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अधिमास-अन्यारोप
[जो पञ्च महायज्ञ नहीं करता वह पतित हो जाता अनात्मवाद-आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना, अथवा है; अधार्मिक, वृषल, निन्दित और व्रत से क्षीण हो जाता शरीरान्त के साथ आत्मा का भी नाश मान लेना । जिस है। ] स्मृतियों के अनुसार अधार्मिक ग्राम में नहीं रहना दर्शन में 'आत्मा' के अस्तित्व का निषेध किया गया हो चाहिए।
उसको अनात्मवादी दर्शन कहते हैं । चार्वाक दर्शन आत्मा अधिमास-दो रविसंक्रान्तियों के मध्य में होने वाला चन्द्र- के अस्तित्व का सर्वथा विरोध करता है । अतः वह पूरा मास । रविसंकान्ति से शून्य, शुक्ल प्रतिपदा से लेकर महीने उच्छेदवादी है। परन्तु गौतम बुद्ध का अनात्मवाद इससे की पूर्णिमा तक इसकी अवधि है । इसके पर्याय हैं अधिक- भिन्न है । वह वेदान्त के शाश्वत आत्मवाद और चार्वाकों मास, असंक्रान्तिमास, मलमास, मलिम्लुच और विनामक के उच्छेदवाद दोनों को नहीं मानता है । शाश्वत आत्मवाद (मलमासतत्त्व) । इसको पुरुषोत्तममास भी कहा जाता का अर्थ है कि आत्मा नित्य, कूटस्थ, चिरन्तन तथा एक है। इसमें कथा, वार्ता, धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं। रूप है। उच्छेदवाद के अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही अधिवास-अन्यत्र जाकर रहना । धूपदानादि संस्कार द्वारा नहीं है। यह एक प्रकार का भौतिक आत्मवाद है । बुद्ध ने भावित करना भी अधिवास कहलाता है। उसके द्रव्य हैं : इन दोनों के बीच एक मध्यम मार्ग चलाया । उनका अना(१)मिट्टी, (२) चन्दन, (३) शिला, (४) धान्य, (५) दूर्वा, त्मवाद अभौतिक अनात्मवाद है। उपनिषदों का 'नेति (६) पुष्प, (७) फल, (८) दही, (९) घी, (१०) स्वस्तिक, नेति' सूत्र पकड़ कर उन्होंने कहा, "रूप आत्मा नहीं है। (११) सिन्दुर, (१२) शङ्क, (१३) कज्जल, (१४) रोचना, वेदना आत्मा नहीं है । संज्ञा आत्मा नहीं है। संस्कार (१५) श्वेत सर्षप, (१६) स्वर्ण, (१७) चाँदी, (१८) ताँबा, आत्मा नहीं है । विज्ञान आत्मा नहीं है । ये पाँच स्कन्ध (१९) चमर, (२०) दर्पण, (२१) दीप और (२२) प्रशस्त हैं, आत्मा नहीं।" भगवान् बुद्ध ने आत्मा का आत्यन्तिक पादप । किन्ही ग्रन्थों में श्वेत सर्षप के स्थान पर तथा निषेध नहीं किया, किन्तु उसे अव्याकृत प्रश्न माना । कहीं चमर के स्थान पर पका हुआ अन्न कहा गया है। अध्यात्मरामायण-वाल्मीकिरामायण के अतिरिक्त एक अध्यग्नि-विवाह के अवसर पर अग्नि के समीप पत्नी के 'अध्यात्म रामायण' भी प्रसिद्ध है, जो शिवजी की रचना लिए दिया गया धन :
कही जाती है । कुछ विद्वान् इसे वेदव्यास की रचना बतविवाहकाले यत् स्त्रीभ्यो दीयते ह्यग्निसन्निधौ । लाते हैं । अठारहों पुराणों में रामायण की कथा आयी है । तदध्यग्निकृतं सद्भिः स्त्रीधनन्तु प्रकीर्तितम् ।। कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड पुराण में जो रामायणी कथा
(दायभाग में कात्यायन) है वही अलग करके 'अव्यात्मरामायण' के नाम से प्रका[विवाह के समय अग्नि के समीप स्त्री के लिए जो धन शित की गयी है। दिया जाता है उसे अध्यग्निकृत स्त्रीधन कहते हैं। अध्यात्मोपनिषद्-हेमचन्द्ररचित 'योगशास्त्र' अथवा 'अध्याअध्ययन-गुरु के मुख से यथाक्रम शास्त्रवचन सुनना। त्मोपनिषद्' ग्यारहवीं शताब्दी का दार्शनिक ग्रन्थ है। ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत अध्ययन आता है । अन्य अध्यापन-पाठन (विद्यादान या पढ़ाना)। यह ब्राह्मणों के वर्गों के लिए भी अध्ययन कर्तव्य है।
छः कर्मों के अन्तर्गत एक है : अव्यात्मकल्पद्रुम-मुनिसुन्दरकृत 'अध्यात्मकल्पद्रुम' १३
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । ८०-१४४७ ई० के मध्य की रचना है । इसमें दार्शनिक
दानं प्रतिग्रहश्चैव षटकर्माण्यग्रजन्मनः ।। प्रश्नों का सुन्दर विवेचन किया गया है ।
(मनुस्मृति) अध्यात्म-यह शब्द अधि + आत्मन् दो शब्दों के योग से बना [अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, है। भगवद्गीता में इसका प्रयोग एकान्तिक सत्ता के लिए दान लेना ये छः ब्राह्मणों के कर्म हैं। यह ब्राह्मण का हुआ है (अ० ८ श्लोक ३) । अमेरिकी वेदान्ती इमर्सन ने विशिष्ट कर्म है । अन्य वों को इसका अधिकार नहीं है, इसका अर्थ अधीश्वर आत्मा (ओवर सोल) किया है। यद्यपि ब्राह्मणेतर सन्त-महात्माओं को उपदेश का वास्तव में जो पदार्थ क्षर अथवा नश्वर जगत् से ऊपर अर्थात् परे है उसको अध्यात्म कहते हैं ।
अध्यारोप-वस्तु में अवस्तु का आरोप । सच्चिदानन्द,
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