________________
अव्यय-अशोकाष्टमी
दान है, जिसे सूर्यमन्दिर का मग (अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण) पुरोहित धारण करता है । भविष्यपुराण में उद्धृत है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने सूर्योपासना से अपना कुष्ठ रोग निवारण किया तथा देवता के प्रति कृतज्ञ हो उन्होंने चन्द्रभागा तीर्थ में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। फिर वे नारद के शिक्षानुसार शकद्वीप की आश्चर्यजनक यात्रा कर वहाँ से एक मग पुरोहित लाये । यह मग पुरोहित अन्य पूजासामग्रियों के साथ 'अव्यङ्ग' नामक उपादान पूजा के समय अपने हाथ में धारण करता था। अव्यय-जिसका व्यय नहीं हो, अविनाशी, नित्यपुरुष । यह विष्णु का पर्याय है । मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है :
नमस्कृत्य सुरेशाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।
पुरुषायाप्रमेयाय शाश्वतायाव्ययाय च ॥ [सुरेश, विष्णु, प्रभविष्णु, पुरुष, अप्रमेय, शाश्वत, अव्यय को नमस्कार करके । ] तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः ।
(रघुवंश) [योग समाधि के द्वारा रघु तम से परे अव्यय पुरुष को प्राप्त हुआ।] अशून्य व्रत-इस व्रत में श्रावण मास से प्रारम्भ करके चार मासपर्यन्त प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया के दिन अक्षत, दही तथा फलों सहित चन्द्रमा को अर्घ्यदान किया जाता है। यदि द्वितीया तिथि तृतीया से विद्ध हो तो उसी दिन व्रत का आयोजन किया जाता है। दे० पुरुषार्थचिन्तामणि, पृ० ८३ ।। अशन्यशयन व्रत-श्रावण मास से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिवत है । इसमें लक्ष्मी तथा हरि का पूजन होता है। इसका उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर, मत्स्य (७१, २-२०), पद्मपुराण, विष्णुपुराण (२४, १-१९) आदि में हुआ है। स्त्रियों के अवैधव्य तथा पुरुषों के अवियोग (पत्नी से अवियोग) के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें भगवान् से यह प्रार्थना की जाती है :
लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयन सदा । शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथात्र मधुसूदन ॥ [हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मीजी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपने पति या पत्नी से सूनी न हो।
कृत्यरत्नाकर (पृष्ठ २२८) में लिखा है कि जब यह कहा गया है कि व्रत श्रावण कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है तो प्रयोग से सिद्ध है कि मास पूर्णिमान्त है। अशोकत्रिरात्र-ज्येष्ठ, भाद्र अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से लेकर तीन रात्रिपर्यन्त एक वर्ष के लिए यह व्रत किया जाता है । चाँदी के अशोक वृक्ष का पूजन तथा ब्रह्मा और सावित्री की प्रतिमाओं का प्रथम दिन पूजन, उमा तथा महेश्वर का द्वितीय दिन, लक्ष्मी तथा नारायण का तृतीय दिन पूजन होता है। इसके पश्चात् प्रतिमाएँ दान कर दी जाती हैं। यह व्रत पापशामक, रोगनिवारक तथा दीर्घायुष्य, यश, समृद्धि, पुत्र तथा पौत्र आदि प्रदान करता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, २.२७९-२८३; व्रतार्क (पत्रात्मक २६१ ब-२६४) । यद्यपि साधारणतः यह व्रत महिलाओं के लिए निर्दिष्ट है किन्तु पुत्रों की समृद्धि के इच्छुक पुरुष भी इस व्रत का आचरण कर सकते हैं। अशोकद्वादशी-विशोक द्वादशी की ही भाँति, आश्विन मास से एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दशमी के दिन हलका भोजन ग्रहण कर एकादशी को पूर्ण उपवास करके द्वादशी को व्रत की पारणा होती है। इसमें केशव का पूजन होता है । इसका फल है सुन्दर स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा शोक से मुक्ति । दे० मत्स्य पुराण, ८१.१-२८; कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड (पृ० ३६०-३६३) । अशोकपूर्णिमा-फाल्गुन मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए । प्रथम चार मासों में तथा उसके बाद के चार मासों में पृथ्वी का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। प्रथम चार मासों में पृथ्वी को 'धरणी' मानते हुए पूजन होता है। बाद के चार मासों में 'मेदिनी' नाम से तथा अन्तिम चार मासों में 'वसुन्धरा' नाम से पूजन होता है। दे० अग्निपुराण, १९४.१; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, २.१६२-१६४ ।। अशोकाष्टमी-(१) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यदि कहीं उस दिन बुधवार तथा पुनर्वसु नक्षत्र हो तो उसका पुण्य बहुत बढ़ जाता है । इसमें अशोक के पुष्पों से दुर्गा का पूजन होता है। अशोक की आठ कलियों से युक्त जल ग्रहण किया जाना चाहिए। अशोक वृक्ष का मन्त्र बोलते हुए पूजन करना चाहिए :
त्वामशोक कराभीष्टं मधुमाससमुद्भवम् । पिवामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org