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आनन्दभट्ट-आन्वीक्षिको
उनके तीन ग्रन्थ मिलते हैं-१. न्यायमकरन्द, २. प्रमाण- का दान विहित है। दे० कृत्यकल्परु, व्रत काण्ड, ४४३; माला और ३. न्यायदीपावली । इन तीनों में उन्होंने हेमाद्रि, व्रत खण्ड १, पृष्ठ ७४२-४३ । अद्वैत मत का विवेचन किया है । दे० 'अद्वैतानन्द' । आनन्दसफल सप्तमी-यह व्रत भाद्र शुक्ल सप्तमी के दिन आनन्द भट्ट-वाजसनेयी संहिता के एक भाष्यकार । प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इस तिथि को उपवास आनन्दभाष्य-वेदान्त दर्शन का एक वैष्णव भाष्य, जो विहित है। दे० भविष्य पुराण, १.११०,१-८; कृत्यआचार्य स्वामी रामानन्द के सांप्रदायिक सिद्धांतों के अनु- कल्पतरु, व्रतकाण्ड, १४८-१४९। कुछ हस्तलिखित ग्रन्था रूप सगुण ब्रह्मस्वरूप का प्रतिपादन करता है । यह में इसे 'अनन्त फल' कहा गया है । उत्तम कोटि की गम्भीर तार्किक रचना है, जिससे भाष्य- आनन्दाधिकरण-वल्लभाचार्य रचित सोलहवीं शताब्दी का कार का अनुपम पाण्डित्य प्रकट होता है।
एक ग्रन्थ । इसमें पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया आनन्दलहरी-शंकराचार्य द्वारा विरचित महामाया दुर्गा- गया है। देवी की स्तुति एक ललित शिखरिणी छन्द में रची गयी, आन्दोलक महोत्सव-वसन्त ऋतु में यह महोत्सव मनाया भक्तिपूर्ण कृति है। सामान्यतया इसके निर्माता आद्य जाता है। दे० भविष्योत्तर पुराण, १३३-२४ । इसमें शंकराचार्य माने जाते हैं। किन्तु आलोचकगण पश्चाद्- दोला ( झला), संगीत और रंग आदि का विशेष आयोभावी शंकराचार्य पदासीन किसी अन्य महात्मा को इसका जन रहता है। रचयिता मानते हैं । ४१ पद्यात्मक आनन्दलहरी गहन आन्दोलन व्रत-इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को शिवसिद्धान्तपूर्ण तांत्रिक स्तोत्र सौन्दर्यलहरी का पूर्वार्ध मानी पार्वती की प्रतिमाओं का पूजन तथा एक पालने में उनको जाती है।
झुलाना होता है । दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.७४५-७४८, आनन्दलिङ्ग जङ्गम-उत्तराखण्ड के श्री केदारनाथ धाम जिसमें ऋग्वेद, दशम मण्डल के इक्यासीवें सूक्त के तीसरे में स्थित बहुत प्राचीन मठ । इसकी प्राचीनता का प्रमाण मन्त्र का उल्लेख है : 'विश्वतश्चक्षुरुत।' एक ताम्रशासन है, जो इस मठ में वर्तमान बताया जाता आन्ध्र ब्राह्मण-देशविभाग के अनुसार ब्राह्मणों के दो है । उसके अनुसार हिमवान् केदार में महाराज जनमेजय बड़े वर्ग हैं-पश्चगौड और पञ्चद्रविड। नर्मदा के दक्षिण के के राजत्वकाल में स्वामी आनन्दलिङ्ग जङ्गम वहाँ के ब्राह्मण आन्ध्र, द्रविड, कर्णाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर हैं। मठ के अधिष्ठाता थे । उन्हीं के नाम जनमेजय ने मन्दा- इन्हें पञ्चद्रविड कहा गया है और उधर के ब्राह्मण इन्हीं किनी, क्षीरगङ्गा, मधुगङ्गा, स्वर्गद्वार गङ्गा, सरस्वती पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं । आन्ध्र या तैलङ्ग में तिलघानि
और मन्दाकिनी के बीच जितना भूक्षेत्र है, सबका दान यन, वेल्लनाटी, वेगिनाटी, मुकिनाटी, कासलनाटी, करनइस उद्देश्य से किया कि ऊखीमठ के आचार्य आनन्द- कम्मा, नियोगी और प्रथमशाखी ये आठ विभाग हैं। लिङ्ग जङ्गम के शिष्य ज्ञानलिङ्ग जङ्गम इसकी आय से दे० 'पञ्च द्रविड ।' भगवान् केदारेश्वर की पूजा-अर्चा किया करें।
आन्वीक्षिकी सामान्यतः इसका अर्थ तर्क शास्त्र अथवा आनन्दवल्ली-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं। पहला दर्शन है। इसीलिए इसका न्याय शास्त्र से गहरा भाग संहितोपनिषद् अथवा शिक्षावल्ली है, दूसरे सम्बन्ध है। 'आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', 'हेतुवाद' का भाग को आनन्दवल्ली कहते हैं और तीसरे को भृगु- निन्दापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता वल्ली। इन दोनों ( दूसरी और तीसरी) का इकट्ठा है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित चार प्रकार की विद्याओं नाम वारुणी उपनिषद् भी है। आनन्दवल्ली में ब्रह्म के (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति ) में से आनन्दतत्त्व की व्याख्या है।
'आन्वीक्षिकी' महत्त्वपूर्ण विद्या मानी गयी है, जिसकी शिक्षा आनन्दव्रत-इस व्रत में चैत्र मास से चार मासपर्यन्त प्रत्येक राजकुमार को दी जानी चाहिए। उसमें (२.१.१३) बिना किसी के याचना करने पर भी जल का वितरण इसकी उपयोगिता निम्नलिखित बतलायी गयी है : किया जाता है। व्रत के अन्त में जल से पूर्ण कलश, प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम् । भोज्य पदार्थ, वस्त्र, एक अन्य पात्र में तिल तथा सुवर्ण आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता ।।
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