________________
२४
अद्वैतविद्यामकुर-अधार्मिक
इसलिए है कि यह एकत्ववाद और द्वैतवाद दोनों का भाष्य' अद्वैतवाद का सर्वप्रसिद्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है। अद्वैतप्रत्याख्यान करता है। इसका सिद्धान्त है कि सत् का वाद का जो निखरा हआ रूप है वास्तव में उसके प्रवर्तक निर्वचन संख्या-एक, दो, अनेक-से नहीं हो सकता। शङ्कराचार्य ही हैं। दे० 'शङ्कराचार्य'। इसलिए उपनिषदों में उसे 'नेति नेति' ('ऐमा नहीं', 'ऐसा अद्वैतविद्यामकुर-रङ्गराजाध्वरी लिखित 'अद्वैतविद्यानहीं) कहा गया है।
मुकुर' न्याय-वैशेषिक एवं सांख्यादि मतों का खण्डन करके वह अद्वैत सत्ता क्या है ? इसके भी विभिन्न उत्तर
अद्वैतमत की स्थापना करता है। इसका रचनाकाल हैं। माध्यमिक बौद्ध इसे 'शून्य'; विज्ञानवादी बौद्ध सोलहवों शती है। 'विज्ञान'; शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण 'स्फोट' अथवा 'शब्द'; अद्वैतविद्याविजय-दोदयाचार्य द्वारा, जिनका पूरा नाम शैव 'शिव'; शाक्त 'शक्ति' और अद्वैतवादी वेदान्ती 'अद्वैत' दोयमहाचार्य रामानुजदास है, यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी (आत्मतत्त्व) कहते हैं। इन सभी सम्प्रदायों में सबसे प्रसिद्ध आचार्य शङ्कर का आत्माद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत वाद अद्वैतविद्याविलास-सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित एक ग्रन्थ । है । इसके अनुसार 'ब्रह्म' अथवा 'आत्मा' एकमात्र सत्ता अद्वैतसिद्धि-मधुसूदन सरस्वती-विरचित सत्रहवीं शताब्दी है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं (सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह का एक अत्यन्त उच्च कोटि का दार्शनिक ग्रन्थ । इसमें दस नानास्ति किञ्चन ।) अविद्या के कारण दृश्य जगत् ब्रह्म में परिच्छेद हैं। ब्रह्मानन्द सरस्वती ने इसके ऊपर 'लघुआरोपित है । माया द्वारा वह ब्रह्म से विवर्तित होता है, चन्द्रिका' नाम की व्याख्या लिखी है। डॉ० गङ्गानाथ झा उसी में स्थित रहता है और पुनः उसी में लीन हो जाता द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है । यह ग्रन्थ है। शाङ्कर अद्वैतवाद रामानुज के विशिष्टाद्वैत और अद्वैत सम्प्रदाय का अमूल्य रत्न है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत से भिन्न है।
अद्वैताचार्य-श्री चैतन्य देव के सहयोगी एक वैष्णव विद्वान् । अद्वैतवाद का उद्गम वेदों में ही प्राप्त होता है। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता किन्तु आदर के साथ इनका ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सत् और असत् से विलक्षण कतिपय रचनाओं में उल्लेख हआ है। इससे लगता है कि सत्ता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। उपनिषदों में तो ये अद्वैत तत्त्व के प्रमुख प्रवक्ता थे। विस्तार से अद्वैतवाद का निरूपण किया गया है। अद्वैतानन्द-'ब्रह्मविद्याभरण'-कार स्वामी अद्वैतानन्द का छान्दोग्य उपनिषद् में केवल आत्मा और ब्रह्म को ही उल्लेख सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित 'गुरुरत्नमालिका' नामक वास्तविक माना गया है और जगत् के समस्त प्रपञ्च को ग्रन्थ में हआ है। स्वामी अद्वैतानन्द काञ्चीपीठ के शंकरावाचारम्भण (निरर्थक शब्द मात्र) विकार कहा गया है। चार्यपदासीन अधीश्वर थे। बृहदारण्यक उपनिषद् में नानात्व का खण्डन करके (नेति अधर्म-धर्म का अभाव' अथवा धर्मविरोधी तत्त्व । भागनेति) केवल एकमात्र आत्मा को ही सत्य सिद्ध किया गया वत पुराण के अनुसार यह ब्रह्मा के पृष्ठ से उत्पन्न हुआ है। माण्डूक्य उपनिषद् में भी आत्म-ब्रह्मद्वैत प्रतिपादित है। वेद और पुराण के विरुद्ध आचार को अधर्म कहते हैं। किया गया है । उपनिषदों के पश्चात् बादरायण के 'ब्रह्म- इससे कुछ समय तक उन्नति होती है, परन्तु अन्त में सूत्र' में प्रथम वार अद्वैतवाद का क्रमबद्ध एवं शास्त्रीय अधर्मी नष्ट हो जाता है : प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् अधर्मेणैधते राजन ततो भद्राणि पश्यति । कृष्ण ने आत्मानुभूति के आधार पर अद्वैत का सारगर्भित ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति ।। विवेचन किया है । उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता ये ही हे राजन् ! मनुष्य अधर्म से बढ़ता है तब सम्पत्ति को तीन अद्वैतवाद के प्रस्थान हैं । इसके अतिरिक्त आचार्य पाता है । पश्चात् शत्रुओं को जीतता है । अन्त में समूल शङ्कर के दादागुरु गौडपादाचार्य ने अपने माण्डूक्योप- नष्ट हो जाता है। ] निषद् के भाष्य में अद्वैतमत का समर्थन किया है। स्वयं अधार्मिक-अधर्मी, अधर्मात्मा अथवा पापी : शङ्कराचार्य ने तीनों प्रस्थानों-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और यस्तु पञ्चमहायज्ञविहीनः स निराकृतः । गीता पर भाष्य लिखा । ब्रह्मसूत्र पर शङ्कर का 'शारीरक अधार्मिकः स्याद् वृषलः अवकीर्णी क्षतव्रती ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org