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सुश्रुत में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले-पहल एक लाख श्लोकों का 'आयुर्वेद शास्त्र' बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा । ये आठ भाग निम्नांकित हैं। (१) शल्य तन्त्र, ( २ ) शालाक्य तन्त्र, (३) काय चिकित्सा तन्त्र, (४) भूत विद्या तन्त्र, (५) कौमारभृत्य तन्त्र, (६) अगद तन्त्र, (७) रसायन तन्त्र और (८) वाजीकरण तन्त्र ।
इस अष्टाङ्ग आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्व शरीरविज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व और धात्री विद्या भी है। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी) और जलचिकित्सा (हाइड्रो पैथी) आदि आजकल के अभिनव चिकित्सा प्रणालियों के विधान भी पाये जाते हैं। आयुधव्रत- इस व्रत में श्रवण से चार मासपर्यन्त शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म का पूजन करना चाहिए। ये आयुध वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के प्रतीक हैं । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.१४८, १-६; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.८३१ ।
आयुर्व्रत - ( १ ) इस व्रत में एक वर्ष तक शम्भु तथा केशव (विष्णु) का चन्दन से लेपन करना चाहिए । व्रत के अन्त में जलपूर्ण कलश तथा गौ का दान विहित है । दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, ४४२ ।
(२) पूर्णिमा के दिन भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का पूजन, उपवास कुछ उपहार ब्राह्मण तथा सद्यः विवाहित स्त्रियों को देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड २.२२५२२९ (गरुड पुराण से ) ।
आयुः संक्रान्तिवत - इस व्रत में संक्रान्ति के दिन सूर्य का पूजन, काँसे के पात्र, दूध, घी तथा सुवर्ण का दान विहित है । इसका उद्यापन धान्य संक्रान्ति के समान होना चाहिए । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.७६७; व्रतार्क, १० ३८९ । आरणीय विधि-संत्तिरीय ब्राह्मण का शेषांश तैत्तिरीय आरण्यक है। इसमें दस काण्ड हैं काठक में बतायी हुई 'आरणीय विधि' का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। इसके
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आयुधव्रत- आरण्यक
पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि स्थापन के नियम लिखे हैं। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय के नियम हैं। चौबे, पाँचवें और छठे में दर्श-पूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों पर विचार है ।
आरण्यक - ब्राह्मणों और उपनिषदों का मध्यवर्ती साहित्य आरण्यक है, अतः यह श्रुति का ही एक भाग है । कहा जा सकता है कि आरण्यक ब्राह्मणों की ही भाषा और शैली में लिखे गये उनके पूरक हैं । इनके अध्यायों का प्रारम्भ ब्राह्मणों जैसा ही है, किन्तु सामग्री में सामान्य अन्तर दिखाई पड़ता है, जो क्रमशः रहस्यात्मक दृष्टान्तों या रूपकों के माध्यम से दार्शनिक चिन्तन में बदल गया है। साधारणतः धार्मिक क्रियाकलापों एवं रूपक वाले भाग को ही आरण्यक कहते है, एवं दार्शनिक भाग उपनिषद् कहलाता है। इन आरण्यक ग्रन्थों के भाग धार्मिक क्रियाओं का वर्णन करते हैं तथा यत्र-तत्र उनकी रहस्यपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार ये ब्राह्मणशिक्षाओं से अभिन्न दिखाई पड़ते हैं । किन्तु कुछ अध्यायों में कुछ कड़े नियमों की स्थापना हुई, जिसके अनुसार कुछ क्रियाओं को गुप्त रखने की आज्ञा है और उन्हें कुछ विशेष पुरुषों के निमित्त ही करने योग्य बतलाया गया है। ऐसे रहस्थात्मक स्थल उपनिषदों में भी दृष्टिगोचर होते हैं । इसके साथ ही कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनमें केवल क्रियाओं के रूपक ही दिये गये हैं, पर वे धार्मिक क्रियाओं के सम्पादनाव नहीं, किन्तु ध्यान करने के लिए दिये गये हैं । इनमें से किसी भी रूपकात्मक अथवा याज्ञिक अध्याय में पुनर्जन्म अथवा कर्मवाद की शिक्षा नहीं है।
आरण्यकों का अध्ययन अरण्य ( वन ) में ही करना चाहिए। किन्तु वे कौन थे जो उनका अध्ययन करते थे ? ब्राह्मणों के निर्माण-काल में ही विरक्त यति, मुनियों का एक सम्प्रदाय प्रकट हुआ, जो सांसारिकता का त्याग कर चुका था और जिसने अपने जीवन को धार्मिक लक्ष्य की ओर लगा दिया था। उनके अभ्यासों के तीन प्रकार थे : (१) तपस्या, (२) यज्ञ और ( ३ ) ध्यान । किन्तु नियम विभिन्न थे, इसलिए अभ्यासों में विभिन्नता थी। कुछ लोगों ने यज्ञों को एकदम छोड़ दिया। बड़े एवं विस्तृत यज्ञ वैसे भी असम्भव होते थे ऊपर जो कुछ अरण्यवासी साधुओं के सम्बन्ध में कहा गया है, उसका बड़ा ही राजीव वर्णन रामायण में उपस्थित है । जब विद्यार्थी अपनी शिक्षा
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