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________________ संन्यासी ६५७ व्यास ने तीन काल की सन्ध्याओं के अलग-अलग नाम दिये हैं : "गायत्री नाम पूर्वाह्न सावित्री मध्यमे दिने । सरस्वती च सायाह्न, सैत्र सन्ध्या त्रिषु स्मृता ।। प्रतिग्रहान्नदोषाच्च पातकादुपपातकात् । गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायन्तं त्रायते यतः ॥ सवितद्योतना। सैव सावित्री परिकीर्तिता। जगतः प्रसवित्रीत्वात् वाररूपत्वात् सरस्वती ॥" [ पूर्वाह्न में जो सन्ध्या की जाती है उसका नाम गायत्री; मध्याह्न में जो की जाती है उसका नाम सावित्री और सायं जो की जाती है उसका नाम सरस्वती है । दान में ग्रहण किये हए अन्न के दोष, पातक और उपपातक से अपने गानेवाले ( उपासना करनेवाले ) को त्राण देती है, इसलिये गायत्री कहलाती है। सविता के प्रकाश अथवा जगत् को उत्पन्न करने के कारण सावित्री नाम से प्रसिद्ध है। वाररूप होने से सरस्वती कहलाती है ।] सन्ध्या का माहात्म्य तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस प्रकार बतलाया गया है : "उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते । असावादित्यो ब्रह्मा इति ब्रह्मव सन् ब्रह्माभ्येति य एवं वेदेत्ययमर्थः ।" [उगते हुए, अस्त होते हए तथा मध्याह्न में ऊपर जाते हुए आदित्य ( सूर्य ) का ध्यान करते हुए विद्वान् ब्राह्मण सम्पूर्ण कल्याण को प्राप्त करता है । यह आदित्य ब्रह्मरूप ही है , उपासक ब्रह्म होता हुआ ब्रह्म को प्राप्त करता है, वह इसका अर्थ है । ] याज्ञवल्क्य ने और विस्तार के साथ इसका माहात्म्य बतलाया है : या सन्ध्या सा तु गायत्री द्विधा भूत्वा प्रतिष्ठिता। सन्ध्या उपासिता येन विष्णुस्तेन उपासितः ।। गवां सर्पिः शरीरस्थं न करोत्यंगपोषणम् । निःसृतं कर्मसंयुक्तं पुनस्तासां तदौषधम् ।। एवं स हि शरीरस्थः सपिवत्परमेश्वरः । विना चोपासनादेव न करोति हितं नृषु ॥ प्रणवव्याहृतिभ्याञ्च गायत्र्या त्रितयेन च । उपास्यं परमं ब्रह्म आत्मा यत्र प्रतिष्ठितः ॥ वाच्यः स ईश्वरा प्रोक्तो वाचक: प्रवणः स्मृतः । वाचकेऽपि च विज्ञाते वाच्य एव प्रसीदति ।। ८३ भर्भुवः स्वस्तथा पूर्व स्वयमेव स्वयम्भुवा । व्याहृता ज्ञानदेहेन तस्मात् व्याहृतयः स्मृताः ।। 'शद्धितत्त्व' में जनन-मरणाशौच में सन्ध्योपासना का निषेध किया गया है : सन्ध्यां पञ्चमहायज्ञं नैत्यिकं स्मृतिकर्म च । तन्मध्ये हापयेत्तेषां दशाहान्ते पुनः क्रिया ।। संन्यास-(१) चार आश्रमों में से चतुर्थ आश्रम । प्रथम तीन आश्रमों-ब्रह्मार्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ-के पालन के पश्चात् इसमें प्रवेश करने का विधान है । वामन पुराण (अ० १४) में संन्यास आश्रम का धर्म निम्नांकित प्रकार से बतलाया गया है : सर्वसङ्गपरित्यागो ब्रह्मचर्यसमन्वितः । जितेन्द्रियत्वमावासे नकस्मिन्वसतिश्चिरम् ।। अनारन्भस्तथाहारे भिक्षा विप्रे ह्यनिन्दिते । आत्मज्ञानविवेकश्च तथा ह्यात्मावबोधनम् ।। चतुर्थे चाश्रमे धर्मो ह्यस्माभिस्ते प्रकीर्तितः ।। [ सभी प्रकार की आसक्ति का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, इन्द्रियजय, एक स्थान में चिरकाल तक रहने का त्याग, कामनायुक्त कर्म का अभाव, आहार में प्रशस्त विप्र के यहाँ भिक्षावृत्ति, आत्मज्ञान का विवेक, आत्मा में ही सभी प्रकार से निष्ठा, चतुर्थ आश्रम ( संन्यास ) में यह धर्म तुमसे कहा गया है । ] कलियुग में संन्यास का निषेध बतलाया गया है : अश्वमेधं गयालम्भं संन्यासं पलपतकम् । देवरेण सुनोत्पत्ति क्लौ पञ्च विवर्जयेत् ॥ 'मलमास-तत्त्व-प्रतिज्ञा में रघुनन्दन भट्टाचार्य के अनुसार यह कलिवर्ण्य केवल क्षत्रिय और वैश्य के लिए है । दे० 'आश्रम' । संन्यासी-चतुर्थ आश्रम संन्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को संन्यासी कहते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड ( अध्याय ३३ ) में संन्यासी के धर्म का वर्णन निम्नलिखित प्रकार है : सदन्ने वा कदन्ने वा लोष्टे वा काञ्चने तथा। समबुद्धिर्यस्य शश्वत् स संन्यासीति कीर्तितः ।। दण्डं कमण्डलु रक्तवस्त्रमात्रञ्च धारयेत् । नित्यं प्रवासी नैकत्र स संन्यासीति कीर्तितः ।। शुद्धाचारद्विजान्नञ्च भुक्के लोगादिवजितः । किन्तु किञ्चिन्न याचेत् स संन्यासीति कीर्तितः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016098
Book TitleHindu Dharm Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajbali Pandey
PublisherUtter Pradesh Hindi Samsthan Lakhnou
Publication Year1978
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size27 MB
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