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अगम्या-अगस्ति
में कहा है। दूसरे की भार्या अगम्या है ऐसा वेदज्ञों ने कहा है । हे सुन्दरी ! सामान्य नियम कह दिया है, अब विशेष नियम सुनो। जो जो स्त्रियाँ समागम के योग्य नहीं हैं उनके विषय में कहता हूँ । सुनो-पतिव्रते ! शूद्रों का ब्राह्मणपत्नी के साथ और ब्राह्मण का शूद्र स्त्री के साथ संगम वजित है। ऐसा करने वाला लोक और वेद में निन्द्य कहा गया है। ब्राह्मणी के साथ समागम करनेवाला शूद्र सौ ब्रह्महत्याओं का फल पाता है। शूद्र के साथ समागम करने वाली ब्राह्मणी शीघ्र कुम्भीपाक नरक को । जाती है। शूद्रा के साथ संभोग करने वाला ब्राह्मण शूद्रापति कहलाता है। वह जातिभ्रष्ट हो जाता है। उसे चाण्डाल से भी अधम कहते हैं। उसके द्वारा किया गया पिण्डदान विष्ठा के समान और तर्पण मत्र के सदश होता है। पितरों और देवताओं के पूजन में भी यही होता है। सन्ध्या, पूजा और तप द्वारा करोड़ों जन्मों में सञ्चित ब्राह्मण का पुण्य शूद्रा स्त्री के साथ सम्भोग करने से नष्ट हो जाता है इसमें संशय नहीं है। मदिरा पीने वाला, वेश्यागामी के गृह में भोजन करने वाला, शूद्रा का पति तथा एकादशी के दिन भोजन करने वाला ब्राह्मण निश्चित ही कुम्भीपाक नरक प्राप्त करता है।
गुरु-स्त्री, राजा की स्त्री, सौतेली माता तथा उसकी कन्या, पुत्री, पुत्र की स्त्री, गर्भवती स्त्री, सास, बहिन, भाई की पत्नी, शिष्या, भतीजी, शिष्य की पत्नी, भांजी, भतीजे की स्त्री, इन्हें ब्रह्मा ने सर्वथा समागम के अयोग्य कहा है । जो अधम पुरुष इनमें से किसी एक अथवा अनेक के साथ समागम करता है वह मातृगामी कहा गया है और उसे सौ ब्रह्महत्याओं का पाप होता है । वह किसी प्रकार धर्मकार्य नहीं कर सकता । वह अस्पृश्य है और लोक-वेद में निन्दित माना गया है । वह कुम्भीपाक नरक को जाता है और महापापी है।] अगस्ति (अगस्त्य)-कुछ वैदिक ऋचाओं के द्रष्टा ऋषि (ऋग्वेद १.१६५. १९१) । ऋग्वेद में कहीं-कहीं इनका उल्लेख है, विशेष कर इनके आश्चर्यजनक प्रादुर्भाव एवं पत्नी लोपामुद्रा के सम्बन्ध के बारे में चर्चा है। ये दक्षिण भारत के संरक्षक ऋषि थे, जहाँ आज भी इनसे सम्बन्धित अनेक पवित्र स्थान हैं । प्रयाग के समीप यमुना-तट पर इनकी कुटी का स्मृति-अवशेष है ।
इनकी उत्पत्ति मित्र एवं वरुण के द्वारा कुम्भ (कलश)
से मानी जाती है। दो पिताओं के कारण इन्हें 'मैत्रावरुणि' कहते हैं एवं कलश से उत्पन्न होने के कारण ये 'कुम्भसम्भव' तथा 'घटयोनि' कहलाते हैं । अगस्त्य का एक वैदिक नाम 'मान्य' भी है क्योंकि कुम्भ से जन्म लेने के बाद वे 'मान' से 'मित' (मापे गये) हुए थे।
संन्यासी के रूप में वृद्धावस्था में अपनी और पितरों की नरक से रक्षा करने के लिए अगस्त्य को एक पुत्र उत्पन्न करने की कामना हुई । अतएव उन्होंने तपोबल से एक स्त्री लोपामुद्रा की सृष्टि सभी जीवों के सर्वोत्तम भागों से की तथा उसे विदर्भ के राजा को कन्या के रूप में सौंप दिया। अलौकिक सौन्दर्य होते हए भी राजा के भय से किसी का साहस उसका पाणिग्रहण करने का नहीं हआ । अन्त में अगस्त्य ने उस कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव राजा से किया, मुनि के क्रोध के भय से राजा ने उसे मान लिया । लोपामुद्रा अगस्त्य मुनि की पत्नी बनी। गङ्गाद्वार में तपस्या करने के उपरान्त जब अगस्त्य ने अपनी पत्नी का आलिंगन करना चाहा तो उसने तब तक अस्वीकार किया जब तक उसे उसके पिता के घर के समान रत्नाभूषणों से न विभूषित किया जाय । लोपामुद्रा की इस इच्छापूर्ति के लिए अगस्त्य कई राजाओं के पास धन के लिए गये, किन्तु उनके कोषों में आय-व्यय समान था और वे सहायता न दे सके। तब वे मणिमती के दानव राजा इल्वल के यहाँ गये, जो अपने धन के लिए प्रसिद्ध था। इल्वल ब्राह्मणों का शत्रु था। उसका वातापी नामक भाई था। किसी ब्राह्मण के आगमन पर इल्वल अपने भाई वातापी को मारकर उसका मांस ब्राह्मण को खिलाता था। जब ब्राह्मण भोजन कर चुकता तो वह जादू की शक्ति से वातापी को पुकारता जो ब्राह्मण का पेट फाड़कर निकल आता । इस प्रकार अपने शत्रु ब्राह्मणों का वह नाश किया करता था । दानव ने अपना प्रयोग अगस्त्य पर भी किया किन्तु उसकी जादूशक्ति वातापी को जीवित न कर सकी । अगस्त्य उसको पहले ही पचा चुके थे। इल्वल ने क्रोधित होने के कारण अगस्त्य को धन देने से इनकार किया। ऋषि ने अपने नेत्रों से अग्नि उत्पन्न कर उसको भस्म कर दिया। अन्ततोगत्वा ऋषि को लोपामद्रा से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम 'दृधस्यु इध्मवाह' पड़ा । दे० 'इल्वल'।
अगस्त्य का दूसरा प्रसिद्ध कार्य नहष को अभिशप्त कर
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