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अमृतबिन्दूप निण्षद्-अम्बिका
लेकर धन्वन्तरि बाहर आये।" उसके पर्याय है पीयूष, इस मंदिर को 'दरवार साहब' (गुरु का दरबार) भी कहते सुधा, निर्जर, समुद्रनवनीतक । जल, घृत, यज्ञशेष द्रव्य, हैं। दशम गुरु गोविंदसिंह ने गुरु का पद समाप्त कर अयाचित वस्तु, मुक्ति और आत्मा को भी अमृत कहते हैं। उसके स्थान पर 'ग्रन्थ साहब' की प्रतिष्ठा की। 'ग्रन्थ
मध्ययुगीन तान्त्रिक साधनाओं में अमृत की पर्याप्त खोज साहब' ही इसमें पधराये जाते हैं । प्रतिदिन अकालबुंगा से हुई। वह रसरूप माना गया । पीछे उसके हठयोग- 'ग्रन्थ साहब' यहाँ विधिवत् लाये जाते और रात्रि को परक अर्थ किये गये। सिद्धों ने उसे महासुख अथवा वापस किये जाते हैं । इस तीर्थ में हरि की पौडी, अड़सठ सहजरस माना । तान्त्रिक क्रियाओं में वारुणी ( मदिरा) तीर्थ, दुखभंजन वेरी आदि अन्य पवित्र स्थान हैं। इसका प्रतीक है । चन्द्रमा से जो अमत झरता है उसे जलियान वाला बाग में जनरल ओडायर द्वारा किये गये हठयोग में सच्चा अमृत कहा गया है । सन्तों ने तान्त्रिकों नरमेध के कारण अमृतसर राष्ट्रीय तीर्थ भी बन गया है । की वारुणी का निषेध कर हठयोगियों के सोमरस को गुरु नानक विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् यह स्वीकार किया। वैष्णव भक्तों ने भक्ति को ही रसायन प्रसिद्ध शिक्षाकेन्द्र के रूप में भी विकसित हो रहा है। अथवा अमृत माना।
अमृतानुभव-महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और नाथ सम्प्रदाय अमृतबिन्दु उपनिषद-परवर्ती छोटी उपनिषदें, जो प्रायः के आचार्य श्री ज्ञानेश्वर कृत त्रयोदश शताब्दी का दैनन्दिन जीवन की आचार नियमावली सदृश हैं, दो मराठी पद्य में रचित, यह अत शैव दर्शन का अनूठा समूहों में बाँटी जा सकती हैं-एक संन्यासपरक और ग्रन्थ है। दूसरा योगपरक । अमतबिंदु उपनिषद् दूसरी श्रेणी में अमृताहरण-गरुड । वे अपनी माता विनता को सपत्नी की में आती है तथा चूलिका का अनुसरण करती है।
दासता से मुक्त करने के लिए सब देवताओं को जीतकर और अमृतसर-भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। अमृत की रक्षा करने वाले यन्त्रों को भी लाँधकर स्वर्ग सिक्ख संप्रदाय का तो यह प्रमुख तीर्थ और नगर है । यह से अमृत ले आये थे। पुराणों में यह कथा विस्तार से वर्तमान पंजाब के पश्चिमोत्तर में लाहौर से बत्तीस मील वणित है। पूर्व स्थित है। अमृतसर का अर्थ है 'अमृत का सरोवर।' यह अम्बरनाथ-कोकण प्रदेश स्थित शैव तीर्थ । यहाँ शिलाहार प्राचीन पवित्र स्थल था, परन्तु सिक्ख गुरुओं के संपर्क नरेश माम्बाणि का बनवाया, कोण प्रदेश का सबसे से इसका महत्त्व बहुत बढ़ा। यहाँ सरोवर के बीच में प्राचीन, मंदिर है। इस मन्दिर की कला उत्कृष्ट है। सिक्ख धर्म का स्वर्णमंदिर है। सिक्ख परम्परा के अनुसार अम्बरनाथ शिव का दर्शन करने दूर-दूर से वहत लोग सर्वप्रथम गुरु नानक (१४६९-१५३८ ई०) ने यहाँ यात्रा आते हैं। की। तृतीय गुरु अमरदास भी यहाँ पधारे। सरोवर का अम्बुवाची-वर्षा के सूचक लक्षणों से युक्त भूमि । पृथ्वी के विस्तार चतुर्थ गुरु रामदास के समय में हुआ। पंचम गुरु देवी रूप के दो पहलू है; एक उदार दूसरा विकराल । अर्जुन (१५८८ ई०) के समय देवालयों का निर्माण प्रारम्भ
उदार पक्ष में देवी सभी जीवधारियों की माता और भोजन हुआ । परवर्ती गुरुओं का ध्यान इधर आकृष्ट नहीं हुआ।
देने वाली कही जाती है। इस पक्ष में वह अनेकों नामों बीच-बीच में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इस स्थान को से पुकारी जाती है, यथा भूदेवी, धरतीमाता, वसुन्धरा, कई बार ध्वस्त और भ्रष्ट किया। किन्तु सिक्ख धर्माव- अम्बुवाची, वसुमती, ठकुरानी आदि। लम्बियों ने इसकी पवित्रता सुरक्षित रखी और इसका अम्बा भवानी-अम्बा भवानी की पूजा महाराष्ट्र में १७ वीं पुनरुद्धार किया । १७६६ ई० में वर्तमान मंदिर का पुनः
शताब्दी में अधिक प्रचलित थी। गोन्धल नामक नृत्य निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर शृंगार और
देवी के सम्मान में होता था तथा देवी सम्बन्धी गीत भी विस्तार होता गया।
साथ साथ गाये जाते थे। नगर में पाँच सरोवर हैं-अमृतसर, संतोषसर, अम्बिका-शिवपत्नी पार्वती के अनेकों नाम तथा स्वरूप रायसर, विवेकसर तथा कमलसर ( कौलसर)। इनमें हैं। हिन्दू विश्वासों में उनका स्थान शिव से कुछ ही घटअमतसर प्रमुख है, जिसके बीच में स्वर्णमंदिर स्थित है। कर है, किन्तु अर्धनारीश्वर रूप में हम उन्हें शिव की
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