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आहार-इक्ष्वाकु
नियमपूर्वक नित्य हवन करता है उसे 'आहिताग्नि' कहा जाता हैं । इसका एक पर्याय ‘अग्निहोत्री' है। आहति-यज्ञकुण्ड में देवता के उद्देश्य से जो हवि का प्रक्षेप किया जाता है उसे 'आहुति' कहते हैं। आहुति द्रव्य को 'मृगी मुद्रा' ( शिशु के मुख में कौर देने की अंगुलियों के आकार ) से अग्नि में डालना चालना चाहिए। आहिक-(१) नित्य किया जाने वाला धार्मिक क्रियासमह । धर्मशास्त्र ग्रन्थों में दैनिक धार्मिक कमी का पूरा विवरण पाया जाता है। रघुनन्दन भट्टाचार्यकृत 'आह्निकाचार तत्त्व' में दिन-रात के आठों यामों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है।
(२) कुछ प्राचीन ग्रन्थों के प्रकरणसमूह को भी, जिसका अध्ययन दिन भर में हो सके, आह्निक कहते हैं।
अपने चार पुरोहितों का चुनाव करता था। गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि (दो प्रकार की अग्नि) के लिए एक वृत्ताकार एवं दूसरा वर्गाकार स्थान होता था। आवश्य- कता समझी गयी तो दक्षिणाग्नि के लिए एक अर्धवृत्त कुण्ड भी बनाया जाता था। पश्चात् अध्वर्यु घर्षण द्वारा अथवा ग्राम से संग्रह कर गार्हपत्य अग्नि स्थापित करता था। सन्ध्याकाल में वह दो लकड़ियाँ जिन्हें अरणी कहते है, यज्ञकर्ता एवं उसकी स्त्री को देता था, जिससे घर्षण द्वारा वे दूसरे प्रातःकाल आहवनीय अग्नि उत्पन्न करते थे। आहार-हिन्दू धर्म में आहार की शुद्धि-अशुद्धि का विस्तृत विचार किया गया है । इसका सिद्धान्त यह है कि आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि होती है और सत्त्वशुद्धि से बुद्धि शुद्ध होती है । शुद्ध बुद्धि से ही सद् विचार और धर्म में रुचि उत्पन्न हो सकती है। आहार दो प्रकार का होता है-(१) हित और (२) अहित । सुश्रुत के अनुसार हित आहार का गुण है :
आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृदेहधारकः ।
आयुस्तेजःसमुत्साहस्मृत्योजोऽग्निवर्द्धनः ।। भगवद्गीता ( अ० १७ श्लोक ८-१०) के अनुसार वह तीन प्रकार-सात्विक, राजस तथा तामस-का होता है :
आयुः-सत्त्व-बलारोग्य-सुख-प्रीतिविवर्द्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रियाः ॥ कट्वम्ल लवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।। यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ [ आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसाल, स्निग्ध, स्थिर और प्रिय लगने वाले भोजन सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं। कट, अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), अति उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, दाह करने वाले तथा दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाले भोजन राजस व्यक्ति को इष्ट होते हैं। एक याम से पड़े हुए, नीरस, सड़े, बासी, उच्छिष्ट (जूठे) और अमेध्य (अपवित्र = मछली, मांस आदि) आहार तामसी व्यक्ति को अच्छे लगते हैं। इसलिए साधक को सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए । आहिताग्नि-जो गृहस्थ विधिपूर्वक अग्नि स्थापित कर
इ-स्वर वर्ण का तृतीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है :
इकारं परमानन्दं सुगन्धकुसुमच्छविम् । हरिब्रह्ममयं वर्ण सदा रुद्रयतं प्रिये ॥ सदा शक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा । सदा शिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम् ।। हरिब्रह्मात्मकं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम् ।
इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान् ।। [हे प्रिये ! इकार ('इ' अक्षर) परम आनन्द की सुगन्धि वाले पुष्प की शोभा धारण करने वाला है। यह वर्ण हरि तथा ब्रह्ममय है । सदा रुद्र से संयुक्त रहता है। सदा शक्तिमान् तथा गुरु और ब्रह्ममय है। सदा शिवमय है। परम तत्त्व है। ब्रह्म से समन्वित है। हरि-ब्रह्मात्मक है और तीनों गुणों से समन्वित है। ] वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम है :
इः सूक्ष्मा शाल्मली विद्या चन्द्रः पूषा सुगुह्यकः । सुमित्रः सुन्दरो वीरः कोटरः काटरः पयः ।। भ्रूमध्यो माधवस्तुष्टिदक्षनेत्रञ्च नासिका। शान्तः कान्तः कामिनी च कामो विघ्नविनायकः ॥
नेपालो भरणी रुद्रो नित्या क्लिन्ना च पावका ।। इक्ष्वाकु-पुराणों के अनुसार वैवश्वत मनु का पुत्र और सूर्यवंश (इक्ष्वाकुवंश) का प्रवर्तक । इसकी राजधानी अयोध्या
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