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ईशानव्रत-उक्थ
तत्रेशानं समभ्यय॑ त्रिरात्रोपोषितो नरः ।
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम् । [शिव का पूजन करके मनुष्य को तीन रात्रि तक व्रत वाग्दडजश्च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणाष्टकः ।। करना चाहिए।
[ पिशुनता, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण ग्यारह रुद्रों के अन्तर्गत एक रुद्र ।
तथा वाग्दण्ड से उत्पन्न पारुष्य ये क्रोध से उत्पन्न आठ ईशानवत-शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तथा पूर्णिमा के दिन ।
दुर्गुण कहे गये हैं।] जब गुरुवार हो, इस व्रत का आचरण किया जाता है।
ईहा-वाञ्छा, इच्छा, चेष्टा : पाँच वर्षों तक विष्णु भगवान् के साथ लिङ्ग के वाम भाग
धर्मार्थ यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरोहता । का पूजन तथा खखोल्क (सूर्य) के साथ दक्षिण भाग का पूजन
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम् ।। होता है । एक वर्ष के पश्चात एक गौ का दान, दो वर्ष
(महाभारत) के बाद दो गौओं का, तीन वर्ष के बाद तीन गौओं का,
[धर्म के लिए धन की इच्छा की अपेक्षा निरीहता चार वर्ष के बाद चार गौओं का और पाँच वर्ष के बाद
( निश्चेष्टता ) ही श्रेष्ठ है, क्योंकि कीचड़ को धोने पाँच गौओं का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु,
की अपेक्षा उसे न छूना ही अच्छा है। ] व्रतकाण्ड ३८३-३८५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१७९-१८० । ईशोपनिषद-ईशावास्य उपनिषद् का संक्षिप्त नाम । यह १८
उ-स्वरवर्ण का पञ्चम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका मन्त्रों का एक दार्शनिक सङ्कलन है। इसका सम्बन्ध
तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित है : शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा से है । यजुर्वेद के
उकारः परमेशानि अधः कुण्डली स्वयम् । अन्तिम ( चालीसवें ) अध्याय में यह उपनिषद् संगृहीत
पीतचम्पकसंकाशं पञ्चदेवमयं सदा ॥ है । इसे यजुर्वेद का उपसंहार समझना चाहिए । यह कर्म
पञ्चप्राणमयं देवि चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ योगवादी उपनिषद् है और इसमें कर्म और ज्ञान का समन्वय स्वीकार किया गया है। संक्षेप में हिन्दुत्व के मूल
[हे देवी! उकार ( उ अक्षर ) स्वयं अधः कुण्डली भूत सिद्धान्त इसमें आ गये हैं। इसका प्रथम मन्त्र इस
है। पीले चम्पक के समान इसका रंग है । सर्वदा पञ्चदेवदृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है :
मय है । पञ्चप्राणमय तथा चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्चिज् जगत्यां जगत् ।
मोक्ष) का देनेवाला है।] वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ॥
इस प्रकार हैं: [यह सम्पूर्ण विश्व ईश ( ईश्वर ) से आवास्य ( ओत
उः शङ्करो वर्तुलाक्षी भूतः कल्याणवाचकः । प्रोत ) है । जगत् में जो कुछ है वह चलायमान ( परि
अमरेशो दक्षः कर्णः षड्वक्त्रो मोहनः शिवः ॥ वर्तनशील = नश्वर ) है। इसलिए त्यागपूर्वक जागतिक
उग्रः प्रभुधृतिविष्णुर्विश्वकर्मा महेश्वरः । पदार्थों का भोग करना चाहिए। किसी दूसरे के स्वत्व
शत्रुघ्नश्चरिका पुष्टिः पञ्चमी वह्निवासिनी ॥ का लोभ नहीं करना चाहिए। धन-सम्पत्ति किसकी है ?
कामघ्नः कामना चेशो मोहिनी विघ्नहन्मही । अर्थात् किसी की नहीं है अथवा किसी एक व्यक्ति की
उढसूः कुटिला श्रोत्रं पारदीपो वृषो हरः ।। नहीं, अपितु ईश्वर की है। ] दूसरा मन्त्र है : ।
उक्थ-वेदमन्त्रात्मक स्तोत्र; यज्ञ का एक भेद; सामगान का कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एक प्रकार, सामवेद : 'विप्रा उक्थेभिः कवयो गुणन्ति ।' [ कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करनी [बुद्धिमान् ब्राह्मण सामवेद के द्वारा स्तुति करते हैं ।] चाहिए। इस प्रकार ( त्यागभाव से ) कर्म करने से अथ योसावन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते सैव तत्साम मनुष्य पर कर्म के बन्धन का लेप नहीं होता ।]
तद् यजुः तद् उक्थं तद् ब्रह्म । ( छान्दोग्योपनिषद् ) ईर्ष्या-दूसरे को उन्नति में असहिष्णुता रखना । धार्मिक [यह जो आँख के भीतर पुरुष ( आकार) दिखाई साधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। इसका पर्याय है देता है वही ऋग्वेद, वही सामवेद, वही स्तोत्र (सामवेद अक्षान्ति । मनुस्मृति (७.२८) का कथन है :
का सूक्त), वही यजुर्वेद और वही ब्रह्म है। ]
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