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अशोककाष्टमी-अश्वदीक्षा
दे० कालविवेक, पृ० ४२२; हेमाद्रि का चतुर्य चिन्तामणि, काल अंश, पृ० ६२६ ।
चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन सभी तीर्थ तथा नदियों का जल ब्रह्मपुत्र नदी में आ जाता है । इस दिन का ब्रह्मपुत्र में स्नान उन सभी पुण्यों को प्रदान करता है, जो वाजपेय यज्ञ करने से प्राप्त होते हैं।
अशोककाष्टमी - इस व्रत में उमा का पूजन होता है। नीलमत पुराण (पृष्ठ ७४, श्लोक १९०५-९०७) बतलाता है कि अशोक वृक्ष स्वयं देवी है ।
अथवा शास्त्र के अर्थ में अदृढ विश्वास श्राद्धतत्त्व में कथन है :
विधिहीनं भावदुष्टं कृतमया च यत् । तद्धरन्त्यसुरास्तस्य मूढस्य दुष्कृतात्मनः ॥ [ मूढ एवं दुष्टात्मा पुरुष के विधिहीन, भावदूषित तथा अधापूर्वक किये गये कार्य को असुर हर लेते हैं ।] मानसिक वृत्तिभेद को भी अश्रद्धा कहते हैं :
कामः सल्पी विचिकित्सा श्रद्धाद्धा धृतिर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव ।
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काम, मूल्य, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, बुद्धि, भय ये सब मन ही हैं । ]
गीता में कथन है :
'अश्रद्धया च यद्दत्तं तत्तामसमुदाहृतम्'
[ जो दान विना श्रद्धा के दिया जाता है उसे तामस कहा है । ]
अधाद्धभोजी धाद में भोजन न करने वाला, प्रशंसनीय ब्राह्मण श्राद्ध का अन्न न खाने वाला ब्राह्मण पवित्र आचारवान् या त्यागी माना जाता है। कुछ धाड़ों में भोजन करने के बदले प्रायश्चित्त करने का आदेश स्मृतियों में पाया जाता है ।
अश्वग्रीव - विष्णु से द्वेष करनेवाला असुर । महाभारत में कहा है :
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'अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः [ अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुण्ड, महाबल ये दैत्य हैं । ] वृष्णिवंशज चित्रक का एक पुत्र जो राजा हो गया 'अश्वग्रीव इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः ' अश्वत्थ - हिन्दुओं का पूज्य पोपल वृक्ष । इसे विश्ववृक्ष भी कहते हैं । इसका एक नाम वासुदेव भी है। ऐसा विश्वास
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है कि इसके पत्ते पत्ते में देवताओं का वास है । काम-कर्मरूपी वायु के द्वारा प्रेरित, नित्य प्रचलित स्वभाव एवं शीघ्र विनाशी होने के कारण तथा कल भी रुकेगा ऐसा विश्वास न होने के कारण, मायामय संसारवृक्ष को भी अश्वत्थ कहते हैं ।
इसके पर्याय है- (१) वोधिद्रुम, (२) चलदल, (३) पिप्पल, (४) कुञ्जराशन, (५) अच्युतावास, (६) चलपत्र, (७) पवित्रक, (८) शुभद, (९) बोधिवृक्ष, (१०) याज्ञिक, (११) गजभक्षक, (१२) श्रीमान्, (१३) क्षीरद्रुम, (१४) विप्र, (१५) मङ्गल्य, (१६) श्यामल, (१७) गुह्यपुष्प, (१८) सेव्य, (१९) सत्य, ( २० ) शुचिम और (२१) धनवृक्ष ।
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ऋग्वेद में अश्वत्थ की लकड़ी के पात्रों का उल्लेख है। परवर्ती काल के ग्रन्थों में इस वृक्ष का अत्यधिक उल्लेख किया गया है। इसकी कठोर लकड़ी अग्नि जलाते समय शमी की लकड़ी के ऊपर रखी जाती थी । यह अपनी जड़ों को दूसरे वृक्ष के तने में स्थापित कर उन्हें नष्ट कर देता है, विशेष कर खदिर नामक वृक्ष को । इसी कारण इसे बाध भी कहते हैं । इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया है, जिसे पक्षी खाते हैं (ऋ० १. १६४, २०) । देवता लोग इस वृक्ष के नीचे तीसरे स्वर्ग में निवास करते हैं (अ० ० ५.४, ३ छा० ३०८.५, २० कौ० उ० ९.३) ।
अश्वत्थ एवं न्यग्रोध को शिखण्डी भी वृक्ष की लकड़ी के पात्र यज्ञों में काम में
कहते हैं । इस लाये जाते हैं । इस वृक्ष का धार्मिक महत्त्व अधिक है। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ ।' विश्ववृक्ष से इसकी तुलना की गयी है ।
इसको चैत्यवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे पूजा-अर्चा आदि होती है।
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अश्वरथव्रत अपशकुन, आक्रमण संक्रामक बीमारियों, जैसे कुष्ठ आदि के फैलने के समय अश्वत्व का पूजन किया जाता है। दे० व्रतार्क, पत्रात्मक, पृ० ४०६, ४०८ । अश्वदीक्षा - आश्विन शुक्ल पक्ष में जब स्वाति नक्षत्र का चन्द्रमा हो उस दिन यह व्रत किया जाता है । इन्द्र के घोड़े (उच्चैःश्रवा) तथा अपने घोड़ों का इस समय सम्मान करना चाहिए। यदि नवमी तिथि हो तो शान्तिपाठ के साथ चार भिन्न रंगों में रंगे हुए धागों को घोड़ों की
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