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________________ अर्चा-अर्थवाव अर्चा-देवता आदि की पूजा : अर्चा चेद् विधितश्च ते वद तदा किं मोक्षलाभक्लमैः । (शिवशतक) हे शिव ! यदि आपकी विधिवत् पूजा की जाय तो फिर मोक्षप्राप्ति के लिए कष्ट उठाने से क्या लाभ है।] अचिष्मान-अग्नि, सूर्य, प्रदीप्त, तेजविशिष्ट, प्रभावान्, स्वनामख्यात देवऋषिविशेष । अर्जन (गुरु)-सिक्खों के गुरु अर्जुन अकबर के समकालीन थे । ये कवि एवं व्यावहारिक भी थे। इन्होंने अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बनवाया और कबीर आदि अन्य भक्तों के भजनों का संग्रह कर ग्रन्थसाहब को पूरा किया। इसमें 'जपजी' का प्रथम स्थान है, तत्पश्चात् 'सोदरू' का । फिर रागों के अनुसार शेष रचना के विभाग किये गये हैं । इस प्रकार ग्रन्थसाहब ही नानकपंथियों का वेद बन गया है। दसवें गुरु गोविन्दसिंह ने “सब सिक्खन कूँ हुकुम है, गुरु मानियों ग्रन्थ' यह फरमान निकाल कर गुरु नानक से चली आ रही गुरुपरम्परा अपने बाद समाप्त कर दी । अकबर के बाद जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को बड़ी यातना दी, जिससे सिक्ख-मुसलमान संघर्ष की परम्परा प्रारम्भ हो गयी। अर्थ-विषय, याच्या, धन, कारण, वस्तु, शब्द से प्रतिपाद्य, निवृत्ति, प्रयोजन, प्रकार आदि । यह धन के अर्थ में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है और त्रिवर्ग के अन्तर्गत दूसरा पुरुषार्थ है : कस्यार्थधमौं वद पीडया मि सिन्धोस्तटावोघवतः प्रवृद्धः । (कुमारसम्भव) [ नदी का वेग जैसे अपने दोनों तटों को काट देता है वैसे ही कहो किसके धर्म-अर्थ को नष्ट कर दूं।] तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते । सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठमेषां यथोत्तरम् ॥ (मनुस्मृति) [तम का लक्षण काम है। रज का लक्षण अर्थ है। सत्त्व का लक्षण धर्म है । ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं । ] __ अर्थ मानवजीवन का आवश्यक पुरुषार्थ है, किन्तु इसका अर्जन धर्मपूर्वक करना चाहिए। अर्थपञ्चक-पाँच निर्णयों का संग्रह, संक्षिप्त, संस्कृतगर्भ, तमिल में लिखा गया तेरहवीं शताब्दी के अन्त वा चौद- हवीं के प्रारम्भ का एक ग्रन्थ । इसे श्रीवैष्णवसिद्धान्त का संक्षिप्त सार कहा जा सकता है। इसके रचयिता श्रीरङ्गम् शाखा के प्रमुख पिल्लई लोकाचार्य थे । अर्थवाद-प्राचीन काल में वेद अध्ययन करते समय विद्यार्थी अपने आचार्य से और भी व्यावहारिक शिक्षाएँ लेता था। जैसे वेदी की रचना, हविनिर्माण, याज्ञिककर्म आदि । इन क्रियाओं के आदेशवचन विधि कहलाते थे तथा उनकी व्याख्या करना अर्थवाद । बाद में अर्थवाद शब्द का व्यवहार प्रशंसा अथवा अतिरञ्जना के अर्थ में होने लगा। तब इसका तात्पर्य हुआ-लक्षणा के द्वारा स्तुति तथा निन्दा के अर्थ का वाद। वह तीन प्रकार का है-१. गुणवाद, २. अनुवाद तथा ३. भूतार्थवाद । कहा गया है : विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते । भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः ।। [विरोध में गुणवाद, अवधारित में अनुवाद, उनके अभाव में भूतार्थवाद, इस प्रकार अर्थवाद तीन प्रकार का होता है । ] तत्त्वसम्बोधिनी के मत में यह सात प्रकार का है : १. स्तुति-अर्थवाद, २. फलार्थवाद, ३. सिद्धार्थवाद, ४. निन्दार्थवाद, ५. परकृति, ६. पुराकल्प तथा ७. मन्त्र । इनके उदाहरण वेद में पाये जाते है। . विशेष्य-विशेषण के विरोध में समानाधिकरण न होने पर गुणवाद होता है। अर्थात् इसमें अङ्गरूप कथन से विरोध का परिहार किया जाता है। जैसे 'यजमान प्रस्तर है', यहाँ प्रस्तर का अर्थ मुट्ठीभर कुश है। उसका यजमान के साथ अभेदान्वय नहीं हो सकता, अतः यहाँ यजमान का कुशमुष्टि धारणरूप अर्थवाद का प्रकार गुणवाद माना जाता है। अन्य प्रमाण द्वारा सिद्ध अर्थ का पुनः कथन अवधारित कहलाता है। जैसे 'अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं करना चाहिए', अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं हो सकता यह प्रत्यक्ष प्रमाग से सिद्ध है, तो भी यहाँ उसका पुनः अनुवाद कर दिया गया है। विरोध और अवधारण के अभाव में भूतार्थवाद होता है, जैसे 'इन्द्र वृत्र का घातक है।' भूतार्थवाद भी दो प्रकार का है-१. स्तुति-अर्थवाद और २. निन्दार्थवाद । जैसे, 'वह स्वर्ग को जाता है जो सन्ध्या-पूजन करता है' यह स्तुतिअर्थवाद है। 'पर्व के दिन मांस आदि का सेवन करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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