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अविमुक्त-अव्यङ्ग न चापि प्रतिकूलेन नाविनीतेन रावण ।
काण्ड, ७०-७५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ४३९-४४४ । राज्यं पालयितुं शक्यं राज्ञा तीक्ष्णेन वा पुनः ।। अविवाह्या-विवाह के अयोग्य । सुमन्तु के अनुसार माता[ हे रावण ! कोई राजा प्रतिकूल, अविनीत, तीक्ष्ण पिता से सम्बद्ध सात पीढ़ी तक की कन्याएँ अविवाह्य आचरण के द्वारा राज्य का पालन नहीं कर सकता।] होती हैं। दूसरों के मत में दोनों पक्षों की पाँच पीढियों अविमुक्त-वाराणसी क्षेत्र । काशीखण्ड (अ० २६ ) में । तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए । लिखा है :
नारद का भी मत है : मने प्रलयकालेपि नैतत क्षेत्रं कदाचन ।
आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः । विमुक्तं स्यात् शिवाभ्यां यदविमुक्तं ततो विदुः ॥
अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा ।। अविमुक्तं तदारभ्य क्षेत्रमेतदुदीर्यते ।
सप्तमे पञ्चमे वापि येषां वैवाहिकी क्रिया । अस्यानन्दवनं नाम पुराऽकारि पिनाकिना ।।
ते च सन्तानिनः सर्वे पतिताः शूद्रतां गताः ॥ क्षेत्रस्यानन्दहेतुत्वादविमुक्तमनन्तरम् ।
[पिता एवं माता की सात एवं पाँच पीढ़ियों तक की आनन्दकन्द बीजानामङ्कराणि यतस्ततः ॥
कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए । वे कन्याएँ ज्ञेयानि सर्वलिङ्गानि तस्मिन्नानन्दकानने ।
अविवाह्य है। समान प्रवर और समान गोत्र वाली अविमुक्तमिति ख्यातमासीदित्थं घटोद्भव ।।
कन्याओं के साथ भी विवाह नहीं करना चाहिए। पाँच [हे मुने! प्रलय काल में भी शिव-पार्वती वाराणसी
अथवा सात पीढ़ियों में विवाह करनेवाले लोग सन्तान क्षेत्र को नहीं छोड़ते । इसीलिए इसे अविमुक्त कहते हैं ।
सहित पतित होकर शूद्र हो जाते हैं । ] शिव ने पहले इसका नाम आनन्दवन रखा, क्योकि यह अवीचिमान -एक नरक का नाम । उसके अन्य नाम हैं क्षेत्र आनन्द का कारण है। इसके अनन्तर अविमुक्त
वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेनाम रखा। इस आनन्दवन में असंख्य शिवलिंगों के रूप
यादन, अवीचि, अयापान । जो इस लोक में साक्ष्य, द्रव्य में आनन्दकन्द बीजों के अङ्कर इधर उधर बिखरे हुए
की अदला-बदली, दान आदि में किसी प्रकार का झूठ है । हे अगस्त्य ! इस प्रकार यह वाराणसी अविमुक्त नाम
बोलता है वह मरकर अवीचिमान् नरक में नीचे सिर से विख्यात हुई।]
करके खुले स्थान में सौ योजन ऊँचे पर्वत से गिराया पद्मपुराण में काशी के चार विभाग किये गये हैं- जाता है। यहाँ पर पापी मनुष्य गिराये जाने से तिल के काशी, वाराणसी, अविमुक्त और अन्तर्गृही । विश्व
समान विच्छिन्न शरीर हो जाता है । (भागवत, ५.२६) नाथ मन्दिर के चारों ओर दो सौ धन्वा (एक धन्वा =
अवेस्ता-पारसी (ईरानी) लोगों का मूल धर्मग्रन्थ, जिसका ४ हाथ) का वृत्त अविमुक्त कहलाता है। दे० 'काशी'
वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक देवताओं एवं धार्मिक और 'वाराणसी।
कृत्यों का अवेस्ता एवं वेद के पाठों में साम्य है, जैसे अवियोगद्वादशी-भाद्र शुक्ल १२ तिथि । इस दिन शिव अहुरमज्द का वरुण से, सोम का हओम से, ऋत का अश तथा गौरी, ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु और लक्ष्मी,
से । ये देवतानाम एवं धार्मिक विचारसाम्य भारतीय एवं सूर्य तथा उनकी पत्नी विक्षुब्धा का पूजन होना चाहिए। ईरानी आर्यों की एकता के द्योतक है। सम्भवतः ये एक दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, ११७७-११८० ।
ही मूल स्थान के रहने वाले भाई-भाई थे । अवियोगवत अथवा अवियोगततीया-स्त्रियों के लिए अवैधव्य शुक्लकादशी-चैत्र शुक्ल एकादशी। दे० हेमाद्रि, विशेष व्रत । मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारम्भ होता व्रत खण्ड, जिल्द १, ११५।। है । तृतीया के दिन शर्करा मिश्रित खीर का सेवन, शम्भु अव्यक्त–वेदान्त में 'ब्रह्म' और सांख्य में 'प्रकृति' दोनों के तथा गौरी का पूजन विहित है । एक वर्ष पर्यन्त आटा लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ तथा चावल की बनी हुई शम्भु तथा गौरी की मूर्तियों है 'जो व्यक्त (प्रकट) नहीं है।' यह जगत् का वह मौलिक का बारहों महीनों में भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न रूप है जो दृश्य अथवा प्रतीयमान नहीं है। फूलों से पूजन करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु का व्रत अव्यङ्ग-इसका शाब्दिक अर्थ है पूर्ण । यह एक पूजा-उपा
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