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हिन्दू धर्मकोश
अ-स्वरवर्ण का प्रथम अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके अंकारं बिन्दुसंयुक्तं पीतविद्युत्समप्रभम् । धार्मिक प्रतीकत्व का निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :
पञ्चप्राणात्मकं वर्णं ब्रह्मादिदेवतामयम् ॥ शृणु तत्त्वमकारस्य अतिगोप्यं वरानने ।
सर्वज्ञानमयं वर्ण बिन्दुत्रयसमन्वितम् । शरच्चन्द्रप्रतीकाशं पञ्चकोणमयं सदा ।।
तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम है : पञ्चदेवमयं वर्ण शक्तित्रयसमन्वितम् ।
अंकारश्चक्षुषो दन्तो घटिका समगुह्यकः । निर्गुणं त्रिगुणोपेतं स्वयं कैवल्यमूर्तिमत् ।।
प्रद्युम्नः श्रीमुखी प्रीति/जयोनिवृषध्वजः ।। बिन्दुतत्त्वमयं वर्ण स्वयं प्रकृतिरूपिणी ॥
परं शशी प्रमाणीशः सोमबिन्दुः कलानिधिः । [शिव पार्वती से कहते हैं, हे सुमुखी ! अकार के अति
अक्रूरश्चेतना नादपूर्णा दुःखहरः शिवः । गोपनीय तत्त्व को सुनो। यह शरच्चन्द्र के समान प्रकाश
शिवः शम्भुनरेशश्च सुखदुःखप्रवर्तकः । मान और सदा पञ्चकोणमय है । यह वर्ण पञ्चदेवमय तथा
पूर्णिमा रेवती शुद्धः कन्याक्षरवियद् हविः ।। तीनों शक्तियों से समन्वित है। निर्गुण होते हुए भी तीनों
अमृताकर्षिणी शून्यं विचित्रा व्योमरूपिणी । गुणों से संयुक्त तथा स्वयं मूर्तिमान् कैवल्य है । यह वर्ण केदारो रात्रिनाशश्च कुब्जिका चैव बुबुदः ।। बिन्दुतत्त्वमय और स्वयं प्रकृतिरूपिणी शक्ति है । ]
(२) एकाक्षर कोश में इसका अर्थ परब्रह्म किया गया वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित अभिधान दिये।
है। महाभारत (१२.१७.१२६) में महेश्वर के अर्थ में
इसका प्रयोग है : अः श्रीकण्ठः सुरेशश्च ललाटश्चैकमात्रिकः ।
'बिन्दुविसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः ।' पूर्णोदरी सृष्टिमेधौ सारस्वतं प्रियंवदा ।।
[बिन्दु, विसर्ग, सुमुख, शर, सर्वायुध और सह ये महाब्राह्मी वासुदेवो धनेशः केशवोऽमृतम् ।
महेश्वर के नाम हैं। ] कीर्तिनिवृत्तिर्वागीशो नरकारिहरो मरुत् ॥ अंश-(१) द्वादश आदित्यों में से एक । महाभारत में इनकी ब्रह्मा वामाद्यजो ह्रस्वः करसुः प्रणवाद्यकः ।।
गणना इस प्रकार है:
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च । ब्रह्माणी कामरूपश्च कामेशी वासिनी वियत् ।
भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा ।। विश्वेशः श्रीविष्णुकण्ठौ प्रतिपत्तिथिरंशिनी ।। एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरेव च । अर्कमण्डलवर्णाद्यो ब्राह्मण, कामकर्षिणी ।।
जघन्यस्त्वेष सर्वेषामादित्यानां गणाधिकः ।। इस अक्षर के आकार-संयोजन में 'वर्णोद्धारतन्त्र' के
(२) पुराणों के अनुसार यदुवंश के एक राजा का नाम अनुसार कई देवताओं का निवास बतलाया गया है :
है : 'ततः कुरुवत्सः । ततश्च अनुरथः । ततः पुरुहोत्रो दक्षतः कुण्डलीभूत्वा कुञ्चिता वामतो गता। जज्ञे । ततश्च अंश इति ।' (श्रीमद्भागवत) ततोऽर्द्धसंगता रेखा दक्षोर्धा तासु शङ्करः ॥
(३) धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक रिक्थ का विभागाङ्क: विधिर्नारायणश्चैव सन्तिष्ठेत् क्रमशः सदा ।
'द्वावंशौ प्रतिपद्यत विभजन्नात्मनः पिता।' अर्द्धमात्रा शक्तिरूपा ध्यानमस्य च कथ्यते ।। (४) भगवद्गीता में जीवात्मा को ईश्वर का अंश कहा अं-(१) स्वरवर्ण का पञ्चदश अक्षर (किन्हीं के मत में यह गया है : अनुस्वार मात्र है । महेश्वर के चतुर्दश सत्रों में इसका
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।' पाठ नहीं है)। कामधेनतन्त्र में उसका माहात्म्य अंशक ( अंशभाक् )-धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक सम्पत्ति इस प्रकार है:
में अंश ( भाग ) पाने वाला दायाद :
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