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अष्टावक्र-असिधारावत
अष्टावक्र-एक ज्ञानी ऋषि । इनका शरीर आठ स्थानों में वक्र (टेढ़ा) था, अतः इनका नाम 'अष्टावक्र' पड़ा । पुरा- कथा के अनुसार ये एक बार राजा जनक की सभा में गये । वहाँ सभासद् इनको देखकर हँस पड़े । अष्टावक्र क्रुद्ध होकर बोले, “यह चमारों की सभा है । मैं समझता था कि पण्डितों की सभा होगी।" जनक ने पूछा, भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया ? अष्टावक्र ने उत्तर दिया, "आपकी सभा में बैठे लोग केवल चमड़े को पह- चानते हैं, आत्मा और उसके गुण को नहीं।" इस पर सभासद् बहुत लज्जित हुए। तब अष्टावक्र ने आत्मतत्त्व का निरूपण किया ।
यह एक पण्डित का नाम भी है, जिन्होंने मानव गृह्य- सूत्र पर वृत्ति लिखी है। अष्टारचक्रवान्-जागृत अष्टकोण चक्रवाला, समाधिसिद्ध योगी, जिसकी कुण्डलिनी का अष्टदल कमल विकसित हो गया हो। एक जैन आचार्य, जिनके पर्याय हैं- (१) मञ्जुश्री, (२) ज्ञानदर्पण, (३) मञ्जभद्र, (४) मञ्जघोष, (५) कुमार, (६) स्थिरचक्र, (७) वज्रधर, (८) प्रज्ञाकाय, (९) वादिराज, (१०) नीलोत्पली, (११) महा- राज, (१२) नील, (१३) शार्दूलवाहन, (१४) धियाम्पति, (१५) पूर्वजिन, (१६) खङ्गी, (१७) दण्डी, (१८) विभूषण, (१९) बालव्रत, (२०) पञ्चचीर, (२१) सिंहकेलि, (२२) शिखावर, (२३) वागीश्वर । अष्टाविंशतितत्त्व-वङ्ग प्रदेशवासी रघुनन्दन भट्टाचार्य कृत 'अष्टाविंशतितत्त्व' सोलहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है, जिसको प्राचीनतावादी हिन्दू बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते है। इस ग्रन्थ में हिन्दुओं के धार्मिक कर्तव्यों का विशद वर्णन किया गया है। असती-दराचारिणी, स्वैरिणी, व्यभिचारिणी । उसके पर्याय हैं-(१) पुश्चली, (२) धर्षिणी, (३) बन्धकी, (४) कुलटा, (५) इत्वरी, (६) पांसुला, (७) धृष्टा, (८) दुष्टा, (९) धर्षिता, (१०) लङ्का, (११) निशाचरी, (१२) पारण्डा। असत्पथ-कुमार्ग, जो अच्छा मार्ग नहीं है, पाप का रास्ता। (१) कुपथ, (२) कापथ, (३) दुरध्व, (४) अपथ, (५) कदध्वा, (६) विपथ और (७) कुत्सितवम । असाध्वी-जो साध्वी नहीं, अपतिव्रता । असि-जो स्नान से पापों को दूर करती है [अस् + इन्।
नदी विशेष । यह काशी की दक्षिण दिशा में स्थित बरसाती नदी है। जहाँ गङ्गा और असि का संगम होता है वह अस्सीघाट कहलाता है :
असिश्च वरणा यत्र क्षेत्ररक्षाकृतौ कृते ।
वाराणसीति विख्याता तदारभ्य महामुने ।। [असि और वरणा को नगरी की सीमा पर रख दिया गया, उनका सङ्गम प्राप्त करके काशिका उस समय से वाराणसी नाम से विख्यात है।] असित-प्राचीन वेदान्ताचार्यों में एक, जो गीता के अनुसार व्यासजी के समकक्ष माने गये हैं : "असितो देवलो व्यासः" (गीता १०,१३)। असितमग-ऐतरेय ब्राह्मण में इसे कश्यप परिवार की उपाधि बताया गया है। ये जनमेजय के एक यज्ञ में सम्मिलित नहीं किये गये थे, किन्तु राजा ने जिस पुरोहित को यज्ञ करने के लिए नियुक्त किया, उस भूतवीर से असितमृग ने यज्ञ की परिचालना ले ली थी। जैमिनीय तथा षड्विंश ब्राह्मणों में असितमृगों को कश्यपों का पुत्र कहा गया है और उनमें से एक को 'कूसुरबिन्दु औद्दालकि' संज्ञा दी गयी है। असिधाराव्रत-तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना। इसमें व्रतकर्ता को आश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिकी पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त, अथवा एक वर्ष पर्यन्त, अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमिशयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए । भिन्नभिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाय । यह क्रम दीर्घ काल तक चले। बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है । दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ३.२१८, १.२५ ।
असिधारा शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की कालिदास ने रघुवंश (७७.१३) में रामवनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना बतलाया है : 'इयन्ति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ।'
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