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आनन्तर्यव्रत-आनन्दबोधाचार्य
(सौराष्ट्रदेशवासी) वरदपुत्र पण्डित ने शाङ्खायन सूत्र की। उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य, शारीरकभाष्य और शतजो टीका रची, उसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय श्लोकी पर तथा सरेश्वराचार्य कृत तैत्तिरीयोपनिषदका भाग लुप्त हो गया है ।
वार्तिक एवं बहदारण्यकोपनिषदवार्तिक पर भी टीकाएँ आनन्तर्यव्रत-यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को लिखी हैं। प्रारम्भ होता है। फिर प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की आनन्दतारतम्यखण्डन-श्रीनिवासाचार्य (द्वितीय) ने द्वितीया की रात्रि तथा तृतीया के दिन उपवास एक वर्ष मध्वाचार्य के मत में दोष दिखलाने के उद्देश्य से 'आनन्दतक करना होता है। भगवती उमा का प्रत्येक तृतीया को तारतम्यखण्डन' नामक प्रबन्ध की रचना की। इसमें भिन्न-भिन्न नामों से पूजन विहित है । नैवेद्य भी परिवर्तित मध्वाचार्य प्रतिपादित द्वैत मत की आलोचना है। होते रहने चाहिए । व्रती को भिन्न-भिन्न भोज्य पदार्थों से आनन्दतीर्थ-प्रसिद्ध द्वैतवादी आचार्य मध्व का दूसरा नाम । व्रत की पारणा करनी चाहिए। यह व्रत स्त्रियोपयोगी इन्होंने वेदान्त के प्रस्थानत्रय (उपनिषद्-ब्रह्मसूत्र-गीता) पर है। इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि यह कर्ता के लिए तर्कपूर्ण भाष्य रचना की है । इनका जीवन-काल बारहवीं पुत्रों एवं निकटसम्बन्धियों का अन्तर (वियोग) नहीं होने शताब्दी और उडूपी (कर्नाटक) निवास स्थान माना जाता देता । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.४०५-४१३ ।
है । वैष्णवों के चार संप्रदायों में एक 'माध्व संप्रदाय' आनन्द-आत्मा अथवा परमात्मा के अनिवार्य गुणों आनन्द तीर्थ से ही प्रचारित हुआ। (सत् + चित् + आनन्द) में से एक। इसका शाब्दिक अर्थ है आनन्दनवमी-यह व्रत फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन सम्यक् प्रकार से प्रसन्नता ( आ + नन्द ) । यह पूर्णता प्रारम्भ होकर । एक वर्षपर्यन्त चलता है। पञ्चमी को अथवा मोक्ष की अवस्था का द्योतक है। जिन कोषों में
एकभक्त, षष्ठी को नक्त, सप्तमी को अयाचित, अष्टमी आत्मा वेष्टित होता है उनमें से एक 'आनन्दमय कोष'
तथा नवमी के दिन उपवास और देवी का पूजन होना भी है, परन्तु पूर्ण आनन्द तो कोष से परे है।
चाहिए। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर पुष्प, आनन्दगिरि-शङ्कराचार्यकृत भाष्य ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीका
नैवेद्य, देवी के नाम इत्यादि का चार-चार मास के प्रत्येक कार । वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य वाली इनकी टीका का
भाग में परिवर्तन कर देना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, नाम 'न्यायनिर्णय' है। भाष्य के भाव को हृदयङ्गम
व्रत काण्ड, २९९-३०१; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, १.९४८कराने में यह बहुत ही सहायक है। इनकी टीका में
१५० में इसका नाम 'अनन्दा' है। भामती, विवरण, कल्पतरु आदि टीकाओं की छाया
आनन्दपञ्चमी-नागों को पञ्चमी तिथि अत्यन्त प्रिय दिखाई पड़ती है तथा इन्होंने स्वयं भी अन्य टीकाओं का
है। इस तिथि को नागप्रतिमाओं का पूजन होता है। आश्रय लेने की बात लिखी है। इन्होंने 'शङ्करदिग्विजय'
दूध में स्नान करती हुई ये प्रतिमाएं भय से मुक्ति प्रदान नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना भी की, जो विद्या
करती हैं । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द १, पृ० ५५७. रण्य स्वामी के 'शङ्करदिग्विजय' के बाद लिखा गया।
५६०। इससे सिद्ध होता है कि ये विद्यारण्य स्वामी के परवर्ती
आनन्दबोधाचार्य-श्री आनन्दबोध भट्टारकाचार्य बारहवीं और अप्पय दीक्षित के पूर्ववर्ती थे, क्योंकि अप्पय दीक्षित
शताब्दी में वर्तमान थे। उन्होंने अपने न्यायमकरन्द ने 'सिद्धान्तलेश' में 'न्यायनिर्णय' टीका का उल्लेख
ग्रन्थ में वाचस्पति मिश्र का नामोल्लेख किया है तथा किया है । विद्यारण्य स्वामी का काल चौदहवीं शताब्दी
विवरणाचार्य प्रकाशात्म यति के मत का अनुवाद भी किया है और अप्पय दीक्षित का सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी
है । वाचस्पति मिश्र दसवीं शताब्दी में और प्रकाशात्म का पूर्व भाग है। आनन्दगिरि का काल पन्द्रहवीं
यति ग्यारहवीं शताब्दी में हुए थे। चित्सुखाचार्य ने, जो शताब्दी है।
तेरहवीं शताब्दी में वर्तमान थे, 'न्यायमकरन्द' की आनन्दगिरि का दूसरा नाम आनन्दज्ञान भी है। व्याख्या की। इससे ज्ञात होता है कि आनन्दबोध इनके पूर्वाश्रम और जीवन चरित्र के विषय में किसी बारहवीं शताब्दी में हुए होंगे। वे संन्यासी थे । इससे प्रकार का परिचय नहीं मिलता। इन्होंने शङ्कराचार्यकृत अधिक उनके जीवन की कोई घटना नहीं मालूम होती।
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