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इज्या-इतिहास
और सौ पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि अयोध्या का राजा एतासां सङ्गमो यत्र त्रिवेणी सा प्रकीर्तिता । हुआ, दूसरे पुत्र निमि ने विदेह (मिथिला) में एक राजवंश तत्र स्नातः सदा योगी सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ प्रचलित किया । अन्य पुत्रों ने अन्यत्र उपनिवेश तथा राज्य [इडा नामक नाडी ही गङ्गा है। पिङ्गला को यमुना स्थापित किये।
कहा गया है । गङ्गा-यमुना के बीच में सुषुम्ना नाड़ी इज्या-यज्ञकर्म अथवा यजन का एक पर्याय । दे० 'यज्ञ' सरस्वती है । इन तीनों का जहाँ सङ्गम (भ्रूमध्य में) होता 'सोहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलतः ।' (रघु० १.६८) है वही त्रिवेणी प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान (ध्यान) करनेवाला
[ मैं इज्या (यज्ञ) से विशुद्ध चित्तवाला और प्रजालोप योगी सदा के लिए सब पापों से मुक्त हो जाता है। ] (संतानहीनता) से निमीलित (कुम्हलाया हुआ) हूँ।] इडा नाडी सकाम कर्म के अनुष्ठान की सहायिका है। इसके अन्य अर्थ पूजा, सङ्गम, गौ, कुट्टनी आदि हैं। इडा और पिङ्गला के बीच में वर्तमान सुषुम्ना नाडी ब्रह्मइडा-(१) वाणी, सरस्वती, पृथ्वी, गौ। वैदिक साहित्य नाडी है। इस माडी में यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है। में 'इडा' शब्द मूलतः अन्न, स्फूर्ति, दुग्धाहुति आदि के उत्तरगीता (अध्याय २) में इसका निम्नलिखित वर्णन है : अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । पुनः, वाग्देवता के अर्थ में इसका इडा च वामनिश्वासः सोममण्डलगोचरा । प्रचलन हो गया। कई मन्त्रों में यह मनु की उपदेशिका पितयानमिति ज्ञेया वाममाश्रित्य तिष्ठति ।। कही गयी है । यज्ञानुष्ठान के नियमों को प्रवर्तिका भी यह गुदस्य पृष्ठभागेऽस्मिन् वीणादण्डस्य देहभृत् । मानी गयी है । सायण ने इसको पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी दीर्घास्थि मूनिपर्यन्तं ब्रह्मदण्डेति कथ्यते ।। माना है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार मनु ने संतान प्राप्ति तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं ब्रह्मनाडीति सूरिभिः । के लिए यज्ञ किया, जिससे इडा आविर्भूत हुई। मनु और इडापिङ्गलयोर्मध्ये सुषुम्ना सूक्ष्मरूपिणी।। इडा के संयोग से ही मानवों की उत्पत्ति हुई । हरिवंश के सर्व प्रतिष्ठितं यस्यां सर्वगं सर्वतोमुखम् ।। अनुसार इडा की गणना देवियों में है :
___ इन नाडियों के शोधन के बिना योगी को आत्मज्ञान की श्रुतिः प्रीतिरिडा कान्तिः शान्तिः पुष्टि: क्रिया तथा । प्राप्ति नहीं होती।
(२) यौगिक साधना की आधार एक नाड़ी। हठयोग इतिहास-छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि इतिहासया स्वरोदय के अभ्यासार्थ नासिका के वाम या चन्द्र स्वर पुराण पाँचवाँ वेद है। इससे इतिहास एवं पुराण की के नाम से इस नाड़ी का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। धार्मिक महत्ता स्पष्ट होती है । अधिकांश विद्वान् इतिहास षट्चक्रभेद नामक ग्रन्थ (श्लोक २) में इसका निम्नांकित से रामायण और महाभारत समझते हैं और पुराण से संकेत है :
अठारह वा उससे अधिक पुराण ग्रन्थ और उपपुराण समझे मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्लै । जाते हैं । अनेक विद्वान् इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। मध्ये नाडी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा ॥ स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना है कि इस स्थल पर उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया गया है : इतिहास-पुराण का तात्पर्य ब्राह्मण भाग में उल्लिखित
"मेरोर्मेरुदण्डस्य बाह्यप्रदेशे बहिर्भागे सव्यदक्षे वाम- कथाओं से है। दक्षिणपार्वे शशि मिहिरशिरे चन्द्रसूर्यात्मके नाड्यौ इडा- अठारह विद्याओं की गिनती में इतिहास का नाम कहीं पिङ्गलानाडीद्वयमिति फलितार्थः । निषण्णे वर्तेत् ।" नहीं आया है। इन अठारह विद्याओं की सूची में पुराण के
[ मेरुदण्ड के बाह्य प्रदेश में वाम और दक्षिण पार्श्व में । अतिरिक्त और कोई विद्या ऐसी नहीं है जिसमें इतिहास चन्द्र-सूर्यात्मक (इडा तथा पिङ्गला) नाडियों के बीच में का अन्तर्भाव हो सके। इसीलिए प्रायश्चित्ततत्त्वकार ने सुषुम्ना नाडी वर्तमान है।]
इतिहास को पुराण के अन्तर्गत समझकर उसका नाम ज्ञानसङ्कलनीतन्त्र (खण्ड) में इडा का और भी वर्णन । अलग नहीं गिनाया । ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायणापाया जाता है :
चार्य ने लिखा है कि वेद के अन्तर्गत देवासुर युद्धादि का इडा नाम सैव गङ्गा यमुना पिङ्गला स्मृता । वर्णन इतिहास कहलाता है और "यह असत् था और कुछ गङ्गायमुनयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ॥ न था" इत्यादि जगत् की प्रथमावस्था से लेकर सृष्टि
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