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गाथि- गान्धर्व
के अवसर पर ब्राह्मण कुमारों के यज्ञोपवीत के अवसर पर तथा विवाह संस्कार के दिन या एक दिन पूर्व ही वर तथा कन्या दोनों का गात्रहरिद्रा उत्सव होता है । शरीर पर हरिद्रालेपन नये जन्म अथवा जीवन में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन का प्रतीक है । इससे शरीर की कान्ति बढ़ती है । दक्षिण भारत में यह अंगराग की तरह प्रचलित है।
गाधि - कान्यकुब्ज के चन्द्रवंशी राजा कुशिक के पुत्र तथा विश्वामित्र के पिता का नाम महाभारत ( ३. ११५.१९) में इनका उल्लेख हैं :
कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिवः स महाबलः । गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम ह ॥
[ कान्यकुब्ज ( कन्नौज ) देश में गाधि नाम का महाबली राजा हुआ, जो तपस्या के लिए वनवासी हो गया या ।] हरिवंश (२७.१३-१६) में इनकी उत्पत्ति की कथा दी हुई है :
कुशिकस्तु तपस्तेपे पुत्रमिन्द्रसमं विभुः । लभेयमिति तं शक्रस्त्रासादभ्येत्य जज्ञिवान् ॥ पूर्ण वर्षसहस्रे वै तं तु शक्रो ह्यपश्यत । अत्युग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः ॥ समर्थ पुत्रजनने स्वमेवांशमवासयत् । पुत्रत्वे कल्पयामास स देवेन्द्रः सुरोत्तमः ॥ स गाधिरभवद्राजा मघवान् कौशिकः स्वयम् पौरकुत्स्यभवद्भार्यां गाधिस्तस्यामजायत ।
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गाधेः कन्या महाभागा नाम्ना सत्यवती शुभा । तां गाधिः काव्यपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः ॥ [ राजा कुशिक ने इन्द्र के समान पुत्र तपस्या की, तब इन्द्र स्वयं अपने अंश से राजा का पुत्र बनकर गाधि नाम से उत्पन्न हुआ। गाधि की कन्या सत्यवती थी, जो भृगुवंश के ऋचीक की पत्नी हुई । ] गान्धर्वतन्त्र - आगमतत्त्वविलास में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में गान्धर्वतन्त्र का क्रम ५७ है। इसमें आगमिक क्रियाओं में गन्धर्वों के महत्त्व तथा उनकी संगीत विद्या का विवरण है ।
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गान्धर्ववेद सामवेद का उपवेद सामवेद की १००० शाखाओं में आजकल केवल १३ पायी जाती हैं। वार्ष्णेय शाखा का उपवेद गान्धर्व उपवेद के नाम से प्रसिद्ध है ।
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गान्धर्व वेद के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं। सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ । आजकल हनुमान् का मत प्रचलित है।
गान्धर्ववेद अन्य उपवेदों की तरह सर्वथा व्यवहारात्मक हैं। इसलिए आधुनिक काल में इसके जो अंश लोप होने से बचे हुए हैं वे ही प्रचलित समझे जाने चाहिए। सामवेद का 'अरण्यगान' एवं 'ग्रामगेयगान' आजकल प्रचार से उठ गया है, इसलिए सामगान की वास्तविक विधि का लोप हो गया है । ऋषियों के मध्य जो विद्या गान्धर्ववेद कहलाती थी, वही सर्वसाधारण के व्यवहार में आने पर संगीत विद्या कहलाने लगी । ऋषियों की विद्या ग्रन्थों में मर्यादित होने के कारण अब आधुनिक काल में सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं है। दे० 'उपवेद' । गान -- वैदिक काल में गेय मन्त्रों का संग्रह तथा याज्ञिक विधि सम्बन्धी शिक्षा विशेष गुरुकुलों में हुआ करती थी। ऐसे सामवेद के गुरुकुल थे जहाँ मन्त्रों का गान करना तथा छन्दों का उच्चारण मौखिक रूप में सिखाया जाता था । जब लेखन प्रणाली का प्रचार हुआ तो अनेक स्वरग्रन्थों की, जिन्हें 'मान' कहते थे, रचना हुई इस प्रकार गान की उत्पत्ति सामवेद से हुई।
गान के दो भेद हैं- ( १ ) मार्ग और देशी संगीतदर्पण (३.६) के अनुसार
मार्ग - देशीविभागेन सङ्गीतं द्विविधं स्मृतम् । दृहिणेन यदन्विष्टं प्रयुक्तं भरतेन च ।। महादेवस्य पुरतस्तन्मार्गांख्यं विमुक्तिदम् ॥ तत्तद्देशस्थया रीत्या यत्स्याल्लोकानुरञ्जनम् । देशे देशे तु सङ्गीतं तद्देशीत्यभिधीयते ।। [ मार्ग और देशी भेद से संगीत दो प्रकार का है। ब्रह्मा ने जिसे निर्धारित कर भरत को प्रदान किया और भरत ने शंकर के समक्ष प्रयुक्त किया वह मार्ग संगीत है । जो विभिन्न देशों के अनुसार लोकरंजन में लिए अनेक रीतियों में प्रचलित है वह देशी संगीत है । ] गान्धर्व (१) विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के नव उपद्वीपों में से एक गान्धर्वद्वीप भी है :
भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान्निबोधत । इन्द्रद्वीपः कशेरुमांस्ताम्रपर्णी गभस्तिमान् ॥ नागद्वीपस्तथा सौम्यो गान्धर्वरत्वच वारुणः । अयन्तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः ।।
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