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सूर्य की संक्रान्ति से युक्त रविवासरीय सप्तमी हो, उस दिन उमा तथा शर की प्रतिमाओं का पूजन विहित है ( सूर्य शिव से भिन्न नहीं हैं ) । इसमें देवताओं के चरणों से प्रारम्भ कर ऊपर के अङ्गों का नामोच्चारण करते हुए हस्त नक्षत्र से प्रारम्भ कर आगे के नक्षत्रों को अज्ञों के नाम के साथ जोड़ते हुए नमस्कार किया जाता है। पाँच चादरों तथा एक तकिया से युक्त शय्या तथा एक सौ मुद्राओं का दान होता है । दे० पद्मपुराण ५.२४,६४-९६ (हेमाद्रि, व्रत खण्ड २.६८०-६८४ से उद्धृत) । आवित्वशान्तिव्रतहस्त नक्षत्र युक्त रविवार को इस व्रत का अनुष्ठान होता है । आक वृक्ष की लकड़ियों से सूर्य का पूजन विहित है ( संख्या में १०८ या २८ ) । इन्हीं लकड़ियों से हवन किया जाता है, जिसमें प्रथम मधु तथा घी अथवा दधि और घी की सात आकृतियाँ दी जाती हैं । दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड ५३७-३८ ( भविष्य पुराण से)।
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आदित्य हृदय - विधि रविवार को जब संक्रान्ति हो, उस दिन सूर्य के मन्दिर में बैठकर १०८ बार आदित्यहृदयमन्त्र का जप और नक्त भोजन का आचरण करना चाहिए। रामायण (युद्ध काण्ड, १०७) में अगस्त्य ऋषि ने राम के पास आकर उपदेश दिया कि वे सूर्य की पद्यात्मक 'आदित्यहृदय' नामक स्तुति करें, जिससे रावण के साथ होने वाले युद्ध में विजयी हो सकें। कृत्यकल्पतर (प्रत। काण्ड, १९-२० ) में उपर्युक्त कथा का उल्लेख है । एक बात स्पष्ट है कि यदि रविवार को संक्रान्ति हो तो 'आदित्यहृदय' का पाठ करना चाहिए ।
आदित्याभिमुख विधि - प्रातःकालीन स्नानोपरान्त व्रतेच्छ को उदित सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होना चाहिए, तदुपरान्त जैसे जैसे सूर्य पश्चिमाभिमुख हो, वह भी उसके घूमने के साथ सूर्यास्तपर्यन्त स्वयं घूमता जाय। फिर एक स्तम्भ के सम्मुख महाश्वेता का जप करके गन्ध, पुष्प तथा अक्षत इत्यादि से सूर्य का पूजन कर दक्षिणा दे सबके पश्चात् स्वयं भोजन ग्रहण करे । आदिवदरी (१) वदरीनाथजी को मूर्ति पहले तिब्ब तीय क्षेत्र में थी । उस स्थान को आदि बदरी माना जाता है । वर्तमान बदरीनाथपुरो से माना घाटी होकर उस स्थान का रास्ता जाता है, जो बहुत ही कठिन है।
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आदित्य शान्तियत-आनतीय
कैलास जाने के लिए नीती घाटी से उसकी ओर जाते हैं। उस मार्ग से शिवचलम् जाकर वहाँ से यूलिंगमठ (आदिबदरी) जा सकते हैं । यह स्थान अब भी बड़ा रमणीक है । तिब्बती उसे बुलिंगमठ कहते हैं। कहा जाता है कि वहाँ से उक्त मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने वर्तमान पुरी में लाकर स्थापित किया था।
(२) कपालमोचन तीर्थ से १२ मील पर दूसरा आदिबदरी मन्दिर है। कहते हैं कि यहां दर्शन करना बदरीनाथदर्शन करने के बराबर है। पैदल का मार्ग है। यह मंदिर पर्वत पर है । यहाँ ठहरने की व्यवस्था नहीं है । ( ३ ) श्यामसुन्दर ने भी गोपों को आदिबदरी नारायण के दर्शन कराये थे । वह स्थान ब्रजमंडल के कामवन क्षेत्र में है। आवियामलतन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में जो चौंसठ तन्त्रों को नामावली दी हुई है, उसमें आदियामल तन्त्र भी
एक है।
आदि रामायण - (१) ऐसा प्रवाद है कि वाल्मीकि रामायण आदि रामायण नहीं है और आदि रामायण भगवान् शंकर का रचा हुआ बहुत बृहत् ग्रन्थ था, जो अब उपलब्ध नहीं है ! इसका नाम महारामायण भी बतलाया जाता है । कहते हैं कि इसको स्वायम्भुव मन्वतर के पहले सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था।
(२) एक दूसरा आदि रामायण उपलब्ध हुआ है जो अवश्य ही परवर्ती है । अयोध्या के एक मठ से भुशुण्डि - रामायण अथवा आदि रामायण प्राप्त हुआ है । इस पर कृष्णभक्ति के माधुर्य भाव का गहरा प्रभाव प्रतीत होता है। आधिपत्यकाम—यह वाजपेय यज्ञ के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, जिसका उल्लेख आश्वलायन श्रौतसूत्र ( ९.९.१ ) में आता है। इसके अनुसार आधिपत्य की कामना रखने वाले नरेश को वाजपेय यज्ञ करना चाहिए। आष्वव यज्ञक्रिया के मध्य किये जानेवाले यजुर्वेदानुसारी कर्म यजुर्वेद | यज्ञ के चार पुरोहितों के लिए चार अलग अलग वेद हैं । ऋग्वेद होता के लिए, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उद्गाता के लिए एवं अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है । इसलिए यजुर्वेद को आध्वर्यव भी कहते हैं । आनतीय- शांखायन सूत्र के एक व्याख्याकार आनतीय
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