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नारदपुराण-मारायण
दक 'नारदपञ्चरात्र' नामक एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। नारदपञ्चरात्र और ज्ञानामृतसार से पता चलता है कि भागवत धर्म को परम्परा बौद्ध धर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो सकी। इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम कारण है। ___ कई वर्ष पहले इस ग्रन्थ का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। यह बहुलअर्थी ग्रन्थ है। इसमें कुछ भाग विष्णुस्वामियों तथा कुछ वल्लभों द्वारा जोड़ दिये गये
जान पड़ते हैं। नारदपुराण-नारदीय महापुराण में पूर्व और उत्तर दो खण्ड हैं । पूर्व खण्ड में १२५ अध्याय हैं और उत्तर खण्ड में ८२ अध्याय । इसके अनुसार इस पुराण में २५,००० श्लोक होने चाहिए। बृहन्नारदीय पुराण उपपुराण है। कात्तिकमाहात्म्य, दत्तात्रेयस्तोत्र, पार्थिवलिङ्गमाहात्म्य, मृगव्याधकथा, यादवगिरिमाहात्म्य, श्रीकृष्ण- माहात्म्य, सङ्कटगणपतिस्तोत्र इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ नारदपुराण के ही अन्तर्गत समझी जाती हैं।
यह वैष्णव पुराण है। विष्णुपुराण में रचनाक्रम से यह छठा बताया गया है । परन्तु इसमें प्रायः सभी पुराणों की संक्षिप्त विषयसूची श्लोकबद्ध दी गयी है। इससे जान पड़ता है कि इस महापुराण में कम से कम इतना अंश अवश्य ही उन सब पुराणों से पीछे का है। इसकी यही विशेषता है कि उक्त उल्लेख से अन्य पुराणों के पुराने संस्करणों का ठीक-ठीक पता लगता है और पुराण तथा उपपुराण का अन्तर भी मालूम हो जाता है। नारदभक्तिसूत्र-नारद और शाण्डिल्य के रचे दो भक्तिसूत्र प्रसिद्ध हैं जिन्हें वैष्णव आचार्य अपने निर्देशक ग्रन्थ मानते हैं । दोनों भागवत पुराण पर आधारित हैं। दोनों में से किसी में राधा का वर्णन नहीं है। नारदभक्तिसूत्र भाषा तथा विचार दोनों ही दृष्टियों से सरल है। नारदस्मृति-२०७-५५० ई० के मध्य रचे गये धर्मशास्त्रग्रन्थों में नारद तथा बृहस्पति की स्मृतियों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर नारद के दो संस्करण पाये जाते हैं, जिनमें से लघु संस्करण का सम्पादन तथा अनुवाद जॉली ने १८७६ ई० में किया था। १८८५ ई० में बड़े संस्करण का प्रकाशन भी जॉलो ने ही 'बिब्लिओथिका इण्डिका सीरीज' में किया था और इसका अंग्रेजी
अनुवाद 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (जिल्द, ३३ ) में किया।
याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन स्मृतियों की सूची पायी जाती है उसमें नारदस्मृति का उल्लेख नहीं है और न पराशर ही नारद की गणना स्मृतिकारों में करते हैं । किन्तु विश्वरूप ने वृद्ध-याज्ञवल्क्य के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें स्मृतिकारों में नारद का स्थान सर्वप्रथम है ( याज्ञ०, १.४-५ पर विश्वरूप की टीका )। इससे प्रकट होता है कि नारदस्मति की रचना याज्ञवल्क्य और पराशर स्मृतियों के पश्चात् हुई ।
नारदस्मृति का जो संस्करण प्रकाशित है उसके प्रथम तीन (प्रस्तावना के ) अध्याय व्यवहारमातृका ( अदालती कार्रवाई ) तथा सभा ( न्यायालय ) के ऊपर हैं। इसके पश्चात् निम्नलिखित वादस्थान दिये गये हैं : ऋणाधान ( ऋण वापस प्राप्त करता ), उपनिधि (जमानत ), सम्भूय समुत्थान (सहकारिता), दत्ताप्रदानिक (करार करके न देना), अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (सेवाअनुवन्ध भङ्ग), वेतनस्य अनपाकर्म ( वेतन का भुगतान न करना ), अस्वामिविक्रय ( विना स्वाम्य के विक्रय), विक्रीयासम्प्रदान ( बेचकर सामान न देना), क्रीतानुशय (खरीदकर न लेना), समयस्यानपाकर्म (निगम, श्रेणी आदि के नियमों का भङ्ग ), सीमाबन्ध ( सीमाविवाद ), स्त्रीपुंसयोग ( वैवाहिक सम्बन्ध ), दायभाग (पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार और विभाग ), साहस (बलप्रयोग-अपराध ), वाक्पारुण्य ( मानहानि, गाली), दण्डपारुष्य ( चोट और क्षति पहुँचाना), प्रकीर्णक (विविध अपराध )। परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य प्रमाण का निरूपण है।
नारद व्यवहार में पर्याप्त सीमा तक मनु के अनुयायी हैं । नारायण-(१) महाभारत, मोक्षधर्म के नारायणीय उपाख्यान में वर्णन है कि नारद उत्तर दिशा की लम्बी यात्रा करते हए क्षीरसागर के तट पर जा निकले । उसके बीच श्वेतद्वीप था, जिसके निवासी श्वेत पुरुष नारायण अर्थात् विष्णु की पूजा करते थे। आगे उन लोगों की पवित्रता, धर्म आदि का वर्णन है ।
महोपनिषद् में कहा गया है कि नारायण अर्थात् विष्णु ही अनन्त ब्रह्म है, उन्हीं से सांख्य के पचीस तत्त्व उत्पन्न
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