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ईश्वरगणगौरीव्रत-ईशान
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न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का ईश्वर कृष्ण--'सांख्यकारिका' के रचयिता । चीनी विद्वानों निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृद्- के अनुसार इनका अन्य नाम विन्ध्यवासी था और ये वसुभाण्ड तैयार करता है, वैसे ही ईश्वर प्रकृति का उपादान बन्धु से कुछ समय पूर्व हुए थे । विद्वानों ने इनका समय लेकर सृष्टि की रचना करता है। योगदर्शन में ईश्वर चतुर्थ शताब्दी का प्रारम्भ माना है । परम्परानुसार 'सांख्यपुरुष है और मानव का आदि गुरु है। सांख्यदर्शन के कारिका' षष्टितन्त्र' का पुनर्लेखन है, जो ईश्वरवादी अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है; विकास- सांख्यों का प्रामाणिक ग्रन्थ है। सांख्यकारिका में कुल प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं । पूर्वमीमांसा सत्तर आर्या पद्य (कारिकाएँ) हैं, जिनको रचना की दृष्टि भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती । से बहत ही उत्तम कहा जा सकता है। मीमांसा के दुरूह उसके अनुसार वेद स्वयम्भू है; ईश्वरनिःश्वसित नहीं ।। वेदान्तसूत्र एवं जैमिनिसूत्र ग्रन्थों से भिन्न प्रसाद गुण की आहत, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों में ईश्वर की सत्ता
यह कृति पूर्णतया बोधगम्य है, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञानार्थी स्वीकार नहीं की गयी है।
के लिए अवश्य दुरूह है । दे० 'सांख्यकारिका'। भक्त दार्शनिकों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ है-१. द्वैत
ईश्वरगीता-दक्षिणमार्गी शाक्त मत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । वादी आचार्य मध्व आदि ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व
इसके ऊपर भास्करानन्दनाथ ने, जिन्हें भास्कर राय भी स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का
कहते हैं और जो अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तंजौर साफल्य देखते हैं । २. अद्वैतवादियों में ईश्वर को लेकर
के राजपण्डित थे, सुन्दर टीका लिखी है। कई सूक्ष्म भेद है । रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका-काश्मीर शव मत के साहित्यिक मानते हैं । वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना
विकास में और विशेष कर इसके दार्शनिक पक्ष में सोमाकर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धाद्वैत
नन्द के 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है । सोमानन्द ही मानते हैं। ऐसे ही भेदाभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि
के ही शिष्य उत्पलाचार्य ने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की कई मत है । दे० 'निम्बार्क' तथा 'चैतन्य' ।
रचना की। इस कारिका की व्याख्या सोमानन्द के एक ईश्वरगणगौरीवत-चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया
दूसरे शिष्य अभिनवगुप्त (१००० ई० ) ने की। तक लगातार १८ दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है । यह केवल सधवा स्त्रियों के लिए है। इसमें
ईश्वरसंहिता-वैष्णव अथवा पाञ्चरात्र मत के उदय एवं गौरी-शिव की पूजा होती है। मालव प्रदेश में यह बहुत
विस्तारात्मक इतिहास में संहिताओं का प्रमुख स्थान है। प्रसिद्ध है।
यह अनिश्चित है कि ये कब और कहाँ लिखी गयीं।
संख्या में ये १०८ कही जाती हैं। ईश्वरव्रत-किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें शिवजी की पूजा
ईश्वरसंहिता तमिल (दक्षिण) देश में लिखी गयी, जब होती है । दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१४८ ।
कि अधिकांश संहिताएँ उत्तर भारत में ही रची गयीं। ईश्वरा-पार्वती का एक पर्याय, यथा
ईश्वरसंहिता में वैष्णवसंत शठकोप का वर्णन है। विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः
ईश्वरी-दुर्गा देवी का पर्याय । देवीमाहात्म्य-स्तुति में स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः ॥ (किरातार्जुनीय)
कथन है : [ शङ्करजी ने पार्वती के मङ्गलमय कंकण पहने हुए
'त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ।' हाथ को अपने हाथ से सौ को ऊपर उठाकर ग्रहण [हे देवि ! तुम चर-अचर सब प्राणियों की समर्थ किया।]
स्वामिनी हो।] ___ लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों के लिए भी इस शब्द ईश-ईश्वर, परमात्मा ( उपनिषदों के अनुसार ) । ब्रह्मा, का प्रयोग होता है।
विष्णु, शिव ( पुराणों के अनुसार ) । परवर्ती काल में ईश्वराभिसन्धि-कविताकिक श्रीहर्ष रचित अद्वैतमत का _ 'ईश' का प्रयोग प्रायः 'शिव' के अर्थ में ही अधिक हुआ। एक प्रसिद्ध ग्रन्थ ।
ईशान--शिव का एक पर्याय, यथा
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