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आरण्यगान - आरोग्यद्वितीया
समाप्त कर लेता तो उसके लिए तीन मार्ग हुआ करते थे, अपने गुरु के साथ आजन्म रहना, गृहस्व बनना और अरण्यवासी साधु बनना। ऐसे साधु का प्रारम्भिक नाम 'वैखानस' या किन्तु बाद में वानप्रस्थ ( वनवासी) का प्रयोग होने लगा।
सायणाचार्य का कहना है कि आरण्यक साधुओं का पाठ्य 'ब्राह्मण ग्रन्थ' था । इस मत का डायसन ने समर्थन किया है। आरण्यक के विषयों के विभिन्न अध्यायों-धार्मिक क्रियाओं की रहस्यात्मक व्याख्या, दृष्टान्त, आन्तरिक यश आदि का बनवासो साधुओं के विभिन्न प्रकार के अभ्यासों से मेल भी खाता है । किन्तु ओल्डेनवर्ग एवं वेरिडेल कीथ का कथन है कि आरण्यक वे रहस्यात्मक ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन एकांत में ही हो सकता है । प्रो० कीथ का कथन है कि ब्राह्मणों की तरह आरण्यक भी पुरोहितों को पढ़ाया जाता था। दोनों में अन्तर केवल रहस्यों का था, जो आरण्यक ग्रन्थों में है । आरण्यकों में वे ही अध्याय महत्वपूर्ण है जो अपने रूपक, रहस्य, ध्यान आदि पर जोर डालने के कारण ब्राह्मणों से तथा दार्शनिक उपनिषदों से भिन्न हैं । मुख्य आरण्यक ग्रन्थ निम्नांकित है
ऋग्वेद के आरण्यक -
१. ऐतरेय आरण्यक — इसके पाँच ग्रन्थ पाये जाते हैं । दूसरे और तीसरे आरण्यक स्वतन्त्र उपनिषद् हैं। दूसरे के उत्तरार्द्ध के शेष चार परिच्छेदों में वेदान्त का प्रतिपादन है | इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है । चौथे आरण्यक का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन किया है।
२. कौषीतकि आरण्यक - इसके तीन खण्ड हैं । प्रथम दो खण्ड कर्मकाण्ड से भरे हैं। तीसरा खण्ड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता है। यह बहुत सारगर्भित है। आनन्दधाम में प्रवेश करने की विधि इसमें प्रतिपादित है। यजुर्वेद के आरण्यक -
१. तैत्तिरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है। इस आरण्यक में दस काण्ड है। आरणीय विधि का इसमें प्रतिपादन हुआ है।
२. बृहदारण्यक शुक्लयजुर्वेद का है।
सामवेद का आरण्यक -
१. छान्दोग्य आरण्यक यह आरण्यक छः प्रपाठकों
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में विभाजित है। वह आरण्यक आरण्यगान भी कहलाता है। ( कॉवेल, कीथ, विंटरनित्ज) आरण्यमान जिस प्रकार आरण्यकों के पढ़ने अथवा अध्ययन के लिए वन में निवास किया जाता था, उसी प्रकार सामवेद के 'आरण्यगान' के लिए भी विधान था, अर्थात् उसे भी अरण्य (वन) में ही गाया जाता था । आरम्भवाद-जगत् अथवा सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में वैशेषिकों तथा नैयायिकों का मत है कि ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न करता है। इसी सिद्धान्त को आरम्भबाद कहते हैं। नित्य परमाणु एक दूसरे से विभिन्न प्रकार से मिलकर जगत् के अनन्त पदार्थों की रचना ( आरम्भ ) करते हैं । यह एक प्रकार का सर्जनात्मक विकासवाद है ।
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आराध्य ब्राह्मण' आराध्य ब्राह्मण' अर्ध-लिङ्गायतों की दो शाखाओं में से एक है। इन अर्ध-लिङ्गायतों में लिङ्गायत प्रथाएँ अपूर्ण एवं जातिभेद का भाव संकीर्ण हैं । आराध्य ब्राह्मण विशेषकर कर्णाटक एवं तैलंग प्रदेश में पाये जाते हैं । ये अर्ध परिवर्तित स्मार्त हैं जो पवित्र यज्ञोपवीत एवं शिवलिङ्ग धारण करते हैं । अपनी व्यक्तिगत पूजा में वे लिङ्गायत हैं, किन्तु स्मातों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध करते हैं। उनके लिए कोई स्मार्त व्यक्ति वैवाहिक उत्सव सम्पन्न करता है, किन्तु वे दूसरे लिङ्गायतों के घर भोजन नहीं करते ।
दूसरा अर्थ-लिङ्गायत दल जातिबहिष्कृत है, जिसके लिए कोई भी जङ्गम संस्कारोत्सव नहीं करता और वे किसी भी अर्थ में लिङ्गायत समाज में प्रवेश नहीं पा सकते ।
आरुणि यह एक पितृपरक नाम है। अरुण औपवेशि के पुत्र उद्दालक के अर्थ में यह व्यवहृत होता है। आरुणि यशस्वी से भी उद्दालक का बोध होता है, जो जैमिनीय ब्राह्मण ( २१८० ) में सुब्रह्मण्या के आचार्य हैं। आरुणि का प्रयोग जैमिनीय उपनिषद्, ब्राह्मण, काठक संहिता एवं ऐतरेय आरण्यक में भी हुआ है। आरुणेयोपनिषद् - निवृत्तिमार्गी उपनिषदों में इसकी गणना की जाती है। आरोग्यद्वितीया - पौष शुक्ल द्वितीया को अथवा शुक्ल पक्ष की प्रत्येक द्वितीया को उदयकालीन चन्द्र के पूजन का विधान है। चन्द्रमा का पूजन करने के पश्चात् वस्त्रों का
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