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अतीव्रत-अर्चन
तारे को व्यतीत आयु वाले न देखते हैं ।]
[ दीपक बुझने की गन्ध, मित्रों के वचन और अरुन्धती सूचते, न सुनते और न
विवाह में सप्तपदी गमन के अनन्तर वर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ बधू को अरुन्धती का दर्शन कराता है | अरुन्धती स्थायी विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है । अरुन्धतीव्रत इसका विधान केवल महिलाओं के लिए है। वैधव्य से मुक्ति तथा सन्तान की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। इसमें वसन्त ऋतु प्रारम्भ होने के तीसरे दिन व्रतारम्भ और तीन रात्रि तक उपवास होता है । अरुन्धती देवी का पूजन इसमें मुख्य क्रिया है । दे० हेमाद्रि, व्रत काण्ड, २, ३१२- ३१५, व्रतराज, ८९-९३ । अर्कव्रत मास के दोनों पक्षों में पष्ठी तथा सप्तमी के दिन केवल रात्रि में भोजन किया जाता है। यह व्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है । इसमें अर्क (सूर्य) का पूजन करना चाहिए । दे० कृत्यकल्पतरु, ३८७, हेमाद्रि, २.५०९ । अर्कसप्तमी - यह तिथिव्रत है। दो वर्ष पर्यन्त यह व्रत चलता है, सूर्य देवता है । केवल अर्क के पौधे के पत्तों के बने दोनों में जलपान करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, ७८८७८९; पद्मपुराण, ७५, ८६-१०६ । यह व्रत सूर्य के उत्त रायण होने पर शुक्ल पक्ष में किसी रविवार को किया जाना चाहिए। पंचमी को एक समय और षष्ठी को रात्रि में भोजन, सप्तमी को उपवास तथा अष्टमी को व्रत का पारण करना चाहिए ।
अर्कसम्पुट सप्तमी फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को प्रतारम्भ एक वर्ष पर्यन्त व्रत का पालन । इसमें सूर्य की पूजा का विधान है । दे० भविष्य पुराण, २१०, २-८१ । अष्टमी शुक्ल पक्ष की रविवासरीय अष्टमी को यह व्रत आचरणीय है। उमा तथा शिव की पूजा इसमें होनी चाहिए, जिनकी आँखों में सूर्य विश्राम करता है । दे० हेमाद्रि, ८३५-८३७ ।
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अर्गलास्तोत्र - एक छोटा-सा दुर्गा स्तोत्र है । स्मार्ती की दक्षिणमार्गी शाखा के अनुयायी अपने घरों में साधारणतः यन्त्र के रूप में या कलश के रूप में देवी की स्थापना और पूजा करते हैं। पूजा में यन्त्र पर कुङ्कुम तथा पत्र- पुष्प चढ़ाते हैं । किन्तु देवी की पूजा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है 'चण्डीपाठ' करना तथा उसके पूर्व एवं पश्चात् दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पढ़ा जाना ।
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उनके नाम हैं कीलक, कवच तथा अर्गलास्तोत्र । 'अर्गला - स्तोत्र' मार्कण्डेय तथा वाराह पुराण से लिया गया है । अर्थ- वस्तुमूल्य और पूजाविधि। मनु के अनुसार कुर्युरचं यथापण्यं ततो विशं नृपो हरेत् । मणिमुक्ताप्रवलानां लौहानां तान्तवस्य च । गन्धानाञ्च रसानाञ्च विद्यादर्धबलाबलम् ।।
[ क्रेय वस्तु के अनुसार मूल्य निश्चित करे । मूल्य का बीसवाँ भाग राजा ग्रहण कर ले। मणि, मोती, मूंगा, लोहे, तन्तु से निर्मित वस्तु, गन्ध एवं रसों के घटते-बढ़ते मूल्यों के अनुसार अपना भाग ले । ]
इस शब्द को साम के उद्गाता सर्वत्र गान में यकार सहित नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग करें। अन्य वेदों के लोगों को यकाररहित पुंल्लिङ्ग में प्रयोग करना चाहिए ( धाढतत्व) दूर्वा, अक्षत, सपंप, पुष्प आदि से रचित, देव तथा ब्राह्मण आदि के सम्मानार्थ पूजा उपचार का यह एक भेद है। यथा उत्तररामचरित में
'अये वनदेवतेयं फलकुसुमपल्लवार्घेण मामुपतिष्ठते ।' [ यह वनदेवता फल, पुष्प, पत्तों के अर्ध से मेरी पूजा कर रही है । ] इसी प्रकार मेघदूत में :
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै । [ कुटज के ताजे फूलों से उसने उसे अर्ध दिया । ] अर्ध्य - पूजा के योग्य ( 'अर्ध मर्हति' इस अर्थ में यत् प्रत्यय ) इसका सामान्य अर्थ है पूजार्थ दूर्वा, अक्षत, चन्दन, पुष्प जल आदि ( अमरकोश ) ।
मध्यकाल के धर्मग्रन्थों में इसका बड़ा विशद वर्णन मिलता है। वर्षकृत्यकौमुदी ( पृ० १४२ ) के अनुसार समस्त देवी-देवताओं के लिए चन्दन लेप, पुष्प, अक्षत, कुशाओं के अग्रभाग, तिल, सरसों, दूर्वा का अर्घ्य में प्रयोग करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, १४८ कृत्यरत्नाकर, २९६ ।
अचंक - मन्दिरों में देवप्रतिमा की सेवा-पूजा करनेवाला पुजारी ।
अर्चन - पूजन | इसका माहात्म्य इस प्रकार कहा गया है : धनधान्यकरं नित्यं गुरुदेवद्विजार्चनम् ।
[ नित्यप्रति गुरु, देव, ब्राह्मण की पूजा धन-धान्य को देने वाली है । ]
यह नवधा भक्तिप्रदर्शन का एक प्रकार है।
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