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आत्मानन्द-आदिग्रन्थ
आचार्य । इन्होंने पद्मपादकृत ‘पञ्चपादिका' के ऊपर 'प्रबोध- ज्ञात होता है कि ये पूर्वमीमांसा के आचार्य थे। परिशोधिनी' नामक टीका लिखी, जो अपनी तार्किक आथर्वण-अथर्वा ऋषि द्वारा संगृहीत वेद; उक्त वेद का युक्तियों के लिए प्रसिद्ध है ।
मंत्र; आथर्वण का पाठक, परम्परागत अध्येता अथवा आत्मानन्द-ये ऋक्संहिता के एक भाष्यकार है।
विधि विधान । आत्मानात्मविवेक-शङ्कराचार्य के प्रथम शिष्य पद्मपादा- आथव'ण उपनिषदें-दूसरे वेदों की अपेक्षा अथर्ववेदीय चार्य की रचनाओं में एक । इसमें आत्मा तथा अनात्मा के उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्व का प्रकाश ही भेद को विशद रूप से समझाया गया है ।
इनका उद्देश्य है। इसलिए अथर्ववेद को 'ब्रह्मवेद' भी आत्मार्पण-अप्पय दीक्षित रचित उत्कृष्ट कृतियों में से एक कहते हैं । विद्यारण्य स्वामी ने 'अनुभूतिप्रकाश' नामक निबन्ध । इसमें आत्मानुभूति का विशद विवेचन है। ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और नृसिंहोत्तरतापनीय इन तीन आत्मोपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसमें आत्मतत्त्व का उपनिषदों को ही प्रारम्भिक अथर्ववेदीय उपनिषद् माना निरूपण किया गया है।
है । किन्तु शङ्कराचार्य माण्डूक्य को भी इनके अन्तर्गत आत्रेय-बृहदारण्यक उपनिषद् (२.६.३) में वणित माण्टि मानते हैं, क्योंकि बादरायण ने वेदान्तसूत्र में इन्हीं चारों के एक शिष्य की पैतृक उपाधि । ऐतरेय ब्राह्मण में आत्रेय के प्रमाण अनेक बार दिये हैं । जो संन्यासी प्रायः सिर मुड़ाये अङ्ग के पुरोहित कहे गये है। शतपथ ब्राह्मण में एक रहते हैं, उन्हें मुण्डक कहते हैं । इसी से पहली रचना का आत्रेय को कुछ यज्ञों का नियमतः पुरोहित कहा गया है। 'मुण्डकोपनिषद्' नाम पड़ा। ब्रह्म क्या है, उसे किस प्रकार उसी में अन्यत्र एक अस्पष्ट वचन के अन्तर्गत आत्रेयी समझा जाता है, इस उपनिषद् में इन्हीं बातों का वर्णन शब्द का भी प्रयोग हुआ है ।
है। प्रश्नोपनिषद् गद्य में है । ऋषि पिप्पलाद के छः ब्रह्मआत्रेयी-गभिणी या रजस्वला महिला । प्रथम अर्थ के जिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के मूल छः तत्त्वों पर प्रश्न किये लिए 'अत्र' (यहाँ है) से इस शब्द की व्युत्पत्ति होती है। हैं। उन्हीं छ: प्रश्नोत्तरों पर यह प्रश्नोपनिषद् आधारित द्वितीय अर्थ के लिए 'अ-त्रि (तीन दिन स्पर्श के योग्य है । माण्डूक्योपनिषद् एक बहुत छोटा गद्यसंग्रह है, परन्तु नहीं) से इसकी व्युत्पत्ति होती है। अत्रि गोत्र में उत्पन्न सबसे प्रधान समझा जाता है। नृसिंहतापिनी पूर्व और भी आत्रेयी कही गयी है, जैसा कि उत्तररामचरित में उत्तर दो भागों में विभक्त है। इन चारों के अतिरिक्त भवभूति ने एक वेदपाठिनी ब्रह्मचारिणी आत्रेयी का वर्णन मुक्तिकोपनिषद् में अन्य ९३ आथर्वण उपनिषदों के भी किया है।
नाम मिलते हैं। आत्रय ऋषि-कृष्ण यजुर्वेद के चरक सम्प्रदाय की बारह
आदि उपदेश-'साधमत' के संस्थापक बीरभान अपनी शाखाओं में से एक शाखा मैत्रायणी है । पुनः मैत्रायणी की
शिक्षाएं कबीर की भाँति दिया करते थे। वे दोहे और सात शाखाएं हुई, जिनमें 'आत्रेय' एक शाखा है।
भजन के रूप में हुआ करती थीं। उन्हीं के संग्रह को ___ आचार्य आत्रेय के मत का उल्लेख (ब्र० स० ३.४.४४) 'आदि उपदेश' कहते हैं। करके ब्रहासुत्रकार ने उसका खण्डन किया है। उनका आदिकेदार-उत्तराखण्ड में स्थित मुख्य तीर्थों में से एक । मत है कि यजमान को ही यज्ञ की अङ्गभूत उपासना का बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से ४-५ सीढ़ी नीचे शङ्कराफल प्राप्त होता है, ऋत्विज को नहीं । अतएव सभी उपा- चार्य का मन्दिर है । उससे ३-४ सीढ़ी उतरने के बाद सनाएँ स्वयं यजमान को करनी चाहिए, पुरोहित के द्वारा आदिकेदार मन्दिर स्थित है। नहीं करानी चाहिए। इसके विरोध में सूत्रकार ने आचार्य आदिग्रन्थ-सिक्खों का यह धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें गुरु
औडुलोमि के मत को प्रमाणस्वरूप उद्धत किया है। नानक तथा दूसरे गुरुओं के उपदेशों का संग्रह है। इसका मीमांसादर्शन में जैमिनि ने वेदान्ती आचार्य कार्णाजिनि पढ़ना तथा इसके बताये मार्ग पर चलना प्रत्येक सिक्ख के मत के विरुद्ध सिद्धान्त रूप से आत्रेय के मत का उल्लेख अपना कर्तव्य समझता है । 'आदिग्रन्थ' को 'गुरु ग्रन्थ किया है। फिर कर्म के सर्वाधिकार मत का खण्डन करने साहब' या केवल 'ग्रन्थ साहब' भी कहा जाता है, क्योंकि के लिए भी जैमिनि ने आत्रेय का प्रमाण दिया है। इससे . दसवें गुरु गोन्विदसिंह ने सिक्खों की इस गरुप्रणाली को
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