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अनिरुद्धवृत्ति-अनीश्वरवाद (सांख्य का)
जगतश्चिन्तयन् सृष्टि महानात्मगुणः स्मृतः ।। के शून्यतासिद्धान्त से यह मिलता-जुलता है । इसीलिए
(महाभारत, मोक्षधर्म०) आचार्य शङ्कर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाने लगा। [ तमोगुण के द्वारा ब्रह्म से उत्पन्न, तमोगुण मूलक, अनिर्वचनीयतासर्वस्व-नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता अमृत से युक्त, विश्व नामक वह पुरुष के शरीर में स्थित श्रीहर्ष द्वारा रचित 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही अन्य है। उसे अनिरुद्ध कहते हैं। उससे त्रिगुणात्मक अव्यक्त ___ नाम 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है । इसमें अद्वैत वेदान्तमत के की उत्पत्ति हुई । विद्याओं के बल से युक्त देव विष्वक्सेन सिवा न्याय, सांख्य आदि सभी दर्शनों का खण्डन हुआ है, प्रभु हरि ने संसार के सर्जन की चिन्ता करते हए जल में विशेष कर उदयनाचार्य के न्यायमत का । स्वामी शङ्कराशयन किया और वे योगनिद्रा को प्राप्त हए। यह चार्य का मायावाद अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही महत्तत्त्व (बुद्धितत्त्व) आत्मा का गुण है।]
अवलम्बित है। उनके सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण (२) महाभारत, मोक्षधर्म पर्व के नारायणीय खण्ड में व्यूह
भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न भी नहीं है, अपितु अनिर्व(प्रसार) सिद्धान्त का वर्णन है। इस सिद्धान्त के अनुसार
चनीय हैं। श्रीहर्ष ने खण्डनखण्डखाद्य में इस मत के वासुदेव (विष्णु) से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न
सभी विपक्षों का बड़ी सफलता के साथ खण्डन किया है। से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा का उद्भव हुआ है।
साथ ही जिन प्रमाणों द्वारा वे लोग अपना पक्ष सिद्ध संकर्षण तथा अन्य तीन का सांख्य दर्शन के अनुसार
करते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन करते हुए सष्टितत्त्व के रूप में निरूपण होता है। वासूदेव को अप्रमेय, अद्वितीय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना उन्होंने परम सत्य (परमात्मा), संकर्षण को प्रकृति, प्रद्युम्न को की है। मनस, अनिरुद्ध को अहंकार एवं ब्रह्मा को पंचभतों के अनीश्वरवाद (सांख्य का)-योगदर्शनकार पतञ्जलि ने रूप में ग्रहण किया गया है।
आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों यह कहना कठिन है कि इस सिद्धान्त के पीछे क्या
का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे अर्थ छिपा है। वासुदेव कृष्ण हैं, बलराम या सकर्षण
ही पचीस तत्त्व माने हैं जो सांख्यकार ने माने हैं । इसलिए
योग एवं सांख्य दोनों दर्शन मोटे तौर पर एक ही समझे उनके भाई हैं, प्रद्युम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके पौत्र
जाते हैं, किन्तु योगदर्शनकार ने कपिल की अपेक्षा एक हैं । हो सकता है कि ये तीनों देवों के रूप में पूजे जाते रहे हों और पीछे इनका सम्बन्ध कृष्ण से स्थापित कर
और छब्बीसवाँ तत्त्व 'पुरुष विशेष' अथवा ईश्वर भी
माना है । इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच व्यूह-सिद्धान्त का निर्माण कर लिया गया हो । ऐतिहासिक
गये है। सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। पुरुषों के दैवीकरण का यह एक उदाहरण है।
तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो अनिरुद्धवृत्ति-अनिरुद्ध रचित 'सांख्यसूत्रवृत्ति' का ही
पहले से अस्तित्व में न हो । कारण का अर्थ केवल फल अन्य नाम 'अनिरुद्धवृत्ति' है। इसका रचनाकाल १५००
को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के ई० के लगभग है।
रूप को व्यक्त करना है। परिणाम की उत्पत्ति केवल अनिर्वचनीय-निर्वचन के अयोग्य, अनिर्वाच्य अथवा
कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके परमाणुओं की नयी वाक्यागम्य । वेदान्तसार में कथन है :
व्यवस्था के कारण होती है। केवल कारण एवं परिणाम 'सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मक भावरूपं ज्ञान
के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोविरोधि यत् किञ्चिदिति वदन्ति ।'
वांछित फल प्राप्त होता है । कार्य सत् है, वह कारण में [सत्-असत् के द्वारा अकथनीय, त्रिगुणात्मक भावरूप, पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी ज्ञान का विरोधी जो कुछ है उसे अनिर्वचनीय कहते हैं।] परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में
वेदान्त दर्शन में परमतत्त्व ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय तेल, पत्थर में मूर्ति, दूध में दही एवं दही में मक्खन । कहा गया है, जिसका निरूपण नहीं हो सकता। इस 'कारक व्यापार' केवल फल को आविर्भत करता है, जो सिद्धान्त को अनिर्वचनीयतावाद कहते हैं। माध्यमिक बौद्धी पहले तिरोहित था।
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