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अनङ्गत्रयोदशी-अनन्तनाग
आदि कर्मों के प्रतीक है। उसके ध्वज पर मत्स्य (मकर 'सर्वतोभद्र मण्डल' का निर्माण, उस पर कलश की अथवा मत्स्यकेतु) है, जो 'प्रजनन' का प्रतीक है।
स्थापना, जिस पर एक नाग जिसके सात फण हों और अनङ्ग की एक दुसरी पौराणिक व्याख्या कालिदास के जो दर्भ का बना हो, रखा जाता है । इसके समक्ष १४ 'कुमारसंभव' काव्य में पायी जाती है। कामदेव पहले गाँठों से युक्त डोरक रखा जाता है। कलश के ऊपर अङ्गवान् (सशरीर) था । शिव को जीतने के लिए पार्वती डोरक की पौराणिक मन्त्रों एवं पुरुषसूक्त के पाठ के साथ के समक्ष जब वह अपना बाण उन पर छोड़ना चाहता था, १६ उपचारों से पूजा की जाती है। डोरक के चतुर्दश तब शिव के तीसरे नेत्र की क्रोधाग्नि से वह जलकर भस्म देवता, विष्णु से लेकर वसु तक, जगाये जाते हैं। फिर हो गया :
अङ्गों की पूजा की जाती है, जो पाद से आरम्भ होकर क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति। ऊपर तक पहुँचती है । मन्त्र यह है : 'अनन्ताय नमः पादौ तावहि वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार ।।
पूजयामि' । फिर एक अञ्जलि पुष्प विष्णु के मन्त्र के साथ इसके पश्चात् मदन (कामदेव) अनङ्ग (शरीररहित) हो ।
चढ़ाये जाते हैं। फिर अनन्त की प्रार्थना सहित 'डोरक' गया । परन्तु उसकी शक्ति पहले से अधिक हो गयी। वह
को बाहु पर बाँधना, पुराने 'डोरक' को त्यागना आदि अब सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गया ।
क्रियाएं की जाती हैं। अनङ्गत्रयोदशी-(१) मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी से प्रारम्भ इस व्रत में नमक का परित्याग करना पड़ता है। कर एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। इसमें शम्भु विश्वास किया जाता है कि इस व्रत को १४ वर्ष करने से की पूजा होती है, उनको पञ्चामृत से स्नान कराया जाता 'विष्णुलोक' की प्राप्ति होती है। है । अनङ्ग को शिवजी का स्वरूप माना जाता है और अनन्तज्ञान-गौतमलिखित 'पितमेधसूत्र' पर अनन्तज्ञान भिन्न-भिन्न नामों से, भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा नैवेद्य से ने टीका लिखी है। कुछ विद्वानों के अनुसार ये गौतम उसका भी पूजन किया जाता है ।।
न्यायसूत्र के रचने वाले महर्षि गौतम ही हैं। (२) किसी आचार्य के अनुसार चैत्र और भाद्र शुक्ल अनन्त तृतीया-भाद्रपद, वैशाख अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को यह व्रत होता है। एक बार अथवा वर्ष भर को तृतीया से प्रारम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इसका व्रत प्रत्येक मास बारह भिन्न-भिन्न नामों से चित्रफलक पर। किया जाता है। प्रत्येक मास में विभिन्न पुष्पों से गौरीपूजा होती है। दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड, २. ८-९; पूजन होता है। दे० हेमाद्रि का व्रतखण्ड, ४२२-४२६; पुरुषार्थचिन्तामणि, २२३; निर्णय सिन्धु, ८८।
पद्मपुराण; कृत्यरत्नाकर, २६५-२७० । अनङ्गदानव्रत-वेश्या के लिए हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु अनन्त द्वादशी-इसके व्रत में भाद्र शुक्ल द्वादशी से प्रारम्भ नक्षत्र युक्त रविवासरीय व्रत । इसमें विष्णु तथा कामदेव कर एक वर्ष पर्यन्त हरिपूजा की जाती है। दे० विष्णुका पूजन होता है। दे० कामदेव की स्तुति के लिए धर्मोत्तर पुराण, ३-२१४-१-५; हेमाद्रि, व्रतखण्ड १, आपस्तम्बस्मृति, श्लोक १३; मत्स्यपुराण, अध्याय ७० १२००-१२०१ (विष्णुरहस्य)। पद्मपुराण, २३, ७४. १४६ ।।
अनन्तदेव-जीवनकाल १७वीं शताब्दी । इनके पिता अनन्त-जिसका विनाश और अन्त नहीं होता। इसका 'आपदेव' थे जिन्होंने 'मीमांसान्यायप्रकाश' (दूसरा नाम पर्याय शेष भी है । बलदेव को भी अनन्त कहा गया है। आपोदेवी) की रचना की थी। अनन्तदेव रचित 'स्मृतिअव्यक्त प्रकृति का नाम भी अनन्त है, जिस पर विष्णु कौस्तुभ' प्रकरण ग्रन्थ है, जो मीमांसा के सिद्धान्तों का भगवान शयन करते हैं । इसीलिए उनको 'अनन्तशायी' प्रयोग बतलाता है। देश के विभिन्न भागों में इस ग्रन्थ भी कहते हैं।
का प्रचार है। अनन्तचतुर्दशी-भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी । भविष्य पुराण के अनन्तदेव (भाष्यकार)-'वाजसनेयी संहिता' के भाष्यकारों अनुसार इसका व्रत १४ वर्ष तक करना चाहिए । अग्नि- में अनन्तदेव भी एक हैं। पुराण, भविष्योत्तर पुराण एवं तिथितत्त्व आदि में अनन्त- अनन्तनाग-कश्मीर का एक तीर्थ, जो पहलगाँव से सात पूजा का विवरण है। पूजा में सर्वप्रथम संकल्प, फिर मील पर स्थित है। यहाँ डाकबंगला है किन्तु मेले के
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