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अथर्ववेद
इन्होंने 'शिवतत्त्वविवेक' आदि पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की मत) १८. नियमयूथमालिका (श्रीकण्ठमत) १९. शिवार्करचना की। इसी समय नमर्दा तीरनिवासी नृसिंहाश्रम मणिदीपिका २०. रत्नत्रयपरीक्षा (शैवमत) २१. मणिस्वामीने इन्हें अपने पिता के सिद्धान्त का अनुसरण करने मालिका २२. शिखरिणीमाला २३. शिवतत्त्वविवेक के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने शिवतर्कस्तव २५. ब्रह्मतर्कस्तव २६. शिवार्चनचन्द्रिका परिमल, न्यायरक्षामणि एवं सिद्धान्तलेश नामक ग्रन्थों २७. शिवध्यानपद्धति २८. आदित्यस्तवरत्न २९. की रचना की।
मध्वतन्त्रमुखमर्दन ३०. यादवाभ्युदय व्याख्या। इसके अप्पय दीक्षित अपने पितामह के समान ही विजयनगर अतिरिक्त शिवकर्णामृत, रामायणतात्पर्यसंग्रह, शिवाद्वैतके राजाओं के सभापण्डित थे। कुछ काल तक भट्टोजि
विनिर्णय, पञ्चरत्नस्तव और उसकी व्याख्या, शिवानन्ददीक्षित के साथ इन्होंने काशी में निवास किया था । अप्पय लहरी, दुर्गाचन्द्रकलास्तुति और उसकी व्याख्या, कृष्णदीक्षित शिवभक्त थे एवं भट्रोजि वैण्णव, तो भी दोनों का ध्यानपद्धति और उसकी व्याख्या तथा आत्मार्पण आदि सम्बन्ध अतिमधुर था । दोनों ही शास्त्रज्ञ थे । अतः उनकी निबन्ध भी इनकी उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। दृष्टि में वस्तुतः शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं था। अप्पर-सातवीं, आठवीं तथा नवीं शताब्दियों में तमिल शिवभक्त होते हुए भी इनकी रचनाओं में विष्णुभक्ति का प्रदेश में शैव कवियों का अच्छा प्रचार था। सबसे पहले प्रमाण मिलता है। कई स्थानों पर इन्होंने भक्तिभाव से तीन के नाम आते हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से वैष्णव आलविष्णु की वन्दना की है।
वारों के समानान्तर ही समझे जा सकते हैं। इन्हें इनके ग्रन्थों से सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता
दूसरे धार्मिक नेताओं की तरह 'नयनार' कहते हैं, किन्तु है। मीमांसा के तो ये धुरन्धर पण्डित थे। इनकी
अलग से उन्हें 'तीन' की संज्ञा से जाना जाता है। उनके 'शिवार्कमणिदीपिका' नाम की पुस्तक में इनका मीमांसा,
नाम है-नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति । पहले न्याय, व्याकरण एवं अलङ्कार शास्त्र सम्बन्धी प्रगाढ़
दो का उद्भव सप्तम शताब्दी में तथा अन्तिम का आठवीं पाण्डित्य पाया जाता है। इन्होंने अद्वैतवादी होकर भी
या नवीं शताब्दी में हुआ । आलवारों के समान ये भी श्रीकण्ठसम्प्रदायानुसार 'शिवार्कमणिदीपिका' में विशिष्टा
गायक कवि थे जो शिव की भक्ति में पगे हुए थे । ये द्वैत के पक्ष का पूर्णतया समर्थन किया है। इसी प्रकार
एक मन्दिर से दूसरे में घूमा करते थे, अपनी रची शांकर सम्प्रदाय के समर्थन में विरचित 'सिद्धान्तलेश' में
स्तुतियों को गाते थे तथा नटराज व उनकी प्रिया उमा
की मूर्ति के चारों ओर आत्मविभोर हो नाचते थे । इनके अद्वैत सिद्धान्त की पूर्णतया रक्षा की है तथा अद्वैतवादी, आचार्यों के मतभेदों का दिग्दर्शन कराया है। आचार्यों
पीछे-पीछे लोगों का दल भी चला करता था। इन्होंने
पुराणों के परम्परागत शैव सम्प्रदाय की भक्ति का अनुके एकजीववाद, नाना जीववाद, विम्ब प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद एवं साक्षित्व आदि विषयों में बहुत मतभेद
सरण किया है। हैं। उन सबका स्पष्टतया अनुभव कर दीक्षितजी ने अप्रतिरथ-विपक्ष के महारथियों को हरानेवाला पराक्रमी अपना विचार प्रकट किया है। इनके लिखे हए ग्रन्थों के वीर, जिसके रथ के सामने दूसरे का रथ न ठहर सके नाम यहाँ दिये जाते हैं
अर्थात् युद्ध में जिसका कोई जोड़ न हो। यह एक ऋषि १. कुवलयानन्द २. चित्रमीमांसा ३. वृत्तिवार्तिक का भी नाम है। ऐतरेय (८.१०) तथा शतपथब्राह्मण ४. नामसंग्रहमाला (व्याकरण) ५. नक्षत्रवादावली (९.२.३.१५) में इन्हें ऋग्वेद के एक सूक्त (१०.१०३) वा पाणिनितन्त्रवादनक्षत्रमाला ६. प्राकृतचन्द्रिका का द्रष्टा बतलाया गया है, जिसमें इन्द्र की स्तुति अजेय ( मीमांसा) ७. चित्रपुट ८. विधिरसायन ९. सुखोप- योद्धा के रूप में की गयी है। जीवनी १०. उपक्रमपराक्रम ११. वादनक्षत्रमाला अप्सरा-अप्सरस् शब्द का सम्बन्ध जल से है (अप्जल)। ( वेदान्त) १२. परिमल १३. न्यायरक्षामणि १४. किन्तु गन्धवों की स्त्रियों को अप्सरा कहते हैं, जो अपने सिद्धान्तलेश १५. मतसारार्थसंग्रह (शाङ्कर सिद्धान्त) १६. अलौकिक सौन्दर्य के कारण स्वर्ग की नृत्यांगना कहलाती न्यायमञ्जरी (माध्वमत) १७. न्यायमुक्तावली (रामानुज- हैं । वे इन्द्र की सभा से भी सम्बन्धित थीं। जो ऋषि
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