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अन्तः-कथासंग्रह - अन्त्यज
तदप्यपाकीर्णमितः प्रियंवदाम् । वयस्थपर्णेति च तां पुराविदः ॥
( कुमारसम्भव ) [स्वयं गिरे हुए पत्तों का भक्षण करना, यह तपस्वियों के लिए तपस्या की अन्तिम सीमा है। किन्तु पार्वती ने उन गिरे हुए पत्तों का भी भक्षण नहीं किया। अतः उसे विद्वान् लोग अपर्णा कहते हैं ।] अपवर्ग - ( १ ) संसार से मुक्ति मानवजीवन के चार पुरुषार्थी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से अन्तिम गोक्ष अपवर्ग कहलाता है ।
(२) इसका एक अर्थ फलप्राप्ति वा समाप्ति भी है: क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः । (किरातार्जुनीय)
[क्रिया की सफल समाप्ति हो जाने पर पुरस्कार रूप में सेवकों को दी गयी सम्पत्ति दुर्योधन की कृतज्ञता को प्रकट करती है ।]
अपविद्धधर्मशास्त्र में वर्णित वारह प्रकार के पुत्रों में एक स्मृतियों ने इसकी स्थिति एवं अधिकार के बारे में प्रकाश डाला है । मनु ( ९.१७१) कहते हैं कि अविपद्ध अपने माता-पिता द्वारा त्यागा हुआ पुत्र है। मनु के पुराने भाष्यकार मेधातिथि का कथन है कि इस पुत्रत्याग का कारण परिवार की अधिक गिरी दशा अथवा पुत्र के द्वारा किया हुआ कोई जघन्य अपराध होता था। ऐसे त्यागे हुए बालक पर द्रवित हो यदि कोई उसे पालता था तो उसका स्थान दूसरी श्रेणी के पुत्रों जैसा घटकर होता था। आजकल का पालित पुत्र उन्हीं प्राचीन प्रयोगों की स्मृति दिलाता है।
अपात्र -- दान देने के लिए अयोग्य व्यक्ति । इसको कुपात्र अथवा असत्पात्र भी कहते हैं :
'अपात्रे पातयेद्दत्तं सुवर्णं
नरकार्णवे' ( मलमास तत्त्व ) [ अपात्र को दिया गया सुवर्णदान दाता को नरकरूपी समुद्र में गिरा देता है ।] अपापसङ्क्रान्ति व्रत -- यह व्रत संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है । इसके देवता सूर्य हैं । इसमें श्वेत तिल का समर्पण किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड,
२.७२८-७४० ।
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अपुनर्भव- पुनर्जन्म न होने की स्थिति इसको मुक्ति, कैवल्य अथवा पुनर्जन्म का अभाव भी कहते हैं । मानव के चार पुरुषार्थी - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यह अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ।
अपूर्व जो यज्ञादिक क्रियाएं की जाती है, शास्त्रों में उनके बहुत से फल भी बतलाये गये हैं। किन्तु ये फल क्रिया के अन्त के साथ ही दृष्टिगोचर नहीं होते कृत कर्म आत्मा में उस अदृश्य शक्ति को उत्पन्न करते हैं जो समय आने पर वेदविहित फल देती है । इस विचार की व्याख्या करते पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि धर्म आत्मा में अपूर्व नामक गुण उत्पन्न करता है जो स्वर्गीय सुख एवं मोक्ष का कारण है। कर्म और उसके फल के बीच में अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है। विशेष विवरण के लिए दे० 'मीमांसादर्शन' |
अपवान वेद (यमप्नवानो भगवो विरुरुचुः ॥४.७.१) में अप्नवान का उल्लेख भृगुओं के साथ हुआ है। लुडविग अप्नवान के भृगुकुल में उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं।
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अप्पण्णाचार्य - एक प्रसिद्ध वेदान्ती टीकाकार। तैत्तिरीयो पनिषद् के बहुत से भाष्य एवं वृत्तियां हैं। इनमें शरा चार्य का भाष्य तो प्रसिद्ध है ही; आनन्दतीर्थ, रङ्गरामानुज, सायणाचार्य ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं । अप्पण्णाचार्य, व्यासतीर्थ और श्रीनिवासाचार्य ने आनन्दतीर्थकृत भाष्य की टीका की है।
अप्पय दीक्षित - स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित अद्वैत सम्प्रदाय की परम्परा में जो उच्च कोटि के विद्वान् हुए हैं उनमें अप्पय दीक्षित भी बहुत प्रसिद्ध है। विद्वत्ता की दृष्टि से इन्हें वाचस्पति मिश्र, श्रीहर्ष एवं मधुसूदन सरस्वती के समकक्ष रखा जा सकता है । ये एक साथ ही आलङ्कारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक थे । इन्हें 'सर्वतन्त्र स्वतन्त्र' कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी ।
इनका जीवन काल सं० १६०८-१६८० वि० है । इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरि थे । ऐसे पण्डितों का वंशधर होने के कारण इनमें अजूत अद्भुत प्रतिभा का विकास होना स्वाभाविक ही था । पिता और पितामह के संस्कारानुसार इन्हें अद्वैतमत की शिक्षा मिली थी। तवापि ये परम शिवभक्त थे। अतः सिद्धान्त के लिए ग्रन्थ रचना करने में भी इनकी रुचि थी । तदनुसार
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