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इन्द्रध्वज-इन्द्रप्रस्थ
प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं । युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एवं उन्नति देना, दुष्टों के विरुद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है । किन्तु यह समानता उनके सृष्टिविषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छ: अन्तर हैं : वरुण राजा है, असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन देवगण करते हैं, जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है । इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु ( विनम्र ) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरुतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है । इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है ।
पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है । पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्तिब्रह्मा, विष्णु और शिव-का महत्त्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है । वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसकी राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है । शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्रअथवा अशनि है । जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड़ जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्रायः तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं । पौराणिक इन्द्र शक्तिमान, समद्ध और विलासी
राजा के रूप में चित्रित है। इन्द्रध्वज--महान् वैदिक देवता इन्द्र का स्मारक काष्ठस्तम्भ। यह विजय, सफलता और समृद्धि का प्रतीक है। प्राचीन काल मे भारतीय राजा विधिवत् इसकी स्थापना करते थे और उस अवसर पर उत्सव मनाया जाता था; संगीत, नाटय आदि का आयोजन होता था। भरत के नाटयशास्त्र में इसका उल्लेख पाया जाता है :
अयं ध्वजमहः श्रीमान् महेन्द्रस्य प्रवर्तते । अथेदानीमयं वेदः नाट्यसंज्ञः प्रयुज्यताम् ।।
इस ध्वज की उत्पत्ति की कथा बृहत्संहिता में पायी जाती है। एक बार देवतागण असुरों से पीडित होकर उनके अत्याचार से मुक्त होने के लिए ब्रह्मा के पास गये । ब्रह्मा ने उनको विष्णु के पास भेजा । विष्णु उस समय क्षीर सागर में शेषनाग के ऊपर शयन कर रहे थे। उन्होंने देवताओं की विनय सुनकर उनको एक ध्वज प्रदान किया, जिसको लेकर एक बार इन्द्र ने असुरों को परास्त किया था । इसीलिए इसका नाम इन्द्रध्वज पड़ा। इन्द्रध्वजोत्थानोत्सव-यह इन्द्र की ध्वजा को उठाकर जलूस में चलने का उत्सव है। यह भाद्र शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है। ध्वज के लिए प्रयुक्त होने वाले दण्ड के लिए इक्षुदण्ड (गन्ना) काम में आता है, जिसकी सभी लोग इन्द्र के प्रतीक रूप में अर्चना करते हैं। तदनन्तर किसी गम्भीर सरोवर अथवा नदी के जल में उसे विसर्जित किया जाता है। ध्वज का उत्तोलन श्रवण, धनिष्ठा अथवा उत्तराषाढ़ नक्षत्र में तथा उसका विसर्जन भरणी नक्षत्र में होना चाहिए। इसका विशद वर्णन बराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय ४३), कालिका पुराण (९०) तथा भोज के राजमार्तण्ड ( सं० १०६० से १०९२ तक ) में है। यह व्रत राजाओं के लिए विशेष रूप से आचरण करने योग्य है । बुद्धचरित में भी इसका उल्लेख है । रघुवंश ( ४.३ ), मृच्छकटिक ( १०.७ ), मणिमेखलाई के प्रथम भाग, सिलप्पदिकारम् के ५ वें भाग तथा एक शिलालेख ( एपिग्राफिया इंडिका, १०.३२०; मालव संवत् ४६१ ) में भी इसका उल्लेख हुआ है। कालिकापुराण, ९०; कृत्यकल्पतरु ( राजधर्म, पृष्ठ १८४-१९०); देवीपुराण तथा राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय, पृष्ठ ४२१४२३) में भी इसका वर्णन मिलता है। इन्द्रप्रस्थ-पाण्डवों की राजधानी, जिसको उन्होंने खाण्डववन जलाकर बसाया था। नयी दिल्ली के दक्षिण में इसकी स्थिति थी, जिसके एक सीमान्त भाग को आज भी इस नाम से पुकारते है । बारहवीं शती तक उत्तर भारत के पाँच पवित्र तीर्थों में इन्द्रप्रस्थ (इन्द्रस्थानीय) की गणना थी। गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के अभिलेखों में इसका उल्लेख है। कुतुबमीनार के पास का गाँव मिहरौली 'मिहिरावली' (सूर्यमण्डल) का अपभ्रंश है। इसके पास के ध्वंशावशेष अब भी इराके धार्मिक स्वरूप को व्यक्त करते हैं । कुशिक (कान्यकुब्ज) के साथ इन्द्र
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