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अथर्वोपनिषद्-अदेश (आदेश) है, जो अथर्ववेद की विषयवस्तु के निर्माणकर्ता है । इसका वर हैं, जिनमें एक तो सूखा रहता है परन्तु दूसरे में जल प्रथम भाग प्राणियों के शुभ कायौं (भेषजानि) का निरू- भरा रहता है। इनमें पहला अदितिकुण्ड और दूसरा पण करता है, इसके विपरीत दूसरा जादू-टोना (यातु वा सूर्यकुण्ड कहलाता है। यहीं पर महर्षि कश्यप तथा उनकी अभिचार) का । इस मत की पुष्टि दो पौराणिक व्यक्तियों पत्नी अदिति का आश्रम था और माता अदिति ने वामन 'घोर-आङ्गिरस' एवं 'भिषक्-आङ्गिरस' के नाम से एवं भगवान् को पुत्र रूप में पाया था। पञ्चविंश ब्राह्मण में उद्धत 'अथर्वाणः' तथा 'आथर्वणानि' अदुःखनवमी-सबके लिए, विशेषतः स्त्रियों के लिए, भाद्र के भेषज के साथ सम्बन्ध निर्देश से होती है । अथर्ववेद में शुक्ला नवमो को इस व्रत का विधान है। इसमें पार्वती भेषज का तात्पर्य अथर्ववेद के अर्थ में एवं शतपथब्राह्मण का पूजन किया जाता है। दे० व्रतराज, ३३२, ३३७; में यातु का तात्पर्य अथर्ववेद लगाया गया है।
स्क० पु० । बंगाली महिलाएं अवैधव्य के लिए इस व्रत अथर्वोपनिषद्-इसका बहुभाषित नाम 'याज्ञिकी' तथा का अनुष्ठान करती हैं। 'नारायणीयोपनिषद्' है । 'अथर्वोपनिषद्' नाम द्रविड देश, अदृष्ट-ईश्वर की इच्छा, जो प्रत्येक आत्मा में गुप्त रूप से आन्ध्र प्रदेश, कर्णाटक आदि में प्रचलित है। तैत्तिरीय- विराजमान है, अदृष्ट कहलाती है। भाग्य को भी अदष्ट आरण्यक का सातवाँ, आठवाँ, नदाँ एवं दसवाँ प्रपाठक
कहते हैं । मीमांसा दर्शन को छोड़ अन्य सभी हिन्दू दर्शन ब्रह्मविद्या सम्बन्धी होने से 'उपनिषद्' कहलाता है । यह
प्रलय में आस्था रखते हैं। न्याय-वैशेषिक मतानुसार ईश्वर उपनिषद् दसवाँ प्रपाठक है। सायणाचार्य ने इस पर । प्राणियों को विश्राम देने के लिए प्रलय उपस्थित करता भाष्य लिखा है एवं विज्ञानात्मा ने एक स्वतन्त्र वृत्ति और है । आत्मा में, शरीर, ज्ञान एवं सभी तत्त्वों में विराज'वेद-शिरोभूषण' नाम की एक अलग व्याख्या लिखी है। मान अदृष्ट शक्ति उस काल में काम करना बन्द कर याज्ञिकी 'नारायणीय-उपनिषद्' में ब्रह्मतत्त्व का विवरण देती है (शक्ति-प्रतिबन्ध)। फलतः कोई नया शरीर, ज्ञान है। शङ्कराचार्य ने भी इसका भाष्य लिखा है।
अथवा अन्य सृष्टि नहीं होती। फिर प्रलय करने के लिए अदारिद्रय षष्ठी-स्कन्द पुराण के अनुसार एक वर्ष तक अदृष्ट सभी परमाणुओं में पार्थक्य उत्पन्न करता है तथा प्रत्येक षष्ठी को यह व्रत करना चाहिए। इसमें भास्कर सभी स्थूल पदार्थ इस क्रिया से परमाणुओं के रूप में आ (सूर्य) की पूजा की जाती है। व्रती को तेल एवं लवण जाते हैं । इस प्रकार अलग हुए परमाणु तथा आत्मा अपने त्यागना चाहिए तथा ब्राह्मण को खीर (दूध और चीनी किये हुए धर्म, अधर्म तथा संस्कार के साथ निष्प्राण लटके में पका चावल) खिलाना चाहिए। इस व्रत से परिवार में न कोई दरिद्र उत्पन्न होता है और न दरिद्र बनता है। पुनः सृष्टि के समय ईश्वर की इच्छा से फिर अदष्ट अदिति-वरुण, मित्र एवं अर्यमा की माता अथवा देवमाता। लटके हए परमाणुओं एवं आत्माओं में आन्दोलन उत्पन्न इसको स्वाधीनता तथा निरपराधिता का स्वरूप कहा गया करता है। व फिर संगठित होकर अपने किये हुए धर्म, है । बारह आदित्य अदिति के पुत्र माने जाते हैं । अदिति अधर्म एवं संस्कारानुसार नया शरीर तथा रूप धारण का भौतिक आधार असीमित क्षितिज है जिसके और करते हैं। आकाश के बीच में बारहों आदित्य भ्रमण करते हैं। अदेश (आदेश)-इस शब्द का सम्बन्ध केशवचन्द्र सेन पुराणों में इस कल्पना का विस्तार से वर्णन है। कश्यप तथा ब्रह्मसमाज से है। केशवचन्द्र ब्रह्मसमाज के प्रमुख की दो पत्नियाँ थीं---अदिति और दिति । अदिति से देव नेता थे, किन्तु तीन कारणों से समाज ने उनका विरोध और दिति से दैत्य उत्पन्न हुए। ऋग्वेद (१.८९.१०) के । किया-उनकी अहम्मन्यता, आदेश का सिद्धान्त एवं अनुसार अदिति निस्सीम है । वही आकाश, वही वाय, वही स्त्रियों को पूर्ण स्वाधीनता देने की नीति । उनके आदेश माता, वही पिता, वही सर्वदेवता, वही सर्व मानव, वही का अर्थ था ईश्वर का सीधा आदेश, जो उन्हें जीवन की भूत, वर्तमान और भविष्य है।
विभिन्न घड़ियों में ईश्वर से विशेष रूप में प्राप्त होता . अवितिकुण्ड तथा सूर्यकुण्ड-कुरुक्षेत्र से पाँच मील दूर दिल्ली- था। अपने अनुयायियों द्वारा इन आदेशों का पालन वे अम्बाला रेलवे लाइन पर अमीनग्राम के पूर्व में दो सरो- आवश्यक समझते थे।
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