परन्तु विष्णुस्वामी के मत में वाली व्यतीपात की आकृति बनाकर, सुवर्णकमल में स्थाराधा-गोपाल की उपासना का विशेष प्रचलन है। पित कर गन्धाक्षत-पुष्पादि से उसका पूजन करना चाहिए। वैष्णवमताब्जभास्कर-सीतारामोपासक वैष्णव सम्प्रदाय के उस दिन उपवास का विधान है। एक वर्षपर्यन्त यह व्रत प्रधानाचार्य स्वामी रामानन्दजी महाराज ने वैष्णवधर्म के चलना चाहिए । तेरहवें व्यतीपात के समय उद्यापन करना संरक्षण के लिए वैष्णवमताब्जभास्कर नामक ग्रन्थ की । चाहिए। अग्नि में सौ घृत आहुतियों के अतिरिक्त दुग्ध, रचना की है। इसमें वैष्णवों के दैनिक आचार और तिल, समिधाओं के हवन के बाद घृत की धारा डालते भजन-पूजन का भली भाँति निर्देश किया गया है। हए 'व्यतीपाताय स्वाहा” शब्द का उच्चारण करना वैष्णवसम्प्रदाय-दे० 'वैष्णवमत'। चाहिए। कहा जाता है कि व्यतीपात सूर्य तथा चन्द्र का वैष्णववाङमय-ऋग्वेद (१०.९०) के पुरुषसूक्त में इसकी आरम्भिक उपलब्धि होती है। महानारायण उपनिषद्, व्यासपूजा-आषाढ़ की पूर्णिमा के दिन इस व्रत का अनुमहाभारत, रामायण तथा भगवद्गीता इसका साधारण ठान होता है । विशेष रूप से संन्यासियों, यतियों, साधओं साहित्य है। भागवत लोग उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त तथा तपस्वियों के लिए इसका महत्त्व है। दे० स्मृतिकोसभी स्मार्त ग्रन्थों में रुचि रखते हैं । भागवत सम्प्रदाय के स्तुभ, १४४-१४५; पुरुषार्थचिन्तामणि, २८४ । तमिलनाडु जो विशेष ग्रन्थ हैं, उनका यहाँ उल्लेख किया जाता है। में ज्येष्ठ शुक्ल १५ (मिथुनार्क) को इसका आयोजन किया इसका सबसे प्राचीन ग्रन्थ हरिवंश है। वैखानससंहिता, जाता है। स्कन्द उपनिषद्, भागवत पुराण, नारदभक्तिसूत्र, शाण्डिल्य- व्योमवत-इसके लिए श्वेत चन्दन का अँगूठे और अँगुली भक्तिसूत्र, वासुदेव एवं गोपीचन्दन उपनिषद्, वोपदेव कृत के जोड़ जैसा कुण्डलाकार आकाश बनाकर सूर्य के सम्मुख मुक्ताफल तथा हरिलीला, श्रीधर स्वामी (१४०० ई०) रखना चाहिए । करवीर के पुष्पों से सूर्य का पूजन करना कृत भागवतभावार्थदीपिका तथा शुकसुधी कृत शुक्रपक्षीया चाहिए तथा आकाश की आकृति के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व्याख्या एवं वेदान्त सूत्र तेलुगु में) आदि ग्रन्थ इस सम्प्र- तथा उत्तर में क्रमशः केसर, अगर, श्वेत चन्दन तथा दाय से सम्बन्धित हैं। 'चतुःसम' और केन्द्र में रक्त चन्दन लगाना चाहिए । वैष्णवाचार-तान्त्रिक गण सात प्रकार के आचारों में इसका मन्त्र है 'खखोल्काय नमः ।' सर्य इसके देवता हैं। विभक्त हैं, उनमें वैष्णवाचार भी एक है । इसमें वेदाचार व्रज-गौओं का बाड़ा अथवा पशुचारण का स्थान (चराकी विधि के अनुसार सर्वदा नियमतत्पर रहना होता है, गाह) । रूढ प्रसंग में इसका अर्थ है वह स्थान जहाँ कृष्ण मद्य, मथुन वा उसका कथाप्रसङ्ग भी कभी नहीं किया ने गौएँ चरायीं, अर्थात् मथुरा और वृन्दावन के आस-पास जाता । हिंसा, निन्दा, कुटिलता और मांस भोजन का का भमण्डल । यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यमुनातटसदा परित्याग होता है। रात्रि में कभी माला तथा मन्त्र वर्ती क्षेत्र है, जहाँ विष्णु के अवतार श्री कृष्ण ने बालका उपयोग नहीं किया जाता । दे० 'आचारभेद' । लीलायें की थीं। व्रजमण्डल बड़ा पवित्र माना जाता है । वोपेदेव-तेरहवीं शती के अन्त में महाराष्ट्र में बोपदेव भक्तिकाल के प्रमुख आचार्य स्वामी हरिदास, हित हरिनामक एक व्युत्पन्न विद्वान् का उदय हुआ। इन्होंने भाग- वंश और अष्टछाप के आठों कवि यहीं हुए । यहाँ वत पुराण पर अनेक ग्रन्थ रचे। उनमें से हरिलीला बोली जाने वाली भाषा को 'व्रजभाषा' कहते हैं। तथा मुक्ताफल अधिक प्रसिद्ध है। हरिलीला में भागवत इसमें अनेक कृष्णप्रेमी कवियों ने मधुर रचनाएँ की हैं । पुराण का सारांश है तथा मुक्ताफल इसकी शिक्षाओं का यह हिन्दी साहित्य का एक अति उदात्त, सरस और महसंग्रह है। त्त्वपूर्ण अङ्ग है। व्यतीपातव्रत-व्यतीपात पञ्चाङ्गस्थ योगों (विष्कम्भ, प्रीति व्रजवासीदास-राधा-कृष्ण एवं ग्वाल-बालों के बालजीवन इत्यादि) में से है। धर्मशास्त्र में इसकी कई प्रकार से तथा प्रेम को आधार बनाकर इन्होंने व्रजविलास नामक व्याख्या की गयी है । व्यतीपात के दिन मनुष्य को पञ्च- ग्रन्थ की रचना १८००वि० के लगभग की। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रजविलास-शक्ति उपासना व्रजविलास-संत व्रजवासीदास कृत व्रजभाषा का लोक- शक्ति-शक्ति की कल्पना तथा आराधना भारतीय धर्म की काव्य । यह ग्रन्थ ब्रजभूमि के माहात्म्य तया कृष्ण के अत्यन्त पुरानी और स्थायी परम्परा है। अनेक रूपों में बालचरित्रों का दोहा-चौपाइयों में वर्णन करता है। शक्ति की कल्पना हुई है, प्रधानतः मातृरूप में। इसका भक्तों की इसके पठन की तीव्र लालसा रहती है। विशेष पल्लवन पुराणों और तन्त्रों में हुआ । हरिवंश और व्रतषष्टि-मत्स्यपुराण (१०१) और पद्मपुराण (५.२०. मार्कण्डेय पुराण के देवीमाहात्म्य में देवी अथवा शक्ति ४३) में महत्त्वपूर्ण ६० व्रतों का उल्लेख मिलता है, जिन का विशेष वर्णन और विवेचन किया गया है। देवी को सबका उल्लेख कृत्यकल्पतरु में हुआ है । उपनिषदों का ब्रह्म तथा एकमात्र सत्ता बतलाया गया है । दूसरे देव इसी की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है। दैवी शक्ति का यह सिद्धान्त यहाँ सर्वप्रथम व्यक्त हुआ है। इस श-ऊष्मवर्णों का प्रथम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके प्रकार वह ( शक्ति ) विशेष पूजा तथा आराधना के स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है : योग्य है । मनुष्य जब कुछ अपनी मनोरथ पूर्ति कराना शकारं परमेशानि शृणु वर्ण शुचिस्मिते । चाहेगा तो उसी से अनुनय-विनय करेगा, शिव से नहीं । रक्तवणप्रभाकारं स्वयं परमकुण्डली ।। शाक्त साहित्य में शक्तिरहित शिव को शवतुल्य चतुर्वर्गप्रदं देवि शकारं ब्रह्मविग्रहम् । बताया गया है। शक्ति ही शिव या ब्रह्म की विशुद्ध पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणात्मक प्रिये ।। कार्यक्षमता है। अर्थात् वही सृष्टि एवं प्रलयकी है तथा सब दैवी कृपा तथा मोक्ष प्रदान उसी के कार्य हैं । इस रजःसत्त्वतमो युक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा । प्रकार शक्ति शिव से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। शक्ति त्रिशक्तिसहितं वर्णमात्मादितत्त्वसंयुतम् ।। से ही विशेषण 'शाक्त' बनता है जो शक्ति-उपासक सम्प्रयोगिनीतन्त्र (तृतीय भाग, सप्तम पटल ) में इसके दाय का नाम है । शक्ति ब्रह्मतुल्य है। शक्ति और ब्रह्म निम्नलिखित वाचक बतलाये गये है : का एक मात्र अन्तर यह है कि शक्ति क्रियाशील भाग है शः सव्यश्च कामरूपी कामरूपो महामतिः । तथा ब्रह्म को सभी उत्पन्न वस्तुओं तथा जीवों के रूप में मौख्यनामा कुमारोऽस्थि श्रीकण्ठो वृषकेतनः ।। वह व्यक्त वा द्योतित करती है। जबकि ब्रह्म अव्यक्त एवं विषघ्नं शयनं शान्ता सुभगा विस्फुलिङ्गिनी । निष्क्रिय है । धार्मिक दृष्टि से वह ब्रह्म से श्रेष्ठ है । शक्ति मृत्युदेवो महालक्ष्मीर्महेन्द्रः कुलकौलिनी । मूल प्रकृति है तथा सारा विश्व उसी (शक्ति) का प्रकट बाहुहंसो वियद् वक्रं हृदनङ्गांकुशः खलः। रूप है । दे० 'योग', 'क्रिया', 'भूति' । वामोरुः पुण्डरीकात्मा कान्तिः कल्याणवाचकः ।। शक्ति उपासना-पुराणों के परिशीलन से पता चलता है शकुन्तला-शतपथ ब्राह्मण (१३.५.४.१३) के अनुसार कि प्रत्येक सम्प्रदाय के उपास्य देव की एक शक्ति है। एक अप्सरा का नाम, जिसने भरत को नाडपित नामक गीता में भगवान् कृष्ण अपनी द्विधा प्रकृति, माया की स्थान पर जन्म दिया था। ब्राह्मणों, महाभारत, पुराणों बारम्बार चर्चा करते हैं । पुराणों में तो नारायण और और परवर्ती साहित्य में शकुन्तला मेनका नामक अप्सरा विष्णु के साथ लक्ष्मी के, शिव के साथ शिवा के, सूर्य के से उत्पन्न विश्वामित्र की पुत्री कही गयी है। मेनका साथ सावित्री के, गणेश के साथ अम्बिका के चरित और स्वर्ग लौटने के पूर्व पुत्री को पृथ्वी पर छोड़ गयी, जिसका माहात्म्य वणित हैं । इनके पीछे जब सम्प्रदायों का अलगपालन शकुन्त पक्षियों ने किया। इसके पश्चात् वह कण्व अलग विकास होता है तो प्रत्येक सम्प्रदाय अपने उपास्य ऋषि की धर्मपुत्री हई और उनके आश्रम में ही पालित की शक्ति की उपासना करता है । इस तरह शक्ति उपाऔर शिक्षित हुई । उसका गान्धर्व विवाह पौरववंशी राजा सना की एक समय ऐसी प्रबल धारा बही कि सभी सम्प्रदुष्यन्त से हुआ, जिससे भरत की उत्पत्ति हुई । भरत चक्र- दायों के अनुयायी मुख्य रूप से नहीं तो गौण रूप से वर्ती राजा था, जिसके नाम पर एक परम्परा के अनुसार शाक्त बन गये । अपने उपास्य के नाम से पहले शक्ति के इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। स्मरण करने की प्रथा चल पड़ी। सीताराम, राधाकृष्ण, Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्तितन्त्र-शङ्कराचार्य लक्ष्मीनारायण, उमामहेश्वर, गौरीगणेश इत्यादि नाम वेद प्रकट किये गये है। जगत्तारिणी देवी चतुर्वेदमयी और इसी प्रभाव के सूचक है। सचमुच सारी आर्य जनता कालिका देवी अथर्ववेदाधिष्ठात्री है, काली और तारा के किसी समय शाक्त थी और इसके दो दल थे; एक दल विना अथर्ववेदविहित कोई क्रिया नहीं हो सकती । केरल में शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य आदि वैदिक सम्प्रदायों के देश में कालिका देवी, कश्मीर में त्रिपुरा और गौड देश में दक्षिणाचारी थे और दूसरी ओर बौद्ध, जैन और अवैदिक तारा ही पश्चात् काली रूप में उपास्य होती है।" तान्त्रिक सम्प्रदायों के शाक्त वामाचारी थे। इतना __ इस कथन से पता चलता है कि इनसे पहले के साम्प्रव्यापक प्रचार होने के कारण ही शायद शाक्तों का कोई दायिकों में, जिनमें शाक्त भी शामिल हैं; और ये अवश्य मठ या गद्दी नहीं बनी। इनके पाँच महापीठ या ५१ ही वैदिक शाक्त हैं-यह तान्त्रिक शाक्तधर्म अथवा पीठ ही इनके मठ समझे जाने चाहिए। दे० 'वैदिक वामाचार बाद में प्रचलित हुआ। शाक्तमत'। शङ्करजय-माधवाचार्य विरचित इस ग्रन्थ में आचार्य शङ्कर शक्तितन्त्र-आगमतत्त्वविलास में उद्धृत तन्त्रों की सूची । की जीवन सम्बन्धी घटनाओं का सङ्कलन संक्षिप्त रूप में में शक्तितन्त्र भी उल्लिखित है। हुआ है । परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसको कोई प्रामाणिशक्तिविशिष्टाद्वैत-श्रीकण्ठ शिवाचार्य ने वायवीय संहिता कता नहीं है । यह उत्तम काव्य ग्रन्थ है। के आधार पर सिद्ध किया है कि भगवान् महेश्वर अपने को उमा शक्ति से विशिष्ट किये रहते हैं। इस शक्ति शङ्करदिग्विजय -स्वामी आनन्द गिरि कृत शङ्करदिग्विजय में जीव और जगत्, चित् और अचित्, दोनों का बीज शङ्कराचार्य की जीवन घटनाओं का काव्यात्मक संकलन उपस्थित रहता है। उसी शक्ति से महेश्वर चराचर सृष्टि है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक नहीं है । 'शङ्करकरते हैं। इस सिद्धान्त को शक्तिविशिष्टाद्वैत कहते हैं। दिग्विजय' और भी कई विद्वानों ने लिखे हैं। इनमें माधवावीर शैव अथवा लिङ्गायत इस शक्तिविशिष्टाद्वैत चार्य एवं सदानन्द योगीन्द्र के नाम मुख्य हैं। सिद्धान्त को अपनाते हैं । शाक्तों के अनुसार शक्ति परि- शङ्कर मिश्र-शङ्कर मिश्र का नाम भी उन चार पण्डितों णामी है, विवर्त नहीं है । शाक्तों का वेदान्तमत शक्ति- में है, जिन्होंने न्याय-वैशेषिक दर्शनों को एक में युक्त करने विशिष्टाद्वैत है। के लिए तदनुरूप ग्रन्थों का प्रणयन किया । शङ्कर मिश्र ने शक्तिसंगमतन्त्र नेपाल प्रदेश में एक लाख श्लोकों वाला इस कार्य को वैशेषिकसूत्रोपस्कार की रचना द्वारा र पूरा किया। यह ग्रन्थ १५वीं शती में रचा गया था। शक्तिसङ्गमतन्त्र प्रचलित है। इस महातन्त्र में शाक्त सम्प्रदाय का वर्णन विस्तार से मिलता है । इसके उत्तर शङ्कराचार्य-वेदान्त दर्शन के अद्वैतवाद का प्रचार भारत भाग, पहले खण्ड, आठवें पटल के तीसरे से लेकर पचीसवें में यों तो बहुत प्राचीन काल से था, परन्तु आगे इसका श्लोकों का सार यहाँ दिया जाता है : अधिक ठोस प्रचार शङ्कराचार्य के द्वारा ही हुआ । इस "सृष्टि की सुविधा के लिए यह प्रपञ्च रचा गया है। मत के समर्थक प्रधान ग्रन्थ इन्हीं के रचे हुए हैं। इसी शाक्त, सौर, शैव, गाणपत्य, वैष्णव, बौद्ध आदि यद्यपि से शङ्कराचार्य अद्वैतमत के प्रवर्तक कहे जाते हैं और अद्वैतभिन्न नाम है, भिन्न सम्प्रदाय हैं, परन्तु वास्तव में ये एक मत को शाङ्कर मत अथवा शाङ्कर दर्शन भी कहते हैं । ही वस्तु है । विधि के भेद से भिन्न दीखते हैं। इनमें पर- ब्रह्मसूत्र पर आज जितने भाष्य उपलब्ध हैं उनमें सबसे स्पर निन्दा, द्वेष इस प्रपञ्च के लिए ही है। निन्दक की प्राचीन शाङ्करभाष्य ही है और उसी का सबसे अधिक सिद्धि नहीं होती । जो ऐक्य मानते हैं उन्हीं को उनके आदर भी है । शङ्कर के जो ग्रन्थ मिलते हैं तथा यत्र-तत्र सम्प्रदाय से सिद्धि मिलती है। काली और तारा की उनकी जीवन सम्बन्धी जो घटनाएँ ज्ञात होती हैं, उनसे उपासना इसी ऐक्य की सिद्धि के लिए की जाती है । यह स्पष्ट है कि वे अलौकिक प्रतिभा के व्यक्ति थे। उनमें महाशक्ति भले, बुरे; सुन्दर और क्रूर दोनों को धारण प्रकाण्ड पाण्डित्य, गम्भीर विचार शैली, प्रचण्ड कर्मकरती है। यही मत प्रकट करने के लिए शास्त्र का कीर्तन शीलता, अगाध भगवद्भक्ति, सर्वोत्तम त्याग, अद्भुत किया गया है । इस एकत्व प्रतिपादन के लिए ही चारों योगैश्वर्य आदि अनेक गुणों का दुर्लभ समुच्चय था । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्कराचार्य ६१५ केरल से चलकर शङ्कर नर्मदातट पर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से 'संन्यासदीक्षा ली। गुरूपदिष्ट मार्ग से साधना आरम्भ कर अल्प काल में ही वे बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गये । गुरु की आज्ञा से काशी आये । यहाँ उनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग शिष्यत्व ग्रहण करने लगे। उनके प्रथम शिष्य सनन्दन थे जो पीछे पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। शिष्यों को पढ़ाने के साथ वे ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान् विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में शङ्कर को दर्शन दिया। वे चाण्डाल को आगे से हटने का आग्रह करने लगे । भगवान् ने उनको एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। जब भाष्य लिखना पूरा हो गया तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गङ्गातट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। इस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका आठ दिनों तक शास्त्रार्थ हुआ। पीछे उन्हें ज्ञात हुआ कि ये स्वयं भगवान् वेदव्यास हैं । फिर वेदव्यास ने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और उनकी १६ वर्ष की आयु को ३२ वर्ष तक बढ़ा दिया । शङ्कराचार्य दिग्विजय को निकल पड़े। उनकी वाणी में मानो साक्षात् सरस्वती ही विराजती थी। यही कारण है कि ३२ वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ रच डाले और सारे भारत में भ्रमण कर विरोधियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। भारत के चारों कोनों में चार प्रधान मठ स्थापित किये और सारे देश में युगान्तर उपस्थित कर दिया। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि शङ्कराचार्य ने डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। उनके धर्म संस्थापन के कार्य को देखकर लोगों का यह विश्वास हो गया कि वे साक्षात् भगवान् शङ्कर के ही अवतार थे-'शङ्करः शङ्करः साक्षात्' और इसी से प्रायः 'भगवान्' शब्द के साथ उनका स्मरण किया जाता है। शङ्कराचार्य के आविर्भाव एवं तिरोभाव-काल के सम्बन्ध में अनेक मत है। किन्तु अधिकांश लोग इनकी स्थिति ७८८ तथा ८२० ई० के मध्य मानते हैं। इनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णा नदी तटवर्ती कालटी नामक गाँव में वैशाख शुक्ल पञ्चमी को हुआ था। पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा अथवा विशिष्टा था। __ कोई महान विभूति अवतरित हुई है इसका प्रमाण उनके बचपन से ही मिलने लगा था। इसी बीच उनके पिता का वियोग हो गया। एक वर्ष की अवस्था होतेहोते बालक मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगा तथा दो वर्ष की अवस्था में पुराणादि की कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगा। पाँचवें वर्ष यज्ञोपवीत कर उन्हें गुरुगृह भेजा गया तथा सात वर्ष को अवस्था में ही वे वेद और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन करके घर आ गये। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन चकित रह गये। विद्याध्ययन समाप्त कर शङ्कर ने संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की परन्तु माता ने आज्ञा न दी। शङ्कर माता के बड़े भक्त थे एवं उन्हें कष्ट देकर संन्यास नहीं लेना चाहते थे । एक दिन माता के साथ नदी स्नान करते समय एक मगर ने इन्हें पकड़ लिया। माता बेचैन होकर हाहाकार करने लगी । इस पर शङ्कर ने कहा कि यदि आप संन्यास लेने की आज्ञा दे दें तो यह मगर मुझे छोड़ देगा। माता ने तुरत आज्ञा दे दी और मगर ने शङ्कर को छोड़ दिया। संन्यास मार्ग में जाते समय शङ्कर माता की इच्छा के अनुसार यह वचन देते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर अवश्यमेव उपस्थित रहूँगा। यहाँ से कुरुक्षेत्र होते हुए वे कश्मीर की राजधानी श्रीनगर पहुँचे और शारदा देवी के सिद्ध पीठ में अपने भाष्य को प्रमाणित कराया। उधर से लौटकर बदरिकाश्रम गये और वहाँ अपने अन्य ग्रन्थों की पूर्ति में लग गये । बारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक की अवस्था में उन्होंने सारे ग्रन्थ लिखे। वहाँ से प्रयाग आये जहाँ कुमारिल भट्ट से भेंट हुई। कुमारिल के अनुसार वे वहाँ से माहिष्मती नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्त्रार्थ के लिए गये । मण्डन मिश्र के हारने पर उनकी पत्नी भारती ने भी उनसे शास्त्रार्थ किया। सपत्नीक मण्डन पर विजय प्राप्त करके शङ्कर महाराष्ट्र गये तथा वहाँ शवों और कापालिकों को परास्त किया। वहाँ से चलकर दक्षिण में तुङ्गभद्रा के तट पर उन्होंने एक मन्दिर बनवाकर उसमें कश्मीर वाली शारदा देवी की स्थापना की। उसके लिए वहाँ जो मठ स्थापित हुआ उसे शृङ्गगिरि (शृंगेरी) मठ कहते हैं। इस मठ के अध्यक्ष सुरेश्वर ( मण्डन ) बनाये गये। वहाँ से माता की मृत्यु का समय आया जानकर घर पहुँचे और माँ की Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्कराचार्य अन्त्येष्टि क्रिया की। शृंगेरी मठ से जगन्नाथ पुरी जाकर गोवर्धन मठ की स्थापना की तथा पद्मपादाचार्य को वहाँ का मठाधीश बनाया। पुनः शङ्कराचार्य ने चोल और पाण्ड्य राजाओं की सहायता से दक्षिण के शाक्त, गाणपत्य और कापालिक सम्प्रदायों के अनाचार को नष्ट किया। फिर वे उत्तर भारत की ओर मुड़े। गुजरात आकर द्वारका पुरी में शारदमठ की स्थापना की । फिर प्रचार कार्य करते हुए असम के कामरूप में गये और तान्त्रिकों से शास्त्रार्थ किया। यहाँ से बदरिकाश्रम जाकर वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की और त्रोटकाचार्य को मठाधीश बनाया। वहाँ से अन्त में केदार क्षेत्र आये, जहाँ पर कुछ दिनों बाद भारत का यह प्रोज्ज्वल सूर्य ब्रह्मलीन हो गया। ___ उनके विरचित प्रधान ग्रन्थ ये हैं : ब्रह्मसूत्र (शारीरक) भाष्य, उपनिषद् भाष्य ( ईश, केन, कठ, प्रश्न, माण्डूक्य, मुण्डक, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनोय, श्वेताश्वतर इत्यादि ), गीताभाष्य, विवेकचूडामणि, प्रबोधसुधाकर, उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति, पञ्चीकरण, प्रपञ्चसारतन्त्र, मनीषापञ्चक, आनन्दलहरी-स्तोत्र आदि। शाङ्करमत-शङ्कर के समय में भारतवर्ष बौद्ध, जैन एवं कापालिकों के प्रभाव से पूर्णतया प्रभावित हो गया था। वैदिक धर्म लुप्तप्राय हो रहा था। इस कठिन अवसर पर शङ्कर ने नैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया । उन्होंने जिस सिद्धान्त की स्थापना की उस पर संसार के बड़े से बड़े विद्वान् और विचारक मन्त्रमुग्ध हैं । यह मत था अद्वैत सिद्धान्त । सभी प्रपञ्च अनात्मा है, उसका आत्मा से सम्बन्ध नहीं है । ज्ञान और अज्ञान-सम्पूर्ण विभिन्न प्रतीतियों के स्थान में एक अखण्ड सच्चिदानन्द धन का अनुभव करना ही ज्ञान है तथा उस सर्वाधिष्ठान पर दृष्टि न देकर भेद में सत्यत्व बुद्धि करना अज्ञान है । साधन-शङ्कर ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन को ज्ञान का साक्षात् साधन स्वीकार किया है। किन्तु इनकी सफलता ब्रह्मतत्त्व की जिज्ञासा होने पर ही है तथा जिज्ञासा की उत्पत्ति में प्रधान सहायक दैवी सम्पत्ति है। आचार्य का मत है कि जो मनुष्य विवेक, वैराग्य, शमादि षट् सम्पत्ति और मुमुक्षा, इन चार साधनों से सम्पन्न है, उसी को चित्तशुद्धि होने पर जिज्ञासा हो सकती है। इस प्रकार की चित्तशुद्धि के लिए निष्काम कर्मानुष्ठान बहुत उपयोगी है। भक्ति---शङ्कर ने भक्ति को ज्ञानोत्पत्ति का प्रधान साधन माना है। विवेकचूडामणि में वे कहते हैं'स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते ।' अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करना ही भक्ति कहलाता है । उन्होंने सगुणोपासना की उपेक्षा नहीं की है। कर्म और संन्यास-शङ्कराचार्य ने अपने भाष्यों में स्थान-स्थान पर कर्मों के स्वरूप से त्याग करने पर जोर दिया है। वे जिज्ञासु एवं बोधवान् दोनों के लिए सर्व कर्मसंन्यास की आवश्यकता बतलाते हैं । उनके मत में निष्काम कर्म केवल चित्त शुद्धि का हेतु है ।। स्मार्तमत-वर्णाश्रम परंपरा की फिर से स्थापना का श्रेय शङ्कर को ही है। उन्हीं के प्रयास से जप, तप, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान, संस्कार, उत्सव, प्रायश्चित्त आदि फिर से जीवित हुए। उन्होंने ही पञ्चदेव उपासना की रीति चलायी, जिसमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और देवी, परमात्मा के इन पाँचों रूपों में से एक को प्रधान मानकर और शेष को उसका अङ्गीभूत समझकर उपासना की जाती है । पञ्चदेव उपासना वाला मत इसी लिए स्मार्त कहलाता है कि स्मृतियों के अनुसार यह सबके लिए निर्धारित है। आज भी साधारण सनातनधर्मी इसी स्मार्तमत के मानने वाले समझे जाते हैं। आत्मा एवं अनात्मा-ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते समय सवर्वप्रथम शङ्कर ने आत्मा तथा अनात्मा का विवेचन करते हए सम्पूर्ण प्रपञ्च को दो भागों में बाँटा है-द्रष्टा और दृश्य । एक वह तत्त्व, जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करने वाला है, तथा दूसरा वह, जो अनुभव का विषय है। इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम आत्मा है तथा जो कुछ उसका विषय है वह अनात्मा है । आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असन, कूटस्थ, एक और निविशेष है। बुद्धि से लेकर स्थूल भूतपर्यन्त Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शङ्कराचार्य जयन्ती शतपथब्राह्मण शिष्यपरम्परा - शंकरानुगत संन्यासियों का भी एक विशेष सम्प्रदाय चला जो दसनामी कहलाते हैं । शङ्कराचार्य के चार प्रधान शिष्य थे : पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक । इनमें से पद्मपाद के शिष्य थे तीर्थ और आश्रम । हस्तामलक के शिष्य वन और अरण्य थे । सुरेश्वर के गिरि, पर्वत और सागर तीन शिष्य थे। त्रोटक के भी तीन शिष्य पुरी, भारती और सरस्वती थे । इन्हीं दस शिष्यों के नाम से संन्यासियों के दस भेद चले | शङ्कराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किये जिनमें इन दस प्रतिष्यों की परम्परा चली आती है। पुरी, भारती और सरस्वती की परम्परा शृंगेरी मठ के अन्तर्गत है । तीर्थ और आश्रम शारदामठ (द्वारका) के अन्तर्गत हैं । वन और अरण्य गोवर्धनमठ (पुरी) के अन्तर्गत हैं । गिरि, पर्वत और सागर ज्योतिर्मठ ( जोशीमठ) के अन्तर्गत हैं । प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं चार मठों में किसी न किसी से संबन्धित होता है स्वामी के शिष्य संवासियों ने बौद्ध भिक्षुओं की तरह घूम-घूमकर सनातन धर्म के इस महाजागरण में बड़ी सहायता पहुँचायी । उनके चारों मठों में गद्दी पर बैठने वाले शिष्य शत्रू राचार्य ही कहलाते आये हैं । ये सब प्रायः अपने समय के अप्रतिम विद्वान् ही होते हैं । इनकी असंख्य रचनाएँ हैं, स्तोत्र हैं, जो सभी "श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितम्" कहे जाते हैं, किन्तु वे सभी आदि शङ्कर की कृतियाँ नहीं हो सकतीं । फिर भी सभी रचनाएँ स्मार्ती में आग आचार्य के नाम से प्रचलित हैं । शङ्कराचार्य जयन्ती — दक्षिण भारत में चैत्र शुक्ल पञ्चमाको किन्तु उत्तर भारत में वैशाख शुक्ल दशमी को शङ्कराचार्य की जयन्ती मनायी जाती है। इस तिथि को औपचारिक रूप से आचार्य शर के प्रति आदर और श्रद्धा अर्पित की जाती है। शङ्करानन्य उपनिषदों के मुख्य भाष्यकार ये प्रसिद्ध वेदान्ती स्वामी विद्यारण्य (माधवाचार्य) के गुरु थे । ये चौदहवीं शती के प्रथम अर्धाश में हुए थे। शङ्कुराकंवत रविवार वाली अष्टमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। सूर्य शंकर के दक्षिण नेत्र माने गये हैं, उनकी पूजा करनी चाहिए। केसर तथा रक्त चन्दन से अर्धचन्द्राकार आकृति बनाकर उसमें गोल वृत्त ७८ - ६१७ बनाना चाहिए। वृत्त में सुवर्णजटित माणिनय की स्थापना की जाय । यह शिवनेत्र (सूर्य) होगा । अर्क (सूर्य) शङ्कर के नेत्र हैं। वे ही इसके देवता हैं। (१) अथर्ववेद (४.१०.१) में शङ्ख कवच के रूप में व्यवहुत होने वाले पदार्थ का द्योतक है। परवर्ती साहित्य में यह फूंककर बजाया जानेवाला सागरोत्पन्न वाच है । ( २ ) शङ्ख एक स्मृतिकार धर्मशास्त्री भी हुए हैं । दे० 'स्मृति' । शठरिपु - दक्षिण भारत के आलवार सन्त अपनी प्रेमा भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं । इन्हीं में शठरिपु की गणना होती है । कलि के आरम्भ में पाण्ड्य देश की करुकापुरी में इनका जन्म हुआ, जिन्हें शठकोप भी कहते हैं । इनके शिष्य 'मधुर' कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था । विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के आचार्यों को परम्परा में शठकोप स्वामी आदरपूर्वक गिने जाते हैं । शतदूषणी आचार्य वेंकटनाव या वेदान्तदेशिक कृत श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का तर्कपूर्ण वेदान्त ग्रन्थ । रामानुजाचार्य ने भी इसके पूर्व शतदुषणी नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इन ग्रन्थों में अद्वैतवाद की आलोचना की गयी है। शतपति — इन्द्र का एक विरुद, जिसका उल्लेख मैत्रायणी संहिता तथा तैत्ति० ब्रा० में हुआ है । इसका अर्थ है। 'मनुष्यों में एक सौ का राजा' तैत्तिरीय ब्राह्मण इसकी व्याख्या 'सौ देवों के राजा' के रूप में करता है । यह 'सौ गाँवों का राजा' अर्थ का भी द्योतक है, जिसका पता परवर्ती धर्मग्रन्थों से चलता है । यह ऐसे मानव कर्मचारी के अर्थ में प्रयुक्त है, जो राजा की ओर से न्यायाधिकारी या भूमिकरसंग्राहक के रूप में नियुक्त होता था शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिनो तथा काण्व शाखाओं का ब्राह्मण शतपथ है। यह विस्तृत और सुग्यवस्थित ग्रन्थ है । शत ( एक सौ ) अध्याय होने के कारण इसका नाम शतपथ पड़ा। इसमें माध्यन्दिनी शाखा के चौदह काण्ड हैं तथा काण्व शाखा के सत्रह काण्ड हैं । प्रथम पाँच तथा अन्तिम काण्ड के रचयिता शांडिल्य ऋषि कहे जाते हैं। इसमें बारह सहस्र ऋचाएँ आठ सहस्र यजुष् तथा चार सहस्र साम प्रयुक्त हैं। इसके तीन प्रामाणिक भाष्य उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताओं के नाम है हरि स्वामी, सायण और कवीन्द्र सरस्वती । शङ्कराचार्य ने जिस Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ शतभिषास्नान-शनिव्रत बृहदारण्यक उपनिषद् का भाष्य लिखा वह काण्व शाखा शतयातु-सौ मायाशक्ति वाला । ऋग्वेद (७.१८.२१) में के अन्तर्गत है। यह एक ऋषि का नाम है। इनका उल्लेख पराशर के इसमें प्रथम से नवम काण्ड तक वाजसनेयी संहिता के पश्चात् तथा वसिष्ठ के पूर्व हुआ है। कुछ विद्वान् इन्हें प्रथम अठारह अध्यायों के यजुष की व्याख्या और विनि- वसिष्ठ का पुत्र कहते हैं। योग है । दशम काण्ड में अग्निरहस्य का विवेचन किया शतरुद्रसंहिता-शिवपुराण के सात खण्डों में तीसरा खण्ड गया है। एकादश काण्ड में आठ अध्याय हैं। इनमें पूर्व शतरुद्रसंहिता के नाम से ज्ञात है। वर्णित क्रियाओं के ऊपर आख्यान हैं । द्वादश काण्ड में सौत्रा- शतरुद्रिय---यजुर्वेद का रुद्र सम्प्रदाय संबन्धी एक प्रसिद्ध मणी तथा प्रायश्चित्त कर्म वर्णित हैं । तेरहवें काण्ड में अश्व- सूक्त । वैदिक काल में रुद्र (शिव) के क्रमशः अधिक मेध, सर्वमेध, पुरुषमेध और पितृमेध का वर्णन है। चतु- महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने का यह द्योतक है । इसको दश काण्ड आरण्यक है। इसके प्रथम तीन अध्यायों में रुद्राध्याय भी कहते हैं। प्रवर्ग क्रियाओं का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त संहिता के शतश्लोकी-शङ्कराचार्य विरचित ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ इकतीस से लेकर उन्तालीस अध्याय तक की सभी शतश्लोकी है । इसमें वेदान्तीय ज्ञान के एक सौ श्लोक कथाओं के उद्धरण है। इसमें प्रतिपादित किया गया है संग्रहीत हैं। कि विष्णु सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। शेष अध्याय बृह- शत्रुञ्जय (सिद्धाचल)-गुजरात प्रदेश का प्रसिद्ध जैन तीर्थ। . दारण्यक उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहाँ आठ करोड़ मुनि मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। यह सिद्धक्षेत्र है। जैनों में पांच पर्वत पवित्र माने __ ऐतिहासिक दृष्टि से शतपथ ब्राह्मण का बहुत बड़ा जाते हैं : (१) शत्रुञ्जय (सिद्धाचल) (२) अर्बुदाचल महत्त्व है। इसके एक मन्त्र में इतिहास को कला माना (आबू) (३) गिरनार (सौराष्ट्र) (४) कैलास और (५) गया है। महाभारत को अनेक कथाओं के स्रोत इसके सम्मेत शिखर (पारसनाथ, बिहार में)। आख्यानों में पाये जाते हैं, यथा रामकथा, कद्रू-सुपर्णा की शनिप्रदोषव्रत-शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी जिस किसी शनिकथा, पुरूरवा-उर्वशीप्रेमाख्यान, अश्विनीकुमारों द्वारा वार के दिन पड़े उसी दिन इस व्रत का अनुष्ठान करना च्यवन को यौवनदान आदि । इस प्रकार संस्कृत साहित्य चाहिए । यह सन्तानार्थ किया जाता है । इसमें शिवाराधन के काव्य, नाटक, चम्पू प्रभृति अनेक विधाओं के सूत्र तथा सूर्यास्तोपरान्त भोजन विहित है। इस ब्राह्मण में वर्तमान है । वास्तव में यह विशाल विश्व शनिवारव्रत-श्रावण मास में प्रति शनिवार को शनि की कोशात्मक ग्रन्थ है। लौहप्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान कराकर पुष्पों तथा शतभिषास्नान-शतभिषा नक्षत्र के समय यजमान तथा फलों का समर्पण करना चाहिए। इस दिन शनि के नामों परोहित दोनों उपवास करें। यजमान भद्रासन से बैठे का उच्चारण विभिन्न शब्दों में किया जाय, यथाऔर सहस्र कलशों के जल से मोतियों के साथ शंख द्वारा कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अन्तक, यम, सौरि जल भर-भरकर उसको स्नान कराया जाय। तदुपरान्त (सूर्यपुत्र), शनैश्चर तथा मन्द (शनि मन्दगामी है)। चारों नवीन वस्त्र धारण कर वह केशव, वरुण, चन्द्र, शतभिषा शनिवारों को क्रमशः चावल तथा उरद की दाल, खीर, नक्षत्र की (जिसका स्वामी वरुण देवता है) गन्धाक्षत, अम्बिली (मटे में पकाया हुआ चावल का झोल) पुष्पादि से पूजा करे । व्रत के अन्त में यजमान अपने तथा पूड़ी समर्पित करनी चाहिए और व्रती को स्वयं खाना आचार्य को तरल पदार्थ, गौ तथा कलश का दान करे चाहिए। उक्त शनैश्चरस्तोत्र स्कन्दपुराण से ग्रहण किया और अन्यान्य ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करे। यजमान गया है। स्वयं एक रत्न धारण करे जो शमी वृक्ष, सेमल की पत्तियों शनिव्रत-(१) शनिवार के दिन तैलाभ्यंग के साथ स्नान तथा बाँस के अग्रभाग से आवृत हो । । इससे समस्त रोग करके किसी ब्राह्मण (या भड्डरी को) तैल दान करना दूर होते हैं। यह नक्षत्रवत है। इसके विष्णु तथा वरुण चाहिए। इस दिन गहरे श्याम पुष्पों से शनि का पुजन देवता हैं। करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शपथ-शब्दाद्वैतवाद होता है । किसी लोहपात्र अथवा मृत्तिका के कलश में, जो शब्दप्रमाण-न्याय दर्शन के अनुसार चौथा प्रमाण शब्द तेल से भरा हो तथा काले वस्त्र से आवृत हो, शनैश्चर है। 'आप्तोपदेश' अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्द प्रमाण महाराज की लौहप्रतिमा का पूजन करना चाहिए। है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का यह लक्षण बतलाया है ब्राह्मण व्रती के लिए मन्त्र है--"शन्नो देवीरभिष्टय कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया आपो भवन्तु पीतये, शं यो रभिस्रवन्तु नः ।" किन्तु दूसरे हो, ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो वही आप्त है। वर्ण वाले लोगों के लिए पौराणिक मन्त्रों का विधान है। शब्दसमूह वाक्य होता है, शब्द वह है जो अर्थ व्यक्त शनि की (जो 'कोण' के नाम से भी विख्यात है, जो कदाचित् करने में समर्थ हो । शब्द में शक्ति ईश्वर के संकेत से ग्रीक भाषा का शब्द है) प्रार्थना तथा स्तुति की जानी आती है । नव्य न्याय के अनुसार शब्द में शक्ति लम्बी चाहिए। इसके आचरण से शनि ग्रह के समस्त दुष्प्रभाव परम्परा से आती है। शब्द प्रमाण दो प्रकार का हैदूर हो जाते हैं। वैदिक और लौकिक । प्रथम पूर्ण और दूसरा संदिग्ध होता (२) प्रत्येक शनिवार को शनि ग्रह के प्रीत्यर्थ किया है। लौकिक शब्द (वाक्यों में प्रयुक्त) तभी प्रामाणिक जाने वाला व्रत 'शनिव्रत' कहलाता है। माने जाते हैं जब उनमें आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और शपथ-वेदसंहिताओं में यह शाप का बोधक है। ऋग्वेद तात्पर्य हों। शब्दाद्वैतवाद-जो दर्शन यह मानता है कि 'शब्द' ही १५ ) । परवर्ती साहित्य में शपथ का व्यवहार सौगन्ध एकमात्र अद्वैत तत्त्व है, वह शब्दाद्वैतवाद कहलाता है। योग मार्ग में इस दर्शन का विशेष विकास हुआ। प्रत्येक के अर्थ में ही होता है। न्यायपद्धति में 'सत्य के प्रमाण' योगसाधक किसी न किसी रूप में शब्द की उपासना रूप से इसका प्रयोग होता है। करता है। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन है। प्रणव या शबरशंकरविलास-वीर शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित कन्नड ओंकार के रूप में इसका बीज वेदों में वर्तमान है। उपभाषा में रचित एक ग्रन्थ, जो षडक्षरदेव (१७१४ वि०) निषदों में प्रणवोपासना का विशेष विकास हुआ। माण्डूद्वारा प्रणीत है। क्योपनिषद् में कहा गया है कि मूलतः प्रणव ही एक तत्त्व शबर स्वामी-पूर्वमीमांसासूत्र के भाष्यकार । भाष्य की है जो तीन प्रकार से विभक्त है। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्राचीन लेख शैली इनके ई० पांचवीं शती में होने का में भी इस दर्शन के संकेत पाये जाते हैं। उन्होंने सिद्धान्त प्रमाण प्रस्तुत करती है। प्रभाकर एवं कुमारिल दो पूर्व- प्रतिपादन किया है कि शब्दव्यवहार अनादि और अनन्त मीमांसाचार्यों ने शबर के भाष्य पर व्याख्या-वार्तिक (सनातन) है (तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्, २.४.१६)। प्रस्तुत किये है । प्रभाकर शबर की आलोचना नहीं करते शब्दाद्वैत के लिए 'स्फोट' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हैं, जबकि कुमारिल इनसे भिन्न मत स्थापित करते हैं। महाभाष्य में पाया जाता है। सबसे पहली शब्द की शब्द-सब तरह के दृश्य पदार्थ, कल्पना अथवा भावों परिभाषा भी महाभाष्य में ही पायी जाती है : “येनोच्चाया विचारों की प्रतिच्छाया वा प्रतिबिम्ब 'शब्द' हैं। रितेन सास्ना- लाल-ककुद-खुर-विषाणिनां सम्प्रत्ययो शब्द के अभाव में ज्ञान का स्वयंप्रकाशत्व लुप्त हो भवति स शब्दः ।" जाता है। किसी न किसी रूप में सभी योग मतानुयायी भर्तहरि ने शब्दाद्वैतवाद को 'वाक्यपदीय' में दार्शशब्द की उपासना करते हैं जो अति प्राचीन विधि है।। निक रूप दिया। इसके पश्चात् भर्तमित्र ने इस विषय पर प्रणव के रूप में इसका मूल वेद में उपलब्ध है। इसका स्फोटसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा। इसके अनन्तर पुण्यराज प्राचीन नाम स्फोटवाद है। प्राचीन योगियों में भर्तृहरि ने और कैयट की व्याख्याओं में इस मत का प्रतिपादन हुआ । शब्दाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया । नाथ संप्रदाय में भी इसके प्रबल समर्थक नागेश भट्ट अठारहवीं शती में हए। शब्द पर जोर दिया गया है। आधुनिक राधास्वामी मत, वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती सभी ने शब्द योग साधन ही जिसका लक्ष्य है, शब्द की ही उपासना पर दार्शनिक ढंग से विचार किया है। वैयाकरणों के बतलाता है । चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है। अनुसार शब्द से ही अर्थबोध और संसार का ज्ञान होता Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० शम्बर-शम्भुदेव जिस है। उसके अभाव में ज्ञान का प्रकाशकत्व नष्ट हो जाता है। सब दृश्य जगत् और उसके पदार्य कल्पना मात्र हैं, विचारों की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिबिम्ब हैं। इस प्रकार शब्द ही सत्य है; बाह्य जगत् अवास्तविक है। वैयाकरणों का यह सिद्धान्त निम्नांकित उपनिषद्वाक्य का भाष्य है : 'वाचारम्भणम् विकारो नामधेयम् मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।' यह मानते हए कि शब्द से अर्थबोध होता है, यह प्रश्न उठता है कि क्या केवल ध्वनि मात्र से अर्थबोध होता है ? उदाहरण के लिए 'गौः' शब्द लीजिए । यह तीन ध्वनियों से बना है-ग् + औ+ स् । यह कहना कठिन है कि आदि, मध्य अथवा अन्तिम ध्वनि से अर्थवोध होता है। नैयायिकों की आपत्ति है कि एक ध्वनि एक-दो क्षण से अधिक अस्तित्व में नहीं रहती; जब अन्तिम ध्वनि का उच्चारण होता है तब तक आदि और मध्य ध्वनियाँ लत हो जाती है । नैयायिकों के अनुसार प्रथम दो ध्वनियों के संस्कार के साथ जब अन्तिम ध्वनि मिलती है तब अर्थ- बोध होता है । इससे वैयाकरणों की कठिनाई तो दूर हो जाती है परन्तु दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है। नैयायिक और भाषाविज्ञानी दोनों मानते हैं कि भाषा की इकाई वाक्य है और अर्थबोध के लिए वाक्य में प्रतिज्ञा की एकता होनी चाहिए। यदि प्रथम ध्वनियों का संस्कार और अन्तिम ध्वनि दो वस्तुएँ हैं तो फिर एकता कैसी होगी? मीमांसकों के अनुसार वर्ण नित्य हैं और ध्वनि से व्यक्त किये जाते हैं। मीमांसकों की अर्थप्रत्यायकत्व प्रक्रिया नैयायिकों से मिलती-जुलती है । परन्तु वर्णों की ऐक्यानभति में उन्हें कोई कठिनाई नहीं जान पड़ती, क्योंकि सभी वर्ण नित्य है। किन्तु यह आपत्ति बनी रहती है कि वर्णों की अनुभूति क्षणिक है और इस परिस्थिति में सभी वर्णों की एकता शक्य नहीं है । वैयाकरणों ने इस कठिनाई को दूर करने के लिए वाचकता का एक नया अधिष्ठान ढूंढ़ निकाला, वह था स्फोटवाद । 'स्फोट' भिन्न शब्दों और अर्थों में एक होकर भी स्थायी रूप से व्यक्त होता है । अतः वाक्य में एकतानता बनी रहती है। वैयाकरणों ने इस स्फोट का वाचक प्रणव को माना, जिससे सम्पूर्ण विश्व को अभिव्यक्ति हुई है । __ शब्दाद्वैतवाद का पूर्ण विकास और पूर्ण संगति तब हुई जब इसका सम्बन्ध अद्वैत वेदान्त (शाङ्कर वेदान्त) से जोड़ा गया । शब्दतत्त्व उसी प्रकार विश्व का कारण है जिस प्रकार ब्रह्म विश्व का कारण है। इस प्रकार शब्द को शब्दब्रह्म मान लिया गया। शब्दब्रह्मवाद (शब्दाद्वैतवाद) का विवेचन भर्तहरि ने अपने वाक्यपदीय में निम्नांकित प्रकार से किया है : अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा । भोक्त-भोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः ॥ जिस प्रकार शाङ्कर वेदान्त में विश्व ब्रह्म का विवर्त माना गया है उसी प्रकार शब्दाद्वैतवाद के अनुसार यह विश्व शब्द का विवर्त है । यह वाद परिणामवाद (सांख्य) है और आरम्भवाद (न्याय) का प्रत्याख्यान करता है। शब्द और अर्थ के बीच का सम्बन्ध नित्य है । शब्दब्रह्म की अनुभूति के लिए शब्द के स्वरूप को जानना आवश्यक है। शब्द चार रूपों में प्रकट होता है : परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। इनमें से तीन गुप्त रहती है; परा मूलाधार में, पश्यन्ती नाभिस्थान में और मध्यमा हृदयावकाश में निवास करती है। इनकी अनुभूति और ज्ञान केवल ब्रह्मज्ञानी मनीषियों को होता है । इनमें चौथी वैखरी वाणी ही बाहर व्यक्त होती है जिसको मनुष्य बोलते हैं। वास्तव में शब्दब्रह्म की उपासना ब्रह्म की ही उपासना है। शब्दब्रह्म की अनुभूति प्रणव की उपासना और यौगिक प्रक्रिया द्वारा नाभिचक्र में स्थित कुण्डलिनी को जागृत करने से होती है। शम्बर-इन्द्र के एक शत्रु का नाम । इसका उल्लेख शुश्न, पिघु एवं वचिन के साथ, दास के रूप में तथा कुलितर (ऋ० ६.२६.५) के पुत्र के रूप में हआ है । इसके नब्बे, निन्यानबे तथा सौ दुर्ग कहे गये हैं। इसका सबसे बड़ा शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसने इन्द्र की सहायता से उस पर विजय प्राप्त की। यह कहना कठिन है कि शम्बर वास्तविक व्यक्ति था या नहीं। हिलब्रण्ट इसको दिवोदास का विरोधी सामन्त मानते हैं। वास्तव में शम्बर पर्वतवासी शत्रु था, जिससे दिवोदास को युद्ध करना पड़ा। शम्भुदेव-शैव सिद्धान्त के सोलहवीं शती के एक प्रसिद्ध आचार्य । इन्होंने अपने मत के नियमों को दर्शाने के लिए शैवसिद्धान्तदीपिका तथा शम्भुपद्धति नामक दो ग्रन्थों की रचना की। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शय्यादान-शाकद्वीपीय ब्राह्मण शय्यादान-पर्यत और उसके उपयोगी समस्त वस्त्रों का शिव प्रलय काल में सम्पूर्ण प्रजा का संहार करते हैं, दान । यह मासोपवासव्रत तथा शर्करासप्तमी आदि अनेक अथवा भक्तों के पापों का विनाश करते हैं, अतः उनको व्रतों में वांछनीय है। शर्व कहा जाता है। शरभ उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद । इसमें उग्र देवता शर्वाणी-शर्व (शिव) की पत्नी पार्वती का पर्याय । शरभ की महिमा और उपासना बतायी गयी है। शस्त्र-यज्ञकर्म में होता पुरोहित का पाठ्य मन्त्रभाग, जो उद्गाता के 'स्तोत्र' से भिन्न है । प्रातःकालीन सोमदान शरभङ्ग आश्रम-मध्य प्रदेशवर्ती वैष्णव तीर्थस्थान । विराध सम्बन्धी शस्त्र 'आज्य' तथा 'प्रौग', मध्यकाल का 'मरुत्वकुण्ड एवं टिकरिया गांव के समीप वन में यह स्थान है। तीय' तथा 'निष्केवल्य' एवं सान्ध्यकालीन 'वैश्वदेव' आश्रम के पास एक कुण्ड है, जिसमें नीचे से जल आता है। यहाँ राममन्दिर है, वन्य पशुओं के भय से मन्दिर का तथा 'आग्निमारुत' कहलाता है । बाहरी द्वार संध्या के पहले बन्द कर दिया जाता है । शाक-(१) वनस्पति को शाक कहते हैं । ये दस प्रकार के महर्षि शरभङ्ग ने भगवान् राम के सामने यहीं अग्नि बताये जाते हैं, यथा मूल, पत्तियाँ, अङ्कर, गुच्छक, फल, प्रज्वलित करके शरीर छोड़ा था। शाखा, अंकुरित धान्य, छाल, फूल तथा कुकुरमुत्ता जाति की उपज । दे. अमरकोश के टीकाकार क्षीरस्वामी इस प्रकार के तपोमय जीवन यापन करने की पद्धति का विवरण। 'शरभंग सम्प्रदाय' कही जाती है। (२) सप्त द्वीपों में से एक द्वीप का नाम । मत्स्यशर्करासप्तमी-चैत्र शक्ल सप्तमी को प्रातः तिलमिश्रित पुराण (अ० १०२) में इसका विस्तृत वर्णन है : “इस जल से स्नान करना चाहिए। एक वेदी पर केसर से द्वीप का जम्बूद्वीप से दुगुना विस्तार है। विस्तार से दूना कमलपुष्प पर सूर्य की आकृति बनाकर 'नमः सवित्रे' चारों ओर इसका परिणाह (घेरा) है । उस द्वीप से यह बोलते हुए धूप-पुष्पादि चढ़ाये जाय । एक कलश में सुवर्ण लवणोदधि (समुद्र) मिला हुआ है । वहाँ पुण्य जनपद है, खण्ड डालकर उसे शर्करा से भरे हए पात्र से ढककर जहाँ दीर्घायु होकर लोग मरते हैं, दुर्भिक्ष नहीं पड़ता, पौराणिक मन्त्रों से उसकी स्थापना की जाय । फिर क्षमा और तेज से युक्त जन हैं। मणि से भूषित सात पञ्चगव्य प्राशन तथा कलश के समीप ही शयन करना पर्वत हैं । चाहिए। उस समय धीमे स्वर से सौरमन्त्रों (ऋग्वेद १.५०) का पाठ करना चाहिए । अष्टमी के दिन पूर्वोक्त सभी शाकटायन-शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी वस्तुओं का दान करना चाहिए। इस दिन शर्करा, घृत अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध है । इस प्रातितथा खीर का ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रती स्वयं शाख्यसूत्र में शाकटायन का नामोल्लेख एक पूर्वाचार्य के लवण तथा तैल रहित भोजन करे। प्रति मास इसी रूप में हुआ है। अष्टाध्यायी के सूत्रों में पाणिनि ने प्रकार से व्रत करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका जिन पूर्व वैयाकरणों के नामोल्लेख किये हैं उनमें शाकआचरण विहित है। व्रत के अन्त में पर्योपयोगी वस्त्र, टायन भी हैं। किसी नये शाकटायन ने कामधेनु नामक सुवर्ण, एक गौ, एक मकान (यदि सम्भव हो) तथा एक व्याकरण भी लिखा है । से सहस्र निष्क तक सुवर्ण का दान विहित है। जिम शाकद्वीपीय ब्राह्मण-भारत पर शकों के आक्रमण के पूर्व, समय सूर्य अमृत पान कर रहे थे उस समय उसकी कुछ उनके बसने के कारण वर्तमान बलोचिस्तान का दक्षिणी बूंदें पृथ्वी पर गिर पड़ीं, जिससे चावल, मूंग तथा गन्ना भाग सीस्तान ( शकस्थान ) कहलाता था। उनके भारत उत्पन्न हो गये, अतः ये सूर्य को प्रिय है। इस व्रत के में आने के बाद सिन्ध भी सीस्तान (शकस्थान अथवा आचरण से शोक दूर होता है तथा पुत्र, धन, दीर्घायु एवं शाकद्वीप ) कहलाने लगा। वहाँ से जो ब्राह्मण विशेषकर स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है। उत्तर भारत में फैले वे शाकद्वीपीय कहलाये। इनकी पूर्व शर्व-शिव का एक पर्याय । 'शृ' धातु से व प्रत्यय लगाने उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में भगों का वर्णन देखना पर यह शब्द बनता है, जिसका अर्थ है संहार करना चाहिए । ऐसा लगता है कि मग ब्राह्मण मूलतः मगध में Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ शाकपूणि-शाक्तमत बसते थे, जिसके कारण यह प्रदेश 'मगध' कहलाता था। सन्धियाँ तोडकर पदों को अलग-अलग स्मरण करने की यहाँ से वे पश्चिमी एशिया के देशों में गये और वहाँ से पद्धति चलायो। पदपाठ से शब्दों के मूल की ठीक-ठीक पुनः भारत वापस आये। सूर्यमन्दिरों में पुजारी का कार्य विवेचना की रक्षा हुई। शतपथ ब्राह्मण में शाकल्य का करनेवाले मग ब्राह्मणों का वर्णन पूर्व हो चुका है। इन्हीं दूसरा नाम विदग्ध भी मिलता है। विदेह के राजा जनक मगों को भोजक तथा शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी कहते हैं । के ये सभापण्डित और याज्ञवल्क्य के प्रतिद्वन्द्वी थे। ये भविष्यपुराण में शाकद्वीपी मग ब्राह्मणों का शाकद्वीप से । कोसलक-विदेह थे। ऐसा जान पडता है कि ऋग्वेद के पदलाया जाना वणित है। इसमें उनकी चाल, ढाल, प्रथाएँ पाठ का कोसल-विदेह में विकास हुआ। आदि विस्तार से बतायी गयी हैं। शाकसप्तमी-कार्तिक शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ इनको भारत में लानेवाले कृष्ण के पुत्र साम्ब थे । वर्णन होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन भाग कर प्रति से जान पड़ता है कि जरथुस्त्र के पूर्व की अथवा उन्हीं की भाग में एक वर्षपर्यन्त व्रताचरण करना चाहिए । पञ्चमी समकालीन सूर्योपासक आर्य जातियाँ भारतवर्ष में को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास पश्चिमी देशों से आकर फैली। पारसियों की प्रथाएँ रखा जाय । इस दिन ब्राह्मणों को अच्छे मसालों से बनी मगों से कुछ मिलती-जुलती हैं । आज भी फारसी साहित्य वनस्पतियों ( शाकों) से युक्त भोजन कराना विहित है। में मगों के आचार्यों का नाम 'पीरे मुगाँ' सैकड़ों स्थानों में व्रती को स्वयं रात्रि में भोजन करना चाहिए। सूर्य इसके पाया जाता है। ये लोग यज्ञविहित सुरापान करते थे। देवता हैं । चार-चार महीनों के प्रति भाग में भिन्न प्रकार ज्योतिष और वैद्यक शास्त्र का इनमें विशेष प्रचार था। के पुष्प ( अगस्ति, सुगन्धित पुष्प, करवीर आदि ), प्रलेप आभिचारिक तथा तान्त्रिक क्रियाओं के भी ये विशेषज्ञ ( केसर, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन ), धूप ( अपराजित, होते थे। दे० 'मग ब्राह्मण ।' अगरु तथा गुग्गुलु ), नैवेद्य ( खीर, गुड़ की चपाती, शाकपूणि-भट्ट भास्कर के कृष्ण यजुर्वेद भाष्य में शाकपूणि उबाले हुए चावल ) का उपयोग करना चाहिए । वर्ष के का नामोल्लेख है । अपने पूर्ववर्ती निरुक्तकारों में शाकपूणि अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराना तथा किसी पुराणपाठक की गणना यास्क ने की है। से पुराण श्रवण करना चाहिए। शाकम्भरी-दुर्गा का एक नाम । इसका शाब्दिक अर्थ है ह शाकार्य-कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में अनेक - 'शाक से जनता का भरण करने वाली ।' मार्कण्डेय पुराण आचार्यों के साथ शाकार्य का नामोल्लेख हुआ है । के चण्डीस्तोत्र में यही विचार व्यक्त किया गया है : शाकिनी-दुर्गा की एक अनुचरी । कात्यायनीकल्प में ततोऽयमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवः । इसका उल्लेख है : भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकः ॥ डाकिनी योगिनी चैव खेचरी शाकिनी तथा। शाकम्भरीति विख्याति तदा यास्याम्यहं भुवि । वामन पुराण ( अ० ५३ ) में भी शाकम्भरी नाम पड़ने दिक्षु पूज्या इमा देव्यः सूसिद्धाः फलदायिकाः ।। का यही कारण दिया हुआ है। शाक्त-शक्ति या दुर्गा के उपासक। जिस सम्प्रदाय की इष्ट देवता 'शक्ति' है उसको ही शाक्त कहते हैं । शाकम्भरी-राजस्थान का एक प्रसिद्ध देवीतीर्थ । उस शक्ति से इसका सम्बन्ध है जिससे शाक ( वनस्पति अथवा शाक्तमत-शक्तिपूजक सम्प्रदाय । शक्तिपूजा का स्रोत उद्भिज ) की वृद्धि होती है। नवलगढ़ से २५ मील वेदों में प्राप्त होता है। वाक्, सरस्वती, श्रद्धा आदि के दक्षिण-पश्चिम पर्वतीय प्रदेश में यह स्थान है। ऊपर रूप में स्त्रीशक्ति की कल्पना वेदों में की गयी है। सभी शाकम्भरी देवी का मन्दिर है। यह सिद्ध पीठ कहा देवताओं की देवियों (पत्नियों) की कल्पना भी शक्ति की जाता है। ही कल्पना है। ऋग्वेद के अष्टम अष्टक के अन्तिम सूक्त शाकल-ऋग्वेद की एक शाखा । शाकल्य वैदिक ऋषि थे। में 'इयं शुष्मेभिः' आदि मन्त्रों से महाशक्ति सरस्वती की उन्होंने ऋग्वेद के पदपाठ का प्रवर्तन किया, वाक्यों की स्तुति की गयी है । सामवेद के वाचंयम सुक्त में 'हवाइ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाक्तमत ६२३ वाचम' आदि तथा ज्योतिष्टोम में 'वाग्विसर्जन स्तोम' का उल्लेख है। यजुर्वेद ( अ० २.२ ) में 'सरस्वत्यै स्वाहा' मन्त्र से आहति देने का विधान है । यजुर्वेद ( ५.१६ ) में पृथ्वी और अदिति देवियों का वर्णन है। इसके सत्रहनें अध्याय के ५५७ मन्त्र में पाँच दिशाओं से विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम और ब्रह्मा देवताओं की शक्तियों का आवाहन किया गया है। अथर्नवेद के चतुर्थ काण्ड के ३०० सूक्त में महाशक्ति का निम्नांकित कथन है : ___'मैं सभी रुद्रों और वसुओं के साथ संचरण करती हूँ। इसी प्रकार सभी आदित्यों और सभी देवों के साथ, आदि ।' उपनिषदों में भी शक्ति की कल्पना का विकास दिखाई पड़ता है । केनोपनिषद् में इस बात का वर्णन है कि उमा हैमवती (पार्वती का एक पूर्व नाम ) ने महाशक्ति के रूप में प्रकट होकर ब्रह्म का उपदेश किया । अथर्वशीर्ष, श्रीसूक्त, देवीसूक्त आदि में शक्ति की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं। नैगम ( गैदिक ) शाक्तों के अनुसार प्रमुख दस उपनिषदों में दस महाविद्याओं ( शक्तियों) का ही वर्णन है। पुराणों में मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण, कालिका पुराण, देवी भागवत में शक्ति का विशेष रूप से वर्णन है। रामायण और महाभारत दोनों में देवी की स्तुतियाँ पायी जाती है। अद्भुत रामायण में सीताजी का वर्णन परात्परा शक्ति के रूप में है। नैष्णवग्रन्थ नारदपञ्चरात्र में भी दस महाविद्याओं का विस्तार से वर्णन है । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शाक्तमत अत्यन्त प्राचीन है और उसका भा आधार श्रुति-स्मृति है, जिस प्रकार अन्य धार्मिक संप्रदायों का। शैव मत के समान ही शाक्तमत भी निगमानुमोदित है। परन्तु नैदिक कर्मकाण्ड की अपेक्षा शाक्त उपासना श्रेष्ठ मानी जाती है। आगमों के आचार का विकास होने पर शाक्तमत के दो उपसम्प्रदाय हो गये-(१) दक्षिणाचार (नैदिक मार्ग) और (२) वामाचार । दक्षिणाचार को समयाचार भी कहते हैं और वामाचार को कौलाचार । दक्षिणाचार सदाचारपूर्ण और दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। इसका अनुयायी अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्वों से शिवा ( शक्ति ) की पूजा करता है। इसमें पञ्च मकारों (मद्यादि) के स्थान पर विजयारस का सेवन होता है। इसके अनुसार शक्ति और शक्तिमान की अभिन्नता की अनुभूति योग के द्वारा होती है। योग शक्ति-उपासना का प्रधान अङ्ग है। योग के छ: चक्रों में कुण्डलिनी और आज्ञा दो चक्र महाशक्ति के प्रतीक है। आज्ञा चक्र की शक्ति से ही विश्व का विकास होता है। यौगिक साधनाओं में 'समय' का एक विशेष अर्थ है । हृदयाकाश में चक्रभावना के द्वारा शक्ति के साथ अधिष्ठान, अनुष्ठान, अवस्थान, नाम तथा रूप भेद से पाँच प्रकार का साम्य धारण करनेवाले शिव ही 'समय' कहे जाते हैं । समय वास्तव में शिव और शक्ति का सामरस्य ( मिश्रण ) है । समयाचार की साधना के अन्तर्गत मूलाधार में से सुप्त कुण्डलिनी को जगाकर स्वाधिष्ठान आदि चक्रों से ले जाते हुए सहस्रार चक्र में अधिष्ठित सदाशिव के साथ ऐक्य या तादात्म्य करा देना ही साधक का मुख्य ध्येय होता है। । वामाचार अथवा कौलमत की साधना दक्षिणाचार से भिन्न है किन्तु ध्येय दोनों का एक ही है। 'कौल' उसको कहते हैं जो शिव और शक्ति का तादात्म्य कराने में समर्थ है । 'कुल' शक्ति अथवा कुण्डलिनी है; 'अकुल' शिव है। जो अपनी यौगिक साधना से कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार चक्र में स्थित शिव से उसका मिलन कराने में सक्षम है वही कौल है। कौल का आचार कौलाचार अथवा वामाचार कहलाता है। इसमें पञ्च मकारों का सेवन होता है। ये पञ्च मकार हैं (१) मद्य (२) मांस (३) मत्स्य (४) मुद्रा और (५) मैथुन । वास्तव में ये नाम प्रतीकात्मक हैं और इनका रहस्य गूढ है। मद्य भौतिक मदिरा नहीं है, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रदल कमल से स्यूत अमृत ही मधु या मदिरा है । जो साधक ज्ञानरूपी खड्ग से वासनारूपी (पाप-पुण्य) पशुओं को मारता है और अपने मन को शिव में लगाता है वही मांस का सेवन है । मत्स्य शरीर में स्थित इडा तथा पिङ्गला नाड़ियों में प्रवाहित होने वाला श्वास तथा प्रश्वास है । वही साधक मत्स्य का सेवन करता है जो प्राणायाम की प्रक्रिया से श्वास-प्रश्वास को रोककर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी के भीतर संचालित करता है। असत् संग का त्याग और सत्संग का सेवन मुद्रा है । सहस्रार चक्र में स्थित शिव और कुण्डलिनी (शक्ति) का मिलन मैथुन (दो का एक होना) है। ज Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ शाक्त संन्यासी मूलतः कोलसाधना यौगिक उपासना थी । कालान्तर इससे स्पष्ट है कि तारा की उपासना चीन से भारत में में कुछ ऐसे लोग इस साधना में घुस आये जो आचार के आयी । नेपाली बौद्ध ग्रन्थ साधनमाला का तन्त्र के जटानिम्न स्तर के अभ्यासी थे । इन लोगों ने पञ्च मकारों का साधन प्रसंग में निम्नांकित कथन भी इस तथ्य की पुष्टि भौतिक अर्थ लगाया और इनके द्वारा भौतिक मद्य, मांस, करता है: मत्स्य, मुद्रा और मैथुन का खुलकर सेवन होने लगा। ___"आर्य नागार्जुनपादैर्भोटदेशात् समुद्धृता।" वामाचार के पतन और दुर्नाम का यही कारण था । [ तारा देवी की मूर्ति आर्य नागार्जुनाचार्य द्वारा भोट शाक्त दर्शन में छत्तीस तत्त्व माने गये हैं जो तीन वर्गों देश (तिब्बत) से लायी गयी । ] स्वतन्त्रतन्त्र नामक में विभक्त हैं-(१) शिवतत्त्व (२) विद्यातत्त्व और ग्रन्थ में भी तारा देवी की विदेशी उत्पत्ति का उल्लेख है : (३) आत्मतत्त्व । शिवतत्त्व में दो तत्त्वों, शिव और मेरोः पश्चिमकोणे तु चोलनाख्यो ह्रदो महान् । शक्ति का समावेश है। विद्यातत्त्व में सदाशिव, ईश्वर तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती ।। और शुद्ध विद्या सम्मिलित है। आत्मतत्त्व में इकतीस शाक्तों के पाँच वेदों, पांच योगियों और पांच पीठों तत्त्वों का समाहार है, जिनकी गणना इस प्रकार है का उल्लेख कुलालिकातन्त्र में पाया जाता है। इनमें माया, कला, विद्या, राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊर्ध्व ये पाँच आम्नाय बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, अथवा वेद हैं । महेश्वर, शिवयोगी आदि पाँच योगी पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) और पाँच हैं। उत्कल में उडियान, पंजाब में जालन्धर, महाराष्ट्र में महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)। पूर्ण, श्रीशैल पर मतङ्ग और कामरूप में कामाख्या ये शिव-शक्तिसंगम में शाक्त मत के अनुसार परा शक्ति की ही प्रधानता होती है । परम पुरुष के हृदय में सृष्टि पाँच पीठ हैं । आगे चलकर शाक्तों के इकावन पीठ हो गये और इस मत में बहुसंख्यक जनता दीक्षित होने की इच्छा उत्पन्न होते ही उसके दो रूप, शिव और शक्ति प्रकट हो जाते है । शिव प्रकाशरूप हैं और शक्ति लगी । इसका सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि (भैरवी) विमर्शरूप । विमर्श का तात्पर्य है पूर्ण और शद्ध अहंकार चक्रपूजा में सभी शाक्त (चाहे वे किसी वर्ण के हों) ब्राह्मण की स्फूर्ति । इसके कई नाम हैं-चित्, चैतन्य, स्वातन्त्र्य, माने जाने लगे । धार्मिक संस्कारों के मंडल, यन्त्र और चक्र जो शक्तिपूजा के अधिष्ठान थे, वैदिक और स्मार्त कर्तत्व, स्फुरण आदि । प्रकाश और विमर्श का अस्तित्व संस्कारों में भी प्रविष्ट हो गये। शाक्त मत का विशाल युगपत् रहता है। प्रकाश को संवित् और विमर्श को युक्ति भी कहा जाता है । शिव और शक्ति के आन्तर साहित्य है जिसका बहुत बड़ा अंश अभी तक अप्रकाशित निमेष को सदाशिव और बाह्य उन्मेष को ईश्वर कहते है। इसके दो उपसम्प्रदाय हैं-(१) श्रीकुल और (२) है। इसी शिव-शक्तिसंगम से सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न कालीकुल । प्रथम उपसम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थों में अगस्त्य होती है। का शक्तिसूत्र तथा शक्तिमहिम्नस्तोत्र, सुमेधा का त्रिपुरारहस्य, गौडपाद का विद्यारत्नसूत्र, शंकराचार्य के शाक्त मत में वामाचार के उद्गम और विकास को सौन्दर्यलहरी और प्रपश्चसार एवं अभिनवगुप्त का तन्त्रालेकर कई मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इसका उद्गम लोक प्रसिद्ध है । दूसरे उपसम्प्रदाय में कालज्ञान, कालोभारत के उस वर्ग से मानते हैं, जिसमें मातृशक्ति की त्तर, महाकालसंहिता आदि मुख्य हैं । पूजा आदि काल से चली आ रही थी, परन्तु वे लोग स्मातं आचार से प्रभावित नहीं थे। दूसरे विचारक इस सम्प्र- शाक्त संन्यासी-शाक्त संन्यासी देश के कोने-कोनेमें दाय में वामाचार के प्रवेश के लिए तिब्बत और चीन का छिटपुट पाये जाते हैं । रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी, प्रभाव मानते हैं । बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय इसका स्वयं रामकृष्ण तथा विवेकानन्द शाक्त संन्यासी थे। माध्यम था। चीनाचार आदि कई आगम ग्रन्थों में इस रामकृष्ण मिशन के अन्य स्वामी लोग भी शाक्त संन्यासियों बात का उल्लेख है कि वसिष्ठ ऋषि ने बद्ध के उपदेश से के उदाहरण हैं तथा शङ्कराचार्य के दसनामियों की पूरी चीन देश में जाकर तारा देवी का दर्शन किया था। शाखा से सम्बद्ध हैं। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाक्तानन्दतरङ्गिणी - शाण्डिल्यायन शाक्तानन्दतरङ्गिणी - यह स्वामी ब्रह्मानन्द गिरि रचित एक शाक्त ग्रन्थ है | शाक्य मुनि शाक्य वंश में अवतीर्ण होने के कारण गौतम बुद्ध शाक्य मुनि कहलाते थे । शाक शाल वृक्ष को कहते हैं। अयोध्या के इक्ष्वाकु (सूर्यपुत्र) वंश की एक शाखा गौतमगोत्रज कपिल मुनि के आश्रमप्रदेश में, जिसमें शाक वृक्षों का आधिक्य था, आकर बस गयी थी, इसलिए वह शाक्य कहलाने लगी । अमरकोश के टीकाकार भरत का निम्नांकित कथन है : ---- शाकवृक्ष प्रतिच्छन्नं वासं यस्मात् प्रचक्रिरे । तस्मादिक्ष्वाकुवंश्यास्ते भुवि शाक्य इति श्रुताः ॥ शाक्य मुनि को शाक्यसिंह भी कहते हैं । शाक्री-शक्र की शक्ति । यह दुर्गा का पर्याय है : इन्द्राणी इन्द्रजननी शाक्री शक्रपराक्रमा | कुकरा देवी बच्चा तेनोपगीयते ॥ कहते हैं शाख - विशाख को ही शाख भी नाम कृत्तिकापुत्र या कार्तिकेय भी है। पार्वती के पुत्र थे, जिनका पालन किया था । । शाङ्खायन कौषीतकि ब्राह्मण, कौषीतकि गृह्यसूत्र आदि के रचनाकार तथा ऋग्वेद के एक शाखा सम्पादक । इनका उल्लेख वंशसूची में शाङ्खायन आरण्यक के अन्त में हुआ है जहाँ गुणारूप को उसका रचयिता कहा गया है। श्रौतसूत्र में शाङ्खायन का नामोल्लेख नहीं है, किन्तु गृह्यसूत्र सुयज्ञ शाङ्खायन को आचार्य के रूप में लिखता है। परवर्ती काल में शाङ्खायन शाखा के अनुयायी उत्तरी गुजरात में पाये जाते थे । शाङ्खायन तैत्तिरीय प्रातिशाख्य में काण्डमायन के साथ उल्लिखित हैं । शाङ्खायन आरण्यक ऋग्वेद का एक आरण्यक । इस आरण्यक का सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद प्रो० कीथ ने किया है। - (देवीपुराण) । इनका दूसरा वास्तव में वे कृत्तिकाओं ने शाङ्खायनगृह्यसूत्र -- गृह्यसूत्रों के वर्ग में ऋग्वेद से सम्ब न्धित शाङ्खायनगृह्यसूत्र प्रमुखतया प्रचलित है । शाङ्खायनब्राह्मण - यह ऋग्वेद की कौषीतकि शाखा का ब्राह्मण है । कौषीतकिब्राह्मण नाम से भी यह ख्यात हैं । शाङ्खायनधौतसूत्र वेदीय साहित्यान्तर्गत संहिता और ७९ -- ६२५ ब्राह्मण के पश्चात् तीसरी कोटि का साहित्य | यह ४८ अध्यायों में है। शायन श्रौतसूत्र का शाङ्खायन ब्राह्मण से सम्बन्ध है । इस श्रौतसूत्र के पन्द्रहवें और सोलहवें अध्याय की रचना ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषाशैली में हुई है । इससे इसकी प्राचीनता अनुमानित की जाती है । इसके सत्रहवें और अठारहवें अध्याय का सम्बन्ध कौपीतकि आरण्यक के पहले दो अध्यायों के साथ निष्ठ प्रतीत होता है। शाट्यायनाय के गोत्रज शाट्यायन का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (८.१.४.९, १०.४.५.२ ) में दो बार हुआ हैं । जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण में प्रायः इनका उल्लेख है । वंशसूची में ये ज्वालायन के शिष्य कहे गये हैं तथा सामविधान ब्रा० की वंशसूची में बादरायण के शिष्य उल्लि खित हैं । शाट्यायनों का उल्लेख सूत्रों में भरा पड़ा है। शाट्यायन ब्राह्मण तथा शाट्यायनक का भी उनमें उल्लेख है । शाट्यायनब्राह्मण आश्वलायन श्रौतसूत्र में शाट्यायन ब्राह्मण का उल्लेख है । - शाण्डिल्य - शण्डिल के वंशज शाण्डिल्य कहलाते हैं । अनेक आचार्यों का यह वंशबोधक नाम है । सबसे महत्वपूर्ण शाण्डिल्य वे हैं जो अनेक बार शतपथ ब्रा० में सुयोग्य विद्वान् के रूप में वर्णित हैं। इससे स्पष्ट है कि ये अग्निक्रियाओं (यशों) के सबसे बड़े आचायों में थे, जिनसे (यज्ञों से) शतपथ ब्रा० का पांचवां तथा उसके परवर्ती अध्याय भरे पड़े हैं। वंशब्राह्मण के दसवें अध्याय के अन्त में उन्हें कुशिक का शिष्य तथा वात्स्य का आचार्य कहा गया है । यह गोत्रनाम आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुआ । विशेष विवरण के लिए दे० गोत्रप्रवरमञ्जरी । शाण्डिल्यभक्तिसूत्र - यह एक विशिष्ट भागवत ( वैष्णव ) ग्रन्थ है। इसमें भक्तितत्व का विवेचन किया गया है। भक्तिशास्त्र के मौलिक ग्रन्थों में शाण्डिल्य तथा नारद के मनिष ही आते हैं। शाण्डिल्यायन - शाण्डिल्य के गोत्रापत्य ( वंशज) शाण्डिल्यायन कहलाते हैं । शतपथब्राह्मण में यह एक आचार्य का वंशसूचक नाम है | अवश्य वे तथा चेलक एक ही व्यक्ति हैं और इसलिए यह सोचना ठीक है कि चैलकि जीवल Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके पुत्र का नाम था यह सन्देहास्पद है कि वे प्रवाहण जैवलि के पितामह थे जो ब्राह्मण के बदले राजकुमार था। शान्ति - (१) धार्मिक जीवन की एक बड़ी उपलब्धि । पद्मपुराण (क्रियायोगसार, अध्याय १५ ) में इसकी निम्नलिखित परिभाषा है: यत्किञ्चिद् वस्तु सम्प्राप्य स्वल्पं वा यदि वा बहु । या तुष्टिर्जायते चित्ते शान्तिः सा गद्यते बुधः ॥ [ स्वल्प अथवा अधिक जिस किसी वस्तु को पाकर चित्त में जो संतोष उत्पन्न होता है उसे शान्ति कहते हैं । ] (२) दुर्गा का भी एक नाम शान्ति है । देवीपुराण के देवीनिकाध्याय में कथन है उत्पत्ति-स्थिति-नाशेषु सत्वादित्रिगुणा मता । सर्वज्ञा सर्ववेत्तृत्वाच्छान्तित्वाच्छान्तिरुच्यते ।। शान्तिकर्म - अथर्ववेदीय कर्मकाण्ड तीन भागों में विभक्त है - ( १ ) स्वस्तिक ( कल्याणकारी) (२) पौष्टिक (पोषण करने वाला) और (३) शान्तिक ( उपद्रव शान्त करने वाला)। वे सभी कर्म शान्तिकर्म कहलाते हैं जिनसे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपद्रव शान्त होते हैं। आगे चलकर ज्योतिष की व्यापकता बढ़ जाने पर ग्रहशान्ति कर्मकाण्ड का प्रधान अङ्ग बन गया। यह माना जाने लगा कि दुष्ट ग्रहों के कारण ही मनुष्य पर विपत्तियाँ आती हैं, इसलिए विपत्तियों से बचने के लिए ग्रहशान्ति अथवा ग्रहों की पूजा आवश्यक है । शान्तिकर्मों में अद्भुतशान्ति नामक भी कर्म है । प्रकृतिविरुद्ध अद्भुत आपदाओं की पूर्व सूचना के लिए देवता 'उपसर्ग' उत्पन्न करते हैं। इस सम्बन्ध में शान्तिकर्म करने से भावी आपत्तियों की निवृत्ति होती है (दे० 'अद्भुतसागर' में आथर्वण अद्भुतवचनम् ) । इन उपसर्गों के कारण प्रायः नैतिक होते हैं : अतिलोभावसत्वाद्वा नास्तिक्याद्वाप्यधर्मतः । नरापचारान्नियतमुपसर्गः प्रवर्तते ॥ ततोऽपचारान्नियतमपवर्जन्ति देवताः । ताः सृजन्तांस्तांस्तु दिव्यनाभसभूमिजान् ॥ (गर्गसंहिता) शान्तिकल्प यह अथर्ववेद का एक उपांग है। इस कल्प में पहले विनायकों द्वारा ग्रस्त प्राणी के लक्षण हैं । उनकी शान्ति के लिए द्रव्य एवं सामग्री इकट्ठा करने, पूजा, अभि शान्ति-शारदातिलक , षेक और वैनायक होमादि करने का विधान इस कल्प में बतलाया गया है। आदित्यादि नवग्रहों के जप यज्ञ आदि भी इसी में सन्निविष्ट हैं। शान्तिपञ्चमी - श्रावण शुक्ल पञ्चमी को काले तथा अन्य रंगों से सर्पों की आकृति बनाकर उनकी गन्ध-अक्षतलावा आदि से पूजा करनी चाहिए तथा अग्रिम मास की पञ्चमी को दर्भों से सांप बनाकर उनकी तथा इन्द्राणी की पूजा करनी चाहिए। इससे सर्प सर्वदा व्रतकर्ता के ऊपर प्रसन्न रहते हैं। इसका मन्त्र है 'कुरुकुल्ले हुं फट् स्वाहा शाप - क्रोधपूर्वक किसी के अनिष्ट का उद्घोष 'शाप' कहलाता है। विशेषकर ऋषि, मुनि, तपस्वी आदि के अनिष्ट कथन को शाप कहते है। किसी महान् नैतिक अपराध के हो जाने पर शाप दिया जाता था । इसके अनेक उदाहरण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। गौतम ने पतिव्रत भङ्ग के कारण अपनी पत्नी अहल्या को शाप दिया था कि वह शिला हो जाय। दुर्वासा अपने क्रोधी स्वभाव के कारण शाप देने के लिए प्रसिद्ध थे । शावर भाष्य दे० 'शवर स्वामी ।' शाम्बग्य गृह्यसूत्र मुख्य गृहा ग्रन्थों में शाम्बष्य के सूत्र का नाम भी उल्लेखनीय है। यह ऋग्वेद से सम्बन्धित गृहासूत्र है। शाम्भरायणी व्रत - यह नक्षत्रव्रत है और अच्युत इसके देवता हैं । सात वर्षपर्यन्त इसके आचरण का विधान है । बारह नक्षत्रों, जैसे- कृतिका, मृगशिरा, पुष्प तथा इसी प्रकार के अन्य नक्षत्रों के हिसाब से वर्ष के बारह मासों का नामोल्लेख किया गया है, यथा कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष आदि कार्तिक मास की पूर्णिमा से व्रत का आरम्भ कर विष्णु का पूजन करना चाहिए। कार्तिक मास से अग्रिम चार मासों के लिए कृशरा ( खिचड़ी) नैवेद्य है, फाल्गुन से संया ( हलुआ) तथा आषाढ़ से पायस (खीर) । ब्राह्मणों को भी नैवेद्य के हिसाब से भोजन कराया जाय। शाम्भरायणी नामक ब्राह्मणी स्त्री की चांदी की प्रतिमा की स्थापना की जाय। शाम्भरायणी उस ब्राह्मणी का नाम है जिससे बृहस्पति ने इन्द्र के पूर्वजों के बारे में पूछा था। भगवान् कृष्ण ने भी इस आदरणीय महिला की कथा सुनायी है। (भविष्योत्तरपुराण) शारदातिलक -- शारदातिलक तन्त्र शाक्त मत का अधिकारपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता लक्ष्मण --- Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारदापूजा - शिक्षा देशिक हैं । ये ग्यारहवीं शती में उत्पन्न हुए थे । इस ग्रन्थ में केवल मन्त्र एवं यातु (जादू) हैं, क्रियाएँ बहुत कम हैं । यह सरस्वती से सम्बन्धित है जो शारदा भी कहलाती हैं । यह मन्त्रों का वर्गीकरण उपस्थित करता है, उनके प्रयोगार्थ प्रारम्भिक दीक्षा तथा याज्ञिक अग्नि में होम करने के लिए मन्त्रों का प्रयोजन बतलाता है । मुद्राओं तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन करता है। अन्तिम अध्याय में तान्त्रिक योग है। शारदापूजा -- शरद् काल की नवमी तिथि को देवताओं के द्वारा दुर्गा देवी का आवाहन हुआ था, इसलिए ये शारदा कहलाती हैं शरत्काले पुरा यस्माद् नवम्यां बोधिता सुरैः । शारदा सा समाख्याता पीठे लोके च नामतः ।। शरत्कालीन दुर्गापूजा का नाम ही शारदापूजा है। देवीभागवत (अ० २९-३०) में शारदापूजा का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । शारदामठ- स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक । द्वारकापुरी के मठ का नाम शारदामठ या शारदापीठ है। शारीरक ब्रह्माण्ड या पिण्ड शरीर में निवास करने वाला अद्वैत आत्मा ही शारीर है। उसको आधार मानकर लिखे गये ग्रन्थ को 'शारीरक' कहते हैं । वेदव्यासकृत वेदान्तसूत्रों को ही 'शारीरकसूत्र' कहा जाता है । इनके ऊपर लिखे गये शाङ्करभाष्य का नाम भी 'शारीरक भाष्य' है । शालग्राम - विष्णुमूर्ति का प्रतीक गोल शिलाखण्ड नेपाल की गण्डकी अथवा नारायणी नदी में प्राप्त, वज्रकीट से कृत चक्रयुक्त शिला, अथवा द्वारका में प्राप्त ऐसी ही ( गोमती चक्र ) शिला शालग्राम कहलाती है । इसके लक्षण और माहात्म्य आदि पुराणों में विस्तार से वर्णित हैं। पद्मपुराण के पातालखण्ड में इसका विशेष वर्णन है । शास्त्र शास्त्र वह है जिससे शासन आदेश अथवा शिक्षण किया जाता है। शास्त्र की उत्पत्ति का वर्णन मत्स्यपुराण (अ० ३) में इस प्रकार दिया हुआ है पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । नित्यशब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । मीमांसा न्याय विद्याश्च प्रमाणं तर्कसंयुतम् ।। कार्याकार्य में शास्त्र ही प्रमाण माना गया है। - ६२७ शास्त्रदर्पण इस वेदान्तग्रन्थ के रचयिता आचार्य अमलानन्द हैं । इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है । इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का उत्तरार्ध है । शिक्षा-छ दाजों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द) में से प्रथम वेदाङ्ग । इसको वेदों की नासिका कहा गया है। यह शुद्ध उच्चारण (ध्वनि) का शास्त्र है। स्वर और व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण शब्दों के अर्थ का ठीक-ठीक बोध कराता है। मन्त्रों के ठीक उच्चारण से ही उनका मनोवांछित प्रभाव पड़ता है । वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है । यद्यपि यह शास्त्र बहुत पुराना है, तथापि इस विषय पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत कम मिलते है। एक अनुभूति के अनुसार जैगीषव्य के शिष्य बाभ्रव्य इस शास्त्र के प्रवर्तक थे। ऋग्वेद के क्रमपाठ की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी। महाभारत (शान्ति, २४२ १०४) के अनुसार आचार्य गालव ने एक शिक्षाशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण किया था । इनका उल्लेख अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है । वास्तव में पाञ्चाल बाभ्रव्य का ही दूसरा नाम गालव था । भारद्वाज ऋषि प्रणीत 'भारद्वाजशिक्षा' नामक ग्रन्थ 'भण्डारकर रिसर्व इंस्टीट्यूट' पूना से प्रकाशित हुआ है। परन्तु यह बहुत प्राचीन नहीं है। 'बारायणी शिक्षा' की एक हस्तलिखित प्रति डॉ० कीलहार्न को कश्मीर में प्राप्त हुई थी। राजशेखर की काव्यमीमांसा में पाणिनि के पूर्ववर्ती शब्दवि आचार्य आपिशलि का उल्लेख हुआ है । पाणिनि के समय तक शिक्षाशास्त्र का पूर्ण विकास हो चुका था । 'पाणिनीय शिक्षा' इस विषय का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें इस शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन हुआ है । इस नाम से उपलब्ध ग्रन्थ का सम्पादन और प्रकाशन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया था। वाराणसी से एक ग्रन्थ 'शिक्षासंग्रह' के नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें गौतमशिक्षा, नारदीय शिक्षा, पाण्डुकीय शिक्षा और भारद्वाज शिक्षा सम्मिलित हैं । मूलतः वेदों के अलग-अलग शिक्षाग्रन्थ थे । आज केवल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्यशिक्षा, सामवेद की नारदशिक्षा, अथर्ववेद की माण्डूकी शिक्षा ही उपलब्ध हैं । ऋग्वेद का कोई स्वतन्त्र शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; उसके उच्चारण के लिए पाणिनीय शिक्षा का ही उपयोग किया जाता है । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षावल्ली-शिव ध्वनि का आरोह-अवरोह, उच्चारण की शुद्धता, उच्चारण की कालावधि का परिसीमन शिक्षाशास्त्र के मुख्य विषय है । इसके वर्ण्य विषयों में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान इन छ: की गणना होती है। 'अ' से लेकर 'ह' तक जितने वर्ण हैं उनके उच्चारण के विविध स्थान निश्चित हैं । वे हैं-कण्ठ, तालु, मूर्ना, दन्त और ओष्ठ । स्वरों के तीन भेद है-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । मात्राएँ तीन हैं-ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत । बल प्रयत्न को कहते हैं । प्रयत्न दो प्रकार के हैं-अल्पप्राण और महाप्राण । श्रुतिमधुर पाठ को साम कहा जाता है। सन्धि को सन्तान कहते हैं । शिक्षा के इन छः वर्ण्य विषयों के ज्ञान से ही भाषा का शुद्ध उच्चारण और अर्थ बोध संभव है। शिक्षावल्ली-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन विभागों में प्रथम विभाग। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ विवेचन के पश्चात् अद्वैत सिद्धान्तसमर्थक श्रुतियों का विन्यास है। इसी में स्नातक को दिया जाने वाला आचार्य का दीक्षान्त प्रवचन भी है, जो संप्रति अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के पदवीदानसमारोह में स्नातकों के समक्ष पढ़ा जाता है। शिखरिणीमाला-अप्पय दीक्षित द्वारा लिखा गया एक ग्रन्थ। इसमें चौसठ शिखरिणी छन्दों में भगवान् शङ्कर के सगुण स्वरूप की स्तुति की गयी है। शिखा-सिर के मध्य में स्थित केशपुञ्ज । यह हिन्दुओं का विशेष धार्मिक चिह्न है । चूडाकरण संस्कार के समय सिर के मध्य में बालों का एक गुच्छा छोड़ा जाता है। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के समय ( देवकर्म के समय ) शिखा बन्धन किया जाता है। कर्म करने के तीन आश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ) में ही शिखा रखी जाती है, चौथे (संन्यास) में शिखा त्याग दी जाती है । शिरोवत-मुण्डकोपनिषद् (३.२.२०) तथा विष्णु ध० सू० ( २६.१२ ) में इस व्रत का उल्लेख मिलता है। शङ्कराचार्य इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस व्रत में सिर पर अग्नि (तेज) धारण करना होता है, जो ज्ञानसंचय का प्रतीक है। शिव-एक ही परम तत्त्व की तीन मूर्तियों ( ब्रह्मा, विष्णु और शिव) में अन्तिम मूर्ति । ब्रह्मा का कार्य सृष्टि, विष्णु का स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है। परन्तु साम्प्रदायिक शैवों के अनुसार शिव परम तत्त्व हैं और उनके कार्यों में संहार के अतिरिक्त सृष्टि और स्थिति के कार्य भी सम्मिलित हैं। शिव परम कारुणिक भी हैं और उनमें अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा. तिरोभाव (गोपन अथवा लोपन ) की क्रिया भी पायी जाती है । इस प्रकार उनके कार्य पाँच प्रकार के हैं। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ इन्हीं कार्यों में से किसी न किसी से सम्बद्ध हैं। इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है । शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गये हैं । संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान, भैषज्य आदि के मूल प्रवर्तक शिव हैं। इनकी कल्पना सब जीवधारियों के स्वामी के रूप में भी की गयी है, इसलिए ये पशुपति, भूतपति और भूतनाथ कहलाते हैं । ये सभी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाते हैं, अतः महेश्वर और महादेव इनके विरुद पाये जाते हैं। इनमें माया की अनन्त शक्ति है, अतः ये मायापति भी हैं। उमा के पति होने से इनका एक पर्याय उमापति है। इनके अनेक विद और पर्याय हैं। महाभारत ( १३,१७) में इनकी एक लम्बी सहस्रनाम सूची दी हुई है। शिव की कल्पना की उत्पत्ति और विकास का क्रम वैदिक साहित्य से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है । ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में ही शिव की अनेक विशेषताओं और तत्सम्बन्धी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है। इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता ( अ० १६ ) में जो शतरुद्रिय पाठ है उसमें शिव का मूल रूप प्रतिबिम्बित है। उसमें शिव को गिरीश (पर्वत पर रहने वाला), पशुचर्म धारण करने वाला ( कृत्तिवास ) तथा जटाजूट रखने वाला ( कपर्दी) कहा गया है। अथर्ववेद में रुद्र की बड़ी महिमा बतायी गयी है और उनके लिए भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव और ईशान विरुदों का प्रयोग किया गया है। सिन्धुघाटी के उत्खनन से जो धार्मिक वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं उनमें योगी शिव की भी एक प्रतिकृति है। परन्तु अभी तक संज्ञा के रूप में शिव का नाम न मिलकर विशेषण के रूप में ही मिला है। उत्तर वैदिक साहित्य में शिव रुद्र के पर्याय के रूप में मिलने लगता है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में रुद्र के अनेक नामों में शिव भी एक है । शाङ्खायन, कौषीतकि आदि ब्राह्मणों में शिव, रुद्र, Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिव-शिवचतुर्दशीव्रत ६२९ महादेव, महेश्वर, ईशान आदि रुद्र के नाम मिलते हैं। मानी जाती है जिनमें लास्य और ताण्डव दोनों सम्मिलित शतपथ और कौषीतकि ब्राह्मण में रुद्र का एक विरुद हैं । दक्षिणामूर्ति के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है। अशनि भी पाया जाता है। इन आठ विरुदों में से रुद्र, यह शिव के जगद्गुरुत्व का रूप है। इस रूप में ने शर्व, उग्र तथा अशनि शिव के घोर ( भयंकर ) रूप का व्याख्यान अथवा तर्क की मुद्रा में अंकित किये जाते हैं। प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार भव, पशुपति, महादेव मूर्त रूप के अतिरिक्त अमूर्त अथवा प्रतीक रूप में भी शिव और ईशान उनके सौम्य ( सुन्दर ) रूप का । यजुर्वेद में की भावना होती है । इनके प्रतीक को लिङ्ग कहते हैं जो उनके माङ्गलिक विरुद शम्भु और शङ्कर का भी उनके निश्चल ज्ञान और तेज का प्रतिनिधित्व करता उल्लेख है। है। पुराणों में शिव के अनेक अवतारों का वर्णन शिव की पूजा का क्रमशः विकास कब से हुआ यह बत- है। लगता है कि विष्णु के अवतारों की पद्धति पर यह लाना कठिन है। किन्तु इतना निश्चित है कि ईसापूर्व में कल्पना की गयी है । प्रायः दुष्टों के विनाश तथा भक्तों की ही शैव सम्प्रदाय का उदय हो चुका था। पाणिनि ने परीक्षा आदि के लिए शिव अवतार धारण करते हैं । अष्टाध्यायी (४.१.११५) में शिव के उपासकों (शैवों) का शिव-पार्वती के विवाह की कथा संस्कृत साहित्य और उल्लेख किया है । पतञ्जलि ने महाभाष्य में रुद्र और शिव लोकसाहित्य में भी बहुत प्रचलित है। का उल्लेख किया है । महाभाष्य में यह भी कहा गया है कि शिव के भयङ्कर रूप की कल्पना भी पायी जाती है शिवभागवत अयःशूल ( लोहे का त्रिशूल ) और दण्ड जिसका सबन्ध उनके विध्वंसक रूप से है। वे श्मशान, अजिन धारण करते थे । पुराणों में (विशेषतः शव पुराणों रणक्षेत्र, चौराहों ( दुर्घटनास्थल ) में निवास करते हैं । में ) शिव का विस्तृत वर्णन और शिवतत्त्व का विवेचन मुण्डमाला धारण करते हैं। भूत, प्रेत और गणों से घिरे पाया जाता है । संस्कृत के शुद्ध साहित्य और अभिलेखों रहते हैं । वे स्वयं महाकाल (मृत्यु तथा उसके भी काल) में शिव की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं । हैं, जिसके द्वारा महाप्रलय घटित होता है । पुराणों और परवर्ती साहित्य में शिव की कल्पना इनका एक अर्धनारीश्वर रूप है, जिसमें शिव और योगिराज के रूप में की गयी है । उनका निवास स्थान शक्ति के युग्म आकार की कल्पना है । इसी प्रकार हरि-हर कैलास पर्वत है। व्याघ्रचर्म ( बाघम्बर ) पर वे बैठते रूप में शिव और विष्णु के समन्वित रूप का अङ्कन है। है, ध्यान में मग्न रहने हैं। वे अपने ध्यान और तपोबल शिव उपपुराण-उन्तीस उपपुराणों में से यह एक है । से जगत् को धारण करते हैं। उनके सिर पर जटाजूट स्पष्टतः इसका सम्बन्ध शैव सम्प्रदाय से है। है जिसमें द्वितीया का नवचन्द्र जटित है। इसी जटा से शिवकर्णामृत-अप्पय दीक्षित लिखित एक ग्रन्थ । इसमें जगत्पावनी गङ्गा प्रवाहित होती है। ललाट के मध्य में शिव की स्तुतियों का संग्रह है। उनका तीसरा नेत्र है जो अन्तर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतीक शिवकाजी-सुदूर दक्षिण भारत का प्रसिद्ध तीर्थ । यहाँ है । यह प्रलयङ्कर भी है। इसी से शिव ने काम का दहन किया था। शिव का कण्ठ नीला है इसलिए वे नीलकण्ठ सर्वतीर्थ नामक विस्तृत सरोवर है । मुख्य मन्दिर काशीकहलाते हैं । समुद्र मन्थन से जो विष निकला था उसका विश्वनाथ का है। सरोवर के तट पर यात्री मुण्डन और पान करके उन्होंने विश्व को बचा लिया था। उनके श्राद्ध करते हैं । एकामेश्वर शिवकाञ्ची का मुख्य मन्दिर कण्ठ और भुजाओं में सर्प लिपटे रहते हैं। वे अपने सम्पूर्ण है। इस क्षेत्र के है। इस क्षेत्र के दूसरे विभाग में वैष्णवतीर्थ विष्णकाञ्ची शरीर पर भस्म और हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं। स्थित है। उनके वामा में पार्वती विराजमान रहती है और उनके शिवचतुर्थी-भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को शिवचतुर्थी कहा सामने उनका वाहन नन्दी । वे अपने गणों से घिरे रहते जाता है । उस दिन स्नान, दान, उपवास तथा जप करने हैं । योगिराज के अतिरिक्त नटराज के रूप में भी शिव से सहस्र गुना पुण्य होता है । गणेश इसके देवता है। की कल्पना हई है। वे नाट्य और संगीत के भी अधि- शिवचतुर्दशीव्रत-मार्गशीर्ष की कृष्ण त्रयोदशी को एकभक्त ष्ठाता हैं, १०८ प्रकार के नाट्यों की उत्पत्ति शिव से पद्धति से आहार तथा शिवजी की प्रार्थना करनी चाहिए । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवदृष्टि-शिवयोगयुक्तशिवरात्रिव्रत चतुर्दशी को उपवास का विधान है। शंकर तथा उमा की यायी था। इस पंथ में निराकार ब्रह्म की उपासना होती श्वेत कमल तथा गन्धाक्षतादि से चरणों से प्रारम्भ कर है और इनके अनुयायी शिवनारायण को ईश्वर का अवसिरपर्यन्त पूजा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी तार मानते हैं। चतुर्दशियों को व्रत का आयोजन हो सकता है। मार्गशीर्ष शिवपवित्रव्रत-आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन शिव की आराधना मास से प्रारम्भ कर बारह महीनों तक भिन्न-भिन्न नामों करनी चाहिए। इस दिन शिवप्रतिमा को यज्ञोपवीत से शिवजी को प्रणामाञ्जलि देनी चाहिए। वर्ष के प्रति (पवित्र सूत्र) पहनाया जाय तथा शिवभक्तों को भोजन मास में व्रती क्रमशः निम्न वस्तुओं का सेवन करे-गोमूत्र, कराया जाय । पुनः कार्तिक की पूर्णिमा को शिव की गोमय, गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत इत्यादि तथा प्रति मास उपासना करनी चाहिए। साथ ही संन्यासियों को दक्षिणा भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्प समर्पित किये जाय। कार्तिक देनी चाहिए तथा वस्त्रों का दान करना चाहिए। मास से एक वर्ष या बारह वर्षों तक यह विधान चलना शिवपुराण-विष्णुपुराण में अष्टादश पुराणों की जो सूची चाहिए । वर्ष के अन्त में वह एक वृष छोड़ दे तथा पर्य- दी गयी है उसमें शिवपुराण की गणना है, वायुपुराण की कोपयोगी वस्त्र तथा कलश का दान करे । इस व्रत का नहीं। इसलिए कतिपय विद्वान् दोनों पुराणों को एक ही पुण्य सहस्रों अश्वमेध यज्ञों से बढ़कर है । इससे गम्भीर से ग्रन्थ मानते हैं । परन्तु दोनों पुराणों की विषयसूचियों में गम्भीर पाप भी नष्ट हो जाते हैं। मेल नहीं है (दे० आनन्दाश्रम, पूना से प्रकाशित वायुशिवदृष्टि-शैव मत का एक ग्रन्थ । उत्पलाचार्य के गुरु, पुराण की विषयसूची)। शिवपुराण (विद्यश्वर खण्ड, काश्मीरीय शिवाद्वैतवाद के मुख्य आचार्य सोमानन्द ने अ० २) के अनुसार इसमें मूलतः एक लाख श्लोक थे। इसकी रचना की थी। इसमें भर्तृहरि के शब्दाद्वयवाद व्यास ने इसका संक्षेप कर सात संहिताओं (खण्डों) का की विशेष समालोचना हुई है। चौबीस सहस्र श्लोकों वाला शव पुराण (शिवपुराण) रचा । शिवनक्षत्रपुरुषव्रत-फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र स्पष्टतः यह शैव पुराण है। इसके सात खण्डों के नाम के दिन उपवास करने में असमर्थ व्यक्ति को इसका आयो इस प्रकार हैं : (१) विद्येश्वरसंहिता (२) रुद्रसंहिता जन करना चाहिए। यह नक्षत्रव्रत है । इसके शिव देवता जिसमें सृष्टिखण्ड, सतीखण्ड, पार्वतीखण्ड, कुमारखण्ड, हैं। इस दिन शङ्करजी के शरीरावयवों को हस्त इत्यादि और युद्धखण्ड का समावेश है (३) शतरुद्रसंहिता (४) २७ नक्षत्रों के साथ संयुक्त करते हुए उनका आपादमस्तक कोटिरुद्रसंहिता (५) उमासंहिता (६) कैलाससंहिता पूजन करना चाहिए। तैल एवं लवण रहित नक्त विधि और (७) वायवीय संहिता । पं० रामनाथ शैव द्वारा से आहार तथा प्रति नक्त दिन को एक प्रस्थ चावल तथा सम्पादित तथा वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित शिवघृत से परिपूर्ण पात्र का दान करना चाहिए। पारणा के पुराण में चौबीस सहस्र श्लोक है। इसमें उपर्युक्त सात समय शिव तथा उमा की मूर्ति तथा पर्यनोपयोगी वस्त्रों संहिताएँ पायी जाती है। का दान करना चाहिए। शिवभागवत-अथर्वशिरस् उपनिषद् में शंकर अथवा शिव शिवनारायणी पंथ-सुधारवादी निर्गण शाखा का पन्थ, के लिए भगवान्' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसलिए जिसका प्रवर्तन शिवनारायण नामक सन्त ने किया था। प्राचीन ग्रन्थों में शिव के उपासकों को 'शिवभागवत' शिवनारायण का जन्म गाजीपुर (उ० प्र०) जिले के भले- कहा जाने लगा। महाभाष्य (पाणिनि, ५.२.७८) में शिवसरी गाँव के राजपूत परिवार में हुआ था । इन्होंने संवत् भागवत का उल्लेख है । प्रशस्तपाद ने वैशेषिक सूत्रभाष्य १७९० वि० में इस मत का प्रवर्तन किया। इन्होंने के अन्त में महर्षि कणाद की वन्दना करते हुए कहा है कि गाजीपुर जिले में ही चार धामों के नाम से चार मठों की 'भगवान् महेश्वर' के प्रसाद से उन्हें ये सूत्र प्राप्त हुए थे। स्थापना की। इनके अनुयायियों में सभी वर्ण के लोग शिवभागवत स्मार्त आचारवादी होते हैं । सम्मिलित थे, परन्तु निम्न वर्ण और असवर्णों की प्रधानता शिवयोगयुक्त शिवरात्रिवत-फाल्गुन कृष्ण की शिवयोगयुक्त थी । ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली का बादशाह मुहम्मद चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। शिव इसके शाह (संवत् १७७६-१८०५ वि०) भी इस मत का अनु- देवता हैं । यह एक राजा की कथा से सम्बद्ध है जो पूर्व Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवरथव्रत-शुक्र ६३१ जन्म में व्यापारी था तथा सर्वदा उसकी माल चुराने शील-धर्म के मल आचरणों में एक शील भी है । की प्रवृत्ति रहती थी (स्कन्दपुराण)। मनुस्मृति (अ० २) में कथन है : शिवरथवत-हेमन्त (मार्गशीर्ष-पौष) में एकभक्त विधि से वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । व्रत करना चाहिए। इसके अनुसार एक रथ बनवाकर आचारश्चैव साधूनामात्मनः तुष्टिरेव च ॥ उसे रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाकर उसमें चार श्वेत वृषभ इसके अनुसार वेदज्ञों के आचरण को शील कहते हैं। जोते जाँय । चावलों के आटे की शिवप्रतिमा बनाकर उसे हारीत के अनुसार ब्रह्मण्यता आदि त्रयोदश (तेरह) प्रकार रथ में विराजमान करके रात्रि में सार्वजनिक सड़कों पर के गुणसमूह को शील कहते हैं । यथा--- हाँकते हुए रथ को शिवमन्दिर तक लाया जाय । रात्रि में "ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तता, सौम्यता, अपरोपतापिता. दीपों को प्रज्वलित करते हुए जागरण तथा नाटक आदि का आयोजन विहित है । दूसरे दिन शिवभक्तों, अन्धों, निर्धनों अनसूयुता, मृदुता, अपारुष्य, मैत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य, प्रशान्तिः । इति त्रयोदशविधं शीलम् ।" तथा दलितों-पतितों को भोजन कराया जाय। इसके बाद शिवजी को रथ समर्पित कर दिया जाय। यह ऋतु- गोविन्दराज के अनुसार राग-द्वेषपरित्याग को शील व्रत है। कहते हैं । दे० महाभारत का शील निरूपणाध्याय । शिवरात्रि-फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को 'शिव- शुक्र-(१) व्यास के पुत्र (शुकदेव) जिन्होंने राजा परीक्षित रात्रि' कहते हैं। इसी दिन शिव और पार्वती का विवाह को श्रीमदभागवत की कथा सुनायी थी। हरिवंश तथा हुआ था। इस दिन महाशिवरात्रि का व्रत किया जाता वायुपुराण में इनकी कथा मिलती है। अग्निपुराण के है। इस व्रत को करने का अधिकार सभी को है। प्रजापतिसर्ग नामक अध्याय में भी शुक की कथा पायी शिवशक्तिसिद्धि-महाकवि श्रीहर्ष द्वारा रचित एक दार्श जाती है । देवीभागवत (१.१४.१२३) में एक दूसरे प्रकार निक ग्रन्थ । इसमें शिव और शक्ति के अद्वयवाद का विवे से शुक की कथा दी हुई है। चन हुआ है। (२) शुक पक्षी-विशेष का नाम है। इससे शुभाशुभ शीतलाषष्ठी--बंगाल में माघ शुक्ल षष्ठी को, गुजरात में का ज्ञान होता है। वसन्तराजशाकुन (वर्ग ८) में श्रावण कृष्ण अष्टमी को शीतला व्रतविधि मनायी जाती लिखा है : है । उत्तर भारत में चैत्र कृष्ण अष्टमी को शीतलाष्टमी मनायी जाती है। इसमें शीतला देवी की विधिवत पूजा वामः पठन् राजशुकः प्रयाणे की जाती है। शुभं भवेद्दक्षिणतः प्रवेशे । शीतलाष्टमी-चैत्र कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान वनेचरा काष्ठशुकाः प्रयातुः स्युः सिद्धिदाः संमुखमापतन्तः ।। होता है। चेचक से मुक्ति के लिए शीतला (माता अथवा चेचक की देवी के नाम से विख्यात) देवी की पूजा की शुक्र--एक चमकीला ग्रह । इसके पर्याय हैं दैत्यगुरु, काव्य, जाती है। इस अवसर पर आठ घी के दीपक रात-दिन उशना, भार्गव, कवि, सित, आस्फुजित, भृगुसुत, भग देवी के मन्दिर में प्रज्वलित किये जाने चाहिए। साथ आदि । वामनपुराण (अ०६६) में शुक्र के नामकरण की ही गौ का दूध तथा उशीर मिश्रित जल छिड़का जाय। अद्भुत कथा दी हुई है। ये दैत्य राजा बलि के पुरोहित इसके उपरान्त एक गदहा, एक झाड़ तथा एक सूप का थे । इनकी पत्नी का नाम शतपर्वा था। कन्या देवयानी पृथक्-पृथक् दान किया जाय । शीतला देवी का वाहन का विवाह सोमवंश के राजा ययाति से हुआ था। शुक्र गदहा है । देवी को नग्नावस्था में एक हाथ में झाड़ एवं को उशना भी कहते हैं जो राजशास्त्रकार माने जाते हैं। कलश तथा दूसरे में सुप लिये हुए चित्रित किया जाता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (विद्यासमुद्देश) में ये दण्डनीति के (शीतला देवी के लिए देखिए फॉर्ब की रसमाला, जिल्द एक सम्प्रदाय (औशनस) के प्रवर्तक कहे गये है, जिसके २, पृ० ३२२-३२५ तथा शीतला-मंगला के लिए ए० सी० अनुसार दण्डनीति हो एक मात्र विद्या है । 'शुक्र नीतिसार' सेन की 'बंगाली भाषा तथा साहित्य', पृ० ३६५-३६७)। शुक्र की ही परम्परा में लिखा गया ग्रन्थ है। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ যুক্ষন-নূর शुक्रवत-शुक्रवार के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत के आचरण से स्वर्ग प्राप्त होता है, साथ ही मनुष्य को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। यदि व्रतकर्ता के पूर्वज भी स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। व्रत के ऐसे ही शुक्रवार को सप्तमी पड़े तो चाँदी या कांसे के अन्त में एक गौ के साथ-साथ जलधेनु, घृतधेनु एवं मधुधेनु पात्र में सुवर्ण की शुक्र की मूर्ति रखकर इसकी श्वेत वस्त्रों का दान करना चाहिए। इससे वह समस्त पापों से मुक्त तथा चन्दन के प्रलेप से पूजा की जानी चाहिए। प्रतिमा हो जाता है। के सम्मुख खीर तथा घी रखकर थोड़ी देर बाद समस्त शुनःशेप-वेदसूक्त रचयिता एक ऋषिकुमार। ये ऋचीक वस्तुओं का दान कर दिया जाय तथा दान के समय शुक्र मुनि के पुत्र थे, यज्ञार्थ अम्बरीष द्वारा खरीदे गये थे। से प्रार्थना की जाय कि 'हे शुक्र, हमारी समस्त बुराइयों। विश्वामित्र ने इनकी रक्षा की थी। वाल्मोकिरामायण (बालएवं कुग्रहों के दुष्प्रभाव को दूर करके सुस्वास्थ्य दीर्घायु काण्ड, ६१ सर्ग) में शुनःशेप की कथा इस प्रकार दी हुइ प्रदान कीजिए।' है--'राजा हरिश्चन्द्र वरुण के शाप के कारण जलोदर रोग शुक्ल यजुर्वेद-यजुर्वेद के दो मुख्य विभाग हैं, शुक्ल से पीड़ित था। वरुण की तुष्टि के लिए यज्ञार्थ उसने यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद । जिसमें शुद्ध पद्यात्मक अजीगत के पुत्र शुनःशेप को बलिपशु के रूप में प्राप्त (छन्दोबद्ध) मन्त्र हैं उसे शुक्ल यजुर्वेद कहा जाता है । किया । करुणार्द्र होकर विश्वामित्र ने अत्यन्त व्याकुल शुन:जिस भाग में मन्त्र तथा विधि के गद्य का मिश्रण है उसे शेप को देखा और उसको मुक्त किया। तब से शुनःशेप कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं । दे० 'यजुर्वेद' । विश्वामित्र के पुत्र कहलाये। शुद्ध-शुचि, पवित्र, पावन, निष्कल्मष वस्तु । शरीर की ऋग्वेद के वरुण सूक्त के आधार पर शुनःशुद्धता-अशुद्धता का विस्तृत वर्णन पद्मपुराण (उन्नीसवें शेप की कथा का विकास हुआ। इसमें शुनःशेप द्वारा अध्याय, उत्तर खण्ड) में पाया जाता है। पाप से मुक्त होने की प्रार्थना की गयी है । इसका आख्यान शुद्धि-धार्मिक कृत्य के लिए अर्हता उत्पन्न करने पहले ऐतरेय ब्राह्मण में आया है और फिर वहाँ से पुराणों वाले प्रयोजक संकारविशेष को शुद्धि कहते हैं। में इसका विस्तार हआ। जननाशौच तथा मरणाशौच से शुद्ध होने की क्रिया को शुम्भ-एक दानव, जो गवेष्टी का पुत्र और प्रह्लाद का भी शद्धि कहते हैं। वस्तुओं को शुद्ध करने का नाम भी पौत्र था। यह दुर्गा के द्वारा मारा गया। अग्निपुराण शद्धि है। विस्तृत वर्णन 'शुद्धितत्त्व' नामक ग्रन्थ (कश्यपीय सर्गाध्याय), वामनपुराण (५२ अध्याय) तथा में देखिए । मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य, १० अध्याय) में शुम्भ शद्धिव्रत-शरद् ऋतु के अन्तिम पाँच दिन अथवा की कथा पायी जाती है। बारहों महीनों की एकादशी को शुद्धिव्रत किया जाय। शकरक्षेत्र कहा जाता है कि यहाँ गोस्वामी तुलसीदासजी यह तिथिव्रत है। हरि इसके देवता हैं। जिस समय समुद्र का गुरुद्वारा था । दे० 'शौकर क्षेत्र'। मंथन हआ था, उसमें से पाँच गौएँ निकली थीं जिनकी शब-चार वर्णों में चतुर्थ वर्ण। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अंगज वस्तुएँ पवित्र मानी गयीं । यथा गोमय, रोचना, अनुसार विराट् पुरुष के पैरों से इसकी उत्पत्ति हुई थी। (पीत चूर्ण), दुग्ध, गोमूत्र, दही तथा घी। गौ के गोबर समाज की सावयव कल्पना के आधार पर समाज का यह से बिल्व वृक्ष अथवा श्रीवृक्ष उत्पन्न हुआ। लक्ष्मी के अविभाज्य अङ्ग है। पैरों के समान चलना अथवा प्रेष्य वास करने से इसे श्रीवृक्ष कहते हैं। गोरोचना से समस्त होना इसका कर्तव्य है। स्मृतियों के अनुसार प्रथम तीन पुनीत इच्छाएँ उत्पन्न हुई। गोमूत्र से गुग्गुलु तथा संसार वर्णों की सेवा इसका कार्य और जीविका है। इसका एक की समस्त शक्ति गौ के दूध से उत्पन्न हुई। समस्त पुनीत मात्र आश्रम गार्हस्थ्य है। वस्तुएँ गौ के दही से उत्पन्न हुई तथा समस्त सौन्दर्य धर्मशास्त्र में चारों वर्गों के लिए जिन षटकर्मों का गौ के घी से उत्पन्न हुआ। इसलिए हरि की प्रतिमा विधान है (पठन-पाठन, यजन-याजन तथा दान-प्रतिग्रह) को दध, दही, घी से स्नान कराकर उसका अगस्ति के उनमें से शद्र को पठन (वैदिक मन्त्रों को छोड़कर), यजन पुष्पों, गुग्गुलु तथा दीपक जलाकर पूजन करना चाहिए। (निमन्त्र) तथा दान ( शुद्धि ) का अधिकार है। सेवा Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शून्य-३ प- शैवमत उसका विशेष कार्य है। इस प्रकार शूद्र स्वतंत्र श्रमिक है, भृत्य अथवा दास नहीं, जो किसी भी वर्ण का व्यक्ति हो सकता है । शूद्रान्न तथा शूद्र का दिया हुआ दान परवर्ती ग्रन्थों में प्रायः वर्जित है किन्तु कई शास्त्रकारों ने इसका अपवाद स्वीकार किया है : कन्दुपक्वानि तैलेन पायसं दधिसकयः । द्विजैरेतानि भोज्यानि शूद्रगेहकृतान्यपि ॥ शूद्रों के सम्बन्ध में विशेष विवरण के लिए कमलाकर भट्ट का शूद्रकमलाकर नामक निबन्ध ग्रन्थ देखिए । शून्य - श्वान के सोने योग्य, एकान्त का स्थान (शुने हितम् शुनः संप्रसारणं यच्च) चाणक्यनीतिशास्त्र में शून्य के विषय में कथन है : अविद्यजीवनं शून्यं दिक् शून्या चेदबान्धवा | पुत्रहीनं गृहं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता || एक (२) दर्शन शास्त्र तथा गणित में भाव और अभाव से विलक्षण स्थिति का नाम शून्य है । शून्यवाद --- अनात्मवादी बौद्ध दार्शनिकों की शाखा। इसके अनुसार संसार को 'सर्व शून्यम्' माना जाता है। इसी अभिप्राय से यह मत 'वैनाशिक' भी कहलाता है । शृङ्गवेरपुर - रामायणवर्णित निषादराज गृह की गङ्गा तीरस्व राजपानी यह प्रयाग से प्रायः दस कोस दूर पश्चिम में है । भगवान् श्री राम ने वनवास के समय निषादराज के कहने से यहां रात्रि में निवास किया था। यहाँ शृङ्गी (प) ऋषि तथा उनकी पत्नी दशरथसुता शान्ता देवी का मन्दिर है। गङ्गाजी में ऋष्यशृङ्ग के पिता के नाम पर विभाण्डककुण्ड है। रामचौरा ग्राम में गङ्गा के किनारे एक मन्दिर में रामचन्द्रजी के चरणचिह्न हैं। पास में रामनगर स्थान है, जहाँ प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या को मेला लगता है । रामचन्द्रजी यहीं गङ्गा पार उतरकर प्रयाग गये थे । शृङ्ग ेरी शङ्कराचार्य का दक्षिण प्रदेशस्य मुख्य पीठ स्थान यह तुङ्गभद्रा नदी के किनारे बसा हुआ है। घाट के ऊपर ही शङ्कराचार्यमठ, शारदा देवी और विद्यातीर्थ महेश्वर का मन्दिर है। यहां विभाण्डकेश्वर शिवलिङ्ग है । शृङ्गी ऋषि के पिता विभाण्डक ऋषि का यहाँ ८० ६३३ आश्रम या यह क्षेत्र भी पुराना विभाण्डकाश्रम है। यहाँ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य का देश में सबसे अधिक आदर है। शेष - (१) नागराज अनन्त, जिनके ऊपर विष्णु भगवान् शयन करते हैं । प्रलय काल में नयी सृष्टि से पूर्व जो विश्व का शेष अथवा मूल ( अव्यक्त ) रूप रह जाता है उसी का यह प्रतीक है । शेष का ध्यान निम्नलिखित प्रकार से भविष्यपुराण में बतलाया गया है : फणासहस्रसंयुक्तं चतु किरीटिनम् । नवपल्लवाकारं पिङ्गलमधुलोचनम् ॥ भगवान् की एक मूर्ति ( तामसी ) का नाम भी ( कूर्मपुराण, ४८ अध्याय) शेष है एका भगवतो मूर्तिर्ज्ञानरूपा मूर्तिर्ज्ञानरूपा शिवामला । वासुदेवाभिधाना सा गुणातीता सुनिष्कला || द्वितीया ज्ञानसंज्ञान्या तामसी शेषसंज्ञिता । निहन्ति सकलांश्चान्ते वैष्णवी परमा तनुः ॥ (२) लक्ष्मण और बलराम का एक नाम शेष है । वे शेष के अवतार माने जाते हैं । शैवमत - भारत के धार्मिक सम्प्रदायों में शैवमत प्रमुख है । वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के अनुयायियों से इसके मानने वालों की संख्या अधिक है। शिव त्रिमूर्ति में से तीसरे हैं, जिनका विशिष्ट कार्य विश्व का संहार करना है । शैव वह धार्मिक सम्प्रदाय है जो शिव को ही ईश्वर मानकर आराधना करता है। शिव का शाब्दिक अर्थ है। 'शुभ', 'कल्याण', 'मङ्गल', 'श्रेयस्कर' आदि, यद्यपि शिव का कार्य, जैसा कि कहा जा चुका है, संहार करना है । शैवमत का मूल रूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है । रुद्र के भयङ्कर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा के पूर्व झंझावात के रूप में होती थी। रुद्र के उपासकों ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात् जगत् को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात् एक गम्भीर शान्ति और आनन्द का वातावरण निर्मित हो जाता है । अतः रुद्र का ही दूसरा सौम्य रूप शिव जनमानस में स्थिर हो गया। शिव के तीन नाम शम्भु, शङ्कर और शिव प्रसिद्ध हुए। इन्हीं नामों से उनकी प्रार्थना होने लगी । यजुर्वेद के शतरुद्रिय अध्याय, तैत्तिरीय आरण्यक और श्वेताश्वतर उपनिषद में शिव को ईश्वर माना गया है। उनके पशुपति रूप का संकेत सबसे पहले अथर्वशिरस् Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ उपनिषद् में पाया जाता है, जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । इससे लगता है कि उस समय से पाशुपत सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी । रामायण- महाभारत के समय तक शैवमत शैव अथवा माहेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो चुका था । महाभारत में माहेश्वरों के चार सम्प्रदाय बतलाये गये हैं- (१) गंव (२) पाशुपत ( ३ ) कालदमन और ( ४ ) कापालिक । वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य ने कालदमन को ही 'कालमुख' कहा है। इनमें से अन्तिम दो नाम शिव को रुद्र तथा भयङ्कर रूप में सूचित करते हैं, जब प्रथम दो शिव के सौम्य रूप को स्वीकार करते हैं। इनके धार्मिक साहित्य को शैवागम कहा जाता है । इनमें से कुछ वैदिक और शेष अवैदिक हैं । सम्प्रदाय के रूप में पाशुपत मत का संघटन बहुत पहले प्रारम्भ हो गया था। इसके संस्थापक आचार्य लकुलीश थे। इन्होंने लकुल ( लकुट ) धारी शिव की उपासना का प्रचार किया, जिसमें शिव का रुद्र रूप अभी वर्तमान था । इसकी प्रतिक्रिया में अद्वैत दर्शन के आधार पर समयाचारी वैदिक शैव मत का संघटन सम्प्रदाय के रूप में हुआ I इसकी पूजापद्धति में शिव के सौम्य रूप की प्रधानता थी। किन्तु इस अद्वैत शैव सम्प्रदाय की भी प्रतिक्रिया हुई । ग्यारहवीं शताब्दी में वीर शैव अथवा लिङ्गायत सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसका दार्शनिक आधार शक्तिविशिष्ट अद्वैतवाद था। कापालिकों ने भी अपना साम्प्रदायिक संघटन किया । इनके साम्प्रदायिक चिह्न इनकी छः मुद्रिकाएँ थीं, जो इस प्रकार है- (१) कण्ठहार (२) आभूषण (३) कर्णाभूषण, (४) चूडामणि ( ५ ) भस्म और ( ६ ) यज्ञोपवीत । इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुसार बड़े बीभत्स थे, जैसे कपालपात्र में भोजन, शव के भस्म को शरीर पर लगाना, भस्मभक्षण, यष्टिवारण, मदिरापात्र रखना, मदिरापात्र का आसन बनाकर पूजा का अनुष्ठान करना आदि । कालमुख साहित्य में कहा गया है कि इस प्रकार के आचार से लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं कि कापालिक क्रियाएं शुद्ध दशैवमत से बहुत दूर चली गयी और इनका मेल वाममार्गी शाकों से अधिक हो गया । शेवमत पहले शैवमत के मुख्यतः दो ही सम्प्रदाय थे --- पाशुपत और आगमिक | फिर इन्हीं से कई उपसम्प्रदाय हुए, जिनकी सूची निम्नाङ्कित है : १. पाशुपत शैव मत (१) पाशुपत (२) लकुलीश पाशुपत, (३) कापालिक, २. आगमिक शैव मत (१) शैव सिद्धान्त, (२) तमिल व - (३) काश्मीर शैव, (४) वीर शैव । पाशुपत सम्प्रदाय का आधारग्रन्थ महेश्वर द्वारा रचित 'पाशुपतसूत्र' है। इसके ऊपर कौण्डिम्वरचित 'पञ्चार्थीभाष्य' है। इसके अनुसार पदाथों की संख्या पाँच है(१) कार्य (२) कारण ( ३ ) योग ( ४ ) विधि और (५) दुःखान्त । जीव ( जीवात्मा) और जड ( जगत् ) को कार्य कहा जाता है । परमात्मा ( शिव ) इनका कारण है, जिसको पति कहा जाता है । जीव पशु और जड पाश कहलाता है । मानसिक क्रियाओं के द्वारा पशु और पति के संयोग को योग कहते हैं । जिस मार्ग से पति की प्राप्ति होती है उसे विधि की संज्ञा दी गयी है पूजाविधि में निम्नाङ्कित क्रियाएँ आवश्यक है - (१) हँसना ( २ ) गाना (३) नाचना ( ४ ) हुंकारना और ( ५ ) नमस्कार । संसार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही दुःखान्त अथवा मोक्ष है । आगमिक शवों के सिद्धान्त के ग्रन्थ संस्कृत और तमिल दोनों में हैं । इनमें पति, पशु और पाश इन चार तीन मूल तत्वों का गम्भीर विवेचन पाया जाता है। इनके अनुसार जीव पशु है जो अश और अणु है जीव पशु अज्ञ । प्रकार के पाशों से बद्ध है । यथा - मल, माया और रोम शक्ति साधना के द्वारा जब पशु पर पति का शक्तिपात ( अनुग्रह ) होता है तब वह पाश से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं । काश्मीर व मत दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। अद्वैत वेदान्त और काश्मीर से मत में साम्प्रदायिक अन्तर इतना है कि अद्वैतवाद का ब्रह्म निष्क्रिय है किन्तु काश्मीर शैवमत का ब्रह्म ( परमेश्वर ) कर्तृत्वसम्पन्न है | अद्वैतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके साथ भक्ति का सामञ्जस्य पूरा नहीं वंठवा काश्मोर संयमत में ज्ञान ( ४ ) नाथ सम्प्रदाय, (५) गोरख पन्थ, (६) रसेश्वर । कर्म, Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौकर-श्यामा और भक्ति का सुन्दर समन्वय है । अद्वैत वेदान्त में जगत् मानते हैं । किन्तु वराह पुराण का शौकर क्षेत्र तो ( यत्र ब्रह्म का विवर्त (भ्रम ) है। काश्मीर शैवमत में जगत् भागीरथी गङ्गा) गङ्गा के किनारे ही होना चाहिए । ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अथवा आभास है। काश्मीर शैव शौच-एकादशी तत्त्व में उद्धृत बृहस्पति के अनुसार दर्शन की दो प्रमुख शाखाएँ है-स्पन्द शास्त्र और शौच (शुद्धि) की परिभाषा इस प्रकार है : और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र । पहली शाखा के मुख्य ग्रन्थ 'शिव अभक्ष्यपरिहारस्तु संसर्गश्चाप्यनिन्दितः । दृष्टि' ( सोमानन्द कृत ), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' स्वधर्म च व्यवस्थानं शौचमेतत् प्रकीर्तितम् ।। (उत्पलाचार्य कृत), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिकाविमशिनी' और ( अभिनवगुप्त रचित ) 'तन्त्रालोक' हैं। दोनों [अभक्ष्य का परित्याग, निन्दित पुरुषों के संसर्ग का परित्याग, अपने धर्म में व्यवस्थिति (दृढ़ता) को शौच शाखाओं में कोई तात्त्विक भेद नहीं है। केवल मार्ग का भेद कहते हैं। है । स्पन्द शास्त्र में ईश्वराय की अनुभूति का मार्ग ईश्वरदर्शन और उसके द्वारा मलनिवारण है। प्रत्य- गरुडपुराण (११० अध्याय) में शौच की निम्नलिखित भिज्ञाशास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यभिज्ञा (पुनरनु परिभाषा है : भूति) ही वह मार्ग है। इन दोनों शाखाओं के दर्शन को सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं विशिष्यते । 'त्रिकदर्शन' अथवा 'ईश्वराद्वयवाद' कहा जाता है। योऽर्थार्थेरशुचिः शौचान्न मुदा वारिणा शुचिः ।। सत्यशौचं मनःशौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । वीरशैव मत के संस्थापक महात्मा बसव थे। इस सम्प्रदाय सर्वभूतदा शौचं जलशौचन्तु पञ्चमम् । के मुख्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीकरभाष्य' और 'सिद्धान्त यस्य सत्यञ्च शौचञ्च तस्य स्वर्गो न दुर्लभः ।। शिखामणि' है । इनके अनुसार अन्तिम तत्त्व अद्वैत नहीं, और भी कहा है : अपितु विशिष्टाद्वैत है। यह सम्प्रदाय मानता है कि परम यावता शद्धि मन्येत तावच्छौचं समाचरेत् । तत्त्व शिव पूर्ण अहन्तारूप अथवा पूर्ण स्वातन्त्र्यरूप है। प्रमाणं शौचसंख्याया न शिष्टरुपदिश्यते ॥ स्थूल चिदचिच्छक्ति विशिष्ट जीव और सूक्ष्म चिदचिच्छक्ति विशिष्ट शिव का अद्वैत है। वीरशैव मत को लिङ्गायत शौचन्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुयायी बराबर शिवलिङ्ग मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्य भावशुद्धिरथान्तरम् ॥ गले में धारण करते हैं । ( अन्य शैव सम्प्रदायों को यथा- जननाशीच, मरणाशौच, स्पर्शाशौच आदि अनेक प्रकार स्थान देखिए ।) के अशौच से शौच प्राप्त करने की विधियाँ पुराणों और शौकर-शकरक्षेत्र का ही पर्याय । यह गङ्गातटवर्ती प्रसिद्ध परवर्ती स्मृतियों में भरी पड़ी हैं । दे० पद्मपुराण, उत्तरतीर्थ है । वराहपुराणस्थ शौकरतीर्थमाहात्म्य के 'आदित्य खण्ड, १०९ अध्याय; कूर्मपुराण, उपविभाग, २२ अध्याय । वरप्रदान-गृध्रजम्बुकोपाख्यान' नामक अध्याय में इसका श्मशान-शवसंस्कार का स्थान श्मनां (शवानां शानं वर्णन पाया जाता है: शयनं यत्र) । इसके पर्याय हैं पितृवन, रुद्राक्रीड, दाहसर आदि । वाराणसी को महाश्मशान कहा गया है : शृणु मे परम गुह्यं यत्त्वया परिपुच्छितम् । 'वाराणसीति विख्याता रुद्रावास इति द्विजाः । मम क्षेत्रं परञ्चैव शुद्धं भागवतप्रियम् ।। महाश्मशानमित्येवं प्रोक्तमानन्दकाननम् ।।' परं कोकामुखं स्थानं तथा कुब्जाम्रकं परम् । परं शौकरनं स्थानं सर्ग संसारमोक्षणम् ॥ श्मशान से लौटने पर शौच आदि की विधि शास्त्रों में यत्र संस्था च मे देवि ह्यद्धृतासि रसातलात् । निर्दिष्ट है। दे० वराहपुराण, श्मशानप्रवेशापराधप्राययत्र भागीरथी गङ्गा मम शौकरवे स्थिता ॥ श्चित्त नामाध्याय । अधिकांश विद्वानों के विचार में आधुनिक 'सोरों' श्मशानकाली-काली का एक विशेष रूप । दे० कालीतन्त्र । ( एटा जिला ) ही शौकर अथवा शूकर क्षेत्र है। कुछ श्यामा-कालिका अथवा दुर्गा । श्यामा की उत्पत्ति का वर्णन लोग इसको अयोध्या के पास वाराहक्षेत्र के स्थान पर इस प्रकार पाया जाता है : Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ ततः सा कालिका देवी योगनिद्रा जगन्मयी । पूर्वत्यक्तसतीरूपा जन्मार्थ मेनकां ययौ ॥ समयस्यानुरूपेण मेनकाजठरे शिवा । सम्भूय च समुत्पन्ना सा लक्ष्मीरिव सागरात् ॥ वसन्तसमये देवी नवम्यां मृगयोगतः । अर्धरात्री समुत्पन्ना गङ्गेव शशिमण्डलात् । तान्तु दृष्ट्वा यथा जातो नीलोत्पलदलानुगाम् । सामेकादेवी मुदमाषातिविता || देवाश्च हर्षमतुलं प्रापुस्तत्र मुहुर्मुहुः ॥ आदि (कालिकापुराण ४० अध्याय) तन्त्र ग्रन्थों में श्यामापूजा का विस्तृत विधान है । दे० कालीतन्त्र, वीरतन्त्र, कुमारीकल्प, तम्बसार, गोप्य गोप्य - लीलागम आदि । श्रवण - नवधा भक्ति का एक प्रकार । भगवान् की कीर्ति को सुनना 'श्रवण' कहलाता है । (२) मनुस्मृति ( ८.७४) के अनुसार समक्ष दर्शन और श्रवण दोनों से साक्ष्य सिद्ध होता है। श्राद्ध – श्रद्धापूर्वक शास्त्रविधि से पितरों की तृप्ति के लिए किया गया धार्मिक कृत्य । इसका लक्षण इस प्रकार वर्णित है : संस्कृतव्यञ्जनादयश्च पयोदधिघृतान्वितम् । श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं तेन निगद्यते ॥ मनु के अनुसार धाद्ध पाँच प्रकार का है: नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं तथैव च । पार्वणञ्चेति मनुना श्राद्धं पञ्चविधं स्मृतम् ॥ विश्वामित्र के अनुसार बाढ़ बारह श्राद्ध होता है : नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं सपिण्डनम् । पार्वणचेति विज्ञेयं गोष्ठयां शुद्धपर्थमष्टमम् ॥ कर्मा नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम् । यात्रार्थेकादशं प्रोकं पुष्ट्यर्थ द्वादशं स्मृतम् ॥ भविष्यपुराण में इन श्राद्धों का निम्नलिखित विवरण पाया जाता है : प्रकार का १. नित्य बाजो प्रति दिन श्राद्ध किया जाता है उसे नित्य श्राद्ध कहते हैं । २. नैमित्तिक - एक ( पितृ) के उद्देश्य से जो श्राद्ध (एकोद्दिष्ट) किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं । श्रवण- श्री इसको अदेव रूप से किया जाता है और इसमें अयुग्म (विषम) संख्या के ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है । ३. काम्य धाखकिसी कामना के अनुकूल अभि प्रेतार्थ सिद्धि के लिए जो धाद्ध किया जाता है उसे काम्य कहते हैं । ४. पार्वण श्राद्ध-पार्वण (महालया अमावस्या के विधान से जो धाद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं। ५. वृद्धि श्राद्ध वृद्धि (संतान, विवाह) में जो श्राद्ध किया जाता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं । ६. प्रेत को पितरों के साथ मिलित करने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है उसे सपिण्डन कहते हैं । ७-१२. शेष नित्य श्राद्ध के समान होते हैं। दे० कूर्म, वराह (श्राद्धोत्पत्तिनामाध्याय), विष्णु पुराण अंश, १३ अध्याय), गरुड पुराण ( ९९ अध्याय) । श्रावणी श्रवण नक्षत्र से युक्त श्रावणमास की पूर्णिमा को श्रावणी कहते हैं । यह पवित्र तिथि मानी जाती है । प्राचीन काल में शैक्षणिक सत्र इसी समय से प्रारम्भ होता था। इस दिन धावणी कर्म अथवा उपाकर्म किया जाता था, जिसके पश्चात् अपनी-अपनी शाखा का वैदिक अध्ययन प्रारम्भ होता था । आजकल श्रावणी के दिन रक्षाबन्धन की प्रथा चल गयी है, जिसका उद्देश्य है किसी महान् त्याग के लिए अपने सम्बन्धी मित्रों अथवा यजमानों को प्रतिबद्ध (प्रतिद्युत) करना । धावस्ती - उत्तर प्रदेश में गोंडा-बहराइच जिलों की सीमा पर स्थित बौद्ध तीर्थस्थान । गोंडा-बलरामपुर से १२ मील पश्चिम आज का सहेत महेत ग्राम ही बावस्ती है। प्राचीन काल में यह कोसल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान् राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था । श्रावस्ती बौद्ध, जैन दोनों का तीर्थ है । तथागत दीर्घ काल तक श्रावस्ती में रहे थे। यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने असंख्य स्वर्णमुद्राएँ व्यय करके भगवान् बुद्ध के लिए जेतवन विहार बनवाया था। अब यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर हैं । श्री - ( १ ) लक्ष्मी ( श्रयति हरि या), विष्णुपत्नी । (२) यह देवताओं और मानवों के लिए सम्मानसूचक विशेषण शब्द है : - 'देवं गुरुं गुरुस्थानं क्षेत्र क्षेत्राधिदेवताम् । सिद्धं सिद्धाधिकारांश्च धीपूर्व समुदीरयेत् ॥' Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकण्ठ-श्रीमति ६३७ श्रीकण्ठ-शिव का एक विरुद (श्रीः शोभा कण्ठे यस्य) । शिवभक्ति के अधिक प्रचार के कारण पूरे कुरु-जाङ्गल ( हरियाना ) प्रदेश को श्रीकण्ठ कहा जाता था। श्रीचक्र-त्रिपुरसुन्दरी देवी की पूजा का विशेष यन्त्र । मन्त्रमहोदधि (११ तरङ्ग) में इसकी रचना का निम्नाङ्कित वर्णन है: श्रीचक्रस्पोद्धतिं वक्ष्ये तत्र पूजाप्रसिद्धये । बिन्दुगर्भ त्रिकोणंतु कृत्वा चाष्टारमुद्धरेत् ।। दशारद्वयमन्वस्राष्टारषोडशकोणकम् । त्रिरेखात्मकभूगेहवेष्टितं यन्त्रमालिखेत् ॥ श्रीचक्र सृष्ट्यात्मक यन्त्र है। बिन्दु के साथ तीन आधारों पर स्थित अष्टकोण संहारचक्र होता है। बारह और चौदह अरों वाला यन्त्र स्थितिचक्र हो जाता है । यामलतन्त्र में कहा गया है : बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्ममन्वस्रनागदलसङ्गतषोडशा रम् । वृत्तत्रयञ्च धरणीसदनत्रयञ्च श्रीचक्रराजमुदितं परदेवतायाः ।। श्रीचक्र के पूजन से ऋद्धि, सिद्धि तथा सुख, सम्पत्ति प्राप्त होती हैं : षोडशं वा महादानं कृत्वा यल्लभते फलम् । तत्फलं समवाप्नोति कृत्वा श्रीचक्रदर्शनम् । (तन्त्रसार) श्रीनगर-(१) कश्मीर की राजधानी, उत्तरापथ का प्रसिद्ध तीर्थस्थान । श्रीनगर तथा उसके आसपास बहुत से दर्शनीय स्थान हैं । श्रीनगर से लगी हई एक पहाड़ी पर आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित शिवमूर्ति है। इस पर्वत को शंकराचार्य टेकरी कहते हैं। लगभग दो मील कड़ी चढ़ाई है । मन्दिर बहुत प्राचीन है। इसी के नीचे शङ्करमठ है। इसको दुर्गानागमन्दिर भी कहते हैं । नगर में शाह हमदन की मस्जिद है जो देवदारु की चौकोर लकड़ी की बनी है । इस स्थान पर प्राचीन मन्दिर था। कोने में पानी का स्रोत है। हिन्दू इस स्थान की पूजा करते हैं। कालीमन्दिर का स्थान अब श्मशानभूमि के रूप में है । नगर के पास हरिपर्वत है जो छोटी पहाड़ी के रूप में है । अकबर ने उस पर एक परकोटा बनवाया था। उसके अन्दर मन्दिर और गुरुद्वारा भी है । अब वह सुरक्षित सैनिक स्थान है । श्रीनगर में दो कलापूर्ण मस्जिदें दर्शनीय हैं, विशेष कर नरजहाँ की बनवायी पत्थर की मस्जिद । इसके अतिरिक्त मगल उद्यान अपने सौन्दर्य के लिए विश्व में प्रसिद्ध है। डल झील के किनारे के मुख्य उद्यान शालीमारबाग, निशातबाग है । नौका से देखने योग्य नसीमबाग है। शङ्कराचार्यशिखर के पास ही अब नेहरूपार्क बन गया है, जहाँ झील में स्नान की भी उत्तम सुविधा है । जम्मू से श्रीनगर जाते समय मध्य में एक पहाड़ी मार्ग वैष्णवी देवी के लिए जाता है । आश्विन के नवरात्र में यहाँ मेला होता है। श्रीनगर से आगे अनन्तनाग, मार्तण्ड, अमरनाथ आदि धर्मस्थानों की यात्रा की जाती है। (२) श्रीनगर (द्वितीय) बदरिकाश्रम के मार्ग में टीहरी जिले का प्रमुख नगर है। यहाँ भी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित श्रीयन्त्र का दर्शन होता था, जो अब गङ्गा के गर्भ में विलीन है। श्रीमति-देव विग्रह अर्थात् देवता की प्रतिमा (विशेषतः वैष्णव) को श्रीमूर्ति कहते हैं। श्रीमूर्तियों के प्रकार का वर्णन भागवत में इस तरह है : । शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सकती। मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा मता ॥ चक्रेऽस्मिन् पूजयेत् यो हि स सौभाग्यमवाप्नुयात् । अणिमाद्यष्टसिद्धीनामधिपो जायतेऽचिरात् ।। विद्रुमे रचिते यन्त्रे पद्मरागेऽथवा प्रिये । इन्द्रनीलेऽथ वैदूर्ये स्फाटिके मारकतेऽपि वा ।। धनं पुत्रान् तथा दारान् यशांसि लभते ध्रुवम् । ताम्रन्तु कान्तिदं प्रोक्तं सुवर्णं शत्रुनाशनम् ।। राजतं क्षेमदञ्चैव स्फाटिक सर्वसिद्धिदम् । श्रीचक्र के पादोदक (चरणामृत) का महत्त्व इस प्रकार बतलाया गया है : गङ्गापुष्करनर्मदासु यमुनागोदावरीगोमतीगङ्गाद्वारगयाप्रयागबदरीवाराणसीसिन्धुषु । रेवासेतुसरस्वतीप्रभृतिषु ब्रह्माण्डभाण्डोदरे तीर्थस्नानसहस्रकोटिफलदं श्रीचक्रपादोदकम् ॥ श्रीचक्र के दर्शन का महान् फल कहा गया है : सम्यक् शतक्रतून् कृत्वा यत् फलं समवाप्नुयात् । तत्फलं लभते भक्त्या कृत्वा श्रीचक्रदर्शनम् ॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ श्रीरङ्गपट्टन-श्रीराम चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम् । न हो। रामसम्प्रदाय में इतिहास, धर्म और दर्शन का हयशीर्षपञ्चरात्र में श्रीमूर्तियों के विस्तृत लक्षण पाये __अद्भुत समन्वय है। सीता राम की पत्नी हैं, किन्तु जाते हैं । दे० श्रीहरिभक्तिविलास, १८१ विलास । वे आदिशक्ति और दिव्य श्री भी हैं । वे स्वर्गश्री हैं जो श्रीरङ्गपट्टन-कर्णाटक प्रदेश का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ । कावेरी तप से प्राप्त हुई थीं। वे विश्व की चेतनाचेतन प्रकृति है नदी की धारा में तीन द्वीप है-आदिरङ्गम्, मध्यरङ्गम् (देवी उपनिषद् २.२९४)। और अन्तरङ्गम् । श्रीरङ्गपट्टन ही आदिरङ्गम् है। यहाँ रामावत सम्प्रदाय का मन्त्र 'रामाय नमः' अथवा भगवान् नारायण की शेषशायी श्रीमति है। कहते है कि तान्त्रिक रूप में रां रामाय नमः' है। 'राम' का शाब्दिक यहाँ महर्षि गौतम ने तपस्या की थी और श्रीरङ्गमति अर्थ है '(विश्व में) रमण करने वाला' अथवा 'विश्व को की स्थापना भी की थी। अपने सौन्दर्य से मुग्ध करने वाला' । रामपूर्वतापनीयो पनिषद् (१.११-१३) में इस मन्त्र का रहस्य बतलाया श्री राम-राम अथवा रामचन्द्र अयोध्या के सूर्यवंशी राजा गया है : दशरथ के पुत्र थे । त्रेता युग में इनका प्रादुर्भाव हुआ जिस प्रकार विशाल वटवृक्ष की प्रकृति एक अन्यन्त था । ये भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं । वैष्णव सूक्ष्म बीज में निहित होती है, उसी प्रकार चराचर जगत् तो इनको परब्रह्म ही समझते हैं। भारत के धार्मिक बीजमन्त्र 'राम' में निहित है । पद्मपुराण की लोमशइतिहास में विशेष और विश्व के धार्मिक इतिहास में भी संहिता में कहा गया है कि वैदिक और लौकिक भाषा के इनका बहुत ऊँचा स्थान है। राम को मर्यादापुरुषोत्तम समस्त शब्द युग-युग में 'राम' से ही उत्पन्न और उसी में कहते हैं जिन्होंने अपने चरित्र द्वारा धर्म और नीति की विलीन होते हैं। वास्तव में वैष्णव रामावत सम्प्रदाय में मर्यादा की स्थापना की। उनका राज्य न्याय, शान्ति और राम का वही स्थान है जो वेदान्त में ओम् का । तारसुख का आदर्श था। इसीलिए अब भी 'रामराज्य' सार उपनिषद् (२.२-५) में कहा गया है कि राम की नैतिक राजनीति का चरम आदर्श है। रामराज्य वह सम्पूर्ण कथा 'ओम्' की ही अभिव्यक्ति है : राज्य है जिसमें मनुष्य को त्रिविध ताप-आधिभौतिक, "अ से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है, जो रामावतार में आधिदैविक तथा आध्यात्मिक-नहीं हो सकते । जाम्बवान् (ऋक्षों के राजा) हुए। उसे विष्णु (उपेन्द्र) की इनका अवतार एक महान् उद्देश्य को लेकर हुआ था। उत्पत्ति हुई, जो सुग्रीव हुए (वानरों के राजा)। म से वह था आसुरी शक्ति का विनाश तथा दैवी व्यवस्था की शिव का प्रादुर्भाव हुआ, जो हनुमान् हुए। सानुनासिक स्थापना। पिता द्वारा इनका वनवास भी इसी उद्देश्य से हुआ बिन्दु से शत्रुघ्न प्रकट हुए। ओम् के नाद से भरत का था एवं सीता का अपहरण भी इसी की सिद्धि के लिए। अवतरण हुआ। इस शब्द की कला से लक्ष्मण ने जन्म रावण वध भी इसीलिए हुआ । रामपूर्वतापनीयोपनिषद् लिया। इसकी कालातीत ध्वनि से लक्ष्मी का प्रादुर्भाव के ऊपर ब्रह्मयोगी के भाष्य (अप्रकाशित) में इसका एक हुआ, जो सीता हुई। इन सबके ऊपर परमात्मा विश्वपुरुष दूसरा ही उद्देश्य बताया गया है। वह है रावण का स्वयं राम के रूप में अवतरित हुए।" उद्धार । वैष्णव साहित्य में रावण पूर्व जन्म में विष्णु का रामावत पूजा पद्धति में सीता और राम की युगल पार्षद माना गया है। एक ब्राह्मण के शाप से वह मुर्तियाँ मन्दिरों में पधरायी जाती हैं। राम का वर्ण श्याम राक्षस योनि में जन्मा । उसको पुनः विष्णुलोक में भेजना होता है । वे पीताम्बर धारण करते हैं। केश जूटाकृति भगवान् राम (विष्णु) का उद्देश्य था। रखे जाते हैं । उनकी आजानु भुजाएँ तथा दीर्घ कर्णरामभक्ति का भारत में व्यापक प्रचार है। राम- कुण्डल होते हैं। वे गले में वनमाला धारण करते हैं, प्रसन्न पञ्चायतन में चारों भाई तथा सीता और उनके और दर्पयुक्त मुद्रा में धनुष-बाण धारण करते हैं । पार्षद हनुमान् की पूजा होती है । हनुमान् की मूर्ति तो अष्ट सिद्धियाँ उनके सौन्दर्य को बढ़ाती हैं। उनकी राम की मूर्ति से भी अधिक व्यापक है। शायद ही ऐसा बायीं ओर जगज्जननी आदिशक्ति सीता की मूर्ति कोई गाँव या टोला हो जहाँ उनकी मूर्ति अथवा चबूतरा स्वतन्त्र अथवा राम की बायी जंघा पर स्थित होती है । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरेश स्वामी)-श्रीतधर्म वे शुद्ध काञ्चन के समान विराजती हैं। उनकी भी दो मादनं शिवचन्द्राढ्य शिवान्तं मीनलोचने । भुजाएँ हैं । वे दिव्य रत्नों से विभूषित रहती हैं और हाथ कामराजमिदं भद्रे षड्वर्णं सर्वमोहनम् । में दिव्य कमल धारण करती हैं। इनके पीछे लक्ष्मण की शक्तिबीजं वरारोहे चन्द्राद्यं सर्वमोहनम् ।। मूर्ति भी पायी जाती है। दे० रामपूर्वतापनीयोपनिषद्, एतामुपास्य देवेशि कामः सर्वाङ्गसुन्दरः । ४.७.१० । दे० 'राम'। कामराजो भवेद्देवि विद्येयं ब्रह्मरूपिणी ॥ श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरेश स्वामी)-स्वामी रामानुजाचार्य के तन्त्रसार में इसके ध्यान की विधि इस प्रकार बतायी अनन्य सेवक और सहकर्मी शिष्य । इनका तमिल नाम गयी है : कूरत्तालवन था, जिसका तद्भव कूरेश है । काञ्चीपुरी के बालार्क मण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम् । समीप कूरम ग्राम में इनका जन्म हुआ था। ये व्याकरण, पाशाङ्कुशशरांश्चापं धारयन्तीं शिवां श्रये ।। साहित्य और दर्शनों के पूर्ण ज्ञाता थे । 'पञ्चस्तवी' आदि श्रति-श्रवण से प्राप्त होने वाला ज्ञान । यह श्रवण या तो इनकी भक्ति और कवित्वपूर्ण प्रसिद्ध रचनाएँ है। काञ्ची तत्त्व का साक्षात् अनुभव है, अथवा गुरुमुख एवं परम्परा में ये रामानुज स्वामी के शरणागत हुए और आजीवन से प्राप्त ज्ञान । लाक्षणिक अर्थ में इसका प्रयोग 'वेद' के उनकी सेवा में निरत रहे । लिए होता है । दे० 'वेद' । रामानुज स्वामी जब ब्रह्मसूत्र की बोधायनाचार्य कृत श्रोत्रिय-श्रति अथवा वेद अध्ययन करने वाला ब्राह्मण । वृत्ति की खोज में कश्मीर गये थे, तब कुरेशजी भी उनके पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (११६ अध्याय ) में श्रोत्रिय का साथ थे । कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों ने इनको उक्त लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है : ब्रह्मसूत्रवृत्ति केवल पढ़ने को दी थी; साथ ले जाने या जन्मना ब्राक्षागो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते । प्रतिलिपि करने की स्वीकृति नहीं थी। अनधिकारी कश्मीरी वेदाभ्यासी भवेद विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च ।। पंडितों की अपेक्षा वह रामानुज स्वामी के लिए अधिक [जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, स्पृहणीय थी। किन्तु पंडितों ने उस ग्रन्थ को स्वामीजी वेदाभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय । ] से बलपूर्वक छीन लिया । सुदूर दक्षिण से यहाँ तक की मार्कण्डेय पुराण तथा मनुस्मृति में भी प्रायः श्रोत्रिय की यात्रा को विफल देखकर रामानुज स्वामी को बड़ा खेद यही परिभाषा पायी जाती है । दानकमलाकर में थोड़ी हुआ। उस समय कूरेशजी ने अद्भत स्मृतिशक्ति के बल से भिन्न परिभाषा मिलती है : बोधायनवृत्ति गुरुजी को आनुपूर्वी सुना दी। गुरु-शिष्य एका शाखां सकल्पां वा षड्भिरङ्गरधीत्य च । दोनों ने उसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली । पश्चात् काञ्ची षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रयो नाम धर्मवित् ।। लौटकर आचार्य ने इसी वृत्ति के आधार पर ब्रह्मसूत्र के [कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छ: वेदाङ्गों श्रीभाष्य की रचना की थी। के साथ एक वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्म में श्रीविद्या-आद्या महाशक्ति की मन्त्रमयी मूर्ति । वास्तव में __लगा हुआ ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है । ] त्रिपुरसुन्दरी ही श्रीविद्या है। इसके छत्तीस भेद है । धर्मशास्त्र में श्रोत्रियों के अनेक कर्तव्यों तथा अधिकारों ज्ञानार्णवतन्त्र में श्रीविद्या के बारे में निम्नाङ्कित वर्णन का वर्णन पाया जाता है। श्राद्ध आदि कर्मों में उनका मिलता है : वैशिष्टय स्वीकार किया गया था। राजा को यह देखना भूमिश्चन्द्रः शिवो माया शक्तिः कृष्णाध्वमादिनी । आवश्यक था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय प्रश्रयहीन अर्द्धचन्द्रश्च बिन्दुश्च नवार्णो मेरुरुच्यते ।। न रहे। महात्रिपुरसुन्दर्या मन्त्रा मेरुसमुद्भवाः । श्रौतधर्म-वेदविहित धर्म (श्रुति से उत्पन्न श्रौत )। सकला भुवनेशानी कामेशो बीजमुद्धृतम् ।। मत्स्य पुराण ( १२० अध्याय ) में श्रीत तथा स्मार्त धर्म अनेन सकला विद्याः कथयामि वरानने । का विभेद इस प्रकार किया गया है : शक्त्यन्तस्तूर्यवर्णोऽयं कलमध्ये सुलोचने । धर्मविहितो धर्मः श्रोतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः । वाग्भवं पञ्चवर्णाढय कामराजमथोच्यते । दानाग्निहोत्रसम्बन्धमिज्या श्रौतस्य लक्षणम् ।। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेतकेतु-षटकर्म स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमैश्च नियमैर्यतः । तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से पर्याय बतलाये गये हैं : पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौतं सप्तर्षयोऽब्रुवन् ।। षः श्वेतो वासुदेवश्च पीता प्राज्ञा विनायकः । ऋचो यजूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि सा श्रुतिः । परमेठी वामबाहुः श्रेष्ठो गर्भविमोचनः । मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृत्वा तन्मनुरब्रवीत् ॥ लम्बोदरो यमौ लेशः कामधुक् कामधूमकः । ततः स्मातः स्मृतो धर्मो वर्णाश्रमविभागशः । सुश्री उश्ना वृषो लज्जा मरुद्भक्ष्यः प्रियः शिवः । एवं वै द्विविधो धर्मः शिष्टाचारः स उच्यते ।। सूर्यात्मा जठरः क्रोधो मत्ता वक्षी विहारिणी। इज्या वेदात्मकः श्रीतः स्मार्तो वर्णाश्रमात्मकः ।। कलकण्ठो मध्यभिन्ना युद्धात्मा मलपूः शिरः ॥ [धर्मज्ञ ब्राह्मणों द्वारा दो प्रकार का, श्रोत तथा स्मार्त, षट्कर्म-(१) कुछ धार्मिक विभागों के छः प्रधान कृत्य । धर्म विहित है । दान, अग्निहोत्र, इनसे सम्बद्ध यज्ञ श्रौत ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्तव्य षट्कर्म कहलाते हैं । ये हैं (१) धर्म के लक्षण हैं । यम और नियमों के सहित वर्ण तथा अध्ययन (२) अध्यापन (३) यजन (४) याजन (५) दान आश्रम का आचार स्मार्त कहलाता है। सप्तषियों ने पूर्ण और (६) प्रतिग्रह। मनु आदि स्मृतियों में इन कर्मों का ( ऋषियों ) से जानकर श्रौत धर्म का प्रवचन किया। विस्तृत वर्णन पाया जाता है : ऋक्, यजुष्, साम, ब्राह्मण तथा वेदाङ्ग ये श्रुति कहलाते इज्याध्ययनदानानि याजनाध्यापने तथा । हैं । मनु ने अतीत मन्वन्तरों के धर्म का स्मरण कर स्मात प्रतिग्रहश्च तैर्युक्तः षट्कर्मा विप्र उच्यते ।। धर्म का विधान किया । इसीलिए यह स्मार्त ( स्मृति से (२) आगम और तन्त्र में छः प्रकार के शान्ति आदि उत्पन्न ) धर्म कहलाता है। यह वर्णाश्रम के विभागक्रम कर्मी को षट्कर्म कहते हैं। शारदातिलक में इनका से है। इस प्रकार निश्चय ही यह दो प्रकार का धर्म वर्णन पाया जाता है : शिष्टाचार कहलाता है। ( संक्षेप में) यज्ञ और वेद शान्ति-वश्य-स्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने ततः । सम्बन्धी आचार श्रोत तथा वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार मारणान्तानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिणः ।। स्मार्त कहलाता है । ] रोग-कृत्या-ग्रहादीनां निरासः शान्तिरीरिता । श्वेतकेतु-श्वेतकेतु की कथा उपनिषद् में मूलतः आती वश्यं जनानां सर्वेषां विधेयत्वमुदीरितम् ।। है। ये उद्दालक के पुत्र थे। एक बार अतिथिसत्कार में प्रवत्तिरोधः सर्गेषां स्तम्भनं तदुदाहृतम् । उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस स्निग्धानां क्लेशजननं मिथो विद्वेषणं मतम् ॥ दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया । वास्तव में उच्चाटनं स्वदेशादेभ्रंशनं परिकीर्तितम् । कुछ पर्वतीय आरण्यक लोगों में आदिम जीवन के कुछ अव प्राणिनां प्राणहरणं मारणं तदुदाहृतम ॥ शेष कहीं-कहीं अभी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ स्वदेवतादिक्कालादीन् ज्ञात्वा कर्माणि साधयेत् ।। अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध रतिर्वाणी रमा ज्येष्ठा दुर्गा काली यथा क्रमम । कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया। षट्कर्मदेवता प्रोक्ताः कर्मादौ ताः प्रपूजयेत् ।। महाभारत (१.१२२.९-२० ) में इसका उल्लेख है । ईश-चन्द्रेन्द्र-निऋति-वाय्वाग्नीनान्दिशो मताः । सूर्योदयं समारभ्य घटिकादशकं क्रमात ॥ ष-ऊष्म वर्णों का द्वितीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके ऋतवः स्युनसन्ताद्या अहोरात्र दिने दिने । स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है : वसन्त-ग्रीष्म-वर्षाख्य-शरद-हेमन्त-शैशिराः ॥ षकारं शृणु चानङ्गि अष्टकोणमयं सदा । [(१) शान्ति (२) वश्य ( वशीकरण ) (३) स्तम्भन, रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली ॥ (४) विद्वेष (५) उच्चाटन और (६) मारण इनको चतुर्नर्गमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा । मनीषी लोग षट् कर्म कहते हैं। रोग, कृत्या, ग्रह आदि रजः सत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। का निवारण 'शान्ति' कहलाता है। सब जनों का सेवक त्रिबिन्दुसहितं वर्णम् आत्मादितत्त्वसंयुतम् । हो जाना 'वश्य' कहा गया है । सबकी प्रवृत्ति का रोध सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पानति ॥ 'स्तम्भन' कहलाता है। मित्रों के बीच में क्लेग उत्पन्न , Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्चक्र-षटतीर्थ करना 'विद्वष' है। अपने देश से भ्रंश (उखाड़) उत्पन्न करना 'उच्चाटन' है। प्राणियों का प्राण हरण कर लेना 'मारण' कहा गया है । इनके देवताओं, दिशा, काल आदि को जानकर इन कर्मों की साधना करना चाहिए । रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली क्रमशः इनकी देवता हैं । कर्म के आदि में इनकी पूजा करनी चाहिए। ईश, चन्द्र, इन्द्र, निऋति, वायु और अग्नि इनको दिशाएँ हैं । सूर्योदय से प्रारम्भ कर दस घटिका के क्रम से वसन्त आदि ऋतुएँ दिन-रात में प्रति दिन होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ये ऋतुएँ हैं ।] (३) घेरण्डसंहिता में छ: प्रकार के हठयोग के अङ्गों को भी षट्कर्म कहा गया है : धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिौलिकी त्राटकस्तथा । कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत् ॥ [ (१) धौति (२) वस्ति (३) नेति (४) नौलिकी (५) त्राटक और (६) कपालभाति इन छ: कर्मों का आचरण करना चाहिए। षट्चक्र-शरीर में स्थित छ: चक्रों के समाहार को षट्चक्र कहते हैं । पद्म पुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय २७) में इनका वर्णन इस प्रकार है: सप्त पद्मानि तव सन्ति लोका इव प्रभो । गुदे पृथ्वीसमं चक्रं हरिद्वर्णं चतुर्दलम् ।। लिंगे तु षड्दलं चक्रं स्वाधिष्ठानमिति स्मृतम् । त्रिलोकवह्निनिलयं तप्तचामीकरप्रभम् ।। नाभौ दशदलं चक्रं कुण्डलिन्यां समन्वितम् । नीलाञ्जननिभं ब्रह्मस्थानं पूर्वकमन्दिरम् ।। मणिपूराभिधं स्वच्छं जलस्थानं प्रकीर्तितम् । उद्यदादित्यसंकाशं हृदि चक्रमनाहतम् ।। कुम्भकाख्यं द्वादशारं वैष्णवं वायुमन्दिरम् । कण्ठे विशुद्धशरणं षोडशारं पुरोदयम् ।। शाम्भवीवरचक्राख्यं चन्द्रविन्दुविभूषितम् । षष्ठमाज्ञालयं चक्रं द्विदलं श्वेतमुत्तमम् ॥ राधाचक्रमिति ख्यातं मनःस्थानं प्रकीर्तितम् । सहस्रदलमेकार्णं परमात्मप्रकाशकम् ।। नित्यं ज्ञानमयं सत्यं सहस्रादित्य सन्निभम् । षट् चक्राणीह भेद्यानि नैतद् भेद्य कथञ्चन ।। [हे प्रभो ! वहाँ (शरीर में) सात पद्म (कमल) सात लोकों के समान होते हैं। गुदा में पृथ्वी के समान, मूला धार' चक्र होता है, जो हरिद्वर्ण और चार दल वाला है। लिङ्ग में षड्दल चक्र होता है, जिसको 'स्वाधिष्ठान' कहते हैं । वह तीनों लोकों में व्याप्त अग्नि का निवास है और तप्त सोने के समान प्रभा वाला है । नाभि में दशदल चक्र कुण्डलिनी में समन्वित है। यह नीलाञ्जन के समान, ब्रह्मस्थान और उसका मन्दिर है। इसे 'मणिपूर' कहते हैं, जो स्वच्छ जल के समान प्रसिद्ध है। हदय में 'अनाहतचक्र' है जो उदय होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है। इसका नाम कुम्भत है, यह द्वादश अरों वाला वैष्णव और वायु-मन्दिर है । कण्ड में 'विशुद्धशरण' षोडशार, पुरोदय, शाम्भवीवरचक्र है जो चन्द्रबिन्दु से विभूषित है। छठा 'आज्ञालय' चक्र है जो दो दल वाला और श्वेतवर्ण है । यह राधा चक्र नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मन का स्थान है । ये ही षट्चक्र (जानार्थ क्रमशः) भेदन करने योग्य है; किन्तु सहस्रदल चक्र परमात्मा से प्रकाशित है। यह नित्य, ज्ञानमय, सत्य और सहस्र सूर्यों के समान प्रकाशमान है। इसका भेदन नहीं होता । ] षटतीर्थ-सर्वसाधारण के लिए छ: तीर्थ सदा सर्वत्र सुलभ हैं : (१) भक्ततीर्थ-धर्मराज युधिष्ठिर विदुरजी से कहते हैं, "आप जैसे भागवत (भगवान् के प्रिय भक्त) स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते है। (२) गुरुतीर्थ-सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है और दीपक घर में उजाला करता है। परन्तु गुरु शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं । वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव शिष्यों के लिए गुरु परम तीर्थ है। (३) माता तीर्थ, (४) पिता-तीर्थ-पुत्रों को इस लोक और परलोक में कल्याणकारी माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है । पुत्रों के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है । वही तीर्थ है । वही मोक्ष है । वही जन्म का शुभ फल है । (५) पतितीर्थ-जो स्त्री पति के दाहिने चरण को प्रयाग और वाम चरण को पुष्कर मानकर पति के चरणोदक से स्नान करती है, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य ८१ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ षट्त्रिंशत्-पष्टितन्त्र फल मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं। पति सर्वतीर्थमय सिद्धान्तों का प्रौढ दार्शनिक शैली में यह निरूपण करता और सर्वपुण्यमय है। है। इसके क्रम, भक्ति, प्रेम सन्दर्भ आदि छः खण्ड है। (६) पत्नीतीर्थ-सदाचार का पालन करने वाली, षडक्षरदेव-वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य, जो १६५७ ई० प्रशंसनीय आचरण करने वाली, धर्म साधन में लगी हई, के आस-पास हए (दे० राइस : कन्नड लिटरेचर, पृ० ६२, सदा पातिव्रत का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य ६७)। इन्होंने कन्नड भाषा में राजशेखरविलास, शबरअनुरागिणी, गुणवती, पुण्यमयी, महासती पत्नी जिसके घर शङ्करविलास आदि ग्रन्थों की रचना की। हो उसके घर में देवता निवास करते हैं। ऐसे घर में षडङ्ग-वेद को षडङ्ग भी कहते हैं (षट् अङ्गानि यस्य) गङ्गा आदि पवित्र ननियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ ऋषिगण यथा : तथा सम्पूर्ण पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चयः । के लिए भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं, भार्या के समान ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते ॥ सुख नहीं और भार्या के समान पुण्य नहीं । ऐसी पत्नी भी विशेष विवरण के लिए दे० 'वेदाङ्ग।' पवित्र तीर्थ है। षड्गुरुशिष्य-ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणिकाएँ हैं । षत्रिंशत्-'एकादशीतत्त्व' ग्रन्थ में देवता पूजन के छत्तीस इनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन उपचार बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं : की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर १. आसन २. अभ्यञ्जन ३. उद्वर्तन ४. विरुक्षण ५. विस्तृत टीकाएँ लिखी गयी हैं। टोकाकार का नाम है सम्मार्जन ६. घृतादि से स्नपन ७. आवाहन ८. पाद्य ९. षड्गुरुशिष्य । यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का अर्ध्य १०. आचमनीय ११. स्नानीय १२. मधुपर्क १३. वास्तविक नाम है अथवा विरुद । टीकाकार ने अपने छ: पुनराचमनीय १४. वस्त्र १५. यज्ञोपवीत १६. अलङ्कार गुरुओं के नाम लिखे हैं, जो इस प्रकार है-१. विनायक १७. गन्ध १८. पुष्प १९. धूप २०. दीप २१. ताम्बूलादिक २. त्रिशूलान्तक ३. गोविन्द ४. सूर्य ५. व्यास और नैवेद्य २२. पुष्पमाला २३.अनुलेप २४. शय्या २५. चामर- ५. शिवयार व्यजन २६. आदर्शदर्शन २७. नमस्कार २८. नर्तन २९. षड्विशब्राह्मण-सामवेद की कौथुमीय संहिता का ब्राह्मणगीत ३०. वाद्य ३१. दान ३२. स्तुति ३३. होम ३४. ग्रन्थ चालीस अध्यायों में लिखा गया है । यह पाँच ब्राह्मणों प्रदक्षिणा ३५. दन्तकाष्ठ प्रदान ३६. देव विसर्जन । में विभक्त है । इसके प्रथम पचीस अध्याय पञ्चविंशब्राह्मण त्रिंशन्पत-छत्तीस (धर्मशास्त्रकार ऋषियों) का मत । कहलाते हैं। चौबीस से तीस तक के छ: अध्यायों को षड्विश ब्राह्मण, तीसवें अध्याय के अंतिम भाग को अद्भुत शङ्खलिखित स्मृति में इनके नाम निम्नांकित हैं : ब्राह्मण, इकतीस से बत्तीस तक के दो अध्यायों को मन्त्रमनुर्विष्णुर्यमो दक्षः अङ्गिरोऽत्रि बृहस्पतिः । ब्राह्मण और अन्तिम आठ अध्यायों को छान्दोग्य ब्राह्मण आपस्तम्बश्चोशना च कात्यायनपराशरो।। कहते हैं। षड्विंश ब्राह्मण का प्रकाशन के० क्लेम और वसिष्ठव्याससंवर्ता हारीत गौतमावपि । एच० एस० एलसिंग ने क्रमशः १८९४ तथा १९०८ ई० में प्रचेताः शङ्खलिखितौ याज्ञवल्क्यश्च काश्यपः ।। कराया था। शातातपो लोमशश्च जमदग्निः प्रजापतिः । षण्ड-पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५.३) के अनुसार एक पुरोविश्वामित्रपैठीनसी बौधायनपितामहौ ।। हित का नाम, जिसने उसमें वर्णित सर्पसत्र में भाग छागलेयश्च जाबालो मरीचिश्च्यवनो भगः । लिया था। ऋष्यशृङ्गो नारदश्च षट्तिशत् स्मृतिकारकाः ॥ षण्मुख-पार्वतीनन्दन स्वामी कार्तिकेय । शाब्दिक अर्थ है एतेषान्तु मतं यत्तु षट्त्रिंशन्मतमुच्यते ।। 'छ: मुख हैं जिसके वह' । छः मातृकाओं ने कार्तिकेय का षट्सन्दर्भ-विद्वदर और परम हरिभक्त जीव गोस्वामी पालन किया था। उनका स्तन्य पान करने के लिए कातिद्वारा रचित कृष्णभक्तिदर्शन का ग्रन्थ । यह श्रीमद्भागवत केय के छः मुख हो गये थे। की मान्यताओं का समर्थक तथा अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन षष्टितन्त्र-सांख्य दर्शन के आचार्यों में पञ्चशिख और वार्षसम्बन्धी प्रामाणिक रचना है। चैतन्यसम्प्रदाय के भक्ति गण्य प्रसिद्ध है। योगभाष्य में भी इनका उल्लेख आया Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टी-षोडसी ६४३ है । वार्षगण्य ने षष्टितन्त्र नामक ग्रन्थ लिखा था । इसका को एक बार भोजन कर और त्रयोदशी को रात में भोजन अर्थ है 'साठ प्रबन्ध' । यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं है। कर, चतुर्दशी को महामाया को विधानतः जगाकर गीत, षष्ठी-कात्यायनी देवी का एक पर्याय । षोडश मातृकाओं में बादित्र, निर्घोष और नाना प्रकार के नैवेद्य से पूजा करे । एक मातृका का भी यह नाम है । यह प्रकृति की छठी कला दूसरे दिन बुद्धिमान साधक को अयाचित उपवास करना है। इसको स्कन्द की भार्या भी कहा गया है। ब्रह्मवैवर्त चाहिए । इस प्रकार व्रत करना चाहिए जब तक कि नवमी पुराण के प्रकृतिखण्ड (प्रथम अध्याय) में इसके स्वरूप आ जाय । ज्येष्ठा में सम्यक् प्रकार से अर्चना कर मूल में आदि का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है : प्रतिपूजन करना चाहिए। उत्तरा में अर्चना कर श्रवण में "हे नारद ! प्रकृति की अंशस्वरूप जो देवसेना है वह विसर्जन करना चाहिए । मातृकाओं में पूज्यतम है और षष्ठी नाम से प्रसिद्ध है। षोडश मातृका-मातृकाओं अथवा देवियों की (विशेष प्रकार शिशुओं का प्रत्येक अवस्था में पालन करने वाली है। में) संख्या सोलह मानी गयी है। 'दुर्गोत्सवपद्धति' में यह तपस्विनी और विष्णुभक्त है, कार्तिकेय की कामिनी सोलह मातृकाओं को नमस्कार किया गया है (गौर्यादिभी है। प्रकृति के छठे अंश का रूप है, इसलिए इसे षोडशमातकाभ्यो नमः )। श्राद्धतत्त्व में उनके नाम इस षष्ठी कहते है । पुत्र-पौत्र की देनेवाली और तीनों जगत प्रकार आते है : की धात्री है। यह सर्व सुन्दरी, युवती, रम्या और बरा- गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया । बर अपने पति के पास रहने वाली है। शिशुओं के स्थान देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः ।। में परमा वृद्धरूपा और योगिनी है। ससार में बारहों शान्तिः पुष्टि तिस्तुष्टिरात्मदेवतया सह । महीने इसकी बराबर पूजा होती है। शिशु उत्पन्न होने आदौ विनायकः पूज्य० अन्ते च कुलदेवता ।। के छठे दिन सूतिकागार में इसकी पूजा होती है। इसी ये सब शिव, विष्णु, इन्द्र, ब्रह्मा, अग्नि, कार्तिकेय प्रकार इक्कीसवें दिन भी इसकी पूजा कल्याण करने वाली आदि प्रमुख देवताओं की पत्नियाँ हैं । होती है। यह बराबर नियमित और नित्य इच्छानुसार षोडशत्विक क्रतु--षोडश ऋत्विकों (याज्ञिकों) द्वारा किया आहूत की जा सकती है, यह सदा मातृरूपा, दयारूपा और जाने वाला यज्ञविशेष। यह ज्योतिष्टोम यज्ञ अथवा रक्षणरूपा है । यह जल, स्थल और अन्तरिक्ष में और यहाँ बारह दिनों में पूरा होने वाला सत्रयाग है। षोडश तक कि स्वप्न में भी शिशओं की रक्षा करने वाली है।" ऋत्विजों के नाम इस प्रकार है : इसकी उत्पत्ति और विस्तृत कथानक के लिए दे० स्कन्द (१) ब्रह्मा (२) ब्राह्मणाच्छंसी (३) आग्नीघ्र (४) पुराण । षष्ठीकर्म के लिए दे० राजमार्तण्ड, ब्रह्मवैवर्त, पोता (५) होता (६) मैत्रावरुण (७) अच्छावाक् (८) विष्णुधर्मोत्तर, ज्योतिस्तत्त्व आदि। ग्रावस्तोता (९) अध्वर्यु (१०) प्रतिप्रस्थाता (११) नेष्टा षष्ठीवर-उत्कल देश के एक विद्वान्, जिन्होंने महाभारत (१२) उन्नेता (१३) उद्गाता (१४) प्रस्तोता (१५) प्रतिका अनुवाद उडिया भाषा में किया । इनका समय तेरहवीं हर्ता और (१६) सुब्रह्मण्य । उपर्युक्त में से प्रथम चार सर्ववेदीय, द्वितीय चार शती के लगभग है। ऋग्वेदीय, तृतीय चार यजुर्वेदीय और चतुर्थ चार सामषोडश वान-श्राद्ध आदि धार्मिक कृत्यों में सोलह प्रकार वेदीय होते है। के दानों का वर्णन पाया जाता है । दे० शुद्धितत्त्व । षोडशी-(१) एक यज्ञपात्र का नाम । अतिरात्र यज्ञ का षोडशभुजा-दुर्गा का एक पर्याय, अर्थ है 'सोलह भुजा- सोमपात्र । वाली' । कालिकापुराण (अ० ५९) में षोडश भुजा-पूजन (२) बारह महाविद्याओं में से एक विद्या का नाम । का विधान पाया जाता है : वैसे प्रायः दस महा विद्याएँ ही प्रसिद्ध हैं। इनके नाम ___ "जब षोडशभुजा महामाया का दुर्गातन्त्र से पूजन निम्नांकित हैं : करना चाहिए, नब उसकी विशेष बात सुनिए । कृष्ण पक्ष काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी । की कन्या राशि की एकादशी को उपवास करके, द्वादशी भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ॥ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोपचार-संवतं वगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका । सिद्धियों को देनेवाली, नित्य भक्तों के आनन्द को बढ़ाने एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः ।। वाली इस प्रकार की शक्ति के रूप में सकार का ध्यान विशेष विवरण के लिए दे० 'ज्ञानार्णव' । करके इस के मन्त्र को दस बार जपना चाहिए । त्रिशक्ति (३) एक प्रकार का श्राद्ध । यह प्रायः संन्यासियों की सहित, आत्मादि तत्त्व से संयुक्त इस वर्ण को बराबर स्मृति में किया जाता है । प्रणाम करके हृदय में इसकी भावना करनी चाहिए।] षोडशोपचार-तन्त्रसार में सोलह प्रकार के पूजाद्रव्यार्पणों संयम-व्रत के एक दिन पूर्व विहित नियमों के पालन को को षोडशोपचार कहा गया है। देवपूजा में यही क्रम संयम कहते हैं । यह व्रत का ही पूर्व अङ्ग है । एकादशीअधिकतर प्रयुक्त होता है। तत्त्व में इसका निम्नांकित विधान है : षोढान्यास-वीरतन्त्र के अनुसार शरीर के अंगों में छः शाकं माष मसूरञ्च पुनर्भोजनमैथुने । प्रकार से मन्त्रों के न्यास को षोढान्यास (षड्धा न्यास) द्यूतमत्स्यम्बुपानञ्च दशम्यां वैष्णवस्त्यजेत् ।। कहते हैं । इनमें अंगन्यास, करन्यास, महान्यास, अन्तर्बहि- कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं लोभं वितथभाषणम् । र्मातृका आदि होते हैं । व्यायामञ्च व्यवायञ्च दिवास्वप्नं तथाञ्जनम् ।। तिलपिष्टं मसूरञ्च दशम्यां वर्जयेत् पुमान् । दशम्याम् एकभक्तञ्च कुर्वीत नियतेन्द्रियः ॥ स-कामधेनुतन्त्र में स अक्षर के स्वरूप का निम्नांकित आचम्य दन्तकाष्ठञ्च खादेत तदनन्तरम् । वर्णन है : पूर्वं हरिदिनाल्लोकाः सेवध्यं चैकभोजनम् ।। सकारं शृणु चाङ्गि शक्तिबीजं परात्परम् । अवनीपृष्ठशयनाः स्त्रियाः सङ्गविजिताः । कोटि विद्युल्लताकारं कुण्डलीत्रयसंयुतम् ।। संवदध्वं देवदेवं पुराणं पुरुषोत्तमम् ।। पञ्चदेवमयं देवि पञ्चप्राणात्मकं सदा । सकृद् भोजनसंतुष्टा द्वादश्याञ्च भविष्यथ ।। रजः सत्त्व तमोयुक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ संवर्त-(१) मुनि विशेष का नाम । मार्कण्डेय पुराण [हे सुन्दरी पार्वती ! सुनो। यह अक्षर कलायुक्त, (१३०.११) में इनके विषय में कहा गया है कि ये अंगिरा शक्तिबीज, परात्पर, करोडों विद्युत् की लता के समान ऋषि के पुत्र और बृहस्पति के भ्राता थे । ज्योतिस्तत्त्व के आकार वाला, तीन कुण्डलियों से युक्त, पञ्चदेवमय, पञ्च- अनुसार एक प्रकार के मेघ का नाम भी सवर्त है, जो प्राणात्मक, सदा सत्त्व-रज-तम तीन गुणों से युक्त और प्रभूत पानी बरसाने वाला होता है : त्रिबिन्दु सहित है।] आवर्तो निर्जलो मेघः संवर्तश्च बहूदकः । वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया पुष्करो दुष्करजलो द्रोणः सस्यप्रपूरकः ।। गया है : (२) धर्मशास्त्रकारों में से एक का नाम । याज्ञवल्क्यशुक्लाम्बरां शुक्लवर्णा द्विभुजां रक्तलोचनाम् । स्मृति में स्मृतिकारों की सूची में इनका उल्लेख है । श्वेतचन्दनलिप्ताङ्गी मुक्ताहारोपशोभिताम् ।। विश्वरूप, मेधातिथि, विज्ञानेश्वर (मिताक्षराकार), हरदत्त, गन्धर्वगीयमानाञ्च सदानन्दमयी पराम् । अपराक आदि व्याख्याकारों ने विभिन्न विषयों पर संवर्त अष्टसिद्धिप्रदां नित्यां भक्तानन्दविवद्धिनीम् ।। के वचन उद्धृत किये हैं । व्यवहार के कई अंगों पर संवर्त एवं ध्यात्वा सकारं तु तन्मन्त्र दशधा जपेत् । का मत उल्लेखनीय है । उदाहरण के लिए, लिखित साक्ष्य त्रिशक्तिसहितं वर्ण आत्म दि तत्त्वसंयुतम् ।। के विरोध में मौखिक साक्ष्य अमान्य है : प्रणम्य सततं देवि हृदि भावय सुन्दरि ।। लेख्य लेख्यक्रिया प्रोक्ता वाचिके वाचिकी मता। [ शुक्ल (श्वेत) वस्त्र धारण करने वाली, शुक्ल वर्ण वाचिके तु न सिध्यत्सा लेख्यस्योपरि या क्रिया ।। वाली, दो भुजाओंवाली, लाल नेत्र वाली, श्वेत चन्दन (अपरार्क, पृ० ६९१-९२) लिप्त शरीर वाली, मोती के हार से सुशोभित, गन्धों से परन्तु गृह और क्षेत्र के स्वाम्य के सम्बन्ध में लेख्य से प्रशंसित होती हुई, सदा आनन्दमयी, पराशक्तिरूप, आठ भुक्ति अधिक प्रामाणिक है : Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-संस्कार भुज्यमाने गृहक्षेत्रे विद्यमाने तु राजनि । भक्तिर्यस्य भवेत्तस्य न लेग्ये तत्र कारणम् ॥ संवर्त के अनुसार स्त्रीधन, लाभ और निक्षेप पर वृद्धि (ब्याज) नहीं लगती, जब तक कि स्वयं स्वीकृत न की गयी हो : न वृद्धिः स्त्रीधने लाभे निक्षेपे च यथास्थिते । संदिग्धे प्रातिभाव्ये च यदि न स्यात्स्वयं कृता ।। (स्मृतिचन्द्रिका, व्यव०, १५७) जीवानन्द के स्मृतिसंग्रह ( भाग १, पृ० ५८४-६०३) और आनन्दाश्रमस्मृतिसंग्रह (प० ४११-२४) में संवतस्मृति संगहीत है. जिसमें क्रमशः २२७ और २३० श्लोक हैं। इसमें कहा गया है कि संवर्त ने वामदेव आदि ऋषियों के सम्मुख इस स्मृति का प्रवचन किया था । संवर्तस्मृति के विषय व्यवहार पर उद्धृत वचनों से अधिक प्राचीन जान पड़ते हैं। संसार-संसरण, गति, खसकाध रखनेवाला, अर्थात् जो गातमान् अथवा नश्वर ह। नयायिका के अनुसार 'मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न वासना' को संसार कहते हैं ( 'संसारश्च मिथ्याधीप्रभवा वासना' ) मर्त्यलोक अथवा भूलोक को सामान्यतः संसार कहते हैं । कूर्मपुराण (ईश्वरगीता, द्वितीय अध्याय) में संसार की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है : न माया नैव च प्राणश्चैतन्यं परमार्थतः । अहं कर्ता सुखी दुःखी कृशः स्थूलेति या मतिः ।। सा चाहंकारकर्तृत्वादात्मन्यारोप्यते जनः । वदन्ति वेदविद्वांसः साक्षिणं प्रकृतेः परम् ।। भोक्तारमक्षरं शुद्धं सर्वत्र समवस्थितम् । तस्मादज्ञानमूलोऽयं संसारः सर्वदेहिनाम् ।। [आत्मा परमार्थतः चैतन्य है; माया और प्राण नहीं, किन्तु वह अज्ञान से अपने को कर्ता, सुखी, दुःखी, कृश, स्थूल आदि मान लेता है। मनुष्य अहंकार से उत्पन्न कर्तृत्व के कारण इन परिस्थितियों को अपने ऊपर आरोपित कर लेते हैं । विद्वान लोग आत्मा को प्रकृति से परे ( भिन्न ) मानते है। वास्तव में वही भोक्ता, अक्षर, शुद्ध और सर्वत्र विद्यमान है। इसलिए (वास्तव में) शरीर- धारियों का यह संसार (मर्त्यलोक) अज्ञान से उत्पन्न हुआ है। संसारमोक्षण---वैष्णव सम्प्रदाय में संसार से मुक्ति पाने की प्रक्रिया को 'संसार मोक्षण' कहते हैं। वाराह पुराण ( सूतस्वामिमाहात्म्यनामाध्याय) में कथन है : एवमेतन्महाशास्त्रं देवि संसारमोक्षणम् । मम भक्तव्यवस्थायै प्रयुक्तं परमं मया ॥ वामनपुराण (अध्याय ९०) में संसार से मोक्ष पाने का उपाय इस प्रकार बतलाया गया है : ये शङ्खचक्राब्जकरं तु शाङ्गिणं खगेन्द्रकेतुं वरदं श्रियः पतिम् । समाश्रयन्ते भवभीतिनाशनं संसारगर्ते न पतन्ति ते पुनः ।। संस्कार-) STRट का प्रयोग कई अर्थों में जोता है। मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है प्रतियत्न, अनुभव और मानस कर्म । न्याय दर्शन के अनुसार यह गुणविशेष है। यह तीन प्रकार का होता है-(१) वेगाख्य (यह वेग अथवा कर्म से उत्पन्न होता है ) (२) स्थितिस्थापक (यह पृथ्वी का गुण है, यह अतीन्द्रिय और स्पन्दनकारण होता है) और (३) भावना ( यह आत्मा का अतीन्द्रिय गुण है, यह स्मरण और प्रत्यभिज्ञा का कारण है )। (२) शरीर एवं वस्तुओं को शुद्धि के लिए उनके विकास के साथ समय-समय पर जो कर्म किये जाते हैं उन्हें संस्कार कहते हैं । यह विशेष प्रकार का अदृष्ट फल उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है। इस प्रकार शरीर के मुख्य संस्कार सोलह है-(१) गर्भाधान (२) पुंसवन (३) सीमन्तोन्नयन (४) जातकर्म (५) नामकरण (६) निष्क्रमण (७) अन्नप्राशन (८) चूडाकरण (९) कर्णवेध (१०) विद्यारम्भ (११) उपनयन (१२) वेदारम्भ (१३) केशान्त (१४) समावर्तन (१५) विवाह और (१६) अन्त्येष्टि । संस्कार से किसी भी वस्तु का उत्कर्ष हो जाता है। विस्तार के लिए देखिए नीलकंठ : संस्कारमयूख; मित्रमिश्र : संस्कार प्रकाश । (३) जीर्ण मन्दिरादि के पुनरुद्धार को भी संस्कार कहते हैं । शास्त्रों में इसका बड़ा महत्त्व बतलाया गया है । संस्कारहीन-(१) जिस व्यक्ति का समय से विहित संस्कार न हो उसे संस्कारहीन कहा जाता है। शास्त्र में ऐसे व्यक्ति की संज्ञा 'वात्य' है। विशेषकर उपनयन संस्कार अवधि के भीतर न होने से व्यक्ति सावित्रीपतित अथवा व्रात्य हो Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कारहीन-सगर जाता है । यह अवधि ब्राह्मण के लिए सोलह वर्ष, क्षत्रिय ब्रह्मणश्च शिवस्यापि प्रह्लादस्य तथैव च । के लिए बाईस वर्ष और वैश्य के लिए चौबीस वर्ष है। गौतमस्य कुमारस्य संहिताः परिकीर्तिताः ॥ (२) अनगढ़, असंस्कृत व्यक्ति या वस्तु को भी संस्कार- __ कूर्मपुराण ( अ० १), स्कन्दपुराण ( शिवमाहात्म्य हीन कहा जाता है। खण्ड, अ० १) में भी संहिताओं की सूचियाँ हैं । संस्मरण-संस्कारजन्य ज्ञान । तिथ्यादितत्त्व में कथन है : सकुल्य-समान कुल में उत्पन्न अथवा सगोत्र । बौधायन ध्यायेन्नारायण नित्यं स्नानादिषु च कर्मसु । के अनुसार प्रपितामह, पितामह, पिता, स्वयं, सहोदर तद्विष्णोरिति मन ण स्नायादप्सु पुनः पुनः ।। भाई, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र-इनको अविभक्त दायाद अथवा गायत्री वैष्णवी ह्येषा विष्णोः संस्मरणाय वै । सपिण्ड कहते हैं। विभक्त दायादों को सकुल्य कहते हैं । संहार-(१) सृष्टि की समाप्ति, प्रलय । मनुस्मृति (१.८०) अविभक्त दायादों के अभाव में सम्पत्ति इनको मिलती है । के अनुसार : दे० दायतत्त्व तथा शुद्धितत्त्व । मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च । सकुल्यों के लिए बृहस्पति ने अशौच का विधान इस क्रीडन्निवैतत् कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः ।। प्रकार बतलाया है : (२) अष्ट भैरवों में से एक का नाम : दशाहेन सपिण्डास्तु शुध्यन्ति प्रेतसूतके । असिताङ्गो रुरुश्चण्डः क्रोध उन्मत्त एव च । त्रिरात्रेण सकुल्यास्तु स्नात्वा शुध्यन्ति गोत्रजाः ।। कपाली भीषणश्चैव संहारश्चाष्ट भैरवाः ।। (शुद्धितत्व में उद्धृत) संहारमुद्रा (विसर्जनमद्रा)-धार्मिक क्रियाओं में विसर्जन सखीसम्प्रदाय-राम और कृष्ण के प्रेममार्गी भक्तों का की मुद्रा को संहारमुद्रा कहते हैं । यथा एक उपसम्प्रदाय । इसके अनुयायी अपने को सीताजी अधोमुखे वामहस्ते ऊस्यिं दक्षहस्तकम् । या राधाजी की सखी मानकर राम या कृष्ण की उपासना क्षिप्राङ्गुलीरङ्गलिभिः संगृह्य परिवर्तयेत् ।। करते है। ये अपनी वेशभूषा प्रायः स्त्रियों की तरह रखते प्रोक्ता संहारमुद्रेयमर्पणे तु प्रशस्यते ॥ हैं । रंगीन वस्त्र पहनते हैं, आभूषण धारण करते हैं, संहिता-सम्यक् अथवा पूर्वापर रूप में संग्रथित (संगृहीत) पाँवों में महावर लगाते हैं। अपना साम्प्रदायिक नाम भी साहित्यिक अथवा आचार-नियम सम्बन्धी सामग्री। स्त्रीवाचक रखते हैं, जैसे प्रेमा, ललिता, शशिकला संगहीत और सुसम्पादित वैदिक साहित्य को इसीलिए आदि । अयोध्या, जनकपुर, वृन्दावन इनके केन्द्र है। प्रायः संहिता कहते हैं जिसकी संख्या चार है-(१) ऋग्वेद उच्च श्रेणी के रसिक भक्त अपने सखीभाव को लोकाचार (२) यजुर्वेद (३) सामवेद और (४) अथर्ववेद । मन्वादि- से अलग गुप्त रखते हैं । प्रणीत धर्मशास्त्र ग्रन्थों अथवा स्मृतियों को भी संहिता सगर-सूर्यवंश के एक प्रसिद्ध राजा। इनकी उत्पत्ति की कहते हैं । सम्प्रदायों से सम्बद्ध ग्रन्थों को भी संहिता कहा कथा पद्मपुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय १५) में इस प्रकार जाता है । पुराण भी संहिता कहे गये है । ब्रह्मवैवर्तपुराण दी हुई है : "सूर्यवंश में बाहु नाम के महान् राजा हुए। के श्रीकृष्णजन्म खण्ड ( अ० १३२) में संहिताओं की तालजङ्घ हैहयों ने उनके सम्पूर्ण राज्य का हरण कर गणना इस प्रकार है : लिया । काम्बोज, पलव, पारद, यवन और शक इन पाँच एवं पुराणसंस्थानं चतुर्लक्षमुदाहृतम् । गणों ने हैहयों के लिए पराक्रम किया । राज्य का हरण हो अष्टादश पुराणानामेवमेव विदुर्बुधाः ॥ जाने पर राजा बाहु वन में चले गये। उनकी पतिव्रता एवञ्चोपपुराणानामष्टादश प्रकीर्तिताः । यादवी पत्नी गर्भिणी थी। उसकी सौत ने गर्भ को नष्ट इतिहासो भारतश्च वाल्मीकं काव्यमेव च ॥ करने के लिए उसको भोजन के समय गर ( विष ) दे पञ्चकं पञ्चरात्राणां कृष्णमाहात्म्यमुत्तमम् । दिया। यादवी के योगबल से वह गर्भ मरा नहीं और वासिष्ठं नारदीयञ्च कापिल गौतमीयकम् ।। देवताओं की अनुकम्पा से वह रानी भी नहीं मरी। वह परं सनत्कुमारीयं पञ्चरात्रञ्च पञ्चकम् । वन में पति की सेवा करती रही। राजा ने उस वन में पञ्चकं संहितानाञ्च कृष्णभक्तिसमन्विताम् ।। योग से अपने प्राण त्याग दिये। रानी पति की चिता Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुणोपासना-सङ्कल्प ६४७ लगाकर भस्म होने के लिए उस पर चढ़ने जा रही थी। और्व भार्गव ( वसिष्ठ ) ने दया करके उसको सती होने से बचाया । रानी ने उस वन में अग्नि के समान प्रोज्ज्वल गर्भ की सेवा की। तपोबल से गर (विष ) के साथ बालक का जन्म हुआ इसलिए वह सगर कहलाया। वह अत्यन्त सुन्दर बालक था। और्व भार्गव ने उसके जातकर्म आदि संस्कार करके वेदों और शस्त्रास्त्र की शिक्षा दी। देवताओं के लिए भी दुःसह महाघोर आग्नेय अस्त्र उसको प्रदान किया । सगर ने उस बल से समन्वित होकर तथा सैन्य बल से भी युक्त होकर तालजङ्ग हैहयों और अन्य रिपुओं को वश में कर लिया। मत्स्यपुराण के अनुसार सगर की दो भार्यायें थींप्रभा और भानुमती । दोनों ने और्व भार्गव की आराधना की। और्व ने दोनों को उत्तम वर प्रदान किया। एक को साठ सहस्र पुत्र तथा दूसरी को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। यादवी प्रभा को साठ सहस्र पुत्र और भानुमती को असमंजस नामक वंशधर पुत्र हुआ। अश्वमेध यज्ञ में अश्व की खोज करते हुए प्रभा के साठ सहस्र पुत्र कपिल के शाप से दग्ध हो गये। असमंजस का पुत्र अंशुमान् प्रसिद्ध हुआ। उसका पुत्र दिलीप और दिलीप का भगीरथ विख्यात हुआ । उसने तप करके गङ्गा का पृथ्वी पर अवतरण कराया। इससे उसके शापदग्ध पितरों का उद्धार हुआ। सगोत्र, बान्धव, ज्ञाति, बन्धु और स्वजन को समान बतलाया गया है। किन्तु इनमें तारतम्य है। सङ्कर-भिन्न वर्ण के माता-पिता से उत्पन्न सन्तान । हिन्दू समाज मुख्यतः चार वर्णों में विभक्त है। विवाहसम्बन्ध प्रायः सवर्णों में ही होता आया है। कभी-कभी अनुलोम और प्रतिलोम विवाह भी होते थे । किन्तु प्राचीन व्यवस्था के अनुसार संतति पिता के वर्ण की मानी जाती थी। परन्तु आगे चलकर वर्णान्तर विवाह वजित और निषिद्ध होने लगे। इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न संतति मिश्र ( सङ्कर ) और निन्दनीय मानी जाने लगी। मनुस्मति में वर्णसङ्कर जातियों का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। दे० 'वर्ण' । सङ्कर्षण-पाञ्चरात्र वैष्णव मत के अनुसार पाँचके व्यूह में से दूसरा व्यक्ति । व्यूह के सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्यम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध और अनिरुद्ध से ब्रह्मा उत्पन्न हए। वासूदेव परमतत्त्व ( ब्रह्म ) हैं । संकर्षण कृति अथवा महत् है। यहीं से सृष्टि में क्रियात्मक कर्षण प्रारम्भ होता है । पाञ्चरात्र वैष्णव देवमण्डल में वासूदेव कृष्ण के साथ संकर्षण (बलराम ) भी पूजा के देवता हैं। दे० 'पाञ्चरात्र'। सङ्कल्प-किसी कर्म के लिए मन में निश्चय करना। भाव अथवा विधि में 'मेरे द्वारा यह कर्तव्य है' और निषेध में मेरे द्वारा यह अकर्तव्य है, ऐसा ज्ञानविशेष संकल्प कहा जाता है । कोई भी कर्म, विशेष कर धार्मिक कर्म, बिना संकल्प के नहीं करना चाहिए। भविष्य पुराण का कथन है : संकल्पेन विना राजन् यत्किञ्चित् कुरुते नरः । फलञ्चाल्पाल्पकं तस्य धर्मस्यार्द्धक्षयो भवेत् ॥ संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः । व्रता नियमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः ॥ [हे राजन् ! मनुष्य जो कुछ कर्म बिना संकल्प के करता है उसका अल्प से अल्प फल होता है; धर्म का आधा क्षय हो जाता है । काम का मूल संकल्प में है । यज्ञ संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं। व्रत, नियम और धर्म सभी संकल्प से ही उत्पन्न होते है, ऐसा सुना गया है । ] संकल्प की वाक्यरचना विभिन्न कर्मों के लिए शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से बतलायी गयी है। योगिनीतन्त्र सगुणोपासना-ब्रह्म के दो रूप है-निर्गुण और सगुण । निर्गुण अव्यक्त और केवल ज्ञानगम्य है। सगुण गुणों से संयुक्त होने के कारण सुगम और इन्द्रियगोचर है। श्रीमद्भगवद्गीता में यह प्रश्न किया गया है कि दोनों रूपों में से किसकी उपासना सरल है । उत्तर में कहा गया है कि निर्गुण अथवा अव्यक्त की उपासना क्लिष्ट (कठिन) है । सगुण की उपासना सरल है । सगुण उपासना में पहले प्रतीकों-प्रणव आदि की उपासना और आगे चलकर अवतारों की उपासना प्रचलित हई । गीता में कहा गया है कि वृष्णिलोगों में वासुदेव ( कृष्ण ) और रुद्रों में शङ्कर ( शिव ) 'मैं' हूँ। इस प्रकार वैष्णव और शैव सम्प्रदायों और उनके अनेक उपसम्प्रदायों में सगुणोपासना का प्रचार हुआ। सगोत्र-एक ही गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति । अमरकोश में Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ ( प्रथम खण्ड, द्वितीय पटल ) में संकल्प का निम्नांकित विधान है सदूर्गञ्च सतिलं जलपूरितम् । सकुशञ्च फलदेवि गृहीत्वाचम्य गृहीत्वाचम्य कल्पतः ।। अभ्यर्च्य च शिरःपद्म श्रीगुरुं करुणामयम् । यक्षेशवदनो वापि देवेन्द्रवदनोऽपि वा ॥ मासं पक्ष तिथिञ्चैव देवपर्वादिकन्तथा । आद्यन्तकालञ्च तथा गोत्रं नाम च कामिनाम् ॥ क्रियाह्वयं करिष्येऽन्तमेनं समुत्सृजेत् पयः ॥ सङ्कल्पनिराकरण चौदह शेव सिद्धान्तशास्त्रों (प्रत्थों ) में से एक। इसके रचयिता उमापति शिवाचार्य तथा रचनाकाल चौदहवीं शती है। उमापति शिवाचार्य ब्राह्मण थे किन्तु शूद्र आचार्य मरे ज्ञानसम्बन्ध के शिष्य हो जाने के कारण जाति से बहिष्कृत कर दिये गये । ये अपने सम्प्रदाय के प्रकाण्ड धर्मविज्ञानी थे। इन्होंने आठ प्रामाणिक सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना की जिनमें से संकल्प - निराकरण भी एक है । ताम्रपात्रं सङ्कल्पसूर्योदय- श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य वेदान्तदेशिक द्वारा लिखित एक ग्रन्थ यह रूपकात्मक नाटक है तथा बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। वेदान्तदेशिक माधवाचार्य के मित्रों में थे। माधव ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में इनका उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ का रचनाकाल चौदहवीं शती का उत्तरार्द्ध है । सङ्किशा — उत्तर प्रदेश के फरुखाबाद जिले में पखना स्टेशन से प्रायः सात मील काली नदी के तट पर स्थित बौद्धों का धर्मस्थान इसका प्राचीन नाम संकाश्य है। कहते हैं, बुद्ध भगवान् स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी पर यहीं आये थे । जैन भी इसे अपना तीर्थ मानते हैं तेरहवें तीर्थङ्कर विमलनाथजी का यह 'केवलज्ञानस्थान' माना जाता है । वर्तमान सा एक ऊंचे टीले पर बसा हुआ छोटा सा गाँव है। टीला दूर तक फैला हुआ है और किला कहलाता है। किले के भीतर ईंटों के ढेर पर बिसहरी देवी का मन्दिर है। पास ही अशोकस्तम्भ का शीर्ष है जिस पर हाथी की मूर्ति निर्मित है। सङ्कीर्तन -- सम्यक् प्रकार से देवता के नाम का उच्चारण अथवा उसके गुणादि का कथन । कीर्तन नवधा भक्ति का एक प्रकार है: सङ्कल्प- निराकरण सतनामी 'स्मरणं कीर्तनं विष्णोः वन्दनं पादसेवनम् ।' इसी का विकसित रूप संकीर्तन है। भागवत (११.५ ) में संकीर्तन का उल्लेख इस प्रकार है : यज्ञः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः । पुराणों में संकीर्तन का बड़ा माहात्म्य वर्णित है। बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार : संकीर्तन श्रुत्वा ये च नृत्यन्ति मानवाः । तेषां पादरजस्पर्शात् सद्यः पूता वसुंधरा ॥ [ संकीर्तन की ध्वनि सुनकर जो मानव नाच उठते है, उनके पदरज के स्पर्शमात्र से वसुंधरा तुरन्त पवित्र हो जाती है । ] सङ्क्रान्ति-सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना । द्वादश नक्षत्र राशियों के अनुसार द्वादश ही संक्रान्तियाँ हैं। विभिन्न संक्रान्तियाँ विभिन्न व्यक्तियों के लिए शुभा शुभ फल देनेवाली होती हैं। संक्रान्तियों के अवसर पर विभिन्न धार्मिक कृत्यों का विधान पाया जाता है। स्नान और दान का विशेष महत्त्व बतलाया गया है । सज्जा एक भावात्मक देवता सूर्यपत्नी को संज्ञा कहते हैं। मार्कण्डेयपुराण ( ७७.१) में कथन है मार्तण्डस्य रवेर्भार्या तनया विश्वकर्मणः । संज्ञा नाम महाभागा तस्यां भानुरजीजनत् ॥ विशेष विवरण के लिए उपर्युक्त पुराण का सम्बद्ध भाग देखिए । सतनामी - कबीरदास से प्रभावित जिन अनेक निर्गुणवादी सम्प्रदायों का उदय हुआ उनमें सतनामी सम्प्रदाय भी है । इसका प्रवर्तक कौन था और किस प्रकार इसका उदय हुआ, यह बतलाना कठिन है। अनुमानतः १६०० ई० के लगभग इसका उदय हुआ। इसका नाम सतनामी इसलिए पड़ा कि इसमें 'सत्य नाम' ( वास्तविक ईश्वर के नाम ) की उपासना पर जोर दिया जाता है । यह कबीर की नामोपासना से मिलता-जुलता है, जो उनके प्रभाव को स्पष्ट करता है | १६७२ ई० के लगभग सबसे पहला इसका उल्लेख पाया जाता है । औरंगजेब के शासनकाल में दिल्ली से दक्षिण-पश्चिम ७५ मील दूर नारनौल नामक स्थान में एक साधारण सी बात पर सतनामियों और शासन में झगड़ा हो गया । इस पर सतनामियों ने विद्रोह किया और वे बड़ी संख्या में मारे गये। उस समय का सतनामियों का कोई समसामयिक ग्रन्थ नहीं पाया जाता। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती ___ इस सम्प्रदाय का पुनः संगठन १७५० ई० के लगभग जगजीवन दास के द्वारा हुआ, जो बाराबंकी जिले (उ.प्र.) के कोटवा नामक स्थान के निवासी थे। ये योगी और कवि थे । इन्होंने हिन्दी में पदों की रचना की। इनके शिष्य दुलन दास हुए। ये भी कवि थे। ये आजीवन रायबरेली जिले में रहे। १८२० और १८३० ई० के बीच छत्तीसगढ़ के एक चमार जातीय सन्त गाजीदास ने फिर इरा सम्प्रदाय का पुनरुत्थान किया। इस नवोत्थित धर्म का प्रचार विशेषकर चमारों और अन्य असवर्ण लोगों में ही हआ इस सम्प्रदाय में निम्न वर्ण के लोग थे । जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस सम्प्रदाय के अनुयायी एक सत्यनाम (अरूप, निर्गुण ईश्वर) के उपासक हैं । इनमें अवतार और मूर्तिपूजा वजित है । भोजन में ये शाकाहारी है और इनमें मद्य और मांस का निषेध है। ये उन पदार्थों का भी सेवन नहीं करते जो आकृति में रक्त अथवा मांस की तरह दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोगों के अनुसार इनमें गात्री, क्रिया की साधना होती थी, जिसके अनुसार ये शारीरिक मलों से युक्त भोजन करते थे । परन्तु भट्टा- चार्य ने इस मत का खण्डन किया है। छत्तीसगढ़ के सत- नामियों में एक धार्मिक प्रथा के रूप में स्त्रियों में शिथिल आचार देखा जाता था जो अब प्रायः बन्द हो गया है। इनके कई वर्गों में मूर्तिपूजा की प्रथा भी जारी हो गयी है, जो परम्परागत हिन्दू धर्म का प्रभाव है। इनकी कुछ गन्दी प्रथाएँ आदिम काल के अविकसित जीवन के अव- शेष है जो अभी तक पूर्णतः नष्ट नहीं हो पाये हैं। सती-(१) सत् अथवा सत्य पर दृढ़ रहनेवाली । यह शिव की पत्नी का नाम है। पुराणों में इनकी कथा विस्तार से दी हुई है । ये दक्ष प्रजापति की कन्या थीं। इनका विवाह शिव के साथ हुआ था। एक बार दक्ष ने यज्ञ का अनुष्ठान किया। उन्होंने सभी देवताओं को निमन्त्रित कर उनका भाग दिया किन्तु शिव को नहीं निमन्त्रित किया। जब सती को अपने पिता के यज्ञानुष्ठान का पता लगा तो उन्होंने शिव से अपने पिता के यहाँ जाने का आग्रह किया । शिव ने बिना निमन्त्रण के जाना अस्वीकार कर दिया। उनके मना करने पर भी सती अपने पिता के यहाँ गयीं। वहाँ अपने पति के अपमान से बहुत दुःखी हुई और अपना शरीर त्याग कर दिया । इस घटना का समाचार पाकर शिव बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अपने गणों को यज्ञ विध्वंस करने के लिए भेजा। स्वयं वे सती के मृत शरीर को लेकर और सन्तप्त होकर संसार में घूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के अङ्ग गिरे वहाँ तीर्थ बन गये । दूसरे जन्म में सती ने हिमालय के यहाँ पार्वती के रूप में जन्म लिया और पुनः उनका शिव के साथ विवाह हुआ, जिसका काव्यमय वर्णन कालिदास ने कुमारसंभव में किया है। (२) प्रचलित अर्थ में सती वह स्त्री है जो सच्चे पतिव्रत का पालन करती थी और पति के मरने पर उसकी चिता पर अथवा अलग चिता पर जलकर उसका अनुगमन करती थी । यह प्रथा प्राचीन भारत में प्रचलित थी। परन्तु अब यह विधि के द्वारा वर्जित है, कभी-कभी इसके उदाहरण विधि का भंग करते हुए सुनाई पड़ते हैं। अन्य देशों में, जहाँ स्त्रियाँ पुरुषों की सम्पत्ति समझी जाती थीं, मृत पति के साथ वे समाधि में चुन दी जाती थीं । परन्तु भारत के प्राचीनतम साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख नहीं पाया जाता । ऐसा कोई वैदिक सूक्त अथवा मन्त्र नहीं मिलता जिसमें मत पति की चिता पर विधवा के सती होने की चर्चा हो । गृह्यसूत्रों में, जिनमें अन्त्येष्टि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है, सती होने का कोई विधान नहीं है । ऐसा लगता है कि किसी आर्येतअवथा विदेशी सम्पर्क के कारण यह प्रथा भारत में प्रचलित हई। धर्मसूत्रों में से केवल विष्णुधर्मसूत्र में सतीप्रथा का वैकल्पिक विधान है (मृते भर्तरि ब्रह्मचर्य तदन्वारोहणं वा)। २५.१४ : मिताक्षरा, याज्ञ० १.८८ के भाष्य में उद्धृत) । मनुस्मृति में कहीं भी सती का उल्लेख नहीं पाया जाता। रामायण (उत्तर, १७.१५) में इसका केवल एक उदाहरण पाया जाता है । इसके अनुसार एक ब्रह्मर्षि की पत्नी अपने पति की चिता पर सती हुई। महाभारत के अनुसार युद्ध में बहुसंख्यक लोग मारे गये, किन्तु सती के उदाहरण बहुत कम हैं । माद्री पाण्डु के मरने पर उनकी चिता पर सती हो गयी (आदि०,९५.६५) । वसुदेव की चार पत्नियाँ-देवकी, भद्रा, रोहिणी और मदिरा-पति की चिता पर सती हुईं (मुसल०, ७.१८) । कृष्ण की कुछ पत्नियाँ उनके शव के साथ सती हुईं। किन्तु सत्यभामा तपस्या करने वन चली गयी (मुसल, ७.७३-७४) । ऐसा लगता है कि सती प्रथा मुख्यतः क्षत्रियों में ही प्रचलित थी और वह भी बहुन व्यापक नहीं थी। कौरवों की पत्नियों के सती होने का उल्लेख नहीं है। परवर्ती स्म Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० सतीर्थ-सत्यभामा सत्य-तीनो कालों में जो एक समान रहे (त्रिकालाबाध्य), परमात्मा (सत्यं ज्ञानमनन्तं) । इसका प्रयोग कृतयुग, शपथ एवं यथार्थ के अर्थ में प्रायः होता है। इसके अन्य पर्याय हैं, तथ्य, ऋत सम्यक्, अवितथ, भूत आदि । पद्मपुराण (क्रियायोगसार, अध्याय १६) में सत्य का लक्षण इस प्रकार है : यथार्थकथनं यच्च सर्वलोकसुखप्रदम् । तत्सत्यमिति विज्ञेयमसत्यं तद्विपर्ययम् ।। सांख्य दर्शन में इससे मिलता-जुलता सत्य का लक्षण बतलाया गया है : 'अत्यन्तलोकहितम् सत्यम् ।' महाभारत (राजधर्म) में सत्य का आकार निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है : सत्यञ्च समता चैव दमश्चैव न संशयः । अमात्सर्य क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयाता ॥ त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं दया । अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश । पुराणों में सत्य का माहात्म्य बड़े विस्तार से वणित है। गरुडपुराण (अध्याय ११५ ) में सत्य की प्रशंसा है। इस प्रकार है: तियों में ब्राह्मण विधवाओं के सती होने का स्पष्ट निषेध किया गया है ( मिताक्षारा, याज्ञ० १.८६ के भाष्य में उद्धृत )। यूनानी लेखकों ने, जो सिकन्दर के साथ भारत में आये थे, इस बात का उल्लेख किया है कि पंजाब की कठ जाति में सती प्रथा प्रचलित थी ( स्ट्रैबो, १५.१. ३०.६२ )। परन्तु यह प्रथा बहुप्रचलित नहीं थी। सती प्रथा की पवित्रता और उपयोगिता के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रकारों में सदा मतभेद रहा है। मेधातिथि ने मनुस्मृति ( ५.१५७ ) पर भाष्य करते हुए सती प्रथा की तुलना श्येनयाग से की है जो एक प्रकार का अभिचार (जादू-टोना ) था। मेधातिथि तथा कुछ अन्य टीकाकारों ने इसकी तुलना आत्महत्या से की है और इसे गहित बतलाया है । इसके विपरीत मिताक्षरा के रचयिता विज्ञानेश्वर तथा अन्यों ने सती प्रथा का समर्थन किया है। ___ सम्पूर्ण मध्ययुग में यह प्रथा विशेषतः राजपूतों में प्रचलित थी । मुसलमानों के आक्रमण से इसको और प्रोत्साहन मिला। अकबर ने अपने सुधारवादी शासन में सती ता प्रथा को बन्द करना चाहा, परन्तु यह बन्द न हुई । आधु- निक युग में भी बनी रही। बंगाल में इसका सर्वाधिक प्रचार था । इसका कारण यह था कि वहाँ दाय भाग के अनुसार पत्नी को पति की मृत्यु के पश्चात् संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति में पूर्ण अधिकार प्राप्त था। इसलिए परिबारवाले यही चाहते थे कि विधवा मृत पति के साथ सती हो जाय । इसमें छल और बल प्रयोग भी होने लगा। राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बेंटिङ्ग के शासन-काल (१८२९ ई० ) में सतीप्रथा भारत में निषिद्ध कर दी गयी। सतीर्थ-सहपाठी अर्थात् गुरुभाई। समान गुरु से पढ़े हुए परस्पर सतीर्थ कहलाते हैं। सत्कार-पूजा अथवा आवभगत । व्यवहारतत्त्व के अनुसार सभा में सभासद् जिस प्रकार बैठते हैं, उठते हैं, तथा दानमान आदि प्राप्त करते हैं, उसे सत्कार कहा जाता है। सत्क्रिया-शवदाहादि संस्कार को सक्रिया कहा जाता है । शब्दरत्नावली में 'संस्कार' के अर्थ में सक्रिया का प्रयोग हुआ है । महाभारत ( १.४४.५ 'प्रयुज्य सर्वाः परलोकसक्रियाः ।') में अन्त्येष्टि के अर्थ में ही यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति सत्यम् । नाऽसौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम् ॥ सत्यनारायण-ईश्वर का एक पर्याय । इसका अर्थ है 'सत्य ही नारायण (भगवान्) है।' सत्यनारायण की व्रतकथा बहुत ही प्रचलित है। यह स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में वणित कही जाती है। प्रायः पूर्णिमा को सत्यनारायणव्रतकथा कहने का प्रचलन है। यद्यपि कलियुग में सत्यनारायण की पूजा विशेष फलदायक कही जाती है. किन्तु सत्य के नाम से नारायण का अवतार और पूजा-उपासना सत्ययुग से ही चली आ रही है : धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान् पुरुषोत्तमः । सत्यसेन इति ख्यातो जातः सन्यवतैः सह ।। सोऽनृतवतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान् । भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत् सत्यजित्सखः ।। (भागवत, ८.१.२५-२६) सत्यभामा-कृष्ण की आठ पटरानियों में द्वितीय । पद्मपुराण (उत्तर खण्ड, अध्याय ६९) में इन आठों के नाम इस Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ययुग-सत्यार्थप्रकाश प्रकार हैं : है । वहाँ बसने वालों की पुनः मृत्यु नहीं होती, वह अष्टौ महिष्यस्ताः सर्वा रुक्मिण्याद्या महात्मनः । सत्यलोक और ब्रह्मलोक कहलाता है । ] रुक्मिणी सत्यभामा च कालिन्दी च शचिस्मिता ।। सत्यवती-(१) व्यास की माता का नाम । यह धीवरकन्या मित्रविन्दा जाम्बवती नाग्नजिती सुलक्षणा । थी । पराशर ऋषि ने इसके साथ संसर्ग किया, जिससे सुशीला नाम तन्वङ्गी महिष्यश्चाष्टमाः स्मृताः ।। व्यास का जन्म हुआ। सत्ययुग-चार युगों में से प्रथम युग । इसका कृत नाम इस (२) हरिवंश पुराण (२७,१८) के अनुसार ऋचीक कारण हुआ कि समस्त प्रजा इस काल में कृतकृत्य या मुनि की पत्नी । यथा : कृतार्थ रहती थी : 'कृतकृत्य प्रजा यत्र तन्नाम्ना मां कृतं विदुः ॥' गाधेः कन्या महाभागा नाम्ना सत्यवती शुभा । तां गाधिः काव्यपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः ।। (कल्कि पुराण, अध्याय १९) [गाधि की कन्या नाम से सत्यवती महाभागा और कृतयुग (सत्ययुग) की दशा का वर्णन निम्नांकित शुभा थी। उसको गाधि ने काव्यपुत्र ऋचीक को विवाह पाया जाता है : में दिया।] धर्मश्चतुष्पादभवत् कृ पूर्णे जगत्त्रयम् । सत्यवतीसुत-(१) सत्यवती के पुत्र ध्यास । वास्तव में देवा यथोक्तफलदाश्चरन्ति भुवि सर्वतः ।। इनका नाम कृष्ण था । पराशर द्वारा अविवाहित सत्यवती सर्वसस्या वसुमती हृष्टपुष्टजनावृता। से ये उत्पन्न हए थे। सत्यवती ने लज्जा के मारे इनको शाठ्यचौर्या नतींना आविव्याधिविजिता ।। एक द्वीप में छिपा दिया, इसीलिए आगे चलकर ये द्वैपायन विप्रा वेदविदः सुमङ्गलयुता नार्यस्तु चर्याततैः भी कहलाये । जब इन्होंने वेदों का संकलन और सम्पादन पूजाहोमपरा पतिव्रतधरा यागोद्यताः क्षत्रियाः ।। किया तो इनकी प्रसिद्ध उपाधि व्यास हई । सर्वाधिक वैश्या वस्तूष धर्मतो विनिमयः श्रीविष्णुपूजापराः इसी नाम से ये प्रसिद्ध हुए । शूद्रास्तु द्विजसेवनाद् हरिकथालापाः सपर्यापराः ॥ (२) जमदग्नि ऋषि भी सत्यवतीसुत कहलाते हैं, (कल्कि पुराण, अध्याय १८) क्योंकि उनकी माता का नाम भी सत्यवती था। वैशाख शुक्ल तृतीया रविवासर को सत्य युग की उत्पत्ति हुई थी। इसमें विष्णु के चार अवतार हुए सत्यवान् केकय देश के राजा अश्वपति की कन्या सावित्री के पति । ये साल्व देश (पूर्वी राजस्थान, अलवर ) के १. मत्स्य २. कूर्म ३. वराह तथा ४ नृसिंह । इसमें पुण्य निवासी थे । महाभारत (३,२९३.१२) में इनके नाम की पूर्ण था, पाप का अभाव था, मुख्य तीर्थ कुरुक्षेत्र था, व्युत्पत्ति इस प्रकार बतलायी गयी है : ब्राह्मण ग्रहांश थे, प्राण मज्जागत थे, मृत्यु इच्छानुसार थी। इसमें बलि, मान्धाता, पुरूरवा, धुन्धमारिक, सत्यं वदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते । कार्तवीर्य ये छः चक्रवर्ती राजा हुए थे। इसका लक्षण ततोऽस्य बाह्मणाश्चक्रु मैतत् सत्यवानिति ।। निम्नांकित है : [ इनके पिता सत्य बोलते थे, माता सत्य भाषण करती सत्यधर्मरता नित्यं तीर्थानाञ्च सदाश्रयम् । थी, इसलिए ब्राह्मणों ने इनका नाम सत्यवान् ही नन्दन्ति देवताः सर्वा सत्ये सत्यपरा नराः ।। रखा । ] सावित्री-सत्यवान् की प्रसिद्ध था महाभारत (दे० भागवत, १२,४,२ पर श्रीधर स्वामी की टीका) (३.२९२ और आगे) में विस्तार से दी हुई है। सत्यलोक-सात लोकों के अन्तर्गत एक लोक । विष्णु- सत्यार्थप्रकाश-आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द पुराण (२.७) में इसका निम्नांकित लक्षण दिया हुआ है : सरस्वती द्वारा लिखित प्रसिद्ध ग्रन्थ । यह आर्य समाज का षड्गुणेन तपोलोकात् सत्यलोको विराजते । सर्वमान्य ग्रन्थ है । इसके अधिकांश प्रारंभिक अध्यायों अपुनर्मारका यत्र ब्रह्मलोको हि स स्मृतः ॥ (समल्लासों) में आर्य समाज के सिद्धान्तों का मण्डन और [ तप लोक से छ: गुना सत्यलोक अधिक विराजमान समाजसुधारक विचारों का प्रतिपादन किया गया है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ सत्र सदाचार इसके पश्चात् पौराणिक तथा तान्त्रिक हिन्दू धर्म तथा संसार के अन्यान्य धर्मों की कड़। समीक्षा की गयी है। दे० 'आर्य समाज'। सत्र-यज्ञ का पर्याय । भागवत पुराण (१.१) में यज्ञ के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है। नैमिषेऽनिमिषक्षेत्र ऋषयः शौनकादयः । सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत ॥ कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन्वणवे वयम् । आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ।। [अनिमिषक्षेत्र नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषियों ने स्वर्ग की प्राप्ति और लोक कल्याण के लिए सहस्रों वर्ष का सत्र (यज्ञ) किया। कलि को आया हुआ जानकर इस वैष्णव क्षेत्र में हम लोग दीर्घ सत्र (यज्ञ) करते हुए भगवत्था में समय बिताने लगे । ] सत्राजित्-कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के पिता । सत्वत्-यदुवंश के एक प्राचीन राजा, जिनसे सात्वत वंश चला। वे अंशु के पुत्र थे। सात्वतों में ही वैष्णवों का भागवत सम्प्रदाय प्रारम्भ में विकसित हुआ, अतः इसे सात्वत सम्प्रदाय भी कहते हैं। सत्वत् के पुत्र सात्वत ने नारद से भागवत धर्म का उपदेश ग्रहण किया (दे० कुर्म पुराण)। इस धर्म की विशेषता थी निष्काम कर्म और वासुदेव की आराधना । ज्ञान, कर्म और भक्ति के समुच्चय अथवा समन्वय के सात्वत लोग समर्थक थे । सदन-स्वामी रामानन्द के पूर्व रामावत सम्प्रदाय मे कई सन्त आचार्य हुए । इनमें नामदेव और त्रिलोचन महाराष्ट्र में तथा सदन और बेनी तर भारत में हए थे। सदन ने हिन्दी में अपने पदों की रचना की। राय बालेश्वर प्रसाद ने सन्तबानी-संग्रह सन् १९१५ में बेल्बेडियर प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित कराया था। उसमें सदन के पद संगृहीत हैं। सदावार--धर्म के अनेक स्रोतों में से एक । इसको धर्मसूत्रों में शील, सामयाचारिक अथवा शिष्टाचार कहा गया है और स्मतियों में आचार अथवा सदाचार । धर्म के स्रोतों कीगणना निम्नांकित प्रकार है : वेदो धर्ममूलम् । तद्विदाञ्च स्मृतिशीले । (गौ० ५० १.१-२) अथातः सामयाचारिकान्धर्मान् व्याख्यास्यामः । धर्मज्ञसमयः प्रमाणम् वेदाश्च । (आप० धर्म० १.१.१-३) श्रुतिस्मतिविहितो धर्मः । तदलामे शिष्टाचारः प्रमाणम् । शिष्टः पुनर कामात्म्म । अगृह्यमाणकारणो धर्मः ।। (वसिष्ठधर्म० १. ४-७) श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । सम्यक्संकल्पनः कामोः धर्ममूलमिदं स्मृतम् ।। (याज्ञ० १.७) वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ।। (मनु १.६) आपस्तम्ब धर्मसूत्र के भाष्य में हरदत्त सामयाचारिक की व्याख्या इस प्रकार करते हैं : पौरुषेयी व्यवस्था समयः, सच fविधः, विधिनियमः, प्रतिषेधश्चेति । समयमूला आचाराः, तेषु भवाः सामयाचारिकाः, एवंभूतान् धर्मानिति । कर्मजन्योऽभ्युदयनिःश्रेयसहेतुरपूर्वाख्य आत्मगुणो धर्मः । [ पौरुषेयी व्यवस्था को समय कहते है, वह तीन प्रकार का होता है-(१) विधि (२) नियम और (1) प्रतिषेध । आचारों का मूल समय में होता है। उनमें उत्पन्न होने के कारण वे सामयाचारिक कहलाते है। अर्थात् इस प्रकार से उत्पन्न हुए धर्म । कम से उत्पन्न, अभ्युदयनिःश्रेयस का कारणभूत अपूर्व नामक आत्मा का गुण धर्म है ।] वसिष्ठधर्मसूत्र में शिष्ट की परिभाषा दी गयी है : शिष्टः पुनरकामात्मा । [शिष्ट वह है जो (स्वार्थमय) कामनाओं से रहित हो] अकामात्मा का ही आचार प्रमाण माना जा सकता है । मनु ने शील और आचार में थोड़ा भेद किया है । कुल्लूक के अनुसार शील नैतिक गुणों को कहते है, जैसे विद्याप्रेम, देवभक्ति, पितृभक्ति आदि; आचार वह है जो अनुबन्ध अथवा परम्परा पर आधारित हो। श्रुति तथा स्मृति और आचार की प्रामाणिकता में भी अन्तर है। प्रथम दो धर्म के मौलिक प्रमाण है, जब कि आचार सहायक प्रमाण है। सदाचार अथवा आचार तीन प्रकार का होता है : (१) देशाचार (२) जात्याचार और (३) कुलाचार । भिन्न-भिन्न प्रदेशों में विभिन्न आचार, प्रथायें और Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदाचार परम्पराएँ प्रचलित होती हैं, वे देशाचार कहलाती हैं । इसी प्रकार विभिन्न जातियों में भी अपने-अपने विशिष्ट आचार होते हैं, जो जात्याचार कहलाते है। जाति के भीतर विभिन्न कुलों में भी अपने-अपने विशेष आचार होते हैं, जिनको कुलाचार कहते हैं । ये श्रुति स्मृतियों में विहित विधान के अतिरिक्त होते हैं। कालमानित और बहुमानित होने के कारण ये प्रमाण माने जाते हैं, यद्यपि श्रुति स्मृतियों से अविरुद्ध होने की इनसे अपेक्षा की जाती है। सदाचार के प्रामाण्य पर कुमारिल द्वारा तन्त्रवार्तिक ( जैमिनि, १ ३.७ ) में विस्तार से विचार किया गया है। इसके अनुसार वे ही प्रथाएँ सदाचार के अन्तर्गत आती हैं जो श्रुति के स्पष्ट पाठ के अविरुद्ध होती हैं, जिनका आचरण शिष्ट इस विश्वास से करते हैं कि उनका पालन करना धर्म है, जिनका कोई इष्ट फल ( काम अथवा लोभ) नहीं होता है । शिष्ट भी वे ही होते हैं जो स्पष्ट श्रुतिविहित कर्तव्यों का स्वेच्छा से अपने आप पालन करते हैं; वे नहीं जो तथाकथित सदाचार का पालन करते हैं । यदि ऐसा न हो तो शिष्टता वाग्जाल के चक्र में पड़ जायेगी । इसलिए परम्परागत और पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आने वाली प्रथाओं का शिष्टों द्वारा इस बुद्धि से पालन कि वे धर्म के अङ्ग है, वस्तुतः धर्म हैं और इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है : दुष्टकारणहीनानि यानि कर्माणि प्रयुक्तानि प्रतीयेरन् धर्मत्वेनेह शरीरस्थितये यानि सुखार्थं वा प्रयुञ्जते । अर्थार्थ वा न वस्ति शिष्टानामेव धर्मधीः ॥ धर्मत्वेन प्रपन्नानि निष्टेर्यानि तु कानिचित् । वैदिकैः कर्मसामान्यात्तेषां धर्मत्वमिष्यते ॥ नैव तेषां सदाचारनिमित्ता शिष्टता मता । साक्षाद्विहितकारित्वाच्छिष्टत्वे सति तद्वचः ।। प्रत्यक्ष वेदविहितक्रियया हि लब्धशिष्टत्वव्यपदेशा यत्परम्पराप्राप्तमम्यदपि धर्मबुद्ध्या कुर्वन्ति तदपि स्वयंत्वाद्धरूपमेव । (वार्तिक, पृ० २०५ २०६ ) । केवल महान् पुरुषों का आचरण मात्र सदाचार नहीं हैं, क्योंकि उनके जीवन में कई कर्म धर्मविरुद्ध होते हैं, जिनका आचरण सामान्य पुरुषों को नहीं करना चाहिए: साधुभिः । तान्यपि ।। दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महताम् । अवरदौर्बल्यात् (गौतम धर्म० १. ३-४ ) दृष्टी धर्मव्यतिक्रमः साहसं च पूर्वषाम् । तेषां तेजोविशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते । तदन्वीक्ष्य प्रयुञ्जानः सीदत्यवरः ।। (आप० धर्म० २.६.१३.७-९) कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक ( जैमिनि ३.३.१४) में सदाचार के बाधों पर भी विचार दिया है। यदि किसी आचार और स्मृति में विरोध हो तो आचार स्मृति से बाधित होता है एक आचार दूसरे अधिक अभियुक्ततर ( श्रेष्ठ द्वारा प्रयुक्त) आचार से संदिग्ध आचार असंदिग्ध आचार से बाधित होता है आदि (स्मृत्याप्याचारः सोऽप्यभियुक्तराचारेण संदिग्धमसंदिग्धेन) । सदाचार के मीमांसक मूल्यांकन से कुछ स्मृतिकारों ने अपना मतभेद प्रकट किया है। किसी आचार को राज्य द्वारा इसलिए अमान्य नहीं कर देना चाहिए कि उसका स्मृति द्वारा विरोध है। ऐसे आचार का विरोध शुद्ध धार्मिक दृष्टि से है, व्यावहारिक (विधिक) दृष्टि से नहीं । किसी आचार के प्रामाणिक होने के लिए यह पर्याप्त हैं कि वह चिरकालमानित और बहुमानित है। बृहस्पति का कथन है "देशाचार, जात्याचार और कुलाचार का, जहाँ भी वे प्राचीन काल से प्रचलित हों, उसी प्रकार आदर करना चाहिए। नहीं तो प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होता है; राजा के बल और कोष का नाश होता है । ऐसे आचार के पालन से प्रजा प्रायश्चित अथवा दण्ड की भागी नहीं होती देशजातिकुलानाञ्च ये धर्माः प्राक्प्रवर्तिताः । तथैव ते पालनीयाः प्रजा प्रक्षुभ्यते यथा ॥ जनावरक्तिर्भवति वलं कोषञ्च नश्यति । अनेन कर्मणा ते प्रायश्चित्तदमाहंकाः ॥ ६५३ (बृहस्पति) साधु पुरुषों के आचरण को सदाचार कहते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त के निवासियों के आचार को सदाचार बतलाया गया है : सरस्वतीदृषद्वत्यो वनयोर्यदन्तरम् । तवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ॥ तस्मिन् देशे य आचारः पारम्पर्यक्रमागतः । वर्णानां सान्तरालानां सदाचारः स उच्चते ॥ [देवनदी सरस्वती और दृषद्वती के बीच में जो अन्तराल है वह देवताओं से निर्मित देश ब्रह्मावर्त कहलाता Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ सदाचारस्मृति-सद्यःशौच है । उस देश में अन्तराल सहित चारों वर्णी का परम्परा- सकती । महाभारत (२.७९४) में गण्डकी और सदानीरा गत जो आचार है वह सदाचार कहलाता है। ] को अलग-अलग माना गया है। किन्तु यहाँ शायद गण्डकी धर्म के प्रमुख चार स्रोतो में तीसरा सदाचार है : का तात्पर्य छोटी गण्डक से है, जो उत्तर प्रदेश के देवश्रुतिः स्मतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । रिया जिले में बहती है। सदानीरा का एक नाम नारायणी एतच्चतुर्विध प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ।। या शालग्रामी भी है । वर्षाऋतु में अन्य नदियाँ रजस्वला (मनुस्मृति) होने के कारण अपवित्र रहती हैं, किन्तु इसका जल [ श्रुति, स्मति, सदाचार और अपने आत्मा को प्रिय, सदा पवित्र रहता है। अतः यह सदानीरा कहलाती है । यह चार प्रकार का साक्षात् धर्म का लक्षण कहा यह पटना के पास गंगा में मिल जाती है। गया है।] सदापूण-ऋग्वेदोक्त ( ५.४४.१२ ) एक ऋषि । ___ कालिकापुराण (अध्याय ८६), वामनपुराण (अध्याय सदाशिव ब्रह्मेन्द्र-भट्टोजिदीक्षित के समकालीन एक विद्वान् १४), पद्मपुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय २९,३०,३१) और संन्यासी । संभवतः ये काञ्ची कामकोटि पीठ के महाधीश्वर मार्कण्डेयपुराण के सदाचाराध्याय में सदाचार का विस्तृत भी थे । इनके रचित ग्रन्थ गुरुरत्नमालिका में ब्रह्मविद्यावर्णन पाया जाता है। भरणकार स्वामी अद्वैतानन्द का उल्लेख पाया जाता है। सदाचारस्मृति-मध्वाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ । इसमें सदाशिव स्वामी ने अद्वैतविद्याविलास, बोधार्यात्मनिर्वेद, माध्व साम्प्रदायिक वैष्णवों के आचारों का वर्णन और गुरुरत्नमालिका, ब्रह्मकीर्तनतरङ्गिणी आदि ग्रन्थों की विवेचन है। रचना की थी। सदानन्द-अद्वैत दर्शन के एक आचार्य अद्वैतानन्द पन्द्रहवीं सदुक्तिकर्णामृत-बङ्गदेशीय वैष्णव श्रीधरदास द्वारा प्रस्तुत शती में हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र के शाङ्कर भाष्य पर स्तुतियों का एक संग्रह ग्रन्थ । इसका रचनाकाल १२०५ भरण नामक भाष्य पद्य में लिखा। अद्वैतानन्द ई० है। इसमें जयदेव के कुछ पद्य भी संगृहीत हैं। के शिष्य सदानन्द थे, जिन्होंने गद्य में वेदान्तसार सद्यःशद्धि-सामान्यतः मरणाशौच और जननाशौच में नामक ग्रन्थ लिखा। यह शाङ्कर वेदान्त की अच्छी शुद्धि बारह दिनों के पश्चात् होती है । परन्तु किन्हीं भूमिका प्रस्तुत करता है परन्तु इस पर सांख्य का प्रभाव परिस्थितियों में सद्यः (तुरन्त) शुद्धि हो जाती है । स्पष्ट है। गरुडपुराण (अध्याय १०७) के अनुसार : सदानन्द योगीन्द्र-इन्होंने वेदान्तसार नामक ग्रन्थ की देशान्तरमृते बाले सद्यः शुद्धिर्यतौ मृते ।' रचना की। इनका जीवन काल सोलहवीं शती का [देशान्तर में मरने पर, बालक की मृत्यु पर तथा उत्तरार्द्ध है। वेदान्तसार के ऊपर नृसिंह सरस्वती की संन्यासी की मृत्यु पर सद्यः शुद्धि हो जाती है। ] इसका सुबोधिनी नामक टीका है जिसका रचनाकाल शक सं० कारण यह है कि प्रथम और द्वितीय का परिवार से १५१८ है। वेदान्तसार अद्वैतवेदान्त का अत्यन्त सरल सम्बन्ध नहीं रहता है। द्वितीय का व्यक्तित्व अविकसित प्रकरण ग्रन्थ है। इस पर कई टीकाएँ लिखी गयी है। और उसका परिवार में अभिनिवेश प्रायः नहीं होता । इस ग्रन्थ से मुमुक्षुओं का बहुत उपकार हुआ है । सदानन्द । सद्यःशौच-सामाजिक आवश्यकता और कुछ विशेष योगीन्द्र का एक ग्रन्थ शङ्करदिग्विजय भी है जो अभी कारणों से कुछ वर्गों और व्यक्तियों का शौच (शुद्धि) नागराक्षरों में प्रकाशित नहीं है । दे० सदानन्द । तुरन्त मान लिया जाता है। गरुडपुराण (अध्याय १०७) सदानीरा-शतपथ ब्राह्मण (१.४.१.१४ ) के अनुसार में कथन है : यह कोसल और विदेह के बीच सीमा बनाती थी। शिल्पिनः कारवो वैद्याः दासीदासाश्च भृत्यकाः । वेबर इसको गण्डकी ( बड़ी गंडक ) मानते हैं, जो ठीक अग्निमान् श्रोत्रियो राजा सद्यः शौचाः प्रकीर्तिताः ।। प्रतीत होता है । कुछ लोगों ने इसको करतोया माना है [ शिल्पी लोग, बढ़ई, वैद्य, दासी, दास, भृत्य, यज्ञ (इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, पृ १५,२४) । परन्तु करने वाला, श्रोत्रिय और राजा ये तुरन्त शौच वाले (शुद्ध) करतोया बहुत दूर पूर्व में होने से सदानीरा नहीं हो माने जाते हैं ।] Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्विद्याविजय-सनातनगोस्वामी ६५५ कर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय २२), आदिपुराण एवं सनत्कुमार-(१) सनत् (ब्रह्मा) के पुत्र होने से अथवा सनत कई स्मतियों में सद्यःशौच वाले लोगों की लम्बी सूचियाँ (सदा) कुमार रहने के कारण इनका नाम सनत्कुमार पायी जाती हैं । कुछ कर्मों का अनुष्ठान प्रारम्भ हो जाने पड़ा । हरिवंश में इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की पर अशौच नहीं होता : व्रतयज्ञविवाहेषु श्राद्धहोमार्चने जपे। यथोत्पन्नस्तथैवाहं कुमार इति विद्धि माम् । तस्मात् सनत्कुमारेति नामैतन्मे प्रतिष्ठितम् ।। आरब्धे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम् ।। (विष्णुस्मृति) वामन पुराण (अ० ५७-५८) के अनुसार धर्म की अहिंसा नामक पत्नी से चार पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें एक [व्रत, यज्ञ और विवाह में, इसी प्रकार श्राद्ध, होम, __ सनत्कुमार थे । इन पुत्रों को ब्रह्मा ने दत्तकरूप में ग्रहण अर्चन और जप में भी आरम्भ हो जाने पर सूतक नहीं किया : होता; अनारम्भ में होता है । ] दे० सद्यःशुद्धि । धर्मस्य भार्याऽहिंसाख्या तस्यां पुत्रचतुष्टयम् । सद्विद्याविजय-दोद्दय महाचार्य रामानुजदास कृत एक सम्प्राप्तं मुनिशार्दूल योगशास्त्रविचारकम् ।। ग्रन्थ । इसका रचनाकाल सोलहवीं शती है। इसमें श्री ज्येष्ठः सनत्कुमारोऽभूद् द्वितीयश्च सनातनः । वैष्णव वेदान्तमत का प्रतिपादन हुआ है । तृतीयः सनको नाम चतुर्थश्च सनन्दनः ।। सधर्मचारिणी-एक साथ धर्म का आचरण करने वाली । (२) छान्दोग्य उपनिषद (७.१-१;२६.२) में एक ज्ञानी यह भार्या का पर्याय है। ऋषि का नाम । पौराणिक पुराकथा के अनुसार ये वैष्णव सधवा--धव = पति के, स = साथ विद्यमान । जिस स्त्री परम्परा के नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मा के चार पुत्रों में का पति जीवित होता है उसे सधवा कहते हैं । में से ये एक थे। सनक--(१) ब्रह्मा के चार मानस पत्रों में से प्रथम । सनत्कुमारउपपुराण-यह उन्तीस उपपुराणों में से एक है। श्रीमद्भागवतपुराण (३.१२) में इनका वर्णन है। सनत्कुमारतन्त्र-आगमतत्त्वविलास में अनुसूचित चौसठ (२) जैमिनीय ब्राह्मण (३.२३३) के अनुसार सनक दो तन्त्रों में से एक तन्त्र। काप्यों में से एक का नाम है ( दूसरा नवक है । ) इन्होंने ___ सनन्दन-ब्रह्मा के चतुर्थ पुत्र (दे० सनत्कुमार) । स्कन्द विभिन्दकीयों के यज्ञ में भाग लिया था। ऋग्वेद के एक पुराण के काशी खण्ड के अनुसार ये जनलोक वासी हैं स्थल (३.१४७) पर इनको यज्ञ से उदासीन के रूप में और दिव्य मनुष्य माने जाते हैं। इसीलिए पितरों के चचित किया गया है। संभवतः इनकी भक्तिवादी प्रवृत्ति समान इनका तर्पण किया जाता है। के कारण । सनातन--(१) ब्रह्मा के द्वितीय पुत्र । काशी खण्ड के अनुसार सनकसंप्रदाय-आचार्य शङ्कर के पश्चात् जिन वैष्णव ये जनलोकवासी किन्तु अग्निपुराण के अनुसार तपोलोकसम्प्रदायों का विकास हुआ, उनमें एक सनक सम्प्रदाय भी वासी थे। ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पर्याय भी 'सनातन' है । मुख्य वैष्णव सम्प्रदाय थे-(१) श्रीसम्प्रदाय (२) है। हेमचन्द्र के अनुसार सनातन पितरों के अतिथि ब्रह्मसम्प्रदाय (३) रुद्रसम्प्रदाय और (४) सनकसम्प्रदाय । हैं । दे० 'सनत्कुमार'। अब इनमें से निम्बार्क के अनुयायिओं का सम्प्रदाय सनक (२) तैत्तिरीय संहिता (४.३.३.१) में एक ऋषि अथवा सनकादि राम्प्रदाय कहलाता है। इन सभी सम्प्र- का नाम । बृहदारण्यक उपनिषद् की (२.५.२२:४.५.२८) दायों का आधार श्रुति (वेद) है और दर्शन वेदान्त । दो वंशसूचियों में इनका उल्लेख सनग नामक ऋषि के इनकी साहित्यिक परम्परा भी प्रायः एक है। केवल शिष्य और सनारु के गुरु के रूप में हुआ है। व्याख्या करने की पद्धति भिन्न-भिन्न हैं । बाहरी आचारों सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य । रूप में भेद होने से इनमें सम्प्रदायभेद उत्पन्न हो गया। गोस्वामी और सनातन गोस्वामी दोनों महाप्रभु के पट्ट सनकादिसम्प्रदाय-दे० 'सनकसम्प्रदाय' । शिष्य एवं भाई थे। ये पहले बंगाल के नवाब के यहाँ उच्च Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ सन्ध्या कर्मचारी थे। चैतन्य महाप्रभु से प्रभावित होने पर एक दिन सनातन के मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ। एक दिन वे किसी सरकारी काम से कहीं जा रहे थे । बहुत जोर की आँधी आयी और आकाश बादलों से घिर गया । मार्ग में एक मेहतर दम्पति आपस में वार्तालाप करते हुए मिले | पत्नी पति को बाहर जाने से रोक रही थी। उसने पति से कहा, "ऐसे झंझावात में संकट के समय या तो दूसरे का नौकर बाहर जा सकता है अथवा कुत्ता।" सनातन गोस्वामी ने इस बात को सुनकर नौकरी छोड़ने का निश्चय किया। परन्तु यह बात नवाब को मालूम हो गयी और उसने सनातन को कारागार में डाल दिया । सनातन अपने को भगवान् के चरणों में समर्पित कर चुके थे। काराध्यक्ष को प्रसन्न कर एक दिन केवल एक कम्बल के साथ ये जेल के बाहर आ गये और महाप्रभु चैतन्य की शरण में पहुँच गये । कम्बल देखकर महाप्रभु ने उदासीनता प्रकट की। इस पर सनातन ने कम्बल का भी त्याग कर दिया। वे अत्यन्त विरक्त होकर कृष्ण की आराधना में तल्लीन हो गये । जीवन के अन्तिम भाग में ये वृन्दावन में रहने लगे थे। इन्होंने गीतावली, वैष्णवतोषिणी, भागवतामृत और सिद्धान्तसार नामक गंभीर ग्रन्थों की रचना की। भागवतामृत में चैतन्य सम्प्रदाय के कर्तव्य और आचार का वर्णन है। हरिभक्तिविलास नामक ग्रन्थ भी इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ में भगवान् के स्वरूप और उपासना का । वर्णन है । बंगला भाषा में भी इनका एक ग्रन्थ रसमयकलिका नाम से प्रचलित है । सनातन गोस्वामी अचिन्त्यभेदाभेद मत के मानने वाले थे और इनके ग्रन्थों का यही दर्शन है। सन्ध्या-एक धार्मिक क्रिया जो, हिन्दुओं का अनिवार्य कर्तव्य है। दिन और रात्रि की सन्धि में यह क्रिया की जाती है, इसलिए इसको सन्ध्या (सन्धिवेला में की हुई) कहते हैं । व्यास का कथन है : उपास्ते सन्धिवेलायां निशाया दिवसस्य च । तामेव सन्ध्यां तस्मात्तु प्रवदन्ति मनीषिणः ।। इसकी अन्य व्युत्पत्तियाँ भी पायी जाती हैं। यथा 'सम्यक ध्यायन्त्यस्यामिति ।' 'संदधातीति' । दिन और रात्रि को सन्धि के अतिरिक्त मध्याह्न को भी सन्धि माना जाता है । अतः तीन सन्ध्याओं में जो उपासना की जाती है, उसका नाम (त्रिकाल) सन्ध्या है। इन कालों में उपास्य देवता का नाम भी सन्ध्या है। सन्ध्या उपासना सभी के लिए आवश्यक है, किन्तु ब्राह्मण के लिए अनिवार्य है : एतत् सन्ध्यात्रयं प्रोक्तं ब्राह्मण्यं यदधिष्ठितम् । यस्य नास्त्यादरस्तत्र न स ब्राह्मण उच्यते ।। अब्राह्मणास्तु षट् प्रोक्ता ऋषिणा तत्त्ववादिना । आद्यो राजभृतस्तेषां द्वितीयः क्रयविक्रयी । तृतीयो बहुयाज्यः स्याच्चतुर्थों ग्रामयाजकः । पञ्चमस्तु भृतस्तेषां ग्रामस्य नगरस्य च ।। अनागतान्तु यः पूर्वां सादित्याञ्चैव पश्चिमाम । नपासीत द्विजः सन्ध्यां स षष्ठोऽब्राह्मणः स्मृतम् ।। (शातातप) [ तत्त्ववादी ऋषि द्वारा छः प्रकार के अब्राह्मण कहे गये हैं। उनमें से प्रथम राजसेवक है; दूसरा क्रय और विक्रय करने वाला है; तीसरा बहुतों का यज्ञ कराने वाला; चौथा ग्रामयाजक; पाँचवाँ ग्राम और नगर का भृत्य और छठा प्रात: और सायं सन्ध्या न करने वाला।] याज्ञवल्कय ने सन्ध्या का लक्षण इस प्रकार बतलाया है : त्रयाणाञ्चैव वेदानां ब्रह्मादीनां समागमः । सन्धिः सर्वसुराणाञ्च तेन सन्ध्या प्रकीर्तिता ॥ [ऋक्, साम, यजुः तीनों वेदों और ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीन मूर्तियों का इसमें समागम होता है । सभी देवताओं को इसमें सन्धि होती है, इसलिए यह सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध है। ] संवर्तस्मृति में सन्ध्योपासना का उपक्रम इस प्रकार बतलाया गया है : प्रातःसन्ध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथा विधि । सादित्यां पश्चिमा सन्ध्यामर्दास्तमितभास्कराम् ।। प्रातःसन्ध्या की उपासना यथा विधि नक्षत्र सहित (थोड़ी रात रहते) करनी चाहिए । सायं सन्ध्या आधे अस्त सूर्य के साथ होनी चाहिए । ] मध्याह्न सन्ध्या के लिए आठवाँ मुहुर्त उपयुक्त बतलाया गया है : 'समसूर्येऽपि मध्याह्न महर्ते सप्तमोपरि ।' सांख्यायनगृह्यसूत्र में सन्ध्या का निम्नांकित विधान है : "अरण्ये समित्पाणिः सन्ध्या मुपास्ते नित्यं वाग्यत उत्तरापराभिमुखोऽन्वष्टमदिशम्आनक्षत्रदर्शनात् । अतिक्रान्तायां महाव्याहृती: सावित्री स्वस्त्ययनादि जप्त्वा एवं प्रातः प्राङ्मुखस्तिष्ठन् आमण्डलदर्शनादिति । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संन्यासी ६५७ व्यास ने तीन काल की सन्ध्याओं के अलग-अलग नाम दिये हैं : "गायत्री नाम पूर्वाह्न सावित्री मध्यमे दिने । सरस्वती च सायाह्न, सैत्र सन्ध्या त्रिषु स्मृता ।। प्रतिग्रहान्नदोषाच्च पातकादुपपातकात् । गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः ॥ सवितद्योतना। सैव सावित्री परिकीर्तिता। जगतः प्रसवित्रीत्वात् वाररूपत्वात् सरस्वती ॥" [ पूर्वाह्न में जो सन्ध्या की जाती है उसका नाम गायत्री; मध्याह्न में जो की जाती है उसका नाम सावित्री और सायं जो की जाती है उसका नाम सरस्वती है । दान में ग्रहण किये हए अन्न के दोष, पातक और उपपातक से अपने गानेवाले ( उपासना करनेवाले ) को त्राण देती है, इसलिये गायत्री कहलाती है। सविता के प्रकाश अथवा जगत् को उत्पन्न करने के कारण सावित्री नाम से प्रसिद्ध है। वाररूप होने से सरस्वती कहलाती है ।] सन्ध्या का माहात्म्य तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस प्रकार बतलाया गया है : "उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते । असावादित्यो ब्रह्मा इति ब्रह्मव सन् ब्रह्माभ्येति य एवं वेदेत्ययमर्थः ।" [उगते हुए, अस्त होते हए तथा मध्याह्न में ऊपर जाते हुए आदित्य ( सूर्य ) का ध्यान करते हुए विद्वान् ब्राह्मण सम्पूर्ण कल्याण को प्राप्त करता है । यह आदित्य ब्रह्मरूप ही है , उपासक ब्रह्म होता हुआ ब्रह्म को प्राप्त करता है, वह इसका अर्थ है । ] याज्ञवल्क्य ने और विस्तार के साथ इसका माहात्म्य बतलाया है : या सन्ध्या सा तु गायत्री द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता। सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्तेन उपासितः ।। गवां सर्पिः शरीरस्थं न करोत्यंगपोषणम् । निःसृतं कर्मसंयुक्तं पुनस्तासां तदौषधम् ।। एवं स हि शरीरस्थः सपिवत्परमेश्वरः । विना चोपासनादेव न करोति हितं नृषु ॥ प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च । उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठितः ॥ वाच्यः स ईश्वरा प्रोक्तो वाचक: प्रवणः स्मृतः । वाचकेऽपि च विज्ञाते वाच्य एव प्रसीदति ।। ८३ भर्भुवः स्वस्तथा पूर्व स्वयमेव स्वयम्भुवा । व्याहृता ज्ञानदेहेन तस्मात् व्याहृतयः स्मृताः ।। 'शद्धितत्त्व' में जनन-मरणाशौच में सन्ध्योपासना का निषेध किया गया है : सन्ध्यां पञ्चमहायज्ञं नैत्यिकं स्मृतिकर्म च । तन्मध्ये हापयेत्तेषां दशाहान्ते पुनः क्रिया ।। संन्यास-(१) चार आश्रमों में से चतुर्थ आश्रम । प्रथम तीन आश्रमों-ब्रह्मार्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ-के पालन के पश्चात् इसमें प्रवेश करने का विधान है । वामन पुराण (अ० १४) में संन्यास आश्रम का धर्म निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है : सर्वसङ्गपरित्यागो ब्रह्मचर्यसमन्वितः । जितेन्द्रियत्वमावासे नकस्मिन्वसतिश्चिरम् ।। अनारन्भस्तथाहारे भिक्षा विप्रे ह्यनिन्दिते । आत्मज्ञानविवेकश्च तथा ह्यात्मावबोधनम् ।। चतुर्थे चाश्रमे धर्मो ह्यस्माभिस्ते प्रकीर्तितः ।। [ सभी प्रकार की आसक्ति का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, इन्द्रियजय, एक स्थान में चिरकाल तक रहने का त्याग, कामनायुक्त कर्म का अभाव, आहार में प्रशस्त विप्र के यहाँ भिक्षावृत्ति, आत्मज्ञान का विवेक, आत्मा में ही सभी प्रकार से निष्ठा, चतुर्थ आश्रम ( संन्यास ) में यह धर्म तुमसे कहा गया है । ] कलियुग में संन्यास का निषेध बतलाया गया है : अश्वमेधं गयालम्भं संन्यासं पलपतकम् । देवरेण सुनोत्पत्ति क्लौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ 'मलमास-तत्त्व-प्रतिज्ञा में रघुनन्दन भट्टाचार्य के अनुसार यह कलिवर्ण्य केवल क्षत्रिय और वैश्य के लिए है । दे० 'आश्रम' । संन्यासी-चतुर्थ आश्रम संन्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को संन्यासी कहते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड ( अध्याय ३३ ) में संन्यासी के धर्म का वर्णन निम्नलिखित प्रकार है : सदन्ने वा कदन्ने वा लोष्टे वा काञ्चने तथा। समबुद्धिर्यस्य शश्वत् स संन्यासीति कीर्तितः ।। दण्डं कमण्डलु रक्तवस्त्रमात्रञ्च धारयेत् । नित्यं प्रवासी नैकत्र स संन्यासीति कीर्तितः ।। शुद्धाचारद्विजान्नञ्च भुक्के लोगादिवजितः । किन्तु किञ्चिन्न याचेत् स संन्यासीति कीर्तितः ।। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ न व्यापारी नाश्रमी च सर्वकर्मविवर्जितः । ध्यायेन्नारायणं वत्स संन्यासीति कीर्तितः ॥ शश्वन्मौनी ब्रहाचारी सम्भाषालापवजितः । सर्वं ब्रह्ममयं पश्येत् स संन्यामीति कीर्तितः ॥ सर्वत्र समबुद्धिवच हिंसामायाविवजितः । क्रोधाहङ्काररहितः स संन्यासीति कीर्तितः ॥ अयाचितपस्थितश्च मिष्टामिष्टञ्च भुक्तवान् । न याचेत् भक्षणार्थी स संन्यासीति कीर्तितः ॥ न च पश्येत् मुखं स्त्रीणां न तिष्ठेतत्समीपतः । दारवीमपि दोषाञ्च न स्पृशेद्यः स भिक्षुकः ॥ [ सदन्न अथवा कदन्न में, लोष्ट्र अथवा काञ्चन में जिसकी समान वृद्धि रहती है वह संन्यासी कहलाता है। जो दण्ड, कमण्डल और रक्तवस्त्र धारण करता है और एक स्थान में न रहकर नित्य प्रवास में रहता हैं वह संन्यासी कहलाता है जो शुद्ध आचार वाले द्विज का अन खाता है, लोभादि से रहित होता है और किसी से कुछ माँगता नहीं, यह संन्यासी कहलाता है। जो व्यापार नहीं करता, जो प्रथम तीन आश्रमों का त्याग कर चुका है, सभी कर्मों में अनासक्त, सदा नारायण का ध्यान करता है, वह संन्यासी कहलाता है । सदा मौन रहनेवाला, ब्रह्मचारी, सम्भाषण और आलाप न करनेवाला और सब को ब्रह्ममय देखनेवाला होता है, वह संन्यासी कहलाता है । सर्वत्र समबुद्धि रखनेवाला, हिंसा और माया से रहित, कोप और अहं से मुक्त संन्यासी कहलाता है विना निमंत्रण के उपस्थित, मिष्ट- अमिष्ट का भोजन करनेवाला और भोजन के लिए कभी न मांगनेवाला संन्यासी कहलाता है जो स्त्री का मुख कभी नहीं देखता, न उनके समीप खड़ा होता है और काष्ठ की स्त्री को भी नहीं छूता, वह भिक्षुक ( सन्यासी ) है । ] Tosपुराण ( अध्याय ४९) में भी संन्यासी का धर्म वर्णित है तपसा कपितोऽत्यन्तं यस्तु ध्यानपरी भवेत् । संन्यासीह स विज्ञेयो वानप्रस्थाश्रमे स्थितः ॥ योगाभ्यासरतो नित्यमारुरुतेन्द्रियः । ज्ञानाय वर्तते भिक्षुः प्रोच्यते पारमेष्ठिकः ।। यस्त्वात्मरतिरेव स्यान्नित्यतृप्तो महामुनिः । सम्यक् च दमसम्पन्नः स योगी भिक्षुरुच्यते ॥ सपिण्ड सपिण्डीकरण भैक्ष्यं श्रुतञ्च मौनित्वं तपो ध्यानं विशेषतः । सम्यक् च ज्ञान-वैराग्ये धर्मोऽयं भिक्षुके मतः ॥ ज्ञानसंन्यासिनः केचिद् वेदसंन्यासिनोऽपरे । कर्मसंन्यासिनः केचित् त्रिविधः पारमेष्ठिकः । योगी च त्रिविधो ज्ञेयो भौतिकी मोक्ष एव च । तृतीयोऽन्त्याथमी प्रोतो योगमूर्तिसमाश्रितः ॥ प्रथमा भावना पूर्वे मोक्षे त्वक्षरभावना । तृतीये चान्तिमा प्रोक्ता भावना पारमेश्वरी ॥ यतीनां यतचित्तानां न्यासिमामूर्ध्वरेतसाम् । आनन्द ब्रह्म तत्स्वानं यस्मान्नावर्तते मुनिः ॥ योगिनाममृतं स्थानं व्योमाख्यं परमक्षरम् । आनन्दमैश्वरं यस्मान्मुक्तो नावर्तते नरः ॥ कूर्मपुराण (उपविभाग, अध्याय २७; यतिधर्मनामक अध्याय २८) में भी संन्यासी धर्म का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । दे० 'आश्रम' | सपिण्ड - जिनके पिण्ड अथवा मूल पुरुष समान होते हैं वे आपस में सपिण्ड कहलाते हैं । सात पुरुष तक पिण्ड की ज्ञाति हैं । अशौच, विवाह और दाय के भेद से पिण्ड तीन प्रकार का होता है एक गोत्र में दान भोग एवं अन्य सम्बन्ध से अशौच-सपिण्ड सात पुरुष तक होता है। पिता तथा पितृ-बन्धु की अपेक्षा से सात पुरुष तक विवाहसपिण्ड होता है तथा मातामह एवं मातृत्व की अपेक्षा से पाँच पुरुष तक होता है । उद्वाह-तत्त्व नामक ग्रन्थ में नारद का निम्नांकित वचन उद्धृत है। पञ्चमात् सप्तमादूद्ध वं मातृतः पितृतः क्रमात् । सपिण्डता निवर्तेत सर्ववर्णेष्वयं विधिः ॥ दाय सपिण्ड तीन पुरुष तक ही होता है । वे तीन पुरुष हैं पिता, पितामह और प्रपितामह और उनके पुत्र पौत्र एवं प्रपौत्र दौहितृ । इसी प्रकार मातामह, प्रमातामह, और बुद्ध प्रमातामह और उनके पुत्र, पौष और प्रपौत्र । (दे० दायभाग) | मत्स्यपुराण में भीं सपिण्ड का विचार किया गया है । लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः । पिण्डदः सप्तमस्तेषां सापिण्ड्यं साप्तपौरुषम् ॥ सपिण्डीकरण-प्रेत को पूर्वज पितरों के साथ मिलाने वाला एक पिण्ड बाद इसमें प्रेतपिण्ड का तीन पितृपिण्डों के साथ मिश्रीकरण होता है कूर्मपुराण (उपविभाग, Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त गोदावर-सभा अध्याय २२) में सपिण्डीकरण का वर्णन इस प्रकार तत्राद्य चरिताध्याये श्लोका अशीतिरुत्तमाः । मिलता है। अथ मध्ये चरित्र तु पञ्चाष्टकसूसंख्यकाः ।। सपिण्डीकरणं प्रोक्तं पूर्व संवत्सरे पुनः । त्रयोऽध्यायाश्चतु सप्तचतुर्वेदस्ववेदकाः । कुर्याच्चत्वारि पात्राणि प्रेतादीनां द्विजोत्तमाः ।। अथोत्तरचरित्र तु षट्पडग्निश्लोकभाक् ॥ प्रेतार्थं पितृपात्रषु पात्रमासे चये ततः । अग्नीसोमाध्यायवती गीता सप्तशती स्मृता । ये समाना इति द्वाभ्यां पिण्डानप्येवमेव हि ।। सप्तसागर अथवा सप्तसमुद्र व्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से इस सपिण्डीकरणश्राद्धं देवपूर्व विधीयते । का आरम्भ होता है। सुप्रभा, काञ्चनाक्षी, विशाला पितृनावाहयेदयत्र पृथक् पिण्डांश्च निद्दिशेत् ।। मानसोद्भवा, मेघनादा, सुवेणु, तथा विमलोदका धाराओं ये सपिण्डीकृताः प्रेता न तेषां स्यात् पृथक क्रिया । का क्रमशः सात दिनपयन्त पूजन होना चाहिए। सात यस्तु कुर्यात् पृथक् पिण्डान् पितृहा सोऽपि जायते ।। सागरों के नामों से दही का हवन हो तथा ब्राह्मणों को सप्त गोदावर-गोदावरी-समुद्र संगम का एक तीर्थ । यह दधियुक्त भोजन कराया जाए। व्रती स्वयं रात्रि को आन्ध्र देश के समुद्र तट पर है । महाभारत (३.८५.४४) घृत मिश्रित चावल खाए । एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का में इसका माहात्म्य वणित है । आचरण विहित है। किसी पवित्र स्थान पर किसी भी सप्तपदी-विवाह संस्कार का अनिवार्य और मुख्य अङ्ग। ब्राह्मण को सात वस्त्रों का दान करना चाहिए। इस व्रत इसमें वर उत्तर दिशा में वधू को सात मन्त्रों द्वारा सप्त का नाम सारस्वत व्रत भी है। प्रतीत होता है कि उपर्युक्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है । वधू भी गिनाए हुए सात नाम या तो सरस्वती नदी के है अथवा दक्षिण पाद उठाकर पुनः वामपाद मण्डलिकाओं में रखती उसकी सहायक नदियों के । अतएव इस व्रत का नाम है। इसके बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता। 'सारस्वत व्रत' अथवा 'सप्तसागर व्रत' । उचित ही प्रतीत अग्नि की चार परिक्रमाओं (फेरा) से यह कृत्य अलग है। होता है। इस सात नदियों के लिए तथा सारस्वत व्रत की सप्तर्षि-मूल सात ऋषियों का समूह । इनके नाम इस सार्थकता के लिए दे० विष्णुधर्म० ३.१६४.१-७ प्रकार है-मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ । प्रत्येक मन्वन्तर में सप्तर्षि भिन्न भिन्न सप्तसुन्दर व्रत-इस व्रत में पार्वती का सात नामों से होते हैं । इनका वृत्तान्त 'ऋषि' शब्द के अन्तर्गत देखिए। पूजन करना चाहिए। वे नाम है---कुमुदा, माधवी, गौरी सप्तर्षि मण्डल-सप्तर्षि मण्डल आकाश में सब के उत्तर भवानी, पार्वती, उमा तथा अम्बिका । सात दिनपर्यन्त सात दिखाई पड़ता है। ब्रह्मा के द्वारा विनियुक्त सात ऋषि कन्याओं को (जो लगभग आठ वर्ष की अवस्था की हों) इसमें बसते हैं। ये ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ब्रह्मवादियों भोजन कराना चाहिए। प्रतिदिन सात नामों में से एक के द्वारा ये सात ब्राह्मण कहे जाते हैं । इनकी पत्नियाँ हैं : नाम उच्चारण करते हुए प्रार्थना की जाय जैसे 'कुमुदा मरीचि की संभूति, अत्रि की अनसूया, पुलह की क्षमा, देवि प्रसीद' । उसी प्रकार क्रमशः अन्य नामों का ६ दिनों पुलस्य की प्रीति, ऋतु की सन्नति, अंगिरा की लज्जा तथा तक प्रयोग किया जाना चाहिए। सातवें दिन समस्त वशिष्ट की अरुन्धती, जो लोकमाता कहलाती है । त्रिकाल । नामों का उच्चारण करके पार्वती का पूजनादि करने के सन्ध्या की उपासना करने वाले और गायत्री के जप में लिए गन्धाक्षतादि के साथ साथ ताम्बूल, सिन्दूर तथा तत्पर ब्रह्मवादी ब्राह्मण सप्तर्षि लोक में निवास करते हैं । नारियल अर्पित किया जाय । पूजन के उपरान्त प्रत्येक (दे० पद्मपुराण, स्वर्ग खण्ड, अध्याय ११) कन्या को एक दर्पण प्रदान किया जाय । इस व्रत के सप्तशती-सात सौ श्लोकों का समूह देवीमाहात्म्य । इसको आचरण से सौभाग्य और सौन्दर्य की उपलब्धि होती है चण्डीपाठ भी कहते हैं । अर्गलास्तोत्र में कथन है । तथा पाप क्षीण होते हैं। अर्गलं कीलकं चादी पठित्वा कवचं ततः । सभा-जहाँ साथ साथ लोग शोभायमान होते है वह जपेत् सप्तशती चण्डी क्रम एष शिवोदितः ।। स्थान (सह यान्ति शोभन्ते यत्रेति ) । मनु ने इसका नागोजी भट्ट के अनुसार : लक्षण (न्याय सभा के लिए) इस प्रकार दिया है Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय यस्मिन् देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः । राज्ञः प्रतिकृतो विद्वान्ब्राह्मणास्तां सभां विदुः ॥ [ जिस स्थान में तीन वेदविद् विप्र राजा के प्रति निधि विद्वान् ब्राह्मण बैठते है उसको सभा कहा गया है ] सभा का ही पर्याय परिषद् हैं : इसकी परिभाषा इस प्रकार है : विद्यो हैतुकस्ती निरुक्तो धर्मपाठकः । त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत् स्याद्दशावरा ।। [ तीन वेदपारग, हैतुक (सद्युक्तिव्यवहारी), तर्कशास्त्री, निरुक्त जाननेवाला धर्मशास्त्री, तथा तीन आश्रमियों के प्रतिनिधि-इन दसों से मिलकर दशावरा' परिषद् बनती है। ] कात्यायन ने सभा का लक्षण निम्नांकित प्रकार से क्रिया है: कुल-शील-वयो-वृत्त-वित्तवद्भिरधिष्ठितम् । वणिग्भिः स्यात् कतिपयैः कुलवृद्धैरधिष्ठितम् ॥ [ कुल, शील, वय, वृत्त तथा वित्तयुक्त सभ्यों एवं कुलवृद्ध कुछ वणिग-जनों से अधिष्ठित स्थान को सभा कहते हैं । ] सभा (राजसभा) में न्याय का वितरण होता था । अतः सभा के सदस्यों में सत्य और न्याय के गुणों की आवश्यकता पर जोर दिया जाता था। समय--(१) शपथ, आचार, करार अथवा आचारसंहिता । यथा : ऋषीणां समये नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर । निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान् देवान् ब्राह्मणान् विदुः ।। (महाभारत, १३.९०.५०) धर्मशास्त्र में धर्म अथवा विधि के स्रोतों में समय की गणना है : 'धर्मज्ञसमयः प्रमाणम् ।' (२) आगमसिद्धान्तानुसार देवाराधना का एक रूप । 'समयाचार' जैसे तन्त्रों में इसका निरूपण हुआ है। समाधि-वह स्थिति, जिसमें सम्यक् प्रकार से मन का आधान (ठहराव) होता है। समाधि अष्टाङ्गयोग का अन्तिम अङ्ग है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्या- हार, धारणा, ध्यान और समाधि । यह योग की चरम स्थिति है । पातञ्जल योगदर्शन में समाधि का विशद निरूपण है । चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है अतः समाधि की अवस्था में चित्त की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है । ये चित्तवृत्तियाँ हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ।। चित्तवृत्ति का निरोध वैराग्य और अभ्यास से होता है । निरोध की अवस्था के भेद से समाधि दो प्रकार की होती है-संप्रज्ञात समाधि और असंप्रज्ञात समाधि । संप्रज्ञात समाधि की स्थिति में चित्त किसी एक वस्तु पर एकाग्र रहता है । तब उसकी वही एकमात्र वृत्ति जागृत रहती है; अन्य सब वृत्तियाँ क्षीण होकर उसी में लीन हो जाती है । इसी वृत्ति में ध्यान लगाने से उसमें 'प्रज्ञा' का उदय होता है । इसी को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं । इसका अन्य नाम 'सबीज समाधि' भी है। इसमें एक न एक आलम्बन बना रहता है और इस आलम्बन का भान भी । इस अवस्था में चित्त एकाग्र रहता है; यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करता है; क्लेशों का नाश करता है। कर्मजन्य बन्धनों को शिथिल करता है और निरोध के निकट पहुँचाता है। संप्रज्ञात समाधि के भी चार भेद हैं-(१) वितर्कानुगत (२) विचारानुगत (३) आनन्दानुगत और अस्मितानुगत । यद्यपि संप्रज्ञात समाधि में प्रज्ञा का उदय हो जाता है किन्तु इसमें आलम्बन बना रहता है और ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय का भेद भी लगा रहता है । असंप्रज्ञात समाधि में ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय का भेद मिट जाता है । इसमें तीनों भावनायें अत्यन्त एकीभूत हो जाती हैं । परम वैराग्य से सभी वृत्तियाँ पूर्णतः निरुद्ध हो जाती हैं । आलम्बन का अभाव हो जाता है। केवल संस्कारमात्र शेष रह जाता है । इसको 'निर्बीज समाधि' भी कहते हैं, क्योंकि इसमें क्लेश और कर्माशय का पूर्णत: अभाव रहता है । असंप्रज्ञात समाधि के भी दो भेद हैभवप्रत्यय तथा उपाय प्रत्यय । भवप्रत्यय में प्रज्ञा के उदय होने पर भी पूर्णज्ञान का उदय नहीं होता; अविद्या बनी रहती है । इसलिये उसमें संसार की ओर प्रवृत्त हो जाने की आशंका रहती है। उपाय प्रत्यय में अविद्या का सम्पूर्ण नाश हो जाता है और चित्त ज्ञान में समग्र रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है; उसके पतन का भय सदा के लिये समाप्त हो जाता है। पुराणों में भी समाधि का विवेचन है। गरुडपुराण (अध्याय ४४) में समाधि का निम्नलिखित लक्षण पाया जाता है :. नित्यं शुद्धं बुद्धियुक्तं सत्यमानन्द मद्वयम् । तुरीयमक्षरं ब्रह्म अहमस्मि परं पदम् ।। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालम्भन-सम्पूर्णव्रत अहं ब्रह्मत्यवस्थानं समाधिरिति गीयते ।। साधारण राजा चक्रवर्ती सम्राट हो जाता है । इसके अतिदे० 'योग दर्शन' तथा 'अष्टाङ्ग योग' ।। रिक्त स्वास्थ्य, सम्पत्ति तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। समालम्भन-एक प्रकार की मागलिक लेपन क्रिया। दे० वायु०, ४९.१२३ । कूर्म० १.४५,४ । अमरकोश में कुङ्कुमादि विलेपन को समालम्भन कहा समुद्रस्नान-पर्व के दिनों में, जैसे पूर्णिमा और अमावस्या गया है । पशुवध को भी समालम्भन कहा गया है : को किन्तु भौमवार और शुक्रवार को छोड़कर समुद्र में 'वृथा पशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत् ।' स्नान करना चाहिए । व्रती को चाहिए कि वह उक्त दिनों महाभारत, १२.३४.२८ में समुद्र तथा पीपल के वृक्ष का पूजनादि करे किन्तु [ व्यर्थ में पशुवध न करना चाहिए और न कराना उनका स्पर्श कदापि न करे । शनिवार को पीपल का चाहिए ।] स्पर्श किया जा सकता है । सेतुबन्ध (रामेश्वर) में कभी समावर्तन-सोलह संस्कारों में एक । सम्यक् प्रकार से भी स्नान किया जा सकता है, वहाँ स्नान का कभी निषेध (विद्याध्ययन करके आचार्य गृह से अपने गह) लौटना । नहीं है। इसका दूसरा नाम है स्नान', क्योंकि इसमें स्नान मुख्य सम्पद्गौरीव्रत-माघ शुक्ल प्रतिपदा (जैसा कि तमिलप्रतीकात्मक क्रिया है और 'स्नातक' उच्च शिक्षित को नाडु के पञ्चाङ्गों में लिखा हुआ है) को समस्त विवाहित कहते हैं । यह संस्कार आजकल के दीक्षान्त समारोह के नारियों तथा कन्याओं को कुम्भ मास में इस व्रत का समान था। प्राचीन काल में दो प्रकार के ब्रह्मचारी होते आयोजन करना चाहिए। थे-उपकुर्वाण और नैष्ठिक । प्रथम वह था जो अपनी विद्या समाप्तकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहता सम्पुट-सम्यक् प्रकार से पुटित अथवा भावित किया हुआ। एक जातीय उभय पदार्थों के मध्य में अन्य को रखने की था; दूसरा आजीवन गुरुकुल में रहकर विद्यार्थी जीवन व्यतीत करना चाहता था। प्रथम को आचार्य की आज्ञा विधि सम्पुट है। तन्त्रसार के अनुसार 'सकामः सम्पुटो लेकर समावर्तन करना आवश्यक होता था । विवाह के जाप्यो निष्कामः संपुटं बिना ।' लिये यह प्रवेश पत्र था। विद्या अथवा ज्ञान की उपमा [किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए जप करना हो तो सागर से दी जाती थी। उसमें जो स्नान किये हो वह सम्पुट विधि से करना चाहिए; यदि निष्काम जप करना स्नातक था। स्नातक भी तीन प्रकार के होते थे-विद्या हो तो बिना सम्पुट के ।] स्नातक, व्रतस्नातक और उभयस्नातक । जो केवल विद्या सम्पूर्णवत-यह व्रत प्रत्येक त्रुटिपूर्ण तथा अपूर्ण व्रत को पढ़कर गुरुकूल से घर लौट आता था उसे विद्यास्नातक पूर्ण करता है। व्रतकर्ता को उस देव विशेष की सुवर्ण कहते थे । जो विद्या कम पढ़ता था, किन्तु व्रत (तपस्या अथवा रजत प्रतिमा बनवाकर पूजा करनी चाहिए जिसका और शील) का पालन पूरा करता था, वह व्रतस्नातक व्रत अथवा पूजा किसी कारण से अपूर्ण रह गई हो । जिस कहलाता था। जो पूरी विद्या भी प्राप्त करता था और दिन से शिल्पी प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ करे उसी दिन से व्रत का भी पालन करता था, वह उभयस्नातक कहलाता लगातार एक मासपर्यन्त किसी ब्राह्मण द्वारा उस प्रतिमा था। गृह्यसूत्रों और पद्धतियों में समावर्तन का विस्तृत का दुग्ध, दधि, घृत, तरल पदार्थी तथा शुद्ध जल से स्नान वर्णन पाया जाता है । दे० 'संस्कार' । तथा गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन कराया जाय । उसी देवता समुद्रव्रत-चैत्र शुक्ल प्रतिपद् से आरम्भ कर लगातार सात का नामोच्चारण करते हुए चन्दन मिश्रित जल का अर्घ्य दिनपर्यन्त इस व्रत का आयोजन होना चाहिए । इस दिया जाय तथा प्रार्थना की जाय कि हमारा जो व्रत अवसर पर समुद्ररूपी लवण, दृग्ध, घृत, तक्र, सुगन्धित खण्डित हो गया था वह पूर्ण हो तथा स्वाहा बोलते हुए जल, गन्ने के रस तथा मधुर दधि से नारायण क पूजन आहुतियाँ दी जाय । पुरोहित घोषणा करे कि हे यजमान, करना चाहिए । घृत से हवन करना चाहिए। इस का तुम्हारा अपूर्ण व्रत पूर्ण हो चुका है। पुराण कहता है कि आचरण एक वर्षपर्यन्त होना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों द्वारा घोषित वात को देवगण अपनी सहमति एक गौ का दान विहित है। इस व्रत के आचरण से तथा स्वीकृति प्रदान करते हैं । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय-सरस्वती सम्प्रदाय-गुरुपरम्परागत अथवा आचार्यपरम्परागत सरमा--देवशुनी ( देवताओं की कुतिया ) का नाम । वैदिक संघटित संस्था। भरत के अनुसार शिष्टपरम्परा प्राप्त पुराकथा में इसका काम मार्ग निर्देश करना है । इसके पुत्रों उपदेश ही सम्प्रदाय है। इसका प्रचलित अर्थ है 'गुरु- को सारमेय कहा गया है। इसकी व्युत्पत्ति है 'रमया परम्परा से सदुपदिष्ट व्यक्तियों का समूह ।' पद्मपुराण में शोभया सह वर्तमाना।' विभीषण की पत्नी राक्षसी का वैष्णव सम्प्रदायों की नामावली दी हुई है : नाम भी सरमा है । जो सीता की सेविका थी। कश्यप की सम्प्रदायविहीना ये मन्त्रास्ते निष्फला मताः । एक पत्नी का नाम भी सरमा है जिससे भ्रमर आदि की अतः कलौ भविष्यन्ति चत्वारः सम्प्रदायिनः ।। उत्पत्ति हुई। श्रीमध्व-रुद्र-सनका वैष्णवाः क्षितिपावनाः ॥ सरयू---अवध प्रदेश की एक नदी । इसके किनारे अयोध्या शक्तिसंगम तन्त्र (प्रथम खण्ड, अष्टम पटल) में पुरी स्थित है जो सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी और सम्प्रदायों की सूची इस प्रकार दी हुई है : जहाँ भगवान् राम का जन्म हुआ था। इसलिये वैष्णववैखानः सामवेदादौ श्री राधावल्लभी तथा । सम्प्रदाय में इसका और भी महत्त्व है। इसके जल का गुण राजनिघण्ट में वर्णित है : गोकुलेशो महेशानि तथा वृन्दावनी भवेत् ॥ पाञ्चरात्र: पञ्चम: स्यात् षष्ठः श्रीवीरवैष्णवः । 'सरयू सलिलं स्वादु बलपुष्टिप्रदायकम् ।' सरवरिया-कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक उपशाखा । पञ्चरामानन्दी हविष्याशी निम्बार्कश्च महेश्वरि ।। गौड ब्राह्मणों-गौड, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और ततो भागवतो देवि दश भेदाः प्रकीर्तिताः । उत्कल में कोई स्वतन्त्र शाखा नहीं है। 'सरवरिया' शब्द शिखी मुण्डी जटी चैव द्वित्रिदण्डी क्रमेण च ।। 'सरयू पारीण' का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है 'सरयूएकदण्डी महेशानि वीरशंवस्तथैव च । नदी के ( उत्तर ) पार रहने वाला।' यह शुद्ध भौगोलिक सप्त पाशुपताः प्रोक्ताः दशधा वैष्णवा मताः ॥ नाम है। मध्य युग में वर्जनशीलता और संकीर्णता के सम्भल-उत्तर प्रदेशस्थ मुरादाबाद जिले में विष्ण का कारण वर्णों और जातियों की छोटी-छोटी क्षेत्रीय शाखाएँ अवतार स्थल । कलियुग के अन्त में विष्णुयश ब्राह्मण के और उपशाखायें बन गयीं। उन्हीं में से सरयूपारीण यहाँ इसी सम्भल में भगवान् कल्कि का अवतार होगा। ( सरवरिया) भी एक है। इस समय सरवरिया केवल सत्ययुग में इस स्थान का नाम सत्यव्रत था, त्रेता में सरयू-पार में सीमित न रह कर देश के कई प्रान्तों में महगिरि, द्वापर में पिङ्गल और कलियुग में सम्भलपुर फैले हए हैं। मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में इनकी है। इसमें ६८ तीर्थ और १९ कूप हैं । यहाँ एक अति बहुत बड़ी संख्या है जो अपने को 'छत्तीसगढ़ी' विशाल और प्राचीन मन्दिर है। इसके अतिरिक्त मुख्य कहते हैं। तीन शिवलिङ्ग है-पूर्व में चन्द्रेश्वर, उत्तर में भुवनेश्वर सरस्वती-(१) सर्वप्रथम ऋग्वेद में सरस्वती पवित्र नदी तथा दक्षिण में सम्भलेश्वर । प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल और क्रमशः नदी देवता और वाग्देवता के रूप में वर्णित चतुर्थी और पञ्चमी को यहाँ मेला लगता है और यात्री हुई है। सरस्वती मूलतः शुतुद्रि ( सतलज) को एक इसकी परिक्रमा करते हैं । सहायक नदी थी। जब शुतुद्रि अपना मार्ग बदल कर सम्भोगव्रत-दो प्रतिपदाओं तथा पंचमी तिथियों को विपाशा ( व्यास ) में मिल गयी तो सरस्वती उसके पुराने उपवास का विधान है । व्रती को भगवान भास्कर में पेटे से बहती रही । यह राजस्थान के समुद्र में मिलती अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । साथ ही वह स्वपत्नी थी। बड़ी वेगवती नदी के रूप में इसका वर्णन पाया के साथ शयन करते हुए भी प्रणयकेलि तथा अन्य विला- जाता है, जिसके किनारे राजा लोग और जन बसते थे, सादिक क्रियाओं का एक दम परित्याग कर दे । इस व्रत यज्ञ करते और मन्त्रों का गान करते थे। सरस्वती को के आचरण से सहस्रों वर्षों के तप के बराबर पुण्य प्राप्त आजकल घग्घर कहते है। सरस्वती और दृषद्वती के होता है। दे० कृत्यकल्पतरु ३.८८; हेमाद्रि, २.३९४ ।। बीच का प्रदेश ब्रह्मावर्त कहलाता था जो वैदिक ज्ञान एवं रामकृष्ण परमहंस एवं शारदा माता का चरित्र । और कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्ध था। सरस्वती देवी के Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वतीपूजजनविधि-सर्वजया ६६३ रूप में ऋग्वेद में कल्पित की गयी है जो पवित्रता, शुद्धि, विवाहिता महिलाएं अपनी संगीत सम्बन्धी पुस्तकें तथा समृद्धि और शक्ति प्रदान करती थी । उसका सम्बन्ध अन्य। वीणा साथ-साथ लाती हैं तथा उनकी सरस्वती के समान देवताओं-पूषा, इन्द्र, और मरुत से बतलाया गया है। ही पूजा करती हैं। शिल्पी तथा दूसरे कारीगर लोग कई सूक्तों में सरस्वती का सम्बन्ध यज्ञीय देवता इडा और नवमी के दिन अपने-अपने औजार तथा यंत्रों को पूजते हैं। भारती से भी जोड़ा गया है। पीछे भारती सरस्वती से सर्ग-सृष्टि, जगत् की रचना । पुराणों का प्रथम वर्ण्य विषय अभिन्न मान ली गयी। यही है । मनु० ने इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है : (२) पहले सरस्वती नदी देवता थी। परन्तु ब्राह्मण हिंसाहिसे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते । काल में ( दे० शतपथ ब्राह्मण, ३-९-१; ऐतरेय ब्राह्मण, यद्यस्य सोऽदधात् सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत् ।। ३.१ ) उसका वाक् ( वाग्देवता ) से अभेद मान लिया (१.२९) गया। परवर्ती काल में तो वह विद्या और कला की श्रीमद्भागवत (३,१०.१४-२६) में सर्ग का विस्तत अधिष्ठात्री देवी हो गयी । पुराणानुसार यह ब्रह्मा की पुत्री वर्णन पाया जाता है। मानी गयी है। सर्पविषापहापञ्चमी-श्रावण शुक्ल पंचमी को इस व्रत का सरस्वती का ध्यान निम्नांकित पद्य से प्रायः किया। अनुष्ठान होता है। व्रती को घर के दरवाजे के दोनों जाता है : ओर गौ के गोबर से सर्प की आकृतियाँ बनाकर उनकी या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता गेहूँ, दूध, भुने हुए धान्य, दधि,दूर्वांकुरों तथा पुष्पादि से या वीणावरधारिणी भगवती या श्वेतपद्मासना । पूजा करनी चाहिए। इससे सर्प जाति सन्तुष्ट रहती है या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता तथा पूजक को सात पीढ़ियों तक उनका भय नहीं रहता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ सर्पसत्र (नागयज्ञ)-सौ को नष्ट करने वाला यज्ञ । जन सरस्वती का वाहन हंस है, जो क्षीर-नीर-विवेक का मेजय ने अपने पिता परीक्षित् की सर्पदंश से हुई मृत्यु का प्रतीक है। कहीं मयूर भी सरस्वती का वाहन बतलाया बदला लेने के लिए सर्पसत्र किया था। भागवत, १२,६. गया है । ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेश खण्ड (४०.६१-६७) १६-२८ । में सरस्वतीपूजन की विधि विस्तार के साथ वर्णित है। सर्वगन्ध-पूजनोपयोगी मुख्य गन्धद्रव्य । सुगन्धित पदार्थों सरस्वतीपूजनविधि-आश्विन शुक्ल के मूल नक्षत्र में का भिन्न भिन्न रूप से परिगणन किया गया है। इस सरस्वती का आवाहन करना चाहिए। प्रतिदिन सरस्वती सम्बन्ध में हेमाद्रि (१.४४) में वर्णन है । कपूर, चन्दन, की आराधना करते हुए श्रवण नक्षत्र को विसर्जन करना कस्तुरी तथा केसर समान भागों में होने पर सर्वगन्ध चाहिए (मूल नक्षत्र से चौथा नक्षत्र श्रवण है)। सरस्वती कहलाती हैं। की चार दिन पूजा होती है, जो साधारणतः सप्तमी से सर्वजया-स्त्रियों द्वारा किया जानेवाला एक व्रत । मार्गशीर्ष दशमी तक चलती है। वर्षकृत्यदीपिका के अनुसार इन से प्रारम्भ होकर बारह महीनों तक यह व्रत चलता है। दिनों न तो अध्ययन करना चाहिए न अध्यापन और इसमें सामान्य विधि से नवग्रहपूजन तथा प्रणव से अंगन लेखन । न्यास करके निम्नलिखित प्रकार से ध्यान करना चाहिए : माघ शुक्ल पंचमी (वसन्तपंचमी) को आगमोक्त "श्वेतवर्ण वृषारूढं व्यालयज्ञोपवीतिनम् । विधि से महाशक्ति सरस्वती की वार्षिक पूजा को विभूतिभूषिताङ्गञ्च व्याघ्रचर्मधरं शुभम् ।। जाती है। पञ्चवक्त्र दशभुजं जटिलं चन्द्रचूडकम् । सरस्वतीस्थापना-आश्विन शुक्ल नवमी को पुस्तकों में त्रिनेत्रं पार्वतीयुक्तं प्रमथैश्च समन्वितम् ।। सरस्वती की स्थापना करनी चाहिए। दे० वर्ष-कृत्य प्रसन्नवदनं देवं वरदं भक्तवत्सलम् ।" दीपिका, ९२-९३ तथा २६८-२६९ । तमिलनाडु में इस प्रकार ध्यान करके 'ॐ नमः शिवाय ह्रीं दुर्गाआबाल वृद्ध प्रकाशित तथा हस्तलिखित ग्रन्थ एकत्रित कर यै नमः' मन्त्र से अर्घ्य देकर और पुनः ध्यानकर 'ॐ गौरीविशेष प्रकार को सरस्वती पूजा करते हैं । बालिकाएँ तथा सहितहराय नमः' इस मन्त्र से पूजन करना चाहिये। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञात्ममनि-सस्मोत्सव इसके पश्चात् पाँच पुष्पाञ्जलिदान करके निम्नलिखित भारतीय दर्शनों को यहाँ दो भागों में बाँटा गया है। मन्त्र से प्रणाम करना चाहिये : आस्तिक और नास्तिक । आस्तिक के अन्तर्गत न्याय, नमस्ते पार्वतीनाथ नमस्ते शशिशेखर । वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा नमस्ते पार्वतीदेव्यै चण्डिकायै नमोनमः ।। (वेदान्त) हैं : नास्तिक के अन्तर्गत चार्वाक, आईत, बौद्ध इस व्रत की कथा स्कन्दपुराण में विस्तार से दी हुई है आदि की गणना है । यह ग्रन्थ दार्शनिक दृष्टि से समुच्चऔर इसकी पूरी विधि कृत्यचन्द्रिका में । यवादी है। सर्वज्ञात्ममनि--प्रसिद्ध अद्वैत वेदान्ताचार्य संन्यासी। इनका सर्वमङ्गला--दुर्गा का एक पर्याय । ब्रह्मवैवर्तपुराण में इसकी जीवन-काल लगभग नवीं शती था । शृंगेरी के ये मठाधीश व्युत्पत्ति इस प्रकार है : थे । इनका अन्य नाम नित्यवोधाचार्य था । अद्वैतमत को हर्षे सम्पदि कल्याणे मङ्गलं परिकीर्तनम् । स्पष्ट करने के लिए इन्होंने 'संक्षेप शारीरक' नामक ग्रन्थ तान् ददाति च या देवी सा एव सर्वमङ्गला ।। का प्रणयन किया। इन्होंने अपने गुरु का नाम देवेश्वरा- देवीपुराण (अध्याय ४५) में सर्वमङ्गला की व्युत्पत्ति चार्य लिखा है । प्रसिद्ध भाष्यकार मधुसूदन सरस्वती और निम्नाङ्कित है : रामतीर्थ ने देवेश्वराचार्य को सुरेश्वराचार्य से अभिन्न सर्वाणि हृदयस्थानि मङ्गलानि शुभानि च । बतलाया है । परन्तु दोनों के काल में पर्याप्त अन्तर होने ददाति चेप्सितानि तेन सा सर्वमङ्गला ॥ से ऐसा मानना कठिन है। 'संक्षेपशारीरक' में श्लोक सर्वमेध-एक प्रकार का यज्ञ । इसमें यजमान अपनी सम्पूर्ण और वार्तिक दोनों का समावेश है। 'शारीरक भाष्य' के सम्पत्ति यज्ञ और दान में लगा देता था। समान इसमें भी चार अध्याय है और इनके विषयों का सवौं षधि-पूजा की सामग्रियों में इनकी गणना है। इस क्रम भी उसी प्रकार है । इनमें श्लोक-संख्या क्रमशः ५६३, वर्ग में निम्नांकित ओषधियाँ सम्मिलित हैं : २४८, ३६५ और ५३ हैं । सर्वज्ञात्ममुनि ने 'संक्षेप शारी- कुष्ठमांसीहरिद्राभिर्वचाशैलेयचन्दनः । रक' को 'प्रकरणवार्तिक' बतलाया है। अद्वैतसम्प्रदाय की मुराचन्दनकर्पूरैः मुस्तः सर्वौषधिः स्मृतः ।। परम्परा में यह ग्रन्थ बहत प्रामाणिक माना जाता है। इस सूची में द्वितीय चन्दनपद रक्तचन्दन के लिये प्रयुक्त इस पर मधुसूदन सरस्वती और रामतीर्थ ने टीकाएँ लिखी हुआ है । सर्वौषधिगण में औषधियों की एक लम्बी सूची जो बहुत प्रसिद्ध हैं। पायी जाती है। दे० पद्मपुराण, उत्तरखण्ड अ० १०७; सर्वतोभद्र-माङ्गलिक अलङ्करण की एक वत्मिक विधा। अग्निपुराण, १७७.१७; राजनिघण्ट । इसके केन्द्र में मुख्य देव और पार्ववर्गों में अन्य देवों की सर्षपसप्तमी-यह तिथिव्रत है । सूर्य इसके देवता हैं । सात स्थापना होती है। अमरकोश (२-२-१०) के अनुसार सप्तमियों को व्रती सूर्याभिमुख बैठकर अपनी हथेली पर मन्दिर स्थापत्य का यह एक प्रकार भी है। द्वार-अलि- पञ्चगव्य अथवा अन्य कोई वस्तु रखते हुए प्रति सप्तमी न्दादि भेद से समृद्ध लोगों के आवास का एक प्रकार रूप को क्रमशः दो से सात तक सरसों के दाने रखकर उनका सर्वतोभद्र कहा जाता है । इसका लक्षण निम्नांकित है : अवलोकन करता रहे। अवलोकन के समय मन में किसी स्वस्तिकं प्राङ्मुखं यत् स्यादलिन्दानुगतं भवेत् । वस्तु या कार्य की कामना करते हए दन्त स्पर्श किये बिना तत्पाश्र्वानुगतौ चान्यौ तत्पर्यन्तगतोऽपरः ।। पञ्चगव्य सहित सरसों का मन्त्रोच्चारण के साथ पान अनिषिद्धालिन्दभेदं चतुरिञ्च यद्गृहम् । कर लेना चाहिए । तनन्तर होम तथा जप का विधान है। तद्भवेत्सर्वतोभद्रं चतुरालिन्दशोभितम् ।। (भरत) इससे पुत्र, धन की प्राप्ति के साथ समस्त इच्छाएँ पूर्ण ग्रहशान्ति, उपनयन, व्रत-प्रतिष्ठा आदि में पूजा का होती है। एक रंगीन आधारमण्डल सर्वतोभद्र नाम से बनाया जाता सस्योत्सव-सस्य के पकने के समय का उत्सव । मास के है । दे० शारदातन्त्र; तन्त्रसार । शक्ल पक्ष में किसी पवित्र तिथि, नक्षत्र तथा मुहूर्त के सर्वदर्शन संग्रह-माधवाचार्य द्वारा प्रणीत प्रसिद्ध दर्शन समय गाजे-बाजे के साथ खेतों की ओर जाना चाहिए ग्रन्थ । इसमें सभी दर्शनों का सार संग्रहीत किया गया है। तथा वहाँ अग्नि प्रज्वलित करके हवन करना चाहिए। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहधर्मिणी-साक्षी तदनन्तर पके हुए धान्य को वैदिकमन्त्रों का उच्चारण [जिस गर्भिणी का विवाह-संस्कार होता है, चाहे उसका करते हुए अभीष्ट देवों तथा पितरों को अर्पित करना गर्भ ज्ञात हो अथवा अज्ञात, उससे विवाह करने वाले का चाहिए। व्रती को पके हुए धान्य को दही में मिलाकर ही वह गर्भ होता है । जन्म लेने पर गर्भस्थ बालक उसका खा लेना चाहिए। तदुपरान्त उत्सव का आयोजन होना सहोढ पुत्र कहलाता है ।] चाहिए। सांवत्सर-वर्ष से सम्बन्ध रखने वाला । वर्ष (काल) सहधर्मिणी-वैदिक विधान से ब्याही हई पत्नी। इसका सम्बन्धी शास्त्र का जो अध्ययन करता है उसको 'सांवत्सर' शाब्दिक अर्थ है 'साथ धर्मकार्य करनेवाली ।' (ज्योतिषी अथवा गणक) कहते हैं । बृहत्संता (३.१०-११) सहमरण-पति के मरने पर पत्नी द्वारा उसकी चिता पर में इसकी उपयोगिता के बारे में निम्नलिखित कथन है : साथ जल जाना । अङ्गिरा ने सहमरण का बड़ा माहात्म्य मुहूर्त तिथिनक्षत्रमृतवश्चायने तथा । बतलाया है (अं० स्मृति)। सर्वाण्येवाकुलानि स्युन स्यात् सांवत्सरो यदि ।। सहस्रधारा-देवता को स्नान कराने के लिए सहस्र छिद्र- तस्माद्राज्ञाभिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोऽग्रणी। युक्त पात्र से निकली हुई जलधाराओं को सहस्रधारा कहते जयं यशः थियं भोगान् श्रेयश्च समभीप्सता ।। हैं । दुर्गोत्सवपद्धति में इसका उल्लेख है । [ यदि सांवत्सर (ज्योतिषी) न होवे तो मुहूर्त, निथि, मान्धाता-माहेश्वर तीर्थ में नर्मदा नदी का नाम भी नक्षत्र, ऋतु तथा अयन सभी व्याकुल हो जाते हैं। इस. सहस्रधारा है। कथा है कि सहस्रार्जुन कार्तवीर्य ने अपनी लिए जय, यश, श्री, भोग और श्रेय की कामना करने सहस्रभुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकना चाहा । नर्मदा वाले राजा को अग्रणी सांवत्सर के पास जाना चाहिए। उसकी अवहेलना कर सहस्रधाराओं से फूट निकलीं। इस- सांवत्सरिक-पितरों के लिये प्रतिवर्ष किया जाता श्राद्ध । लिए वहाँ उनका नाम सहस्रधारा पड़ा गया । हेमाद्रि का कथन है : सहस्रनयन (सहस्रनेत्र)-इन्द्र, जिसके सहस्रनयन हैं । वास्तव पूणे संवत्सरे श्राद्धं षोडशं परिकीर्तितम् । में इन्द्र राजा का प्रतीक है और नेत्र उसके मन्त्रियों का । तेनैव च सपिण्डत्वं तेनैवाब्दिकमिष्यते ।। इन्द्र के एक सहस्र मन्त्री थे, अतः उसको सहस्रनयन कहते साक्षी-(१) आत्मा को साक्षी कहा गया है। वह प्रकृति हैं । परन्तु पुराणकथा में वह शरीरतः सहस्रनयन चित्रित के धरातल पर घटित होने वाली क्रियाओं को देखता है, किया गया है। इस लिए साक्षी कहलाता है। सहस्र भोजनविधि-एक सहस्र ब्राह्मणों को भोजन कराने (२) धर्मशास्त्र में किसी वाद के निर्णय करने में चार की विधि । व्रती इसका आयोजन स्वगृह में अथवा किसी प्रमाण माने गये हैं, जिनमें साक्षी का स्थान तीसरा हैमन्दिर में करे। पक्वान्न से तथा परिष्कृत नवनीत से (१) लिखित (२) युक्ति (३) साक्षी और (४) दिव्य । भगवान् के बारह नामों का उच्चारण करते हुए (जैसे साक्षी वह है जो अपनी आँखों से (अक्षणा सह) वादग्रस्त केशव, नारायण आदि) हवन करना चाहिए। ब्रह्म भोज तथ्यों को देख चुका हो। साक्षी के मिथ्याकथन अथवा के बाद भिन्न-भिन्न प्रकार की दान-दक्षिणा दी जानी अकथन में बहुत दोष माना गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण चाहिए। (प्रकृतिखण्ड, ४९ अध्याय) में मिथ्या साक्ष्य के निम्नांकित सहोढ-बारह प्रकार के पुत्रों में से एक जो माता के विवाह परिणाम बतलाये गये हैं : के समय गर्भ में रहता है । वह विवाह के पश्चात् जन्म लेने मिथ्या साक्ष्यं यो ददाति कामात् क्रोधात् तथा भयात् । पर विवाह करने वाले पिता का पुत्र होता है। प्राचीन सभायां पाक्षिक वक्ति स कृतघ्न इति स्मृतः ।। काल में ऐसी विधिक मान्यता थी। मनुस्मृति (अध्याय ८) मिथ्या साक्ष्यं पाक्षिकं वा भारते बक्ति योनृप । में सहोढ की परिभाषा इस प्रकार दो हुई है : यावदिन्द्रसहस्रञ्च सर्पकुण्डे वसेद् ध्रुवम् ।। या गमिणी संस्क्रियते ज्ञाताज्ञातापि या सती । सन्ततं वेष्टितैः सर्भीतश्च भक्षितस्तथा । बोढ़ः स गर्भो भवति सहोढ इति चोच्यते ।। भुङ्क्ते च सर्पविण्मूत्रं यमदूतेन ताडितः ।। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्ष्य-सांख्य साक्ष्य-साक्षी के कर्म को साक्ष्य कहा गया है। साक्ष्य की सिद्धि के विषय में मनु का कथन है : समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति । यत्रानिरुद्धी वीक्ष्येत शृणुयाद्वापि किञ्चन । पृष्टस्तत्रापि तब्रूयात् यथादृष्टं यथा श्रुतम् ।। सांख्य--षड्दर्शनों में से एक । इसकी व्युत्पत्ति होती है 'सम्यक् प्रकार से ख्यात, ख्याति अथवा विचार' । जिस दर्शन में प्रकृति और पुरुष के भेद के सम्बन्ध में सम्यक विचार किया गया हो उसको सांख्य कहते हैं। प्रकृति तथा पुरुष के इस पृथक्करण को विवेकख्याति, विवेकज्ञान अथवा प्रकृति-पुरुषविवेक भी कहते हैं । एक मत यह भी है कि मूल प्रकृति से अभिव्यक्त पचीस तत्त्वों की इसमें संख्या (गणना) की गयी है, अतः यह दर्शन सांख्य कहलाता है। परन्तु पहली व्याख्या अधिक युक्तिसंगत है। सांख्य ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा, इसलिए ज्ञानमार्ग को सांख्य कहते हैं। सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिल थे जिनकी गणना पौराणिकों ने अड़तालीस अवतारों के अन्तर्गत की है। भाग- वतपुराण में कपिल विष्णु के पञ्चम अवतार माने गये हैं। कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि और आसुरि के पञ्चशिख थे । पञ्चशिख ने सांख्य के ऊपर एक सूत्र ग्रन्थ की रचना की थी। इसके बहुत बाद ईश्वरकृष्ण ने ईसापूर्व दूसरी शती में 'सांख्यकारिका' की रचना की जो सांख्यदर्शन पर सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसपर कई टीकायें लिखी गयी हैं। इनमें माठरवृत्ति, गौडपाद भाष्य, जयमङ्गला, चन्द्रिका, सरलसांख्ययोग, तत्त्वकौमुदी (वाचस्पति मिश्र), युक्तिदीपिका, और सुवर्णसप्तति (चीनी संस्करण) विशेष प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय के दूसरे प्रमुख आचार्य विज्ञानभिक्षु हुए, जिनका काल सोलहवीं शती ई० था। इन्होंने इस समय उपलब्ध 'सांख्यसूत्र' की रचना की और इस पर 'सांख्यप्रवचन भाष्य' भी लिखा । ईश्वरकृष्ण निरीश्वर सांख्य के समर्थक थे और विज्ञानभिक्षु सेश्वर सांख्य के। सांख्यप्रवचन भाष्य में सांख्य और वेदान्त दोनों का समन्वय पाया जाता है । सांख्य के अनुसार तीन प्रकार के तत्त्व है-व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ । 'ज्ञ चेतन है । यही पुरुष है। 'अव्यक्त' को मूल प्रकृति अथवा प्रधान कहते हैं। यह जड़ है। 'व्यक्त' कार्यकारण-परम्परा से मल प्रकृति (अव्यक्त) का परिणाम है। इसके तेईस भेद हैं। सांख्यदर्शन में ये ही पचीस प्रमेय अथवा तत्त्व हैं। इन्हीं तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से दुःख की निवृत्ति होती है (व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्) । विवेक, ज्ञान अथवा ख्याति ही सांख्य के अनुसार मोक्ष है। सांख्य सृष्टि प्रक्रिया में ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक नहीं मानता। उसका कथन है कि ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। इसी कारण सांख्य को निरीश्वर कहा जाता है। पुरुष निष्क्रिय, निर्गुण और निलिप्त है । किन्तु अन्य दो तत्व अव्यक्त और व्यक्त (प्रकृति) त्रिगुण, अविवेकी आदि धर्मी से युक्त हैं। इन तत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध समझने के लिए परिणाम और कार्य-कारण-भाव को समझना आवश्यक है । प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई धर्म होता है। यह धर्म परिवर्तनशील है । इसकी परिवर्तनशीलता को ही परिणाम कहते हैं । अर्थात् एक धर्म के बदलने पर उसके स्थान में दूसरे धर्म के आने को परिणाम कहा जाता है । परिणाम व्यक्त और अव्यक्त दोनों तत्त्वों में निरन्तर होता रहता है। संसार का प्रत्येक पदार्थ सत्त्व, रज और तम तीन गणों से बना हआ है । गुण का अर्थ है घटक अथवा रस्सी । जिस प्रकार तीन धागों के बटने से रस्सी तैयार होती है उसी प्रकार तीनों गणों के न्यूनाधिक मात्रा में संवलित होने पर विभिन्न पदार्थ निर्मित होते हैं। सत्त्व का स्वरूप प्रकाश अथवा ज्ञान है। रज का गुण चलन अथवा क्रियाशीलता है । तम का गुण है अवरोध, भारीपन आवरण आदि । इन्हीं तीनों गुणों की स्थिति के कारण पदार्थों में परिणाम होते रहते हैं। परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-(१) धर्मपरिणाम (२) लक्षणपरिणाम और (३) अवस्थापरिणाम । मूल प्रकृति (अव्यक्त) जब साम्यावस्था में रहती है, अर्थात् जब तीनों गुण संतुलित अवस्था में होते हैं तब प्रकृति में परिणाम अथवा परिवर्तन नहीं होता। जब इनका संतुलन भंग होता है तब परिणाम अर्थात् कार्य होने लगता है । अव्यक्त और व्यक्त प्रकृति में कारण-कार्य सम्बन्ध है । अब प्रश्न यह है कि कारण-कार्य सम्बन्ध का अर्थ क्या है । न्याय के अनुसार कार्य कारण से भिन्न है। और कारण में कार्य का अभाव है। कार्य एक विशेष कारण ईश्वरेच्छा से उत्पन्न होता है। परन्तु सांख्य के अनुसार कार्य कारण से भिन्न न होकर उसमें वर्तमान रहता है। कारण से कार्य की उत्पत्ति का अर्थ है कारण Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारवत में अव्यक्त रूप से वर्तमान कार्य का व्यक्त होना । इसी सिद्धान्त को सरकार्यवाद' कहते हैं। तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति हैं। इसमें रजोगुण क्रियाशील है किन्तु तमोगुण की स्थिति के कारण अवरुद्ध रहता है। पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप अदृष्ट जीवों के साथ लगा रहता है। जब वह पाकोन्मुख होता है अर्थात् वह जीव को संसार में सुख-दुःख देने के लिए उन्मुख होता है तब तमोगुण का प्रभाव हट जाता है और प्रकृति में रजोगुण के कारण क्षोभ अथवा चाञ्चल्य उत्पन्न होता है । तब प्रकृति में विकृति अथवा परिणाम उत्पन्न होते हैं। और सृष्टि प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति के सात्त्विक अंश से पहले महत्-तत्व अर्थात् बुद्धिन्तस्व की अभिव्यक्ति होती है। इससे अहंकार अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ - पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन; इन्द्रियों से तन्मात्रायें - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; और तन्मात्राओं से पञ्चभूतों की अभिव्यक्ति होती है । सांख्यदर्शन प्रकृति और पुरुष के स्वरूप और सम्बन्ध का सूक्ष्म विवेचन करता है। मूल प्रकृति अव्यक्त अथवा अप्रत्यक्ष है । परन्तु इसका अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । पुरुष अपरोक्ष है। बुद्धि के द्वारा भी यह प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। यह त्रिगुणातीत और निर्लिप्त है । इसमें कोई लिङ्ग नहीं है, अतः अनुमान के द्वारा भी इसकी सिद्धि नहीं हो सकती । इसके अस्तित्त्व का एक मात्र प्रमाण है शब्द अथवा आगम । पुरुष अथवा ज्ञ अहेतुमान्, सर्वव्यापी और निष्क्रिय है । पुरुष एक है । परन्तु कई टीकाकारों के मत में सांख्य पुरुषबहुत्य के सिद्धान्त को मानता है। वास्तव में बद्धपुरुष में अनेकस्व है, जैसे अन्य दर्शनों के अनुसार जीवात्मा में । सांख्य में पुरुष की तीन स्थितियाँ हैं—बद्ध, मुक्त और ज्ञ । पुरुष ही मुक्त होने की चेष्टा करता है । बद्ध प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध, बन्धन और कैवल्य पर भी सांख्यदर्शन में सूक्ष्म विचार किया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है, पुरुष स्वभावतः निलिस, त्रिगुणातीत निष्क्रिय और नित्य है। अविद्या भी नित्य है ( इन दोनों का सम्पर्क अनादि काल से चला आ रहा है । प्रकृति जड़ और नित्य है । पुरुष का बिम्ब जब प्रकृति पर पड़ता है तब बुद्धि उत्पन्न होती है और प्रकृति अपने को चेतन समझने लगती है। इसी प्रकार बुद्धि ( प्रकृति ) का प्रतिबिम्ब पुरुष पर भी पड़ता है। इसके कारण निर्लिप्त, त्रिगुणातीत निष्क्रिय पुरुष अपने को आसक कर्त्ता, भोक्ता आदि समझने लगता है । पुरुष और प्रकृति के इसी कल्पित और आरोपित सम्बन्ध को बन्धन कहते हैं। इस कल्पित सम्बन्ध को दूर कर अपने स्वरूप को प्रकृति से पृथक् करके पहचानना ही विवेक-बुद्धि, कैवल्य अथवा मुक्ति है । इसी स्थिति को प्राप्त कर पुरुष अपने को निर्लिप्त और निस्संग समझने लगता है। ज्ञान के अतिरिक्त धर्म और अधर्म आदि बुद्धि के सात भावों का प्रभाव जब लुप्त हो जाता है तब सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं रहता सृष्टि का उद्देश्य ( पुरुष की मुक्ति या कैवल्य ) पूर्ण हो जाने पर प्रकृति सृष्टि कार्य से विरत हो जाती है और पुरुष केवल्य को प्राप्त हो जाता है। कैवल्य के पश्चात् भी प्रारब्ध कर्मों और पूर्व जन्मों के संस्कारों के बने रहने के कारण तत्काल शरीर का विनाश नहीं होता । साधक जीवन्मुक्ति की अवस्था में रहता है भोग की पूर्ति होने पर जब शरीर का पतन होता है तब विदेह कैवल्य की उपलब्धियाँ होती हैं । ६६७ सांख्यदर्शन के अनुसार जीवन का परमपुरुषार्थ है तीन प्रकार के दुःखों - आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक से अत्यन्त निवृत्ति सत्य का बोध ही इसका चरम साधन और अत्यन्त लोकहित ही सत्य है । सात्वत - वासुदेव के भक्त अथवा सत्वत के वंशज यादव | हेमचन्द्र ने इसको बलदेव का पर्याय माना है । महाभारत ( १. २१९-१२ ) में इसको कृष्ण का पर्याय कहा गया है। महाभारत (१.२२२.३ ) में सम्पूर्ण यादवों के लिए इसका प्रयोग हुआ है। यह विष्णु का भी पर्याय है ( सच्छब्देन सत्त्वमूर्तिभगवान् । स उपास्यतया विद्यतेऽस्य इति । मतुप् । ततः स्वार्थे अण् । ) पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (अध्याय ९९ ) में सात्वत का अर्थ है विष्णु का भक्त | इसका लक्षण निम्नांकित है : सत्त्वं सत्त्वाश्रयं सत्त्वगुणं सेवेत् केशवम् | योजनम्यत्वेन मनसा सात्वतः समुदाहृतः ॥ विहाय काम्यकर्मादीन् भजेदेकाकिनं हरिम् । सत्यं सत्वगुणोपेतो भक्त्या तं सात्य विदुः ॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ सात्त्विक-साधन कूर्मपुराण (पूर्वभाग, यदुवंशानुकीर्तन, २४. ३१-३६ ) में यदुवंशी सत्वत राजा के पुत्रों का नाम सात्वत है। मनुस्मृति में संकरजातिविशेष का नाम सात्वत आया है । ऐसा लगता है कि भागवत सात्वतों में परम्पराविरोधी प्रवृत्तियाँ अधिक बढ़ गयी थीं, जिनके कारण मनु ने उनको संकर जातियों में परिगणित किया। सात्त्विक-सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति में तीन गुण होते है-सत्त्व, रज और तम । सत्त्व की विशेषता है प्रकाश शौर ज्ञान । इनसे उत्पन्न या सम्बद्ध भाव सात्त्विक कहलाता है। सर्वदानन्द ने इसकी परिभाषा निम्नांकित प्रकार से की है : 'सत्त्वोत्कटे मनसि ये प्रभवन्ति भावा स्ते सात्त्विका इति विदुर्मुनि पुङ्गवास्ते ।' (मनोदशासूचक ) सात्त्विक भावों की परिगणना इस प्रकार है : स्वेदः स्तम्भोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः । वैवर्णमथुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः ।। भगवद्गीता ( अध्याय १७-१८ ) में सात्त्विक जीवन का विवरण विस्तार से दिया हुआ है। साधक-धार्मिक अथवा दार्शनिक उपलब्धियों के लिए जो प्रयास करते हैं और अपने इष्ट का सम्पादन करते हैं, वे साधक कहलाते हैं। देवीपुराण के नन्दामाहात्म्य में साधक का निम्नांकित लक्षण दिया हुआ है : अतः परं प्रवक्ष्यामि साधकानां तु लक्षणम् । धर्मशीलास्तपोयुक्ताः सत्यवादिजितेन्द्रियाः ।। मात्सर्येण परित्यक्ताः सर्वसत्त्वहिते रताः । कर्मशीलास्तथोत्साहा मर्त्यलोकेऽजुगुप्सकाः ॥ परस्परसुसन्तुष्टानुकूलाः साधकस्य तु । इदृशैः साधनं कुर्यात् सुसहायैः सहैव तु ॥ शिवसंहिता में और विस्तार से साधक वर्णन पाया जाता है : (१) चतुर्धा साधको ज्ञेयो मृदुमध्याधिमात्रकः । अधिमायतमः श्रेष्ठो भवाब्धौ लङ्घनक्षमः ।। महावीर्यान्वितोत्साही मनोज्ञः शौर्यवानपि । शास्त्रज्ञोऽभ्यासशीलश्च निर्ममश्च निराकूलः ।। नवयौवनसम्पन्नो मिताहारी जितेन्द्रियः । निर्भयश्च शुचिर्दक्षो दाता सर्वजनाश्रयः ।। अधिकारी स्थिरो धीमान यथेच्छावस्थितः क्षमी। सुशीलो धर्मचारी च गुप्तचेष्टः प्रियंवदः ।। शास्त्रविश्वाससम्पनो देवतागुरुपूजकः । अनसङ्गविरक्तश्च महाव्याधिविवर्जितः ।। अणिमावतयोग्यश्च सर्वयोगस्य साधकः । त्रिभिःसंवत्सरः सिद्धिरेतस्य स्यान्न संशयः ।। सर्वयोगाधिकारी च नाव कार्या विचारणा ।। साधन-योगदर्शन के साधन पाद में योग के आठ अङ्ग अथवा साधन बतलाये गये हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । १. यम-मानसिक, वाचिक और कायिक संयम को यम कहते हैं । इसमें निम्नाकित सम्मिलित हैं। (क) अहिंसा-सर्वदा तथा सर्वथा जीवमात्र को दुःख न पहुंचाना। (ख) सत्य-मन और वचन में यथार्थता । जिमको जैसा देखा, सुना और जाना हो, उसको वैसा ही कहना । (ग) अस्तेय-दूसरे का सत्त्वापहरण न करना और न उसकी कामना ही करना । (घ) ब्रह्मचर्य-ब्रह्म का आचरण । इन्द्रियों में लोलुपता का अभाव । विशेषकर जननेन्द्रियों का संयम । (ङ) अपरिग्रह-अनावश्यक संग्रह न करना, दान आदि न लेना। २. नियम-(क) शौच-मन, वचन और शरीर की पवित्रता (ख) सन्तोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (ङ) ईश्वर प्रणिधान । ३. आसन-जिस प्रकार बैठने से चित्त को स्थिरता और सुख मिले उसे आसन कहते हैं । यथा (क) सुखासन (ख) पद्मासन (ग) भद्रासन (घ) वीरासन । ४. प्राणायाम-(क) रेचक (ख) कुम्भक (ग) पूरक । ५. प्रत्याहार-इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर उनको अन्तर्मुखी करना। ६. धारणा-चित्त को किसी एक स्थान में स्थिर करने का नाम धारणा है । ७. ध्यान-जब किसी एक स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान देरतक एक प्रवाह में संलग्न होता है तब उसे ध्यान कहते हैं। ८. समाधि-जब ध्यान ध्येय के आकार में भासित होता है और अपना स्वरूप छोड़ देता है तो उस परिस्थिति को समाधि कहते हैं। इसमें ध्यान और ध्यान का ध्येय में लय हो जाता है। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु-साम ६६९ अन्य दर्शनों में भी साधन-क्रम पाया जाता है। मनो मन्ता तथा प्राणो नरोऽपानश्च वीर्यवान् । प्रत्येक साधन के लिए साधन की आवश्यकता होती है। विनिर्भयो नयश्चैव दंसो नारायणो वृषः । वेदान्त में मुक्ति साधन से उपलब्ध न होकर अनुभूति का प्रभुश्चेति समाख्याता साध्या द्वादश पौर्विकाः ।। विषय है। किन्तु अनुभूति के लिए जिज्ञासा और ज्ञान सानन्दूर-एक श्रेष्ठ तीर्थ ( कर्नाटक में ) । वाराह पुराण आवश्यक है। जिज्ञासा और ज्ञान के लिए काम्य और के सानन्दूर माहात्म्य में इसका वर्णन पाया जाता है। निषिद्ध कर्मों का परित्याग करना चाहिए । नित्य एवं एक बार पृथ्वी ने विष्णु से पूछा कि क्या द्वारका से भी कोई नैमित्तिक कर्म, प्रायश्चित्त, उपासना आदि चित्तशुद्धि के अन्य तीर्थ उत्तम है ? इसके उत्तर में भगवान् विष्णु ने लिए करना आवश्यक है । विवेक, वैराग्य, शम, दम, कहा : उपरति, तितीक्षा, मुमुक्षा, श्रद्धा, समाधान ( समाधि ) सानन्दुरेति विख्यातं भूमे ! गुह्यं परं मम । आदि वेदान्त में भी जिज्ञासु के लिये आवश्यक साधन उत्तरे तु समुद्रस्य मलयस्य च दक्षिणे । माने गये हैं। तत्र तिष्ठामि वसुधे उदीचीदिर्शिमाश्रितः ।। साधु-धर्म आदि कार्यों का सम्पादन करने वाला प्रतिमा व मदीयास्ति नात्युच्चा नातिनीचका । ( साधयतिधर्मादिकार्यमिति ) अथवा जो दूसरों के अत्यसी तां वदन्त्येके अन्ये ताम्रमयी तथा । कार्यों को सिद्ध करता है ( साध्नोति पर कार्याणीति ) कांस्यी रीतिमयीमन्ये केचित् सीसकनिर्मिताम् । पद्मपुराण (उत्तरखण्ड, अध्याय ९९) में साधु के निम्नां शिलामयीमित्यपरे महदाश्चर्यरूपिणीम् ।। कित लक्षण बताये गये हैं : तत्र स्थानानि मे भूमे ! कथ्यमानं मया शृणु । यथालब्धेऽपि सन्तुष्टः समचित्तो जितेन्द्रियः । मनुजा यत्र मुच्यन्ते गताः संसारसागरम् ।। हरिपादाश्रयो लोके विप्रः साधुरनिन्दकः ।। १ ।। सान्दीपनि-कृष्ण और बलराम के शिक्षागुरु एक मुनि । निवैरः सदयः शान्तो दम्भाहंकारवजितः । सन्दीपन के वंश में ये उत्पन्न हुए थे, अतः इनका निरते क्षो मुनिर्वीतरागः साधुरिहोच्यते ॥ २ नाम सान्दीपनि पड़ा । ब्रह्मवैवर्तपुराण ( श्री कृष्ण जन्म लोभमोहमदक्रोधकामादिरहितः सुखी।। खण्ड, अध्याय ९९ ३० ) में इनका वर्णन मिलता है : कृष्णाज्रिशरणः साधुः सहिष्णुः समदर्शनः ।। ३ विदिताखिलविज्ञानौ तत्त्वज्ञानमथावपि । गरुडपुराण में साधु का दूसरा लक्षण मिलता है : शिष्याचार्यक्रमं वीरौ ख्यातयन्तौ यदुत्तमौ ।। न प्रहृष्यति सम्माने नावमाने च कुप्यति । ततः सान्दीपनि काश्यमवन्तिपुरवासिनम् । न क्रुद्धः परुषं ब्रूयादेतत् साधोस्तु लक्षणम् ॥११३.४२ अस्त्रार्थ जग्मतुवीरौ बलदेवजनार्दनौ ।। अग्निपुराण (दानावस्थानिर्णयाध्याय) में साधु के स्वभाव विष्णुपुराण (५,२१.१८-३० ) के अनुसार कृष्ण और का वर्णन इस प्रकार है : और बलराम दोनों भाइयों ने सान्दीपनि से अस्त्र-विद्या त्यक्तात्मसुखभोगेच्छाः सर्वसत्त्वसुखैषिणः । पढ़ी और गुरु दक्षिणा में वे उनके मृतपुत्र को पञ्चजन भवन्ति परदुःखेन साधवो नित्यदुःखिताः ।। नामक राक्षस को मार कर वापस लाये । भागवतपुराण के परदुःखातुरा नित्यं स्वसुखानि महान्त्यपि । अनुसार कृष्ण-बलराम के साथ सुदामा भी सान्दीपनि के नापेक्षन्ते महात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।। शिष्य थे और इन तीनों में बड़ा सौहार्द था। सुदामा की इस प्रकार के सत्य-न्यायपरायण व्यवहारी वैश्य भी कथा प्रसिद्ध है। 'साध' कहे जाते थे, जिनको विश्वासपात्र समझकर लोग साम-चार वेदों में से तृतीय । भरत के अनुसार इसको धन-सम्पत्ति का लेन-देन करते थे । साम इसलिए कहते हैं कि यह पाप को छिन्न करता रहता साध्य-सामूहिक देवगण। भरत के अनुसार इनकी है ( स्यति पापं नाम )। जैमिनि ने इसका लक्षण बतसंख्या बारह है (साध्या द्वादश विख्याता रुद्राश्चैकादश लाया है : 'गीतिषु सामाख्या इति' । तिथ्यादितत्त्व में स्मृताः)। अग्निपुराण के गणभेदनामाध्याय में इनके नाम कहा गया है : “गीयमानेषु मन्श्रेषु सामसंज्ञेत्यर्थः" । दे० इस प्रकार पाये जाते हैं : 'वेद' शब्द । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामग-सावणि सामग-सामवेद का गानकर्ता ब्राह्मण । महाभारत (१३. १४९. ७५ ) में विष्णु को भा सामग कहा गया है ) भागवत ( १.४.२१ ) सामवेदज्ञ की ही संज्ञा सामग है : तत्रवेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः । वैशम्पायन एवंको निष्णातो यजुषामुत ।। सायुज्य-इसका शाब्दिक अर्थ है सहयोग, सहमिलन अथवा एकत्व ( सयुजो सहयोगस्य भावः )। पाँच प्रकार की मुक्तियों के अन्तर्गत एक मुक्ति का नाम सायुज्य है : सारवा-यह शारदा ( सरस्वती ) का ही एक पर्याय है। इसकी व्युत्पत्ति है : 'सारं ददातीति' अर्थात् जो 'सार' (ज्ञान, विद्यादि ) देती है। 'तिथ्यादितत्त्व' के अनुसार यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है। सारनाथ-काशी के सात मील पूर्वोत्तर में स्थित बौद्धों का प्रधान तीर्थ । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं किया था और यहीं से उन्होंने 'धर्म चक्र प्रवर्तन' प्रारम्भ किया । यहाँ पर सारङ्गनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहाँ श्रावण के महीने में हिन्दुओं का मेला लगता है। यह जैन तीर्थ भी है । जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है । सारनाथ की दर्शनीय वस्तुएँ अशोक का चतुर्मुख सिंहस्तम्भ, भगवान् बुद्ध का मन्दिर, धामेख स्तूप, चौखण्डी स्तूप, राजकीय संग्रहालय, जैनमन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार है। मुहम्मदगोरी ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था । सन् १९०५ में पुरातत्त्व विभाग ने यहाँ खुदाई का काम प्रारम्भ किया । तब बौद्ध धर्म के अनुयायियों और इतिहास के विद्वानों का ध्या इधर गया। अब सारनाथ बराबर वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। सारस्वत-सरस्वती (देवता या नदी) से सम्बन्ध रखने से सम्बन्ध रखने- वाला। सारस्वत प्रदेश हस्तिनापुर के पश्चिमोत्तर में स्थित है । इस देश के निवासी ब्राह्मण भी सारस्वत कहे जाते है जो पञ्चगौड ब्राह्मणों की एक शाखा है-गौड, सारस्वत, कान्यकुब्ज, मैथिल और उत्कल । एक कल्प विशेष का नाम भी सारस्वत है। सारस्वतकल्प-सरस्वती-पूजा का एक विधान । विश्वास है कि इसके अनुष्ठान से अपूर्व विद्या और ज्ञान की उपलब्धि होती है । 'स्वायम्भुव-मातृका-तन्त्र' के सारस्वत पटल में इसका विस्तार से वर्णन पाया जाता है : मन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि साङ्गावरणपूजनः । अनन्तं बिन्दुना युक्तं वामगण्डान्तभूषितम् ।। जपेत् द्वादशलक्षंतु मूकोऽपि वाक्पतिर्भवेत् । नाभौ शुभारविन्दञ्च ध्यायेद्दशदलं सुधी ।। तन्मध्ये भावयेन्मन्त्रो मण्डलानां त्रयं चिरम् । रत्नसिंहासनं तत्र वर्णज्योत्स्नामयं पुनः ॥ तस्योपरि पुनायेद्देवीं वागीश्वरी ततः । मुक्तां कान्तिमिमां देवी ज्योत्स्नाजालविकाशिनीम् ।। मुक्ताहारयुतां शुभ्रां शशिखण्डविमण्डिताम् । बिभ्रती दक्षहस्ताभ्यां व्याख्यां वर्णस्य मालिकाम् ।। अमृतेन तथा पूर्ण घटं दिव्यञ्च पुस्तकम् । दधतीं वामहस्ताभ्यां पीनस्तनभरान्विताम् ।। मध्ये क्षीणां तथा स्वच्छां नानारत्नविभूषिताम् । आत्माभेदेन ध्यात्वयं ततः संपूजयेत् क्रमात् ।। मत्स्यपुराण (६६.१-२४) में भी विस्तार से सारस्वतकल्प का वर्णन मिलता है। सारस्वतव्रत-यह संवत्सर व्रत है जिसका मत्स्यपुराण (६६.३-१८) में उल्लेख है। इस व्रत के अनुसार व्रती को अपने अभीष्ट देवता की तिथि के दिन अथवा पंचमी, रविवार या सप्ताह के किसी भी पुनीत दिन दोनों सन्ध्या कालों के समय तथा भोजन के अवसर पर मौन धारण करना चाहिए। भगवती सरस्वती देवी का पूजन करके सधवा नारियों को सम्मानित करना चाहिए । लगभग ऐसे हो श्लोक पद्म-पुराण (५.२२.१७८-१९४) तथा भविष्योत्तर-पुराण (३५.३-१९) में उपलब्ध हैं । सावर्ण-चौदह मनुओं में से द्वितीय। सावर्ण की व्युत्पत्ति है : सवर्णायाः छायायाः अपत्यं पुमान् । देवीभागवत में कथन है : छायासंज्ञासुतो योऽसौ द्वितीयः कथितो मनुः । पूर्वजस्य सवर्णोऽसौ सावर्णस्तेन कथ्यते ।। हरिवंश (९.१९) के अनुसार। पूर्वजस्य मनोस्तात सदृशोऽयमिति प्रभुः । मनुरेवाभवन्नाम्ना सावर्ण इति चोच्यते ।। सावणि-भागवत पुराण (८.१३.८-१७) के अनुसार सावणि अष्टम मनु तथा सूर्य के पुत्र थे : विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे । संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तथा । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावित्री-सिंहस्थ गुरु ६७१ तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञा सुतास्त्रयः । द्वारा यह व्रत किया जाता है । पराशर के अनुसारयमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुतान् शृणु ।। मेषे वा वृषभे वाऽपि सावित्री तां विनिद्दिशेत् । सावणिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या । जेष्ठकृष्ण चतुर्दश्यां सावित्रीमर्चयन्ति याः । शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ ।। वटमूले सोपवासा न ता वैधव्यमाप्नुयुः ।। अष्टमेऽन्तरे आयाते सावणिर्भविता मनुः । सावित्रीसूत्र-उपनयन संस्कार के अवसर पर जो सूत्र निर्मो कविरजस्काद्या साणितनया नृप ।। धारण किया जाता है उसका नाम सावित्रीसूत्र है। सावित्री-(१) सविता (सूर्य) की उपासना जिस वैदिक कारण यह है कि वटु सावित्री दीक्षा के समय इसको मन्त्र 'गायत्रो' से की जाती है उसका नाम सावित्री है। ग्रहण करता है । दे० 'यज्ञोपवीत' । प्रतीक और रहस्य के विकास से सावित्री की कल्पना का सिंहवाहिनी-दुर्गा देवी । देवीपुराण (अध्याय ४५) के बहुत विस्तार हुआ है। अनुसार(२) मेदिनी के अनुसार यह उमा का एक पर्याय है । सिंहमारुह्य कल्पान्ते निहतो महिषो यतः । देवीपुराण (अध्याय ४४) के अनुसार इसके नामकरण का महिषघ्नी ततो देवी कथ्यते सिंहवाहिनी ।। कारण इस प्रकार है : त्रिदशैरञ्चिता देवी वेदयागेषु पूजिता । सिंहस्थ गुरु-जिस समय बृहस्पति ग्रह सिंह राशि पर आता है उस समय विवाह, यज्ञोपवीत, गृह-प्रवेश (प्रथम भावशुद्धस्वरूपा तु सावित्री तेन सा स्मृता ॥ बार ), देव प्रतिष्ठा तथा स्थापना तथा इसी प्रकार के अग्नि पुराण (ब्राह्मण प्रशंसानामाध्याय) में उनके नाम अन्य मांगलिक कार्य निषिद्ध रहते हैं । दे० 'मलमास तत्त्व' करण का कारण निम्नांकित है : १०८२.। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि जब सर्वलोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते । बृहस्पति सिंह राशि पर आ जाता है उस समय समस्त यतस्तद्देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः । तीर्थ गोदावरी नदी में जाकर मिल जाते हैं। इसलिए वेदप्रसवनाच्चापि सावित्री प्रोच्यते बुधैः ।। श्रद्धालु व्यक्ति को उस समय गोदावरी में स्नान करना मत्स्यपुराण (३.३०-३२) के अनुसार सावित्री ब्रह्मा चाहिए। इस विषय में शास्त्रकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं की पत्नी कही गयी हैं : कि सिंहस्थ गुरु के समय विवाह-उपनयनादि का आयोजन ततः संजपतस्तस्य भित्त्वा देहमकल्मषम् । हो या न हो। कुछ का मत है कि विवाहादि माङ्गलिक स्त्रीरूपमर्द्धमकरोदई पुरुषरूपवत् ।। कार्य तभी वजित है जब बृहस्पति मघा नक्षत्र पर अवशतरूपा च सा ख्याता सावित्री च निगराते । स्थित हो ( यथा सिंह के प्रथम १३।। अंश)। अन्य सरस्वत्यथ गायत्री ब्रह्माणी च परन्तप ।। शास्त्रकारों का कथन है कि गंगा तथा गोदावरी के मध्य(३) सावित्री का एक ऐतिहासिक चरित्र भी है। वर्ती प्रदेशों में उस काल तक विवाह तथा उपनयनादि महाभारत ( वनपर्व, अध्याय २९२) के अनुसार वह निषिद्ध हैं जब तक बृहस्पति सिंह राशि पर विद्यमान हो, केकय के राजा अश्वपति की कन्या और साल्वदेश के किन्तु अन्य धार्मिक कार्यों का आयोजन हो सकता है। राजा सत्यवान् की पत्नी थी। अपने अल्पायु पति का केवल वह उस समय नहीं हो सकता जब बृहस्पति मघा जब एक बार वरण कर लिया तो आग्रहपूर्वक उसी से नक्षत्र पर अवस्थित हों। अन्य शास्त्रकारों का कथन है विवाह किया। किस प्रकार अपने मृत पति को वह कि यदि सूर्य उस समय मेष राशि पर विद्यमान हो तो यमराज के पाशों से वापस लाने तथा अपने पिता को सिंहस्थ गरु होने पर भी धार्मिक कार्यों के लिए कोई सौ पुत्र दिलाने में सफल हुई, यह कथा भारतीय साहित्य निषेध नहीं है। इन सब विवादों के समाधानार्थ दे० में अत्यधिक प्रचलित है । सावित्री पातिव्रत का उच्चतम स्मृतिको०, पृ० ५५७-५५९। यह तो लोक-प्रसिद्ध प्रतीक है। विश्वास है ही कि समुद्र मंथन के पश्चात् निकला हआ सावित्रीव्रत-ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी अमावस्या को स्त्रियों Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ सिता सप्तमी-सिद्धिविनायकव्रत उज्जैन और सबके बाद नासिक (व्यम्बकेश्वर ) में छः फलों से पूजन तथा अन्य कृत्य किये जायें। इसके गोदावरीतट पर रखा गया था। इसके अनुसार नासिक- अतिरिक्त जप, होम तथा सूर्य के सम्मुख लेटकर गायत्रीपञ्चवटी में गोदावरीतट पर सिंहस्थस्नान या कुम्भ का मंत्र का जप करना चाहिए। सूर्य प्रतिमा के सम्मुख पर्व पूरे श्रावण मास तक मनाया जाता है। लेटने के समय कुछ स्वप्नों से पार्थक्य, विभिन्न प्रकार के सिता सप्तमी-भुवनेश्वर ( उड़ीसा ) की चौदह यात्राओं पुष्पों के समर्पण से उनके फल तथा पुण्य भी विभिन्न में से एक यात्रा की तिथि । माघ शुक्ल सप्तमी को इस मिलते हैं, यथा-कमल पुष्पों से यश, मन्दार पुष्पों से यात्रा के अनुष्ठान का नियम है। कुष्ठ तथा अगस्त्यके पुष्पों से सफलता। ब्राह्मणों को रंगसिद्ध-देवताओं का एक विशेष वर्ग, उपदेव । अणिमा विरंगे वस्त्र, इत्र, पुष्प, हविष्यान्न तथा गौ के दान का महिमादि गुणों से संयुक्त विश्वावसु (गन्धर्व ) आदि विधान है। इसमें सम्मिलित हैं। सिद्धि-अहेतुक अद्भुत सफलता या चमत्कार । मार्कण्डेय सिद्धनक्षत्र-शुक्रवार, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी तथा वयो- पुराण ( दत्तात्रेयालर्क संवाद, योगवल्लभ नामक दशी एवं पूर्वा-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, हस्त, श्रवण तथा अध्याय ) में अष्ट सिद्धियों के नाम और लक्षण रेवती की गणना सिद्ध नक्षत्रों में है। समस्त पुनीत कृत्य बतलाये गये हैं : इन्हीं उपर्युक्त नक्षत्रादिकों के अवसर पर किये जाने अणिमा महिमा चैव लघिमा प्राप्ति रेवच । चाहिए। प्राकाम्यञ्च तथेशित्वं वशित्वञ्च तथापरम् ।। सिद्धान्त-पूर्वपक्ष का निरास (खण्डन) करके उत्तर पक्ष यत्र कामावसायित्वं गुणानेतानथैश्वरान् । की स्थापना । सिद्ध = वादि-प्रतिवादिनिर्णीत, अन्त = अर्थ प्राप्नोत्यष्टौ नरव्याघ्र परनिर्वाणसूचकान् ।। जिसमें हो । ग्रहगति के निर्णायक नवविध ज्योतिष ग्रन्थों सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरोऽणीयान् शीघ्रत्वाल्लघिमा गुणः । को भी सिद्धान्त कहा जाता है-१. ब्रह्म सिद्धान्त २. महिमाशेषपूज्यत्वात् प्राप्ति प्राप्यमस्य यत् ।। सूर्य सिद्धान्त ३. सोम सिद्धान्त ४ बृहस्पति सिद्धान्त प्राकाम्यमस्य व्यापित्वात् ईशित्वो चेश्वरो यतः । ५. गर्ग सिद्धान्त ६. नारद सिद्धान्त ७. पराशर सिद्धान्त वशित्वात् वशिता नाम योगिनः सप्तमो गुणः ।। पुलस्त्य सिद्धान्त और ९. वसिष्ठ सिद्धान्त । यथेच्छास्थानमप्युक्तं यत्र कामावसायिता। सिद्धार्थ-शाक्य सिंह (गौतम बुद्ध)। जैन तीर्थङ्कर महा- ऐश्वर्य कारण रेभिर्योगिनः प्रोक्तमष्टधा ॥ वीर के पिता का नाम भी सिद्धार्थ था। श्वेत सरसों का ब्रह्मवैवर्तपुराण (१.६.१८-१९) में अठारह सिद्धियों की भी नाम सिद्धार्थ है, क्योंकि वह मांगलिक तथा सिद्धिदाता गणना की गयी है : मानी जाती है । अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । सिद्धार्थकादिसप्तमी--माघ अथवा मार्गशीर्ष मास की ईशित्वञ्च वशित्वञ्च सर्वकामावसायिता ॥ सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यदि सर्वज्ञ दूरश्रवणं परकायप्रवेशनम् । व्रती रुग्ण हो तो किसी मास की किसी भी सप्तमी को वासिद्धि: कल्पवृक्षत्वं स्रष्टुं संहर्तुमीशता ।। व्रत का आयोजन किया जा सकता है। इसमें सूर्योदय से अमरत्वञ्च सर्वाङ्गं सिद्धयोऽष्टादश स्मृताः । अर्द्ध प्रहर पूर्व (लगभग चार घड़ी पूर्व तक ) निश्चित सिद्धियोगिनी-अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में वृक्षों की दातुन से दन्तशुद्धि करनी चाहिए। जैसे मधूक, बतलाया गया है कि दक्ष की पचास कन्यायें थीं। वे ही अर्जन, नीम, अश्वत्थ । दाँत साफ करने के बाद दातुन सिद्धियोगिनियों के रूप में विख्यात हुई। फेंकने के स्थानों से शकुन विचार सम्भव है। सात सिद्धिविनायकव्रत-शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन अथवा सप्तमियों को इस व्रत का आयोजन किया जाय । प्रथम जिस दिन व्रती के हृदय में धार्मिक प्रवृत्ति का स्फुरण हो सप्तमी को सरसों से, द्वितीय सप्तमी को आक की कलियों उसी दिन इस का अनुष्ठान निहित है। इस दिन तिलसे, तृतीय सप्तमी से आगे तक क्रमशः मरिच, नीम, मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। इस समय गणेश उबले हुए चावलों को छोड़कर अन्य खाद्यान्नों के साथ जी की सुवर्ण अथवा रजत प्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान या Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिप्रा सुकुलत्रिरात कराकर गन्धाक्षतपुष्प, धूप, दीप नैवेद्यादि से 'गणाध्यक्ष, विनायक, उमासुत, रुद्रप्रिय, विघ्ननाशन' आदि नामोच्चारणपूर्वक पूजन करना चाहिए। पूजन में २१ दूर्वादल तथा २१ लड्डू गणेशप्रतिमा के सम्मुख रखे जाँय जिनमें एक लड्डू गणेश जी के लिए, १० पुरोहित तथा १० व्रती के स्वयं के लिए होंगे। इस आचरण से विद्या प्राप्ति, घनार्जन तथा युद्ध में सफलता (सिद्धि) की उपलब्धि होती है। सिप्रा (शिप्रा क्षिप्रा ) - भारत की एक प्रसिद्ध नदी । यह मालवा में बहती है। इसके तट पर अवन्तिका ( महाकाल की मोक्षदायिनी नगरी उज्जैन) स्थित है। कालिका पुराण (अध्याय २३) में इसकी उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है । सीता-लाल पद्धति (हल के फल से खेत में बनी हुई रेखा) । राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इसलिए था कि वे जनक को हल कथित रेखाभूमि से प्राप्त हुई थीं। बाद में उनका विवाह भगवान् राम से हुआ। वाल्मीकिरामायण (१.६६.१३-१४ ) में जनक जी सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं : अथ मे कृषतः क्षेत्र लाङ्गलादुत्थिता ततः । क्षेत्र शोषयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता ।। भूतलादुरियता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा । वीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा ।। यही कथा पद्मपुराण तथा भविष्यपुराण (सीतानवमी व्रत माहात्म्य) में विस्तार के साथ कही गयी है । (२) सीता एक नदी का नाम है । भागवत ( पञ्चमस्कन्ध) के अनुसार वह भद्राश्व वर्ष (चीन) की गंगा है : "सीता तु ब्रह्मसदनात् केशवाचलादि गिरशिखरेभ्योपोषः प्रसवन्ती गन्धमादनमूर्द्धसु पतित्वाऽन्तरेण भद्राश्वं वर्ष प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रं अभिप्रविशति । " 'शब्दमाला' में सीता के सम्बन्ध में निम्नांकित कथन है : पाटला । गङ्गायान्तु भद्रसोमा महाभद्राय तस्याः स्रोतसि सीता च वसुर्भद्रा च कीर्तिता ॥ तदभेदेऽलकनन्दापि शारिणी स्वल्पनिम्नगा ॥ सीतापूजा - ( १ ) सीता शब्द का अर्थ है कृषि कार्य में जोती हुई भूमि ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि नारद के द्वारा 1 + ६७३ आग्रह करने पर दक्ष के पुत्रों ने फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को पृथ्वी की नाप-जोल की थी। अतएव देवगण तथा पितृगण इसी दिन अपूपों का श्राद्ध पसन्द करते हैं । (२) भगवान् राम की धर्मपत्नी सीता का पूजन इस व्रत के दिन होता है, जो फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को उत्पन्न हुई थीं । सीतामढ़ी सीताजी के प्रकट होने का स्वल। यह प्राचीन मिथिला में (नेपाल राज्य) के अन्तर्गत है । लखनदेई नदी के पश्चिम तट पर सीतामढ़ी बस्ती है । घेरे के भीतर सीता जी का मन्दिर है। पास में ही राम, लक्ष्मण, शिव, हनुमान् तथा गणेश के मन्दिर हैं यहाँ से एक मील पर पुनउड़ा गाँव के पास पक्का सरोवर है । यहीं जानकी जी पृथ्वी से उत्पन्न हुई थीं। पास में ठाकुरबाड़ी है। निमिवंशज राजा सीरध्वज अकाल पड़ने पर सोने के हल से यज्ञ भूमि जोत रहे थे। तभी हलान के लगने से दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। यहाँ उर्विजा नामक प्राचीन कुण्ड है। स्त्रियों में यह तीर्थ बहुत लोकप्रिय है । सीमन्तोन्नयन -- सोलह शरीर-संस्कारों में से एक संस्कार । गर्भाधान के छठे अथवा आठवें महीने में इसका अनुष्ठान किया जाता है। इसमें पति पत्नी के सीमन्त ( शिर के ऊपरी भागों के बालों को सँभाल कर उठाते हुए उसके तथा गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की कामना करता है । इस संस्कार के साथ गर्भिणी स्त्री और उसके पति के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । सुकलत्रप्राप्तिव्रत-कन्याओं, संघवाओं तथा विधवाओं के लिए भी इस व्रत का आचरण विहित है। यह नक्षत्र व्रत है । इसके नारायण देवता हैं। कोई कन्या तीन नक्षत्रों, यथा उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़, उत्तराभाद्रपद को जगन्नाथ का पूजन कर माधव के नाम का कीर्तन करे तथा प्रियङ्ग फल (लाल फूल अर्पित करें मधु तथा शोधित नवनीत से हवन तथा 'माधवाय नमः' कहते हुए प्रणामाञ्जलि अर्पित करे तो इससे उसे अच्छा पति प्राप्त होता है। भगवान शिव ने भी पार्वती को उस व्रत का महत्त्व बताया था । सुकुलत्रिरात्रव्रत - मार्गशीर्ष मास में उस दिन इस व्रत का प्रारम्भ होना चाहिए जिस दिन त्र्यहः स्पृक् (तीन दिन वाली तिथि) हो, इस व्रत में तीन दिन उपवास Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ सुकृततृतीयाव्रत-सुदर्शन-षष्ठी लगाया जाय, तदनन्तर शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। स्नानोपरान्त दूर्वा, पीपल, शमी तथा गौको स्पर्श किया जाय । १०८ आहुतियों से मंगल ग्रह को निमित्त मानकर हवन करना चाहिए । सुवर्ण अथवा रजत अथवा ताम्र अथवा सरल नामक काष्ठ या चीड़ या चन्दन के बने हुए पात्र में मंगल ग्रह की प्रतिमा स्थापित कर उसका का विधान है। इस व्रत में त्रिविक्रम (विष्णु) का श्वेत, पीत, रक्त पुष्पों से, तीन अङ्गरागों से, गुग्गुल, कुटुक (कुटकी) तथा राल की धूप से पूजन करना चाहिए । इस अवसर पर उन्हें त्रिमधुर (मिसरी, मधु, मक्खन) अर्पित किए जाय। तीन ही दीपक प्रज्ज्वलित किए जाय। यव, तिल तथा सरसों से हवन करना चाहिए । इस व्रत में त्रिलोह (सुवर्ण, रजत तथा ताँबे) का दान करना चाहिए। सुकृततृतीयावत-हस्त नक्षत्र युक्त श्रावण शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। इसमें नारायण तथा लक्ष्मी का पूजन विहित है। तीन वर्षपर्यन्त इसका आचरण होना चाहिए। उस समय 'विष्णोर्नु कम्०' तथा 'सक्तुमिव' आदि ऋग्वेद के मन्त्रों का पाठ होना चाहिए। सुख-नैयायिकों के अनुसार आत्मवृत्ति विशेष गुण है। वेदान्तियों के अनुसार यह मन का धर्म है। गीता (अ० १८) में सुख के सात्त्विक, राजस, तामस तीन । प्रकार कहे गये हैं । सुख जगत् के लिए काम्य है और धर्म से उत्पन्न होता है । गरुडपुराण (अध्याय ११३) में सूख के कारण और लक्षण बतलाये गए हैं। रागद्वेषादियुक्तानां न सुख कुत्रचित् द्विज । विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः ॥ यत्र स्नेहो भयं तत्र स्नेहो दुःखस्य भाजनम् । स्नेहमलानि दुःखानि तस्मिंस्त्यक्ते महत्सुखम् ।। सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवश सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।। सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् । सुखं दुःखं मनुष्याणां चक्रवत्परिवर्तते ।। सुखरात्रि अथवा सुखरात्रिका-यह लक्ष्मीपूजन दिवस है (कार्तिक की अमावस्या) । दीवाली के अवसर पर इसे सूख रात्रिका के नाम से सम्बोधित किया जाता है। सखवत-शक्लपक्ष की चतुर्थी को भौमवार पड़े तब यह सुखदा कही जाती है। इस दिन नक्त विधि से आहारादि करना चाहिए। इस प्रकार से चार चतुर्थियों तक इस व्रत की आवृत्ति की जाय । इस अवसर पर मंगल का पूजन होना चाहिए, जिसे उमा का पुत्र समझा जाता है। सिर पर मृत्तिका रखकर फिर उसे सारे शरीर में सुगतिपौषमासीकल्प (पौर्णमासी)-फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है । विष्णु इसके देवता हैं। व्रती को नक्त विधि से लवण तथा तैलरहित आहार करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। वर्ष को चारचार मासों के तीन भागों में बाँटकर लक्ष्मी सहित केशव का पूजन करना चाहिए। व्रत के दिन अधार्मिकों, नास्तिकों, जघन्य अपराधियों तथा पापात्माओं एवं चाण्डालों से वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए । रात्रि के समय भगवान् हरि तथा लक्ष्मी को चन्द्रमा के प्रतिभासित होते हुए देखना चाहिए । सुतीक्ष्ण आश्रम-यह स्थान मध्य प्रदेश में वीरसिंहपुर से लगभग चौदह मील है । शरभङ्ग आश्रम से सीधे जाने में दस मील पड़ता है। यहाँ भी श्रीराम मन्दिर है। महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण मुनि यहाँ रहते थे । भगवान् राम अपने वनवास में यहाँ पर्याप्त समय तक रहे थे। कुछ विद्वान् वर्तमान सतना (म०प्र०) को ही सुतीक्ष्णआश्रम का प्रतिनिधि मानते हैं। चित्रकूट से सतना का सामीप्य इस मत को पुष्ट करता है। सुदर्शन-विष्णु का चक्र (आयुध)। मत्स्यपुराण (११.२७-३०) में इसकी उत्पत्ति का वर्णन है। सवर्शनषष्ठी-राजा या क्षत्रिय इस व्रत का आचरण करते हैं। कमलपुष्पों से एक मण्डल बनाकर चक्र की नाभि पर सुदर्शन चक्र की तथा कमल की पंखुड़ियों पर लोकपालों की स्थापना की जाय । चक्र के सम्मुख अपने स्वयं के अस्त्र-शस्त्र स्थापित किये जाय । तदनन्तर लाल चन्दन के प्रलेप, सरसों, रक्त कमल तथा रक्तिम वस्त्रों से सबकी पूजा की जाय । पूजन के उपरान्त गुड़मिश्रित नैवेद्य समर्पण करना चाहिए। इसके पश्चात् शत्रुओं Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा-सूत के विनाश के लिए, युद्ध में विजय के लिए तथा अपनी सेना की सुरक्षा के लिए मंत्रों के साथ सुदर्शन चक्र की प्रार्थना की जाय । विष्णु के धनुष (शार्ङ्ग ), गदा इत्यादि का तथा उनके वाहन गरुड का भी पूजन किया जाय । राजा को सिंहासन पर बैठाकर उसके सम्मुख एक मुस ज्जित मारी दीपों से आरती उतारे। किसी पापग्रह अथवा जन्मकालिक क्रूर नक्षत्र का उदय होने पर भी इसी विधि से पूजन करना चाहिए। सुधर्मा इन्द्रदेवकी सभा द्वारकापुरी में यादवों की राज सभा सुधर्मा कहलाती थी । सुपात्र - किसी कार्य के समुपयुक्त अथवा योग्य व्यक्ति । भागवतपुराण के अनुसार ब्राह्मण को विशेष करके सुपात्र माना गया है : पुरुषेस्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः । तपसा विद्यया तुष्टया धत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥ दानविधि में सुपात्र का विशेष ध्यान रखा जाता है : तस्मात्सर्वात्मना पात्रे दद्यात् कनकदक्षिणाम् । अपात्रे पातयेद्दत्तं सुवर्ण नरकार्णवे । (बुद्धितत्व ) . सुप्रभातम् — प्रातः कालीन मङ्गलपाठ, जिसमें कुछ पुण्यश्लोकों का उच्चारण होता हैं । वामनपुराण (अध्याय १४) में यह निम्नप्रकार से मिलता है : ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्न। गुरुः सशुक्रः सह मानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। भृगुर्वशिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगोतमः । रैम्यो मरीचिपवनोऽमलोरुः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौच । सप्तस्वरः सप्तरसातलाश्च कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः सम्पर्णवायुर्वलितच तेजः । नभः सम्यं महतः सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ सप्तार्णवाः सप्तकुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त भूरादि कुनं भुवनानि सप्त कुर्वन्ति सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ इस्वं प्रभाते परमं पवित्रं यं संस्मरेद्रा शृणुयाच्च भक्त्या । दुःस्वप्ननाशो ननु सुप्रभाते भवेच्च सत्यं भगवत्प्रसादात् ॥ सुमेरु - उत्तर दिशा का केन्द्र, भूगोल का सर्वोच्च प्रभाग, जो पर्वत माना गया है। हिन्दुओं के भूगोल और पुरा कथा में इसके महत्त्वपूर्ण उल्लेख पाये जाते हैं । ६७५ भागवत पुराण (पञ्चम स्कन्ध) में इसका निम्नांकित विवरण पाया जाता है। "एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्ष यस्य नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुलगिरिराज मेपायामसमुन्नाहः कणिकाभूतः कुवलयकमलस्य मूर्द्धनि द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनविततो मूले षोडशसहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्ठः " ॥ ७ ॥ आजकल इसकी स्थिति तिब्बत और पामीर के पठार के मध्य कही जाती है । सुरभि - देवताओं की गौ कामधेनु, जो समुद्र मन्थनोत्पन्न चौदह रत्नों में है । गौ माता के लिए भी इसका सामान्य प्रयोग होता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, ४७ अध्याय) में सुरभि की उत्पत्ति, पूजन आदि का वर्णन पाया जाता है । सुरसा (१) तुलसी किसो किसी के मत में यह दुर्गा का भी नाम है । (२) नागमाता का नाम सुरसा हैं । वाल्मीकिरामायण (सुन्दरकाण्ड सर्ग १ ) में सुरसा का उल्लेख हनुमानजी के सागरोल्लघन के सन्दर्भ में हुआ है । सुरेन्द्र देवताओं के राजा इन्द्र एक लोकपत्र का नाम । भी सुरेन्द्र है । - - सुव्रत चैत्र शुक्ल अष्टमी से अष्ट वसुओं की जो भगवान् वासुदेव के ही रूप है, गन्धाक्षतपुष्पादि से पूजा की जानी चाहिए। एक वर्षपर्यन्त यह व्रत चलना चाहिए । व्रत के अन्त में गौ का दान करना चाहिए। इससे समस्त संकल्पों की सिद्धि होती है तथा व्रती वसुलोक प्राप्त करता है । सूक्त - वेदोक्त देवस्तुतियों का निश्चित मन्त्र समूह । इसका अर्थ है 'शोभन उक्ति विशेष उदाहरणार्थ, ऋग्वेद में 'अग्निमीले इत्यादि अग्नि सूक्त है। 'सहस्रणी' इत्यादि पुरुष मुक्त है। 'अहं रुद्रेभिरि' इत्यादि देवी सूक्त है। 'हिरण्यवर्णामि' इत्यादि श्रीसूक्त है । सूत - मनुस्मृति ( १०.११) के अनुसार क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान ( वर्णसंकर ) : "क्षत्रियात् ब्रह्मकन्यायां मृतो भवति जातितः ।" इसका व्यवसाय Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूतक-सूर्य रथ संचालन बतलाया गया है (वही, १०.४७) । वेदव्यास ऋषि ने रोमहर्षण नामक अपने सूत शिष्य को समस्त पुराण और महाभारत आदि पढ़ाये थे। सूतजी नैमि- षारण्य में ऋषियों को ये पुराण कथाएँ सुनाया करते थे । सूतक-परिवार में किसी शिशु के जन्म से उत्पन्न अशौच । वृद्धमनु के अनुसार यह अशौच दस दिनों तक रहता है। सूतिका-नव प्रसूता स्त्री । इसका संस्पर्श दूषित बतलाया गया है। संस्पर्श होने पर प्रायश्चित्त से शद्धि होती है। 'प्रायश्चित्ततत्त्व' में कथन है : चाण्डालान्नं भूमिपान्नमजजीविश्वजीविनाम् । शौण्डिकान्नं सुतिकान्नं भुक्त्वा मासं व्रती भवेत् ।। सूत्र-(१) अत्यन्त सूक्ष्म शैली में लिखे हुए शास्त्रादिसूचना ग्रन्थ । सूत्र का लक्षण इस प्रकार है : स्वल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् । अस्तोभनवद्यञ्च सूत्र सूत्रविदो विदुः ।। [ अत्यन्त थोड़े अक्षर वाले, सारगर्भित, व्यापक, अस्तोभ (स्तोभ-सामगान के तालस्वर) तथा अनवद्य (वाक्य अथवा वाक्यांश सूत्र) कहा जाता है ।] वेदाङ्ग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष सूत्र शैली में ही लिखे गये हैं। षड्दर्शन भी सूत्र शैली में प्रणीत हैं। (२) ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) को भी सूत्र कहते हैं। सूना-प्राणियों का वधस्थान । गृहस्थ के घर में पाँच सूना होती हैं : पञ्चसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च वध्यते याश्च वाहयन् ॥ [चूल्हा, चक्की, सामग्री, ओखली और जलाधार ये पाँच सूना के स्थान है जहाँ गहस्थ के द्वारा हिंसा होती रहती है'।] इसके पापनाशन का उपाय मनु ने इस प्रकार बतलाया है : पञ्चैतान् यो महायज्ञान् न हापयति शक्तितः । स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते ।। [पंच महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ) नित्य करने वाला गृहस्थ पाँच सूना (हिंसा) दोषों से मुक्त रहता है।] सूर्य-देवमण्डल का एक प्रधान देवता । यह बारह आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में से एक है। ऋग्वेद के बारह सूक्तों में सूर्य की स्तुति की गयी है । यह आदित्य वर्ग के देवताओं में सबसे अधिक महत्त्वशाली और दृश्य है। इसका देवत्व सबसे अधिक उस समय विकसित होता है जब यह आकाश के मध्यमें चढ़ जाता है। यह देवताओं का मुख कहा गया है। (ऋ० १.११५.१)। इसको देवताओं का विशेषकर मित्र और वरुण का चक्षु भी कहा है (ऋ०६.५१.१) । चक्षु और सूर्य का धनिष्ठ सम्बन्ध है। वह विराट् पुरुष का चक्षु स्थानीय है। कई संस्कारों में सूर्य के दर्शन करने की व्यवस्था है। वह मनुष्यों के शुभ और अशुभ कर्मों को देखता, मनुष्यों को निर्दोषित घोषित करता और उन्हें निष्पाप भी बनाता है। स्वास्थ्य से सूर्य का स्वाभाविक सम्बन्ध है। वह रोगों को दूर भगाता है(ऋ०१.५०.११.१२) वेदों में सूर्य का सजीव चित्रण पाया जाता है जो उसके परवर्ती मूर्ति विज्ञान का आधार है। वह एक घोड़े अथवा बहुसंख्यक घोड़ों (हरितः) से खींचा जाता है। ये घोड़े स्पष्टतः उसको प्रकाश किरणों के प्रतीक हैं। कहीं कहीं हंस, गरुड, वृषभ, अश्व, आकाशरत्न आदि के रूप में भी उसकी कल्पना की गयी है । वह कहीं उषा का पुत्र (परवर्ती होने के कारण और कहीं उसके पीछेपीछे चलने वाला उसका प्रणयी कहा गया है। (ऋ० १.११५.२)। वह द्यौ का पुत्र भी कहा गया है (वास्तव में सम्पूर्ण देवमण्डल द्यावापृथ्वी का पुत्र है)। सूर्य वास्तव में अग्नि तत्त्व का ही आकाशीय रूप है। वह अन्धकार और उसमें रहने वाले राक्षसों का विनाश करता है। वह दिनों की गणना और उनका संवर्द्धन भी करता (ऋ०८.४८.७) है। इसको एक स्थान पर विश्वकर्मा भीकहा गया है। उसके मार्ग का निर्माण देवता, विशेषकर वरुण और आदित्य, करते हैं। यह प्रश्न पूछा गया है कि आकाश से सूर्य का बिम्ब क्यों नहीं गिरता (वही ४.१३. ५)। उत्तर है कि सूर्य स्वयं विश्व के विधान का संरक्षक है; उसका चक्र नियमित, अपरिवर्तनीय, सार्वभौम नियम का अनुसरण करता है। विश्व का केन्द्र स्थानीय है । वह जंगम और स्थावर सभी का आत्मा है (ऋग्वेद १.११५.१ )। सूर्य की वैदिक कल्पना का पुराणों और महाभारत Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य आदि में बड़े विस्तार से वर्णन है, जहाँ सूर्य सम्बन्धी पुरा कथाओं और पूजा विधियों के रूप में विवरण पाया जाता है । सूर्य के विवाह आदि इतिवृत्त का मनोरंजक वर्णन मार्कण्डेय पुराण में पाया जाता है। इसके अनुसार विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा का विवाह विवस्वान् के साथ किया। परन्तु संज्ञा सूर्य का तेज सहन न कर सकी, अतः उनके पास अपनी छाया को छोड़कर पितृगृह लौट गयी। विश्वकर्मा ने खराद पर चढ़ाकर सूर्य के तेज को थोड़ा कम किया जिससे संज्ञा उसको सहन कर सके। सूर्य की चार पत्नियां हैं -संज्ञा, राजी, प्रभा और छाया संज्ञा से मुनि की उत्पत्ति हुई । राज्ञी से यम, यमुना और रेवन्त उत्पन्न हुए । प्रभा से प्रभात, छाया से सावर्णि, शनि और तपती का जन्म हुआ। सूर्य परिवार के अन्य देवताओं और नवग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से कैसे हुई, इसका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता हैं । उपर्युक्त भावनाओं तथा विश्वासों के कारण धीरे-धीरे सूर्य सम्प्रदाय का उदय हुआ । ईसापूर्व तथा ईसा पश्चात् की शताब्दियों में ईरान के साथ भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से ईरानी मित्र- पूजा (मिश्र - पूजा) का सूर्य पूजा ( मंदिर की मूर्ति पूजा) से समन्वय हो गया । भविष्य पुराण तथा वाराह पुराण में कथा है कि कृष्ण के पुत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया। सूर्य पूजा से ही इस रोग की मुक्ति हो सकती थी। इसलिए सूर्य मन्दिर की स्थापना और मूर्तिपूजा के लिए शकद्वीप (पूर्वी ईरान, सीस्तान) से मग ब्राह्मणों को निमंत्रित किया गया । चन्द्रभागा ( चिनाव ) के तटपर मूलस्थानपुर ( मुलतान ) में सूर्य मन्दिर की स्थापना हुई मूलस्थान (मुलतान) के सूर्य मंदिर का उल्लेख चीनी यात्री ह्व ेनसांग तथा अरव लेखक अल्-इद्रिसी अबूदशाक, अल्-इस्तरवी आदि ने किया है। कुछ पुराणों के अनुसार शाम्ब ने मथुरा में शाम्बादित्य नामक सूर्य मंदिर की स्थापना की थी। इस समय से लेकर तेरहवीं शती ई० तक भारत में सूर्य पूजा का काफी प्रचार था । कुमारगुप्त ( प्रथम ) के समय में दशपुर ( मंदसौर) के बुनकरों की एक श्रेणी (संघ) ने भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण किया था। स्कन्दगुप्त का एक स्मारक इन्द्रपुर ( इन्दौर, बुलन्दशहर, उ०प्र०) में सूर्य मन्दिर के निर्माण का उल्लेख करता है । मिहिरकुल के ग्वालियर प्रस्तर लेख में मातृ पेट द्वारा सूर्य मन्दिर के ६७७ निर्माण का वर्णन है । बलभी के मैत्रक राजा सूर्योपासक थे । पुष्यभूतिवंश के प्रथम चार राजा आदित्य भक्त थे ( बांसखेरा तथा मधुवन ताम्रपत्र ) । परवर्ती गुप्त राजा द्वितीय जीवितगुप्त के समय में आरा जिले (मगध ) में सूर्यमन्दिर निर्मित हुआ था (फ्लीट गुप्त अभिलेख पृ०७०, ८०,१६२,२१८) । बहराइच में बालादित्य का प्रसिद्ध और विशाल सूर्यमंदिर था जिसका ध्वंस सैयद सालार मसऊद गाजी ने किया। सबसे पीछे प्रसिद्ध सूर्यमंदिर चन्द्रभागा तटवर्ती मूलस्थान वाले सूर्यमंदिर को स्मृति में उड़ीसा के चन्द्रभागा तीर्थ कोण्डार्क में बना जो आज भी करवट के बल लेटा हुआ है । सूर्य पूजा में पहले पूजा के विषय प्रतीक थे मानवकृति मूर्तियाँ पीछे व्यवहार में आयीं। प्रतीकों में चक्र, वृताकार सुवर्णवाल, कमल आदि मुख्य थे। व्यवहार में । सूर्य मूर्तियों के दो सम्प्रदाय विकसित हुए (१) औदीच्य (२) दाक्षिणात्य औदीच्य में पश्चिमोत्तरीय देशों का बाह्य प्रभाव विशेषकर वेश में परिलक्षित होता है । दाक्षिणात्य में भारतीयता की प्रधानता है परन्तु मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से दोनों में पूरी भारतीयता है। मूर्तियां भी दो प्रकार की हैं। एक रथारूढ़ और दूसरी खड़ी । रथारूढ़ मूर्तियों में एक चक्र वाला रथ होता है जिसको एक से लेकर सात अश्व खींचते हैं। आगे चलकर सात अश्व ही अधिक प्रचलित हो गए। अरुण सारवि (जिसके पाँव नहीं होते) रथ का संचालन करता है । रथ तम के प्रतीक राक्षसों के ऊपर से निकलता हुआ दिखाया जाता है। सूर्य के दोनों पाप से उपा और प्रत्युषा ( उषा के दो रूप ) धनुष से आकाश पर बाण फेंकती हुई अंकि की जाती हैं । दोनों ओर दो पार्षद दण्डी (दण्ड लिए हुए) और पिङ्गल अथवा कुण्डी (मसि पात्र और लेखनी लिए हुए) भी दिखाए जाते हैं । किन्हीं - किन्हीं मूर्तियों में सूर्य की पत्नियों और पुत्रों का भी, जो सभी प्रकाश के प्रतीक है, अंकन मिलता है। औदीच्य सूर्य मूर्तियों के पाँवों में भरकम ऊँबे जूते ( उपानह चुश्त पाजामा, भारी अंगा, चौड़ी मेखला, किरीट (मुकुट) और उसके पीछे प्रभामण्डल पाया जाता है। कहीं कहीं कन्धे से दोनों ओर दो पंख भी जुड़े होते हैं जो सूर्य के वैदिक गरुत्मान् रूप के अवशेष हैं। हाथों में दाहिने में कमल (अथवा कमलदण्ड) और बायें में खड्ग मिलता है । दाक्षिणात्य Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ मूर्तियों की विशेषता है कमलस्थ नंगा पाँव धोती और पूर्णतः अभिव्यक्त (खुला) शरीर । सूर्यनक्तव्रत- व्रतकर्ता को रविवार के दिन नक्त विधि से आहार आदि करना चाहिए। रविवार को हस्त नक्षत्र पड़े तो उस दिन एकभक्त तथा उसके बाद वाले रविवारों को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। सूर्यास्त के समय रक्त चन्दन के प्रलेप से द्वादश दलीय कमल बनाकर पूर्व से आठों दिशाओं में भिन्न-भिन्न नामों से (जैसे सूर्य, दिवाकर आदि) न्यास किया जाय। मण्डल के पूर्व में सूर्य के अश्वों का न्यास किया जाय। ऋग्वेद तथा साम वेद के प्रथम मंत्रों तथा तैत्तिरीय संहिता के प्रथम चार शब्दों का उच्चारण करते हुए अर्थ दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त अथवा द्वादश वर्षपर्यन्त इस व्रत का आचरण होता है । इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सुख समृद्धि तथा सन्धानादि का सुख भोगकर सूर्य लोक प्राप्त कर लेता है । सूर्यपूजाप्रशंसा-दे० विष्णु धर्म०, ३.१८१.१-७, जिसमें लिखा है कि वर्ष की समस्त सप्तमी तिथियों को सूर्य का पूजन करने से क्या पुण्य अथवा फल मिलता है; अथवा वर्ष भर प्रति रविवार को नक्त विधि से आहारादि करने से अथवा सूर्योदय के समय सर्वदा सूर्योपासना करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है। भविष्य पुराण (१-६८) के श्लोक ८-१४ में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्योपासना में किन-किन पुष्पों की आवश्यकता पड़ती है तथा उनका प्रयोग करने से क्या पुण्य प्राप्त होते हैं। सूर्यरथयात्रा माहात्म्य भविष्यपुराण (१.५८ ) के अनुसार सूर्य का रथोत्सव माघ मास में आयोजित किया जाता है । यदि प्रति वर्ष इसका आयोजन कठिन हो तो बारहवें वर्ष जिस दिन प्रथम बार हुआ था, उसी दिन आयोजन किया जाना चाहिए। उत्सव के नैरन्तर्य में थोड़े-थोड़े व्यवधानों के बाद इसका आयोजन नहीं किया जाना चाहिए। आषाढ़, कार्तिक तथा माघ मास की पूर्णिमाएँ इसके लिए पवित्रतम है। यदि रविवार को षष्ठी या सप्तमी पड़े तो भी रथयात्रा का उत्सव आयो जित हो सकता है । सृष्टि - संसार की उत्पत्ति या निर्मिति अथवा सर्जना । जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं उनके अनुसार ईश्वर ने अपनी ही योगमाया से अथवा प्रकृतिरूपी उपा सूक्तष्टतव दान कारण से इस जगत् का निर्माण किया श्रीभागवत पुराण में सृष्टि का वर्णन इस प्रकार है : सृष्टि के पूर्व मन, चक्षु आदि इन्द्रियों से अगोचर भगवान् एकमात्र थे । जब उन्होंने स्वेच्छा से देखने की कामना की तो कोई दृश्य नहीं दिखायी पड़ा । तब उन्होंने त्रिगुणमयी माया का प्रकाश किया। तब भगवान् ने अपने अंश पुरुषरूप करके उस माया में अपने वीर्य चैतन्य का आधान किया। उससे तीन प्रकार का अहङ्कार उत्पन्न हुआ | उनमें से सात्त्विक अहङ्कार से मन इन्द्रिय के अधिष्ठातृदेवता उत्पन्न हुए राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियों की उत्पत्ति हुई। तामस अहङ्कार से पञ्चभूत हुए। उनमें पञ्चगुण उत्पन्त हुए। इस प्रकार प्रकृत्यादि इन चौबीस तत्त्वों से ब्रह्माण्डका निर्माण कर भगवान् ने एक अंश से उसमें प्रवेश कर गर्भोदक संज्ञक जल उत्पन्न किया। उस जल के बीच में योगनिद्रा से सहस्रयुगकाल तक स्थित रहे । उसके अन्त में उठकर अपने अंश से ब्रह्मा होकर सब की सृष्टि कर और (विष्णुरूप से) नानावतारों को धारणकर जगत् का पालन करते हैं । कल्पान्त में रुद्ररूप से जगत् का संहार करते हैं । विष्णु पुराण (१.५.२७-६५ ) में विष्णु द्वारा सृष्टि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में विराट् ( विश्व पुरुष ) से सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति का रूपकात्मक वर्णन है । न्याय दर्शन के अनुसार सृष्टि के के तीन कारण हैं- ( १ ) उपादान (२) निमित्त और (३) सहकारी प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिकाउपादान से अनेक प्रकार के मृद्भाण्डों का निर्माण करता है। उसी प्रकार ईश्वर प्रकृति के उपादान से बहुविधि जगत् की सृष्टि करता है । सृष्टितस्व -- भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्त्वों में आध्यात्मिक चिन्तन की बड़ी विशेषता है। दर्शन शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार बिना तत्व-ज्ञान प्राप्त किये जीव कल्याण का भागी नहीं हो सकता । अतः मानव अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। इसके अनन्तर उसे जिज्ञासा होती है कि दृश्य जगत् की उत्पत्ति कहाँ से होती है और यह किस जगह विलीन हो जाता है। इस दिशा में हमारे दर्शन शास्त्र अधिक प्रकाश डालते हैं, यथा Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेतु-सेवा ६७९ "प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारः तस्मादगणश्च षोडशकः । प्रस्तुत करते हैं । कोई कहता है, परमेश्वर ने सर्जन द्वारा तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ।।" अपनी विभूति प्रकट की है। किसी के मतमें जिस प्रकार ___ अर्थात् सर्वप्रथम प्रकृति से महत् तत्त्व ( बुद्धि ) का स्वप्न बिना विचारे ही अकस्मात् उत्पन्न होता है, उसी आविर्भाव होता है, इसके अनन्तर अहंकार और उससे प्रकार जगत् भी अकस्मात् आविर्भूत हुआ। अन्य लोग षोडश गण उत्पन्न होते हैं । षोडश गणों से पंचीकरण जगत् को परमात्मा का क्रीडनक कहते हैं । किन्तु ये सभी द्वारा पञ्चमहाभूत बन जाते हैं, प्रकृति की परिणामधर्मता उत्तर भ्रममूलक हैं। क्योंकि आप्तकाम पूर्ण परमात्मा के अनुसार समस्तसृष्टि आगे चलकर तीन भागों में को कोई भी स्पहा स्पर्श नहीं कर सकती। सृष्टि केवल विभक्त होती है, आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधि- स्वाभाविक रूप में ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार दैविक । इनमें आधिभौतिक सृष्टि स्थावर, जङ्गम, स्वेदज, मकड़ी बिना किसी प्रयोजन के ही तन्तुसमूह को फैलाती है जरायज, अण्डज आदि के रूप में सजित है । अतः इसे जन्म एव सिकोड़ लेती है एवं पृथ्वी पर बिना कारण ही और मृत्यु नाम से भी व्यवहृत करते हैं । औषधियाँ प्रादुर्भत होती है तथा मनुष्यों के शरीर में __ आध्यात्मिकी सृष्टि अनादि और अनन्त है। प्रकृति निष्कारण ही बाल और रोम उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार भी आदि और अन्त से रहित है । अतः हम अनाद्यनन्त उस अक्षर ज्योतिर्मय ब्रह्म से समस्त विश्व उत्पन्न होता परमेश्वर की परम महाशक्ति से उद्भूत होने के कारण है। अतः यह समस्त सृष्टि स्वाभाविक है। अनाद्यनन्ता आध्यात्मिकी सृष्टि की नित्य सत्ता को स्वी- सेतु-जल के ऊपर से जाने के लिए बनाया गया मार्ग । कार करते हैं। यही आध्यात्मिक सृष्टि अनन्त कोटि इसके दान का महत् फल बतलाया गया है : ब्रह्माण्डमय विराट् पुरुष का विग्रह है । श्रुति के अनुसार सेतुप्रदानादिन्द्रस्य लोकमाप्नोति मानवः । इस ब्रह्माण्ड के चारों ओर इस प्रकार के अनन्त ब्रह्माण्ड प्रपाप्रदानाद्वरुणलोकमाप्नोत्यसंशयम् ।। प्रकाशित है । और उन सभी ब्रह्माण्डों में सत्त्व, रजस्, संक्रमाणान्तु यः कर्ता स स्वर्ग तरते नरः । तमः प्रधान ईश्वरांश स्वरूप अनन्त कोटि ब्रह्मा, विष्णु स्वर्गलोके च निवसेदिष्टकासेतुकृत् सदा ॥ एवं रुद्र वास करते हैं । ये अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड आकाश (मठादि प्रतिष्ठातत्त्व) में इसी प्रकार भ्रमण करते हैं, जिस प्रकार समुद्र में [मानव सेतु-प्रदान से इन्द्रलोक को प्राप्त करता है । अनन्त मत्स्य एवं जल बुद्बुद भ्रमणशील रहते हैं। प्याऊ की व्यवस्था करने से वह वरुण लोक को जाता इस प्रकार व्यापक परमेश्वर की सत् चित् सत्ता के है। जो संक्रमणों (बाँध) का निर्माण करता है वह स्वर्ग आश्रय से महाशक्ति प्रकृति की स्वाभाविक त्रिगुणमय में निवास करता है । आध्यात्मिक सृष्टि का अनन्त विस्तार हो रहा है, जिसकी सेवा-सेवा का महत्त्व सभी धर्मों में स्वीकार किया गया न उत्पत्ति ही है, और न नाश ही है। वैष्णव धर्म में इसको साधना के रूप में माना गया आधिदैविक सृष्टि आध्यात्मिक सृष्टि से सर्वथा भिन्न है। वैष्णव संहिताएं, जो वैष्णव धर्म के कल्पसूत्र हैं, है। इसका सम्बन्ध एक एक ब्रह्माड से रहता है। यह सम्पूर्ण वैष्णव शिक्षा को चार भागों में बाँटती हैं : सृष्टि अनित्य या नश्वर होती है, इसकी उत्पत्ति, स्थिति १. ज्ञानपाद (दार्शनिक धर्म विज्ञान), एवं प्रलय हुआ करते हैं। जिस प्रकार महासागर की २ योगपाद (मनोवैज्ञानिक अभ्यास) तरंगें एक साथ सहसा नष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार आधि- ३. क्रियापाद (लोकोपकारी पूर्त कर्म) और दैविक सृष्टि के अन्तर्गत एक एक ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, ४. चर्यापाद (धार्मिक कृत्य)। निश्चित समयतक उसकी स्थिति और प्रलय होते हैं। क्रियापाद को क्रियायोग भी कहते हैं। क्रियापाद सृष्टि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह क्यों होती और चर्यापाद के अन्तर्गत सेवा का समावेश है। भक्तिहै ? ईश्वर ने किसलिए इस दुःखमय संसार का सर्जन मार्ग में, विशेषकर वल्लभ-सम्प्रदाय में, भगवान कृष्ण की किया। इत्यादि अनेक प्रकार के प्रश्न किये जाते हैं, और सेवा का विस्तृत विधान है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रचउनके उत्तर में अनेक मस्तिष्क विभिन्न प्रकार के समाधान लित पुष्टिमार्ग का दूसरा नाम ही 'सेवा' है। पुराणों में Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० सेवापराष भगवान् विष्णु की सेवा का विस्तृत वर्णन है (दे० पद्म- (४) मृत मनुष्य को छू कर बिना स्नान किए विष्णु के पुराण, क्रियायोगसार, अध्याय ९-१०; वही अध्याय पास जाना। ११-१३) पुराणों में वणित सेवा प्रायः कर्मकाण्डीय है। (५) रजस्वला को छूकर विष्णु-मंदिर में प्रवेश करना । परन्तु पुष्टिमार्ग' की सेवा मुख्यतः भावनात्मक है । सेवा (६) मानव शव को स्पर्श कर बिना स्नान किए विष्ण के तीन स्थान हैं-(१) गुरु (२) सन्त और (३) प्रभु । प्रथम दो साधन और अंतिम साध्य है । गुरु-सेवा भक्ति का प्रथम सोपान है और अनिवार्य भी। उपनिषदों तक में (७) विष्णु का स्पर्श करते हुए अपान वायु छोड़ना । इसकी महिमा गायी गयी है। निर्गुण और सगुण दोनों (८) विष्णु कर्म करते हुए पुरीष-त्याग । भक्तिमार्गों में गुरु की बड़ी महिमा है । नानक ने जिस (९) विष्णु शास्त्र का अनादर करके दूसरे शास्त्रों की सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, उसमें गुरु प्रथम पूजनीय है। प्रशंसा। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के प्रारम्भ में (१०) मलिन वस्त्र पहनकर विष्णु कर्म करना । गुरु की बड़ी महिमा गायी है । सन्त-सेवा भक्ति का दूसरा (११) अविधान से आचमन कर विष्णु के पास जाना । चरण है। इसका माहात्म्य पुराणों में विस्तार से दिया (१२) विष्णु अपराध करके विष्णु के पास जाना । (१३) क्रोध के समय विष्णु का स्पर्श । हुआ है (दे० गरुडपुराण, उत्तरखण्ड, धर्मकाण्ड) । (१४) निषिद्ध पुष्प से विष्णु का अर्चन कराना । सेवा का तीसरा और अंतिम चरण है प्रभु-सेवा जो (१५) रक्त वस्त्र धारण कर विष्णु के पास जाना । साध्य है । यहाँ सेवा का अर्थ है भगवान् की स्वरूपसेवा । (१६) अन्धकार में दीपक के बिना विष्णु का स्पर्श । इसके दो प्रकार हैं-(१) क्रियात्मक और भावनात्मक । (१७) काला वस्त्र पहनकर विष्णु पूजाचरण । क्रियात्मक सेवा के भी दो प्रकार हैं-(१) तनुजा तथा (२) वित्तजा । जो सेवा शरीर से की जाती है उसको (१८) कौआ से अपवित्र वस्त्र पहन कर विष्णु-कर्म करना। तनुजा और जो सेवा सम्पत्ति के द्वारा की जाती है उसे वित्तजा कहते हैं। भावात्मक सेवा मानसिक होती है । (१९) विष्णु को कुत्ता का उच्छिष्ट अर्पित करना । इसमें सम्पूर्ण भाव से प्रभु के सम्मुख आत्मसमर्पण किया (२०) वराह मांस खाकर विष्णु के पास जाना। जाता है । इसके भी दो भेद हैं-(१) मर्यादा सेवा और (२१) हंसादि का मांस खाकर विष्णु के पास जाना । (२२) दीपक छूकर बिना हाथ धोये विष्णु का स्पर्श (२) पुष्टिसेवा। प्रथम में ज्ञान, भजन, पूजन, श्रवण अथवा कर्माचरण । आदि साधनों द्वारा भगवान् के सायुज्य की कामना की। जाती है । इसमें नियम-उपनियम, विधिनिषेध का पर्याप्त (२३) श्मशान जाकर बिना स्नान किए विष्णु के पास स्थान है। इसीलिए इसको मर्यादा सेवा कहते हैं । इसमें निर्बन्ध अथवा उन्मुक्त समर्पण नहीं। पुष्टिसेवा में प्रभु (२४) पिण्याक भोजन कर विष्ण के पास जाना । के सम्मुख विधि निषेध रहित उन्मुक्त समर्पण है । यह सेवा (२५) विष्णु को वराह मांस का निवेदन । साधनरूपा नहीं, साध्यरूपा है। (२६) मद्य लाकर, पीकर अथवा छुकर विष्णु मंदिर सेवापराष-'आचारतत्त्व' में बत्तीस प्रकार के सेवापराध जाना । बतलाये गये हैं। भगवान की पूजा के प्रसंग में इनका (२७) दूसरे के अशुचि वस्त्र को पहनकर विष्णु कर्मापरिवर्जन आवश्यक है : चरण । (१) भगवद्भक्तों का क्षत्रिय सिद्धान्न भोजन । (२८) विष्णु को नवान्न न अर्पित कर भोजन करना । (२) मल-मूत्र त्याग, स्त्री सेवन के बाद बिना स्नान (२९) गन्ध-पुष्प दिए बिना धूपदान करना । किए विष्णुमति के पास जाना। (३०) उपानह पहनकर विष्णु-मंदिर में प्रवेश । (३) अनिषिद्ध दिन में बिना दन्तधावन किए विष्णु के (३१) भेरी शब्द के बिना विष्णु का प्रबोधन । पास पहुँचना। (३२) अजीर्ण होने पर विष्णु का स्पर्श । जाना। Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम ६८१ वाराह पुराण के अपराध-प्रायश्चित्त नामक अध्याय में मिलाना । वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव सेवापराधों की लम्बी सूची पायी जाती है । वर्णन उपलब्ध है। देवताओं के लिए समर्पण का यह सोम-सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं। मत्स्यपुराण मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उप(५-२१ ) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार योग होता था। सबसे अधिक सोमरस पीनेवाले इन्द्र और वायु हैं। पूषा आदि को भी यदाकदा सोम अर्पित आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोऽनलः । किया जाता है। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।। स्वर्गीय सोम की कल्पना चन्द्रमा के रूप में की गयी ऋग्वेदीय देवताओं में महत्त्व की दृष्टि से सोम का है। छान्दोग्योपनिषद् (५.१०.४) में सोम राजा को स्थान अग्नि तथा इन्द्र के पश्चात तीसरा है। ऋग्वेद का देवताओं का भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण सम्पूर्ण नवाँ मण्डल सोम की स्तुति से परिपूर्ण है। इसमें (७१०) में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस सब मिलाकर १२० सूक्तों में सोम का गुणगान है। सोम प्रकार की गयी है : "दृश्य चन्द्रमा ही सोम है । सोमलता की कल्पना दो रूपों में की गयी है-(१) स्वर्गीय लता जब लायी जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। का रस और (२) आकाशीय चन्द्रमा । देव और मानव जब कोई सोम खरीदता हैं तो इस विचार से कि "दृश्य दोनों को यह रस स्फूति और प्रेरणा देनेवाला था। चन्द्र ही सोम है; उसी का रस पेरा जाय।" देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है। वह स्वयं अमर सोम पीकर ही दिखलाते थे। काण्व ऋषियों ने मानवों तथा अमरत्व प्रदान करनेवाला है । वह पितरों से मिलता पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है : "यह शरीर है और उनको अमर बनाता है (ऋ० ८.४८.१३)। की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; कहीं कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है । बढ़ाता है; सम्पत्ति का संवर्द्धन करता है। विद्वेषों से बचाता अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है। वह विधि का है; शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है; उल्लास अधिष्ठान और ऋत की धारा है । वह सत्य का मित्र है उत्पन्न करता है। उत्तेजित और प्रकाशित करता है; अच्छे दे० ऋ०९९७ १८.७.१०४ । सोम का नैतिक स्वरूप उस विचार उत्पन्न करता है; पाप करने वाले को समृद्धि का समय अधिक निखर जाता है जब वह वरुण और आदित्य से अनुभव कराता है; देवताओं के क्रोध को शान्त करता है से संयुक्त ोता है : “हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन और अमर बनाता है (दे० ऋग्वेद ८.४८) । सोम विप्रत्व विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय और ऋषित्व का सहायक है (वही ३.४३.५) मित्र के समान तुम सर्वाङ्ग पवित्र हो: तुम अर्यमा के सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है-(१) स्वर्ग और समान वन्दनीय हो ।" (ऋ० १.९१३)। (२) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से वैदिक कल्पना के इन सूत्रों को लेकर पुराणों में सोमपृथ्वी पर आया । ऋग्वेद (१९३.६) में कथन है: सम्बन्धी बहत सी पुरा कथाओं का निर्माण हुआ । वाराह"मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर पुराण में सोम की उत्पत्ति का वर्णन पाया जाता है : उतारा; गरुत्मान् ने दूसरे को मेघशिलाओं से।" इसी ___ "बह्मा के मानस पुत्र महातपा अत्रि हए जो दक्ष के प्रकार (९.६१.१०) में कहा गया है : “हे सोम, तुम्हारा जामाता थे। दक्ष की सताईस कन्यायें थीं; वे ही सोम जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि की पत्नियाँ हुई। उनमें रोहिणी सबसे बड़ी थी। सोम पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का केवल रोहिणी के साथ रमण करते थे, अन्य के साथ पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गन्धार-कम्बोज प्रदेश) है। नहीं । औरों ने पिता दक्ष के पास आकर सोम के विषय(ऋग्वेद १०.३४.१)। व्यवहार के सम्बन्ध में निवेदन किया। दक्ष ने सोम को सोम रस बनाने की प्रक्रिया नैदिक यज्ञों में बड़े महत्त्व सम व्यवहार करने के लिये कहा । जब सोम ने ऐसा की है। इसकी तीन अवथास्यें है-पेरना. छानना और नहीं किया तो दक्ष ने शाप दिया, "तुम अन्तहित (लुप्त) Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ सोमतीर्थ-सोमवारव्रत हए, हो जाओ”। दक्ष के शाप से सोम क्षय को प्राप्त हुआ। सोम के नष्ट होने पर देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और विशेष कर सब औषधियाँ क्षीण हो गयीं।""देव लोग चिन्तित होकर विष्णु की शरण में गये । भगवान् ने पूछा, 'कहो क्या करें ?' देवताओं ने कहा, 'दक्ष के शाप से सोम नष्ट हो गया ।' विष्णु ने कहा कि 'समुद्र का मन्थन करो।' ... "सब ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया। उससे सोम पुनः उत्पन्न हुआ। जो यह क्षेत्रसंज्ञक श्रेष्ठ पुरुष इस शरीर में निवास करता है उसे सोम मानना चाहिए; वही देहधारियों का जीवसंज्ञक है । वह परेच्छा से पृथक् सौम्य मूर्ति को धारण करता है । देव, मनुष्य, वृक्ष ओषधी सभी का सोम उपजीव्य है । तब रुद्र ने उसको सकल ( कला सहित ) अपने सिर में धारण किया ।...." सोमतीर्थ-प्रभासतीथं का दूसरा नाम ( सोमेन कृतं तीर्थ सोमतीर्थम्)। महाभारत (३-८३.१९) में इसके माहात्म्य का वर्णन मिलता है । इस तीर्थ में स्नान करने से राजसूय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है । वाराह पुराण (सौकरतीर्थ माहात्म्याध्याय ) में इसका विस्तृत वर्णन है। सोमयाग-जिस यज्ञ में सोमपान तथा सोमाहुति प्रधान अङ्ग होता है और जिसका सत्र तीन वर्षों तक चलता रहता है उसे सोमयाग कहते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों तथा श्रौतसूत्रों में इसका विस्तार से वर्णन है । ब्रह्मवैवर्त पुराण (श्रीकृष्णजन्मखण्ड, ६०-५४-५८ ) में इसका वर्णन इस प्रकार है : स्थान, अध्याय २९ ) में इसका विस्तृत वर्णन है। यह लता कश्मीर के पश्चिमोत्तर हिन्दूकुश की ओर से प्राप्त की जाती थी। सोमवंश-पराणों के अनुसार सोम (चन्द्रमा ) से उत्पन्न वंश सोमवंश अथवा चन्द्रवंश कहलाता है। चन्द्रमा के पुत्र बुध और मनु की पुत्री इला के विवाह से पुरूरवा का जन्म हुआ, जिसे ऐल ( इला से उत्पन्न ) कहते थे । इस उपनाम के कारण सोमवंश ऐलवंश भी कहलाता है ! इस वंश की आदि राजधानी प्रतिष्ठान (प्रयाग के पास झसी थी) गरुड पुराण ( अध्याय १४३-१४४ ) तथा अन्य कई पुराणों में सोमवंश के राजाओं की सूची पायी जाती है। सोमवती अमावस्या-सोमवार के दिन पड़नेवाली अमावस्या बड़ी पवित्र मानी जाती है। इस दिन लोग (विशेष रूप से स्त्री वर्ग) पीपल के वृक्ष के पास जाकर विष्णु भगवान की पूजा कर वृक्ष की १०८ परिक्रमाएँ करते हैं। 'व्रतार्क' ग्रन्थ के अनुसार यह व्रत बड़े बड़े धर्मग्रन्थों में वर्णित नहीं है, किन्तु व्यवहार रूप में ही इसका प्रचलन है । सोमवार व्रत-प्रति सोमवार को उपवासपूर्वक सायंकाल शिव अथवा दुर्गा का पूजन जिस व्रत में किया जाता है उसको सोमवार व्रत कहते हैं। स्कन्दपुराण ( ब्रह्मोत्तरखण्ड, सोमवार व्रत माहात्म्य, अध्याय ८) में इसका विवरण मिलता है : सोमवारे विशेषेण प्रदोषादिगुणर्युते । केवलं वापि ये कुर्युः सोमवारे शिवार्चनम् ।। न तेषां विद्यते किञ्चिदिहामुत्र च दुर्लभम् ॥ उपोषितः शुचिर्भत्वा सोमवारे जितेन्द्रियः । वैदिकैलौकिकवापि विधिवत्पूजयेच्छिवम् ॥ ब्रह्मचारी गृहस्थो वा कन्या वावि सभर्तका । विभर्तृका वा संपूज्य लभते वरमभीप्सितम् ।। सामान्य नियम है कि श्रावण, वैशाख, कार्तिक अथवा मार्गशीर्ष मास के प्रथम सोमवार से व्रत का आरम्भ किया जाय । इसमें शिव की पूजा करते हुए पूर्ण उपवास अथवा नक्त विधि से आहार करना चाहिए। वर्षकृत्य दीपिका में सोमवार व्रत तथा उद्यापन का विशद वर्णन मिलता है। आज भी श्रावण मास के सोमवारों को पवित्रतम माना जाता है। ब्रह्महत्याप्रशमनं सोमयागफलं मने । वर्ष सोमलतापानं यतमानः करोति च ।। वर्षमेंकं फलं भुङ्क्ते वर्षमेकं जलं मुदा । त्रैवार्षिकमिदं यागं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ यस्य वार्षिकं धान्यं निहितं भूतिवृद्धये । अधिक वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति ।। महाराजश्च देवो वा यागं कर्तुमलं मुने । न सर्वसाध्यो यज्ञोऽयं बह्वन्नो बहुदक्षिणः ॥ सोमयाजी-सोम याग कर चुकने वाले । सोमयज्ञ संपादन करने के पश्चात् यजमान की यह उपाधि होती थी। सोमलता-एक ओषधिविशेष । यज्ञ में इसके रस का पान किया जाता था और आहुति होती थी। आयुर्वेद में भी यह बहुत गुणकारी मानी गयी है। सुश्रुत ( चिकित्सा- Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमविक्रयो-सौदायिक ६८३ सोमविक्रयी-सोमलता अथवा उसके रस को बेचने वाला। भाग में चन्दन का प्रलेप तथा कर्पूर तथा वाम भाग में ऐसा करना पाप माना जाता था। सोमविक्रयी को दान केसर तथा तुरुष्क (लोवान धूप) लगाया जाय । देवीजी के देने वाला भी पापी माना जाता है । दे० मनु ३. १८०। शिरोभाग पर नीलम तथा शिवजी के सिर पर मुक्ता सोमवत-(१) यदि मास के किसी भी पक्ष में सोमवार स्थापित किया जाय । ततः श्वेत तथा अरुणाभ पुष्पों से को अष्टमी पड़ जाय तो व्रती को उस दिन शिव की पूजन होना चाहिए। सद्योजात नाम से तिलों का प्रयोग आराधना करनी चाहिए। प्रतिमा का दक्षिण पार्श्व शिव करते हुए होम करना चाहिए । वामदेव, सद्योजात, अघोर, का तथा वाम पार्श्व हरि तथा चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व तत्पुरुष और ईशान भगवान् शिव के पाँच मुख या रूप करता है। सर्वप्रथम शिवलिङ्ग को पञ्चामृत से स्नान हैं । दे० तैत्तिरीय आरण्यक १०.४३-४७ । कराकर चन्दन तथा कपूर दक्षिण पार्श्व में तथा केसर, सोरों ( सूकरक्षेत्र अथवा वाराहक्षेत्र)-उत्तर प्रदेश में अगर, उशीर वाम पार्श्व में लगाकर २५ दीपकों से देव एटा कासगंज से नौ मील गङ्गातट पर सोरों तीर्थ है । तथा देवी की नीराजना करनी चाहिए । तदनन्तर ब्राह्मणों वाराह क्षेत्र के नाम से भारत में कई स्थान हैं। उनमें से को सपत्नीक बुलाकर भोजन कराना चाहिए। एक वर्ष- एक स्थान सोरों भी है। प्राचीन समय में यह तीर्थ गङ्गा पर्यन्त इस व्रत का आचरण होना चाहिए। के तट से लगा हुआ था । कालक्रम से अब गङ्गाधारा (२) माघ शक्ल चतुर्दशी को उपवास करके पणिमा कुछ मील दूर हट गयी है । पुराने प्रवाह का स्मारक एक के दिन शिवजी के ऊपर एक कम्बल में घी भरकर शिखा ___ लंबा सरोवर घाटों के किनारे रह गया है जिसे 'बूढ़ो की ओर से वेदी की ओर टपकाया जाय। तदनन्तर एक गङ्गा' कहा जाता है। इसके किनारे अनेक घाट और जोड़ी श्यामा गौएँ दान में दी जाँय । रात्रि को गीत मन्दिर बने हुए हैं। मुख्य मन्दिर में श्वेतवाराह की चतुवाद्यादि सहित नृत्य का आयोजन होना चाहिए। भुज मूर्ति है । सोरों की पवित्र परिक्रमा ५ मील है। यहाँ (३) मार्गशीर्ष मास अथवा चैत्र मास के प्रथम पुराण प्रसिद्ध चार बटों में 'गृद्धबट' नामक वृक्ष स्थित सोमवार को अथवा किसी भी अन्य सोमवार को जब है । उसके नीचे, बटुकनाथ का मन्दिर है । 'हरिपदो गङ्गा' पूजा की तीव्र लालसा उत्पन्न हो, शिवजी की पूजा श्वेत (बूढ़ी गङ्गा) नामक कुण्ड में दूर दूर के कई प्रान्तों से लोग पुष्पों ( जैसे मालती, कुन्द इत्यादि ) से करनी चाहिए। अस्थिविसर्जन करने के लिए यहाँ आते रहते हैं। कुछ चन्दन का प्रलेप लगाया जाय । तत्पश्चात नैवेद्यार्पण होना लोग इसे तुलसीदासजी की जन्मभूमि मानते हैं ( 'सो मैं चाहिए । होम भी विहित है। सोमवार के दिन नक्तविधि निज गुरु सन सुनी कथा सु सूकर खेत' के अनुसार )। यहीं अष्टछाप के कवि नन्ददास द्वारा स्थापित बलदेव जी से आहारादि करने पर महान् पुण्यफल प्राप्त होता है का मन्दिर है। योगमार्ग नामक स्थान तथा सूर्यकुण्ड सोमायनवत-एक मास तक इस व्रत का अनुष्ठान होता यहाँ के विख्यात तीर्थ हैं । दे० 'शकर क्षेत्र' । है । व्रती सात दिनों तक लगातार गौ के चारों स्तनों के । सौत्रामणी-एक प्रकार का वैदिक यज्ञ । इस के देवता सुत्रामा दूध का आहार कर प्राण धारण करता है । तत्पश्चात् सात दिनों तक केवल तीन स्तनों के दूध को पीकर तथा पुनः (इन्द्र) हैं, इस लिए यह सौत्रामणी कहलाता हैं । यजुर्वेद की काण्वशाखा के तीन अध्यायों (२१,२२,२३) में इसकी सात दिन तक केवल एक स्तन का दूध पीने के पश्चात् प्रक्रिया बतलायी गयी है। इसमें सुरा का सन्धान होता अन्त में तीन दिनों तक निराहार रहता है। इससे व्रती है । इस याग में ब्राह्मण सुरा पीकर पतित नहीं होता। के समस्त पाप क्षय हो जाते हैं । दे० मार्कण्डेय पुराण । सोमाष्टमी-यह तिथिव्रत है। शिव तथा उमा इसके सौत्रामण्यां कुलाचारे ब्राह्मणः प्रपिबेत् सुराम् । अन्यत्र कामतः पीत्वा पतितस्तु द्विजो भवेत् ॥ देवता है । यदि सोमवार के दिन नवमी हो तो शिव तथा उमा का रात्रि को पूजन किया जाय। पञ्चगव्य से कात्यायनसूत्रभाष्य में इसका सविस्तर वर्णन है। प्रतिमाओं को स्नान कराया जाय । शिवजी का वामदेव सौदायिक-स्त्रीधन का एक प्रकार । पिता, माता, पति के आदि नामों से पूजन करना चाहिए। प्रतिमा के दक्षिण कुल, सम्बन्धियों से जो धन स्त्री को प्राप्त होता है उसे Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ सौभाग्य-सौरसम्प्रदाय ना सौदायिक कहते हैं। कात्यायन ने इसकी परिभाषा इस उल्लेख कर पूजन करना चाहिए । प्रतिमास विशेष प्रकार प्रकार दी है : के पुष्य पूजा में प्रयुक्त हों। व्रती कम से कम एक फल ऊढया कन्यया वापि पत्युः पितगृहेऽथवा । का एक वर्ष के लिए त्याग करे। व्रत के अन्त में पर्यभर्तुसकाशात पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम् ।। कोपकरण तथा अन्य सज्जा की सामग्री, सुवर्ण की गौ इस धन के उपयोग में स्त्री स्वतन्त्र होती है : तथा वृषभ का दान करना चाहिए। इससे सौभाग्य, सौदायिके सदा स्त्रीणां स्वातन्त्र्यं परिकीर्तितम् । स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा दीर्धायु प्राप्त होती है। विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्थावरेष्वपि । सौभाग्याष्टक-मत्स्यपुराण (६०.८-९) के अनुसार आठ सौभाग्य--एक व्रत का नाम । वाराहपुराण (सौभाग्यवत- वस्तुएँ ऐसी है, जिन्हें सौभाग्य सूचक माना जाता है :नामाध्याय) में इसका वर्णन मिलता है। यह वार्षिक व्रत गन्ना, पारद, निष्पाव (गेहूँ का बना खाद्य पदार्थ है। फाल्गुन शुक्ल तृतीया से इसका आरम्भ होता है। जिसमें दुग्ध तथा घृत प्रयुक्त किया गया हो), अजाजी उस दिन नक्त विधि से उपवास करके लक्ष्मीनारायण । (जीरा), धान्यक (धनियाँ), गौ का दधि, कुसुम्भ तथा अथवा उनके दूसरे स्वरूप गौरीशंकर का षोडशोपचार लवण । कृत्यरत्नाकर के अनुसार यह 'तवराजः (शकरपूजन करना चाहिए। लक्ष्मी-गौरी तथा हरि-हर में अभेद कन्द) तथा व्रतराज के अनुसार 'तरुराजः' (खजूर का बुद्धि रखकर किसी भी युगल की श्रद्धापूर्वक आराधना वृक्ष) है। पद्मपुराण (५.२४-२५१) कुछ अन्तर से इनका करनी चाहिए। फिर “गम्भीराय सुभगाय देवदेवाय त्रिनेत्राय परिगणन करता है तथा कहता है : तरुराज कुसुम वाचस्पतये रुद्राय स्वाहा' मन्त्रवाक्यों से अंगपूजा करनी (कुस्तुम्बरु) तथा जीरक (जीरा)। सौभाग्याष्टक के लिए चाहिए और तिल, धृत, मधु से होम करना चाहिए। देखिए, भविष्योत्तर पुराण (२५.९)। तदनन्तर लवण और घत से रहित भने हए गेहँ भूमि में सौरसम्प्रदाय-सूर्यपूजा करने वाले सम्प्रदाय को सौर सम्प्रदाय रखकर खाने चाहिए। पूजन-व्रत की यह विधि चार कहते हैं। त्रिमूर्तियों-(१) ब्रह्मा (२) विष्णु और (३) मास तक चलती है। इसका पारण करने के बाद पुनः शिव-को आधार मानकर तीन मुख्य सम्प्रदायों, ब्राह्म, आषाढ शुक्ल तृतीया तथा कार्तिक शुक्ल तृतीया से वैष्णव और शैव का विकास हुआ। पुनः उपसम्प्रदायों का चार-चार मास का यही क्रम चलता है। इनके मध्य विकास होने लगा। वैष्णव सम्प्रदाय का ही एक उपप्रथम जौ, पश्चात् साँवा अन्न खाया जाता है। माघ सम्प्रदाय सौर सम्प्रदाय था। विष्णु और सूर (सूर्य) दोनों शुक्ल तृतीया को व्रत का उद्यापन होता है । इसके फल- ही आदित्य वर्ग के देवता है। सूर्योपासक सम्प्रदाय के स्वरूप सात जन्मों तक अखण्ड सौभाग्य मिलता है। रूप में कई स्थानों में इसका उल्लेख हुआ है। महासौभाग्यशयनव्रत-चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरी तथा शिव निर्वाण तन्त्र (११४०) में अन्य सम्प्रदायों के साथ इसकी की प्रतिमाओं का (प्रसिद्ध है कि चैत्र शुक्ल तृतीया को गणना हुई है : ही गौरी का शिवजी के साथ विवाह हुआ था) पञ्चगव्य शाक्ताः शेवाः वैष्णवाश्च सौरा गाणपतास्तथा । तथा सुगन्धित जल से स्नान कराकर पूजन करना विप्रा विप्रेतराश्चैव सर्वे ऽप्यत्राधिकारिणः । चाहिए। भगवती शिवा तथा भूतभावन शङ्कर की प्रति- इस सम्प्रदाय के गुरु मध्यम श्रेणी के माने जाते थे : माओं को चरणों से प्रारम्भ कर मस्तक तथा केशों को गौडाः शाल्वोद्भवाः सौरा मागधाः केरलास्तथा । प्रणामाञ्जलि देनी चाहिए। प्रतिमाओं के सम्मुख कौशलाश्च दशाणश्चि गुरवः सप्त मध्यमाः ।। सौभाग्याष्टक स्थापित किया जाय। द्वितीय दिवस प्रातः इस सम्प्रदाय का उद्गम अत्यन्त प्राचीन है । ऋग्वेद सुवर्ण की प्रतिमाओं का दान कर दिया जाय । एक वर्ष- से प्रकट है कि उस युग में सूर्य की पूजा कई रूपों में पर्यन्त प्रति तृतीया को इसी विधि की आवृत्ति की होती थी। वह आज भी किसी न किसी रूप में वर्तमान जाय । प्रतिमास भिन्न-भिन्न प्रकार के नैवेद्य, भोज्यादि है। वैदिक प्रार्थनाओं में गायत्री (सावित्री) की प्रधानता पदार्थ, भिन्न-भिन्न प्रकार के मन्त्रों का उच्चारण तथा थी। आज भी नित्य सन्ध्या-वन्दन में उसका स्थान चैत्र से ही भिन्न-भिन्न प्रकार के देवीजी नामों का सुरक्षित है। परन्तु सम्प्रदाय के रूप में इसका प्रथम Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्लेख महाभारत में पाया जाता है। जब युधिष्ठिर कथा दी हुई है। इसका उल्लेख अलबीरूनी (१०३० ई०) प्रातः काल अपने शयन-कक्ष से निकले तो एक सहस्र भी करता है। अग्निपुराण (अध्याय ५१,७३,९९) तथा सूर्योपासक ब्राह्मण उनके सामने आये । इन ब्राह्मणों के गरुडपुराण ( अध्याय ७,१६,१७,३९ ) में सूर्यमूर्तियों आठ सहस्र अनुयायी थे (दे० महाभारत ७.८२.१४-१६)। तथा सूर्यपूजा का विवेचन पाया जाता है। इस सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धान्त महाभारत, रामायण, मध्ययुग में उत्तरोत्तर वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के मार्कण्डेय पुराण आदि में पाये जाते हैं। इनके अनुसार विकास और वैष्णव सम्प्रदाय द्वारा आदित्य वर्ग के । सूर्य सनातन ब्रह्म, परमात्मा, स्वयम्भू, अज, सर्वात्मा, देवताओं को आत्मसात् करने की प्रवृत्ति के कारण धीरेसबका मूल कारण और संसार का उद्गम है । मोक्ष की धीरे सौर सम्प्रदाय का ह्रास होने लगा। फिर भी कृष्णकामना करने वाले तपस्वी उसकी उपासना करते हैं। मिश्र विरचित प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में सौर सम्प्रदाय वह वेदस्वरूप और सर्वदेवमय है। वह ब्रह्मा, विष्णु का उल्लेख आदर के साथ किया गया है। इसका एतऔर शिव का भी प्रभु है । यह सम्पदाय दार्शनिक दृष्टि त्कालीन साहित्य उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्मपुराण से अद्वैतवादी परम्परा का भक्तिमार्ग है। (अध्याय २१-२८) में सौर धर्मविज्ञान के कुछ अंशों का __ आगे चलकर विष्णुपुराण और भविष्यपुराण में विवेचन तथा उत्कल-औड्र तथा कोण्डार्क में सूर्य मन्दिर सूर्यपूजा का जो रूप मिलता है, उसमें ईरान की मित्र- का माहात्म्य पाया जाता है। बंगला भाषा में सूर्यदेव पूजा (मिथ्रपूजा) का मिश्रण है । प्राचीन भारत और ईरान की स्तुतियाँ लिखी गयीं, जिनका प्रकाशन श्री दिनेशचन्द्र दोनों देशों में सूर्यपूजा प्रचलित थी। अतः यह साम्य सेन ने किया (एपिग्राफिया इंडिका, २.३३८)। गया और सम्मिश्रण स्वाभाविक था। फिर भी सौरसम्प्रदाय जिले के गोविन्दपुर ग्राम में प्राप्त अभिलेख (११३७ ई०) मूलतः भारतीय है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं (दे० सूर्य के रचयिता कवि गङ्गाधर ने सूर्य की सुन्दर प्रशस्ति और (सूर्यपूजा)। लिखी है। पाँचवीं शती से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शती तक सौर स्कन्द-शैव परिवार के एक देवता । ये शिव के पुत्र है। सम्प्रदाय, उत्तर भारत में विशेषकर, सशक्त रूप में स्कन्द कार्तिकेय का पर्याय है। 'स्कन्द' शब्द का अर्थ प्रचलित था। कई सूर्यमन्दिरों का निर्माण हुआ और है उछलकर चलने वाला, अथवा दैत्यों का शोषण करने कई राजवंश सूर्योपासक थे। सूर्यमन्दिरों के पुजारी वाला (स्कन्दते उत्प्लु गच्छति स्कन्दति शोषयति भोजक, मग और शाकद्वीपीय ब्राह्मण होते थे। इस देत्यान् वा)। स्कन्द का दूसरा प्रसिद्ध नाम कुमार है । सम्प्रदाय का एतत्कालीन सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ सौरसंहिता कालिदास के कुमारसंभव, महाभारत, वामन पुराण, था। इसमें साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड का विस्तृत विधान कालिका पुराण आदि में स्कन्द के जन्म, कार्य, मूर्ति, है। इसकी हस्तलिपि नेपाल में पायी गयी थी जिसका सम्प्रदाय आदि का विवरण पाया जाता है। काल ९४१ ई० (१००८ वि०) है। परन्तु ग्रन्थ निश्चय स्कन्द देवसेना के नेता है। एक मत में वे सनातन ही पूर्ववर्ती है। दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ सूर्यशतक है। इसका ब्रह्मचारी रहने के कारण कुमार कहलाते हैं। परन्तु रचयिता बाण का समकालीन हर्ष का राजकवि मयूर आलंकारिक रूप से देवसेना ही उनकी पत्नी थी। देवथा। इसका काल सप्तम शती ई० का पूर्वार्द्ध था। सूर्य- सेना का नेतृत्व ही उनके प्रादुर्भाव का उद्देश्य था। शतक में सूर्य की जो कल्पना है वह पूर्ववर्ती कल्पना से वे कहीं-कहीं शिव के अवतार कहे गये हैं। उन्होंने मिलती जुलती है। सूर्य ही मोक्ष का उद्गम है, इस पर संसार को विताडित करनेवाले तारक का संहार किया। बहुत बल दिया गया है । बाण ने हर्षचरित के प्रारम्म मे स्कन्द की मूर्ति कुमारावस्था की ही निर्मित होती सूर्य की बन्दना की है । भक्तामरस्तोत्र के रचयिता जैन कवि है। उसके एक अथवा छ: शिर होते हैं और इसी क्रम मानतुङ्ग ने भो सूर्य की अतिरञ्जित स्तुति की है। इसी से दो अथवा बारह हाथ । स्कन्द का वस्त्र रक्त वर्ण का काल में उत्कल में साम्बपुराण नामक ग्रन्थ लिखा गया । होता है। उनके हाथों में धनुष-बाण, खड्ग, शक्ति, वज्र इसमें साम्ब और उनके द्वारा निमंत्रित मग ब्राह्मणों की और परशु होते हैं। उनका शक्ति (भाला) अमोघ होता Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्दपुराण है । वह शत्र का वधकर फिर वापस आ जाता है । उनका वाहन मयूर है, उनका लांछन (ध्वजचिह्न) मुर्गा है । ध्वज अग्निप्रदत्त तथा प्रलयाग्नि के समान लाल है, जो उनके रथ के ऊपर प्रज्वलित रूप में फहराता है। स्कन्द का सम्प्रदाय बहुत प्राचीन है। पतञ्जलि के महाभाष्य में स्कन्द की मूर्तियों का उल्लेख है। कतिपय कुषाण मुद्राओं पर उनका नाम अंकित है । गुप्तकाल में, विशेषकर, उत्तर भारत में, स्कन्द पूजा का बहुत प्रचार था। स्कन्द चालुक्य वंश के इष्टदेव थे। आजकल उत्तर भारत में स्कन्द पूजा का प्रचार कम और दक्षिण भारत में अधिक है। कुमार (ब्रह्मचारी) होने के कारण स्त्रियाँ उनकी पूजा नहीं करतीं । सुदूर दक्षिण के कई देवताओं मुरुगन (बालक), वेलन (शक्तिधर), शेय्यान (रक्तवर्ण) आदि से स्कन्द का अभेद स्थापित किया गया है। भारत में कई नामों से स्कन्द अभिहित होते हैं-कुमार, कार्तिकेय, गुह, रुद्रसुनु, सुब्रह्मण्य (ब्राह्मणत्व की रक्षा करने वाले), महासेन, सेनापति, सिद्धसेन, शक्तिधर, गङ्गापुत्र, शरभू, तारकजित्, षड्मुख, षडानन, पावकि आदि । योगमार्ग की साधना में स्कन्द पवित्र शक्ति के प्रतीक हैं । तपस्या और ब्रह्मचर्य के द्वारा जिस शक्ति (वीर्य) का संरक्षण होता है वही स्कन्द और कुमार है। योग में जब तक पूर्ण संयम नहीं होता तब तक शक्ति (-कुमार) का जन्म नहीं होता । सृष्टि विज्ञान में स्कन्द सूर्य की वह शक्ति है जो वायुमण्डल के ऊपर स्थित होती है और जिससे संवत्सराग्नि (वर्ष उत्पन्न करनेवाली अग्नि) का उदय होता है। स्कन्द का प्रथम उल्लेख मैत्रायणी संहिता में मिलता है । छान्दोग्योपनिषद् में स्कन्द को सनत्कुमार से अभिन्न माना गया है । गृह्यसूत्रों में भी स्कन्द का उल्लेख उनके घोर रूप में है । महाभारत और शिवपुराण में जो कथा स्कन्द की पायी जाती है वही कालिदास द्वारा कुमारसंभव में ललित रूप में कही गयी है । तन्त्रों में भी स्कन्द पूजा का विधान है। स्कन्दपुराण स्कन्द के नाम से ही प्रसिद्ध है, जो सबसे बड़ा पुराण है। स्कन्द के उपदेश इसमें वर्णित हैं। स्कन्द पुराण-कार्तिकेय अथवा स्कन्द ने इस पुराण में शिवतत्त्व का विवेचन किया है। इसीलिए इसको 'स्कन्द पुराण' कहते है । आकार में यह सबसे बड़ा पुराण है। इसमें छः संहितायें (सूत संहिता, २०.१२ के अनुसार), सात खण्ड (नारद पुराण के अनुसार) और ८१००० श्लोक हैं। इसमें निम्नांकित संहितायें हैं : १. सनत्कुमार संहिता (३६००० श्लोक) २. सूत संहिता (६००० श्लोक) ३. शङ्कर संहिता (३०००० श्लोक) ४. वैष्णव संहिता (५००० श्लोक) ५. ब्राह्म संहिता (३००० श्लोक) ६. सौर संहिता (१००० श्लोक) संहिताओं में केवल तीन ही इस समय उपलब्ध है(१) सनत्कुमार संहिता, (२) सूत संहिता (३) शङ्करसंहिता । शैव उपासना की दृष्टि से सूत संहिता का बड़ा महत्त्व है। इसमें वैदिक तथा तान्त्रिक दोनों प्रकार की पूजाओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। इस पर माधवाचार्य की 'तात्पर्यदीपिका' नामक एक विशद व्याख्या है । इस संहिता के चार खण्ड है-(१) शिव माहात्म्य, (२) ज्ञानयोग खण्ड, (३) मुक्तिखण्ड और (४) यज्ञवैभव खण्ड । अंतिम खण्ड सबसे बड़ा है। उसके दो भाग हैं-पूर्वभाग और उत्तर भाग । यह खण्ड दार्शनिक दृष्टि से भी महत्त्व का है। इसके उत्तर भाग में दो गीतायें सम्मिलित है-ब्रह्म गीता और सूत गीता । इनका विषय भी दार्शनिक है। इसमें यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि मुक्ति और भक्ति सब कुछ शिव के प्रसाद से ही संभव है । शङ्कर संहिता कई भागों में विभक्त है । इसके प्रथम खण्ड को 'शिवरहस्य' कहते हैं। इसमें सात काण्ड और १३००० श्लोक है। इसके सात काण्ड इस प्रकार हैं-(१) संभव काण्ड (२) आसुर काण्ड (३) माहेन्द्रकाण्ड (४) युद्ध काण्ड (५) देवकाण्ड (६) दक्षकाण्ड और (७) उपदेश काण्ड । सनत्कुमार संहिता में केवल बाईस अध्याय हैं । स्कन्दपुराण के खण्डों का विवरण निम्नांकित है : १. माहेश्वर खण्ड के दो उपखण्ड हैं-केदार खण्ड और कुमारिका खण्ड । इन दोनों में शिव-पार्वती की लीलाओं एवं तीर्थ व्रत, पर्वत आदि के सुन्दर वर्णन है। २. वैष्णव खण्ड के अन्तर्गत उत्कल खण्ड है जिसमें जगन्नाथ जी के मन्दिर का वर्णन पाया जाता है। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्दषष्ठी स्तुति ३. ब्रह्मखण्ड के दो उपविभाग हैं - ( १ ) ब्रह्मास्य खण्ड और (२) ब्रह्मोत्तर खण्ड । इसके दूसरे उपविभाग में उज्जयिनी और महाकाल का वर्णन है। ४. काशीखण्ड में काशी की महिमा तथा शैवधर्म का वर्णन है । ५. (क) रेवाखण्ड में नर्मदा की उत्पत्ति और इसके तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है। इसी के अन्तर्गत सत्यनारायण व्रत कथा भी मानी जाती है । ५. (ख) अवन्तीखण्ड में उज्जयिनी में स्थित विभिन्न शिवलिङ्गों का वर्णन है । । ६. तापीखण्ड में तापीनदी के तटवर्ती तीर्थों का वर्णन है । इसके षष्ठ उपखण्ड का नाम नागरखण्ड है । इसके तीन परिच्छेद हैं- ( १ ) विश्वकर्मा उपाख्यान (२) विश्वकर्मा वंशाख्यान और (३) हाटकेश्वर माहात्म्य | तीसरे खण्ड में नागर ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन है । ७. प्रभास खण्ड में प्रभास क्षेत्र का सविस्तर वर्णन है । 'सह्याद्रिखंड' आदि इसके प्रकीर्ण कतिपय अंश और भी प्रचलित हैं । स्कन्दषष्ठी - आश्विन शुक्ल पक्ष की पष्ठी को स्कन्दषष्ठी कहा जाता है। पञ्चमी के दिन उपवास रखते हुए षष्ठी के दिन कुमार ( स्वामी कार्तिकेय ) की पूजा की जाती है । 'निर्णयामृत' के अनुसार दक्षिणापथ में भाद्र शुक्ल षष्ठी को स्वामी कार्तिकेय की प्रतिमा का दर्शन कर लेने से ब्रह्महत्या जैसे महान् पातकों से मुक्ति मिल जाती है। तमिलनाडु में स्कन्दषष्ठी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जैसा कि सौर वृश्चिक मास ( कार्तिक शुक्ल ६) में पचाङ्गों में उल्लिखित रहता है तथा जो देवालयों एवं गृहों में समारोहपूर्वक मनाया जाता है। हेमाद्रि 'चतुर्वर्ग चिन्तामणि' (६२२) में ब्रह्मपुराण से कुछ श्लोक उ करते उद्धृत हुए बतलाते हैं कि अमावस्या के दिन अग्नि से स्कम्य की उत्पत्ति हुई थी तथा वे चैत्र शुक्ल ६ को प्रकट हुए थे और तत्पश्चात् उन्हें समस्त देवों का सेनाध्यक्ष बनाया गया और उन्होंने तारक नामक राक्षस का बध किया । अतएव दीपों को प्रज्ज्वलित करके वस्त्रों से साजसज्जाओं से ताम्रचूड ( क्रीडन सामग्री के रूप में ) इत्यादि से उनकी पूजा की जाय अथवा शुक्ल पक्ष की समस्त षष्ठियों को बच्चों के सुस्वास्थ्य की कामना वाले स्कन्द जी का पूजन होना चाहिए। ६८७ - स्कन्दषष्ठी व्रत कार्तिक शुक्ल षष्ठी को फलाहार करते हुए दक्षिणाभिमुख होकर स्वामी कार्तिकेय को अध्यं प्रदान करके उन्हें दही, घी, जल मन्त्र बोलकर समर्पित किये जाते हैं। व्रती को रात्रि के समय खाली भूमि पर भोजन रखकर उसे ग्रहण करना चाहिए। इससे उसे सफलता, समृद्धि, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य तथा खोया हुआ राज्य प्राप्त होता है। व्रती को पष्ठी के दिन ( कृष्ण अथवा शुक्ल पक्ष की ) तैल सेवन नहीं करना चाहिए । पंचमी विद्वा स्कन्दपष्ठी को प्राथमिकता देनी चाहिए। 'गदाधर पद्धति' के कालसार भाग (८३-८४) के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष में स्कन्दषष्ठी होनी चाहिए । स्तम्भन – अभिचार कर्म द्वारा किसी व्यक्ति के जटीकरण को स्तम्भन कहा जाता है । यह षट्कर्मान्तर्गत एक अभिचार कर्म है । फेत्कारिणीतन्त्र ( पञ्चम पटल ) में इसका वर्णन इस प्रकार हैं । "उलूककाकयोः पक्षौ गृहीत्वा मन्त्रवित्तमः । आलिरूप में शरावे निशायाञ्च साध्याक्षरसंपुटितम् ॥ मन्त्र स्थापितवनं ( कृतप्राणप्रतिष्ठम् ) सहस्रजप्तं चतुष्पथे निखनेत् । भविता जगताञ्ज नात्र सन्देहः ॥ स्तम्भनमेतदवश्यं कृत्वा प्रतिकृतिमथवा सम्यग विष्ठितपवनां वसनाधिष्ठितपवनां दग्धं कृत्वा निखनेत् मशानदेशेः asyaण (पूर्वखण्ड १८६. स्तम्भन का विधान वर्णित है : स्मशानाङ्गारच सनजाम् । हद्गतनाम्नीं समन्त्रललाटम् ।। सहस्रजतां तदुल्या बसनाम् । सपदि वास्तम्भः ॥ ११-१८) में अग्नि माजूरस्य रसं गृह्य जलौका तत्र पेषयेत् । हस्तौ तु लेपयेत्तेन अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ शाल्मली रसमादाय खरमूत्रे निधाय तम् । अग्त्यागारे क्षिपेतेन अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ वायसीमुद गृह्य मण्डूकवसया सह । गुडिकां कारयेत्तेन ततोनी प्रक्षिपेवसी ॥ एवमेतत्प्रयोगेण अग्निस्तम्भनमुत्तमम् ॥ रक्तपाटलमूलंतु अवष्टब्धञ्च मूलकैः । दिव्यं स्तम्भयते क्षिप्रं पयं पिण्डं जलान्तकम् ॥ मुण्डीकवचाकुष्ठं मरीचं नागरं तथा । चवित्वा च इमं सद्यो जिह्वा ज्वलनं लिहेत् ॥ स्तुति - ( १ ) पूजापद्धति का एक अंग । इसका अर्थ है स्तव अथवा प्रशंसागान । इसमें देवताओं के गुणों का Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ वर्णन होता है और उनसे स्तुतिकर्ता के अथवा संसार के कल्याण की कामना की जाती है । (२) दुर्गा का एक पर्याय | देवीपुराण ( अध्याय ४५ ) के अनुसार दुर्गा के निम्नांकित नाम हैं: । स्तुति सिद्धिरितिख्याता श्रयाः संश्रयाश्च सा । लक्ष्मीर्या ललना वापि क्रमात् सा कान्तिरुच्यते ॥ स्तोता वेदमन्त्र स्तुतिपाठक था स्तवकर्ता ऋग्वेद ( ८. ४४-१८) में कथन है: "स्तोता स्यां तव शर्मणि । " निघण्टु ( ३. १३) में इसके तेरह पर्याय पाये जाते हैं । स्तोत्र - स्तुति करने की पचनावली मत्स्यपुराण (अध्याय १२१) में इसके चार प्रकार बतलाये गये हैं : ऋचो यजूंषि सामानि तथावत् प्रतिदैवतम् । विधिहोत्र तथा स्तोष पूर्ववत् सम्प्रवर्तते ॥ द्रव्यस्तो कर्मस्तोत्र विधिस्तोत्रं तथैव च । तथैवाभिजनस्तोत्र' स्तोत्रमेतच्चतुष्टयम् ॥ स्तोम - साम ( गान ) के अन्तर्गत गीत और आलाप के पूरक एवं अर्थरहित अक्षरों को स्तोम कहते हैं । छान्दोज्ञोपनिद् ब्राह्मण ( प्रथम प्रपाठक ) में इसके त्रयोदश भेद बतलाये गये हैं। स्त्रीधन - हिन्दू परिवार के पितृसत्तात्मक होने के कारण धर्मशास्त्र के अनुसार पुरुष कुलपति के मरने पर उत्तराधिकार परिवार के पुरुष सदस्यों को प्राप्त होता था । उनके अभाव में ही स्त्री उत्तराधिकारिणी होती थी। इस अवस्था में भी उसका उत्तराधिकार बाधित था। वह सम्पत्ति का केवल उपयोग कर सकती थी; वह उसे बेंच अथवा परिवार से अलग नहीं कर सकती थी । उसके मरने पर पुनः पुरुष को अधिकार मिल जाता था। यह एक प्रकार से सम्पत्ति के उत्तराधिकार का माध्यम मात्र थी । परन्तु पारिवारिक सम्पत्ति को छोड़कर उसके पास एक अन्य प्रकार की सम्पत्ति होती थी जिस पर उसका पूरा अधिकार था। वह परिवार की पैतृक सम्पत्ति से भिन्न थी । उसको स्त्रीधन कहते थे । नारद के अनुसार स्त्रीधन छः प्रकार का होता है : अध्यग्न्यभ्यावाहनिकं भर्तृदायं तथैव च । भातृदत्तं पितृभ्याञ्च षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम् ॥ [ विवाह के समय प्राप्त, विदाई के समय प्राप्त, पति से प्राप्त भाई द्वारा दिया हुआ, माता और पिता से दिया हुआ; यह छः प्रकार का स्त्रीधन कहलाता है । ] दूसरे 1 स्तोता - स्त्रीधन स्रोतों से धनसंग्रह करने में स्त्री के ऊपर प्रतिबन्ध लगा हुआ है । कात्यायन का कथन है : प्राप्तं शिल्पैस्तु यद्वित्तं प्रीत्या चैव यदन्यतः । भर्तृः स्वाम्यं भवेत्तत्र शेषंतु स्त्रीपनं स्मृतम् ॥ [ जो धन शिल्प से प्राप्त होता है अथवा दूसरे प्रेमोपहार में प्राप्त होता है उसके ऊपर पति का अधिकार होता है; शेष को स्त्रीधन कहते हैं ] काम कर के कमाया हुआ धन परिवार के अन्य सदस्यों की कमाई की भाँति परिवार की सम्पत्ति होता है, जिसका प्रबन्धक पति है । स्त्रियों को अपने सम्बन्धियों के अतिरिक्त अन्य से प्रेोपहार ग्रहण करने में प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है । कारण स्पष्ट है । मिताक्षरा (अध्याय २) ने स्त्रीधन का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया है और सभी प्रकार के स्त्रीधन पर स्त्री का अधिकार स्वीकार किया है। दायभाग (अध्याय ४) में स्त्रीधन उसी को माना गया है जिस पर स्त्री को दान देने, बेचने का और पूर्णरूप से उपयोग ( पति से स्वतन्त्र ) करने का अधिकार हो । परन्तु सौदायिक (सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक प्राप्त) पर स्त्री का पूरा अधिकार माना गया है । कात्यायन का कथन है : ऊढया कन्यया वापि पत्युः पितृगृहेऽथवा । भर्तुः सकाशात् पित्रोर्वा लब्धं सौदायिकं स्मृतम् ॥ सौदायिकं धनं प्राप्य स्त्रीणां स्वातन्त्रमिष्यते । यस्मात्तवानृशंस्यार्थ तैर्वतं तत् प्रजीवनम् ॥ सौदायिके सदा स्त्रीणां स्वातन्त्र्यं परिकीर्तितम् । विक्रये चैव दाने च यथेष्टं स्वावरेष्वपि ॥ किन्तु नारद ने स्थावर पर प्रतिबन्ध लगाया है भर्त्रा प्रीतेन हतं स्त्रियं तस्मिन्मृतेऽपि तत् । सा यथा काममश्नीयादचाहा स्वावरादृते ।। [ जो धन प्रीतिपूर्वक पति द्वारा स्त्री को दिया जाता है उस धन को पति के मरने पर भी स्त्री इच्छानुसार उपभोग में ला सकती है, अचल सम्पत्ति को छोड़ कर । ] कात्यायन के अनुसार किन्हीं परिस्थितियों में, स्त्री स्त्रीधन से वञ्चित की जा सकती है अपकार क्रियायुक्ता निर्लज्जा चार्थनाशिनी । व्यभिचाररता या च स्त्रीधनं न च सार्हति ॥ [ अपकार क्रिया में रत निलज्जा, अर्थ का नाश करनेवाली, व्यभिचारिणी स्त्री स्त्रीधन की अधिकारिणी नहीं होती । ] सामान्य स्थिति में पति आदि सम्बन्धियों का Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीपुत्रकामावाप्तिनत-स्थाणुतीर्थ ६८९ स्त्रीधन के उपयोग में अधिकार नहीं होता। विपत्ति आदि में उपयोग हो सकता है : न भर्ता नैव च सुतो न पिता भ्रातरो न च । आदाने वा विसर्ग वा स्त्रीधनं प्रभविष्णवः ॥ कात्यायन दुर्भिक्षे धर्मकायें वा व्याधौ संप्रतिरोधके । गहीतं स्त्रीधनं भर्ता नाकामी दातुमर्हति ।। याज्ञवल्क्य मत स्त्री के स्त्रीधन पर किसका अधिकार होगा, इस पर भी धर्मशास्त्र में विचार हुआ है : सामान्यं पुत्रकन्यानां मृतायां स्त्रीधनं विदुः । अप्रजायां हरेद्भर्ता माता भ्राता पितापि वा ।।-देवल पुत्र के अभाव में दुहिता और दुहिता के अभाव में दौहित्र को स्त्रीधन प्राप्त होता है : पुत्राभावे तु दुहिता तुल्यसन्तानदर्शनात् । -नारद दौहित्रोऽपि ह्यमुत्रनं संतारयति पौत्रवत् । -मनु गौतम के अनुसार स्त्रीधन अदत्ता (जिसका वाग्दान न हुआ हो), अप्रतिष्ठिता (जिसका वाग्दान हुआ हो परन्तु विवाह न हुआ हो) अथवा विवाहिता कन्या को मिलना चाहिए। माता का यौतुक (विवाह के समय प्राप्त धन) तो निश्चित रूप से कुमारी (कन्या) को मिलना चाहिए (मनु) । निःसन्तान स्त्री के मरने पर उसके स्त्रीधन का उत्तराधिकार उसके विवाह के प्रकार के आधार पर निश्चित होता था । प्रथम चार प्रकार के प्रशस्त विवाहोंब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य--में स्त्रीधन पति अथवा पतिकुल को प्राप्त होता था। अन्तिम चार अप्रशस्तआसुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पेशाच में पिता अथवा पितकुल को स्त्रीधन लौट जाता था। स्त्रीपुत्रकामावाप्तिवत-यह मास व्रत है। सूर्य इसके देवता हैं। जो स्त्रियाँ कार्तिक मास में एकभक्त पद्धति से आहार करती हुई अहिंसा आदि नियमों का पालन करती हैं तथा गुड़मिश्रित उबले हुए चावलों का नैवेद्य अर्पण करती हैं एवं षष्ठी या सप्तमी को मास के दोनों पक्षों में उपवास करती हैं वे सीधी सूर्यलोक सिधारती हैं। जब ॥ण हान पर मृत्युलोक में लोटती है तो राजा अथवा अभीष्ट पुरुष को पति रूप में प्राप्त करती हैं। स्त्रीपुंधर्म-स्त्री और पुरुष के पारस्परिक व्यवहार को स्त्रीपुंधर्म कहते हैं। अष्टादश विवादों (मुकदमों) में से एक विवाद का नाम भी स्त्रीपुंधर्म है (मनु अध्याय ८)। इसका पूरा विवरण मनुस्मृति के नवम अध्याय में पाया जाता है। स्थण्डिल-यज्ञ के लिए परिष्कृत भूमि पर बना हुआ ऊँचा चबूतरा। जहाँ बिना किसी बाधा के बैठा जा सके वह स्थान स्थण्डिल है। इसके बनाने का तिथ्यादितत्त्व में निम्नांकित विधान है : नित्यं नैमित्तिके काम्यं स्थण्डिले वा समाचरेत् । हस्तमात्रं तु तत्कुर्यात् चतुरत्नं समन्ततः ।। | नित्य, नैमित्तिक अथवा काम्य कोई भी कर्म हो स्थण्डिल पर ही करना चाहिए। इसका परिमाण चौकोर एक हस्तमात्र है। ] स्थपति-यज्ञमंडप, भवन, देवागार, राजप्रासाद, सभा, सेतु आदि का निर्माता । इसको बृहस्पतिसव नामक यज्ञ करने का अधिकार होता है। मत्स्यपुराण (२१५. ३९) में इसका लक्षण निम्नांकित है : वास्तुविद्याविधानज्ञो लघुहस्तो जितश्रमः । दीर्घदर्शी च शूरश्च स्थपतिः परिकीर्तितः ।। [वास्तुविद्याविधान का ज्ञाता, हस्तकला में कुशल, कभी न थकने वाला, दीर्घदर्शी तथा शूर को स्थपति कहा जाता है। ] स्थाणु-शिव का एक पर्याय । इसका अर्थ है जो स्थिर रूप से वर्तमान है। वामनपुराण (अध्याय ४६) में पुराकथा के रूप में इसका कारण बतलाया गया है : समुत्तिष्ठन् जलात्तस्मात् प्रजास्ताः सृष्टवानहम् । ततोऽहं ताः प्रजा दृष्ट्वा रहिता एव तेजसा ।। क्रोधेन महता युक्तो लिङ्गमुत्पाद्य चाक्षिपम् । उत्क्षिप्तं सरसो मध्ये ऊर्ध्वमेव यदा स्थितम् । तदा प्रभृति लोकेषु स्थाणुरित्येव विश्रुतम् ॥ [ मैंने जल से उठकर उन प्रजाओं की उत्पत्ति की । इसके पश्चात् देखा कि वे तेज से रहित हैं। तब महान् क्रोध से युक्त होकर मैंने शिवलिङ्ग की सृष्टि की और उसे जल में फेंक दिया। वह उत्क्षिप्त लिङ्ग जल के बीच में ऊर्ध्व (ऊपर उठा हुआ) स्थित हो गया तब से लोक में वह स्थाणु नाम से प्रसिद्ध है।] स्थाणु तीर्थ-कुरुक्षेत्र के समीप अम्बाला से २७ मील पर स्थित एक शैव तीर्थ । अब यह थानेश्वर कहलाता है। इसके निकट सान्निहत्य सरोवर था। इसका माहात्म्य वामनपुराण (अध्याय ४३) में दिया हुआ है : ८७ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० स्थाण्वीश्वर-स्नातक एतत् सन्निहितं प्रोक्तं सरः पुण्यप्रदं महत् । सष्टि काल में जिस प्रकार ब्रह्माजी की ब्रह्माण्डस्थालिङ्गस्य माहात्म्यं ब्रह्मन् मेऽवहितः शृणु ।। व्यापिनी शक्ति प्रलयान्धकार परिपूर्ण जीवों की सृष्टिअचेतनः सचेता वा अज्ञो वा प्राज्ञ एव वा। प्रकाश की ओर आकर्षित करती है, उसी प्रकार स्थिति लिङ्गस्य दर्शनादेव मुच्यते सर्वपातकः ॥ काल में भगवान् विष्णु की व्यापिका शक्ति प्रजापतिसृष्ट पुष्करादीनि तीर्थानि समुद्रचरणानि च । प्रजा की स्थिति और रक्षा करती है। इसी प्रकार भगवान् स्थाणतीर्थे समेष्यन्ति मध्यं प्राप्ते दिवाकरे ॥ रुद्र की व्यापक शक्ति सष्टिकाल से ही कार्यकारिणी तत्र स्थास्यति यो ब्रह्मन् माञ्च स्तोष्यति भक्तितः । होकर समस्त जड़-चेतनात्मक विश्व को महाप्रलय की तस्याहं सुलभो नित्यं भविष्यामि न संशयः ॥ ओर आकर्षित करती है। इन शक्तियों की व्यापकता के स्थाण्वीश्वर-कुरुभूमि में अम्बाला के निकट शंकरजी की कारण इनकी क्रिया एक सूक्ष्म अणु से लेकर देवतापर्यन्त प्रमुख मूर्ति । पहले यहाँ सरस्वती नदी बहती थी। संप्रति विस्तृत रहती है। जो आकर्षण शक्ति सृष्टि काल में यह स्थल थानेश्वर कहलाता है । बाणभट्ट ने हर्षचरित में प्रत्येक परमाणु के अन्दर द्वयणुक त्रसरेणु आदि उत्पन्न इसका वर्णन किया है। बामनपुराण (अध्याय ४२) में करती है यह सब ब्राह्मी व्यापक शक्ति की ही क्रियाइसका माहात्म्य पाया जाता है। कारिता है। कोई भी जीव अपनी रक्षा के लिए यदि स्थालीपाक-यज्ञार्थ स्थाली (बटलोई) में पकाया हुआ चरु किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है तो यह वैष्णवी अथवा खीर । अष्टकाश्राद्ध में अथवा अन्य पशयागों में शक्ति की व्यापकता का परिणाम है; जिससे उसे रक्षा स्थालीपाक पशु का प्रतिनिधि होता था। गोभिल ने पश करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इसी प्रकार रोग शोकादि के विकल्प में स्थालीपाक का विधान किया है : द्वारा जब जीव अपने इस पाञ्चभौतिक देह का परित्याग ___ "अपि वा स्थालीपाकं कुर्वीत" । करता है तो यह रौद्री शक्ति का परिणाम है जो सर्वत्र व्याप्त रहने के कारण अपना कार्य करती रहती है । स्थितप्रज्ञ-जिस पुरुष की प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक इस प्रकार इन तीनों शक्तियों के अधिष्ठाता ब्रह्मा, ५५-५६) में स्थितप्रज्ञ की परिभाषा दी हुई है : विष्णु और रुद्र देव हैं । अतएव स्पष्ट है कि सृष्टि की स्थिति में मूल कारणभूत सत्वगुण विशिष्ट वैष्णवी शक्ति प्रजहाति यदा कामान् सर्वान पार्थ मनोगतान । कार्यनिरत रहकर संसार के स्थितिस्थापकत्व कार्य आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।। को पूर्ण करती है। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ॥ स्नात-स्नान किया हआ। धार्मिक कृत्य करने के पूर्व [हे पार्थ ! जब पुरुष सभी मनोगत भावों को त्याग स्नान करना आवश्यक है। प्रायः प्रत्येक धर्म में जल देता हैं और अपने आत्मा में अपने आप संतुष्ट रहता है पवित्र करने वाला माना गया है । 'प्रायश्चित्त तत्त्व' में तब उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं । जिसका मन दुःखों में स्नान की धार्मिक अनिवार्यता इस प्रकार बतलायी अनुद्विग्न नहीं होता, जो सुखों में कामना से रहित होता गयो है : है, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो चुके हैं उसको स्नातोऽधिकारी भवति दैवे पैत्र च कर्मणि । स्थितधी (स्थितप्रज्ञ) मुनि कहते हैं । ] अस्नातस्य क्रिया सर्वा भवन्ति हि यतोऽफला ।। स्थितितत्त्व-प्रकृति के परिणामस्वरूप सष्टि होने के प्रातः समाचरेत्स्नानमतो नित्यमतन्द्रितः ।। अनन्तर उस सष्टि की एक काल सीमा। प्राणतत्त्व की [ मनुष्य दैव और पैत्र (पितर सम्बन्धी) कर्म में स्नान आकर्षण और विकर्षणात्मक दो शक्तियाँ । प्रथम रागात्मिका किये बिना सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्फल होती है इसलिए आलस्य शक्ति है, जो कामशक्ति में परिणत होकर जीवसृष्टि का छोड़कर नित्य प्रातः स्नान विधिवत् करना चाहिए।] कारण बनती है। दूसरी शक्ति विकर्षण तमोगुणात्मिका स्नातक- जो वेदाध्ययन और ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त कर है. जिसकी सहायता से प्रलय स्थिति का निर्माण होता है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से समावर्तन संस्कार Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नान-स्पर्श में स्नान कर लेता है उसको स्नातक कहते हैं । विद्या की विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि में इसका माहात्म्य पाया उपमा सागर से दी जाती है। जो इस सागर में अवगाहन जाता है। कर बाहर निकलता है वह स्नातक कहलाता है । स्नातक स्नापन सप्तमीव्रत-यह व्रत उन महिलाओं के लिए है तीन प्रकार के होते है-(१) विद्यास्नातक (२) व्रत- जिनके बालक शैशव काल में दिवंगत हो जाते हैं। दे० स्नातक और (३) उभयस्नातक । जो वेदाध्ययन तो पूरा भविष्योत्तर पुराण, ५२.१-४० । कर लेता है परन्तु ब्रह्मचर्य आश्रम के सभी नियमों का । ___ स्नेहवत-यह मासवत है । भगवान् विष्णु इसके देवता हैं । पूरा पालन किये बिना गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की व्रती को आषाढ़ मास से चार मास तक तैलस्नान का अनुज्ञा मांगने जाता है उसको विद्यास्नातक कहते है । परित्याग कर पायस तथा घी का आहार करना चाहिए । जो ब्रह्मचर्य व्रत का पूरा पालन करता है परन्तु वेदाध्ययन व्रत के अन्त में तिल के तेल से परिपूर्ण एक कलश दान पूरा नहीं कर पाता है वह व्रतस्नातक है। जो विद्या में देना चाहिए । इस व्रत से व्रती सबका स्नेह-भाजन बन और व्रत दोनों का पूरा पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश जाता है। करता है वह उभयस्नातक (पूर्णस्नातक) कहलाता है। स्पन्द-अङ्गविशेष का हलका कम्पन । विश्वास है कि इसका स्नान-नित्य, नैमित्तिक, काम्य भेद से स्नान तीन प्रकार शभाशुभ फल होता है। 'मलमासतत्त्व' में कथन है : का होता है । नैमित्तिक स्नान ग्रहण, अशौच आदि में चक्षुःस्पन्दं भुजस्पन्दं तथा दुःखप्रदर्शनम् । होता है। तीर्थों का स्नान काम्य कहा जाता है । नित्य शत्रूणाञ्च समुत्थानमश्वत्थ शमयाशु मे । स्नान प्रति दिनों का धार्मिक कृत्य माना गया है । ये तीन मत्स्य पुराण (२४१.३-१४) में इसके शुभाशुभ फल मुख्य स्नान हैं । इनके अतिरिक्त गौण स्नान भी हैं जो का विस्तार से वर्णन है। सात प्रकार के है, जिनका प्रयोग शरीर के अवस्थाभेद से स्पर्श-धार्मिक क्रियाओं में विविध अङ्गों के स्पर्श का किया जाता है : विधान पाया जाता है। सन्ध्योपासना में आचमन के (१) मान्त्र (मन्त्र से स्नान)। 'आपो हिष्ठा' आदि वेद पश्चात विभिन्न अङ्गों का स्पर्श किया जाता है। इसका मन्त्रों के द्वारा। उद्देश्य है उनको प्रबुद्ध करना अथवा उनकी ओर ध्यान (२) भौम ( मिट्टी से स्नान )। सूखी मिट्टी शरीर में केन्द्रित करना। उपनयन संस्कार में आचार्य शिष्य के मसलना। हृदय का स्पर्श कर उसके और अपने बीच में भावात्मक (३) आग्नेय ( अग्नि से स्नान )। पवित्र भस्म सारे सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है । इसी प्रकार विवाहशरीर में लगाना। संस्कार में पति पत्नी के हृदय का स्पर्श करता है और (४) वायव्य (वायु से स्नान) । गौओं के खुरों से उड़ी। कहता है कि मैं तुम्हारे हृदय की बात जानता रहूँगा और हुई धूल शरीर पर गिरने देना। तुम्हारा हृदय अपने हृदय में धारण करता हूं। आदि । (५) दिव्य (आकाश से स्नान) । धूप निकलते समय बहत से अभिचार कर्मों में स्पर्श का उपयोग होता है। वर्षा में स्नान करना । इसका उद्देश्य स्पृष्ट व्यक्ति को आदिष्ट अथवा आविष्ट (६) वारुण (जल से स्नान) । नदी-कूप आदि के जल करना होता है। से स्नान करना। धर्मशास्त्र में शुचिता की दृष्टि से बहुत सी वस्तुओं (७) मानस ( मानसिक स्नान )। विष्णु भगवान् के तथा व्यक्तियों का स्पर्श निषिद्ध बतलाया गया है । यथा, नामों का स्मरण करना। उच्छिष्ट के स्पर्श का बहुधा निषेध है । कुछ उदाहरण धर्म कार्य के पूर्व स्नान करना अनिवार्य बतलाया निम्नांकित हैं : गया है। न स्पृशेत् पाणिनोच्छिष्टं विप्रगोब्राह्मणानलान् । स्नानयात्रा-ज्येष्ठपूर्णिमा के दिन जगन्नाथपुरी में रूपो- न चानलं पदा वापि न देवप्रतिमा स्पृशेत् ।। त्सव को स्नानयात्रा कहते हैं। बह्मपुराण, स्कन्द पुराण, (कर्म पुराण, उपविभाग १६.३५) Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ पाने मैथुनसंसर्गे तथा मूत्रपुरीषयोः । स्पर्शनं यदि गच्छेतु शवोदयात्यः सह ॥ दिनमेकं चरेन्मूत्रे पुरीषे तु दिनद्वयम् । दिनत्रयं मैथुने स्यात् पाने स्यात्तच्चतुष्टयम् ॥ (दक्षस्मृति) रजस्वला स्त्री के स्पर्श का तो तीन दिनों तक बहुत निषेध और प्रायश्चित्त है । देवकार्य के लिए रजस्वला पाँचवें दिन शुद्ध होती है । स्मार्त--स्मृत्तियों में विहित विधि-आचार आदि, अथवा इस व्यवस्था को मानने वाला । मनु (१.१०८) का कथन है : आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः ॥ [ आचार ही परम धर्म है । यह श्रुति में उक्त और स्मार्त (स्मृतियों के अनुकूल ) है । इसलिए आत्मवान् ( आत्मज्ञानी) द्विज वही होता है जो सदा इनके अनुसार आचरण करता है । ] वैष्णवों में 'स्मार्त' और 'भागवत' दो भेद आचार की दृष्टि से पाये जाते हैं । स्मार्त वैष्णव वे हैं जो परम्परागत स्मृति विहित धर्म का पालन करते हैं । भागवत वैष्णव परम्परा और विधि के स्थान पर भक्ति और आत्मसमर्पण पर बल देते हैं; अतः वे स्मार्त धर्म के प्रति उदासीन हैं । स्मृति - (१) अनुभूत विषय का ज्ञान अथवा अनुभव-संस्कार जन्य ज्ञान | यह बुद्धि का दूसरा भेद है । इसका पहला भेद अनुभूति है । 'उज्ज्वलनीलमणि' में भक्ति की दृष्टि से स्मृति का निरूपण निम्नांकित प्रकार से है : अनुभूतप्रियादीनामर्थानां चिन्तनं स्मृतिः । तत्र कम्पाङ्गवैवर्ण्यष्वापनिःश्वसितादयः ॥ (२) धर्म के प्रमाणों अथवा स्रोतों में स्मृति की गणना है । मनुस्मृति (२.१२) के अनुसार श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥ [ श्रुति (वेद), स्मृति, सदाचार और अपने आत्मा को प्रिय (आत्मतुष्टि, इन्द्रियतुष्टि नहीं ) ये चार प्रकार के साक्षात् धर्म के लक्षण कहे गये हैं । ] इन प्रमाणों में श्रुति अथवा वेद स्वतः प्रमाण और स्मृति आदि परतः प्रमाण हैं । परन्तु व्यावहारिक धर्म में स्मृतियों का बहुत स्मार्त-स्मृति महत्त्व है, क्योंकि धर्म की नियमित व्यवस्था स्मृतियों में ही उपलब्ध है । I धर्मशास्त्र में स्मृति का मूल अर्थ केवल मन्वादि प्रणीत स्मृतियाँ ही नहीं । मूलतः इसमें वे सभी आचार-विचार सम्मिलित थे जो वेदविद् आचारवान् पुरुषों की स्मृति और आचरण में पाये जाते थे । इसमें सभी सूत्र -ग्रन्थ - श्रीत, गृह्य और धर्म - महाभारत, पुराण और मनु आदि स्मृतियाँ समाविष्ट हैं । गौतम धर्मसूत्र का कथन है, "वेदो धर्ममूलम् । तद्विदाञ्च स्मृतिशीले ।" [ वेद धर्म का मूल है और उसको जानने वाले पुरुषों की स्मृति तथा शील भी । ] मेधातिथि ने मनुस्मृति के 'स्मृतिशीले च तद्विदाम्' का भाष्य करते हुए लिखा है, " वेदार्थविदाम् इदं कर्तव्यम् इदन्न कर्तव्यम् इति यत् स्मरणं तदपि प्रमाणम् ।" परन्तु धीरे-धीरे विशाल धर्मशास्त्र की सामग्रियों संग्रह अथवा संहिता का रूप धारण किया और वे स्मृतिग्रन्थों के रूप में प्रसिद्ध हुई और समय समय पर आगे भी स्मृतियाँ आवश्यकतानुसार बनती गयीं । प्राचीन सूत्रग्रन्थों और स्मृतियों में रचना की विद्या की दृष्टि से एक विशेष अन्तर है। सूत्र सभी अत्यन्त सूक्ष्म और सूत्रात्मक हैं। स्मृतियाँ, विष्णुस्मृति को छोड़कर सभी पद्यात्मक हैं और विवेचन तथा वर्णन की दृष्टि से विस्तृत | स्मृतियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते बहुत बड़ी हो गयी । इनकी सूची कई ग्रन्थों में पायी जाती है। अपरार्क ने अपने भाष्य ( पृ० ७ ) में गौतम धर्मसूत्र से एक सूत्र उद्धृत किया है जिसमें स्मृतिकारों की सूची है। ( इस समय मुद्रित गौतम धर्मसूत्र में यह नहीं मिलता है ।) यह सूची इस प्रकार है : " स्मृतिधर्मशास्त्राणि तेषां प्रणेतारो मनु-विष्णु-दक्षाङ्गिरो अत्रि- बृहस्पति - उशन आपस्तम्बगौतम-संवर्त - आत्रेयकात्यायन - शङ्ख-लिखित पराशर व्यास- शातातप- प्रचेता-याज्ञ वल्क्यआदयः ॥ . ' दूसरी सूची याज्ञवल्क्य स्मृति (१.४-५ ) में पायी जाती है, जिसके अनुसार स्मृतियों की संख्या बीस है : वक्तारो धर्मशास्त्राणां मनु-विष्णु-यमोऽङ्गिरा । वसिष्ठ - दक्ष संवर्त - शातातप- पराशराः ॥ आपस्तम्बोशनो-व्यासाः कात्यायन - बृहस्पती । गौतमः शङ्खलिखितौ हारीतोऽत्रिरहं तथा ।। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृति धर्मशास्त्र के वक्ता १. मनु २. विष्णु ३. यम ४. अङ्गिरा ५. वसिष्ठ ६. दक्ष ७. संवर्त ८. शातातप ९. पराशर १०. आपस्तम्ब ११. उशना १२. व्यास १३. कात्यायन १४. बृहस्पति १५. गौतम १६. शङ्ख १७. लिखित १८. हारीत १९. अत्रि और २०. याज्ञवल्क्य । इस सूची में प्राचीन स्मृतिकार बौधायन का नाम नहीं है । पराशर ने अपने को छोड़कर उन्नीस धर्मशास्त्रकारों का नाम दिया है। किन्तु यह सूची याज्ञवल्क्य से भिन्न है। इसमें बृहस्पति, यम और व्यास के नाम नहीं है। नये नाम कश्यप, गार्ग्य और प्रचेता हैं। कुमारिल के तन्त्रवार्तिक ( पृ० १२५ ) में अठारह धर्मसंहिताओं का उल्लेख है। 'चतुर्विशतिमत' में चौबीस धर्मशास्त्रकार ऋषियों के मतों का संग्रह है। इसमें कात्यायन और लिखित को छोड़कर याज्ञवल्क्य द्वारा परिगणित सभी स्मृतिकार और इनके अतिरिक्त गार्ग्य, नारद, बौधायन, वत्स, विश्वामित्र और शङ्ख, ( सांख्यायन ) का समावेश है। 'ट्त्रिंशन्मत' ( मिताक्षरा में उद्धृत ) में छत्तीस स्मृतियों के मतों का संकलन है । पैठीनसि ( स्मृतिचन्द्रिका में उद्धृत ) ने भी स्मृतियों की संख्या छत्तीस बतलायी है। वृद्ध गौतम स्मृति (जीवानन्द संस्करण, भाग २ पृ० ४९८-९९) में सत्तावन स्मृतियों की सूची दी हुई है । यदि भाष्यकारों और निबन्धकारों द्वारा उद्धृत सभी धर्मशास्त्रकारों को जोड़ा जाय तो उनकी संख्या एक सौ इकतीस पहुँचती है ( कमलाकर भट्ट : निर्णय सिन्धु )। एक तो युगपरिवर्तन के कारण नयी स्मृतियाँ स्वयं बनती जाती थीं, दूसरे विभिन्न धर्मशास्त्रीय सम्प्रदाय वाले लघु, बृहत् और वृद्ध जोड़कर अपने साम्प्रदायिक धर्मशास्त्र का विकास करते जाते थे। इनके रचनाकाल के सम्बन्ध में बहुत मतभेद है। परन्तु इनको दूसरी शती ई० पू० और आठवीं शती इ० ५० के बीच रखा जा सकता है । (दे० काशी प्रसाद जायसवाल : मनु ऐण्ड याज्ञवल्क्य; म० पाण्डुरंग काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास, जिल्द १)। से वर्णन किया गया है। व्यवहार वर्ग के अन्तर्गत, राजधर्म, प्रशासन, विधि आदि विषयों का समावेश है । प्रायश्चित्त के अन्तर्गत विविध अपराधों और पापों से मुक्त होने के लिए अनेक तप, व्रत, दान आदि कर्मकाण्डों का विधान है। इनके अतिरिक्त धर्म, समाज, राज्य, व्यक्ति सम्बन्धी यथासंभव सभी विषयों का विवेचन स्मृतियों में पाया जाता है। सभी स्मृतियों के प्रामाण्य का प्रश्न बड़ा पेचीदा है । पुरातनवादी स्मृति-भाष्यकारों और निबन्धकारों का मत है कि सभी स्मृतियाँ समान रूप से मान्य हैं, क्योंकि सभी ऋषिप्रणीत हैं और ऋषियों का मत कभी अमान्य नहीं हो सकता। यदि यह मत स्वीकार किया जाय तो बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो जाएगी। देखने पर स्पष्ट है कि स्मृतियों में परस्पर बहुत मतभेद है और यदि सभी को छूट मिल जाय कि जो जिस स्मृति को पसन्द करे उसी का पालन करे तो समाज में अराजकता फैल जायेगी। इसलिए यह मत ग्राह्य नहीं हो सकता। दूसरा मत यह है कि मनुस्मृति सबसे अधिक प्रामाणिक है ; अतः जो स्मृति उसके अतुकल है वह मान्य और जो उसके प्रतिकूल है वह अमान्य है : 'मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते'। तब प्रश्न यह उठता है कि वे सभी स्मृतियाँ व्यर्थ ही रची गयीं, जिनका मनु से मतभेद है। यह मानना कि अनेक परवर्ती स्मृतियों की रचना व्यर्थ हुई, बुद्धिसंगत नहीं जान पड़ता। तीसरा मत यह है कि जहाँ स्मतियों के वाक्यों में विरोध हो वहाँ बहुमत को मानना चाहिए: विरोधो यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम् । (गोभिल, ३.१४९ ) तस्माद्विरोध धर्मस्य निश्चित्य गुरुलाधवम् । यतो भूयः ततो विद्वान् कुर्यात् विनिर्णयम् ।। ( स्मृतिचन्द्रिका, संस्कार काण्ड ) [ इसलिए धार्मिक वाक्यों के विरोध होने पर उनकी गुरुता ( गंभीरता ) और लघुता ( हल्कापन ) का विचार कर, जो अधिक गंभीर और वहसम्मत हो, विद्वान् को उसी के अनुसार निर्णय करना चाहिए । ] चौथा मत है कि विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों में उनकी आवश्यकता के अनुसार लिखी गयी थीं। अतः स्मतियों में जिन विषयों का वर्णन है उनके तीन मुख्य वर्ग किए जा सकते हैं-१. आचार २. व्यवहार और ३. प्रायश्चित (दे० याज्ञवल्क्यस्मति )। आचार वर्ग में साधारण, विशेष, नित्य, नैमित्तिक, आपद्धर्म सभी का वर्णन है। विशेषकर वर्ण और आश्रम-धर्म का विस्तार Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ स्वधर्म-स्वभाव विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों के लिए मान्य हैं : शिवरात्रौ च यो भुङ्क्ते श्रीरामनवमीदिने । अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । पितृकृत्यं देवकृत्यं स कृतघ्न इति स्मृतम् ।। अतो कलियुगे नृणां युगह्रासानुरूपतः ।। मनु. १.८५ भगवद्गीता में भी स्वधर्म का माहात्म्य बतलाया [ कृतयुग ( सतयुग ) में अन्य प्रकार के धर्म थे। गया है : त्रेता में अन्य । और द्वापर में अन्य ( उनसे भिन्न )! इस- श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । लिए कलियुग में मनुष्यों के लिए अन्य धर्म है । ये धर्म स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। युगह्रास के अनुरूप हैं ।] [ गुणरहित भी अपना धर्म दूसरे के भलीभाँति अनु___ इस सिद्धान्त के अनुसार पराशर स्मृति ( १.२४ ) में ष्ठित धर्म से श्रेयस्कर है। अपने धर्म के पालन में मृत्यु मुख्य स्मृतियों को विभिन्न युगों में विभाजित कर दिया श्रेयस्कर है । दूसरे का धर्म भयावह है ।] गया है : स्वधा-(१) स्वादपूर्वक ग्रहण करने की क्रिया । देवताओं कृते तु मानवा धर्मास्त्रेतायां गौतमाः स्मृताः । के लिए हविर्दान मन्त्र के साथ 'स्वाहा' कहते है। स्वधा द्वापरे शङ्खलिखिताः कलौ पाराशराः स्मृताः ।। का प्रयोग पितरों के लिए ही किया जाता है। [कृतयुग में मानव धर्मशास्त्र प्रामाणिक है; त्रेता में (२) भागवत पुराण के अनुसार स्वधा दक्ष की कन्या गौतम धर्मशास्त्र; द्वापर में शङ्खलिखित और कलि में थी। वह पितरों की पत्नी थी। उसकी दो कन्याएँ हुईपाराशर धर्मशास्त्र ।] यमुना और धारिणी। ये दोनों तपस्विनी थीं। अतः इनकी सिद्धान्त में युगधर्म स्वीकार किया गया है । परन्तु मनु कोई सन्तान नहीं थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, और याज्ञवल्क्य तथा उनकी टीकाएँ आज भी प्रामाणिक अध्याय ४१ ) के अनुसार स्वधा ब्रह्मा की मानसी कन्या मानी जाती है। ये टोकाएँ ही युगधर्म की दिशाप्रव और पितरों की पत्नी थी। इस पुराण में इसकी विस्तृत तंक हैं । कथा दी हुई है। स्वधर्म-अपने स्वभाव अर्थात् वर्ण और आश्रम के अनुसार स्वप्न-इसका एक अर्थ है निद्रा, दूसरा है निद्रा के सोये जिसका जो धर्म विहित है, वह उसका स्वधर्म है। उसके हुए व्यक्ति का विज्ञान । सुश्रुत (शरीर स्थान, अध्याय ४) पालन से ही कल्याण होता है। उसको छोड़कर अपने ने स्वप्न को निम्नांकित प्रकार से बतलाया है : स्वभाव के प्रतिकूल दूसरे के धर्म के पालन से अनिष्ट होता पूर्वदेहानुभूतांस्तु भूतात्मा स्वपतः प्रभुः । है । नृसिंह पुराण में कथन है : रजोयुक्तेन मनसा गृह्णात्यर्थान् शुभाशुभान् ॥ यो यस्य विहितो धर्मः स तज्जातिः प्रकीर्तितः । करणानान्तु वैकल्ये तमसाभिप्रवद्धिते । तस्मात् स्वधर्म कुर्वीत द्विजो नित्यमनापदि । अस्वपन्नपि भूतात्मा प्रसुप्त इव चोच्यते । चत्वारो वर्णा राजेन्द्र चरेयुश्चापि आश्रमाः । [जीवात्मा सोता हुआ रजोगुण से युक्त मन द्वारा ऋते स्वधर्म विपुलं न ते यान्ति परां गतिम् ॥ अपने शरीर से पूर्व अनुभूत शुभ तथा अशुभ पदार्थों को स्वधर्मेण यथा नृणां नरसिंहः प्रत्युष्यति । ग्रहण करता है । तमोगुण के बढ़ जाने पर न सोता हुआ भी जीवात्मा सोते हुए की भांति कहा गया है।] न तुष्यति तथान्येन वेदवाक्येन कर्मणा ।। __ब्रह्मवैवर्त पुराण ( श्रीकृष्ण जन्म खण्ड, सुस्वप्नदर्शन ब्रह्मवैवर्त पुराण ( प्रकृतिखण्ड, ५१.४५-४७ ) में स्वधर्मत्यागी को कृतघ्न कहा गया है और उसकी निन्दा की नामक ७७ अध्याय ) में शुभाशुभ स्वप्न-फल का विस्तृत वर्णन है। गयी है : स्वधर्म हन्ति यो विप्रः सन्ध्यात्रयविवर्जितः । स्वभाव-अपना भाव या मानसिक विचार । उज्ज्वल अतर्पणञ्च यत्स्नानं विष्णुनैवेद्यवञ्चितः ॥ नोलमणि में स्वभाव की परिभाषा निम्नांकित है : विष्णुमन्त्र-विष्णुपूजा-विष्णुभक्तिविहीनकः । बहिर्हत्वनपेक्षी तु स्वभावोऽथ प्रकीर्तितः । एकादशीविहीनश्च श्रीकृष्णजन्मवासरे ।। निसर्गश्च स्वरूपश्चेत्येषोऽपि भवति द्विधा । Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वमूरामदेव-स्वर्णगौरीव्रत निसर्गः सुदृढाभ्यासजन्यः संस्कार उच्यते । अजत्यस्तु स्वतः सिद्धः स्वरूपः भाव इष्यते ॥ [ जो किसी बाहरी हेतु ( कारण ) की अपेक्षा न रखता हो उसको स्वभाव कहा जाता है। इसके निसर्ग और स्वरूप दो भेद होते हैं। सुदृढ़ अभ्यास से उत्पन्न संस्कार को निसर्ग कहते हैं । जो किसी से उत्पन्न नहीं होता और जो स्वतः सिद्ध है उसको स्वरूप भाव कहते हैं । ] स्वभूरामदेव - निम्बार्क सम्प्रदायाचार्य एवं मध्यकालीन धर्मरक्षक वैष्णव महात्मा, जिन्होंने पंजाब की ओर हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को अपनी तपश्चर्या से ओजस्वो बनाया । अखिल भारत में धर्म प्रचार करने वाले आचार्य हरिव्यासदेव (पंद्रहवीं शताब्दी) के द्वादश शिष्यों में ये प्रथम एवं पट्टशिष्य थे । समयानुसार हरिव्यास - देवजी ने व्यापक धर्मप्रचार के उद्देश्य से मठ, मन्दिर द्वारा गद्दी की प्ररम्परा चलायी और अपने शिष्य-प्रशिष्यों को विभिन्न प्रदेशों में इसके लिए भेजा। उस समय गोरख पन्धी नाथ साधु साधनमार्ग से हटकर धार्मिक द्वेष के वश में पड़ गए थे। पंजाब की ओर वैष्णवों से इनका संघर्ष होता रहता था । हरिव्यासदेव ने हिन्दूधर्म के उक्त गृहकलह के शमनार्थ अपने प्रधान विष्य स्वभू रामदेव को मथुरास्थिर नारवटीला स्थान का अध्यक्ष बनाकर पंजाब की ओर भेज दिया । इन्होंने अपने भजन-साधन के बल पर नाथों का हृदय परिवर्तन कर उस दिशा में वैष्णव धर्म का प्रभाव स्थापित किया । जगाधरी जिले के बूड़िया स्थान में यमुनातट पर 'स्वभूरामदेवजी की बनी' नामक तपोभूमि आज भी जनता में सम्मानित है। वे उस समय के प्रभावशाली महात्मा थे और धर्मरक्षा की ओर विशेष दत्तचित्त रहते थे । इसीलिए वैष्णवों के मठ-मन्दिरों में भारत के सुदूर बंगाल, उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश, गुजरात, पंजाब, व्रजमण्डल आदि स्थानों में स्वभूरामदेव - शाखा के महत्त्वपूर्ण स्थान अधिक संख्या में पाये जाते हैं । इनकी परंपरा में अनेक उच्च कोटि के ग्रन्थकार, उपासनारहस्यज्ञ विद्वान् और तपस्वी सन्त होते आये हैं । स्वर्ग -जिस स्थान अथवा लोक का गान अथवा प्रशंसा की जाय वह स्वर्ग है ( स्वयते स्वयंते गीयते च इति ) देवताओं के निवास स्थान को स्वर्ग कहते हैं। यह अत्यन्त प्राचीन विश्वास है कि पुण्यात्मा मरने के पश्चात् स्वर्ग लोग में जाता है । मीमांसा शास्त्र के अनुसार स्वर्ग ६९५ वह लोक है जहाँ दुःख का पूर्ण अभाव है और पूर्ण सूख प्राप्ति होती है । यज्ञानुष्ठान से पुण्य होता है | अतः स्वर्ग की कामना रखने वाले को यज्ञ करना चाहिए नैयायियों के मत में स्वर्ग की परिभाषा है। यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं यत् तत् सुखं स्वःपदास्पदम् ॥ पद्मपुराण (भूखण्ड अध्याय ९०) में स्वयं के गुणदोष इस प्रकार कहे गये हैं : 1 नन्दनादीनि दिव्यानि रम्याणि विविधानि च। तत्रोद्यानानि पुण्यानि सर्वकामशुभानि च ।। सर्व कामफलैः शोभितानि समन्ततः । विमानानि सुदिव्यानि परिताम्यप्सरोगणैः ॥ सर्वत्रैव विचित्राणि कामगानि रसानि च । तरुणादित्यवर्णानि मुक्ताजालान्तराणि च ॥ चन्द्रमण्डलशुभ्राणि हेमशय्यासनानि च । सर्वकामसमृद्धाश्च सुखदुःखविवजिताः ॥ नराः सुकृतिनस्ते तु विचरन्ति यथासुखम् । न तत्र नास्तिकाः यान्ति न स्तेया नोजितेन्द्रियाः ॥ न नृशंसा न पिशुनाः कृतघ्ना न च मानिनः । सत्यास्तपस्थिताः शूरा दयावन्तः क्षमापराः ॥ यज्वानो दानशीलाश्च तत्र गच्छन्ति ते नराः । न रोगो न जरा मृत्युनं शोको न हिमादयः ॥ न तत्र क्षुत्पिपासा न कस्य ग्लानिर्न दृश्यने । एते चान्ये च बहवो गुणाः सन्ति च भूपते ॥ दोषास्तत्रैव ये सन्ति तान् शृणुस्य च साम्प्रतम् । शुभस्य कर्मणः कृत्स्नं फलं तचैव भुज्यते ॥ न चात्र क्रियते भूयः सोऽत्र दोषो महान् श्रुतः । असन्तोषश्च भवति दृष्ट्रा दीप्तां परश्रियम् ॥ सम्प्राप्ते कर्मणामन्ते सहसा सहसा पतनं तथा । इह यत् क्रियते कर्म फलं तत्रैव भुञ्जते ॥ कर्मभूमिरियं राजन् फलभूमिस्त्वसी स्मृता ॥ अग्निपुराण, मत्स्यपुराण (१०३.१०४), नृसिंह पुराण ( अध्याय २०), गरुडपुराण (१०९.४४ ) में भी स्वर्ग का वर्णन पाया जाता है । स्वर्णगौरीवत - भाद्रशुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। यह तिथिव्रत है। गौरी देवता है। केवल महिलाओं के लिए यह व्रत है । इस अवसर पर गौरी का षोडशोपचार पूजन किया जाय। सन्तानार्थ स्वास्थ्य Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्ति-ह तथा सौभाग्य की प्राप्ति के लिए देवी से प्रार्थना की देवा अनेन इति)। प्रार्थनासमर्पण के अर्थ में अनेक मन्त्रों जाय । उद्यापन के समय सींक से बने हुए पात्रों में १६ में यह 'परसर्ग' के समान प्रयुक्त होता है। प्रकार के खाद्य पदार्थ रखकर उन्हें वस्त्र खण्डों से (२) भागवत पुराण के अनुसार स्वाहा दक्ष की कन्या आच्छादित करके सद्गृहस्थ सपत्नीक ब्राह्मणों को दान और अग्नि की भार्या है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, कर दिया जाय । स्वाहोपाख्यान नामक अध्याय, ४०-७-५६) में स्वाहा की स्वस्ति-कुशल-क्षेम, शुभकामना, कल्याण, आशीर्वाद, उत्पत्ति आदि का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है : पुण्य, पापप्रक्षालन दानस्वीकार के रूप में भी इसका स्वाहा देवहविर्दाने प्रशस्ता सर्वकर्मसु । प्रयोग होता है : पिण्डदाने स्वधा शस्ता दक्षिणा सर्वतो वरा ।। ___ "ओभित्युक्त्वा प्रतिगृह्य स्वस्तीस्युक्त्वा सावित्री प्रकृतेः कलया चैव सर्वशक्तिस्वरूपिणी । पठित्वा कामस्तुति पठेत् ।" (शुद्धितत्त्व) बभूव वाविका शक्तिरग्ने स्वाहा स्वकामिनी ।। वैदिक संहिताओं में स्वस्तिपाठ के कई सूक्त हैं। प्रत्येक ईषद् हास्यप्रसन्नास्या भक्तानुग्रहकातरा । मङ्गलकार्य में उनका पाठ किया जाता है। इसे 'स्वस्ति उवाचेति विधेरग्रे पद्मयोने ! वरं श्रुणु ॥ वाचन' कहते हैं। विधिस्तद्वचनं श्रुत्वा संभ्रमात् समुवाच ताम् । स्वस्तिक-एक प्रतीक या चिह्न, जो माङ्गलिक माना त्वमग्नेर्दाहिका शक्तिर्भव पत्नी च सुन्दरि । जाता है । इसका आकार इस प्रकार है। इसका शाब्दिक दग्धु न शक्तस्त्वकृती हुताशश्च त्वया विना ।। अर्थ है, "जो स्वस्ति अथवा क्षेम का कथन करता है।" तन्नामोच्चार्य मन्त्रान्ते यो दास्यति हविर्नरः । यह गणेशजी का लिप्यात्मक स्वरूप है। एक प्रकार की सुरेभ्यस्तत् प्राप्नुवन्ति सुराः स्वानन्दपूर्वकम् ॥ गृह रवना को भी स्वस्तिक कहते हैं । स्वस्तिकवत-आषाढ़ की एकादशी या पूर्णिमा से चार मासपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए । स्त्री ह-ऊष्मवर्णी का चौथा तथा व्यञ्जनों का तैतीसवाँ अक्षर । तथा पुरुष दोनों के लिए यह व्रत विहित है। यह कर्णाटक इसका उच्चारण स्थान कण्ठ है। कामधेनु तन्त्र में इसका में बहुत प्रचलित है। पञ्च वर्णों (नील पीतादि) की वर्णन और उपयोग बतलाया गया है : स्वस्तिका की आकृतियाँ बनाकर उन्हें विष्णु भगवान् को हकारं शृणु चाङ्गि चतुवर्गप्रदायकम् । अर्पित किया जाता है। देवालयों अथवा अन्य पवित्र कुण्डलीद्वयसंयुक्त रक्तविद्युल्लतोपमम् ।। स्थलों में विष्णु का पूजन होता है । रजःसत्त्वतमोयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा । स्वस्तिपुण्याहवाचन-माङ्गलिक कर्मों के प्रारम्भ में मन्त्रो पञ्चप्राणात्मक वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा ॥ च्चारण के साथ पवित्र तण्डुल-विकिरण । इसकी विधि त्रिविन्दुसहितं वर्ण हृदि भावय पार्वति ।। में आशीर्वादात्मक वेदमन्त्रों का पाठ तथा प्रार्थनात्मक वर्णोद्धारतन्त्र में इसका लेखन प्राकार और तान्त्रिक कथनोपकथन होता है। उपयोग इस प्रकार बतलाया है : स्वाधिष्ठान-षट्चक्रों के अन्तर्गत द्वितीय चक्र। वस्ति- ऊर्ध्वादाकुञ्चिता मध्ये कुण्डलीत्वं गता त्वधः । प्रदेश के पीछे इसकी स्थिति है। इसमें शिव और अग्नि ऊर्ध्वं गता पुनः सैव तासु ब्रह्मादयः क्रमात् ।। वर्तमान रहते हैं : मात्रा च पार्वती ज्ञेया ध्यानमस्य प्रचक्ष्यते । षडरले वैद्युतनिभे स्वाधिष्ठानेऽनलत्विषि । करीष भृषिताङ्गी च साट्टहासां दिगम्बरीम् ॥ ब-भ-पैर्य-र- लैर्युक्त वर्णैः षड्भिश्च सुव्रत ।। अस्थिमाल्यामष्टभुजा वरदामम्बुजेक्षणाम्। स्वाधिष्ठानाख्यचक्रे तू सबिन्दु राकिणीं तथा । नागेन्द्रहारभूषाढयां जटामुकुटमण्डिताम् ॥ वादिलान्तं प्रविन्यस्य नाभौ तु मणिपूरके ॥ (तन्त्रसार) सर्वसिद्धिप्रदां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम् । स्वाहा-(१) देवताओं का हविर्दान-मन्त्र । (सुष्ठ आहवन्ते एवं ध्यात्वा हकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत् ।। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंस-हयग्रीव वर्णाभिधान में इसके अनेक नाम गिनाये गये हैं : हः शिवो गगनं हंसो नागलोकोऽम्बिका पतिः । नकूलीशो जगत्प्राणः प्राणेशः कपिलामलः ।। परमात्मात्मजो जीवो यवाकः शान्तिदोऽङ्गजः । शृंगो भयोऽरुणा स्थाणुः कूटकूपविरावणः ॥ लक्ष्मीर्मविहरः शम्भुः प्राणशक्ति ललाटजः । सृकोपवारणः शूली चैतन्यं पादपूरणः ॥ महालक्ष्मी परं शाम्भुः शाखीटः सोममण्डलः । बीजवर्णाभिधान में ह के दूसरे तान्त्रिक नामों का उल्लेख है। शुक्रश्चाथ हकारोंऽशः प्राणः सान्तः शिवो वियत् । अकुली नकुलीशश्च हंस: शून्यश्च हाकिनी ॥ अनन्तो नकुली जीवः परमात्मा ललाटजः । हंस-साहित्य में नीर-क्षीर विवेक का और धर्म-दर्शन में परमात्म तत्त्व का प्रतीक पक्षी है : योग और तन्त्र में इस प्रतीक का बहुत उपयोग हुआ है । हंस का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है। आराधयामि मणिसन्निभमात्यलिङ्ग मायापुरीहृदयपङ्कजसन्निविष्टम् । श्रद्धानदीविमलचित्तजलावगाहं नित्यसमाधिकुसुमेरपुनर्भवाय ।। राघवभट्ट धृत दक्षिणामूर्ति संहिता (सप्तम पटल) में हंसज्ञान और हंस माहात्म्य का वर्णन निम्नांकित है। अजगाधारणं देवि कथयामि तवानघे । यस्य विज्ञानमात्र ण परं ब्रह्मव देशिकः ।। हंसः पदं परेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः । मोहरन्धं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते ॥ श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा। उच्छ्वासनिश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत् ॥ उच्छ्वासे चैव विश्वासे हंस इति अक्षरद्वयम् । तस्मात् प्राणस्तु हंसात्मा आत्माकारेण संस्थितः ।। नाभेरुच्छ्वासनिश्वासात हृदयाग्रे व्यवस्थितिः : हंसवत-पुरुष सूक्त के मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्नान करना चाहिए। उन्हीं से तर्पण तथा जप करना चाहिए। अष्टदल कमल के मध्य भाग में पुष्पादिक से भगवान् जनार्दन की, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, पूजा करनी चाहिए। पूजन में ऋग्वेद के दशम मण्डल के ९० मंत्रों का उच्चारण किया जाय। पूजन के उपरान्त हवन विहित है। तदनन्तर एक गौ का दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। इससे व्रती की सम्पूर्ण मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं । हत्या-हनन के लिए निषिद्ध प्राणियों को मारना । सामान्य रूप से जीव मात्र के मारने को हत्या कहा जाता है। हत्या पातक है। ब्रह्महत्या (मनुष्य वध) की गणना महापातकों में की गयी है। ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । .. महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ॥ [ ब्रह्म हत्या, सुरापान; स्तेय (चोरी), गुरु पत्नी से समागम-ये महापातक हैं और इनके करने वालों के साथ संसर्ग भी महापातक है । ] हनुमान्-वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक वानर वीर । [वास्तव में वानर एक विशेष मानव जाति ही थी, जिसका धार्मिक लांछन (चिन्ह) वानर अथवा उसकी लाङ्गल थी। पुरा कथाओं में यही वानर (पशु) रूप में वर्णित है ।] भगवान राम को हनुमान् ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले थे। हनुमान जी राम के अनन्य मित्र, सहायक और भक्त सिद्ध हुए। सीता का अन्वेषण करने के लिए ये लङ्का गए। राम के दौत्य का इन्होंने अद्भुत निर्वाह किया। राम-रावण युद्ध में भी इनका पराक्रम प्रसिद्ध है । रामावत वैष्णव धर्म के विकास के साथ हनुमान् का भी दैवीकरण हुआ। वे राम के पार्षद और पुनः पूज्य देव रूप में मान्य हो गये । धीरे धीरे हनुमत् अथवा मारुति पूजा का एक सम्प्रदाय ही बन गया है। 'हनुमत्कल्प' में इनके ध्यान और पूजा का विधान पाया जाता है। हमुमज्जयन्ती-चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को इस उत्सव का आयोजन किया जाता है। हम्पी-दक्षिण भारत के प्राचीन विजयनगर राज्य की राजधानी, अब हम्पी कही जाती है। इसके मध्य में विरूपाक्ष मन्दिर है । इसे लोग हम्पीश्वर कहते हैं। हयग्रीव-महाभारत के अनुसार मधु-कैटभ दैत्यों द्वारा हरण किए हुए वेदों का उद्धार करने के लिए विष्णु ने हयग्रीव अवतार धारण किया। इनके विग्रह का वर्णन इस सुनासिकेन कायेन भूत्वा चन्द्रप्रभस्तदा । कृत्वा हयशिरं शुभं वेदानामालयं प्रभुः ।। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ हयपञ्चमी अथवा हयपूजावत-हरगौरी के भिन्न भिन्न नामों को उच्चारण करते हए पूजन करना चाहिए तथा भिन्न भिन्न खाद्य पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। वर्षान्त में सपत्नीक ब्राह्मण का सम्मान करना चाहिए। इसके परिणाम स्वरूप रोगों से मुक्ति, सात जन्मों तक वैधव्याभाव, सौन्दर्य तथा पुत्र-पौत्रादि की उपलब्धि होती है। पार्वती ने शंकर जी के शरीर में अर्द्ध भाग प्राप्त करने के लिए इस व्रत का आच किया था। हरगौरी-हर (शिव) के साथ गौरी ( पार्वती ) की मूर्ति को हरगौरी कहते हैं। यह अर्द्ध नारीश्वर-शिवमूर्ति का नाम है। कालिका पुराण ( अध्याय ४४ ) में इस स्वरूप का विस्तृत वर्णन पाया जाता है : ___ "देवी ने कहा, हे हर ! जिस प्रकार मैं सदा तुम्हारी छाया के समान अनुगत रहूँ और आप का साहचर्य सदा बना रहे उस प्रकार मेरे लिए आप को करना चाहिए। आपके साथ मैं सभी अङ्गों का संस्पर्श और नित्य आलिङ्गन का पुलक चाहती हूँ। आप को ऐसा ही करना योग्य है।" तस्य मुर्दा समयवत् द्यौः सनक्षत्रतारका । केशाश्चास्याभवद् दीर्घा रवेरंशुसमप्रभा । कर्णावाकाशेपाताले ललाटं भूतधारिणी। गङ्गा सरस्वती श्रोण्यौ ध्रुवावास्तां महोदधी॥ चक्षुषी सोमसूर्यो ते नासा सन्ध्या पुनः स्मृता । प्रणवस्तस्य संस्कारो विद्युज्जिह्वा च निर्मिता। दन्ताश्च पितरो राजन् सोमपा इति विश्रुता। गोलोको ब्रह्मलोकश्च ओष्ठावास्तां महात्मनः ॥ ग्रीवा चास्याभवद्राजन् कालरात्रिगुणोत्तरा। एतद्यशिरः कृत्वा नानामूर्तिभिरावृतम् ॥ देवीभागवत (प्रथम स्कन्ध, पञ्चम अध्याय) में हयग्रीवकी दूसरी कथा मिलती है। इसके अनुसार दैत्य का वध करने के लिए ही विष्णु ने हयग्रीव का रूप धारण किया था। हेमचन्द्र ने इस कथा का समर्थन किया है। (विष्णुवध्य दैत्यविशेषः)। किन्तु एक दूसरी परम्परा के अनुसार जब कल्पान्त में ब्रह्मा सो रहे थे तब हयग्रीव नामक दैत्य ने वेद का हरण कर लिया। वेद का उद्धार करने के लिए विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया और उसका वध किया । विद्या प्राप्ति के लिए वेदोद्धारक हयग्रीव भगवान् की उपासना विशेष चमत्कारकारिणी मानी गयी है। हयपञ्चमी अथवा हयपूजावत-चैत्र मास की पंचमी को इन्द्र का प्रसिद्ध अश्व, उच्चैःश्रवा समुद्र से आविर्भूत हुआ था । अतएव गन्धर्वो सहित (जैसे चित्ररथ, चित्रसेन जो वस्तुतः उच्चैःश्रवा के बन्धु-बान्धव ही हैं) उच्चैःश्रवा का संगीत, मिष्ठान्न, पोलिकाओं, दही, गुड़, दूध, चावल आदि से पूजन करना चाहिए। इसके फलस्वरूप शक्ति, दीर्घायु, स्वास्थ्य की प्राप्ति तथा युद्धों में सदा विजय होती है। हर-शिव का एक नाम । इसका अर्थ है पापों तथा सांसारिक तापों का हरण करने वाला (हरति पापान सांसारिकान् क्लेशाञ्च )। हरकालीव्रत-माघ शुक्ला तृतीया को इस व्रत का आयोजन करना चाहिए । इसकी दुर्गा जी देवता हैं । यह व्रत केवल महिलाओं के लिए है। व्रती जौ के हरे हरे अंकुरों में रात भर देवी का ध्यान करते हए खड़ा रहे। द्वितीय दिवस स्नान, ध्यान आदि से निवृत्त होकर देवी का पूजन कर भोजन ग्रहण करे। वर्ष में प्रति मास देवी भगवान् शिव ने कहा, हे भामिनि : जिसकी तुम इच्छा करती हो वह मुझे भी रुचिकर है। उसका उपाय मैं कहता हूँ । यदि कर सकती हो तो करो । हे सुन्दरी ! मेरे शरीर का आधा तुम ग्रहण कर लो। मेरा आधा शरीर नारी और आधा पुरुष हो जाय । यदि तुम मेरा आधा शरीर नहीं ग्रहण कर सकती हो, तो हे सुन्दर मुखवाली ! तुम्हारा आधा शरीर में ही ग्रहण करूँगा। तुम्हारा आधा शरीर नारो और आधा पुरुष हो जाय । ऐसा करने में मेरी शक्ति है । तुम अपनी अनुज्ञा दो। देवी ने कहा, हे वृषध्वज ! मैं ही आप के शरीर का आधा भाग ग्रहण करूँगी । किन्तु मेरी एक इच्छा है, यदि आप पसन्द करें हे हर ! उस प्रकार मैं जब आप के शरीर का आधा ग्रहण कर के स्थिर रहूँ और आधा शरीर छोड़ दूं तो दोनों सम्पूर्ण बने रहें। इस प्रकार यदि आधे भाग का हरण आप को पसन्द हो तो आप के शरीर का आधा भाग हे शम्भो ! मैं हरण करती हूँ। शिव ने कहा, जैसा तुम करना चाहती हो, ऐसा ही नित्य हो। शरीर के आधे भाग का हरण तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही हो । Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरवत-हरिद्वार हरवत-अष्टमी के दिन कमल दल की आकृति बनाकर थी। देवताओं ने उनको यह वरदान भी दिया था कि भगवान् हर की पूजा तथा घृत की धारा छोड़ते हुए जो स्त्री-पुरुष हरी घास पर बैठकर काली की पूजा समिधाओं से हवन करना चाहिए । करेंगे, वे सुख, दीर्घायु तथा सौभाग्य प्राप्त करेंगे। व्रत हरि-विष्णु का एक पर्याय । इन्द्र, सिंह, घोड़ा, हरे रंग, का नाम हरिकाली है, किन्तु इसका हरि (विष्णु ) के आदि को भी हरि कहते हैं। हरे (श्याम) वर्ण के कारण के अर्थ में आने का प्रश्न ही नहीं उठता। हरि का यहाँ विष्णु या कृष्ण भी हरि कहलाते हैं। अर्थ है भरी या ( श्यामा ) काली, जो गौरवर्णा नहीं ___ हरि, विष्णु और कृष्ण का अभेद स्वीकार कर पुराणों थी। ने हरि भक्ति का विपुल वर्णन किया है। पद्मपुराण हरिक्रीडाशयन अथवा हरिक्रीडायन-कार्तिक अथवा वैशाख ( उत्तर खण्ड, अध्याय १११ ) में कृष्ण-हरि के एक सौ मास की द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। आठ नामों का उल्लेख है : इसके हरि देवता हैं । एक ताम्रपात्र में मधु भरकर इसके श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतं नाम मङ्गलदायकम् । ऊपर नृसिंह भगवान् की चतुमुखी प्रतिमा, जिसमें तत् शृणुष्व महाभाग सर्वकल्मषनाशनम् ॥ माणिक्य के आयुध लगे, मूगों के नख बनाये गये हों तथा श्री कृष्णः पुण्डरीकाक्षो वासुदेवो जनार्दनः । अन्यान्य रत्नों को वक्ष, चक्ष, सिर तथा स्रोतों पर नारायणो हरिविष्णुर्माधवः पुरुषोत्तमः ।। आदि० लगाकर स्थापित किया जाय । तदनन्तर ताम्रपात्र को जल हरितालिका-पार्वतीजी की आराधना का सौभाग्य व्रत, से भर दिया जाय और नृसिंह भगवान् का षोडशोपचार जो केवल महिलाओं के लिए है और भाद्रपद शुक्ल पूजन तथा रात्रि जागरण होना चाहिए। इससे व्रती तृतीया को प्रायः निर्जल किया जाता है । रात्रि में शिव- जंगलों, अरण्यों तथा युद्धस्थलों में संकटमुक्त होकर गौरी की पूजा और जागरण होता है। दूसरे दिन प्रातः निर्भीक विचरण करता है । ( नृसिंह पुराण से ) विसर्जन के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण किया जाता है। हरिद्वागणेश-गणेश जी का एक विग्रह । यह हरिद्रा 'अलियों'। ( सखियों) के द्वारा 'हरित' ( अपहृत ) (हल्दी) के वर्ण का होता है अतः इसे हरिद्रा-गणेश होकर पार्वती ने एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया कहते हैं । इनका मन्त्र है : था, इसलिए इसका नाम 'हरितालिका' प्रसिद्ध हो गया। पञ्चान्तको धरासंस्थो बिन्दुभूषितमस्तकः । हरिकालीव्रत-तृतीया को अनाज साफ करने वाले सूपमें एकाक्षरो महामन्त्रः सर्वकामफलप्रदः ॥ सप्त धान्य बोकर उनके उगे हुए अंकुरों पर काली पूजा इसका ध्यान इस प्रकार किया जाता है : की जाती है । तदनन्तर सधवा नारियों द्वारा अंकुरों को हरिद्राभं चतुर्बाहुं हारिद्रयवसनं विभुम् । सिरों पर ले जाकर किसी तडाग या सरिता में विसर्जन पाशाङ्कुशधरं देवं मोदकं दन्तमेव च ॥ कर दिया जाता है। कथा इस प्रकार है : काली दक्ष तन्त्रसार में पूजा-विधान का सविस्तर वर्णन है। प्रजापति की पुत्री हैं तथा दक्ष ने उनका महादेव जी के हरिद्वार-हरिद्वार अथवा मायापुरी भारत की सात पवित्र साथ परिणय कर दिया । वर्ण से वे कृष्ण है। एक समय पुरियों में से है। इसका अर्थ है 'हरि (विष्णु) का देवताओं की सभा में महादेव जी ने काली के शरीर की द्वार। जहाँ गङ्गा हिमालय से मैदान में उतरती है, वहाँ तुलना काले सुरमें से कर डाली । इससे वे ऋद्ध होती हुई यह स्थित है। इसलिए इसका विशेष महत्त्व है। प्रति अपना कृष्ण वर्ण घास वाली भूमि पर छोड़कर स्वयं बारहवें वर्ष जब सूर्य और चन्द्र मेष राशि पर तथा अग्नि में प्रविष्ट हो गईं। द्वितीय जन्म में गौरी रूप में बृहस्पति कुम्भ राशि में स्थित होते हैं तब यहाँ कुम्भ का उनका पुनः आविर्भाव हुआ और उन्होंने महादेव जी को पर्व होता है। उसके छठे वर्ष अद्धकुम्भी होती है। कहा ही पुनः पति रूप में प्राप्त किया। काली जी ने जो कृष्ण जाता है कि इसी स्थान पर मैत्रेय जी ने विदुर को वर्ण त्यागा था उससे आगे चलकर कात्यायनी हुईं, श्रीमद्भागवत की कथा सुनायी थी और यहीं पर नारद जिन्होंने देवताओं के प्रयत्नों में बहुत बड़ी सहायता की जी ने सप्तर्षियों से श्रीमद्भागवत की सप्ताह कथा सुनी Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० हरिनाम-हरिव्यासदेव थी। हरिद्वार मुख्यतः वैष्णवतीर्थ है, परन्तु सभी सम्प्रदाय के लोग इसका आदर करते हैं। हरिनाम-हरि का नाम अथवा भगवन्नाम । धर्म में नामजप का माहात्म्य बराबर रहा है। किन्तु कलि में तो इसका अत्यधिक माहात्म्य है। कारण यह है कि नाम और नामी में भेद नहीं है और नामी की पूजा-अर्चा से नाम-स्मरण सदा सर्वत्र सुलभ और सरल है । पद्मपुराण ( उत्तर खण्ड, अध्याय ९८ ) में नाम की महिमा इस प्रकार दी हुई है : न कालनियमस्तत्र न देशनियमस्तथा । नोच्छिन्ठादौ निषेधोऽस्ति हरेर्नामनि लुब्धक ।। ज्ञानं देवार्चनं ध्यानं धारणा नियमो यमः । प्रत्याहारः समाधिश्च हरिनामसमं न च । बृहन्नारदीय पुराण (श्री हरिभक्ति विलास, विलास ११ में उद्धृत ) में तो हरिनाम कलियुग में एकमात्र गति है । वैष्णवों के नित्य जप के हरिनाम निम्नांकित हैं : "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥" इस मन्त्र के ऋषि, वासुदेव छन्द गायत्री और देवता त्रिपुरा है। इसका विनियोग महाविद्यासिद्धि में किया जाता है। दे० वासुदेव माहात्म्य; राधातन्त्र के वासुदेवत्रिपुरा संवाद में द्वितीय पटल ।। हरिवंश-हरि अथवा कृष्ण का वंश । इसी नाम के ग्रन्थ में हरिवंश की कथा विस्तार से कही गयी है। यह ग्रन्थ महाभारत का परिशिष्ट या खिलपर्व कहलाता है । इसकी कथा सुनने से संतान प्राप्त होती है। गरुड पुराण (अध्याय १४८.१.६-८,११) में हरिवंश की कथा मिलती है। हरिवासर-(१) 'तिथ्यादितत्त्व' में एकादशी और द्वादशी तिथियों को हरिवासर (हरि का दिन) कहा गया है। एकादशी द्वादशी च प्रोक्ता श्रीचक्रपाणिनः । एकादशीमुपोष्यैव द्वादशी समुपोजयेत् ॥ न चात्र विधिलोपः स्यादुभयोदेवता हरिः । द्वादश्याः प्रथमः पादो हरिवासरसंज्ञकः ॥ समतिक्रम्य कुर्वीत पारणं विष्णुतत्परः । एकादशीतत्त्व में इस दिन अन्न भोजन का घोर निषेध है। हरिवासर में जागरण का विशेष माहात्म्य है (दे० स्कन्द पुराण में ब्रह्म-नारद-संवाद तथा श्रीप्रह्लाद-संहिता)। हरिवासर के सम्बन्ध में विचार वैभिन्न्य है। 'वर्षकृत्य कौमुदी' के अनुसार एकादशी ही हरि का दिन है न कि द्वादशी । गरुड पुराण (१.१३७.१२) तथा नारद पुराण (२.२४.६ तथा ९) एकादशी को ही हरि का दिन मानते है, किन्तु 'कृत्यसारसमुच्चय' मत्स्य पुराण को उद्धृत करते हुए कहता है : आषाढ़ शुक्ल द्वादशी बुधवार को हो तथा उस दिन अनुराधा नक्षत्र हो एवं भाद्र शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो और कार्तिक शुक्ल द्वादशी बुधवार को पड़े तथा उस दिन रेवती नक्षत्र हो तो उपर्युक्त तीनों दिन 'हरिवासर' कहलाते हैं। 'स्मृति कौस्तुभ' के अनुसार भी द्वादशी ही हरि तिथि है । अतएवः आ-भा-कासितपक्षेष हस्त-श्रवण-रेवती। द्वादशी बुधवारश्चेद् हरिवासर इष्यते ॥' हरिवाहन-हरि (विष्णु) का वाहन गरुड । हरिव्यासदेव-निम्बार्क सम्प्रदाय के मध्यकालीन वैष्णवाचार्य और ग्रन्थकार । कृष्ण भगवान् की मधुर लीलाओं के चिन्तन के साथ ये तीर्थ यात्रा, धर्म प्रचार और ग्रन्थ रचना में दन्तचित रहते थे। धार्मिक संगठन की भावना इनमें अधिक देखी जाती है, जिसके लिए समग्र देश को व्यापक केन्द्र बनाकर इन्होंने संघबद्ध धर्मयात्राएँ प्रचलित की। इनकी उपासना का प्रिय स्थल वृन्दावन और गुरुस्थान मथुरा की एकान्त भूमि ध्रुवघाट पर नारद टीला थी। प्रसिद्ध भक्तिसंगीतकार संत श्रीभट्ट के ये शिष्य थे। राधा-कृष्ण के सरस चिन्तन स्वरूप हरिव्यास जी को पदावली 'महावाणी' कही जाती है और इन का अन्तरङ्ग नाम 'हरिप्रिया' । इसके साथ ही धार्मिक जनों को शक्तिसम्पन्न करने के लिए ये उग्र देवता नृसिंह की पूजा का प्रचार भी करते थे। इसका संकेत 'नसिंह परिचर्या' नामक लिखित पुस्तक से मिलता है जो काशीस्थ सरस्वती भवन पुस्तकालय में है। इन्होंने हिमाचल स्थित देवी मन्दिर में अपने तपोबल और साधु मण्डली के उपवास के सहारे पशुबलि प्रथा को बन्द करा दिया था। तबसे उन देवीजी को वैष्णवी देवी कहा जाने लगा है। प्राचीन निम्बार्कीय विद्वान् Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिव्रत-हाटकेश्वर (बड़नगर) ७०१ पुरुषोत्तमाचार्य की पुस्तक 'वेदान्तरत्नमंजूषा' पर इन्होंने हरिहरनाथ का मन्दिर है। कार्तिक पूर्णिमा को यहाँ विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखो है। धर्म प्रचार और संग- विशाल मेला होता है जिसमें देशदेशान्तर के लाखों लोग ठनार्थ इन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य देश के संकटग्रस्त सम्मिलित होते हैं। वाराहपुराण में हरिहरक्षेत्र का स्थानों में नियुक्त किये थे, जिनमें इनके प्रधान शिष्य माहात्म्य पाया जाता है : स्वभूरामजी पंजाब की ओर सक्रिय रहे और धार्मिक ततः स पञ्चरात्राणि स्थित्वा वै विधिपूर्वकम् । कलह, हिंसा, कदाचार के निवारण में सफल हुए । आगे गोधनान्यग्रतः कृत्वा हरिक्षेत्र जगाम ह॥ चलकर मध्य, पूर्व, पश्चिम दिशाओं, तिरुपति, जगन्नाथपुरी, हरिणाधिष्ठितं क्षेत्र हरिक्षेत्र ततः स्मृतम् । किन्दुबिल्व बंगाल, द्वारका आदि स्थानों में इनकी ओर सदानन्दी शूलपाणिर्गोधनेन पुरस्कृतः ।। से अनेक मठ-मन्दिर स्थापित किए गए। हरिव्यासजी स्थितवास्तहिनादेव तत्क्षेत्र हरिहरात्मकम् । के एक प्रभावशाली शिष्य परशुरामदेव राजस्थान में देवानामटनाच्चैव देवाट इति संज्ञितम् । मुस्लिम फकीरों के आतंक को शान्त करने में अग्रसर हलधर-बलराम अथवा बलदेव का पर्याय । इसका अर्थ हुए और सलीमशाह सूफी को अपना सेवक बना लिया । है 'हल धारण करने वाला' । इसका दूसरा नाम संकर्षण हरिव्यासदेव पन्द्रहवीं शती में हुए थे। है, जो पाञ्चरात्र के चतुर्ग्रह के द्वितीय घटक हैं। हलधर हरिवत-(१) अमावस्या तथा पूर्णिमा के दिन मनुष्य और संकर्षण का एक ही भाव है। को एकभक्त रहने का अभ्यास करना चाहिए। इससे हल षष्ठी-भाद्र कृष्ण षष्ठी [निर्णयसिन्धु १२३] । कभी नरक में नहीं जाना पड़ता। उपर्युक्त दिवसों को हवि (हविष्य)-हवनीय द्रव्य को हवि अथवा हविष्य व्रती को चाहिए कि वह भगवान् हरि की पुण्याह वाचन तथा 'जय' जैसे शब्दों से पूजाकर ब्राह्मण को प्रणाम करे कहते हैं । इसके पर्याय घृत, तिल, चावल, सामान्नादि हैं। तथा ब्राह्मणों, अन्धों, अनाथों, दलित पतितों को भोजन हविष्य-यज्ञोपयोगी खाद्यान्न, जो कुछ निश्चित व्रतों में कराए। ग्राह्य हैं। दे० कृत्यरत्नाकर ४००, तिथितत्त्व १०९, (२) जो मनुष्य द्वादशी (एकादशी) के दिन भोजन निणयासन्धु १०६ । का परित्याग करता है वह सीधा स्वर्ग सिधारता है। हस्तगौरी व्रत-भाद्र शुक्ल तृतीया को इस व्रत का अनु(वाराह पुराण )। ष्ठान होता है । कृष्ण भगवान् ने कुन्ती को धन-धान्य हरिशयन-हरि (विष्णु का शयन-निद्रा)। यह आषाढ़ से परिपूर्ण राज्य की प्राप्ति के लिए इस व्रत को उपयोगी शुक्ल एकादशी को प्रारम्भ और कार्तिक शुक्ल एकादशी बतलाया था। इसमें निरन्तर १३ वर्षी तक गौरी, हर को समाप्त होता है। यह चार महीने का समय हरिशयन तथा हेरम्ब (गणेश) में ध्यान केन्द्रित करते रहना तथा का काल है। इस काल में व्रत उपवास पूजा आदि का चौदहवं वर्ष में उद्यापन करना चाहिए। विधान है तथा उपनयन, विवाह आदि का निषेध है। हाटकेश्वर (बड़नगर)-गुजरात का प्रसिद्ध तीर्थस्थान । हरिश्चन्द्र-सूर्यवंश के अड़तीसवें राजा, जो त्रेता युग में भगवान् शंकर के तीन मुख्य लिङ्गों में एक हाटकेश्वर हुए थे । ये अपनी सत्यनिष्ठा के लिए प्रसिद्ध थे। है। हाटकेश्वर गुर्जर नागर ब्राह्मणों के कुलदेवता हैं। हरिहर-हरि (विष्णु) और हर (शिव) की संयुक्त मूर्ति । आनर्तविषये रम्यं सर्वतीर्थमयं शुभम् । इनको वृषाकपी भी कहा जाता है । वामनपुराण (अध्याय हाटकेश्वरजं क्षेत्र महापातकनाशनम् ॥ ५९) हरिहर मूर्ति का सुन्दर वर्णन है। तत्र कमपि मासाद्धं यो भक्त्य पूजयेद्धरम् । हरिहर क्षेत्र-विहार प्रदेश का तीर्थविशेष । हरिहर स सर्वपापयुक्तोऽपि शिवलोके महीयते ।। (विष्णुशिव) का संयुक्त तीर्थस्थान। यह गङ्गा और अत्रान्तरे नरा येच निवसन्ति द्विजोत्तमाः । नारायणी (बड़ी गंडक) के संगम पर पटना के पास कृषिकर्मोद्यताश्चापि यान्ति ते परमां गतिम् ।। सोनपुर में स्थित है। तट पर हरिहरात्मक संयुक्त (स्कन्द पुराण नागर खं० २७ ।) Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ हारीत-हिन्दुत्व हारीत-धर्मशास्त्रकर्ता एक ऋषि है याज्ञवल्क्य (१.४) ने धर्मशास्त्र प्रयोजकों में इनकी गणना की है। मन्वत्रिविष्णुहारीतयाज्ञवल्क्योशनोऽङ्गिराः । यमापस्तम्बसंवर्ताः कात्यायनबृहस्पती ।। पराशरव्यासशङ्खलिखिता दक्षगौतमौ । शातातयो वसिष्ठश्च धर्मशास्त्रप्रयोजकाः ।। श्रीमद्भागवत में इनको पौराणिक कहा गया है : त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावणिरकृतवणः । वैशम्पायनहारीतौ षडव पौराणिका इमे । हालेविद-कर्णाटक प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थस्थान । मैसूर के तीर्थों में भगवान् होयसालेश्वर का प्रमुख स्थान है । इन्हें राजा विष्णवद्धन ने प्रतिष्ठित किया था। यह मन्दिर दक्षिण के मन्दिरों में कला और संस्कृति की दृष्टि से निराला स्थान रखता है। हाहा-देवगन्धर्व विशेष । देवताओं में हाहा, हह, विश्वावसु, तुम्बरु, चित्ररथ आदि गन्धर्ववाचक हैं। इनका संगीत से विशेष सम्बन्ध है। हिन्दुत्व-भारतवर्ष में बसनेवाली प्राचीन जातियों का सामूहिक नाम 'हिन्दू' तथा उनके समष्टिवादी धर्म का भाव 'हिन्दुत्व' है। जब मुसलमान आक्रमणकारी जातियों ने इस देश में अपना राज्य स्थापित किया और बसना प्रारम्भ किया तब वे मुसलमानों से इतर लोगों को, अपने से पृथक् करने के लिए सामूहिक रूप से 'हिन्दू' तथा उनके धर्म को 'हिन्दू मजहब (धर्म) कहने लगे। यूरोपीयों और अंग्रेजों ने भी इस परम्परा को जारी रखा। उन्होंने भारतीय जनता को छिन्न-भिन्न रखने के लिए उसको दो भागों में बाँटा-(१) मुस्लिम तथा (२) गैर मुस्लिम अर्थात् 'हिन्दू' । इस प्रकार आधुनिक यात्रावर्णन, इतिहास, राजनीति, धर्म विवरण आदि में भारत की मुस्लिमेतर जनता का नाम 'हिन्दू' तथा उनके धर्म का नाम 'हिन्दू धर्म' प्रसिद्ध हो गया, यद्यपि भारतीय मुसलमान भी पश्चिम एशिया में हिन्दी' और अमेरिका में 'हिन्दू' कहलाते रहे। भारतीय जनता ने भी संसार में व्यापक रूप से अपने को अभिहित करनेवाले इन शब्दों को क्रमशः स्वीकार कर लिया। इसमें सन्देह नहीं कि 'हिन्दू' शब्द भारतीय इतिहास में अपेक्षाकृत बहुत अर्वाचीन और विदेशी है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग नहीं मिलता । एक अत्यन्त परवर्ती तन्त्रग्रन्थ, 'मेरुतन्त्र' में इसका उल्लेख पाया जाता है। इसका सन्दर्भ निम्नाङ्गित है : पञ्चखाना सप्तमीरा नव साहा महाबलाः । हिन्दूधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिनः ।। हीनञ्च दूशयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रियं । पूर्वाम्नाये नवशतां षडशीतिः प्रकीर्तिताः ॥ (मेरुतन्त्र, ३३ प्रकरण) उपर्युक्त सन्दर्भ में 'हिन्दू' शब्द की जो व्युत्पत्ति दी गयी है वह है 'हीनं दूषयति स हिन्दू' अर्थात् जो हीन (हीनता अथवा नीचता) को दूषित समझता ( उसका त्याग करता ) है, वह हिन्दू है। इसमें सन्देह नहीं कि यह योगिक व्युत्पत्ति अर्वाचीन है, क्योंकि इसका प्रयोग विदेशी आक्रमणकारियों के संदर्भ में किया गया है। वास्तव में यह 'हिन्दू' शब्द भौगोलिक है । मुसलमानों को यह शब्द फारस अथवा ईरान से मिला था। फारसी कोषों में 'हिन्द' और इससे व्युत्पन्न अनेक शब्द पाये जाते हैं, जैसे हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुवी, हिन्दुवानी, हिन्दूकुश, हिन्दसा, हिन्दसाँ, हिन्दुवाना, हिन्दुएचर्ख, हिन्दमन्द आदि । इन शब्दों के अस्तित्व से स्पष्ट है कि 'हिन्द' शब्द भूलतः फारसी है और इसका अर्थ 'भारतवर्ष' है । भारत फारस (ईरान) का पड़ोसी देश था। इसलिए वहाँ इसके नाम का बहुत प्रयोग होना स्वाभाविक था। फारसी में बलख-नगर का नाम 'हिन्दवार', इसके पास के पर्वत का नाम 'हिन्दूकुश' और भारतीय भाषा और संस्कृति के लिए 'हिन्दकी' शब्द मिलता है। इन शब्दों के प्रयोग से यह निष्कर्ष निकलता है कि फारसी बोलनेवाले लोग हिन्द ( भारत ) से भली-भांति परिचित थे और वे हिन्दुकुश तक के प्रदेश को भारत का भाग समझते थे । निस्सन्देह फारस के पूर्व का देश भारत ही 'हिन्द' था। अब प्रश्न यह है कि 'हिन्दू' शब्द फारसवालों को कैसे मिला। फारस के पूर्व सबसे महत्त्वपूर्ण भौगोलिक अवरोध एवं दृश्य 'सिन्धु नद' और उसकी दक्षिण तथा वामवर्ती सहायक नदियों का जाल है। पूर्व से सिन्धु में सीधे मिलनेवाली तीन नदियाँ वितस्ता ( झेलम ), परुष्णी ( रावी) और शतद्रु ( सतलज) ( उपनदियों के साथ ) और पश्चिम से भी तीन सुवास्तु ( स्वात ) कुभा ( काबुल ) और गोमती ( गोमल ) हैं। इन छः प्रमुख नदियों के साथ सिन्धु द्वारा सिञ्चित प्रदेश का नाम 'हफ्तहेन्दु' (सप्तसिन्ध) Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दुत्व ७०३ था। यह शब्द सबसे पहले 'जेन्दावस्ता' ( छन्दावस्था) पारसी धर्मग्रन्थ में मिलता है । फारसी व्याकरण के अनुसार संस्कृत का 'स' अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण 'सिन्धु' 'हिन्दु' हो गया। पहले 'हेन्दु' अथवा 'हिन्द' के रहनेवाले 'हैन्दव' अथवा 'हिन्दू' कहलाये। धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत के लिए इसका प्रयोग होने लगा, क्योंकि भारत के पश्चिमोत्तर के देशों के साथ सम्पर्क का यही एकमात्र द्वार था। इसी प्रकार व्यापक रूप में भारत में रहनेवाले लोगों का धर्म हिन्दू धर्म कहलाया। फारसी भाषा में 'हिन्दू' शब्द के कुछ अन्य घृणासूचक अर्थ भी पाये जाते हैं, यथा डाकू, सेवक, दास, पहरेदार, काफिर ( नास्तिक ) आदि । ये अर्थ अवश्य ही जातीय द्वेष के परिणाम हैं। पश्चिमोत्तर सीमा के लोग प्रायः बराबर साहसी और लड़ाकू प्रवृत्ति के रहे हैं। अतः वे फारस के आक्रामक, व्यापारी और यात्री सभी को कष्ट देते रहे होंगे। इसीलिए फारसवाले उन्हें डाकू कहते थे और जब फारस ने इस्लाम स्वीकार किया तो नये जोश - में उनको काफिर ( नास्तिक) भी कहा। परन्तु जैसा पहले लिखा जा चुका है, 'हिन्दू' का तात्पर्य शुद्ध भौगो- लिक था। __ अब प्रश्न यह है कि आज 'हिन्दू' और 'हिन्दूधर्म' किसे कहना चाहिए। इसका मल अर्थ भौगोलिक है। इसको स्वीकार किया जाय तो हिन्द ( भारत ) का रहनेवाला 'हिन्दू' और उसका धर्म 'हिन्दुत्व' है। मस्लिम आक्रमणों के पूर्व भारत में इस अर्थ की परम्परा बराबर चलती रही। जितनी जातियाँ बाहर से आयीं उन्होंने 'हिन्दु' जाति और 'हिन्दुत्व' धर्म स्वीकार किया। इस देश में बहुत से परम्परावादी और परम्पराविरोधी आन्दोलन भी चले, किन्तु वे सब मिल-जुल कर 'हिन्दुत्व' में ही विलीन हो गये। वैदिक धर्म ही यहाँ का प्राचीनतम सुव्यवस्थित धर्म था जिसने क्रमशः अन्य आर्येतर धर्मों को प्रभावित किया और उनसे स्वयं प्रभावित हआ। बौद्ध और जैन आदि परम्परा विरोधी धार्मिक तथा दार्शनिक आन्दोलनों का उदय हुआ। किन्तु कुछ ही शताब्दियों में वे मूल स्कन्ध के साथ पुनः मिल गये। सब मिलाकर जो धर्म बना वहीं हिन्दू धर्म है। यह न तो केवल मूल वैदिक धर्म है और न आर्येतर जातियों की धार्मिक प्रथा अथवा विविध विश्वास, और नहीं बौद्ध अथवा जैन धर्म; यह सभी का पञ्चमेल और समन्वय है। इसमें पौराणिक तथा तान्त्रिक तत्त्व जुटते गये और परवर्ती धार्मिक सम्प्रदायों, संतों, महात्माओं और आचार्यों ने अपने-अपने समय में इसके विस्तार और परिष्कार में योग दिया। 'प्रवर्तक धर्म' होने के कारण इस्लाम और ईसाई धर्म हिन्दू धर्म के महामिलन में सम्मिलित होने के लिए न पहले तैयार थे और न आजकल तैयार हैं। किंतु जहाँ तक हिंदुत्व का प्रश्न है, इसने कई मुहम्मदी और मसीही उप-सम्प्रदायों को 'हिन्दू धर्म' में सम्मिलित कर लिया है। इस प्रकार हिंदुत्व अथवा हिन्दू धर्म वर्द्धमान विकसनशील, उदार और विवेकपूर्ण समन्वयवादी (अनुकरणवादी नहीं ) धर्म है। हिन्दू और हिन्दुत्व की एक परिभाषा लोकमान्य तिलक ने प्रस्तुत की थी, जो निम्नाङ्कित है : आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभमिका । पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ॥ [सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु ( हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू ( अथवा मातृभूमि ) तथा पुण्यभू (पवित्र भूमि ) है, वह 'हिन्दू' कहलाता है ( और उसका धर्म हिन्दुत्व )।] सम्पूर्ण हिन्दू तो ऐसा मानते ही हैं। यहाँ बसनेवाले मुसलमान और ईसाइयों की पितृभूमि ( पूर्वजों की भूमि ) भारत है ही। यदि इसे वे पुण्यभूमि भी मान लें तो हिन्द की समस्त जनता हिन्दू और उनका समन्वित धर्म हिन्दुत्व माना जा सकता है। यह सत्य केवल राजनीति की दृष्टि से ही नहीं धर्म और शान्ति की दृष्टि से भी वांछनीय है। भारत की यही धार्मिक साधना रही है। परन्तु इसमें अभी कई अन्तर्द्वन्द्व वर्तमान और संघर्षशील हैं। अभी वांछनीय समन्वय के लिए अधिक समय और अनुभव की अपेक्षा है। अन्तर्द्वन्द्व तथा अपवादों को छोड़ देने के पश्चात् अपने अपने विविध सम्प्रदायों को मानते हुए भी हिन्दुत्व की सर्वतोनिष्ठ मान्यताएँ हैं, जिनको स्वीकार करनेवाले हिन्दू कहलाते हैं। सर्वप्रथम, हिन्दू को निगम ( वेद ) और आगम (तर्कमूलक दर्शन ) दोनों और कम से कम दोनों Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ में से किसी एक को अवश्य मानना चाहिए। दूसरे, ईश्वर पर विश्वास रखना हिन्दू के लिए वांछनीय है किन्तु अनिवार्य नहीं यदि वह कोई धर्म, परमार्थ अथवा दार्श निक दृष्टिकोण मानता है तो हिन्दू होने के लिए पर्याप्त है। जहाँ तक धार्मिक साधना अथवा व्यक्तिगत मुक्ति का प्रश्न है, हिन्दू के लिए अनन्त विकल्प हैं, यदि वे उसके विकास और चरम उपलब्धि में सहायक होते हैं। नैतिक जीवन में वह जनकल्याण के लिए समान रूप से प्रतिबद्ध हैं इष्ट (यश) पूर्त ( लोककल्याणकारी कार्य ) कोई भी वह कर सकता है । सदाचार ही धर्म का वास्तविक मूल माना गया है ( आचार प्रभवो धर्मः ); इसके बिना तो वेद भी व्यर्थ हैं आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीताः सह परि छन्दास्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीदं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ ( वसिष्ठ स्मृति) , [ आचारहीन व्यक्ति को वेद पवित्र नहीं करते चाहे वे छः अङ्गों के साथ ही क्यों न पढ़े गये हों । मृत्युकाल में मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी घोंसले को। ] हिमपूजा पूर्णिमा को चन्द्रमा का जो भगवान् विष्णु का वाम नेत्र है, पुष्पों, दुग्ध के नैवेद्य से पूजन करना चाहिए। गौओं को लवण दान करना चाहिए। मां बहिन तथा पुत्री को रक्त वस्त्र देकर सम्मान करना चाहिए । यदि व्रती हिम (बर्फ) के समीप हो तो उसे अपने पितृगणों को हिम के साथ मधु, तिल तथा घी का दान करना चाहिए । यदि हिम का अभाव हो तो मुख से केवल 'हिम', 'हिम' शब्द का उच्चारण करते हुए ब्राह्मणों को घृत से परिपूर्ण उरद से बने खाद्य पदार्थ खिलाने चाहिए । नृत्य, गायन, वादन के साथ उत्सव का आयोजन किया जाय तथा श्यामा देवी का पूजन हो । 1 हिरण्यकशिपु - एक दैत्य का नाम इसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है। कश्यप का पुत्र हिरण्यकशिपु उसकी दिति पत्नी से उत्पन्न हुआ था । उसका सहोदर हिरण्याक्ष और भार्या कयाधु थी । इसके पुत्रों के नाम संह्राद, अनुहाद, हाद और प्रह्लाद थे। इसकी कन्या का नाम सिंहिका था । यह विष्णु का विरोधी था । इसका पुत्र प्रह्लाद विष्णु का भक्त था इसलिये इसने अपने पुत्र हिमपूजा को बहुत सताया और विविध प्रकार की यातनायें दीं । इसका वध करने के लिये विष्णु भगवान् ने नृसिंह अवतार धारण किया और अपने भयंकर नाखूनों द्वारा इसके उदर को विदीर्ण कर इसको मार डाला। दे० 'नृसिंहावतार' । 1 हिरण्य कामधेनु हिरण्य अथवा स्वर्ण की बनी हुई कामधेनु । षोडश महादानों में इसकी गणना है । मत्स्यपुराण ( अध्याय २५३ ) में इसके दान का विस्तार के साथ वर्णन है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा देवता सृष्टि के आदि में नारायण की प्रेरणा से ब्रह्माण्ड का आरम्भिक रूप सुवर्ण जैसा प्रकाशमान गोलाकार प्रकट हुआ था। उसके फिर ऊर्ध्व और अधः दो भाग हो गये और उनके बीच से ब्रह्माजी प्रकट हुए दे० भागवत पुराण । हिरण्याक्ष - दैत्य विशेष का नाम जिसकी आँखें सोने की अथवा सोने की तरह पीली हों वह हिरण्याक्ष है । यह दिति से उत्पन्न कश्यप का पुत्र था। पुराकथा के अनुसार इसने पृथ्वी का अपहरण कर विष्टा के परकोटे के भीतर रखा था। विष्णु ने वाराह अवतार के रूप में परकोटे का भेदन कर इसका वध तथा पृथ्वी का उद्धार किया । हिरण्याश्व तुलापुरुषादि षोडश महादानों में एक विशेष दान | दे० मत्स्य पुराण, (अध्याय २८० ) । हिरण्याश्वरथ पोडश महादानों में एक विशेष दान षोडश महादानों की गणना इस प्रकार है : । आद्यन्तु सर्वदानानां तुलापुरुषसंज्ञितम् । हिरण्यगर्भदानञ्च ब्रह्माण्डं तदनन्तरम् ॥ कल्पपादप दानञ्च गोसहस्रञ्च पञ्चमम् । हिरण्यकाधेनुञ्च हिरण्याश्वस्तथैव च ।। पञ्चाङ्गल धरादानं वय च । हिरण्याश्वदथस्तद्वत् हेमहस्तिरथस्तथा ॥ द्वादशं विष्णुचक्रञ्च ततः कल्पलतात्मकम् । सप्तसागरदानञ्च रत्ननुणस्तथैव च ।। महाभूतघटस्तद्वत् षोडशः परिकीर्तितः ॥ हुताश, हुताशन - अग्नि । इसका शाब्दिक अर्थ है 'हुत ( हविष्य ) है अशन (भोजन) जिसका ' । - गन्धर्व विशेष इसका संगीत से सम्बन्ध है । दे० 'हाहा' । -- Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ-हैमवती हूँ — तन्त्रशाखा के ग्रन्थों का एक बीजाक्षर, जो उग्रता का सूचक है । हकारो नाम कर्णादयो नादबिन्दूविभूषितः । कूर्चं क्रोध उग्रदर्पो दीर्घहङ्कार उच्यते ॥ शिखावषट् च कवचं क्रोधो वर्म हमित्यपि । क्रोधाख्यो हूँ तनुत्रञ्च शस्त्रादौ रिपुसंज्ञकः ॥ हृदय विधि - सूर्यदेव के सुप्रसिद्ध स्तोत्र 'आदित्यहृत्य' के पाठ करने का विधान, जिसमें पूजा, जय, व्रत का भो समावेश है । हृषीकेश - विष्णु का नाम, हृषीक ( इन्द्रियों) के ईश (स्वामी) । शङ्कराचार्य (गीताभाष्य ) के अनुसार " क्षेत्रज्ञरूपकत्वात् परमात्मत्वाद्वा इन्द्रियाणि यद्वशे वर्तन्ते स परमात्मा ।" पौराणिकों के अनुसार 'हृष्य: जगत्प्रीतिकरा केशाः रश्मयो यस्य स हृषीकेश:' ( जगत् को प्रसन्न करने वाली हैं रश्मियाँ जिसकी ) अर्थात् सूर्यचन्द्ररूप भगवान् । महाभारत के मोक्षधर्म पर्व में कहा गया है : सूर्याचन्द्रमसोः शश्वत् अंशुभिः केशसंज्ञितः । बोधयत् स्वापयच्चैव जगदुद्भिद्यते पृथक् ॥ बोधनात् स्वापनाच्चैव कर्मभिः पाण्डुनन्दन । garbaseमीशानो वरदो लोकभावनः ।। दे० वाराह पुराण, रुरुक्षेत्र हृषीकेष महिमानाम अध्याय; कूर्म पुराण अध्याय २७ । हेमाद्रि - मध्यकालीन धर्मशास्त्र निबन्धकारों में हेमाद्रि का स्थान बहुत ऊँचा है । ये बहुत बड़े लेखक और शास्त्रकार थे । इन्होंने चतुर्वर्ग चिन्तामणि की रचना की जो धार्मिक क्रियाओं और व्रतों का विश्वकोश है । इस ग्रन्थ के एक उल्लेख से विदित होता है कि इन्होंने इस महाकाव्य ग्रन्थ को पाँच खण्डों में लिखने का निश्चय किया था। ये खण्ड थे व्रत, दान, तीर्थ, मोक्ष और परिशेष । परिशेष भी चार भागों में विभक्त था — देवता, काल निर्णय, कर्मविपाक और लक्षण समुच्चय । इस महाग्रन्थ का जितना अंश प्रकाशित हो चुका है उसमें व्रत, दान, श्राद्ध और काल का निरूपण है। तीर्थ और मोक्ष सम्बन्धी अंश अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया है। हेमाद्रि धर्मशास्त्र के अतिरिक्त मीमांसाशास्त्र के भी बहुत बड़े थे | अपने ग्रन्थ में इन्होंने धर्म और ७०५ दर्शन के अवतरणों द्वारा अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है । चतुर्वर्गचिन्तामणि के कुछ उल्लेखों से हेमाद्रि के जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है । ये वत्सगोत्रीय थे, पिता का नाम कामदेव और पितामह का नाम वासुदेव था | देवगिरि के यादव राजा महादेव के करणाधिकारी ( कार्यालय के प्रमुख अध्यक्ष ) तथा सम्मान्य मन्त्री थे । इनका जीवन काल तेरहवी शती का उत्तरार्द्ध और चौदहवीं का पूर्वार्द्ध था । ये बड़े दानी और उदार थे : लिपि विधात्रा लिखितां जनस्य भाले विभूत्या परिमृज्य दुष्टाम् । कल्याणिनीमेष लिखत्यैनां चित्र प्रमाणीकुरुते विधिश्च ।। ( हेमाद्रि, १.१५ ३.१.१७) [ विधाता द्वारा दरिद्र जनों के ललाट पर जो दरिद्रता की रेखा लिख गयी थी, उस दुष्ट लेख को अपने दान द्वारा मिटाकर ये कल्याणी रेखा लिखते थे । विचित्र तो यह है कि ब्रह्मा इसका प्रमाणीकरण भी कर देते हैं ] चतुर्वर्गचिन्तामणि ( दानखण्ड ) में इनके सम्बन्ध में ये उदात्त श्लोक पाये जाते हैं : महादेवस्य हेमाद्रिः सर्वश्रीकरणप्रभुः । निजोदारतया यस्य सर्वश्रीकरणप्रभुः ॥ अनेन चिन्तामणिकामधेनु कल्पद्रुमानर्थजनाय दत्तान् । विलोक्य शङ्के किममुष्य सर्वगीर्वाणनाथोऽपि कर प्रदोऽभूत् ॥ अथामुना धर्मकथा दरिद्र त्रैलोक्यमालोक्य कलेर्बलेन । तस्यापकारे दधतानुचिन्तां चिन्तामणिः प्रादुरकारि चारु ।। हेरम्ब - गणेश का पर्याय । इनका मन्त्र निम्नांकित है । पञ्चान्तको विन्दुयुक्तो वामकर्णविभूषितः । तारादिहृदयान्तोऽयं हेरम्बमनुदीरितः ॥ चतुर्वर्णात्मको नॄणां चतुर्वर्गफलप्रदः ॥ ध्यान इस प्रकार है : पाशाङ्कुशी कल्पलतां विषाण दधत्स्वशुण्डाहितबीजपूरः । रक्तस्त्रिने स्तरुणीन्दुमौलिर्हारोज्ज्वलो हस्तिमुखोऽवताद्वः ॥ हैमवती - पार्वती, हिमवान् ( हिमालय ) की पुत्री । देवीभागवत (१२.८.५७) में कहा है, "उमाभिधानां पुरतो देवीं हैमवतीं शिवाम् ।" Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैहय-ह्लादिनी हैहय-यादवों की एक शाखा । ये लोग कुछ समय तक होत्र--होम करने की क्रिया अथवा अज्ञ । दे० 'होम' । वीतहव्य ( यज्ञ का त्याग करने वाले ) थे। भार्गवों से। होम-अग्नि में देवताओं के लिए किसी वस्तु का विधिइनका संघर्ष था। इसी वंश के सहस्रार्जुन कार्तवीर्य का पूर्वक प्रक्षेप । यह पञ्च महायज्ञों में से एक यज्ञ है। मनु परशुराम से युद्ध हुआ था। पीछे हैहयों की एक शाखा का कथन है : ब्राह्मण और वैदिक कर्मकाण्ड की समर्थक बन गयी । देः अथर्ववेद, ब्रह्मगवीसूक्त । अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होता-ऋग्वेद का पाठ करने वाला । अमरकोष होमो देवो बलिभौं तो नयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥ (२.७.१७ ) में इसका अर्थ 'ऋग्वेदवेत्ता' बताया गया होमक-होता का पर्याय । मत्स्य पुराण (९३.१२८-१२९) है। 'दायभाग' टीका में श्री कृष्णतकलिंकार ने इसका में आठ प्रकार के होता बतलाये गये हैं : अर्थ 'होमकर्ता' किया है। उनका कथन है, 'विशिष्ट देशावच्छिन्नप्रक्षेपोपहितहविस्त्यागस्य होमत्वात् प्रक्षे पूर्वद्वारे च संस्थाप्य वह्व.चं वेदपारगम् । पस्य तदभिधाननिमित्तमित्यर्थः । तेन धात्वर्थताव यजुर्विदं तथा याम्ये पश्चिमे सामवेदिनम् ।। च्छेदकप्रक्षेपानुकूल व्यापारयति ऋत्विजि होता इत्यादि अथर्ववेदिनं तद्वदुत्तरे स्थापयेद् बुधः । व्यपदेशः ।" होमक्रिया में मुख्यतः ऋग्वेद मन्त्र पढ़कर अष्टौ तु होमकाः कार्या वेदवेदाङ्गवेदिनः ।। आहतियाँ दी जाती है। अतः होता ऋग्वेदवेत्ता ही ह्लादिनी-एक विशेष शक्ति । यह भगवान की ही सुखरूप होता है। शक्ति है जो विश्व को आनन्द प्रदान करती है । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान : हिन्दी ग्रन्थ अकादमी प्रभाग के दर्शन, धर्म, संस्कृति और इतिहास विषयक प्रकाशन * वेदान्त दर्शन वि०१५-०० सा० १२.०० * ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य नीति विज्ञान के मूल सिद्धांत १०-०० समकालीन भारतीय दर्शन १४-०० समकालीन पाश्चात्य दर्शन १६-०० * ब्रेडले का दर्शन १२-५० गीता का तात्विक विवेचन १३-०० तर्क संग्रह (दीपिका) १२-५० * भारतीय दर्शन २५-०० * भारतीय समीक्षा १७-०० * सौन्दर्य का तात्पर्य * भारतीय संस्कृति और कला १७-५० * भारत का सांस्कृतिक इतिहास १२-०० सिन्धु सभ्यता १५-०० * भारतीय कला परिचय १२-५० * आधुनिक भारत का इतिहास २०-०० * भारत का स्वर्णयुग * भारतीय पुरैतिहासिक पुरातत्व १५-०० For ale & Personal Use Only walne gry org Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उa डाल इन उतानस नविण्वन दडलडाग उतान For Privale & Personal use only www.paintbrany org