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सुधर्मा-सूत
के विनाश के लिए, युद्ध में विजय के लिए तथा अपनी सेना की सुरक्षा के लिए मंत्रों के साथ सुदर्शन चक्र की प्रार्थना की जाय । विष्णु के धनुष (शार्ङ्ग ), गदा इत्यादि का तथा उनके वाहन गरुड का भी पूजन किया जाय । राजा को सिंहासन पर बैठाकर उसके सम्मुख एक मुस ज्जित मारी दीपों से आरती उतारे। किसी पापग्रह अथवा जन्मकालिक क्रूर नक्षत्र का उदय होने पर भी इसी विधि से पूजन करना चाहिए।
सुधर्मा इन्द्रदेवकी सभा द्वारकापुरी में यादवों की राज सभा सुधर्मा कहलाती थी ।
सुपात्र - किसी कार्य के समुपयुक्त अथवा योग्य व्यक्ति । भागवतपुराण के अनुसार ब्राह्मण को विशेष करके सुपात्र माना गया है :
पुरुषेस्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः । तपसा विद्यया तुष्टया धत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥ दानविधि में सुपात्र का विशेष ध्यान रखा जाता है : तस्मात्सर्वात्मना पात्रे दद्यात् कनकदक्षिणाम् । अपात्रे पातयेद्दत्तं सुवर्ण नरकार्णवे । (बुद्धितत्व )
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सुप्रभातम् — प्रातः कालीन मङ्गलपाठ, जिसमें कुछ पुण्यश्लोकों का उच्चारण होता हैं । वामनपुराण (अध्याय १४) में यह निम्नप्रकार से मिलता है :
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्न। गुरुः सशुक्रः सह मानुजेन कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।। भृगुर्वशिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगोतमः । रैम्यो मरीचिपवनोऽमलोरुः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौच । सप्तस्वरः सप्तरसातलाश्च कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः सम्पर्णवायुर्वलितच तेजः । नभः सम्यं महतः सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ सप्तार्णवाः सप्तकुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त भूरादि कुनं भुवनानि सप्त कुर्वन्ति सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ इस्वं प्रभाते परमं पवित्रं यं संस्मरेद्रा शृणुयाच्च भक्त्या । दुःस्वप्ननाशो ननु सुप्रभाते भवेच्च सत्यं भगवत्प्रसादात् ॥ सुमेरु - उत्तर दिशा का केन्द्र, भूगोल का सर्वोच्च प्रभाग, जो पर्वत माना गया है। हिन्दुओं के भूगोल और पुरा कथा में इसके महत्त्वपूर्ण उल्लेख पाये जाते हैं ।
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भागवत पुराण (पञ्चम स्कन्ध) में इसका निम्नांकित विवरण पाया जाता है।
"एषां मध्ये इलावृतं नामाभ्यन्तरवर्ष यस्य नाभ्यामवस्थितः सर्वतः सौवर्णः कुलगिरिराज मेपायामसमुन्नाहः कणिकाभूतः कुवलयकमलस्य मूर्द्धनि द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनविततो मूले षोडशसहस्रं तावतान्तर्भूम्यां प्रविष्ठः " ॥ ७ ॥
आजकल इसकी स्थिति तिब्बत और पामीर के पठार के मध्य कही जाती है ।
सुरभि - देवताओं की गौ कामधेनु, जो समुद्र मन्थनोत्पन्न चौदह रत्नों में है । गौ माता के लिए भी इसका सामान्य प्रयोग होता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, ४७ अध्याय) में सुरभि की उत्पत्ति, पूजन आदि का वर्णन पाया जाता है ।
सुरसा (१) तुलसी किसो किसी के मत में यह दुर्गा का भी नाम है ।
(२) नागमाता का नाम सुरसा हैं । वाल्मीकिरामायण (सुन्दरकाण्ड सर्ग १ ) में सुरसा का उल्लेख हनुमानजी के सागरोल्लघन के सन्दर्भ में हुआ है ।
सुरेन्द्र देवताओं के राजा इन्द्र एक लोकपत्र का नाम । भी सुरेन्द्र है ।
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सुव्रत चैत्र शुक्ल अष्टमी से अष्ट वसुओं की जो भगवान् वासुदेव के ही रूप है, गन्धाक्षतपुष्पादि से पूजा की जानी चाहिए। एक वर्षपर्यन्त यह व्रत चलना चाहिए । व्रत के अन्त में गौ का दान करना चाहिए। इससे समस्त संकल्पों की सिद्धि होती है तथा व्रती वसुलोक प्राप्त करता है ।
सूक्त - वेदोक्त देवस्तुतियों का निश्चित मन्त्र समूह । इसका अर्थ है 'शोभन उक्ति विशेष उदाहरणार्थ, ऋग्वेद में 'अग्निमीले इत्यादि अग्नि सूक्त है। 'सहस्रणी' इत्यादि पुरुष मुक्त है। 'अहं रुद्रेभिरि' इत्यादि देवी सूक्त है। 'हिरण्यवर्णामि' इत्यादि श्रीसूक्त है ।
सूत - मनुस्मृति ( १०.११) के अनुसार क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न सन्तान ( वर्णसंकर ) : "क्षत्रियात् ब्रह्मकन्यायां मृतो भवति जातितः ।" इसका व्यवसाय
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